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बुधवार, 28 मई 2014

गीता दर्शन--(भाग--3) प्रवचन--060

मालकियत की घोषणा—(अध्याय-6) प्रवचन—तीसरा


उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। 5।।

और यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा आपका संसार समुद्र से उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुंचावे। क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है अर्थात और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है।

योग परम मंगल है। परम मंगल इस अर्थ में कि केवल योग के ही माध्यम से जीवन के सत्य की और जीवन के आनंद की उपलब्धि है। परम मंगल इस अर्थ में भी कि योग की दिशा में गति करता व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है। और योग के विपरीत दिशा में गति करने वाला व्यक्ति अपना ही शत्रु सिद्ध होता है।
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, उचित है, समझदारी है, बुद्धिमत्ता है इसी में कि व्यक्ति अपनी आत्मा का अधोगमन न करे, ऊर्ध्वगमन करे।
और ये दोनों बातें संभव हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है।

व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है नीचे यात्रा करने के लिए भी, ऊपर यात्रा करने के लिए भी। स्वतंत्रता में सदा ही खतरा भी है। स्वतंत्रता का अर्थ ही होता है, अपने अहित की भी स्वतंत्रता। अगर कोई आपसे कहे कि आप सिर्फ वही करने में स्वतंत्र हैं, जो आपके हित में है; वह करने में आप स्वतंत्र नहीं हैं, जो आपके हित में नहीं है--तो आपकी स्वतंत्रता का कोई भी अर्थ नहीं होगा। कोई अगर मुझसे कहे कि मैं स्वतंत्र हूं सिर्फ धर्म करने में और अधर्म करने के लिए स्वतंत्र नहीं हूं, तो उस स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा; वह परतंत्रता का ही एक रूप है।
मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है। और जब भी हम कहते हैं, कोई स्वतंत्र है, तो दोनों दिशाओं की स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाती है--बुरा करने की भी, भला करने की भी। दूसरे के साथ बुरा करने की स्वतंत्रता, अपने साथ बुरा करने की स्वतंत्रता बन जाती है। और दूसरे के साथ भला करने की स्वतंत्रता, अपने साथ भला करने की स्वतंत्रता बन जाती है।
मनुष्य चाहे तो अंतिम नर्क के दुख तक यात्रा कर सकता है; और चाहे--वही मनुष्य, ठीक वही मनुष्य, जो अंतिम नर्क को छूने में समर्थ है--चाहे तो मोक्ष के अंतिम सोपान तक भी यात्रा कर सकता है।
ये दोनों दिशाएं खुली हैं। और इसीलिए मनुष्य अपना मित्र भी हो सकता है और अपना शत्रु भी। हम में से बहुत कम लोग हैं जो अपने मित्र होते हैं, अधिक तो अपने शत्रु ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि हम जो भी करते हैं, उससे अपना ही आत्मघात होता है, और कुछ भी नहीं।
किसे हम कहें कि अपना मित्र है? और किसे हम कहें कि अपना शत्रु है?
एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है, तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं।
निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न मालूम कैसा दुर्भाग्य कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं!
लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है।
हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्तों को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।
मैं नदी की तरफ जा रहा हूं। मन में सोचता हूं कि नदी की तरफ जा रहा हूं। लेकिन अगर बाजार की तरफ चलने वाले रास्ते पर चलूंगा, तो मैं कितना ही सोचूं कि मैं नदी की तरफ जा रहा हूं, मैं पहुंचूंगा बाजार। सोचने से नहीं पहुंचता है आदमी; किन रास्तों पर चलता है, उनसे पहुंचता है। मंजिलें मन में तय नहीं होतीं, रास्तों से तय होती हैं।
आप कोई भी सपना देखते रहें। अगर आपने बीज नीम के बो दिए हैं, तो सपने आप शायद ले रहे हों कि कोई स्वादिष्ट मधुर फल लगेंगे। आपके सपनों से फल नहीं निकलते। फल आपके बोए गए बीजों से निकलते हैं। इसलिए आखिर में जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं, तो शायद आप दुखी होते हैं और पछताते हैं। सोचते हैं, मैंने तो बीज बोए थे अमृत के, फल कड़वे कैसे आए?
ध्यान रहे, फल ही कसौटी है, परीक्षा है बीज की। फल ही बताता है कि बीज आपने कैसे बोए थे। आपने कल्पना क्या की थी, उससे बीजों को कोई प्रयोजन नहीं है।
हम सभी आनंद लाना चाहते हैं जीवन में, लेकिन आता कहां है आनंद! हम सभी शांति चाहते हैं जीवन में, लेकिन मिलती कहां है शांति! हम सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख बरसे, पर बरसता कभी नहीं है।
तो इस संबंध में एक बात इस सूत्र से समझ लेनी जरूरी है कि हमारी चाह से नहीं आते फल; हम जो बोते हैं, उससे आते हैं।
हम चाहते कुछ हैं, बोते कुछ हैं। हम बोते जहर हैं और चाहते अमृत हैं! फिर जब फल आते हैं, तो जहर के ही आते हैं, दुख और पीड़ा के ही आते हैं, नर्क ही फलित होता है।
हम सब अपने जीवन को देखें, तो खयाल में आ सकता है। जीवनभर चलकर हम सिवाय दुख के गङ्ढों के और कहीं भी नहीं पहुंचते मालूम पड़ते हैं। रोज दुख घना होता चला जाता है। रोज रात कटती नहीं, और बड़ी होती चली जाती है। रोज मन पर और संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं। फूल आनंद के कहीं खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। पैरों में पत्थर बंध जाते हैं दुख के। पैर नृत्य नहीं कर पाते हैं उस खुशी में, जिस खुशी की हम तलाश में हैं। फिर कहीं न कहीं हम--हम ही--क्योंकि और कोई नहीं है; हम ही कुछ गलत बो लेते हैं। उस गलत बोने में ही हम अपने शत्रु सिद्ध होते हैं। बीज बोते वक्त खयाल रखना, क्या बो रहे हैं।
बहुत हैरानी की बात है, एक आदमी क्रोध के बीज बोए, और शांति पाना चाहे! और एक आदमी घृणा के बीज बोए, और प्रेम की फसल काटना चाहे! और एक आदमी चारों तरफ शत्रुता फैलाए, और चाहे कि सारे लोग उसके मित्र हो जाएं! और एक आदमी सब की तरफ गालियां फेंके, और चाहे कि शुभाशीष सारे आकाश से उसके ऊपर बरसने लगें!
पर आदमी ऐसी ही असंभव चाह करता है, दि इंपासिबल डिजायर! मैं गाली दूं और दूसरा मुझे आदर दे जाए, ऐसी ही असंभव कामना हमारे मन में बैठी चलती है। मैं दूसरे को घृणा करूं और दूसरे मुझे प्रेम कर जाएं। मैं किसी पर भरोसा न करूं, और सब मुझ पर भरोसा कर लें। मैं सबको धोखा दूं, और मुझे कोई धोखा न दे। मैं सबको दुख पहुंचाऊं, लेकिन मुझे कोई दुख न पहुंचाए। यह असंभव है। जो हम बोएंगे, वह हम पर लौटने लगेगा।
और जीवन का सूत्र है कि जो हम फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। चारों ओर से हमारी ही फेंकी गई ध्वनियां प्रतिध्वनित होकर हमें मिल जाती हैं। देर लगती है। जाती है ध्वनि; टकराती है बाहर की दिशाओं से; वापस लौटती है। वक्त लग जाता है। जब तक लौटती है, तब तक हमें खयाल भी नहीं रह जाता कि हमने जो गाली फेंकी थी, वही वापस लौट रही है।
बुद्ध का एक शिष्य मौग्गलायन एक रास्ते से गुजर रहा है। उसके साथ दस-पंद्रह संन्यासी और हैं। जोर से पैर में पत्थर लग जाता है रास्ते पर, खून बहने लगता है। मौग्गलायन आकाश की तरफ हाथ जोड़कर किसी आनंद-भाव में लीन हो जाता है। उसके चारों तरफ वे पंद्रह भिक्षु हैरानी में खड़े रह जाते हैं।
मौग्गलायन जब अपने ध्यान से वापस लौटता है, तो वे उससे पूछते हैं, आप क्या कर रहे थे? पैर में चोट लगी, पत्थर लगा, खून बहा, और आप कुछ ऐसे हाथ जोड़े थे, जैसे किसी को धन्यवाद दे रहे हों! मौग्गलायन ने कहा, बस, यह एक ही मेरा विष का बीज और बाकी रह गया था। मारा था किसी को पत्थर कभी, आज उससे छुटकारा हो गया। आज नमस्कार करके धन्यवाद दे दिया है प्रभु को कि अब मेरे कुछ भी बोए हुए बीज न बचे। यह आखिरी फसल समाप्त हो गई।
लेकिन अगर आपको रास्ते पर चलते वक्त पत्थर पैर में लग जाए, तो इसकी बहुत कम संभावना है कि आप ऐसा सोचें कि किसी बोए हुए बीज का फल हो सकता है। ऐसा नहीं सोच पाएंगे। संभावना यही है कि गली या रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी आप एक गाली जरूर देंगे। पत्थर को भी! और कभी खयाल भी न करेंगे कि पत्थर को दी गई गाली भी फिर बीज बो रहे हैं आप। पत्थर को दी गई गाली भी बीज बनेगी। सवाल यह नहीं है, किसको गाली दी। सवाल यह है कि आपने गाली दी। वह वापस लौटेगी। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि किसको गाली दी। वह गाली वापस लौटेगी।
सुना है मैंने कि जीसस के पास एक आदमी आया। गांव का साधारण ग्रामीण किसान है। बैलों को गाली देने में बहुत ही कुशल है अपनी बैलगाड़ी में जोतकर। जीसस निकलते हैं गांव के रास्ते से। वह आदमी अपने बैलों को बेहूदी गालियां दे रहा है। बड़े आंतरिक संबंध बना रहा है गालियों से। जीसस उसे रोकते हैं और कहते हैं कि पागल, तू यह क्या कर रहा है! तो वह आदमी कहता है कि कोई बैल मुझे गाली वापस तो नहीं लौटा देंगे। तो क्या मेरा बिगड़ेगा?
वह आदमी ठीक कहता है। हमारा गणित बिलकुल ऐसा ही है। जो आदमी गाली वापस नहीं लौटा सकता, उसे गाली देने में हर्ज क्या है? इसलिए अपने से कमजोर को देखकर हम सब गाली देते हैं। कभी तो हम बेवक्त भी गाली देते हैं, जब कि कोई जरूरत भी न हो। कमजोर दिखा, कि हमारा दिल मचल आता है कि थोड़ा इसको सता लो।
जीसस ने कहा कि बैलों को गाली तू दे रहा है, अगर वे गाली लौटा सकते, तो कम खतरा था, क्योंकि निपटारा अभी हो जाता। लेकिन चूंकि वे गाली नहीं लौटा सकते, लेकिन गाली तो लौटेगी। तू महंगे सौदे में पड़ेगा। यह गाली देना छोड़।
जीसस की तरफ उस आदमी ने देखा; जीसस की आंखों को देखा, उनके आनंद को, उनकी शांति को। उसने उनके पैर छुए और कहा कि मैं कसम लेता हूं कि अब मैं इन बैलों को गाली नहीं दूंगा।
जीसस दूसरे गांव चले गए। दो-चार दिन उस आदमी ने बड़ी मेहनत से अपने को रोका। लेकिन कसमों से दुनिया में कोई रुकावटें नहीं होतीं। कसम से कहीं कोई रुकावट होती है? समझ से रुकावट होती है। दो-चार दिन रोका अपने को, जबरदस्ती। खा ली थी कसम ईसा के प्रभाव में। दो-चार दिन में प्रभाव क्षीण हुआ, आदमी अपनी जगह वापस लौट आया। उसने कहा कि छोड़ो भी, ऐसे तो हम मुसीबत में पड़ जाएंगे। बैलगाड़ी चलाना मुश्किल हो गया है। हिसाब बैलगाड़ी चलाने का रखें कि गाली न देने का रखें! बैलों को जोतें कि अपने को जोते रहें! बैलों को सम्हालें कि खुद को सम्हालें! यह तो एक बहुत मुसीबत हो गई। गाली उसने वापस देनी शुरू कर दी। चार दिन जितनी रोकी थी, उतनी एक दिन में निकाल ली। रफा-दफा हुआ। मामला हल्का हुआ। मन उसका शांत हुआ।
कोई तीन-चार महीने बाद जीसस उस गांव से वापस निकल रहे हैं। उसको तो पता भी नहीं था कि यह आदमी फिर मिल जाएगा रास्ते पर। वह धुआंधार गालियां दे रहा है बैलों को। जीसस ने खड़े होकर राह के किनारे से कहा, मेरे भाई!
