कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 22 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--07

ध्‍यान का दीप जला लो!—प्रवचन—सातवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:

सीह—गय—वसहमियपसु, मारूदसुरूवहिमंदरिदुं—मणि।
खिदीउरगंवरसरिसा, परम—पय—विमग्‍गया साहू।। 96।।

बुद्धे परिनिव्‍वुडे चरे, गाम गए नगरेसंजए
संतिमग्‍गंबूहए,समयं गोयम! मा पमायए।। 97।।

ण हु जिणे अज्‍ज दिस्‍सई, बहुमए दिस्‍सई मग्‍गदेसिए
संपइनेयाउए पहे, समयं गोयम! मा पमायए।। 98।।

भावो हि पढमलिंगं,दव्‍वलिंगंजाण परम तथं
भावो कारणभूदो, गुणदोसाणं जिणा विंति।। 99।।


भावविसुद्धिणिमित्‍तं, बाहिरगंथस्‍स कीरए चाओ
बाहिरचाओ विहओ, अब्‍भंतरगंथजुत्‍तस्‍स।। 100।।

देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्‍तो
अप्‍पा अप्‍पमि रओ,भावलिंगी हवे साहू।। 101।।

ज के सूत्र अत्यंत मौलिक और क्रांतिकारी हैं। बड़ा साहस चाहिए ऐसे सूत्रों को अभिव्यक्ति देने के लिए। महावीर ही ऐसे सूत्र दे सकते हैं।
पहला सूत्र है: "सिंह-सा पराक्रमी, हाथी-सा स्वाभिमानी, वृषभ-सा भद्र, मृग-सा सरल, पशु-सा निरीह, वायु-सा निसंग, सूर्य-सा तेजस्वी, सागर-सा गंभीर, मेरु-सा निश्चल, चंद्रमा-सा शीतल, मणि-सा कांतिवान, पृथ्वी-सा सहिष्णु, सर्प-सा अनियत-आश्रयी तथा आकाश-सा निरालंब साधु ही परमपद मोक्ष की यात्रा पर है।'
एक-एक प्रतीक को ठीक से समझ लेना जरूरी है।
"सिंह-सा पराक्रमी...।
महावीर का मार्ग आत्यंतिक संकल्प का मार्ग है। महावीर का मार्ग समर्पण का नहीं, संकल्प का है। महावीर के मार्ग पर कोई सहारा नहीं खोजना है। सब सहारे छोड़ देने हैं। बेसहारा हो जाना है। सहारे में भय है। बेसहारा हो जाने में अभय है।
महावीर का मार्ग भक्ति के ठीक विपरीत है। दोनों मार्ग से लोग पहुंच जाते हैं। दोनों मार्ग सही हैं। लेकिन महावीर के मार्ग को ठीक से समझना हो, तो भक्ति के विपरीत रखकर ही समझ पाओगे। महावीर के मार्ग पर न भगवान की कोई जगह है, न भक्ति की कोई जगह है। न पूजा की, न अर्चना की, न प्रार्थना की। शरणागति का कोई स्थान नहीं है। महावीर ने कहा है, अशरण हो जाओ। कोई शरण मत गहो
"सिंह-सा पराक्रमी...।' सिंह अकेला विचरता है। सिंहों के नहीं लेहड़े, साधु चलें न जमात। सिंह की भीड़ नहीं होती। अकेला विचरता है। सिंह किसी संगठन का हिस्सा नहीं होता। सिंह किसी संप्रदाय में नहीं बंधता। सिंह मुक्त विचरता है। न कोई शास्त्र, न कोई संप्रदाय, न कोई परंपरा, तब कहीं सिंह-जैसा चित्त पैदा होता है। अपने ही पैरों पर, अपने ही बल, और अकेला। नितांत अकेला। महावीर बारह वर्षों तक सिंह की तरह विचरे। अकेले। न किसी से बोलते, न किसी को संगी-साथी बनाते, न किसी के संगी-साथी होते। वनों में, पहाड़ों में, महावीर की वह मौन गर्जना सिंहनाद थी।
"सिंह की तरह पराक्रमी...।' सब कुछ लगा देना होगा। दांव पर अगर कुछ भी लगाने से बचा लिया, तो चूक जाओगे। थोड़ा-सा सोचा कि बचा लें, थोड़ा अधूरा दांव पर लगाया, तो चूक जाओगे। महावीर के मार्ग पर तो जुआरी का काम है, दुकानदार का नहीं। और दुर्भाग्य कि सब दुकानदार महावीर के मार्ग पर हैं। महावीर का धर्म ही दुकानदार का हो गया। महावीर का माननेवाला दुकानदारी के सिवाय और कुछ करता ही नहीं। यह भी अकारण नहीं घटता।
इसके पीछे भी बड़े मनोवैज्ञानिक कारण हैं। विपरीत का आकर्षण। दुकानदार सदा ही जुआरी से प्रभावित होता है। जो हिम्मत वह नहीं कर सकता, जुआरी कर लेता है। तो भला खुद जुआरी न बने, लेकिन जुआरी के प्रति मन में प्रशंसा होती है। कमजोर हमेशा बहादुर से प्रभावित होता है। खुद बहादुर नहीं है, इसीलिए प्रभावित होता है। जो अपने में नहीं है, वह दूसरे में दिखायी पड़ता है। तो कमजोर हमेशा बहादुर की पूजा करता है। विपरीत का बड़ा आकर्षण है। स्वभावतः निर्धन आदमी धनी की तरफ आंखें उठाकर देखता है। और झोपड़ेवालों के मन में और सपनों में महलों के चित्र उभरते हैं। बुद्धिहीन बुद्धिमान की पूजा करता है। कुरूप सुंदर की पूजा करता है। पुरुष स्त्री में आकर्षित होता है, स्त्री पुरुष में आकर्षित होती है। यह सब विपरीत का आकर्षण है। जो मैं नहीं हूं, वह आकर्षक लगता है। जो मैं हूं, उसमें कोई आकर्षण नहीं रह जाता।
महावीर तो सिंह की तरह पराक्रमी थे। लेकिन कमजोर, काहिल, भय से भरे भीरु लोग पीछे हो लिये। उन्होंने महावीर के मार्ग को भ्रष्ट कर दिया। महावीर का मार्ग ही वैश्यों, वणिकों का हो गया। वह मूलतः क्षत्रिय का मार्ग है।
अहिंसक होने के लिए क्षत्रिय होना बुनियादी शर्त है। जो अभी हिंसक ही नहीं हुआ, वह अहिंसक कैसे हो सकेगा? जिसने अभी तलवार नहीं उठायी, तलवार रखेगा कैसे? रख तो वही सकोगे, जो उठाया हो। जिसने किसी के ऊपर आक्रमण ही नहीं किया, वह आक्रमण का त्याग कैसे करेगा? तो देखो जैनों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय-पुत्र हैं। और सब जैन वणिक हैं।
उनके चौबीस ही तीर्थंकर क्षत्रिय हैं, तो संयोग नहीं हो सकता। एकाध क्षत्रिय होता, संयोग मान लेते। चौबीस-के-चौबीस क्षत्रिय हैं, तो अहिंसक होने के लिए क्षत्रिय होना जैसे बुनियादी शर्त है। हम वही त्याग सकते हैं, जो हमारे पास हो। भिखमंगा अगर कहे कि मैंने त्याग दिया सब, तो क्या अर्थ है? था क्या, जो त्याग दिया? त्याग के पहले होना चाहिए।
क्षत्रिय घरों में पैदा हुए महावीर, ऋषभ, नेमि। हिंसा में उनका पोषण हुआ। हिंसा की कला ही सीखी। हिंसा के अतिरिक्त और कुछ जानते नहीं थे। उसी हिंसा के प्रगाढ़ अनुभव से अहिंसा का जन्म हुआ। हिंसा की आग में जले और पाया कि हिंसा करने योग्य नहीं। हिंसा में रहकर पाया कि हिंसा त्याज्य है। और तब एक अहिंसा का जन्म हुआ।
इसलिए मैं कहता हूं गांधी और महावीर की अहिंसा में फर्क है। गांधी की अहिंसा बनिये की अहिंसा है। महावीर की अहिंसा क्षत्रिय की अहिंसा है। और वहीं बुनियादी भेद है। महावीर की अहिंसा कमजोरी से पैदा नहीं हुई, गांधी की अहिंसा कमजोरी से पैदा हुई। कोई और उपाय न था गांधी को। अहिंसक होने में कमजोरी छिपा लेने की सुविधा मिल गई। गांधी की अहिंसा स्त्रैण है। स्त्रियां सदा से ही यही करती रही हैं। अगर पुरुष को गुस्सा आता है, तो पत्नी को पीट देता है। पत्नी को गुस्सा आता है, तो खुद को पीट लेती है। यह तो देखा? यही तो पूरा का पूरा सार-सूत्र है गांधीवाद का। खुद को ही मार लेती है। पुरुष को गुस्सा आता है तो किसी की हत्या कर देता है। स्त्री को गुस्सा आता है तो आत्महत्या करने का विचार करने लगती है। अपने को ही नष्ट कर देने का खयाल आता है कमजोर को। दूसरे को नष्ट करना तो कठिन। अपने को नष्ट कर लेना आसान है। और अपने को नष्ट करना इस ढंग से किया जा सकता है कि उसमें भी साहस मालूम पड़े।
