प्रश्नसार:
1— न
मालूम खोपड़ी
में कहां से
कहां चला गया!
चाहता था योग
से शक्ति, यहां समझने
को मिली
शांति। चाहता
था धर्म से प्रभुता,
यहां समझने
को मिली
शून्यता। कुछ
निर्णय नहीं
कर पाता हूं।
मन विक्षिप्त
हुआ जाता है।
यह यात्रा न
मालूम कहां
जाकर रुकेगी।
पुराना विश्वास
बिखर चुका है,
नये का जन्म
नहीं हो रहा।
अब न पीछे जा
सकता हूं और न
आगे ही बढ़
पाता हूं।
कृपया
मार्गदर्शन दें!
2—दर्शन
के तत्क्षण बाद
घटी घटना को ही
क्या भजन कहते
है?
3—जो
दिन आपके साथ प्रेमपूर्वक
बिताए उनको मैं
कैसे भूलूं?
अतीत को भूलना
मेरे बस की बात
नहीं है। आप वीतराग
है। अब इन आसुओं
के सिवा मेरे पास
कुछ भी नहीं है।
मन बार—बार कहता
है, आप कब आएंगे?
पहला
प्रश्न:
न
मालूम खोपड़ी
में कहां से
कहां चला गया!
चाहता था योग
से शक्ति, यहां समझने
को मिली
शांति। चाहता
था धर्म से प्रभुता,
यहां समझने
को मिली
शून्यता। कुछ
निर्णय नहीं
कर पाता हूं।
मन विक्षिप्त
हुआ जाता है।
यह यात्रा न
मालूम कहां
जाकर रुकेगी।
पुराना विश्वास
बिखर चुका है,
नये का जन्म
नहीं हो रहा।
अब न पीछे जा
सकता हूं और न
आगे ही बढ़
पाता हूं।
कृपया
मार्गदर्शन दें!
धर्म
की खोज में निकलनेवाले
लोग अकसर किसी
और चीज की खोज
में निकलते
हैं--उस खोज को
धर्म का नाम
दे देते हैं।
शक्ति
की खोज धर्म
की खोज नहीं
है। शक्ति की
खोज तो अहंकार
की ही खोज है।
शक्तिशाली
होने की
आकांक्षा
धर्म-विरोधी
है।
लेकिन
अधिक लोग धर्म
की यात्रा पर
किन्हीं गलत
कारणों से
निकलते हैं; जो संसार
में नहीं मिल
सका, उसी
को खोजने
परमात्मा में
जाते हैं।
जो
संसार में
नहीं मिल सका, उसे खोजने
परमात्मा में
मत जाना।
क्योंकि जो
संसार में ही
नहीं है, वह
परमात्मा में
तो हो ही नहीं
सकता। जिसे
तुम संसार में
न पा सके, उसे
तो समझ लेना
कि पाने का
कोई उपाय ही
नहीं है।
लेकिन
स्वाभाविक
है। संसार में
हम जीये
हैं अब तक
जन्मों-जन्मों
तक। वही एक
भाषा परिचित
है--पद की, धन
की, प्रभुता
की, शक्ति
की। संसार
असफल हुआ तो
सोचते हैं चलो,
उन्हीं
आकांक्षाओं
को प्रभु के
मार्ग पर सफल कर
लेंगे! तो फिर
तुम्हें
असफलता हाथ
लगेगी। और भी
गहन असफलता
हाथ लगेगी!
जैसे संसार के
मार्ग पर लगी,
उससे भी
ज्यादा! तुम उजड़े-उजड़े
हो जाओगे!
लेकिन कारण धर्म
का पथ नहीं है;
कारण
तुम्हारी गलत
आकांक्षा है।
जब कोई
चाहता है
शक्ति मिल
जाये, तो
किसके खिलाफ
चाहता है? क्योंकि
शक्ति तो सदा
किसी के खिलाफ
होती है। शक्ति
का अर्थ ही
हिंसा है।
शक्ति
हम चाहते ही
इसीलिए हैं कि
किसी दूसरे से
बलशाली हो
जायें, कि
किसी दूसरे की
छाती पर बैठ
जायें, कि
किसी दूसरे को
दबा लें, कि
किसी दूसरे को
छोटा कर दें।
शक्ति का अर्थ
ही
महत्वाकांक्षा
है। वह अहंकार
का ज्वर है।
धर्म
तो शांति की
खोज है। शांति
का अर्थ है: शक्ति
की खोज व्यर्थ
है, इस बात का
बोध; और
शक्ति की खोज
से मैं सदा
बीमार रहूंगा,
स्वस्थ न हो
पाऊंगा।
शांति
की खोज बिलकुल
विपरीत है।
शांति की खोज का
अर्थ है: मैं
इस "मैं' को
भी गिराता हूं,
जिसमें
शक्ति की
आकांक्षा
पैदा होती है;
मैं इस बीज
को दग्ध करता
हूं। इसने
मुझे तड़फाया,
जन्मों-जन्मों
तक भटकाया।
बुद्ध
ने, जब
उन्हें परम
ज्ञान हुआ तो आकाश
की तरफ आंखें
उठाकर कहा, "हे गृहकारक!
हे तृष्णा के गृहकारक!
अब तुझे मेरे
लिए और कोई घर
न बनाना
पड़ेगा। बहुत
तूने घर बनाए
मेरे लिए, लेकिन
अब मैं आखिरी
जाल से मुक्त
हो गया हूं। अब
और मेरे लिए
जन्म न होंगे।'
जहां
महत्वाकांक्षा
न रही, तृष्णा
न रही, वहां
और जन्म न
रहे। जहां
महत्वाकांक्षा
न रही, वहां
भविष्य न रहा,
समय न रहा; वहां हम
शाश्वत में
प्रवेश करते
हैं।
शाश्वत
में प्रवेश
होने से जो
अनुभव होता है
उसी का नाम
शांति है। समय
में दौड़ने से
जो अनुभव होता
है उसी का नाम
अशांति है। आज
से कल, कल से
परसों! जहां
हम होते हैं
वहां कभी नहीं
होते: अशांति
का यही अर्थ
है। जो हम
होते हैं उससे
हम कभी राजी
नहीं होते--कुछ
और होना
चाहिए! हमारी
मांग का पात्र
कभी भरता
नहीं। हमारा भिक्षापात्र
खाली का खाली
रहता है: कुछ
और! कुछ और! कुछ
और!
तृप्ति
तो असंभव है, क्योंकि जो
भी मिलेगा उससे
ज्यादा मिलने
की कल्पना तो
हम कर ही सकते
हैं। जो भी
मिल जायेगा
उससे ज्यादा
भी हो सकता है,
इसकी वासना
तो हम जगा ही
सकते हैं।
क्या
तुम सोचते हो
ऐसी कोई घड़ी
हो सकती है
वासना के जगत
में, जहां तुम
ज्यादा की
कल्पना न कर
सको? ऐसी
तो कोई घड़ी
नहीं हो सकती।
सारा संसार
मिल जाए तो भी
मन कहेगा: और चांदत्तारे
पड़े हैं!
कहते
हैं, सिकंदर
जब डायोजनीज
को मिला तो डायोजनीज
ने एक बड़ा
मजाक किया।
उसने कहा, "सिकंदर!
यह भी तो सोच
कि अगर तू
सारी दुनिया
जीत लेगा तो
बड़ी मुश्किल
में पड़
जायेगा।' सिकंदर
ने कहा, "क्यों?'
तो डायोजनीज
ने कहा, "फिर
इसके बाद
दूसरी कोई
दुनिया नहीं
है।' और
कहते हैं, यह
सोचकर ही
सिकंदर उदास
हो गया। उसने
कहा, "मैंने
इस पर कभी
विचार नहीं
किया। लेकिन
तुम ठीक कहते
हो। सारी
दुनिया जीतकर
फिर मैं क्या
करूंगा! फिर
तो वासना अधर
में लटकी रह
जायेगी। फिर
तो अतृप्ति
अधर में लटकी
रह जायेगी।
फिर तो छाती
पर अतृप्ति का
पत्थर सदा के
लिए रखा रह
जायेगा।
क्योंकि और तो
कुछ पाने को
नहीं है, लेकिन
पाने की
आकांक्षा
थोड़े ही
समाप्त होती है।'
तुम
कुछ भी पा लो, कितनी ही
शक्ति, कितनी
ही प्रभुता, कितनी ही
प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा--ज्यादा
की कल्पना सदा
संभव है। तुम
तृप्त न हो
पाओगे।
तुम्हारी तिजोड़ी
कितनी ही बड़ी
हो, और भी
बड़ी हो सकती
है; उसमें
कुछ जोड़ा जा
सकता है।
तुम्हारा
सौंदर्य
कितना ही हो, उसमें कुछ
जोड़ा जा सकता
है। और जब तक
जोड़ा जा सकता
है तब तक तुम
अतृप्त
रहोगे। यह दौड़
तो कभी पूरी न
होगी!
इसलिए
बुद्ध ने कहा
है, तृष्णा दुष्पूर
है। इसे कोई
कभी भर नहीं
पाया। नहीं कि
संसार में
भरने के साधन
नहीं हैं; पर
तृष्णा का
स्वभाव दुष्पूर
है। इस तृष्णा
को जब हम
थका-थका पाते
हैं संसार में
और भर नहीं
पाते तो हम
प्रभु की ओर मुड़ते
हैं। प्रभु की
ओर मुड़ना
तो ठीक, लेकिन
मुड़ने का
कारण गलत होता
है।
प्रभु
की ओर मुड़कर
धीरे-धीरे
तुम्हें समझ
में पड़ेगा कि
तुम्हारी
आंखों में तो
पुरानी वासना
ही भरी है।
तुम परमात्मा
से भी वही
मांग रहे हो
जो तुमने
संसार से
मांगा था। तो
तुम मुड़े
तो जरूर, शरीर
तो मुड़ गया, एक सौ अस्सी
डिग्री मुड़ गया--लेकिन
आत्मा नहीं मुड़ी।
यही
अड़चन
प्रश्नकर्ता
को मालूम हो
रही है: "न मालूम
कहां से कहां
चला गया!
चाहता था
शक्ति, यहां
समझने को मिली
शांति...।' इससे
उलझन पैदा हो
रही है। इससे
उलझन सुलझनी
चाहिए।
समझ को
थोड़ा जगाओ!
साफ-सुथरा
करो! अगर
शक्ति मिल
जायेगी तो
क्या करोगे? और शक्ति
पाने में
नियोजित
करोगे। लोग धन
कमाते हैं, क्या करते
हैं? और धन
कमाने में
लगाते हैं। और
कमाकर
क्या करेंगे?
और कमाने
में लगाते
हैं। भोगोगे
कब? जो
मिलता है, उसे
और आगे के
लिये लगा देना
पड़ता है। ऐसे
जिंदगी हाथ से
निकल जाती है।
एक दिन मौत
सामने खड़ी हो
जाती है, जिसके
आगे फिर कुछ
भी नहीं है।
तब तुम चौंकते
हो, लेकिन
तब बड़ी देर हो
चुकी!
मेरे
पास आने का एक
ही उपयोग हो
सकता है कि जो
मौत करेगी वह
मैं तुम्हारे
लिए अभी करूं।
इसलिए तुम घबड़ाओगे।
इसलिए तुम
भागोगे, बचोगे,
तुम उपाय
करोगे। जानता
हूं, तुम
कुछ और खोजने
आए हो। लेकिन
तुम जो खोजने
आए हो वह मैं तुम्हें
नहीं दे सकता।
वह देना तो
तुम्हारी दुश्मनी
होगी। मैं तो
तुम्हें वही
दे सकता हूं जो
देना चाहिए।
मैं तुम्हें
शांति की दिशा
में ही अग्रसर
करूंगा।
इसलिए
एक
महत्वपूर्ण
बात समझ लेनी
जरूरी है: शिष्य
और गुरु के बीच
जो संबंध है
वह बड़ा बेबूझ
है! शिष्य कुछ
और ही मांगता
है; गुरु कुछ
और ही देता
है। शिष्य जो
मांगता है, अगर गुरु दे
दे तो वह गुरु
गुरु नहीं; वह दुश्मन
है। गुरु जो
देना चाहता है,
उसे लेने को
शिष्य राजी हो
जाए तो ही
शिष्य है।
तुम
अपनी मांग
लेकर मेरे पास
मत रहना।
अन्यथा
तुम्हारी
मांग मेरे और
तुम्हारे बीच
दीवाल की तरह
खड़ी रहेगी। जब
मेरे पास ही हो
तो यही कह दो
कि अब तुम ही
यह भी तय करो
कि क्या ठीक
है। इसका नाम
ही समर्पण है।
समर्पण
का यह अर्थ
नहीं है कि
तुम कुछ
मांगने आये हो; समर्पण करने
से मिलेगा, इसलिए
समर्पण करते
हो। नहीं, समर्पण
का अर्थ है:
तुम अपनी मांग,
तुम अपना मन
सब समर्पण
करते हो।
तुम
कहते हो, "अब
मेरी कोई मांग
नहीं; अब
मेरा कोई मन
नहीं; अब
जो मर्जी हो!
अब जो उस
पूर्ण की
मर्जी हो, वह
होने दो! अब
मैं यह न
कहूंगा कि
मेरी मर्जी पूरी
हो।'
मेरी
मर्जी पूरी हो, यही
अधार्मिक
आदमी का लक्षण
है।
गुरजिएफ
कहता था, तथाकथित
धार्मिक लोग
अकसर तो
धर्म-विरोधी
हैं। उसने तो
यहां तक कहा
कि जिनको तुम
धर्म कहते हो
वह सभी
ईश्वर-विरोधी
हैं। क्योंकि
उनके पीछे वही
आकांक्षाएं
हैं; अपनी
मर्जी पूरी
करने के इरादे
हैं।
तुम
ईश्वर को भी
संचालित करना
चाहते
हो--अपनी
मर्जी से! तुम
उसे अपने पीछे
चलाना चाहते
हो। और ईश्वर
केवल उन्हीं
के साथ चल
पाता है जो
उसके पीछे
चलने को राजी
हैं।
सत्य
को अपने पीछे
खड़ा करने के
लिए तो बहुत
से लोग उत्सुक
हैं। सत्य के
पीछे खड़ा होने
को जो उत्सुक
होता है वही
शिष्य है।
उसने ही सीखना
शुरू किया।
तो अब
आ ही गए हो तो
तुम जो कुछ सीखकर
आये हो जिंदगी
से, वह
तुम्हारे काम
नहीं पड़ेगा।
जिंदगी में ही
काम न पड़ा। जो
नाव नदी-नाले
में काम न आयी
उसको लेकर तुम
सागर में उतर
रहे हो? जो
नाव नदी-नालों
में डुबाने
लगी थी, उसको
लेकर तुम सागर
में उतरने का
आयोजन कर रहे
हो? फिर डूबो,
तो परेशान
मत होना!
