सूत्र:
दंसणभट्ठा भट्ठ,
दंसणभट्ठस्स
नत्थि निव्वाणं।
सिज्झंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।।
71।।
सम्मत्तस्स
य लंभो,
तलोक्कस्स
य हवेज्ज
जो लंभो।
सम्मदंसणलंभो,
वरं खु
तेलोक्कलंभादो।।
72।।
किं
बहुण भणिएणं,
जे सिद्ध णरवरा
गए काले।
सिज्झिहिंति जे
वि भविया,
तं जाणइ सम्ममाहप्पं।।
73।।
जह सलिलेण
ण लिप्पई,
कमलिणिपत्तं
सहावपयडीए।
तह
भावेण ण लिप्पई कसायविसएहिं
सप्पुरिसो।।
74।।
उवभोगमिंदियेहिं,
दव्वाणमचेदणाणमिदराणं।
जं कुणदिसम्मदिट्ठी,
तं सव्वं
णिज्जरणिमित्तं
।। 75।।
संवेतो वि
ण सेवइ,
असेवमाणो
वि सेवगो कोई।
पगरणचेट्ठा कस्स वि,
ण य पायरणो
त्ति सो होई।।
76।।
न
कामभोगा समयं उवेति,
न यावि भोगा विगइं उवेति।
जिन-दर्शन
की चिंतन-धारा
के ठीक मध्य
के सूत्रों पर
हम आ गये हैं।
धार यहां बहुत
गहरी है।
ऊपर-ऊपर से
समझेंगे तो चूकेंगे।
डुबकी गहरी
लगानी
होगी--साहस के
साथ और अत्यंत
धीरज के
साथ--तो ही ये
सूत्र समझ में
आ सकेंगे।
और ये
उन सूत्रों
में से हैं, जो सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हैं; और
उनमें से भी, जिनका जैनों
ने सर्वाधिक
गलत अर्थ किया
है। उनको करना
पड़ा गलत अर्थ;
क्योंकि
अगर इन
सूत्रों का
ठीक अर्थ करें
तो जैन जो कर
रहे हैं, न
कर पाएंगे।
अगर ये
सूत्र ठीक हैं
तो जैन गलत हो
जाते हैं और
अगर जैनों को
अपने को ठीक
बनाए रखना है, बताए रखना
है, तो इन
सूत्रों की
गलत व्याख्या
करनी जरूरी है।
वह जैसे हम
सूत्रों में
प्रवेश
करेंगे, स्पष्ट
होने लगेगा।
सभी
अनुयायियों
ने अपने
गुरुओं के साथ
अनाचार किया
है; कभी-कभी
तो सीधा
बलात्कार!
क्योंकि अगर
गुरु पूरा ठीक
है तो अनुयायी
को गलत होने
का उपाय नहीं
छूटता। गुरु
के विदा होते
ही अनुयायी
उसके वचनों
में जोड़ता है,
घटाता है, अर्थ को
बदलता है, नये
अर्थ बिठाता
है, नये
रंग डालता है।
तब वे काम के
योग्य हो जाते
हैं। तब फिर
उनका खतरा
समाप्त हो
जाता है। उनके
प्राण ही निकल
जाते हैं; निष्प्राण
सूत्र रह जाते
हैं।
पहला
सूत्र:
दंसणभट्ठा
भट्ठा--जो
दर्शन से
भ्रष्ट है वही
भ्रष्ट है।
दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं--और
दर्शन से जो
भ्रष्ट है, उसकी कभी
निर्वाण की
उपलब्धि संभव
नहीं है। वह
कभी मोक्ष को
उपलब्ध न हो
सकेगा।
सिज्झंति चरियभट्ठा--यह
बड़ा अनूठा
सूत्र है!
महावीर कहते
हैं, चरित्र-विहीन
दृष्टिवाला
व्यक्ति भी
सिद्धि
प्राप्त कर
सकता है। सिज्झंति
चरियभट्ठा।
वह भी पहुंच
जायेगा जिसके
पास कोई
चरित्र नहीं;
सिर्फ
दृष्टि हो।
दंसणभट्ठा
ण सिज्झंति।
लेकिन जिसके
पास दर्शन
नहीं है, वह
लाख उपाय करे
तो भी न पहुंच
पायेगा।
चरित्र से ऊपर
दर्शन के लिए
इससे ज्यादा
बहुमूल्य
सूत्र नहीं हो
सकता। एक-एक
शब्द को गौर
से समझें।
"दर्शन
से जो भ्रष्ट
है, वही
भ्रष्ट है।' जिसके पास
आंख नहीं, वही
भटका है। तुम
चरित्र को
कितना ही
सुधार लो, तुम
चरित्र को
कितना ही
अनुशासित, परिमार्जित
कर लो; लेकिन
अगर यह चरित्र
तुम्हारी ही
दृष्टि से
निष्पन्न
नहीं हुआ है, उधार है, तो
इससे मोक्ष न
हो सकेगा। तुम
सत्य बोलो; क्योंकि
शास्त्र कहते
हैं, "सत्य
बोलो; सत्यं
वद!' इसलिए
सत्य बोलते
हो। लेकिन
प्राणों में
असत्य
संगृहीत होता
है। ऐसा हो
सकता है कि
तुम जीवन को
इस तरह से
बांध लो कि असत्य
कभी जबान के
बाहर न आये।
कठिन है, असंभव
तो नहीं। जबान
आखिर जबान है;
काबू में
रखी जा सकती
है। और इतना
तो कर ही सकते
हो, अगर
काबू में न
रहती हो तो
चुप हो जाओ, जबान काट ही
दे सकते हो।
इसलिए बहुत
लोग मौन हो
जाते हैं।
लेकिन मौन से
असत्य थोड़े ही
मिट जायेगा...!
अब असत्य
बोलते तो नहीं,
लेकिन
असत्य अगर
बोलने से ही
जुड़ा होता तो
एक बात थी;
असत्य तो
तुम्हारे
प्राणों में
बैठा है। न बोलोगे
तो दूसरों तक
न पहुंचेगा, लेकिन तुम
तो उससे मुक्त
न हो जाओगे।
बोलने से तो
अभिव्यक्त
होता था, पैदा
थोड़े ही होता
था! बोलने से
तो केवल प्रगट
होता था, जन्मता
थोड़े ही था!
असत्य तो भीतर
बैठा है। बोलने
से दूसरे को
भी खबर मिल
जाती थी।
तो जो
व्यक्ति
चरित्र को साध
लेगा शास्त्र
के अनुसार, बिना स्वयं
की दृष्टि के,
दूसरों के
और उसके बीच
के संबंध तो
ठीक हो जायेंगे,
वह व्यक्ति
नैतिक हो
जायेगा--लेकिन
महावीर कहते
हैं--धार्मिक
नहीं। मोक्ष
उसके लिए नहीं
है। परम आनंद
का द्वार उसके
लिए न खुलेगा।
वह अच्छा
नागरिक हो
जायेगा।
सज्जन हो जायेगा,
लेकिन संत
नहीं।
सज्जन
का अर्थ है, जिससे किसी
को कोई नुकसान
नहीं
पहुंचता। लेकिन
स्वयं तो
सज्जन अपना
आत्मघात करता
रहता है। जहर
किसी पर नहीं
फेंकता, लेकिन
खुद ही पीता
चला जाता है।
तो खुद ही के रोएं-रोएं
में, रग-रग
में, श्वास-श्वास
में जहर फैल
जाता है। तो
जिनको तुम
सच्चरित्र
कहते हो, कभी
उनकी
अंतरात्मा
में भी झांककर
देखना; तुम
उन्हें दुश्चरित्रों
से भी ज्यादा
जहर से भरा
हुआ पाओगे।
पाओगे ही, क्योंकि
दुश्चरित्र
तो थोड़ा-बहुत
बाहर भी फेंक
लेता है; वह
तो भीतर ही
इकट्ठा किए
चले जाते हैं।
दुश्चरित्र
का तो थोड़ा
रेचन भी हो
जाता है, उनका
तो कोई रेचन
भी नहीं होता।
दुश्चरित्र तो
ऐसा है कि
श्वास लेता है;
जीवनदायी
आक्सीजन को पी
लेता है, जीवन-विरोधी
कार्बन डाय-आक्साइड
को बाहर फेंक
देता है।
लेकिन
तुम जिसे
सज्जन कहते हो, वह ऐसा है कि
कार्बन डाय-आक्साइड
को भीतर
इकट्ठा किए
जाता है
फेफड़ों में, बाहर नहीं
फेंकता। उसके
खुद के फेफड़े सड़ने लगते
हैं। सज्जन एक
तरह के आत्मिक
कैंसर की दशा
में होता है।
इसलिए एक
बहुत बड़ा
चमत्कार
मनोवैज्ञानिकों
को अनुभव में
आया है कि गहनतम
अपराधियों की
आंखों में भी
कभी-कभी
बच्चों जैसा
निर्दोष भाव
होता है; लेकिन
तुम्हारे
तथाकथित
संतों की
आंखों में नहीं
होता। उनकी
आंखों में बड़ी
जटिलता, बड़ा
गणित, बड़ा
हिसाब...! और वे
चौबीस घंटे
अपने को पकड़े
हुए हैं। क्षणभर
को ढीला छोड़ा,
तो वह जो
बांध रखा है जन्मभर का
जहर वह बिखर
सकता है।
संत क्षणभर को
विश्राम नहीं
करता। संत के
लिए--कहते
हैं--कोई
छुट्टी
नहीं।...तथाकथित
संत के लिए!
वास्तविक संत
तो चौबीस घंटे
विश्राम में
है। विश्राम
ही उसकी
जीवन-शैली है।
लेकिन जिसे
तुम संत कहते
हो और जिसे
महावीर के
हिसाब से
ज्यादा से
ज्यादा सज्जन
कहना चाहिए, वह भी शिष्टाचारवश...।
यह जो तथाकथित
संत है यह एक
क्षण को भी
विश्राम में
नहीं है; हो
नहीं सकता, क्योंकि यह
डरा हुआ है।
जब भी अपने को
ढीला छोड़ेगा,
शिथिल
करेगा, तो
जो दबा रखा है
वह गांठ
खुलेगी।
तुमने
कभी देखा, एक झूठ तुम
बोल दो तो फिर
तुम शिथिल
नहीं हो पाते!
क्योंकि तुम
शिथिल हुए तो
कहीं झूठ निकल
न जाये! तुम
कहीं गपशप में,
बातचीत
करने में भूल
गए और कह दिया
किसी से, तो
झूठ बोलनेवाला
आदमी ज्यादा
नहीं बोलता, सोच-सोचकर
बोलता है। और
जो बहुत झूठ
बोलता है, वह
तो चौबीस घंटे
सचेष्ट रहता
है।
जिसको
तुम सज्जन
कहते हो उसने
जीवन का सबसे
बड़ा झूठ बोला
है--जो उसके
भीतर नहीं है
वह उसने बाहर
करके दिखला
दिया है। वह
सबसे बड़ी
असत्य घटना
है। आत्मा में
नहीं है वह, आचरण में
बतला दिया है।
इस बड़े झूठ का
परिणाम यह
होता है कि
तुम्हारा
सज्जन तो
विश्राम ले ही
नहीं सकता। वह
चौबीस घंटे संगीनधारी
की तरह अपनी
ही छाती पर
पहरा देता है।
यह कोई संत की
अवस्था न हुई।
यह कोई मुक्ति
न हुई। यह तो
बुरी तरह बंध
जाना हुआ।
महावीर
कहते हैं: दंसणभट्ठा
भट्ठा! भटका
वही, जिसके
पास आंख नहीं।
सारा
जोर दृष्टि पर
है, आंख पर
है।
तथाकथित
चरित्रवान
व्यक्ति ऐसा
है जैसे कोई अंधा
व्यक्ति एक ही
रास्ते पर
बार-बार
आ-जाकर धीरे-धीरे
इतना अभ्यस्त
हो जाये कि
आंख की तो जरूरत
ही नहीं होती; लेकिन वह
बिना लकड़ी
टेके, बिना
किसी का सहारा
खोजे, बिना
टटोले, बिना पूछे, निरंतर उसी
रास्ते पर
आने-जाने के
कारण अभ्यस्त
हो जाने की
वजह से ऐसा
चलने लगता है
जैसा आंखवाले
को चलना
चाहिए। उसे
चलते देखकर
राह पर शायद तुम
भी चमत्कृत हो
जाओगे। शायद
तुम्हें भी शक
होगा कि कहीं
आंख इस आदमी
को मिल तो
नहीं गयी। क्योंकि
वह ठीक वैसा
ही चल रहा है
जैसे आंखवाले
चल रहे हैं।
लेकिन गहरा
फर्क है। यह
चलना केवल
अभ्यासवश है।
यह निरंतर इसी
रास्ते पर
आने-जाने से
आदत हो गयी
है। उसे
रास्ते का
एक-एक पत्थर
परिचित है।
उसे रास्ते का
एक-एक मोड़
परिचित है। वह
रास्ते पर चल
लेता है, लेकिन
चल लेने से कुछ
आंख थोड़े ही
खुल जाती है।
आंख खुलने से
चलना हो सकता
था; इसने
धोखा दे लिया।
जिसको
तुम
चरित्रवान
कहते हो, वह
ऐसा ही आदमी
है जिसको अभी
दिखायी तो
नहीं पड़ा, लेकिन
सुनकर औरों को,
कान का
भरोसा करके, अभ्यास कर
लिया है। तो
लोग अहिंसा का
अभ्यास कर रहे
हैं। अहिंसा
का कोई अभ्यास
हो ही नहीं
सकता। अहिंसा
की तो आंख
होती है।
प्रेम की एक
दृष्टि होती
है। प्रेम का
एक भाव होता
है। प्र्रेम
तो एक नया
जन्म है।
तुम्हारा
हृदय और ही
ढंग से देखना
शुरू करता है,
तब अहिंसा
फलित होती है।
तब अहिंसा बड़ी
जीवंत होती
है। तब उस
अहिंसा में पुलक
होती है, प्रसन्नता
होती है।
लेकिन
तुम दूसरों को
सुनकर, लोभ
के कारण कि
परलोक को
सम्हालना है,
चरित्र को
बना ले सकते
हो, अहिंसक
हो सकते हो, फूंक-फूंककर
पैर रख सकते
हो।...चींटी भी
न मरे, लेकिन
तुम मर जाओगे!
