जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1—चित्त
की दशा को आपने
बाधा बताया। चित्त
की दशा ही तो हमें
आपके पास ले आयीं? बुद्धि को भी
आपने बाधा बाताया।
पर मैं आपके इर्द—गिर्द
बुद्धिमान लोगों
को भरे देखता हूं?
2—आचार्य
रजनीश को सुनता
था—निपट सीधा साफ।
प्यारे भगवान
को भी सुनता हूं—आड़े
आते है, बुद्ध, महावीर जीसस, शंकर आदि। स्वयं
सीधे प्रकट होने
की बजाय आड़ लेकर
आने के पीछे रहस्य
क्या?
3—जैन—कुटुंब
में जन्म। तीन
वर्षो से भगवन
श्री को पढ़ना।
संन्यस्त भी।
फिर पारे की तरह
बिखरते जाना। जिन—सूत्र
पर भगवान के प्रवचन
अच्छे लगना। भोग
में रस बहुत। परंपरा
और संस्कार पांवों
में बेड़ी की तरह।
बहुचित और
विक्षिप्त होते
जाना, टूटते
जाना। मार्ग दर्शन
की मांग।
4—प्रवचन
पढ़ने में रस आना।
पुस्तकों द्वारा
ही यहां तक खींच
जाना। पर अब शब्दों
का समझ में न पड़ना।
आंखों का भगवान
को निहारना और
मिंच जाने
पर मस्तक का नत
होना। क्या यह
मन से आत्मा की
और रूपांतरण है?
5—जानने
की चाह में किसी
ने रात को दिन रचते
देखा। ऐसा क्यों?
पहला
प्रश्न:
आपने
कहा कि चित्त
की दशा ही
बाधा है। और
मुझे मेरी
चित्त की दशा
ही खींचकर
आपके पास ले
आयी है। आपने
यह भी कहा कि
बुद्धि ही
बाधा है, क्योंकि
बुद्धिमान
बहुत
सोच-विचार
करता है। और
मैं देखता हूं
कि आपके
इर्द-गिर्द
बुद्धिमान
व्यक्ति ही
भरे हैं।
निश्चय
ही चित्त ही
तुम्हारा
यहां तक ले
आया है। मेरे
पास ले आया
है। फिर भी
चित्त बाधा
है। पास तो आ
जाओगे चित्त
के कारण, मिलन
न हो पायेगा।
निकट तो आ
जाओगे, एक
न हो पाओगे।
यहां तक तो ले
आयेगा, शारीरिक
रूप से तो
करीब पहुंचा
देगा, आत्मिक
रूप से दूर ही
दूर रखेगा।
अगर
शरीर के ही
मिलन की बात
होती, तो
चित्त बाधा
नहीं है।
चित्त तो
शरीरों को करीब
ले आता है, आत्माएं
दूर रह जाती
हैं। जब तक
चित्त को हटाओगे
न, उस
अंतस्तल में
मिलन न हो
सकेगा। जो
जोड़ता मालूम
पड़ता है नीचे
तल पर, वही
ऊंचे तल पर
तोड़ देता है।
इसे
खूब ठीक से
समझ लेना। जो
साधन है पहले
चरण पर, वही
अंतिम चरण पर
बाधा बन जाता
है। नाव में
बैठे हैं, नाव
उस पार ले गयी,
फिर नाव को पकड़े रहो
तो उतर न
पाओगे। नाव ले
आयी दूसरे
किनारे तक, लेकिन अब
नाव को छोड़ना
भी पड़ेगा।
तुमने अगर यह
कहा कि यह नाव
ही तो इस
किनारे तक
लायी है, अब
इसे कैसे
छोड़ें! यह नाव
न होती, तो
इस किनारे तक
हम कभी आये ही
न होते! सच
कहते हो, ठीक
ही कहते हो; लेकिन अब
इसी नाव में
बैठे रहोगे तो
पहुंचकर भी
दूसरे किनारे
पर वंचित रह
गये। कहां
पहुंच पाये!
नाव पकड़नी
भी पड़ती, छोड़नी
भी पड़ती। साधन
हाथ में भी
लेने होते हैं,
फिर गिरा भी
देने होते
हैं।
इसलिए
प्रथम चरण पर
जो साधक है, साधन है, अंतिम
चरण पर वही
बाधक हो जाता
है। तुम्हारा
मन ही तुम्हें
यहां ले आया, इसमें दो मत
नहीं हो सकते।
मन ही न होता
तो तुम आते
कैसे! यह
यात्रा ही
कैसे करते!
मेरा आकर्षण
ही तुम्हें
कैसे खींचता!
मेरा बुलावा
ही तुम कैसे
सुनते! तुम मन
की डोरी को पकड़कर
ही यहां तक
आये। मन की
नाव पर ही चढ़कर
यहां तक आये।
लेकिन अब क्या
मन की नाव पर
ही बैठे रहोगे?
अब उतरो, अब नाव छोड़ो।
अब किनारा आ
गया। धन्यवाद
दे दो नाव को, कृतज्ञता
ज्ञापन कर दो,
अनुगृहीत
होओ
उसके--यहां तक
ले आयी--लेकिन
क्या अब उसको
सिर पर ढोओगे?
क्या
इसीलिए कि
यहां तक नाव
ले आयी, तो
धन्यवाद देने
के लिए सदा के
लिए नाव में
बैठे रहोगे? तो भूल हो
जाएगी। तो
पागलपन हो
जाएगा।
प्रश्न
सार्थक है।
सभी के लिए
सोचने जैसा
है। सीढ़ियां
छोड़नी
पड़ती हैं।
अंततः सभी
साधन जब छूट
जाते हैं, तभी सिद्धि
उपलब्ध होती
है। जब सभी
मार्ग छूट जाते
हैं तभी मंजिल
मिलती है।
यद्यपि मार्ग
पर चलकर मिलती
है, चलने
से ही मिलती
है, लेकिन
फिर छोड़ना
अनिवार्य है।
चलते रहे, चलते
रहे, मार्ग
ही इतने जोर
से पकड़ लिया
कि मंजिल भी
सामने आ गयी
तो कहा, मार्ग
कैसे छोड़ें
अब! तो फिर
तुमने मार्ग
पकड़ा नहीं, मार्ग ने
तुम्हें पकड़
लिया। फिर
तुमने मार्ग का
उपयोग न किया,
मार्ग
तुम्हारा
मालिक हो गया।
तो फिर तुम
मार्ग पर ही
अटके रह
जाओगे। और हो
सकता है मार्ग
ने तुम्हें
ठीक मंजिल के
द्वार तक
पहुंचा दिया हो,
तब भी क्या
फर्क पड़ता है!
मंदिर से हजार
मील दूर रहे
कि मंदिर की
सीढ़ियों के
पास खड़े रहे, मंदिर के
भीतर तुम नहीं
हो। मंदिर में
तुम्हार
प्रवेश नहीं
हुआ। तो हजार
मील की दूरी, कि हजार फीट
की दूरी, कि
हजार इंच की
दूरी, क्या
फर्क पड़ता है!
मंदिर के तुम
बाहर ही हो। और
मंदिर के भीतर
आओ, तो ही
कुछ होगा।
मंदिर तक आने
से कुछ भी
नहीं होता।
मंदिर के भीतर
आओ, क्योंकि
मंदिर के भीतर
आते ही तुम खो
जाओगे। मंदिर
के द्वार तक
तो तुम बने ही
रहोगे; मंदिर
के द्वार तक
तो अहंकार बना
ही रहेगा। मंदिर
के द्वार के
भीतर ही
पहुंचकर तुम
निराकार होते
हो।
मेरे
पास तक आ गये, मेरे भीतर
आओ। क्योंकि
जब तुम मेरे
भीतर आओगे, तभी मैं
तुम्हारे
भीतर आ
सकूंगा। और
कोई उपाय नहीं।
जब तुम मुझमें
खोओगे, तो मैं
तुममें खो
सकूंगा। और
कोई मार्ग
नहीं।
"आपने
कहा कि चित्त
की दशा ही
बाधा है। और
मुझे मेरे
चित्त की दशा
ही खींचकर
आपके पास ले आयी
है।'
सौ
प्रतिशत सही
कहते हो। पर
अब वहां रुको
मत। इतना किया, थोड़ा और
करो। आये थे
इसीलिए कि मैं
जो कहूंगा उसे
समझोगे और
करोगे। अब
व्यर्थ लड़ो
मत। अब मैं
तुमसे कह रहा
हूं कि अब इस
चित्त को छोड़ो,
इसका काम हो
गया। यह जहां
तक पहुंचा
सकता था, पहुंचा
दिया। इसका उपयोग
हो चुका। अब
यह चली कारतूस
व्यर्थ मत ढोओ।
अन्यथा यही
बाधा बनेगी।
चित्त ही लाता
है। फिर चित्त
ही अटका लेता
है।
"आपने
यह भी कहा कि
बुद्धि ही
बाधा है।'
निश्चित
ही। बुद्धि
बाधा है।
क्योंकि
बुद्धि
तुम्हें
ध्यान में
नहीं जाने
देती। बुद्धि विचार
में ले जाती है।
विचार
और ध्यान बड़ी
विपरीत
दिशाएं हैं।
विचार का अर्थ
है, तरंग।
ध्यान का अर्थ
है, निस्तरंग हो जाना।
विचार का अर्थ
है, सोचना।
ध्यान का अर्थ
है, मात्र
शुद्ध होने
में डूब जाना।
जैसे झील सो गयी।
कोई लहर नहीं,
कोई कंपन
नहीं। हवा का
झोंका भी नहीं
आता। दर्पण हो
गयी। उसी
दर्पण बनी झील
में चांद झलक
आता है। हवा
चली, लहरें
उठीं, झील कंपी, झील
की चादर पर सिकुड़न
पड़ीं, चांद
टूट जाता है, बिखर जाता
है। हजार-हजार
टुकड़े हो जाते
हैं। चांदी
फैल जाती झील
पर, पर
चांद कहां खोजोगे।
विचार
तरंगें हैं।
उन्ही तरंगों
में तो परमात्मा
खो गया है।
उन्हीं
तरंगों के
कारण तो
परमात्मा
प्रतिबिंबित
नहीं हो पाता।
उसकी छाया
नहीं बन पाती
तुममें।
विचार से
संसार चलता है, निर्विचार
से धर्म।
विचार साधन है
संसार में।
वहां अगर
विचार न किया,
लूटे-खसोटे
जाओगे। वहां
अगर विचार न
किया, बड़े
धोखे में
पड़ोगे। वहां
बिना विचार
किये बड़ी
मुश्किल
आयेगी। इसीलिए
तो संसार में
ले जाने के
लिए विद्यालय
हैं, विश्वविद्यालय
हैं--वे विचार
करना सिखाते
हैं। वे
सिखाते हैं, कैसे
ठीक-ठीक विचार
करो।
तर्क-सरणी से,
गणितपूर्वक कैसे
सावधान रहो।
कैसे संदेह
करो कि दूसरा
धोखा न दे
पाये। बाहर
धोखे
देनेवाले लोग
खड़े हैं। सारा
संसार संघर्ष
में लीन है।
वहां भोलेपन
से नहीं चलता।
वहां तिरछे
होना पड़ता है।
कहावत
है--सीधी
अंगुली से घी
नहीं निकलता।
अंगुली टेढ़ी
करनी पड़ती है।
वहां आदमी को
संदेह में
धीरे-धीरे
अपने को
निष्णात करना
पड़ता है।
भरोसा तो तभी
करना बाहर, जब संदेह का
कोई कारण ही न
रह जाए। सब
संदेह कर चुको,
कोई कारण न
रह जाए, तब।
वस्तुतः
बाहर भरोसा
कोई करता ही
नहीं। भरोसे के
भीतर भी संदेह
खड़ा रहता है।
मित्र में भी
हम देखते ही
रहते हैं
संभावना
शत्रु की।
अपने में भी
पराया खड़ा
रहता है। चाहे
थोड़ी देर को हमने
इस संदेह को
स्थगित कर
दिया हो, नष्ट
कभी नहीं
होता। अपने से
भी डर बना
रहता है, क्योंकि
कौन अपना है
वहां? सभी संषर्घ
में लीन हैं।
सभी प्रतिस्पद्र्धा
में पड़े हैं।
सभी एक-दूसरे
के साथ
दांव-पेंच कर
रहे हैं। वहां
जरा चूके कि
गिरे। वहां
जरा चूके कि
कोई तुम्हारी
छाती पर चढ़ा।
वहां जरा चूके
कि किसी ने तुम्हें
साधन बनाया और
शोषण किया।
स्वभावतः
बाहर की
दुनिया में
संदेह, विचार,
इसका बहुत
ज्यादा उपयोग
है। भीतर की
दुनिया में
तुम हो, तुम्हारा
परमात्मा है।
अंततः तो बस
परमात्मा है,
तुम भी नहीं
हो। वहां धोखा
कौन देगा, धोखा
कौन खायेगा? वह एक की
दुनिया है।
वहां दूसरा है
ही नहीं। वहां
दूसरे को
छोड़कर ही
पहुंचना होता
है। वहां बुद्धि
का क्या करोगे?