महावीर की अहिंसा तो सिंह के पराक्रम से पैदा हुई है। क्षत्रिय-पुत्र थे, राजकुमार थे। और कुछ सीखा ही न था, एक ही कुशलता थी। तो जब उन्होंने त्यागी हिंसा, तो कुछ भी छिपाने को नहीं त्याग था। हिंसा गिर गयी। जानकर गिर गयी। व्यर्थ हो गयी, इसलिए गिर गयी। हिंसा को ठीक से पहचाना और सिवाय जहर के कुछ भी न पाया।
महावीर की अहिंसा में हिंसा का अभाव है। गांधी की अहिंसा में हिंसा का छिपाव है। ऊपर से देखने पर दोनों एक से मालूम पड़ते हैं। लेकिन दोनों में बड़े मौलिक भेद हैं।
"सिंह-सा पराक्रमी...।' अब सिंह तो हिंसक है, खयाल किया? सिंह तो क्षत्रिय है। लेकिन पराक्रम सीखना हो तो सिंह से ही सीखना पड़े। अगर पराक्रम सीखना हो, तो क्षत्रिय से ही सीखना पड़े। और महावीर कहते हैं, अहिंसा तो और भी बड़ा पराक्रम है। हिंसा से भी बड़ा पराक्रम है अहिंसा। तुम अहिंसा को अपनी कायरता को छिपाने के लिए आड़ मत बना लेना।
अकसर लोग अहिंसक होते हैं और उनका भीतरी तर्क यह होता है कि न हम किसी को मारेंगे, न कोई हमें मारेगा। वस्तुतः इरादा तो यह होता है, कोई हमें न मारे। तो वे कहते हैं, हम तो अहिंसक हैं। हम किसी को मारने में भरोसा नहीं करते। वे यह कह रहे हैं कि हम पर कृपा करना, मारना मत। हम तुम्हें नहीं मारते, तुम हमें मत मारना। हम तुम्हें जीने देते हैं, तुम हमें जीने दो। यह तो हिंसा से भी नीचे हुई बात। यह तो चालबाजी हुई। कूटनीति हुई, राजनीति हुई।
गांधी की अहिंसा राजनीति है। महावीर की अहिंसा धर्म का ज्वलंततम रूप है। महावीर यह नहीं कहते कि मुझे मत मारो। महावीर कहते हैं, मुझे मारना हो, तुम्हारी मौज। तुम्हारी नासमझी। लेकिन मैंने यह अनुभव किया है कि मारने में कुछ सार नहीं, इसलिए मैं नहीं मारता हूं। यह दुस्साहस है! अपने को असुरक्षा में छोड़ देने से बड़ा और कोई दुस्साहस नहीं।
"हाथी-सा स्वाभिमानी...।' हाथी में एक स्वाभिमान है। इसीलिए तो हाथी सम्राटों के लिए प्रतीक बन गया। हाथी की सवारी श्रेष्ठतम सवारी बन गयी। लेकिन एक खयाल रखना, हाथी में स्वाभिमान है, अहंकार नहीं। अपने बल पर भरोसा है, लेकिन अपने बल की कोई घोषणा नहीं। वहीं हाथी सिंह से भिन्न है। सिंह में अहंकार है।
बड़ी पुरानी प्रसिद्ध कथा है ईसप की कि एक सिंह जंगल में गया। उसने पूछा एक सियार से कि जंगल का राजा कौन? सियार ने कहा, आप हैं महानुभाव! आपके अतिरिक्त और कौन राजा है? आप महाराजा हैं, सम्राट हैं। लोमड़ी से पूछा। खरगोश से पूछा। चीते से पूछा। सबने कहा, आप ही सम्राट हैं; कैसी बात पूछते हैं?
फिर हाथी के पास आया। हाथी से पूछा कि इस जंगल का सम्राट कौन है? हाथी ने अपनी सूंड में सिंह को फंसाया और कोई पचास फीट दूर फेंक दिया। सिंह नीचे गिरा, झाड़-झूड़कर धूल फिर वापिस आया और कहा कि अगर तुम्हें उत्तर मालूम नहीं, तो नाराज होने की क्या बात है!
लेकिन हाथी की कोई घोषणा नहीं है। सिंह की घोषणा है। हाथी चुपचाप है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग अपने अहंकार की घोषणा करते हैं, उनमें हीनभाव होता है। "इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स' होती है। इसीलिए घोषणा करते हैं। जो व्यक्ति वस्तुतः अपने से तृप्त है, वह अपने अहंकार की घोषणा नहीं करता, घोषणा का प्रयोजन क्या है? किसके सामने सिद्ध करना है? सिद्ध तो तभी करना होता है जब भीतर लगता है कि हूं नहीं। तो प्रमाण जुटाने पड़ते हैं। सिद्ध करना पड़ता है। जब तुम्हें भीतर पता ही है तो तुम घोषणा नहीं करते। जिसका तुम्हें पता है, अनुभव है, उसकी तुम घोषणा नहीं करते।
कोई पुरुष अगर बीच बाजार में खड़ा होकर चिल्लाने लगे कि मैं पुरुष हूं और प्रमाण दे सकता हूं, तो लोगों को संदेह हो जाएगा। इसके पुरुष होने में शंका है। पुरुष हो तो हो। घोषणा की कोई जरूरत नहीं है। किसे कहने जाना है? किसको समझाना है! कौन पूछ रहा है!
कहते हैं, लाओत्सू अपने एक मित्र के साथ एक पहाड़ से गुजर रहा था। सुबह हुई, सूरज ऊगा, पक्षियों के गीत गूंजने लगे--बड़ी सुहावनी सुबह थी, बड़ी प्यारी सुबह थी। मित्र ने कहा, बड़ी सुंदर सुबह है। लाओत्सू ने कहा, इनकार कौन कर रहा है? मित्र ने कहा, बड़ी सुहावनी सुबह है। लाओत्सू ने बड़े चौंककर देखा और कहा, इनकार कौन कर रहा है? कहने की जरूरत कहां है?
जो है, है। उसकी घोषणा की जरूरत नहीं। जो नहीं है, उसकी घोषणा करनी पड़ती है। शायद मित्र को संदेह रहा होगा! है या नहीं? उसी संदेह में पूछा है। शायद लाओत्सू भी हां भर दे, तो भरोसा आ जाए। हम दूसरों से पूछते फिरते हैं--मैं सुंदर हूं? मैं बुद्धिमान हूं? मैं त्यागी हूं? दूसरों से पूछते हो! तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं। और हम दूसरों को समझाते हैं कि मैं त्यागी हूं। जब दूसरे को भरोसा आ जाता है, तो हमें भरोसा आता है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक मकान बेचना चाहता था। एक एजेंट को बुलाया। नदी के किनारे एकांत में बना उसका मकान है। कभी-कभी गर्मी के दिनों में वहां रुकता था। कहा, इसे बेच देना है। एजेंट ने विज्ञापन दिया पत्रों में। दूसरे दिन सुबह जब मुल्ला ने विज्ञापन पढ़ा, तो बड़ा चकित हो गया। सुंदर नदी का वर्णन था। उस दृश्य का जो मकान को घेरे हुए है। मकान की ऐसी महिमा का बखान था कि उसने कहा अरे, इसी मकान की तो मैं जीवनभर से तलाश कर रहा हूं! उसने फोन किया एजेंट को कि बेचना नहीं है। भूलकर नहीं बेचना है--एजेंट ने पूछा, इतनी जल्दी आप बदल गये? कल...कल ही तो आपने बेचने के लिए कहा था। बदलाहट का कारण क्या है? मुल्ला ने कहा, तुमने जो विज्ञापन दिया है, उसने मुझे भरोसा दिला दिया। इसी मकान की तो मैं जिंदगीभर से खोज कर रहा हूं। मुझे अब तक पता ही न था।
जब तक हम दूसरे से भरोसा न पा लें, तब तक हमें भरोसा नहीं आता। और ऐसा भरोसा दो कौड़ी का है, जो दूसरे के कारण मिलता है, हाथी को देखा? सिंह को देखा? सिंह में एक अकड़ है। प्रगट अकड़ है। चलता है तो, उठता है तो, बैठता है तो, घोषणा है। हाथी में कोई घोषणा नहीं है। इसीलिए तो कहते हैं, हाथी चलता जाता है, कुत्ते भौंकते रहते हैं। वह इनकार भी नहीं करता, कि तुम क्यों भौंक रहे हो? वह नाराज भी नहीं होता। वह जानता है, कुत्ते हैं, भौंकेंगे। चुपचाप अपनी मंथरगति से चलता है। महावीर कहते हैं, हाथी-सा स्वाभिमान।