उसने देखा जीसस को, उसने कहा बैलों से, देखो बैल, ये मैंने तुम्हें गालियां बताईं जैसी कि मैं तुम्हें पहले दिया करता था। बैलों से बोला, ये मैंने तुम्हें गालियां दीं जैसी कि मैं तुम्हें पहले दिया करता था। अब मेरे प्यारे बेटो, जरा तेजी से चलो।
जीसस ने कहा कि तू बैलों को ही धोखा नहीं दे रहा है, तू मुझे भी धोखा दे रहा है। और तू मुझे धोखा दे, इससे कुछ बहुत हर्जा नहीं है; तू अपने को धोखा दे रहा है। अंतिम धोखा तो खुद पर ही गिर जाता है। जीसस ने कहा, हो सकता है, मैं दुबारा इस गांव फिर कभी न आऊं। मैं माने लेता हूं कि तू बैलों को गालियां नहीं दे रहा था, सिर्फ बैलों को पुरानी याद दिला रहा था। लेकिन किसलिए याद दिला रहा था! तू मुझे धोखा दे कि तू बैलों को धोखा दे, इसका बहुत अर्थ नहीं है। लेकिन तू अपने को ही धोखा दे रहा है।
जीवन में जब भी हम कुछ बुरा कर रहे हैं, तो हम किसी दूसरे के साथ कर रहे हैं, यह भ्रांति है आपकी। प्राथमिक रूप से हम अपने ही साथ कर रहे हैं। क्योंकि अंतिम फल हमें भोगने हैं। वह जो भी हम बो रहे हैं, उसकी फसल हमें काटनी है। इंच-इंच का हिसाब है। इस जगत में कुछ भी बेहिसाब नहीं जाता है।
अपने ही शत्रु हो जाते हैं हम, कृष्ण कहते हैं। उस क्षण में हम अपने शत्रु हो जाते हैं, जब हम कुछ ऐसा करते हैं, जिससे हम अपने को ही दुख में डालते हैं; अपने ही दुख में उतरने की सीढ़ियां निर्मित करते हैं।
तो ठीक से देख लेना, जो आदमी अपना शत्रु है, वही आदमी अधार्मिक है। अधार्मिक वह है, जो अपना शत्रु है। और जो अपना शत्रु है, वह किसी का मित्र तो कैसे हो सकेगा? जो अपना भी मित्र नहीं, वह किसका मित्र हो सकेगा! जो अपने लिए ही दुख के आधार बना रहा है, वह सबके लिए दुख के आधार बना देगा।
पहला पाप अपने साथ शत्रुता है। फिर उसका फैलाव होता है। फिर अपने निकटतम लोगों के साथ शत्रुता बनती है, फिर दूरतम लोगों के साथ। फिर जहर फैलता चला जाता है। हमें पता भी नहीं चलता। जैसे कि झील में कोई, शांत झील में, एक पत्थर फेंक दे। पड़ती है चोट, पत्थर तो नीचे बैठ जाता है क्षणभर में, लेकिन झील की सतह पर उठी हुई लहरें दूर-दूर तक यात्रा पर निकल जाती हैं। पत्थर तो बैठ जाता है कभी का, लेकिन लहरें चलती चली जाती हैं अनंत तक।
ऐसे ही हम जो करते हैं, हम तो करके चुक भी जाते हैं। आपने एक गाली दे दी। बात खत्म हो गई। फिर आप गीता पढ़ने लगे। लेकिन वह गाली की जो रिपल्स, जो तरंगें पैदा हुईं, वे चल पड़ीं। वे न मालूम कितने दूर के छोरों को छुएंगी। और जितना अहित उस गाली से होगा, उतने सारे अहित के लिए आप जिम्मेवार हो गए।
आप कहेंगे, कितना अहित हो सकता है एक गाली से? अकल्पनीय अहित हो सकता है। और जितना अहित हो जाएगा इस विश्व के तंत्र में, उतने के लिए आप जिम्मेवार हो जाएंगे। और कौन जिम्मेवार होगा? आपने ही उठाईं वे लहरें। आपने ही पैदा किया वह सब। आपने ही बोया बीज। अब वह चल पड़ा। अब वह दूर-दूर तक फैल जाएगा। एक छोटी-सी दी गई गाली से क्या-क्या हो सकता है! अगर आपने अकेले में दी हो और किसी ने न सुनी हो, तब तो शायद आप सोचेंगे कि कुछ भी नहीं होगा इसका परिणाम।
लेकिन इस जगत में कोई भी घटना निष्परिणामी नहीं है। उसके परिणाम होंगे ही। कठिन मालूम पड़ेगा। किसी को गाली दी हो, उसका दिल दुखाया हो, तब तो हमने कोई शत्रुता खड़ी की है। लेकिन अंधेरे में गाली दे दी हो, तो उससे कोई शत्रुता पैदा हो सकती है? उससे भी पैदा होती है।
आप बहुत सूक्ष्म तरंगें पैदा करते हैं अपने चारों ओर। वे तरंगें फैलती हैं। उन तरंगों के प्रभाव में जो लोग भी आएंगे, वे गलत रास्ते पर धक्का खाएंगे। उन तरंगों के प्रभाव में गलत रास्ते पर धक्का खाएंगे।
अभी इस पर बहुत काम चलता है, सूक्ष्मतम तरंगों पर। और खयाल में आता है कि अगर गलत लोग एक जगह इकट्ठे हों, सिर्फ चुपचाप बैठे हों, कुछ न कर रहे हों, सिर्फ गलत हों, और आप उनके पास से गुजर जाएं, तो आपके भीतर जो गलत हिस्सा है, वह ऊपर आ जाता है। और जो ठीक हिस्सा है, वह नीचे दब जाता है।
दोनों हिस्से आपके भीतर हैं। अगर कुछ अच्छे लोग बैठे हों एक जगह, प्रभु का स्मरण करते हों, कि प्रभु का गीत गाते हों, कि किन्हीं सदभावों के फूलों की सुगंध में जीते हों, कि सिर्फ मौन ही बैठे हों। जब आप उनके पास से गुजरते हैं--वही आप, जो गलत लोगों के पास से गुजरे थे, और आपका गलत हिस्सा ऊपर आ गया था--जब आप इन लोगों के पास से गुजरते हैं, तो दूसरी घटना घटती है। आपका गलत हिस्सा नीचे दब जाता है; आपका श्रेष्ठ हिस्सा ऊपर आ जाता है।
आपकी संभावनाओं में इतने सूक्ष्मतम अंतर होते हैं। और हम चौबीस घंटे जो कर रहे हैं, उसका कोई हिसाब नहीं रखता कि हम क्या कर रहे हैं। एक छोटा-सा गलत बोला गया शब्द कितने दूर तक कांटों को बो जाएगा, हमें कुछ पता नहीं है।
बुद्ध अपने भिक्षुओं से कहते थे कि तुम चौबीस घंटे, राह पर तुम्हें कोई दिखे, तो उसके मंगल की कामना करना। वृक्ष भी मिल जाए, तो उसके मंगल की कामना करके उसके पास से गुजरना। पहाड़ भी दिख जाए, तो मंगल की कामना करके उसके निकट से गुजरना। राहगीर दिख जाए अनजान, तो मंगल की कामना करके उसके पास से गुजरना।
एक भिक्षु ने पूछा, इससे क्या फायदा?
बुद्ध ने कहा कि इसके दो फायदे हैं। पहला तो यह कि तुम्हें गाली देने का अवसर न मिलेगा; तुम्हें बुरा खयाल करने का अवसर न मिलेगा। तुम्हारी शक्ति नियोजित हो जाएगी मंगल की दिशा में। और दूसरा फायदा यह कि जब तुम किसी के लिए मंगल की कामना करते हो, तो तुम उसके भीतर भी रिजोनेंस, प्रतिध्वनि पैदा करते हो। वह भी तुम्हारे लिए मंगल की कामना से भर जाता है।
अगर इस मुल्क ने राह पर चलते हुए अनजान आदमी को भी राम-राम करने की प्रक्रिया बनाई थी--वह शायद दुनिया में कहीं नहीं बनाई जा सकी। अंग्रेजी में या पश्चिम के मुल्कों में अगर वे कहते हैं गुड माघनग, तो वह शब्द बहुत साधारण है, सेकुलर है। उसका कोई बहुत मतलब नहीं है, सुबह अच्छी है। लेकिन इस मुल्क ने हजारों साल के अनुभव के बाद एक शब्द खोजा था नमस्कार के लिए, वह था, राम। राह पर कोई मिला है और हमने कहा, जय राम! उस आदमी से कोई मतलब नहीं है, जय राम जी का कोई मतलब नहीं है। यह राम का स्मरण है। उस आदमी को देखकर हमने प्रभु का स्मरण किया।
जो ठीक से नमस्कार करना जानते हैं, वे सिर्फ उच्चारण नहीं करेंगे, वे उस आदमी में राम की प्रतिमा को भी देखकर गुजर जाएंगे। उन्होंने उस आदमी को देखकर प्रभु को स्मरण किया। उस आदमी की मौजूदगी प्रभु के स्मरण की घटना बन गई। इस मौके को छोड़ा नहीं; इस मौके पर एक शुभ कामना पैदा की गई, प्रभु के स्मरण की घड़ी पैदा की गई।
और हो सकता है, वह आदमी शायद राम को मानता भी न हो, जानता भी न हो, लेकिन उत्तर में वह भी कहेगा, जय राम। उसके भीतर भी कुछ ऊपर आएगा। और अगर राह से, पुराने गांव की राह से गुजरते हैं, तो राह पर पच्चीस दफा जय राम कर लेना पड़ता है।
जीवन बहुत छोटी-छोटी घटनाओं से निर्मित होता है।
मंगल की कामना या प्रभु का स्मरण, आपके भीतर जो श्रेष्ठ है, उसको ऊपर लाता है; और दूसरे के भीतर जो श्रेष्ठ है, उसे भी ऊपर लाता है। जब आप किसी के सामने दोनों हाथ जोड़कर सिर झुका देते हैं, तो आप उसको भी झुकने का एक अवसर देते हैं। और झुकने से बड़ा अवसर इस जगत में दूसरा नहीं है, क्योंकि झुका हुआ सिर कुछ भी बुरा नहीं सोच पाता। झुका हुआ सिर गाली नहीं दे पाता। गाली देने के लिए अकड़ा हुआ सिर चाहिए।
और कभी आपने खयाल किया हो या न किया हो, लेकिन अब आप खयाल करना। जब किसी को हृदयपूर्वक नमस्कार करके सिर झुकाएं और कल्पना भी कर सकें अगर कि परमात्मा दूसरी तरफ है, तो आप अपने में भी फर्क पाएंगे और उस आदमी में भी फर्क पाएंगे। वह आदमी आपके पास से गुजरा, तो आपने उसको पारस का काम किया, उसके भीतर कुछ आपने सोना बना दिया। और जब आप किसी के लिए पारस का काम करते हैं, तो दूसरा भी आपके लिए पारस बन जाता है।
जीवन संबंध है, रिलेशनशिप है। हम संबंधों में जीते हैं। हम अपने चारों तरफ अगर पारस का काम करते हैं, तो यह असंभव है कि बाकी लोग हमारे लिए पारस न हो जाएं। वे भी हो जाते हैं।
अपना मित्र वही है, जो अपने चारों ओर मंगल का फैलाव करता है, जो अपने चारों ओर शुभ की कामना करता है, जो अपने चारों ओर नमन से भरा हुआ है, जो अपने चारों ओर कृतज्ञता का ज्ञापन करता चलता है।
और जो व्यक्ति दूसरों के लिए मंगल से भरा हो, वह अपने लिए अमंगल से कैसे भर सकता है! जो दूसरों के लिए भी सुख की कामना से भरा हो, वह अपने लिए दुख की कामना से नहीं भर सकता। अपना मित्र हो जाता है। और अपना मित्र हो जाना बहुत बड़ी घटना है। जो अपना मित्र हो गया, वह धार्मिक हो गया। अब वह ऐसा कोई भी काम नहीं कर सकता, जिससे स्वयं को दुख मिले।