बुद्धि का
शास्त्र वहां
काम का नहीं।
वह बोझ बन
जाएगा। जैसे
बाहर संदेह
काम देता है, वैसे भीतर
श्रद्धा काम
देती है। जैसे
बाहर विचार काम
देता है, वैसे
भीतर
निर्विचार
काम देता है।
उलटी यात्रा
है।
बाहर
की तरफ जाओ, अपने से दूर
जाओ, तो
विचार को पकड़ना
पड़ेगा। अपनी
तरफ आओ, विचार
को छोड़ना
पड़ेगा। ठीक
अपने में आ
जाओ, सब
विचार छूट
जाएगा। कहो
उसे
निर्विचार
समाधि, निर्विकल्प
समाधि, श्रद्धा
या जो भी नाम
तुम्हें देने
हों। लेकिन एक
बात पक्की है,
नाम कुछ भी
हो, वहां
विचार नहीं है,
महावीर ने
उस स्थिति को
सामायिक कहा
है। वहां बस
शुद्ध आत्मा
है। वहां कोई
विपरीत नहीं
है, जिससे
घर्षण होकर
विचार की तरंग
उठ सके।
तो मैं
कहता हूं कि
बुद्धि भी
बाधा है। भला
यहां तक बुद्धि
ही ले आयी
हो--पढ़ा हो, सुना हो
मेरे संबंध
में तो ही आये
होओगे--लेकिन
अब जब आ ही गये,
तो सुनो मैं
क्या कह रहा
हूं। मैं कह
रहा हूं, अब
बुद्धि को
हटाकर रख दो।
अब जरा
निर्बुद्धि होकर
मेरे पास हो
लो। अब जरा
तरंगों को
क्षीण करो। अब
जरा निस्तरंग
हो लो। निस्तरंग
होते ही मेरे
और तुम्हारे
बीच की सब
दूरी समाप्त
हो जाती है। निस्तरंग
होते ही एक ही
बचता है। न
वहां मैं हूं,
न तुम हो।
वहां वही है। रसो वै सः।
उसी का रस बरस
रहा है। बस एक
ही है। वही
अमृत, वही
अनाहत नाद, जिसको झेन
फकीर कहते
हैं--एक हाथ की
ताली। वहां
दूसरा हाथ भी
नहीं है ताली
बजाने को।
जिसको हिंदू ओंकार
का नाद कहते
हैं--वहां कोई
नाद करनेवाला नहीं
है, नाद हो
रहा है। वहां
नाद शाश्वत
है। वहां संगीत
किसी तार को छेड़कर
नहीं है, ताली
बजाकर नहीं है,
आहत नहीं है,
अनाहत है।
अकेले का नाद
है। वहां
गानेवाला, गीत
और सुननेवाला,
सभी एक हैं।
हटाओ
बुद्धि को।
थोड़ा प्रयोग
करके देखो, थोड़ी हिम्मत
करके देखो।
विचार तो करके
बहुत देखा, उससे जो मिल
सकता था वह
मिला। धन मिल
सकता था, मिला।
पर धन पाकर भी
कहां धन मिला!
उससे जो मिल सकता
था मिला। शरीर
मिला। शरीरों
के संबंध मिले।
लेकिन शरीरों
के संबंध कहां
तृप्ति लाते
हैं, जब तक
आत्मा के
संबंध न हों।
उससे जो मिल
सकता था, मिला।
घर बना लिये, दुकानें सजा
लीं, तिजोड़ी भर ली, लेकिन
मौत सब छीनकर
ले जाएगी।
मौत
सिर्फ उसी को
नहीं छीन पाती, जो ध्यान से
मिलता है।
विचार से मिला
हुआ सब मौत
छीन लेती है।
क्योंकि
विचार से जो
मिलता है, बाहर
है। मौत सब
छीन लेती है
जो बाहर है।
मौत तो
तुम्हें फिर
से तुम्हारे
केंद्र पर
फेंक देती है।
ध्यान में तुम
स्वयं ही उस
जगह पहुंच जाते
हो, जहां
मौत तुम्हें पहुंचाती
है।
इसलिए
ध्यानी की कोई
मौत नहीं।
ध्यानी कभी मरता
नहीं। मर सकता
नहीं। मरते तो
तुम भी नहीं
हो, लेकिन तड़फते
व्यर्थ हो। इस
खयाल में तड़फते
हो कि मरे!
क्योंकि
तुमने बाहर सब
संबंध बनाये,
मौत आकर सब
पर्दे गिरा
देती है। बाहर
से सब संबंध
तोड़ देती है।
अचानक अकेला
छोड़ देती है।
और तुमने
अकेले होने को
कभी जाना
नहीं। तुमने
अकेले होने
में कभी डुबकी
न ली। तो तुम
जानते ही नहीं
कि अकेला होना
भी क्या है।
तुम घबड़ाते
हो। तुम कहते
हो, मर गये!
तुम्हारा
सारा
तादात्म्य
बाहर से--धन छिना,
मकान छिना,
पत्नी-पति छिने, बेटे-बेटियां छिनीं, मित्र-प्रियजन
छिने; बाहर
का सूरज, बाहर
के चांद, बाहर
के फूल, सब छिने, आंख
बंद होने लगी,
भीतर तुम
डूबने लगे, तुम घबड़ाये,
तुमने कहा
हम मरे!
क्योंकि
तुमने इस बाहर
के जोड़ का ही
नाम समझा था, अपना होना।
काश!
तुम एकाध बार
पहले भी इस
अंतर्यात्रा
पर गये होते
मौत के आने के
पूर्व और
तुमने जाना होता
कि सब छिन जाए
बाहर का, तो
भी मैं हूं।
वस्तुतः जब सब
छिन जाता है
बाहर का, तब
मैं शुद्धतम
होता हूं।
क्योंकि तब
कोई विजातीय
नहीं होता।
बाहर की कोई
छाया नहीं
पड़ती। दर्पण
एकदम खाली
होता है। निपट
खाली होता है।
शुद्ध होता
है।
ऐसा
तुमने जाना
होता, तो
मौत भी
तुम्हारे लिए
ध्यान बनकर
आती। तो मौत
भी तुम्हारे
लिए समाधि
बनकर आती।
तुम्हारे पहचान
की भूल है।
उसी पहचान के
लिए तुमसे
बार-बार कह
रहा हूं--छोड़ो
सोच-विचार।
बुद्धिमानी
से कुछ भी
नहीं मिलता, ऐसा मैं
नहीं कहता
हूं।
बुद्धिमानी
से संसार मिलता
है। सिकंदर
होना हो, तो
ठीक है, बुद्धिमानी
पकड़ो। लेकिन
जब तुम
परमात्मा की
यात्रा पर
निकलते हो, तब
बुद्धिमानी
मत पकड़ना।
वहां तो जिनको
संसार में
बुद्धू कहते
हैं, वे
पहले पहुंच
जाएंगे उनसे,
जिनको
संसार में
बुद्धिमान
कहते हैं।
वहां तो तर्कशून्य
पहले पहुंच
जाएंगे
तार्किकों
से। वहां तो
मतवाले पहले
पहुंच जाते
हैं बुद्धिमानों
से। वहां
पागलों की गति
है।
जीसस
ने कहा है, जो छोटे
बच्चों की
भांति होंगे
सरल, वे ही
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे।
निश्चित ही
संसार के
राज्य में
छोटे बच्चों
की कहां जगह
है! कहां उपाय
है! इसीलिए तो
हम छोटे
बच्चों को
जल्दी उनके
बचपन से छुटकारा
दिलाने लगते
हैं। कहते हैं,
बड़े होओ, बड़ों-जैसा
व्यवहार करो,
अब
तुम्हारी
उम्र हो गयी, अब ये
बच्चों जैसी
बात मत करो।
अब सरलता से
काम न चलेगा।
अब तिरछे बनो।
अब जीवन का
तर्क सीखो। अब
लूट-खसोट में
कुशल बनो। अब
सीधे, सरल,
प्रामाणिक
होने से न
चलेगा। यह
बुद्धूपन काम
न देगा। जीसस
ने कहा है, जो
इस संसार में
प्रथम हैं, वे मेरे
प्रभु के
राज्य में
अंतिम होंगे।
और जो इस
संसार में
अंतिम हैं, वे मेरे
प्रभु के
राज्य में
प्रथम हो
जाएंगे।
गणित
बिलकुल उलटा
हो जाता है।
यहां जो आगे
खड़े हैं, वे
एकदम पंक्ति
में आखिर में
पड़ जाते हैं।
क्योंकि
यात्रा ही अलग
है। यात्रा
तर्क की नहीं,
प्रेम की
है। यात्रा
संदेह की नहीं,
श्रद्धा की
है। जो
सरलचित्त हैं,
स्वभावतः
श्रद्धा कर
लेते हैं।
उनकी श्रद्धा
में एक
नैसर्गिक
सुगंध होती
है। संदेहशील
श्रद्धा करता
भी है, तो
भी संदेह की
दुर्गंध कहीं
न कहीं किसी
कोने में छिपी
होती है।
संदेहशील के
मंदिर में भी
संसार की गंध
आती रहती है।
संदेहशील की
प्रार्थना
में भी वासना
बनी रहती है।
संदेहशील
परमात्मा से
हाथ भी जोड़ता
है, तो भी
तैयार रहता है
कि जरा ही
गड़बड़ हो तो
हाथ अलग कर
लें, खींच
लें। पूरा
नहीं होता
प्रार्थना
में। हो नहीं
सकता। संदेह
कभी पूरा नहीं
होने देता।
संदेह कहता है,
पता नहीं, जो कर रहा
हूं वह ठीक है
या नहीं!
श्रद्धा समग्ररूपेण
तुम्हें डुबा
लेती है।
इसलिए कहता
हूं बुद्धि भी
बाधा है।
पूछा
है, "और मैं
देखता हूं कि
आपके
इर्द-गिर्द
बुद्धिमान
व्यक्ति ही
भरे हैं।'
यह भी
सच है। लेकिन, जब तक वे
बुद्धि न छोड़ेंगे,
तब तक मेरे
इर्द-गिर्द
भरे रहें, मुझसे
न भरेंगे।
उनकी बुद्धि
ही बाधा हो
जाएगी। उनकी
बुद्धि यहां
तक ले आयी
होगी।
सोचा-विचारा
होगा, मेरी
बात
तर्कपूर्ण
मालूम पड़ी
होगा, मेरी
बात में
उन्हें गणित
और तर्क का बल
मालूम पड़ा
होगा, मेरी
बात में
प्रमाण का
दर्शन हुआ
होगा, आ
गये।
लेकिन
तर्क!
