जिन सूत्र--(भाग-2)
सारसूत्र:
सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स।
अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।। 90।।
थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।। 91।।
सुवहुं पि सुयमहीयं किं काहिइ चरणविप्पहीणस्स।
अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।। 90।।
थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो पुण चरित्तहीणो, किं तस्स सुदेण बहुएण।। 91।।
णिच्छयणयस्स एवं,
अप्पा उप्पमि अप्पमें सुरदो।
सो
होदि हुसुचरित्तो,
जोई सो लहइ
णिव्वाणं।।
92।।
जं जाणिऊण
जोई, परिहारं
कुणइ पुण्णपावाणं।
तं
चारित्तं
भणियं,
अवियप्पं
कम्मरहिएहिं।।
93।।
अब्भंतरसोधीए,
बाहिरसोधी
वि होदि णियमेण।
अब्भंतर—दोसेण हु,
कुणदि णरो बाहिरे
दोसे।। 94।।
जह व णिरुद्धं
असुहं, सुहेण सुहमिव तहेव सुद्धेण।
तम्हा
एण कमेण य, जोई झाएउ
णिय आदं।।
95।।
पहला
सूत्र--
"चारित्रहीन
पुरुष का
विपुल
शास्त्र-अध्ययन
भी व्यर्थ ही है, जैसे कि
अंधे के आगे
लाखों-करोड़ों
दीपक जलाना व्यर्थ
है।'
सुवहुं पि सुयमहीयं
किं काहिइ
चरणविप्पहीणस्स।
अंधस्स जह पलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि ।।
महावीर
ने चरित्र और चारित्र
में बड़ा भेद किया
है। एक चरित्र
है, जो हम ऊपर
से आरोपित
करते हैं। एक
चरित्र है, जो भीतर से
आविर्भूत
होता है। एक
चरित्र है, जिसका हम
अभ्यास करते
हैं। और एक
चरित्र है, जो सहज
खिलता है। सहज
खिलनेवाले
को ही
उन्होंने चारित्र
कहा है। वही
धार्मिक है।
जो आरोपित है,
अभ्यासजन्य है, चेष्टा
से बांधा गया
है, वह
चरित्र नैतिक
है।
महावीर
की भाषा में, वास्तविक
चरित्र को
उन्होंने
निश्चय-चरित्र
कहा है।
अवास्तविक
चरित्र को
व्यवहार-चरित्र
कहा है। एक तो
चेहरा है
दूसरों को
दिखाने के
लिए। और एक
स्वयं का
मौलिक चेहरा
है। एक तो व्यवहार
है। सच बोलते
हो, ईमानदारी
से जीते हो, लेकिन वह भी
व्यवहार है।
सारी दुनिया
के दुकानदार
कहते हैं, "आनेस्टी इज़ दि
बेस्ट
पालिसी।' ईमानदारी
श्रेष्ठतम
नीति है।
लेकिन "पालिसी'
होशियारी
है उसमें।
नीति, धर्म
नहीं।
ईमानदार
इसलिए होना
उचित है कि ईमानदारी
में लाभ है।
ईमानदारी स्वयं
बहुमूल्य
नहीं है, लाभ
के कारण
बहुमूल्य है।
अगर
ईमानदारी लाभ
के कारण
बहुमूल्य है, और किसी दिन
बेईमानी से
लाभ मिलता हो,
तो ऐसा आदमी
बेईमानी
करेगा।
क्योंकि उसका
मूल्य तो लाभ
का था।
ईमानदारी से
मिलता था तो
ईमानदारी ठीक
थी, बेईमानी
से मिलता है
तो बेईमानी ठीक
है। ऐसे आदमी
के बेईमान
होने में
जरा-भी अड़चन न
होगी। ऐसे
आदमी की
ईमानदारी
उपकरण है, साधन
है, साध्य
नहीं। ऐसे
आदमी के
चरित्र का कोई
भरोसा नहीं।
अगर एक
आदमी इसलिए
शुभ कार्य
करता है कि
इससे स्वर्ग
मिलेगा, तो
ऐसे आदमी के
चरित्र का कोई
भरोसा नहीं।
क्योंकि कल अगर
इसे पता चल
जाए कि बेईमान
भी रिश्वत
देकर और
स्वर्ग पहुंच
रहे हैं, कल
इसे पता चल
जाए कि
ईमानदार नर्क
में पड़े हैं
और सड़ रहे
हैं, तो यह
ईमानदारी छोड़
देगा। यह
बेईमानी पर
उतर जाएगा।
स्वाभाविक
है। क्योंकि
साध्य तो ईमानदारी
नहीं थी।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने बेटे को
समझा रहा था, दुकान पर।
सभी बातें
समझा रहा था
धीरे-धीरे, बेटा बड़ा हो
गया, दुकान
संभाले। एक
दिन उसने कहा
कि सुन, देख,
यहां
व्यवसाय की
नैतिकता का
प्रश्न है। यह
जो आदमी
अभी-अभी गया, दस रुपये का
नोट इसे देना
था, लेकिन
भूल से यह
दस-दस के दो
नोट दे गया है,
एक-दूसरे
में जुड़े थे।
अब यह सवाल
उठता है व्यावसायिक
नीति का कि
मैं अपने
साझीदार को यह
दस रुपये का
दूसरा नोट बताऊं
कि न बताऊं?