"वृषभ-सा भद्र...।' बैल से ज्यादा भद्र कोई प्राणी नहीं। आस्कर वाइल्ड ने कहीं लिखा है कि अगर बैलों को पता चल जाए कि उनकी शक्ति कितनी है, तो वे मनुष्य-जाति को उखाड़कर फेंक दें। लेकिन बैलों के बल पर ही मनुष्य-जाति फलती-फूलती रही है। इसीलिए तो हिंदू गाय की पूजा करते हैं। उसी से खेती है, उसी से दूध है, उसी से ईंधन है, उसी से खाद है। और वृषभ गाड़ियां खींचता, बोझ ढोता, कोल्हू चलाता। मनुष्य-जाति का पूरा का पूरा अब तक का इतिहास, सौ वर्ष पहले तक जब तक कि मशीनों का ईजाद न हुआ था और बैल की जगह यंत्रों ने न ली थी, मनुष्य ने जो भी सभ्यता खड़ी की थी, वह बैलों के कंधों पर है। अगर बैल को हटा लो, आदमी की सारी सभ्यता गिर जाती है। आज भी मनुष्य-जाति का बड़ा हिस्सा बैलों के सहारे ही जी रहा है।
"वृषभ-सा भद्र...।' बैल की भद्रता बड़ी अदभुत है। उसने कोई बगावत नहीं की कभी। उसने कोई क्रांति नहीं की। वह चुपचाप सेवा करता रहा है। उसका व्यवहार बड़ा सज्जनोचित है। महावीर कहते हैं, वृषभ-सा भद्र।
"मृग-सा सरल...।' मृग की आंखों में कभी झांकना। वैसी सरल आंखें फिर और कहीं नहीं हैं। ऐसा भरोसा, ऐसी श्रद्धा जैसी मृग की आंखों में है, फिर और कहीं नहीं है। इसीलिए तो किसी अति सरल क्वांरी स्त्री की आंखों को हम मृगनयनी, मृगनयन, कहते हैं। जिसने कभी कुछ पाप नहीं जाना है। पाप की रेखा जिसकी आंख पर नहीं है। मृग जैसी कोरी, क्वांरी आंखें। भरोसा ही भरोसा।
महावीर कहते हैं, मृग-सा सरल। खयाल रखना, महावीर के प्रतीक सोचने जैसे हैं। पशुओं से प्रतीक ले रहे हैं महावीर। आदमी सरल भी होता है तो उसकी सरलता में जटिलता होती है। सरलता में भी पाखंड होता है। सरलता में भी दिखावा होता है, प्रदर्शन होता है। सरलता में भी दांव-पेंच होते हैं। तुम जिसको साधु कहते हो, उसको महावीर साधु नहीं कहेंगे। क्योंकि वह मृग-सा सरल नहीं है। उसकी सरलता बड़ी चेष्टित है, बड़ी अभ्यासजन्य है। साधी गयी है। महावीर कहते हैं, अनसाधी सरलता। मृग-सी सरलता का अर्थ है--अनसाधी। जिसका अभ्यास नहीं किया गया। स्वाभाविक। तुम अभ्यास कर सकते हो।
हम सबने बहुत-सी बातों के अभ्यास किये हैं।
राह पर कोई मिल जाता है तो मुस्कुराते हो, चाहे भीतर आंसू घुमड़ रहे हों, चाहे भीतर दुख के बादल घिरे हों। चाहे भीतर प्राणों को कौंधनेवाली पीड़ा चौंक रही हो। चाहे रोआं-रोआं रोना चाहता हो, लेकिन राह पर कोई मिल गया है, तो तुम मुस्कुराते हो। अभ्यास कर लिया। ओंठों का अभ्यास। मुस्कुराहट आती नहीं हृदय से। आयेगी कैसे? लेकिन ओंठों को फैला लेने का अभ्यास तुमने कर लिया है--वह कोई कठिन नहीं है। ओंठों को फैला लेने से भ्रांति पैदा होती है कि मुस्कुराये। यह कैसी मुस्कुराहट! जिसकी जड़ें हृदय तक न गयी हों, वह मुस्कुराहट झूठी है। आरोपित है। सरल मुस्कुराहट तो छोटे बच्चे में मिलेगी। जिसने अभी दांव-पेंच नहीं सीखे
इसलिए महावीर कह रहे हैं कि दांव-पेंच भूलो तो सरल होओगे। और तुम्हारा जो साधु है, वह तुमसे भी ज्यादा दांव-पेंच में है। उसको सरल कहना असंभव है। और सरल ही साधु है। सीधा, छोटे बच्चे-जैसा। स्वभाव से जो जी रहा है, वही साधु है। अगर तुम अभ्यास करो, तो उपवास का अभ्यास हो सकता है। तुम अभ्यास करो, तो रात जागते रह सकते हो। तुम अभ्यास करो, तो धूप में खड़े रह सकते हो, कांटों पर सो सकते हो। लेकिन इसमें सरलता नहीं होगी। इस सब के पीछे अभ्यास होगा। तुम साधु नहीं बन रहे, तुम किसी सर्कस के योग्य बन रहे हो। साधु का लक्षण महावीर कहते हैं, मृग-सा सरल; सहज। इसी को कबीर ने कहा है--"साधो, सहज समाधि भली।'
एक तो समाधि है, जो चेष्टा कर-कर के लायी जाती है। और एक समाधि है जो सब चेष्टा छोड़ देने से आती है। हो रहो छोटे बच्चे की भांति। जो भीतर हो, वही बाहर हो। चाहे कुछ भी कीमत चुकानी पड़े। चाहे कोई भी मूल्य मांगा जाए, लेकिन जो भीतर हो, वही बाहर हो। भीतर और बाहर में भेद न हो, द्वंद्व न हो। बाहर भीतर की छाती पर न चढ़े। बाहर भीतर की ही खबर हो। बाहर भीतर का ही स्वर गूंजे। बाहर भीतर की ही तरंगें आयें। जो भीतर है, वही बाहर हो। तब तो कोई सरल होता है। लेकिन वैसी सरलता तथाकथित साधुओं में नहीं पायी जाती।
इधर मेरे अनुभव ये हैं--पश्चिम से लोग आते हैं, वे पूरब के लोगों से ज्यादा सरल हैं। होना नहीं चाहिए था ऐसा। क्योंकि पूरब के लोगों को खयाल है, हम धार्मिक हैं। लेकिन पूरब का आदमी बड़ा जटिल है। पश्चिम से आदमी आता है तो वह सरल है। उसकी सरलता, पशुओं-जैसी सरल है। तुम्हारा साधु कहेगा, यह तो पशु-व्यवहार है। महावीर से पूछो, उसकी सरलता बच्चों-जैसी है। तुम पश्चिम के आदमी को सुविधा से लूट सकते हो। पूरब के आदमी को लूटना इतना आसान नहीं। इसके पहले कि तुम उसकी जेब काटो, उसका हाथ तुम्हारी जेब में पहुंच जाएगा।
पूरब का आदमी जो प्रश्न भी पूछता है, वे भी जटिल हैं। सरल नहीं हैं। उसके प्रश्नों में भी दांव-पेंच है, शास्त्र है, परंपरा है। सीधे हृदय के प्रश्न नहीं हैं।
पश्चिम से आदमी आता है, सीधे प्रश्न पूछता है--और पश्चिम भौतिकवादी है। और पूरब अध्यात्मवादी है--लेकिन इस अध्यात्मवाद ने सरल नहीं बनाया, इसने और जटिल बना दिया। जटिलता बड़े रूप ले लेती है। और ऐसे सूक्ष्म रूप ले लेती है कि तुम्हें पता भी न चले।
फिर ऐसा भी मेरा अनुभव है कि जब साधु मुझसे मिलने आते हैं, तो उनसे मैं सामान्य गृहस्थ को ज्यादा सरल पाता हूं। साधु तो बड़ा जटिल मालूम होता है। कभी-कभी साधु मुझसे मिलने आते हैं। तो पहले उनके श्रावक आते हैं, वे कहते हैं महाराज जी को बिठाइयेगा कहां? तुमको क्या फिकिर! आने दो उनको, मेरे और उनके बीच में निपटारा कर लेंगे। कहां बिठाना, कहां नहीं बिठाना! लेकिन वे कहते हैं कि नहीं, महाराज जी ने ही पुछवाया है; बैठेंगे कहां वह? अगर जैन-मुनि को हाथ जोड़कर नमस्कार भी करो, तो वह नमस्कार का उत्तर नहीं देता। क्योंकि वह हाथ जोड़ नहीं सकता किसी को। यह तो खूब साधुता हुई! यह तो खूब सरलता हुई! यह तो बड़ी जटिलता हो गयी।  श्रावक को कैसे वह हाथ जोड़े? असंभव।
एक महासम्मेलन हुआ, कोई तीन सौ साधु सारे देश से निमंत्रित थे। आयोजकों ने बड़ी मंच बनायी थी कि तीन सौ साधु साथ बैठ सकें। पर यह हो न सका। एक-एक को बैठकर ही प्रवचन देना पड़ा। क्योंकि कोई दूसरे के साथ बैठने को राजी न था। शंकराचार्य अपने सिंहासन पर ही बैठना चाहते थे। जब शंकराचार्य सिंहासन पर बैठें, तो दूसरे लोग हैं, वे भी नीचे नहीं बैठ सकते, उनको भी सिंहासन चाहिए। यह भी हो सकता है कि सबको साथ बिठा दो, लेकिन तब शंकराचार्य बैठने को राजी नहीं। क्योंकि उनको ऊपर ही होना चाहिए। वह किसी के नीचे बैठना तो दूर, किसी के साथ बैठने को भी राजी नहीं।
ये लोग, जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, शरीर नहीं! ये लोग, जो कहते हैं कि हम आत्मा हैं, मन नहीं! ये नीचे नहीं बैठ सकते। ये साथ नहीं बैठ सकते। बड़ी जटिलता है!