निश्चित
ही डूबोगे, क्योंकि
सागर के विराट
का तुम्हें
बोध नहीं। सागर
में शक्ति की
नाव मत चलाना;
वह कागज की
नाव है। वह
अहंकार की नाव
है; बुरी
तरफ डूबोगे!
कूल-किनारा न
मिलेगा। बहुत तड़फोगे, परेशान
होओगे! वहां
तो शांति की
नाव चलाना।
क्योंकि
शक्ति की सीमा
होती है।
शांति की कोई
सीमा नहीं।
शक्ति को छीना
जा सकता है, शांति को
छीना नहीं जा
सकता है।
खयाल
किया तुमने!
बड़े से बड़े
शक्तिशाली की
शक्ति छिन
सकती है--छीनी
जा सकती है।
नेपोलियन
हार गया अंत
में तो उसे
सेंट हेलेना
के एक छोटे-से
द्वीप में
कारागृह में
डाल दिया गया।
सम्राट था।
सारे जगत को
जीतने चला था।
आखिरी नतीजा
यह हुआ कि
कारागृह में
पड़ा। द्वीप पर
उसे
चलने-फिरने की
स्वतंत्रता
थी। छोटा-सा
द्वीप था। वह
पूरा द्वीप ही
कारागृह था।
इसलिए कहीं
भागने का तो
कोई उपाय न था।
पहले ही दिन
वह सुबह-सुबह
घूमने निकला।
एक पगडंडी से
गुजर रहा है।
एक स्त्री घास
का गट्ठर लिए
सिर पर आती
है। तो
नेपोलियन का
जो चिकित्सक
है--उसे एक
चिकित्सक
दिया गया था
क्योंकि वह
बीमार था, परेशान था, उसकी रक्षा
के लिए--वह
चिकित्सक
चिल्लाकर कहता
है उस घसियारिन
से कि "हट, तुझे
पता है कौन आ
रहा है!
रास्ता छोड़!' लेकिन
नेपोलियन
स्वयं रास्ता
छोड़कर किनारे खड़ा
हो गया और
उसने कहा कि
तुम भूल करते
हो। वे दिन
गये जब
नेपोलियन के
लिए पहाड़ हट
जाते थे। अब
तो घसियारिन
भी न हटेगी।
अब तो मुझे ही
हट जाना उचित
है। घसियारिन
कम से कम
स्वतंत्र तो
है, मैं
कैदी हूं!
मेरी कोई
हैसियत नहीं
उसके सामने।
नेपोलियन
की शक्ति छिन
जाती है!
सम्राट दीन और
दरिद्र हो
जाते हैं। जो
छिन जाती है, जिस पर
दूसरों का
कब्जा हो सकता
है, जो
परतंत्र
है--उसका क्या
मूल्य? वह
नाव बड़ी छोटी
है।
तुमने
खयाल किया: शक्ति
के लिए दूसरों
की जरूरत है!
अगर नेपोलियन को
जंगल में
अकेला छोड़ दो, उसके पास
कोई शक्ति
नहीं है।
प्रधानमंत्रियों
को, राष्ट्रपतियों
को जंगल में
अकेला छोड़ दो,
उनके पास
कोई शक्ति
नहीं है।
शक्ति के लिए
भीड़ चाहिए।
शक्ति के लिए
वे लोग चाहिए
जिन पर शक्ति
आरोपित की जा
सके। लेकिन
शांति तो
अकेले में भी
तुम्हारी है;
अकेले में
और भी ज्यादा
तुम्हारी है।
उसे तुमसे कोई
छीन नहीं सकता,
क्योंकि वह
किसी पर
निर्भर नहीं
है। ठेठ हिमालय
के एकांत में
भी शांति
तुम्हारी
होगी; तुम्हारे
साथ जाएगी।
जो
एकांत में भी तुम्हरे
साथ हो, वही
तुम्हारी
संपदा है। और
जो दूसरों पर
निर्भर होती
हो, उसे
तुम एकांत में
न ले जा सको, तो मृत्यु
के पार कैसे
ले जा सकोगे? वहां तो तुम
अकेले जाओगे।
न मित्र होंगे,
न संगी-साथी,
न पति-पत्नी,
न बेटे-बेटियां,
कोई भी न
होगा। मौत में
तो तुम अकेले
प्रवेश करोगे।
सब छूट जायेगा
जो दूसरों पर
निर्भर था। जो
दूसरों ने दिया
था वह दूसरे
वापिस ले
लेंगे। तुम
कोरे के कोरे
रह जाओगे।
बुरी तरह डूबेगी
यह नाव!
इसलिए
मैं शक्ति की
कोई शिक्षण, शक्ति का
कोई स्वरूप, शक्ति की
कोई रूप-रेखा
तुम्हें नहीं
देता हूं।
शांति! वही
पाने योग्य
है। जो खोया न
जा सके, बस
वही पाने
योग्य है।
पर
तुम्हें अड़चन
हुई है, यह
भी मैं समझता
हूं। तुम अगर
शक्ति ही
खोजने आये
थे...जैसा लोग
आते हैं। लोग
तो
सत्पुरुषों के
पास भी
चमत्कार के
लिए ही जाते
हैं। लोग तो वहां
भी शक्ति का
ही कोई तमाशा
देखना चाहते
हैं। लोगों की
आंखें बाजार
से इतनी भर
गयी हैं कि जब
वे मंदिर में
भी आते हैं तो
बाजार को अपने
साथ ले आते
हैं।
नहीं, यहां तो उन
लोगों के लिए
ही सुविधा है
जो बाजार से
सब भांति जागकर
आये हैं। कम
से कम इतनी
जाग तो लेकर
आये हैं कि यह
शक्ति की दौड़
व्यर्थ है। अब
चलो, दूसरी
यात्रा पर निकलें!
शांति की
यात्रा!
संसार
की पूरी
यात्रा शक्ति
की यात्रा
है--बहाने कुछ
भी हों। कोई
धन इकट्ठा
करता है। उससे
भी पूछो, धन
क्यों इकट्ठा
करता है? धन
से शक्ति आती
है। एक-एक
रुपये में भरी
है शक्ति। कोई
ज्ञान इकट्ठा
करता है। उससे
पूछो, क्यों?
तो ज्ञान से
शक्ति आती है।
कोई राज-पदों
पर पहुंचने के
लिए आतुर है, उससे शक्ति
आती है। संसार
में हम वही
करते हैं
जिससे शक्ति
आती है।
तो अगर
संक्षिप्त
में कहें, तो संसार है
शक्ति की दौड़।
बहाने अलग-अलग
होंगे। फिर
शक्ति की दौड़
से जो जागने
लगा, जिसने
उसकी
व्यर्थता
देखी, वही
धर्म की
यात्रा पर
निकलता है। यह
यात्रा
अंतर्यात्रा
है और यहां
शांत होते
जाना है।
शक्ति
की दौड़ का एक
ही परिणाम
होता
है--अशांति।
अब तुमसे मैं
एक बड़ी
विरोधाभासी
बात कहना चाहता
हूं: शक्ति की
दौड़ का एक ही
परिणाम होता
है--अशांति; और शांति की
दौड़ का एक ही
परिणाम है--शक्ति।
लेकिन वह
तुम्हारी
कामना के कारण
नहीं। शांत
व्यक्ति
शक्तिशाली हो
जाता है। पर
यह शक्ति बड़ी
और है! यह
शक्ति
उद्विग्नता
नहीं है--स्वभाव
है। यह
नैसर्गिक
जीवन का
हिस्सा है। यह
किसी से ली
नहीं गयी, किसी
से छीनी
नहीं गई, किसी
को दी नहीं जा
सकती। जब तुम
अपने घर लौट
आते हो और परम
शांति में लीन
होते हो, तो
अचानक तुम
पाते हो शक्ति
का आविर्भाव
हुआ है! लेकिन
यह शक्ति
तुम्हारी
नहीं है।
क्योंकि तुम
तो अशांति के
साथ ही चले
गये। यह शक्ति
परमात्मा की
है।
तुम
मुझे ऐसा कहने
दो: परमात्मा
के अतिरिक्त और
कोई
शक्तिशाली
नहीं है। और
परमात्मा के
अतिरिक्त और
कोई शक्तिशाली
हो भी नहीं
सकता।
वस्तुतः
परमात्मा के
अतिरिक्त
किसी को स्वयं
को "मैं' कहने
का अधिकार
नहीं है। यह
तो कामचलाऊ
है। हम उपयोग
करते हैं "मैं';
लेकिन "मैं'
तो वही कह
सकता है जो
शाश्वत है।
हमारे "मैं' का भरोसा
क्या? घड़ीभर तो टिकता
नहीं! क्षणभर
तो टिकता
नहीं! अभी कुछ,
अभी कुछ!
पानी पर खींची
लकीर है!
तुम जब
मिटते हो...और
तुम उसी समय
मिट जाते हो
जब तुम अशांति
के रास्ते पर
चलना छोड़ देते
हो; अर्थात
जब तुम शक्ति
की खोज छोड़
देते हो, तुम
बिखरने लगते
हो। इसीलिए
बेचैनी है।
"खोपड़ी
बड़ी उद्विग्न
है', प्रश्नकर्ता
ने पूछा है।
"परेशान हूं।
आया था शक्ति
खोजने, यहां
मिली शांति।
चाहता था
प्रभुता, यहां
मिली
शून्यता।'
शून्यता
द्वार है
प्रभु का। तुम
अगर शून्य होने
को राजी हो
गये तो
तुम्हें
प्रभु होने से
कोई भी रोक न
सकेगा। और अगर
तुम शून्य
होने को राजी
न हुए और
तुमने
प्रभुता की
तलाश की, तो
तुम भिखमंगे
रहोगे, तुम
सूने के सूने
रहोगे, खाली
के खाली
रहोगे। इस
विरोधाभास को
अपने हृदय में
बहुत गहरे बैठ
जाने देना, क्योंकि यह
जीवन का
आत्यंतिक
गणित है।
जीसस
ने कहा है: जो
अपने को
बचाएंगे वह
मिट जायेंगे; और जो अपने
को मिटाने को
राजी हैं
उन्हें कोई भी
मिटा नहीं
सकता।
लाओत्सु ने
कहा है: जो
जीतने की
यात्रा पर
निकलेंगे, एक
दिन हारे हुए
पाये जाएंगे;
और जो हारने
को राजी है, उसे कोई हरानेवाला
नहीं।
गुंचा
फिर लगा खिलने
आज
हमने अपना दिल
खूं किया
हुआ देखा
गुम
किया हुआ पाया।
जब उस
शांति की
वर्षा होती है
तो कली फिर खिलने
लगती है।
गुंचा फिर लगा
खिलने! जो
कली आंखों से
बिलकुल ओझल हो
गयी थी, जिसका
पता भी न रहा
था, जो बीज
होकर कहीं
भूमि में खो
गयी थी--वह फिर
अंकुरित हो
आती है।
गुंचा
फिर लगा खिलने
आज
हमने अपना दिल
खूं किया
हुआ देखा।
और
जिसको हम
समझते थे मर
चुका, जिसका
खून हो चुका, वह दिल फिर धड़कने
लगा।
आज
हमने अपना दिल
खूं किया
हुआ देखा
गुम
किया हुआ
पाया!
और जो
खो चुका था, गुम हो चुका
था, वह फिर
मिला।
तो अगर
तुम राजी हो
अपने को
मिटाने को, तो एक दिन
तुम पाओगे: आज
हमने अपना दिल
खूं किया
हुआ देखा!
जिसको हम सोचे
थे कि मर ही
चुका, जिसे
हम छोड़ ही आए
थे दूर कहीं
राह पर, जिस
की हमने अर्थी
सजा दी थी, जिसे
हम दफना आये
थे, या
जिसे हमने
सूली पर चढ़ा
दिया था, जिसे
हम जला चुके
थे--अचानक वह
दिल फिर लहलहाया,
फिर हरा हुआ,
फिर कली
खुली! गुम
किया हुआ
पाया! और जो खो
गया था वह फिर
मिला।
प्रभुता
छोड़ो:
प्रभुता
मिलेगी!
अहंकार छोड़ो:
आत्मा मिलेगी!
अपने को खो दो, मिट जाने दो,
शून्य हो
जाओ: पूर्ण के
तुम पात्र हो
जाओगे। पूर्ण
तुममें
उतरेगा।
तुम्हारे
शून्य में ही उतर
सकता है। जगह
चाहिए न! और
पूर्ण जैसे
मेहमान के लिए
जगह बनानी हो,
तो शून्य से
कम जगह न
पड़ेगी, जरूरी
होगी। इतनी ही
जगह चाहिए।
पूरा शून्य चाहिए,
तभी पूर्ण
उतर सकता है!
पूर्ण, शून्य
में बिलकुल
बैठ जाता है।
पूर्ण
की भी कोई
सीमा नहीं है; शून्य की भी
कोई सीमा नहीं
है। असीम को बुलाओगे
तो असीम होना
ही पड़ेगा। जिस
अतिथि को
तुमने पुकारा
है, उसके
आतिथेय भी तो
बनना होगा!
मेजबान तो
बनना होगा!
जगह तो खाली
करनी होगी!
सिंहासन पर
स्थान तो
रिक्त करना
होगा!
इसलिए
कहता हूं:
शांति! फिक्र छोड़ो
शक्ति की।
शक्ति खोजनेवाले
शक्ति को कभी
नहीं पाते, केवल अशांति
पाते हैं, और
शांति खोजनेवाले
शक्ति को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
फिर
डरो मत।
उसका, उसको ही
लौटा देने में
इतना संकोच
क्या? उसका
उसके ही चरणों
में चढ़ा देने
में इतनी कंजूसी
क्या?