वह यह नहीं
कह रहा है कि
नीति का सवाल
उठता है कि
मैं इस आदमी
को बुलाऊं
जो बीस रुपये
दे गया है। यह
तो बात खतम
हुई। इससे तो
कुछ लेना-देना
नहीं। अब मैं
अपने
"पार्टनर' को
बताऊं या
न बताऊं?
व्यवसायी
की बुद्धि तो
नीति में से
भी व्यवसाय ही
खोजेगी।
और जो इस
ग्राहक को
बुलाने को, देने को
राजी नहीं है,
वह साझीदार
को भी बताने
को राजी नहीं
हो सकता।
नैतिक
व्यक्ति
बेशर्त नैतिक
नहीं होता। धार्मिक
व्यक्ति
बेशर्त नैतिक
होता है। उसकी
कोई शर्त नहीं
है। नीति कोई
साधन नहीं है, जिससे कहीं
पहुंचना है।
नीति ही उसका
साध्य है। शुभाचरण
उसका आनंद है।
इसे
खयाल में लेना, क्योंकि यह
सारे सूत्र
इसी संबंध में
हैं। कोई
व्यक्ति नर्क
के डर से
नैतिक आचरण कर
रहा है। कोई
व्यक्ति
चौराहे पर खड़े
पुलिसवाले के डर
से नैतिक आचरण
कर रहा है।
कोई व्यक्ति
अदालत के भय
से नैतिक आचरण
कर रहा है। भय
से नीति का कैसे
जन्म होगा! भय
से थोथे आचरण
का जन्म हो सकता
है। भय के
कारण तुम
ऊपर-ऊपर अपने
को संभालकर रख
सकते हो।
लेकिन भीतर की
अग्नि का क्या
होगा? और
इसलिए अकसर
तुम पाओगे, जिनको हम
साधारणतः
नैतिक पुरुष
कहते हैं, वे
सभी पाखंडी
होंगे।
पाखंड
का इतना ही
अर्थ है, ऊपर
नैतिक होंगे,
भीतर अनीति
के सागर में
लहरें उठ रही
होंगी। जो
उन्होंने
बाहर से रोक
लिया है अपने
को, न करने
से, वही
उनके भीतर चित्त
में घाव की
तरह गहरा होता
जाएगा। जिससे
उन्होंने
अपने को किसी
तरह वंचित कर
दिया है, वह
उनके मन में
बार-बार सपने
उठायेगा।
आकर्षित
करेगा। अगर
उपवास घटा हो,
तो तुम्हें
भोजन की याद न
आयेगी।
कभी-कभी घटता
है उपवास। कभी
तुम संगीत
सुनने में ऐसे
लीन हो गये कि
याद ही न रही
शरीर की।
संगीत से ऐसे
भर गये कि
भीतर जगह ही न
रही भोजन की।
संगीत में ऐसे
डूब गये कि
शरीर और शरीर
की भूख का
विस्मरण हो
गया। तो उपवास
सहज घटित हुआ।
ध्यान में डूब
गये और शरीर
भूल गया, तो
उपवास सहज
घटित हुआ।
लेकिन अगर
तुमने चेष्टा
से उपवास
किया--पर्युषण
आया, व्रत
के दिन आये, तुमने उपवास
किया--तो तुम
दिन-रात भोजन
के संबंध में
ही विचार
करोगे। यह
उपवास
अंतर्तम से नहीं
आया। यह उपवास
नहीं है, अनशन
है। उपवास
शब्द का ही
अर्थ होता है,
आत्मा के