महावीर के शब्द याद रखना--"मृग-सा सरल।'
"पशु-सा निरीह...।' पशु में एक निरीहता है। एक हेल्पलेसनेस। असहाय अवस्था है पशु की। साधु ऐसा ही असहाय होगा इस विराट संसार के उपद्रव में। अपने किए कुछ होता नहीं मालूम पड़ता। जो करते हैं वही गलत हो जाता है। जीवन में इतनी-इतनी सूक्ष्म उलझाव की गलियां हैं कि भटक-भटक जाते हैं।
"पशु-सा निरीह...।' महावीर ने पशु को बड़ा सम्मान दे दिया। ये सारे प्रतीक पशुओं से ले लिये। मैं भी तुमसे कहता हूं कि पशुओं से बहुत कुछ सीखने को है। और जो मनुष्य पशु जैसा सरल न हो सके, वह छोड़ दे खयाल परमात्मा-जैसे सरल होने का। पशु-जैसी सरलता परमात्मा-जैसे सरल होने का पहला चरण है। पशु-जैसी सरलता, निरीहता, असहाय अवस्था बड़ी बहुमूल्य है। सभ्यता बड़ी खतरनाक है। सभ्यता ने मनुष्य को मारा। सभ्यता महारोग है। इससे तो पशु बेहतर। आमतौर से तो हम पशुओं का उपयोग तभी करते हैं, जब हमें आदमी की निंदा करनी होती है। महावीर उपयोग कर रहे हैं प्रशंसा के लिए।
थोड़ा फर्क समझना। अगर किसी आदमी की हमें निंदा करनी होती है, तो हम कहते हैं, क्या पशु-जैसा व्यवहार कर रहे हो, आदमी बनो! महावीर कह रहे हैं, क्या आदमी-जैसा व्यवहार कर रहे हो, पशु बनो। इसलिए मैं कहता हूं, ये सूत्र बड़े क्रांतिकारी हैं। और महावीर ठीक हैं, सौ प्रतिशत ठीक हैं। आदमी पशु से भी गया-बीता है। आदमी जैसा पशुता से भरा है, ऐसी पशुता से भरा कोई भी पशु नहीं है। सिंह भी शिकार करता है, हिंसा करता है, लेकिन भोजन के लिए। खिलवाड़ के लिए नहीं।
मैंने सुना है, एक कहानी है कि एक सिंह और एक खरगोश एक होटल में गये। खरगोश ने बैरा को आवाज दी और कहा कि नाश्ता ले आओ। बैरा ने पूछा कि और आपके साथी, यह क्या लेंगे? खरगोश ने कहा उनकी छोड़ो, अगर वह भूखे होते तो तुम सोचते हो मैं यहां बैठता! नाश्ता उन्होंने कर लिया होता; मगर वे भरे-पेट हैं।
सिंह भरा-पेट हो तो हमला नहीं करता। आदमी भरे-पेट हमला करता है। लोग जंगल में शिकार करने जाते हैं, उनसे पूछो, किसलिए? आखेट! खेल!! क्रीड़ा!!! मारने का खेल! सिंह की बात तो समझ में आ जाती है कि भूखा है, इसलिए हमला करता है। तुम भरे-पेट, किसलिए हमला करने जाते हो? तुम कहते हो, खेलने का मजा ले रहे हैं। कभी खयाल किया, अगर शिकारी पर शेर हमला कर दे तो हम खेल नहीं कहते। और शिकारी बंदूकें लेकर सिंहों को छेदता रहे, तो हम खेल कहते हैं। और पतन की कोई सीमा होगी! शिकारी अपने घर में सिंहों के सिर लटका कर रखता है दिखाने को कि कितने सिंह उसने मार डाले हैं। खेल में!
राजा-महाराजाओं के महलों में कभी-कभी मुझे जाने को मौका मिला--कभी कोई राजा-महाराजा निमंत्रित कर लिया, तो वे दिखाते हैं ले जाकर कि उनके पिता ने कितने सिंह मारे। मैं चकित होता हूं, सिंह तुम्हारे पिता को मार डालता तो कुछ बहुत आश्चर्य की बात न थी, लेकिन तुम्हारे पिता ने इतने सिंह किसलिए मारे? दिखावे के लिए। और मारे ऐसे साधनों से, जो सिंह के पास नहीं हैं। यह कोई खेल हुआ! बंदूक सिंह के हाथ में नहीं है, तलवार सिंह के हाथ में नहीं है; अगर मारना ही था, बहादुरी ही सिद्ध करनी थी, तो नंगे हाथ सिंह से लड़े होते। कम से कम उतनी सुविधा सिंह को भी तो दो! खेल का इतना तो नियम मानो, अगर यह खेल ही है--चलो खेल ही सही। तो एक आदमी नंगा खड़ा है, हाथ में लकड़ी भी नहीं, बचाव का कोई उपाय भी नहीं है, और तुम बंदूक लिए खड़े हो। और खेल खेल रहे हो! उसको भी तो इतनी ही सुविधा दो। फिर खेल हो! कम से कम खेल में दोनों के साथ पक्षपात तो नहीं होना चाहिए किसी के साथ। दोनों समतुल हों। और फिर बहादुरी बता रहे हो? बंदूकें लेकर, वृक्षों पर मचानें बांधकर, हजारों आदमियों का जत्था लेकर एक गरीब सिंह को घेर लिया और मार डाला।
एक महाराजा मुझे अपने महल में ले गये। मैंने उनसे कहा, तुम्हारे बाप पागल थे? क्या हुआ था? वह कहने लगे, पागल नहीं, बड़े शिकारी थे। मैंने कहा, मुझे तो लगता है पागल थे। इन गरीब सिंहों ने बिगाड़ा क्या था उनका? और उन्होंने किया क्या मारकर? यह प्रदर्शन लगा रखा है! और जो मारा जिस ढंग से, वह ढंग बिलकुल गैर-जायज है। जाते, लड़ लेते, हाथ से खुली लड़ाई हो जाती, फिर एकाध सिंह को मार लाते, तो सोचते भी कि कोई बात हुई।
लेकिन, आदमी अन्याय करता है। और सोचता है अपने को कि आदमी! पशुओं के जगत में कोई अन्याय नहीं। अगर भूख लगती है, तो सिंह हमला करता है, क्योंकि वही प्रकृति ने उसे भोजन का उपाय दिया। लेकिन भूख न हो, तो हमला नहीं करता। तुम आदमी की जब निंदा करना चाहते हो, तो उससे कहते हो, पशु मत बनो। महावीर कह रहे हैं, पहले पशु तो बनो! परमात्मा बनना तो बहुत दूर है। तुम आदमी बन गये हो।
आदमी यानी झूठ। आदमी यानी पाखंड। सभ्यता यानी ऊपर से थोपा गया जबर्दस्ती का आरोपण। भीतर आग जल रही है, ऊपर फूल चिपकाये हुए हैं। भीतर जहर फैल रहा है, ऊपर अमृत की चर्चा हो रही है। भीतर कुछ है, बाहर कुछ। पशु कम से कम वही तो है--जो भीतर है, वही बाहर है। सिंह को तुम कितना ही छेदो, सिंह ही पाओगे। हर पर्त पर सिंह पाओगे। परिधि से लेकर केंद्र तक सिंह ही मिलेगा। आदमी को छेदो, हजार-हजार चीजें पाओगे। आदमी तुम कहीं न पाओगे। पर्त पर कुछ मिलेगा, थोड़े भीतर जाओ, कुछ और मिलेगा, और भीतर जाओ कुछ और मिलेगा। इसीलिए तो लोग अपने भीतर नहीं जाते। क्योंकि भीतर जाकर घबड़ाहट होती है कि यह मैं क्या हूं? लोग अपना दर्शन नहीं करना चाहते। लोग बातें करते हैं आत्मा की, आत्म-दर्शन की, कोई करना नहीं चाहता। क्योंकि अपना दर्शन करने का अर्थ होगा, यह सब जो विक्षिप्तता की अनेक-अनेक पर्ते हैं, यह सब उघड़ेंगी, इन्हें जानना पड़ेगा। इनसे गुजरकर ही तुम कहीं उस तक पहुंच पाओगे, जो तुम्हारा असली स्वरूप है। महावीर कहते हैं, "पशु-सा निरीह।'
"वायु-सा निसंग...।' हवा बहती रहती है। लेकिन निसंग। किसी से संग-साथ नहीं बांधती। फूलों के पास से गुजर जाती है, तो भी वहां ठिठककर रह नहीं जाती कि इतना सौरभ है, अब यहीं रुक जाएं! अब यहीं घर बना लें! शीतल नदियों से गुजरती है, वहां रुक नहीं जाती। सुंदर उपत्यकाओं में, लेकिन रुक नहीं जाती। असंग-भाव से बहती रहती है। अकेली ही रहती है, कोई संगी-साथी नहीं बनाती।
महावीर कहते हैं, निसंग-भाव साधु का आत्यंतिक लक्षण है। उसमें सब के प्रति मैत्री है, लेकिन मित्र वह किसी को भी बनाता नहीं। इसको खयाल लेना।
मैत्री-भाव को महावीर ने बहुत महिमा दी है। लेकिन कहा, मित्र मत बनाना। मित्र बनाने में अर्थ हुआ, रुक गये, नदी ठहर गयी, डबरा बन गयी। मैत्री रखना। सब के प्रति प्रेम-भाव रखना। लेकिन प्रेम को कहीं ठहराकर डबरा मत बनाना। हवा की तरह मुक्त रहना। कहीं बंधना मत। हवा को कौन बांध पाया? हवा कहां रुकती? यात्रा, अनंत यात्रा, और अकेली...।
