ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि
9 फरवरी, 1973
हे
उपाध्याय, निर्णय
हो चुका है, मैं ज्ञान
पाने के लिए
प्यासा हूं।
अब आपने गुहय
मार्ग पर पड़े
आवरण को हटा
दिया है और
महायान की
शिक्षा भी दे
दी है। आपका
सेवक आपसे
मार्गदर्शन
के लिए तत्पर
है।
यह
शुभ है, श्रावक
तैयारी कर, क्योंकि
तुझे अकेला
यात्रा पर
जाना होगा। गुरु
केवल
मार्ग-निर्देश
कर सकता है।
मार्ग तो सबके
लिए एक है, लेकिन
यात्रियों के
गंतव्य पर
पहुंचने के साधन
अलग-अलग
होंगे।
ओ
अजित-हृदय, तू
किसको चुनता है?
चक्षु-सिद्धांत
के समतान
अर्थात
चतुर्मुखी
ध्यान को या
छः पारअमताओं
के बीच से तू
अपनी राह
बनाएगा, जो
सदगुण के
पवित्र द्वार
हैं और जो
ज्ञान के सप्तम
चरण बोधि और
प्रज्ञा को
उपलब्ध कराते
हैं?
चतुर्मुखी
ध्यान का
दुर्गम मार्ग
पर्वतीय है
तीन बार वह
महान है, जो
उसके ऊंचे
शिखर को पार
करता है।
पारमिता
के शिखर तो और
भी दुर्गम पथ
से प्राप्त
होते हैं।
तुझे सात
द्वारों से
होकर यात्रा करनी
होगी। ये सात
द्वार सात
क्रूर व धूर्त
शक्तियों के, सशक्त
वासनाओं के
दुर्ग जैसे
हैं।
हे
शिष्य, प्रसन्न
रह और इस
स्वर्ण-नियम
को स्मरण रख।
एक बार जब
तूने स्रोतापन्न-द्वार
को पार कर
लिया--स्रोतापन्न,
वह जो
निर्वाण की ओर
बहती नदी में
प्रविष्ट हो
गया--और एक बार
जब इस जन्म
में या किसी
अगले जन्म में
तेरे पैर ने
निर्वाण की इस
नदी की गहराई छू
ली, तब, हे
संकल्पवान,
तेरे लिए
केवल सात जन्म
शेष हैं।
इस
जगत में जो भी
जान लिया जाता
है,
वह कभी खोता
नहीं है।
ज्ञान
के खोने का
कोई उपाय नहीं
है। न केवल शास्त्रों
में संरक्षित
हो जाता है
ज्ञान, वरन्
और भी गुहय
तलों पर ज्ञान
की सुरक्षा और
संहिता
निर्मित होती
है। शास्त्र
तो खो सकते
हैं; और
अगर सत्य
शास्त्र में
ही हो, तो
शाश्वत नहीं
हो सकता।
शास्त्र तो
स्वयं ही क्षणभंगुर
है। इसलिए
शास्त्र
संहिताएं नहीं
हैं। इस बात
को ठीक से समझ
लेना जरूरी है,
तभी
ब्लावट्स्की
की यह
सूत्र-पुस्तिका
समझ में आ
सकेगी।
ऐसा
बहुत पुराने
समय में भारत
ने भी माना
था। हमने भी
माना था कि
वेद संहिताओं
का नाम नहीं है, शास्त्रों
का नाम नहीं
है; वरन्
वेद उस ज्ञान
का नाम है, जो
अंतरिक्ष में,
आकाश में
संरक्षित हो
जाता है, जो
इस अस्तित्व
के गहरे
अंतस्तल में
ही छप जाता
है। और होना
भी ऐसा ही
चाहिए। बुद्ध
अगर बोलें और
वह केवल
किताबों में
लिखा जाए, तो
कितने दिन
टिकेगा? और
बुद्ध का बोला
हुआ अगर
अस्तित्व के
प्राणों में
ही न समा जाए, तो अस्तित्व
ने उसका कोई
स्वीकार नहीं
किया।
करोड़ों-करोड़ों
वर्ष में कोई
व्यक्ति
बुद्धत्व को
उपलब्ध होता
है। वह जो
जानता है, वह
इस जगत का जो गहनतम
अनुभव है, जो
रहस्य है, इस
जगत की जो
आत्यंतिक
अनुभूति है, यह पूरा जगत
उसे संभाल कर
रख लेता है।
इस जगत के
कण-कण की
गहराई में वह
अनुभूति छा
जाती है, समाविष्ट
हो जाती है।
यही अर्थ है
कि वेद शास्त्रों
में नहीं, वरन्
आकाश में लिखा
जाता है।
शब्दों से
नहीं, बल्कि
जब बुद्ध जैसे
व्यक्ति के
प्राणों में सत्य
की घटना घटती
है तो साथ ही
साथ उस घटना
की अनुगूंज
आकाश के
कोने-कोने में
छा जाती है।
और जब भी कोई
व्यक्ति बुद्धत्व
के करीब
पहुंचने
लगेगा, तब
प्राचीन
बुद्धों ने जो
जाना था, उनके
प्राणों में
आकाश के
द्वारा, उस
अनुगूंज
की फिर से
प्रतिध्वनि
हो सकती है।
ब्लावट्स्की
की यह किताब
साधारण किताब
नहीं है। उसने
उसे लिखा नहीं, उसने
उसे सुना और
देखा है। यह
उसकी कृति
नहीं है, वरन्
आकाश में जो
अनंत-अनंत
बुद्धों की
छाप छूट गई है,
उसका
प्रतिबिंब
है।
ब्लावट्स्की
ने कहा है कि
यह जो मैं कह
रही हूं, यह
आकाश-संहिता
से मुझे
उपलब्ध हुआ
है। ऐसा मैंने
आकाश से पाया
और जाना है।
आकाश
से अर्थ है, यह
जो चारों तरफ
घेरे हुए है
हमें, जो
हमारे भीतर भी
है और बाहर
भी। जो हमारी
श्वांस में है,
जिसके बिना
हम नहीं हो
सकते; और
हम नहीं थे, तब भी जो था; और हम नहीं
होंगे, तब
भी जो रहेगा।
आकाश से अर्थ
है इस परम
अस्तित्व का।
ब्लावट्स्की
ने कहा हैः इस
परम अस्तित्व
ने ही मुझे
बताया है, वही
इस पुस्तक में
मैंने संगृहित
किया है।
लेखिका वह
नहीं है, उसने
सिर्फ संग्रह
किया है।
यही
वेद के ऋषियों
ने कहा है कि
हमने सुनी है
यह वाणी। और
हमने अपने
हाथों लिखी है, लेकिन
हमारे हाथों