निकट आ जाना, आत्मा के
पास आ जाना।
आत्मा के वास
में आ जाना।
पास...और पास...और
पास...। आत्मा
के इतने पास
हो गये कि शरीर
बहुत दूर पड़
गया, हजारों
मील दूर पड़
गया, उसकी
भूख-प्यास की
भी याद नहीं
आती।
महावीर
ने ऐसे उपवास
किये थे। तुम
भी उपवास कर
लेते हो।
लेकिन
तुम्हारे
उपवास में
भोजन का इतना
चिंतन चलता है
कि करीब-करीब
भोजन पर ही
ध्यान अटक
जाता है। भोजन
करते हुए तुम
भोजन के संबंध
में इस भांति
कभी नहीं
सोचते, जैसा
उपवास करके
सोचते हो।
भोजन कर लिया
दो बार, तो
भूल गये।
लेकिन जिस दिन
उपवास थोप
लिया अपने ऊपर,
चौबीस घंटे
भोजन की ही
याद आती-जाती
है। यह तो उपवास
न हुआ। यह तो
उपवास के प्रतिकूल
हो गया, विपरीत
हो गया।
एक
ब्रह्मचर्य
है, जो
कामवासना की
व्यर्थता के
बोध से जन्मता
है। उसे
बांध-बांधकर
लाना नहीं
पड़ता।
तुम्हारी समझ
ही, तुम्हारे
जीवन का अनुभव
ही तुम्हें उस
जगह ले आता है
कि ऊर्जा का
तुम व्यर्थ
उपयोग बंद कर
देते हो। बंद
करने की
चेष्टा नहीं
करते, बंद
हो जाता है।
तुम्हारी समझ
ने तुम्हें
शरीर की
व्यर्थता
समझा दी।
तुम्हारी समझ
ने तुम्हें
शरीर के
क्षणभंगुर-रस
का बोध करा
दिया। तुम्हारी
समझ ने, जागरूकता
ने, तुम्हारे
अनुभव ने
तुम्हारे
भीतर एक नयी
दिशा खोज ली।
उसी दिशा में
ऊर्जा बहने
लगी। ऊर्जा का
ऊर्ध्वगमन
हुआ। तुम ऊर्ध्वरेतस
बने। तब तो एक
ब्रह्मचर्य
है, जिसमें
फूल-जैसी
सरलता होगी, सहजता होगी,
कोमलता
होगी।
और एक
ब्रह्मचर्य
है, जो तुमने
वासना की
अदम्य पुकार
से घबड़ाकर,
वासना के
अदम्य प्रभाव
से घबड़ाकर
अपने ऊपर
आरोपित कर
लिया।
जबर्दस्ती
थोप लिया। प्राण
तो भागे जाते
थे वासना की
तरफ, तुमने
लगाम खींच ली।
लेकिन इससे
तुम शांति को उपलब्ध
न होओगे। इससे
तुम्हारा
चित्त और भी कामुक
हो जाएगा।
इससे
तुम्हारे
चित्त में कामवासना
ही कामवासना
भर जाएगी।
इससे तुम मवाद
ही मवाद से भर
जाओगे। इससे
तुम्हारा
उठना, बैठना,
सोना, जागना,
ध्यान, पूजा,
प्रार्थना,
सभी पर
कामवासना की
छाप पड़ जाएगी।
यह तो रोग हो
गया।
स्वास्थ्य न
हुआ।
महावीर
जिस
ब्रह्मचर्य
की बात करते
हैं, वह जीवन
के अनुभव से
आये। जीवन के कडुवे-मीठे
अनुभव
तुम्हें कहीं
पहुंचा दें; हाथ जल जाए, फिर कौन
डालता है आग
में हाथ!