"सूर्य-सा तेजस्वी...।' यह सिर्फ प्रतीक ही नहीं हैं। महावीर जैसे व्यक्ति जब किन्हीं शब्दों का उपयोग करते हैं, तो यूं ही नहीं करते। गहरे कारणों से करते हैं। जैसे ही व्यक्ति सरल होता है, निसंग होता है, भद्र होता है, निरीह होता है, अकेला होता है, वैसे ही उसके भीतर एक अगाध ज्योति जलने लगती है। क्योंकि कपट में बुझ जाती है ज्योति। कपट का धुआं तुम्हारी ज्योति को घेर लेता है। पाखंड में बुझ जाती है ज्योति। सरलता में धुआं बिखर जाता है, अलग हो जाता है, ज्योति जलने लगती है। सूर्य-सा तेजस्वी हो जाता है व्यक्ति। रक्ताभ! एक आभा उसे घेर लेती है।
"सागर-सा गंभीर...।' विराट! जिसकी कोई सीमा नहीं, कोई कूल-किनारा नहीं। जिसकी थाह पानी मुश्किल। ऐसा गहरा, गंभीर।
"मेरु-सा निश्चल...।' मेरु जैन-पुराणों का प्रतीक है। मेरु है वह पर्वत, जो विश्व का केंद्र है। और जिसके केंद्र पर सारी चीजें घूमती हैं। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर। मेरु कील है सारे अस्तित्व की। और जैसा गाड़ी का चाक घूमता है, लेकिन कील थिर रहती है। चाक घूम ही इसीलिए सकता है कि कील थिर रहती है। अगर कील भी घूम जाए, गाड़ी गिर जाए। कील को नहीं घूमना चाहिए, तो ही चाक घूम सकता है। यह सारा संसार घूम रहा है, क्योंकि केंद्र में कोई चीज है जो थिर है। शाश्वत-रूप से थिर है। जैन-पुराण उसे मेरु कहते हैं। वह तो प्रतीक शब्द है।
लेकिन इसे वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि कहीं कोई एक बिंदु तो होना ही चाहिए अस्तित्व में--अभी तक उसका कोई पता नहीं चला, कहां है। अभी तक हमें पूरे अस्तित्व का ही पता नहीं चला, तो केंद्र का कैसे पता चलेगा! बड़ा विराट है अस्तित्व। अभी तो हम परिधि को भी नहीं छू पाये हैं, तो केंद्र को कैसे छू पायेंगे! लेकिन वैज्ञानिक इसको एक "हाइपोथीसिस', एक परिकल्पना की भांति स्वीकार करते हैं कि जरूर कोई एक कील तो होनी ही चाहिए, जिस पर सारा अस्तित्व घूम रहा है। चांदत्तारे घूम रहे हैं, सूरज घूम रहा है, पृथ्वी घूम रही है, ग्रह-नक्षत्र घूम रहे हैं। यह इतना विराट चक्र घूम रहा है, तो कहीं कोई कील तो होनी ही चाहिए। अन्यथा बिना कील के तो चाक घूम नहीं सकता था। उस कील को जैन-शास्त्रों ने मेरु कहा है।
"मेरु-सा निश्चल...।' और साधु वही है, जिसने अपने भीतर की कील को पा लिया। शरीर चलता है, साधु नहीं चलता। शरीर भोजन करता है, साधु नहीं करता। शरीर बोलता है, साधु अबोला है। शरीर जवान होता, बूढ़ा होता; साधु न जवान होता, न बूढ़ा होता। शरीर जन्मता है, मरता है; साधु का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। ऐसी प्रत्येक क्रिया के बीच, प्रत्येक गति के बीच, प्रत्येक भंवर के बीच, जिसने अपने भीतर के मेरु को पकड़ा हुआ है, वही साधु है। चलो राह पर, मगर एक बात ध्यान में रखकर चलना कि तुम न कभी चले हो, न चल सकते हो। चलता है चाक, तुम ठहरे हुए हो। कूटस्थ। सदा से ठहरे हुए हो। कभी हिले नहीं। तुम ही हिल जाओ, तो फिर शरीर चल न सकेगा। फिर तो डगमगा कर वहीं गिर जाएगा।
विचार चलते हैं। विचार का वर्तुल घूमता रहता है--बवंडर की भांति। तुमने कभी धूल के बवंडर देखे? गर्मी के दिनों में जब उठते हैं--बड़ा बवंडर उठता है, बड़े धूल के बादल उठते हैं--आकाश तक उठ जाते हैं, छप्पर उड़ जाते मकानों के, टीन-टप्पर उड़ जाते हैं, कभी-कभी तो छोटे बच्चे तक उड़ गये हैं; लेकिन जब तूफान चला जाए, आंधी विदा हो जाए, धूल का बवंडर शांत हो जाए, तब तुम जरा जाकर देखना उस भूमि पर जहां बवंडर उठा था। तुम बड़े चकित होओगे, बीच में एक केंद्र है; उसका निशान छूट जाता है। चारों तरफ बवंडर के निशान छूट जाते हैं, लेकिन बीच में एक बिलकुल शुद्ध जगह है, जहां कोई बवंडर न था। बवंडर की भी कील होती है। बिना कील के बवंडर भी नहीं हो सकता।
मनुष्य एक बवंडर है धूल का, मिट्टी का, लेकिन भीतर आत्मा की कील है।
महावीर कहते हैं, "मेरु-सा निश्चल।' चलते समय याद रखना उसकी, जो कभी नहीं चला। भोजन करते वक्त याद रखना उसकी, जो कभी भोजन नहीं करता। भूख में याद रखना उसकी, जिसको कभी भूख नहीं लगती। दुख आये, याद रखना उसकी जिस पर कभी दुख नहीं पहुंचता--न दुख, न सुख; न प्रीति, न अप्रीति; न सफलता, न असफलता। सभी द्वंद्व चके पर हैं। कील बाहर है।
उस अतिक्रमण करनेवाली कील को पकड़ना। साधु की सारी चेष्टा यही है। ध्यान में, समाधि में यही तो चेष्टा है कि किसी तरह अपनी कील को पकड़ ले।
कबीर का बड़ा प्रसिद्ध वचन है--"दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय'
कबीर ने एक चक्की चलते देखी। कोई चक्की चला रही है औरत सुबह-सुबह, कबीर लौटते होंगे सुबह कहीं भ्रमण के बाद, देखा सब पिसा जा रहा है। लौटकर घर उन्होंने यह पद रचा। उनका बेटा कमाल बैठा सुन रहा था। उसने कहा कि रुको, ठीक कहते हो कि पाट के बीच कोई भी साबित नहीं बचा, लेकिन बीच में एक कील है, कभी उसका खयाल किया? उसके सहारे जो गेहूं के दाने लग जाते हैं, वे नहीं पिसते।
चक्की चलायी तुमने कभी? अब चक्की खो गयी है, इसलिए शायद तुम्हें खयाल भी न हो, लेकिन बीच की कील के सहारे जो दाने लग जाते हैं, वे फिर पिस नहीं पाते। उनको फिर दुबारा डालना पड़ता है। जिसने कील का सहारा लिया, वह बच गया।
संसार दो पाटों की तरह पीस रहा है। लेकिन इसमें मेरु की कील भी है। शरीर और मन के दो पाट तुम्हें पीस रहे हैं, पर इसके बीच में आत्मा की कील भी है। उसे पकड़ो। उसे गहो। उसका साथ लो। उसके सहारे हो जाओ। फिर तुम्हें कोई भी पीस न पायेगा। जन्म आये, जन्म; मौत आये, मौत; दुख, सुख, जो आये, आये; तुम अछूते, पार, दूर बने रहोगे। तुम्हें कुछ भी छू न पायेगा।
"चंद्रमा-सा शीतल...।' चंद्रमा में प्रकाश है, लेकिन सूरज के प्रकाश जैसा ताप नहीं। सूरज में प्रकाश तो है, बहुत है, लेकिन ताप भी है। जलाता भी है। सूरज के ज्यादा पास न जा सकोगे। झुलसा देगा। चंद्रमा में ताप नहीं है, सिर्फ प्रकाश है। चंद्रमा के प्रकाश में जैसे अमृत है। मनुष्य-जाति सदा से चंद्रमा के पास जाने को आतुर रही है। छोटे बच्चे पैदा होते से ही चांद की तरफ हाथ बढ़ाने लगते हैं। "चंदामामा' को पकड़ने की चेष्टा शुरू हो जाती है। आदमी सदियों से चांद पर जाने की सोचता रहा, अब तो पहुंच भी गया। लेकिन यह असली चांद नहीं है। यह खोज किसी और चांद की है। तुम पहुंच गये बाहर के चांद पर, पहुंचना था भीतर के चांद पर।
महावीर कहते हैं, "चंद्रमा-सा शीतल।' साधु प्रकाशोज्ज्वल होता है, लेकिन उसका प्रकाश शीतल है। दग्ध नहीं करता। जलाता नहीं। मलहम की भांति है घावों पर। भरता है घाव को। प्राणों को तृप्त करता है। सूरज से तो तुम ऊब सकते हो कभी, चांद से कभी नहीं ऊब सकते। चांद आदमी को आंदोलित ही करता रहा है सदा-सदा। उसकी शीतलता बड़ी आकर्षक रही है। चांद की रात प्रेम की रात है। चांद की रात काव्य की रात है। चांद से सागर ही आंदोलित नहीं होता, मनुष्य के हृदय में भी बड़ी तरंगें उठती हैं, बड़े ज्वार आते हैं।