तुम सब बचा
सकते हो, लेकिन
अपने को न बचा
सकोगे। और
असली बात तो
वही थी।
दंसणभट्ठा
भट्ठा।
जिसके
पास आंख नहीं
है, वही भटका
हुआ है: सम्यक
दर्शन से जो
भ्रष्ट, वही
भ्रष्ट।
महावीर का वचन
बहुत साफ है।
दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं।
और जो
दर्शन से
भ्रष्ट है, उसका कोई
निर्वाण नहीं,
उसका कोई
मोक्ष नहीं।
यहां तक भी
जैन को कठिनाई
न होगी। आगे
जो सूत्र है--सिज्झंति चरियभट्ठा,
चरित्र-भ्रष्ट
भी अगर आंखवाला
है तो पहुंच
जाता है--यहां
अड़चन होगी। तो
जैन जब अनुवाद
करते हैं, जैन-मुनि
जब अनुवाद
करते हैं, तो
वे क्या करते
हैं अनुवाद
में? वे इस
सीधे-साधे वचन
का जहां दो
शब्द हैं
केवल--सिज्झंति
चरियभट्ठा--जो
नहीं भी जानते
प्राकृत वे भी
कह सकते हैं--सिज्झंति चरियभट्ठा--वे
भी सिद्धि को
पहुंच जाते
हैं जो
चरित्र-भ्रष्ट
हैं। जैन
अनुवाद में
क्या करते हैं?
वे कहते हैं,
"चरित्र-विहीन
सम्यक दृष्टि
तो चारित्र्य
धारण करके
सिद्धि को
प्राप्त हो
जाते हैं।'
चारित्र्य
धारण करके? इस तरह
महावीर को
विकृत करने
में सुविधा हो
जाती है।
जैनों को
तकलीफ है कि
अगर यह बात
सही है कि
चरित्र-भ्रष्ट
व्यक्ति भी, सिर्फ आंख
के होने के
कारण सिद्धि
को उपलब्ध हो
जाता है तो
हमारे सारे
चरित्र का, जो हमने
आयोजन किया है,
उसका क्या
होगा? तो
उसमें दो
छोटे-से शब्द
जोड़ दिए, कोष्ठक
में रख दिए:
"चरित्र-विहीन
सम्यक दृष्टि
तो (चारित्र्य
धारण करके)
सिद्धि
प्राप्त कर
लेते हैं।' यह महावीर
ने कहीं कहा
नहीं। महावीर
का वचन सिर्फ
सीधा-साफ है।
उन्हें कहना
होता तो वे
खुद ही कह
देते; ये
कोष्ठक वे भी
लगा सकते थे।
सिज्झंति चरियभट्ठा, दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।
लेकिन
दर्शन-भ्रष्ट
नहीं सिद्ध
होता; चरित्र-भ्रष्ट
तो सिद्ध हो
सकता है। अब
यहां बहुत-से
सवाल सोचने
जैसे हैं।
पहली बात:
चरित्र-विहीन
सम्यक दृष्टि!
इसका अर्थ हुआ,
महावीर यह
स्वीकार करते
हैं कि
चरित्र-विहीन
भी सम्यक
दृष्टि हो
सकता है। इसका
यह अर्थ हुआ
कि चारित्र्य
का होना या न
होना मौलिक नहीं
है।
चारित्र्य का
होना न होना
छाया की भांति
है। छाया बन
भी सकती है, न भी बने।
क्योंकि छाया
तुम पर निर्भर
नहीं होती।
तुम सोचते हो,
तुम्हारी
छाया
तुम्हारा
पीछा करती है--इस
भूल में मत पड़ना।
छाया तुम पर
निर्भर नहीं
होती, अन्य
कारणों पर
निर्भर होती
है। छाया
तुम्हारी
नहीं है, जैसा
तुम सोचते हो;
सूरज पर
निर्भर है।
छाया में खड़े
हो जाओगे तो छाया
खो जायेगी।
सूरज सिर पर आ
जायेगा, छाया
छोटी हो
जायेगी। सूरज
पीछे होगा, छाया आगे
पड़ेगी। सूरज
आगे होगा, छाया
पीछे पड़ेगी।
तुमने सदा यही
सोचा है कि छाया
मेरी...और गलत
सोचा है। छाया
से तुम्हारा
क्या
लेना-देना? अगर सूरज न
होगा तो कोई
छाया न होगी।
छाया तुम पर
निर्भर नहीं
है, अन्य
कारणों पर
निर्भर है।
अगर
तुम्हारे
चारों तरफ कई
प्रकाश लगा
दिये जायें तो
कई छायाएं एक
साथ बनने
लगेंगी। यहां
तुम बैठे हो, अगर कोई
प्रकाश नहीं
तो छाया न
बनेगी।
चारित्र्य
मौलिक नहीं है, और-और
कारणों पर
निर्भर होता
है; छाया
की भांति है।
लेकिन दर्शन
मौलिक है। दृष्टि
मौलिक है। वह
तुम्हारी है।
वह किसी सूरज
पर निर्भर
नहीं है। अंधेरे
में भी जब
सूरज नहीं
होता तब भी
तुम्हारी दृष्टि
तुम्हारे पास
है। उसी
दृष्टि के
कारण तो तुम
कहते हो, बड़ा
घना अंधेरा
है! अंधेरा भी
तो दिखायी
पड़ता है!
अंधे
को अंधेरा भी
दिखायी नहीं
पड़ता, याद
रखना! आमतौर
से लोग सोचते
हैं कि अंधा
तो बेचारा
अंधेरे में ही
जीता होगा। इस
भूल में मत पड़ना।
किसी अंधे ने
कभी अंधेरा
नहीं देखा।
जिसने प्रकाश
ही नहीं देखा
वह अंधेरा
देखेगा कैसे?
अंधा
अंधेरे में
नहीं होता।
अंधे को तो
पता ही नहीं
है कि अंधेरा
जैसी कोई चीज
होती है। अंधेरे
को देखने के
लिए भी आंख
चाहिए।
प्रकाश के लिए
भी आंख, अंधेरे
के लिए भी
आंख...।
दृष्टि
मौलिक है; किसी पर
निर्भर
नहीं--तुम्हारी
है। और महावीर
का यह बड़ा जोर
है कि जो
तुम्हारा है
वही सत्य है; जो तुम्हारा
नहीं उधार है,
वह असत्य
है।
चरित्र-विहीन
सम्यक दृष्टि
सिद्धि
प्राप्त कर
लेते हैं। तो
महावीर यह कह
रहे हैं कि
चरित्र कोई
मौलिक बात
नहीं है, गौण
है। हो तो ठीक,
न हो तो भी
यह संभव है कि
व्यक्ति
मुक्ति को उपलब्ध
हो जाये।
लेकिन
दर्शन-विहीन
कभी मुक्ति को
उपलब्ध नहीं
होता, क्योंकि
वह मौलिक है।
अब
दृष्टि की
इतनी महिमा और
चरित्र को ऐसा
कचरे में डाल
देना, महावीर
करेंगे--ऐसा जैन
सोच ही नहीं
सकते।
क्योंकि ढाई
हजार साल तक
धीरे-धीरे
महावीर के वचन
तो कम मूल्य
के हो गये हैं;
वे जो
कोष्ठक लगे
हैं, ज्यादा
मूल्य के हो
गए हैं। वह जो
उनकी व्याख्याएं
की गयी हैं, वे ज्यादा
मूल्य की हो
गयी हैं। अब
जैन मुनि डरे
होंगे कि यह
तो खतरनाक वचन
है। यह तो
अग्नि जैसा है,
जला देगा!
इसमें कहीं
लोग भटक न
जायें! कहीं
लोग यह न
सोचने लगें कि
चरित्र का कोई
मूल्य नहीं
है! क्योंकि
अगर चरित्र का
कोई मूल्य
नहीं तो जैन
मुनि का कोई
मूल्य नहीं है;
क्योंकि वह
चरित्र के ही
मूल्य पर उसका
सारा व्यवसाय
है। तो यह
कोष्ठक लगा
देना जरूरी
है।
यह
महावीर के साथ
बेईमानी है।
यह महावीर के
साथ बलात्कार
है।
"चारित्र्य
धारण करके
सिद्धि को
प्राप्त हो जाते
हैं'--अगर
ऐसा ही था तो
कहने की जरूरत
क्या है? जैसा
जैन मुनि
मानते हैं, अगर ऐसा ही
है, अगर
उनका वचन ही
महावीर का
ठीक-ठीक
अनुवाद है--"चारित्र्य-विहीन
सम्यक दृष्टि
तो (चारित्र्य
धारण करके)
सिद्धि को
प्राप्त हो
जाते हैं'--अगर
यही महावीर को
कहना हो तो
कहने की जरूरत
क्या है? और
अगर यही कहना
होता तो फिर
दूसरे वचन में
भी उन्हें एक
कोष्ठक और
लगाना चाहिए
था--"किंतु सम्यक
दर्शन से रहित
सिद्धि प्राप्त
नहीं कर सकते
हैं'--उसमें
भी एक कोष्ठक
लगा दो।
"किंतु सम्यक
दर्शन से रहित
भी तो (सम्यक
दर्शन को
प्राप्त करके)
सिद्धि
प्राप्त कर
सकते हैं।' तब तो
महावीर के
अर्थ के सारे
प्राण खो गये!
फिर कहने की
जरूरत क्या है?
चरित्र-विहीन
चरित्र पाकर
सिद्धि पा
लेते हैं, तो
दर्शन-विहीन
दर्शन पाकर
सिद्धि पा
लेंगे। कहने
की जरूरत क्या
है?
कहने
का प्रयोजन
साफ है।
महावीर भेद
करना चाहते
हैं कि दर्शन
को उपलब्ध
व्यक्ति तो
चरित्र के
बिना भी
मुक्ति को पा
लेते हैं; लेकिन जो
दर्शन को
उपलब्ध नहीं
है वह चरित्र
पाकर भी मोक्ष
को उपलब्ध नहीं
हो सकते।
यह
इतना सीधा
गणित की तरह, दो और दो चार
जैसा साफ है।
लेकिन बड़े
न्यस्त स्वार्थ
हैं!
महावीर
को तो दर्शन
उपलब्ध हुआ।
तो जिसको आत्मा
मिल गयी वह
छाया की फिक्र
छोड़ देता है।
जिसको आत्मा
नहीं मिली वह
छाया की ही
चिंता करता है।
उसे छाया ही
आत्मा जैसी मालूम
पड़ती है।
जिसने अपने को
देख लिया, फिर वह
दर्पण में
अपनी छवि
देखने के लिए
थोड़े ही बहुत
आतुर होता है!
जिसने अपनी
आत्मा देख ली,
वह दर्पण
में अपनी छवि
देखने के लिए
कोई चिंता
नहीं करता। और
अगर दर्पण खो
जाये तो वह
पागल नहीं हो
उठता कि अब
मैं क्या करूं,
अब अपने
चेहरे को कैसे
देखूंगा!
जिसने आत्मा
देख ली, वह
चेहरे को
देखने की
फिक्र छोड़
देता है।
चारित्र्य
तो छाया है।
चारित्र्य तो
दर्पण में
देखा गया
प्रतिबिंब
है।
चारित्र्य तो
अपने और
दूसरों के बीच
संबंधों से जो
दर्पण निर्मित
होते हैं, उनमें देखी
गयी छवि है।
वह आत्मा का
सीधा अनुभव
नहीं है।
तुम
झूठ बोले--एक
तरह का चरित्र
निर्मित हुआ। तुम
सच
बोले--दूसरे
तरह का चरित्र
निर्मित हुआ।
लेकिन तुम
किसी से बोले, झूठ या
सच--दूसरे की
जरूरत पड़ी!
अकेले में तुम
कैसे सच
बोलोगे, कैसे
झूठ बोलोगे? एकांत में
बैठे पहाड़ पर
तुम कैसे
ईमानदार
होओगे और कैसे
बेईमान होओगे?
कोई उपाय न
रह जायेगा।
दूसरा चाहिए!
और जिस
चीज के होने
में दूसरे की
जरूरत पड़ती है
उससे मोक्ष न
हो सकेगा; क्योंकि
मोक्ष का कुल
अर्थ इतना ही
है: अपने में
पूरा हो जाना।
यह तो
पर-निर्भर
हुआ।
महावीर
कहते हैं, धिक्कार है
परवशता पर! यह
तो परवशता ही
हुई। यह
तो...दर्पण के
बिना कोई उपाय
न चलेगा। यह
तो...अगर मुझे
संत होना है
तो लोगों के
बीच होना
चाहिए।
और मजे
की बात है, जरा खयाल
करना! अगर
तुम्हें बड़ा
संत होना हो तो
लोगों को असंत
होना चाहिए, तभी तुम बड़े
संत हो सकोगे!
