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सोमवार, 26 मई 2014

समाधि के सप्‍त द्वार (ब्‍लवट्स्‍की)-प्रवचन--04

सम्यक जीवन—प्रवचन-चौथा

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; प्रातः 11 फरवरी 1973,

शिक्षक अनेक हैं, लेकिन परम गुरु एक ही है--जिसे आलय या विश्वात्मा कहते हैं। उस परम सत्ता में ऐसे ही जी, जैसे उसकी किरण तुझमें जीती है। और प्राणी मात्र में ऐसे जी, जैसे वे परम सत्ता में जीते हैं।
मार्ग की देहली पर खड़ा होने के पूर्व, अंतिम द्वार को पार करने के पहले तुझे दोनों को एक में निमज्जित करना है और व्यक्ति-सत्ता को परम-सत्ता के लिए त्यागना है। और इस तरह दोनों के बीच में जो पथ है, जिसे अंतःकरण कहते हैं, उसे नष्ट कर डालना है।
तुझे धर्म को, उस कठोर नियम को उत्तर देना होगा, जो तुझसे तेरे पहले ही कदम पर पूछेगा:
उच्चाशी, क्या तूने सभी नियमों का पालन किया है?
क्या तूने अपने हृदय और मन को समस्त मनुष्यों के महान हृदय और मन के साथ लयबद्ध किया है? जैसे पवित्र नदी के गर्जन में प्रकृति की सभी ध्वनियां प्रतिध्वनित होती हैं, वैसे ही उस स्रोतापन्न के हृदय को भी, जो नदी में प्रविष्ट होगा, उन सबकी प्रत्येक आह और विचार को प्रतिध्वनित करना होगा, जो जगत में जीते और सांस लेते हैं।

हृदय को गुंजारित करने वाली वीणा से शिष्य की तुलना की जा सकती है, उसके नाद से मनुष्यता की तुलना और उस बजाने वाले के हाथ से महाविश्वात्मा की तालमई श्वास की तुलना की जा सकती है। जो तार गायक के स्पर्श के साथ मधुर लय से बजने से इनकार करता है, वह टूट जाता है और फेंक दिया जाता है। ऐसे ही हैं--शिष्यों व श्रावकों के सामूहिक मन। उन्हें उपाध्याय के परमात्मा के साथ एक हुए मन के साथ लयबद्ध होना है अन्यथा वे मार्ग से टूट जाएंगे।
ऐसा ही वे करते हैं, जो छाया के बंधु, अपनी आत्मा के हंता और दाददुगपा जाति के नाम से पुकारे जाते हैं।
ओ प्रकाश के प्रत्याशी, क्या तूने अपनी सत्ता को मनुष्यता की महान पीड़ा के साथ एक कर लिया है?
क्या ऐसा तूने किया है?तू प्रवेश कर सकता है। तो भी अच्छा है कि शोक के दुर्गम मार्ग पर पांव रखने के पहले तू उसके ऊंच-नीच को, उसकी कठिनाइयों को समझ ले।

हुत सी बातें समझने जैसी हैं।
जैसे रात पूर्णिमा का चांद निकले और अनंत-अनंत सरोवरों में उसके प्रतिबिंब बनें; हर सरोवर का प्रतिबिंब अपना है और हर सरोवर के प्रतिबिंब का अपना व्यक्तित्व है--लेकिन वे सारे प्रतिबिंब एक ही चांद के हैं। जो प्रतिबिंब में उलझ जाएगा, वह शायद उस चांद को भी भूल जाए, जिसका कि वह प्रतिबिंब है। और जो प्रतिबिंब से आंखें ऊपर उठाएगा, वह उस चांद को देख पाएगा, जो कि मूल है। क्योंकि प्रतिबिंब तो उसकी प्रतिछवियां हैं।
गुरु एक है, शिक्षक अनेक हैं।
वह जो जीवन का सत्य है, वह एक है; लेकिन उसकी शिक्षाएं अनेक हैं।
वह जो मंदिर है रहस्य का, वह एक है, लेकिन उसके द्वार अनेक हैं।
अनंत-अनंत हैं मार्ग उस तक पहुंचने के; लेकिन पहुंचने पर एक ही शेष रह जाता है।
मंजिल एक है।
और शिक्षकों में भी जो झलक दिखाई पड़ती है, वह उस एक की ही है। सभी शिक्षक सरोवर की भांति हैं। वह एक महागुरु ही उनमें प्रगट होता है। ऐसा भी हो सकता है कि शिक्षक एक-दूसरे के विपरीत हों; फिर भी जो उनमें प्रगट होता है; वह एक ही है।
बुद्ध महावीर के विपरीत दिखाई पड़ते हैं। महावीर कृष्ण के विपरीत दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण और क्राइस्ट का क्या तालमेल हो सकता है? मुहम्मद महावीर को साथ-साथ सोचना भी कठिन है। शिक्षक अनेक हैं। न केवल अनेक हैं, बल्कि आपस में विपरीत भी दिखाई पड़ सकते हैं। लेकिन जो महागुरु है, वह एक है। जो महावीर में झलका है, जो मुहम्मद में झलका है, कृष्ण और क्राइस्ट में जिसका प्रतिबिंब बना है, वह एक है। ये प्रतिबिंब इतने अलग होंगे ही। क्योंकि प्रतिबिंब जिस सरोवर में बनता है, उसका व्यक्तित्व समाहित हो जाता है। और इन प्रतिबिंबों में विरोध होगा, यह भी सुनिश्चित है, क्योंकि व्यक्तित्व भिन्न हैं और विरोधी हैं।
मीरा नाच सकती है, महावीर के नाचने की कल्पना करनी कठिन है। सोचना
भी कि महावीर नाच रहे हैं, बड़ा मुश्किल होगा। और मीरा को बुद्ध की भांति शांत बिठा रखना भी उतना ही मुश्किल है। मीरा का व्यक्तित्व है, जो नाच सकता है। और जब सत्य की किरण उस व्यक्तित्व पर चोट करेगी, तो वह व्यक्तित्व नाचेगा। महावीर का व्यक्तित्व है, जो पत्थर की भांति मौन हो सकता है। और जब वह सत्य की किरण उस व्यक्तित्व पर पड़ेगी, तो वह पत्थर की भांति मौन हो जाएगा। महावीर की पत्थर की प्रतिमाएं देखी हैं? जितनी वे मौन हैं, उससे भी ज्यादा मौन यह आदमी था। कोई हलन-चलन नहीं।