चांद-सा शीतल हो साधु। उसमें प्रकाश तो हो, देदीप्यमान हो, लेकिन प्रकाश किसी को झुलसाये न। उसके पास जाकर तुम्हारे घावों पर मलहम-पट्टी हो, चोट न लगे। तुम बड़े हैरान होओगे, जिनको साधारणतः तुम साधु कहते हो, वे सदा तुम्हारी निंदा कर रहे हैं। चोट करना ही उनका धंधा है। तुम्हारा अपमान करना ही उनका व्यवसाय है। तुम्हें गाली देना ही उनके प्रवचन हैं। तुम्हें चोर, पापी बताना ही उनका कुल उपदेश है। लेकिन इन घावों से तुम कोई जीवन-पथ पर थोड़े ही आ जाओगे। इनसे एक ही परिणाम होता है कि तुम आत्मनिंदा से भर जाते हो। तुम अपने ही प्रति विरोध से भर जाते हो। तुम्हारे भीतर "गिल्ट', अपराध भाव पैदा होता है।
और जिस आदमी के जीवन में अपराध-भाव पैदा हो गया, वह आदमी नर्क में जीने लगता है। क्योंकि वह जो करता है, वही गलत मालूम होता है। पत्नी को प्रेम करो, तो पाप। बेटे को प्रेम करो, तो पाप। सुंदर मकान बनाओ, तो पाप। एक बगिया बनाओ, तो पाप। अच्छे कपड़े पहनकर निकल जाओ, तो पाप। भोजन में स्वाद लो, तो पाप। तो आदमी को जीने दोगे, कि नहीं जीने दोगे। हर चीज पाप! यह चंद्रमा की शीतलता न हुई। यह तो बड़ी जलानेवाली आग हो गयी।
साधुओं के पास जाकर--जिन्हें तुम साधु कहते हो--तुम प्रसन्नचित्त नहीं लौट पाओगे। तुम अप्रसन्नचित्त, खिन्नमना होकर लौटोगे। जैसे तुम्हारे रोग ही खूब-खूब बढ़ा-बढ़ाकर दिखा देना उनका काम है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब तक धर्म के नाम पर लोगों ने बड़ा अत्याचार किया है, अनाचार किया है। लोगों को अपराधी बना दिया है। तुम जो करो उसी में भूल है। जब सभी करने में भूल है, तो स्वभावतः तुममें एक निंदा पैदा होती है कि यह क्या जीवन हुआ! तो मैं गर्हित हूं, कुत्सित हूं, नारकीय हूं! तुम्हारे जीवन में उदासी छा जाती है।
महावीर कहते हैं, "चंद्रमा-सा शीतल।' तुम्हारे पास घाव हैं, माना; तुम बीमार हो, माना; लेकिन बीमार की निंदा थोड़े ही करनी है। चिकित्सक के पास जाओ तो बीमार का इलाज करना है, निंदा थोड़ी करनी है। जो चिकित्सक निंदा करने लगे, तुम टी. बी. की बीमारी लेकर गये, वह टी. बी. को गालियां देने लगे और तुमको गालियां देने लगे कि तुमने टी. बी. पैदा क्यों की, छोड़ो इसको, त्याग करो इसका! छोड़ना तो तुम भी चाहते हो, लेकिन छोड़ो कैसे? यही तो पता नहीं है। तुमने जानकर थोड़े ही पकड़ा है। अनजाने पकड़ा है। अब किसी को बुखार चढ़ा है और तुम कहो कि छोड़ो बुखार! बुखारवाला क्या कहेगा? वह कहेगा, महानुभाव, छोड़ना तो मैं भी चाहता हूं, लेकिन बुखार छोड़े तब न! कोई मैं बुखार में थोड़े ही रहना चाहता हूं; लेकिन मुझे पता नहीं कि मैं क्या करूं, कुछ सहायता करें, औषधि लायें
साधु औषधि है। उसके पास जाकर शीतलता मिले, उसके पास जाकर आश्वासन मिले, अपराध का भाव नहीं। उसके पास जाकर भरोसा मिले, हताशा नहीं। उसके पास जाकर तुम्हारे जीवन का सूर्योदय हो; तुम्हें लगे कि माना कि बहुत गलतियां हैं, कोई फिकिर नहीं, गलतियों से बड़ा मेरे भीतर छिपा हुआ खजाना है। गलतियां मैंने की हैं, कोई हर्जा नहीं, भूल-चूक सबसे होती है, लेकिन मेरे भीतर छिपा हुआ परमात्मा है। साधु के पास जाकर तुम्हारा भविष्य प्रगाढ़ हो, प्रखर हो, उज्ज्वल हो, साफ-साफ दिखायी पड़े; साधु के पास जाकर तुम्हें अपने भविष्य का सपना मिले, आश्वासन मिले, बल मिले, हिम्मत मिले, आशा बंधे कि हो सकता है, मुझमें भी हो सकता है। कितना ही बुरा हूं तो भी, हो सकता है। कितने ही दूर चला गया हूं, तो भी वापस लौटने का उपाय है। साधु के पास जाकर पापी को अपने संतत्व का खयाल आये। अभी तो जिनको तुम साधु कहते हो, उनके पास अगर संत भी जाए, तो उसको भी अपने पाप का खयाल!
"चंद्रमा-सा शीतल; मणि-सा कांतिवान...।' कांतिवान। कांति बड़ी मनमोहक आह्लादकारी वर्षा का नाम है। साधु के पास तुम्हारे ऊपर कुछ बरसने लगता है। बहुत आहिस्ता-आहिस्ता। पदचाप भी नहीं होती। कहीं कोई आवाज भी नहीं होती। साधु के प्राण तुम्हें घेरने लगते हैं। साधु की आभा तुम्हें भी घेरने लगती है। तुम्हारी आंखें ठगी रह जाती हैं। तुम एकटक साधु से बंधे रह जाते हो। जैसे किसी मणि को देखकर तुम सम्मोहित हो जाओ; फिर कहीं और देखने का मन न हो; मणि की तरफ ही आंखें लगी रहें; उसी तरफ दर्शन की सारी धारा मुड़ जाए।
"पृथ्वी-सा सहिष्णु...।' कुछ भी घटे, साधु की सहिष्णुता नहीं टूटती। कुछ भी हो जाए, साधु डगमगाता नहीं। तुम उसे सुख में, दुख में समान पाओगे। तुम उसे सफलता, विफलता में समान पाओगे, सम्मान-अपमान में समान पाओगे।
"सर्प-सा अनियत-आश्रयी...।' सर्प अपना घर नहीं बनाता। अनियत-आश्रयी। जहां मिल गयी जगह, वहीं सो लेता है। जहां मिल गयी जगह, वहीं विश्राम कर लेता है। अपना घर नहीं बनाता। यह बड़ी बारीक बात है। इससे केवल इतना ही प्रयोजन नहीं है कि कोई घर में न रहे, इससे प्रयोजन यह है कि कोई सुरक्षा के घर न बनाये, कोई बैंक बैलेंस पर बहुत ज्यादा भरोसा न करे। वह सब छिन जाएगा। कोई मिट्टी के घरों में बहुत ज्यादा अपने प्राण न डाले, क्योंकि वे सब मिट जाएंगे। मुक्त रहे। घरों में हो, तो भी घरों का न हो। दुकानों पर हो, तो भी दुकानों का न हो। बाजार में खड़ा रहे, तो भी बाजार के बाहर रहे। याद बनी ही रहे कि यह जगह घर बनाने की नहीं। घर तो परमात्मा है। यहां तो हम परदेस में हैं। यहां तो यात्रा है। यहां तो अगर कभी थक जाते हैं, तो रुकना है, पड़ाव पर; लेकिन पड़ाव मंजिल नहीं है।
"आकाश-सा निरावलंब...।' और कोई सहारा न खोजे। इतना निरावलंब हो जैसा आकाश है। कोई आधार नहीं आकाश का, कोई बुनियाद नहीं, कोई खंभे नहीं, जिन पर सधा हो। बस है। आकाश-जैसा हो जाए।
महावीर दिगंबर रहे, नग्न रहे। वह आकाश-जैसी चर्या थी। दिगंबर का अर्थ होता है, आकाश को ही जिसने अपना वस्त्र बना लिया। दिगंबर का मतलब सिर्फ नग्न नहीं होता। नग्नता तो बड़ी आसान है। कोई भी कपड़े छोड़ दे तो नग्न हो सकता है। लेकिन जो आकाश को अपना वस्त्र बना ले, वह है दिगंबर। वह नग्न तो होगा, लेकिन नग्नता में सिर्फ नग्नता नहीं है, कुछ और बड़ी घटना घटी है। पूरा आकाश ही उसने अपना घर बना लिया, अपने वस्त्र बना लिया। अब अलग से वस्त्रों की कोई जरूरत नहीं रही। अब उसने अपने को प्रगट कर दिया। जैसा है वैसा प्रगट कर दिया। नग्न, तो नग्न।
ऐसा साधु परमपद मोक्ष की यात्रा पर है।
सीह गय-वसह-मिय-पसु, मारूद-सुरूवहि-मंदरिदुं-मणी
खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू।।
परमपद की यात्रा पर ऐसा व्यक्ति चल पाता है। बड़ी कठिनाइयां हैं रास्ते में। और उन कठिनाइयों को जीतने के लिए तुम्हें बड़े गुण निर्मित करने होंगे।