से कोई और ने
ही उसे लिखवाया
है। जीसस ने
भी यही कहा है
कि मैं जो कह
रहा हूं; वाणी
मेरी हो, लेकिन
जो उस वाणी से
कहा जा रहा है,
वह
परमात्मा का
है। मुहम्मद
ने भी यही कहा
है कि कुरान
मैंने सुनी है,
उसका इलहाम
हुआ, उसकी
मुझे प्रेरणा
हुई; और
किसी रहस्यमई
शक्ति ने मुझे
पुकारा और कहा
कि पढ़।
और
मुहम्मद के
साथ तो बड़ी
मीठी घटना है, क्योंकि
मुहम्मद पढ़
नहीं सकते थे,
गैर-पढ़े-लिखे
थे। और जब
पहली बार
उन्हें ऐसी
भीतर कोई आवाज
गूंज गई कि पढ़,
तो मुहम्मद
ने कहा, मैं
हूं
बे-पढ़ा-लिखा, मैं पढूंगा
कैसे? और
कोई किताब तो
सामने नहीं थी,
जिसे पढ़ना
था! कुछ और था
आंखों के
सामने, जिसे
गैर-पढ़ा-लिखा
भी पढ़ सकता है;
जिसको कबीर
भी पढ़ लेते
हैं। कुछ और
था, जो पढ़ना
नहीं पड़ता है
दिखाई पड़ता
है। कुछ और था,
जिसका इन
आंखों से कोई
संबंध नहीं है,
किसी और
भीतर की आंख
का संबंध है।
मुहम्मद ने समझा
कि इन आंखों
से मैं कैसे
पढूंगा, मैं
पढ़ा-लिखा नहीं
हूं। लेकिन
कोई और भीतर
की आंख पढ़ सकी
और कुरान का
जन्म हुआ।
ब्लावट्स्की
की यह पुस्तक
"समाधि के सप्तद्वार' वेद,
बाइबिल, कुरान;
महावीर, बुद्ध
के वचन की
हैसियत की
पुस्तक है।
इसका भी उसे
आकाश से अनुभव
हुआ है। इसके
संबंध में दो-चार
बातें खयाल
में ले लें, फिर हम
पुस्तक में
प्रवेश कर
सकें।
एक तो
साधारण
व्यक्ति भी
लिख सकता है, और
कभी-कभी बहुत
श्रेष्ठ
बातें भी लिख
सकता है।
लेकिन वे
कल्पनाजन्य
होती हैं, सोच-विचार
से निर्मित
होती हैं।
अनुभूति से उनका
कोई
संबंध नहीं
होता। वे ऐसी
ही होती हैं, जैसे
अंधा भी
प्रकाश के
संबंध में कोई
गीत गा सकता
है। सुना है, समझा है
प्रकाश के
संबंध में, लेकिन देखा
नहीं है। तो
अंधे की बातें
प्रकाश के
संबंध में
कितनी ही सही
मालूम पड़ें, सही नहीं हो
सकती हैं। वह
जो मौलिक आधार
है सत्य होने
का, वही
अनुपस्थित
है।
यह
पुस्तक, आंखवाले व्यक्ति की
बात है। किसी
सोच-विचार से,
किसी
कल्पना से, मन के किसी खेल
से इसका जन्म
नहीं हुआ; बल्कि
जन्म ही इस
तरह की वाणी
का तब होता है,
जब मन पूरी
तरह शांत हो
गया हो। और मन
के शांत होने
का एक ही अर्थ
होता है कि मन
जब होता ही
नहीं।
क्योंकि मन जब
भी होता है, अशांत ही
होता है।
मन
अशांति का नाम
है।
और जब
भी हम कहते
हैं मन शांत
हो गया, तो
उसका अर्थ है
कि मन अब नहीं
रहा। न रह जाए
मन, तभी
शांत होता है।
जहां
मन खो जाता है, वहां
आकाश के रहस्य
प्रगट होने
शुरू हो जाते
हैं।
जहां
तक मन है, वहां
तक हम अपनी
सूझ-बूझ से
चलते हैं। और
जब मन नहीं है,
तब
परमात्मा की
सूझ-बूझ हमसे
प्रगट होनी
शुरू हो जाती
है, तब हम
नहीं होते हैं;
या होते हैं
तो बस एक
उपकरण की
भांति होते
हैं, एक
माध्यम, एक
वाहन होते
हैं। जैसे हवा
का झोंका आपके
पास आए और
फूलों की
सुगंध आपके
पास बरसा जाए।
हवा का झोंका
सिर्फ लाता है
सुगंध को। ऐसा
ही जब मन नहीं
रह जाता, तो
आप भी एक हवा
के झोंके हो
जाते हैं। और
अनंत की सुगंधि
आपसे भरकर
फैलने लगती है;
वह दूर-दूर
लोगों तक आप
पर सवार होकर
यात्रा कर
सकती है।
ब्लावट्स्की
की यह पुस्तक
ऐसी ही है।
हवा का एक
झोंका है
ब्लावट्स्की।
और कोई उससे
बहुत महानतर
शक्ति उस पर
आविष्ट हो गई
है,
और वह हवा
का झोंका इस
सुगंध को ले
आया है।
मैंने
इस पुस्तक को
जानकर चुना।
क्योंकि इधर दो
सौ वर्षों में
ऐसी न के
बराबर
पुस्तकें हैं, जिनकी
हैसियत वेद, कुरान और
बाइबिल की हो।
इन थोड़ी
दो-चार पुस्तकों
में यह पुस्तक
है "समाधि के सप्तद्वार'। और इसलिए
भी चुना कि
ब्लावट्स्की
ने जरा सी भी
भूल-चूक नहीं
की है आकाश की
संहिता को
पढ़ने में। ठीक
मनुष्य के जगत
में उस दूर के
सत्य को जितनी
सही-सही हालत
में पकड़ा जा सकता
है, उतनी
सही-सही हालत
में पकड़ा है।
प्रतिबिंब जितना
साफ बन सकता
है, उतना
प्रतिबिंब
साफ बना है।
और यह पुस्तक
आपके लिए जीवन
की आमूल
क्रांति
सिद्ध हो सकता
है। फिर इस
पुस्तक का
किसी धर्म से
भी कोई संबंध
नहीं है।
इसलिए भी
मैंने चुना
है। न यह
हिंदू है, न
यह मुसलमान है,
न यह ईसाई
है। यह पुस्तक
शुद्ध धर्म की
पुस्तक है। और
धर्म को जितना
निवयक्तिक
गैर-सांप्रदायिक
ढंग से प्रगट
किया जा सकता
है, उस ढंग
से इसमें
प्रगट हुआ है।
मनुष्य
खोज करता है
एक ही बात की, कि
कैसे वह जगह आ
जाए जीवन में,
जहां और कोई
