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शुक्रवार, 2 मई 2014

गीता दर्शन--(भाग--2) प्रवचन--043

मोह का टूटना— (अध्याय 4) प्रवचन—प्रंदहवां


यज्ज्ञात्वापुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि।। 35।।
कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा; और हे अर्जुन, जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा।
ज्ञान का पहला आघात मोह पर होता है। ज्ञान की पहली चोट ममत्व पर होती है। या उलटा कहें, तो ममत्व के विदा होते ही ज्ञान की किरण, पहली किरण, फूटती है। मोह के नाश होते ही ज्ञान के सूर्य का उदय होता है। ये दोनों घटनाएं युगपत हैं, साइमल्टेनियस हैं। इसलिए दोनों तरह से कहा जा सकता है, प्रकाश के फूटते ही अंधकार विलीन हो जाता, या ऐसा कहें कि जहां अंधकार विलीन हुआ, हम जानते हैं कि प्रकाश फूट गया है।
कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है अर्जुन।
मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है?
पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं जरूर, रहूं जरूर; मिट न जाऊं--लस्ट फार लाइफ; जिजीविषा।
जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई मकान को मोह करता, तो मकान को कोई मोह नहीं करता। मकान का मोह--मैं रह सकूं ठीक से, मैं बच सकूं ठीक से, सरवाइव कर सकूं--उसी मोह का विस्तार है। कोई धन को मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी रूट्स, उसकी जड़ उस मैं के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं।
अगर और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है। पति पत्नी को मोह करता; पत्नी पति को मोह करती; बाप बेटे को मोह करता, बेटा बाप को मोह करता। वे सब सिक्योरिटी मेजर्स हैं, सरवाइवल मेजर्स हैं, बचने के उपाय हैं। मिट न जाऊं, बचूं सदा--जीने की ऐसी जो आकांक्षा है, वह मोह का गहरा रूप है। फिर बाकी सब आकांक्षाएं मोह की इसी आकांक्षा से पैदा होती हैं।
कभी-कभी हैरानी होती है। राह पर देखकर कभी अंधे, लंगड़े, लूले, भिखारी को, मन में सवाल उठा होगा, किसलिए जीना चाहता है? अंग-अंग गल गए हैं! किसलिए जीना चाहता है? कभी सवाल उठा होगा। उसी लिए, जिस लिए हम जीना चाहते हैं। अंग गल जाएं, लेकिन जीने का मोह नहीं गलता। आंखें चली जाएं, पैर टूट जाएं, आदमी सड़ता हो, फिर भी जीने का मोह नहीं पिघलता!
कई बार लगता है कि बूढ़े कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले। तो आप यह मत समझना कि वे सच ही उठ जाने को तैयार हैं। अगर आप सब मिलकर कोशिश करने लगें कि ठीक; उठवाए देते हैं! तब आपको पता चलेगा कि वे जब यह कह रहे हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले, तो वे सिर्फ एक शिकायत कर रहे हैं कि इस तरह जिंदा रखने में कोई मजा नहीं; और तरह जिंदा रखे। गहरे में मरने की आकांक्षा उनकी भी नहीं है।
मैंने सुनी है एक घटना; एक अरेबियन कहानी है। एक लकड़हारा रोज लकड़ी काटता है। गांव में बेचता है। बूढ़ा हो गया है। एक दिन लौट रहा है, सिर पर भारी बोझ है। सुबह दोपहर बन रही है। पसीने से लथपथ बूढ़ा आदमी है; लकड़ियां ढोता हुआ गांव की तरफ जा रहा है। कमर झुकी जाती है; बोझ सहा नहीं जाता। अचानक मन से निकला, हे परमात्मा! इससे तो अच्छा है कि अब मौत से ही मिला दे।
ऐसा होता नहीं, जैसा उस कहानी में हो गया। मौत कहीं पास से गुजरती थी और उसने सुन लिया। उसने सोचा, बेचारा, सच में तकलीफ में है। ले ही जाऊं। मौत आ गई। मौत सामने आकर खड़ी हुई। लकड़हारे से कहा, तुमने याद किया; मैं आ गई। बोलो, क्या करूं?
लकड़हारे ने कहा, नहीं, और कुछ नहीं, सिर्फ जरा सिर से बोझ उतार दो। और किसी लिए याद नहीं किया; बोझ जरा सिर पर ज्यादा है; राह पर कोई दिखाई नहीं पड़ता है, इसे नीचे उतार दो। घबड़ा गया मौत को देखकर। जब पुकारा था, तब सोचा भी नहीं था...।
यह खयाल रख लें, अगर परमात्मा हमारी सारी प्रार्थनाएं सुन ले, तो हम प्रार्थना करना सदा के लिए बंद कर दें। नहीं सुनता है, इसलिए किए चले जाते हैं। शायद इसीलिए नहीं सुनता है, क्योंकि हम अपने ही खिलाफ प्रार्थनाएं किए चले जाते हैं। क्योंकि पूरी कर दे, तो हम फिर भी शिकायत करेंगे कि तूने पूरी क्यों कर दी? हमारा यह मतलब थोड़े ही था! जब एक आदमी कहता है, हे प्रभु, अब तो उठा लो! तो उसका मतलब यह नहीं है कि उठा लो। उसका मतलब है, इस भांति जिंदा मत रखो, ढंग से जिंदा रखो! सांकेतिक भाषा में बोल रहा है।
कोई मरना नहीं चाहता।
आप कहेंगे, कुछ लोग आत्मघात कर लेते हैं। निश्चित कर लेते हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आत्मघात कौन लोग करते हैं! वे ही लोग, जिनका जीवन का मोह बहुत गहन होता है, डेंस। यह बहुत उलटी बात मालूम पड़ेगी।
एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है और वह स्त्री इनकार कर देती है, वह आत्महत्या कर लेता है। वह असल में यह कह रहा था कि जीऊंगा इस शर्त के साथ, यह स्त्री मिले; यह कंडीशन है मेरे जीने की। और अगर ऐसा जीना मुझे नहीं मिलता--उसका जीने का मोह इतना सघन है--कि अगर ऐसा जीवन मुझे नहीं मिलता, तो वह मर जाता है। वह मर रहा है सिर्फ जीवन के अतिमोह के कारण। कोई मरता नहीं है।
एक आदमी कहता है, महल रहेगा, धन रहेगा, इज्जत रहेगी, तो जीऊंगा; नहीं तो मर जाऊंगा। वह मरकर यह नहीं कह रहा है कि मृत्यु मुझे पसंद है। वह यह कह रहा है कि जैसा जीवन था, वह मुझे नापसंद था। जैसा जीना चाहता था, वैसे जीने की आकांक्षा मेरी पूरी नहीं हो पाती थी। वह मृत्यु को स्वीकार कर रहा है, ईश्वर के प्रति एक गहरी शिकायत की तरह। वह कह रहा है, सम्हालो अपना जीवन; मैं तो और गहन जीवन चाहता था। और भी, जैसी मेरी आकांक्षा थी, वैसा।
एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता है, वह मर जाती है। वह दूसरी स्त्री से विवाह करके जीने लगता है। इसका जीवन के प्रति ऐसी गहन शर्त नहीं है, जैसी उस आदमी की, जो मर जाता है।