तो अपना हिसाब रख लेना चाहिए कि मैं ऐसे कौन-कौन से काम करता हूं, जिससे मैं ही दुख पाता हूं। दिन में हम हजार काम कर रहे हैं; जिनसे हम दुख पाते हैं, हजार बार पा चुके हैं। लेकिन कभी हम ठीक से तर्क नहीं समझ पाते हैं जीवन का कि हम इन कामों को करके दुख पाते हैं। वही बात, जो आपको हजार बार मुश्किल में डाल चुकी है, आप फिर कह देते हैं। वही व्यवहार, जो आपको हजार बार पीड़ा में धक्के दे चुका है, आप फिर कर गुजरते हैं। वही सब दोहराए चले जाते हैं यंत्र की भांति।
जिंदगी एक पुनरुक्ति से ज्यादा नहीं मालूम पड़ती, जैसा हम जीते हैं, एक मैकेनिकल रिपीटीशन। वही भूलें, वही चूकें। नई भूल करने वाले आविष्कारी आदमी भी बहुत कम हैं। बस, पुरानी भूलें ही हम किए चले जाते हैं। इतनी बुद्धि भी नहीं कि एकाध नई भूल करें। पुराना; कल किया था वही; परसों भी किया था वही! आज फिर वही करेंगे। कल फिर वही करेंगे।
इसके प्रति सजग होंगे, अपनी शत्रुता के प्रति सजग होंगे, तो अपनी मित्रता का आधार बनना शुरू होगा।
कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जैसे लोग अपने लिए, अपने लिए ही इतने आनंद का रास्ता बनाते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ऊपर से हमें लगता है कि ये लोग बिलकुल त्यागी हैं; लेकिन मैं आपसे कहता हूं, इनसे ज्यादा परम स्वार्थी और कोई भी नहीं है।
हम त्यागी कहे जा सकते हैं, क्योंकि हमसे ज्यादा मूढ़ कोई भी नहीं है। हम, जो भी महत्वपूर्ण है, उसका त्याग कर देते हैं; और जो व्यर्थ है, उस कचरे को इकट्ठा कर लेते हैं। और ये बहुत होशियार लोग हैं। ये, जो व्यर्थ है, उस सबको छोड़ देते हैं; जो सार्थक है, उसको बचा लेते हैं।
जीसस एक गांव के बाहर ठहरे हुए हैं। सांझ का वक्त है। उस गांव के पंडित-पुरोहितों को बड़ी तकलीफ है जीसस के आने से। सदा होती है। जब भी कोई जानने वाला पैदा हो जाता है, तो झूठे जानने वालों को तकलीफ शुरू हो जाती है। जो स्वाभाविक है। उसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। पंडित तो जानते हैं किताबों से। जीसस जानते हैं जीवन से। तो किताबों से जानने वाला आदमी, जीवन से जानने वाले आदमी के सामने फीका पड़ जाता है, कठिनाई में पड़ जाता है, मुश्किल में पड़ जाता है।
गांव के पंडित परेशान हैं। उन्होंने कहा कि जीसस को फंसाने का कोई उपाय खोजना जरूरी है। उन्होंने बड़ा इंतजाम किया और उपाय खोज लिया। उपाय की कोई कमी नहीं है। वे गांव से एक स्त्री को पकड़ लाए, जो कि व्यभिचार में पकड़ी गई थी। यहूदियों की पुरानी धर्म की किताब में लिखा है कि जो स्त्री व्यभिचार में पकड़ी जाए, उसको पत्थर मारकर मार डालना चाहिए।
तो उस स्त्री को वे ले आए जीसस के पास और उन्होंने कहा कि यह किताब है हमारी पुरानी, धर्मग्रंथ की। इसमें लिखा है कि जो स्त्री व्यभिचार करे, उसे पत्थर मारकर मार डालना चाहिए। आप क्या कहते हैं? इस स्त्री ने व्यभिचार किया है। यह पूरा गांव गवाह है।
यह जीसस को दिक्कत में डालने के लिए बड़ा सीधा उपाय था। अगर जीसस कहें कि ठीक है, पुरानी किताब को मानकर पत्थरों से मार डालो इसे; तो जीसस के उस वचन का क्या होगा, जिसमें जीसस ने कहा है कि जो तुम्हें एक चांटा मारे, तुम उसके सामने दूसरा गाल कर दो। और जो तुम्हारा कोट छीने, उसे कमीज भी दे दो। और अपने शत्रुओं को भी प्रेम करो। उन सब वचनों का क्या होगा? तो जीसस को कठिनाई खड़ी हो जाएगी। और अगर जीसस कहें कि नहीं, पत्थर मार नहीं सकते इसे। माफ कर दो, क्षमा कर दो। तो हम कहेंगे, तुम हमारी धर्म-पुस्तक के विपरीत बात कहते हो! तो तुम धर्म के दुश्मन हो।
लेकिन उन्हें पता नहीं था कि जीसस जैसे आदमी को मुट्ठियों में बांधना आसान नहीं होता। पारे की तरह होते हैं ऐसे लोग। मुट्ठी बांधी कि बाहर निकल जाते हैं।
जीसस ने कहा कि बिलकुल ठीक कहती है पुरानी किताब! पत्थर हाथ में उठा लो और इस स्त्री को पत्थरों से मार डालो। वे तो बड़े हैरान हुए। उन्होंने तो सोचा भी न था कि यह होगा। पर जीसस ने कहा, खयाल रखें, पहला आदमी वह हो पत्थर मारने वाला, जिसने व्यभिचार न किया हो और व्यभिचार का विचार न किया हो।
कोई आदमी नहीं था उस गांव में, जिसने व्यभिचार का विचार न किया हो। किस गांव में ऐसा आदमी है! जो लोग आगे खड़े थे साफे-पगड़ियां वगैरह बांधकर, पत्थर हाथ में लिए, वे धीरे-धीरे भीड़ में पीछे सरकने लगे। यह तो उपद्रव की बात है। जो पीछे खड़े थे, वे तो भाग खड़े हुए। उन्होंने कहा कि यहां ठहरना ठीक नहीं है। थोड़ी देर में वह नदी का तट खाली हो गया था। वह स्त्री थी और जीसस थे।
जब सारे लोग जा चुके, तो उस स्त्री ने जीसस से पूछा कि आप मुझे जो सजा दें, मैं लेने को तैयार हूं; मैं व्यभिचारी हूं। मुझ पर कृपा करें और मुझे सजा दें। जीसस ने कहा, मुझे माफ कर। परमात्मा न करे कि मैं किसी का निर्णायक बनूं, क्योंकि मैं किसी को अपना निर्णायक नहीं बनाना चाहता हूं।
जीसस ने कहा, परमात्मा न करे कि मैं किसी का निर्णायक बनूं। क्योंकि मैं किसी को अपना निर्णायक नहीं बनाना चाहता हूं। जीसस का वचन है, जज यी नाट, दैट यी शुड नाट बी जज्ड। तुम किसी के निर्णायक मत बनो, ताकि कोई तुम्हारा कभी निर्णायक न बने।
मैं कौन हूं! मैं इतना अहंकार कैसे करूं कि तेरा निर्णय करूं! मैं हूं कौन! तू जान, तेरा परमात्मा जाने। मैं कौन हूं! मैं तेरे बीच में खड़ा होने वाला कौन हूं! मैं अगर तुझे जरा ऊंची जगह पर खड़े होकर भी देखूं, तो पापी हो गया। मैं कौन हूं! मैं कोई भी नहीं हूं। और फिर तूने खुद स्वीकार किया कि तू व्यभिचारिणी है, तो तू पाप से मुक्त हो गई, बात समाप्त हो गई।
स्वीकृति मुक्ति है। अस्वीकृति में पाप छिपता है, स्वीकृति में विसर्जित हो जाता है।
जीसस ने कहा कि मुझे मत उलझा। मैं तेरा निर्णायक नहीं बनूंगा, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि कोई मेरा निर्णय करे।
जो आप नहीं चाहते कि दूसरे आपके साथ करें, कृपा करके वह आप दूसरों के साथ न करें। जीसस की पूरी नई बाइबिल का सार एक ही वचन है, दूसरों के साथ वह मत करें, जो आप नहीं चाहते कि दूसरे आपके साथ करें। और अगर इस वाक्य को ठीक से समझ लें, तो कृष्ण का सूत्र समझ में आ जाए।
और कई बार ऐसा मजेदार होता है कि कृष्ण के किसी वाक्य की व्याख्या बाइबिल में होती है। और बाइबिल के किसी वाक्य की व्याख्या गीता में होती है। कभी कुरान के किसी सूत्र की व्याख्या वेद में होती है। कभी वेद के किसी सूत्र की व्याख्या कोई यहूदी फकीर करता है। कभी बुद्ध का वचन चीन में समझा जाता है। और कभी चीन में लाओत्से का कहा गया वचन हिंदुस्तान का कोई कबीर समझता है।
लेकिन धर्मों ने इतनी दीवालें खड़ी कर दी हैं इन सबके बीच कि इनके बीच जो बहुत आंतरिक संबंध के सूत्र दौड़ते हैं, उनका हमें कोई स्मरण नहीं रहा। नहीं तो हर मंदिर और मस्जिद के नीचे सुरंग होनी चाहिए, जिसमें से कोई भी मंदिर से मस्जिद में जा सके। और हर गुरुद्वारे के नीचे से मंदिर को जोड़ने वाली सुरंग होनी चाहिए, कि कभी भी किसी की मौज आ जाए, तो तत्काल गुरुद्वारे से मंदिर या मस्जिद या चर्च में जा सके। लेकिन सुरंगों की तो बात दूर, ऊपर के रास्ते भी बंद हैं, सब रास्ते बंद हैं।
अपना मित्र दूसरों के साथ वही करेगा, जो वह चाहता है कि दूसरे उसके साथ करें। अपना शत्रु दूसरों के साथ वही करेगा, जो वह चाहता है कि दूसरे कभी उसके साथ न करें। और जो अपना मित्र हो गया, वह योग की यात्रा पर निकल पड़ा है। और आत्मा अपनी मित्र भी हो सकती है, शत्रु भी हो सकती है।
ध्यान रखना, शत्रु होना सदा आसान है। शत्रु होने के लिए क्या करना पड़ता है, कभी आपने खयाल किया है! अगर आपको किसी का शत्रु होना है, तो एक सेकेंड में हो सकते हैं। और अगर मित्र होना है, तो पूरा जन्म भी ना काफी है। अगर आपको किसी का शत्रु होना है, तो क्षण की भी तो जरूरत नहीं है, क्षण भी काफी है। एक जरा-सा शब्द और शत्रुता की पूरी की पूरी व्यवस्था हो जाएगी। लेकिन अगर आपको किसी का मित्र होना है, तो पूरा जीवन भी ना काफी है, नाट इनफ। पूरी जिंदगी श्रम करने के बाद भी कहीं कोई चीज, अभी दरार बाकी रह जाएगी, जो पूरी नहीं हो पाती।
मित्रता बड़ी साधना है, शत्रुता बच्चों का खेल है। इसलिए हम शत्रुता में आसानी से उतर जाते हैं। और खुद के साथ मित्रता तो बहुत ही कठिन है। दूसरे के साथ इतनी कठिन है, खुद के साथ तो और भी कठिन है।
आप कहेंगे, क्यों? दूसरे के साथ इतनी कठिन है, तो खुद के साथ और भी कठिन क्यों होगी? खुद के साथ तो आसान होनी चाहिए। हम तो सब समझते हैं कि हम सब अपने को प्रेम करते ही हैं।
भ्रांति है वह बात, फैलेसी है, झूठ है। हममें से ऐसा आदमी बहुत मुश्किल है, जो अपने को प्रेम करता हो। क्योंकि जो अपने को प्रेम कर ले, उसकी जिंदगी में बुराई टिक नहीं सकती; असंभव है। अपने को प्रेम करने वाला शराब पी सकता है? अपने को प्रेम करने वाला क्रोध कर सकता है?
