प्रश्नसार:
1— आप
कहते हैं कि
पुण्य भी बांधता
है और पाप भी बांधता
है। तो तीर्थंकरों
को उनका करुणाजन्य
कर्म क्यों
नहीं बांधता?
2—पहली
बार मैं किसी के
प्रेम में पडा
हूं, लेकिन
मेरा अहंकार मुझे
पूरी तरह प्रेम
में डूबने नहीं
देता। मेरा ह्रदय
तो नारद के साथ
है, लेकिन बुद्धि
महावीर के साथ।
उलझन है, खींचतानी
है। कृपया मार्गनिर्देश
दें।
3—कृपाकर कीर्तन—ध्यान
के बारे में कुछ
समझाएं।
पहला
प्रश्न:
आप
कहते हैं कि
पुण्य भी बांधता
है और पाप भी बांधता
है। तो तीर्थंकरों
को उनका करुणाजन्य
कर्म क्यों
नहीं बांधता?
पहली
बात तीर्थंकर
जो करते हैं
वह कर्म नहीं
है, कृत्य
नहीं है; क्योंकि
कर्ता का कोई
भाव नहीं है।
तीर्थंकर जो
करते हैं वह
करते नहीं--होता
है। जैसे तुम
श्वास ले रहे
हो, श्वास
लेना कृत्य
नहीं है। जैसे
श्वास सहज चल रही
है, और जब न
चलेगी तो तुम
कुछ भी न कर
पाओगे--जब तक
चलेगी, चलेगी;
जब रुकेगी
तो रुक
जायेगी।
तुम्हारे हाथ
के भीतर नहीं
है। तुम्हारा
कृत्य नहीं
है।
अहंकार-नियंत्रित
नहीं है।
तीर्थंकर
का कृत्य, कृत्य
नहीं--श्वास
जैसी सहज दशा
है। होता है, किया नहीं
जाता।
करनेवाला कोई
भी बचा नहीं
है। करुणाजन्य
है, ऐसा
कहना भी गलत
है।
करुणापूर्ण
है, लेकिन करुणाजन्य
नहीं। करुणाजन्य
तो तब होता है
जब तुम्हें
दया आए और तुम
कुछ करो।
करुणापूर्ण
तब होता है जब
तुम करुणा से
पूर्ण हो गए
हो--और उससे
कुछ बहता है।
इन
दोनों में
फर्क है।
जब
तुम्हें राह
चलते किसी भिखमंगे
पर दया आती है
तो तुम्हारे
भीतर कुछ
हलन-चलन हो
गया; तुम्हारी
ज्योति कंप
गयी; तुम्हारी
प्रज्ञा थिर न
रही। दूसरे के
दुख से कंप
गयी। पहले
दूसरे के सुख से
कंपती थी।
किसी ने बहुत
बड़ा मकान बना
लिया तोर्
ईष्या जगी थी;
अब किसी के
मकान में आग
लग गयी, तो
दया उठी।
लेकिन हर हाल
तुम कंपे,
तुम थिर न
रहे; तुम
वैसे ही न रहे
जैसा इस भिखमंगे
को देखने के
पहले थे। राह
पर तुम निकले,
कोई न था, अकेले थे, फिर एक
भिखमंगा दिखायी
पड़ा, दया
उठी, भाव
का निर्माण
हुआ--फिर भाव
से कृत्य आया।
तुम्हारी दशा
बदली।
तीर्थंकर की
दशा नहीं बदलती;
इसलिए करुणाजन्य
नहीं है कृत्य,
करुणापूर्ण
जरूर है। जब
भिखारी नहीं
है मार्ग पर, तब भी
तीर्थंकर
करुणा से भरे
हैं। तुम नहीं
भरे हो।
तुम्हें
करुणा से भरने
के लिए किसी
का दुखी होना
जरूरी है।
इसे
ठीक से समझना।
अगर दुनिया से
दुखी लोग विदा
हो जायेंगे तो
तुम्हारी दया
भी समाप्त हो
जायेगी। किस
पर दया करोगे? किसको दान
दोगे? तुम्हारी
दान और दया के
लिए किन्हीं
का दुखी रहना
जरूरी है।
तुम्हारी दान,
दया के लिए
दुख आवश्यक
है। कोई न
होगा कोढ़ी,
कोई न होगा
बीमार--किसके
पैर दबाओगे?
तुम्हारी
दया एकदम मर
जायेगी, कुम्हला
जायेगी। उसके
लिए बाहर से
कोई प्रेरणा
चाहिए। तो
तुम्हारी दया
भी बाहर से
पैदा हुआ
परिणाम है।
तीर्थंकर
करुणापूर्ण
हैं--नहीं कि
किसी पर करुणा
करते हैं; करुणा से
भरे हैं, जैसे
दीये से
प्रकाश झरता
है: कोई निकल
जाये तो उस पर
पड़ता है, कोई
न निकले तो भी
जलता रहता है;
किसी के
निकलने से
नहीं जलता और
किसी के चले जाने
से बुझ नहीं
जाता; किसी
पर निर्भर
नहीं है। आत्म
भाव की दशा
है।
तो
तीर्थंकर की
करुणा
तुम्हारे दुख
के कारण नहीं है।
तुम सुखी हो
तो भी
तीर्थंकर की
करुणा तुम पर
उतनी ही है
जितने तुम
दुखी हो।
तुमसे कुछ प्रयोजन
नहीं है। तुम
नहीं हो तो भी
तीर्थंकर की
करुणा उतनी ही
है, जब कि तुम
हो। तुम्हारा
होना न होना
कुछ फर्क नहीं
लाता।
तीर्थंकर की
करुणा
तुम्हारे और तीर्थंकर
के बीच संबंध
नहीं
है--तीर्थंकर
की दशा है; उसकी
अवस्था है; उसका आनंदभाव
है। वह तुम पर
इसलिए करुणा
नहीं कर रहा
है कि तुम
दुखी हो। उससे
तुम्हारी तरफ
करुणा बहती है
क्योंकि वह
आनंदित है। इस
भेद को बहुत
ठीक से समझ
लेना।
तुम्हारी
जरूरत है, इसलिए
नहीं देता है
वह; उसके
पास जरूरत से
ज्यादा है, इसलिए देता
है।
जीसस
के जीवन में
कहानी है, जो उन्होंने
बहुत बार कही।
एक बगीचे
के मालिक ने
सुबह-सुबह
मजदूर बुलाए।
अंगूरों का
बगीचा था और
जल्दी ही फसल
को काट लेना
था। मौसम बदला
जाता था। सुबह
जो मजदूर आये
उन्होंने
दोपहर तक काम
किया। मालिक
आया, उसने
देखा। उसने
कहा, इतने
मजदूरों से
शाम तक काम निपटेगा
नहीं। तो भेजा
अपने मुनीम को
कि और मजदूर
ले आओ। तो
भर-दुपहरी कुछ
और मजदूर लाए
गये। फिर आया
मालिक। सांझ
ढलने को थी।
उसने कहा, इनसे
भी काम न हो
पायेगा; कुछ
और बुला लाओ।
तो सूरज
ढलते-ढलते काम
बंद होतेऱ्होते
कुछ मजदूर आए।
और जब रात्रि
में उसने पैसे
बांटे तो सबको
बराबर दे
दिये--जो सुबह
आये थे उनको
भी, जो
दोपहर आये थे
उनको भी, जो
सांझ आये थे
उनको भी।
जिन्होंने दिनभर काम
किया उनको भी,
और
जिन्होंने
कुछ भी काम न
किया था उनको
भी। तो जो
सुबह आये थे
वे निश्चित नाराज
हो गये। और
उन्होंने कहा,
"यह अन्याय
है। हम सुबह
से आये हैं, दिनभर पसीना
बहाया है।
हमें भी उतना,
और इन्हें
भी उतना जो
अभी-अभी आये
और जिन्होंने
कुछ भी नहीं
किया, जिन्हें
करने का मौका
ही न मिला, क्योंकि
सूरज ढल गया?'
तो उस
मालिक ने कहा, तुम्हें कम
तो नहीं दिया
है? उन्होंने
कहा, "नहीं,
कम नहीं
दिया है।
जितनी मजदूरी
मिलती, उससे
ज्यादा ही
दिया है।
लेकिन अन्याय
हो रहा है।
इन्होंने तो
कुछ भी नहीं
किया।' तो
उस मालिक ने
कहा कि तुम
अपनी फिक्र
करो। तुम्हें
जितना मिलना
था उससे
ज्यादा मिल
गया, तुम
प्रसन्न नहीं
हो। तुम इनसे
तुलना मत करो।
इन्हें मैं
काम के कारण
नहीं देता; मेरे पास
बहुत है, इसलिए
देता हूं। मैं
सबको बराबर दे
रहा हूं। मेरे
पास जरूरत से
ज्यादा है।
तुम्हारे काम
के कारण नहीं;
मेरे पास है,
इसलिए; मैं
बोझ से दबा
हूं, इसलिए।
जीसस
की कहानी बड़ी
महत्वपूर्ण
है।
महावीर
तुम्हें देते
हैं तुम्हारे
दुख के कारण नहीं।
मिला है
उन्हें, खूब
मिला है! और
उसको न बांटें
तो वह बोझिल
हो जाता है।
उसे बांटना
जरूरी है। अगर
तुम न भी
होओगे तो भी
बांटेंगे।
अगर तुम सुखी
होओगे तो भी
बांटेंगे।
तो
तुम्हारे दुख
से तुम
तीर्थंकर की
करुणा को मत
जोड़ना। तुमसे
उसका कोई
संबंध नहीं
है। तीर्थंकर
की करुणा का
संबंध उसके
अंतर-आनंद से
है, सच्चिदानंद
से है। वह
अपनी आत्मा
में रमा है और
उसने इतना पा
लिया है। और
जो पाया है वह
कुछ ऐसा है कि
बांटो तो बढ़ता
है, न
बांटो तो घट
जाता है।
इसलिए तुम पर
करुणा करके
तीर्थंकर कुछ
कर रहे हैं, ऐसा नहीं।
आनंद-भाव में
बांटते
हैं--बांटने
से बढ़ता है।
जितना बांटते
हैं, उलीचते
हैं, उतना
बढ़ता चला जाता
है; उतने
नये स्रोत
खुलते चले
जाते हैं। तो
जब रोज-रोज
नया-नया आनंद
बरस रहा हो, बासे को कौन
रखेगा! तुम
सांझ भोजन कर
लेते हो, फिर
बांट देते हो।
लेकिन गरीब
बासी रोटी को
भी रख लेता है:
कल काम पड़ेगी।
तुम
बांटने से
डरते हो, क्योंकि
कल का पक्का
नहीं है। और
आज का अगर बांट
दिया तो कल
मिलेगा या
नहीं! लेकिन
तीर्थंकर उस
दशा में हैं
जहां प्रतिपल
अनंत बरस रहा
है। तो जो इस
क्षण बरसा है,
उसे बांट ही
देना है; क्योंकि
दूसरे क्षण के
लिए जगह खाली
करनी है। अगर
न बांटा तो
बासा पड़ा रह
जायेगा और बासे
के कारण नये
के आने में
बाधा पड़ेगी।
और अगर बासा
बहुत इकट्ठा
हो गया, उसकी
राशियां लग
गयीं तो नये
के जन्म की
कोई संभावना न
रह जायेगी।
तो न
तो तीर्थंकर
का कृत्य
कृत्य है, और न करुणाजन्य
है--करुणापूर्ण
है। इसलिए कोई
बंध नहीं--न
पाप का न
पुण्य का।
तीर्थंकर से
बहुत कुछ होता
है, लेकिन
तीर्थंकर कुछ
करता
नहीं।...सहजस्फूर्त;
जैसे पक्षी
गीत गाते हैं!
मिर्जा
गालिब से कोई
पूछा कि लोग
आपकी कविताओं
की बड़ी
प्रशंसा करते
हैं, लेकिन
मेरी तो कुछ
समझ में नहीं आतीं। और
जो प्रशंसा
करते हैं, मुझे
शक है कि उनकी
भी समझ में
आती हैं!
क्योंकि जब भी
मैंने उनसे
पूछा तो वे
समझा न पाये, आप कुछ
कहें।
गालिब
ने बड़ा
अजीब-सा उत्तर
दिया। आकाश की
तरफ देखा और
कहा, "खुदा
बड़ा है। कविता
से खुदा का
क्या
लेना-देना?' कहा, खुदा
बड़ा है उस
आदमी ने भी
कहा, "यह तो
निश्चित ही है
कि खुदा बड़ा
है। लेकिन इससे
मेरे प्रश्न
का क्या संबंध
है?' उन्होंने
कहा, "थोड़ा
ठहरो। खुदा
बड़ा है, यह
तुम मानते हो?'
उसने कहा, "निश्चित
मानता हूं।'
"लेकिन खुदा
को समझते हो?'
समझ
में तो कुछ भी
नहीं आता। तो
गालिब ने कहा, "ऐसी ही मेरी
कविताएं हैं।
मैं ही कहां
समझता हूं!'