जिनकी जीवन की गहन शर्तें हैं, वे कभी-कभी आत्महत्या करते हुए देखे जाते हैं। और कई बार आत्महत्या इसलिए भी आदमी करता देखा जाता है कि शायद मरने के बाद इससे बेहतर जीवन मिल जाए। वह भी जीवन की आकांक्षा है। वह भी बेहतर जीवन की खोज है। वह भी मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। वह इस आशा में की गई घटना है कि शायद इस जीवन से बेहतर जीवन मिल जाए। अगर बेहतर जीवन मिलता हो, तो आदमी मरने को भी तैयार है। मृत्यु के प्रति उन्मुखता नहीं है; हो नहीं सकती। जीवन का मोह है।
जीवन के इस मोह की फिर बहुत शाखाएं फैल जाती हैं। वे सभी चीजें, जो जीने में सहयोगी होती हैं, महत्वपूर्ण बन जाती हैं। इसलिए धन इतना महत्वपूर्ण है। लोग कहते हैं कि धन में कुछ भी नहीं रखा। गलत कहते हैं। मोह का प्राण है वहां। मोह की आत्मा धन में बसती है।
इतना धन क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? क्या लोग पागल हैं? नहीं; लोग पागल नहीं हैं। धन के बिना जीना बहुत कठिन है। जीने की आकांक्षा जितनी प्रबल है, धन पर पकड़ भी उतनी ही प्रबल होती है। धन पर प्रबल पकड़ सिर्फ जीने की प्रबल पकड़ की सूचना देती है।
अगर महावीर या बुद्ध जैसे लोग सब धन छोड़कर चले जाते हैं, तो धन छोड़कर नहीं जाते हैं। अगर गहरे में देखें, तो जीवन का जो आग्रह है, वह छूटने की वजह से धन छूट जाता है। धन को करेंगे भी क्या बचाकर? कल हुआ जीवन, तो ठीक है; न हुआ, तो ठीक है। नहीं हुआ तो उतना ही ठीक है, जितना हुआ तो ठीक है।
मोहम्मद रात सोते, तो सांझ घर में जो भी होता, सब बांट देते। एक पैसा भी न बचाते। कहते, कल सुबह जीए, तो ठीक है; और परमात्मा जिलाना चाहेगा, तो कल सुबह भी इंतजाम करेगा। आज इंतजाम किया था, कल भी इंतजाम किया था। जीवनभर का अनुभव कहता है कि अब तक जिलाना था, तो उसने इंतजाम दिया है। कल भी भरोसा रखें।
मोहम्मद कहते कि जो आदमी तिजोड़ी सम्हालकर रखता है, वह नास्तिक है। है भी। कहेंगे, नास्तिक की बड़ी अजीब परिभाषा है! हम तो नास्तिक उसको कहते हैं, जो भगवान को नहीं मानता। मोहम्मद नास्तिक उसको कहते हैं, जो धन को मानता है।
और ध्यान रखें, जो धन को मानता है, वह भगवान को मान नहीं सकता। और जो भगवान को मानता है, वह धन को मानना उससे ऐसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं। क्योंकि जो भगवान को मानता है, वह अपने जीने का मोह छोड़ देता है। परमात्मा का जीवन ही उसका अपना जीवन है अब।
तो मोहम्मद सांझ सब बांट देते। मोहम्मद से अपरिग्रही आदमी पृथ्वी पर बहुत कम हुए हैं। और यह अपरिग्रह कई अर्थों में महावीर और बुद्ध के अपरिग्रह से भी कठिन है। क्योंकि महावीर और बुद्ध एकबारगी छोड़ देते हैं। छोड़कर बाहर हो जाते हैं। अपरिग्रह उनका इकट्ठा है। बाहर हो गए; बात समाप्त हो गई। मोहम्मद इस तरह बाहर नहीं हो जाते। रोज सुबह से सांझ तक परिग्रह इकट्ठा होता, सांझ सब बांट देते। रात अपरिग्रही हो जाते। सुबह फिर कोई भेंट कर जाता, तो फिर आ जाता। सांझ फिर बांट देते।
इकट्ठे परिग्रह से छलांग लगानी सदा आसान है। रोज-रोज, रोज-रोज, रोज-रोज...। एक क्षण में सब छोड़ देना आसान है। क्षण-क्षण, जीवनभर छोड़ते रहना बहुत कठिन है। मगर दिखाई नहीं पड़ सकता ऊपर से। इसलिए मोहम्मद को बहुत लोग तो मानेंगे कि अपरिग्रही हैं ही नहीं। पर मैं कहता हूं कि उनका अपरिग्रह बहुत गहरा है।
मरने के दिन, बीमार थे, तो चिकित्सकों ने मोहम्मद की पत्नी को कहा कि आज रात शायद ही कटे। तो उसने पांच दीनार बचाकर रख लिए। दवा की जरूरत पड़ जाए; पांच रुपए बचाकर रख लिए। रात क्या भरोसा! दवा, चिकित्सक, कुछ इंतजाम करना पड़े।
बारह बजे रात मोहम्मद करवट बदलते रहे। लगे कि बहुत बेचैन हैं। लगे कि बहुत परेशान हैं। अंततः उन्होंने आंख खोली और अपनी पत्नी से कहा कि मुझे लगता है, आज मैं अपरिग्रही नहीं हूं। आज घर में कुछ पैसा है। मत करो ऐसा, क्योंकि परमात्मा अगर मुझसे पूछेगा कि मोहम्मद, मरते वक्त नास्तिक हो गया? जिसने जिंदगीभर दिया, वह एक रात और न देता? निकाल! पत्नी ने कहा, तुम्हें पता कैसे चला कि मैंने बचाया होगा? मोहम्मद ने कहा, तेरी आंखों की चोरी कहती है। तेरा डरापन कहता है। आज तू उतनी निर्भय नहीं है, जैसी सदा थी।
निर्भय सिर्फ अपरिग्रही ही हो सकता है; परिग्रही सदा भयभीत होता है। इसलिए परिग्रही के सामने बंदूक लिए हुए पहरेदार खड़ा रहता है। वह उसके भय का सबूत है।
परिग्रही भयभीत होगा। जहां मोह होगा, वहां भय होगा। भय मोहजन्य है। भय मोह का ही फूल है। कांटे जैसा है, लेकिन है मोह का ही फूल। खिलता मोह में ही है, निकलता मोह में ही है।
ध्यान रखें, भय भी तो यही है कि मिट न जाएं। मोह यह है कि बचाएं अपने को; भय यह है कि मिट न जाएं। इसलिए भय मोह के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी निर्भय होना चाहता है, वह अमोही हुए बिना नहीं हो सकता। अभय अमोह के साथ ही आता है।
मोहम्मद ने कहा, तेरा डर कहता कि आज मोह से भरा हुआ है तेरा मन। तू आज मेरी आंखों के सामने नहीं देखती। कुछ तूने छिपाकर रखा है। निकाल ला और उसे बांट दे। बेचारी, पांच रुपए छिपा रखे थे बिस्तर के नीचे, उसने निकाल लिए। मोहम्मद ने कहा, जा सड़क पर, किसी को दे आ। पर उसने कहा, इतनी आधी रात सड़क पर मिलेगा भी कौन! मोहम्मद ने कहा, जिसने मुझे कहा है कि बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा, जो लेने को मौजूद होगा। वह बाहर गई और एक भिखारी खड़ा था! पैसे देकर वह भीतर आ गई। भरोसा गहरा हुआ; ट्रस्ट बढ़ा। मोहम्मद ने कहा, जिसने मुझे कहा कि पैसे बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा जो द्वार पर खड़ा है।
भीतर लौटकर आई। मोहम्मद ने आंखें बंद कीं। मुस्कुराए। चादर ओढ़ ली और श्वास छूट गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं, मोहम्मद उतनी देर पांच रुपए बंटवाने को रुके। वह तड़फन यही थी कि कब वह पत्नी को राजी कर लें, छोड़ दे!