अगर सभी लोग
संत हों, तुम्हारा
संतत्व खो
जायेगा।
थोड़ी
देर सोचो, कोई ऐसी
दुनिया हो
जहां सभी राम
जैसे मर्यादा पुरुषोत्तम
हों, तो
दशरथ के बेटे
राम को कौन
पूछेगा? यह
तो पूछ इसलिए
चलती है कि ये
मर्यादा
पुरुषोत्तम
अकेले हैं। तो
इनकी मर्यादा
तुम्हारी अमर्यादा
पर निर्भर है।
साधु का साधु होना
तुम्हारे
असाधु होने पर
निर्भर है।
अगर
बहुत गहरे में
देखो तो साधु
मिट जायेगा, जिस दिन जगत
साधु हो
जायेगा। तो
साधु का निहित
स्वार्थ यही
है कि जगत
साधु न हो
जाये, जगत
असाधु रहे।
नेता
तभी तक नेता
है जब तक और
लोगों को नेता
होने का खयाल
पैदा नहीं हुआ
है। जब तक
अनुयायी
अनुयायी होने
को राजी है, तब तक नेता, नेता है।
जिस दिन
अनुयायियों
ने भी घोषणा
कर दी कि हम भी
नेता हो गए, उस दिन नेता
खो जायेगा।
अमीर तभी तक
अमीर है, जब
तक गरीब है।
और तुम्हारे
पास बड़ा महल
तभी तक हो
सकता है जब तक
और लोगों के
पास छोटे झोपड़े
हैं। तो जैसे
बड़ा महलवाला
आदमी न चाहेगा
कि सभी के पास
बड़े महल हो
जायें...।
यह तो
साफ समझ में
आता है, अर्थशास्त्र
का सीधा नियम
है, कि
अमीर का मजा
उसकी अमीरी
में तभी तक है
जब तक और लोग
गरीब हैं।
तुम्हारे पास
एक शानदार कार
है, तो
उसका मजा तभी
तक है जब तक
दूसरे लोगों
पर, राह
चलते लोगों पर
बरसात में तुम
कीचड़ उछालते हुए
कार से निकल
जाते हो। अगर
सभी के पास
वैसी गाड़ियां
हैं, बात
खतम हो गयी!
तुम्हारा
सारा मजा इस
कार में चला
जायेगा। इस
कार का मजा
कार में न था; दूसरों के
पास कार नहीं
है, उसमें
था। जीवन का
जाल बड़ा जटिल
है!
मेरे
एक मित्र हैं कलकत्ते
में। मैं उनके
घर में
कभी-कभी रुकता
था। वे बिलकुल
पागल थे अपने
मकान के लिए।
उन्होंने शानदार
मकान बनाया
था। कलकत्ते
में उसकी कोई
तुलना न थी।
उन्होंने
पूरे कलकत्ते
को मात कर
दिया था।
चौबीस घंटे वे
मकान के ही खयाल
से भरे रहते
थे...तो जब भी
मैं उनके घर
जाता तो मकान, मकान...यह
दिखाते, वह
दिखाते! नया
स्विमिंग पूल
बना डाला।
क्या-क्या
उन्होंने कर
डाला है, वह
दिखाते। एक
बार जब मैं
गया तो
उन्होंने मकान
की कोई बात न
की। और मैं तो
पहले से ही
तैयार होकर
आया था कि वह
मकान की बात
सुननी पड़ेगी।
वे कुछ बोले
ही नहीं मकान
पर और कुछ बड़े
उदास दिखे, उत्साह भी
कुछ ढीला
मालूम पड़ा, कुछ सुस्त
से मालूम पड़े।
सांझ होतेऱ्होते
मैंने पूछा, "मामला क्या
है? मकान
का क्या हुआ?' उन्होंने
कहा, "वह
बात ही मत
उठाओ!' मैंने
कहा, "कुछ
तो बात होगी।
तुम उदास भी
हो। वह सदा की
प्रफुल्लता, मकान की
चर्चा, कुछ
नया किया, कुछ
नया बनाया--वह
सब हुआ क्या?' वे मुझे हाथ पकड़कर
बाहर लाए पड़ोस
में, कहा
कि वह देखो! एक
आदमी ने उनसे
बड़ा मकान बना
लिया! वे बोले,
जब तक इसको
मात न कर दूं, तब तक अब
क्या बात
करना! मन बड़ा
दुखी रहने
लगा। अभी
सुविधा भी
नहीं है कि
इतना ऊंचा उठा
लूं। मात हो
गया हूं!
मैंने
कहा कि
तुम्हारा
मकान वैसा का
वैसा है। इस
पर किसी ने
छुआ भी नहीं
है। कुछ घटा
नहीं, कुछ बिगड़ा
नहीं; सब
सुंदर है।
लेकिन पास के
आकाश में एक
नया मकान खड़ा
हो गया! किसी
ने तुम्हारी
लकीर के पास बड़ी
लकीर खींच
दी--तुम्हारी
लकीर को छुआ
भी नहीं है, तुम अचानक
छोटे हो गये!
तो
मैंने उनसे
कहा, अब तुम यह
तो सोचो, तो
यह मजा तुम जो
अपने मकान में
ले रहे थे, अपने
मकान का मजा न
था; वह जो झोपड़े पास
में थे, उनका
मजा था। तो
तुम्हारी
अमीरी किसी के
गरीब होने में
निर्भर है।
और वही
बात तुम्हारे
साधु के संबंध
में भी सच है।
अगर दुनिया से
असाधु खो जाये
तो तुम्हारा
साधु...फिर कौन
उसे मंदिरों
में विराजमान
करेगा? कौन
उसके सामने
पूजा के थाल सजायेगा? कौन अर्चना
के दीप
उतारेगा? वह
खो जायेगा।
इसलिए साधु
कहता तो यही
है तुमसे कि
सब साधु बनो; लेकिन उसकी अंतर्तम
की प्रार्थना
यही होती है
कि हे प्रभु, इन सबको
साधु मत बना
देना! उसकी
हालत, जिसको
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं "पेराडाक्सिकल
इंटेशन', विरोधाभासी
आकांक्षा की
है।
जैसे
चिकित्सक के
पास तुम जाते
हो...तुमने कभी खयाल
किया? अगर
तुम्हारी जेबें
भरी हों तो
बीमारी के ठीक
होने में
ज्यादा देर
लगती है। इस
अर्थ में गरीब
आदमी
सौभाग्यशाली
है। अगर तुम
बहुत अमीर हो
और एक दफे
बीमार पड़ गए, तो पड़ गए, अब
तुम ठीक न हो
सकोगे।
क्योंकि
चिकित्सक की विरोधाभासी
आकांक्षा है।
वह तुम्हारी
बीमारी पर
जीता है और
तुम्हें
स्वस्थ करने
का आयोजन कर
रहा है। उसका
सारा जीवन तुम
बीमार रहो, इस पर
निर्भर है। और
उसकी सारी
चेष्टा इस पर
निर्भर है कि
तुम ठीक हो
जाओ। यह
विरोधाभासी
बात है।
मैंने
सुना है, एक
डाक्टर का
बेटा कालेज से
वापिस लौटा
डाक्टर होकर।
तो बाप बहुत
दिन का थका था
और विश्राम न
लिया था, तो
उसने कहा, "मैं
सात दिन के
लिए छुट्टी पर
चला जाऊं, पहाड़
चला जाऊं। अब
तू घर आ गया है,
तू सम्हाल
ले।' सात
दिन बाद जब
बाप लौटा तो
बेटे ने उसे
बड़ी खुशी से
दरवाजे पर कहा
कि पिताजी, जिस सेठानी
को आप बीस साल
में ठीक न कर
पाए उसे मैंने
पांच दिन में
ठीक कर दिया!
बाप ने सिर
ठोक लिया और
उसने कहा, "नासमझ!
उसी की वजह से
तू कालेज में
पढ़ सका और उसी
पर आशा थी कि
और बच्चे भी
पढ़ लेंगे! उसे
ठीक करना ही
नहीं था। यह
तूने क्या
किया? तूने
सारा खेल खराब
कर दिया!'
चिकित्सक
दिखाता है
तुम्हें ठीक
करने की चेष्टा।
शायद खुद भी
मानता है कि
तुम्हें ठीक
करना चाहता
है। शायद खुद
के चेतन में
कहीं कोई बात
भी नहीं है; तुम्हें ठीक
ही करने का
आयोजन करता
है। लेकिन अंतस-चेतन
में, गहरे
अनकांशस
में...अगर उसके
हम अंतस-चेतन
को खोल सकें
तो कहीं तो यह
बात छिपी होगी
कि लोग बीमार
रहें, बीमार
रहें तो ही तो
वह जी सकता
है।
एक रात
एक मधुशाला
में बड़ा उत्सव
रहा। एक आदमी
पहली दफे अपने
मित्रों को
लेकर आया था
और उसने खूब
रुपये उछाले, खूब पीया-पिलवाया!
मधुशाला का
मालिक भी चकित
हो गया! ऐसा
दिलदार उसने
कभी देखा न था!
और जब आधी रात
वे जाने लगे, हजारों
रुपये लुटाकर,
तो उसने अपनी
पत्नी से कहा
कि ऐसे ग्राहक
रोज आते रहें
तो कुछ ही
दिनों में हम
मालामाल हो
जायेंगे। चलते-चलते
उसने अपने इस
ग्राहक को कहा
कि कभी-कभी आया
करें। उस
ग्राहक ने कहा,
"प्रार्थना
करो हमारे लिए
कि हमारा धंधा
ठीक चलता रहे
तो हम आते
रहें।' उसने
कहा, "जरूर
प्रार्थना करेंगे,
क्यों न
प्रार्थना
करेंगे! रोज
यही प्रार्थना
करेंगे कि
तुम्हारा
धंधा...लेकिन
यह तो बताओ तुम्हारा
धंधा क्या है?'
उसने कहा, अब यह मत
पूछो, अन्यथा
तुम
प्रार्थना न
कर पाओगे। मैं
मरघट पर लकड़ियां
बेचता हूं।
लोग मरते रहें,
लकड़ियां बिकती रहें,
तो मैं आता
रहूं। मेरा
धंधा चले...।
अब कुछ
हैं जो मरघट
पर लकड़ियां
बेचते हैं, उनका धंधा
ही यही है कि
लोग मरें।
एक
गांव में एक
नया-नया
इंस्पेक्टर
आया। वह दिनभर
बैठा रहा।
कपड़े-लत्ते
सजाकर, बैल्ट
इत्यादि, जूते
इत्यादि
बांधकर दिनभर
बैठा रहा।
बार-बार चौंककर
देखे; लेकिन
कोई घटना ही न
घटी दिनभर।
न कोई चोरी
हुई न कोई
डाका पड़ा, न
कहीं कोई
हत्या हुई, न किसी ने
आत्महत्या की,
न कोई
दंगा-फसाद हुआ,
न कोई
हिंदू-मुसलमान
मरे, कुछ
भी न हुआ। वह
जरा उदास होने
लगा। सांझ होने
लगी तो उसका
चेहरा एकदम
फीका पड़ने
लगा।
उसके
मुंशी ने कहा, "आप घबड़ाओ
मत! मुझे
मनुष्य के
स्वभाव पर
पूरा भरोसा
है। ठहरो, कुछ
न कुछ होकर
रहेगा। अभी
रात पड़ी है।
तुम इतने उदास
क्यों हुए जा
रहे हो?'
अब वह
जो चोर को पकड़ने
पर जीता है, वह पकड़ता
चोर को है, लेकिन
प्रतीक्षा
करता है कहीं
चोरी हो! वह जो न्यायाधीश
है, वह सजा
देता है
हत्यारों को,
लेकिन उसका
सारा होना
उन्हीं के
होने पर निर्भर
है। उन्हीं की
साझेदारी में
वह न्यायाधीश है।
जीवन के इस
व्यंग्य को
समझना।
साधु
तुमसे कहे चला
जाता है कि
क्या तुम
असाधु बने हो, बनो साधु!
बनना भर मत, अन्यथा वह
नाराज हो
जाएगा। एक
साधु दूसरे
साधु से
प्रसन्न थोड़े
ही है! एक साधु
दूसरे साधु से
बड़ा अप्रसन्न
है। तुम असाधु
हो, इससे
वह खुश है।
उसकी साधुता,
उसका ऊंचा
सिंहासन
तुम्हारी
छाती पर लगा
है। अगर
वास्तविक रूप
से किसी दिन
दुनिया
धार्मिक हो
जायेगी तो न
असाधु रह
जाएंगे, न
साधु रह
जाएंगे।
साधु
का सारा बल
इसमें है कि
उनके पास
चरित्र है और
तुम्हारे पास
नहीं है। उसने
कुछ करके दिखा
दिया है जो
तुम नहीं कर
पाए; भला वह
करना बिलकुल मूढ़तापूर्ण
है। भला वह इस
तरह का मूढ़तापूर्ण
हो कि एक आदमी
रास्ते पर
शीर्षासन
लगाकर खड़ा हो
जाता है। अब
इसमें कुछ गुण
नहीं है, लेकिन
भीड़ लग जायेगी।
लोग पैसे भी चढ़ाने
लगेंगे।
क्योंकि तुम
शीर्षासन
लगाकर घंटों नहीं
खड़े रह सकते।
बस इतना काफी
है। कोई आदमी छत्तीस
घंटे साइकिल
पर चढ़ा हुआ
चक्कर लगाता रहता
है। उसको भी
पैसे मिल जाते
हैं, उसके
भी अखबार में
फोटो छप जाते
हैं। कुछ अर्थ
नहीं है।
छत्तीस घंटे
या छत्तीस
जन्म भी
साइकिल पर चढ़े
रहो--क्या सार
है? लेकिन
जो दूसरे नहीं
कर सकते, वह
किसी ने कर
दिया--बस काफी
है, उसका
सम्मान होना
शुरू हो जाता
है।
तुम्हारे
साधुओं के
सम्मान में
तुमने देखा!