दौड़ न रहे; कैसे
वह बिंदु आ
जाए, जहां
सारी वासनाएं
क्षीण हो जाएं
और पाने को कुछ
भी शेष न रहे।
क्योंकि जब तक
पाने को शेष
है, तब तक
रहेगा संताप,
चिंता, पीड़ा,
दुःख। और जब
तक पाने को
कुछ शेष है, तब तक आनंद
असंभव है।
आनंद
है उस क्षण का
नाम,
जब कोई
व्यक्ति वहां
पहुंच गया, जहां से आगे
जाने को कुछ
भी शेष नहीं
रह जाता है।
जहां कोई फिर
आगे का तनाव
नहीं है, जहां
कोई भविष्य
नहीं रहा, जहां
समय खो जाता है,
और यही क्षण,
"अभी और यही',
का क्षण
सारा
अस्तित्व हो
जाता है, सब
कुछ इसी क्षण
में समाविष्ट
हो जाता है।
उस पुलक का
नाम ही आनंद
है, और उस
पुलक का नाम
ही परमात्मा
की अनुभूति है
या कहें मोक्ष,
या कहें
निर्वाण। ये
सारे भेद
शब्दों के भेद
हैं।
इस
पुस्तक के एक-एक
सूत्र को समझपूर्वक
अगर प्रयोग
किया, तो जीवन
से वासना ऐसे
झड़ जाती है, जैसे कोई
धूल से भरा
हुआ आए और
स्नान कर ले
तो सारी धूल
झड़ जाए। या
कोई थका-मांदा,
किसी वृक्ष
की छाया के
नीचे विश्राम
कर ले, और
सारी थकान
विसर्जित हो
जाए। ऐसा ही
कुछ इस पुस्तक
की छाया में, इस पुस्तक
के स्नान में,
आपके साथ हो
सकता है।
लेकिन इसे
बुद्धि से समझने
की कोशिश न
करें। इसे
हृदय से समझने
की कोशिश
करें। क्या है
फर्क दोनों
में?
बुद्धि
से समझने की
कोशिश का अर्थ
होता है, हम
सोचेंगे, विचारेंगे,
ठीक है या
गलत। लेकिन
अगर हमें पता
ही होता कि
क्या ठीक है, और क्या गलत,
तो इस
पुस्तक की कोई
जरूरत ही न
थी। हमें पता
नहीं कि क्या
ठीक है। इसी
की तो हम खोज
कर रहे हैं।
तो बुद्धि
कैसे निर्णय
करेगी कि क्या
ठीक है और
क्या गलत? निर्णय
के लिए तो
पहले से पता
होना चाहिए।
अगर पता ही है,
तो खोज की
कोई जरूरत नहीं;
और जब खोज
है, तो पता
हमें नहीं, बुद्धि
व्यर्थ है
इसलिए। इस तरह
की खोज में तो
हृदय से
उतरना।
हृदय
से उतरने का
अर्थ है, हम
सोचेंगे नहीं
कि क्या है
ठीक और क्या
है गलत। हम
करके ही
देखेंगे, हम
प्रयोग ही
करेंगे। और
प्रयोग का
अर्थ है कि हम हृदयपूर्वक
अपनी समस्त
श्रद्धा से
उतर जाएंगे और
जानेंगे कि
कहां ले जाती
है यह किताब।
इस किताब के
साथ चलेंगे और
यात्रा
करेंगे, बहेंगे
इस नदी में।
और चलेंगे उस
सागर की तरफ
जिसका यह
आश्वासन देती
है। और मैं
आपको कहता हूं
कि यह नदी सागरत्तट
पर ले जाती
है। इस नदी का
भरोसा किया जा
सकता है।
लेकिन भरोसा
ही किया जा
सकता है आपकी
तरफ से। इस
भरोसे का नाम
ही श्रद्धा
है।
बुद्धि
तो करती है
संदेह, हृदय
करता है
भरोसा।
इस
किताब के साथ
चलना हो, तो हृदयपूर्वक
चलना होगा। और
बुद्धि का
अगर
उपयोग भी करना
हो तो इतना ही
करना, केवल
चलने में
सहयोगी हो, भरोसे को
मजबूत करे, श्रद्धा को गहराए। और
ऐसा लगे कि
बुद्धि
श्रद्धा को तोड़ती है, तो बुद्धि
छोड़कर ही
चलना। एक बार
अनुभव हो जाए,
फिर पूरी
बुद्धि से
परीक्षा कर
लेना, फिर
कोई डर नहीं
है।
हमारी
तकलीफ ऐसी है
कि हमारे पास
सोना तो नहीं
है,
लेकिन सोने
को कसने
की कसौटी है।
और हम मिट्टी
को ही उस पर
कसकर देखने लगते
हैं। और तब
मिट्टी
मिट्टी है, और यह कसौटी
भी धीरे-धीरे
मिट्टी
कसते-कसते मिट्टी
जैसी हो जाती
है। सोना हो, तभी कसौटी
पर कसा जा
सकता है।
बुद्धि
कसौटी है, लेकिन
सोना आपके पास
नहीं है और
कसौटी से सोना
पैदा
नहीं होता है, ध्यान
रखना। कसौटी
से सोना जांचा
जा सकता है। लेकिन
जांचने
से पहले सोना
होना चाहिए।
हृदय
से सोने का
जन्म होता है, वह
खदान है। और
एक बार सोना
आपके हाथ में
आ जाए, फिर
खूब कसना और
परखना। हमारी
मुसीबत, हमारी
तकलीफ यही है
कि कसौटी
हमारे पास है,
सोना हमारे
पास नहीं है।
हम कुछ भी
कसते रहते हैं,
और उस पर सब
गलत हो जाता
है। और सब गलत
हो जाता है, तो
धीरे-धीरे हम
यही मान लेते
हैं कि सब गलत
है, सही
कुछ है ही
नहीं। अनुभव
का सोना चाहिए,
फिर बुद्धि
की कसौटी का
पूरा उपयोग कर
लेना। तो यह
प्राथमिक बात
खयाल में ले
लें।
इस
शिविर में हम हृदयपूर्वक
प्रयोग करने
इकट्ठे हुए
हैं। हम सोने
की खोज में
हैं और सोना
मिल जाए, तो
कसौटी हमारे
पास है, हम
उसे कस लेंगे।
लेकिन सोना
पास न हो, तो
व्यर्थ ही
कसौटी को हर
किसी पके भीतर
है। इसलिए मैं
कहता हूं, भरोसा
देता हूं, कि
वह खोजी जा
सकती है, उसे
आपने कभी खोया
भी नहीं है।
लेकिन उसकी
पहली शर्त यह
है कि हृदय से
उसे खोजना; फिर बाद में
मस्तिष्क से,