महावीर और मीरा को साथ-साथ रख लें, तो बड़ी मुश्किल होगी। विपरीत मालूम पड़ते हैं। एक बिलकुल चुप होकर बैठ गया है और एक पूरी तरह गूंज गया है, गूंज उठा है। यह व्यक्तित्व का भेद है। मीरा का व्यक्तित्व तैयार है नाचने को, तो सत्य का जब अनुभव होगा, तो वह नृत्य से प्रगट होगा। क्योंकि प्रगट करनेवाला तो वैसे ही प्रगट कर सकता है, जिसकी उसकी तैयारी है।
ऐसा समझें कि अगर इस पास की झील के करीब कोई चित्रकार जाए और एक कवि जाए और एक संगीतज्ञ जाए और एक नर्तक जाए; तो यह झील तो एक होगी, लेकिन उस झील का सौंदर्य जब छुएगा कवि को तो गीत निर्मित होगा और जब इस झील का सौंदर्य छुएगा चित्रकार को तो गीत निर्मित नहीं होगा, चित्र निर्मित होगा। और जब इस झील का सौंदर्य छुएगा नर्तक को तो घूंघर की आवाज सुनाई पड़ेगी और इस झील की आत्मा जब स्पर्श करेगी संगीतज्ञ को तो वीणा के तार झनझना उठेंगे। वह झील एक है, पर जो उसके पास आए हैं, उनका अपना-अपना व्यक्तित्व है। और वही व्यक्तित्व अभिव्यक्ति करेगा।
सत्य की अनुभूति एक है, अभिव्यक्तियां अनेक हैं।
इसलिए इस सूत्र में कहा है, अनेक हैं शिक्षक, लेकिन वह महागुरु एक है। और जिस शिक्षक में उसकी भनक मिल जाए, जिस शिक्षक में आपको उसकी झलक मिल जाए, वही शिक्षक आपके लिए द्वार है। फिर आप अन्य शिक्षकों की चिंता छोड़ देना। क्यों? क्योंकि आपको भी जिस शिक्षक में उसकी भनक मिलती है, उसका यही कारण है। यह नहीं कि उस शिक्षक में सत्य है और दूसरों में नहीं। उसका भी कारण यही है कि उस शिक्षक की जो अभिव्यक्ति है, वह आपके व्यक्तित्व के अनुकूल है। इसलिए उस शिक्षक में आपको गुरु दिखाई पड़ता है। उस शिक्षक की अभिव्यक्ति, और आपके व्यक्तित्व में कोई तालमेल है। तो महावीर भी निकलते हैं उसी गांव से, और उसी गांव से बुद्ध भी निकलते हैं लेकिन कोई बुद्ध के चुंबक से खिंच जाता है। कोई महावीर के चुंबक से खिंच जाता है, कोई है जो महावीर का स्पर्श भी नहीं कर पाता, महावीर से उसका कोई मेल नहीं बनता। ऐसा ही नहीं, महावीर के विपरीत भी वह चला जाता है। और वही आदमी बुद्ध से खिंच जाता है और बुद्ध का जादू उसे पकड़ लेता है। कोई दूसरा उसी गांव में बुद्ध से वंचित रह जाता है। आपका व्यक्तित्व भी जब किसी के साथ लयबद्ध हो जाता है और जब आप अनुभव करते हैं एक ही स्वाद का, जो महावीर को अनुभव हुआ है स्वाद का, अगर आपकी जीभ भी उस भांति की है कि उस स्वाद को ले सके, तो ही महावीर आपको खींच पाते हैं। जो शिक्षक आपको खींचता है, वह अपने संबंध में तो कुछ कहता ही है, आपके संबंध में और भी ज्यादा कहता है। जिससे आप खिंचते हैं, उससे आपका तालमेल है, उससे आपकी आत्मिक निकटता है। आप उसके लिए हैं, वह आपके लिए है।
प्रेमी अक्सर एक-दूसरे से कहते हैं कि ऐसा लगता है कि तू मेरे लिए ही निर्मित हुआ है, या तू मेरे लिए ही निर्मित हुई है; जैसे इस पूरी पृथ्वी पर तेरी ही तलाश में था, और जब तक तू न मिल जाती या तू न मिल जाता, तब तक अधूरापन और अभाव लगता। इससे भी गहरी। यह तो दो शरीरों की या अगर बहुत गहरा जाए प्रेम, तो दो मनों के तालमेल की खबर है। इससे भी गहरी खबर शिष्य और गुरु के बीच घटित होती है--आत्मा के मिलन की। इसलिए हमने उसे अलग नाम दिया है श्रद्धा का। वह प्रेम का चरम शिखर है। उससे ऊपर प्रेम के जाने का कोई उपाय नहीं, जहां दो आत्माएं अनुभव करती हैं--एक सी गंध, एक सा स्वाद, एक सा स्वर, जहां दो आत्माओं की वीणा
एक साथ तरंगित होती है और एक साथ बजने लगती है।
जिस शिक्षक से आपके हृदय के तार झनझना जाएं, वह शिक्षक आपके लिए गुरु हो गया।
सभी शिक्षक आपके गुरु नहीं हैं। और इसके प्रति बहुत सावधान होना भी जरूरी है। क्योंकि हम अपने द्वंद्व-ग्रस्त मन में पच्चीस शिक्षकों के बीच घूम सकते हैं। और बहुत विपरीत स्वरों को अपने भीतर इकट्ठा कर ले सकते हैं। उससे हमारे संगीत के जन्मने में बाधा पड़ेगी। उससे हमारे भीतर व्यर्थ के द्वंद्व इकट्ठे हो जाएंगे। इसलिए उचित है कि खूब छानबीन करके और छानबीन, ध्यान रखें गुरु की न करें; छानबीन इस बात की करें कि आपका किससे तालमेल बैठता है। यह बहुत अलग बात है। हम छानबीन करते हैं इस बात की कि कौन गुरु सच्चा है। यह बात मूल्यवान नहीं है। और आप कैसे पता लगाएंगे कि कौन गुरु सच्चा है? सत्य की क्या कसौटी है आपके पास? किसके पास है? अच्छा हो कि खोजबीन इस बात की करें कि किससे मेरे हृदय के तार मेल खाते हैं। वह सच्चा हो या न हो, आप चिंता न करें। अगर आपके हृदय के तार तालमेल खाते हैं, तो वह कोई भी हो, वह आपके लिए महागुरु का द्वार बन जाएगा। और कभी-कभी टेढ़े-मेढ़े पत्थर भी उसका द्वार बन जाते हैं, और कभी-कभी बहुत सुंदर मूर्तियां भी उसका द्वार नहीं बनती हैं। यह सवाल मूर्ति और पत्थर का नहीं है; अनगढ़ पत्थर और गढ़ी गई मूर्ति का नहीं है। यह सवाल आपके और उसके बीच तालमेल निर्मित होने का है।