समझ
छोटे की होती
है, विराट की
नहीं। हमारी
छोटी समझ
है--कंजूस की, कृपण की समझ
है। तो हम
कृत्य की भाषा
जानते हैं
केवल; सहज
की भाषा हमें
पता नहीं। हम
तो कर-करके
मुश्किल से कर
पाते हैं, तो
हम यह कैसे
मानें कि कुछ
अपने-आप होता
है। हम तो
कर-करके भी
नहीं कर पाते
हैं और हार
जाते हैं, विफल
हो जाते हैं।
जोड़-जोड़कर
नहीं जुटा
पाते तो हम यह
कैसे मानें कि
कोई लुटा-लुटाकर,
और अपनी
संपदा को बढ़ा
लेता होगा? हम तो तिजोड़ियां
बांध-बांधकर
आखिर में पाते
हैं राख हाथ
में रह गयी।
जोड़-जोड़ के भी
कुछ नहीं जुड़ता
हो, जिसने
एक ही गणित
जाना हो, वह
यह कैसे
मानेगा कि
बांटने से बढ़
सकता है, पागल
हुए हो? होश
की बातें करो,
वह कहेगा।
यहां हार गए
जीत-जीतकर, तुम कहते हो
हार कर जीत हो
जाती है!
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं, ऐसा है। जोड़-जोड़कर
नहीं जुड़ता,
इससे सिद्ध
होता है कि
विपरीत शायद
सही हो। क्योंकि
जोड़-जोड़कर
तो कोई कभी
नहीं जोड़
पाया। तो एक
बात तो तय हो गयी
कि जोड़ने
से नहीं जुड़ता
है। अब तुम
जरा दूसरा
प्रयोग करके
देख लो कि बांटने
से बढ़ता है।
लेकिन
बांटोगे तो
तभी जब होगा।
तीर्थंकर
का अर्थ है: जो
है; जिसके
पास है।
बुद्ध
के पास एक
आदमी आया और
उसने कहा कि
ऐसा मन होता
है कि
"मनुष्यता कि
सेवा में सब
कुछ लगा दूं।
आपका
आशीर्वाद
चाहिए!' कहते
हैं, बुद्ध
की आंखें गीली
हो गयीं, उनमें
आंसू झलक आए।
और बुद्ध ने
उस आदमी की तरफ
ऐसी करुणा से
देखा कि वह आदमी
भी विचलित
हुआ। बुद्ध के
शिष्य भी थोड़े
घबड़ाए कि
उसने कुछ ऐसी
बात तो कही
नहीं, भली
आकांक्षा
जाहिर की थी।
वह
आदमी बेचैन
हुआ। उसने कहा
कि आप इतने
उदास क्यों हो
गये? आपकी
आंखें गीली
क्यों हो आयीं?
मैंने कुछ
गलत पूछा? मैंने
आपको कोई चोट
पहुंचायी?
बुद्ध
ने कहा कि
नहीं, यह
सोचकर ही मुझे
दया आती है कि
तुम देने का
सोच रहे हो, लेकिन
तुम्हारे पास
है नहीं। तुम
कहते हो, "सारी
मनुष्यता की
सेवा करनी है
मुझे, कैसे
यह जीवन
अर्पित कर
दूं!' लेकिन
जीवन कहां है?
तुम्हें
मैं देखता हूं
तो खाली हाथ
हो तुम! राख ही
राख है भीतर, जीवन कहां
है? तुम
दोगे क्या? देने के
पहले होना
चाहिए। चूंकि
हमारे पास नहीं
है, इसलिए
हम जोड़ते
हैं। जोड़कर
सोचते हैं कि
हो जायेगा।
जिनके पास है
वे बांटते
हैं। क्योंकि बांटकर
उनको लगता है
कि बढ़ता है।
किसी बगीचे के
माली से पूछो, वृक्षों की
कांट-छांट
करता रहता है
तो वृक्ष घने
होते जाते
हैं। कलम करता
है तो वृक्ष
सघन होते हैं,
बढ़ते हैं।
एक पत्ता काटो
तो चार पत्ते
निकल आते हैं।
एक शाखा काटो
तो दो शाखाएं
पैदा हो जाती
हैं। माली से
पूछो जीवन का
राज!
ऐसे ही
तुम्हारे
अंतर्जीवन का
वृक्ष भी है।
उसे बांटो तो
कलम होती है।
उसे सम्हालकर
रख लो, डर के
कारण छिपाकर
रख लो, सब
तरफ से ढांककर
रख लो--मर जाता
है पौधा जीवन
का। ऐसे ही तो
जीवन के पौधे
कुम्हला गये
हैं। छोड़ो
खुली हवा में!
ले जाने दो
सुगंध को
हवाओं को! छोड़ो
खुले आकाश
में! खेलने दो
मेघों को, होने
दो
मेघ-मल्हार!
नाचने दो तूफानों
और आंधियों
को वृक्ष के
आसपास! बढ़ने
दो वृक्ष को!
खुलने दो, फैलने
दो! यह बढ़ेगा, खूब बढ़ेगा!
ऊपर भी, भीतर
भी। ऊंचाइयों
में भी बढ़ेगा
और गहराइयों में
भी बढ़ेगा।
जितना वृक्ष
ऊपर जाता है
उतनी ही जड़ें
नीचे गहरी चली
जाती हैं।
लेकिन हमने अभी
कृपण का ही
गणित जाना है।
हमने धनी का
गणित जाना ही
नहीं! इसलिए
जब हम तीर्थंकरों
के संबंध में
भी पूछते हैं
तो हम अपने ही
हिसाब से
पूछते हैं। हम
कहते हैं कि
जब पुण्य भी
बांध लेता, तो तीर्थंकर
के
करुणापूर्ण
कृत्य उन्हें
नहीं बांधते?
तीर्थंकर
का अर्थ ही है
कि जो पाप और
पुण्य के पार
हो गया।
तीर्थंकर का
अर्थ ही है जो
कृत्य के पार हो
गया और सहज
में प्रवेश कर
गया।
इस
शब्द "सहज' को खूब-खूब
मंथन करना, चिंतन करना,
ध्यान
करना। यह शब्द
बड़ा बहुमूल्य
है। इस शब्द
का अगर
तुम्हें
अर्थ-विस्फोट
हो जाये तो
तुम्हारे
जीवन में
क्रांति हो
जायेगी। "सहज'
का अर्थ है
जो तुम्हारे
बिना किये
अपने से होता
है। बहुत कुछ
है जो सहज हो
रहा है। उस पर
भी तुम अपने
को आरोपित
किये हो। तुम
कहते हो, "मैं'। किसी से
प्रेम हो जाता
है, तुम
कहते हो, "मैं
प्रेम करता
हूं।' होता
है। तत्क्षण
तुम बदल देते
हो भाषा। तुम
कहते हो, करता
हूं! किसी ने
कभी प्रेम
किया? सुना
कभी तुमने कि
किसी ने प्रेम
किया? कोई
प्रेम कर सकता
है? अगर
मैं तुम्हें
आज्ञा दूं कि
करो प्रेम, तुम कर
पाओगे? तुम
कहोगे, यह
भी कोई आज्ञा
की बात है? यह
कोई मेरे किये
से होगा? होगा
तो होगा। नहीं
होगा तो नहीं
होगा। होता है,
तो होता है।
नहीं होता है,
तो नहीं
होता है। जब
हो जाता है तब
रुका नहीं जा
सकता; और
जब नहीं होता
है तब किया
नहीं जा सकता।
लेकिन
फिर भी तुम
प्रेम पर भी
थोप देते हो
अहंकार को।
तुम कहते हो, मैंने किया
प्रेम। तुम
कहते हो, मैं
तो प्रेम कर
रहा हूं और
तुम नहीं कर
रहे हो। और हम
यही सिखाते भी
हैं।
छोटे-छोटे
बच्चों को भी
मां कहती है, मुझे प्रेम
करो, मैं
तुम्हारी मां
हूं। क्या
पागलपन की बात
हो रही है? कौन
कर पाया प्रेम?
बच्चे की तो
छोड़ दो, बड़े
नहीं कर पाये।
बड़े-बड़े कुशल
नहीं कर पाये।
प्रेम को
करोगे कैसे? कोई
तुम्हारे हाथ
की बात है? प्रेम
कोई कृत्य तो
नहीं। लेकिन
अगर बच्चे को तुमने
जोर दिया कि
करो मुझे
प्रेम, मैं
तुम्हारी मां
हूं, तो
बच्चे को तुम
एक ऐसी असमंजस
में, ऐसे
संकट में, ऐसी
विडंबना में
डाल रहे हो
जिसका
तुम्हें कुछ
पता नहीं कि
तुम क्या कह
रहे हो।
छोटा-सा बच्चा
तड़फेगा; सोचेगा; कैसे
करो प्रेम!
लेकिन करना ही
पड़ेगा; क्योंकि
मां पर सब
निर्भर है।
दूध निर्भर है,
जीवन
निर्भर है।
मां के सहारे
ही बच सकता है
बच्चा। बाप
कहेगा, "मुझे
प्रेम करो, मैं
तुम्हारा बाप
हूं। मैंने
तुम्हें जन्म
दिया!' अब
जन्म देने से
कोई प्रेम का
लेना-देना है?
लेकिन
बच्चा चेष्टा
करेगा कि ठीक
है; जब सब
कहते हैं, बड़े-बूढ़े
कहते हैं तो
करना ही होगा।
तो झूठा मुस्कुराएगा,
झूठे पैर
छुएगा, झूठी
प्रसन्नता
जाहिर करेगा।
शुरू हुआ पाखंड!
फिर जीवनभर
ऐसे ही झूठ
में जीयेगा।
फिर मर जायेगा
और प्रेम की
सहज उदभावना
से परिचित न
हो पायेगा।
क्योंकि पहले
से ही प्रेम
के मार्ग पर
झूठ खड़ा हो
गया।
न, मां इतना ही
कर सकती है कि
अगर उसे बच्चे
के प्रति
प्रेम है तो
करे प्रेम।
अगर उस प्रेम
के संघात में,
अगर उस
प्रेम के
संसर्ग में
बच्चे की
सहजता भी
प्रफुल्लित
हो उठेगी तो
हो
उठेगी--सौभाग्य!
न हो तो
मजबूरी है। हो
जाये तो
सौभाग्य; न
हो तो कुछ
किया नहीं जा
सकता, असहाय
अवस्था है। हो
जाये तो धन्यभाग।
परमात्मा को
धन्यवाद दिया
जा सकता है। न
हो तो शिकायत
करने का कोई
उपाय नहीं है।
स्वीकार कर
लेना होगा, यही भाग्य
है।
लेकिन
इतना ही किया
जा सकता है कि
मां बच्चे को
अगर प्रेम
करती है तो
करे। अगर उसके
भीतर प्रेम का
आविर्भाव हुआ
है तो उलीचे, लुटाए, बरसाए। इस
बरसा में ही
बच्चे की वीणा
भी बजेगी--बजनी
ही चाहिए। इस
प्रेम के
परिवेश में
बच्चे का सोया
हुआ प्राण
जाग्रत होगा।
बच्चे के बीज--प्रेम
के--अंकुरित
होंगे। यह
प्रेम सब तरफ
से बरसता हुआ
उसके भीतर भी
प्रेम की हुंकार
को उठाएगा। यह
प्रेम का
आह्वान उसके
भीतर भी
चैतन्य को जगाएगा।
वह भी प्रेम
से भरेगा, लेकिन
तब प्रेम का
सहज अनुभव
होगा। एक दिन
अचानक पायेगा
वह मां को
प्रेम करता
है। करता है--भाषा
की बात; पायेगा
कि मां से
प्रेम है। और
तब उसके जीवन
में एक बात
निश्चित हो जायेगी
कि भूलकर भी
प्रेम को
कृत्य न
बनाएगा।
शिक्षक
कहते हैं, सम्मान करो,
श्रद्धा
करो। श्रद्धा
कहीं कोई करता
है? होती
है।
मैं
विश्वविद्यालय
में बहुत दिन
तक था। शिक्षकों
की एक ही
परेशानी कि
श्रद्धा खो
गयी, कि
विद्यार्थी
आदर नहीं
करते। मैंने
बार-बार
शिक्षकों के
सम्मेलन में
कहा कि यह बात
ही तुम गलत
तरफ से उठाते
हो। श्रद्धा
कोई कर सकता
है? और जो
की गयी
श्रद्धा थी वह
झूठी थी, इसलिए
उखड़ गई है।
यह सदी
थोड़ी सचाई की
तरफ ज्यादा
झुकी सदी है। आज
का युवक अतीत
के युवक से
सचाई की तरफ
ज्यादा झुका
हुआ युवक है।
एक मां
अपनी बेटी को
कह रही थी कि
जब तक मेरा विवाह
नहीं हुआ तब
तक मैंने किसी
पुरुष का
स्पर्श भी
नहीं किया था।
क्या तू भी
बड़े होकर अपने
बच्चों से यही
कह सकेगी?