जवानी की अंधेरी रात है जुल्मत का तूफां है
मेरी राहों से नूरे-माहो-अंजुम तक कुरेजां है
खुदा सोया है ऐ हरमन महशर बदामा है
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
चांदत्तारे खो गये हैं; परमात्मा का पता नहीं--कहां सो गया है; शैतान जागा हुआ है, राह पर बड़ा गहरा अंधेरा है--
खुदा सोया है ऐ हरमन महशर बदामा है
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
गमो-हिर्मा युरुश है मसाइब की घटाएं हैं
जुनूं की फितनाखेजी हुस्न की खूनी अदाएं हैं
बड़ी पुरजोर आंधी है बड़ी काफिर बलाएं हैं
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
बड़े आकर्षण हैं जगत के। जवानी का पागलपन है, हुस्न की बड़ी खींच है, सौंदर्य का बुलावा है।
बड़ी पुरजोर आंधी है बड़ी काफिर बलाएं हैं
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
अफक पर जिंदगी के लश्करे-जुल्मत का डेरा है
हवादिस के कयामतखेज तूफानों ने घेरा है
जहां तक देख सकता हूं अंधेरा ही अंधेरा है
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
तलातुमखेज दरिया आग के मैदान हाइल हैं
गरजती आंधियां बिखरे हुए तूफान हाइल हैं
तबाही के फरिश्ते जब्र के शैतान हाइल हैं
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
संकल्प और दिशा का बोध हो तो अंधेरा तुम्हें तोड़ेगा नहीं। अंधेरा ही तुम्हें मौका देगा अपने स्वयं के प्रकाश को खोजने का। तो जवानी तुम्हें मिटायेगी नहीं, जवानी ही तुम्हारा संन्यास बनेगी। तो ऊर्जा तुम्हें भटकायेगी नहीं, ऊर्जा पर ही चढ़कर तुम  परमऊर्जा के परमपद तक पहुंचोगे। जिस व्यक्ति को दिशा का बोध है, गंतव्य का थोड़ा खयाल है, जिसने अपनी सुई में धागा पिरोया है, फिर अंधेरा कितना ही हो, वह अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता है। और कितनी ही बाधाएं हों, और कितने ही पत्थर राह पर पड़े हों, वह उनकी सीढ़ियां बना लेता है। वह हर स्थिति को चुनौती समझता है। और हर हार को नया शिक्षण समझता है। हर हार को जीत के लिए उपाय बना लेता है। और बढ़ता ही जाता है।
मगर मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता ही जाता हूं
यह जो महावीर ने गुण कहे, यह राह पर तुम्हें साथ देंगे। इन एक-एक गुण को खूब ध्यानपूर्वक सोचना, विचारना, मनन करना, आत्मसात करना।
"प्रबुद्ध और उपशांत होकर संयतभाव से ग्राम और नगर में विचरण कर शांति को बढ़ा। शांति का मार्ग बढ़ा। हे गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।'
गौतम महावीर के प्रमुख शिष्य हैं। जैसे कृष्ण ने अर्जुन को संबोधित करके गीता कही है, ऐसे महावीर के सारे वचन गौतम को संबोधित करके हैं। गौतम के बहाने सभी के लिए कहे हैं।
बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गाम गए नगरेसंजए
संतिमग्गंबूहए, समयं गोयम! मा पमायए।।
"प्रबुद्ध और उपशांत होकर...।' दो बातें ध्यान में रखनी जरूरी हैं। प्रबुद्धता और उपशांति। अगर तुम सिर्फ शांत हो जाओ और प्रबुद्ध न होओ, तो नींद में खो जाओगे। नींद में हम सभी शांत हो जाते हैं। लेकिन नींद कोई मंजिल नहीं है। अगर तुम प्रबुद्ध हो जाओ, बहुत जागे हुए हो जाओ, और शांत न हो सको, तो तुम पागल हो जाओगे। क्योंकि विश्राम तुम्हें मिल न सकेगा। जो आदमी सात दिन न सो पाये, वह विक्षिप्त होने लगेगा। कहते हैं, तीन सप्ताह जो आदमी न सोये, वह सुनिश्चित रूप से पागल हो जाएगा। विश्राम भी चाहिए।
तो महावीर का सूत्र है: "प्रबुद्ध और उपशांत'; एक साथ। शांत भी बनो और जागे हुए भी बनो। यह दोनों साथ-साथ बढ़ें, अलग-अलग नहीं। अगर तुम प्रबुद्ध न हुए तो नींद में खो जाओगे। नींद अच्छी है, सुखद है, लेकिन सुख ही थोड़े गंतव्य है। परम आनंद न मिलेगा, मोक्ष न मिलेगा। मोक्ष तो जागे हुए के लिए है। लेकिन अगर तुम सिर्फ जागने ही लगो, और अनिद्रा को तुम समझ लो कि साधना है, और शांत होना खो जाए, तो तनाव से भर जाओगे। तनाव तुम्हें तोड़ देगा। दोनों का साथ-साथ जोड़ चाहिए। अनुपात दोनों का बराबर चाहिए। आधा-आधा। और सम्यक-रूप से साधना में जानेवाले व्यक्ति को निरंतर याद रखनी चाहिए कि इन दो में से किसी की भी मात्रा ज्यादा न हो पाये। अमृत भी बे-मात्रा हो, तो जहर हो जाता है। और जहर भी मात्रा में लिया जाए तो औषधि बन जाता है। तो एक तरफ शांति को बढ़ाओ और एक तरफ जागरण को।
"हे गौतम, शांति का मार्ग बढ़ा! हे गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर!' एक क्षण भी बेहोशी में मत गंवा।
जागो फिर एक बार।
प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोल रही द्वार--
जागो फिर एक बार।
आंखें अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फंसीं,
बंद कर पांखें
पी रहीं मधु मौन,
अथवा सोयीं कमल कोरकों में?
बंद हो रहा गुंजार--
जागो! जागो फिर एक बार।
प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
जागो! जागो फिर एक बार।
महावीर के सभी वचन अंततः अप्रमाद पर पूरे होते हैं। वे कहते हैं--
जागो, फिर एक बार!
और इसके बाद का सूत्र तो बहुत सोचने जैसा है। सोचना।
"भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते...।'
भविष्य में लोग कहेंगे, महावीर खो गये।
"भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते, और जो मार्गदर्शक हैं वे भी एकमत नहीं हैं। किंतु आज तुझे गौतम, न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।'
महावीर कहते हैं, सदियों तक फिर लोग पूछेंगे, कहां पायें जिन-जैसा शास्ता? महावीर-जैसा सदगुरु? और अभी, मैं मौजूद हूं, महावीर कहते हैं गौतम से, तेरे सामने हूं गौतम, और अभी तू सो रहा है। फिर सदियों तक लोग रोयेंगे और पछतायेंगे। और तू सामने मौजूद है। मार्ग तेरी आंखों के सामने बिछा है। तू किस लिए बैठा है? उठ!
"भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते...।'
ण हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए
और महावीर कहते हैं कि और जो मार्गदर्शक होंगे, वे आपस में एकमत न होंगे। महावीर अपने ही मार्ग पर पड़ जानेवाली शाखाओं, विशाखाओं की बात कर रहे हैं। कह रहे हैं, अभी मार्ग बिलकुल एकजुट है। पगडंडियां अलग-अलग टूटी नहीं। अभी मार्ग राजपथ-जैसा है: तू चल! भविष्य में लोग पूछेंगे, जिन कहां हैं? कहां उनके दर्शन हों, जो मार्ग दिखायें? और जो मार्ग दिखानेवाले लोग होंगे रास्ते पर, कोई "तेरापंथी' होगा, कोई "दिगंबर' होगा, कोई "श्वेतांबर' होगा। पंथों में और छोटे पंथ होंगे और हजार मत होंगे। और बड़ा संघर्ष होगा। और अभी मार्ग सुस्पष्ट है, गौतम! तू क्यों बैठा है? उठ!
जागो फिर एक बार!
प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें।
महावीर, बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट, कितने तारों ने तुम्हें जगाया है!