और जैसे प्रेम अंधा होता है, वैसे ही श्रद्धा भी अंधी होती है। अंधे का मतलब यह नहीं कि आंख नहीं होती। अंधे का मतलब यह है कि और ही तरह की आंख होती है, तर्क की आंख नहीं होती। न तो कोई अपनी प्रेमिका को खोज सकता है तर्क से--और कभी कोई खोजने निकलेगा, तो बिना प्रेमिका के रह जाएगा। और न कोई अपने गुरु को खोज सकता है तर्क से--वह भी प्रेम का ही मामला है। और अगर आपको लगता है कि किसी गुरु का तर्क आपसे बहुत मेल खाता है, इसलिए आपने उसको चुन लिया, तो आप समझना कि यह भी तर्क की खोज नहीं है। यह भी आपके भीतर की वीणा के स्वर का तालमेल है। यह भी आपके तर्कनिष्ठ होने के कारण हो रहा है। और यह आपकी तर्कनिष्ठा तर्कातीत है। इसलिए आप कोई तर्क नहीं दे सकते। आपको किसी के तर्क रुचिकर मालूम पड़ रहे हैं, इसलिए आपने चुन लिया है, तो यह आपकी तर्क के प्रति जो रुचि है, यह भी वैसी ही अंधी है, जैसे सभी रुचियां अंधी होती हैं। एक ही बात स्मरण रखनी जरूरी है कि जहां आपका तालमेल बैठ जाए, जहां आपकी लयबद्धता निर्मित हो जाए, वहीं से आपके लिए महागुरु का द्वार है।
कभी-कभी कोई साधारण व्यक्ति भी आपके लिए गुरु हो सकता है और कोई असाधारण व्यक्ति भी गुरु न हो। यह उसका गुरु होना आप पर बहुत कुछ निर्भर है। आपका हृदय अनुगुंजित हो उठे। आप अनुभव करें कि कोई विराट आपको स्पर्श कर रहा है। आपको प्रतीत हो कि मिल गया वह व्यक्ति, जिसमें से प्रवेश हो सकता है और वह व्यक्ति तो बहुत शीघ्र छूट जाएगा। क्योंकि सभी गुरु फ्रेम की तरह हैं। वह चित्र नहीं है, वह सिर्फ फ्रेम है, वह चौखटा है, जिसमें चित्र मढ़ा गया है। चित्र तो सदा-ही महागुरु का है। शिक्षक तो फ्रेम है। लेकिन हमारी पहली पहचान फ्रेम से ही होती है और जब फ्रेम से हमारा तालमेल बैठ जाता है, तो ही उसमें छिपे हुए चित्र का हमें दर्शन होना शुरू होता है। "शिक्षक अनेक हैं, लेकिन परमगुरु एक ही है--जिसे आलय या विश्वात्मा कहते हैं। उस परम सत्ता में ऐसे ही जी, जैसे उसकी किरण तुझ में जीती है। और प्राणीमात्र में ऐसे जी, जैसे वे परम सत्ता में जीते हैं।
"मार्ग की देहली पर खड़ा होने के पूर्व, अंतिम द्वार को पार करने के पहले तुझे दोनों को एक में निमज्जित करना है और व्यक्ति-सत्ता को परम सत्ता के लिए त्यागना है। और इस तरह दोनों के बीच जो पथ है, जिसे अंतःकरण कहते हैं उसे नष्ट कर डालना है'
यह सूत्र अत्यंत क्रांतिकारी है।
यह सूत्र कहता है: "अंतिम द्वार को पार करने क पहल, दोनों को एक में निमज्जित करना है। व्यक्ति-सत्ता को परम सत्ता के लिए त्या
भी कहा है कि अगर तुम पूरी तरह ही मिटने को राजी हो, तो ही धर्म की तरफ कदम उठाना पूरी तरह। हमें लगता है कि शरीर मिट जाएगा, आत्मा तो रहेगी। सब कुछ मिट जाएगा, लेकिन यह मेरा भीतरी सत्व तो रहेगा। लेकिन बुद्ध ने कहा है इसको भी मिटाने की तैयारी हो, तो ही धर्म की तरफ चलना। जिस दिन तुम्हारी तैयारी ऐसी हो कि दीया बुझ जाता है फिर उसकी लौ का कोई पता नहीं चलता--ऐसे ही जब तुम बुझने को राजी हो जाओ, तभी।
जब दीया बुझता है, तो लौ कहां खो जाती है?
विराट में एक हो जाती है। फिर तब उसका कोई होना नहीं है। सबके होने के साथ एक हो जाती है। मिटती भी है और नहीं भी मिटती। मिटती है लौ की तरह, नहीं मिटती प्रकाश की तरह है। जो महापुंज है जगत में, उसके साथ एक हो जाती है। जब बरफ का टुकड़ा पिघलता है, तो मिटता भी है, नहीं भी मिटता। मिटता है व्यक्ति की तरह, बचता है सागर की तरह। हमारे मिटने में ही हमारे होने की संभावना है।
जीसस ने कहा है: जब तक तुम एक बीज की तरह जमीन में न गिरो और जब तक तुम एक बीज की तरह जमीन में सड़ो नहीं, गलो नहीं, मिटो नहीं, तब तक तुम्हारा कोई भविष्य नहीं है। गिरो, मिटो, समाप्त हो जाओ। यह थोड़ा उल्टा लगता है कि मिटने में ही हमारा होना है। न हो जाने में ही हमारा परम अस्तित्व प्रगट होगा।
यह सूत्र कहता है: व्यक्ति-अस्तित्व की तरह, व्यक्ति-सत्ता की तरह मिटो, ताकि परम सत्ता के साथ एक हो जाओ। अपनी क्षुद्रता में मिटो, ताकि विराट में एक हो जाओ।
बड़ा सस्ता सौदा है, लेकिन बड़ा कठिन है। सौदा यह है कि क्षुद्र को छोड़ो और विराट को पा लो।
लेकिन बड़ा कठिन है, क्योंकि क्षुद्र के साथ हम इतने एक हो गए हैं कि ऐसा लगता है क्षुद्र का मिटना, हमारा ही मिटना हो जाए। और बीज भी जब मिटता होगा, अगर सोच सके तो सोचता
होगा कि नष्ट हुआ, मौत हुई। उसे कैसे पता होगा कि वृक्ष का होगा जन्म, आकाश में उठेगा, फैलेंगी शाखाएं दूर; नाचेगा हवाओं में, वर्षा में, धूप में; आनंदित होगा, खिलेंगे फूल; छिपा है जो भीतर सुगंध का खजाना, वह फैलेगा हवाओं में दूर-दिगंत तक। उसे कुछ भी पता नहीं। और एक बीज मिटेगा, तो करोड़ बीज पैदा होंगे, यह भी उसे पता नहीं। मिटते बीज को इतना ही पता है कि मैं मिट रहा हूं। जो होगा उसका उसे कुछ भी पता नहीं।