उस
युवती ने कहा, कह तो
सकूंगी, मगर
इतनी अकड़ से
नहीं जितनी
अकड़ से तुम कह
रही हो।
क्योंकि मैं
जानती हूं, यह झूठ है।
तो कह तो
सकूंगी अगर
कहना ही पड़ेगा
तो कह सकूंगी,
लेकिन इतनी
अकड़ से नहीं
जितनी अकड़ से
तुम कह रही
हो।
थोड़ी
सचाई की तरफ
झुका हुआ युग
है। तो जो झूठ
जहां-जहां था
वहां से टूट
गया है।
तो
शिक्षकों से
मैंने बहुत
बार कहा कि
तुम जब भी यह
सवाल उठाते हो
कि
विद्यार्थियों
का आदर खो गया
है, तब
तुम्हें असल
में दूसरा
सवाल उठाना
चाहिए--बुनियादी
सवाल--कि तुम
कहीं ऐसा तो
नहीं कि गुरु
नहीं रहे हो? क्योंकि
गुरु हो तो
आदर होता ही
है--होना ही चाहिए;
जैसे वर्षा
हो तो वृक्ष
हरे हो जायें।
अब वृक्ष अगर
सूखने लगें और
बादल शिकायत
करें कि यह
वृक्षों को
क्या हो रहा
है, वर्षा
आ गयी है और
वृक्ष हरे
नहीं हो रहे!
तो हम यही
कहेंगे कि तुम
बरसे कहां? तुम बरसते
तो वृक्षों का
हरा हो जाना
बिलकुल सहज
था। यह अपने
से होता है।
गुरु, गुरु नहीं
है। आकांक्षा
कर रहा है
गुरु को जैसा
सम्मान मिलना
चाहिए वैसा सम्मान
मिलने की। वह
नहीं मिलता।
नहीं मिलता, पीड़ा खड़ी
होती है। वह
जबर्दस्ती
थोपने की कोशिश
करता है।
जबर्दस्ती जो
उस आदर को
करने लगता है
वह भी विकृत
हो जाता है।
तब उसके जीवन
में सहज
श्रद्धा का
उपाय न रहा।
इसे खयाल में
लेना।
जीवन
में जो भी
महत्वपूर्ण
है--सत्यम, शिवम, सुंदरम--जो भी सत्य
है, सुंदर
है, शिव है,
वह सभी होता
है, किया
नहीं जाता। जो
किया जाता है
वह क्षुद्र है।
दुकान चलायी
जाती है। मकान
बनाए जाते
हैं। प्रेम
नहीं किया
जाता।
श्रद्धा नहीं
बनायी जाती।
झूठ गढ़े
जाते हैं, सत्य
नहीं गढ़ा
जाता। सत्य का
तो सिर्फ
आविष्कार
होता है। सत्य
तो है; झूठ
बनाने पड़ते
हैं।
तो अगर
कर्ता बनना हो
तो झूठ बनाना, क्योंकि
कर्ता होने का
एक ही उपाय
है।
और अगर
अकर्ता बनना
हो तो सत्य की
खोज करना।
तीर्थंकर
यानी अकर्ता; जो अब कुछ
अपनी तरफ से
नहीं करता है;
जो होता है
उसे होने देता
है, उसे
रोकता भी नहीं;
जो आता है
उसे आने देता
है--अगर जीवन
है तो जीवन, अगर मौत है
तो मौत; सुख
है तो सुख, दुख
है तो दुख; जवानी
है तो जवानी, बुढ़ापा है तो बुढ़ापा--जो
अपनी तरफ से
बिलकुल
निश्चेष्ट हो
जाता है, सारी
चेष्टा छोड़ देता
है, जीवन
के ऊपर आरोपण
करने का कोई
प्रयास नहीं
करता। जीवन
जहां ले जाये
उसकी सहजता के
साथ जो बहने
को तत्पर है, वही
तीर्थंकर है।
तो न
तो तीर्थंकर
को पाप लगता, न पुण्य
लगता।
तीर्थंकर को
कर्म-बंध नहीं
होता।
लेकिन
इस संदर्भ में
एक बात खयाल
ले लेनी चाहिए, जैन शास्त्र
बड़ी बहुमूल्य
बात कहते हैं।
वे कहते हैं, तीर्थंकर को
तो कर्म-बंध
नहीं होता, लेकिन आदमी
तीर्थंकर
कर्म-बंध के
कारण होता है।
सभी लोग
तीर्थंकर
नहीं होते।
सभी परम ज्ञान
को उपलब्ध
व्यक्ति भी
तीर्थंकर
नहीं होते। "केवल
ज्ञान' को
तो करोड़ों लोग
उपलब्ध होते हैं,
लेकिन
तीर्थंकर तो
कभी कोई एकाध
होता है। तो फिर
इतने लोग जो
परम-ज्ञान को
उपलब्ध होते
हैं और परम
सत्य में खो
जाते हैं, सभी
तीर्थंकर
क्यों नहीं
होते? तो
कारण तो होना
चाहिए।
महावीर
जब ज्ञान को
उपलब्ध हुए तो
और भी बहुत लोग
ज्ञान को
उपलब्ध थे, लेकिन सभी
तीर्थंकर न
थे। जैन चौबीस
की संख्या
मानते हैं: एक प्रलय
और सृष्टि के
बीच में चौबीस
तीर्थंकर। करोड़ों
लोग, करोड़ों
आत्माएं
"केवल ज्ञान' को उपलब्ध
होंगी, लेकिन
चौबीस ही
तीर्थंकर? मामला
क्या है? सभी
ज्ञानी क्यों
तीर्थंकर
नहीं हैं?
तो इस
फर्क को खयाल
में लेना। वे
कहते हैं
तीर्थंकर का
कर्म-बंध होता
है। तीर्थंकर
बनने के पहले
जिस व्यक्ति
ने खूब करुणा
का अभ्यास
किया है; तीर्थंकर
बनने के पहले
जिस व्यक्ति
ने सब भांति
अहिंसा का
अभ्यास किया
है; तीर्थंकर
बनने के पहले
जिसने सब
भांति अपने चरित्र
को इस तरह से
नियोजित किया
है कि उससे
किसी को दुख न
हो, किसी
को पीड़ा न
पहुंचे; जिसने
एक गहन
अनुशासन अपने
जीवन में
निर्मित किया
है...जिसने ऐसा
अनुशासन
निर्मित नहीं
किया वह भी
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जायेगा; लेकिन
जब वह ज्ञान
को उपलब्ध
होगा तो
तत्क्षण विराट
में खो
जायेगा। उसे
इस जमीन पर
पकड़ रखने के
लिए कोई भी
उपाय नहीं है।
लेकिन जिसने
खूब गहनता से
सेवा, दया,
करुणा, अहिंसा
का अभ्यास
किया है
जन्मों-जन्मों
तक...वह करुणा, सेवा, और
दया सहज नहीं
है, चेष्टित
है...तो जिसने
चेष्टित दया
और करुणा का
अभ्यास किया
है, उसको
तीर्थंकर का
कर्म-बंध होता
है।
जैन
अदभुत हैं! वे
कहते हैं, यह भी
कर्म-बंध है।
है तो यह भी।
कितना ही पुण्य
हो, लेकिन
है तो यह भी बांधनेवाला
है। करुणा से
बंधे हो--तो
बड़ी सोने की
जंजीर है, हीरे-जवाहरातों
से जड़ी जंजीर
है, लेकिन
बंधे हो! तो
आखिरी जन्म
में ऐसा
व्यक्ति जब
ज्ञान को
उपलब्ध होता
है तो अपने
ज्ञान को लेकर
चुपचाप उड़
नहीं जाता
आकाश में; रुकता
है जमीन पर।
उसके पास
जंजीरें हैं
कुछ। जीवन की
सांसारिक
जंजीरें तो सब
उसने तोड़ दी हैं,
लेकिन
करुणा की
जंजीरें हैं
उसके पास।
उनके आधार पर
वह थोड़ी देर
पृथ्वी पर
टिकता है। उन
क्षणों में वह
बांट पाता है,
दे पाता है
जो उसे मिला
है।
तो
तीर्थंकर तो
कोई कर्म-बंध
के कारण होता
है। लेकिन
तीर्थंकर का
कोई कर्म-बंध
नहीं होता।
तीर्थंकर
का अर्थ है
जिसने जाना ही
नहीं, जो
जनाने में
कुशल है।
तीर्थंकर का
अर्थ है जो
स्वयं नहीं हो
गया केवल, बल्कि
दूसरों को भी
उस दिशा में
इशारे करने
में कुशल है; जिसने अपनी
ही आंखें नहीं
खोल लीं, बल्कि
दूसरों की
आंखों की भी
चिकित्सा
करने में जो
कुशल है; जो
अपनी आंखों के
सहारे, अपनी
दृष्टि के
सहारे
तुम्हें भी
दर्शन करा देता
है।
तो
ज्ञानी तो
केवल ज्ञानी
है--उसने पा
लिया और गया।
तीर्थंकर ऐसा
ज्ञानी है जो
रुकता है थोड़ी
देर। उसकी नाव
इसके पहले कि
छूटे अनंत के
तट की ओर, इस
किनारे पर वह
थोड़ी देर
रुकता है। और
इस किनारे पर
जो लोग अभी
हैं और
जिन्हें
दूसरे किनारे
का कोई पता भी
नहीं, जिन्होंने
स्वप्न में भी
दूसरे किनारे
को नहीं देखा,
जिनकी
कल्पना में भी
दूसरे किनारे
की छाया नहीं
पड़ी है--ऐसे
लोगों को भी दूसरे
किनारे की
अभीप्सा से भर
देता है। इसके
पहले कि खुद
की नाव छोड़े
और न मालूम
कितने लोगों
को तैयार कर
देता है कि वे
भी उत्सुक हो
जायें, आतुर
हो जायें, प्यासे
हो जायें।
तीर्थंकर
का अर्थ है:
जान लिया और
जनाया भी। सिर्फ
जानकर ही जो
चला गया, वह
अकेला चला
जाता है। उसके
पीछे कोई
परंपरा नहीं
बनती जानेवालों
की। जो सिर्फ
जानकर चला गया,
उसके पीछे
कोई धर्म
निर्मित नहीं
होता; वह
चुपचाप
तिरोहित हो
जाता है। उसकी
कोई रेखा नहीं
छूट जाती।
लेकिन जो
दूसरों को
जनाने की अथक
चेष्टा करता
है, वह अथक
चेष्टा उसके
पिछले जन्मों
में साधे गये
अभ्यास का
परिणाम है।
लेकिन वह भी
कर्म-बंध है।
पर इस जन्म
में, तीर्थंकर
की दशा में, कोई
कर्म-बंध नहीं
होता। अब तो
सब सहज होता
है। इसको खयाल
रखना।
तुम्हारी
अगर अहिंसा भी
होगी तो असहज
होगी, चेष्टित
होगी। तुम अगर
दया भी करोगे
तो प्रयास
करोगे तो ही
दया करोगे।
तुम अगर करुणा
करोगे तो अपने
को बहुत ज्यादा
खींचोगे
तो ही कर
पाओगे। अगर
तुमने अपने को
ज्यादा न खींचा
तो तुम करुणा
न कर पाओगे।
हां, क्रोध
कर पाओगे सहज।
क्रोध तुममें
सहज होता है, करुणा असहज।
अगर तीर्थंकर
को क्रोध करना
हो तो असहज
होगा, करुणा
सहज। सिक्का
उलटा हो गया।
सारे गणित के नियम
विपरीत हो
गये। अगर
तीर्थंकर को
क्रोध करना
पड़े...कभी-कभी
तीर्थंकर
क्रोध करते
हैं। जैन तीर्थंकरों
के जीवन में
तो उल्लेख
नहीं, क्योंकि
जैन उल्लेख
नहीं कर सकते।
वे सोच ही नहीं
सकते कि तीर्थंकर
और क्रोध कर
सकता है! बात
भी ठीक है। तीर्थंकर
से क्रोध सहज
नहीं होता, इसलिए उसका
उल्लेख करना
उचित नहीं है।
लेकिन और
परंपराएं
हैं। वहां भी
तीर्थंकर
होते हैं।
जैसे
जीसस के जीवन
में उल्लेख है
कि वे चर्च में, मंदिर में
गये--यहूदियों
का जो सबसे
प्राचीन मंदिर
था जेरुसलम
का--और वहां
उन्होंने
देखा कि
ब्याजखोर
मंदिर के भीतर
दुकानें
लगाकर बैठ गये
हैं। तो उन्होंने
कोड़ा उठा
लिया और वे
आग-बबूला हो
गये और उनकी
आंखों से आग
बरसने लगी। और
अकेले आदमी ने
सैकड़ों ब्याजखोरों
को मंदिर के
बाहर उठाकर
फेंक दिया। वह
इतने घबड़ा गए।
इतना
जाज्वल्यमान
रूप था उनका!