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, अगर छोटा
बच्चा आग की
तरफ जा रहा हो,
तो बजाय उसे
जबर्दस्ती
रोकने के, उसे
आग के पास
धीरे-धीरे ले
जाओ। उसे
अनुभव होने दो
कि जैसे-जैसे
आग के पास
जाता है, वैसे-वैसे
शरीर झुलसता
है। और इसमें
भी कोई हर्ज
नहीं है अगर
वह एक बार
जलती हुई आग में
अंगुली भी डाल
ले और थोड़ा जल
जाए और फफोला उठ
आये, कोई
हर्ज नहीं।
लेकिन यह
जीवनभर के लिए
सिखावन हो
जाएगी। तुम
रोको मत उसे।
रोकने से तो
आकर्षण
बढ़ेगा।
जहां-जहां हम
मन को जाने से
रोकते हैं, मन
वहीं-वहीं
उतावला होता
है जाने को।
मन का
नियम समझो।
नियंत्रण
निमंत्रण बन
जाता है।
निषेध पुकार
बन जाती है।
रोको जाने से
कहीं मन को और
सब तरफ भूलकर
मन वहीं-वहीं
जाने लगता है।
कभी देखा है, दांत टूट
जाता है तो
जीभ वहीं-वहीं
जाती है। रोको
उसे। फिर तुम
भूले कि फिर
जीभ वहीं गयी।
कहां चौबीस
घंटे याद
रखोगे! तुम
जानते हो दांत
टूट गया, अब
वहां कुछ जीभ
को ले जाने
जैसा भी नहीं
है। लेकिन
खाली जगह में
जीभ जाती है।
तुम रोकते हो तो
और-और जाती
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
एक बहुत गहरा
नियम है--विपरीत
परिणाम का
नियम। तुम जो
नहीं करना चाहते, वही होता
है। नये सिक्खड़
को देखा है
साइकिल सीखते
हुए? साठ
फीट चौड़े
रास्ते पर, रास्ते के
किनारे लगे
मील के पत्थर
से उसकी साइकिल
जाकर टकरा
जाती है। साठ
फीट चौड़ा
रास्ता था, कोई रास्ते
पर न था।
सुनसान पड़ा
था। लेकिन इसको
हुआ क्या? यह
लाल मील के
पत्थर की तरफ
क्यों
आकर्षित हो गया?
जैसे ही नया
सिक्खड़
पत्थर देखता है,
वह घबड़ाता
है। वह घबड़ाता
है कि कहीं इस
पत्थर से टकरा
न जाऊं! साठ
फीट चौड़ा
रास्ता भूल
जाता है। इस
पत्थर से टकरा
न जाऊं, नजर
पत्थर पर अटक
जाती है। और
जैसे वह पत्थर
से बचने लगता
है, वैसे
रास्ता तो
बिलकुल ही भूल
जाता है, पत्थर
और वह, बस
दो ही रह जाते
हैं। फिर एक
अदम्य आकर्षण घबड़ाहट
में पैदा हुआ।
उसे पत्थर की
तरफ खींचने
लगता है। कोई
पत्थर खींच
रहा है, ऐसा
नहीं। खुद के
ही निषेध से
खिंचा जा रहा
है।
बड़ी
प्रसिद्ध कथा
है कि एक युवा
एक साधु के पीछे
पड़ा था। उसके
पैर दबाता, सेवा करता, कहता कि कुछ
चमत्कारी
शक्ति दे दो।
साधु उससे
घबड़ा गया था, उसने कहा, अच्छा भई! यह
मंत्र है।
छोटा-सा मंत्र
है, इसे
पांच बार पढ़ना
है। बस पांच
बार पढ़ने से
तुझे सिद्धि
उपलब्ध हो
जाएगी। तू जो
भी करेगा, करना
चाहेगा, हो
सकेगा। लेकिन
एक बात खयाल
रखना कि जब
मंत्र को पढ़े
तो बंदर की
याद न आये। उस
आदमी ने कहा, फिकिर छोड़ो, बंदर की कभी
याद आयी ही
नहीं जिंदगी
में, अब
क्यों आयेगी।
लेकिन बस वहीं
झंझट हो गयी!