लेकिन पत्नी ने भी क्यों बचाए थे पांच रुपए? वही जीवन का मोह। हम भी बचाते हैं, तो जीवन का मोह। सब बचाव जीवन के मोह में है। सब भय, मिट न जाएं, इस डर में हैं।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा जब बहती, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है अर्जुन। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह अज्ञान है।
अज्ञान को अगर हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और मोह को अगर ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है--व्यक्त अज्ञान, मैनीफेस्टेड इग्नोरेंस। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक ठीक; जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, मकान, धन, दौलत--फैलता चला जाता है।
और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। इनफिनिट है उसका विस्तार। अनंत फैल सकता है। चांदत्तारे भी मिल जाएं, तो तृप्त नहीं होगा। और आगे भी चांदत्तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।
क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। जो चांदत्तारा मेरा नहीं है, वहीं से मौत आएगी। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे को फैलाता चला जाता है आदमी।
कहते हैं, सिकंदर से जब किसी ने कहा--एक बहुत अदभुत आदमी ने--महावीर जैसा एक अदभुत आदमी हुआ यूनान में, डायोजनीज। डायोजनीज नग्न खड़ा था। सिकंदर से उसने कहा, सिकंदर! तू एक दफे यह भी तो सोच कि तू सारी दुनिया जीत लेगा, तो फिर क्या करेगा? क्योंकि दूसरी दुनिया नहीं है! कहते हैं, सिकंदर उदास हो गया। डायोजनीज खूब हंसने लगा। सिकंदर और उदास हो गया। और सिकंदर ने कहा, मेरी मजबूरी पर हंसो मत। सच ही दूसरी दुनिया नहीं है। यह मुझे खयाल ही नहीं आया कि अगर मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा, तो फिर क्या होगा? और दूसरी तो दुनिया नहीं है।
अभी जीती नहीं है दुनिया, लेकिन जीतने के खयाल से उदासी आ गई। क्योंकि फिर मोह को फैलाने की और कोई जगह नहीं है। फिर क्या करूंगा! सिकंदर पूछने लगा, लेकिन डायोजनीज, तुम हंसते क्यों हो?
डायोजनीज बोला कि मैं हंसता इसलिए हूं कि तुझे पूरी दुनिया भी मिल जाए, तो भी उदासी ही हाथ में लगेगी। और हमारे पास कुछ भी नहीं है, और हम उदासी को खोजते फिरते हैं और हमें कहीं मिलती नहीं। हमारे पास कुछ भी नहीं है और हम आनंद में हैं। तेरे पास बहुत कुछ है और सब कुछ भी हो जाए, तो भी तू दुख में ही जाएगा।
मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, तो दुख बनता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का फ्रोजन बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए परेशान था।
जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ आदमी परेशान होगा ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही मेरी पीड़ा है।
एक लहर अपने को बचाने में लग जाए, फिर दिक्कत में पड़ेगी। क्योंकि लहर सागर से अलग कुछ है भी नहीं। उठी है, तो भी सागर के कारण; है, तो भी सागर के कारण; मिटेगी, तो भी सागर के कारण। नहीं थी, तब भी सागर में थी; है, तब भी सागर में है; नहीं हो जाएगी, तब भी सागर में होगी।
लेकिन एक लहर अगर सोचने लगे कि मैं अलग हूं; बस, लहर आदमी हो गई! अब लहर वही सब करेगी, जो आदमी करेगा। अब लहर सब तरफ से अपने को बचाने की कोशिश करेगी। भयभीत होगी मिट न जा, डरेगी। इस डर की कोशिश में लहर क्या कर सकती है? फ्रोजन हो जाए, बर्फ बन जाए, तो बच सकती है। सिकुड़ जाए, मर जाए। क्योंकि लहर तभी तक जिंदा है, जब तक बर्फ नहीं बनी। सब तरफ से सिकुड़ जाए, सख्त हो जाए।
अहंकार फ्रोजन हो जाता है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, लिक्विड नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता।
अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता।
यह भी खयाल रख लें कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता है, जब मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं।
असल में हम मोह को प्रेम कहकर बचाते रहते हैं। धोखा देने में हमारा कोई मुकाबला नहीं है! हम मोह को प्रेम कहते हैं। बाप बेटे से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पत्नी पति से कहती है कि मैं तुझे प्रेम करती हूं। मोह है।
इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं सिर्फ। अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए मालूम पड़ते हैं। वह सिर्फ मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब दूसरा भी अपना ही मालूम पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर सकते हैं, जो नहीं रहे। बड़ी उलटी बातें हैं।
जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो हैं, बचे हैं, वे सिर्फ मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही रास्ता है। प्रेम तो मिटने का रास्ता है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं कर सकता, जिसको अपने को बचाना है।
इसलिए देखें, जितना आदमी जीवन को बचाने की चेष्टा में रत होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोड़ी बड़ी होती जाएगी, प्रेम रिक्त होता जाएगा। मकान बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता जाएगा।
दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम की खबर भी नहीं मिलेगी। क्यों? क्या हो गया? असल में समृद्ध होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता।
कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हूं, इस घोषणा का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है।
लेकिन यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती। परम हर्षोन्माद का क्षण है वह--परम हर्षोन्माद का, अल्टिमेट एक्सटैसी का। नाच उठता है फिर रोआं-रोआं; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। लेकिन गीत--अनगाए, आदमी के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे नहीं। नृत्य--अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था संयोजन नहीं।
एक बाउल फकीर गुजर रहा है बंगाल के किसी गांव से। लोग इकट्ठे हो गए हैं। बाउल नाच रहा है। तंबूरा बजा रहा है। हाथ ठीक पड़ते नहीं, व्यवस्था नहीं, सुर-संगीत नहीं, पैरों में ताल नहीं। कोई पूछता है, नाचना ठीक से आता नहीं, तो नाचते क्यों हो? बाउल फकीर कहता है, नाचता नहीं, नचाया जा रहा हूं। व्यवस्था, ताल-सुर की खबर कौन रखे? वह बचा ही नहीं, जो व्यवस्था कर सकता था। अब तो बहा जा रहा हूं। लोग पूछते हैं, ये जो गीत गा रहे, इनका अर्थ क्या? वह बाउल कहता है, मुझे पता नहीं। मैं जब तक था, तब तक ये गीत न थे। अब ये गीत हैं, तो मैं नहीं। अर्थ कौन बताए? अर्थ जान लोगे उस दिन, जब गीत तुम्हारे भीतर भी पैदा हों और तुम भी नाच सको। अनुभव ही अर्थ है।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन का, होने का।
मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, सूर्य के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।
इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, दंडवत करके, विनम्रता से, छोड़कर अपने को, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को मेरे साथ एक ही जान पाता है, अर्जुन!


प्रश्न:

भगवान श्री, श्लोक के अंतिम हिस्से में यह कहा गया है कि इस ज्ञान के द्वारा तू संपूर्ण भूतों को सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप देखेगा तथा मेरे में अर्थात सच्चिदानंद रूप में एकीभाव हुआ सब कुछ सच्चिदानंदमय ही देखेगा। इसका अर्थ और अधिक स्पष्ट करने की कृपा करें।


स ज्ञान में डूबा हुआ, इस ज्ञान में मुक्त हुआ, तू सर्व भूतों को सच्चिदानंद रूप देखेगा।
सर्व भूतों को! भूत का अर्थ होता है, अस्तित्ववान, दि एक्झिस्टेंट, जो भी है। जो भी है, अस्तित्व जिसका है, उस सब में तू सच्चिदानंद को देखेगा। पत्थर में भी, पृथ्वी में भी, आकाश में भी; सब ओर, जो भी तू जानेगा, जानेगा सच्चिदानंद रूप है। क्यों? ऐसा क्यों होगा?
अभी हम क्या जानते हैं? अभी हमारा जानना क्या है? अभी हमारी प्रतीति क्या है? अभी हमारी प्रतीति है कि जो भी है, सब पदार्थ है। जो भी है, पदार्थ है, परमात्मा नहीं। पदार्थ दिखाई पड़ता है। अगर परमात्मा को कभी हम मान भी लेते हैं, तो वह सिर्फ मान्यता होती है, अनुभव नहीं होता। दिखता पदार्थ है।
एक मित्र को मेरे पास लाए थे। कहने लगे, पदार्थ में भी मुझे परमात्मा दिखता है; पत्थर में भी मुझे परमात्मा दिखता है। दो-चार दिन मेरे साथ थे। बगीचे में घूमते वक्त पत्थर उठाकर मैंने उनके पैर पर दे मारा। कहने लगे, पत्थर क्यों मारा? खून निकल आया! मैंने कहा, कहना था तुम्हें, परमात्मा क्यों मारा? कहते हो, पत्थर क्यों मारा? खून निकल आया; कहना था, परमात्मा निकल आया। पत्थर लगा तो चेहरा और हो जाता है; परमात्मा लगे तो और होना चाहिए था! कहने लगे, इसका यह मतलब थोड़े ही है कि कोई मुझे पत्थर मार दे! तब तो कोई मेरी हत्या ही कर दे। कल आप गर्दन पर मेरी छुरी ही चला दें और कहें कि छुरी भी परमात्मा है!
मान्यता थी विचारों की। मानते थे कि सब में है, दिखाई नहीं पड़ता था। दिखाई पड़ना बात और है। हमें तो पदार्थ दिखाई पड़ता है। सर्व भूत हमें पदार्थ हैं, मैटीरियल हैं।
पदार्थ का क्या मतलब होता है? पदार्थ का मतलब होता है, जिसमें आकार है, निराकार नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, जिसमें वस्तु है, आत्मा नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, जिसका अस्तित्व है, व्यक्तित्व नहीं। जो है, अस्तित्ववान, लेकिन जिसका जीवन नहीं है। हमें क्यों दिखाई पड़ता है ऐसा?
असल में, हमें वही दिखाई पड़ सकता है, जो हम हैं। हमें भीतर भी नहीं मालूम पड़ता कि कोई आत्मा है, कोई परमात्मा है। वह भी हमारी मान्यता है। वह भी सुनते हैं, पढ़ते हैं। कोई कहता है, तो समझ लेते हैं। गहरे में हम जानते हैं कि हम शरीर हैं। मैं शरीर हूं, यही गहरे में हम जानते हैं। जो हम अपने बाबत जानते हैं, उससे ज्यादा हम दूसरे के बाबत नहीं जान सकते। जितना हम अपने बाबत जानते हैं, उससे ज्यादा हम संसार के बाबत नहीं जान सकते। हमारे अपने स्वानुभव की सीढ़ी ही हमारे परानुभव की सीढ़ी है।
अगर ठीक से समझें, तो जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा उसमें देखते हैं। जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा उसमें देखते हैं। अगर पत्थर में सिर्फ पत्थर दिखाई पड़ता है, तो समझ लेना कि अपने भीतर भी शरीर से ज्यादा का कोई अनुभव नहीं है।
ठीक भी है। हम जो अपने भीतर नहीं जानते, उसे हम बाहर कैसे जान सकते हैं? जिस आदमी के सिर में दर्द नहीं हुआ, आप उससे कहिए कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है; वह भौचक्का खड़ा रह जाता है। वह कहता है, कैसा दर्द? सिर में दर्द होता है कभी? कैसा होता है? उसे कुछ पता नहीं चलता। पता चले भी कैसे! वही पता चल सकता है, जो इसके पहले उसे पता चल चुका हो। हम अपने अनुभव से समझते हैं; उसके अतिरिक्त समझने का कोई उपाय नहीं है। मानते हैं अपने को शरीर, वही मोह का, अज्ञान का परिणाम है। देखते हैं, जगत को पदार्थ।
जिस दिन ज्ञान की घटना घटती है--टूटता है मोह का तमस, टूटता है भ्रम शरीर का; बोध होता है स्वयं की चेतना का, चैतन्य का, कांशसनेस का--उसी क्षण सारा जगत चैतन्य हो जाता है। उसी क्षण, युगपत! एक क्षण की भी फिर देरी नहीं लगती; एक सेकेंड की भी फिर देरी नहीं लगती। इधर भीतर जाना कि मैं चेतना हूं, आंख खोली कि दिखता है कि सब चेतना है। एक क्षण में सब बदल जाता है, एक क्षण में!
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जब ज्ञान की धारा भीतर बहती है और मोह का अंधकार टूटता है अर्जुन, तो सर्व भूतों में सच्चिदानंद दिखाई पड़ने लगता है। सर्व भूतों में, सर्व अस्तित्ववान में, जो भी है, फिर वही परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है।
कभी जब ऐसा घटता है, जब सब में परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है, तो स्वभावतः जीवन में फिर कहीं दुख नहीं रह जाता, शत्रु नहीं रह जाता। क्योंकि शत्रु में परमात्मा देखना, तो फिर परमात्मा में शत्रु देखना असंभव है। फिर मृत्यु नहीं रह जाती, क्योंकि परमात्मा की मृत्यु असंभव है। फिर कोई धोखा देने वाला नहीं रह जाता, क्योंकि परमात्मा धोखा दे, ऐसी धारणा असंभव है। फिर सब प्रीतिकर हो जाता है। सब प्रेमपूर्ण हो जाता है। शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। मृत्यु भी जीवन हो जाती है।
इस अनुभूति को तभी उपलब्ध किया जा सकता है, जब भीतर से मोह टूटे। क्यों? क्योंकि मोह की हिप्नोसिस, मोह का सम्मोहन हमें शरीर बनाए हुए है। शरीर हम हैं नहीं। शरीर भी शरीर नहीं है। लेकिन सम्मोहन हमें बनाए हुए है। मोह, सम्मोह, एक ही बात के दो नाम हैं। जिसको अंग्रेजी में हिप्नोसिस कहते हैं, उसी को सम्मोह कहते हैं, उसी को मोह कहते हैं।
सम्मोह को अगर खयाल में ले लें और सम्मोहन की प्रक्रिया को, तो आपको पता चलेगा कि जो हम नहीं हैं, उसकी धारणा बन जाती है।
अगर आपने कभी किसी सम्मोहन करने वाले कुशल व्यक्ति को देखा है, तो आप हैरान रह गए होंगे। एक आदमी को सम्मोहित कर दो। सम्मोहित कर दो अर्थात बेहोश कर दो। सुझाव दो, सजेस्ट करो, कि तू बेहोश हो रहा है। और अगर वह कोआपरेट करे, सहयोग दे, तो बहुत जल्दी बेहोश हो जाएगा। जब बेहोश हो जाए, तब उस आदमी से कहो कि तुम पुरुष नहीं हो, स्त्री हो। वह आदमी मान लेगा कि स्त्री है। फिर उससे कहो, उठो और चलो; तो वह स्त्री की चाल चलेगा, पुरुष की चाल नहीं चलेगा। वह स्त्रियों जैसे हाथ मटकाएगा, पुरुषों जैसे हाथ नहीं मटका सकेगा। उसका ढंग स्त्रैण हो जाएगा। क्या हो गया उसको?