जान
दी, दी हुई
उसी की थी
हक
तो यह है कि हक
अदा न हुआ।
उसी की
दी हुई थी, उसी को वापस
लौटा दी, उसी
को दे दी! एक
लहर उछली सागर
में, वापस
सागर में गिर गई!
जान
दी, दी हुई
उसी की थी
हक
तो यह है कि हक
अदा न हुआ।
सच तो
यह है कि
कर्तव्य-पालन
न हो पाया। यह
क्या खाक बात
हुई, क्या
दिया! जो उसका
था उसी को
लौटा दिया, इसमें
कौन-सा
कर्तव्य पालन
हुआ?
लेकिन
हम बड़े कंजूस
हैं! जिससे
पाया है, उसी
को लौटाने में
बेईमानी कर
जाते हैं।
जिसने बनाया
है, उससे
भी छिपा लेते
हैं। जिससे
पाया है उससे
भी चोरी कर
जाते हैं।
क्या
है तुम्हारे
पास अपना? सांस उसकी!
बहता हुआ
तुम्हारे
शरीर में जल
उसका। देह में
मिट्टी के कण
उसके! देह में
समाया आकाश
उसका! देह में
जीवन की धारा
अग्नि उसकी!
और चैतन्य, वह उसी का
अंश! जैसे
तुम्हारे
आंगन में आकाश
समाया
है--बाहर फैले
आकाश का ही एक
हिस्सा--ऐसे ही
तुममें
चैतन्य समाया
है। विराट
चैतन्य का एक
छोटा-सा कोना,
एक छोटा
आंगन! सब उसका
है।
शून्य
होने से डरते
क्यों हो, घबड़ाते क्यों हो? बूंद की तरह
डरो मत सागर
के किनारे खड़े
होकर, क्योंकि
बूंद अगर सागर
में गिर जाये
तो सागर हो
जायेगी। अगर
किनारे पर पड़ी
रह गयी तो
बूंद ही रह
जायेगी। सीमा तड़फायेगी
तुम्हें।
सीमा दुख
देगी। असीम के
साथ ही सुख हो
सकता है। भूमा
के साथ ही सुख
हो सकता है। अल्प
में कहां सुख,
कैसा सुख?
और घबड़ाओ
मत! तुमने छोड़
दिया सब, तो
तुम यह मत
सोचना कि उसने
तुम्हें छोड़
दिया। तुम
शून्य हुए तो
यह मत सोचना
कि वह तुम्हें
खाली समझकर
तुम्हारे घर
में प्रवेश न
करेगा। खाली
होओगे, तभी
प्रवेश
करेगा। तुमने
सब छोड़ा, तभी
तुमने
पात्रता अर्जित
कर ली। तुमने
सब छोड़ा--अशेष
भाव से! कुछ भी
बचाना मत!
रत्तीभर भी मत
बचाना।
अन्यथा बचाया
हुआ ही बाधा
हो जायेगी।
तुम
स्वयं के और
सत्य के बीच
कुछ भी रहस्य
मत रखना, छिपाना
मत! तुम सब
भांति नग्न हो
जाना। तुम सब भांति
छोड़ देना, फिर
चिंता की बात
नहीं।
मैं, और बज्मे-मै
से यूं तिश्नाकाम
जाऊं
गर
मैंने की थी
तौबा, साकी
को क्या हुआ
था?
साधारण
मधुशालाओं
में तो यह हो
जाता है।
मैं, और बज्मे-मै
से यूं तिश्नाकाम
जाऊं, कि
मैं ऐसा
प्यासा का
प्यासा लौट
जाऊं मधुशाला
से!
गर
मैंने की थी
तौबा, साकी
को क्या हुआ
था? मैंने
अगर कसम खायी
थी कि न
पीऊंगा तो
साकी तो भर ही
दे सकता था
पात्र को!
साकी तो
पिलाने का
आग्रह कर सकता
था! मेरे तौबा
कर लेने से, मेरे कसम खा
लेने से, उसने
तो कसम न खायी
थी, वह तो
मुझे मना, समझा-बुझा
सकता था और
जबर्दस्ती
करता तो हम पी
ही लेते।
साधारण
मधुशाला में
तो ऐसा हो
जायेगा कि
तुमने अगर
तौबा की है तो
तुम तिश्नाकाम
ही वापस जाओगे, प्यासे ही
वापस लौटोगे।
लेकिन उस परम
की मधुशाला
में जिसने छोड़
दिया सब, वह
कभी तिश्नाकाम
नहीं जाता।
जिसने पकड़ा सब,
वही तिश्नाकाम
जाता है।
जिसने सब पकड़ा
वह प्यासा रह
जाता है। तुम पकड़नेवालों
की तरफ तो
देखो! कैसे
प्यासे और
कैसे उदास और
कैसे थके और
हारे रह गये
हैं! तुम जरा
छोड़े हुओं की
तरफ तो देखो!
महावीर, बुद्ध--तुम
उनको तो देखो,
कैसे भर गए
हैं! प्यास
सदा के लिए
मिट गयी है, ऐसी गहन
तृप्ति हुई
है!
उसकी
मधुशाला से
तुम वापिस न
आओगे। अगर
तुमने सब छोड़ा
तो वह तुम्हें
बहुत मनाएगा, बहुत
तुम्हें
पिलाने का
आग्रह करेगा।
तुम अगर सब उस
पर छोड़ दो तो
सब हो जाये।
इसलिए
मैं कहता हूं, शून्य हो
जाओ। शून्य
होने से मेरा
अर्थ यह नहीं
है कि तुम
ना-कुछ हो
जाओ। तुम
ना-कुछ हो।
शून्य में
तुम्हारा यह
ना-कुछपन
मिट जायेगा। धूल
जम गयी है, उसे
तुमने संपदा
समझा है।
शून्य होने
में यह धूल हट
जाएगी और
तुम्हारे
भीतर की संपदा
प्रगट हो
जायेगी।
शून्य होकर ही
तुम पूर्ण को
पाओगे। दूसरा
कोई उपाय नहीं
है।
कहा है, "पुराना
विश्वास बिखर
चुका, नये
का जन्म नहीं
हुआ। अब न
पीछे जा सकता
हूं न आगे ही
बढ़ पाता हूं।'
कहीं
मत जाओ!
पुराना
विश्वास बिखर
चुका, अब
तुम जल्दी मत
करना नये
विश्वास को
बनाने की।
क्योंकि डर यह
है कि सौ में
से निन्यानबे
व्यक्ति, जब
उनका पुराना
विश्वास
बिखरता है तो
नए को फिर
पुराने के ही
ढांचे में बना
लेते हैं।
पुराने से
परिचय होता है।
पुराने से
पहचान होती
है। पुराने के
रंग-ढंग पता
होते हैं।
पुराने की
रूप-रेखा उनके
हाथ में होती
है। फिर नये
विश्वास को वह
पुराने के
ढांचे में ही
बना लेते हैं।
पुराना
विश्वास बिखर
गया है, डरो
मत! तुम मत
ढालना नये
विश्वास को, अन्यथा तुम
फिर पुराने
सांचे में ढाल
लोगे। वही
सांचा तुम
जानते हो। तुम
चुप रहो। तुम
इस बीच की बड़ी
बेचैन अवस्था
में राजी रहो।
और तब तुममें
श्रद्धा का
जन्म होगा। वह
विश्वास नहीं
होगी। वह
तुम्हारी
ढाली हुई न होगी।
यही मैं फर्क
करता हूं
विश्वास और
श्रद्धा में।
विश्वास है
तुम्हारा
ढाला हुआ; क्योंकि
तुम खाली रहने
को राजी नहीं,
कुछ न कुछ
भरने को
चाहिए। सत्य न
सही तो झूठ ही सही।
अपना न सही तो
और का ही सही।
देखा हुआ न सही
तो सुना हुआ
ही सही।
तुम
विश्वास को ढालोगे तो
तुम्हारा ही
ढाला हुआ
विश्वास
होगा। न, यह
गृह उद्योग
सत्य के जगत
में काम न
आयेगा।
पुराना
गिर गया, सौभाग्य!
धन्यभागी
हो! अब जल्दी
मत करो नये को
बनाने की। अगर
तुम इस खालीपन
में थोड़ी देर
रह गए तो नया
उतरेगा; वह
तुम्हारा
बनाया हुआ न
होगा।
धीरे-धीरे तुम
पाओगे, तुम्हारे
शून्य को किसी
प्रकाश ने उतरकर
भर दिया। तुम
तो गर्भ जैसे
हो गए और कोई
जीवन आया और
तुम्हारे
गर्भ में
प्रविष्ट हो
गया। यह
तुम्हारा
बनाया हुआ
पुतला नहीं
है--यह परमात्मा
से आया हुआ
जीवन है।
श्रद्धा
आती है; विश्वास
लाया जाता है।
विश्वास
जबर्दस्ती है;
श्रद्धा
नैसर्गिक है;
श्रद्धा
सहज है। जो
आदमी विश्वास
के बिना रहने
के लिए राजी
है, उसके
जीवन में
श्रद्धा
उतरती है।
विश्वास
का न होना
अविश्वास
नहीं है।
क्योंकि
अविश्वास तो
फिर एक तरह का
विश्वास है।
कोई मानता है, ईश्वर है--यह
भी विश्वास; कोई मानता
है ईश्वर नहीं
है--यह भी
विश्वास। "नहीं'
लगा देने से
कहीं फर्क
पड़ता है? जो
आदमी मानता है
ईश्वर नहीं
है--यह उसकी
धारणा, उसका
शास्त्र। कोई
महावीर को
मानता है, कोई
मुहम्मद
को--कोई
माक्र्स को
मानता है। कोई
गीता को पूजता
है, कोई
कुरान को--कोई
कैपिटल को
पूजता है।
फर्क कुछ भी
नहीं है।
वहां
सोवियत रूस
में पुराने
देवता तो विदा
हो गये, पुराने
धर्म खो गये, पुराने चर्च
खो गये; लेकिन
कम्युनिज्म
का नया चर्च
निर्मित हो
गया है।
कम्युनिस्ट नेताओं
की नयी
प्रतिमाएं
निर्मित हो
गयी हैं। ईश्वर
नहीं है, यही
सिद्धांत हो
गया है
विश्वास का।
बच्चों को रटाया
जाता है। जैसे
ईसाई रटाते
हैं बच्चों को,
जैसे
मुसलमान रटाते
हैं, हिंदू,
जैन रटाते
हैं बच्चों को,
अपनी-अपनी
धारणा--वैसे
ही कम्युनिज्म
अपनी धारणा रटाता है।
लेकिन दोनों
ही विश्वास
हैं।
विश्वास
का अर्थ यही
है: जो तुमने
चेष्टा से करके
पैदा कर लिया
है। मनुष्य
निर्मित का
नाम है
विश्वास। और
जब मनुष्य कुछ
निर्माण नहीं
करता, न
विश्वास न अविश्वास,
न पक्ष न
विपक्ष, खाली
खड़ा रह जाता
है; वह
कहता है, जब
तेरी मर्जी हो
तब भर देना, अगर न भरेगा
तो भी हम राजी
हैं--तब एक दिन
तुम्हारे
शून्य में उस
पूर्ण का आगमन
होता है। तब तुम्हारी
अंधेरी रात
में जलता है
उसका दीया। और
यह तुम्हारा
जलाया नहीं
होता; क्योंकि
तुम्हारा
जलाया तुमसे
बड़ा नहीं हो
सकता।
तुम्हारा
जलाया
तुम्हारा ही
हिस्सा होगा। तुम्हारा
जलाया
तुम्हारा ही
निर्माण
होगा। तुम
परमात्मा को
मौका दो। तुम
थोड़े बीच में
दखलंदाजी न
करो। तुम खड़े
देखते रहो।
यह शुभ
घड़ी है कि
पुराना
विश्वास बिखर
चुका और नया
पैदा नहीं हो
रहा है। करना
भी मत! तुम
जल्दी करोगे, क्योंकि
खाली जगह
अखरती है।
जैसे दांत टूट
जाता है तो
जीभ वहीं-वहीं
जाती है--ऐसा
जब पुराना विश्वास
हट जाता है तो
बार-बार मन
वहीं-वहीं लौटता
है कि जल्दी
विश्वास बनाओ!
घर खाली-खाली लगता
है, बेचैनी
मालूम होती
है। इस बेचैनी
को झेल लेना।
लेकिन
विश्वास अब मत
बनाना। बहुत
तुमने बनाए, कोई काम न
आये।
कितने-कितने
धर्मों में
तुम जी नहीं
चुके हो!
कितने-कितने
शास्त्रों को
तुम पूज नहीं
चुके हो!
कितने-कितने
परमात्मा
तुमने
निर्मित नहीं
किये हैं।
कितनी
प्रतिमाएं तुम्हारी
अर्चना और पूजा
को स्वीकार
नहीं कर चुकी
हैं। लेकिन
क्या हुआ? अब
तुम कह दो कि
अब मैं न
बनाऊंगा। अब
जब प्रकृति ही
उपजाएगी...।
अब कागज और
प्लास्टिक के
फूल नहीं; अब
तो जब असली
फूल आएंगे
तभी। मैं राजी
हूं, प्रतीक्षा
करूंगा।
प्रार्थना
करो, प्रतीक्षा
करो; लेकिन
विश्वास को निर्मित
मत करो। होगा!
धीरज रखो। और
अगर धीरज से हुआ,
अपने-आप हुआ
और तुम सिर्फ
साक्षी रहे, गवाह; बनानेवाले
नहीं, तुमने
सिर्फ जगते
देखा श्रद्धा
को, तुमने
श्रद्धा का
वृक्ष बढ़ते
देखा, तुमने
श्रद्धा में
फूल-फल लगते
देखे, तुम
सिर्फ साक्षी
रहे--तो तुम
पाओगे यह
श्रद्धा मुक्तिदायी
है।
इस
श्रद्धा को ही
महावीर ने
दर्शन कहा है।
दर्शन यानी
जिसको तुमने
देखा, बनाया
नहीं।
श्रद्धा
तुम्हारा
कर्म नहीं है,
दर्शन है।
श्रद्धा
तुम्हारा
कृत्य नहीं है,
तुम्हारा
दर्शन है।
जिसको तुमने
उठते देखा, फैलते देखा,
पूरे आकाश
को भरते देखा,
तुम साक्षी
रहे जिसके--तब
विराट से आयी
श्रद्धा। और
जो विराट से
आती है वह
विराट कर जाती
है। जो क्षुद्र
की है वह
क्षुद्र है।
"अब न पीछे जा
सकता हूं, न
आगे ही बढ़
सकता हूं!'