बुद्ध निकलते हैं एक रास्ते से और एक आदमी बुद्ध को गालियां देता है। तो बुद्ध के साथ एक भिक्षु है आनंद, वह कहता है कि आप मुझे आज्ञा दें, तो मैं इस आदमी को ठीक कर दूं। तो बुद्ध बहुत हंसते हैं। तो आनंद पूछता है, आप हंसते क्यों हैं? वह आदमी भी पूछता है, आप हंसते क्यों हैं? तो बुद्ध कहते हैं, मैं आनंद की बात सुनकर हंसता हूं। यह भी बड़ा पागल है। दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा देना चाहता है। बुद्ध कहते हैं, दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा देना चाहता है। आनंद ने कहा, मैं समझा नहीं! बुद्ध ने कहा, गाली उसने दी, क्रोध तू करना चाहता है! सजा तू भोगेगा। क्रोध तो अपने में आग लगाना है।
हम सब क्रोध को भलीभांति जानते हैं। क्रोध से बड़ी सजा क्या हो सकती है? लेकिन दूसरा गाली देता है, हम क्रोध करते हैं। बुद्ध कहते हैं, दूसरे की गलती के लिए खुद को सजा!
हम सब वही कर रहे हैं। मित्रता अपने साथ कोई भी नहीं है। और अपने साथ मित्रता इसलिए भी कठिन है कि दूसरा तो विजिबल है, दूसरा तो दिखाई पड़ता है; हाथ फैलाया जा सकता है दोस्ती का। लेकिन खुद तो बहुत इनविजिबल, अदृश्य सत्ता है; वहां तो हाथ फैलाने का भी उपाय नहीं है। दूसरे मित्र को तो कुछ भेंट दी जा सकती है, कुछ प्रशंसा की जा सकती है, कुछ दोस्ती के रास्ते बनाए जा सकते हैं, कुछ सेवा की जा सकती है। खुद के साथ तो कोई भी रास्ते नहीं हैं। खुद के साथ तो शुद्ध मैत्री का भाव ही! और कोई रास्ता नहीं है, और कोई सेतु नहीं है। अगर हो समझ, अंडरस्टैंडिंग ही सिर्फ सेतु बनेगी। उतनी समझ हममें नहीं है।
हम सब नासमझी में जीते हैं। लेकिन नासमझी में इतनी अकड़ से जीते हैं कि समझ को आने का दरवाजा भी खुला नहीं छोड़ते। असल में नासमझ लोगों से ज्यादा स्वयं को समझदार समझने वाले लोग नहीं होते! और जिसने अपने को समझा कि बहुत समझदार हैं, समझना कि उसने द्वार बंद कर लिए। अगर समझदारी उसके दरवाजे पर दस्तक भी दे, तो वह दरवाजा खोलने वाला नहीं है। वह खुद ही समझदार है!
हमारी समझदारी का सबसे गलत जो आधार है, वह यह है कि हम अपने को प्रेम करते ही हैं। यह बिलकुल झूठ है। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो दुनिया की यह हालत नहीं हो सकती थी, जैसी हालत है। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो आदमी पागल न होते, आत्महत्याएं न करते। अगर हम अपने को प्रेम करते होते, तो दुनिया में इतना मानसिक रोग न होता।
चिकित्सक कहते हैं कि इस समय कोई सत्तर प्रतिशत रोग मानसिक हैं। वे अपने को घृणा करने से पैदा हुए रोग हैं। हम सब अपने को घृणा करते हैं। हजार तरह से अपने को सताते हैं। सताने के नए-नए ढंग ईजाद करते हैं! अपने को दुख और पीड़ा देने की भी नई-नई व्यवस्थाएं खोजते हैं। यद्यपि हम सबके पीछे बहुत तर्क इंतजाम कर लेते हैं।
यह तो चिकित्सक कहते हैं कि सत्तर प्रतिशत बीमारियां आदमी अपने को सजा देने के लिए विकसित कर रहा है। लेकिन मनस-चिकित्सक कहते हैं कि यह आंकड़ा छोटा है अभी; अंडरएस्टिमेशन है। असली आंकड़ा और बड़ा है। और अगर आंकड़ा किसी दिन ठीक गया, तो निन्यानबे प्रतिशत बीमारियां मनुष्य अपने को सजा देने के लिए ईजाद करता है।
इतनी घृणा है खुद के साथ! वह हमारे हर कृत्य में प्रकट होती है। हर कृत्य में! जो भी हम करते हैं--एक बात ध्यान में रख लेना, तो कसौटी आपके पास हो जाएगी--जो भी आप करते हैं, करते वक्त सोच लेना, इससे मुझे सुख मिलेगा या दुख? अगर आपको दिखता हो, दुख मिलेगा और फिर भी आप करने को तैयार हैं, तो फिर आप समझ लेना कि अपने को घृणा करते हैं। और क्या कसौटी हो सकती है?
मुंह से गाली निकलने के लिए तैयार हो गई है; पंख फड़फड़ाकर खड़ी हो गई है जबान पर; उड़ने की तैयारी है। सोच लेना एक क्षण कि इससे अपने को दुख मिलेगा या सुख! दूसरे की मत सोचना, क्योंकि दूसरे की सोचने में धोखा हो जाता है। आदमी सोचता है, दूसरे को दुख मिलेगा या सुख! यह मत सोचना। पहले तो अपना ही सोच लेना कि इससे मुझे दुख मिलेगा या सुख! और अगर आपको पता चले कि दुख मिलेगा, और फिर भी आप गाली दो, तो फिर क्या कहा जाए, आप अपने को प्रेम करते हैं!
नहीं, हम सोचने का मौका भी नहीं देते। नहीं तो डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि गाली न दे पाएं।
गुरजिएफ एक बहुत अदभुत फकीर हुआ। उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मेरा बाप मरा, तो उसके पास मुझे देने को कुछ भी न था। लेकिन वह मुझे इतनी बड़ी संपदा दे गया है जिसका कोई हिसाब नहीं है। जब भी वह किसी से यह कहता, तो वह चौंकता। क्योंकि वह पूछता कि तुम कहते हो, तुम्हारे बाप के पास कुछ भी न था, फिर वह क्या संपदा दे गया?
तो गुरजिएफ कहता कि मैं ज्यादा से ज्यादा नौ-दस साल का था, जब मेरे बाप की मृत्यु हुई। मैं सबसे छोटा बेटा था। सभी को बुलाकर मेरे बाप ने कान में कुछ कहा। मुझे भी बुलाया और मेरे कान में कहा कि तू अभी ज्यादा नहीं समझ सकता, लेकिन तू जो समझ सकता है, उतनी बात मैं तुझसे कह देता हूं। और ध्यान रख, अगर इतनी बात तूने समझ ली, तो जिंदगी में और कुछ समझने की जरूरत न पड़ेगी। छोटी-सी बात, जो तेरी समझ में आ जाए, वह मैं तुझसे यह कहे जाता हूं। मरते हुए बाप का खयाल रखना, इतनी-सी बात को मान लेना। मेरे पास देने को और कुछ भी नहीं है।
तो गुरजिएफ, उस छोटे-से बच्चे ने कहा कि आप कहें, भरसक मैं चेष्टा करूंगा। उसके बाप ने कहा, बहुत कठिन काम तुझे नहीं दूंगा, क्योंकि तेरी उम्र ही कितनी है! इतना ही कहता हूं तुझसे कि जब भी कोई ऐसा काम करने का खयाल आए, जिससे तुझे या दूसरे को दुख होगा, तो चौबीस घंटे रुक जाना, फिर तू करना। उस लड़के ने पूछा, फिर मैं कर सकता हूं? उसके बाप ने कहा कि तू पूरी ताकत से करना। और बाप हंसा और मर गया।
गुरजिएफ अपने संस्मरणों में लिखता है, मैं जिंदगी में कोई बुरा काम नहीं कर पाया। मेरे बाप ने मुझे धोखा दे दिया। उसने कहा, चौबीस घंटे बाद कर लेना। लेकिन चौबीस घंटा तो बहुत वक्त है, चौबीस सेकेंड भी कोई बुरा काम करते वक्त रुक जाए, तो नहीं कर सकता। चौबीस सेकेंड भी! क्योंकि उतने में ही होश आ जाएगा कि मैं अपनी दुश्मनी कर रहा हूं। इसलिए बुरा काम हम बहुत शीघ्रता से करते हैं; देर नहीं लगाते।
अगर एक मित्र को संन्यास लेना है, तो वह पूछता है कि एक साल और रुक जाऊं! उसको जुआ खेलना है, तो वह नहीं पूछता। अगर उसे संन्यास लेना है, तो वह पूछता है कि एक साल रुक जाएं, तो कोई हर्ज है? लेकिन उसे क्रोध करना होता है, तब वह एक सेकेंड नहीं रुकता। बहुत आश्चर्यजनक है। अच्छा काम करना हो, तो आप पूछते हैं, थोड़ा स्थगित कर दें तो कोई हर्ज है? और बुरा काम करना हो तो! तो तत्काल कर लेते हैं। तत्काल। एक सेकेंड नहीं चूकते! क्यों?
वह बुरा काम अगर एक सेकेंड चूके, किया नहीं जा सकेगा। और उसे करना है, इसलिए एक सेकेंड स्थगित करना ठीक नहीं है। और अच्छे काम को करना नहीं है, इसलिए जितना स्थगित कर सकें, उतना अच्छा है। जितना टाल सकें, उतना अच्छा है।
हम अच्छे कामों को टालते चले जाते हैं कल पर और बुरे काम करते चले जाते हैं आज। और एक दिन आता है कि मौत कल को छीन लेती है। बुरे कामों का ढेर लग जाता है; अच्छे काम का कोई हाथ में हिसाब ही नहीं होता।
मैंने सुना है, एक आदमी मरा, एक बहुत करोड़पति। जैसी उसकी आदत थी, गवर्नर के घर में भी जाता था, तो संतरी उसको रोक नहीं सकता था। प्रधानमंत्री के घर में जाता था, तो संतरी हटकर खड़ा हो जाता था। उसने तो सोचा ही नहीं कि नर्क की तरफ जाने का कोई सवाल है। सीधा स्वर्ग के दरवाजे पर पहुंच गया। जोर से जाकर दरवाजा खटखटाया। दरवाजा खुला न देखकर नाराज हो गया।
द्वारपाल ने झांककर देखा और कहा कि महाशय, इतने जोर से दरवाजा मत खटखटाइए। पर उस आदमी ने कहा कि मुझे भीतर आने दो। द्वारपाल उसे भीतर ले गया। पूछा द्वारपाल ने कि ऐसा कौन सा काम किया है, जिसकी वजह से स्वर्ग में इतनी तेजी से आ रहे हैं! द्वारपाल ने जाकर दफ्तर में कहा कि जरा इन महाशय के नाम का पता लगाएं, क्योंकि अभी तो हमें कोई खबर भी नहीं है कि इस तरह का आदमी स्वर्ग में आने को है! इनके हिसाब में कुछ है?
बड़ा लंबा हिसाब था। पोथे के पोथे थे। दफ्तर का क्लर्क थक गया उलट-उलटकर। पर उसने कहा कि कहीं कोई ऐसी चीज दिखाई नहीं पड़ती। हां, कई जगह इस आदमी ने अच्छे संकल्प करने की योजना बनाई; लेकिन पीछे लिखा है, स्थगित, पोस्टपोंड! यह कई दफे स्वर्ग मिलते-मिलते चूक गया। कई दफे इसने योजना बनाई कि ऐसा कर दूं, फिर इसने स्थगित कर दिया।
फिर भी, उस द्वारपाल ने कहा कि बेचारा इतनी मेहनत करके आ गया है, थोड़ा खोज लो, शायद कोई थोड़ी-बहुत जगह, इसने कुछ न कुछ किया हो। बड़ा खोजकर पता चला कि इस आदमी ने एक नया पैसा किसी भिखारी को कभी दान दिया था। लेकिन कोष्ठक में यह भी लिखा है कि भिखारी को नहीं दिया था, इसके साथ दोत्तीन आदमी खड़े थे, वे क्या कहेंगे अगर एक पैसे के लिए भी इनकार करेगा, इसलिए दिया था। मगर दिया था। इसने एक पैसा दिया था, वह स्थगित नहीं किया था। कारण दूसरा था, लेकिन भिखारी को एक पैसा इसने दिया था।
उस करोड़पति के चेहरे पर थोड़ी रौनक आई। लगा कि कुछ आसार स्वर्ग में प्रवेश के बनते हैं। उस क्लर्क ने कहा, लेकिन इतने से आधार पर! और वह भी धोखे का आधार, क्योंकि इसने भिखारी को दिया ही नहीं, इसने अपने मित्रों को दिया है। दिखाई पड़ा कि भिखारी को दिया है।
इसलिए तो भिखारी, आप अकेले हों, तो आपसे भीख नहीं मांगते। दो-चार मित्र हों, तो पकड़ लेते हैं। जानते हैं तरकीब, कि भिखारी को कौन देता है! वह दो-चार जो आदमी पास खड़े हैं, उनकी शघमदगी में, कि क्या कहेंगे कि यह आदमी एक पैसा नहीं दे पा रहा है, आप भी दे देते हैं। और आप दे देते हैं, तो उनको भी देना पड़ता है कि अब यह आदमी क्या कहेगा! मगर यह आपसी लेन-देन है, इसका भिखारी से कोई भी संबंध नहीं है।
फिर भी इसने दिया था, तो क्या करें? तो उस क्लर्क ने कहा, एक ही उपाय है। वह एक पैसा इसे वापस कर दिया जाए और नर्क की तरफ वापस भेज दिया जाए। इस आदमी ने बड़ी टेक्निकल गड़बड़ खड़ी कर दी है। एक दफा और स्थगित कर देता, तो इसका क्या बिगड़ता था! टेक्निकल भूल हो गई है।
हम स्थगित किए चले जाते हैं, जो भी शुभ है उसे। शायद मौत के बाद हम करेंगे। और जो अशुभ है, उसे हम आज कर लेते हैं, कि पता नहीं, कल वक्त मिला कि न मिला।
मित्र वह है अपना, जो अशुभ को स्थगित कर दे और शुभ को कर ले। और शत्रु वह है अपना, जो शुभ को स्थगित कर दे और अशुभ को कर ले। एक क्षण रुककर देख लेना कि जिस चीज से दुख आता हो, उसे आप कर रहे हैं? तो फिर अपने शत्रु हैं।
और जो अपना शत्रु है, उसकी अधोयात्रा जारी है। वह नीचे गिरेगा, गिरता चला जाएगा--अंधकार और महा अंधकार, पीड़ा और पीड़ा। वह अपने ही हाथ से अपने को नर्क में धकाता चला जाएगा।
लेकिन जो व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है, वह ऊपर की ऊर्ध्व-यात्रा पर निकल जाता है। उसकी यात्रा दीए की ज्योति की तरह आकाश की तरफ होने लगती है। वह फिर पानी की तरह गङ्ढों में नहीं उतरता, अग्नि की तरह आकाश की तरफ उठने लगता है।
यह जो ऊपर उठती हुई चेतना है, यही योग है। अपना मित्र होना ही योग है। अपना शत्रु होना ही अयोग है। ऊपर की तरफ बढ़ते चले जाना ही आनंद है।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि योग है मंगल अर्जुन; और सार सूत्र है कि आत्मा स्वतंत्र है। अपना अहित भी कर सकती है, हित भी। अहित करना आसान, क्योंकि गङ्ढे में उतरना आसान। हित करना कठिन, क्योंकि पर्वत शिखर की ऊंची चढ़ाई है। लेकिन जो अपना मित्र बन जाए, वह जीवन में मुक्ति को अनुभव कर पाता है। और जो अपना शत्रु बन जाए, वह जीवन में रोज बंधनों, कारागृहों में गिरता चला जाता है।
इस सूत्र को अपने जीवन में कहीं-कहीं रुककर उपयोग करके देखना, तो खयाल में आ सकेगा। कुछ चीजें हैं, जिन्हें समझ लेना काफी नहीं, जिन्हें प्रयोग करना जरूरी है। ये सब के सब लेबोरेटरी मेथड्स हैं, यह जो भी कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से।
कृष्ण उन लोगों में से नहीं हैं, जो एक शब्द भी व्यर्थ कहें। वे उन लोगों में से नहीं हैं, जो शब्दों का आडंबर रचें। वे उन लोगों में से नहीं हैं, जिन्हें कुछ भी नहीं कहना है और फिर भी कहे चले जा रहे हैं। वे कोई राजनीतिक नेता नहीं हैं।
कृष्ण उतना ही कह रहे हैं, जितना अत्यंत आवश्यक है, और जितने के बिना नहीं चल सकेगा। प्रयोगात्मक हैं उनके सारे वक्तव्य। एक-एक सूत्र एक-एक जीवन के लिए प्रयोग बन सकता है।
और एक सूत्र पर भी प्रयोग कर लें, तो धीरे-धीरे पूरी गीता, बिना पढ़े, आपके सामने खुल जाएगी। और पूरी गीता पढ़ जाएं और प्रयोग कभी न करें, तो गीता बंद किताब रहेगी। वह कभी खुल नहीं सकती। उसे खोलने की चाबी कहीं से प्रयोग करना है।
इस सूत्र को समझें, जांचें, अपने मित्र हैं कि शत्रु! बस इस छोटे-से सूत्र को जांचते चलें और थोड़े ही दिन में आप पाएंगे कि आपको अपनी शत्रुता इंच-इंच पर दिखाई पड़ने लगी है। कदम-कदम पर आप अपने दुश्मन हैं। और अब तक की पूरी जिंदगी आपने अपनी दुश्मनी में बिताई है। और फिर रोकर चिल्लाते हैं कि मैं अभागा हूं; दुख में मरा जा रहा हूं। अपने ही हाथ से कोड़े मारते हैं अपनी ही पीठ पर, लहूलुहान कर लेते हैं। और दूसरे हाथ से लहू पोंछते हैं और कहते हैं कि मेरा भाग्य! अपने ही हाथ से दुख निर्मित करते हैं और फिर चिल्लाते हैं, मेरी नियति!
नहीं, कोई नियति नहीं है, आप ही हैं। और अगर कोई नियति है, तो वह आपके द्वारा ही काम करती है। और आप उस नियति को मार्ग देने में परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप परमात्मा के हिस्से हैं।
आपकी स्वतंत्रता में रत्तीभर कमी नहीं है। आप इतने स्वतंत्र हैं कि नर्क जा सकते हैं; आप इतने स्वतंत्र हैं कि स्वर्ग निर्मित कर सकते हैं। आप इतने स्वतंत्र हैं कि आपके एक-एक पैर पर एक-एक स्वर्ग बस जाए। और आप इतने स्वतंत्र भी हैं कि आपके एक-एक पैर पर एक-एक नर्क निर्मित हो जाए। और सब आप पर निर्भर है। आपके अतिरिक्त कोई भी जिम्मेवार नहीं है।
तो अपने मित्र हैं या शत्रु, इसे थोड़ा सोचना, देखना। और धीरे-धीरे आप पाएंगे कि शत्रु होना मुश्किल होने लगेगा, मित्र होना आसान होने लगेगा। और तब इस सूत्र को पढ़ना। तब इस सूत्र के अर्थ, अभिप्राय प्रकट होते हैं।


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।। 6।।

उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, कि जिस जीवात्मा द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, और जिसके द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसका वह आप ही शत्रु के सदृश, शत्रुता में बर्तता है।


इंद्रियों और शरीर को जिसने जीता है, वह अपना मित्र हो पाता है। और जिसे अपनी इंद्रियों और अपने शरीर पर कोई भी वश, कोई भी काबू नहीं, वह अपना शत्रु सिद्ध होता है।
मित्रता और शत्रुता को दूसरे आयाम से समझें। इस सूत्र में दूसरे आयाम से, दूसरी दिशा से मित्रता और शत्रुता के सूत्र को समझाने की कोशिश है।
शरीर और इंद्रियां जिसके परतंत्र नहीं हैं; जिसकी इंद्रियां कुछ कहती हैं, जिसका शरीर कुछ कहता है; जिसका मन कुछ कहता है; और स्वयं की जिसकी कोई आवाज नहीं है। कभी इंद्रियों की मान लेता है, कभी शरीर की मान लेता है, कभी मन की मान लेता है, लेकिन खुद की अपनी कोई भी समझ नहीं है। वह ठीक स्वभावतः वैसी ही स्थिति में हो जाएगा, जैसे कोई रथ चलता हो। सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। सब घोड़े अपनी-अपनी दिशाओं में जाते हों, जिसे जहां जाना हो! घोड़ों को बांधने का, निकट लेने का, एक-सूत्र रखने का, एक दिशा पर चलाने की कोई व्यवस्था न हो। सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। घोड़े अपनी-अपनी जगह जाते हों। कोई बाएं चलता हो, कोई दाएं चलता हो। कोई चलता ही न हो। कोई दौड़ता हो, कोई बैठा हो। तो जैसी स्थिति उस रथ की हो जाए, और जैसी स्थिति उस रथ में बैठे हुए मालिक की हो जाए, वैसी स्थिति हमारी हो जाती है।
कभी आपने खयाल न किया होगा कि आपकी इंद्रियां एक-दूसरे के विपरीत मांग करती हैं, और आप दोनों की मान लेते हैं। आपका शरीर और मन विपरीत मांग करते हैं, और आप दोनों की मान लेते हैं। शरीर कहता है, रुक जाओ, अब खाना मत डालो, क्योंकि पेट में तकलीफ शुरू हो गई। और मन कहता है, स्वाद बहुत अच्छा आ रहा है; थोड़ा डाले चले जाओ। आप दोनों की माने चले जाते हैं। आप देखते नहीं कि आप क्या कर रहे हैं! एक कदम बाएं चलते हैं, साथ ही एक कदम दाएं भी चल लेते हैं। एक कदम आगे जाते हैं, एक कदम पीछे भी आ जाते हैं!
एक ही साथ विपरीत काम किए चले जाते हैं, क्योंकि विपरीत इंद्रियों और विपरीत वासनाओं की साथ ही स्वीकृति दे देते हैं। एक हाथ बढ़ाते हैं किसी से दोस्ती का, दूसरे हाथ में छुरा दिखा देते हैं--एक साथ! किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं, और भीतर से उसको गाली दिए चले जाते हैं कि इस दुष्ट की शकल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! और हाथ जोड़कर उससे ऊपर कह रहे हैं कि बड़े शुभ दर्शन हुए। आज का दिन बड़ा शुभ है। और भीतर कहते हैं कि मरे; आज पता नहीं धंधे में नुकसान लगेगा, कि पत्नी से कलह होगी, कि क्या होगा! यह सुबह-सुबह कहां से यह शकल दिखाई पड़ गई है! और इसके साथ हाथ भी जोड़ रहे हैं, नमस्कार भी कर रहे हैं; मन में यह भी चलता जाता है।
मन खंड-खंड है। एक-एक इंद्रिय अपने-अपने खंड को पकड़े हुए है। सभी इंद्रियों के खंड भीतर अखंड होकर एक नहीं हैं। कोई भीतर मालिक नहीं है।
गुरजिएफ कहा करता था, हम उस मकान की तरह हैं, जिसका मालिक बाहर गया है। और जिसमें बहुत बड़ा महल है और बहुत नौकर-चाकर हैं। और जब भी रास्ते से कोई गुजरता है और बड़े महल को देखता है, सीढ़ियों पर कोई मिल जाता है घर का नौकर, तो उससे पूछता है, किसका है मकान? तो वह कहता है, मेरा। मकान का मालिक बाहर गया है। कभी वह राहगीर वहां से गुजरता है, दूसरा नौकर सीढ़ियों पर मिल जाता है, वह पूछता है, किसका है यह मकान? वह कहता है, मेरा।
हर नौकर मालिक है। मालिक घर में मौजूद नहीं है। बड़ी कलह होती है उस मकान में। मकान जीर्ण-जर्जर हुआ जाता है। क्योंकि मालिक कोई भी नहीं है, इसलिए मकान को कोई सुधारने की फिक्र नहीं करता है, न कोई रंग-रोगन करता है, न कोई साफ करता है। सब नौकर हैं; सब एक-दूसरे से चाहते हैं कि तुम नौकर का व्यवहार करो, मैं मालिक का व्यवहार करूं! लेकिन सब जानते हैं कि तुम भी नौकर हो, तुम कोई मालिक नहीं हो; तुम मुझ पर हुक्म नहीं चला सकते। वह घर गिरता जाता है, उसकी दीवालें गिरती जाती हैं, उसकी ईंटें गिरती जाती हैं। कोई जोड़ने वाला नहीं। कोई कचरा साफ करता नहीं। सब कचरा इकट्ठा करते हैं। सब मालिक होने के दावेदार हैं।
भीतर करीब-करीब हमारी आत्मा ऐसी ही सोई रहती है, जैसे मौजूद ही न हो। आपने कभी अपनी आत्मा की आवाज भी सुनी है?
हां, अगर राजनीतिज्ञ होंगे, तो सुनी होगी! अभी पिछले इलेक्शन में बहुत-से राजनीतिज्ञ एकदम आत्मा की आवाज सुनते थे। और जिस दिन राजनीतिज्ञ की आत्मा में आवाज आने लगेगी, उस दिन इस दुनिया में कोई पापी नहीं रह जाएगा। जिनके पास आत्मा नाम-मात्र को नहीं होती, उनको आवाजें आ रही हैं! और आवाजें भी बदल जाती हैं! सुबह आवाज कुछ आती है, सांझ कुछ आती है! आत्मा भी बड़ी पोलिटिकल स्टंट करती है!
आपने कभी आत्मा की आवाज सुनी है? अगर राजनीतिज्ञ नहीं हैं, तो कभी नहीं सुनी होगी! इंद्रियों की आवाजें ही हम सुनते हैं। कभी एक इंद्रिय कहती है, यह चाहिए; कभी दूसरी इंद्रिय कहती है, यह चाहिए। कभी तीसरी इंद्रिय कहती है, यह नहीं मिला, तो जीवन व्यर्थ है। कभी चौथी इंद्रिय कहती है, लगा दो सब दांव पर; यही है सब कुछ। लेकिन कभी उसकी भी आवाज सुनी है, जो भीतर छिपा जीवन है? उसकी कोई आवाज नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, ऐसी दशा अपनी ही शत्रुता की दशा है।
और गुलामी भयंकर है, जो नहीं करना चाहतीं इंद्रियां, वह भी करा लेती हैं। कई बार आपको अनुभव हुआ होगा। कई बार आप लोगों से कहते हैं कि मेरे बावजूद, इंस्पाइट आफ मी, यह मैंने कर दिया! मैं नहीं करना चाहता था, फिर कर दिया। जब आप नहीं करना चाहते थे, तो कैसे कर दिया? आप कहते हैं, मेरी बिलकुल इच्छा नहीं थी कि चांटा मार दूं आपको; लेकिन क्या करूं! सोचा भी नहीं था, मारने का इरादा भी नहीं था, भाव भी नहीं था ऐसा। लेकिन मारा है, यह तो पक्का है। फिर यह किसने मारा? अब यह जो पीछे कह रहा है कि नहीं कोई इच्छा थी, नहीं कोई भाव था, नहीं कोई खयाल था, बात क्या है?
नहीं, भीतर कोई मालिक तो है नहीं। एक नौकर दरवाजे पर था, तो उसने एक चांटा मार दिया। अब दूसरा नौकर क्षमा मांग रहा है। यह भी मालिक नहीं है। इसलिए आप यह मत सोचना कि अब यह आदमी कल चांटा नहीं मारेगा। कल फिर मार सकता है।
यह जो हमारी इंद्रियों की स्थिति है, खंड-खंड, डिसइंटिग्रेटेड। और एक-एक इंद्रिय इस तरह करवाए चली जाती है जिसका कोई हिसाब नहीं है। और कभी-कभी ऐसे काम करवा लेती है कि जिनका दांव भारी है। बहुत भारी दांव लगवा देती है। इतना बड़ा दांव लगवा देती है कि इतनी-सी, छोटी-सी चीज के लिए इतना बड़ा दांव आप लगाते न। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि दो पैसे की चीज के लिए लोग एक-दूसरे की जान ले लेते हैं। दो पैसे की भी नहीं होती कई बार तो चीज। कई बार कुछ होता ही नहीं बीच में, सिर्फ एक शब्द होता है कोरा और जान चली जाती है। पीछे अगर कोई बैठकर सोचे...।
मैंने सुना है कि एक स्कूल में इतिहास का एक शिक्षक अपने बच्चों से पूछ रहा है, तुम कोई बड़ी से बड़ी लड़ाई के संबंध में बताओ। तो एक लड़का खड़े होकर कहता है कि मैं बता तो सकता हूं, लेकिन मेरे घर आप खबर मत करना। उसने कहा, कौन सी लड़ाई? तो उसने कहा कि लड़ाई तो बड़ी से बड़ी मैं एक ही जानता हूं, मेरी मां और मेरे बाप की! उस शिक्षक ने कहा कि नासमझ, तुझे इतनी भी अक्ल नहीं है कि यह भी कोई लड़ाई है! वह लड़का घर वापस आया, उसने अपने पिता से कहा कि आपकी बड़ी से बड़ी लड़ाई की मैंने चर्चा की, तो मेरे इतिहास के शिक्षक ने कहा, यह भी कोई लड़ाई है! उसके बाप ने एक चिट्ठी लिखकर शिक्षक को पूछा कि तुम मुझे कोई ऐसी लड़ाई बताओ, जो इससे बड़ी रही हो!
बड़ी से बड़ी लड़ाइयों के पीछे भी कारण तो सब छोटे ही छोटे होते हैं। बड़े छोटे-छोटे कारण होते हैं। चाहे वह राम और रावण की लड़ाई हो, तो कारण बड़ा छोटा-सा होता है; बड़ा छोटा-सा कारण! चाहे वह महाभारत का इतना बड़ा युद्ध हो, जिसमें इस गीता को फलित होने का मौका आया, कारण बड़ा छोटा-सा था। इस बड़े महाभारत के युद्ध में पता है आपको, कारण कितना छोटा था! बहुत छोटा-सा कारण, द्रौपदी की छोटी-सी हंसी इस पूरे युद्ध का कारण।
कौरव निमंत्रित हुए हैं पांडवों के घर। और पांडवों ने एक घर बनाया है आलीशान। और इस तरह की कलात्मक उसमें व्यवस्था की है कि घर कई जगह धोखा दे देता है। जहां पानी नहीं है, वहां मालूम पड़ता है पानी है, इस तरह के दर्पण लगाए हैं। जहां दरवाजा नहीं है, वहां मालूम पड़ता है दरवाजा है, इस तरह के दर्पण लगाए हैं। जहां दरवाजा है, वहां मालूम पड़ती है दीवाल है, इस तरह के कांच लगाए हैं।
एक मजाक थी, इनोसेंट। किसी ने सोचा भी न होगा कि इतना बड़ा युद्ध इसके पीछे फैलेगा! कौन सोचता है? बहुत छोटी-सी मजाक थी, जो कि देवर-भाभी में हो सकती है, इसमें कोई ऐसी झगड़े की बात नहीं थी बड़ी। और जब दुर्योधन टकराने लगा और दीवाल से निकलने की कोशिश करने लगा, जहां दरवाजा न था; और दरवाजे से निकलने लगा, और सिर टकरा गया दीवाल से। तो द्रौपदी खिलखिलाकर हंसी। निश्चित ही...। और उसने मजाक में पीछे से किसी से कहा कि अंधे के ही तो बेटे ठहरे! अंधे के बेटे हैं, कुछ भूल तो हो नहीं गई।
जब दुर्योधन को यह पता चला कि कहा गया है, अंधे के बेटे हैं! बस बीज बो गया। छोटी-सी मजाक, अंधे के बेटे, ऐसा छोटा-सा शब्द! इतना बड़ा युद्ध! सब निर्मित हुआ, फैला! फिर इसके बदले लिए जाने जरूरी हो गए। फिर द्रौपदी को नग्न किया जाना इस हंसी का, मजाक का उत्तर था।
बड़े से बड़े युद्ध के पीछे भी बड़े छोटे-छोटे कारण रहे हैं। लेकिन एक बार इंद्रियां पकड़ लें, तो फिर वे आपको अंत तक ले जाती हैं। उनका अपना लाजिकल कनक्लूजन है। वे फिर आपको छोड़ती नहीं बीच में कि आप कहें कि अब बस छोड़ो; अब तो मजाक बहुत हो गई; बात बहुत आगे बढ़ गई। फिर रुक नहीं सकते, फिर वे धक्का देती हैं। कहती हैं, जब यहां तक बात खींची, तो अब डटे रहो। फिर आपको आगे बढ़ाए चली जाती हैं।
इंद्रियां इस तरह आदमी को खींचती हैं जैसे कि जानवरों के गले में रस्सी बांधकर कोई उनको खींचता हो। इसलिए तंत्र के शास्त्र तो हमें पशु कहते हैं। पशु का मतलब, पाश में बंधे हुए। पशु का मतलब होता है, जिसके गले में रस्सी बंधी है। तंत्र के ग्रंथ कहते हैं, दो तरह के लोग हैं, पशु और पशुपति। पशु वे, जिनकी इंद्रियां उनको गले में बांधकर खींचती रहती हैं; और पशुपति वे, जो इंद्रियों के मालिक हो गए, पति हो गए।
कृष्ण भी वही कह रहे हैं! एक बड़े गहरे तांत्रिक सूत्र की व्याख्या है, इस शब्द में। कहते हैं, जो अपनी इंद्रियों और अपने शरीर का मालिक है, वही अपना मित्र है। वही भरोसा कर सकता है अपनी मित्रता का। लेकिन जिसे अपनी इंद्रियों पर कोई काबू नहीं है, और जिसकी इंद्रियां जिसे कहीं भी दौड़ा सकती हैं, और जिसका शरीर जिसे किन्हीं भी अंधे रास्तों पर ले जा सकता है, वह अपनी मित्रता का भरोसा न करे। अच्छा है कि वह जाने कि मैं अपना शत्रु हूं।
रथ में बंधे हुए घोड़े मित्र हो सकते हैं, अगर लगाम हो और सारथी होशियार हो। नहीं तो रथ में घोड़े न बंधे हों, तो ही रथ की कुशलता है। घोड़े ही न हों, तो भी रथ सुरक्षित है। लेकिन घोड़े बंधे हों और लगाम न हो और सारथी कुशल न हो या सोया हो, तो रथ के दुश्मन हैं घोड़े, मित्र नहीं। घोड़ों का कोई कसूर नहीं है लेकिन, ध्यान रखना, नहीं तो आप सोचें कि घोड़ों की गलती है।
अभी मैं पढ़ रहा था कहीं कि एक आदमी पर अमेरिका में मुकदमे चले बहुत-से। और आखिरी मुकदमा चल रहा था। और मजिस्ट्रेट ने उससे कहा कि मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम्हारे सब अपराधों का एक ही कारण है, अल्कोहल, अल्कोहल, अल्कोहल; शराब, शराब, शराब! उस आदमी ने कहा कि कोई फिक्र नहीं है। आप मुझे लंबी सजा दे रहे हैं, लेकिन मैं धन्यवाद देता हूं आपको। आप अकेले आदमी हैं जिसने मुझे जिम्मेवार नहीं ठहराया। नहीं तो हर कोई कहता है, तुम्हीं जिम्मेवार हो। जो देखो वही कहता है, तुम्हीं जिम्मेवार हो। आप एक समझदार आदमी जिंदगी में मिले, जो कहता है, शराब जिम्मेवार है मेरे सब अपराधों के लिए, मैं जिम्मेवार नहीं हूं।
बड़े मजे की बात है। आप भी किसी दिन पकड़े जाएंगे, तो यह मत सोचना कि कह देंगे कि इंद्रियों ने करवा दिया, मैं क्या करूं! उस दिन आपकी हालत इसी आदमी जैसी हो जाएगी। इंद्रियां आपसे कुछ नहीं करवा सकतीं। करवा सकती हैं, क्योंकि आपने कभी मालकियत घोषित नहीं की। आपने कभी घोषणा नहीं की कि मैं मालिक हूं।
और ध्यान रहे, मालकियत की घोषणा करनी पड़ती है। और ध्यान रहे, मालकियत मुफ्त में नहीं मिलती, मालकियत के लिए श्रम करना पड़ता है। और ध्यान रहे, बिना श्रम के जो मालकियत मिल जाए, वह इंपोटेंट होती है, उसमें कोई बल नहीं होता। जो श्रम से मिलती है, उसकी शान ही और होती है।
ध्यान रहे, रथ में सबसे शानदार घोड़ा वही है, जिस पर लगाम न हो, तो जो रथ को खतरे में डाल दे। सबसे शानदार घोड़ा वही है। जिस पर लगाम ही न हो, तो आप कोई टट्टू या खच्चर बांधें, और खतरे में भी न डाले, आपका रथ भी चला जा रहा है! जो घोड़ा लगाम के न होने पर गङ्ढे में गिरा दे, वही शानदार घोड़ा है; लगाम होने पर वही चलाएगा भी। ध्यान रखना, वही चलाएगा। यह खच्चर नहीं चलाएगा, जो कि खतरे में भी नहीं डालता। लगाम नहीं है, तो विश्राम करता है। वह लगाम होने पर भी बहुत मुश्किल है कि आप उसको थोड़ा-बहुत सरका लें।
जो इंद्रियां आपको गङ्ढों में डालती हैं, वे आपकी सबल शक्तियां हैं। लेकिन मालकियत आपकी होनी चाहिए, तो शुभ हो जाएगा फलित। अगर मालकियत नहीं है, तो अशुभ हो जाएगा फलित।
सबसे ज्यादा कौन-सी इंद्रियां हमें गङ्ढे में डाल देती हैं?
जननेंद्रिय, सेक्स सबसे ज्यादा गङ्ढे में डालती है। सबसे शक्तिशाली है इसलिए। और सबसे ज्यादा पोटेंशियल है, ऊर्जावान है। और ध्यान रहे, जिस व्यक्ति ने अपनी काम-ऊर्जा पर मालकियत पा ली, उसके पास इतना अदभुत, उसके पास इतना बलशाली घोड़ा होता है कि वही घोड़ा उसे स्वर्ग के द्वार तक पहुंचा देता है। काम की ऊर्जा ही, जब आप गुलाम होते हैं उसके, तो वेश्यालयों में पटक देती है आपको--डबरों में, गङ्ढों में, कीड़े-मकोड़ों में। और जब काम की ऊर्जा पर आपका वश होता है, तो वही काम-ऊर्जा ब्रह्मचर्य बन जाती है और ईश्वर के द्वार तक ले जाने में सहयोगी हो जाती है।
सभी इंद्रियां--उदाहरण के लिए काम मैंने कहा, वह सबसे सबल है इसलिए--सभी इंद्रियां, अगर उनकी मालकियत हो, तो मित्र बन जाती हैं; और मालकियत न हो, तो शत्रु बन जाती हैं।
मालकियत की आप कभी घोषणा ही नहीं करते। और अगर कभी करते भी हैं, तो उसी तरह की करते हैं, जैसा मैंने सुना है कि एक आदमी था दब्बू, जैसे कि अधिक आदमी होते हैं। सड़क पर तो बहुत अकड़ में रहता था, लेकिन घर में पत्नी से बहुत डरता था, जैसा कि सभी डरते हैं! कभी-कभी कोई अपवाद होता है, उसको छोड़ा जा सकता है। उसके कुछ कारण हैं। दिनभर लड़ा हुआ, थका-मांदा आदमी घर में और लड़ाई नहीं करना चाहता; किसी तरह निपटारा कर लेना चाहता है। पत्नी दिनभर लड़ी-करी नहीं, तैयार रहती है, पूरी शक्तियां हाथ में रहती हैं। वह आदमी थका-मांदा लौट रहा है, अब लड़ने की हिम्मत भी नहीं। युद्ध के स्थल से वापस आ रहे हैं, कुरुक्षेत्र से! अब वे और दूसरा कुरुक्षेत्र खड़ा करना नहीं चाहते।
पत्नी पहले दिन से ही आकर कब्जा कर ली थी उस आदमी पर; बड़ी मुश्किल में डाल दिया था। और पत्नी इसकी चर्चा भी करती थी। और एक दिन तो और स्त्रियों ने कहा कि हम मान नहीं सकते। हां, यह तो हम सब जानते हैं कि पति डरते हैं। लेकिन इतना हम नहीं मान सकते, जितना तू बताती है कि डरते हैं। तो उसने कहा कि आज तुम दोपहर को घर आ जाओ। आज छुट्टी का दिन है और पति घर पर होंगे। आज तुम आ जाओ। आज मैं तुम्हें दिखा दूं।
पंद्रह-बीस स्त्रियां मुहल्ले की इकट्ठी हो गईं। जब सब स्त्रियां इकट्ठी हो गईं, तो उस स्त्री ने अपने पति से कहा कि उठ और बिस्तर के नीचे सरक! वह बेचारा जल्दी से उठा और बिस्तर के नीचे सरक गया। फिर उसने और रौब दिखाने के लिए कहा कि अब दूसरी तरफ से बाहर निकल! उस आदमी ने कहा कि अब मैं बाहर नहीं निकल सकता। मैं दिखाना चाहता हूं, इस घर में असली मालिक कौन है! उसने कहा कि अब मैं बाहर नहीं निकल सकता। अब मैं दिखाना चाहता हूं, इस घर का असली मालिक कौन है!
बिस्तर के नीचे तो घुस गया, क्योंकि बाहर रहता तो मार-पीट, झंझट-झगड़ा हो सकता था। उसने कहा कि अब अच्छा मौका है। अब बिस्तर के नीचे से ही उसने कहा कि अब तू समझ ले। अब मैं बाहर नहीं निकलता; आज्ञा नहीं मानता। अब मैं बताना चाहता हूं कि हू इज़ दि रियल ओनर
हम भी कभी अगर इंद्रियों पर कोई मालकियत करते हैं, तो वह ऐसे ही, बिस्तर के नीचे घुसकर! और कोई मालकियत हमने कभी इंद्रियों पर नहीं की है। कभी बहुत कमजोर हालत में, ऐसा मौका पाकर कभी हम घोषणा करते हैं। मगर ठीक सामने इंद्रिय के, उसकी शक्तिशाली इंद्रिय के सामने हम कभी घोषणा नहीं करते। जैसे कि आदमी बूढ़ा हो गया, तो वह कहता है, मैंने अब तो काम-इंद्रिय पर विजय पा ली। वह पागलपन की बातें कर रहा है। ये बिस्तर के नीचे घुसकर बातें हो रही हैं। तो जब जवान है व्यक्ति और जब इंद्रिय सबल है, तभी मौका है घोषणा का।
अब आपका पेट खराब हो गया है, लीवर के मरीज हो गए हैं, खाया नहीं जाता। आपने कहा, अब तो हमने भोजन पर बिलकुल विजय पा ली। दांत न रहे, दांत गिर गए, अब चबाते नहीं बनता। अब आप कहने लगे कि हम तो लिक्विड आहार लेते हैं; कुछ रस न रहा! ये बिस्तर के नीचे घुसकर आप घोषणाएं कर रहे हैं।
इससे नहीं होगा। इससे अपने को आप फिर धोखा दे रहे हैं। इंद्रियों का एनकाउंटर करना पड़ेगा, जब वे सबल हैं। और तब उनको जीता, तो उसका रहस्य और राज है, उसकी शक्ति है। और जब इंद्रियां निर्बल हो गईं और कोई शक्ति न रही, हारने का भी उपाय न रहा जब, तब जीतने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों का जो मालिक है!
और इंद्रियों का मालिक कब होता है कोई? इंद्रियों की मालकियत के दो सूत्र आपसे कहूं, तो यह सूत्र आपको पूरा स्पष्ट हो सके।
पहली बात, इंद्रियों का मालिक वही हो सकता है, जो इंद्रियों से अपने को पृथक जाने। अन्यथा मालिक होगा कैसे? हम उसके ही मालिक हो सकते हैं, जिससे हम भिन्न हैं। जिससे हम भिन्न नहीं हैं, उसके हम मालिक कैसे होंगे? पर हम अपने को इंद्रियों से अलग मानते ही नहीं। हम तो अपनी इंद्रियों से इतनी आइडेंटिटी, इतना तादात्म्य किए हैं कि लगता है, हम इंद्रियां ही हैं, और कुछ भी नहीं।
तो जिसे भी इंद्रियों की मालकियत की तरफ जाना हो, उसे अपनी इंद्रियों और अपने बीच में थोड़ा फासला, गैप खड़ा करना चाहिए। उसे जानना चाहिए कि मैं आंख नहीं हूं; आंख के पीछे कोई हूं। आंख से देखता हूं जरूर, लेकिन आंख नहीं देखती, देखता है कोई और। आंख बिलकुल नहीं देख सकती। आंख में देखने की कोई क्षमता नहीं है। आंख तो सिर्फ झरोखा है। आंख तो सिर्फ पैसेज है, मार्ग है, जहां से देखने की सुविधा बनती है। जैसे आप खिड़की पर खड़े हों और धीरे-धीरे यह कहने लगें कि खिड़की आकाश देख रही है, वैसा ही पागलपन है। आंख सिर्फ खिड़की है आपके शरीर की, जहां से आप बाहर की दुनिया में झांकते हैं। मन जो भीतर है, चेतना जो और भीतर है, वही असली देखने वाला है; आंख भी नहीं देखती।
कभी आपको अनुभव हुआ होगा ऐसा। रास्ते से भागा चला जा रहा है एक आदमी। उसके घर में आग लग गई है। उसको नमस्कार करें, उसको कुछ दिखाई नहीं पड़ता। उससे कहें, कहिए कैसे हैं? वह कोई जबाब नहीं देता। वह सुनाई भी नहीं पड़ता उसको। वह भागा जा रहा है।
दूसरे दिन उसको मिलिए और उससे कहिए, आपको क्या हो गया था? कल मैंने नमस्कार भी किया, आपको रोका भी, हिलाया भी। आप एकदम छूटकर भागे। आपने मुझे देखा भी नहीं! आपको खयाल है? वह आदमी कहेगा, मुझे कुछ खयाल नहीं है। कल मेरे घर में आग लग गई थी।
तो जब घर में आग लगी हो, तो सारी चेतना उस तरफ केंद्रित हो जाती है। आंख की खिड़की से चेतना हट जाती है, कान की खिड़की से हट जाती है। फिर आंख में दिखाई पड़ता रहे, फिर भी दिखाई नहीं पड़ता। सुनाई पड़ता रहे कान में, फिर भी सुनाई नहीं पड़ता।
अगर अटेंशन हट गई हो इंद्रिय से, ध्यान हट गया हो, तो इंद्रिय बिलकुल बेकार हो जाती है। जिस इंद्रिय से ध्यान जुड़ा होता है, वही इंद्रिय सार्थक, सफल होती है, सक्रिय होती है, सशक्त होती है।
ध्यान किसका है? ध्यान मालिक का है। इंद्रिय तो सिर्फ गुलाम है, इंस्ट्रूमेंट है, उपकरण है।
लेकिन इसे थोड़ा देखना पड़े। जब आप किसी को देखें, फिलहाल जैसे मुझे देख रहे हैं, तो थोड़ा खयाल करें, आंख देख रही है या आप देख रहे हैं? तब आंख सिर्फ बीच का द्वार रह जाएगी। उस पार आप हैं; और जिसको आप देख रहे हैं, वह भी मैं नहीं हूं; वे भी मेरे द्वार हैं, जिनको आप देख रहे हैं; इस पार मैं हूं। जब दो आदमी मिलते हैं, तो दो तरफ दो आत्माएं होती हैं और दोनों के बीच में उपकरणों के दो जाल होते हैं। जब मैं हाथ फैलाकर आपके हाथ को अपने हाथ में लेता हूं, तो हाथ के द्वारा मैं अपनी आत्मा से आपको स्पर्श करने की कोशिश कर रहा हूं। हाथ तो सिर्फ उपकरण है।
उपकरणों को हम अपनी आत्मा समझ लें, तो फिर यह मालकियत जो कृष्ण चाहते हैं, कभी भी पूरी नहीं होने वाली है।
उपकरणों को समझें उपकरण, अपने को देखें पृथक। चलते समय रास्ते पर खयाल रखें कि शरीर चल रहा है, आप नहीं चल रहे हैं। आप कभी चले ही नहीं; आप चल ही नहीं सकते। आप शरीर के भीतर ऐसे ही बैठे हैं, जैसे चलती हुई कार के भीतर कोई आदमी बैठा हो। कार चल रही है और आदमी बैठा हुआ है। यद्यपि आदमी की भी यात्रा हो जाएगी, लेकिन चलेगा नहीं। ऐसे ही आप अपने शरीर के भीतर बैठे ही रहे हैं, कभी चले नहीं। यात्रा आपकी बहुत हो जाती है, लेकिन चलता शरीर है, आप सदा बैठे हैं।
वह जो भीतर बैठा है, उसे जरा खयाल करें चलते वक्त; वह तो नहीं चल रहा है, वह कभी नहीं चलता। भोजन करते वक्त खयाल करें कि भोजन शरीर में ही जा रहा है, उसमें नहीं जा रहा है, जो आप हैं। इसे स्मरण रखें।
यह स्मरण, रिमेंबरेंस जितनी घनी हो जाएगी, उतना ही आप पाएंगे, आप अलग हैं। जिस दिन आप पाएंगे, आप अलग हैं, उसी दिन आपकी मालकियत की घोषणा संभव हो पाएगी। और कठिन नहीं है फिर यह घोषणा कर देना कि मैं मालिक हूं। लेकिन एक दफे पृथकता को अनुभव करना कठिन है; मालकियत की घोषणा आसान है।
और जो व्यक्ति इंद्रिय और शरीर का मालिक हो जाता है, वह अपना मित्र हो जाता है। मित्र इसलिए हो जाता है कि उसकी इंद्रियां वही करती हैं, जो उसके हित में है।
अन्यथा इंद्रियों के हाथ में चलाना बड़ा खतरनाक है। शरीर हमें चला रहा है, जिसके पास कोई भी होश नहीं, समझ नहीं, चेतना नहीं। इंद्रियां हमें दौड़ा रही हैं, लेकिन हमें खयाल में नहीं है कि दौड़ किस तरह की है।
अभी रूस में एक मनोवैज्ञानिक कुछ समय पहले चल बसा, पावलव। उसने मनुष्य की ग्रंथियों पर बहुत से काम किए हैं। उसमें एक काम आपको खयाल में ले लेने जैसा है। उसका यह कहना है कि अगर आदमी की कोई ग्रंथि, विशेष ग्रंथि काट दी जाए, कोई ग्लैंड अलग कर दी जाए, तो उसमें से कुछ चीजें तत्काल नदारद हो जाती हैं।
जैसे आप में क्रोध है। आप सोचते हैं, मैं क्रोध करता हूं, तो आप गलती में हैं। आपकी इंद्रियों में क्रोध की ग्रंथियां हैं और जहर इकट्ठा है। वह आपने जन्मों-जन्मों के संस्कारों से इकट्ठा किया है। वही आपसे क्रोध करवा लेता है--वह जहर।
पावलव ने सैकड़ों प्रयोग किए कि वह जहर की गांठ काटकर फेंक दी, अलग कर दी। फिर उस आदमी को आप कितनी ही गालियां दें, वह क्रोध नहीं कर सकता; क्योंकि क्रोध करने वाला उपकरण न रहा। ऐसे ही, जैसे मेरा हाथ आप काट दें। और फिर मुझसे कोई कितना ही कहे कि हाथ बढ़ाओ और मुझसे हाथ मिलाओ, मैं हाथ न मिला सकूं। कितना ही चाहूं, तो भी न मिला सकूं। क्योंकि हाथ तो नहीं है, चाह रह जाएगी नपुंसक पीछे। हाथ तो मिलेगा नहीं, उपकरण नहीं मिलेगा।
इंद्रियों के पास अपने-अपने संग्रह हैं हार्मोंस के, और प्रत्येक इंद्रिय आपसे कुछ काम करवाती रहती है और आप उसके धक्के में काम करते रहते हैं। जब आपकी कामेंद्रिय पर जाकर वीर्य इकट्ठा हो जाता है, केमिकल्स इकट्ठे हो जाते हैं, वे आपको धक्का देने लगते हैं कि अब कामातुर हो जाओ। चौदह साल के पहले कोई कामवासना उठती हुई मालूम नहीं पड़ती। चौदह साल हुए, ग्लैंड परिपक्व हो जाती है, सक्रिय हो जाती है। सक्रिय हुई ग्लैंड कि उसने आपको धक्के देने शुरू किए कि कामवासना में उतरो, भागो, दौड़ो। जाओ, नंगी तस्वीरें देखो, फिल्म देखो, कहानी पढ़ो; कुछ करो। कुछ न मिले, तो रास्ते पर किसी को धक्का दे दो, गाली दे दो, कुछ न कुछ करो।
अब यह आप कर रहे हैं, इस भ्रांति में मत पड़ना, क्योंकि आप तो चौदह साल पहले भी थे। लेकिन एक ग्लैंड सक्रिय नहीं थी; एक इंद्रिय सोई हुई थी। अब वह जग गई है। वह इंद्रिय ही आपसे करा रही है। अगर इतना होश पैदा कर सकें कि यह इंद्रिय मुझसे करा रही है; और मैं पृथक हूं; जिस दिन आपको पृथकता का अनुभव हो जाए, उसी दिन आप अपनी मालकियत की घोषणा कर सकते हैं।
और मजा ऐसा है कि आपने घोषणा की कि मैं मालिक हूं, कि सारी इंद्रियां सिर झुकाकर पैर पर पड़ जाती हैं। आपकी घोषणा की सामर्थ्य चाहिए बस।
मैंने आपसे कहानी कही है कि उस महल का मालिक घर के बाहर है, या सोया है, या बेहोश है, या मौजूद नहीं है। नौकर सब मालिक हो गए हैं। उस कहानी को हम थोड़ा और आगे बढ़ा ले सकते हैं कि मालिक वापस लौट आया। उसका रथ द्वार पर आकर रुका। जो नौकर दरवाजे पर था, उसने चिल्लाकर यह नहीं कहा कि मैं मालिक हूं। कैसे कहता! वह जल्दी से उठा और उसके पैर छुए। उसने कहा कि बहुत देर लगाई। हम बड़ी प्रतीक्षा कर रहे थे! वह मालिक घर के भीतर आया। सारे नौकरों में खबर पहुंच गई। वे सब प्रसन्न हैं; नाराज भी नहीं हैं; मालिक वापस लौट आया। अब घर में कोई घोषणा नहीं करता कि मैं मालिक हूं। मालिक की मौजूदगी ही घोषणा बन गई।
ठीक ऐसी ही घटना इंद्रियों के जगत में घटती है। एक दफे आप जान लें कि मैं पृथक हूं, और एक बार खड़े होकर कह दें कि मैं पृथक हूं, आप अचानक पाएंगे कि जो इंद्रियां कल तक आपको खींचती थीं, वे आपके पीछे छाया की तरह खड़ी हो गई हैं। वह आपकी आज्ञा मानना उन्होंने शुरू कर दिया है।
आप आज्ञा ही न दें, तो इंद्रियों का कसूर क्या है? आप मौजूद ही न हों, तो आज्ञा कौन दे? और इंद्रियों को गाली मत देना, जैसा कि अधिक लोग देते रहते हैं। कई लोग यही गालियां देते रहते हैं कि इंद्रियां बड़ी दुश्मन हैं।
इंद्रियां दुश्मन नहीं हैं। इंद्रियां दुश्मन हैं, अगर आप मालिक नहीं हैं। ध्यान रखना, यह फर्क है। इंद्रियां मित्र हो जाती हैं, अगर आप मालिक हैं। इसलिए भूलकर इंद्रियों को गाली मत देना। कई बैठे-बैठे यही गालियां देते रहते हैं कि इंद्रियां बड़ी शत्रु हैं, बड़े गङ्ढों में गिरा देती हैं! कोई इंद्रिय गङ्ढे में नहीं गिराती। आप गङ्ढे में गिरते हैं, तो इंद्रियां बेचारी साथ देती हैं। आप स्वर्ग की तरफ जाने लगें, इंद्रियां वहां भी साथ देती हैं; वे उपकरण हैं।
मगर आपने कभी मालकियत की घोषणा न की। आप अपने नौकरों के पीछे चल रहे हैं। कसूर किसका है? और नौकरों के पीछे चलकर फिर गालियां दे रहे हैं कि नौकर हमको भटका रहे हैं, वे हमको गलत जगह ले जा रहे हैं!
कम से कम कहीं तो ले जा रहे हैं! चला तो रहे हैं किसी तरह। आप तो मौजूद ही नहीं हैं। आप तो मरे की भांति हैं; जिंदा ही नहीं हैं। आप हैं या नहीं, इसका भी पता नहीं चलता।
कृष्ण इसलिए बहुत ठीक डिस्टिंक्शन करते हैं। वे इंद्रियों को नहीं कहते कि इंद्रियां शत्रु हैं। और जो आदमी आपसे कहे, इंद्रियां शत्रु हैं, समझना कि उसे कुछ भी पता नहीं है। कृष्ण कहते हैं, मालिक न होना शत्रुता बन जाती है अपनी। मालिक हो गए कि मित्र हो गए।
आज के लिए इतना ही।
लेकिन उठेंगे नहीं। पांच मिनट कीर्तन के लिए रुकेंगे। शरीर तो कहेगा कि उठो। जरा काबू रखना। इंद्रियां तो कहेंगी कि भागो। मगर जरा काबू रखना। एक पांच मिनट जरा मालिक होने की कोशिश करना। जो भागा, हम समझेंगे, गुलाम है।
तो हम पांच मिनट थोड़ा कीर्तन में डूबेंगे, उसमें जरा डूबें। कम से कम बैठकर वहीं से कीर्तन में साथ दें, आवाज दें, ताली बजाएं, आनंदित हों।


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