मान लिया उसके मन ने कि मैं स्त्री हूं, वह स्त्री हो गया। मान लिया उसके मन ने कि वह स्त्री है, वह स्त्री हो गया! उससे आप पूछो सवाल, वह जवाब स्त्रैण देगा। वह स्त्रीलिंग का प्रयोग करेगा। वह कहेगा, मैं जाती हूं। वह नहीं कहेगा, मैं जाता हूं। क्या हो गया उसे? धारणा पकड़ गई कि मैं स्त्री हूं। मन है बेहोश, बेहोशी में जो कह दिया गया, वह उसने मान लिया।
बचपन में जैसे ही हम पैदा होते हैं, चारों तरफ की व्यवस्था हमें सम्मोहित करती है कि तुम शरीर हो। चारों तरफ अज्ञानियों का जाल है। मां है, बाप है, भाई है, बहन है, स्कूल है, शिक्षक है, सब तरफ जाल है अज्ञानियों का, वह सम्मोहित करता है कि तुम शरीर हो। सब इशारे शरीर की तरफ हैं।
इसलिए जिनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे हैं, वे ज्यादा शरीर हो जाते हैं। स्त्रियां ज्यादा शरीर हो जाती हैं पुरुषों की बजाय; क्योंकि उनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे होते हैं। वे ज्यादा सचेत हो जाती हैं, ज्यादा कांशस हो जाती हैं कि शरीर है। फिर शरीर के साथ ही उनकी जिंदगी बंध जाती है; फिर शरीर को भूलना उन्हें मुश्किल हो जाता है। गहरे सम्मोहन बैठ जाता है मन में कि मैं शरीर हूं।
यह सम्मोहन टूटे न, तो भीतर की आत्मा का अनुभव नहीं होता। यह सम्मोहन टूट जाए, तो भीतर की आत्मा का अनुभव होता है।
इस सम्मोहन के टूटने पर जब जाना जाता है कि मैं आत्मा हूं, उसी क्षण जाना जाता है कि सब आत्माएं हैं। सच तो यह है कि यह कहना कि सब आत्माएं हैं, ठीक नहीं। क्योंकि जिस क्षण जाना जाता है कि सब आत्माएं हैं, उस क्षण एक ही परमात्मा शेष रह जाता है। दो नहीं रह जाते। क्योंकि आकार हों, तो दो हो सकते हैं; निराकार हो, तो एक ही हो सकता है। निराकार दो नहीं हो सकते। अगर निराकार दो हों, तो फिर आकार उनमें आ जाएगा, क्योंकि दोनों एक-दूसरे की सीमा बनाएंगे। जहां सीमा बनी, वहीं आकार शुरू हो जाएगा।
निराकार एक है। शरीर अनेक हो सकते हैं, आत्मा एक ही हो सकती है। उसका कोई आकार नहीं है। तब बाहर और भीतर एक ही सच्चिदानंद ब्रह्म के दर्शन शुरू होते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, मोह की निशा जब टूट जाती और जब ज्ञान की सुबह होती, तो अंधेरे में जिन्हें अलग-अलग जाना था, उजाले में वे सब एक मालूम पड़ते हैं। अंधेरे में जिन्हें पदार्थ जाना था, प्रकाश में वे परमात्मा मालूम पड़ते हैं।


प्रश्न:

भगवान श्री, ज्ञान के अनुभव को सत, चित, आनंद क्यों कहा जाता है? इसे संक्षिप्त में स्पष्ट करने की कृपा करें।

ज्ञान का अनुभव सच्चिदानंद का अनुभव क्यों कहा जाता है?
ज्ञान के अनुभव में तीन प्रतीतियां प्रगाढ़ होकर प्रकट होती हैं--सत की, चित की, आनंद की। सत का अर्थ है, हूं; मैं नहीं, सिर्फ हूं। मैं हूं, ऐसा हमारा अनुभव है। ज्ञान के अनुभव में मैं गिर जाता, हूं बच रहता। अज्ञान के अनुभव में मैं प्रगाढ़ होता, हूं सिर्फ पूंछ की तरह सरकता रहता। मैं होता हाथी, हूं होती पूंछ। न हो, तो भी चल जाता। पूंछ के बिना हाथी हो सकता। अक्सर होता है। मैं का हाथी पूंछ के बिना ही होता है। हूं सिर्फ उपयोग होता है भाषा का।
जिस दिन अज्ञान टूटता, मैं गिर जाता, हूं बचता। हूं हाथी हो जाता--पूंछ भी, सिर भी, सभी कुछ। हूं का अनुभव सत का अनुभव है, एक्सपीरिएंस आफ दि एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्व का अनुभव।
खयाल रखें, जब हम कहते हैं, मैं हूं; तो लगता है, मैं अलग हूं और होना अलग है। जब हम कहते हैं, हूं; तो लगता है, होना और मैं एक ही चीज है।
इसीलिए अज्ञानी को मरने का डर लगता है। क्योंकि जो कहता है, मैं हूं, उसे डर लगता है कि नहीं हूं भी हो सकता हूं। हूं, तो नहीं हूं भी हो सकता हूं। रात है, नहीं भी हो जाती है। दिन है, नहीं भी हो जाता है। लेकिन है कभी नहीं नहीं होता। तो जिस चीज को हम कहते हैं, है; वह नहीं है भी हो सकती है। सिर्फ एक ही चीज है जगत में है, है पन, इज़नेस, वह कभी नहीं नहीं होती। हूं का मतलब है, इज़नेस, एमनेस, वह कभी नहीं नहीं होती।
सत का अर्थ है, अस्तित्व है, जो कभी नहीं नहीं होता; सनातन, शाश्वत, नित्य, सदा, सदैव, समय के बाहर। यह अनुभव पहला होता है, जैसे ही ज्ञान का विस्फोट होता है।
दूसरा अनुभव होता है कि अस्तित्व अकेला अस्तित्व ही नहीं है, सचेतन भी है। एक्झिस्टेंस एक्झिस्टेंस ही नहीं है, कांशस एक्झिस्टेंस है--चित, कांशसनेस, चेतन। अस्तित्व सिर्फ अस्तित्व ही हो, तो पदार्थ हो जाएगा। अस्तित्व सचेतन हो, तो परमात्मा हो जाएगा। हमें भी अस्तित्व का पता चलता है। जिनको खयाल है, मैं हूं, उनको भी पता चलता है कि अस्तित्व है। लेकिन अस्तित्व सचेतन पता नहीं चलता। जिनको पता चलता है, मैं तो नहीं, हूं ही, सिर्फ होना ही है, उनको तत्काल पता चलता है, अस्तित्व सचेतन है।
सब कुछ सचेतन है। निर्जीव, निश्चेतन, कुछ भी नहीं है। हां, चेतना के हजार-हजार तल हैं, जिन्हें हम पहचान नहीं पाते। हम कहते हैं, वृक्ष चेतन है, समझ नहीं पड़ता। क्योंकि हम बात नहीं कर पाते वृक्ष से, बोल नहीं पाते, चर्चा नहीं कर पाते। फिर कैसे मानें कि चेतन है? अचेतन लगता है। लेकिन वृक्ष की भी अपनी भाषा हो सकती है। और अगर वृक्ष की अपनी भाषा हो, तो आदमी अचेतन मालूम पड़ता होगा। क्योंकि आदमी की भाषा उसकी समझ में नहीं पड़ेगी।
पत्थर है। फिर वृक्ष तो थोड़ा चेतन मालूम पड़ता है--बढ़ता है, घटता है, खिलता है; तोड़ दो उसकी शाखा, तो मुर्झाता है। कुछ-कुछ आदमी की भाषा में पकड़ आता है। पत्थर! फोड़ दो, तो कुछ उदासी नहीं आती उसमें; तोड़ दो, तो कुछ पता नहीं चलता। शायद उसकी भाषा और भी फारेन है, और भी विजातीय है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, पत्थर भी बोलता है, वृक्ष भी बोलता है; वृक्ष भी देखता है, पत्थर भी देखता है। उनकी चेतना का और डायमेंशन है, और तल है।