कोई
जरूरत नहीं
कहीं जाने की।
तुम जहां हो, वहीं डूबने
की जरूरत है।
आगे-पीछे की
भाषा मन की
है। आगे-पीछे
की भाषा
महत्वाकांक्षा
की है। आगे-पीछे
की भाषा:
प्रगति हो रही
कि नहीं, गति
हो रही कि
नहीं, कहीं
जा रहा हूं कि
नहीं! जाना
कहां है? जो
हो, वहीं
ठहर जाना है!
जो हो, उसमें
ही लवलीन हो
जाना है। जो
हो, उसमें
ही तल्लीन हो
जाना है। अपने
में डूबना है,
जाना कहां
है? सब
जाना बाहर है।
घर आना है!
और तुम
यह मत सोचना
कि घर आने के
लिए भी कहीं
जाना होगा। घर
तो तुम हो ही।
जरा बेचैनी छोड़ो, विचार
छोड़ो, तो
अचानक तुम
पाओगे कि इस
घर को तुमने
कभी छोड़ा ही
नहीं; तुम
सदा ही इसमें
थे। खयालों
में ही छोड़ा
था वस्तुतः
कभी नहीं छोड़ा
था।
बोधिधर्म
जब जाग्रत हुआ
तो हंसने लगा, खूब हंसने
लगा! उसके
आसपास के और
भिक्षुओं ने पूछा
कि तुम पागल
तो नहीं हो
गये हो, हुआ
क्या है? उसने
कहा, मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि जिसको
मैं खोजता था जन्मों-जन्मों
से, उसे
कभी खोया नहीं
था। खूब मजाक
रही!
तुम्हीं
सोचो कि
वर्षों तक तुम
खोजते रहे
किसी चीज को
और आखिर में
खीसे में हाथ
डाला और वहां
पायी! और खीसे
में तुमने
खोजा ही नहीं
अब तक; क्योंकि
यह खयाल ही
नहीं उठा कि
खीसे में भी हो
सकती है।
तुम्हारी
संपदा तुम हो।
तुम्हारी
संपदा तुम्हारे
भीतर इसी क्षण
मौजूद है।
कहीं न जाओ--न
आगे न पीछे, न उत्तर न
दक्षिण, न
पश्चिम न पूरब,
न नीचे न
ऊपर--दसों
दिशाओं को छोड़
दो। दसों दिशाओं
को छोड़कर जो
खड़ा हो जाता
है, उस
अवस्था को
महावीर कहते
हैं समाधि। वह
आ गया घर!
वापसी हो गयी!
उसने जान लिया
उसे--जिसका
विस्मरण हो
गया था।
यह भी
खयाल रख लेना:
तुम चाहते हो
मुझे कि मैं
तुम्हें कुछ चलाऊं, दौड़ाऊं,
कहीं
पहुंचाऊं, तुम्हें
कोई ज्वर दूं,
तुम्हें
कोई तड़फ
दूं, उत्साह
दूं।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं, जरा
हमें उत्साह
दें--उत्साह
ढीला पड़ा जा
रहा है।
उत्साह किसलिए?
तुम कोई
सैनिक नहीं हो
कि कहीं युद्ध
पर जा रहे हो।
तुम संन्यासी
हो, अपने
घर आ रहे
हो--उत्साह
कैसा?
लेकिन
लोगों को
उत्साह चाहिए, दौड़ने के
लिए उत्साह
जरूरी है, रुकने
के लिए उत्साह
की जरूरत है? रुकने के
लिए तो उत्साह
बाधा भी बन
सकता है। क्योंकि
वह तुम्हें दौड़ाए
रखेगा। शांत
बैठ जाना
है--कैसा उत्साह?
कहीं जाना
नहीं, ऊर्जा
का कोई उपयोग
नहीं करना है।
जैसे शांत झील
हो, ऐसे हो
जाना
है--जिसमें
तरंग नहीं
उठती, लहर
नहीं उठती।
लेकिन
तुम डरते हो।
तुमने अब तक
तो जिसको जीवन
जाना है, वह
दौड़-धूप है, आपा-धापी
है। तुमने
उसके
अतिरिक्त कोई
जीवन नहीं
जाना। तुमसे अगर
कोई बैठने को
कहे तो लगता
है, यह तो
मरने जैसा हो
गया; इसमें
जीवन कहां है?
लेकिन मैं
तुमसे कहता
हूं, जीवन
तुम्हारे
भीतर है। उसे
दौड़-धूप करके
तुम न पा
सकोगे। जब
दौड़-धूप से थक
जाओगे, बैठ
जाओगे, और
कहोगे, अब
कहीं जाने की
कोई इच्छा न
रही--तत्क्षण
तुम पाओगे कि
वह मिल गया।
दूसरा
प्रश्न:
दर्शन
के तत्क्षण
बाद घटी घटना
को ही क्या
भजन कहते हैं? कृपा करके
समझाएं।
"दर्शन' महावीर की
साधना-पद्धति
का शब्द है; "भजन' उनकी
साधना-पद्धति
का शब्द नहीं।
दर्शन के बाद
तो महावीर
कहते हैं, ज्ञान
घटता है।
ज्ञान के बाद
चारित्र्य घटता
है। भजन की
कोई जगह
महावीर की
विचार-शृंखला
में नहीं है।
भजन भक्तों की
परंपरा का
शब्द है।
दोनों को जोड़ने
की कोशिश मत
करो, अन्यथा
तुम और उलझ
जाओगे। दोनों
को अलग-अलग ही
रखो। दोनों
सही हैं; पर
अलग-अलग सही
हैं; अलग-अलग
यंत्रों के
अंग हैं।
महावीर
के मार्ग पर भजन
जैसी कोई जगह
नहीं है।
क्योंकि भजन
का अर्थ होता
है: उत्सव।
भजन का अर्थ
होता है:
प्रभु-नाम-स्मरण।
भजन का अर्थ
होता है:
तल्लीनता।
भजन का अर्थ
होता है:
बेहोशी, बेखुदी।
भजन तो ऐसा है
जैसे कोई भीतर
की शराब, पीये
और मस्त हो
गये! भजन तो
नृत्य है, गुनगुनाना
है, गीत
है।
महावीर
के मार्ग पर
भजन जैसी कोई
चीज नहीं है।
वह मार्ग
बिलकुल
भजन-शून्य है।
इसलिए
अगर महावीर के
मार्ग के शब्द
"दर्शन' का
उपयोग कर रहे
हो तो भजन को
भूल जाओ।
महावीर कहते
हैं, दर्शन
से होगा ज्ञान,
बोध। भजन तो
है अबोध।
महावीर कहते
हैं, होगा
ज्ञान। महावीर
कहते हैं, आयेगी
जागृति। भजन
तो है गहरी
आत्म-विस्मृति,
तल्लीनता।
और महावीर
कहते हैं, ज्ञान
से चारित्र्य
रूपांतरित
होगा।
भजन है
भक्तों का
शब्द। उसे भी
समझ लेना
जरूरी है। भजन
के लिए दर्शन
जरूरी नहीं।
भजन के लिए भाव
जरूरी है।
महावीर का
"दर्शन' पाना
हो तो निर्भाव
होना जरूरी
है। वे विपरीत
रास्ते हैं। वहां
सारे भाव का
त्याग कर देना
है। वहां तो भाव
राग है। वहां
तो प्रेम भी
बंधन है। भक्त
के मार्ग पर
भाव प्रारंभ
है: भाव, भजन,
भगवान! वहां
न ज्ञान, न
दर्शन, न
चारित्र्य।
भक्त को
चरित्र
इत्यादि की
चिंता ही
नहीं। वह कहता
है, "चरित्र
उसका, हमारा
क्या? उसकी
जैसी मर्जी!
वह जैसा नाच
नचाये!' भक्त
तो कहता है, "हम तो
कठपुतली की
भांति हैं; धागे उसके
हाथ में हैं!
वह जो बनाये
हम बन जाते हैं।
लीला उसकी है।
सारा नाटक
उसका रचा हुआ
है। हम तो
केवल पात्र
हैं नाटक
में--राम बना
देता है, राम
बन जाते हैं; रावण बना
देता है, रावण
बन जाते हैं।'
भक्त
की भाव-दशा
बड़ी अलग है।
तो भक्त प्रेम
से चलता है, भाव से चलता
है। भाव ही
सघन होकर
भक्ति बनती है।
और भक्ति जब
प्रगट होती है
फूलों की तरह,
तो भजन।
भाव से
शुरुआत है। जब
भाव बहुत गहन
होने लगता है, इतना गहन
होने लगता है
कि भाव
करनेवाला
धीरे-धीरे भाव
में डूब जाता
है, अलग
नहीं रह
जाता--तो
भक्ति। और
भक्ति जब इतनी
सघन होती है
कि स्वयं का
तो दिखायी पड़ना
बिलकुल बंद हो
जाता है, स्वयं
की जगह
परमात्मा की
प्रतीति होने
लगती है, चारों
तरफ उसका
दर्शन होने
लगता है--तो भगवान।
और भगवान को
पा लेने की जो
खुशी है, वह
भजन है। उसको
पा लेने से जो
नाच पैदा होता
है कि मिल गया!...
आर्किमिडीज
के जीवन में
एक कथा है कि
वह एक
वैज्ञानिक
खोज कर रहा
था। अपने टब
में बैठा था
स्नान करने, तब उसको सूझ
आ गयी। तो
नग्न बैठा था
स्नानागार
में, छलांग
लगाकर उठा।
भूल ही गया कि
नग्न हूं। भूल
ही गया कि
स्नानागार
है। खोज का
मजा ऐसा था कि दौड़ा
सड़कों पर और
चिल्लाया: "इरेका! मिल
गया!' राजमहल
पहुंच गया
नंगा, भीड़
लग गयी।
सम्राट ने भी
कहा कि "तुम
पागल हो गये
हो! मिल भी गया
तो इतने पागल
होने की क्या
बात है? नग्न
क्यों हो?' तब
उसे याद आया।
उसने कहा, "क्षमा
करें! मिलने
का क्षण इतना
गहन था कि मैं भूल
ही गया; अपना
मुझे होश ही न
रहा।'
तो भजन
तो ऐसा क्षण
है: इरेका!
मिल गया!
जब
भगवान की पहली
दफा झलक मिलती
है, जब उसकी
छवि पहली दफा
दिखाई पड़ती है,
जब उसका रूप
पहली दफा प्रगट
होता है, जब
उसकी सुगंध
नासापुटों
में पहली बार
भरती है--इरेका!--तो
भक्त नाच उठता
है, गुनगुना
उठता है, आंसुओं
की धार बह
जाती है--आनंद
के आंसुओं की!
सम्हाले नहीं
सम्हलता!
मस्ती भर जाती
है! प्याला
छलकने लगता
है!--तो भजन!
भजन
बिलकुल दूसरी
धारा का
हिस्सा है। दोनों
धाराएं
पहुंचा देती
हैं, लेकिन
दोनों के
रास्ते बड़े
अलग-अलग हैं।
शेख
काबे से गया
उस तक बिरहमन
दैर से
एक
थी दोनों की
मंजिल फेर था
कुछ राह का।
लेकिन
वह कुछ फर्क
बड़ा फर्क है!
कोई मस्जिद से
गया, कोई
मंदिर से गया;
कोई तप से
गया, कोई
भाव से
गया--थोड़ा-सा
फर्क है; लेकिन
थोड़ा-सा फर्क
भी बहुत बड़ा
फर्क है। पहुंचकर
तो सब रास्ते
उसी पर मिल
जाते हैं।
लेकिन बीच में
बड़े-बड़े अंतर
हैं। और बीच
में तुम दो रास्तों
के बीच अपने
को डांवांडोल
मत करना। दो नावों
पर कभी सवार
मत होना।
यद्यपि दोनों
नावें उसी
किनारे
पहुंचा देंगी;
लेकिन दो
नावों पर सवार
आदमी मुश्किल
में पड़ जाता
है। एक ही नाव
पर सवार हुआ
जा सकता है।
इसका यह भी
अर्थ नहीं है
कि तुम यह
घोषणा करो और चिल्लाओ
और मानो कि
मेरी ही नाव पहुंचाती
है। वह भी
पागलपन है। वह
भी कमजोरी है।
जो आदमी कहता
है मेरी ही
नाव पहुंचाती
है, उस आदमी
को संदेह है
अभी। उसे अपनी
नाव पहुंचाएगी,
इसमें
संदेह है।
चिल्ला-चिल्लाकर
वह विश्वास
जगा रहा है।
वह कहता है, "कहां जा रहे
हो दूसरी नाव
में? यह
कभी न पहुंचाएगी।
आओ, मेरी
ही नाव पहुंचाती
है!' वह डरा
है अपने से कि
कहीं दूसरी भी
नाव पहुंचाती
हो तो उसका
खुद का इस नाव
में बैठना
मुश्किल हो
जाएगा।
तुम
हैरान होओगे!
जो लोग दूसरों
को कनवर्ट करने
चलते
हैं--जैसे
ईसाई हिंदुओं
को ईसाई बनाने
में लगे रहते
हैं, आर्य
समाजी
ईसाइयों को
हिंदू बनाने
में लगे रहते
हैं--ये सब
संदिग्ध लोग
हैं; इनको
अपनी नाव पर
भरोसा नहीं
है। ये जब तक
दूसरे की नाव
खाली न करवा
लें तब तक
इन्हें भरोसा
नहीं। ये कहते
हैं, दूसरी
भी नावें हैं,
इनमें भी
लोग जा रहे
हैं--कहीं ये
लोग पहुंच तो नहीं
जाते! ये खुद
तो पहुंचे
नहीं हैं अभी।
इनकी नाव कहीं
जाती नहीं
मालूम हो रही
है इनको। दूसरे!