वह
मंदिर से नीचे
भी नहीं उतर
पाया कि बंदर
ही बंदर! उसने
बहुत झिड़का।
उसने बार-बार
मंत्र को याद
करने की कोशिश
की, लेकिन
जैसे ही मंत्र
आये कि उसके
पहले बंदर
मौजूद हो जाए।
रातभर उसने
चेष्टा की कि
पांच बार तो
बिना बंदर के
एक दफा कह लूं,
लेकिन न कह
पाया। आधी
पागल हालत में
सुबह आया।
उसने उस गुरु
को कहा कि तुम
भी हद्द के
आदमी हो! एक तो
वर्षों की
सेवा के बाद
मंत्र दिया, यह बंदर
क्यों साथ दे
दिया! अगर
बंदर ही शर्त
थी, तो चुप
रहते। मुझे
बंदर कभी याद
आते ही न थे, जिंदगी बीत
गयी। और आज
रात, मंत्र
को पांच बार
कहना तो
मुश्किल, एक
बार कहना
मुश्किल है।
गुरु ने कहा, मैं भी क्या
कर सकता हूं!
शर्त वही है।
वह पूरी हो तो
ही मंत्र
सार्थक होता
है।
तुम
पक्का मान लो, वह मंत्र
कभी सार्थक
हुआ न होगा।
जितनी चेष्टा
होगी, उतना
ही बंदर प्रगाढ़
होता जाएगा।
मन का
एक नियम है।
तुम जिस चीज
को दबाओगे, उभरेगी।
दबाने से कभी
कोई मुक्त
नहीं होता। मुक्ति
दमन से नहीं
आती। मुक्ति
बोध से आती
है। समझ से
आती है। और एक
बार समझ आ जाए,
तो जीवनभर
के लिए एक दीया
जल जाता है
भीतर।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
की एक रात
अपनी पत्नी से
कुछ कहा-सुनी
हो गयी। पत्नी
बहुत
चिल्लाने लगी,
चीखने लगी।
मुल्ला थरथर
कांपने लगा।
आखिर पत्नी ने
कहा, कायर
कहीं के, क्यों
थरथर कांप रहे
हो? तुम
आदमी हो कि
चूहे! मुल्ला
ने कहा, देवी!
आदमी ही होना
चाहिए, क्योंकि
अगर मैं चूहा
होता, तो
तू थरथर
कांपती। इस
उपद्रव और
झगड़े में मोहल्ले-पड़ोस
के लोग भी आ
गये। संयोग की
बात एक चोर घर
में घुसा था।
वह पकड़ा गया।
अदालत
में मुकदमा
चला। उस चोर
से
मजिस्ट्रेट ने
पूछा, तुम्हें
कुछ कहना है? उसने कहा
सिर्फ इतना ही
कहना है हुजूर,
कि मैं कभी
शादी न
करूंगा। और
इतनी मेरी
प्रार्थना है,
और कोई भी
सजा दे दो, शादी
करने भर की
आज्ञा मत
देना। बस, बहुत
देख लिया। रात
जो मुझे दर्शन
हुआ है! मैं भी
आदमी हूं, चूहा
नहीं हूं। और
जो इस गरीब
मुल्ला पर
गुजरते देखा
है, वह अब
अपने पर
गुजरते नहीं
देखना चाहता।
जीवन
को खुली आंख
से देखते
चलें। जो
चारों तरफ
गुजर रहा है, वही शास्त्र
है। जो सब पर
गुजर रहा है, वही शास्त्र
है। तुम पर
गुजर रहा है, उसे भी गौर
से देखो। कोई
भी जीवन का
अनुभव बिना
सार निचोड़े
मत जाने दो।
तो ही
धीरे-धीरे
परिपक्वता
आती है। तो ही
धीरे-धीरे ऐसी
घड़ी आती है, जहां
तुम्हारे
भीतर से
चरित्र का
आविर्भाव होता
है। लेकिन उस
चरित्र की न
तो कोई मांग
होती, न
कोई आकांक्षा
होती, न उस
चरित्र का कोई
लक्ष्य होता।
वह चरित्र स्वयं
में सुंदर। स्वांतः सुखाय।
भीतर ही भीतर
उसका रस है।
वैसा व्यक्ति
यह भी नहीं
कहता कि मैं
चरित्रवान
हूं, इसलिए
मुझे सम्मान
मिले। वैसा
व्यक्ति यह भी
नहीं कहता--यह
भी शिकायत
नहीं करता--कि
दूसरे चरित्रहीन
सम्मानित हो
रहे हैं, यह
क्या अन्याय
हो रहा है!