निश्चित
ही मैं तर्क
की बात भी
करता हूं, क्योंकि कुछ
हैं जो उसी
भांति आ सकते
हैं। लेकिन
तर्क वैसे ही
है जैसे
मछलीमार बंसी
में आटा लगाता
है। बस। आटा
लटका देता है
कांटे में, कोई मछलियों
को भोजन नहीं
करवा रहा है
आटे से। आटा
तो केवल
प्रलोभन है, क्योंकि मछलियां
आटे को ही
देखकर पास आयेंगी।
मैं तर्क की
निश्चित बात
करता हूं, पर
आटा है।
सोच-समझकर गले
में लेना।
क्योंकि जैसे
ही गले में
गया, तुम
पाओगे यहां
कुछ बात और
है। तर्क तो
ऊपर-ऊपर है।
भीतर तो
श्रद्धा है।
तर्क से
बुलाता हूं, क्योंकि यह
युग तर्क का
है। यहां
श्रद्धा की कोई
सुनने को राजी
नहीं है। गणित
से तुम्हें बुलाता
हूं, क्योंकि
गणित की भाषा
ही तुम समझते
हो। तुम्हारी
भाषा में ही
बुलाना होगा।
जब मेरे पास
आने लगोगे तो
अपनी भाषा भी
समझा लूंगा, लेकिन वह तो
नंबर दो की
बात है। पहले
तो तुम्हें
बुलाना
तुम्हारी
भाषा में
होगा।
तुम्हें बुलाना
हो तो
तुम्हारा नाम
ही लेकर
बुलाना होगा।
फिर जब मेरे
पास आओगे, तब
तुम्हारा नाम
बदल दूंगा।
लेकिन पहले तो
पास! एक बार
पास आ जाओ, फिर
धीरे-धीरे
तुम्हें
पिघला लूंगा।
तो जिन्होंने
पूछा है, ठीक
ही पूछा, ठीक
ही कहा है कि
आपके आसपास
बुद्धिमान
भरे दिखायी
पड़ते हैं। यह
सच है। वे
मेरे तर्क को
सुनकर मेरे
पास आ गये। अब
बड़ी दुविधा
में पड़े हैं।
जा भी नहीं
सकते, क्योंकि
मेरी बात
तर्कपूर्ण
मालूम पड़ती
है। बिलकुल
डूब भी नहीं
सकते, क्योंकि
तर्क के पीछे
छिपा हुआ
अतक्र्य है।
तर्क के पीछे
छिपी हुई
श्रद्धा का
स्वर भी
उन्हें सुनायी
पड़ने लगा। आते
भी नहीं हैं, जाते भी
नहीं। अब अटके
रह गये हैं।
अब जाएं तो जाएं
कहां! क्योंकि
जिस तर्क ने
उन्हें प्रभावित
किया है, अब
उस तर्क को
छोड़ना बहुत
मुश्किल है। और
अब उन्हें यह
भी दिखायी
पड़ने लगा है
कि तर्क तो
केवल जाल था।
तर्क के आगे
छलांग है
अतक्र्य की।
तर्क के आगे
छलांग है
श्रद्धा की।
उनकी बुद्धि
को समझाया, बुझाया, राजी
कर लिया, अब
उन्हें
दिखायी पड़ता
है--यह तो
निर्बुद्धि में
उतरने की बात
है। अब वे ठिठके
खड़े हैं--अब वे
ठीक किनारे पर
खड़े हैं खाई
के। लेकिन किनारे
पर खड़े रहें
जन्मों तक, तो भी कुछ न
होगा।
कूदेंगे खाई
में, मिटेंगे,
तो ही कुछ
होगा। मरेंगे
तो ही कुछ
होगा। डरेंगे,
तो कुछ भी न
होगा।
बुद्धि
को धन्यवाद
दो। बड़ी कृपा
उसकी, यहां
तक ले आयी। अब
उसे विदा भी
दो। अब उसे
नमस्कार करो।
कहो, अलविदा!
दूसरा
प्रश्न:
आचार्य
रजनीश को
सुनता
था--निपट सीधा
और साफ। अब भी
सुनता हूं
प्यारे भगवान
को--आड़े
होते हैं
बुद्ध, महावीर,
जीसस, शंकर,
नारद, कबीर
और फरीद। इन
भगवानों के
मूल उदघाटित
करते हैं, स्वयं
सीधे प्रकट
होने की बजाय आड़ लेकर
आने के पीछे
रहस्य क्या है?
मेरी
समझदारी बढ़ी।
पहले
सोचा था, सीधे
सीधी-सीधी बात
कर लेने से हल
हो जाएगा। लेकिन
लोग बड़े तिरछे
हैं। मैंने
उनकी भाषा सीखी।
कहता अब भी
वही हूं, जो
तब कहता था।
लेकिन पहले
अपनी भाषा
बोलता था। तब
मैंने देखा कि
लोग चौंकते हैं,
जागते
नहीं। चौंकना
भर जागने के
लिए काफी नहीं
है। चौंककर
आदमी फिर करवट
लेकर सो जाता
है। चौंककर
शायद नाराज भी
हो जाता है।
सोचता है
किसने शोरगुल
किया!
मैंने
देखा कि लोग
मेरी बात सुन
लेते हैं, लेकिन उस
सुनने से उनके
जीवन में कोई
क्रांति घटित
नहीं होती।
क्योंकि मैं
अपनी भाषा बोल
रहा हूं, जो
उनकी समझ में
नहीं आती।
उनको तो उनकी
ही भाषा से
समझाना होगा।
तब मैं अपना
गीत गुनगुनाये
जा रहा था, बिना
इसकी फिक्र
किये कि
सुननेवाले को
समझ में भी
आता है या
नहीं?
जैसे-जैसे
और-और अधिक
लोगों के
संपर्क में
आया, वैसे-वैसे
एक बात दिखायी
पड़ गयी कि
सीधे-सीधे वे
मुझे न देख पायेंगे।
सीधे देखने की
आंख ही उनकी
खो गयी है।
उनकी आंखें
तिरछी हो गयी
हैं।
तो अब
मैं महावीर की
बात करता हूं, बुद्ध की
बात करता हूं;
कृष्ण की, क्राइस्ट की,
नानक की, कबीर की, फरीद
की। ये भाषाएं
उन्हें याद
हैं। इन भाषाओं
में वे रगे-पगे
हैं। इन
भाषाओं को
सुनते-सुनते
वे इन शब्दों से
परिचित हो गये
हैं। उन
शब्दों में
डालता मैं वही
हूं जो मुझे
डालना है।
नानक मेरा हाथ
तो पकड़ नहीं
सकते। जो मुझे
कहना है वही
कहूंगा। लेकिन
सिक्ख को समझ
में आ जाता
है। महावीर
कोई मुकदमा तो
मुझ पर चला
नहीं सकते। जो
मुझे कहना है
वही कहता हूं,
लेकिन
महावीर का आटा
लगा देखकर जैन
करीब आ जाते
हैं। बस, इसलिए।
इसलिए अब
सीधे-सीधे बात
बंद की है।
बात तो
वही कर रहा
हूं, वही कर
सकता हूं, कोई
दूसरा उपाय
नहीं है। मैं
वही कह सकता
हूं, जो
मैं हूं। अगर
किसी दिन देखा
कि अब लोगों
को सीधे-सीधे
बात फिर समझ
में आने लगी, फिर आड़ें
छोड़ दूंगा।
फिर सीधी बात
करने लगूंगा।
तुम पर निर्भर
है। तुमसे बोल
रहा हूं, इसलिए
तुम्हारा
ध्यान रखना
जरूरी है। अगर
एकांत में
बोलता होता, अकेले में
बोलता होता, शून्य में
बोलता होता, तो महावीर, बुद्ध, कृष्ण
के नाम का कोई
कारण ही न था।
अब भी जब अपने
अकेले में
बैठा होता हूं,
तो मुझे न
बुद्ध की याद
आती है, न
महावीर की, न कृष्ण की, न क्राइस्ट
की। तुम्हें
देखता हूं, तब। तब इन
नामों को
खींच-खींचकर
मुझे लाना पड़ता
है। तुम्हें
सहारा देने के
कारण, देने
के लिए। तुम आड़ में ही
पहचान पाते हो,
चलो यही
सही। तुम अगर
गुलाब को
गुलाब कहने से
नहीं समझते, चमेली कहने
से समझते हो, चलो चमेली
ही सही। गुलाब
तो गुलाब है।
चमेली कहो, चंपा कहो, जुही कहो, बेला कहो, नाम से क्या
फर्क पड़ता है,
गुलाब
गुलाब है। मैं
मैं हूं। मेरी
शराब मेरी
शराब है।
महावीर की
प्याली में ढालो कि
बुद्ध की
प्याली में ढालो, मेरे
स्वाद में कोई
फर्क पड़ता
नहीं।
तुम्हारी वजह
से नाहक इन
नामों को मुझे
खींचना पड़ रहा
है।
अगर
मैं फरीद पर
बोलता हूं, मुसलमान
उत्सुक हो
जाता है। राम
के भक्त मेरे पास
आते हैं, वे
कहते हैं आप कृष्ण
पर तो बोले, राम पर
क्यों नहीं
बोलते? पत्र
आते हैं मुझे।
लखनऊ
से किन्हीं
मित्रों का
पत्र आया कि
आप रैदास पर
कब बोलेंगे? वे रैदास के
भक्त होंगे।
तो रैदास पर
कब बोलेंगे।
जैसे कि मैं
जो बोल रहा
हूं, वह
रैदास पर नहीं
है! तारणपंथी
जैन आते हैं, वे कहते हैं,
तारण पर कब
बोलेंगे? जैसे
मैं जो बोल
रहा हूं, वह
तारण पर नहीं
है! मैं जो बोल
रहा हूं, वही
बोलूंगा।
गीता रखो, कि
कुरान, कि
बाइबिल रखो, मैं वही
कहूंगा जो
मुझे कहना है।
सिर्फ बीच-बीच
में मुझे
महावीर, बुद्ध
और कृष्ण के
नाम दोहराने
पड़ते हैं, और
कुछ खास अंतर
नहीं है।
तुम्हारी
मर्जी। तुम
ऐसा चाहते हो,
चलो ऐसा
सही। जो मुझे
बेचना है, वही
बेचूंगा।
बचपन
की मुझे याद
है। छोटा था, तब मेरे
पिता के
पिताजी दुकान
चलाते, तो
उनकी कुछ
बातें याद रह
गयीं। एक बात
वह ग्राहकों
से कहा करते
थे कि तरबूजा
चाहे छुरी पर गिरे,
चाहे छुरी तरबूजे पर
गिरे, हर
हालत में
तरबूजा
कटेगा। वे ठीक
कहते थे। क्या
फर्क पड़ता है!
छुरी को नीचे
रखकर ऊपर से
तरबूजा पटको,
कि तरबूजे
को नीचे रखकर
ऊपर से छुरी पटको, हर
हालत में
तरबूजा
कटेगा। छुरी
कैसे कट सकती है?
छुरी काटती
है।
जैसी
तुम्हारी
मर्जी हो।
लेकिन कटोगे
तुम ही।
तुम्हें अगर आड़ से कटने
में सुख आता
है, चलो यही
सही। मुझे
उसमें कुछ
अड़चन नहीं है।
क्योंकि
महावीर ने वही
कहा है, जो
मैं कह रहा
हूं। बुद्ध ने
वही कहा है, जो मैं कह
रहा हूं।
सिर्फ सदियों
का फर्क है, भाषा का
फर्क है।
अन्यथा कहने
का उपाय नहीं।
क्योंकि जैसे ही
तुम शांत हुए,
डूबे अपने
में, उस
जगह पहुंचे जो
शाश्वत है, सनातन है।
तीसरा
प्रश्न:
जैन-कुटुंब
में जन्म हुआ।
तीन वर्षों से
आपको पढ़ता
हूं। संन्यास
भी लिया है।
फिर भी पारे
की तरह बिखरा
जा रहा हूं।
जिन-सूत्र पर
प्रवचन अच्छा
लगता है। पर
भोग में रस
बहुत है। फिर
परंपरा और
संस्कार पांव
पर बेड़ी
की तरह पड़े
हैं। बहुचित्त
और विक्षिप्त
होता जा रहा
हूं, टूटता
जा रहा हूं; कृपया मार्ग
दर्शन दें।
क्यों
टूट रहे हो, इसे थोड़ा
ठीक से समझ लो,
वहीं से
मार्ग मिल
जाएगा। टूटने
के कारण प्रश्न
में ही साफ
हैं--
"जैन-कुटुंब
में जन्म हुआ।'
किसी न किसी
कुटुंब में
जन्म तो होगा
ही। और जब
जन्म होगा
किसी कुटुंब
में, तो उस
कुटुंब का
सदियों
पुराना ढांचा,
संस्कार, आदतें, धारणाएं,
विश्वास
तुम पर थोपे
जाएंगे। अब तक
कोई मां-बाप
इतने जागरूक
नहीं हैं कि
बच्चे को
स्वतंत्र छोड़ें,
कि उसे कहें
कि तू बड़ा हो, होशपूर्ण हो,
अपना चुनाव
करना। जो धर्म
तुझे
प्रीतिकर लगे,
वह चुन
लेना। अगर
मस्जिद में
तुझे रस आये, मस्जिद
जाना।
गुरुद्वारा
प्रीतिकर लगे,
गुरुद्वारा
जाना। मंदिर
में तुझे
ध्यान लगे, मंदिर चले
जाना। अगर
नास्तिकता से
ही तुझे सत्य
की अनुभूति
होती हो, तो
वही सही है।
लेकिन तू
चुनना। हम कुछ
तेरे ऊपर थोपेंगे
नहीं। अभी ऐसे
मां-बाप
पृथ्वी पर
नहीं हैं। अभी
पृथ्वी पर
जागे हुए लोग
इतने कम हैं
कि मां-बाप
ऐसे हों भी
कैसे!