तो दो ही उपाय
हैं या तो ये
सही हैं, या
हम सही हैं।
अगर ये सही
हैं तो हमको
अपनी नाव में
से उतरना
पड़ेगा। अगर हम
सही हैं तो
इनको इनकी नाव
से उतार लें।
सारी
दुनिया में
धर्मों के बीच
जो संघर्ष चलता
है वह स्वयं
की नाव पर
विश्वास नहीं
है, इसलिए
चलता है।
दूसरे को जब
तुम समझाने
जाते हो तब तुम
गौर करना:
कहीं तुम
दूसरे के
बहाने अपने को
ही तो नहीं
समझा रहे हो? कहीं दूसरे
के बहाने अपने
ही संदेहों को
तो शांत नहीं
कर रहे हो? जब
तुम दूसरे को
समझाने में
राजी हो जाते
हो कि तुम सही
हो, तो
तुम्हें बड़ा
हलकापन मालूम
होता है, तुमने
खयाल किया।
क्यों? एक
बोझ था भीतर:
कौन जाने हम
गलत हों!
दूसरे को समझा
लिया, चलो
एक आदमी और
राजी हो गया!
अपने पर तो
भरोसा नहीं था;
अब एक और
राजी हो गया, शायद ठीक
हों! दो राजी
हो गये, तीन
राजी हो गये, भीड़ इकट्ठी
हो गयी, तो
भरोसा पक्का
हो गया कि
नहीं, हम
गलत कैसे हो
सकते हैं!
इतने लोग कैसे
राजी हो जाते!
हो सकता था हम
भूल में होते,
लेकिन इतने
लोग! इतने लोग
तो भूल में
नहीं हो सकते!
दूसरे
को कनवर्ट
करने की
चेष्टा में
अपने ही अविश्वासों
को, संदेहों
को शांत करने
की चेष्टा
छिपी है। इसलिए
लोग चिल्लाते
हैं कि बस यही
मार्ग।
महावीर
के मार्ग पर
बहुत लोग नहीं
गये, क्योंकि
महावीर ने कहा
सभी मार्ग सही
हैं।
जैन अब
हिम्मत नहीं
करते यह कहने
की कि सभी मार्ग
सही हैं। वह
हिम्मत छोड़ दी
उन्होंने। अब
तो वे कहते
हैं यही मार्ग
सही है। और
कभी-कभी कैसी
विडंबना हो
जाती है!
मैं एक
जैन मुनि से
बात कर रहा
था। तो मैंने
उनसे कहा कि
जैन धर्म तो
स्यादवाद को
मानता है। जैन
धर्म तो कहता
है, और भी सही
हैं। जैन धर्म
का तो यह कहना
है, "यही
सही है', यह
दृष्टि गलत
है। "यह भी सही
है', यह
दृष्टि सही
है। वह भी सही
है, यह भी
सही है। यह ही
सही है, ऐसे
आग्रह में तो
दूसरे सब गलत
हो जाते हैं।
उन्होंने कहा
कि निश्चित, स्यादवाद का
यही अर्थ है।
फिर थोड़ी बात
चलती रही।
इधर-उधर की
मैंने उनसे
बात की, फिर
थोड़े भूल गये
वे तो मैंने
उनसे कहा कि
स्यादवाद के
विपरीत अगर
कोई हो, उसके
लिए क्या कहियेगा?
वह भी सही
है? "कभी
नहीं,' उन्होंने
कहा, "ऐसा
कैसे हो सकता
है? स्यादवाद
के जो विपरीत
है वह कभी सही
नहीं हो सकता।'
स्यादवाद
का मूल आधार
ही यही है कि
जो मेरे विपरीत
है वह भी सही
हो सकता है।
महावीर का
आकाश बड़ा
विराट है। वे
कहते हैं, इतना बड़ा
विराट आकाश है
तो इतनी
छोटी-छोटी पगडंडियों
पर तुम
चिल्लाते हो,
यही सही है?
तुम पगडंडी
के नाप को
आकाश का नाप
बना देते हो? तुम पहुंचने
के संकीर्ण
मार्ग को
मंजिल बना देते
हो? मंजिल
बहुत बड़ी है।
सब तरह के
मार्ग वहां
समाविष्ट हो
जाते हैं।
ऐसा
समझो कि गंगा
बह रही है, नर्मदा भी
बह रही है।
गंगा बह रही
है पूरब की तरफ,
नर्मदा बह
रही है पश्चिम
की तरफ। अगर
दोनों का
रास्ते में मिलना
हो जाये तो
बड़ी मुश्किल
हो जाये।
क्योंकि गंगा
कहे, मैं
सागर की तरफ
जाती हूं, तू
पागल कहां जा
रही है उलटी; और नर्मदा
भी कहे, मैं
भी सागर की
तरफ जाती हूं,
तुम्हें
कुछ अड़चन हो
गयी है...
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक ट्रेन में
सवार हुआ। वह
अपना बिस्तर
वगैरह लगाकर
ऊपर की बर्थ
पर लेटने ही
जा रहा था कि
कुछ याद आ गयी
तो उसने नीचे
की सीट पर
लेटे आदमी से
पूछा, भाई
साहब! आप कहां
जा रहे हैं? तो उस आदमी
ने कहा, कलकत्ते जा रहा हूं।
मुल्ला बोला,
हद्द हो
गयी! हम तो
बंबई जा रहे
हैं। विज्ञान
का चमत्कार तो
देखो कि एक
सीट कलकत्ता
जा रही है, एक
सीट बंबई जा
रही है!
अब
गंगा और
नर्मदा का अगर
मिलन हो जाये
तो बड़ी मुश्किल
हो गयी। दोनों
सागर की तरफ
जा रही हैं और
दोनों सागर
में ही जा रही
हैं। सब जाना
सागर की तरफ
है।
मैं तो
तुमसे कहता
हूं, जो संसार
की तरफ जा रहा
है वह भी जरा
लंबे रास्ते
से परमात्मा
की ही तरफ जा
रहा है।
क्योंकि सब
जाना उसकी तरफ
है--देर-अबेर!
मैं तो तुमसे
कहता हूं, जिसने
वेश्या के
द्वार पर
दस्तक दी है, उसने भी
अनजाने मंदिर
के द्वार पर
ही दस्तक दी
है--थोड़ी दूर
से दस्तक दी
है। लेकिन
वेश्या के पास
भी वह मंदिर
को ही खोजने
गया है, क्योंकि
प्रेम खोजने
गया है। मिले
न मिले, दूसरी
बात। लेकिन
आकांक्षा तो
उसी की है।
खुद भी परिचित
न हो, यह भी
हो सकता है।
गलत दिशा में
टटोलता हो, यह भी हो
सकता है।
लेकिन भीतर जो
खोज चल रही है,
वह तो उसी
की चल रही है।
सभी सागर की
तरफ जा रहे
हैं। और सभी
पहुंच जाते हैं,
क्योंकि
सागर ने सब
दिशाओं से
घेरा है। सागर
की कोई दिशा
नहीं है। ऐसे
परमात्मा की
कोई दिशा नहीं
है।
तो
ध्यान रखना, भजन से भी
लोग पहुंचते
हैं, भाव
से भी पहुंचते
हैं। पर भाव
की नाव अलग
है। उसकी चाल
अलग है। उसकी पतवार
अलग है। उसका
रंग-ढंग अलग
है। वह बड़ी सजी-संवरी है।
महावीर
की नाव बड़ी
भिन्न है। जरा
भी सजी-संवरी
नहीं है। वहां
भाव को कोई
जगह नहीं है।
वहां शुद्ध
विचार और
ध्यान है।
वहां भूलना
नहीं है, स्मरण
रखना है। भाव
में भूलना है,
स्मरण नहीं
रखना है। भाव
में आत्मविस्मृति
करनी है। और
महावीर के
मार्ग पर आत्मस्मृति
जगानी है। बड़े
विपरीत हैं।
एक पूरब जा
रहा है, एक
पश्चिम जा रहा
है--एक नर्मदा,
एक
गंगा--लेकिन
दोनों सागर
में पहुंच
जाते हैं! और
सागर में
पहुंचकर
दोनों सागर हो
जाते हैं।
भजन
विधायक
जीवन-दृष्टि
है; दर्शन
नकारात्मक
जीवन-दृष्टि
है।
तू
और तेरी चंचल
सखियां, जब
पानी भरने
जाती हैं
तब
साये धानी
होते हैं, तब धूप
गुलाबी होती
है।
वह जो
भक्त है, वह
प्रत्येक खेल
में परमात्मा
को देख रहा
है।
तू
और तेरी चंचल
सखियां जब
पानी भरने
जाती हैं
तब
साये धानी
होते हैं, तब धूप
गुलाबी होती
है।
धूप भी
गुलाबी हो
जाती है, साये
भी धानी हो
जाते हैं। और
जो भी जा रहा
है पनघट की
तरफ, वह
वही है--उसकी
चंचल सखियां
हैं।
सारा
जगत अनेक-अनेक
रूपों में उसी
की लीला है।
जिसने उसे
पहचानना शुरू
कर दिया, वह
हर जगह उसे
पहचान लेगा।
मोहतसिब
की खैर ऊंचा
है उसी के फैज
से
रिंद
का, साकी का,
मय का, खुम का,
पैमाने का
नाम।
भक्त
तो कहता है, भगवान है रसाध्यक्ष
उस मधुशाला
का! इस जीवन की
मधुशाला का रसाध्यक्ष!
और उसी की
कृपा का फल
है।
रिंद
का, साकी का,
मय का, खुम का,
पैमाने का
नाम
--इन
सबके नामों की
महिमा उसी के
कारण है!
मोहतसिब
की खैर ऊंचा
है उसी के फैज
से।
--उस रसाध्यक्ष
की अनुकंपा कि
उसी की
अनुकंपा से
रिंद का, पियक्कड़ का...।
भक्त
तो पियक्कड़
है। वह तो
भगवान की शराब
पी रहा है।
जीवन को तो उसने
मधुसिक्त
भाव से देखा
है। "प्यारे' को पहचानने
की तरह उसने
जीवन की खोज
की है। वह सत्य
की खोज में
नहीं
है--"प्यारे' की खोज में
है! महावीर
सत्य की खोज
में हैं। "प्यारा'
शब्द उनके
ओंठ से
निकलेगा भी
नहीं।
मोहतसिब
की खैर ऊंचा
है उसी के फैज
से
रिंद
का, साकी का,
मय का, खुम का,
पैमाने का
नाम।
जिस
गागर में सागर
भरी, जिस गागर
में मधु का
सागर भरा है, जिस पात्र
में मधु पड़ा
है, जो पिलानेवाला
है, जो पीनेवाला
है--इन सबकी
महिमा उसी के
कारण है--उसकी
ही अनुकंपा से
है!
भक्त
की भाषा सुरा
की, सुगंध की,
संगीत की
भाषा है। भक्त
की भाषा प्रेम
की, प्रियतम
की, प्रियतमा
की भाषा है।
भक्त की भाषा
रास की, रस
की भाषा है।
भजन का
अर्थ है: जो
डूबा! भजन का
अर्थ है:
जिसने अपने को
खोया! भजन का
अर्थ है:
जिसने अपने को
छोड़ा उसके हाथ
में! भजन का
अर्थ है: जो
उसके आसपास
नाचा और रास
में सम्मिलित
हुआ। भक्त को
तो लगता है: यह
सारा खेल, यह सारी
लीला, चाहे
कैसा ही ढंग
रखती हो--यह
कोयल की कुहू-कुहू,
ये वर्षा के
बादल, यह
वर्षा की
रिमझिम
टाप--यह सब
अनेक-अनेक
रूपों में उसी
का आगमन है! यह
उसी के पैरों
में बंधे हुए घुंघरुओं
की आवाज है!
भक्त
संसार को
सिर्फ संसार
की तरह नहीं
देखता--परमात्मा
की
अभिव्यक्ति
की तरह देखता
है। यह उसका
प्रगट रूप है।
यह उसी चित्रकार
का चित्र है।
ये रंग उसी के
हाथ ने फैलाए
हैं। ये गीत
उसी ने रचे
हैं। वेद कहते
हैं: यह काव्य
उसी का है! यह
वही गुनगुनाया
है! वही
गुनगुना रहा
है!
साधक
के मार्ग पर
संसार और सत्य
विपरीत हैं। संसार
से हटना है
अगर सत्य में
जाना हो।
भक्त
के मार्ग पर
संसार सत्य का
ही परिधान है, उसी की
वेषभूषा है।
ये जो मोर नाच
रहे हैं, ये
मोर-पंख उसी
के मुकुट पर
लगे हैं। यह
जो बांसुरी बज
रही है, चाहे
तुम्हें उसके
ओंठ दिखायी
पड़ते हों न
दिखायी पड़ते
हों, यह
बांसुरी उसी
के ओंठों पर
रखी है; नहीं
तो कभी की
बजनी बंद हो
जाती।
मय
भी है, मीना
भी है, सागर
भी है, साकी
नहीं
जी
में आता है
लगा दें आग मयखाने
को हम।
और अगर
तुम्हें
दिखायी न पड़े
वह, तो फिर
ऐसा लगेगा कि
संसार में आग
ही लगा दो।
मय भी
है, मीना भी
है, सागर
भी है, साकी
नहीं--सब है
लेकिन पिलानेवाला
नहीं है, ढालनेवाला नहीं, साकी
नहीं है।
जी
में आता है
लगा दें आग मयखाने
को हम!
तो फिर
यह सब व्यर्थ
है। लेकिन अगर
उसके हाथ तुम्हें
दिखायी पड़
जायें कि उसी
ने ढाली है
सुरा, तो
फिर सुरा भी
अमृत है। अगर
उसके हाथ
दिखायी पड़
जायें तो जहर
भी अमृत है!
क्योंकि उसके
हाथों में जहर
हो ही कैसे
सकता है!
भक्त
की दृष्टि बड़ी
अलग है। भक्त
की दृष्टि को
तुम साधक की
दृष्टि के साथ
गडमगड्ड
न करना।
उन्हें
अलग-अलग रखना, साफ-सुथरा
रखना। फिर
तुम्हें जो
प्रीतिकर लगे,
उस पर चले
जाना; मगर
मन में कभी भी
यह खयाल मत
रखना कि दूसरा
गलत है। अगर
तुमने यह सोचा
कि दूसरा गलत
है तो मैं
तुमसे कहूंगा:
तुम्हें अपने
मार्ग पर
संदेह है।
दूसरे से
तुम्हें क्या
लेना-देना? होगा, वह
भी ठीक होगा।
और अगर उसे
वहीं से आनंद
के द्वार खुल
रहे हैं, तो
तुम कौन हो रोकनेवाले?
और अगर उसे
वहीं से
परमात्मा की
पहचान आ रही है,
तो तुम कौन
हो बाधा डालनेवाले?
सत्य के
एकाधिकारी, मोनोपोलिस्ट मत बनना।
इसी तरह
दुनिया में
धर्म नष्ट हुआ,
क्योंकि
सभी धर्म सत्य
के एकाधिकारी
बन गये। और जब
भी धर्म सत्य
का एकाधिकारी
बनता है, भ्रष्ट
हो जाता है; संप्रदाय रह
जाता है; धर्म
मर जाता है, लाश रह जाती
है। सत्य पर
किसी की बपौती
नहीं है। यही
महावीर का
स्यादवाद है।
सत्य सबका है;
सब ढंगों से
पाया जा सकता
है; सब
मार्गों से
पाया जा सकता
है। ऐसा अगर
तुम कह पाओ तो
उसका अर्थ
हुआ: कि
तुम्हें अपने
मार्ग पर
श्रद्धा है, श्रद्धान है। इसलिए
तुम्हें
दूसरे के
मार्ग को गाली
देने की जरूरत
नहीं।
तुम्हें अपने
मार्ग पर इतना
भरोसा है कि
इस भरोसे को
दूसरे को गाली
दे दे कर
बढ़ाने की
जरूरत नहीं
है। तुम अपने
मार्ग के
प्रति इतने
आश्वस्त हो कि
अगर सारी
दुनिया भी
तुम्हारे
मार्ग को छोड़
दे तो तुम
अकेले ही गीत
गुनगुनाते
चले जाओगे।
इससे कुछ फर्क
न पड़ेगा।
तुम्हें भीड़
की अपेक्षा
नहीं है, जरूरत
नहीं है।
कमजोर
आदमी को भीड़
की जरूरत है।
भरोसे की कमी हम
भीड़ से पूरा
कर लेते हैं।
कमजोर आदमी को
परंपरा की
जरूरत है। तो
हम कहते हैं, पांच हजार
साल पुरानी है
हमारी परंपरा!
इस तरह भीड़ को
हम पांच हजार
साल पुराना
बना देते हैं।
भीड़ दो
तरह से हो
सकती है--या तो
अभी हो; जैसी
ईसाइयों के
पास है। एक
अरब आदमी! तो
वे जरा अतीत
की बात नहीं
करते, क्योंकि
अतीत की कोई
जरूरत
नहीं--भीड़ अभी
है। फिर भीड़
को बढ़ाने का
दूसरा ढंग यह
है कि हिंदू कहते
हैं हमारा
धर्म सनातन
है! माना कि हम
बीस ही करोड़
हैं, इससे
क्या होता है;
लेकिन हम
सनातन से हैं।
तो उन सारे
लोगों को जोड़
लो जो अब तक
हिंदू रहे, तब तुम्हें
पता चलेगा कि
हिंदुओं की
भीड़ कितनी है!
जिनके
पास ये दोनों
उपाय नहीं, वे कहते हैं,
"भविष्य!
अभी छोड़ो--अतीत!'
नये-नये
धर्म जब पैदा
होते हैं, तो
वे भविष्य की
बात करते हैं।
वे कहते हैं, भविष्य
हमारा है।
अतीत रहा होगा
तुम्हारा! लेकिन
अतीत की सीमा
है। जो हो
चुका उसकी
सीमा है। जो
अभी नहीं हुआ,
वह असीम है।
हमारी भीड़ कल
देखना! तुम तो
गये-गुजरे हो!
सूर्यास्त हो
रहा है! डूबते
सूरज को कौन
नमस्कार करता
है! तुम इस नये
सूरज को देखो!
तो नये
धर्म जब पैदा
होते हैं तो
वे भविष्य की
बात करते हैं।
क्योंकि वह ही
एक रास्ता है
भीड़ को बढ़ाने
का। उनके पास
न अतीत है, न भीड़ आज
मौजूद है।
लेकिन
मैं धार्मिक
आदमी उसको
कहता हूं, जिसे भीड़ की
जरूरत
नहीं--किसी भी
रूप में, अभी,
कल या कभी!
जो कहता है, अकेला काफी हूं।
अकेला भी चला
तो भी पहुंच जाऊंगा।
उसके और
परमात्मा के
बीच सीधा
संबंध है; भीड़
के माध्यम से
नहीं है।
और
अच्छा ही है
कि इतने मार्ग
हैं क्योंकि
इतने प्रकार
के मनुष्य
हैं। एक-एक
व्यक्ति इतना
भिन्न है कि
यह बड़ा कठिन
हो जाता कि एक
ही मार्ग होता।
तो कुछ लोग तो
जाते, कुछ
और लोग इसलिए
ही न जा पाते
क्योंकि वह उस
मार्ग पर ठीक
न बैठते।
तुमने
खयाल किया!
स्कूल में
बच्चे पढ़ते
हैं। चूंकि
हमने मान रखा
है कि जो
बच्चा गणित
में होशियार
है वही
होशियार! तो
जो बच्चा गणित
में होशियार
नहीं वह गधा
हो जाता है।
तुम जरा एक दूसरी
दुनिया सोचो!
जल्दी ही वह
दुनिया आयेगी, जबकि गणित
की बहुत जरूरत
न रह जायेगी।
कंप्यूटर
पैदा हो गये
हैं। आनेवाली
सदी में
छोटे-छोटे
बच्चे भी
कंप्यूटर
अपनी जेब में
रख सकेंगे। गणित
का बड़े से बड़ा
सवाल
कंप्यूटर
क्षण में पूरा
कर देगा। उसके
लिए करने की
जरूरत न रह
जायेगी। तो
गणित की
प्रतिभा
समाप्त हो
जायेगी। तब हम
कहेंगे, जो
बच्चा काव्य
में गुणवान है
वह
प्रतिभा-संपन्न
है। तब सारा
नक्शा बदल
जायेगा।
अभी जो
बच्चा गधा है
वह भविष्य में
गुणवान हो सकता
है; और अभी जो
गुणवान है, भविष्य में
व्यर्थ हो
सकता है। जब
मूल्य बदलते
हैं तो लोगों
की स्थिति बदल
जाती है।
तुमने
देखा!
जैसे-जैसे
मूल्य बदलते
जाते हैं, वैसे-वैसे
स्थिति बदलती
जाती है। अगर
धर्म भी ऐसा
हो कि किन्हीं
खास लोगों के
पहुंचने के लिए
हो जाये तो
उतनी ही
संकीर्ण हो
जायेगी धारा;
फिर बहुतों
का क्या होगा,
जो उस तरह
से नहीं जा
सकते? उनकी
तो सोचो। अगर
महावीर का ही
अकेला मार्ग हो,
तो जो बिना
नाचे नहीं जा
सकते, उनका
क्या होगा? यह तो बड़ी
कंजूसी हो
जायेगी सत्य
के ऊपर। यह तो
सत्य का बड़ा
संकीर्ण रूप
हो जायेगा। जो
नाचकर पहुंच
सकते हैं, उनकी
भी तो जगह
होनी चाहिए!
अगर नाचकर ही
पहुंचने की
जगह हो और
चुपचाप शांत बैठनेवालों
के लिए जगह न
रह जाये तो भी
बात जरा अशोभन
हो जायेगी।
निकलकर
दैरो-काबा
से अगर मिलता
न मयखाना
तो
ठुकराए हुए इन्सां
खुदा जाने
कहां जाते!
अगर
मंदिर और
मस्जिद से
जिनका मन नहीं
बैठता, अगर
शास्त्र से, परंपरा से
जिनका मन नहीं
बैठता, उनके
लिए अगर कोई
और मार्ग न
होता...अगर
मिलता न मयखाना,
तो ठुकराए
हुए इन्सां
खुदा जाने
कहां जाते!
नहीं, लेकिन सभी
के लिए मार्ग
है। उसने
तुम्हें बनाया,
उसी दिन
तुम्हारा
मार्ग भी
तुम्हारे
भीतर रख दिया
है। जरा
पहचानो!
चल-चलकर थोड़ा
देखो! अपनी चाल
पहचानो! वही
मौलिक है। फिर
उस चाल से जिस
धर्म का मेल
बैठ जाता हो, वही
तुम्हारा
धर्म है। फिर
जन्म की फिक्र
छोड़ो, परंपरा
की फिक्र छोड़ो,
भीड़ की
फिक्र छोड़ो,
संस्कार की
फिक्र छोड़ो।
जिससे
तुम्हारी लय
बैठ जाती हो, जिसके साथ
तुम्हारी
सांस लयबद्ध
हो जाती हो, बस वही
तुम्हारा
धर्म है; उसी
से चल पड़ो।
और भूलकर भी
यह न कहना कि
दूसरे नहीं
पहुंचते, क्योंकि
वह अधार्मिक
की दृष्टि है।
महावीर
का मार्ग है: जीतनेवाले
का मार्ग।
संघर्ष!
संकल्प! भक्त
का मार्ग है: हारनेवाले
का मार्ग।
क्योंकि
प्रेम हारऱ्हारकर
जीतता है। हार
ही प्रेम की
कला है।
मुश्किल
था कुछ तो
इश्क की बाजी
को जीतना
कुछ
जीतने के खौफ
से हारे चले
गये।
मुश्किल
था कुछ तो
इश्क की बाजी
को जीतना
प्रेम
की बाजी कौन
कब जीता है!
कोई कभी नहीं
जीता! यह बाजी जीतनेवाले
के लिए है ही
नहीं। यहां
जिसने जीतने
की कोशिश की
वह प्रेम को
नष्ट ही कर
देता है, मार
ही डालता है।
यहां जीतने की
चेष्टा में तो
प्रेम मर ही
जाता है, कुचल
जाता है।
मुश्किल
था कुछ तो
इश्क की बाजी
को जीतना
कुछ
जीतने के खौफ
से हारे चले
गये।
मगर
यहां जो हारता
है वही जीतता
है। भक्त हारने
के मार्ग पर
चल रहा है। वह
कहता है: किसी
भांति मुझे इस
योग्य बना दो
कि तुम्हारे
चरणों में सब
भांति बिसर
जाऊं, भूल
जाऊं! मुझे
ऐसी पिला दो
कि फिर मुझे
दुबारा होश न
आये! मुझे
मिटा डालो!
यह तुम्हारे
तीर को मेरे
हृदय के
बिलकुल आर-पार
हो जाने दो!
मुझ पर दया
करो, मुझे
समाप्त करो!
करुणा करो और
मुझे बिलकुल
जला दो! राख भी न
बचे!
भक्त
मिटने के
मार्ग पर है। मिटकर वह
सत्य को पाता
है। क्योंकि
जो मिटता है, वह वही है जो
मिट सकता है।
कुछ है कि जो
मिट ही नहीं
सकता।
तो जब
भक्त अपने को
जलने के लिए
छोड़ देता है
तो राख, कूड़ा-कर्कट जल
जाता है, सोना
बच जाता है।
महावीर
का मार्ग जीतनेवाले
का मार्ग है।
कोई समर्पण
नहीं, संघर्ष
करना है।
संघर्ष
कर-करके
छांटना है, गलत को
छोड़ना है। तो
उसमें भी वही
घटता है। धीरे-धीरे
कूड़ा-कर्कट
छूट जाता है, सोना बच
जाता है।
महावीर
फुटकर-फुटकर
चलते हैं, एक-एक इंच
लड़ते हैं।
भक्त बड़ा थोक
है। वह इकट्ठा
अपने को
समर्पण कर
देता है।
भक्ति
छलांग है; महावीर
यात्रा हैं।
पर अपनी-अपनी
मौज है। किन्हीं
को छलांग में
रस न होगा। वे
कहेंगे, "आहिस्ता
चलेंगे, सारा
दृश्य देखते
चलेंगे!
धीरे-धीरे बढ़ेंगे,
जल्दी क्या
है? अनंत
काल तो पड़ा है!'
किन्हीं को
छलांग में रस
है। वे कहते
हैं, जब
पहुंचना ही है
तो यह क्या
धीरे-धीरे, यह क्या
सुस्त चाल, यह क्या
सीढ़ी-सीढ़ी!
कूद ही जाते
हैं।
अपने-अपने
रस, अपनी-अपनी
रुचि, अपने-अपने
रुझान की बात
है।
लेकिन
एक बात सदा
स्मरण रखना:
भक्त और साधक
के मार्ग अलग
हैं और उनको
अलग रखना।
तुम्हें जो रुचे उस पर
चल जाना। ऐसा
मत करना, ऐसा
लोभ मत करना
कि दोनों में
से कुछ-कुछ
बचा लें और
दोनों में से
कुछ-कुछ
इकट्ठा कर
लें। ऐसे लोभी
भी हैं। लेकिन
लोभी की बड़ी
दुर्गति होती
है। संसार में
ही हो जाती है
तो परमात्मा
के मार्ग पर
तो बहुत
दुर्गति होती
है। लोभ मत
करना। ऐसा मत
सोचना कि थोड़ा
इसमें से भी
ले लें जो
सुखद लगे और
थोड़ा दूसरे
में से भी ले
लें जो सुखद
लगे। तो फिर
तुम बैलगाड़ी
और कार को
मिलाकर जो
इंतजाम कर
लोगे, वह
चलनेवाला
नहीं है। वह
तुम्हें किसी गङ्ढे में गिरायेगा।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
के बेटों ने
ऐसा कबाड़खाने
से सामान
ला-लाकर एक
कार बना ली।
जब बन गयी कार
तो उन्होंने
मुल्ला को भी
निमंत्रित
किया। मुल्ला
बैठ गया। वह
कोई दस-पांच
कदम ही गये
होंगे कि कार
गिरी एक खाई
में, खेत
में। मुल्ला
चारों खाने
चित्त पड़ा है।
बेटों ने कहा,
कि पापा
डाक्टर को
बुला लाएं? उसने आंख
खाली। उसने
कहा, "डाक्टर
को बुलाने की
कोई जरूरत
नहीं; पशुओं
के डाक्टर को
बुला लाओ।' तो उन्होंने
पूछा, "आपको
होश है? आप
क्या कह रहे
हैं? पशुओं
के डाक्टर की
क्या जरूरत है?'
तो उसने कहा,
"अगर मैं
आदमी होता तो
तुम्हारी इस
कार में बैठता?
अगर मुझमें
इतनी अकल
होती...। तुम तो वैटनरी डाक्टर
को बुला लाओ।'
लोभ
तुमसे कह सकता
है कि थोड़ा
भक्ति से चुन
लो, थोड़े
नारद के सूत्र
बड़े प्यारे
हैं; थोड़ा
महावीर से चुन
लो, महावीर
के सूत्र बड़े
प्यारे हैं!
लेकिन "तुम' चुननेवाले होओगे और
"तुम' जिन
सूत्रों को
चुन लोगे वह
तुम्हारे
अनुकूल होंगे।
और तुम उन्हें
छोड़ दोगे जो
तुम्हारे
अनुकूल नहीं
मालूम होते।
संभावना इसकी
है कि जिन्हें
तुम छोड़ोगे
उनसे ही
तुम्हारा
रूपांतरण
होता। और जो
तुम चुनकर एक
कृत्रिम
ढांचा बना
लोगे...कृत्रिम,
याद रखना।
अंग्रेजी में
एक शब्द है: आर्गनिक।
एक तो ढांचा
होता है:
सावयव। जैसे
एक वृक्ष है, वृक्ष एक
सावयव ढांचा
है, आर्गनिक है। जैसे
तुम हो, तुम्हारा
शरीर एक आर्गनिक
ढांचा है। अगर
तुम्हारे हाथ
को तोड़ दें तो
हाथ अलग से न
जी पायेगा; तुम्हारे
साथ ही जी
सकता था। उसका
प्राण तुम्हारी
सावयव एकता
में था; अलग
होकर मुर्दा
हो जायेगा।
तुम्हारी आंख
को बाहर निकाल
लें, फिर न
देख पायेगी।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की एक आंख
कांच की है।
वह मजदूरों से
काम लेता है
तो वहां खड़ा
रहता है। एक
दिन जरूरी था
उसको जाना। वह
रहता है मौजूद, देखता रहता
है तो मजदूर
काम करते हैं;
चला जाता है
तो काम छोड़
देते हैं। तो
उसने एक चमत्कार
किया...। उसने
कहा कि देखो।
आंख खींचकर
उसने बाहर निकाल
ली और उसने
कहा, "यह
आंख रखे जा
रहा हूं टेबल
पर, यह
तुम्हें
देखती रहेगी।
धोखा देने की
कोशिश मत
करना।' मजदूर
सकते में भी आ
गये, क्योंकि
कभी किसी आदमी
को उन्होंने
इस तरह आंख
निकालते देखा
नहीं था। और
जब जो इतना
बड़ा चमत्कार
कर सकता है
आंख निकालने
का, तो हो
सकता है आंख
देखे! तो वे
बेचारे बड़ी
देर तक काम
में लगे रहे
और देखते रहे,
वह टेबल पर
से आंख देख
रही थी। फिर
एक आदमी को होश
आया। उसने
जाकर एक टोकरी
उसके ऊपर रख
दी और फिर वह
आराम करने
लगे।
उन्होंने कहा,
अब तो कोई झंझट
नहीं।
मगर
आंख देख ही
नहीं सकती; आंख सावयव
इकाई है, अलग
होते ही
व्यर्थ हो
जाती है। हाथ
अलग होते ही
व्यर्थ हो
जाता है।
यांत्रिक
एकता एक बात
है। अगर तुम
कार के एक यंत्र
को बाहर निकाल
लो, तो भी वह
सार्थक है, बाजार में
बिक सकता है।
क्योंकि वह
यंत्र का हिस्सा
काम आ सकता
है। उसका कोई
उपयोग हो सकता
है। हाथ को
काटकर बाजार
में बेचने जाओ,
कोई न खरीदेगा;
उसका कोई
उपयोग नहीं।
उसकी इकाई टूट
गयी। वह निष्प्राण
है।
महावीर
का मार्ग आर्गनिक
है, सावयव
है। उसमें से
एक टुकड़ा मत
निकालना; वह
काम में न
आयेगा। वह
मुर्दा है।
नारद का मार्ग
भी सावयव है।
सभी मार्ग
सावयव हैं।
उनमें से कुछ
निकालना मत।
इसलिए
तो मैं गांधी
के प्रयोग का
बहुत पक्षपाती
नहीं हूं:
अल्लाह ईश्वर
तेरे नाम!
इसका मैं पक्षपाती
नहीं हूं।
क्योंकि
अल्लाह किसी
और सावयव इकाई
का हिस्सा है, ईश्वर किसी
और इकाई का
हिस्सा है।
अल्लाह और
ईश्वर को जोड़
देने से न तो
आदमी हिंदू रह
जाता, न
मुसलमान रह
जाता--आदमी
बड़ी अड़चन और
दुविधा में पड़
जाता है।
क्योंकि
अल्लाह का
अपना पूरा मार्ग
है; उसे
हिंदू मार्ग
से कुछ लेने
की जरूरत नहीं
है। वह पूरा
है अपने
में--संपूर्ण
है। हिंदू मार्ग
अपने में पूरा
है; उसे
अल्लाह और
मुसलमान से
कुछ लेने की
जरूरत नहीं
है। सभी मार्ग
अपने में
पूर्ण हैं।
सभी मार्ग
पहुंचा देते
हैं।
इसलिए
मैं तुमसे
समझौतावादी
बनने को नहीं
कहता। अनेक
समझौतावादी
अपने को समन्वयवादी
कहकर घोषित
करते हैं, कि उन्होंने
सबका समन्वय
कर लिया है। डाक्टर
भगवानदास
ने एक किताब
लिखी है सब
धर्मों के
समन्वय पर: द इसेंसियल
युनिटी आफ आल रिलिजन्स!
इस तरह की
व्यर्थ
किताबें बहुत
लिखी गई हैं। वह
सब तरफ से कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा कर
लेते हैं।
लेकिन वह सब
मुर्दा हैं।
किसी की आंख
ले आये, किसी
का कान काट
लाये, किसी
की नाक ले आये,
किसी के पैर
ले आये, किसी
तरह जमा-जमूकर
नक्शा खड़ा कर
दिया--इसको
कहते हैं: "इसेंसियल
युनिटी आफ आल रिलिजन्स!'
यह सब
धर्मों की
एकता हो गयी!
यह मरा हुआ
आदमी है।
इसमें कुछ भी
जिंदा नहीं
है। नाक जिंदा
होती है किसी
जिंदा आदमी के
साथ; काट
ली कि मुर्दा।
आंख जिंदा
होती है किसी
जिंदा आदमी के
साथ; अलग
कर ली कि
मुर्दा। फिर
तुम अस्थि
पंजर पर जमाकर
बिलकुल खड़ा कर
दो, तो
शायद बच्चों
के डराने के
काम आ जाये, या रात में
दरवाजे पर खड़ा
कर दो तो चोर
इत्यादि पास न
आयें, या
खेत में खड़ा
कर दो तो
पशु-पक्षियों
को डराए--लेकिन
और किसी
ज्यादा काम का
नहीं है।
बहुत
लोगों को सवाल
उठता है। इस
सदी में अनेक लोगों
ने सब धर्मों
के बीच समन्वय
स्थापित करने
की कोशिश की
है। इस तरह की
कोशिश पहले
क्यों नहीं की
गयी? क्या
महावीर, बुद्ध,
कृष्ण, और
क्राइस्ट
नासमझ थे? क्या
डाक्टर भगवानदास
और महात्मा
गांधी और
विनोबा
ज्यादा
समझदार हैं? इस सदी में
यह समन्वय की
जो कोशिश की
गयी है, इसके
गहरे में आधार
राजनैतिक
हैं। महावीर
और बुद्ध को
एक बात साफ थी
कि प्रत्येक
मार्ग अपने
में संपूर्ण
है, जीवंत
है! उसमें से
कुछ भी अलग
किया, मर
जायेगा।
तो तुम
भक्ति के
मार्ग पर चलना
चाहो तो भक्ति
के मार्ग पर
चलना, लेकिन
समग्ररूपेण!
और कुछ छोड़ना
मत उसमें से, क्योंकि जो
छोड़ा जा सकता
था वह नारद ने
ही छोड़ दिया
है। जो नहीं
छोड़ा जा सकता
था, बस
उतना ही बचाया
है। अगर
महावीर का
मार्ग ठीक लगे
तो महावीर के
मार्ग पर चलना;
छोड़ना मत
उसमें से कुछ,
क्योंकि जो
छोड़ सकते तो
महावीर खुद ही
छोड़ देते। कुछ
भी व्यर्थ
नहीं है; बिलकुल
मूलभूत, सारभूत
जो है, वही
बचाया है।
इसमें से कुछ
भी काटा नहीं
जा सकता। और न
कुछ जोड़ना; क्योंकि जो
जोड़ा जा सकता
था वह
उन्होंने जोड़
दिया है। कुछ
और जोड़ने
की जरूरत नहीं
है।
प्रत्येक
धर्म बड़ी
सावयव इकाई है, जीवंत इकाई
है, यंत्रवत
नहीं। इतना
स्मरण रहे तो
फिर तुम्हारी
जहां रुचि हो,
जहां रुझान
हो, तुम चल पड़ना! तुम
पहुंच जाओगे।
सभी नदियां
सागर की तरफ
जा रही हैं!
आखिरी
प्रश्न:
बार-बार
मन को समझाती
हूं, पर
समझा नहीं
पाती हूं। जो
दिन आपके साथ
प्रेमपूर्वक
बिताए, उन्हें
मैं कैसे भूलूं!
बार-बार आपका
प्रेम याद आता
रहता है। आप
कहते हैं कि
अतीत को भूल
जाऊं; मगर
यह मेरे बस की
बात नहीं। आप
वीतराग हो गये।
अब इन आंसुओं
के सिवा मेरे
पास कुछ भी
नहीं है।
जितना प्रेम
आपने दिया
उतना तो किसी
ने भी नहीं दिया।
और मन बार-बार
कहता है, आप
कब आएंगे?
"सोहन' का प्रश्न
है।
समझाने
से तो उलझन बढ़ेगी।
समझाने की कोई
जरूरत नहीं, समझाने से
समझ आती भी
नहीं। और
"सोहन' के
लिए समझदारी
रास्ता भी
नहीं हो सकती।
नासमझी में
जीना! और याद
आती है तो उसे
हटाने की कोशिश
भी मत करना। याद
में पूरी तरह
डूबना। याद से
पीड़ा हो तो पीड़ा
को होने देना,
रोना, जार-जार
रोना, आंसुओं
को बहने देना!
वे आंसू
पवित्र
करेंगे।
प्रेम
के रास्ते पर
बहे आंसू
पवित्र करते
हैं। और वैसी
याद चिंता
नहीं है। वैसी
याद तो हृदय
की उदभावना
है।
अड़चन
इसलिए पैदा हो
रही है कि मन
समझा रहा है
कि छोड़ो
भी, याद से तो
पीड़ा होती है।
प्रेम के
स्मरण से पीड़ा
होती है। यह
बुद्धि है जो
बीच-बीच में
बाधा डाल रही
है।
इस
बुद्धि की
मानकर चलने से
कुछ भी हल न
होगा। क्योंकि
बुद्धि कभी
हृदय को नहीं
जीत पाती, अगर हृदय
बलशाली हो। और
सोहन के पास
बलशाली हृदय
है। बुद्धि भौंकती
रहेगी, हृदय
अपने रास्ते
पर चलता
जायेगा। अगर
बुद्धि की
सुनी तो बड़ी
अड़चन पैदा
होगी।
क्योंकि हृदय
बलशाली है और
बुद्धि उसे
बदल नहीं
सकती।
हृदय
की ही सुनो!
बुद्धि की छोड़ो।
बुद्धि से कहो, "छोड़ भौंकना!
तू भी याद में
लग! तू भी रो! तू
भी हृदय की
अनुषंग बन जा,
हृदय की
छाया बन जा!'
"सोहन'
के लिए कोई
महावीर का
रास्ता पहुंचानेवाला
नहीं है, उसे
तो भक्ति का
ही कोई रास्ता
पहुंचाएगा।
तो प्रेम को
भक्ति बनाओ, भाव को
भक्ति बनाओ।
और बेहोशी को,
बेखुदी को
रास्ता समझो:
डूब गये, रोये, नाचे,
गाये!
इसलिए
धीरे-धीरे दूर
हट गया हूं।
क्योंकि अगर
मैं पास होऊं
तो तुम रोओगे
कैसे? अगर
मैं पास होऊं
और तुम्हें जब
चाहिए तब मिल जाऊं,
तो फिर आंसू
कब बहाओगे?
याद कैसे
करोगे? यह
भी उपाय है।
बहुतों
को मैंने अपने
प्रेम में
डाला और फिर धीरे-धीरे
दूर हट गया।
दूर हट जाना
उपाय है।
क्योंकि
प्रेम अगर दूर
हट जाने से मर
जाये तो प्रेम
न था। और दूर
हट जाने से
अगर प्रेम और
गहन हो जाये
तो भक्ति बनने
में ज्यादा
देर नहीं।
भगवान
दिखाई नहीं
पड़ता; न तुम
उसे छू सकते
हो, न उससे
बोल सकते हो।
प्रेमी
दिखायी पड़ता
है, छुआ जा
सकता है, बोला
जा सकता है। अगर
मैं तुम्हारे
पास ही रहूं
तो तुम्हारा
प्रेम, प्रेम
ही रह जायेगा।
मुझे तुमसे
दूर हटना होगा।
इतना दूर हटना
होगा कि मैं
भी करीब-करीब
अदृश्य हो
जाऊं। अगर
प्रेम फिर भी
बच सका तो तुम पाओगे
कि प्रेम ने
धीरे-धीरे एक
रूपांतरण लिया।
वह अदृश्य का,
अज्ञात का
प्रेम बनने
लगा! वही
भक्ति है।
धीरे-धीरे
मेरी याद, मेरी
याद न रह
जायेगी।
धीरे-धीरे मैं
भी एक बहाना
हो जाऊंगा।
उस बहाने से
परमात्मा की
ही याद तुममें
प्रवाहित
होने लगेगी।
प्रेम
का दिन भी
होता है, प्रेम
की रात भी
होती है। अगर
प्रेम का दिन
ही दिन हो, सुख
ही सुख हो और
प्रेम की पीड़ा
न हो, तो
प्रेम छिछला
रह जाता है, गहरा नहीं
होता। पीड़ा के
बिना कोई भी
चीज जगत में
गहरी नहीं
होती।
सुख
बड़ा ऊपर-ऊपर
है, दुख बड़ा
गहरा है। सुख
की कहीं गहराई
होती है? वह
तो पानी के
ऊपर-ऊपर की
लहरें हैं।
दुख की गहराई
होती है।
इसलिए दुख
तुम्हारे हृदय
को जितना गहरा
छूता है उतना
सुख कभी नहीं
छू पाता। सुखी
आदमी को तुम
हमेशा छिछला
पाओगे। दुखी
आदमी के जीवन
में एक गहराई
होती है।
और धन्यभागी
हैं वे, जो
प्रेम के कारण
दुखी हैं!
क्योंकि कारण
पर बहुत कुछ
निर्भर
करेगा। कोई
इसलिए दुखी है
कि धन नहीं
मिला। धन
मिलकर ही बहुत
गहराई नहीं
मिलती, तो
धन के न मिलने
से क्या खाक
गहराई मिलेगी?
उसका दुख
व्यर्थ के लिए
है। कोई इसलिए
रो रहा है कि
पद नहीं मिला।
धन्यभागी
हैं वे जो
इसलिए रो रहे
हैं कि प्रेम
एक खाली जगह
छोड़ गया है! उस
खाली जगह को
अपना पूजागृह
बनाओ। प्रेम
ने जहां हृदय को
छुआ है और
पीड़ा को जगाया
है, उस
पीड़ा को अपने
से विपरीत मत
समझो--उसके
साथ बहो, उसको
स्वीकार करो!
वह पीड़ा
तुम्हें मांजेगी।
वह पीड़ा
तुम्हें निखारेगी।
वह पीड़ा अग्नि
की तरह सिद्ध
होगी और
तुम्हारा
स्वर्ण कुंदन
बनेगा।
सुबह
तेरी है तो ऐ खालिके-सुबह!
रात है
किसकी करम फर्माई?
--हे परमात्मा,
अगर सुबह
तूने बनायी तो
फिर रात किसकी
अनुकंपा का फल
है?
अगर
प्रेम से सुख
मिलता है तो
प्रेम से दुख
भी मिलेगा।
प्रेम के दुख
को स्वीकार
करना! जिसने सिर्फ
प्रेम के सुख
को स्वीकार
किया उसने आधे
को स्वीकार
किया; उसके
पूरे प्राणों
पर प्रेम का
विस्तार न हो
सकेगा। प्रेम
का दिन स्वीकारा,
प्रेम की
रात भी
स्वीकारना।
और अगर दोनों
स्वीकार हो
गये तो ज्यादा
देर न लगेगी
कि परमात्मा
सब तरफ दिखायी
पड़ने लगे। दुख
भी उसी का है, इसलिए
सौभाग्य है।
तू
मेरे दिल में
ही नहीं सारी
कायनात में है
तू
दिन की तरह निहां
इस अंधेरी रात
में है।
--फिर
धीरे-धीरे दिन
की भांति रात
में भी वही छिपा
मालूम पड़ेगा।
तू
दिन की तरह निहां
इस अंधेरी रात
में है।
अंधेरा
भी फिर उसका
ही स्पर्श
देगा।
अनुपस्थिति
भी जब उसकी
उपस्थिति बन
जाये तो प्रेम
भक्ति बनती
है।
अनुपस्थिति
भी जब उसकी उपस्थिति
मालूम पड़ने
लगे...क्योंकि
अनुपस्थिति
भी उसी की है न!
उसी से जुड़ी
है। तो
अनुपस्थिति
भी फिर
परमात्मा की
ही हो गयी, प्रभु की हो
गयी, प्रेम
की हो गयी! तो
अनुपस्थिति
को भरने की कोशिश
मत करना। उसको
जीना।
तू
मेरे दिल में
ही नहीं सारी
कायनात में
है।
और फिर
धीरे-धीरे जब
दिल में दुख
और सुख दोनों
क्षणों में वह
दिखायी पड़ने
लगे तो सारे
संसार में भी
दिखायी पड़ने
लगेगा।
प्रेमी
चाहता क्या है? प्रेमी
चाहता है कि
प्रेमी में
लीन हो जाये।
भक्त चाहता
क्या है?--कि
भगवान में डूब
जाये!
तू
है मुहीते-बेकरां
मैं हूं
जरा-सी आबे-जू
या
मुझे हमकिनार
कर, या मुझे
बे-किनार कर!
तू है मुहीते-बेकरां--तू
है बड़ा सागर!
मैं हूं
जरा-सी
आबे-जू--मैं
हूं एक
छोटा-सा झरना।
या मुझे हमकिनार
कर--या तो मुझे
अपने साथ ले
ले...या मुझे बेकिनार
कर--या मुझे
मेरे किनारों
से मुक्त कर
दे।
लेकिन
दोनों ही
बातों का एक
ही अर्थ होता
है। या तो तू
मुझे अपने साथ
ले ले, सागर
बना ले, और
या फिर मुझे बेकिनारा
कर दे। मेरे
किनारे मुझ से
छीन ले! या तो
मुझे डुबा
ले या मेरे
किनारे मुझसे
छीन ले! लेकिन
दोनों हालत
में वह जो
छोटा-सा झरना
है, सागर
हो जायेगा।
तड़फ
क्या है? पीड़ा
क्या है? पीड़ा
प्रेमी के
मिलने से थोड़े
ही पूरी होती
है--पीड़ा
प्रेमी में खो
जाने से पूरी
होती है। यही
तो भक्त और
प्रेमी का
फर्क है।
अगर
तुम्हारे
जीवन में मेरे
प्रति प्रेम
है और प्रेम
अगर भक्ति में
न रूपांतरित
हुआ, तो यह
प्रेम भी बंधन
बन जायेगा।
फर्क समझ लो। प्रेमी
चाहता है, जिससे
प्रेम किया वह
मिल जाये।
भक्त चाहता है,
जिससे
प्रेम किया
उसमें हम खो
जायें।
प्रेमी प्रेम-पात्र
को पास लाना
चाहता है।
भक्त प्रेम-पात्र
के पास जाना
चाहता है। बड़ा
फर्क है। प्रेमी
चाहता है, जिससे
प्रेम किया उस
पर कब्जा हो
जाये। भक्त चाहता
है, जिसे प्रेम
किया उसका मुझ
पर कब्जा हो
जाये।
ध्यान
रखना, प्रेमी
तो हारेगा; क्योंकि यह
कब्जा संभव
नहीं है। भक्त
जीतेगा; क्योंकि
भक्त कब्जा
करना ही नहीं
चाहता, सिर्फ
कब्जा देना
चाहता है।
तू
है मुहीते-बेकरां, मैं हूं
जरा-सी आबे-जू
या
मुझे हमकिनार
कर, या मुझे बेकिनार
कर।
यह जो
दुख "सोहन' को प्रतीत
हो रहा है, गहरा
उसे प्रतीत हो
रहा है, इस
दुख को सुख
में बदला जा
सकता है। इस
पीड़ा से बड़े
फूल खिल सकते
हैं। लेकिन
थोड़ी समझ में
क्रांति लानी
जरूरी है।
हासिले-जीस्त
मसर्रत को समझनेवाले
एक नफस गम भी
की दमभर
तो खुदा याद
रहे।
थोड़ा-सा
दुख भी चाहिए, दमभर तो खुदा याद
रहे! अगर सुख
ही सुख हो तो
याद भूल जाती
है। इसीलिए तो
लोग सुख में
याद नहीं करते,
दुख में याद
करते हैं। और
जिसने यह सार
समझ लिया कि
दुख में याद
गहन होती है, वह फिर दुख
से न छूटना
चाहेगा; वह
तो दुख को भी
सौभाग्य
समझेगा। और अगर
दुख को
सौभाग्य समझ
लिया तो सब घट
गया। क्योंकि
वहीं तो
मनुष्य की
उलझन है: दुख
का अस्वीकार;
सुख का
स्वीकार। जब
दुख का भी
स्वीकार हो
गया तो दुख
दुख न रहा।
ऐसा
समझो कि जिस
दुख को हम
स्वीकार कर
लेते हैं वह
सुख हो जाता
है। स्वीकार
करते ही सुख
हो जाता है।
दुख का होना
हमारे
अस्वीकार में
है। स्वीकार
होते ही दुख
का गुणधर्म
बदल जाता है।
मुझे
खयाल में है।
जिन-जिनसे भी
प्रेम किया है, उनसे मैं
धीरे-धीरे
अपने को दूर हटाऊंगा
ही। प्रेम तो
शुरुआत है।
वहीं रुक नहीं
जाना है। दूर हटूंगा तो
प्रेम भक्ति
में बदल सकता
है। अगर होगा
तो भक्ति में
बदल जायेगा।
अगर नहीं होगा
तो नाराजगी
में बदल
जायेगा। तो
कुछ हैं जो
मेरे पास से
नाराज होकर हट
जाते हैं।
"सोहन' उनमें
से नहीं है; हटनेवाली नहीं है।
लाख हटाने की
चेष्टा करूं,
वह हटनेवाली
नहीं है। तो
फिर उसकी हार
भी जीत में
बदल जायेगी।
गुलशन
में सबा को
जुस्तजू तेरी
है
बुलबुल
की जबां
पे गुफ्तगू
तेरी है
हर
रंग में जलवा
है तेरी कुदरत
का
जिस
फूल को सूंघता
हूं, बू तेरी
है।
तो जो
प्रेम मेरे
प्रति है, उसे और
फैलाओ! उसे
इतना फैलाओ कि
उस प्रेम के लिए
कोई पता
ठिकाना न रह
जाये। मुझसे
सीखो; लेकिन
मुझ पर रुको
मत। मुझसे चलो,
लेकिन मुझ
पर ठहरो मत।
जैनों
का शब्द
तीर्थंकर बड़ा
बहुमूल्य है।
तीर्थंकर का
अर्थ होता है:
घाट
बनानेवाला।
घाट बना दिया, घाट बैठने
के लिए नहीं
है; दूर
जाने के लिए
है, दूसरे
घाट जाने के
लिए है।
तो मैं
अगर तुम्हारा
घाट बन जाऊं
और फिर तुम वहीं
रुक जाओ और
वहीं खील ठोंक
दो, और वहीं
नाव को अटका
लो, तो यह
तो काम का न
हुआ। मैं
तुम्हें मेरे
किनारे पर कील
ठोंककर रुकने
न दूंगा। तुम
लाख ठोंको,
मैं उखाड़ता
रहूंगा। एक न
एक दिन
तुम्हें
दूसरे किनारे
की तरफ जाने
की तैयारी
करनी होगी। उस
यात्रा के लिए
तैयार रहो। निश्चित
ही दूसरी तरफ
जाने में यह
किनारा दूर होता
हुआ मालूम
होगा। लेकिन घबड़ाओ मत, मैं दूसरे
पर मिल जाऊंगा--बहुत
बड़ा होकर!
पूछा
है, "आप कब
आएंगे?'
दूसरे
किनारे पर! अब
इस किनारे पर
नहीं। और दूसरे
किनारे पर जिस
रूप में आऊंगा, वह रूप शायद
एकदम से पहचान
में भी न आयेगा।
दूसरे किनारे
पर जिस ढंग से आऊंगा
शायद वह ढंग
एकदम से समझ
में भी न
आयेगा।
गुलशन
में सबा को
जुस्तजू तेरी
है
बुलबुल
की जबां
पे गुफ्तगू
तेरी है
हर
रंग में जलवा
है तेरी कुदरत
का
जिस
फूल को सूंघता
हूं, बू तेरी
है।
वह
पहचान तो
विराट की
पहचान होगी।
उसे अभी से
पहचानने लगो।
थोड़े दिन यह
देह होगी, फिर यह देह
भी जायेगी; तब मैं
तुमसे और भी
दूर हो जाऊंगा।
ऐसे धीरे-धीरे
एक-एक कदम
तुमसे दूर
होता जाऊंगा।
थोड़ी देर बाद
यह देह भी खो
जायेगी। फिर
तुम मुझे किसी
तरफ न देख
सकोगे। सब तरफ
देख पाओगे तो
ही देख सकोगे।
उसकी तैयारी करवा
रहा हूं। उसका
धीरे-धीरे
तुम्हें
अभ्यास करवा
रहा हूं।
ये
क्षण
बहुमूल्य
हैं। इन
क्षणों में
मिले हुए सुख
में तो सुखी
होओ ही, इन
क्षणों में
मिले दुख में
भी सुखी होओ।
और बुद्धि की
मत सुनो! हृदय
की सुनो! आऊंगा
जरूर, लेकिन
दूसरे किनारे
पर। आना
सुनिश्चित है,
लेकिन तुम
इस किनारे पर
मत रुके रह
जाना; अन्यथा
मैं उस किनारे
प्रतीक्षा
करूं और तुम इसी
किनारे बने
रहो! इस
किनारे से तो
मेरे भी जाने
के दिन करीब
आयेंगे। इसके
पहले कि मैं
इस किनारे से
विदा होऊं, तुम अपनी
खूंटी उखाड़
लेना, तुम
अपनी नाव को
चला देना।
दूसरा
किनारा दूर है
और दिखाई भी
नहीं पड़ता।
लेकिन जिस नदी
का एक किनारा
है उसका दूसरा
भी है ही, दिखाई
पड़े न दिखाई
पड़े। कहीं एक
किनारे की कोई
नदी हुई है?
तो
प्रेम का एक
रूप जाना, एक किनारा
जाना--दूसरा
भी है। वही
भक्ति है।
मनुष्य
को प्रेम किया, शुभ है।
लेकिन वहां
रुक मत जाना।
वह प्रेम
धीरे-धीरे उठे
लपट की तरह और
परमात्मा के
प्रेम में
रूपांतरित
हो। मेरा प्रेम
तुम्हें
मुक्त करे, तुम्हें
मोक्ष दे, तो
ही मेरा प्रेम
है; बांध
ले, अटका
दे, तो फिर
मेरा प्रेम
नहीं।
प्रेम
सदा ही मोक्ष
का द्वार है!
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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