ईसाइयों को
बड़ी कठिनाई
रही है यह
समझाने में कि
ईसा इतने
क्रोधित कैसे
हो गये! करुणा
का मसीहा इतना
क्रोधित कैसे
हो गया!
लेकिन
अगर तीर्थंकर
चाहे तो
चेष्टा से
क्रोध कर सकता
है। लेकिन वह
क्रोध भी होगा
किसी करुणा की
ही सेवा में।
इस कीमिया को
समझना। यह
करुणा ही थी
जीसस की कि यह
परमात्मा का
मंदिर विकृत न
हो जाये; यहां
की प्रार्थना
बाजारू न हो
जाये; यह
पूजागृह
बाजार की
गंदगी से न भर
जाये। यह करुणा
ही थी। इस
करुणा के कारण
ही वे क्रोधित
हो गए। लेकिन
यह क्रोध
चेष्टित था, अभिनय था; जैसे कोई
अभिनेता
क्रोधित हो
जाता है। जैसे
राम रामलीला
में अभिनय
करते हुए रोते
हैं कि मेरी
सीता कहां है;
वृक्षों से
पूछते हैं कि
मेरी सीता
कहां गई--वह
सिर्फ पूछना
है, अभिनय
है; भीतर
कुछ भी नहीं
है। भीतर तो
उनकी सीता
उनके घर है।
अभिनेता हैं।
राम तो वे हैं
भी नहीं।
अभिनय है।
जीसस
की क्रोध की
अवस्था भी
करुणा की सेवा
में किया गया
अभिनय है।
गुरजिएफ
तो बहुत कुशल
था क्रोध करने
में। ऐसी घटनाएं
हैं जो बड़ी
अनूठी हैं। कि
गुरजिएफ धीरे-धीरे
इतना कुशल हो
गया अभिनय में
कि वह आधे चेहरे
से क्रोध कर
सकता था और
आधे से करुणा।
और कई दफा
उसने लोगों को
चकित कर दिया
और दुविधा में
डाल दिया। दो
आदमी मिलने
आये--एक बाएं
बैठा है, एक
दाएं--तो वह
आधे चेहरे से
तो इस तरह
देखता रहा
जैसे कि हत्या
कर देगा और
आधे चेहरे से
इस तरह देखता
रहा कि फूल बरसते
रहे। एक तरफ
की आंख बड़ा
प्रेम बरसाती
रही और दूसरी
तरफ की आंख आग
बरसाती रही।
जब वे दोनों
आदमी मिलकर
बाहर गए तो
दोनों ने
अलग-अलग वर्णन
किया गुरजिएफ
का, कि यह
तो आदमी बहुत
दुष्ट और
हत्यारा
मालूम होता है;
यह तो ऐसा
खतरनाक आदमी
है कि अगर
एकांत में मिल
जाये तो गर्दन
दबा दे। दूसरे
ने कहा, तुम
कहते क्या हो?
तुम पागल हो
गए हो? जरा
उसकी आंख तो
देखते! कैसा
प्रेम! यह
आदमी चींटी भी
मार सकेगा?
ऐसा
बहुत बार बहुत
लोगों को हुआ।
कुशलता इतनी गहरी
हो सकती है!
अगर
तुमने शरीर से
अपने को
बिलकुल अलग कर
लिया है तो
शरीर का तुम
यंत्रवत
उपयोग कर सकते
हो। तुम एक
हाथ हिलाते हो, दूसरा रोके
रखते हो। इसी
तरह एक आंख
क्रोध कर सकती
है, एक
प्रेम कर सकती
है। चेहरे का
एक हिस्सा कुछ
कह सकता है, दूसरा कुछ
कह सकता है।
और इसके पीछे
वैज्ञानिक
कारण है।
क्योंकि
तुम्हारे पास
दो मस्तिष्क
हैं, एक
मस्तिष्क
नहीं है।
बायां
मस्तिष्क अलग
है, दायां
मस्तिष्क अलग
है। दोनों की
प्रक्रिया
अलग है। और यह
भी हो जाता है
कभी कि अगर
दोनों के बीच
का छोटा-सा सेतु
है, वह टूट
जाये, तो
एक आदमी में
दो आदमी पैदा
हो जाते हैं, स्प्लिट पर्सनैलिटी
हो जाती है।
तुम्हारा
शरीर दो
हिस्सों में
बंटा है, इसे
खयाल में
रखना। इसलिए
तो दायां हाथ
अगर सक्रिय
होता है तो
बायां
निष्क्रिय
होता है।
जिसका बायां
सक्रिय होता
है उसका दायां
निष्क्रिय
होता है।
क्योंकि
दोनों
हिस्सों में
एक हिस्सा
पुरुष का और
एक हिस्सा
स्त्री का है।
आधा हिस्सा
निष्क्रिय है,
आधा हिस्सा
सक्रिय है। और
तुम्हारा आधा
चेहरा अलग
होता है और
आधा चेहर
अलग होता है।
तुमने
कभी खयाल नहीं
किया! तुम
अपना चित्र
उतरवाना और एक
ही हिस्से के
आधे-आधे
चित्रों को जोड़
देना और तुम
पाओगे कि
तुम्हारा
चेहरा बड़ा नया
ढंग ले लेता
है। बाएं
चेहरे के दो
हिस्सों को
जोड़ देना और
दाएं चेहरे के
दो हिस्सों को
जोड़ देना और
तुम पाओगे:
तुम दो आदमी
मालूम पड़ने
लगे और ये
दोनों आदमी
तुमसे बिलकुल
अलग मालूम
पड़ते हैं।
तुम्हारी एक
आंख अलग है, दूसरी आंख
अलग है।
क्योंकि आधा
शरीर बाएं मस्तिष्क
से संचालित
होता है, आधा
दाएं
मस्तिष्क से
संचालित होता
है। लेकिन
चूंकि तुम
बहुत ज्यादा
जुड़े हो शरीर
से, उससे
दूर नहीं हो
कि उपयोग कर
सको। लेकिन
गुरजिएफ कर
सकता है।
महावीर कर
सकते हैं।
किया न हो, हो
सकता है।
लेकिन कर सकते
हैं।
महावीर
क्रोध कर सकते
हैं, लेकिन वह
चेष्टा होगी
और अभिनय
होगा। और तुम
भी करुणा कर
सकते हो, लेकिन
वह चेष्टा
होगी और अभिनय
होगा। क्रोध
तुम्हारे लिए
सहज है। कुछ
करना नहीं पड़ता,
अपने से
होता है। किसी
ने गाली दी, बस हो गया।
तुम्हें कुछ
करना थोड़े ही
पड़ता है! किसी
ने गाली दी, बटन दबा
दी--हो गया।
करुणा करनी हो
तो बड़ा सोच-विचार
करना पड़ता है,
शास्त्र
पढ़ने पड़ते हैं,
सदगुरुओं के पास जाना
पड़ता है, सत्संग
करना पड़ता है,
वचन, प्रतिज्ञा
लेनी पड़ती है;
और फिर-फिर छूटकर
क्रोध हो जाता
है। जरा भूल
हुई कि क्रोध
हुआ। बहुत होश
रखो तो
थोड़ी-बहुत
करुणा को तुम
सम्हाल सकते
हो।
इससे
ठीक विपरीत
दशा तीर्थंकर
की है। करुणा
सहज है, करनी
नहीं पड़ती।
तीर्थंकर
सोया भी रहे
तो भी करुणा
होती है।
तुमने
कभी खयाल किया
कि तुम
सोते-सोते भी
क्रोधित रहते
हो, बड़बड़ाते
हो क्रोध में,
मरने-मारने
की धमकी देते
हो! कभी अपनी
पत्नी को कहना
कि जब तुम
सोये हो, तुम्हारे
चेहरे का जरा
अध्ययन करे।
या तुम अपनी
पत्नी के
चेहरे का
अध्ययन करना
सोते हुए।
शायद इसीलिए
लोग अकेले में
सोना पसंद करते
हैं, भीड़-भाड़
में सोना पसंद
नहीं करते, हर कहीं सो
जाना पसंद
नहीं करते; क्योंकि
सोने की
अवस्था में
चित्त से वही
प्रगट होने
लगता है जो
तुम्हारे लिए
सहज स्वाभाविक
है। नियंत्रण
करनेवाला तो
रह नहीं जाता,
वह तो सो
गया; नियंता
तो सो गया, कर्ता
तो सो गया।
तो अगर
तुम क्रोधी
आदमी हो तो
तुम्हारा रात
में चेहरा
बिलकुल क्रोध
से भरा हुआ
होगा। अगर तुम
कामुक आदमी हो
तो रात
तुम्हारा
चेहरा काम से
भरा होगा; तुम्हारे
चेहरे पर काम
रिसता होगा।
तुम जैसे हो, रात का
चेहरा
तुम्हारा, तुम्हारे
बाबत ज्यादा
असली खबर
देगा। दिन में
तो तुम थोड़ा
झूठ कर लेते
हो, रात
में तुम न कर
पाओगे।
इसलिए
तथाकथित
साधु-संन्यासी
सोने तक से
डरते हैं। घबड़ाहट
रहती है!
क्योंकि सोए
कि उन्होंने
जो-जो साधा है
दिन में, उस
सब पर कब्जा
गया। दिनभर
तो साधा
ब्रह्मचर्य, लेकिन रात
कामवासना का
स्वप्न मन को
पकड़ लेता है।
अब क्या करें,
स्वप्न में
कैसे साधें!
स्वप्न में तो
होश ही नहीं
है, साधना
कैसे हो
पायेगा? ऐसी
चित्त की दशा
है।
साधारणतः
जब तक हम
मूर्च्छित
हैं, बेहोश
हैं, तब तक
हमसे गलत तो
सहज होता है
और सही चेष्टा
से होता है।
जब चित्त
की दशा जागरूक
होती है, प्रबुद्ध
होती है, संबोधि
को उपलब्ध
होती है, तो
जो ठीक है वह
सहज होता है; जो गलत है, अगर वह करना
पड़े किसी कारण
से तो वह
अभिनय से ज्यादा
नहीं होता।
दूसरा
प्रश्न:
पहली
बार मैं किसी
के प्रेम में
पड़ा हूं, लेकिन मेरा
अहंकार मुझे
प्रेम में
पूरी तरह
डूबने नहीं
देता। मेरा
हृदय तो नारद
के साथ है, लेकिन
बुद्धि
महावीर के
साथ। भीतर से
तो प्रेम करना
चाहता हूं
लेकिन बाहर
कुछ और ही
प्रकाशित
होता है।
फलस्वरूप बड़ी
खींचातानी
चलती है। क्या
कोई आशा है इस
उलझन से बाहर
हो जाने की?
जहां-जहां
उलझन है वहां-वहां
सुलझन का उपाय
है। उलझन होती
ही नहीं, अगर
सुलझने की आशा
न हो। उलझन
खड़ी ही वहां
होती है जहां
सुलझने का
द्वार पास ही
है।
हर
समस्या में
छिपा हुआ
समाधान है और
हर उलझन में
छिपी हुई
सुलझन है और
हर प्रश्न
अपने उत्तर को
लिए हुए है।
जरा खोज की
जरूरत है।
तुम ऐसा
कोई प्रश्न
नहीं खोज सकते
जिसका उत्तर न
हो...देर-अबेर
लगे। तुम ऐसी
कोई उलझन नहीं
बना सकते
जिसका सुलझाव
न हो। तुम न
करना चाहो
सुलझाव तो बात
अलग। तब उलझन
की समस्या
नहीं
है--तुम्हारी
समस्या है; तुम करना ही
नहीं चाहते।
अगर तुम करना
चाहो तो कोई
बाधा नहीं है।
अब यह
उलझन खड़ी की
हुई है।
"पहली
बार किसी के
प्रेम में पड़ा
हूं, लेकिन
मेरा अहंकार
मुझे प्रेम
में पूरी तरह
डूबने नहीं
देता।'
अगर यह
समझ में आ रहा
है तो चुन लो।
या तो अहंकार
को चुन लो, तब प्रेम
पागलपन है। तब
छोड़ो
बकवास! नारद
का दिमाग फिर
गया होगा! और
अगर प्रेम को
चुनना है, तो
फिर अहंकार को
गिराओ।
दो नावों पर
सवार मत हो
जाओ, अन्यथा
उलझन होगी। और
दोनों नावें
बड़ी अलग-अलग
हैं। महावीर
और नारद दोनों
के कंधों पर
हाथ मत रख
लेना, अन्यथा
तुम त्रिशंकु
हो जाओगे। तब
तुम बड़ी उलझन
में पड़ोगे।
लेकिन उलझन के
लिए न तो
महावीर जिम्मेवार
होंगे और न
नारद
जिम्मेवार
होंगे--जिम्मेवार
तुम होओगे
जिसने दोनों
के कंधों पर
हाथ रख लिये।
किसने तुमसे
कहा था?