किसी
ने तीन महीने
का उपवास
किया--बस तुम
सम्मान से भर
गए! यह तीन
महीने साइकिल
पर सवार रहने
से ज्यादा
भिन्न बात
नहीं है। या
किसी ने अपने
शरीर को
सुखाकर
हड्डियां कर लिया--तुम
प्रभावित हो
गये! या किसी
ने अपने बाल-बच्चों
को, घर-गृहस्थी
को, सबको
छोड़कर, उजाड़कर जंगल में
खड़ा हो गया--बस
तुम चले पूजा
के फूल लेकर!
यह तुम नहीं
कर पाते हो, तो तुम
सोचते हो, तुम
कमजोर हो और
इस आदमी ने कर
लिया!
अभी
अमरीका में
अपराधियों और
अपराधियों से
जूझ जानेवाले
लोगों के
संबंध में
मनोवैज्ञानिक
अध्ययन चलता
है। बड़े
हैरानी के
नतीजे हाथ में
आये हैं। अकसर
तुमने देखा
होगा कि कोई
आदमी डूब रहा
है या किसी घर
में आग लग गयी
है कोई बच्चा
अंदर छूट गया
है, तो
हजारों की भीड़
लगी रहती है, हजारों लोग
खड़े रहते हैं;
कोई एकाध ही
होता है जो उछलकर
और मकान में
दौड़ जाता है, आग का खतरा
है, खुद की
जान खतरे में
डालता है, बच्चे
को निकाल लाता
है। अखबारों
में खबर छपेगी,
सत्कार
होगा, स्वागत
होगा! लोग
कहेंगे, बहुत
बहादुर है!
बहुत गजब का
आदमी है!
साधु-चरित्र
है! दयावान है! करुणावान
है!
कोई
नदी में डूब
रहा है, कोई
बचा लेता है।
या रास्ते पर
किसी आदमी ने
किसी दूसरे पर
हमला किया; अनेक लोग
गुजर जाते हैं,
लेकिन एक
आदमी बीच में
कूद पड़ता है
और हमलावर को
पकड़ लेता है
या पुलिस को
पकड़ा देता है
या हमलावर को
काबू में कर
लेता है या
हत्यारे को
पकड़ लेता
है--अपनी जान
जोखिम में
डालकर। तो
अमरीका में एक
अध्ययन किया
जा रहा है कि
ये किस तरह के
लोग हैं जो इस
तरह का काम
करते हैं। और
एक बड़ी हैरानी
का नतीजा आया
और वह यह कि ये
उसी तरह के
लोग हैं जिस
तरह के लोगों
को ये पकड़ते
हैं। ये
साधु-चरित्र
लोग नहीं हैं।
जो
आदमी, दो
आदमी लड़ रहे
हैं इनके बीच
में कूद पड़ता
है, यह
क्रोधी आदमी
है, यह खुद
भी हत्या कर
सकता है। वही
हत्या की जो वृत्ति
है, वही
इसे बीच में कुदा देती
है। यह कोई
साधुता के
कारण बीच में
नहीं कूदता।
यह कोई दया के
कारण नहीं
कूदता। और एक
बड़े मजे की
बात समझ में आयी
है और वह यह, कि इसको
इससे मतलब
नहीं होता कि
वह जो आदमी पिट
रहा है उसको
बचाये; इसको
मतलब होता है,
जो पीट रहा
है उसको पीटे।
इसकी जो एम्फेसिस
है, इसका
जो जोर है, वह
इस पर नहीं
रहता कि जो पिट
रहा है उसको
बचाए। उसके
प्रति तो इसके
मन में भी यह
है कि यह तो
गया-गुजरा
आदमी है, यह
कोई मतलब का
आदमी है! यह तो
जो पीट रहा है
उसके पीट के
दिखा दे, उस
चेष्टा में
रहता है।
एक
आदमी ने कार
का धक्का मारा
एक स्त्री को
शिकागो में।
वह बूढ़ी औरत
गिर पड़ी। और
दूसरा आदमी जो
मोटर साइकल पर
चढ़ने के
लिए तैयार ही
था, उसने उस
कार का पीछा
किया। कोई दस
मील की दौड़-धूप
के बाद उसने
उस आदमी को
पकड़ लिया। और पकड़ने के
लिए उसको गोली
चलानी पड़ी और
दूसरे आदमी के
कार के टायर
छेद डालने पड़े
गोली से, तब
वह पकड़ पाया।
इस बीच वह
महिला मर गयी।
उससे जब पूछा
गया कि जब यह
महिला गिरी तो
तेरे सामने दो
विकल्प थे कि
या तो तू इस
महिला को
उठाकर
अस्पताल में
पहुंचाता तो
शायद यह बच
जाती; लेकिन
तूने उसकी तो
फिकर ही न की, तू जान
जोखिम में
लगाकर इस आदमी
के पीछे पड़ गया
और इस आदमी को
तूने पकड़ा
दिया।
ऐसे
बहुत-से
अध्ययन किए गए
और पाया गया
कि जब दो आदमी
लड़ रहे हों तो
जो आदमी कूद
पड़ता है उसको पिटनेवाले
से कोई
सहानुभूति
नहीं होती; उसको पीटनेवाले
सेर्
ईष्या होती
है। वह उसे
कुछ करके दिखा
देना चाहता
है। वह यह कह
रहा है कि
मेरे रहते कौन
किसको पीट रहा
है! वह जो आदमी
आग जलते मकान
में कूद पड़ता
है, उसको
शायद आग में
पड़े हुए बच्चे
से कुछ लेना-देना
नहीं होता; लेकिन यह
उसके अहंकार
के लिए
बर्दाश्त के
बाहर है कि
कोई और कूद
जाये। और कई
बार ऐसा हुआ
है कि दो आदमी
एक साथ कूद
गये और जो
बच्चे को
बचाकर ले आया
और दूसरा खाली
हाथ लौटा, तो
उसकी निराशा
देखो! बच्चे
के बचने से
कोई प्रयोजन
नहीं है--कौन
बचा लाया!
किसने अपने
अहंकार को
तृप्त कर
लिया! आदमी
बड़ा उलझा हुआ
है!
तो जैन
साधु, जो
व्याख्या कर
रहे हैं, उस
व्याख्या में
महावीर से
प्रयोजन नहीं
है। उस
व्याख्या में
स्वयं को और
स्वयं के पूरे
व्यवसाय को
बचा लेने की
आकांक्षा है।
ये
कोष्ठक बहुत
खतरनाक हैं।
महावीर का वचन
सीधा है: सिज्झंति
चरियभट्ठा।
चरित्र-विहीन
सिद्धि
प्राप्त कर
लेते हैं। सिद्धि
का कोई संबंध
चरित्र-भ्रष्ट
होने या चरित्रवान
होने से नहीं
है। सिद्धि का
संबंध दर्शन
की शुद्धि से
है; दृष्टि
की सुघड़ता
से है; दृष्टि
की निर्मलता
से है।
अब
महावीर का यह
वचन यह भी
कहता है कि
चरित्रहीन भी
सम्यक दृष्टि
हो सकता है, और
चरित्रवान भी
दृष्टि-विहीन
हो सकता है।
शुभ
होगा अगर तुम
चरित्रवान और दृष्टिवान
दोनों होओ। यह
तो अच्छा ही
होगा। यह तो सोने
में सुगंध हो
जायेगी कि
तुम्हारे पास
दृष्टि भी है
और आचरण भी।
और
अकसर तो
दृष्टि होती
है तो आचरण
होता ही है; आ ही जाता है;
लाना नहीं
पड़ता।
लेकिन
फिर महावीर
ऐसा क्यों
कहते हैं कि
चरित्र-विहीन
सम्यक दृष्टि
भी पहुंच सकता
है? वे यह कह
रहे हैं कि
बहुत बार ऐसा
होता है कि जो
तुम्हारा
चरित्र है, वह दूसरों
को चरित्र न
मालूम पड़े; क्योंकि
दूसरों की
धारणाएं
अनिवार्य रूप
से, दर्शन
से जो चरित्र
पैदा होता है,
उससे मेल खाएं न खाएं।
इसे समझना।
जिसके पास
दृष्टि है, वह दीवाल से
क्यों निकलने
की कोशिश
करेगा? वह
तो दरवाजे से
निकलेगा ही।
लेकिन यह हो
सकता है कि
उसे जो दरवाजा
मालूम होता है
वह तुम्हें
दरवाजा न
मालूम होता हो,
देखनेवालों
को न मालूम
होता हो।
महावीर
जब नग्न खड़े
हो गये, तो
अनेकों को लगा,
यह तो बात
अनैतिक है, यह तो
चरित्रहीनता
है। तुम यह मत
सोचना कि आज जब
रास्ते पर कोई
आदमी नग्न खड़ा
हो जाता है तो
तुम सोचते हो
चरित्रहीनता
है; उस दिन
भी यही लोगों
ने सोचा था।
लोग वही के वही
हैं। लोग वैसे
के वैसे हैं।
महावीर को
मारा-पीटा, गांवों से
निकाल दिया, गांवों में
ठहरने न दिया,
वर्षों
उनको जंगलों
में बिताने
पड़े। नग्नता बड़ी
बेचैन करनेवाली
बात थी। जब
कोई आदमी समाज
में नग्न खड़ा
हो जाता है तो
सभी कपड़े पहननेवाले
लोगों को कष्ट
होता है।
क्योंकि वह
आदमी नग्न
होकर किसी
गहरे अर्थ में
तुमको भी नग्न
कर देता है।
जब एक आदमी
नग्न खड़ा हो
जाता है तो
तुमने जो-जो
छिपा रखा है
वस्त्रों में
वह सब उसने उघाड़
दिया है। तुम
भी उसी जैसे
हो, थोड़े-बहुत
विस्तार के
फर्क होंगे।
कोई ज्यादा
फर्क तो है
नहीं। वही सब
तुम भी हो, जो
वह आदमी है।
उसे नंगा
देखकर तुम भी
नग्न हो जाते
हो; तुम्हारे
वस्त्रों का
उसने सारा
अर्थ गंवा दिया।
तुम अपने को
छिपाकर चल रहे
थे। अगर तुम अपने
को खुद ही
कहीं नग्न पा
लो तो पहचान न
सकोगे बिना कपड़ों
के।
दो
छोटे बच्चे एक
नग्न क्लब के
पास से गुजरते
थे और दीवाल
में से पानी
निकलने के छेद
में से उन्होंने
अंदर देखा।
छोटे बच्चे, स्कूल से
लौटते हुए! जब
एक देख चुका
तो दूसरा जो
खड़ा था और
देखने की
प्रतीक्षा कर
रहा था कि तुम
हटो तो मैं देखूं,
उसने पूछा,
"कौन है
अंदर?' उसने
कहा, "कहना
मुश्किल है।
सब बिना
वस्त्र के
हैं।' उसने
पहले ने पूछा,
"स्त्रियां
हैं कि पुरुष?'
उसने कहा, "अब कैसे बताऊं?
कोई वस्त्र
पहने ही हुए
नहीं है।'
हमारा
तो
स्त्री-पुरुष
का भेद भी
करीब-करीब वस्त्र
में है। छोटे
बच्चों को तो
स्त्री-पुरुष
में यही भेद
दिखाई पड़ता है
कि अलग-अलग पकड़े
पहने हुए हैं।
गरीब-अमीर का
भेद भी
वस्त्रों में
है। तुम जरा
देखो! एक
मजिस्ट्रेट
को और चोर को
दोनों को नग्न
खड़ा कर दो--फिर
कौन मजिस्ट्रेट
है, कौन चोर
है? मुश्किल
हो जायेगी। वह
तो सारा भेद
वस्त्रों का
है। इसलिए
पुराने दिनों
से
मजिस्ट्रेट
को खास ढंग से
विग पहनाया
जाता है। वह न
केवल
वस्त्रों से
काम चलता है, वह सिर पर
बालों का एक
विग भी लगा ले,
ताकि
आदमीयत
बिलकुल खो
जाये, कुछ
पता न चले।
वकील काले
चोगे में खड़े
हो जाते हैं।
विश्वविद्यालयों
में दीक्षांत
समारोह होते
हैं और बड़े-बूढ़े
भी बचकानी
हरकतें करते
हैं; चोगे
पहन लेते हैं,
उनमें खड़े
हो जाते हैं।
लेकिन वही भेद
है, नहीं
तो उपकुलपति
कुलपति कौन; चांसलर, वाइसचांसलर कौन? मुश्किल
हो जायेगा
पहचान करना।
इसलिए हम कपड़ों
पर बड़ी जिद्द
करते हैं।
अगर
कोई आदमी
रास्ते पर
पुलिसवाले के
कपड़े पहनकर
निकल पड़े तो
फौरन पकड़
लेंगे उसको कि
यह तुम क्या
कर रहे हो, क्योंकि
इससे फर्क कम
हो जाता है।
तुमने कभी पुलिसवाले
को वर्दी के
बिना देखा? लज्जत ही खो
जाती है, शान
ही चली जाती
है! वही आदमी
जब अपनी वर्दी
में खड़ा होता
है, तब
देखो। तब एक
शान आ जाती है!