इसलिए अगर मिटता बीज भी डरता हो, घबराता हो, प्रार्थना करता हो कि हे प्रभो, मुझे मत मिटा, मुझे बचा, मैं मर तो न जाऊंगा, यह मेरी मृत्यु आती है। अगर गंडेत्ताबीज बांधता
हो, अपने को बचाने के उपाय करता हो, तो आश्चर्य नहीं है। लेकिन उसे क्या पता कि वह अपनी ही मौत की मांग कर रहा है। क्योंकि उसके बचने में मौत है, उसके मिटने में जीवन।
आदमी भी एक बीज है। और मिटे तो उसके भीतर विराट का जन्म होता है। बचाए रहे अपने को, तो सिकुड़ जाता है, छोटा हो जाता है। और हम बचाने-बचाने में धीरे-धीरे सिकुड़-सिकुड़कर छोटे होते जाते हैं।
"परम-सत्ता के लिए व्यक्ति की सत्ता को त्यागना है'
लेकिन हम धन छोड़ सकते हैं, घर छोड़ सकते हैं, पत्नी छोड़ सकते हैं, बच्चे छोड़ सकते हैं, यह सब छोड़ने में कुछ बहुत गहरी बात नहीं है। यह सब छोड़ने योग्य भी नहीं है क्योंकि यह आपका था कब, जिसे आप छोड़ दें। पत्नी आपकी है? पचास साल साथ रहकर भी भरोसा आया कि आपकी है? या पति आपका है? धन आपका है? मकान आपका है? जिसे आप छोड़ते हैं, वह आपका है ही नहीं। बहुत मजेदार है मामला। जो हमारा नहीं है, उसे हम छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
आपको जिसे छोड़ना चाहिए, वह आप ही हैं। न पति है, न पत्नी है, न बेटा है; न मकान है, न धन है, न दौलत। छोड़ने की चीज तो आप हैं। मगर उसे हम बचाते हैं। सच तो यह है कि उसके लिए ही हम पत्नी को भी छोड़ते हैं--मोक्ष मिल सके, आत्मा मिल सके। मैं बचूं और मैं परम आनंद में चला जाऊं, उसके लिए हम घर भी छोड़ते हैं, धन भी छोड़ते हैं के लिए कोई बंधन नहीं रह जता। उस दिन उसके ऊपर कोई बोझ नहीं रह जाता। क्योंकि वह बोझ रखने वाला ही मृदा जैन, तो बहुत संभावना तो यह है कि करते ही उसे वमन हो जाएगा। अगर वमन को भी धीरे-धीरे अभ्यास करके रोक ले, अपने को मजबूत कर ले, अभ्यास करे, साधना करे, और मांसाहार करता ही चला जाए, तो थोड़े दिन कष्ट पाएगा शारीरिक, फिर धीरे-धीरे शारीरिक कष्ट तो विदा हो जाएगा; क्योंकि शरीर नई आदत को ग्रहण कर लेगा, लेकिन मन में ग्लानि बनी रहेगी और भीतर लगेगा मैं कोई अपराध कर रहा हूं--गिल्ट। यह उस अंतःकरण की छाया है, जो समाज ने दिया।
एक मुसलमान है, एक मांसाहारी है, उसे कोई तकलीफ नहीं। वह मांस को ऐसे ही मजे से खा लेता है, जैसे हम और कोई चीज को खाते हैं, सब्जी को खाते हैं। कठिन नहीं है कि सब्जी के प्रति भी अंतःकरण ऐसा ही पैदा किया जा सकता है कि आप सब्जी भी न खा सकें।
जैसे पश्चिम के जो शाकाहारी हैं, वे अंडे को तो खा लेते हैं; क्योंकि वे कहते हैं कि अंडा जो है, शाकाहार है। क्योंकि जब तक जीवन पैदा नहीं हुआ, तब तक सब सब्जी है। लेकिन वे दूध नहीं पीते, दही नहीं खाते। क्योंकि वे कहते हैं कि दूध और दही जो है, एनिमल फूड है, मांसाहार है। पश्चिम का शाकाहारी दूध पीना मुश्किल अनुभव करता है। और ऋषि-मुनियों ने कहा है कि दूध पवित्र है, पवित्रतम भोजन है। और हमारे यहां अगर कोई दूध पर ही रहता है, तो इतने से ही काफी साधु हो जाता है। दूधाहारी है, कुछ और नहीं लेता, सिर्फ दूध लेता है। और पश्चिम के शाकाहारी कहते हैं कि दूध मांसाहार है, क्योंकि दूध रक्त है।
और है भी। दूध रक्त का ही हिस्सा है, इसलिए तो दूध पीने से जल्दी रक्त बन जाता है। और दूध पूर्ण आहार है; क्योंकि शुद्ध रक्त है, अब और किसी आहार की जरूरत नहीं। इसलिए बच्चा सिर्फ दूध पर बड़ा हो जाता है; और कोई आहार की जरूरत नहीं। मां का सीधा खून उसे मिल जाता है। इस भाषा में सोचें अगर बचपन से, तो दूध पीना मुश्किल है।
मेरे घर एक शाकाहारी बहुत समय पहले आकर ठहरा। तो उसको मैंने सुबह कहा कि आप चाय लेंगे, काफी लेंगे, दूध लेंगे? तो वह एकदम चौंका। उसने कहा कि आप! और दूध लेते हैं क्या? उसने ऐसे ही पूछा जैसे कोई मुझसे पूछता हो कि आप मांसाहार करते हैं? वह एकदम भयभीत हो गया। अगर बचपन से ख्याल डाला जाए, तो दूध छूना मुश्किल है।
किसी भी चीज के प्रति अंतःकरण पैदा किया जा सकता है। अंतःकरण का मतलब है कि आपके मन में एक भाव पैदा हो गया। और वह भाव उस समय पैदा होता है, जब आपके पास सोचनेवाली बुद्धि नहीं होती। अंतःकरण पैदा करना हो, तो सात साल के पहले ही पैदा किया जा सकता है; फिर बाद में करना मुश्किल है।
इसलिए सारी दुनिया के धर्म बच्चों की कसकर गर्दन पकड़ते हैं। क्योंकि बच्चे अगर सात साल तक छुट्टा छोड़ दिए जाएं, तो फिर दोबारा किसी फोल्ड में, किसी पंथ में उनको सम्मिलित करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि बाद में अंतःकरण पैदा नहीं किया जा सकता। जैसे शरीर की कुछ चीजें एक उम्र में ही निर्मित होती हैं; उस उम्र तक अगर निर्मित न हों तो फिर बाद में उसका निर्मित होना मुश्किल है। अंतःकरण भी सात साल के पहले ही निर्मित होता है। और जितना जल्दी निर्मित किया जाए, उतना गहरा निर्मित होता है। क्योंकि तब मन के अचेतन आधार रखे जा रहे हैं, नींव रखी जा रही है। फिर बाद में भवन खड़ा होगा, वह उसी नींव पर खड़ा होगा।