तो हर
मां-बाप अपने
बच्चे पर वही
थोप देता है, जो उस पर
थोपा गया था
उसके मां-बाप
के द्वारा। ऐसे
सदियों का
कचरा
मस्तिष्क पर
हावी हो जाता
है। वही
बिखराव का
कारण है। उसके
कारण तुम कभी
स्वतंत्र
नहीं हो पाते।
उसके कारण तुम
सदा बंधे-बंधे
हो--जंजीरों
में बंधे हो। तड़फते हो
उस पार जाने
को, लेकिन
नाव जंजीरों
से इसी किनारे
से बंधी है।
और जंजीरें
बड़ी बहुमूल्य
मालूम होती
हैं। क्योंकि
बचपन से ही
तुमने उन्हें
जाना। तुम
समझते हो कि
शायद जंजीरें
नाव का अनिवार्य
हिस्सा हैं।
या तुम शायद
सोचते हो कि
जंजीरें नाव
का आभूषण हैं,
सजावट हैं,
शृंगार
हैं। या कि
तुम सोचते हो
कि जंजीरों
को अगर तोड़
दिया, तो
कहीं ऐसा न हो
कि दूसरा किनारा
तो मिले ही न, और यह
किनारा छूट
जाए! तो बंधे
हो, तड़फते हो, पताकाएं खोलते हो, पाल खोलते
हो, पतवारें
चलाते हो, और
जंजीरें
खोलते नहीं!
जंजीरें
तोड़ते नहीं। नाव
वहीं की वहीं तड़फत्तड़फकर
रह जाती है।
इसी से घबड़ाहट
पैदा होती है।
जैन-कुटुंब
में पैदा हुए
हो तो पहला तो
काम है--जैन
धारणाओं से
मुक्त हो
जाना। नहीं कि
वे गलत हैं।
बल्कि दूसरे
के द्वारा दी
गयी हैं, यही
अड़चन है। जिस
दिन तुम
जागोगे, जिस
दिन तुम पाओगे,
उन्हें ठीक
ही पाओगे।
लेकिन अभी
उधार हैं। अभी
स्व-अर्जित
नहीं हैं। और
सत्य उधार
नहीं मिलता।
अगर हिंदू-घर
में पैदा हुए
हो, तो
पहला कृत्य
हिंदू-संस्कार
से मुक्त हो
जाना है। अगर
मुसलमान घर
में पैदा हुए
हो, तो
पहला काम
स्वतंत्रता
का--इस्लाम से
छुटकारा ले
लेना। खाली
करो अतीत से
अपने को। अपनी
खोज पर निकलो।
हिम्मत करो।
साहस करो।
दुस्साहस चाहिए।
कायर की तरह
किनारों से मत
बंधे रहो।
"जैन-कुटुंब
में जन्म हुआ।'
वहीं
पागलपन के बीज
हैं। किसी
कुटुंब में तो
होगा ही। जैन
में हो, सिक्ख
में हो, मुसलमान
में हो, हिंदू
में हो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। जहां भी
जन्म होगा, वहीं तुम पर
संस्कार थोप
दिये जाएंगे।
पहला कृत्य
धार्मिक-खोजी
का उन
संस्कारों के
जालों को
काटकर अपने को
मुक्त कर लेना
है। जैसे मां
के पेट में
बच्चा पैदा होता
है, तो
जुड़ा होता है
मां से। जैसे
ही गर्भ के
बाहर आता है, डाक्टर का
पहला काम है
उस जोड़ को तोड़
देना। अगर
नाभि बच्चे की
मां से जुड़ी
ही रहे, तो
यह बच्चा फिर
कभी बढ़ न पायेगा।
माना कि अब तक
इसी जोड़ के
कारण जीआ,
लेकिन अब
यही जोड़ मौत
का कारण
बनेगा।
तो
पहला काम
डाक्टर करता
है, काट देता
है बच्चे के
संबंध को मां
से। सेतु तोड़
देता है। इसके
बाद
स्वतंत्रता
की यात्रा शुरू
होती है। फिर
बच्चा मां पर
निर्भर रहता
है। मां उसका
भोजन है, दूध
है। धीरे-धीरे
दूध भी छोड़
देता है; और
भी संबंध
टूटा। पहले
मां के ही
पीछे घूमता रहता
है, उसका
आंचल पकड़कर
ही घूमता रहता
है, फिर
धीरे-धीरे
पास-पड़ोस में
खेलने जाने
लगता है--और
संबंध टूटा।
फिर धीरे-धीरे
संबंध बड़ा फैलाव
लेने लगता है,
शिथिल होने
लगता है।
जैसे-जैसे मां
से संबंध
टूटता है, वैसे-वैसे
बच्चा प्रौढ़
होता है। फिर
एक दिन किसी
स्त्री के
प्रेम में पड़
जाता है। उस
दिन मां की
तरफ बिलकुल
पीठ हो जाती
है। इसलिए मां
कभी भी बहू को
माफ नहीं कर
पाती। सास और
बहू के बीच एक
बुनियादी
विरोध बना
रहता है। वह
कितना ही छिपाओ,
कितना ही
दबाओ, वह
हटता नहीं।
क्योंकि मां
को
जाने-अनजाने
यह पता रहता
है कि इसी
स्त्री ने
उसके बेटे को
सदा के लिए
तोड़ दिया।
ठीक
ऐसा ही
अंतस-जगत में
भी घटता है।
तुम जैन-कुल
में पैदा हुए, जैन-धर्म
तुम्हारी मां
है। जब तुम
जरा समझदार हो
जाओ, तो
अपने को मुक्त
करना शुरू
करना। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि तुम जैन-धर्म
के विपरीत हो
जाना। ऐसा
समझो, तो
मेरी बात गलत
समझ गये। मैं
तो तुमसे यह
कह रहा हूं, कि जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं, यही
वस्तुतः जैन
होने का उपाय
है। तुम
जैन-संस्कारों
से मुक्त होना,
यह
जैन-संस्कार
का विरोध नहीं
है। यह जैन
होने की
वास्तविक
व्यवस्था है।
हटना, धीरे-धीरे-धीरे-धीरे।
दुश्मनी का
कारण नहीं है।
सिर्फ तुम
अपनी
स्वतंत्रता
खोजना। इससे जैन-धर्म
गलत है, ऐसा
नहीं है। तुम
सिर्फ अपनी
स्वतंत्रता
की खोज कर रहे
हो। और जो भी
चीज बाधा बनती
है, उसे
तुम हटा रहे
हो।
अगर तुम
अपने बचपन में
डाले गये
संस्कारों से
मुक्त हो जाओ, तुम अचानक
पाओगे, तुम
एकजुट हो गये।
तुम्हारे
खंड-खंड
इकट्ठे हो
गये।
तुम्हारे
भीतर एक संगीत
का जन्म हुआ, क्योंकि
स्वतंत्रता
का जन्म हुआ।
तुम अब बंधे
हुए नहीं हो, परतंत्र
नहीं हो। यह
मुक्ति का
पहला कदम है।
जिसने यह कदम
न उठाया, मोक्ष
की, अंतिम
मंजिल की बात
ही छोड़ दे।
सपना न देखे।
व्यर्थ की है
बात। यही
कठिनाई हुई है,
मेरे पास
आकर तुम्हारे
मन में मोक्ष
का सपना पैदा
हुआ। और तुम
पहला कदम
उठाने को राजी
नहीं हो।
"जैन-कुटुंब
में जन्म हुआ।
तीन वर्षों से
आपको पढ़ता हूं।'
उसी से अड़चन
हो गयी। अब
तुम लौट भी
नहीं सकते। अब
तुम फिर उसी
जगह वापस नहीं
पहुंच सकते, जहां तीन
साल पहले थे।
अब कोई उपाय
नहीं, लौटने
का कोई मार्ग
नहीं, विधि
नहीं। और तुम
मेरे साथ भी
पूरे नहीं हो
पा रहे हो।
जिसने पूछा है,
मुझे पता है,
जब वह यहां
आते हैं तो
माला पहन लेते
हैं, गेरुआ
पहन लेते हैं।
घर जाकर गेरुवा-माला
दोनों छिपाकर
रख देते हैं।
वह घर लोगों को
यही बता रहे
हैं कि जैन
हैं, और
यहां आकर
बताते हैं कि
संन्यासी
हैं। दुविधा
तो होगी। घर
जाकर वह घोषणा
नहीं कर पाते
हैं कि मैं
सन्यासी हूं,
कि मैंने एक
मार्ग
चुना--स्वेच्छा
से।
"संन्यास भी
ले लिया है।' इस वचन से ही
साफ होता है
कि संन्यास
कोई आनंद की
तरह घटित नहीं
हुआ, जैसे
मजबूरी में ले
लिया--संन्यास
भी ले लिया है!
जैसे कोई
मजबूरी है।
जैसे कि लेना
नहीं था और ले
लिया। या, यह क्या कर
लिया! संन्यास
से छूटो, या अपने
संस्कारों से छूटो।
पीछे लौट सकते
हो, तो
मुझे भूल जाओ।
उससे कोई
मुक्ति न होगी,
लेकिन कम से
कम बंधन में
ही सुख रहेगा।
कारागृह को ही
तुम महल
समझोगे, बस
इतना ही।
लेकिन
कारागृह को
महल समझनेवाला
निश्चिंत
सोता है। जिस
दिन तुम्हें
कारागृह का
पता चलता है
कि यह महल
नहीं है, कारागृह
है, उस दिन
अड़चन शुरू
होती है। वह
अड़चन शुरू हो
गयी है।
मैं
जानता हूं, लौटना संभव
नहीं है। एक
दफा कैदी को
पता चल जाए कि
यह कारागृह है,
इसको मैंने
अब तक महल
समझा था वह
गलत था--अब कोई उपाय
नहीं है इस
बात को भुला
देने का। अब
वह लाख उपाय
करे, लाख
पोते दीवालें
कारागृह की, फूल-पत्ती
लगाये, सजाये,
कुछ फर्क
नहीं पड़ता, याद रहेगी
कि यह कारागृह
है। वस्तुतः
जितना छिपायेगा,
उतनी ही याद
सघन होगी कि
यह कारागृह
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी के
साथ एक रास्ते
से गुजर रहा
है। एक सुंदर
युवती निकली, चौंककर नसरुद्दीन
ने उसे देखा।
मुल्ला की
पत्नी ने कहा
कि देखो, कोई
भी सुंदर
स्त्री निकली
कि तुम भूल ही
जाते हो कि
तुम विवाहित
हो। नसरुद्दीन
ने कहा, भाग्यवान!
वस्तुतः जब
किसी सुंदर
स्त्री को देखता
हूं, तभी
मुझे
बहुत-बहुत याद
आती है कि अरे,
विवाहित
हूं! निश्चित
मुल्ला ठीक कह
रहा है। पत्नी
साथ हो और
सुंदर स्त्री
रास्ते पर मिल
जाए, तो
बड़ी याद आती
है कि अरे!
विवाहित हूं!
सालती है पीड़ा
और भी।
कारागृह
को अगर तुमने
साज-संवार
लिया, जानकर,
भुलाने को,
तो कैसे भूलोगे?
जानकर कोई
भुला सकता है?
तुम अगर
किसी को
भुलाने का
उपाय करो, तो
भुलाने में ही
तो याद आती
है। जितना
भुलाना चाहो,
उतनी याद
सघन होती है।
तो लौट तो तुम
न सकोगे, लेकिन
मैं कहता हूं,
तुम अगर
चाहो तो लौट
सकते हो। लौट
जाओ। बन पड़े तो
लौट जाओ, न
बन पड़े, तो
फिर पूरे मेरे
हो जाओ। अब
दोनों के बीच
तुम डांवांडोल
आधे-आधे रहोगे,
तो टूटोगे।
इसलिए बहुचित्त
होता जा रहा
हूं, विक्षिप्त
होता जा रहा
हूं, टूटता
जा रहा हूं।
होगा। निर्णय
लेना होगा अब।
मेरे साथ होना
है, तो
पूरे मेरे साथ
हो जाओ।
इसका
यह अर्थ नहीं
कि तुम महावीर
के दुश्मन हो
गये। मेरे साथ
पूरे होकर एक
दिन तुम पाओगे
कि महावीर मिले।
लेकिन यह होना
साधारण
अर्थों में
जैन होना न
होगा। जिसको
मैं जिन होना
कहता हूं--जैन
होना नहीं।
जैन होना तो
परंपरा से है, परिवार से
है; जिन
होना, आत्मजयी होना, यह
घटेगा। मगर
इसके लिए साहस
करना होगा। तो
ही हो सकता
है।
"संन्यास
भी ले लिया
है।' कुछ
आनंद, उल्लास,
कुछ अहोभाव
तुम्हारे
संन्यास में
नहीं है अभी।
अभी तुम्हारा
संन्यास बड़ा
थोथा है। अभी
तुमने लिया है,
यह कहना ठीक
नहीं है।
मैंने दिया है,
इतना ही
कहना ठीक है।
मैं नहीं नहीं
कर सका, इसलिए
दे दिया है।
इसे तुम मेरी
सज्जनता समझो।
तुमने अभी
लिया नहीं है।
तुमने जागकर
होशपूर्वक
अभीप्सा नहीं
की है। तुमने
प्राणपण से
चाहा नहीं है।
तुमने अपना
संकल्प अर्पित
नहीं किया है।
तुम समर्पित
नहीं हो।
तुमने लिया
होता तो हल हो
जाता, सारा
मामला उसी
क्षण। उसी
लेने में हल
हो जाता है।
क्योंकि उसी
लेने में तुम
इकट्ठे हो
जाते। उसी
लेने में
तुम्हारे
सारे खंड एक
संगीत में बंध
जाते, तुम्हारे
सारे स्वरों
के बीच एक
लयबद्धता आ जाती।
क्योंकि इतना
बड़ा संकल्प हो
और तुम्हें जोड़
न जाए!