प्यारे, जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें।
"न्यायपूर्ण मार्ग तुझे उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद मत कर।'       
फिर एक दिन तो लोग कहेंगे--
छुप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर
अब तो बस आवाज ही आवाज है
एक दिन तो वीणा टूट जाएगी। इस जगत में कुछ भी सदा रहने को नहीं है। महावीर खो जाएंगे। बुद्ध खो जाएंगे।
छुप गये वो साजे-हस्ती छेड़कर
अब तो बस आवाज ही आवाज है
फिर आवाज गूंजती रहती है सदियों तक। लोग ऐसे बेसुध पड़े हैं कि जब संगीत बजता होता है, तब वे बैठे रहते हैं। जब वीणा खो जाती, सिर्फ प्रतिध्वनि रह जाती; जब शास्ता खो जाते और शास्त्र मात्र रह जाते, तब बड़ी माथापच्ची लोग करते हैं, बड़ा विवाद करते हैं। बड?ा चिंतन-मनन करते हैं।
सारी महफिल जिसपे झूम उठी "मज़ाज़'
वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है
जब वीणा टूटती है, तब सोये हुए लोग चौंककर उठते हैं। मज़ाज़ की ये पंक्तियां बड?ी प्यारी हैं--
सारी महफिल जिसपे झूम उठी "मज़ाज़'
वो तो आवाजे-शिकस्ते-साज है
वह तो वीणा के टूटने की आवाज है, पागलो! जिस पर सारी महफिल झूम उठी। जब महावीर मरते हैं, तब तुम जगते हो। जब महावीर जाते हैं, तब तुम चिल्लाते हो। और ऐसा सभी महावीरों के साथ हुआ। ऐसा ही आज भी होता है। आदमी में कोई बहुत फर्क नहीं पड़े। कपड़े बदल गये। मकानों के बनाने के ढंग बदल गये। रास्तों पर बैलगाड़ियों की जगह कारें हैं। आकाश में पक्षियों की जगह हवाई जहाज हैं। आदमी के पैर जमीन को नहीं छूते, चांदत्तारों पर चलने लगे, पर आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ा। वही होता रहेगा।
यही मैं तुमसे भी कहता हूं: भविष्य में लोग कहेंगे, आज जिन दिखायी नहीं देते; और जो मार्गदर्शक हैं, वे भी एकमत नहीं हैं; किंतु आज तुझे न्यायपूर्ण मार्ग उपलब्ध है। गौतम, क्षणमात्र भी प्रमाद न कर।
"वास्तव में भाव ही प्रथम या मुख्य लिंग है। द्रव्य लिंग परमार्थ नहीं है। क्योंकि भाव को ही जिनदेव गुण-दोषों का कारण कहते हैं।'
महावीर कहते हैं, भाव ही असली बात है। क्रिया तो उसकी छाया है। जो भाव में घट जाता है, वह क्रिया में आयेगा ही। उलटा जरूरी नहीं है कि सच हो। जो क्रिया में घटता है वह भाव में आये, यह जरूरी नहीं है। लेकिन जो भाव में आ गया, वह क्रिया में तो आयेगा ही, यह अनिवार्य है। इसलिए भाव मुख्य है, प्रथम है, आधारभूत है। लोग भाव की कम चिंता करते हैं, द्रव्य की ज्यादा चिंता करते हैं। समझो--
दान भाव में हो, तो चीजें तो तुम दे सकोगे लोगों को; लेकिन भाव में देने की क्षमता आ जाए, बांटने का सुख आ जाए, रस आ जाए बांटने में, तो चीजें तो गौण हैं, तुम दे दोगे। कोई प्रयोजन नहीं है दूसरी बात का। वह आ ही जाएगी। लेकिन यह हो सकता है कि तुम चीजें तो बांटते रहो और देने का भाव बिलकुल न हो। तो चीजों के बांटने को ही तुम सब कुछ मत समझ लेना। वह गौण है। दोयम है।
जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल
जिसमें न दिल हो शरीक उस लय में कुछ भी नहीं
तुम गीत तो गा सकते हो, लेकिन अगर दिल ही शरीक न हो, तो उस लय में कुछ भी नहीं।
जिसमें खुलूसे-फिक्र न हो, वह सुखन फिजूल
और जिसमें गहराई न हो चिंतन की, मनन की, ध्यान की, उस काव्य का कोई भी मूल्य नहीं। तुम काव्य तो रच सकते हो। वह तुकबंदी होगी; लेकिन जब तक प्राण न डालोगे, उसमें प्राण न होंगे। काव्य शब्दों से नहीं बनता, न मात्राओं से, न छंद के नियमों से, काव्य बनता है प्राणों को उंडेलने से। इसीलिए तो कभी-कभी जिन्होंने प्राण उंडेल दिये, और काव्य के जिन्हें किसी नियम का कोई पता न था, वे भी शाश्वत हो गये।
कबीर, कुछ भी जानते नहीं काव्य के नियम। लेकिन शाश्वत रहेगी उनकी वाणी। हृदय ही उंडेल दिया। मूल ही उंडेल दिया, तो गौण की क्या फिकिर? मात्राएं पूरी थीं या न थीं; छंद के नियम पूरे हुए या न हुए, प्राण ही डाल दिये। भाव ही प्रथम है। भाव को ही जिन ने, महावीर ने गुण-दोषों का कारण कहा है।
"भावों की विशुद्धि के लिए ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है। जिसके भीतर परिग्रह की वासना है, उसका बाह्य त्याग निष्फल है।'
अगर बाहर का त्याग किया भी जाए तो भी यही ध्यान रखकर किया जाए कि वह भीतर के त्याग के लिए निमित्त बने।
भावविसुद्धिणिमित्तं, बाहिरगंथस्स कीरए चाओ
बाहिरचाओ विहलो, अब्भंतरगंथजुत्तस्स।।
निमित्त बन जाए, बस। एक बहाना बने। लेकिन असली बात भीतर की रहे। तो लोग बाहर से तो छोड़ देते हैं, भीतर से छोड़ते नहीं। छोड़ने तक को पकड़ लेते हैं। त्याग तक की अकड़ आ जाती है कि मैंने लाखों छोड़े।
"जो देह आदि की ममता से रहित है, मान आदि कषायों से पूरी तरह मुक्त है, तथा जो अपनी आत्मा में लीन है, वही साधु भाव-लिंगी है।'
द्रव्य-लिंगी, भाव-लिंगी, ऐसे साधुओं के दो रूप महावीर ने किये। द्रव्य-लिंगी वही है, जिसने धन छोड़ा; लेकिन पकड़ना न छोड़ा। भाव-लिंगी वही है, जिसने धन भी छोड़ा, लेकिन धन छोड़ा क्योंकि पकड़ना ही छोड़ दिया। पकड़ ही छोड़ दी। नहीं तो मन बड़ा चालाक है। एक चीज छोड़ता है, दूसरी पकड़ लेता है, पकड़ कायम रहती है। धन छोड़ो, धर्म पकड़ लो। घर छोड़ो, संन्यास पकड़ लो। गृहस्थी छोड़ो, मंदिर पकड़ लो।
एक चीज छोड़ी, दूसरी पकड़ी, मुट्ठी तो बंधी ही रही। कंकड़-पत्थर छोड़े एक रंग के, दूसरे रंग के पकड़ लिया। धन छोड़ा, तो ज्ञान पकड़ लिया। महावीर कहते हैं, पकड़ छोड़ो। मुट्ठी खुली रखो। सत्य कुछ आकाश-जैसा है। मुट्ठी बांधो, बाहर हो जाता है। मुट्ठी खोलो, भीतर आ जाता है। खुली मुट्ठी पर पूरा आकाश रखा है। बंद मुट्ठी खाली है। कुछ भी नहीं।
कहावत तो है, लोग कहते हैं--बंद मुट्ठी लाख की। बंद मुट्ठी खाक की, लाख की छोड़ो! खाक भी नहीं है। मगर बंद मुट्ठी लाख की लोग कारण से कहते हैं। वे यह कहते हैं, बंद रहे तो लोगों को भ्रम रहता है कि कुछ होगा। इसीलिए तो समझदार लोग बंद मुट्ठी रखे हुए हैं। खुद भी डरते हैं खोलने से, कहीं खुद को भी पता न चल जाए कि कुछ भी नहीं है। बंद रहती है, तो खुद को भी भरोसा रहता है कि है, बहुत कुछ है। जब तक नहीं देखा तब तक तो है ही! इसीलिए लोग आंख खोलकर नहीं देखते, नहीं तो सपने टूट जाएं! सपनों का संसार टूट जाए!
देहादिसंगहिओ, माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो
अप्पा अप्पमि रओ, भावलिंगी हवे साहू।।
भाव-लिंगी ही साधु है। द्रव्य-लिंगी साधु नहीं है; साधु-जैसा दिखायी पड़ता है। और द्रव्य-लिंग और भाव-लिंग में फर्क क्या है? इतना ही फर्क है, भाव-लिंगी ने अंतर को बदला, जागकर; द्रव्य-लिंगी ने बाहर को बदला, सोये-सोये।
इक दीया जला कि जल उठी सुबह
इक दीया बुझा कि रात हो गयी
एक शह लगी कि ढह गया किला
एक शह लगी कि मात हो गयी
इक हवा चली कि खिल उठा चमन
इक हवा चली कि सब उजड़ गया
एक पग उठा कि राह मिल गयी
एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया
फर्क बड़ा थोड़ा-सा है। एक पग का!
इक दीया जला कि जल उठी सुबह
अगर जागरण जग गया, तो सुबह हो गयी। बस एक दीया जल जाए जागरण का; महावीर की भाषा में अप्रमाद का, होश का, विवेक का; एक दीया जल जाए, बस। तुम्हारे भीतर चैतन्य आ जाए बस, तुम उठते-बैठते जागे हुए उठने-बैठने लगो, तो सब बदल जाएगा। और वह एक दीया बुझ जाए, तो फिर तुम लाख उपाय करो, घर छोड़ हिमालय चले जाओ, वस्त्र छोड़ नग्न हो जाओ, धन छोड़ भिखमंगे होकर सड़क पर खड़े हो जाओ, कुछ भी फर्क न होगा। तुम तुम ही रहोगे। एक ही क्रांति है जीवन में, वह है भीतर की अंतर्ज्योति के जग जाने की क्रांति। और सब क्रांति के धोखे हैं।
इक दीया जला कि जल उठी सुबह
इक दीया बुझा कि रात हो गयी
बस एक ही दीये का फर्क है तुममें और महावीर में। इसलिए घबड़ाना मत। बस एक दीये का फर्क है अंधेरे कमरे में और प्रकाशोज्ज्वल कमरे में। रात और सुबह में बस एक दीये का फर्क है।
एक शह लगी कि ढह गया किला
एक शह लगी कि मात हो गयी
इक हवा चली कि खिल उठा चमन
इक हवा चली कि सब उजड़ गया
एक पग उठा कि राह मिल गयी
एक पग उठा कि पथ बिछुड़ गया
उस एक दीये को जलाओ! उस एक दीये पर सारी शक्ति लगा दो! उस एक दीये पर सारा जीवन लगा दो! वह एक दीया जल गया, तो सब मिल गया। वह एक दीया न जला, तो तुम सारे संसार के साम्राज्य को पा लो, तुम भिखमंगे और खाली हाथ ही बिदा होओगे। तुम रिक्त मरोगे।
अगर भरकर जाना हो, खिलकर जाना हो, फूलकर जाना हो, तो उस एक दीये को जला लो। उसे मैं ध्यान का दीया कहता हूं, महावीर उसे अप्रमाद का दीया कहते हैं। बात एक ही है। बुद्ध उसे सम्यक-स्मृति कहते हैं। पतंजलि उसे समाधि कहते हैं। कृष्णमूर्ति उसे "अवेयरनेस' कहते हैं। होश कहो, सावधानी कहो। कबीर उसे सुरति कहते हैं, स्मृति कहते हैं। जो कहना हो कहो--नाम तुम रख लो--इतना ही ध्यान रहे, दीये में ज्योति हो, फिर नाम कोई भी हो!
इक दीया जला कि जल उठी सुबह
इक दीया बुझा कि रात हो गयी।

आज इतना ही।


1 टिप्पणी: