ज्ञान
विजय है (अध्याय-6)
प्रवचन—चौथा
जितात्मनः प्रशान्तस्य
परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु
तथा मानापमानयोः।।
7।।
और
हे अर्जुन, सर्दी-गर्मी
और सुख-दुखादिकों
में तथा मान
और अपमान में
जिसके
अंतःकरण की वृत्तियां
अच्छी प्रकार
शांत हैं
अर्थात विकाररहित
हैं, ऐसे
स्वाधीन
आत्मा वाले
पुरुष के
ज्ञान में सच्चिदानंदघन
परमात्मा
सम्यक प्रकार
से स्थित है
अर्थात उसके
ज्ञान में
परमात्मा के
सिवाय अन्य
कुछ है ही
नहीं।
सुख-दुख
में, प्रीतिकर-अप्रीतिकर
में, सफलता-
असफलता में, जीवन के
समस्त
द्वंद्वों
में जिसकी
आंतरिक स्थिति
डांवाडोल
नहीं होती है;
कितने ही
तूफान बहते
हों, जिसकी
अंतस चेतना की
ज्योति कंपती
नहीं है; जो
निर्विकार
भाव से भीतर
शांत ही बना
रहता है--अनुद्विग्न,
अनुत्तेजित--ऐसी
चेतना के
मंदिर में, परम सत्ता
सदा ही
विराजमान है,
ऐसा कृष्ण
ने अर्जुन से
कहा। तीन
बातें खयाल
में ले लेनी
जरूरी हैं।
एक, द्वंद्व में
जो थिर है, विपरीत
अवस्थाओं में
जो समान है।
सफलता हो कि असफलता,
मान हो कि
अपमान, जैसे
उसके भीतर कोई
अंतर ही नहीं
पड़ता है, जैसे
भीतर कोई
स्पर्श ही
नहीं होता है।
घटनाएं बाहर
घट जाती हैं
और व्यक्ति
भीतर अछूता
छूट जाता है।
पहले तो इस
बात को ठीक से
खयाल में ले
लेना जरूरी है
कि इसका क्या
अर्थ है, क्या
अभिप्राय है?
क्या
प्रक्रिया इस
तक पहुंचने की
है? क्या
मार्ग है?
पहले
तो यह ठीक से
समझ लें कि हम
उद्विग्न कैसे
हो जाते हैं? जब दुख आता
है तब भी और जब
सुख आता है तब
भी, तब
भीतर चेतना की
ज्योति को
कंपने का अवसर
क्यों बन जाता
है? क्या
है कारण? क्या
दुख ही कारण
है? यदि
दुख ही कारण
है, तब तो
कृष्ण जो कहते
हैं, वह
कभी संभव नहीं
हो पाएगा, क्योंकि
कृष्ण पर भी
दुख आएंगे।
जब
भीतर की चेतना
समतुलता
खो देती है
सुख में, उत्तेजित
हो जाती है, क्या सुख ही
कारण है? यदि
सुख ही कारण
है, तब तो
फिर इस पृथ्वी
पर कोई भी कभी
उस स्थिति को
नहीं पा सकेगा,
जिसकी
कृष्ण बात
करते हैं।
स्वयं कृष्ण
भी नहीं पा
सकेंगे।
हम सब
ऐसा ही सोचते
हैं कि
उद्विग्न हो
गए दुख के
कारण; उत्तेजित
हो गए सुख के
कारण। नहीं, सुख और दुख
कारण नहीं
हैं। जब तक आप
सुख और दुख को
कारण समझेंगे,
तब तक
उत्तेजित
होते ही
रहेंगे। आपने
कारण ही गलत
समझा है, आपका
निदान ही
भ्रांत है।
सुख से
उत्तेजित
नहीं होता है
कोई। सुख के
साथ अपने को
एक समझ लेता
है, इससे
उत्तेजित
होता है। दुख
से कोई
उत्तेजित नहीं
होता। दुख में
अपने को खो
देता है, इसलिए
उत्तेजित
होता है।
दुख और
सुख के बाहर
खड़े रहने में
हम समर्थ नहीं
हैं; भीतर
प्रवेश कर
जाते हैं। एक
आइडेंटिटी हो
जाती है, एक
तादात्म्य हो
जाता है। जब
आप पर दुख आता
है, तो ऐसा
नहीं लगता है,
मुझ पर दुख
आया। ऐसा लगता
है, मैं
दुख हो गया।
जब सुख आपको
घेर लेता है, तो ऐसा नहीं
लगता है कि
सुख आपके
चारों ओर आपको
घेरकर खड़ा है;
ऐसा लगता है
कि आप ही सुख
हो गए; सुख
की एक लहर
मात्र।
यह
तादात्म्य, यह सुख और
दुख के साथ
बंध जाने की
वृत्ति ही उत्तेजना
का कारण है।
और यह वृत्ति
तोड़ी जा सकती
है।
सुख-दुख
आते रहेंगे।
सुख-दुख बंद
नहीं होते। बुद्ध
के पैरों में
भी कांटे चुभ
जाते हैं।
बुद्ध भी
बीमार पड़ते
हैं। बुद्ध को
भी मृत्यु आती
है। लेकिन
हमसे कुछ
भिन्न ढंग से
आती है।
मृत्यु तो ढंग
नहीं बदलेगी।
मृत्यु तो
अपने ही ढंग
से आएगी।
लेकिन बुद्ध
अपने को इतना
बदल लेते हैं
कि मृत्यु के
आने का ढंग
पूरा का पूरा
बदल जाता है।
बुद्ध
मरने के करीब
हैं। जीवन का
दीया बुझने के
करीब है। शरीर
छूटने को है।
और एक भिक्षु
बुद्ध से
पूछता है, बहुत पीड़ा
हो रही है।
भिक्षु कहता
है, बहुत
मन दुखी हो
रहा है। थोड़े
ही क्षणों बाद
आप नहीं
होंगे! बुद्ध
कहते हैं, जो
नहीं था, वही
नहीं हो
जाएगा। जो था,
वह रहेगा।
मृत्यु आ रही
है। बुद्ध
कहते हैं, जो
नहीं था, वही
नहीं हो
जाएगा। इसलिए
तुम व्यर्थ
दुखी मत हो
जाओ। क्योंकि
मृत्यु उसे ही
मिटा सकती है,
जो नहीं था;
जिसे हमने
सोचा भर था कि
है। स्वप्न था
जो। हमारी
धारणा मात्र
थी, अस्तित्व
नहीं था
जिसका। विचार
मात्र था, वस्तु-जगत
में जिसकी कोई
संभावना भी न
थी, वही
मिट जाएगा। जो
नहीं था, वही
मिट जाएगा; वह था ही
नहीं। और जो
था, उसके
मिटने का कोई
उपाय नहीं है।
जो है, वह
रहेगा।
मृत्यु
तो आ रही है, लेकिन बुद्ध
मृत्यु को और
तरह से देखते
हैं। मैं
मरूंगा, ऐसा
बुद्ध नहीं
देखते। बुद्ध
देखते हैं, जो मर सकता
है, जो मरा
ही हुआ है, वह
मरेगा। स्वयं
को दूर खड़ा कर
पाते हैं, तटस्थ
हो पाते हैं।
मृत्यु की नदी
बह जाएगी, बुद्ध
तट पर खड़े रह
जाएंगे--अछूते,
बाहर।
पीड़ा
भी आती है, दुख भी आता
है। सब आता
रहेगा। रात भी
आएगी, सुबह
भी होगी। इस
पृथ्वी पर आप
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएंगे, तो
रात उजाली
नहीं हो
जाएगी। आप
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएंगे, तो
दुख सुख नहीं
बन जाएगा। आप
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाएंगे, तो
कांटा गड़ेगा
तो फूल जैसा
मालूम नहीं
पड़ेगा, कांटे
जैसा ही मालूम
पड़ेगा। फिर
अंतर कहां होगा?
भीतर
की चेतना कब
डांवाडोल
होती है? पैर
में कांटा
चुभता है तब? नहीं; जब
भीतर की चेतना
ऐसा मानती है
कि मुझे कांटा
चुभ गया, तब। अगर
भीतर की चेतना
कांटे के पार
रह जाए, तो
अनुद्विग्न
रह जाती है।
तो फिर चेतना
अस्पर्शित, अनटच्ड,
बाहर रह
जाती है।
यह
बाहर रह जाने
की कला ही योग
है। इस बाहर
रह जाने की
कला के संबंध
में ही कृष्ण
कह रहे हैं। और
ऐसी थिर हो गई
चेतना में, ऐसी जैसी
ज्योति को हवा
के झोंकों में
कोई अंतर न
पड़ता हो; ऐसी
चेतना में ही
परम सत्ता
विराजमान हो
जाती है। द्वार
खुल जाते हैं
उसके मंदिर
के। वह
विराजमान है
ही। हमें उसका
पता नहीं
चलता।
चेतना
दो में से एक
चीज का ही पता
चला सकती है। या
तो तादात्म्य
की दुनिया में
संयुक्त रहे, तो संसार का
पता चलता रहता
है। या
तादात्म्य की
दुनिया से हट
जाए, तटस्थ
हो जाए, तो
परमात्मा का
पता चलना शुरू
हो जाता है।
ऐसा
समझें कि हम
बीच में खड़े
हैं। इस ओर
संसार है, उस ओर
परमात्मा है।
जब तक हमारी
नजर संसार के साथ
जोर से चिपटी
रहती है, तब
तक पीछे नजर
उठाने का मौका
नहीं आता। जब
संसार से नजर
थोड़ी ढीली
होती है, पृथक
होती है, अलग
होती है, तो
अनायास
ही--अनायास
ही--परमात्मा
पर नजर जानी
शुरू हो जाती
है।
दृष्टि
तो कहीं जाएगी
ही। दृष्टि का
कहीं जाना
धर्म है।
लेकिन दो तरफ
जा सकती है, पदार्थ की
तरफ जा सकती
है, परमात्मा
की तरफ जा
सकती है। और
परमात्मा की तरफ
जाने का एक ही
सुगम उपाय है
कि वह पदार्थ
की तरफ तादात्म्य
को उपलब्ध न
हो। बस, परमात्मा
की तरफ बहनी
शुरू हो जाती
है।
वह
परमात्मा सदा
मौजूद ही है।
लेकिन हमारी
दृष्टि उस पर
मौजूद नहीं
है। हम उससे
विपरीत देखे
चले जाते हैं।
हम जो हैं, उससे हम
अपना
तादात्म्य
नहीं करते; और जो हम
नहीं हैं, उससे
हम अपने को एक
समझ लेते हैं!
क्यों हो जाती
है ऐसी भूल?
भूल
इतनी बड़ी है
कि उसे भूल
कहना शायद ठीक
नहीं।
क्योंकि भूल
उसे ही कहना
चाहिए, जिसे
कोई कभी करता
हो। जिसे सभी
निरंतर करते हैं,
उसे भूल
कहना एकदम ठीक
नहीं मालूम
पड़ता।
भूल का
मतलब ही यह
होता है कि सौ
में कभी एक कर
लेता हो, तो
हम हकदार हैं
कहने के कि
कहें, भूल।
सौ में सौ ही
करते हैं। कभी
करोड़ दो करोड़ में
एक आदमी नहीं
करता है। तो
भूल एकदम
सिर्फ भूल
नहीं है; मैथमेटिकल इरर
जैसी भूल नहीं
है कि दो और दो
जोड़े और पांच
हो गए, ऐसी
भूल नहीं है।
वह कोई कभी
करता है।
सिर्फ भूल
कहने से नहीं
चलेगा; भ्रांति
है।
भूल और
भ्रांति में
थोड़ा फर्क है।
और भूल और भ्रांति
के फर्क को
खयाल में ले
लेना, दूसरी
बात है। तो इस
सूत्र को समझा
जा सकेगा।
भूल वह
है, जिसमें
व्यक्ति
जिम्मेवार
होता है, खुद
की ही कुछ
गलती से कर
जाता है।
भ्रांति वह है,
जिसमें
जाति, मनुष्य
जैसा है, वही
जिम्मेवार
होती है।
मनुष्य के
होने का ढंग
ही जिम्मेवार
होता है।
रास्ते
से आप गुजर
रहे हैं और एक
रस्सी को आपने
सांप समझ लिया, तो वह आपकी
भूल है। सब
गुजरने वाले
सांप नहीं समझेंगे।
वह सांप से
डरने वाला
चित्त, सांप
से भयभीत
चित्त, सांप
के अनुभवों से
भरा हुआ चित्त,
रस्सी से भी
सांप का
अनुमान कर
लेगा। वह इनफरेंस
है उसका कि
कहीं सांप न
हो। लेकिन सभी
को सांप नहीं
दिखाई पड़ेगा।
वह भूल है, इसलिए
बहुत कठिनाई
नहीं है।
टार्च जला ली
जाए, दीया
जला लिया जाए
और भूल मिट
जाएगी। वह
व्यक्तिगत
है। वह मनुष्य
के चित्त से
पैदा नहीं
होती; व्यक्तिगत
चित्त से पैदा
होती है। वह इंडिविजुअल
है, कलेक्टिव
नहीं है।
लेकिन
जिस भूल की
मैं बात कर
रहा हूं या
कृष्ण इस
सूत्र में बात
कर रहे हैं, वह कलेक्टिव
है। ऐसा नहीं
है कि किसी को
रस्सी सांप
दिखाई पड़ती
है। जो भी
गुजरता है, उसी को दिखाई
पड़ती है।
बल्कि किनारे
बुद्ध और
महावीर और
कृष्ण जैसे
लोग खड़े होकर
चिल्लाते
रहें कि यह
सांप नहीं, रस्सी है, फिर भी सांप
ही दिखाई पड़ता
है। तो इसको
भूल कहना आसान
नहीं है।
दीए
जला लो, रोशनी
कर दो, चिल्ला-चिल्लाकर
कहते रहो कि
यह रस्सी है, सांप नहीं!
फिर भी जो
गुजरता है, सुनकर भी
उसे सांप ही
दिखाई पड़ता है,
रस्सी
दिखाई नहीं
पड़ती। तो यह
भूल कलेक्टिव
माइंड की है, इसलिए
भ्रांति है।
यह उस
तरह की है, जैसे हम एक
लकड़ी को पानी
में डाल दें
और वह तिरछी
हो जाए। तिरछी
होती नहीं, दिखाई पड़ती
है। लकड़ी को
बाहर खींच लें,
वह फिर सीधी
मालूम होती
है। फिर पानी
में डालें, वह फिर
तिरछी मालूम
होती है। अंदर
लकड़ी को पानी
में हाथ डालकर
टटोलें, वह सीधी
मालूम पड़ती
है। लेकिन आंख
को फिर भी तिरछी
दिखाई पड़ती
है! वह भूल
नहीं है, भ्रांति
है। आप हजार
दफे जान लिए
हैं भलीभांति
कि लकड़ी तिरछी
नहीं होती
पानी में, फिर
भी जब लकड़ी
पानी में
दिखाई पड़ेगी,
तो तिरछी ही
दिखाई पड़ेगी।
भ्रांति
वह है, जो
समूहगत मन से
पैदा होती है।
इसे
मैं भ्रांति
कहता हूं, हमारे
तादात्म्य
को। दुख और
सुख के साथ हम
अपने को एकदम
एक कर लेते
हैं। यह
समूहगत मन, कलेक्टिव
माइंड से पैदा
होने वाली
भ्रांति है।
जैसे पानी में
लकड़ी डाल दी और
वह तिरछी
मालूम हुई। यह
सांप दिखाई
पड़ने लगे
रस्सी में, वैसी भूल
नहीं है।
इसलिए हजार
दफे समझने के
बाद, फिर, फिर वही भूल
हो जाती है।
अचेतन
से आती है यह
भ्रांति। आप
कम जिम्मेवार हैं, अभी। आप
अनंत जन्मों
में जिस ढंग
से जीए हैं, उसकी
जिम्मेवारी
ज्यादा है।
गहरे में बैठ
गई है यह बात।
क्यों बैठ गई
है? बैठ
जाने का सूत्र
भी समझ लेना
चाहिए।
इतने
गहरे में जब
भ्रांति बैठी
हो, तो उसका
कोई सूत्र
बहुत गहरा
होता है। और
इसीलिए तोड़ने
में इतनी
मुश्किल पड़ती
है। गीता चिल्लाती
रहती है, पढ़ते
रहते हैं। कोई
तोड़ता
नहीं। बहुत
मुश्किल
मालूम पड़ता
है। क्योंकि गीता
तो आप पढ़ते
हैं बुद्धि से,
जो बहुत ऊपर
है। और
भ्रांति आती
है बहुत गहरे से
आपके। उन
दोनों का कोई
मेल नहीं हो
पाता।
पढ़
लेते हैं, सुख-दुख में
समबुद्धि
रखनी चाहिए।
फिर जरा-सा पैर
में कांटा गड़ा,
और सब सूत्र
खो जाते हैं।
गीता भूल जाती
है, पैर
पकड़ लेते हैं।
और कहते हैं, मुझे कांटा
गड़ गया! वह जो
बुद्धि ने
सोचा था, वह
काम नहीं
पड़ता। बुद्धि
से भी ज्यादा
गहरी भ्रांति
है कहीं।
भ्रांति
अचेतन में है।
और क्यों है?
दुख के
कारण नहीं है
भ्रांति; भ्रांति
सुख के कारण
है। भ्रांति
दुख के कारण
नहीं है, इस
बात को तो कोई
भी मानने को
राजी हो
जाएगा। यह बड़ी
सुखद है बात
कि यह पता चल
जाए कि पैर
में कांटा गड़ता
है, वह
मुझे नहीं गड़ता।
यह तो कोई भी
मानने को राजी
हो जाएगा।
बीमारी आती है,
वह मुझे
नहीं आती। मौत
आती है, वह
मुझे नहीं
आती। यह तो
कोई भी मानने
को राजी हो जाएगा।
नहीं, कठिनाई दुख
से नहीं है; कठिनाई सुख
से है। सुख
मैं नहीं हूं,
यह मानने को
हम स्वयं ही
राजी नहीं
होते। इसलिए
दुख सवाल नहीं
है, सवाल
सुख है। जब आप
कहते हैं कि
मैं जिंदा हूं,
तो फिर आपको
कहना पड़ेगा कि
मैं मरूंगा।
ध्यान
रखें, भूल
मरने से नहीं
आती, जिंदगी
के साथ आती
है।
जिंदगी--मैं
जिंदा हूं! और
अगर भूल तोड़नी
है, तो
जिंदगी से तोड़नी
पड़ेगी, मौत
से नहीं।
लेकिन लोग मौत
से तोड़ने का
उपाय करते
हैं।
बैठ-बैठकर याद
करते रहते हैं
कि आत्मा अमर
है। मैं कभी
नहीं मरूंगा।
लेकिन
उनको खयाल
नहीं है कि जब
आप अपने को
जीवित समझ रहे
हैं, तो एक दिन
आपको, मरता
हूं, यह भी
समझना पड़ेगा।
यह उसका दूसरा
हिस्सा है। लेकिन
कोई भी बैठकर
यह स्मरण नहीं
करता कि मैं
जीवित कहां
हूं! यह बहुत घबड़ाने
वाली बात
होगी। अगर
तोड़ना है, तो
यहां से तोड़ना
पड़ेगा।
जब सुख
आए, तब तो मन
तत्काल राजी
हो जाता है कि
मैं सुख हूं।
जब कोई गले
में फूलमाला
डाले, तब
तो ऐसा लगता
है, मेरे
ही गले में
डाली है। मुझ
में कुछ गुण
हैं। और जब
कोई जूतों की
माला गले में
डाल दे, तो
हम समझते हैं,
वह आदमी
शैतान था, दुष्ट
था; मेरे
गले में नहीं
डाली।
जब कोई
सम्मान करे, तब तो
तादात्म्य
करने के लिए
बड़ी तैयारी
होती है।
लेकिन जब कोई
अपमान करे, तब तो हम खुद
ही तादात्म्य
तोड़ना चाहते
हैं। दुख से
तो कोई
तादात्म्य
बनाना चाहता
नहीं। बनता
है। बनता
इसलिए है कि
सुख से सब
तादात्म्य बनाना
चाहते हैं।
सुख से
हम क्यों
तादात्म्य
बनाना चाहते
हैं? और जब तक
सुख से न टूटे,
तब तक दुख
से कभी न
टूटेगा। जब तक
सम्मान से न टूटे,
तब तक अपमान
से न टूटेगा।
जब तक प्रशंसा
से न टूटे, तब
तक निंदा से न
टूटेगा। जब तक
जीवन से न
टूटे, तब
तक मृत्यु से
न टूटेगा।
इसलिए
साधक को शुरू
करना है सुख
से। दुख से तो
सभी शुरू करते
हैं, कभी नहीं
टूटता। सुख से
शुरू करना है।
सुख में अपने
को बाहर रखने
की चेष्टा! जब
सुख आए, तब
दूर खड़े करने
की कोशिश अपने
को!
और यह
बड़े मजे की
बात है कि सुख
से कोई शुरू
नहीं करता।
यद्यपि सुख से
कोई शुरू करे, तो बहुत सरल
है। यह दूसरी
बात आपसे कहना
चाहता हूं।
सुख से कोई
शुरू नहीं
करता। सुख से
कोई शुरू करे,
तो बहुत सरल
है। दुख से
लोग शुरू करते
हैं। दुख से
शुरू किया
नहीं जा सकता।
दुख से शुरू
करना असंभव
है।
हमारे
संबंध सुख से
हैं, दुख तो
सुख के पीछे
आता है। इनडायरेक्ट
हैं उससे हमारे
संबंध, डायरेक्ट
नहीं हैं; परोक्ष
हैं, प्रत्यक्ष
नहीं हैं।
जिससे हमारे
प्रत्यक्ष
संबंध हैं, उससे ही
संबंध तोड़े जा
सकते हैं। और
सरलता से तोड़े
जा सकते हैं।
लेकिन
सुख से कोई
शुरू नहीं
करता, और
वहीं सरलता से
टूट सकते हैं।
दुख से सभी लोग
शुरू करते हैं,
वहां कभी
टूट नहीं
सकते। इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है कि
दुखी लोग धर्म
की तलाश में
निकल जाते
हैं। सुखी
आदमी धर्म की
तलाश में कभी
नहीं जाता।
एक
मित्र अपने
किसी मित्र को
मेरे पास लाए
थे। कई बार
मुझे कहा था
कि उन्हें
आपके पास लाना
है। लेकिन वे
आने को राजी
नहीं होते, वे कहते हैं,
मैं सब
भांति सुखी
हूं। अभी उनके
पास जाने की क्या
जरूरत! मैंने
कहा, तो
थोड़ा ठहरो।
क्योंकि सब
भांति सुखी
रहना सदा नहीं
हो सकता। थोड़ा
रुको। थोड़ा
ठहरो। थोड़ा धीरज
रखो। जल्दी
दुख आ जाएगा।
और जो आदमी
कहता है कि
मैं सब भांति
सुखी हूं, अभी
मैं क्यों जाऊं;
वह दुख में
आने को राजी
हो जाएगा, हालांकि
तब आना बेकार
होगा। अभी आने
में कुछ हो
सकता है।
क्योंकि सुख
बीज है, दुख
फल है। सुख के
बीज को नष्ट
करना बहुत
आसान है; दुख
के बड़े विराट
वृक्ष को नष्ट
करना बहुत मुश्किल
हो जाएगा।
और
जैसे एक बीज
को बोने से
वृक्ष एक और करोड़ बीज
हो जाते हैं, ऐसे ही एक
सुख की
आकांक्षा
करने से बड़े
दुख का वृक्ष
फलित होता है।
लेकिन उस दुख
के वृक्ष में करोड़
सुखों की आकांक्षाएं
फिर लग जाती
हैं।
मैंने
कहा, लेकिन
रुको। यही
नियम है कि
लोग दुख में
धर्म की तलाश
करते हैं, जब
कि तलाश नहीं
की जा सकती।
और लोग सुख
में कहते हैं
कि हम तो सुखी
हैं; तलाश
की क्या जरूरत
है?
ऐसा
क्यों होता है? ऐसा इसलिए
होता है कि
लोग धर्म को
भी सुख के लिए
तलाश करते
हैं। धर्म को
भी सुख के लिए
तलाश करते
हैं! इसलिए
दुख में कहते
हैं कि ठीक है,
अभी चित्त
दुखी है, तो
हम धर्म की
तलाश करें।
और
धर्म का सुख
से कोई भी
संबंध नहीं
है। धर्म का
तो पूरा
विज्ञान सुख
से तोड़ने का
विज्ञान है।
यद्यपि जो सुख
से टूट जाता
है, वह आनंद
से जुड़ जाता
है। वह बिलकुल
दूसरी बात है।
कभी
भूलकर भी आप
यह मत समझना
कि जिसे आप
सुख कहते हैं, उससे आनंद
का कोई भी
संबंध है।
इतना ही संबंध
हो सकता
है--है--कि सुख
के कारण आनंद
कभी नहीं आ
पाता। बस इतना
ही संबंध है। सुख
के कारण ही
अटकाव खड़ा
रहता है और
आनंद के द्वार
तक आप नहीं
पहुंच पाते।
फिर
जैसा होता है, उनकी पत्नी
चल बसी; दुख
आ गया। फिर
उनके मित्र
उन्हें ले आए।
कहने लगे कि
पत्नी चल बसी
है; मैं
बहुत दुखी हो
गया हूं।
चित्त बहुत
उद्विग्न है।
कुछ रास्ता
बताएं। तो
मैंने उन्हें
कहा कि अब ठीक
से दुखी ही हो
लो। ठीक से
दुखी हो लो।
रोओ, छाती पीटो, सिर
पटको। वे
बहुत चौंके।
उन्होंने कहा
कि आपसे ऐसी
आशा लेकर नहीं
आया। कुछ
कंसोलेशन, कुछ
सांत्वना
चाहिए! तो
मैंने कहा कि
फिर तुम मेरे
पास भी सुख की
ही तलाश में
आए, कि
किसी तरह
तुम्हारे दुख
को हलका करूं
और तुम्हें
थोड़ा सुख मिल
जाए! इसके
पहले कि तुम
नई पत्नी खोजो,
थोड़ा मैं
तुमको
सुव्यवस्थित
कर दूं। इस
शक्ल को लेकर
नई पत्नी
खोजने में
बहुत मुश्किल
होगी।
वे
कहने लगे, आप कैसी
बातें कर रहे
हैं? मेरी
पत्नी मर गई
है! मैंने
उनसे कहा कि
ईमान से पूछो
अपने मन से, नई पत्नी की
तलाश शुरू
नहीं हो गई है?
वे कहने लगे,
आपको कैसे
पता चल गया? मैंने कहा, मुझे कुछ
पता नहीं चल
गया। आदमी के
मन को मैं जानता
हूं; तुम्हारे
बाबत मैं कुछ
नहीं कह रहा
हूं। जल्दी ही
तुम नई पत्नी
खोज लोगे। फिर
तुम कहोगे, मैं सब सुख
में हूं; अब
धर्म की क्या
जरूरत है!
धर्म
तुम्हारा
उपकरण नहीं बन
सकता। धर्म
कोई इमरजेंसी
मेजर नहीं है
कि तुम तकलीफ
में हो, तो
जल्दी से
इमरजेंसी
दरवाजा खोल
लिया धर्म का
और चले गए।
धर्म
तुम्हारे दुख
से छुटकारे का
उपाय नहीं है।
अगर ठीक से
समझें, तो
धर्म सुख से
छुटकारे का
उपाय है। उसके
लिए तो मन कभी
तैयार नहीं
होता है, इसलिए
कभी धर्म जीवन
में आता नहीं।
और
ध्यान रहे, जो सुख से
छूट जाता है, वह दुख से
तत्काल छूट
जाता है। और
जो दुख से
छूटना चाहता
है और सुख
पाना चाहता है,
वह कभी दुख
से छूट ही
नहीं सकता, क्योंकि वह
सुख से नहीं
छूट सकता।
दुख
सुख का ही
दूसरा पहलू है, अनिवार्य।
और दुख को
छोड़ने की
हमारी तैयारी
है, उससे
हम छूट नहीं
सकते। सुख को
छोड़ने की
हमारी तैयारी
नहीं है।
मैं
आपसे यह कहना
चाहता हूं कि
सुख की पीड़ा
को समझें। सुख
के पूरे रूप
को समझें। हर
सुख के पीछे
छिपे हुए दुख
को समझें। हर
सुख के धोखे
के प्रति
जागें। हर सुख
सिर्फ
प्रलोभन है
आपको फिर एक
नए दुख में
गिरा देने का।
जब तक सुख के
प्रति इतना
होश न हो, तब
तक आप किनारे
पर खड़े न हो पाएंगे।
लाओत्से
कहता था, जब
भी कोई मेरा
सम्मान करने
आया, तो
मैंने कहा, मुझे माफ
करो, क्योंकि
मैं अपमान
नहीं चाहता
हूं। उस आदमी
ने कहा, लेकिन
हम सम्मान
देने आए हैं!
लाओत्से ने
कहा, तुम
सम्मान देने
आए हो, और
अगर मैं
सम्मान लेने
को राजी हुआ, तो आस-पास
गांव के कहीं
अपमान निकट ही
होगा। वह अपनी
यात्रा शुरू
कर देगा।
क्योंकि
मैंने कभी
सुना नहीं कि
ये दोनों
अलग-अलग जीते
हैं। ये पेयर
है, जोड़ा
है। ये साथ ही
चलते हैं।
इनमें कभी डायवोर्स
हुआ नहीं है।
इनमें कभी कोई
तलाक नहीं हुआ
है। ये सदा
साथ ही खड़े
रहते हैं। यह
अनिवार्य
जोड़ा है। तुम
मुझ पर कृपा
करो। तुम मेरे
अपमान को
निमंत्रण मत दिलवाओ।
तुम अपने
सम्मान को
वापस ले जाओ।
लाओत्से
को उस मुल्क
के सम्राट ने
धन-धान्य से
भेंट देनी
चाही। लोगों
ने कहा कि
इतना बड़ा अदभुत
फकीर
तुम्हारे देश
में और भीख
मांगे, तुम्हारे
लिए शोभा नहीं
है। सम्राट
खुद उपस्थित
हुआ लाओत्से
के झोपड़े
पर, बहुत
रथों में
धन-धान्य, वस्त्र,
आभूषण, सब
लेकर, करोड़ों
का सामान
लेकर।
लाओत्से ने
कहा कि अभी मैं
मेरा मालिक
हूं, तुम
मुझे नाहक
भिखारी बना
दोगे। तुम
अपना यह सब
साज-सामान ले
जाओ। और अगर
तुम्हें मेरी
मालकियत से
कोई एतराज हो,
तो मैं
तुम्हारे
राज्य की भूमि
छोड़कर चला जाऊं।
लेकिन तुम
मुझे परेशान
मत करो। राजा
ने कहा कि
क्या कहते हैं
आप? मैं तो
सुख देने आया
था! लाओत्से
ने कहा, अनंत
जन्मों का
अनुभव यह कहता
है कि जो भी
सुख देने आया,
वह दुख के
अतिरिक्त कुछ
दे नहीं गया।
अब और धोखा
नहीं।
लेकिन
जागना पड़े सुख
में; जागना
पड़े सम्मान
में; जागना
पड़े वहां, जहां
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है; अहंकार
के चारों तरफ
फूल सज जाते
हैं, वहां
जागना पड़े। और
वहां जागना
सरल है, क्योंकि
शुरुआत है
वहां; अभी
यात्रा शुरू
होती है। दुख
तो अंत है, सुख
प्रारंभ है।
और सदा जो
प्रारंभ में
सजग हो जाए, वह बाहर हो
सकता है। बीच
में सजग होना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
लेकिन
हम प्रारंभ
में सोना
चाहते हैं।
लोग कहते हैं, सुख की
नींद। सुख एक
नींद ही है।
सुख में बहुत मुश्किल
से कोई जागता
है।
दूसरा
सूत्र स्मरण
रखें कि जरूर
जल्दी, आजकल
में सुख आएगा,
तब सजग रहें
कि दुख पीछे
खड़ा है, प्रतीक्षा
कर रहा है।
जरूर आजकल में
सम्मान आएगा,
तब चौंककर
खड़े हो जाएं; लाओत्से को
स्मरण करें कि
अब यह आदमी
अपमान का
इंतजाम किए दे
रहा है। जल्दी
कोई सिंहासन
पर बैठने का
मौका आएगा, तब भाग खड़े
हों। फिर दुख
से आपकी कभी
कोई मुलाकात न
होगी।
और एक
बार यह सूत्र
आपकी समझ में
आ गया कि सुख से
बचने की
सामर्थ्य दुख
से बचने की
पात्रता है; और जिस दिन
आप सुख से
बचने की
सामर्थ्य
जुटा लेते हैं,
दुख से बचने
की पात्रता
मिल जाती है, उसी दिन
आनंद का द्वार
खुल जाता है।
जैसे ही सुख
से कोई अपने
को दूर खड़ा कर
ले, वैसे
ही चित्त की
डोलती हुई लौ
थिर हो जाती
है। और जो सुख
में नहीं डोला,
वह दुख में
कभी नहीं डोलेगा।
ध्यान
रखें, सुख
में डोल गए, तो दुख में
डोलना ही
पड़ेगा। वह
अनिवार्य
कंपन है, जो
सुख के पैदा
हुए कंपनों की
परिपूर्ति
करते हैं, कांप्लिमेंट्री हैं। जैसे
घड़ी का पेंडुलम
बाएं आपने
घुमा दिया, तो वह दाएं
जाएगा, जाना
ही पड़ेगा। कोई
उपाय नहीं है
बचने का। सुख
में कंपित हो
गए, तो दुख
में कंपित
होना पड़ेगा।
लेकिन
हम सुख में
कंपित होना
चाहते हैं और
दुख में कंपित
नहीं होना
चाहते। इससे
उलटा करना
पड़े। सुख में
कंपित न होना
चाहें, फिर
आपको दुख छू
भी नहीं
सकेगा। सुख की
खोज में रहें
कि जब सुख
मिले, तब
होश से भर
जाएं और देखें
कि सुख आपको
कंपित तो नहीं
कर रहा है।
कठिन
नहीं है। बस, स्मरण करने
की बात है।
कठिन जरा भी
नहीं है। हमें
खयाल ही नहीं
है, बस इतनी
ही बात है।
हमें स्मृति
ही नहीं है इस
बात की कि सुख
ही हमारा दुख
है। दुख को हम
दुख समझते हैं,
सुख को हम
सुख समझते हैं;
बस, वहीं
भ्रांति है।
और वह भ्रांति
समूहगत है। व्यक्तिगत
नहीं है, समूहगत
है।
जब
आपका बेटा
स्कूल से
प्रथम कक्षा
में उत्तीर्ण
होकर घर नाचता
हुआ आए, तब
आप जानना कि
वह दुख की
तैयारी कर रहा
है। काश, मां-बाप
बुद्धिमान
हों, तो
उसे कहें कि
इतने सुखी
होने की कोई
जरूरत नहीं
है। क्योंकि
जितना तू सुखी
होगा, उतना
ही दुख दूसरे पलड़े पर रख
दिया जाएगा, जो आजकल में
लौट आएगा। उस
बच्चे में
समूहगत मन
पैदा हो रहा
है, और हम
सहयोग दे रहे
हैं। हम भी घर
में बैंड-बाजा
बजाकर, फूल-मिठाई
बांट देंगे।
हमने उसके सुख
के साथ तादात्म्य
होने की, जोड़
बांधने की
चेष्टा शुरू
कर दी। हमने
उसके मन को एक
दिशा दे दी, जो उसे दुख
में ले जाएगी।
हम सब
बच्चों को
अपनी शक्ल में
ढाल देते हैं।
हमारे मां-बाप
हमें ढाल गए
थे, उनके
मां-बाप
उन्हें ढाल गए
थे! बीमारियां
बीमारियों को
ढालती चली
जाती हैं। रोग
रोग को जन्म
देते चले जाते
हैं।
उस
बच्चे के भी
अतीत के अनुभव
हैं, उस बच्चे
के भी पिछले
जन्मों के
अनुभव हैं। उनमें
भी उसने इसी
भूल को
दोहराया था।
इस जन्म में
फिर हम बचपन
से उसके दिमाग
को, उसके
मस्तिष्क को
फिर कंडीशन
करते हैं, फिर
संस्कारित
करते हैं। सुख
में सुखी होने
की तैयारी
दिखलाते हैं।
फिर दुख में
वह दुखी होता
है।
जन्म
होता है, तो
बैंड-बाजा
बजाकर हम बड़ी
खुशी मनाते
हैं। हमने
कंडीशनिंग
शुरू कर दी।
आप कहेंगे, छोटे बच्चे
को तो पता भी
नहीं चलेगा, पहले दिन के
बच्चे को कि
बैंड-बाजा
खुशी में बज
रहा है।
लेकिन
अभी जो लोग, जो
वैज्ञानिक
मनुष्य के
शरीर की
स्मृति पर काम
करते हैं, बाडी मेमोरी पर,
उनका कहना
है कि वे
बैंड-बाजे भी
बच्चे के अचेतन
मन में प्रवेश
करते हैं। वे
बैंड-बाजे ही
नहीं, मां
के पेट में जब
बच्चा होता है,
तब भी जो
घटनाएं घटती
हैं, वे भी
बच्चे की
अचेतन स्मृति
का हिस्सा हो
जाती हैं; वे
भी बच्चे को
निर्मित करती
हैं।
ये
बैंड-बाजे, यह खुशी की
लहर, यह
चारों तरफ जो
सुख के साथ एक
होने की भावना
प्रकट की जा
रही है, इसकी
तरंगें भी
बच्चे में
प्रवेश कर
जाती हैं। फिर
यही तरंगें
मृत्यु के
वक्त दुख लाएंगी।
अगर
मृत्यु के
वक्त दुख न
लाना हो, तो
जन्म के वक्त
सुख के साथ
तादात्म्य
पैदा करने की
व्यवस्था को हटाएं।
सुख जहां से
शुरू होता है,
वहां से
तोड़ना शुरू
करें।
योग
सुख में जागने
का नाम है। जागकर
देखें कि मैं
अलग हूं। और
फिर आप अपने
दुख में भी जागकर
देख सकेंगे कि
अलग हैं; कोई
अड़चन न आएगी, कोई कठिनाई
न पड़ेगी।
तटस्थ होते
रहें।
समय
लगेगा। समय
लगने का
आंतरिक कारण
नहीं है; समय
लगने का कुल
कारण इतना है
कि हमारी
आदतें मजबूत
हैं और पुरानी
हैं। डोलने की
आदत मजबूत है,
बहुत
पुरानी है।
हमें पता ही
नहीं चलता, कब हम डोलने
लगे। जब कोई
आपकी प्रशंसा
के दो शब्द
कहता है, तब
आपको पता ही
नहीं चलता कि
मन सुनने के
साथ ही, बल्कि
शायद सुनने के
थोड़ी देर पहले
ही डोल गया।
उस आदमी का
चेहरा देखा।
लगा कि कुछ
प्रशंसा में
कहेगा, और
भीतर कुछ डोल
गया। यह भी
जानकर डोल
जाएगा कि
प्रशंसा झूठी
है, तो भी
डोल जाएगा।
क्योंकि आप भी
जानते हैं कि आप
भी दूसरों की
झूठी प्रशंसाएं
कर रहे हैं और
उनको डुला रहे
हैं! और कोई
आपकी भी
प्रशंसा कर
रहा है और
आपको डोला रहा
है!
बिना
आपको कंपित
किए, आपका
उपयोग नहीं
किया जा सकता।
आपको कंपाकर
ही उपयोग किया
जा सकता है।
इसलिए इतनी
खुशामद
दुनिया में
चलती है। इतनी
खुशामद चलती
है, क्योंकि
पहले आपको
थोड़ा
डांवाडोल
किया जाए, तभी
आपका उपयोग
किया जा सकता
है। डांवाडोल
होते ही आप
कमजोर हो जाते
हैं।
ध्यान
रखें, जैसे
ही आपकी चेतना
कंपी कि
आप कमजोर हो
जाते हैं। फिर
आपका कुछ भी
उपयोग किया जा
सकता है। जो
आपकी खुशामद
कर रहा है, वह
आपको कमजोर कर
रहा है, वह
आपको भीतर से
तोड़ रहा है।
इसलिए
कृष्ण ने
इसमें एक शब्द
उपयोग किया है
कि जो सुख-दुख
में अनडोल
रह जाए, वही
स्वाधीन है।
इसमें एक शब्द
उपयोग किया है
कि वही
स्वाधीन है, जो सुख और
दुख में सम रह
जाए। उसे
दुनिया में कोई
पराधीन नहीं
बना सकता।
हमें
तो कोई भी
पराधीन बना
सकता है, क्योंकि
हमें कोई भी
कंपा सकता है।
और जैसे ही हम कंपे कि
जमीन हमारे
पैर के नीचे
की गई। कोई भी
कंपा सकता है।
कोई भी आपसे
कह सकता है कि
ऐसी सुंदर
शक्ल कभी देखी
नहीं, बहुत
सुंदर चेहरा
है आपका! कंप
गए आप। अब
आपका उपयोग
किया जा सकता
है; अब
आपसे गुलामी
करवाई जा सकती
है।
कोई भी
आपसे कह देता
है कि आपकी
बुद्धिमत्ता
का कोई
मुकाबला नहीं; बेजोड़ हैं आप! कंप
गए आप। और उस
आदमी ने आपको
बुद्धिमान
कहकर बुद्धू
बना दिया! अब
आपसे कम
बुद्धि का
आदमी भी आपसे गुलामी
करवा सकता है।
कंप गए आप। कंपे
कि कमजोर हो
गए। कंपे
कि पराधीन
हुए।
जो
आदमी भीतर
कंपित होता है
सुख-दुख में, वह कभी भी
गुलाम हो
जाएगा। उसकी
पराधीनता सुनिश्चित
है। वह पराधीन
है ही। एक
छोटा-सा शब्द,
और उसको
गुलाम बनाया
जा सकता है।
सिर्फ उस आदमी
को पराधीन
नहीं बनाया जा
सकता, जिसको
सुख और दुख
नहीं कंपाते।
उसको अब इस
दुनिया में
कोई पराधीन
नहीं बना सकता।
कोई उपाय न
रहा। उस आदमी
को हिलाने का
उपाय न रहा।
अब तलवारें
उसके शरीर को
काट सकती हैं,
लेकिन वह
अडिग रह
जाएगा। अब
सोने की वर्षा
उसके चरणों
में हो सकती
है, लेकिन
मिट्टी की
वर्षा से
ज्यादा कोई
परिणाम नहीं
होगा। अब सारी
पृथ्वी का
सिंहासन उसे
मिल सकता है, वह उस पर ऐसे
ही चढ़ जाएगा, जैसे मिट्टी
के ढेर पर चढ़ता
है; और ऐसे
ही उतर जाएगा,
जैसे
मिट्टी के ढेर
से उतरता है।
भीतरी
शक्ति अकंपन
से आती है।
भीतरी शक्ति, आंतरिक
ऊर्जा, परम
शक्ति उस
व्यक्ति को
उपलब्ध होती
है, जो
अकंप को
उपलब्ध हो
जाता है। और
अकंप वही हो सकता
है, जो
सुख-दुख में
कंपित न हो।
योगारूढ़
होने के पहले
यह अकंप, यह
निष्कंप दशा
उपलब्ध होनी
जरूरी है। और
इस निष्कंप
दशा में ही
आदमी के पास
इतनी ऊर्जा, इतनी शक्ति,
इतनी
स्वतंत्रता
और इतनी
स्वाधीनता
होती है, कहना
चाहिए, आदमी
स्व होता है, स्वयं होता
है कि इस
पात्रता में
ही परमात्मा से
मिलन है; इसके
पहले कोई मिलन
नहीं है।
जो
सुख-दुख से
कंप जाता है, वह इतना
कमजोर है कि
परमात्मा को
सह भी न पाएगा।
इतना कमजोर
है! एक चांदी
के सिक्के से
जिसके प्राण
डांवाडोल हो
जाते हैं। एक
जरा-सा कांटा
जिसकी आत्मा
तक छिद जाता
है। एक जरा-सी
तिरछी आंख
किसी की जिसकी
रातभर की नींद
को खराब कर जाती
है। वह आदमी
इतना कमजोर है
कि कृपा है
परमात्मा की
कि उस आदमी को
न मिले। नहीं
तो आदमी टूटकर,
फूटकर,
एक्सप्लोड ही हो जाएगा,
बिलकुल
नष्ट ही हो
जाएगा।
इतनी
बड़ी घटना उस
आदमी की
जिंदगी में
घटेगी, जो
एक रुपए से
कंप जाता है, जिसका एक
रुपया रास्ते
पर खो जाए, तो
मुश्किल में
पड़ जाता है!
इतनी बड़ी घटना
को झेलने की
उसकी सामर्थ्य
नहीं होगी। वह
इतना क्रिस्टलाइज्ड
नहीं है, इतना
संगठित नहीं
है भीतर, इतना
सत्तावान
नहीं है कि
परमात्मा को
झेल सके। वह
पात्रता उसकी
नहीं है।
नियम
से सब घटता
है। जिस दिन
आप पात्र हो
जाएंगे
स्वाधीन होने
के, उसी दिन
परम सत्ता आप
पर अवतरित हो
जाती है। वह
सदा उतरने को
तैयार है, सिर्फ
आपकी
प्रतीक्षा
है। और आप
इतनी क्षुद्र
बातों में डोल
रहे हैं कि
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
कभी हिसाब
लगाकर देखें
कि आपको
कैसी-कैसी
बातें
डांवाडोल कर
जाती हैं!
कैसी क्षुद्र
बातें
डांवाडोल कर
जाती हैं!
रास्ते से
गुजर रहे हैं,
दो आदमी जरा
जोर से हंस
देते हैं; आप
डांवाडोल हो
जाते हैं।
एक
मित्र को
संन्यास लेना
है। वे मुझसे
रोज कहते हैं, लेना है, लेकिन
मैं तो इन्हीं
कपड़ों में
संन्यासी हूं।
अनेक लोग आकर
मुझसे यही
कहते हैं कि
हममें कमी ही
क्या है? हम
तो इन्हीं
कपड़ों में
संन्यासी हैं!
तो मैं कहता हूं,
फिर डर क्या
है? डाल लो गेरुए
वस्त्र। तब
कंप जाते हैं।
बड़ा
शक्तिशाली
संन्यास है!
वह गेरुआ
वस्त्र डालने
से कंपता है। क्यों
कंपता है?
वह
दूसरों की
आंखों का कंपन
है। रास्ते से
गुजरेंगे, लोग क्या
कहेंगे? दफ्तर
में जाएंगे, लोग क्या
कहेंगे? दफ्तर
में गए, कहीं
चपरासी ने हंस
दिया ऐसा मुंह
करके, मुस्कराकर,
तो फिर क्या
होगा? कोई
क्या कहेगा? इतना भयभीत
कर देती है
बात। इतने
कमजोर चित्त में
बहुत बड़ी
घटनाएं नहीं
घट सकतीं।
गेरुए
कपड़े पहनने से
कोई बड़ी घटना
नहीं घट
जाएगी। लेकिन
गेरुआ कपड़ा
पहनने से एक
सूचना हो जाती
है कि अब
दूसरे क्या
कहते हैं, इसकी फिक्र छोड़ी। यह
बड़ी घटना है। गेरुए
कपड़े में कुछ
भी नहीं है, लेकिन इस
घटना में बहुत
कुछ है।
लोग
क्या कहेंगे!
लोगों के कहे
हुए शब्द
कितना कंपा
जाते हैं!
शब्द! जिनमें
कुछ भी नहीं
होता है; हवा
के बबूले। एक
आदमी ने होंठ
हिलाए। एक
आवाज पैदा हुई
हवा में। आपके
कान से टकराई।
आप कंप गए।
इतनी कमजोर
आत्मा! नहीं; फिर बड़ी
घटनाओं की
पात्रता पैदा
नहीं हो सकती।
कृष्ण
कहते हैं कि
सुख-दुख में
जो अडोल रह
जाए, अकंप, उसकी
चेतना थिर
होती है। और
वैसी चेतना
परमात्मा के
भीतर
विराजमान है
और वैसी चेतना
में परमात्मा
विराजमान है।
चलें
निष्कंप
चेतना की तरफ!
बढ़ें! सुख से
शुरू करें, दुख से कभी
शुरू मत करना।
सुख से शुरू
करें, दुख
तक पहुंच
जाएगी बात।
दुख से कभी
शुरू मत करना।
दुख से कभी
शुरू नहीं
होती बात।
सुख को
ठीक से देखें
और पाएंगे कि
सुख दुख का ही
रूप है। सुख
में ही तलाश
करें और
पाएंगे कि सुख
में ही दुख के सारे
के सारे बीज, सारी
संभावना छिपी
है। और सुख से
अपने को न कंपने
दें।
न
कंपने देने के
लिए क्या करना
पड़ेगा? क्या
आंख बंद करके
खड़े हो जाएंगे
कि सुख न कंपाए?
अगर बहुत ताकत
लगाकर खड़े हो
गए, तो आप
कंप गए!
अगर एक
आदमी कहे कि
मैं तो अंधेरे
में से निकल जाता
हूं। आंख बंद
कर लेता हूं; हाथ पकड़कर
जोर से ताकत
लगाता हूं; बिलकुल निकल
जाता हूं बिना
डरे। यह हाथ
और यह ताकत, ये सब डर के
लक्षण हैं। इस
आदमी का यह
कहना कि मैं
अंधेरे में बिना
डरे निकल जाता
हूं, यह भी
डरे हुए आदमी
का वक्तव्य
है। नहीं तो
अंधेरे का पता
ही नहीं चलता;
यह निकल
जाता। उजाले
में तो नहीं
कहता यह आदमी
कि मैं उजाले
में बिना डरे
निकल जाता
हूं! अंधेरे
की कहता है कि
अंधेरे में
बिना डरे निकल
जाता हूं।
नहीं; अगर आपने
बहुत ताकत
लगाई, तो
समझ लेना कि
आप कंप गए, वह
ताकत कंपन ही
है। नहीं; ताकत
लगाने की कोई
जरूरत नहीं
है।
इस बात
को, तीसरे
सूत्र को, ठीक
से खयाल में
ले लें। इससे
साधक को बड़ी
कठिनाई होती
है।
ताकत
लगाई अगर आपने
और कहा कि ठीक
है, अब सुख
आएगा, तुम
डालना मेरे
गले में माला
और मैं बिलकुल
छाती को अकड़ाकर
और सांस को
रोककर बिलकुल
अकंप रह जाऊंगा!
आप कंप
गए। बुरी तरह
कंप गए। यह
इतनी ताकत लगाई
माला के लिए!
चार आने में
बाजार में मिल
जाती है। चार
आने के लिए
इतनी ताकत
लगानी पड़ी
आत्मा की, तब तो कंपन
काफी हो गया।
और कितनी देर
मुट्ठी बांधकर
रखिएगा? थोड़ी
देर में
मुट्ठी ढीली
करनी पड़ेगी।
सांस कितनी
देर रोकिएगा?
थोड़ी देर
में सांस
लेंगे। तो जो
डर था, वह
थोड़ी देर बाद
शुरू हो
जाएगा।
नहीं; समझ की
जरूरत है, शक्ति
की जरूरत नहीं
है। समझ की
जरूरत है। जब सुख
आए, तो
समझने की
कोशिश करिए; ताकत लगाकर
दुश्मन बनकर
मत खड़े हो
जाइए।
क्योंकि
जिसके खिलाफ आप
दुश्मन बनकर
खड़े हुए, उसकी
ताकत आपने मान
ली। ताकत मत
लगाइए, समझ।
और
ध्यान रखिए, जितनी समझ
कम हो, लोग
उतनी ज्यादा
ताकत लगाते
हैं। सोचते
हैं, ताकत
से समझ का काम
पूरा कर
लेंगे। कभी
नहीं पूरा
होता।
रत्तीभर समझ,
पहाड़भर ताकत से
ज्यादा
ताकतवर है।
समझ का काम
कभी ताकत से
पूरा नहीं
होगा। समझ को
ही विकसित
करिए।
जब सुख
आए, तो उसको
देखिए गौर से,
भोगिए,
समझने की
कोशिश करिए।
और देखिए कि
रोज कैसे सुख
दुख में बदलता
जा रहा है। और
अंत तक यात्रा
करिए और देखिए
कि सुख से
शुरू हुआ था और
दुख पर पूरा
हुआ! दो-चार-दस
सुखों के बीच
से गुजरिए
समझते हुए। और
आप पाएंगे कि
आपकी समझ में
वह जगह आ गई, वह मैच्योरिटी,
वह प्रौढ़ता
आपकी समझ में
आ गई कि अब
ताकत लगाने की
जरूरत नहीं
है। आप, बस
अब सुख आता है
और जानते हैं
कि वह दुख है।
इतनी सरलता से
जिस दिन आप
रहेंगे, उस
दिन निष्कंप
चित्त पैदा
होगा; ताकत
से नहीं पैदा
होगा।
इसलिए
बहुत से हठवादी
धर्म को ताकत
से छीनना
चाहते हैं। वे
कभी धर्म को
नहीं उपलब्ध
हो पाते, सिर्फ
अहंकार को
उपलब्ध होते
हैं। ताकत से
अहंकार मिल
सकता है। समझ
से अहंकार
गलता है।
अगर
ताकत लगाकर आपने
कहा कि ठीक, अब हम सुख को
सुख नहीं
मानते, दुख
को दुख नहीं
मानते; और
खड़े हो गए आंख
बद करके ताकत
लगाकर, तो
सिर्फ अहंकार
मजबूत होगा।
और कुछ भी
होने वाला
नहीं है। और
यह अहंकार
अपने तरह के
सुख देने
लगेगा; और
यह अहंकार
अपने तरह के
दुख लाने
लगेगा; खेल
शुरू हो जाएगा।
समझ, अंडरस्टैंडिंग
पर खयाल रखिए।
जितनी समझ बढ़ती
है, जितनी
प्रज्ञा बढ़ती
है, उतना
ही...।
बुद्ध
ने तीन शब्द
उपयोग किए
हैं--प्रज्ञा, शील, समाधि।
बुद्ध कहते
हैं, जितनी
प्रज्ञा बढ़े,
जितनी समझ
बढ़े, उतना
शील
रूपांतरित
होता है, चरित्र
बदलता है।
जितना चरित्र रूपांतरित
हो, उतनी
समाधि निकट
आती है।
लेकिन
शुरुआत करनी
पड़ती है
प्रज्ञा से, समझ से। समझ
बनती है शील
बाहर की
दुनिया में, और भीतर की
दुनिया में
समाधि। यहां
समझ बढ़ती है, तो बाहर की
दुनिया में
चरित्र पैदा
होता है। और
चरित्र का अगर
ठीक-ठीक अर्थ
समझें, तो
चरित्र केवल
उसी के पास
होता है, जो
अकंप है। जो
जरा-जरा सी
बात में कंप
जाता है, उसके
पास कोई
चरित्र नहीं
होता।
सुना
है मैंने कि इमेनुअल
कांट, जर्मनी
का एक बहुत
प्रज्ञावान
पुरुष, रात
दस बजे सो
जाता था, सुबह
चार बजे उठता
था। नौकर से
कह रखा था, जो
उसकी सेवा
करता था, कि
दस और चार के
बीच कुछ भी हो
जाए, भूकंप
भी आ जाए, तो
मुझे मत
उठाना।
लेकिन
फिर ऐसा हुआ
कि इमेनुअल
कांट जिस
विश्वविद्यालय
में शिक्षक था, अध्यापक था,
उस
विश्वविद्यालय
ने तय किया कि
उसे चांसलर, कुलपति बना
दिया जाए। रात
बारह बजे तार
आया; नौकर
को तार मिला।
इतनी खुशी की
बात थी। गरीब इमेनुअल
कांट, साधारण
प्रोफेसर था,
चांसलर
होने का
निर्णय किया
विश्वविद्यालय
की एकेडेमिक
कौंसिल ने! तो
नौकर भूल गया
यह। सोचा था
कि भूकंप के
लिए मना किया
है। मगर यह तो
बात इतनी खुशी
की, इतने
सुख की है, इसकी
तो खबर दे
देनी चाहिए।
गया और
जाकर इमेनुअल
कांट को
हिलाया और
उठाया, कहा
कि
शुभकामनाएं
करता हूं!
आपको
विश्वविद्यालय
ने कुलपति
चुना। इमेनुअल
कांट ने आंख
खोली, एक
चांटा नौकर को
मारा और वापस
चादर ओढ़कर
सो गया।
नौकर
तो बहुत हैरान
हुआ। बड़ा
हैरान हुआ! यह
क्या हुआ? भूकंप को
मना किया था; यह तो बात ही
कुछ और है!
सुबह इमेनुअल
कांट ने उठकर
पहला तार
यूनिवर्सिटी
आफिस को किया
कि मुझे क्षमा
करें, इस पद
को मैं
स्वीकार न कर
सकूंगा, क्योंकि
इस पद के कारण
मेरे नौकर को
भी भ्रांति
हुई और कहीं
मुझे न हो
जाए। इसमें
मैं नहीं पडूंगा।
इस पद के कारण
मेरी कल की
नींद खराब हुई,
अब और आगे
की नींद मैं
खराब न
करूंगा। इससे झंझटें
आएंगी। इससे
झंझटों की
शुरुआत हो गई।
वर्षों से मैं
कभी दस और चार
के बीच उठा
नहीं!
सुबह
नौकर से कहा
कि तू बिलकुल
पागल है! नौकर
ने कहा, लेकिन
आपने तो कहा
था, भूकंप
आए तो नहीं
उठाना है!
कांट ने उसे कहा
कि दुख के भी
भूकंप होते
हैं, सुख
के भी भूकंप
होते हैं। और
जो सुख के
भूकंप स्वीकार
कर लेता है, उसी के घर
दुख के भूकंप
आते हैं; अन्यथा
कोई कारण नहीं
है। शुरुआत हो
गई थी। अगर
मैं कल खुश
होकर तुझे
धन्यवाद दे
देता, तो
मैं गया था! बस,
मैंने फिर
निमंत्रण दे
दिया, दरवाजे
खोल दिए दुख
के लिए।
उस
नौकर ने कहा, लेकिन मुझे
आपने चांटा
क्यों मारा? कांट ने कहा
कि तू समझता
होगा, मिठाई
बांटूंगा!
तो मैंने तुझे
खबर दी कि
जिसे तू सुख
समझकर आ रहा
है, उससे
भी आखिर में
दुख ही आने
वाला है, इसलिए
मैंने कहा, चांटा अभी
ही मार दूं। तुझे
भी पता होना
चाहिए कि सुख
सदा दुख को ही
लाता है पीछे,
देर-अबेर।
जागें।
सुख को समझने
की कोशिश
करें। वह
जैसे-जैसे समझ
बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे
संतुलन, तटस्थता,
उपेक्षा
आती जाएगी। आप
पार खड़े हो
जाएंगे। उस पार
खड़े व्यक्ति
को कह सकते
हैं हम कि वह
मंदिर बन गया परम
सत्ता का। परम
सत्ता उसके
भीतर
प्रतिष्ठित
ही है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, इस
श्लोक में एक
शब्द आया है, जितात्मनः,
जिस पुरुष
ने अपनी आत्मा
जीत ली। आत्मा
के साथ जीतना
शब्द का कैसा
अर्थ होगा, इसे स्पष्ट
करें।
जिसने
स्वयं को जीता, स्वयं की
आत्मा जीती, इसका क्या
अर्थ होगा?
दो
अर्थ खयाल में
लेने जैसे
हैं। एक तो, हम स्वयं को
भी नहीं जीत
पाए हैं और सब
जीतने की
योजनाएं
बनाते हैं।
स्वयं को भी
नहीं जीत पाए!
और जो व्यक्ति
स्वयं को जीते
बिना और सारी
जीत की योजना
बनाता है, उससे
ज्यादा
विक्षिप्त और
कौन होगा! अगर
जीत की ही
यात्रा करनी
है, तो
पहले स्वयं की
कर लेनी
चाहिए। स्वयं
को न जीतने का
क्या अर्थ है?
अगर
मैं आपसे कहूं
कि आज आप
क्रोध मत करना, तो क्या
आपकी स्वयं पर
इतनी शक्ति है
कि आज आप क्रोध
न करें? यह
तो बड़ी बात हो
गई। अगर मैं
आपसे इतना ही
कहूं कि पांच
मिनट आंख बंद
करके बैठ जाएं
और राम शब्द
को भीतर न आने
दें, तब
आपको पता चल
जाएगा कि अपने
ऊपर कितनी
मालकियत है!
आंख
बंद कर लें और
मैं कहता हूं, पांच मिनट
राम शब्द आपके
भीतर न आने
पाए। तो इतनी
भी ताकत नहीं
है कि राम
शब्द को आप
भीतर आने से
रोक सकें। इस
पांच मिनट में
इतना आएगा, जितना
जिंदगी में
कभी नहीं आया
था! एकदम राम-जप
शुरू हो
जाएगा! राम-जप
का जो फायदा
होगा, वह
होगा। लेकिन
स्वयं की हार
सिद्ध हो
जाएगी। स्वयं
पर हमारा
रत्तीभर भी वश
नहीं है।
तो
जिसने स्वयं
की आत्मा
जीती! यहां
आत्मा से एक
अर्थ तो स्वयं
की सत्ता; स्वयं के
होने पर जिसकी
मालकियत है।
जांच
करें, तो
अपनी गुलामी
पता चलेगी कि
हम कैसे कमजोर
हैं! कैसे
कमजोर हैं!
हमारी कमजोरी
सब तरफ लिखी हुई
है। हर
द्वार-दरवाजे
पर, हर
इंद्रिय पर, हर वृत्ति
पर, हर
वासना पर, हर
विचार पर
हमारी कमजोरी
और गुलामी
लिखी हुई है।
अपने को धोखा
देने से कुछ न
होगा।
तो एक
तो स्वयं को
जीतने का
स्मरण दिलाया
है। आत्मा का
एक अर्थ तो है, स्वयं। और
आत्मा जीती
जिसने, इसका
दूसरा अर्थ है,
और भी गहरा,
और वह है, जिसने जाना
स्वयं को।
क्योंकि
जानना जीतना बन
जाता है।
ज्ञान विजय
है।
आत्मज्ञान
आत्म-विजय है।
तो एक
तो अर्थ है कि
हमारा जो
व्यक्तित्व
है, वह इतना
स्वाधीन हो कि
मैं कह सकूं
कि मेरा बल, मेरा वश
मेरे ऊपर है।
आप मुझ पर
भरोसा कर सकते
हैं। मैं अपने
पर भरोसा कर
सकता हूं।
लेकिन
कर सकते हैं? अगर सोचेंगे,
तो पाएंगे,
क्या भरोसा
कर सकते हैं!
एक व्यक्ति को
आप कहते हैं
कि कल भी तुझे
मैं प्रेम
करूंगा। कभी
सोचा है आपने कि
एक गुलाम आदमी
यह वादा कर
रहा है। कल? कल भी प्रेम
कर सकेंगे? थोड़ा एक बार
और सोचें। और
कल अगर प्रेम
कपूर की तरह
तिरोहित हो
गया आकाश में,
तो क्या
होगा उपाय
उसको वापस
लाने का?
इसे
ऐसा देखें, आज प्रेम
में पड़ गए हैं
किसी के, अगर
मैं आपसे कहूं
कि एक घंटा इस
व्यक्ति को अब
प्रेम मत
करें। अगर आप
समर्थ हों कि
कहें कि ठीक, यह एक घंटा
मेरी जिंदगी
में इससे
प्रेम का घंटा
नहीं रहेगा।
तो भरोसा किया
जा सकता है कि
कल जब प्रेम
उड़ जाए, तब
भी आप, प्रेम
करने का जो
वचन दिया है, वह पूरा कर
सकें। अन्यथा
भरोसा नहीं
किया जा सकता
है। अभी आप
कहेंगे, यह
कैसे हो सकता
है कि मैं
प्रेम न करूं?
कल आप
कहेंगे कि यह
कैसे हो सकता
है कि मैं प्रेम
करूं? विवश,
बंधे हुए
हैं।
एक तो
पहला, प्राथमिक
और बहिर अर्थ
है, स्वयं
को इस अर्थ
में जीत लेने
का कि मैं अपने
पर भरोसा कर
सकूं। दूसरा
अर्थ है, स्वयं
को जान लेने
का।
महावीर
ने कहा है, जिसने जाना
स्वयं को, उसने
जीता भी।
इसलिए महावीर
के साथ जिन
जुड़ गया। जिन
का अर्थ है, जिसने जीता।
लेकिन जाना, तो जीता।
क्योंकि जिसे
हम जानते ही
नहीं, उसे
हम जीतेंगे
कैसे? जिसे
जीतना है, उसे
जाने बिना
जीतने का कोई
उपाय नहीं है।
ज्ञान विजय
है। जिसे भी
हम जान लेते
हैं, उसके
हम मालिक हो
जाते हैं।
तो
दूसरे अर्थ
में हम
आत्म-अज्ञानी
हैं। हमें कुछ
पता ही नहीं
कि मैं कौन
हूं! नाम-धाम
पता है, उससे
कुछ होने का
हमारा संबंध
नहीं है। पता
ही नहीं, मैं
कौन हूं! इसकी
कोई खबर ही
नहीं। जिसे यह
भी पता नहीं
कि मैं कौन
हूं, उसे
आत्मवान कहना
भी सिर्फ
शब्दों के साथ
खिलवाड़
है।
अभी एक
फकीर था, गुरजिएफ।
वह कहता था, सभी के भीतर
आत्मा नहीं
है। और जब
उसने पहली दफा
यह कहा, तो
बहुत हड़बड़ी
मची। क्योंकि
लोगों ने कहा
कि यह तो किसी
शास्त्र में
नहीं लिखा है।
सभी शास्त्रों
में लिखा है, सबके भीतर
आत्मा है। और
तुम कहते हो
कि सभी के भीतर
आत्मा नहीं
है! तो
गुरजिएफ कहता
था कि जिसे
पता ही नहीं
है, उसके
भीतर होना और
न होना बराबर
है। यानी एक आदमी
कहे कि मेरे
घर में खजाना
है। उससे पूछो,
कहां है? वह कहे कि यह
मुझे पता
नहीं। तो न
होने और होने में
क्या फर्क है?
कोई भी तो
फर्क नहीं है;
वर्चुअली कोई भी फर्क
नहीं है।
तो
गुरजिएफ कहता
था, मैं नहीं
मानता कि सबके
भीतर आत्मा
है। और मैं
कहता हूं कि
वह ठीक कहता
था। आत्मा उसी
के भीतर है, जो जानता है।
एक
आदमी के बाबत
मैंने सुना है, बड़ी हड़बड़ी
में एक सड़क के
किनारे खड़े
होकर वह अपने
सब खीसे देख
रहा है।
दो-चार लोग भी
इकट्ठे खड़े हो
गए हैं उसकी हड़बड़ी
देखकर। फिर इस
खीसे में हाथ
डालता है, फिर
उस खीसे में
हाथ डालता है।
सिर्फ एक खीसा
कोट का ऊपर का
छोड़ देता है।
फिर
आखिर किसी ने
पूछा कि महाशय, आप कई बार
खीसों में हाथ
डालकर देख
चुके और बड़े
परेशान हैं; पसीने की
बूंदें आ गईं;
मामला क्या
है? उस
आदमी ने कहा
कि मेरा बटुआ
खो गया है।
मैंने सब खीसे
देख लिए हैं, सिर्फ एक को
छोड़कर। तो
उन्होंने
पूछा कि महाशय,
उसको भी देख
क्यों नहीं
लेते? उस
आदमी ने कहा
कि उसे देखने
में बड़ा डर
लगता है कि
अगर उसमें भी
न हुआ तो? इसलिए
मैं उसको
छोड़कर बाकी
में देख रहा
हूं!
भीतर
जाने में भी
हम डरते हैं
कि कहीं आत्मा
न हुई तो? इधर
बाहर से किताब
पढ़कर बैठ जाते
हैं; बड़ी
चैन मिलती है
कि भीतर आत्मा
है, परमात्मा
है। अमृत के
झरने फूट रहे
हैं। आनंद की धाराएं
बह रही हैं।
बाहर किताब
में पढ़कर बड़े
निश्चिंत हो
जाते हैं।
लेकिन कभी
खीसे में हाथ नहीं
डालते भीतर।
कहीं न हुई तो?
तो एक भरोसा
और टूट जाए, एक आशा और
विखंडित हो
जाए। एक
आश्वासन, जिसके
सहारे सब दुख
झेले जा सकते
थे; सब
खीसे टटोले
जा सकते थे
जिसके सहारे
कि अगर यहां न
मिला तो ठीक
है, कोई
हर्ज नहीं, वहां तो खोज
ही लेंगे; तो
वहां तो मिल
ही जाएगा।
कहीं वह भी न
टूट जाए, उस
भय से भीतर झांककर
भी नहीं
देखते।
आत्मजयी
का अर्थ है, वह व्यक्ति,
जो अपने
भीतर पूरी
आंखों से देख सकता
है। वह जानता
है कि वहां है;
उसने देखा
है कि वहां है;
उसने पाया
है कि वहां
है। अब वह
निर्भय है। अब
उसकी छाती में
छुरा भोंक दो,
तो भी
निर्भय है; क्योंकि वह
जानता है, यह
छुरा उसमें
प्रवेश नहीं
कर सकेगा, जिसे
उसने जान लिया
है। अब मौत
उसके दरवाजे
पर खड़ी हो जाए,
तो आलिंगन
कर लेगा; क्योंकि
वह जानता है
कि जिसे उसने
अपने भीतर जाना
है, उसको
मौत छू पाए, इसका कोई
उपाय नहीं है।
अब आप उसको
गालियां दें
और अपमानित
करें, तो
वह हंसेगा, क्योंकि वह
जानता है, तुम्हारी
गालियां उस तक
नहीं पहुंच
सकतीं; तुम्हारे
अपमान उस तक
नहीं पहुंच
सकते, जो
वह है। अब वह
विजयी हुआ, अब वह जिन हो
गया।
तो एक
तो बाहर के
अर्थों में कि
हम अपनी किसी
भी चीज के लिए
अपने पर भी
भरोसा नहीं कर
सकते; हमारी
वृत्तियां
हमें जहां ले
जाती हैं, हमें
जाना पड़ता है;
परवश, पराधीन।
और एक इस
अर्थों में कि
हमें स्वयं का
भी कोई पता
नहीं है।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, आत्मजयी, आत्मा को
जीत लिया है
जिसने, उसमें
परमात्मा सदा
प्रतिष्ठित
है।
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त
इच्युच्यते
योगी समलोष्टाश्मकाग्चनः।।
8।।
और
ज्ञान-विज्ञान
से तृप्त है
अंतःकरण
जिसका, विकाररहित है स्थिति
जिसकी और
अच्छी प्रकार
जीती हुई हैं
इंद्रियां
जिसकी तथा
समान है
मिट्टी, पत्थर
और सुवर्ण
जिसको, वह
योगी युक्त
अर्थात भगवत
की प्राप्ति
वाला है, ऐसा
कहा जाता है।
इस
श्लोक में
पिछले सूत्र
में कुछ और नई
दिशाएं
संयुक्त की गई
हैं।
ज्ञान-विज्ञान
से तृप्त है
जो!
ज्ञान
कहते हैं
स्वयं को जान
लेने को।
विज्ञान कहते
हैं पर को जान
लेने को।
विज्ञान का
अर्थ है, दूसरे
को जानने की
जो व्यवस्था
है। ज्ञान का
अर्थ है, स्वयं
को जान लेने
की जो
व्यवस्था है।
कृष्ण
कहते हैं, तृप्त है जो
ज्ञान-विज्ञान
से। इसका क्या
अर्थ होगा? इसका क्या
यह अर्थ होगा
कि जो व्यक्ति
आत्मज्ञानी
है, योगारूढ़ है, योग
को उपलब्ध है,
क्या वह
समस्त
विज्ञान को
जानकर तृप्त
हो गया है?
ऐसा
अर्थ लेने की
कोशिश की गई
है, जो गलत
है। क्योंकि
अगर ऐसा होता,
तो इस हमारे
भारत में, जहां
हमने बहुत योगारूढ़
व्यक्ति पैदा
किए, हमने
समस्त
विज्ञानों का
सार खोज लिया
होता। वह हमने
नहीं खोजा। तब
तो हमारा एक
योगी समस्त आइंस्टीनों
और समस्त न्यूटनों
और समस्त प्लांकों
का काम पूरा
कर देता। तब
तो कोई बात ही
न थी। तब तो
अणु का रहस्य
हम खोज लिए
होते। तब तो
समस्त विराट
ऊर्जा का जो
भी रहस्य है, हमने खोज
लिया होता।
इसलिए जो इसका
ऐसा अर्थ लेता
हो, वह गलत
लेता है। ऐसा
इसका अर्थ
नहीं है। इसका
अर्थ और गहरा
है। यह बहुत
ऊपरी अर्थ भी
है, यह
बहुत गहरा
अर्थ भी नहीं
है।
समस्त
ज्ञान-विज्ञान
से आत्मा है
तृप्त जिसकी!
विज्ञान
से तृप्ति का
अर्थ है, जिसके
जीवन से
कुतूहल विदा
हो गया।
कुतूहल, क्यूरिआसिटी विदा हो गई।
असल में क्यूरिआसिटी
बहुत बचकाने
मन का लक्षण
है।
यह
बहुत सोचने
जैसी बात है।
जितनी छोटी
उम्र, उतना
कुतूहल होता
है--यह कैसा है,
वह कैसा है?
यह क्यों
हुआ, यह
क्यों नहीं
हुआ? जितना
छोटा मन, जितनी
कम बुद्धि, उतना कुतूहल
होता है।
इसलिए
एक और बड़े मजे
की बात है कि
जिस तरह बच्चे
कुतूहल से भरे
होते हैं, इसी तरह जो
सभ्यताएं
बचकानी होती
हैं, वे
विज्ञान को
जन्म देती
हैं। बहुत
हैरानी होगी!
जो सभ्यताएं
जितनी चाइल्डिश
होती हैं, उतनी
साइंटिफिक
हो जाती हैं।
योरोप
या अमेरिका एक
अर्थों में
बहुत बचकाने
हैं, बहुत
बालपन में हैं,
इसलिए
वैज्ञानिक
हैं। कुतूहल
भारी है। चांद
पर क्या है, जानना है!
कुतूहल भारी
है। मंगल पर
क्या है, जानना
है! जानते ही
चले जाना है।
कुतूहल का तो कोई
अंत नहीं है।
क्योंकि
संसार का कोई
अंत नहीं है।
इसलिए
कोई सोचता हो
कि जब मैं सब
जान लूंगा, तब तृप्त
होऊंगा, तो
वह पागल है।
वह सिर्फ पागल
हो जाएगा।
ज्ञान-विज्ञान
से तृप्त है
जिसका मन, इसका अर्थ? इसका अर्थ
है, जिसका
कुतूहल चला
गया। जो इतना
प्रौढ़ हो गया
कि अब वह यह
नहीं पूछता कि
ऐसा क्यों है,
वैसा क्यों
है? प्रौढ़
व्यक्ति कहता
है, ऐसा
है।
फर्क
समझें। बच्चे
पूछते हैं, ऐसा क्यों
है? वृक्ष
के पत्ते हरे
क्यों हैं? गुलाब का
फूल लाल क्यों
है? आकाश
में तारे
क्यों हैं? प्रौढ़
व्यक्ति कहता
है, ऐसा है,
दिस इज़
सो। वह कहता
है, ऐसा
है। क्योंकि
अगर पत्ते
वृक्ष के पीले
होते, तो
भी तुम पूछते
कि पीले क्यों
हैं? अगर
वृक्ष पर
पत्ते न होते,
तो तुम
पूछते कि
पत्ते क्यों
नहीं हैं?
एक
नव-संन्यास
में दीक्षित
संन्यासिनी
ने--वह अमेरिका
से आई है--उसने
मुझसे पूछा
चार-छः दिन पहले
कि व्हाय
आई हैव कम टु
यू--मैं
तुम्हारे पास
क्यों आ गई? मैंने कहा
कि तू मेरे
पास न आती, तो
पूछ सकती थी, व्हाय आई हैव नाट
कम टु यू? इसका
क्या मतलब है!
किसी और के
पास पहुंचती,
तो तू पूछती
कि व्हाय?
आपके पास
क्यों आ गई? यह प्रश्न
तो कहीं भी
सार्थक हो
सकता था--कहीं भी--इसलिए
व्यर्थ है।
समझें।
यह प्रश्न
कहीं भी सार्थक
हो सकता था, इसलिए
व्यर्थ है। जो
प्रश्न किसी
जगह सार्थक होता
है, सब
कहीं नहीं, वही सार्थक
है। जो प्रश्न
सभी जगह लग
सकता है, उसका
कोई अर्थ नहीं
रह जाता। उसका
कोई भी अर्थ
नहीं रह जाता।
प्रौढ़
व्यक्ति
जानता है, जगत ऐसा है।
इसलिए प्रौढ़
सभ्यताओं ने
विज्ञान को
जन्म नहीं
दिया, प्रौढ़
सभ्यताओं ने
धर्म को जन्म
दिया। जब भी सभ्यता
अपने
प्राथमिक चरण
में होती है, तो विज्ञान
को जन्म देती
है; और जब
सभ्यता अपने
शिखर पर
पहुंचती है, तो धर्म को
जन्म देती है।
धर्म उस प्रौढ़
मस्तिष्क की
खबर है, जो
कहता है, चीजें
ऐसी हैं--थिंग्स
आर सच।
कुतूहल
व्यर्थ है, बचकाना है।
बच्चे करें, ठीक। कुतूहल
बचपन है।
तो जब
कृष्ण कहते
हैं, ज्ञान-विज्ञान
से तृप्त है
जो, जिसके
अब कोई प्रश्न
न रहे! उसका यह
मतलब नहीं है
कि जिसको सब
उत्तर मिल गए।
सब उत्तर कभी
किसी को मिलने
वाले नहीं
हैं। और अगर
किसी दिन सब
उत्तर मिल गए,
तो उससे
खतरनाक कोई
स्थिति न
होगी। जिस दिन
सब उत्तर मिल
जाएंगे, उस
दिन मरने के
सिवाय कोई
उपाय नहीं रह
जाएगा। और जिस
दिन सब उत्तर
मिल जाएंगे, उसका यही
अर्थ होगा कि
परमात्मा
सीमित है, अनंत
नहीं है, असीम
नहीं है। जो
असीम है सत्य,
उसके बाबत
सब उत्तर कभी
नहीं मिल
सकते।
और सब
उत्तर टेंटेटिव
हैं, सब उत्तर
कामचलाऊ हैं।
कल नए प्रश्न
खड़े हो जाएंगे
और सब उत्तर
बिखर जाते
हैं। जब
न्यूटन एक
उत्तर देता है,
तो बिलकुल
सही मालूम
पड़ता है।
बीस-पच्चीस
साल बीत नहीं
पाते हैं कि
दूसरा आदमी नए
सवाल खड़े कर
देता है और न्यूटन
के सब उत्तर
बिखर जाते
हैं। फिर
आइंस्टीन
उत्तर देता है,
पुराने
उत्तर बिखर
जाते हैं। अब
तो हर दो साल में
उत्तर बिखर
जाते हैं, नए
सवाल खड़े हो
जाते हैं। सब
पुराने उत्तर
एकदम गिर जाते
हैं।
प्रौढ़
व्यक्ति
जानता है कि
सब उत्तर
मनुष्य के
द्वारा
निर्मित हैं और
अस्तित्व
निरुत्तर है।
अस्तित्व
निरुत्तर है, इसीलिए
अस्तित्व
रहस्य है।
रहस्य
का मतलब होता
है, निरुत्तर।
जहां से कोई
उत्तर कभी
नहीं आएगा। अल्टिमेट
आंसर कोई भी
नहीं है, कोई
चरम उत्तर
नहीं है। कोई
नहीं कह सकता
कि बस, यह
उत्तर हो गया,
दिस इज़
दि आंसर। कोई
ऐसा नहीं है।
देयर आर आंसर्स,
बट नो आंसर।
उत्तर हैं, लेकिन कोई
उत्तर नहीं है,
जो कह दे कि
बस, यह
उत्तर हो गया;
अब कोई सवाल
उठने का सवाल
न रहा। कुतूहल
पैदा होता ही
चला जाएगा। और
हर नया उत्तर
नए प्रश्नों
के कुतूहल
पैदा कर जाता
है।
जब कोई
व्यक्ति इस
रहस्य को समझ
लेता है कि
किसी प्रश्न
का कोई अंतिम
उत्तर नहीं है, तब वह
प्रश्न ही छोड़
देता है। उस
प्रश्न-गिरी हुई
स्थिति का नाम,
विज्ञान-ज्ञान
से तृप्त हो
जाना है। वह
व्यक्ति
प्रौढ़ हुआ। उस
व्यक्ति का अब
कोई कुतूहल न रहा।
अब वह राह से
गुजर जाता है
बिना पूछे, क्योंकि वह
जानता है कि
पूछ-पूछकर भी
कुछ नहीं पाया
जा सकता है।
और सब उत्तर
सिर्फ नए
प्रश्नों को
जन्म देने
वाले सिद्ध
होते हैं। न
वह अब यह
पूछता है कि मैं
कौन हूं? न
वह अब यह
पूछता है कि
तू कौन है? वह
पूछता ही
नहीं।
क्या
होगा? जब
कोई नहीं
पूछता है, तब
कौन-सी घटना
घटेगी? जब
चित्त कोई भी
प्रश्न नहीं
पूछता, तब
बड़े रहस्य की
बात है। जब
कोई भी प्रश्न
नहीं होता
चित्त में, सब प्रश्न
गिर जाते हैं,
तब चित्त
इतना मौन होता
है, इतना
शांत होता है
कि किसी दूसरे
मार्ग से जीवन
के रहस्य के
साथ एक हो
जाता है।
उत्तर नहीं मिलता,
लेकिन जीवन
मिल जाता है।
उत्तर नहीं
मिलता, लेकिन
अस्तित्व मिल
जाता है। वही
उत्तर है। रहस्य
के साथ
आत्मसात हो
जाता है।
एक ढंग
है, पूछकर
जानने का; और
एक ढंग है, न
पूछकर जानने
का। न पूछकर
जानने का ढंग,
धर्म का ढंग
है। पूछकर
जानने का ढंग,
विज्ञान का
ढंग है।
लेकिन
कृष्ण कहते
हैं, ज्ञान-विज्ञान
दोनों से जो
तृप्त हो गया।
प्रौढ़ हो गया,
मैच्योर हुआ, अब
पूछता ही
नहीं।
क्योंकि कहता
है, सब
पूछना बच्चों
का पूछना है।
और सब उत्तर
थोड़े ज्यादा
उम्र के
बच्चों के
द्वारा दिए गए
उत्तर हैं। और
कोई फर्क नहीं
है। थोड़ी छोटी
उम्र के बच्चे
सवाल पूछते
हैं; थोड़ी
बड़ी उम्र के
बच्चे सवालों
का जवाब दे
देते हैं।
कभी
आपने घर में
खयाल किया कि
अगर आपके घर
में दो बच्चे
हैं, एक छोटा
है, एक
थोड़ा बड़ा है।
आपसे सवाल
पूछते हैं; आप जवाब
देते हैं। आप
जरा घर के
बाहर चले जाएं।
छोटा बच्चा
बड़े बच्चे से
सवाल पूछने
लगता है, बड़ा
बच्चा छोटे
बच्चे को जवाब
देने लगता है।
वही काम जो आप
कर रहे थे, वह
करने लगता है!
ये सब
सवाल-जवाब
बच्चों के बीच
हुई चर्चाएं
हैं। प्रौढ़ता
उस क्षण घटित
होती है, जहां
कोई सवाल नहीं
है, जहां
कोई जवाब नहीं
है, जहां
इतना परम मौन
है कि पूछने
का भी कोई--कोई
पूछने का भी
विघ्न नहीं
है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, ज्ञान-विज्ञान
से जो तृप्त
है।
नहीं, ऐसा नहीं कि
सब
ज्ञान-विज्ञान
जान लिया।
बल्कि ऐसा कि
सब जानने की
चेष्टा को ही
व्यर्थ जाना।
सब जानने की
चेष्टा को ही
व्यर्थ जाना।
सब कुतूहल
व्यर्थ जाने।
सब पूछना
व्यर्थ जाना। फ्यूटिलिटी
जाहिर हो गई
कि कुछ पूछने
से कभी कुछ
मिला नहीं।
यही अंतर है फिलासफी
और धर्म का।
यही अंतर है
दर्शन और धर्म
का।
दार्शनिक
पूछे चले जाते
हैं। वे बूढ़े
हो गए बच्चे
हैं, जिनका
बचपन हटा
नहीं। वे पूछे
चले जाते हैं।
वे पूछते हैं,
जगत किसने
बनाया? और
पूछते हैं कि
फिर उस बनाने
वाले को किसने
बनाया? और
फिर पूछते हैं
कि उस बनाने
वाले को किसने
बनाया? और
पूछते चले
जाते हैं। और
उन्हें कभी
खयाल भी नहीं
आता कि वे
क्या पागलपन
कर रहे हैं!
इसका कोई अंत
होगा? इसका
कोई भी तो अंत
नहीं होने
वाला है।
अज्ञान
अपनी जगह
रहेगा। ये सारे
उत्तर अज्ञान
से दिए गए
उत्तर हैं।
इनसे कुछ हल
नहीं होगा।
प्रश्न फिर
खड़ा हो जाएगा।
पूछते हैं, जगत किसने
बनाया? कहते
हैं, ईश्वर
ने बनाया।
अज्ञान में
दिया गया
उत्तर है। सच
तो यह है कि
अज्ञानी ही
पूछते रहते
हैं, अज्ञानी
ही उत्तर देते
रहते हैं!
उत्तर
और प्रश्नों
में जगत की
पहेली हल होने
वाली नहीं है।
तो कहते हैं
कि जैसे
कुम्हार घड़ा
बनाता है, ऐसे भगवान
ने यह संसार
बना दिया।
भगवान को भी कुम्हार
बनाने से नहीं
चूकते! उसको
कुम्हार बना
दिया। घड़ा
कैसे बनेगा
बिना कुम्हार
के? तो जगत
कैसे बनेगा
बिना भगवान के?
तो एक महा
कुम्हार, उसने
घड़े की
तरह जगत को
बना दिया।
लेकिन
कोई बच्चा
जरूर पूछेगा
कि यह तो हम
समझ गए कि जगत
उसने बना दिया, लेकिन उसको
किसने बनाया?
तो जो जरा
धैर्यवान हैं,
वे फिर कुछ
और उत्तर
खोजेंगे। कोई अधैर्यवान
हैं, तो
डंडा उठा
लेंगे। वे
कहेंगे, बस,
अतिप्रश्न हो गया! अब
आगे मत पूछो, नहीं सिर
खोल देंगे!
जब अतिप्रश्न
ही कहना था, तो पहले
प्रश्न पर ही
कह देना था कि
व्यर्थ मत पूछो।
क्योंकि फर्क
क्या पड़ा! बात
तो वहीं की वहीं
खड़ी है। राज
वहीं का वहीं
खड़ा है। सिर्फ
प्रश्न पहले
जगत के साथ
लगा था कि
किसने बनाया,
अब वही प्रश्न
परमात्मा के
साथ लग गया कि
किसने बनाया। अल्टिमेट
के साथ जुड़ा
है वह, अल्टिमेट के साथ ही
जुड़ा हुआ है।
पहले जगत
आखिरी था, अब
परमात्मा
आखिरी है। हम
पूछते हैं, उसको किसने
बनाया? और
अगर आप कहते
हैं कि वह
बिना बनाया, स्वयंभू है,
तो फिर पहले
जगत को ही
स्वयंभू मान
लेने में
कौन-सी अड़चन
आती थी?
दार्शनिक
बच्चों के
कुतूहल में
पड़े हुए लोग हैं।
इसलिए सब फिलासफी
चाइल्डिश
होती है।
कितने ही बड़े
दार्शनिक हों, कितने ही
गुरु-गंभीर
उन्होंने
ग्रंथ लिखे हों,
चाहे हीगल
हों और चाहे
बड़े मीमांसक
हों, कितने
ही उन्होंने
गुरु-गंभीर ग्रंथ
लिखे हों और
कितने ही
बड़े-बड़े
शब्दों का उपयोग
किया हो और
कितना ही जाल
बुना हो, अगर
बहुत गहरे में
उतरकर
देखेंगे, तो
छिपा हुआ
बच्चा पाएंगे,
जो कुतूहल
कर रहा है, क्यूरिअस है कि यह
क्यों है, वह
क्यों है! फिर
अपने ही उत्तर
दे लेता है।
खुद के ही
सवाल हैं और खुद
के ही जवाब
हैं और खुद का
ही खेल है।
कृष्ण
कहते हैं, जो तृप्त
हुआ इस सब बचकानेपन
से। जो प्रौढ़
हुआ, जो
कहता है, पूछना
ही व्यर्थ है,
क्योंकि
उत्तर कौन
देगा! जो इतना
प्रौढ़ हुआ कि
कहता है कि
चीजों का
स्वभाव ऐसा
है। कोई सवाल नहीं
है। आग जलाती
है और पानी
ठंडा है। ऐसा
है। ऐसा
वस्तुओं का
स्वभाव है।
महावीर
का एक वचन है
बहुत कीमती, जिसमें
उन्होंने कहा
है, वत्थूस्वभावो धम्म, वस्तु
के स्वभाव को
जान लेना ही
धर्म है। ऐसा जान
लेना कि ऐसा
वस्तुओं का
स्वभाव है; इसका यह
स्वभाव है, उसका वह
स्वभाव है; बस, इतना
ही जान लेना धर्म
है। मगर ऐसा
जानना तभी
संभव हो सकता
है, जब
ज्ञान-विज्ञान
की वह जो
जिज्ञासा
है--अनंत जिज्ञासा
है, दौड़ाती ही रहती है
कि और जानूं, और जानूं--वह
शांत हो जाए, तृप्त हो
जाए।
तो
कृष्ण कहते
हैं, जिसकी
जिज्ञासा, जिसका
कुतूहल क्षीण
हुआ, जो
प्रौढ़ हुआ।
जिसने अस्तित्व
को स्वीकार
किया और पूछना
बंद किया। और
जिसने जाना कि
मैं एक लहर
हूं इस विराट
सागर में, क्या
पूछूं? किससे पूछूं?
कौन देगा
जवाब? मैं
खुद ही जवाब
हूं। चुप हो
जाऊं, मौन
हो जाऊं, उतरूं
गहरे में।
जानूं कि
अस्तित्व
क्या है! पूछूं
न, उत्तर
की तलाश न
करूं, अनुभव
की तलाश करूं।
उस अनुभव में
जो फलित होता
है, उस
अनुभव में
व्यक्ति
परमात्मा को
उपलब्ध हो जाता
है, ऐसा
जानने वालों
ने कहा है।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा जानने
वालों ने कहा
है। ऐसा कहा
जाता है।
ऐसा
क्यों कहते
हैं? यह आखिरी
बात, फिर
हम सांझ बात
करेंगे।
कृष्ण ऐसा
क्यों कहते
हैं कि ऐसा
कहा जाता है?
ऐसा
कृष्ण इसलिए
कहते हैं कि
मेरा कोई दावा
नहीं है कि
ऐसा मैं कहता
हूं।
जिन्होंने भी
जाना है, उन्होंने
ऐसा ही कहा
है। मैं कोई
दावेदार नहीं
हूं। कृष्ण
ऐसा नहीं कहते
कि ऐसा मैं ही
कह रहा हूं।
ऐसा उन्होंने
भी कहा है, जो
जानते हैं।
ज्ञान ऐसा
कहता है। इससे
व्यक्ति को
विदा करने की
कोशिश है।
और
ध्यान रहे, ज्ञानी में
व्यक्ति नहीं
रह जाता। बोले,
तो भी नहीं
रह जाता। मैं
कहे, तो भी
नहीं रह जाता।
ये सिर्फ
कामचलाऊ
बातें रह जाती
हैं।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, ऐसा कहा
जाता है। ऐसा
मैं भी कहता
हूं। ऐसा और
भी कहते हैं।
ऐसा जो भी
जानते हैं, वे कहते
हैं। ऐसा
ज्ञान का कथन
है। ऐसा ज्ञान
कहता है।
समस्त
द्वंद्वों से
पार, कुतूहल
से पार, व्यर्थ
जानने की दौड़
और जिज्ञासा
से पार, प्रौढ़
हुआ चित्त, समतुल हुआ
चित्त, निर्द्वंद्व
हुआ चित्त, समबुद्धि
में ठहरा हुआ
चित्त, अकंप
हुआ चित्त, परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाता है।
पांच
मिनट और बैठे
रहेंगे। अभी
इतनी बात सुनी; प्रश्न हैं,
जवाब हैं, पांच मिनट
थोड़ा अनुभव
में उतरने की
कोशिश करेंगे।
हालांकि मन यह
करता है कि
सुन तो सकते
हैं दो घंटे, लेकिन अनुभव
में पांच मिनट
उतरने में भी
कठिनाई होती
है।
तो
पांच मिनट
अनुभव में
उतरेंगे। और
मैं चाहूंगा
कि साथ दें।
यहां कीर्तन
करेंगे
संन्यासी, तो वे आनंद
में मग्न हो
रहे हैं, आप
भी उनके आनंद
में भागीदार
हों। ताली
बजाएं, उनके
साथ गीत गाएं।
संकोच न करें,
पड़ोसी क्या
कहेगा! वह
वैसे ही काफी
कह रहा है। आप
उसकी कोई बहुत
फिक्र न करें।
जिनको
नाच में
सम्मिलित
होना हो, वे
भी ऊपर आ जाएं
या सामने आ
जाएं। जिनको
बैठकर ताली
देनी हो, गीत
गाने हों, वे
भी गीत गाएं
और साथ दें।
पांच मिनट लीन
होकर देखें।
सब प्रश्न, सब जिज्ञासा,
सब गीता, वेद छोड़कर
वहां उतर जाएं
जहां से गीता
जन्मती है और
वेद आविर्भूत
होते हैं। डूबें
थोड़ा अपने
भीतर!
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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