फिर यह भी हो सकता है कि कभी बाद में आप अपने धर्म को बदल लें, लेकिन अपने अंतःकरण को आप न बदल पाएंगे। इसलिए आप देखेंगे कि कोई हिंदू ईसाई हो जाता है, वह कितना ही ईसाई हो जाए, ईसाईयत ऊपर रहती है, उसका अंतःकरण हिंदू का रहता है। और आज नहीं कल, वह क्राइस्ट के साथ वही सलूक करेगा, जो वह राम के साथ करता था। वह बहुत फर्क नहीं कर सकता। उसके भीतर जो अंतःकरण है, वह इतनी अनुकूल हैं, न उसके प्रतिकूल हैं। भीतर जानते हैं, कि एक अभिनय है, उसे पूरा कर देना है, तो आप मुक्त हो ही जाते हैं।
और अंतःकरण तभी विनष्ट होता है, जब समाज का जीवन एक अभिनय हो जाता है।
जरूरी नहीं कि आप अपनी बहन से शादी कर लें; क्योंकि अंतःकरण कहता है कि नहीं करना, बहुत बड़ा पाप है। जरूरी नहीं कि आप शादी करने जाएं, शादी करने से अंतःकरण नहीं टूट जाएगा। जरूरी यह है कि आप जानें कि यह खेल है, समाज की व्यवस्था है, न पाप है न पुण्य। जिस समाज में रहते हैं, उसका नियम है। और उस समाज के साथ शांति से रहना हो, तो उसकी मानकर चलने में सुविधा है। मगर भीतर आपके कोई दंश नहीं है।
और कोई दूसरे समाज में बहन से शादी कर रहा हो, तो आपके मन में जरा
भी भाव नहीं उठे कि यह अपराध है, पाप है। समझ लें, वह उसके समाज का खेल है। उसके समाज के अपने नियम हैं। और जैसे आपके लिए उचित है कि इस खेल को मानकर चलें, सुविधापूर्ण है, वैसे उसके लिए भी उचित है कि वह अपने नियम मानकर चले। और सुविधापूर्ण है।
असुविधा पैदा कर लेने में कोई बड़ी क्रांति नहीं है। और कुछ लोग असुविधा पैदा करने में मजा लेते हैं, वे केवल अहंकारी हैं। खुद को भी असुविधा पैदा करने में मजा लेते हैं। अंतःकरण, एक समाज के भीतर रहनेवाले लोगों का नियम है, जिसके बिना खेलना मुश्किल हो जाएगा। अगर लोग कबड्डी भी खेलते हैं, तो नियम बना लेते हैं।
सब नियम औपचारिक हैं, कोई नियम वास्तविक नहीं है।
कोई कबड्डी का नियम होता है, तो कोई दुनिया के नियम से उसका लेना-देना नहीं है। या आप वॉलीबाल खेलते हैं या क्रिकेट खेलते हैं, तो नियम बना लेते हैं। नियम में कोई अनिवार्यता नहीं। कोई ऐसा नहीं है कि क्रिकेट के यही नियम होंगे, तो ही खेल हो सकता है। दूसरे नियम से भी खेल हो सकता है। तीसरे नियम से भी खेल हो सकता है। एक बात जरूरी है खेल के लिए कि खेलनेवाले सभी एक नियम को मानें। अगर दस खेलनेवाले दस नियम मानते हों, तो खेल नहीं हो सकता। मानने में कोई तकलीफ नहीं है। दस खेलनेवाले एक ही नियम को मानें, तो खेल हो सकता है। दसों राजी हो जाएं, तो नियम बदला जा सकता है; और दूसरे नियम से भी खेल इसी तरह हो जाएगा। जिस दिन आपको ऐसा दिखाई पड़ने लगे कि आपका अंतःकरण केवल समाज के खेल की व्यवस्था है, जिस समाज में आप पैदा हुए।
आज सारी दुनिया में अस्तव्यस्त हो गई है स्थिति। इसका कुल कारण इतना है कि अलग-अलग समाज के लोग एक दूसरे के, पहली दफा परिचय में आए, और मुश्किल हो गई। अब तक आप अपने कुएं में जी रहे थे, तो ऐसा लगता था, अंतःकरण जो है, वह कोई आत्यंतिक नियम है; ऐसा लगता था वह कोई अल्टीमेट अस्तित्व का नियम है। लेकिन जब सारी दुनिया के लोग करीब आए और बीच की दीवारें टूट गईं और कुएं नष्ट हो गए और एक कुएं का पानी दूसरे कुएं में भी प्रवेश करने लगा, तब उनको पहली दफा पता चला कि हमारे जो नियम थे, उनका कोई जागतिक नियमों से कोई संबंध नहीं था। वह हमारा ही बनाया हुआ खेल था। इस अनुभव के कारण सारी दुनिया में अव्यवस्था हो गई। होने वाली थी। क्योंकि हमने नियमों को सिर्फ खेल समझा होता तो न होती। हमने समझा था, यह परम सत्य है और हम जानते हैं कि यह परम सत्य नहीं है। अफ्रीका में एक कबीला है जो अपनी मां से भी शादी कर लेता है। धक्का
लगता है सुनकर ही। वह धक्का आपको नहीं लगता है, अंतःकरण को लगता है। उस कबीले के लोगों को अगर कहा जाए कि ऐसे भी लोग हैं, जिनका पिता मर जाए, तो उनकी मां घर में बो राजी हुए, लोगों ने समझा कि वे नास्तिक हैं। दूरबीन से कुछ चीजें दिखाई पड़ती हैं, जो किताबों में नहीं थीं, समाज को जिनका पता नहीं था, उनको नहीं माना जा सकता।
जिस दिन कोई व्यक्ति अंतःकरण से ऊपर उठकर देखता है, तो बहुत सी चीजें दिखाई पड़ती हैं, जो समाज के नियमों में नहीं हैं। नहीं होंगी, क्योंकि समाज का नियम अंधे लोगों का नियम है। समाज का नियम उनका नियम है, जिन्हें अभी कोई आत्मबोध नहीं हुआ।
सच तो यह है कि समाज के नियम बनाने ही इसलिए पड़ते हैं कि लोग इतने अज्ञानी हैं कि बिना नियम के नहीं चल सकते। सिर्फ ज्ञानी बिना नियम के चल सकता है। अज्ञानी कैसे बिना नियम से चलेगा? बिना नियम के चलेगा, तो खुद को भी गङ्ढे में डालेगा और दूसरों को भी गङ्ढे में गिरा देगा। अज्ञानी के लिए नियम जरूरी है। ज्ञानी के लिए नियम की क्या जरूरत है?