समझ लें, करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी गूंगा है, बोलता नहीं, फिर भी हम उसको अचेतन नहीं कहते। क्योंकि हाथ के इशारे से कुछ बता देता है। हाथ के इशारे से बता देता है, इसलिए हम पहचान जाते हैं। क्योंकि गूंगे के पास हाथ हमारे जैसा है, और हाथ का इशारा भी हमारे जैसा है, गेस्चर की भाषा हमारी जैसी है, इसलिए हम पहचान जाते हैं।
एक आदमी बहरा है, उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ता, वज्र बहरा है, स्टोन डेफ है, तो हमारे ओंठ ही हिलते मालूम पड़ते हैं उसे। उसे शब्द सुनाई नहीं पड़ता। उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि शब्द होता है, कि लोग बोलते हैं। बोलने का उसके लिए मतलब होगा, ओंठ का चलाना। इसलिए बहरे हमारे ओंठ को समझने लगते हैं कि आप क्या बोल रहे हैं। ओंठ का चलाना उनके लिए भाषा होती है; ओंठ से निकला हुआ शब्द उनकी भाषा नहीं होती।
जगत हजार आयामी है, अनंत आयामी है। अनंत आयामों पर चेतना है। जिस दिन व्यक्ति जानता है अपनी चेतना की गहराई को, उसी दिन वह सारे जगत की चेतना को भी जान लेता है। इसलिए दूसरा अनुभव होता है चित का, चैतन्य का, सब चैतन्य है।
तीसरा अनुभव होता है आनंद का। तीसरा अनुभव पहले दो अनुभवों का अनिवार्य परिणाम है। जिसने जाना कि मैं नहीं है, उसका दुख गया, क्योंकि सब दुख मैं के साथ जुड़ा है। आप कोशिश करके देखें मैं के बिना दुखी होने की, तब आपको पता चलेगा। मैं के बिना आप दुखी नहीं हो सकते, इंपासिबल है।
और दुखी हों, तो मैं के बिना नहीं हो सकते। अगर दुखी हैं, तो मैं भीतर होगा ही किसी कोने पर; वही दुखी होता है। मैं को लगी चोट ही दुख है। मैं के घाव पर पड़ी चोट ही दुख है। और मैं एक वूंड है, घाव है। मैं चीज नहीं है, सिर्फ एक घाव है।
और खयाल किया कि अगर कहीं भी घाव हो, पैर में जरा चोट लगी हो, तो दिनभर उसी में चोट लगती है! कभी हैरानी होती है कि बात क्या है। आज सारी दुनिया की चीजें क्या मेरे पैर के खिलाफ हो गईं? कल भी इसी दरवाजे से निकला था, तब देहली पैर को नहीं लगी! कल भी इसी आदमी से मिला था, लेकिन तब इसका पैर पैर को नहीं लगा! कल भी भीड़ से गुजरा था, लेकिन पैर को भीड़ ने खयाल नहीं किया। आज जहां भी जाता हूं, पैर है, घाव है।
नहीं; चोट तो रोज लगती थी, लेकिन पता नहीं चलती थी। घाव की वजह से पता चलती है।
मैं एक घाव है, एक वूंड, उसमें पता लगता है पूरे वक्त। जिसका मैं खो गया, उसे चोट का पता नहीं लगता। उसे दर्द, दुख, पीड़ा--आहत अभिमान बड़ी पीड़ा है। सारी पीड़ा वहीं केंद्रित है। मैं गिर गया, दुख गिर गया। निषेधात्मक शर्त पूरी हो गई आनंद के आने की। एक शर्त पूरी हो गई आनंद के उतरने की कि दुख गिर गया। दूसरी शर्त, समस्त चैतन्य है जगत अगर, तो आनंद की पाजिटिव शर्त पूरी हो गई। क्योंकि आनंद हमें तभी मिलता है, जब चेतना चेतना से डायलाग में होती है, एक संवाद में होती है।
अच्छी से अच्छी कुर्सी पर बैठे रहें, अच्छे से अच्छे मकान में रहें अकेले, तो पता चलेगा कि आनंद एक शेयरिंग है, आनंद बांटना है। बंटता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता। फैलता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता।
इसलिए प्रियजन के पास बैठकर जो आनंद मिलता है, वह स्वर्ण-सिंहासन पर भी नहीं मिलता। क्योंकि स्वर्ण-सिंहासन से कोई डायलाग नहीं हो सकता। और अगर स्वर्ण-सिंहासन पर ही किसी को बैठने दिया जाए और शर्त रखी जाए कि स्वर्ण-सिंहासन पर बैठो, स्वर्ण की थालियों में भोजन करो, बहुमूल्य से बहुमूल्य भोजन होगा, लेकिन आदमी से भर बात नहीं कर सकोगे, तो आदमी कहेगा कि हम झोपड़े में रहने को तैयार हैं; स्वर्ण-सिंहासन नहीं चाहिए। बात क्या है?
स्वर्ण-सिंहासन से डायलाग नहीं हो सकता। स्वर्ण-सिंहासन से कहीं मेल नहीं हो सकता; कहीं दो हृदय नहीं मिल सकते, हार्ट टु हार्ट कोई चर्चा नहीं हो सकती; कुछ बांटा नहीं जा सकता। कुछ लिया-दिया नहीं जा सकता; कोई लेन-देन नहीं हो सकता। और जीवन सदा ही लेन-देन है। जीवन सदा ही, जैसे श्वास आती और जाती है, ऐसा ही है--आना और जाना, पूरे क्षण।
जब हम एक व्यक्ति को कभी अपने निकट पाते हैं और जब कभी कोई एक व्यक्ति के प्रति हम इतने प्रेम से भर जाते हैं कि उसका शरीर हमें भूल जाता है--और ध्यान रहे, जिसका शरीर न भूले, उससे हमारा प्रेम नहीं है। प्रेम के क्षण में अगर शरीर याद रहे, तो समझना कि काम है, सेक्स है, प्रेम नहीं है। अगर प्रेम के क्षण में शरीर भूल जाए दूसरे का और वह आत्मा ही प्रतीत होने लगे, तो समझना कि प्रेम है।
इसीलिए तो प्रेम में आनंद मिलता है। क्योंकि एक व्यक्ति सचेतन हो जाता है; वस्तु नहीं रह जाता, व्यक्ति हो जाता है। एक आत्मा साथ हो जाती है। दो आत्माएं निकट होकर अपूर्व आनंद को अनुभव करती हैं। दो आत्माओं की निकटता ही आनंद है।
लेकिन जब सारा ही जगत आत्मवान हो जाता है, तब तो आनंद का हम क्या हिसाब लगाएं! जब वृक्ष के पास से निकलते हैं, तो वह भी डायलाग होता है। जब वृक्ष के पास खड़े होते हैं, तो मौन उससे भी मिलन होता है। जब पत्थर के पास होते हैं, तब उससे भी स्पर्श होता है वही, प्रेम का। जब आकाश की तरफ देखते हैं, तो विराट आकाश भी एक बड़ी आत्मा की तरह हम पर झुक आता है और हमें सब तरफ से घेर लेता है। जब सागर की लहरों के पास खड़े होते हैं, तो सागर की आत्मा भी लहरों से हमारी तरफ आती है, उछलती और कूदती हुई दिखाई पड़ती है। जब तारों की तरफ देखते हैं, तो उनसे आती हुई रोशनी भी कुछ संदेश लाती है; पत्रवाहक, वे किरणें भी मैसेंजर्स हो जाती हैं।
जब चारों तरफ से संदेश मिलने लगते हैं जीवन के और आत्मा के, तो सब तरफ चैतन्य का ही अनुभव होता है। जब सब तरफ मिलन घटने लगता है--क्योंकि जहां शरीर हटा, मिलन ही मिलन है, महामिलन है--उस क्षण आनंद फलित होता है। इसलिए तीसरी बात, दो का परिणाम है। जो दो को उपलब्ध हो गया, तीसरा तत्काल खिल जाता है फूल की भांति--ब्लिस।
हमें आनंद का कोई पता नहीं है। हम कभी-कभी जिसको आनंद कहते हैं, वह आनंद नहीं होता, सिर्फ भ्रम होता है। क्योंकि आनंद तो घटित ही तब हो सकता है, जब मैं न रहे और जब पदार्थ न रहे। दो चीजें मिटें, तो आनंद घटित होता है। अहंकार मिटे और पदार्थ मिटे; भीतर मिटे अहंकार, बाहर मिटे पदार्थ; भीतर हो आत्मा, बाहर हो आत्मा, भीतर हो चैतन्य, बाहर हो चैतन्य--दोनों के बीच की सारी दीवाल गिर जाए, तब सारा अस्तित्व नाच उठता है।