नारद
से पूछते तो
नारद तो कहते
हैं, महावीर
गलत हैं।
महावीर से
पूछो तो
महावीर कहते
हैं, नारद
गलत हैं।
इसलिए जुम्मा
उन पर न डाल
सकोगे तुम।
तुम उलझन अगर
पैदा करना
चाहो तो फिर
बात अलग।
अब एक
आदमी अगर दो
नावों पर सवार
हो और पूछे कि मैं
क्या करूं, तो हम क्या
कहेंगे? हम
कहेंगे, साफ
है बात: एक नाव
पर सवार हो
जाओ। निश्चित
ही एक नाव पर
सवार होने के
लिए दूसरी नाव
छोड़नी
पड़ेगी। इसलिए
दोनों के लाभ
मन में मत
रखना।
जिंदगी
चुनाव
है--प्रतिपल
चुनाव और
निर्णय है। और
जब भी तुम एक
बात चुनते हो
तो कुछ छोड़ना
पड़ता है। सच
तो यह है एक
बात चुनने के
लिए हजार बातें
छोड़नी
पड़ती हैं।
तुम
यहां आए मुझे
सुनने, इस
घंटे के हजार
उपयोग हो सकते
थे। तुम दुकान
पर बैठ सकते
थे, कुछ
रुपया कमा
लेते। तुम
सिनेमा जा
सकते थे, कोई
फिल्म देख
लेते। तुम
शराब-घर में
जा सकते थे, शराब पी
लेते। गपशप कर
लेते, अखबार
पढ़ लेते, रेडियो
सुन लेते।
हजार उपयोग हो
सकते थे इसके,
वह तुमने
छोड़े और यह
उपयोग चुना कि
मुझे सुनते
हो। यह बड़ा
चुनाव है। अब
तुम अगर चाहो
कि वे लाभ भी जो
तुमने छोड़
दिये, मुझे
सुनने से मिल
जायें, तो
तुम गलत चाह
कर रहे हो।
गलत चाह से
अड़चन आती है।
अब अगर
तुम्हें
अहंकार में रस
आ रहा हो तो छोड़ो
प्रेम की बात।
फिर पूरे अहंकारी
बन जाओ। फिर
राजनीति
तुम्हारा
धर्म होगी।
फिर दौड़ो
अहंकार, पद...दिल्ली
की यात्रा
करो! फिर तुम
यहां बैठे क्या
कर रहे हो? फिर
यह समय गंवाया
हुआ सिद्ध
होगा। फिर तुम
एक न एक दिन
मुझ पर बहुत
नाराज हो
जाओगे। यह समय
तो दिल्ली की
यात्रा में
लगाना था। बस
तुम्हारा एक
ही मंत्र होना
चाहिए: दिल्ली
चलो!
अगर
अहंकार को ही
भरना है, तो
साफ-साफ भरो; फिर इधर-उधर
बेईमानी मत
करो! निश्चित
ही, ध्यान
रखना, अहंकार
को भरने के
थोड़े से सुख
हैं। दुख भी
बहुत हैं। सुख
तो भ्रामक हैं,
भासमान हैं,
दुख बड़े
यथार्थ हैं।
तो सोच लेना, ठीक से देख
लेना, दुख-सुख
दोनों का
दर्शन कर
लेना। प्रेम
के सुख तो बड़े
सच्चे हैं, दुख केवल
भासमान हैं।
इसलिए बुद्धिमानों
ने प्रेम चुना;
बुद्धिहीनों ने अहंकार
चुना। बुद्धिमानों
ने धर्म चुना;
बुद्धिहीनों ने राजनीति
चुनी। बुद्धिमानों
ने अंतर्जगत
चुना; बुद्धिहीनों ने बाहर का
जगत चुना।
बाहर के जगत
का धन दिखाई
पड़ता है--है
नहीं; सिर्फ
मान्यता है।
भीतर का धन
दिखाई नहीं
पड़ता, लेकिन
है। अदृश्य
है--और दृश्य
केवल दिखाई
पड़ता है।
तो
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है।
उलझन चुन लोगे
तो तुम कहीं
के भी न
रहोगे--घर के न
घाट के! तुम
धोबी के गधे हो
जाओगे।...या तो
घाट या घर।
अगर अहंकार
चुनना है तो
घाट। अगर
प्रेम चुनना
है तो घर।
प्रेम
चुनने का अर्थ
है कि जीवन
अपने-आप में मूल्यवान
है और जीवन का
चरम अर्थ जीवन
की प्रफुल्लता
में है--धन में
नहीं, गीत
में है; पद
में नहीं, प्रसन्नता
में है; वस्तुओं
में नहीं, व्यक्तियों
के अंतर्संबंधों
में है। और
बाहर नहीं
भीतर है। यह
बड़ा क्रांतिकारी
निर्णय है। और
निर्णय बहुत
साफ-साफ लेना चािहए, क्योंकि
निर्णय पर, इसी निर्णय
पर सारे जीवन
का ढांचा
निर्भर करेगा।
तुम कहां
पहुंचोगे, यह
इस पर निर्भर
करेगा कि
तुमने पहला
कदम किस दिशा
में उठाया था।
अगर पहला कदम
गलत उठा तो
तुम लाख दौड़ो,
लाख श्रम
करो, तुम
ठीक जगह न
पहुंच पाओगे।
तुम्हारी दौड़,
तुम्हारी
आपाधापी, अगर
गलत कदम पर
खड़ी है तो
बुनियाद गलत
है, यह भवन
गिरेगा।
पूछा
है, "पहली
बार किसी के
प्रेम में पड़ा
हूं।' इसलिए
स्वाभाविक भी
है। पहली बार
जब कोई किसी
के प्रेम में
पड़ता है तो
अहंकार बाधा
डालता है।
क्योंकि अब तक
तुम अहंकार के
प्रेम में
रहे। अब तक
तुमने सिर्फ
अहंकार को ही
प्रेम किया
है। आज पहली
दफा अहंकार के
विपरीत कोई
नये प्रेम का उदभव
हुआ--जहां
अहंकार को
समर्पित करना
होगा, जहां
"मैं' को
मिटाना होगा।
तो स्वभावतः,
जिस "मैं' को अब तक सींचा,
जिस "मैं' को अब तक
सम्हाला, वह
अगर बाधा डाले
तो कुछ
आश्चर्य
नहीं। लेकिन तुमने
जिसे सींचा
है, तुम ही
अगर पानी बंद
कर दोगे, वह
अपने से
कुम्हला भी
जायेगा, सूख
भी जायेगा। अब
तुम्हारे
सामने है
निर्णय। अब तक
तो तुमने
अहंकार को ही सींचा था, अब प्रेम का
भी अंकुर उठा
है। अब तुम
सोच लो: अहंकार
क्या दे सकता
है और प्रेम
क्या दे सकता
है? अहंकार
देने के
बहुत-से
आश्वासन देगा,
लेकिन देता
कभी कुछ
नहीं--बस कोरे
आश्वासन! यही
तो सब
सिकंदरों, नेपोलियनों की कथा है।
प्रेम आश्वासन
नहीं
देता--देने की
तो बात ही
नहीं उठाता। प्रेम
तो कहता है, सब खोना
पड़ेगा। लेकिन खोनेवालों
की कथा ही तो
सारे भक्तों
की कथा है, सारे
धार्मिकों की
कथा है, सारे
ध्यानियों की
कथा है।
प्रेम
कहता है, खोओगे तो मिलेगा।
और अहंकार
कहता है, पाओगे
तो मिलेगा।
अहंकार का
गणित बुद्धि
की समझ में आ
जाता है।
स्वाभाविक है,
पाओगे तो
मिलेगा। और
प्रेम कहता है,
खोओगे तो मिलेगा।
तो गणित कुछ
अटपटा है, बेबूझ
है, बुद्धि
में आता नहीं।
अहंकार
और बुद्धि के
बीच तो एक तरह
का समझौता है, एक षडयंत्र
है। बुद्धि
अहंकार की
पक्षपाती है,
अहंकार बुद्धि
का पक्षपाती
है। तो अगर
तुमने सिर से
ही पूछा तो
तुम अहंकार के
ही रास्ते पर
भटकते-भटकते
खो जाओगे; जैसे
कोई सरिता
मरुस्थल में
भटकते-भटकते
खो जाये और
उसे सागर न
मिले। हृदय से
पूछो! हृदय और प्रेम
का समझौता है।
और हृदय कह
रहा है...।
"लेकिन
मेरा अहंकार
मुझे प्रेम
में पूरी तरह
डूबने नहीं
देता। मेरा हृदय
नारद के साथ
है और मेरी
बुद्धि
महावीर के साथ।'
तो तुम
चुन लो! अगर
तुम्हें लगता
है कि हृदय गलत
कह रहा है तो
तुम बुद्धि के
साथ कुछ दिन
चल लो, दौड़
लो। सौ में से
कभी कोई एकाध
पहुंच पाता है।
कोई महावीर!
बहुत दुर्गम
है। क्योंकि
व्यर्थ की
उलझन अस्मिता
की खड़ी हो
जाती है। कोई
परमात्मा
नहीं, जहां
सिर झुकाया जा
सके, तो
बिना किसी
परमात्मा के
सामने सिर
झुकाना आ जाना
बहुत दुर्लभ
है। महावीर को
घटा; बिना
किसी
परमात्मा के
सिर झुका दिया;
बिना किसी
वेदी के आहुति
चढ़ा दी।
कोई
नहीं है
परमात्मा, इस कारण
साधारणतः तो
"मैं' मजबूत
होगा। तो इसकी
बहुत कम
संभावना है कि
तुम महावीर हो
सको; इसकी
संभावना
ज्यादा है कि
तुम नीत्से हो
जाओ। नीत्से
का भी तर्क
वही है। वह
कहता है, कोई
परमात्मा
नहीं। लेकिन
जैसे ही उसने
कहा कोई
परमात्मा
नहीं, उसने
तत्क्षण कहा
जब परमात्मा
नहीं है तो अब
मनुष्य
स्वतंत्र है
कुछ भी करने
को। फल क्या
हुआ? फल
हुआ नीत्से का
पागल हो जाना।
वह अहंकार मजबूत
होता चला गया।
कहीं कोई वेदी
न मिली जहां चढ़ा
देता। वेदी को
इनकार कर
दिया। इनकार
करने का कारण
ही यही बताया
कि "अगर
परमात्मा है
तो मैं नीचा
हो गया--और मैं
नीचे कैसे हो
सकता हूं! मेरे
से ऊपर कोई भी
नहीं हो सकता।'
इसलिए
परमात्मा को
इनकार किया।
नीत्से पागल हुआ।
सौ में
निन्यानबे
मौके ये हैं
कि तुम पागल
हो जाओगे।
महावीर तो बड़े
कुशल व्यक्ति
हैं। चुना तो
ठीक वही मार्ग
जो नीत्से का
है; लेकिन परमात्मा
नहीं है, इससे
यह निष्कर्ष न
लिया कि
मनुष्य अब
स्वच्छंद है।
इससे उलटा ही
निष्कर्ष
लिया। महावीर
ने कहा, "चूंकि
परमात्मा
नहीं है, इसलिए
अब कोई
स्वच्छंदता न
चलेगी; सारा
उत्तरदायित्व
मेरा है।' समझे
फर्क? नीत्से
ने कहा, कोई
परमात्मा
नहीं, तो
अब करो जो करना
है। महावीर ने
कहा, अब तो
कुछ करने का
उपाय ही न रहा;
अब तो जो भी
किया, जिम्मेवारी
मेरी है।
परमात्मा
होता तो कुछ रास्ता
भी निकाल
लेते--कुछ भी
करने का, तीर्थ
स्नान कर आते,
मंदिर में
पूजा कर देते,
प्रार्थना
करके
समझा-बुझा
लेते; पाप
हो जाता, पश्चात्ताप
कर लेते--और
फिर वह करुणावान
है, रहीम
है, रहमान
है; वह
क्षमा कर ही
देता; उसने
तो बड़े-बड़े
पापियों को
क्षमा कर
दिया।
कहते
हैं, एक पापी
ने मरते वक्त
भूल से अपने
लड़के को बुलाया:
नारायण, नारायण!