बुद्धि से,
उसे कस लेना,
जांच लेना,
निकष का
उपयोग करना; लेकिन जब
अनुभव हाथ में
आ जाए, तभी।
अब मैं इन
सूत्रों पर
आपसे बात शुरू
करूं।
"हे
उपाध्याय, निर्णय
हो चुका है, मैं ज्ञान
पाने के लिए
प्यासा हूं।
अब आपने गुहय
मार्ग पर पड़े
आवरण को हटा
दिया है और
महायान की
शिक्षा दे दी
है। आपका सेवक
आपसे
मार्गदर्शन
के लिए तत्पर
है।’
खोजी, अभीप्सु
अपने गुरु से
कह रहा हैः हे
उपाध्याय, निर्णय
हो चुका है। मैंने
निर्णय कर
लिया कि मैं
तैयार हूं, अब जहां आप
मुझे ले चलें।
यह निर्णय
जिज्ञासु को
साधक बना देता
है। इतना ही
फर्क है
जिज्ञासु और
साधक में।
लेकिन यह फर्क
बड़ा है, यह
फर्क इतना बड़ा
है कि जिसका
कोई हिसाब
नहीं।
क्योंकि
जिज्ञासु
पूछता रहता है,
पूछता रहता
है, प्रश्न
करता रहता है,
और कहीं
नहीं
पहुंचता।
उसकी तलाश, उत्तर की
तलाश है, समाधान
की नहीं। वह
पूछता है एक
प्रश्न, ताकि
उत्तर मिल
जाए। एक
प्रश्न का
उत्तर मिल जाता
है, तो उस
उत्तर से दस
नए प्रश्न खड़े
हो जाते हैं। उन
दस के उत्तर
खोजने निकल
जाता है। कभी
हो सकता है दस
के उत्तर भी
मिल जाएं, तो
दस हजार
प्रश्न उन
उत्तरों से
खड़े हो जाएंगे।
क्योंकि
पूछनेवाला
प्रश्नों के
उत्तर से मिटता
नहीं।
पूछनेवाला तो
भीतर है, जिससे
प्रश्न पैदा
होते हैं। हम
प्रश्न को मिटा
लेते हैं
लेकिन
पूछनेवाला तो
भीतर खड़ा है।
जैसे
कोई वृक्ष की
एक शाखा को
काट दे, तो दस
नई शाखाएं
पैदा हो
जाएंगी, क्योंकि
शाखाओं को जिस
जड़ से रस मिल
रहा है, वह
नीचे जमीन में
दबी है।
जिज्ञासु
पत्तियों को तोड़ता
रहता है, शाखाओं
को काटता रहता
है; प्रश्न
तोड़ता
रहता है, उत्तर
मिलते जाते
हैं, और नए
प्रश्न
निर्मित होते
जाते हैं, क्योंकि
प्रश्न
निर्माण
करनेवाला
भीतर है।
जिज्ञासु
कभी समाधान को
उपलब्ध नहीं
होता।
जिज्ञासुओं से
दर्शन का जन्म
हुआ,
फिलासफी का। इसलिए
दर्शन किसी
निर्णय पर
नहीं पहुंचता।
अगर
निर्णय प्रथम
ही नहीं है, तो
अंतिम भी नहीं
होगा; और
निर्णय अगर
प्रथम है, तो
ही अंत में भी
निर्णय हो
सकेगा। अंत
में उनमें वही
प्रगट होता है,
जो प्रथम
छिपा था, मौजूद
था। जो आदि
में था, वही
अंत में प्रगट
हो सकेगा। जो
बीज में है, वही वृक्ष
में प्रगट
होगा। बीज में
ही जो नहीं वह
वृक्ष में
प्रगट नहीं
होगा।
जिज्ञासु प्रश्न
पूछता है, उत्तर
पा जाता है, लेकिन
समाधान नहीं।
समाधान के लिए
तो स्वयं को
बदलना पड़ता
है।
यह
जिज्ञासु जब
कह रहा है कि
हे उपाध्याय, निर्णय
हो चुका है, तो यह कह रहा
है कि अब मैं
साधक बनने को
तैयार हूं; अब मैं
पूछना ही नहीं
चाहता हूं, अब मैं
उत्तर ही नहीं
चाहता हूं, अब मैं
बदलना चाहता
हूं स्वयं को,
अब मैं
समाधान चाहता
हूं।
और
समाधान तो उसे
मिलता है, जो
समाधि को
उपलब्ध होता
है।
हल
उसका होता है, जो
स्वयं भीतर के
सारे द्वंद्व
को हल कर ले। और
ऐसी घड़ी ले आए
अपने भीतर कि
जहां कोई
प्रश्न नहीं
उठते हैं। तब
ही असली उत्तर
उपलब्ध होता
है।
"निर्णय
हो चुका है, और मैं
ज्ञान पाने के
लिए प्यासा
हूं।’
कहते
तो हम भी हैं, ज्ञान
पाने की हमारी
प्यास है, लेकिन
अगर कोई यह
कहे कि यह रहा
सरोवर, दस
कदम चल लें, तो दस कदम
चलने को भी हम
तैयार नहीं
हैं। उससे पता
चलता है कि
प्यास झूठी
है। क्योंकि
प्यासा तो दस
हजार कदम भी
चलने को राजी
होता है।
प्यास का तो
मतलब ही यह है
कि अब नहीं
अगर पानी मिला
तो मरूंगा।
प्यास का क्या
मतलब? प्यास
का मतलब है कि
जीवन दांव पर
है--या तो पानी
या मृत्यु; या तो मुझे
जल का सरोवर
मिले, जलस्रोत
मिले या मैं
मर रहा हूं, मेरी श्वासें
घुट रही हैं, और एक-एक पल
मुश्किल है
जीना।
हम भी
कहते हैं कि
सत्य की हमें
प्यास है, लेकिन
दस कदम चलने
की हमारी
तैयारी न हो, तो पता चलता
है कि प्यास
कितनी है।
प्यास नहीं है,
हम शब्द का
अर्थ ही नहीं
समझे। कहना
चाहिए हमें भी
दर्शन की, हमें
भी सत्य की, धर्म की, परमात्मा
की वासना है, प्यास नहीं।
वासना
से मेरा मतलब
है गैर-जरूरत
की चीज की इच्छा।
मिल जाए तो
खुशी होगी, न
मिल जाए तो
हमें कोई
तकलीफ नहीं है;
नहीं मिले
तो हमारा कोई
जीवन संकट में
नहीं है। मिल
जाए तो हम खुश
होंगे।
क्योंकि
हमारे अहंकार
को और एक सहारा
मिल जाएगा, सत्य भी
मैंने पा
लिया। क्या
परमात्मा भी
मेरी मुट्ठी
में है? क्या
मोक्ष भी मेरी
उपलब्धि होगी?