आनंद! आनंद बहुत अनूठा शब्द है। अनूठा इसलिए कि आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख के विपरीत दुख है। प्रेम के विपरीत घृणा है। क्षमा के विपरीत क्रोध है। जन्म के विपरीत मृत्यु है। आनंद अद्वैतवाची है, उसके विपरीत कोई शब्द नहीं है। आनंद के विपरीत कोई स्थिति भी नहीं है।
सुख आता है, तो जानना कि दुख आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। दुख आए, तो घबड़ाना मत; जानना कि सुख आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। सुबह आए, तो डरना मत; सांझ आएगी। सांझ आए, तो डरना मत; सुबह आएगी। विपरीत का वर्तुल है, पोलेरेटीज, धु्रवीय, घूमता रहता है। घड़ी के कांटे की तरह है। फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। घड़ी के कांटे बारह पर मिलते हैं एक सेकेंड को; एक हो जाते, अद्वैत हो जाता एक सेकेंड को। हो भी नहीं पाया, कि द्वैत शुरू हो जाता है।
आनंद द्वैत का अंत है; फिर द्वैत कभी शुरू नहीं होता। आनंद सुख नहीं है। सुख की कोई बहुत बड़ी मात्रा भी नहीं है आनंद। सुख का कोई बहुत गहन और घना, डेंस रूप भी नहीं है आनंद। आनंद का सुख से कोई संबंध नहीं है; उतना ही संबंध है, जितना दुख से है। आनंद न दुख है, न सुख। जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, वहां जो घटित होता है, वह आनंद है।
दुख के लिए भी अहंकार चाहिए, सुख के लिए भी अहंकार चाहिए। आनंद के लिए अहंकार नहीं चाहिए। दुख के लिए भी पदार्थ चाहिए, सुख के लिए भी पदार्थ चाहिए। आनंद के लिए पदार्थ बिलकुल नहीं चाहिए।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जैसे ही ज्ञान की यह घटना घटती है, वैसे ही सच्चिदानंद रूप--सत, चित, आनंद रूप--में लीन हो जाता है व्यक्ति!
इसलिए परमात्मा के लिए जो निकटतम शब्द है आदमी के पास, वह सच्चिदानंद है। निकटतम, कम से कम गलत। गलत तो होगा ही; कम से कम गलत। गलत होगा ही; क्योंकि हमारा यह शब्द भी तीन की खबर लाता है, और वहां एक है। इससे लगता है कि तीन होंगे; वहां एक है। वह एक जब हम भाषा में बोलते हैं, तो तत्काल तीन हो जाता है। वहां सत का अनुभव, चित का अनुभव, आनंद का अनुभव, एक ही अनुभव है। लेकिन जब हम बोलते हैं, तो तत्काल प्रिज्म भाषा का तोड़ देता तीन में। फिर समझाने जाते हैं, तो हजार शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। फिर उनको भी समझाने जाएं, तो लाख शब्द हो जाते हैं। सब फैल जाता है।
वहां गहन एक है; फिर सब फैलाव होता चला जाता है। जितना समझाने की कोशिश करें, उतना शब्दों का ज्यादा उपयोग करना पड़ता है। कम से कम, दि मिनिमम, जो आदमी की भाषा कर सकती है, वह तीन है। तीन से पीछे भाषा नहीं जा सकती; एक तक भाषा नहीं जा सकती है। बस, तीन पर भाषा मर जाती है। तीन के पीछे एक है। वह एक है। इसलिए हमने त्रिमूर्ति भगवान की मूर्ति बनाई।
खयाल किया आपने, चेहरे तीन, और आदमी एक। चेहरे तीन, और मूर्ति एक। शक्लें तीन, और प्राण एक। देह एक, और चेहरे तीन। बाहर से देखो, तो तीन चेहरे। उस मूर्ति के भीतर खड़े हो जाओ, मूर्ति बन जाओ, तो फिर एक। समझाने के लिए तीन, जानने के लिए एक। व्याख्या के लिए तीन, अनुभव के लिए एक।
इसलिए कृष्ण ने दो बातें कहीं। उन्होंने कहा, वैसा व्यक्ति मुझको उपलब्ध हो जाता है। यह एक की तरफ इशारा करने को। फिर कहा, सच्चिदानंद रूप को, यह समझाने के लिए, तीन की तरफ इशारा करने को।
एक आखिरी श्लोक और।

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि।। 36।।
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। 37।।

र यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निस्संदेह संपूर्ण पापों को अच्छी प्रकार तर जाएगा।
क्योंकि हे अर्जुन, जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्मसात कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को भस्मसात कर देता है।


यह सूत्र बहुत अदभुत है और आपके बहुत काम का भी। यह प्रश्न सनातन है, सदा ही पूछा जाता है।
बहुत हैं पाप आदमी के, अनंत हैं, अनंत जन्मों के हैं। गहन, लंबी है शृंखला पाप की। इस लंबी पाप की शृंखला को क्या ज्ञान का एक अनुभव तोड़ पाएगा? इतने बड़े विराट पाप को क्या ज्ञान की एक किरण नष्ट कर पाएगी?
जो नीतिशास्त्री हैं--नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी पता नहीं, जिनका चिंतन पाप और पुण्य से ऊपर कभी गया नहीं--वे कहेंगे, जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। एक-एक पाप को एक-एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब बैलेंस, तब ऋण-धन बराबर होगा; तब हानि-लाभ बराबर होगा और व्यक्ति मुक्त होगा।
जो नीतिशास्त्री हैं, मारलिस्ट हैं, जिन्हें आत्म-अनुभव का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें बीइंग का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं; जो सिर्फ डीड का, कर्म का हिसाब-किताब रखते हैं; वे कहेंगे, एक-एक पाप के लिए एक-एक पुण्य से साधना पड़ेगा। अगर अनंत पाप हैं, तो अनंत पुण्यों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं।
लेकिन तब मुक्ति असंभव है। दो कारणों से असंभव है। एक तो इसलिए असंभव है कि अनंत शृंखला है पाप की, अनंत पुण्यों की शृंखला करनी पड़ेगी। और इसलिए भी असंभव है कि कितने ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं।
एक आदमी धर्मशाला बनाए, तो पहले ब्लैक मार्केट करे! ब्लैक मार्केट के बिना धर्मशाला नहीं बन सकती। एक आदमी मंदिर बनाए, तो पहले लोगों की गर्दनें काटे। गर्दनें काटे बिना मंदिर की नींव का पत्थर नहीं पड़ता। एक आदमी पुण्य करने के लिए, कम से कम जीएगा तो! और जीने में ही हजार पाप हो जाते हैं। चलेगा तो; हिंसा होगी। उठेगा तो; हिंसा होगी। बैठेगा तो; हिंसा होगी। श्वास तो लेगा!