अंधा आदमी लकड़ी लेकर चलता है, टटोलता है। आंख वाला भी लकड़ी लेकर चले, यह कोई जरूरत नहीं है। आंख वाले को छुट्टी दी जा सकती है कि लकड़ी लेकर मत चल। लेकिन अंधे को छुट्टी नहीं दी जा सकती। उसको तो लकड़ी लेकर चलना ही पड़ेगा। लेकिन किसी अंधे की आंख खुल जाए और फिर भी वह लकड़ी लेकर चले, तो हम कहेंगे कि व्यर्थ का मोह बांधे हुए है। अब तो लकड़ी से बेहतर चीज तेरे पास आ गई। आंख आ गई, अब लकड़ी की कोई जरूरत नहीं।
जिस दिन आत्मा की झलक मिलनी शुरू होती है, उस दिन अंतःकरण की कोई भी जरूरत नहीं। उसकी जरूरत ही इसलिए थी कि जो हम नहीं कर सकते थे स्व-बोध से, वह समाज हमसे करवाता था जबरदस्ती। अब हम स्व-बोध से ही करेंगे।
इसलिए हमने संन्यासी को नियमों के बाहर रखा। कोई संन्यास लेते ही नियमों से बाहर हो जाता है, ऐसा नहीं है। यह परम कल्पना है। हमने संन्यासी को नियम के बाहर रखा, हम उस पर कोई नियम नहीं लगाते। नहीं लगाते इसलिए कि हम मानते हैं कि उसे परम नियम का पता चल गया है। अब हमारे नियमों की क्या जरूरत। अब वह परमात्मा के नियम को जानता है, तो समाज के नियमों की उसको कोई जरूरत नहीं।
और संन्यासी हमारे समाज के नियमों को तोड़ता भी नहीं। जैसे कि किसी की आंख खुल जाए, वह लकड़ी लेकर न चले, लेकिन अगर अंधों की लकड़ी छीने तो जरा ज्यादती कर रहा है। वह दूसरों के हाथ की लकड़ी छीनने लगे, तो जरा ज्यादती कर रहा है। लकड़ी छूट जाएगी आंखों के मिलते ही, लेकिन लकड़ी लकड़ी है, और केवल एक बीच की व्यवस्था है--इसकी प्रतीति हमारे भीतर बनी रहनी चाहिए।
"धर्म के नियम तो कठोर हैं। उस कठोर नियम को तुझे उत्तर देना होगा, जो तुझसे पहले कदम पर ही पूछेगा। ओ उच्चाशी, क्या तूने सभी नियमों का पालन किया है?'
धर्म के नियमों का, नीति के नियमों का नहीं।
"क्या तूने अपने हृदय और मन को समस्त मनुष्य के महान हृदय और मन के साथ लयबद्ध किया है?'
ये धर्म के नियम हैं: "क्या तूने अपने हृदय और मन को समस्त मनुष्य के महान हृदय और मन के साथ लयबद्ध किया है?'
"जैसे पवित्र नदी के गर्जन में प्रकृति की सभी ध्वनियां प्रतिध्वनित होती हैं, वैसे ही उस स्रोतापन्न के हृदय को अंधे हैं। हमें दूसरों का सुख दिखाई पड़ता है और अपना दुख! यह हमारा तर्क है।
एक महल में आप किसी को देखते हैं, लगता है कितना सुखी होगा। उसका सुख दिखाई पड़ता है। एक सुंदर स्त्री के साथ किसी पुरुष को देखते हैं, सोचते हैं कितना सुखी होगा। उसका सुख आपको दिखाई पड़ता है। सुंदर स्त्री जो दुख देती है, उसका उसको ही पता है। महल के जो दुख हैं, वह महल में रहने वाले को पता हैं। क्योंकि महल के रहने वाले से पूछें, वह कभी नहीं कहता कि मैं सुखी हूं। वह अपने दुख की कथा कहता है। सुंदर स्त्री के पति से पूछें, वह अपने दुख की कथा कहता है।
आपको दूसरों के सुख दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि आपको दूसरों का बाहय आवरण दिखाई पड़ता है। उनके चेहरे दिखाई पड़ते हैं; वस्त्र दिखाई पड़ते हैं। दूसरों का हृदय तो आपको दिखाई नहीं पड़ता। अगर दूसरे का हृदय आपको दिखाई पड़े, तो उसके दुख दिखाई पड़ेंगे। और जब तक दूसरे के सुख दिखाई पड़ते हैं, तब तक आपको अपने दुख दिखाई पड़ते हैं। और जिस दिन आपको दूसरों के दुख दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं, उसी दिन से आपको अपने सुख दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। दृष्टि पूरी की पूरी बदल जाती है।
और जिस दिन कोई विराट के दुख में एक हो जाता है, उस दिन भूल ही जाता है अपने दुखों को। ये इतने क्षुद्र हो जाते हैं, उनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। यह बात ही सोचने जैसी नहीं रह जाती कि मेरा भी कोई दुख है। इस दुख के सागर में मेरा भी क्या दुख है? वह विराट दुख आपके दुख को क्षुद्र कर जाता है; जैसे किसी ने आपके दुख की लकीर के सामने एक महा लकीर खींच दी।
सुना है मैंने, एक यहूदी फकीर हुआ बालसेन। हसीद था, एक विद्रोही फकीर था। एक दिन सुबह-सुबह गांव का एक आदमी उसके पास आया। उसने बालसेन को कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। मैं बहुत दीन, दरिद्र, गरीब हूं। एक ही छोटा सा कमरा है मेरे पास; पत्नी है, पिता है, मां है, सात मेरे बच्चे हैं। हम सब उस छोटे से ही कमरे में रहते हैं। नरक हो गया है बिलकुल, पीड़ा का कोई अंत नहीं है। आत्महत्या की सोचता हूं। कोई उपाय बताएं।
बालसेन ने कहा: कि बस इतने ही हैं तेरे घर में लोग? तेरे पास बकरी नहीं है? उसने कहा, मेरे पास दो बकरियां हैं। बालसेन ने कहा, उनको भी तू कमरे के भीतर ले ले। उसने कहा, बाबा, दिमाग आपका खराब हुआ है? मैं पूछने आया था कि कैसे इस छोटे कमरे को बड़ा करूं, तुम उसे भी छोटा करवा दे रहे हो! दो बकरियों को और भीतर ले लूं! सात बच्चे हैं, पत्नी है, मां-बाप हैं, छोटा सा कमरा है, मैं हूं--इंच भर बैठने तक की जगह नहीं। फकीर ने कहा, मेरी मान।
बालसेन बड़ा आदमी था। यह गरीब आदमी उसकी आज्ञा टाल भी न सका। इसने दोनों बकरियां अपने घर के भीतर ले लीं। उस दिन से तो घर महा नरक हो गया। सात दिन बाद पहुंचा कि छुटकारा दिलवाओ। वह बकरियां बाहर करवा दो। बालसेन ने कहा, और क्या है तेरे पास? उसने कहा चार मुर्गियां और भी हैं। बालसेन ने कहा, "उन्हें भी तू भीतर ले ले। ' उसने कहा कि क्या मेरी जान ही लेने को उतारू हो? मर जाएंगे सब, हत्या तुम्हारे सिर लगेगी। बालसेन ने कहा, उसकी तू फिकर न कर, मुर्गियों को भीतर ले ले। सात दिन बाद आना।
सात दिन बाद वह आदमी आया। आधा रह गया था; न सो सकता था, न खा पी सकता था। उसने कहा कि सुना था कि नरक होता है, तुमने दिखा दिया, इतनी ही कृपा करो--कुछ उपाय दो। उसने कहा: तो फिर ऐसा होना है। अन्यथा वे मार्ग से हट जाएंगे। '
और परमात्मा का तो हमें ठीक-ठीक पता नहीं चलता, कहां है; उसका कोई स्पर्श नहीं होता। है यहीं, पास ही, लेकिन छूने की कला हमें नहीं आती।
इसलिए अगर कोई साधक, कोई शिष्य, किसी व्यक्ति में झलक भी पाता हो उसकी; किन्हीं आंखों में थोड़ी सी खबर आती हो उसकी, किसी के उठने-बैठने में, किसी की वाणी में, किसी के मौन में, थोड़ा सा इशारा भी मिलता हो--आहट उसके पैरों की थोड़ी सी, ध्वनि भी आती हो।
जैसे रात कोई अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करता हो, तो सूखे पत्ते भी खड़बड़ा जाते हैं, तो वह चौंककर खड़ा हो जाता है--शायद प्रेमी आ गया। हवा वृक्षों को पार करती है, सरसराहट हो जाती है, तो उसे अपने प्रेमी के आने की आहट का खयाल आ जाता है, वह चौंककर खड़ा हो जाता है। द्वार पर हवा का झोंका दस्तक दे जाता है, तो उसे प्रेमी के हाथ की दस्तक सुनाई पड़ जाती है।
जो प्रभु की खोज में है, उसे पहले आहट खोजनी पड़ेगी। और जब किसी में आहट सुनाई पड़ जाए, तो जानना कि तुम्हारा गुरु तुम्हें मिल गया। वह गुरु तुम्हारे लिए परमात्मा की आहट है। इसलिए हमने गुरु को परमात्मा कहा है।
और कबीर ने तो पूछा गुरु से कि दोनों जब सामने खड़े हो गए--
"गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पांव?' और जब दोनों खड़े हो गए, तो कबीर ने पूछा कि मैं किसके पैर पहले छुऊं और कबीर ने गुरु के ही पैर छुए और कहा कि "बलिहारी गुरु आपकी जो गोविंद दियो बताय' गुरु ने तो फौरन इशारा किया कि पांव छू परमात्मा के। पूछा कबीर ने: किसके छुऊं पांव? तो गुरु ने कहा: छू पांव परमात्मा के। लेकिन कबीर ने पांव गुरु के छुए, और कहा कि "बलिहारी गुरु आपकी जो गोविंद दियो बताय' तो पहले तो तुम्हारे ही छुऊं, क्योंकि तुम ही बता रहे हो कि गोविंद के छू। नंबर दो पर रख दिया गोविंद को। गुरु को नंबर एक पर रखा!
जहां आहट मिल जाए प्रभु की, उस व्यक्ति के साथ फिर अपनी श्वासों का तालमेल बिठाना। और गुरु बैठ गया है तालमेल में, उसने परमात्मा के हाथों में अपनी वीणा को छोड़ा है। और उसके तार परमात्मा के हाथों में सध गए हैं।
अभी परमात्मा के हाथ और आपकी वीणा में शायद संबंध न हो पाए; तो अभी गुरु के हाथों में और आपकी वीणा में संबंध हो जाने देना। इस भांति परोक्ष रूप से गुरु के माध्यम से आप परमात्मा के हाथ के नीचे आ गए। गुरु परमात्मा के साथ सध गया है, आप गुरु के साथ सधने लगे, आपका परमात्मा के साथ सधना शुरू हो गया।
जिस दिन आप पूरी तरह सध जाएंगे, अचानक आप पाएंगे, गुरु बीच से हट गया। जो गुरु बीच में रह जाए, वह गुरु ही नहीं है। इसलिए गुरु ने हाथ का इशारा किया कि तू परमात्मा
के पैर छू ले; अब मेरा कोई सवाल न रहा। मैं तभी तक था, जब तक कि तू सीधा नहीं देख सकता था। अब तुझे दोनों दिखाई पड़ने लगे। अब तक तुझे मैं ही दिखाई पड़ता था। परमात्मा सदा मेरे पास ही खड़ा था, वह मेरी वीणा को बजा ही रहा था और मेरी वीणा से तू जो सुन रहा था, वह उसके ही हाथों की खबर थी। अब तुझे दोनों दिखाई पड़े--गुरु-गोविंद दोनों खड़े--अब मेरी कोई जरूरत नहीं; अब तू पैर उनके ही छू ले, अब तू सीधा उनसे जुड़ जा। यह गहन अनुग्रह की बात है कि कबीर ने कहा, कि मैं तुम्हारे चरण छू लूं। यह आखिरी मौका है। फिर शायद उसके बाद गुरु दिखाई भी नहीं पड़ेगा। फिर गुरु तिरोहित हो जाएगा।
जीसस ने दीक्षा ली थी जिस संत से--"जान दि बैपटिस्ट' से। जिस दिन जान ने जीसस को दीक्षा दी, उस दिन के बाद फिर जान दिखाई नहीं पड़ा। बहुत लोगों ने तलाश की कि कहां गया जान? बहुत लोगों ने खोजा, लेकिन कोई पता ही नहीं चला। वह फिर दिखाई ही नहीं पड़ा। तब उसके पुराने शिष्यों ने कहा कि वह निरंतर कहता था कि मैं एक आदमी के लिए रुका हूं--जो मैं जानता हूं, जो सुर बजाना मैं जानता हूं--जिस दिन वह आदमी आ जाएगा, जो ठीक वैसा ही सुर बजा सकता है, उस दिन मैं हट जाऊंगा, मैं थक गया हूं। तो जीसस जिस दिन आ गए, उस दिन जान तिरोहित हो गया।
गुरु हट जाएगा, जैसे ही महागुरु के दर्शन हो गए। ऐसा ही वे करते हैं। और जो ऐसा नहीं कर पाएगा तालबद्ध अपने को गुरु के साथ, या प्रभु के साथ, वह टूट जाता है, अलग फेंक दिया जाता है।
"ऐसा ही वे करते हैं, जो छाया के बंधु हैं'