"कर्नल राज' वहां बैठे
हुए हैं, सिर
छिपाए हुए
हैं! उनको
संन्यासी के
वेश में देखो
और जब वह मेजर, कर्नल के
वेश में होते
हैं, तब
देखो! तब बात
ही और बदल
जाती है!
आदमी
चलता और ढंग
से है जब कपड़े
कर्नल के होते
हैं। उसके
पैरों की आवाज, उसके जूतों
की चरमराहट, उसके कपड़ों
की शिकन, सब
बदल जाती है।
आदमी का थोड़ा
हमें हिसाब है,
हमें हिसाब
तो कपड़ों के
हैं।
कहते
हैं गालिब को बहादुरशाह
ने निमंत्रित
किया था भोजन
के लिए! वह
गरीब आदमी था, अपने साधारण
कपड़ों को पहने
चला गया।
मित्रों ने
कहा भी कि इन
कपड़ों में
तुम्हें कोई
दरबार में
प्रवेश न करने
देगा। पर उसने
कहा कि निमंत्रण
मुझे मिला है
कि कपड़ों को?...जिद्दी!
नहीं माना, गया। जब
द्वारपाल को
जाकर उसने कहा
कि मुझे भीतर
जाने दो, तो
द्वारपाल ने
धक्का देकर
उसे हटा दिया।
उसने कहा कि "भिखमंगों
के लिए राजमहल
में
निमंत्रण!...
दिमाग खराब हो
गया है?' उसको
तो भरोसा ही
नहीं आया कि
यह दर्ुव्यवहार...!
उसने खीसे से
निमंत्रण-पत्र
निकालकर
दिखाया तो
उसने झपट्टा
मारकर वह भी छुड़ा
लिया। उसने
कहा, "किसी
का चुराया
होगा! किसका
उठा लिया?'
वह
बेचारा गालिब
घबड़ाया, घर
वापिस लौट
आया। मित्रों
ने कहा, "हमने
पहले कहा था, हम जानते
थे। हम कपड़े
ले आये हैं।' तो उन्होंने
अचकन वगैरह
पहना दी।
ठीक-ठाक कपड़े
पहना दिए, जूते
नये पहना दिए।
और जब यह आदमी
वापस गया तो वही
द्वारपाल
झुककर
नमस्कार किया
कि आइये! तुम
हंसना मत
द्वारपाल पर,
तुम भी होते
तो यही करते।
फिर जब भोजन
के लिए बैठे
तो बहादुरशाह
ने...तो गालिब
का बड़ा सम्मान
था उसके मन
में। वह भी
कवि था, बहादुरशाह भी कवि था।
और गालिब की
कविता का तो
क्या कहना! वैसे
उस्ताद तो
बहुत कम हुए
हैं! तो उसने
तो अपने पास
ही बिठाया। और
जब गालिब भोजन
करने लगा तो
उसने पहले
उठायी मिठाई,
अपने कोट को
कहा कि ले खा, टोपी को
लगाया कि ले
खा! तो बहादुरशाह
को कुछ लगा कि
कवि पागल होते
हैं, यह तो
ठीक है; लेकिन
इतने होते हैं,
यह नहीं
सोचा था। उसने
कहा, "क्षमा
करें! आप यह
क्या कर रहे
हैं? यह
कौन-सी शैली
है भोजन करने
की?' गालिब
ने कहा, "मैं
तो पहले भी
आया था। मैं
तो लौटा दिया
गया, मैं
फिर आया ही
नहीं। ये तो
अब वस्त्र आए
हैं। यह भोजन
इन्हीं के लिए
है। इन्हीं को
प्रवेश मिला
है, मुझे
तो प्रवेश
नहीं मिला।
मैं तो बाहर
से ही लौट गया
हूं। वह तो
पहरेदार ने
धक्का दे
दिया। तो
जिनकी वजह से
मैं भी
पीछे-पीछे चला
आया हूं, क्योंकि
मजबूरी थी, मेरे बिना
ये वस्त्र
कैसे आते, ये
मेरे बिना आते
ही नहीं और
इनके बिना मैं
नहीं आ सकता
था, तो
जिनके कारण
मैं आ गया हूं
छाया की तरह, उनको तो
पहले भोजन करा
दूं।'
महावीर
जब नग्न खड़े
हो गए तो
उन्होंने तुम
सबको नग्न कर
दिया; उन्होंने
सबके वस्त्र
उघाड़ दिए। बड़ी
अनैतिकता
मालूम पड़ी
लोगों को: यह
आदमी तो
खतरनाक है! इसको
कौन
चरित्रवान
कहेगा? यह
कैसी मर्यादा?
यह तो
मर्यादा
छोड़ना है, यह
तो
स्वच्छंदता
है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं कि सम्यक
दृष्टि तो अनिवार्यरूपेण
आचरणवाला
होता है, लेकिन
उसका आचरण
समाज की
तथाकथित
धारणा से मेल
खाए न खाए।
इसलिए वे कहते
हैं, कि
अगर न भी मेल
खाए तो कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
सिज्झंति चरियभट्ठा।
वह जिसको लोग
सोचते हैं
चरित्र-भ्रष्ट, वह भी केवल
दर्शन के
सहारे मुक्त
हो जाता है, सिद्धि को
उपलब्ध हो
जाता है।
किंतु सम्यक
दर्शन से रहित
सिद्धि
प्राप्त नहीं
कर सकते।
इसलिए
जो पाना है, जो खोजना है,
वह दृष्टि
है, वह
देखने का ढंग
है; वह
साफ-सुथरी आंख
है; वह
निर्मल
भाव-दशा है।
आंख पर कोई
विचार न रह जाये।
आंख पर कोई
धारणा न रह
जाये। आंख पर
कोई पक्षपात न
रह जाये। आंख
ऐसी निर्मल हो,
पारदर्शी
हो कि जो है, जैसा है, वैसा
दिखाई पड़ने
लगे--बस
पर्याप्त है।
उसके पीछे
ज्ञान अपने से
आ जाता है, चारित्र्य
अपने से आ
जाता है।
लेकिन यह
चारित्र्य
जरूरी नहीं है
कि समाज की
सम्मत
मान्यताओं के
अनुकूल हो। यह
तुम्हारी
दृष्टि के
अनुकूल होगा।
लेकिन जिसके
पास दृष्टि है
वह चिंता भी
नहीं करता कि
उसके चरित्र
को आदर मिलता
है या नहीं।
जिसके पास
दृष्टि है वह
तुम्हारे मत का
कोई विचार
नहीं रखता कि
तुम क्या
सोचते हो।
तुम्हारे
सोचने पर, तुम्हारी
धारणाओं पर, तुम्हारी
प्रशंसा और
निंदा पर उसके
चरित्र के
आधार नहीं
होते। उसके
चरित्र के
आधार अपनी अंतर्दृष्टि
पर होते हैं।
अगर वह अकेला
भी है और सारा
संसार भी उससे
भिन्न सोचता
है तो भी वह मस्त
है।
"अर्श' सुनता
नहीं किसी की
बात
हाल
में अपने मस्त
है शायद।
--वह
अपनी मस्ती
में होता है।
वह उन्मत्त
होता है अपने
आनंद में।
"अर्श' सुनता
नहीं किसी की
बात
हाल
में अपने मस्त
है शायद।
तो
महावीर कोई
चिंता नहीं
करते कि तुम
किसे आचरण
कहते हो।
महावीर को जो
आचरण दिखाई
पड़ता है, वह
घटता है। और
ऐसे बलशाली
पुरुष ही, आचरण
के नये मापदंड,
नये
प्रतिमान दे
जाते हैं। ऐसे
बलशाली पुरुष
ही, ऐसे
महावीर ही
आचरण की
नयी-नयी सूझें,
नये-नये
आकाश खोल जाते
हैं। तो
नग्नता को भी
आचरण दे दिया।
नग्नता
महावीर के साथ
जुड़कर
निर्दोष हो
गयी। लोग
वस्त्रों में
भी इतने सुंदर
नहीं हैं, जितने
महावीर अपनी
नग्नता में
सुंदर थे। लोग
वस्त्रों में
छिपकर भी, वस्त्रों
में ढंके
हुए भी इतने
सुगंधपूर्ण
नहीं हैं, जितने
महावीर अपनी
नग्नता में
थे। महावीर की
नग्नता शुद्ध
निर्दोष
बालपन हो गयी,
छोटे बच्चे
की नग्नता हो
गयी।
महावीर
इस जगत में
नग्नता के
निर्दोष होने
के पहले
प्रमाण हैं, तुम्हारे
साथ तो वस्त्र
भी गंदे हो
जाते हैं; महावीर
के साथ तो
नग्नता भी
पवित्र हो
गयी। ऐसे वीर
पुरुष ही जीवन
को नये
प्रतिमान, नयी
गतियां, नये
आयाम, नये
क्षितिज, नये
आकाश देते
हैं। इसलिए
धार्मिक
व्यक्ति अनिवार्यरूपेण
विद्रोही
होता है--होगा
ही। क्योंकि
तुम्हारी पिटी-पिटायी, सड़ी-सड़ायी धारणाएं
हैं। तुम रखो
अपने पास! वह
तुम्हारी धारणाओं
के अनुकूल
अपने को ढांचे
में नहीं ढालता।
वह तो अपनी
दृष्टि के
अनुकूल जीता
है। अगर
तुम्हारी
मर्जी हो तो
अपनी धारणाओं
को बदल लेना, लेकिन तुम
धार्मिक
व्यक्ति को
नहीं बदल सकते।
धार्मिक व्यक्ति
के साथ तुम
संसर्ग में आए
तो या तो तुम
बदलोगे या तुम
दुश्मन हो
जाओगे, लेकिन
धार्मिक
व्यक्ति नहीं
बदलता। कोई
उपाय नहीं।
इसलिए नहीं कि
धार्मिक
व्यक्ति जिद्दी
होता है; इसलिए
नहीं कि हठाग्रही
होता
है--बल्कि
इसलिए कि उसकी
दृष्टि उसे
जहां दरवाजा
दिखाती है वहीं
जाता है। तुम
जहां दरवाजा
बताते हो वहां
उसे दीवाल
दिखाई पड़ती
है। वह अंधों
की बात नहीं मानता
तो कुछ
आश्चर्य तो
नहीं। इसमें जिद्द
क्या है? अगर
अंधों की एक
भीड़ हो और आंखवाला
आदमी हो और
अंधों की भीड़
कहे, तुम
गलत चल रहे
हो...।
मैंने
सुना है, एच.
जी. वेल्स की एक
कहानी है कि
मैक्सिको में
एक छोटी-सी
घाटी है जहां
सभी अंधे हैं।
क्योंकि वहां
के पानी में
और भूमि में
कुछ ऐसे तत्व
हैं कि बच्चे
पैदा होते हैं
और पैदा होते
से ही महीने
दो महीने के
भीतर उनकी
आंखों की
ज्योति चली
जाती है। एक
आदमी, आंखवाला,
उस घाटी में
पहुंच गया। वह
तो चकित हुआ।
वह तो विश्वास
न कर सका कि कोई
सैकड़ों
आदमी अंधे हैं,
एक भी आंखवाला
नहीं। उसे बड़ा
उनसे प्रेम हो
गया। वह उनके
बीच रहने भी
लगा। वह एक
युवती के
प्रेम में पड़
गया। अब तक तो
बात ठीक थी कि
वह अजनबी था
और उलटी-सीधी
बातें करता
था--ऐसा अंधे
सोचते थे--आंख
की, रंग की,
रोशनी की, इंद्रधनुषों की, फूलों
की, हरियालों की...! और जब भी
अंधे उससे
पूछते तो कुछ
समझा तो नहीं
पाता। अंधे
पूछते कि
दिखाओ, "हरियाली
कैसी है? समझाओ,
हरियाली
कैसी है?' तो
क्या समझाता!