वे भी हमारी
वासनाएं हैं
विलास की।
प्यास का अर्थ
है कि जीवन
दांव पर है।
मैं ज्ञान
पाने के लिए
प्यासा हूं।
"--और
आपने उस गुप्त
मार्ग से आवरण
हटा दिया है, और मुझे उस
परम यान की, उस महायान
की शिक्षा भी
दे दी है;' मुझे
समझा भी दिया
है कि वह सत्य
क्या है, वह
मार्ग क्या
है। अब मैं
तत्पर हूं
चलने को, अब
मुझे चलाएं
भी, अब
मुझे ले चलें
उस तरफ।
"यह
शुभ है, स्रावक तैयारी कर, क्योंकि
तुझे अकेला ही
यात्रा पर
जाना होगा।’
गुरु
ने कहाः
यह शुभ है स्रावक, तैयारी
कर, क्योंकि
तुझे अकेला ही
यात्रा पर
जाना होगा। गुरु
केवल
मार्ग-निर्देश
कर सकता है।
मार्ग तो सबके
लिए एक है।
लेकिन
यात्रियों के
गंतव्य पर
पहुंचने के
साधन अलग-अलग
होंगे। गुरु
ने कहाः
शुभ है तेरी
निष्ठा और
तेरा निर्णय।
संकल्प तेरा
प्रीतिकर है,
स्वागत के
योग्य है; लेकिन
तैयारी कर, क्योंकि यह
यात्रा अकेले
की यात्रा है।
इस पर कोई
दूसरा साथ
नहीं जा सकता।
इस यात्रा पर
किसी दूसरे को
साथ ले जाने
का कोई उपाय
नहीं है। यह
मार्ग ऐसा
नहीं कि इस पर
भीड़ जा सके, मित्र-प्रियजन,
संगी-साथी
जा सकें। यहां
अकेला ही जाना
होगा।
ध्यान
मृत्यु जैसा
है।
मरते
वक्त अकेले
जाना होगा, फिर
आप न कह
सकेंगे कि कोई
साथ चले। सब
संगी-साथी
जीवन के हैं, मृत्यु में
कोई संगी-साथी
न होगा। और
ध्यान एक
भांति की
मृत्यु है, इसमें भी
अकेले ही जाना
होगा। और ऐसा भी
हो सकता है कि
कोई आपके साथ
मरने को भी
राजी हो जाए, आपके साथ ही
आत्महत्या कर
ले; यद्यपि
यह आत्महत्या
भी जीवन में
ही साथ दिखाई
पड़ेगी, मृत्यु
में तो दोनों
अकेले होने का
डर ही हमारी
बाधा है
परमात्मा की
तरफ जाने में।
और उसकी तरफ
तो वही जा
सकेगा, जो
पूरी तरह अकेला
होने को राजी
हो। हम तो
परमात्मा की
बात भी इसलिए
करते हैं कि
जब कोई भी साथ
न होगा, तो
कम से कम
परमात्मा तो
साथ होगा। हम
तो उसे भी
संगी-साथी की
तरह खोजते
हैं। इसलिए जब
हम अकेले होते
हैं, अंधेरे
में होते हैं,
जंगल में
भटक गए होते
हैं, तो हम
परमात्मा की याद
करते हैं। वह
याद भी अकेले
होने से बचने
की कोशिश है।
वहां भी हम
किसी दूसरे की
कल्पना करते
हैं कि कोई
साथ है। कोई न
हो साथ तो कम
से कम
परमात्मा साथ
है; लेकिन
साथ हमें
चाहिए ही। और
जब तक हमें
साथ चाहिए, तब तक
परमात्मा से
कोई साथ नहीं
हो सकता। उसकी
तरफ तो जाता
ही वह है, जो
अकेला होने को
राजी है।
गुरु
ने कहाः
तैयारी कर!
क्योंकि तुझे
अकेला ही
यात्रा पर जाना
होगा। और गुरु
केवल
मार्ग-निर्देश
कर सकता है।
गुरु
ने कहाः
बता सकता हूं
मैं कि यह रहा
मार्ग, लेकिन
तेरे साथ चल न
सकूंगा। बता
सकता हूं, यह
रहा मार्ग, लेकिन तुझे
इस मार्ग पर
घसीट न
सकूंगा। कोई
जबर्दस्ती
सत्य की
दुनिया में
नहीं आ सकते।
कोई धक्का भी
नहीं दिया जा
सकता। किसी को
खींच कर उस यात्रा
पर ले जाया भी
नहीं जा सकता।
मार्ग सबके लिए
एक है, लेकिन
यात्रियों के
गंतव्य पर
पहुंचने के साधन
अलग-अलग
होंगे। और सभी
उस एक ही
मार्ग से
गुजरते हैं।
फिर भी, क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति अलग
है, इसलिए
उस एक मार्ग
पर भी
प्रत्येक
व्यक्ति के साधन
अलग-अलग होते
हैं। कोई पैदल
चलता है उसी रास्ते
पर, कोई दौड़ता
है उसी रास्ते
पर, कोई बैलगाड़ी
भी ले लेता है,
कोई और साधन
जुटा लेता है।
रास्ता एक है,
लेकिन हर
व्यक्ति के
साधन अलग
होंगे।
--"ओ
अजित हृदय, तू किसको
चुनता है'
तू
कौन-सा साधन
चुनना चाहेगा? क्या
होगा तेरा उस
मार्ग पर
पाथेय? क्या
चुनेगा
तू? कैसे
चलेगा उस
रास्ते पर?
"चक्षु-सिद्धांत
के समतान,
अर्थात
चतुर्मुखी
ध्यान को या
छः पारमिताओं
के बीच से तू
अपनी राह
बनाएगा?'
दो
मार्ग बहुत
साफ-साफ बंटे
हुए हैं। एक
तो है ध्यान
का मार्ग, विशुद्ध
ध्यान का
मार्ग। और
दूसरा है पारमिताओं
का--शुभ का, नीति
का, धर्म
का।
ध्यान
के मार्ग से
अर्थ हैः
नितांत स्वयं
के मन को
विसर्जित
करने की
चेष्टा--सीधी।
पारमिताओं के
मार्ग का अर्थ
हैः स्वयं के
मन को
आहिस्ता-आहिस्ता
शुद्ध
करने की
चेष्टा।
विसर्जित तो
होगा, लेकिन
पूर्ण शुद्ध
होते-होते
विसर्जित
होगा।
ध्यान
है एक छलांग।
मन है अशुद्ध, इस
अशुद्ध मन से
भी सीधा ध्यान
में कूदा जा
सकता है। पारमिताओं
का अर्थ हैः
पहले इस मन को शुद्ध,
सबल, सशक्त
करना, और
जब यह
परिपूर्ण
शुद्ध हो जाए,
तब छलांग
लेना, तब
कूद जाना।
तो
गुरु पूछता है, "क्या
तू चुनेगा?
क्या तू चुनेगा
ध्यान को? या
तू चुनेगा
शील को, जो
सदगुण के
पवित्र द्वार
हैं और जो
ज्ञान के सप्तम
चरण, बोधि
और प्रज्ञा को
उपलब्ध कराते
हैं?' ये दो
हैं मार्ग।
--"चतुर्मुखी
ज्ञान का
दुर्गम मार्ग
पर्वतीय है' कठिन है चढ़ाई
ध्यान की, दुर्गम
है, पहाड़ी
है रास्ता।
--"तीन
बार वह महान
है, जो
उसके ऊंचे
शिखर को
प्राप्त करता
है।’
एक बार
महान कहना
काफी नहीं।
गुरु कहता हैः
"तीन बार वह
महान है, जो
उसके ऊंचे
शिखर को
प्राप्त करता
है।’
ध्यान
का अर्थ है
जैसे हम हैं, ठीक
ऐसे से ही
छलांग। जैसे
हम हैं बाहर
की दुनिया में,
बिना कोई
फर्क किए।
चरित्र हो
बुरा, शील
न हो पास, सदगुण
न हो, इसकी
बिना चिंता
किए। बाहर कुछ
भी न हो, पाप
भी हो, कर्मों
का बोझा भी
हो--जैसे हम हैं,
ठीक ऐसे में
से ही उस पहाड़
पर सीधी चढ़ाई
का भी रास्ता
है। हम सीधे
भी कूद सकते
हैं।
क्यों?
क्योंकि
ध्यान मानता
ही यह है कि
जिसे हम बाहर
का जगत कहते
हैं,
वह स्वप्न
से ज्यादा
नहीं है। यह
ध्यान की मान्यता
है। यह ध्यान
के मार्ग का
प्राथमिक
सिद्धांत है
कि जिसे हम
बाहर का जगत
कहते हैं, वह
स्वप्न से
ज्यादा नहीं
है।
एक
आदमी स्वप्न
देख रहा है कि
वह चोर है, पापी
है, हत्यारा
है, और एक
आदमी स्वप्न
देख रहा है कि
साधु है, महात्मा
है, सदगुणी
है। ध्यान का
मार्ग कहता है
कि क्या फर्क
पड़ता है कि
तुम क्या
स्वप्न देख
रहे हो--चोर
होने का या
साधु होने
का--दोनों
स्वप्न हैं।
और चोर
होने के
स्वप्न से
जागने में जो
करना पड़ेगा, वही
साधु होने के
स्वप्न से भी
जागने में
करना पड़ेगा।
तो तुम जाग
सकते हो अभी, इसकी फिक्र छोड़ो कि
पहले मैं यह
चोर वाला
स्वप्न बदलूं
और साधु वाला
स्वप्न
स्वीकार करूं,
और फिर जागूंगा।
ध्यान
का मार्ग कहता
है कि इस उलझन
में पड़ने की
कोई भी जरूरत
नहीं है कि
पहले तुम साधु
बनो असाधु से, पुण्यात्मा
बनो पापी से।
अगर स्वप्न ही
हैं दोनों, तो फिर किसी
भी स्वप्न से
जागा जा सकता
है। और सभी
स्वप्न जागने
की तरफ ले जा
सकते हैं। स्वप्न
फिर भले और
बुरे नहीं
होते हैं। तोड़
डालें, बजाय
स्वप्न को
बदलने के।
और जो
स्वप्न को बदल
सकता है, उसे
जागने में
क्या बाधा
होगी? क्योंकि
स्वप्न को
बदलने का मतलब
ही यह है कि आप