नहीं, उलटी हालत
घटी है।
संन्यास लेने
ने तुम्हें और
तोड़ दिया।
तुमने आधे-आधे
मन से लिया।
यह तुम्हारा
संकल्प
तुम्हारी
आत्मा से नहीं
उठा। यह तुमने
औरों को लेते
देखकर ले लिया
होगा। यह तुम
भीड़ के साथ चल
गये--भीड़-चाल
चले। तुमने
औरों को
प्रसन्न होते
देखकर लोभ के
कारण ले लिया
होगा कि शायद
संन्यास लेने
से प्रसन्नता
मिलती है।
आनंद मिलता
है। इसलिए ले
लिया होगा।
शायद मेरे
आशीर्वाद से
तुम्हारा
जीवन धन्य हो
जाएगा, इसलिए
ले लिया होगा।
तुमने भिखमंगे
की तरह ले
लिया होगा।
तुमने सम्राट
की तरह नहीं
लिया। तुमने
अपने स्वयं के
सहज-स्फूर्त
भाव से नहीं
लिया। शायद
किसी भावुक
क्षण में ले लिया
होगा। यहां
आये होओगे, सुना होगा, समझा होगा, भावुक हो गये
होओगे, भाव-क्षण
घिर गया होगा,
उस क्षण में
उतर गये, फिर
पीछे पछता रहे
हो कि यह क्या
कर लिया! इसीलिए
तो कहते हो, संन्यास भी
लिया है। अभी
लिया नहीं। ले
लो, गंगा
बहती है, तब
तक पी लो।
"फिर
भी पारे की
तरह बिखरा जा
रहा हूं।' निर्णय
नहीं कर पा
रहे हो कि अब
क्या करना है।
पुराने
जड़-संस्कारों
से बंधे रहना,
या इस नयी
स्वतंत्रता
के रोपे को
आरोपित किया है,
इसको पानी
सींचना, सम्हालना।
दो के बीच
उलझे हो।
तुमने
सुनी उस गधे
की कहानी, जिसके दोनों
तरफ दो घास के
पूरे लगे थे
और वह बीच में
खड़ा था। वह तय
न कर पाया कि
इस तरफ के घास
के पूरे से
भोजन करूं, या उस तरफ
के। जरा इधर
झुकता तो खयाल
आता, उस
तरफ का ज्यादा
हरा है। जरा
उधर झुकता तो
खयाल आता, इधर
का हरा है। वह
बीच में ही
खड़े-खड़े मर
गये। दोनों
तरफ पूरे रखे
थे। भोजन पास
था, दूर न
था, लेकिन
निर्णय न हो
सका। दुविधा
पैदा होती है
जब तुम निर्णय
नहीं कर पाते।
द्वैत पैदा
होता है जब
तुम निर्णय
नहीं कर पाते।
दुई पैदा होती
है जब तुम
निर्णय नहीं
कर पाते।
निर्णय होते से
द्वैत गिर
जाता है।
निर्णय
अद्वैत है।
तो तुम
तय कर लो। इधर
मैं हूं, उधर
तुम्हारे
जैन-संस्कार
हैं। तुम तय
कर लो। अगर
तुम्हें वहां
रस हो, लौट
जाओ। मैं
तुम्हें
रोकूंगा
नहीं। आनंद तुम्हें
चाहे न मिले, कम से कम
संतोष तो
मिलेगा। चलो
वही सही। कम
से कम सुविधा
तो रहेगी, चलो
वही सही।
लेकिन अगर
तुममें
हिम्मत है और
मेरे साथ आ
सकते हो, तो
आश्वासन
है--आनंद भी
मिल सकता है।
अहोभाव भी हो
सकता है। तुम धन्यभागी
हो सकते हो।
लेकिन निर्णय
तो करना पड़े, कीमत तो
चुकानी पड़े।
यह निर्णय
करना ही कीमत
चुकानी है।
नहीं तो सभी
कोई आनंद को
उपलब्ध हो जाएं।
जो निर्णय
करते हैं, वही
हो पाते हैं।
"जिन-सूत्र
पर प्रवचन
अच्छा लगता
है। पर भोग में
भी रस बहुत
है।' जिन-सूत्र
पर प्रवचन
क्यों अच्छा
लगता है? प्रवचन
के कारण? तो
जिन-सूत्र से
क्या
लेना-देना!
जिन-सूत्र के कारण?
तो प्रवचन
से क्या लेना!
जिन-सूत्र के
कारण अच्छा
लगता है, तो
उसका अर्थ हुआ
कि तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है कि अहो, धन्यभाग, जैन-कुल में
पैदा हुआ! ऐसी मूढ़ता सभी
को सिखायी गयी
है। हिंदू-कुल
में पैदा हुए,
धन्यभाग! भारत-भूमि
में पैदा हुए,
धन्यभाग! जैसे और सब
अभागे हैं
दुनिया में।
जैनों को तो
सिखाया जाता
है बचपन से कि
तुम जैन-कुल
में पैदा हुए,
धन्यभागी हो। एक तो
मनुष्य होना
दुर्लभ, फिर
जैन होना!
बिलकुल दुर्लभ!
जिन-सूत्र
पर प्रवचन
अच्छा लगता है
उसका कुल कारण
इतना ही है कि
तुम्हारे
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है, जब मैं
कहता हूं
महावीर ठीक, तुम्हें
लगता
है--बिलकुल
ठीक; तो हम
भी ठीक, तो
मैं भी ठीक! जब
मैं कहता हूं
गीता ठीक, कृष्ण
ठीक, हिंदू
अकड़ जाता है, कहता
है--बिलकुल
ठीक। नहीं कि
उसे मैं समझ
में आ रहा हूं,
कि कृष्ण
समझ में आ रहे
हैं, कि
गीता समझ में
आ रही है, उसे
सिर्फ अहंकार
में खुजलाहट आ
रही है, खुरदुरी आ रही है।
फुरफुरी आ रही
है। वह इसका
अहंकार मजा ले
रहा है, वह
कह रहा
है--बिलकुल
ठीक। फूल के
कुप्पा हो जाता
है।
इसीलिए
रस आ रहा
होगा। यह रस
नहीं है। बड़ा
रुग्ण रस है।
यह स्वस्थ
नहीं है, यह
बीमार है। यदि
तुम मुझे
सुनते हो, तो
जो मैं कह रहा
हूं उसकी फिकिर
करो। तुम खूंटियों
की फिकिर
कर रहे हो।
मैं क्या
खूंटी पर टांग
रहा हूं, उसकी
फिकिर
करो। गुठलियां
गिन रहे हो, आम चूसो।
मगर मन बड़ा
पागल है।
अगर
महावीर की
मैंने
प्रशंसा कर दी, जैन अकड़कर
चलने लगता है।
तो वह कहता है
कि फिर ठीक; तो हम जो
मानते थे, बिलकुल
ठीक।
तुम्हारी
मान्यता को
ठीक नहीं कह
रहा हूं। जब
मैं महावीर को
ठीक कहता हूं
तो मैं जैनों
को ठीक नहीं
कह रहा हूं, ध्यान रखना।
अगर जैन ठीक
हैं, तो
महावीर गलत
हैं। अगर
महावीर सही
हैं, तो
जैन गलत हैं।
महावीर और
जैनों का क्या
लेना-देना!
इन्हीं
दुष्टों के
कारण तो सब
खराब हुआ।
इन्हीं ने तो डुबाया।
ये खुद तो
डूबे, महावीर
को भी ले
डूबे। महावीर
इनसे मुक्त
होते, तो...तो
ज्यादा साफ
होता आकाश।
इन्हीं की
बदलियां तो
घिर गयीं, उनका
सूरज ढक गया।
इन्हीं
के कारण तो
महावीर को
समझना
मुश्किल हो
गया है।
हिंदुओं के
कारण कृष्ण को
समझना मुश्किल।
ईसाइयों के
कारण जीसस को
समझना मुश्किल।
मुसलमानों के
कारण मुहम्मद
की फजीहत!
क्योंकि
जिसने
मुसलमान को
देखा, अनजाने
जो मुसलमान कर
रहा है उसका
दोषारोपण
मुहम्मद पर भी
चला जाता है।
जाएगा ही।
जिसने जैन को
गौर से देखा, वह महावीर
के चरणों में
सिर नहीं झुका
सकता। क्योंकि
अगर यह महावीर
का परिणाम है,
तो महावीर
में कुछ दोष
रहा ही होगा।
लेकिन
खयाल रखना, अनुयायी
अकसर गुरु से
उलटे होते
हैं। शायद
जीवित गुरु के
पास जो
अनुयायी इकट्ठे
होते हैं, वे
तो गुरु की
थोड़ी-बहुत
मानते--थोड़ी
बहुत कहता हूं,
पूरी मान
लेते तो
न-मालूम कितने
महावीर एक-साथ
पैदा हो
जाते--थोड़ी-बहुत
मान लेते हैं;
पर
थोड़ी-बहुत सही,
उतनी थोड़ी
भी उनको बचा
लेती है। फिर
उनके बच्चे
पैदा होते हैं,
फिर उनके
बच्चे पैदा
होते हैं, महावीर
दूर पड़ते जाते
हैं। फिर
महावीर एक पिटी
हुई लकीर रह
जाते हैं।
जिसे
तुमने नहीं
चुना है, वह
कभी भी
तुम्हारे लिए
जीवंत धर्म
नहीं हो सकता।
जो तुमने
मां-बाप से ले
लिया है, परंपरा
से ले लिया है,
संस्कार से
ले लिया है, वह मुर्दा
लकीर है।
उसमें कोई
प्राण नहीं।
तुम
थोड़ा सोचो, तुम मेरे
पास आये हो, तो तुम्हारे
जीवन में एक
उल्लास होगा।
तुमने मुझे
चुना है, खोजा
है, तुम
मर्जी से आये
हो अपनी, कोई
तुम्हें लाया
नहीं--वस्तुतः
रोकनेवाले
बहुत हैं, लानेवाला तुम्हें
यहां कौन है!
हजार मिले
होंगे रास्ते
में
जिन्होंने
कहा होगा--अरे,
कहां जाते
हो, रुको!
फिर भी तुम
उनको पार करके
आये हो। बहुत
चलते हैं, थोड़े
से पहुंच पाते
हैं। बीच में
अनेक लोग हैं रोकनेवाले,
जो उन्हें
रोक लेते हैं।
तो तुम्हारे
आने में तुम्हारा
बल है, तुम्हारा
संकल्प है।
लेकिन
तुम्हारे
बच्चों को तुम
मेरी किताबें
दे जाओगे, मेरे
चित्र दे
जाओगे, माला
सम्हाल जाओगे
कि सम्हालकर
रखना, इस
माला से हमने
बहुत पाया। वह
पाना
तुम्हारे संकल्प
से हुआ था, माला
से नहीं। इन
पुस्तकों से
हमें बड़ी
ज्योति मिली।
वह ज्योति
तुम्हारी खोज
से मिली थी।
ये बच्चे इन
किताबों को
रखकर पूजा
करते रहेंगे,
ये इन्हें
खोलेंगे भी
नहीं। और कभी
खोलेंगे भी, तो इनका कभी
भी हृदय का
स्पर्श न हो
सकेगा, क्योंकि
जो स्वयं नहीं
चुना है...।
फर्क
समझो।
एक
युवक एक युवती
के प्रेम में
पड़ जाता है, यह एक बात
है। फिर बाप
जाता है उस
युवक का, पंडे-पुजारी
से मिलता है, ज्योतिषियों
से मिलता है, फिर किसी
दूसरी लड़की से
उसका विवाह तय
करता है। पूछो
उस युवक से
क्या फर्क है?
जिससे वह
स्वयं प्रेम
में पड़ गया है,
वह जान देने
को तैयार है।
जिससे बाप
उसका विवाह
करवा देना
चाहता है, वह
समझता है यह
फंदा हो रहा
है, फांसी
लग रही है।
दोनों
स्त्रियां
हैं। यह भी जरूरी
नहीं है कि
बाप ने जो
स्त्री चुनी
है, वह
प्रेयसी से कम
सुंदर
हो--ज्यादा भी
हो सकती है।
निश्चित ही
बाप ज्यादा
होशियार है।
ज्यादा जीवन
देखा है। वह
ज्यादा सुंदर,
स्वस्थ, कुलीन,
सुशिक्षित,
संपन्न परिवार
चुनेगा।
वह हजार बातें
सोचेगा, जो
बेटा अभी जान
भी नहीं सकता,
सोच भी नहीं
सकता। बेटा तो
अंधे की तरह
किसी भी लड़की
के प्रेम में
पड़ सकता है।
बाप हजार बातें
सोचेगा, आगे
की, पीछे
की, सब
हिसाब लगायेगा।
बाप गणित से
चलेगा, तर्क
से चलेगा।
बेटा प्रेम से
चल रहा है।
लेकिन
बेटा जिसके
प्रेम में पड़
गया है, उस
पर जान देने
को तैयार है।
और जिससे उसका
विवाह किया जा
रहा है, वह
जबर्दस्ती
घसीटा
जाएगा--जैसे
बलि का पशु बूचड़खाने
की तरफ घसीटा
जाता है, ऐसा
अनुभव करेगा।
उसे लगेगा मौत
हो रही है मेरी।
यही
फर्क धर्मों
का भी है। जो
धर्म तुमने
चुना, वह तो
तुम्हारा
प्रेम है। और
जो धर्म
तुम्हें मां-बाप
से मिला, वह
तुम्हारा
विवाह है।
विवाह कभी
प्रेम नहीं हो
पाता। और जिस
दिन प्रेम
विवाह हो जाता
है, उस दिन
प्रेम मर जाता
है। या जिस
दिन कभी विवाह
प्रेम बन जाता
है, उस दिन
विवाह समाप्त
हो जाता है।
प्रेम बड़ी बात
और है। क्या
है फर्क? तुमने
चुना, स्वतंत्रता
से चुना। अपने
भाव से चुना।
अपने हृदय से
चुना। कोई
गणित न बिठाया,
कोई चालाकी
न की। कोई
दुनियादारी न
की। भोलेपन से
चुना।
तो
तुम्हारे
बेटों को तुम
अगर मुझे दे
गये कि सम्हालकर
रखना, वह
सम्हालकर
रखेंगे, वह
पूजा भी
करेंगे, लेकिन
मैं उनके लिए
बोझ हो जाऊंगा,
जो गलती
तुम्हारे
मां-बाप ने की
है, वह तुम
मत करना।
तुम्हारा
मेरा नाता
निजी है, वैयक्तिक
है। इसे तुम
थोप मत जाना।
हां, अगर
तुम्हें कुछ
मिला हो, तुमने
कुछ पाया हो
तो अपनी संपदा
उखेड़कर
बता जाना अपने
बच्चों को कि
हमने पाया था,
इस तरह खोजा
था, तुम भी
खोजना। शायद
तुम्हें भी
मिल सके। मिलता
है, इतना
आश्वासन दे
जाना।
तुम्हारे
आनंद से उनको
प्रमाण मिल
जाए कि जगत
में परमात्मा
है। बस काफी
है। फिर वे
खोज लेंगे
अपना
परमात्मा। खुद
ही खोजेंगे, तो ही मजा
आयेगा। मुफ्त
मिलेगा, तो
बे-मजा हो
जाता है।
"जिन-सूत्र
पर प्रवचन
अच्छा लगता
है।' तो
कहीं भूल हो
रही है अभी।
जो मैं कह रहा
हूं, उसे
सुनो, बहानों
पर ध्यान मत
दो। बहानों पर
ध्यान गलत दृष्टि
के कारण जाता
है। अकसर ऐसा
होता है कि मैं
वही कहता हूं
महावीर के नाम
पर, वही
कहता हूं बुद्ध
के नाम पर।
ठीक वही बात
कहता हूं।
लेकिन जब
बुद्ध के नाम
पर कहता हूं, तब जैन बैठा
रहता है, उसको
कुछ रस नहीं
आता। जब
महावीर के नाम
पर कहता हूं, तब वह सजग
होकर सुनने
लगता है, उसकी
रीढ़ सीधी हो
जाती है। तो
तुम अपने
अहंकार को पूज
रहे हो। न तुम
महावीर को पूज
रहे, न
बुद्ध को पूज
रहे।
"जिन-सूत्र
पर प्रवचन
अच्छा लगता है,
पर भोग में
रस बहुत है।' दोनों का
कारण
जिन-सूत्र है।
जिन-सूत्र पर
प्रवचन अच्छा
लगता है।
क्योंकि बचपन
से वही सुना है,
पकड़ा है, पकड़ाया गया है।
अबोध थे तब से
तुम्हारा मन
उसी से आरोपित
किया गया है।
और उसी के
कारण भोग से
भी छुटकारा
नहीं होता, क्योंकि
बचपन से ही
दमन सिखाया
गया है।
जिन-सूत्र की
जिन्होंने
व्याख्या की
है, उन्होंने
ऐसी गलत
व्याख्या की
है कि
जिन-सूत्र का
पूरा अर्थ
दमनात्मक हो
गया है, रिप्रेसिव हो गया है।
दबाओ। कुछ भी
स्वीकार नहीं
है। निषेध करो।
कुछ भी विधेय
नहीं है।
काटो। पापी
बना गये हैं
वे सूत्र और
उनकी
व्याख्याएं
तुम्हें। होना
तो उलटा चाहिए
था। महावीर की
तो आकांक्षा वही
थी, कि
तुम्हारे
भीतर के
परमात्मा का
तुम्हें स्मरण
आये। लेकिन
तुम्हारे
साधु-संत
तुम्हें सिर्फ
तुम्हारे
पापी की याद
दिला-दिलाकर
अपराध से भर
गये हैं।
तो
तुमने जीवन
में जिन-जिन
चीजों को पाप
मानकर दबा रखा
है, उन-उन में
रस बहुत
आयेगा। भोग को
दबाया, तो
भोग में रस
आयेगा। काम को
दबाया, काम
में रस आयेगा।
लोभ को दबाया,
तो लोभ
नये-नये रूपों
में प्रगट
होगा। क्रोध को
दबाया, तो
नयी-नयी भाव-भंगिमाएं
क्रोध धारण
करेगा। जो
दबाया, उससे
छुटकारा कभी
भी न होगा।
दबाने से कोई
मुक्ति नहीं
आती। समझो, जागो। अगर भोग
में रस है, तो
भोग से भागो
मत। जागो;
भोग में ही
खड़े-खड़े जागो।
तुम्हारा
जागरण ही
तुम्हें भोग
से छुटकारा दिलायेगा।
तो मैं
नहीं कहता कि भागो। भागने
से क्या होगा? भोग भीतर है,
तुम जहां
जाओगे वहीं
तुम्हारे साथ
चला जाएगा। यह
कोई बाहर रखी
चीज थोड़े ही
है, कि पीठ
कर ली और भाग
खड़े हुए, तो
दूर छूट गयी।
यह तुम्हारे
अंतस में है।
इसे मिटाने का
एक ही उपाय
है--इसे
जानना। ज्ञान
क्रांति है।
और ज्ञान
एकमात्र क्रांति
है। और तरह की
क्रांति होती
ही नहीं।
तो अगर
भोग में रस है, तो घबड़ाओ
मत, रस लो। जागकर लो।
भोगो। इसका
इतना ही अर्थ
है कि तुम भोग
से अभी गुजरे
नहीं। गुजरने
के पहले तुमने
निंदा कर ली।
संसार को अभी
जाना नहीं; जानने के
पहले त्याज्य
समझ लिया।
नहीं, व्यर्थता
को देखना
पड़ेगा। तभी
संसार छूटता
है। गुजरना पड़ेगा,
अनुभव से, अनुभव की
पीड़ा से।
अनुभव की
अग्नि से जलना,
तपना
पड़ेगा।
"फिर
परंपरा और
संस्कार पांव
पर बेड़ी
की तरह पड़े
हैं।' पड़े
नहीं हैं, तुम
उन्हें पकड़े
हुए हो। बेड़ियां
कोई बांधे
नहीं है, तुम
उन्हें
सम्हाले हुए
हो। कौन
तुम्हें
रोकता है। छोड़ो।
तुम्हारे
छोड़ते ही वे
छूट जाएंगी।
लेकिन भय है, घबड़ाहट है। यह बड़े
मजे की बात
है--बड़ी
विडंबना की
भी--कि जिससे
कुछ भी नहीं
मिलता उसको भी
हम पकड़े
रहते हैं, सम्हाले
रहते हैं थाती
की तरह, धरोहर
की तरह। तुम कूड़ा-कर्कट
भी बाहर नहीं
फेंक पाते हो,
उसको भी तिजोड़ी
में सम्हाले
जाते हो।
अगर
तुम्हें
दिखायी पड़ गया
है कि यह बेड़ियां
हैं, तो अड़चन
क्या है, अब
छोड़ो।
तोड़ो, गिरा
दो। एक क्षण
में यह घट
सकता है।
लेकिन शायद
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ रहा है।
यहां भी तुमने
मेरी बातें
सुन-सुनकर मान
ली हैं। यह तुम्हारी
समझ अभी बनी
नहीं है।
इसलिए तुम एक
तरकीब निकाल
रहे हो। तुम
कहते हो बेड़ियां
बांधे हुए
हैं। बांधे
हुए कौन है!
संस्कार कहां
बांधे हुए
हैं! तुम कह दो
कि बस क्षमा, अब बहुत हो
गया; तुमसे
कुछ भी न पाया,
अब मुझे
तुमसे मुक्त
होकर कुछ खोज
लेने दो। मंदिर
हो आये बहुत
बार, कुछ न
मिला, अब
क्यों रोज चले
जाते हो! आदत न
बनाओ मंदिर जाने
की। धर्म आदत
नहीं, स्वभाव
है। आदत में
स्वभाव दब
जाता है। जिस
मूर्ति के
सामने सिर
झुका-झुकाकर
थक गये, माथा
घिस डाला, मूर्ति
भी खराब कर
डाली, अब
उसको कहो कि
बहुत हो गया; हम भी थक गये,
तुम भी थक
गये होओगे, अब मुझे
क्षमा करो!
लेकिन
कहीं और अड़चन
है। जिसको तुम
बेड़ियां
कह रहे हो, वह मेरा
शब्द तुमने
उपयोग कर लिया,
तुम्हारा
नहीं।
तुम्हारे मन
में तो भीतर
कहीं है कि यह बेड़ी बड़ी
मूल्यवान है,
सोने की है,
हीरे-जवाहरात
जड़ी है, इसको
छोड़ कैसे दें!
इसमें तो बड?ा रहस्य है।
तो नहीं छूट
पायेगी। तो
फिर कैसे छूटेगी!
अगर तुम
बीमारी को
स्वास्थ्य
समझे बैठे हो,
तो तुम कैसे
इलाज करोगे? अगर तुमने
गलत को ठीक
समझ रखा है, अंधेरे को
प्रकाश समझ
रखा है, कांटे
को फूल समझ
रखा है, तो
फिर तुम कैसे
मुक्त हो
सकोगे!
देखो
ठीक से, अगर
बेड़ी है, तो तोड़ो।
तोड़ने के लिए
कुछ भी नहीं
करना पड़ता, सिर्फ समझ
में आ जाए कि बेड़ी है, छूट जाती
है। तुम हाथ
में कंकड़-पत्थर
लिए जा रहे हो
और कोई मिल
जाए और कह दे
कि कंकड़-पत्थर
हैं, तो
क्या तुम
पूछोगे कि अब
इन कंकड़-पत्थरों
को कैसे छोडूं?
यह पूछना तो
तभी संभव है, जब तुम्हारे
भीतर मन में
तो तुम मानते
हो कि हैं तो
हीरे-जवाहरात,
यह आदमी कह
रहा है कंकड़-पत्थर;
इस आदमी को
भी इनकार करना
मुश्किल है, इस आदमी के
तर्क में बल
है और भीतर का
संस्कार भी
कहता है--कंकड़-पत्थर!
ये हीरे-मोती
हैं, कंकड़-पत्थर नहीं
हैं, अब
करें क्या? तुम उस आदमी
से पूछते हो, इन्हें
छोड़ें कैसे? या तो ये
हीरे-मोती हैं,
छोड़ने की
जरूरत नहीं।
या फिर ये कंकड़-पत्थर
हैं, छोड़ने
की जरूरत क्या
है? छूट ही
जाने चाहिए।
गिरा दो, हाथ
अलग खोल दो।
मुट्ठी खोलो।
घबड़ाओ मत!