"समझाओ
इंद्रधनुष, किसकी बात
कर रहे हो तुम,
कहां है? हम छूकर
देखना चाहते
हैं!' वृक्षों
को छू भी लेते
तो हरियाली तो
छूने से हाथ
में समझ में
नहीं आती। तो
वे हंसते। वे
कहते, कोई
पागल आ गया
है। स्वभावतः
भीड़ उनकी थी।
लोकतांत्रिक
दृष्टि से वही
सही थे।
संख्या उनकी थी।
यह अकेला था, वे सब थे। अब
तक तो कोई बात
न थी, लेकिन
जब वह एक लड़की
के प्रेम में
पड़ गया तो जरा
उस वादी के
लोग हैरान
हुए।
उन्होंने कहा,
अब जरा
मुश्किल है।
अगर यह आदमी
विवाह करना चाहता
है तो इसे
हमारे जीवन के
रीति-नियम
स्वीकार करने
होंगे। और
पहला
रीति-नियम यह
है कि हम आंखों
को नहीं मानते
और हम मानते
हैं कि आंखें
सब झूठ हैं।
तो इसको इस
झूठ का खयाल
छोड़ना पड़ेगा।
इसको यह खयाल
छोड़ना पड़ेगा
कि यह आंखवाला
है। और जो
उसमें बहुत
उत्साही थे, उन्होंने
कहा कि इसकी
आंख का आपरेशन
कर दें। यह
जहां बताता है,
आंखें हैं,
उनको
निकालकर अलग
कर दें; ठीक
हम जैसा हो
जायेगा।
बड़ी
मुश्किल में
पड़ गया वह आंखवाला
आदमी। युवती
से प्रेम भी
था तो आधा मन
वहां खिंचा।
फिर आंखें खो
देना और आंखों
के साथ सारा रंग, सूरज के
सारे खेल, चांदत्तारों की पूरी
दुनिया--यह
दांव बड़ा था।
एक रात वह भाग खड़ा
हुआ। दूसरे
दिन सुबह वह
उसकी आंख की
शल्यक्रिया
करनेवाले थे।
वह वहां से
भाग निकला
क्योंकि यह
बड़ी कीमत हो जायेगी।
प्रेम तो फिर
भी हो सकता है;
आंख फिर
कहां से लाऊंगा?
और एक बार
अंधा हो गया
तो सदा के लिए
अंधा हो गया।
और इस सृष्टि
को जिसने एक
बार आंख से
देख लिया, फिर
बिना आंख के
बहुत फीकी हो
जायेगी; फिर
जीने जैसी न
रह जायेगी।
वस्तुतः सचाई
तो यह थी कि उस
स्त्री के प्रेम
में भी वह
आंखों के कारण
पड़ा था। वह
उसका रूप, उसका
रंग, उसके
नक्श उसे भा
गये थे। तो
जिन आंखों के
कारण वह
स्त्री को खोज
पाया था, उन्हीं
आंखों को गंवा
दे, यह
उसकी समझ में
न आया। वह भाग
खड़ा हुआ।
महावीर
जैसे व्यक्ति
अंधों की
बस्ती में पड़
जाते हैं।
लेकिन आंखों
की
शल्यक्रिया
करवाने को वे
राजी न होंगे।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, "चरित्र-विहीन
सम्यक दृष्टि
तो सिद्धि
प्राप्त कर
लेते हैं, किंतु
सम्यक दर्शन
से रहित
सिद्धि
प्राप्त नहीं
कर पाते।'
जरा
अपनी तरफ गौर
करो, कैसी तुम्हारी
हालत है!
वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम
मुझको
आप
जाना उधर और
आप ही हैरां
होना।
--हाय
रे
आकांक्षाओं
का चक्कर कि
अपने-आप उधर
जाता हूं और
अपने-आप
भ्रमों को खड़ा
कर लेता हूं! अपने-आप
जाता हूं उधर
और अपने-आप
भटकता हूं!
और हर
बार तय कर
लेते हो तुम
कि अब न करेंगे
यह भूल, लेकिन
वह तय किया
काम नहीं आता।
क्योंकि दृष्टि
तो पास नहीं।
भूल, भूल
दिखायी कहां
पड़ती है? कहते
हो कि क्रोध
अब न करेंगे।
कहते हो कि
क्रोध जलाता
है। कहते हो
कि क्रोध जहर
है, लेकिन
ये शब्द उधार
हैं। ये सब
शास्त्र से
सुने हैं। ये
किन्हीं जाननेवालों
ने कहे होंगे,
लेकिन यह
तुमने जाना
नहीं है।
क्योंकि तुम
जान लो तो
जैसे आग में
कोई जल जाये, तो दुबारा
हाथ नहीं
डालता--ऐसे ही
तुम दुबारा क्रोध
न करते। लेकिन
तुम दुबारा
फिर क्रोध करते
हो।
वाए, दीवानगिए-शौक कि हरदम
मुझको
आप
जाना उधर और
आप ही हैरां
होना।
अजीब
चक्कर है!
लेकिन अगर
समझो तो एक
सूत्र है
जिससे सारी
बात साफ हो
जाती है: तुम
कान से जीये
हो अब तक, आंख
से नहीं जीये।
"कानों सुनी
सो झूठ सब।' कान से सत्य
मिलता ही
नहीं--आंख से
मिलता है। इसलिए
तो हमने सत्य
की खोज को
दर्शन कहा है।
वह आंख की खोज
है। इसलिए तो
जिन्होंने
खोज लिया है
उनको हमने
द्रष्टा कहा
है: आंख मिल
गयी! अगर कान
से मिलता होता
सत्य तो हम दर्शन
न कहते, श्रवण
कहते। अगर कान
से मिलता होता
सत्य तो जो पा
लेते उनको हम
श्रोता कहते,
द्रष्टा न
कहते। सत्य का
कुछ संबंध
साक्षात्कार
से है। कान को
तो धोखे दिये
जा सकते हैं, आंख को धोखे
नहीं दिये जा
सकते। और जिस
आंख की हम बात
कर रहे हैं वह
इन बाहर की
आंखों की ही
बात नहीं, भीतर
की आंख की बात
है। वहां एक
जागरूकता का पुंज
चाहिए--ऐसा सघनीभूत
कि उस सघनीभूत
जागरूकता से
तुम्हें
दिखायी पड़ने
लगे। वह तुम्हारे
भीतर की रोशनी
बन जाये!
नत्थि जागरतो भयम्!--बुद्ध
ने धम्मपद में
कहा है, जागे
हुए को भय
नहीं। सब भय
सोये हुए को
है।
ऋग्वेद
में एक बड़ा
बहुमूल्य
सूत्र है: भूत्यै
जागरणम्।
अभूत्यै स्वप्नम्।
जागने से
उन्नति; सोने
से, स्वप्न
से अवनति!
जिसको
महावीर सम्यक
दृष्टि कहते
हैं उसका अर्थ
है: जागा हुआ, देखता हुआ, आंखवाला। तुम जीवन
को देखने में
लगो।
शास्त्रों के
पढ़ने से यह न
होगा; तुम
जीवन के
शास्त्र को
देखने में
लगो। जीवन में
जो भी है उसके
संबंध में
धारणाएं मत
बनाओ; पहचान
बनाओ। क्रोध
है तो क्रोध
को देखो। घृणा
है तो घृणा को
देखो। प्रेम
है तो प्रेम
को देखो। मोह
है तो मोह को
देखो। लोभ है
तो लोभ को
देखो।
जल्दबाजी में
मत पड़ो।
चरित्र
की चेष्टा
करनेवाला बड़ा
जल्दबाज है। वह
लोभ को देखता
ही नहीं और
अलोभ को साधने
लगता है। यही
फर्क है। वह
क्रोध को
देखता ही नहीं, अक्रोध की
आकांक्षा में
संलग्न हो
जाता है। कामवासना
में आंख नहीं
डालता, और
ब्रह्मचर्य
के नियम ले
लेता है। यही
महावीर कह रहे
हैं।
ऐसा
चरित्र पहुंचाएगा
न। उधार से
कभी कोई गया
नहीं। धर्म
चाहिए नगद!
एक
मुअम्मा है
समझने का न
समझाने का
जिंदगी
काहे को है एक
ख्वाब है
दीवाने का।
जिसे
अभी हम जिंदगी
कह रहे हैं, सोयी-सोयी, एक स्वप्न
से ज्यादा
नहीं है। जिस
दिन तुम जागोगे
उस दिन तुम
पाओगे, अब
तक तुमने जिसे
जीवन जाना था
वह केवल एक
स्वप्न था; और स्वप्न
भी कोई बहुत
मधुर नहीं।
दुख-स्वप्न, नाइट-मेयर।
कोई धन के
सपने देख रहा
है, कोई पद
के सपने देख
रहा है।
चरित्र
का अनुयायी
कहता है, छोड़ो धन की दौड़, छोड़ो पद की दौड़! और
दृष्टि का
अनुयायी कहता
है, देखो
पद की दौड़ को, देखो धन की
दौड़ को! इस
फर्क को खयाल
में ले लेना।
दृष्टिवाला
कहता है, भागो
मत! भागकर
कहां जाओगे? अगर भीतर
नींद है तो
साथ चली
जायेगी। अगर
भीतर स्वप्न
है तो साथ चला
जायेगा। भागो
मत! जागो!
देखो जहां हो,
जो है। जीवन
का जो भी तथ्य
है, मधुर
कि कड़वा, सुस्वादु
कि विषाक्त--चखो, पहचान
बनाओ! उसी
पहचान से
धीरे-धीरे
ज्ञान निसृत
होता है। उसी
से धीरे-धीरे
बूंद-बूंद
ज्ञान की
टपकती है।
तुम्हारा
मधु-पात्र एक
दिन भर जाएगा।
और तब
तुम्हारे जीवन
में आचरण
होगा। लेकिन
वह आचरण जरूरी
नहीं कि जैनों
की मान्यता के
अनुसार हो कि
हिंदुओं की
मान्यता के
अनुसार हो कि
बौद्धों की
मान्यता के
अनुसार हो। वह
आचरण
तुम्हारे
स्वभाव के
अनुसार होगा।
यह भी खयाल
में ले लेना।
प्रत्येक
जाग्रत पुरुष
का आचरण
अद्वितीय होता
है। तो तुम
राम को कृष्ण
से मत तौलना।
अगर कृष्ण से
राम को तौलोगे
तो दो में एक
ही ठीक रह
जायेगा, दोनों
ठीक नहीं हो
सकते। और न
तुम बुद्ध को
महावीर से
तौलना। और न
तुम मुहम्मद
को जीसस से तौलना।
और न तुम
जरथुस्त्र को
लाओत्से से
तौलना। तुम
तौलना ही मत।
क्योंकि प्रत्येक
जाग्रत
व्यक्ति का
आचरण उसके
अपने जागरण का
परिणाम होता
है। वह निजी
है, अद्वितीय
है, अनूठा
है।
वैसा न
कभी हुआ है, वैसा न कभी
होगा।
सोए
हुए लोगों का
आचरण
पंक्तिबद्ध
होता है, दूसरों
जैसा होता है;
अनुकरण पर
निर्भर होता
है। दो महावीर
नहीं हुए, न
दो बुद्ध हुए,
न दो कृष्ण
हुए, न हो
सकते हैं। इस
अद्वितीयता
को खूब गहरे
में बिठा
लेना। तब
तुम्हें भय न
रहेगा। तब
तुम्हारी
दृष्टि जागेगी
तो तुम्हारा
आचरण तुम जैसा
होगा। और
परमात्मा अगर
कहीं होगा और
तुमसे पूछेगा
तो वह यह न पूछेगा
कि तुम महावीर
जैसे क्यों न
हुए; वह तुमसे
पूछेगा, तुम
तुम जैसे
क्यों न हुए? तुमने अपने
स्वभाव को
खिलाया क्यों
न? तुम जो
होने को पैदा
हुए थे, विकसित
क्यों न हुए? तुमने अपने
बीज को फूलों
तक क्यों न
पहुंचाया? इसकी
फिक्र छोड़
देना कि तुम
किसी से
तालमेल खा रहे
हो कि नहीं; क्योंकि
सत्य अनूठा
है। किसी गहरे
अर्थ में
तालमेल खाता
भी है और किसी
गहरे अर्थ में
बिलकुल भिन्न
होता है। अगर
बहुत गहराई
में कृष्ण के
उतरोगे, अंतस्तल
में, तो
ठीक महावीर को
पा लोगे।
लेकिन
बाहर-बाहर से देखोगे तो
महावीर कहां,
कृष्ण कहां,
बड़े अलग-अलग
हैं! तुम भी
अलग ही
होनेवाले हो।
धर्म व्यक्ति
को व्यक्ति
बनाता है। और
संप्रदाय व्यक्ति
को भीड़ बना
देते हैं। भीड़
से बचना!
धर्म
निजी और
वैयक्तिक खोज
है।
दूसरा
सूत्र: "एक ओर सम्यक्त्व
का लाभ और
दूसरी ओर
त्रैलोक्य का
लाभ हो तो त्रैलोक्य
के लाभ से
सम्यक दर्शन
का लाभ श्रेष्ठ
है।'
एक तरफ
मिलती हो दृष्टि
और दूसरी तरफ
मिलते हों
तीनों लोक के खजाने और
सारी संपदा और
साम्राज्य, तो भी
महावीर कहते
हैं, तीनों
लोक के
साम्राज्य और
संपदा से
दृष्टि का लाभ
श्रेष्ठ है।
क्योंकि अंधे
के हाथ में साम्राज्य
हो तो भी वह
भिखारी
रहेगा। और आंखवाले
के पास भिक्षा
का पात्र भी
हो तो
साम्राज्य बन
जाता है। आंख
का सारा खेल
है। इसीलिए तो
यह अनूठी घटना
घटी कि महावीर
भिखारी की तरह
राह पर खड़े हो
गये। लेकिन
इनसे बड़े सम्राट
कभी किसी ने
देखे? कि
बुद्ध ने
राजमहल छोड़
दिया, राह
के भिखारी हो
गये, कुछ
भी उनके पास न
रहा; लेकिन
फिर भी जितना
इस आदमी के
पास था किसके
पास कब रहा!