वैसा व्यक्ति
यह भी नहीं
कहता कि
चरित्रहीन
सफल हो रहे
हैं और चरित्रवान
असफल हो रहे
हैं, हे
प्रभु, यह
कैसा अन्याय
है! नहीं, उसकी
कोई शिकायत
नहीं। वह
जानता है कि
चरित्रहीन
कितना ही सफल
हो जाए, उसकी
सब सफलता
अंततः जोड़ में
असफलता बन
जाती है। वह
जानता है कि
चरित्रवान
सफल हो कि
असफल, उसके
आनंद में कोई
फर्क नहीं
पड़ता। उसकी
विफलता भी
सफलता है।
सफलता तो
सफलता है ही।
वह सड़क पर भिखारी
की तरह भी खड़ा
हो, तो
उसके भीतर
सम्राट का भाव
होता है।
चरित्रहीन, सम्राट की
तरह सिंहासन
पर भी बैठा हो,
तो भी
अपराधी के भाव
से भरा होता
है।
असली
निर्णय भीतर
है। चरित्र का
एक सहज सुख है।
एक शीतलता है।
लेकिन, उस
चरित्र का जो
अपने से आता
है।
महावीर
कहते हैं, "चरित्रविहीन पुरुष का
विपुल
शास्त्र-अध्ययन
भी व्यर्थ ही है;
जैसे कि
अंधे के आगे
लाखों-करोड़ों
दीपक जलाना व्यर्थ
है।'
अंधे
के सामने एक
दीपक जलाओ, कि करोड़
दीपक जलाओ, कोई अंतर
नहीं पड़ता।
सुना
है मैंने, एक अंधा
अपने मित्र के
घर से विदा हो
रहा था। तो
मित्र ने कहा,
रात में
अंधेरा
ज्यादा है, अमावस की
रात है।
रास्ते पर कोई
दुर्घटना हो जाए,
तुम यह हाथ
में कंदील
लिये जाओ। उस
अंधे ने कहा, तुम पागल
हुए हो! मुझे
क्या फर्क
पड़ता है, कंदील
हाथ में हो, या न हो!
अंधेरा
अंधेरा है।
मैं अंधा हूं,
क्या तुम
भूल गये? कंदील
क्या करेगी!
लेकिन
उस मित्र ने
तर्क किया कि
माना कि तुम अंधे
हो और कंदील
तुम्हारे लिए
कुछ न कर
सकेगी, लेकिन
इतना तो करेगी
कि दूसरा कोई
तुमसे न टकरा
सकेगा। रोशनी
हाथ में रहेगी,
तो दूसरा
तुमसे न टकरा
सकेगा। यह
तर्क अंधे को
भी जंचा, वह
कंदील लेकर
गया। कोई
दस-पांच कदम
ही गया था कि
कोई उससे आ
टकराया। उसने
कहा, क्या
मामला है? क्या
तुम भी अंधे
हो? हाथ
में कंदील है
मेरे, दिखायी
नहीं पड़ती? उस दूसरे
आदमी ने कहा
कि महानुभाव,
आपकी कंदील
बुझी हुई है।
अंधे
को पता कैसे
चले कि कंदील
बुझ गयी। अंधे
को कंदील का
जलना ही पता
नहीं चलता, तो बुझना
कैसे पता
चलेगा? और
कहते हैं, उसे
अंधे ने लौटकर
अपने मित्र को
कहा कि मैं वर्षों
से चल रहा हूं,
कभी मुझसे
कोई भी न
टकराया था।
क्योंकि मैं
खुद ही संभलकर
चलता हूं, लकड़ी
चोट करके चलता
हूं, खबर
करके चलता हूं
कि भई, मैं
अंधा हूं।
तुम्हारी
कंदील ने मुझे
आश्वासन दे
दिया कि आज तो
कोई खबर रखने
की जरूरत नहीं।
आज तो लापरवाह
चल सकता हूं।
कंदील तो हाथ
में है, कोई
टकरायेगा
नहीं। यह पहली
दफे मेरी