जिससे कुछ भी
नहीं मिला है,
उसे छोड़ने
से कुछ हानि न
हो जाएगी।
लेकिन लोग तो
दुख छोड़ने तक
में डरते हैं।
दुख तक को पकड़
लेते हैं, कम
से कम पुराना
है, पहचाना
हुआ है।
यहां
कुछ भी
मूल्यवान
नहीं है, जो
तुम पकड़े
हुए हो। और जो
मूल्यवान है,
उसे पकड़ने
की कोई जरूरत
नहीं है, वह
तुम्हारा
स्वभाव है।
जिस जैन-धर्म
को तुमने पकड़ा
है, वह तो
केवल परंपरा
है, लीक
है। जिस
जिन-धर्म की
मैं बात कर
रहा हूं, वह
तुम्हारा
स्वभाव है। सब
लीकें, सब
परंपराएं छोड़
दोगे, तब
तुम पाओगे
उसका
आविर्भाव
हुआ।
झूठ
क्यों बोलें फरोगे-मसलहत
के नाम पर
जिंदगी
प्यारी सही
लेकिन हमें
मरना तो है
झूठ
क्यों बोले फरोगे-मसहलत
के नाम पर
हित-अहित
के नाम पर झूठ
क्यों बोलें?
जिंदगी
प्यारी सही
लेकिन हमें
मरना तो है।
कितनी
ही प्यारी हो
जिंदगी, छूट
ही जानी है, मरना है। इस
जिंदगी के लिए,
इस जिंदगी
के हित और
अहित के लिए, कल्याण-अकल्याण
के लिए झूठ
क्यों बोलें?
जो छूट ही जाना
है, वे
समझदार के लिए
छूट ही गया।
जो जिंदगी मिट
ही जानी है, वह मिटी ही
पड़ी है। फिर
वह यह नहीं
कहता कि अब जिंदगी
की रक्षा के
लिए झूठ बोलना
जरूरी है। जिंदगी
की कोई रक्षा
हो ही नहीं
सकती, जिंदगी
तो जाएगी ही, तो थोड़ी
सुख-सुविधा
में बीती कि
थोड़ी असुविधा में
बीती, क्या
फर्क पड़ता है!
सपना सुबह टूट
ही जाएगा, सपने
में भिखारी
रहे कि राजा
रहे, क्या
फर्क पड़ता है!
गरीब की तरह
जीए कि अमीर
की तरह जीए, क्या फर्क
पड़ता है!
प्रतिष्ठित
की तरह जीए कि अप्रतिष्ठित
की तरह जीए; लोगों ने
आदर दिया कि
अनादर दिया, क्या फर्क
पड़ता है!
जिंदगी छूट ही
जानी है।
जिंदगी
प्यारी सही, लेकिन हमें
मरना तो है
एक बार
यह समझ में आ
जाए, तो फिर
तुम जंजीरों
को छोड़ने में
कोई अड़चन न
पाओगे।
डर
क्या है? प्रतिष्ठा
मिलती है जंजीरों
से। जिसके पास
जितनी बड़ी
जंजीरें हैं,
उतनी बड़ी
प्रतिष्ठा
है। लोग कहते
हैं, देखो,
कितनी बड़ी
जंजीरें हैं
इस आदमी के
पास, कितने
हीरे-मोती जड़ी,
सोने की, खालिस सोने
की बनी--चौबीस
कैरेट सोने की
बनी! जितने
तुम जंजीरों
में जकड़े
हो, उतनी
तुम्हें
प्रशंसा
मिलती है।
क्योंकि समाज
तुम्हें
मुक्त नहीं
देखना चाहता।
समाज के लिए
यही सुविधा है
कि तुम जंजीरों
में रहो। जैसे
ही तुम
जंजीरें तोड़ोगे,
तुम्हारी
प्रतिष्ठा
खोने लगेगी।
लोग तुम्हें
सम्मान न
देंगे।
एक
जैन-साधु मुझे
मिलने आये, कुछ वर्ष
पहले। मैंने
उनसे पूछा कि
सच-सच कहो, मिला
क्या है
तुम्हें? पचास
वर्ष से तुम
जैन-मुनि हो, पाया क्या
है? जब
तेरह-चौदह वर्ष
के थे, तब
मां-बाप ने
दीक्षा दे दी।
मां-बाप भी
मुनि हो गये
थे, तो
उन्होंने
उन्हें भी
मुनि बना
लिया। वह कहने
लगे, आपसे
छिपा नहीं
सकता, पाया
कुछ भी नहीं।
फिर मैंने कहा,
जब पाया
नहीं, तो
पचास साल काफी
नहीं हैं
अनुभव के लिए
कि यहां कुछ
मिला नहीं, कहीं और खोजें,
जिंदगी
खोती जा रही
है? उन्होंने
कहा, बड़ा
मुश्किल है।
प्रतिष्ठा
मिली, सम्मान
मिला, अहंकार
की पूजा
हुई--हजारों
लोग मेरे चरण
छूते हैं--कुछ
और नहीं मिला।
भीतर बिलकुल
खाली हूं, लेकिन
बाहर बड़ा
सम्मान है। और
अगर इसे मैं
छोड़ दूं, तो
जो मेरे पैर
छूते हैं वे
मुझे घर में
बुहारी लगाने
की नौकरी भी
देने को राजी
न होंगे। न
मैं पढ़ा-लिखा
हूं, न
मेरी कोई और
योग्यता है।
बस मेरी
योग्यता यही
कि मैं उपवास
कर सकता हूं।
अब यह भी कोई
योग्यता है, कि भूखे मर
सकते हैं!
मेरी योग्यता
यही है कि मैं
कष्ट सह सकता
हूं। यह भी
कोई योग्यता
है! कष्ट सहना
कोई योग्यता
है! मुर्दे की
तरह जी सकता
हूं, यही
योग्यता है।
खयाल
करना, तुम
जिन जंजीरों
को पकड़े
हो, उनके
साथ
प्रतिष्ठा
जुड़ी होगी।
मंदिर आदमी जाता
है, क्योंकि
लोग समझते हैं
धार्मिक है। न
जाए, तो
लोग समझते हैं
अधार्मिक है।
लोग दान भी कर लेते
हैं, गीता
भी रखकर पढ़
लेते हैं, कुरान
भी रखकर पढ़
लेते हैं, ताकि
लोगों को लगता
रहे कि
धार्मिक--बड़े
सज्जन--साधु-चरित्र!
लोग चरित्र को
भी पकड़े
रखते हैं।
व्रत-नियम भी
बांधे रखते
हैं। मगर यह
सब अहंकार की
ही पूजा चल
रही है। और
आत्मा को पाना
हो, तो इस
पूजा से
छुटकारा करना
ही होगा।
क्योंकि यही
तो बाधा है।
"कृपया
मार्ग-दर्शन
दें।' तुम्हारे
प्रश्न में ही
तुम्हारा
उत्तर छिपा
है। हिम्मत
करो। कायर न
रहो। थोड़ा
साहस करो।
दांव पर लगाओ।
यहां खोने को
तो कुछ भी
नहीं है, अगर
सब खो भी गया
और कुछ भी न
मिला, तो
भी कुछ नहीं
खोता है।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं, जिसने
हिम्मत की है
दांव पर लगाने
की उसने जरूर
पा लिया है।
मगर मुफ्त कुछ
भी नहीं मिलता
है। हर चीज की
कीमत चुकानी
पड़ती है। तुम
आत्मा को पाने
चले हो, मुफ्त
पाने चले हो।
कीमत चुकाओ।
यद्यपि जब
आत्मा मिलेगी,
परमात्मा
का दर्शन होगा,
तब तुम
पाओगे जो कीमत
चुकायी थी, वह तो कुछ भी
न थी। जो मिला
है, वह तो
अमूल्य है।
उसको किसी
कीमत से
चुकाना संभव
नहीं। कुबेर
के सारे खजाने
भी उलीच देने
से उसकी कीमत चुकनेवाली
नहीं है। घबड़ाओ
मत--
जिस्म
की मौत कोई
मौत नहीं होती
है
जिस्म
मिट जाने से
इंसान नहीं मर
जाते
धड़कनें
रुकने से
अरमान नहीं मर
जाते
सांस
थम जाने से
ऐलान नहीं मर
जाते
होंठ
जम जाने से
फरमान नहीं मर
जाते
जिस्म
की मौत कोई
मौत नहीं होती
है।
शरीर
भी मर जाए, तो भी तुम
नहीं मरते हो।
मन भी मर जाए, तो भी तुम
नहीं मरते हो।
वस्तुतः जैसे
ही तुम जानने
लगते हो कि
शरीर की
मृत्यु मेरी
मृत्यु नहीं,
मन की
मृत्यु मेरी
मृत्यु नहीं,
वैसे ही
तुम्हें पहली
दफा महाजीवन
की झलक मिलनी
शुरू होती है।
पहली दफा
अंधेरे में
दीया जलता है।
तो
व्यर्थ
मूल्यों को
मूल्य मत दो।
प्रतिष्ठा, सम्मान, सत्कार,
रिस्पेक्टेबिलिटी--झाड़ो, बुहारो,
कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा करो, कचराघर में फेंक
आओ। इसे घर
में रखने की
जरूरत नहीं है।
चौथा
प्रश्न:
आपके
प्रवचन पढ़ने
में रस आया, पुस्तकें
यहां खींच लायीं;
लेकिन अब
शब्द समझ में
नहीं पड़ते।
आंखें आपको निहारती
रहती हैं और मिंच जाने
पर मस्तक नत
हो रहता है।
क्या यही
रूपांतरण है
मन से आत्मा
की तरफ?
निश्चित
ही। शब्द कब
तक सुनते
रहोगे? शून्य
सुनना पड़ेगा।
वाणी में कब
तक उलझे रहोगे?
वाणी के पार
चलना होगा। यह
बात जो मैं
तुमसे कह रहा
हूं, कानों
से सुनने की
नहीं, हृदय
से सुनने की
है। और यह जो
इशारे मैं
तुम्हें कर
रहा हूं, आंखों
से देखने पर
समझ में न
आयेंगे, आंखें
बंद होंगी तभी
समझ में
आयेंगे।
यह जो
मैं तुमसे कह
रहा हूं, इस
कहने पर बहुत
ज्यादा
निर्भर मत
रहना। इस कहे
हुए के
किनारे-किनारे
अनकहा हुआ भी
भेज रहा हूं।
हर दो शब्दों
के बीच में जो
खाली जगह है, वहीं तुम
मुझे पकड़ना।
जब मैं चुप रह
जाता हूं, तब
मुझे गौर से
सुनना। शब्द
छूट जाएं, हर्ज
नहीं, शून्य
न चूकने पाये।
इसलिए कभी-कभी
ऐसा होगा कि
सुनते-सुनते
एक तारी लग
जाएगी। एक लय
बंध जाएगी। एक
अनूठे रस में सरोबोर
होने लगोगे।
उस क्षण ऐसा
भी लगेगा कि
अब कुछ सुनायी
नहीं पड़ता, अब कुछ
दिखायी नहीं
पड़ता, लेकिन
मस्तक झुकने
लगेगा। वह
झुकना बड़ा
सांकेतिक है।
वह समर्पण का
सूचक है। उसे
तोड़ना मत। उस
तंद्रा को
हिलाना मत।
वैसी तंद्रा
समाधि की पहली
झलक है।
यह मत
सोचना कि यह
मैं क्या कर
रहा हूं, सुनने
आया था, सुनना
तो चूका जा
रहा है! देखने
आया था, आंखें
तो बंद हुई जा
रही हैं! यहां
जो देखने को
है, वह आंख
बंद करके ही
देखने को है।
और यहां जो सुनने
को है, वह
जब तुम झुकोगे
तभी सुनायी
पड़ेगा। तो
मैंने जो कहा,
अगर वह याद
भी न रहे, फिकिर
मत करना।
क्योंकि यहां
हम कोई
परीक्षा देने
नहीं बैठे हैं
किसी
विश्वविद्यालय
की, कि मैंने
जो कहा वह
तुम्हें याद
रहे। उसके नोट
मत लेना। उसको
मन में फिकिर
मत करना। यहां
तो कुछ और ही
घट रहा है
बोलने के बहाने।
यहां तो बोलने
के बहाने हृदय
और हृदय का
मेल बनाने की
चेष्टा चल रही
है। यह बोलना
तो ऐसे ही है
जैसे छोटे
बच्चों को हम
खिलौना दे देते
हैं कि खेलो।
बच्चे खिलौने
के खेल में लग
जाते हैं, तो
शांत हो जाते
हैं। उपद्रव
नहीं करते।
ऐसा ही मेरा
बोलना है। यह
तो खिलौने हैं,
तुम्हारी
बुद्धि को कि
खेलो। जब
तुम्हारी बुद्धि
खेल-खिलौने
में उलझी है, तब मैं
तुम्हारे
हृदय के पास
हूं। बुद्धि
का उपद्रव बंद
है, वह अपने
खिलौनों में
उलझी है, तुम्हारा
हृदय मेरे
करीब सरककर आ
सकता है। अगर
ऐसा घटने लगे,
घटने देना।
परिपूर्ण भाव
से घटने देना।
क्योंकि वही
लक्ष्य है।
अरबाबे-जुनूं
पर फुरकत में
अब
क्या कहिये
क्या-क्या
गुजरी
आये
थे सवादे-उल्फत
में
कुछ
खो भी गये कुछ
पा भी गये
प्रेम
के यात्रियों
पर प्रेम की
यात्रा में
क्या-क्या
गुजरी?