लड़के का नाम
नारायण था और
ऊपर के नारायण
ने समझा कि
मुझे पुकार
रहा है। क्षमा
कर दिया।
स्वर्ग में
उठा लिया।
बैकुंठ में वास
कर रहा है वह
पापी अब। तो
जो इतनी सरलता
से फुसला लिया
जाता है; रिश्वत
भी जिसकी इतनी
सस्ती है; बुलाया
भी नहीं था
जिसे, किसी
और को ही
बुलाया था, लेकिन
नाममात्र का
संयोग मिल गया,
"नारायण', और जो भूल
में पड़ गया; जो ऐसा
खुशामद-लोलुप
है--ऐसा
परमात्मा हो
तो फिर कुछ भी
करने की छूट
है।
अगर
महावीर से
पूछो तो
महावीर यह
कहेंगे, अगर
परमात्मा है
तो फिर मनुष्य
स्वच्छंद है। फिर
जो भी करना हो
करो; क्योंकि
आखिर में तो
वह है, उसके
चरण पर गिड़गिड़ा
लेना, रो
लेना, माफी
मांग लेना।
और वह करुणावान
है, वह क्षमा
कर देगा।
तो जो
निष्कर्ष
नीत्से ने
लिया, वही
निष्कर्ष
महावीर ने
लिया--लेकिन
बिलकुल उलटी
तरफ से। अगर
परमात्मा है
तो आदमी
स्वच्छंद हो
जायेगा। तो
महावीर ने कहा,
परमात्मा
तो कोई भी
नहीं है; इसलिए
प्रार्थना का
उपाय नहीं है।
अपने को बनाना
है, निर्मित
करना है, छांटना
है, काटना
है, निखारना
है, सब
अपना ही है।
खुद की
जिम्मेवारी
चरम है। यह उत्तरदायित्व
आखिरी है।
इसको तुम किसी
और पर न टाल
सकोगे। इसलिए
तुम आखिर में
यह न कह सकोगे
कि मैं क्या
करूं, हो
गया। भोगना
पड़ेगा।
स्वच्छंदता
का कोई उपाय
नहीं।
तो
महावीर ने तो
परमात्मा के न
होने से
उत्तरदायित्व
लिया। नीत्से
ने परमात्मा
के न होने से स्वच्छंदता
ली। महावीर तो
विमुक्त हो
गये, नीत्से
विक्षिप्त हो
गया। दोनों के
तर्क का प्रारंभ
बिलकुल एक
जैसा था, लेकिन
अंत बड़ा भिन्न
हुआ। कहां
महावीर परम सुगंध
को उपलब्ध हुए
और कहां
नीत्से
पागलखाने में सड़ा और मरा!
सोच
लेना! महावीर
का रास्ता
बहुत थोड़े
लोगों के लिए
है। उनके लिए
है, जिनके
लिए
स्वतंत्रता
स्वच्छंदता न
बनेगी। उनके
लिए है, जिनके
लिए परमात्मा
का अभाव
अहंकार न
बनेगा; जो
कहेंगे, "जब
परमात्मा ही
नहीं तो मेरे
होने का क्या?
परमात्मा
तक नहीं है तो
मैं क्या हो
सकता हूं?'
परमात्मा
का अर्थ है
सारे
अस्तित्व का
"मैं'; सारे
अस्तित्व का
केंद्र! जब
सारा
अस्तित्व केंद्रहीन
है और "मैं' रहित है, तो
मैं एक
छोटा-सा
व्यक्ति, एक
छोटी-सी लहर, एक जरा-सी
तरंग!...जब सागर
का ही कोई "मैं'
नहीं है तो
मेरा मैं क्या
हो सकता है? बात खतम हो
गयी!
तो
महावीर ने तो
परमात्मा को
इनकार करने
में ही अपने
भीतर "मैं' की संभावना
को इनकार कर
दिया। इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि
महावीर और
नारद वस्तुतः
विपरीत हैं।
अंततः तो सार
एक ही निकलता
है। महावीर ने
परमात्मा को
अस्वीकार
करके "मैं' को
अस्वीकार कर
दिया। नारद ने
परमात्मा को
स्वीकार करके
"मैं' उसके
चरणों में चढ़ा
दिया। हर हाल
नारद और महावीर
दोनों "मैं' से मुक्त हो
गये।
तो तुम
चाहे कुछ भी
निर्णय
लो--तुम चाहे
प्रेम के पक्ष
में निर्णय लो, चाहे अहंकार
के पक्ष में
निर्णय लो--लेकिन
एक बात ध्यान
रखना, अहंकार
तो मरेगा ही।
उससे तुम बच न
सकोगे। उसे
अगर बचा लिया
तो तुम
विक्षिप्त हो
जाओगे, पागल
हो जाओगे। उसी
कारण तो सारी
पृथ्वी करीब-करीब
पागल जैसी है।
अगर
मेरी सुनो तो
मैं कहूंगा:
हृदय की सुनो!
प्रेम की
सुनो! ज्यादा
सुरक्षित
मार्ग है।
महावीर का
मार्ग बहुत
खाई-खड्ड से
गुजरता है। डर
है कि तुम
कहीं गिर न
जाओ! नारद का
मार्ग बहुत
सुरक्षित है।
तुम्हारी
कमजोरी को भी
सम्हाल लेगा।
तुम्हें
सहारा देगा।
महावीर का
मार्ग बहुत
अकेला है, अत्यंत
एकांत का है।
दूर, बहुत
दूभर है! जाओ
तो सोच समझकर
जाना, कि
नीत्से का
खतरा
तुम्हारे
पीछे लगा
रहेगा।
नारद
के मार्ग पर
नीत्से का
खतरा नहीं है।
ऐसा नहीं कि
वहां कोई खतरा
ही नहीं है।
खतरा तो हर चलने
में होता है, हर यात्रा
में होता है।
जो घर बैठे
रहते हैं उन्हीं
को खतरा नहीं
है। हवाई जहाज
से चलो तो खतरा
है। बैलगाड़ी
से चलो तो वह
भी कभी-कभी
उलट जाती है।
लेकिन ऐसा है
कि बैलगाड़ी
से उलटकर मरते
हुए लोग नहीं
देखे जाते, थोड़ी
चोट-वगैरह लग
जाती
हो...साधारणतः बैलगाड़ी
उलट जाये तो
इतना खतरा
नहीं है, क्योंकि
गति ही कोई
बड़ी न थी; पृथ्वी
से फासला
ज्यादा दूर का
न था।
नारद
का रास्ता
बहुत पृथ्वी
के करीब है।
प्रेम का
रास्ता
पृथ्वी के
बहुत करीब है।
और तुम्हारा
जो सामान्य
जीवन है उससे
बहुत फासला
नहीं है। तुम
अपने सामान्य
जीवन में जीते
हुए भी नारद
को सुगमता से
साध सकते हो।
खतरा
क्या है? खतरा
एक ही है और वह
यह है कि
प्रेम कहीं
वासना ही न बन
जाए। प्रेम
भक्ति बने, यह तो नारद
का मार्ग है।
और प्रेम कहीं
वासना ही रह
जाये, यह
खतरा है।
जैसे
महावीर के
पीछे चलनेवाले
जैन मुनि
अहंकार की
पाषाण
प्रतिमाएं बन
गए, वैसे ही
नारद के पीछे
चलने वाले
भक्त केवल भोग-शृंगार
में खो गये।
खतरा तो है
ही। खतरा तो
सभी रास्तों
पर है। चलनेवाले
को खतरा तो है
ही। इसलिए
सम्हलकर तो
चलना होगा।
फिर भी खतरे
की मात्राएं
भिन्न-भिन्न
हैं।
अगर
नारद के मार्ग
पर तुम भटके
भी तो तुम
वहां से नीचे
न गिरोगे जहां
तुम हो।
क्योंकि
वासना में तो
तुम हो ही।
अगर नारद के
मार्ग से तुम
गिरे भी तो बैलगाड़ी
से गिरे; जमीन
से ज्यादा दूर
न थे। वासना
में तुम हो ही।
इतना ही धोखा
दे सकते हो कि
अब तुम अपनी
वासना को
प्रेम कहने
लगो और प्रेम
को भक्ति कहने
लगो। बस नामों
के धोखे दे
सकते हो। कुछ
ज्यादा खतरा न
होगा। लेकिन
महावीर के
मार्ग से अगर
तुम गिरे तो
पागलपन है, विक्षिप्ता है और भयंकर
अहंकार के खड़े
हो जाने का डर
है।
जैन
मुनि को देखते
हो! उससे
ज्यादा गहन
अहंकारी
व्यक्ति
खोजना
मुश्किल है।
जैन
मुनि श्रावक
को हाथ जोड़कर
नमस्कार भी
नहीं कर सकता।
कठिन है, असंभव
है। मुनि और
श्रावक को
नमस्कार करे!
आशीर्वाद दे
सकता है, नमस्कार
नहीं कर सकता।
लेकिन
मैं पूछता हूं, जब नमस्कार
ही नहीं कर
सकते तो
आशीर्वाद
देने की झंझट
भी क्या कर
रहे हो? जब
कुछ करना ही
है तो नमस्कार
बेहतर था, आशीर्वाद
देने की बजाय।
और जिसका
नमस्कार सूख
गया है उसके
आशीर्वाद में
कोई बहुत बल
नहीं हो सकता।
अहंकार से आया
हुआ आशीर्वाद
क्या फल
लायेगा? वह
तो झुके हुए
हृदय से निकले
तो ही लाभ
होता है। वह
तो लदे हुए
वृक्ष की तरह
है। जैसे
वृक्ष झुक
जाता है, जब
फलों से लद
जाता है। ऐसा
जब कोई प्रेम
से लदा हो और
झुका हो, तभी
उससे मीठे
फलों के
आशीर्वाद
उपलब्ध होते हैं।...अकड़े खड़े
हैं! एक डाल
नहीं झुकी। फल
तो हैं ही
नहीं।
आशीर्वाद कहां
से होगा? लेकिन
जैन मुनि अकड़कर
खड़ा हो जाता
है: तपश्चर्या
है! कोई
समर्पण किसी
के प्रति नहीं
है। सिर्फ
संकल्प है।
तो
सिर्फ संकल्प
की शक्ति का
खतरा यह है कि
तुम्हारा
अहंकार
विक्षिप्त न
हो जाये। फिर
चुनाव
तुम्हारा है।
इतना निश्चित
है कि उस
मार्ग से भी
लोग पहुंचे
हैं।
लेकिन
अगर मेरी सुनो
तो हृदय की
सुनना! और जब तुम
हृदय की सुनोगे
तो बुद्धि को
तकलीफ होगी।
क्योंकि हृदय
को चुनने का
अर्थ है:
बुद्धि का
प्रभुत्व गया; तर्क की
तुम्हारे ऊपर
जो मालकियत है,
वह टूटी!
न
जाने आज मैं
क्या बात कहनेवाला
हूं
जुबान
खुश्क है, आवाज रुकती
जाती है।
जैसे-जैसे
प्रेम की बात
कहने के करीब
आओगे, वैसे
ही पाओगे:
जबान खुश्क हो
गयी, आवाज
रुकती जाती है,
क्योंकि
बुद्धि काम
नहीं करती।
न
जाने आज मैं
क्या बात कहनेवाला
हूं
जुबान
खुश्क है, आवाज रुकती
जाती है।
हृदय
की तरफ सरकोगे
तो बुद्धि
मरने लगेगी।
इसलिए बुद्धि
बहुत संघर्ष
करेगी। लेकिन
चुनाव तो करना
ही होगा।
और
प्रेम का
मार्ग सुगम है, छोटा
है--करीब से
करीब है।
क्योंकि
प्रेम सुगम है,
सहज है।
प्रेम को लेकर
ही तुम पैदा
हुए हो, ध्यान
को इतनी आसानी
से नहीं कहा
जा सकता कि
तुम लेकर पैदा
हुए हो। ध्यान
तो तुम बड़ी
चेष्टा करोगे
तो शायद दीया
जले। लेकिन प्रेम
की तड़फ तो
तुम्हारे
भीतर है ही; तुम्हारी
श्वास-श्वास
में भरी है!
तुम्हारे रोएं-रोएं
में भरी है।
कहां है ऐसा
मनुष्य जो प्रेम
के लिए प्यासा
न हो! कहां है
ऐसा मनुष्य जो
प्रेम देने को
आतुर न हो! न दे
पाओ, कुछ
अड़चन आती हो; न मिल पाये, कुछ बाधा पड़
जाती हो--और
बात। लेकिन
कहां है ऐसा
मनुष्य जो
प्रेम के लिए
आतुर न हो!
प्रेम स्वाभाविक
है, नैसर्गिक
है। वह जीवन
के ऋत का
हिस्सा है।
ध्यान
बड़ी चेष्टा, बड़े
परिमार्जन, बड़ी मर्यादा,
बड़े
अनुशासन से
उपलब्ध होता
है। तो जो
नैसर्गिक है
उसे तुम जल्दी
काम में ला
सकते हो।
तू न
दे नामे को
इतना तूल
गालिब
मुख्तसर लिख दे
कि
हसरत सेज हूं, अर्जे-सितमहाए-जुदाई का।
--प्राणप्यारे को पत्र
लिखते समय, पत्र को
बहुत विस्तृत
न बना, गालिब!
बस इतना लिख
दे, इतना
काफी है
संक्षेप में
कि श्री चरणों
में विरह की
पीड़ा निवेदन
करने की लालसा
से लसित! काफी
है!
"न
दे नामे को
इतना तूल'--चिट्ठी
को बहुत लंबी
मत कर। "गालिब,
मुख्तसर
लिख दे!' बस
संक्षेप में
इतना लिख दे
"कि हसरत सेज
हूं अर्जे-सितमहाए-जुदाई
का।' कि
विरह की पीड़ा
बहुत हो गयी, अब श्री
चरणों में यह
निवेदन रखता
हूं कि अब मिलने
की बड़ी गहरी
अभीप्सा है।
बस काफी है।
प्रेम
की चिट्ठी
छोटी होती है।
ढाई
आखर प्रेम का पढ़ै सो
पंडित होय!