जीवन को बड़ी
से बड़ी संपदा
मिलती है
दृष्टि से; और कोई
संपदा उसके
मुकाबले बड़ी
नहीं।
सम्मत्तस्य
य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज
जो लंभो।
सम्मदंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो।।
मत
चुनना तीन लोक
की संपदा को, लोभ को, लाभ
को! दृष्टि
मिलती हो तो
सब उसके लिए
गंवा देने
जैसा है। सब गंवाकर
दृष्टि मिलती
हो तो बचा
लेना। और सब
बचाकर दृष्टि
खोती हो तो यह
महंगा सौदा मत
कर लेना। अंधे,
आंखहीन तो सिर्फ
भटकते हैं; पहुंचते
नहीं। फिर
गरीब हों कि
अमीर, सफल
हों कि असफल, सुखी हों कि
दुखी, कुछ
अंतर नहीं
पड़ता; मौत
सबको
मटियामेट कर
देती है, और
सब को मिला
जाती है।
पथ
मिलकर सभी एक
होंगे
तम
घिरे यम के
नगर में।
वह जो
अंधा आदमी है, वह कुछ भी
करे, मौत
सबको एक ही
जगह पहुंचा
देगी।
पथ
मिलकर सभी एक
होंगे
तम
घिरे यम के
नगर में।
सिर्फ
दृष्टिवाला
बच जाता है।
मौत सिर्फ अंधों
को पकड़ पाती
है। जिसके पास
दृष्टि है, उसे मौत
नहीं देख
पाती। और
जिनके पास
दृष्टि नहीं
है, उन्हें
सिर्फ मौत ही
दिखायी पड़ती
है और मौत को
वे दिखायी
पड़ते हैं।
हमारी दृष्टि
पर सब निर्भर
करता है।
तुमने
कभी इस पर
खयाल किया, विचार किया,
ध्यान किया
कि बहुत-बहुत
अर्थों में
बहुत-सी चीजें
अदृश्य होती
हैं? जैसे
समझो, एक
चींटी यहां से
गुजर रही हो, बहुत-सी चींटियां
गुजर रही
होंगी। मैं
यहां बोल रहा
हूं, लेकिन
चींटी के लिए
जो मैं बोल
रहा हूं, वह
बिलकुल
सुनायी न
पड़ेगा। वह
चींटी की सीमा
के बाहर है।
यहां वृक्ष
खड़े हैं: जो
मैं कह रहा
हूं, वह
जैसे कहा ही
नहीं गया।...वे
मौजूद हैं, लेकिन उनकी
मौजूदगी का
आयाम अलग है।
मैं एक
कहानी पढ़ता
था। एक हवाई
जहाज जल गया
बीच आकाश में
और एक युवती
मर गई। वह
युवती लंदन जा
रही थी। तो
मरते वक्त उसे
बस एक ही खयाल
था कि अरे, लंदन न
पहुंच पायी!
वह पति की प्रतीक्षा
कर रही थी।
पति आतुर होकर
प्रतीक्षा कर
रहा होगा। बस
एक ही धुन थी, उस धुन के
कारण उसकी
प्रेतात्मा
सीधी लंदन पहुंच
गयी। लेकिन वह
चकित हुई:
लंदन बिलकुल
खाली था! लोग
कहां खो गये!
क्योंकि जब
अपना शरीर खो
जाये तो
दूसरों के
शरीर दिखायी
नहीं पड़ते।
उसे अभी तो
खयाल में नहीं
आया था कि
अपना शरीर खो
गया। क्योंकि
यह शरीर खो भी
जाता है तो
सूक्ष्म शरीर
तो खोता नहीं;
वह बिलकुल
इस जैसा ही
है--इससे
ज्यादा सुंदर,
इससे
ज्यादा कमनीय,
इससे
ज्यादा
सूक्ष्म; पर
ठीक इसकी
प्रतिलिपि!
सचाई तो यह
होगी कि यह शरीर
उसकी
प्रतिलिपि है।
तो उसे अभी यह
तो पता ही न
चला था कि
मेरा शरीर खो
गया; लेकिन
जब उसने लंदन
में जाकर देखा;
तो सारे घर
खाली पड़े हैं।
मकानों से
रोशनी निकल
रही है, खिड़कियों से रोशनी
निकल रही है, लेकिन घर
सन्नाटा है, कहीं कोई
नहीं। वह थेम्स
नदी के पुल पर
खड़ी हो गयी
जाकर। उसे भरोसा
ही न हुआ कि
जहां हजारों
लोग निकलते
रहते हैं, वहां
कोई भी नहीं
निकल रहा है।
हजारों लोग अब
भी निकल रहे
हैं। लेकिन
देह अपनी खो
गयी तो दूसरी
देह से संबंध
नहीं जुड़ता।
लेकिन तभी
अचानक उसे
दिखायी पड़ा, उसका पति भी
पुल से निकल
रहा है। जब
पति निकला तो
उसे दिखायी
पड़ा। क्योंकि
पति से एक
लगाव था, एक
घनीभूत वासना
थी, प्रेम
था। उस प्रेम
के कारण एक
सूत्र जुड़ा
था। उस प्रेम
के कारण वह
पति के शरीर
से ही नहीं जुड़ी
थी, पति के
सूक्ष्म शरीर
से भी थोड़े
संबंध हुए थे।
उस सूक्ष्म
शरीर से संबंध
के कारण उसे
पति थोड़ा-सा
दिखायी पड़ा, पहले
धुंधला-धुंधला,
फिर रेखा
उभरी, फिर
साफ हुआ।
लेकिन जब उसे
पति दिखायी
पड़ा तो चकित
हुई कि जैसे
ही उसे पति
दिखायी पड़ा, और लोग भी
दिखायी पड़ने
लगे। क्योंकि
जब एक शरीर
दिख गया तो
दूसरे शरीर भी
दिखाई पड़ने
लगे। तत्क्षण
पूरा लंदन भरा
था--एक क्षण
में--लंदन खाली
न था! हजारों
लोग आ-जा रहे
थे, मकान
भरे थे!
यह
कहानी मुझे
बड़ी प्रीतिकर
लगी, जिसने भी
लिखी हो, बड़ी
सूझ से लिखी
है। कहानी तो
कल्पित है, लेकिन सूझ
गहरी है।
हमें
वही दिखायी
पड़ता है जहां
हम हैं। अभी
हमें शरीर
दिखायी पड़ते
हैं। इसलिए
मौत से हमारा
संबंध होने ही
वाला है। मौत
हमें दिखायी
पड़ेगी
क्योंकि शरीर
की मौत होती
है। इसलिए हम
मौत से भयभीत
हैं। जैसे ही
दृष्टि जगती
है और हमें
दिखायी पड़ता
है, हम शरीर
नहीं हैं--मौत
के हम बाहर हो
गये! फिर मौत
भी हमको नहीं
देख सकती। वह
भी हमको तभी
तक देख सकती
है जब तक हम
शरीर हैं और
शरीर में हैं,
और माने हुए
हैं कि हम
शरीर ही हैं।
जब तक हम शरीर
के ठोसपन से
जुड़े हैं, तभी
तक हम मौत की
सीमा में हैं।
जैसे ही हम
शरीर के ठोसपन
से मुक्त हुए,
हम मौत के
बाहर हुए।
इस
जिंदगी में इन
तीनों लोकों
में जो भी मिल
जाता है, वह
बाहर-बाहर है।
वह हमारा कभी
नहीं हो पाता।
जो बाहर है वह
बाहर ही रह
जाता है; उसे
तुम भीतर ले
जाओगे बैसे?
तुम
संपत्ति का
ढेर लगा लोगे,
ढेर बाहर
लगेगा, भीतर
कैसे लगाओगे?
भीतर
ज्यादा से
ज्यादा हिसाब
रख सकते हो, संपत्ति के
आंकड़े रख सकते
हो; वह भी
बहुत भीतर
नहीं, वह
भी मन में
होंगे; वह
भी चैतन्य में
न पहुंच
पाएंगे।
चैतन्य तक तो
आंकड़े भी नहीं
पहुंचेंगे, संपत्ति तो
बाहर रहेगी, गणित मन तक
पहुंच
जायेगा।
संपत्ति मन तक
भी नहीं पहुंचेगी,
गणित भी न
पहुंच पायेगा
चैतन्य तक।
तुम्हारी चेतना
तो पार ही
रहेगी। तो जब
तक भीतर की
कोई संपदा न
मिल जाये तब
तक कोई संपदा
काम की नहीं
है।
"अधिक क्या
कहें? अतीतकाल में जो श्रष्ठजन
सिद्ध हुए और
जो आगे सिद्ध
होंगे, वह
इस एक सम्यक्त्व
का ही परिणाम
है। इसी एक सम्यकत्व
का महात्म्य
है।'
किं बहुणा भणिएणं--क्या
कहें ज्यादा
अब? जे सिद्धा
णरवरा गए
काले--वह जो
बीते समय में
हुए हैं
सिद्ध...।
जैनों से कुछ
लेना-देना
नहीं है इसका।
ये वचन शुद्ध
उन सबके लिए
हैं जो सिद्ध
हुए हैं।
इसमें वेदों
के ऋषि और
उपनिषदों के
कवि सभी
सम्मिलित
हैं।
किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा
णरवरा गए
काले। जो-जो
बीते समय में,
बीते काल
में...बेशर्त
महावीर कह रहे
हैं, कोई
शर्त नहीं
लगायी है।
नहीं तो कहते,
कि जैन
सिद्ध जो हुए
हैं अतीत में।
जो अभी जागे
हैं...! जैन से
क्या
लेना-देना
जागने का? जो
जाग गये, वे
सभी जिन हैं।
सिज्झिहिंति
जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं।
--वे
इसी सम्यकत्व
के महात्म्य
से उपलब्ध हए
हैं। वे इसी
दृष्टि के, इसी जागरण
से, इसी
ध्यान, इसी
समाधि से
उपलब्ध हुए
हैं।
"जैसे
कमलिनी का
पत्र स्वभाव
से ही जल से
लिप्त नहीं
होता वैसे ही
सत्पुरुष सम्यकत्व
के प्रभाव से
कषाय और
विषयों से
लिप्त नहीं होते।'
तो
महावीर क्यों
कर कहेंगे, भाग जाओ
संसार से! हां,
किसी को
स्वभाव के
अनुकूल बैठता
हो संसार से
अलग हट जाना
तो वह भागना
नहीं है। जब
किसी के घर
में आग लगती है
और कोई आदमी
भागकर बाहर
आता है तो तुम
उसको भगोड़ा
तो नहीं कहते!
तुम यह तो
नहीं कहते, एस्केपिस्ट हो, पलायनवादी
हो! अगर वह घर
में ही बैठा
रहे और जल जाये
तो तुम उसको मूढ़ जरूर
कहोगे, लेकिन
बाहर निकल आए
तो भगोड़ा
तो न कहोगे!
किसी व्यक्ति
को अगर संसार
का जीवन
तालमेल न खाता
हो, उसके
भीतर के संगीत
में न बैठता
हो, उसकी
लयबद्धता
खंडित होती हो,
तो वह हट
जाये। लेकिन
वह भगोड़ा
नहीं है। भगोड़ा
तो वह है जो यह
सोचता है कि
संसार से हट
जाने के कारण
मुझे मोक्ष
मिलेगा। जो
संसार से हट जाने
को मोक्ष पाने
का साधन बनाता
है, वह भगोड़ा
है। मोक्ष का
कोई संबंध
संसार से भाग
जाने से नहीं
है।
महावीर
कहते हैं, "जैसे कमलिनी
का पत्र
स्वभाव से जल
से लिप्त नहीं
होता वैसे ही
सत्पुरुष, सम्यकत्व के प्रभाव
से कषाय और
विषयों से
लिप्त नहीं
होते।' वह
अगर कषायों
और विषयों के
बीच भी खड़े
रहें, जैसे
कमलिनी का
पत्र सरोवर
में पड़ा रहता
है, तो भी
लिप्त नहीं
होते। एक दफा
दिखायी पड़ना
शुरू हो जाये,
बस वह
दृष्टि ही
अलिप्तता बन
जाती है।
दुनिया
की महफिलों
से उकता
गया हूं या रब
क्या
लुत्फ अंजुमन
का जब दिल ही
बुझ गया हो।
एक दफा
वासना बुझ
जाये, एक
बार वासना की
जगह दृष्टि का
दीया जल जाये...
दुनिया
से कुछ लगाव न उक्बा की
आरजू है
तंग
आ गये हैं इस दिले
बे-मुद्दआ से
हम।
और फिर
न तो इस
दुनिया का कोई
लगाव रह जाता
और न उस
दुनिया की कोई
आकांक्षा रह
जाती है।
जिनके मन में
उस दुनिया की
कोई आकांक्षा
रह गयी है--वह
दुनिया इसी
दुनिया का विस्तार
है--वह दुनिया
से अभी उकताए
नहीं। जो सोच
रहे हैं, स्वर्ग
में मजे
करेंगे; जो
सोच रहे हैं
स्वर्ग में नचाएंगे अप्सराओं
को; जो सोच
रहे हैं, स्वर्ग
में शराब के
झरने बह रहे
हैं, डुबकी
लेंगे--वे इस
दुनिया से उकताए
नहीं हैं। समझ
उन्हें आयी
नहीं; जागरण
हुआ नहीं।
"सम्यक
दृष्टि
मनुष्य अपनी
इंद्रियों के
द्वारा चेतन
तथा अचेतन
तत्वों का जो
भी उपयोग करता
है, जो भी
उपभोग करता है,
वह सब
कर्मों की
निर्जरा में
सहायक होता
है।'
महावीर
कहते हैं, सभी उपभोग बांधता
नहीं; क्योंकि
ध्यान भी
करोगे तो भोजन
करना होगा। तो
ध्यान के लिए
भी शरीर जरूरी
होगा। वेश्या
के घर जाना है
तो भी शरीर से
ही चलकर जाओगे
और मंदिर जाना
है तो भी शरीर
से ही चलकर
जाओगे। किसी की
हत्या करनी हो
तो भी ऊर्जा
चाहिए, भोजन
से मिलेगी; और किसी की
सेवा करनी हो
तो भी ऊर्जा
चाहिए, भोजन
से ही मिलेगी।
भोजन छोड़ देने
का सवाल नहीं
है; भोजन
का सम्यक
उपयोग कर लेने
का सवाल है।
तो
महावीर कहते
हैं, "सम्यक
दृष्टि
मनुष्य अपनी
इंद्रियों के
द्वारा चेतन
तथा अचेतन
द्रव्यों का
जो भी उपभोग करता
है, वह सब
कर्मों की
निर्जरा में
सहायक होता
है।' वह
इसीलिए जीता
है ताकि जीवन
के पार जा
सके। वह
इसीलिए भोजन
करता है ताकि
भगवत्ता को पा
सके। वह
इसीलिए जल
पीता है, ताकि
शरीर तृप्त हो,
शांत हो, तो अंतर्गमन
हो सके। उसकी
दृष्टि हर घड़ी
उस भीतर के
सत्य पर लगी
रहती है। वह
उसी के लिए
सारे जीवन को
उपकरण बना
लेता है।
श्रीमद्भागवत
में एक वचन है:
स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति संतः! संत
पुरुष
तीर्थों को
पवित्र करते
हैं। तीर्थों
के कारण कोई
पवित्र नहीं
होता; संत
पुरुषों के
कारण तीर्थ बन
जाते हैं।
जहां संत
पुरुष बैठता
है वहीं तीर्थ
बन जाता है।
जहां
तीर्थंकर
चलते हैं वहीं
तीर्थ बन जाते
हैं।
गंगा
की खोज मत
करो। तुम गंगा
कभी न पहुंच
पाओगे। तुम
दृष्टि को, सम्यकत्व को उपलब्ध
हो जाओ--गंगा
तुम्हारी खोज
करती चली
जाएगी। नदी, नाला कोई भी
तुम्हारे पास
से गुजर
जायेगा, गंगा
जैसा पवित्र
हो जायेगा।
वास्तविक
मूल्य, आत्यंतिक
मूल्य
तुम्हारे
चैतन्य का है।
"कोई तो
विषयों का
सेवन करते हुए
भी सेवन नहीं करता।'
यह वचन
सुनना! यह
गीता में कहा
गया होता तो
अड़चन न होती; यह महावीर
ने कहा है।
इसको
बहुत गौर से, होश से
सुनना।
"कोई
तो विषयों का
सेवन करते हुए
भी सेवन नहीं
करता और कोई न
सेवन करते हुए
भी विषयों का सेवन
करता है। जैसे
कोई पुरुष
विवाह आदि
कार्यों में
लगा रहने पर
भी उस कार्य
का स्वामी न होने
से कर्ता नहीं
होता।'
यह
गीता में तो
बिलकुल ठीक
था। तो कृष्ण
की दृष्टि में
साफ था। लेकिन
जैनों ने
महावीर की दृष्टि
को ऐसा
लीपा-पोता है
कि महावीर के
ही वचन पराये
मालूम पड़ते
हैं।
महावीर
यह कह रहे हैं
कि कोई तो ऐसे
हैं, जागे
होने के कारण,
सेवन करते
हुए भी सेवन
नहीं करते; भोजन करते
हुए भी उपवासे
हैं; ठेठ
संसार में खड़े
हुए भी संसार
के बाहर हैं। और
कोई ऐसे भी
हैं कि न सेवन
करते हुए भी
सेवन करते
हैं। उपवास
किए हैं, लेकिन
भोजन की
कल्पना, भोजन
की वासना...!
ब्रह्मचर्य
का व्रत लिए
हैं, लेकिन
कामवासना की
लहरें...!
हिमालय पर बैठ
गये हैं जाकर,
लेकिन
संसार की
पुकार उन्हें
अभी भी सुनायी
पड़ती है।
तो
असली सवाल
बाहर से भाग
जाने का नहीं
है--भीतर से
जाग जाने का
है।
फिर
तुम भोग कर भी
त्यागी हो
सकते हो। और
अगर वैसा न
हुआ तो तुम
त्याग कर लोगे
और भोगी ही
रहोगे।
गो
मैं रहा रहीने-सितमहा-ए-रोजगार
लेकिन
तेरे खयाल से
गाफिल नहीं
रहा।
रहा
दुनिया की भीड़
में, रहा
बाजार में, रहा उलझा
संसार में...।
गो
मैं रहा रहीने-सितमहा-ए-रोजगार
--काम-धंधों
में उलझा हुआ;
"लेकिन
तेरे खयाल से
गाफिल नहीं
रहा!' बस
इतना ही कह
सको तो काफी
है। स्मरण बना
रहा, सुरति
सधी रही, ध्यान का
धागा हाथ में
रहा--फिर रहो
तुम बाजार में,
तुम कमलिनी
के पत्र की
भांति सरोवर
में पानी के
बीच रहते हुए
भी पानी से
अस्पर्शित
रहोगे।
महावीर
कहते हैं, जैसे कोई
आदमी विवाह
इत्यादि का
आयोजन करता है...मुनीम,
मालिक नहीं,
तो बड़ी
दौड़-धूप करता
है, इंतजाम
करता है: बैंडबाजे
लाओ, भोजन-पत्तल
सजाओ; लेकिन
चूंकि वह
मालिक नहीं है,
इसलिए
परेशान नहीं
है। रात घर
जाकर सो जाता
है मजे से।
कोई याद भी
नहीं आती। काम
था, कर
दिया। कर्ता
तो वह नहीं
है। लेकिन
मालिक चाहे
दौड़-धूप भी न
कर रहा हो, सिंहासन
पर बैठा हो, लेकिन रात
सो न पायेगा।
उसकी लड़की का
विवाह हो रहा
है। बड़ी
चिंताएं पकड़ेंगी।
चिंताएं
विवाह के कारण
नहीं पकड़तीं,
चिंताएं पकड़ती
हैं--मेरी
लड़की! जहां
"मेरा' है,
ममत्व है, वहीं संसार
है। जहां
"मेरा' नहीं,
ममत्व नहीं,
वहीं संसार
खो गया। तो
फिर तुम
कर्ता-भाव से
मुक्त होकर जो
भी करो उसका
कोई बंध नहीं
है।
"इसी
तरह काम-भोग न
समभाव
उपस्थित करते
हैं और न
विकृति...।'
ये वचन
तुम
सोचना--जैसे
किसी महातांत्रिक
ने कहे हों!
"इसी
तरह काम-भोग न
समभाव
उपस्थित करते
हैं और न
विकृति या
विषमता। जो
उनके प्रति
द्वेष और ममत्व
रखता है, वह
उनमें विकृति
को प्राप्त
होता है।'
न रखना
द्वेष, न
रखना ममत्व।
जो हो, चुपचाप
अपने बोध को
सम्हाले, होने
देना। जो हो
स्थिति, स्मरण
न खोये, आत्मस्मरण न खोये। बस, इतना काफी
है।
तो
महावीर बड़ी
हिम्मत का वचन
कह रहे हैं।
वे कह रहे हैं
काम-भोग भी न
तो बांधते
हैं, न उन्हें
छोड़ने से कोई
छूटता है। न
तो काम-भोग से
कोई बंधन
निर्मित होता
है और न
काम-भोग से कोई
मुक्ति
निर्मित होती
है। हां, काम-भोग
के प्रति
द्वेष और
ममत्व का भाव,
उससे ही
रज्जु
निर्मित होती
है जो बांधती
है। तो तुम
कोई ममत्व का
भाव मत रखना
और द्वेष मत
रखना।
अब
जिनको तुम
संसारी कहते
हो, जिनको
तुम श्रावक
कहते हो, इनका
ममत्व है
काम-भोग में।
तुम अपने
संन्यासी को
पूछो, उसका
क्या है? उसका
द्वेष है।
अगर
तुम्हें कोई
नग्न
तस्वीरों
वाली किताब मिल
जाये तो तुम
छिपाकर उसे
देख लोगे, या गीता का
कवर चढ़ा दोगे
ऊपर से और देख
लोगे। बच न
सकोगे। लेकिन
उसी किताब को
अगर तुम अपने
मुनि महाराज
के पास जाकर
खोल दो, वह
छलांग लगाकर
खड़े हो
जायेंगे, जैसे
तुम
सांप-बिच्छू
की पिटारी ले
आये! वह तुम पर
चीखने-चिल्लाने
लगेंगे कि यह
तुमने क्या
किया! भ्रष्ट
कर दिया!
तुम्हारा
ममत्व है, उनका द्वेष
है। महावीर
कहते हैं, दोनों
ही खतरनाक
हैं। कोई भी
भाव बांध लेगा,
फिर चाहे
पक्ष का हो
चाहे विपक्ष
का हो। तुम संसार
में
निर्लिप्त, ऐसे जीना कि
जैसे
तुम्हारा कोई
भाव नहीं है।
जो हो रहा है, ठीक है। न
तुम पकड़ने
को उत्सुक हो,
न तुम छोड़ने
को उत्सुक हो।
विनोबा
के पास कोई
पैसे ले जाये
तो वे आंख बंद कर
लेते हैं।
पैसे से ऐसा
क्या डर? पैसे
में ऐसा क्या
बल? और अगर
पैसे में इतना
बल है कि
संतों को आंख
बंद करनी पड़ती
है तो फिर
बेचारे ये
संसारी अगर पैसे
के बल से दबे
हैं तो क्या
आश्चर्य! किसी
की आंख एकदम
फैल के दोगुनी
हो जाती है और
किसी की बंद
हो जाती है!
मैं एक
सज्जन को
जानता था।
उनको अगर
दूसरे का भी
नोट हाथ में
लग जाये तो वह
उसको ऐसा
पुचकार के
छूते थे, वैसा
कलाकार मैंने
नहीं देखा फिर
दुबारा। बहुत
लोग
देखे।...मगर
दूसरे के नोट
को भी पुचकार
के छूते थे।
सम्मान तो
होना ही चाहिए
था। उसको उलट-पलटकर
देखते, उसको
ऐसे छूते जैसे
प्रेयसी हो!
एक तरफ
ये हैं कि
पैसे को देखते
से उनकी जीभ
से एकदम लार
टपकने लगेगी; और दूसरी
तरफ लोग हैं
कि आंख बंद कर
लेंगे। लेकिन
फर्क क्या हुआ?
पैसे ने
दोनों पर
प्रभाव रखा।
पैसे ने दोनों
से कुछ करवा
लिया।
महावीर
कह रहे हैं कि
पैसे में ऐसा
कुछ भी नहीं
है--न तो लार टपकाने
योग्य कुछ है
और न आंख बंद
करने योग्य
कुछ है। जिस
दिन न ममत्व, न द्वेष, दोनों
नहीं रह जाते,
न राग न
विराग--उसी
दिन वीतरागता
उपलब्ध होती
है।
"वीतराग' महावीर
का बड़ा
बहुमूल्य
शब्द है। न
राग न विराग, न पकड़ना
न छोड़ना, कोई
चुनाव नहीं, न इस तरफ न उस
तरफ, न
घृणा न मोह!
अपने में थिर
हो जाना, अपने
में रम जाना, कि बाहर से
कोई भी घटना
घटे, तुम्हारे
भीतर
पक्ष-विपक्ष
में कोई भी
विचार न उठे, भाव न
उठे--ऐसी
वीतराग दशा ही
मोक्ष का
द्वार है।
महावीर इस
दृष्टि को
सर्वाधिक
मूल्यवान कहते
हैं।
तूफान
से उलझ गए
लेकर खुदा का
नाम
आखिर
निजात पा ही
गये नाखुदा से
हम
--मांझी
से छुटकारा पा
लिया खुदा का
नाम लेकर! लेकिन
महावीर ने
खुदा से भी
छुटकारा पा
लिया है। नाखुदा
से तो छुटकारा
पा ही लिया।
किसी के पीछे
तो वह चलते ही
नहीं, कोई
मांझी नहीं है;
लेकिन खुदा
से, परमात्मा
से भी छुटकारा
पा लिया।
उन्होंने तो
सीधा धर्म का
विज्ञान
निरूपित किया
कि दृष्टि की
शुद्धि ही
तुम्हारी मार्गद्रष्टा
है; वही सदगुरु
है।
दृष्टि
थिर हो जाये, अनुद्वेग
सम्हल जाये, कोई उद्वेग
न उठे। घृणा
का, प्रशंसा
का, सफलता-विफलता
का, भोग और
त्याग का कोई
उद्वेग न उठे,
तो तुम
निर्वाण के
करीब आने लगे।
"अनुद्वेगः श्रीयोमूलं!'
हिंदू
शास्त्र कहते
हैं, अनुद्वेग
ही श्रेय का
मूल है, निःश्रेयस का मूल है।
यह अनुद्वेग
दशा ही
तुम्हें जल में
कमलवत बना
देगी। और धन्यभागी
हैं वे जो
सबके बीच रहकर
और सबसे अछूते
रह जाते हैं!
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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