भीतर जागे हुए
हैं और जान
रहे हैं कि यह
स्वप्न है, और बुरा
स्वप्न है, और अब मैं
इसे अच्छे
स्वप्न में
बदल रहा हूं।
तो जो इतना
समर्थ है
जानने में कि
स्वप्न को
पहचान लेता
है
स्वप्न की
भांति, वह
जाग ही जाएगा।
वह स्वप्न को
क्यों पकड़ेगा,
इसलिए
दूसरी बात भी
सरल है, ऐसा
मत सोचना।
"पारमिता
के शिखर तो और
भी दुर्गम पथ
से प्राप्त
होते हैं। तुझे
सात द्वारों
से होकर
यात्रा करनी
होगी। ये सात
द्वार सात
क्रूर और
धूर्त
शक्तियों के,
सशक्त
वासनाओं के
दुर्ग जैसे
हैं।'
अध्यात्म
की अनिवार्य
रूप से एक
शर्त है कि वहां
जो भी है, सभी
कठिन है। वहां
सरल कुछ भी
नहीं है। और
जो लोग भी
कहते हैं सरल
है, वह
सिर्फ आपको
प्रलोभन देते
हैं। शायद
आपके हित में
ही देते हों।
लेकिन सरल
वहां कुछ भी
नहीं है।
इसका
यह भी अर्थ
नहीं है कि
अध्यात्म
अपने आप में
जटिल है। इसका
अर्थ केवल
इतना ही है कि
आप इतने जटिल
और उलझे हुए
हैं कि
अध्यात्म की
तरफ जाना आपको
जटिल मालूम
पड़ता है।
जो
पहुंच जाते
हैं उन्हें
लगता है कि
संसार बहुत
जटिल था और
अध्यात्म
बहुत सरल है।
लेकिन जो
संसार में हैं, उन्हें
अध्यात्म
बहुत जटिल है।
आप बड़ा
उलझाव करने
में कुशल हैं।
अपने आसपास इतना
जाल बुन लेते
हैं आप--शायद
दूसरे को फांसने
के लिए बुनते
हैं और खुद
फंस जाते हैं, यह
दूसरी बात है।
लेकिन बड़ा जाल
बुन लेते हैं।
और जाल बुनने
की इतनी आदत
है कि अगर कभी
सोचते भी हैं
कि इस जाल से
कैसे बचें, तो एक नया
जाल बुनते
हैं--वह बुनना
आपकी आदत है--तो
अध्यात्म भी
आपके लिए जाल
बन जाता है।
लोग संसार छोड़
देते हैं और
संन्यासी हो
जाते हैं, और
फिर संन्यास
का एक जाल बुन
लेते हैं।
संन्यास
का मतलब ही है
कि अब हमें इस
जाल से ऊब हो
गई है, अब हम
जाल न बुनेंगे।
ज्यादा बेहतर
है कि पुराने
जाल में ही
खड़े रहें और
नया न बुनें।
बुनना बंद कर
दें। जाल नहीं
रोकता
आपको--बुनने
की आदत। आप
बुनते ही चले
जाते हैं अपने
चारों तरफ।
बहाना कोई भी
हो, उससे
कठिनाई है।
"हे
शिष्य, प्रसन्न
रह और इस
स्वर्ण-नियम
को ही स्मरण
रख। एक बार जब
तूने स्रोतापन्न-द्वार
पार कर लिया--स्रोतापन्न
वह है, जो
निर्वाण की ओर
बहती नदी में
प्रविष्ट हो
गया--और एक बार
जब इस जन्म
में या किसी
अगले जन्म में
तेरे पैर ने
निर्वाण की इस
नदी की गहराई
छू ली, हे संकल्पवान,
तेरे लिए
केवल सात जन्म
शेष हैं।’
स्रोतापन्न
बहुत विचार
नहीं कर सकते
और गुरु कहता
हैः हे शिष्य, प्रसन्न
रह और इस
स्वर्ण-नियम
को स्मरण रख
कि एक बार
तूने स्रोतापन्न-द्वार
को पार कर
लिया, तो तेरे
लिए केवल सात
जन्म ही शेष
हैं।
स्रोतापन्न का
अर्थ है, जो
नदी में
प्रविष्ट हो
गया।
निर्णय
से व्यक्ति
नदी में
प्रविष्ट
होता है। जब
कोई यह निर्णय
कर लेता है कि
अब चाहे कुछ भी
हो,
मैं जीवन के
रहस्य में
प्रवेश करके
रहूंगा। अब
चाहे कुछ भी
मूल्य चुकाना
पड़े, लेकिन
अब, अब और
रुकने की मेरी
तैयारी नहीं
है। और अब चाहे
सब कुछ खोना
पड़े, स्वयं
को भी, तो
भी मैं इस
छलांग के लिए
तत्पर हो गया
हूं। इस
निर्णय के साथ
ही व्यक्ति
धारा में
प्रविष्ट हो
जाता है, स्रोतापन्न हो जाता है।
और इस
निर्णय के बाद
गुरु कहता है
कि सात जन्मों
से ज्यादा शेष
नहीं है।
बड़ी
कठिनाई मालूम
पड़ती है। आपके
कितने जन्म शेष
होंगे? क्योंकि
निर्णय के बाद
भी गुरु कहता
है, अब सात
जन्मों से
ज्यादा शेष
नहीं है।
"प्रसन्न
हो।’
प्रसन्न
हो,
क्योंकि तू स्रोतापन्न
हो गया, और
ज्यादा से
ज्यादा तू सात
बार और उपद्रव
में पड़ सकता
है। निर्णय के
बाद भी ज्यादा
से ज्यादा सात
बार। तो बिना
निर्णय के? बिना निर्णय
के कोई संख्या
नहीं बताई जा
सकती है कि हम
कितने उपद्रव
में पड़ सकते
हैं। हम उपद्रव
में पड़ते ही
रहेंगे अनंत
बार। क्योंकि
हम किनारे पर
ही खड़े हैं और
सागर की हम
बात करते हैं।
और किनारे से
हम इंच भर
हटते नहीं, और सागर पर
जाने की हमारी
कामना है। नदी
सागर में जा
रही है, और
सागर में जाने
के लिए कोई
यात्रा करनी
जरूरी नहीं; नदी में
स्वयं को छोड़
देना काफी है,
नदी ले
जाएगी।
यह नदी
में स्वयं को
छोड़ देने की
जो मनोदशा है कि
अब मैं छोड़ता
हूं अपने को, यही
है निर्णय। यह
बहुत उल्टा
लगेगा, क्योंकि
आमतौर से हम
जो निर्णय
करते हैं, वह
हमारे अहंकार
के निर्णय
होते हैं। एक
आदमी कहता है,
एक मकान
बनाऊंगा--बनाकर
ही रहूंगा। एक
आदमी कहता है,
इस व्यक्ति
से शादी
करूंगा--करके
ही रहूंगा। एक
आदमी कहता है,
इस पद पर पहुचूंगा--पहुंचना
ही है, चाहे
कुछ भी हो। ये
सब निर्णय
हैं। इन
निर्णयों से
हम तट से बंधते
हैं, नदी
में नहीं
उतरते, यही
निर्णय हमें
जमीन से बांध
देते हैं, किनारे
से।
एक और
निर्णय है, जो
मैं का निर्णय
नहीं है, बल्कि
समर्पण है। इस
बात का निर्णय
है कि अब
मैंने बहुत
निर्णय करके
देख लिए, और
मैंने बहुत पद
पाकर भी देख
लिए, कुछ
भी न पाया।
पड़ती है। मैं
अपना जो भी कर
सकता था, सब
कर चुका हूं।
अब, अब मैं
स्वयं को
छोड़ता हूं और
इस अस्तित्व
की धारा में
अपने निर्णय
को निमज्जित
करता हूं। और
अब मैं एक ही
संकल्प करता
हूं कि अब इस
अस्तित्व के
साथ बहूंगा,
इस नदी में बहूंगा।
इस जीवन की
धारा में मैं
अपने को छोड़ता
हूं। और यह
धारा जहां ले
जाए, इस पर
भरोसा
रखूंगा।
इस
भरोसे का नाम
ही श्रद्धा है
कि धारा जहां
ले जाए। अगर
यह पूरब जाने
लगे,
तो पूरब जाऊंगा।
अगर यह पश्चिम
जाने लगे, तो
पश्चिम जाऊंगा।
और अगर बीच
में मुझे
दुविधा
भी
होने लगे कि
अभी यह पूरब
की तरफ बहती
थी और अब यह
धारा उल्टी
बहने लगी, पश्चिम
की तरफ बहने
लगी, तो भी
भरोसा रखूंगा
कि चाहे पूरब
बहे, चाहे
पश्चिम, यह
धारा सागर में
जाएगी। और
चाहे इसका
रास्ता कितना
ही टेढ़ा-मेढ़ा
हो जाता हो, और कई बार चकरीला
हो जाता हो, लेकिन यह
नदी उस सागर
की तरफ जा रही
है। इस नदी के
साथ मैं अपने
को छोड़ता हूं।
बुद्ध
ने "स्रोतापन्न' शब्द
का उपयोग किया
है। निर्णय
जिसने लिया, छोड़ने का
अपने को।
बुद्ध के पास
जो लोग आते थे,
तो वे तीन
निर्णय की
घोषणा करते थे
कि मैं बुद्ध
की शरण में
जाता हूं, कि
मैं धर्म की
शरण जाता हूं,
कि मैं संघ
की शरण जाता
हूं। यह उनकी
घोषणा थी नदी
में प्रवेश
की। बुद्ध उसी
नदी का नाम है,
संघ भी उसी
नदी का नाम है,
धर्म भी उसी
नदी का नाम
है। वह निर्णय
करता है कि
मैं अपने को
छोड़ता हूं। बस
मैं बहूंगा
अस्तित्व में,
अब मैं अपने
अहंकार से
व्यवधान खड़े न
करूंगा। और
कभी मुझे अगर
लगे कि नदी
गलत जाती है, तो मैं
समझूंगा कि
मैं गलत जा
रहा हूं। ऐसे
निर्णय के बाद
सात जन्म ही
शेष रह जाते
हैं। बहुत कम,
क्योंकि
अनंत जन्मों
की संभावना
है।
यह जो स्रोतापन्न
होने का भाव
है,
इसे बहुत
गहरे अपने मन
में ले लेना।
क्योंकि कल
सुबह से हम
उसी नदी में
कूदना
चाहेंगे। और अगर
आपने अपने को
बचाया, तो
किनारे पर खड़े
रह जाते हैं।
और बचाने की
हजार तरकीबें
हैं। और हम
अपने को बचाने
में इतने
होशियार हैं,
और हम ऐसे
बहाने खोजते
हैं किलेकिन
नदी में कूदने
में डर लगता
है--अज्ञात, अनजान नदी
में। फिर जो
कूदता है, वह
हमें लगता है
कि कुछ समझपूर्वक
नहीं कर रहा
है। हम सब
समझदार हैं।
और नदी में कूदने
के लिए, यह
जो किनारे की
समझ है, उसे
किनारे पर ही
रखना जरूरी
है। और नदी
में कूदने के
लिए एक एडवेंचर,
एक
दुस्साहस की
क्षमता चाहिए,
कि होगा जो
होगा--किनारे
देख लिया, परख
लिया, काफी--अब
नदी को भी परखेंगे
और देखेंगे।
इतने
साहस से अगर
कूदने की बात
मन में जगी, तो
इन आठ दिनों
में यह नदी
काफी दूर ले
जा सकती है।
यह मेरा
आश्वासन है कि
नदी काफी दूर
ले जा सकती
है।
पर जो
किनारे ही खड़ा
है,
उसके लिए
नदी भी असमर्थ
है, वह कुछ
भी नहीं कर
सकती। या कुछ
लोग कभी-कभी
नदी में भी
कूद जाते हैं
और उलटे तैरने
लगते हैं, नदी
की विपरीत
धारा में ऊपर
की तरफ, नदी
से विरोध में,
तब भी नदी
उन्हें सागर
नहीं ले जा
सकती है। और यह
भी हो सकता है
कि ऐसे उलटे तैरनेवाले,
नदी से लड़ने
वाले नाहक ही
टूटे, थके
और परेशान हो
जायें। मेरी
ध्यान की जो
व्यवस्था है
वह ऐसी है कि
आपको उसमें
तैरना नहीं, बहना है। वह
नदी की धारा
है। उसमें
उलटे जरा भी
नहीं जाना है,
उसके साथ
सहयोग करना
है। वह अगर
मृत्यु में भी
ले जाए, तो
राजी रहना है।
और अगर आप
मृत्यु में भी
जाने को राजी
रहें तो आप
अमृत को
निश्चित ही
उपलब्ध हो
सकते हैं।
thank you guruji
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