अगर
प्रेम ने
पुकारा हो तो
इस आवाज को
ऐसे ही मत लौट
जाने देना।
अगर प्रेम ने
पुकारा हो तो
सुनना, दो
गाम उसके पीछे
चलना! क्योंकि
प्रेम के रास्ते
से दो गाम
चलकर भी आदमी
परमात्मा तक
पहुंच जाता
है।
संकल्प
का रास्ता
बहुत लंबा, बहुत बीहड़,
बहुत अकेले
का है। हां, कुछ को वैसी
चुनौती ही
भाती है।
जिनको वैसी चुनौती
भाती है, उनको
वही मार्ग
चुनना चाहिए।
लेकिन
प्रश्नकर्ता
के प्रश्न से
मुझे ऐसा लगता
है कि उसे
बुद्धि का
मार्ग जमेगा
नहीं, संकल्प
का मार्ग
जमेगा नहीं।
क्योंकि
जिन्हें
संकल्प का
मार्ग जमता है,
उन्हें
प्रेम की
पुकार ही
सुनायी नहीं
पड़ती। वह
दस्तक प्रेम
देता रहे, उनके
कान बहरे होते
हैं। प्रेम
में उन्हें सिर्फ
पाप दिखायी
पड़ता है।
तो
संकल्प के मार्गवाला
व्यक्ति तो यह
पूछेगा ही
नहीं। यह तो
उसी ने पूछा
है जिसका
मार्ग प्रेम
है; लेकिन
बुद्धि की
अड़चन में पड़
गया है। चाह
तो गहरी यही
है कि प्रेम
में उतर जाये,
लेकिन
अहंकार उतरने
नहीं देता, झुकने नहीं
देता। तो इस
अहंकार को
तोड़ो! इस
अहंकार से
अपने को अलग
करो। पूछनेवाला
शिकार तो हो
ही गया है।
तीर तो लग ही
गया है।
दिल को
हम सर्दे-वफा
समझे थे, क्या
मालूम था
यानी, यह पहले ही नज़रे-इम्तिहां
हो जायेगा।
--समझे
थे कि दिल
बहुत
प्रेम-प्रवीण
है, पता न
था कि पहली
नजर में ही मर
मिटेगा!
प्रेम
का तीर तो लगा
है, अब तुम
बुद्धि की
सुन-सुनकर
कहीं इस घाव
को छिपा मत
लेना! यह घाव
सौभाग्य है।
हां, जिनका
मार्ग संकल्प
का है, उन्हें
यह घाव लगता
ही नहीं। उनके
आसपास से तीर
निकल जाते हैं,
उनको चुभते
नहीं। इसलिए
उनके सामने
सवाल नहीं
उठता। सवाल ही
उसके सामने
उठता है, जिसको
प्रेम की आवाज
सुनायी पड़ती
है। अगर प्रेम
की आवाज
सुनायी पड़ी है
तो चलो, हिम्मत
करो! अहंकार
में बचाने
जैसा कुछ भी
नहीं है।
और
इतना मैं कहता
हूं कि संकल्प
के मार्ग पर भी
आखिर में तो
अहंकार छोड़ना
ही पड़ेगा।
प्रेम के
मार्ग पर
प्रथम ही
छोड़ना पड़ता है, संकल्प के
मार्ग पर अंत
में छोड़ना
पड़ता है। प्रेम
के मार्ग और
संकल्प के
मार्ग में
इतना ही भेद
है। प्रेम के
मार्ग पर जो
पहला कदम है, वह संकल्प
के मार्ग पर
अंतिम कदम है।
पहले तो संकल्प
के मार्ग का
साधक अपने को
निखारता है, तेज से भरता
है, उज्जवल
करता है, चरित्र
को निर्मित
करता है, शील
को बांधता
है, मर्यादा
बनाता है; सब
तरह से
अनुशासित
होकर शील और
चरित्र का स्तंभ
बनता है।
लेकिन इस सबके
भीतर एक
सूक्ष्म अहंकार
बनता जाता है:
"मैं हूं
तपस्वी! मैं
हूं संयमी!
मैं हूं योगी!'
यह "मैं' भरता
जाता है। फिर
आखिरी घड़ी आती
है, तब उसे
पता चलता है
कि अब सब तो
छूट गया, यह
"मैं' बचा।
वह सब तो गिर
गया जो गलत था,
लेकिन उस सब
गलत को गिराने
में एक चीज
भीतर निर्मित
होती चली
गयी--अब इसको
गिराना है।
तो
संकल्प के
मार्ग पर
अंततः, अंतिम,
अहंकार को
छोड़ना पड़ता
है। भक्ति के
मार्ग पर अहंकार
पहले ही कदम
में छोड़ना
पड़ता है।
इसलिए मैं कहता
हूं जिसे
छोड़ना ही है
उसे इतनी देर
भी क्या ढोना।
जिसे छोड़ना ही
पड़ेगा, आखिरी
शिखर पर
पहुंचने के
पहले...।
कभी
तुम हिमालय
गये, कभी शिखर
चढ़े?...तो
जैसे-जैसे
शिखर की ऊंचाई
बढ़ने लगती है
वैसे-वैसे
सामान छोड़ना
पड़ता है। आखिरी
शिखर पर तो
कोई नग्न होकर
ही पहुंचता है,
सब छोड़कर ही
पहुंचता है।
वस्त्र भी
भारी हो जाते
हैं। अपनी
श्वास भी भारी
होने लगती है।
तो कंधे पर
अगर तुम बोझ
डाले हुए हो, छोड़ना पड़ेगा,
छोड़ते जाना
पड़ेगा।
अंतिम
शिखर सत्य का:
बस तुम बचते
हो तुम्हारी शुद्धता
में। कोई "मैं' का भाव नहीं
होता। महावीर
उसे आत्मा
कहते हैं।
नारद उसे
परमात्मा
कहते हैं।
तीसरा
प्रश्न:
कृपा
कर
कीर्तन-ध्यान
के बारे में
कुछ समझाएं।
कीर्तन
समझने की बात
नहीं--करने की
बात है। कीर्तन
शब्द में ही
छिपा है
राज--करने की
बात! करो तो जानोगे।
समझ से कीर्तन
का कोई
लेना-देना
नहीं।
वस्तुतः तो
समझ को रख
दोगे एक
किनारे तभी
कीर्तन कर
सकोगे। तो समझ-समझकर
अगर कीर्तन
किया तो होगा
ही नहीं। समझकर
किया तो चूक
ही जाओगे। अगर
बुद्धिमानी
के द्वारा
किया, वहीं
गलती हो
जायेगी।
समझने की
फिक्र छोड़ो।
अगर सच में ही
समझना चाहते हो
तो करो, समझ
पीछे से
आयेगी। डूबो!
कीर्तन-ध्यान
तल्लीनता का
नाम है।
कीर्तन-ध्यान
अहोभाव की
अभिव्यक्ति
है। धन्यभाव
की! यह अहोभाव
कि मैं हूं! यह
अहोभाव कि
परमात्मा ने
मुझे सृजा!
यह अहोभाव कि
थोड़ी देर
आंखें खुलीं, रोशनी देखी,
फूल देखे, पक्षियों के
गीत सुने, सूरज,
चांदत्तारों का नृत्य
देखा!
ये
थोड़े क्षण, ये थोड़े लम्हे,
जो जीने के
मिले, ये न
मिलते तो
किससे शिकायत
करते? ये
मिले--अकारण
मिले! मांगे न
थे, बिना
मांगे मिले!
किसी ने दिये!
यह किसी का
प्रसाद--इस
प्रसाद के
प्रति जो
धन्यवाद है, वही कीर्तन
है।
तुमने
चाहा तो न था
कि तुम हो
जाओ। तुम
चाहते भी कैसे, जब तुम थे ही
न? चाहने
के लिए हो
जाना तो पहले
जरूरी है।
तुमने चाहा तो
न था कि तुम
देख सको।
क्योंकि देखा
ही न होता, तो
देखने की चाह
कैसे पैदा
होती; तुमने
चाहा तो न था
कि सुन सको यह
गीत, यह
संगीत जो जीवन
का है, यह
कलरव-नाद जो
अस्तित्व का
है--यह सब मिला
है, यह
वरदान है! यह
तुम्हारे
बिना मांगे
मिला है। यह
भीख नहीं है, यह प्रसाद
है!
भीख और
प्रसाद के
फर्क को समझ
लेना। तुमने
मांगा और
मिले--तो भीख।
तुमने न मांगा, न तुमने
चाहा और
मिला--तो
प्रसाद! यह
प्रभु-प्रसाद
है। यह परम
अस्तित्व का
प्रसाद है
तुम्हारे
लिए। लहर-लहर
को उसने ऐसा
बनाया कि वह
सारे
अस्तित्व को
भोग सके! एक-एक
कण को जीवंत
किया, ताकि
एक-एक कण को
पूरे होने का
स्वाद आ सके!
इसके लिए
धन्यवाद दोगे
या नहीं? इतने
कृपण मत बनो!
धन्यवाद दो!
कैसे धन्यवाद
दोगे इसे?
आदमी
कितना असहाय
है! नाच सकता
है, गीत
गुनगुना सकता
है! और क्या कर
सकेगा? हमारे
बस में और
क्या है?
कीर्तन
का इतना ही
अर्थ है, जो
हम कर सकते
हैं; चढ़ाने को कुछ
ज्यादा नहीं
है! बस जो कुछ
है, यह
अहोभाव है।
इसको ही हम उस
समग्र के
प्रति समर्पित
करते हैं।
तो
कीर्तन तो एक
तरह का उन्माद
है। पागलपन
नहीं--उन्माद।
भाषाकोश
में तो दोनों
का एक ही अर्थ
है; जीवन के
कोश में अर्थ
अलग-अलग है।
पागलपन है: जब
तुम्हारी
जीवन की
अवस्था
खंड-खंड हो
जाये, टुकड़े-टुकड़े
में टूट जाये;
तुम एक न रह
जाओ, अनेक
हो जाओ। और
उन्माद है: जब
तुम्हारे
सारे खंड
इकट्ठे हो
जायें, तुम
एक हो जाओ; उस
एक में होकर
तुम नाच उठो, मस्त हो उठो!
उन्माद, सामान्य
चित्त से ऊपर
जाने की
अवस्था है।
पागलपन, सामान्य
चित्त से नीचे
गिर जाने की
अवस्था है।
दोनों में एक
बात समान है
कि दोनों
सामान्य चित्त
के बाहर हैं।
इसलिए परमहंस
पागल मालूम होते
हैं। इसलिए
परमात्मा के
दीवाने भी
विक्षिप्त
जैसे मालूम
होते हैं। एक
बात समान है
कि दोनों
जिसको तुम
सामान्य
बुद्धिमानी
कहते हो उसके
बाहर हो गए।
पागल नीचे
गिरकर बाहर हो
गया, मस्त
ऊपर उठकर बाहर
हो गया। लेकिन
दोनों को एक
मत समझ लेना।
दोनों में
जमीन-आसमान
जैसा अंतर है।
न
जाने क्यों
जमाना हंस रहा
है मेरी हालत
पर
जुनूं
में जैसा होना
चाहिए वैसा गिरेबां
है।
भक्त
कहता है:
क्यों हंस रहे
हैं लोग? ये
तो उन्माद में
जैसा होना
चाहिए, वैसे
ही तो वस्त्र
हैं, वैसा
ही परिधान है।
तो पागल को
जैसा होना
चाहिए, वैसा
ही तो मैं हूं।
लोग हंस क्यों
रहे हैं!
न
जाने क्यों
जमाना हंस रहा
है मेरी हालत
पर
जुनूं
में जैसा होना
चाहिए वैसा गिरेबां
है।
और
क्या चाहिए?
कीर्तन
तो उन्माद है!
बुद्धिमान तो
हंसेंगे। इसलिए
दुनिया से
कीर्तन खोता
चला गया है।
दुनिया बहुत
बुद्धिमान
होती चली गयी
है। उसी बुद्धिमानी
में बुद्धू हो
गयी है।
कीर्तन खोता
चला गया है।
नाच गुम हो
गया है।
लोग
अगर नाचते भी
हैं अब तो
बहुत निम्न तल
पर नाचते हैं।
वह
कामोत्तेजना
का नृत्य होता
है। अब
प्रभु-उन्माद
का नृत्य कहीं
भी नहीं होता।
अब ऊर्जा ने
उन ऊंचाइयों
को छूना बंद
कर दिया है।
अब यहां तूफान
भी उठते हैं, आंधियां भी
आती हैं, तो
भी जमीन का
दामन नहीं
छूटता। आकाश
में नहीं उठ
पाते! पक्षी
उड़ते भी हैं, तो ऐसा घर के
चारों तरफ
चक्कर लगाकर
फिर वहीं बैठे
जाते हैं।
दूर-दूर कि खो
जाए पृथ्वी, दूर कि खो
जाये नीड़--इतने
दूर आकाश में
नहीं जाते!