वैज्ञानिक कहते हैं, एक श्वास में कोई एक लाख छोटे जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। बोलेगा तो! एक बार ओंठ ओंठ से मिला और खुला तो करीब एक लाख सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। किसी का चुंबन आप लेते हैं, लाखों जीवाणुओं का आदान-प्रदान हो जाता है। कई मर जाते हैं बेचारे!
जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो जाएगा। कम से कम जीएंगे तो पुण्य करने के लिए! तब तो यह अनंत वर्तुल है, विसियस सर्किल है, दुष्टचक्र है; इसके बाहर आप जा नहीं सकते। अगर पुण्य से पाप को काटने की कोशिश की, तो पुण्य करने में पाप हो जाएगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, तो फिर उस पुण्य करने में पाप हो जाएगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा। हर बार पुण्य से काटेंगे। पुण्य नए पाप करवा जाएगा। यह वर्तुल कभी अंत नहीं होगा। यह सर्किल विसियस है।
इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि कभी मुक्ति तक नहीं जा सकती। नैतिक दृष्टि तो चक्कर में ही पड़ी रह जाती है।
कृष्ण एक बहुत ही और दृष्टि की बात कर रहे हैं। और जो भी जानते हैं, वे वही बात करेंगे। कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू अगर सब पापियों में भी सबसे बड़ा पापी है, दि ग्रेटेस्ट सिनर; अस्तित्व में जितने पापी हैं, उनमें तू सबसे बड़ा पापी है, तो भी ज्ञान की एक घटना तेरे सब पापों को क्षीण कर देगी। क्या मतलब हुआ इसका?
इसका मतलब यही हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती, पाप की कोई डेंसिटी नहीं होती। पाप है अंधेरे की तरह। एक घर में अंधेरा है हजार साल से, दरवाजे बंद हैं और ताले बंद हैं। हजार साल पुराना अंधेरा है। तो क्या आप दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा, इतने से काम नहीं चलता! आप हजार साल तक दीए जलाएं, तब मैं कटूंगा!
नहीं; आपने दीया जलाया कि हजार साल पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं हजार साल पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता है कि हजार सालों में बहुत सघन, कनडेंस्ड हो गया हूं, इसलिए दीए की इतनी छोटी-सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती!
हजार साल पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही बराबर डेंसिटी के होते हैं। या कहना चाहिए कि नो डेंसिटी के होते हैं; उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं; क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस, आज आपने जलाई काड़ी, अंधेरा गया--अभी और यहीं।
हां, अगर कोई अंधेरे को पोटलियों में बांधकर फेंकना चाहे, तो फिर मारेलिस्ट का काम कर रहा है, नैतिकवादी का। वह कहता है, जितना अंधेरा है, उसको बांधो टोकरी में, बाहर फेंक कर आओ। फेंकते रहो टोकरी बाहर और भीतर, अंधेरा अपनी जगह रहेगा। आप चुक जाओगे, अंधेरा नहीं चुकेगा।
पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है।
ध्यान रखें, पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य बिना पाप के नहीं हो सकता है। पाप को सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है। ज्ञान कोई कृत्य नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े। ज्ञान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है। जला, कि सब अंधेरा गया।
फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किए थे। क्योंकि जब मैं ही चला जाए, तो सब खाते-बही भी उसी के साथ चले जाते हैं। फिर आदमी अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाता है। क्या कभी आपने ऐसा सवाल नहीं उठाया, सुबह हम उठते हैं, रातभर सपना देखा, तो जरा-सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, इतने से हिलाने से रातभर का सपना टूट सकता है?
नहीं, जरा-सा किसी ने हिलाया; पलक खुली; सपना गया। फिर आप यह नहीं कहते कि अब रातभर इतना सपना देखा, तो अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा, तब सपना मिटेगा। सपना टूट जाता है।
पाप सपने की भांति है। ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है, वह है कि पाप स्वप्न की भांति है। फिर पुण्य भी स्वप्न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते हैं। सपने सपने से काटेंगे, तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा।
सपने सपने से नहीं कटते, क्योंकि सपनों को सपनों से काटने में सपने बढ़ते हैं। और सपने यथार्थ से भी नहीं काटे जा सकते; क्योंकि जो झूठ है, वह सच से काटा नहीं जा सकता। जो असत्य है, वह सत्य से काटा नहीं जा सकता। वह इतना भी तो नहीं है कि काटा जा सके। वह सत्य की मौजूदगी पर नहीं पाया जाता है; काटने को भी नहीं पाया जाता है।
इसलिए कृष्ण कहते कि कितना ही बड़ा पापी हो तू, सबसे बड़ा पापी हो तू, तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि ज्ञान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाती है। सुबह जैसे कोई जाग जाता--रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त। जागे हुए आदमी को सपनों से कुछ लेना-देना नहीं रह जाता।
इसलिए जब पहली बार भारत के ग्रंथ पश्चिम में अनुवादित हुए, तो उन्होंने कहा, ये ग्रंथ तो इम्मारल मालूम होते हैं, अनैतिक मालूम होते हैं। खुद शॉपेनहार को चिंता हुई। मनीषी था गहरा। चिंतक था गहरा। उसको खुद चिंता हुई कि ये किस तरह की बातें हैं! ये कहते हैं कि एक क्षण में कट जाएंगे!
क्रिश्चियनिटी कभी भी नहीं समझ पाई इस बात को। ईसाइयत कभी नहीं समझ पाई इस बात को। एक क्षण में? क्योंकि ईसाइयत ने पाप को बहुत भारी मूल्य दे दिया, बहुत गंभीरता से ले लिया। सपने की तरह नहीं, असलियत की तरह। ईसाइयत के ऊपर पाप का भार बहुत गहरा है, बर्डन बहुत गहरा है। ओरिजिनल सिन! एक-एक आदमी का पाप तो है ही; वह पहले आदमी ने जो पाप किया था, वह भी सब आदमियों की छाती पर है। उसको काटना बहुत मुश्किल है।
इसलिए क्रिश्चियनिटी गिल्ट रिडेन हो गई; अपराध का भाव भारी हो गया। और पाप से कोई छुटकारा नहीं दिखाई पड़ता। कितने ही पुण्य से नहीं छुटकारा दिखाई पड़ता। इसलिए ईसाइयत गहरे में जाकर रुग्ण हो गई।
जीसस को नहीं था यह खयाल। लेकिन ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पाई; जैसा कि सदा होता है। हिंदू कृष्ण को नहीं समझ पाए। जैन महावीर को नहीं समझ पाए। ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पाई।
न समझने वाले समझने का जब दावा करते हैं, तो उपद्रव शुरू हो जाता है। जीसस ने कहा, सीक यी फर्स्ट दि किंगडम आफ गॉड एंड आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। जीसस ने कहा कि सिर्फ प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब तुम्हें मिल जाएगा। वही जो कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ प्रकाश की किरण को खोज लो और शेष सब, जो तुम छोड़ना चाहते हो, छूट जाएगा; जो तुम पाना चाहते हो, मिल जाएगा।
भारतीय चिंतन इम्मारल नहीं है, एमारल है; अनैतिक नहीं है, अतिनैतिक है, सुपर मारल है, नीति के पार जाता है। यह वक्तव्य बहुत एमारल है, अतिनैतिक है। यह नीति-अनीति के पार चला जाता है, पुण्य-पाप के पार चला जाता है।
शेष फिर रात हम बात करेंगे।
अब कीर्तन में, धुन में संन्यासी डूबेंगे। जो मित्र सम्मिलित होना चाहें, वे सम्मिलित हो जाएं। अन्यथा बैठे रहें अपनी जगह। कम से कम ताली में साथ दें, धुन में साथ दें, बैठकर अपनी जगह। एक दस मिनट के लिए भूलें बुद्धि को, भूलें चिंतन को, भूलें विचार को।

शेष कल आज इतना ही।


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