जो आत्मा के नहीं, छाया के, झूठ के, असत्य के साथी हैं, वे अपनी आत्मा के हंता, अपनी आत्महत्या करनेवाले हैं। अपने को मिटा रहे हैं, नष्ट कर रहे हैं। "और दाददुगपा जाति के नाम से पुकारे जाते हैं। '
यह तिब्बत की एक जाति है, जो छाया-व्यक्तित्व को विकसित करने की बड़ी कुशलता पैदा करती है। और उस छाया-व्यक्तित्व के आधार पर जीती है, और उस छाया के कारण ही लोगों को सताती है और परेशान भी करती है। क्योंकि उस छाया-व्यक्तित्व का भी अपना विज्ञान है, जिसको हम ब्लैक मैजिक कहते हैं, जिसको हम काला जादू कहते हैं। उस छाया-व्यक्तित्व का अपना विज्ञान है। और उस छाया-व्यक्तित्व की कलाएं अगर कोई सीख ले, तो वे कलाएं उतनी ही खतरनाक हो सकती हैं, जितना कि अणु बम का अनुभव और ज्ञान हो सकता है। अणु-बम गिरा कर हम किसी व्यक्ति के शरीर को मिटा सकते हैं। और अगर काली छाया का हमें ज्ञान हो जाए, और उसके पूरे नियम हमें पता चल जाएं, तो भी हम लोगों को बहुत सता सकते हैं, बहुत परेशान कर सकते हैं।
तो यह दाद-दुगपा तिब्बत में एक जाति है, जिसने पूरा का पूरा काम, सैकड़ों वर्षों में, मनुष्य की छाया को पकड़ने और छाया से काम लेने का किया है। उसका अपना विज्ञान है। भूत-प्रेत का सारा उपद्रव उसी विज्ञान का हिस्सा है। और आपको सताया जा सकता है। क्योंकि आपके मन के भी सूत्र हैं। और आपकी जो काली छाया है, उसको पकड़ा जा सकता है।
आपने सुना होगा, लेकिन कभी भरोसा नहीं किया होगा, कि अगर आपकी काली छाया की कुछ जानकारी हो, तो आपकी हत्या तक की जा सकती है, बिना आपको छुए। क्योंकि उस काली छाया के माध्यम से आप तक कोई भी खबर पहुंचाई जा सकती है; आपसे कुछ भी करवाया जा सकता है; नष्ट किया जा सकता है आपको।
मगर ऐसे जगत में प्रवेश करने वाले लोग, इस काली छाया के जगत में प्रवेश करने वाले लोग, दूर होते चले जाते हैं प्रभु के संगीत से। वह उन उखड़े हुए तारों की भांति हो जाते हैं, जिन्हें गायक ने वीणा से अलग कर दिया। जन्मों-जन्मों तक यह उपद्रव उनका चल सकता है। और बड़ा कठिन है कि गायक फिर से उन्हें वीणा में लगा ले। उसकी तैयारी उन्हें करनी पड़ेगी। उन्हें सब भांति अपने को शुद्ध करना
पड़ेगा। अपनी काली छाया की सारी व्यवस्था छोड़ देनी पड़ेगी। और जब तक वे रेचन से न गुजर जाएं, और अपने सारे रोगों से मुक्त न हो जाएं, तब सम्यक जीवन तक वे पुनः स्वीकृत न होंगे कि वीणा में जोड़ लिए जाएं।
"प्रकाश के प्रत्याशी, क्या तूने अपनी सत्ता को मनुष्यता की महान पीड़ा के साथ एक कर लिया है?'
"क्या ऐसा तूने किया है? तब तू प्रवेश कर सकता है। तो भी अच्छा है कि शोक के दुर्गम मार्ग पर पांव रखने के पहले तू उसके ऊंच-नीच को, उसकी कठिनाइयों को समझ ले। '
यह बड़ी गहरी चेतावनी है। हम आनंद की तलाश में हैं, हम महा आनंद चाहते हैं। लेकिन महा आनंद के पहले हमें महा शोक के साथ एक हो जाना पड़ेगा। क्योंकि जगत में कोई पहाड़ के शिखर नहीं हो सकते, जब तक उनके पास गहरी खाइयां न हों। छोटा-मोटा सुख, तो छोटा-मोटा दुख का गङ्ढा होता है। महा आनंद हो, तो फिर महा दुख की खाई भी उसके पास होती है।
ऐसा मत सोचना कि बुद्ध सिर्फ महा आनंद के शिखर पर हैं। वे हैं, लेकिन उस महा आनंद के चारों तरफ और महा पीड़ा की खाइयां भी हैं। निश्चित ही वह अपनी नहीं हैं, उनकी। इसलिए वह शिखर बन सके। लेकिन वह पूरी मनुष्यता की पीड़ाओं को छू दिए। मनुष्यता की ही क्यों, पूरे जीवनमात्र की पीड़ाओं को छू दिए।
और अगर महावीर पांव फूंक-फूंक कर रखने लगते हैं चीटियों से, आप यह मत सोचना की यह कोई केलकुलेटेड है, कि यह कोई गणित है, कि चींटी नहीं मरेगी, तो मैं स्वर्ग और मोक्ष चला जाऊंगा
उनके पीछे चलने वाले ऐसे ही गणित से चलते हैं! लेकिन वह गणकों की जाति गणित से ही चल सकती है--हिसाब रखती है, कि कितनी चींटी बचाईं! कितना पानी छान कर पिया! उसमें हिसाब है--इसका बदला मागेंगे वे! तो खड़े हो जाएंगे परमात्मा के सामने कि देखो, इतनी-इतनी हिंसा मैंने नहीं की है, उसका क्या प्रतिफल है?
नहीं, महावीर प्रतिफल के लिए ऐसा नहीं कर रहे हैं। वह जो महाजीवन से एकात्म हो गया है, उसमें सभी की पीड़ा भी उनकी अपनी हो गई है। अब यह चींटी का सवाल नहीं, जो उनके पैर के नीचे दब जाएगी, यह दूसरे महावीर का सवाल है, जो इस महावीर के पैर के नीचे दब जाएगा।
महा आनंद के पास महापीड़ा की भी खाइयां हैं। लेकिन ये अपनी नहीं हैं। यही फर्क है क्षुद्र आदमी का कि सुख भी अपना है, दुख भी अपना। महा व्यक्तित्व का दुख भी अपना नहीं है और सुख भी अपना नहीं है। ये महा खाइयां भी औरों की हैं, और ये शिखर भी अब सिर्फ औरों के भविष्य की संभावनाएं हैं।
अब बुद्ध को न सुख है, और न दुख है। इसलिए बुद्ध ने नहीं कहा कि निर्वाण में आनंद होगा। बुद्ध ने कहा, निर्वाण में होगी परमशांति। न होगा सुख, न होगा दुख।
सब औरों का रह जाएगा, स्वयं का कुछ भी न होगा। और जब स्वयं का कुछ भी नहीं होता, तो स्वयं भी नहीं बचता है। तब सर्व ही बच रहता है।
आज इतना ही।


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