कीर्तन
बड़ी दूर
यात्रा है। यह
परमात्मा के
साथ नाचना है।
जैसे तुम कभी
किसी स्त्री
के साथ नाचे, जिसे तुमने
प्रेम किया, तो नृत्य
में एक प्रसाद
आ जाता है, एक
गुणधर्म आ
जाता है। किसी
के साथ तुम
नाचो, सिर्फ
नाचने के लिए,
औपचारिक, तो नाच तो हो
जायेगा, क्रिया
पूरी हो जायेगी;
लेकिन भीतर
प्राणों में
कोई रस न
बहेगा। फिर किसी
के साथ नाचो, जिससे
तुम्हें
प्रेम है, तो
कामोत्तेजना
का, वासना
का रस बहेगा!
कीर्तन
है परमात्मा
के साथ नाचना, उस परम
प्यारे के साथ
नाचना! तो
जैसे साधारण कामोत्तेजना
का नृत्य
काम-केंद्र के
आसपास भटकता
है, वैसे
कीर्तन
सहस्रार के
आसपास।
तुम्हारे जीवन
की आखिरी
ऊंचाई पर, नृत्य
के फूल खिलते
हैं, हजार-हजार
कमल खिलते
हैं।
ऐ
मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर
खुदकुशी न कर
तेरा
इलाज जहर नहीं
है, शराब है।
कीर्तन!
भक्त तो कहता
है कि जीवन से घबड़ाकर
आत्महत्या
करने की तरफ
मत जाओ, पागल
हुए हो?
ऐ
मुब्तिला-ए-जीस्त! ठहर
खुदकुशी न कर!
--ऐ
जीवन से
उत्तप्त हुए,
आत्मघात मत
कर! भाग मत
जीवन से! तेरा
इलाज जहर नहीं,
शराब है।
मृत्यु तेरा
इलाज नहीं है।
जीवन की रसधार
को पी लेना!
परमात्मा की
मधुशाला में
प्रविष्ट हो
जाना ही मंदिर
में प्रवेश हो
जाना है।
तर
दामनी पर शैख
हमारी न जाइए
दामन
निचोड़
दें तो फरिश्ते
वजू करें।
तो
कीर्तन
करनेवाला तो
दीवाना है, पागल है, नर्तक
है, गायक
है, वादक
है। और इतनी
तीव्रता से
नर्तन करता है,
इतनी गहनता
से कि अपने को
भूल जाता है, खो देता है, खुद बचता ही
नहीं।
पश्चिम
का एक बहुत बड़ा
नर्तक हुआ:
निजिन्सकी।
उसके संबंध
में वैज्ञानिक
बड़े चकित थे।
उसके नृत्य
जैसा नृत्य फिर
कभी देखा नहीं
गया--न उसके
पहले, न
उसके बाद।
वैज्ञानिक
हैरान थे कि
जब वह नृत्य
करते-करते
छलांग लगाता
था तो ऐसा
लगता था कि पृथ्वी
पर वापस लौटते
समय बड़ा
धीमे-धीमे
वापस आता है; जैसे
गुरुत्वाकर्षण
का नियम उस पर
काम नहीं करता।
और भी नर्तक
छलांग लगाते
हैं, लेकिन
तत्क्षण
पृथ्वी पर
वापिस लौट आते
हैं। वह भी
छलांग लगाता
था, लेकिन
ऐसे लौटता था
जैसे कोई
पक्षी का पंख
डगमगाता-डगमगाता,
आहिस्ता-आहिस्ता,
हवा पर तिरता-तिरता
जमीन की तरफ आता
है। उसके बहुत
अध्ययन किये
गये। उससे
पूछा भी गया
कि चमत्कार
कहां है? यह
जादू कैसे
पैदा होता है?
तो वह
कहता है, मुझे
पता नहीं। जब
"मैं' अपने
को बिलकुल भूल
जाता हूं, तभी
यह छलांग घटती
है। जब "मैं' नहीं
होता--तभी। जब
तक मैं होता
हूं, अगर
मैं चेष्टा से
ही छलांग
लगाऊं, तो
परिणाम में
कुछ हाथ नहीं
आता। लेकिन
नाचते-नाचते
एक ऐसी घड़ी
आती है कि नाच
रह जाता है, नर्तक नहीं
रह जाता। उस
क्षण अगर यह
छलांग लगती है
तो मैं खुद ही
चकित होता
हूं। मैं
बिलकुल हलका,
निर्भार हो
जाता हूं; जैसे
जमीन की कशिश
का अहंकार का
बड़ा बल हो। है
भी। जमीन
तुम्हारे
अहंकार को ही
खींच रही है।
जिस दिन
तुम्हारा
अहंकार गया, आकाश खुला
है। फिर
तुम्हारे लिए
जमीन की कोई पकड़
नहीं है।
नृत्य
में, गीत में,
कीर्तन में,
भजन में, डूबा हुआ
भक्त
ज्ञानियों से
कहता है: तर
दामनी पर शैख
हमारी न
जाइए--हमारे
भीगे दामन पर
मत जाइए। दामन
निचोड़
दें तो फरिश्ते
वजू करें।
यह
शराब इस जगत
की शराब
नहीं--यह
बेहोशी किसी और
जगत की बेहोशी
है। यह अपने
भीतर किसी और
जगत को
निमंत्रण है।
भक्त जब
कीर्तन में
परिपूर्ण
लवलीन होता है
तब भक्त नहीं
रहता, भगवान
ही होता है।
तब वह केवल
शून्य हो गया होता
है। और उस
शून्य में उतर
आती है परम
मूर्च्छा।
तुम खाली तो
जगह करो। तुम
सिंहासन तो रिक्त
करो।
परमात्मा
प्रतिपल
उत्सुक है
तुम्हारे
भीतर आ जाने
को। तुम तो
जरा बाहर हो
जाओ!
कीर्तन
का इतना ही
अर्थ है: अपने
से बाहर हो जाना; अपने घर को
खाली छोड़ देना
कि तू आ, अब
भीतर कोई भी
नहीं है; अब
पूरी जगह तेरे
लिए खाली है, तेरे लिए
सुरक्षित है!
रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना,
हसरत
इक
तेरी याद के
होने से है
क्या-क्या दिल
में।
रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना,
हसरत
इक
तेरी याद के
होने से है
क्या-क्या दिल
में।
भक्त
कहता है, भगवान
की याद के साथ
ही क्या-क्या
नहीं होने
लगता! आनंद, अहोभाव, आशा-निराशा,
सुख-दुख, अभीप्सा, प्यासत्तृप्ति!
रंज-गम, दर्द-अलम, यास, तमन्ना,
हसरत
--बस
जरा तेरी एक
याद आ जाती है
तो हजार-हजार
चीजें तेरे
आसपास चली आती
हैं।
तो
कीर्तन की
बहुत भंगिमाएं
हैं। कभी भक्त
विरह में
नाचता है; तब उसकी
कीर्तन में
बड़ी उदास
भंगिमा होती
है। आंसू बहते
हैं। पीड़ा और
विरह होती है।
कभी भक्त आनंदोल्लास
में नाचता है;
तब उसकी बड़ी
प्रसन्न
भंगिमा होती
है, वसंत
होता है, सब
तरफ फूल होते
हैं! तब उसकी
मस्ती देखें!
तब उसके चारों
तरफ आनंद की
किरणें नाचती
हैं। कभी
प्यास में
नाचता है; कभी
तृप्ति में
नाचता है।
भक्त
की बड़ी ऋतुएं
हैं और कीर्तन
की बड़ी भाव-भंगिमाएं
हैं। कीर्तन
बड़ी समृद्ध
घटना है। जीवन
की सभी
गहराइयां
उसमें
समाविष्ट हैं, और सभी ऊंचाईयां
भी। पहले तो
भक्त छिपाता
है अपने प्रेम
को भीतर।
प्रेम का वह
अनिवार्य अंग
है कि हम उसे
किसी को बताना
नहीं चाहते।
वह कोई तमाशा
थोड़े ही है! वह
कुछ ऐसी बात
थोड़े ही है जो
दिखलाते फिरें!
उसकी कोई
प्रदर्शनी तो
नहीं, कोई
नुमाइश तो
नहीं! उसे
छिपाता है, उसे हीरे की
तरह गांठ में
बांधकर रखता
है। कबीर कहते
हैं: हीरा
पायो गांठ
गठियायो! उसे
बिलकुल गांठ
में बांध लेता
है, किसी
को पता भी
नहीं चले, कानों-कान
खबर न हो।
जीसस ने कहा
है, "बाएं
हाथ में हो तो
दाएं हाथ को
पता न चले।' सूफी फकीर
कहते हैं, "रात,
आधी रात
उठकर कर लेना
प्रार्थना; तुम्हारी
पत्नी को भी
पता न चले।'
पहले
तो बड़ा निजी
है; लेकिन
ज्यादा देर
निजी नहीं
रहता। जब भरने
लगता है पात्र
तो पात्र ऊपर
से बहने लगता
है; फिर
छिपाए नहीं
छिपता, फिर
प्रगट होने
लगता है। जब
प्रगट होने की
घड़ी आती है, तब भजन
कीर्तन बनता
है। भक्ति जब
तक भीतर-भीतर,
भीतर-भीतर
रसधार बहती है
तो भजन, जप;
फिर जब बहने
लगती है बाहर,
अवश होकर, तुम चाहो तो
भी रोक नहीं
पाते, इतनी
ऊर्जा का जन्म
होता है कि
चारों तरफ
फैलने लगती है
ऊर्जा अपने-आप,
तब कीर्तन!
कीर्तन
भजन की
अभिव्यक्ति
है। कीर्तन
भजन की अभिव्यंजना
है।
तुम भी
मजाज इन्सां
हो आखिर लाख छुपाओ
इश्क अपना
ये भेद
मगर खुल
जायेगा, ये
राज मगर इफ्शां
होगा।
--छिप
न सकेगा यह
भेद। यह राज
मगर इफ्शां
होगा। यह पता
चल ही जायेगा।
प्रेम को कौन
कब छिपा पाया!
तो प्रेम जब
तुम्हारे
बिना दिखाए दिखायी
पड़ने लगता है,
तुम्हारे
रग-रोएं
में झलकने
लगता है, प्रेम
की आभा
तुम्हें घेर
लेती है, तुम्हारी
आंखों के पास,
तुम्हारे
चेहरे के पास
एक प्रेम का
आभामंडल निर्मित
हो जाता है कि
कोई चाहे तो
छू ले, कि
कोई चाहे तो
थोड़ा-सा
आभामंडल अपनी
मुट्ठी में
बांध ले, कि
कोई चाहे तो
तुम्हारे
आभामंडल को पी
ले--जब आभामंडल
इतना
वास्तविक हो
जाता है तब
कीर्तन प्रगट
होता है!
तो
जल्दी मत
करना। कीर्तन
तो भजन की
आखिरी अवस्था
है। पहले
भजना।
भीतर-भीतर-भीतर
डुबाना, ताकि
जड़ें फैल
जायें। फिर एक
दिन तुम भी चौंककर
दखोगे:
तुम भी
मजाज इन्सां
हो आखिर लाख छिपाओ
इश्क अपना
ये भेद
मगर खुल
जायेगा ये राज
मगर इफ्शां
होगा।
तब
उन्माद की
आखिरी घड़ी आती
है। तब
तुम्हारे
अंतर की कोयल
कूक उठती है!
तब तुम्हारे
अंतर का मोर
नाच उठता है! तब
फिर चिंता
नहीं रह जाती।
तब कीर्तन!
कीर्तन
का अर्थ है: जब
भक्ति प्रगट
होकर बहने लगी।
चैतन्य नाचते
हुए, गांव-गांव
ढोलक बजाते
हुए! मीरा
नाचती हुई गांव-गांव।
फिर लोक-लाज
की चिंता
नहीं! फिर सब
उपचार छूट
जाते हैं। फिर
सब उपाधियां
गिर जाती हैं।
निरुपाधिक!
उपचार-मुक्त!
भक्त उसके हाथ
में कठपुतली
होकर नाचने
लगता है और
गीत
गुनगुनाने
लगता है। फिर
भक्त तो सिर्फ
बांस की
पोंगरी है।
फिर उसे जो
गीत गाना हो
गा ले, जो
गुनगुनाना हो
गुनगुना ले।
भक्त सिर्फ
राह देता है; उपकरण-मात्र
हो जाता है।
चलो
भाव से! भाव जब
सघन होगा तो
भजन। और जब
भजन फूट पड़ेगा
हजार-हजार
फूलों में और
सुगंध बिखर जायेगी
लोक-लोकांतर
में, तब
कीर्तन!
कीर्तन, भक्ति की
परम दशा है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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