अरबाबे-जुनूं
पर फुरकत में
अब
क्या कहिये
क्या-क्या
गुजरी
आये
थे सवादे-उलफत
में
आये
थे प्रेमनगर
की सीमा में।
आये
थे संवादे-उलफत
में
कुछ
खो भी गये कुछ
पा भी गये
यहां
कुछ खोयेगा, तो ही कुछ
पाया जाएगा।
यहां जितना खोयेगा, उतना ही
पाया जाएगा।
इधर तुम अगर
बिलकुल खो गये,
तो सब कुछ
पा गये। यहां
से अगर
बचे-बचे चले
गये, तो
खाली आए खाली
चले गये।
झुको। झुक
जाओ। समग्र
मन-प्राण से
झुक जाओ। यही
तो सदा से
भक्तों की गहन
प्रार्थना
रही है--
दूर
मत करना चरण
से!
छोड़
कर संसार सारा,
है
लिया इनका
सहारा,
यदि न
ठौर मिला यहां
भी क्या मिला
फिर मनुजत्तन
से!
दूर
मत करना चरण
से!!
कलुष
जीवन पुण्य
होगा,
स्वप्न, सत अक्षुण्ण
होगा,
छू
सकूं प्रिय पग
तुम्हारे
प्यार के गीले
नयन से!
दूर
मत करना चरण
से!!
यदि
तुम्हारी छांह-चितवन--
में
पले यह क्षुद्र
जीवन
है अटल
विश्वास जीवन
छीन जाऊंगा
मरण से!
दूर
मत करना चरण
से!
वह जब
तुम झुक रहे
हो, तब ऐसे
गहरे भाव से
झुकना कि
प्रभु-चरणों
में झुक रहे
हैं, कि
परमात्मा में
झुक रहे हैं।
दूर
मत करना चरण
से!!
यदि
तुम्हारी छांह-चितवन
में
पले यह
क्षुद्र जीवन
तुम
झुके कि छाया
में आये
परमात्मा की। अकड़े खड़े
रहो, तो
अहंकार की धूप
में जलते
रहोगे। झुके
कि आये छाया
में। मिली
छाया।
यदि
तुम्हारी छांह-चितवन
में
पले यह
क्षुद्र जीवन
है अटल
विश्वास जीवन
छीन जाऊंगा
मरण से!
दूर
मत करना चरण
से!!'
भाग्यशाली
हो अगर झुकने
की कला आ रही
है। इस भाग्य
को भोगो। इस
भाग्य को
साथ-सहयोग
करो। इस भाग्य
में बाधा मत
डाल देना। इस घटती
हुई घटना में
किसी तरह का
अवरोध खड़ा मत
कर देना।
तुम्हारे
झुकने में ही
कुंजी है। वहीं
से द्वार
खुलता है
मंदिर का।
आखिरी
प्रश्न:
जानने
की चाह में
मैंने रात को
दिन रचते
देखा। ऐसा
क्यों हुआ?
जो
भी जानने
चलेगा, वह
एक न एक दिन उस पड़ाव पर
पहुंचता है, जहां विपरीत
मिलते हुए
दिखायी पड़ते
हैं। जहां दिन
और रात विपरीत
नहीं होते।
जहां दिन और रात
एक ही
प्रक्रिया के
दो अंग होते
हैं।
रात ही
तो दिन को रचती
है। रात के
गर्भ में ही
तो दिन पलता
है। और फिर
दिन के गर्भ
में रात रची जाती
है। दिन ही तो
रोज रात को
जन्म दे जाता
है। रात ही तो
रोज फिर दिन
को
पुनरुज्जीवित
कर जाती है।
जीवन में ही
तो मौत पलती
है। मौत से ही
तो जीवन उमगता
है। पतझड़
में ही तो
वसंत के पहले
चरण सुनायी
पड़ते हैं। वसंत
फिर पतझड़
के लिए तैयारी
कर जाता है।
पुराने गिरते
पत्तों के
पीछे झांकते
नये पत्तों को
देखो। नये झांकते
पत्तों के
पीछे फिर
पुराने गिरते
पत्तों की कथा
लिख जानेवाली
है।
यहां
जीवन में
द्वंद्व, द्वंद्व
नहीं है, द्वंद्व
परिपूरकता
है। यहां कुछ
विरोध नहीं है,
अविरोध है।
दो दिखायी
पड़ते हैं, क्योंकि
हमें अभी
देखने की गहरी
पकड़ नहीं आयी,
सूझ नहीं
आयी, परिप्रेक्ष्य
नहीं है। अभी
दृष्टि गहरी
नहीं है।
इसलिए दो
दिखायी पड़ते
हैं। जब
दृष्टि गहरी
होगी, तो
तुम पाओगे एक
ही बचा। यही
तो अद्वैत का
सार है। खोजने
जो चले, उन्हें
एक न एक दिन पता
चला, जीवन
और मृत्यु एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं। सुख
और दुख; सफलता,
असफलता; शांति,
अशांति; संसार,
संन्यास; सभी एक ही
पहलू के दो
हिस्से हैं।
जिस
दिन यह दिखायी
पड़ता है--यह पड़ाव
है, यह आखिरी पड़ाव है, इसके बाद
मंजिल है--जिस
दिन यह दिखायी
पड़ता है कि
द्वंद्व नहीं
है और सभी
द्वैत एक ही
में जुड़े हैं,
बस मंजिल
करीब आ गयी।
यह आखिरी पड़ाव
है। इसके बाद
जो बचता है, उसे तो एक
कहना भी ठीक
नहीं; क्योंकि
जहां दो ही
नहीं बचे, वहां
एक कैसे कहें!
इस पड़ाव
तक दो रहते
हैं, इस पड़ाव
पर दो एक हो
जाते हैं, इसके
बाद तो एक भी
कहना उचित
नहीं। इसलिए
तो वेदांत
परमात्मा को
एक नहीं कहता,
कहता
है--अद्वैत।
दो नहीं। बस
इतना ही कहा
जा सकता है--दो
नहीं। इसलिए
तो महावीर
कहते हैं, परमात्मा
और आत्मा ऐसा
नहीं, आत्मा
ही परमात्मा।
वे भी अद्वैत
की ही बात बोल
रहे हैं, अपने
ढंग से, एक
ही। मगर एक
कहना ठीक नहीं,
क्योंकि एक
से दो का खयाल
उठता है, दो
से तीन का
खयाल उठता है,
तीन से चार
का खयाल उठता
है। एक का कोई
अर्थ ही नहीं
होता अगर और संख्याएं
न हों। और वह
इतना एक है कि
वहां और कोई
संख्या नहीं।
ध्यान
गहरा होगा, तो वह पड़ाव
आयेगा जहां
द्वंद्व मिट
जाते हैं। तब
दौड़ना, अब
घर बहुत करीब
आ गया; अब
तुम ठीक सामने
ही खड़े हो। अब
दर्शनशास्त्र
में मत उलझ
जाना। अब यह
प्रश्न मत
पूछो मुझसे कि
"जानने की चाह
में मैंने रात
को दिन रचते
देखा, ऐसा
क्यों हुआ?' अब यह "क्यों'
उठाया तो
तुम वापिस लौट
पड़ोगे।
"क्यों' उठाया
कि फिर चिंतन-विचार
शुरू हुआ। अब छोड़ो, अब
भूलो। अब
यह "क्यूं'
और "क्या', अब यह दर्शन
और विज्ञान छोड़ो। अब
तो दौड़ पड़ो।
यह आखिरी पड़ाव
है, इससे
बिलकुल सामने
मंजिल है। अब
तो सीधे घुस जाओ
उस अद्वैत
में।
हर
सुबह शाम की
शरारत है
हर
हंसी अश्रु की
तिजारत है
मुझसे
पूछो न अर्थ
जीवन का--
जिंदगी
मौत की इबारत
है।
सब
जुड़े हैं। सब
इकट्ठे हैं।
कफन
बढ़ा तो किसलिए
नजर तू डबडबा
गयी
सिंगार
क्यों सहम गया, बहार क्यों लजा गयी
न
जन्म कुछ, न मृत्यु
कुछ, बस
इतनी सिर्फ
बात है--
किसी
की आंख खुल
गयी, किसी को
नींद आ गयी
आंख
खुलने और बंद
होने का ही
फर्क है। आंख
बंद हो गयी, मर गये। आंख
खुल गयी, जन्म
गये। इतना ही
फर्क है--आंख
खुलने और बंद
होने का। और
जिस पर आंख
खुलती और बंद
होती है, वह
तो न तो
जन्मता और न
मरता।
तुम्हारी आंख
की झलक बंद
होती रहती है,
खुलती रहती
है--आंख झपकती
रहती है। तुम
बिना झपके
भीतर मौजूद हो।
सृष्टि है
परमात्मा की
आंख का खुल
जाना। प्रलय
है परमात्मा
की आंख का झप
जाना। लेकिन
दोनों के पीछे
जो छिपा
है--शाश्वत
चैतन्य, वह
न तो कभी
जन्मता, न
कभी मिटता। न
उसका कोई जन्म
है, न कोई
मृत्यु है। न
कोई दुख है, न कोई सुख
है। न कोई हार
है, न कोई
जीत है।
जब ऐसा
तुम्हें लगे
कि तुम उस जगह
आ गये जहां
रात दिन को
जन्म देती
दिखायी पड़ती
है, तो अब
भूलकर भी
प्रश्न मत
उठाना।
प्रश्न भटका देंगे।
क्योंकि
प्रश्न उत्तर
में ले जाएंगे,
उत्तर और
प्रश्नों में
ले जाएंगे।
फिर तुम वापस
आ गये। इस घड़ी
तो सब
प्रश्न-उत्तरों
की गठरी बांधकर
फेंक देना, दौड़ पड़ना।
निर्भार होकर,
घुस जाना उस
अनंत में।
बहुत
से लोग ध्यान
से लौट आये
हैं। समाधि तक
नहीं पहुंच
पाते।
क्योंकि
ध्यान के
आखिरी पड़ाव
पर फिर प्रश्न
बड़े प्रबल
होकर उठते
हैं। वस्तुतः
बहुत प्रबल
होकर उठते
हैं। क्योंकि
मन अपनी आखिरी
चेष्टा करता
है, अंतिम
चेष्टा करता
है। जैसे सुबह
होने के पहले
रात खूब
अंधेरी हो
जाती है। या
दीया बुझने के
पहले ज्योति
खूब लपककर
जलती है। या
मरने के पहले
आदमी एकदम
स्वस्थ मालूम
होने लगता
है--बीमार
आदमी भी।
आखिरी उफान
आता है, आखिरी
ज्वार आता है
जीवन का। ऐसे
ही मन भी मरने
के पहले, खोने
के पहले बड़ी
प्रबलता से
प्रश्न उठाता
है। उस वक्त
अगर तुम जरा
चूके, तो
मन तुम्हें
खींच लेगा।
बच्चों
का खेल देखा
है? सीढ़ी और
सांप--लूडो।
तो बच्चे
खेलते हैं।
सीढ़ी से तो चढ़
जाते हैं, सांप
से नीचे उतर
आते हैं। अगर
सीढ़ी पर पहुंच
जाते हैं, तो
ऊपर चढ़ते
हैं। अगर सांप
का मुंह पकड़
जाता है, तो
नीचे उतर आते
हैं। पासे
फेंकते हैं।
निन्यानबे के
आंकड़े पर भी
सांप का मुंह
है। अगर सौ पर
पहुंच गये, तो जीत गये।
लेकिन
निन्यानबे तक
भी सांप का मुंह
है।
जीवन
का खेल भी ऐसा
ही खेल है।
सीढ़ी और सांप!
यहां आखिरी
चरण निन्यानबे
डिग्री पर भी, जब मन
बिलकुल मिटने
के करीब होता
है, सांप
का मुंह खुलता
है--आखिरी
बार--अगर वहां
सावधानी न
बरती, सांप
की पूंछ
तुम्हें फिर
वहां ले आती
है जहां से
फिर लंबी
यात्रा है।
नहीं, इस जगह
प्रश्न मत
पूछो। इस जगह
तो निष्प्रश्न
होकर, लो
छलांग। ध्यान
लगा है, समाधि
करीब है। उतर
जाओ।
और
समाधि में सब
समाधान है।
इसीलिए तो उसे
समाधि कहते
हैं।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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