जिंदगी में
कोई मुझसे
टकराया है, तुम्हारी
कंदील के कारण
टकराया है।
कंदील ने
भरोसा दे दिया,
आत्मविश्वास
दे दिया।
अन्यथा अंधा
अपने अंधेपन
के हिसाब से
व्यवस्था
करके चलता है।
लकड़ी टटोलकर,
आवाज करके।
आज उसने अपनी
सहज सावधानी
को भी छोड़
दिया।
अगर
तुम्हें पता
हो कि तुम
अज्ञानी हो, तो तुम टटोलकर
चलोगे, आवाज
करके चलोगे, लकड़ी बजाकर
चलोगे; अकड़कर न चलोगे।
लेकिन, अगर
तुम्हारा
अज्ञान
शास्त्र-अध्ययन
में ढंक गया, तो तुम्हें
लगता है, तुम्हारे
हाथ में कंदील
आ गयी। तुम अकड़कर
चलोगे।
अज्ञानी के
पास जब उधार
ज्ञान हो जाता
है, तो
ज्ञान तो नहीं
आता, सिर्फ
अकड़ आती है।
ज्ञान तो नहीं
जलता, सिर्फ
अहंकार प्रगाढ़
होता है।
इस
अहंकार से
चरित्र तो
कैसे पैदा
होगा! अहंकार
तो सबसे बड़ी
बाधा है
चरित्र में।
क्योंकि चरित्र
की अगर कोई
बुनियाद है, तो निर-अहंकारिता
है। अपने को
बदलने को वही
तैयार होता है,
जो अपने दोष
देखने को
तैयार है।
अहंकार तो अपने
दोष देखने को
तैयार ही नहीं
होता। इसलिए
बदलने का तो
कोई सवाल ही
नहीं है।
अज्ञानी
व्यक्ति, जिसके
ऊपर पांडित्य
का कोई बोझ
नहीं है, अपने
अज्ञान को
देखता है और
सदा तत्पर
होता है बदलने
को। अज्ञानी
सीखने को राजी
होता है, पंडित
सीखने को राजी
नहीं होता।
उसे तो पहले से
ही खयाल है कि
मैं जानता
हूं।
इसीलिए
सदियां बीत
गयीं, शास्त्र
बढ़ते चले गये;
आदमी का
ज्ञान भी खूब
बढ़ा; मंदिर,
मस्जिद, गुरुद्वारे
भी खूब बने, लेकिन
चरित्र के
मंदिर का जन्म
न हुआ।
मस्जिदों
में मौलवी खुत्बे
सुनाते ही रहे
मंदिरों
में बिरहमन
अशलोक
गाते ही रहे
आदमी
मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फां
ही रहा
दर्दे-इंसानी
मगर महरूमे-दर्मा
ही रहा
चलते
रहे। मौलवी
कुरान समझाते
रहे। मंदिरों में
उपदेश देते
रहे
ब्राह्मण।
मस्जिदों
में मौलवी खुत्बे
सुनाते ही रहे
मंदिरों
में बिरहमन
अशलोक
गाते ही रहे
आदमी
मिन्नतकशे-अरबाबे-इर्फां
ही रहा
लेकिन
आदमी सदा
देवताओं के
सामने हाथ
जोड़े भिखारी
ही बना रहा।
वह देवताओं की
कृपा का
आकांक्षी ही
रहा। आदमी कभी
अपने पैर पर
खड़ा न हो
पाया। आदमी
कभी स्वावलंबी
न बन पाया।
आदमी देवताओं
के सामने भिखमंगा
बना रहा, आदमी
खुद देवता न
बन पाया।
दर्दे-इंसानी
मगर महरूमे-दर्मा
ही रहा
और आदमी
की जो
बुनियादी
बीमारी है, वह उपचार से
वंचित रही।
आदमी का
अहंकार उसकी बुनियादी
बीमारी है।
दर्दे-इंसानी
मगर महरूमे-दर्मा
ही रहा
वह जो
मूल पीड़ा है, अकड़ की, वह
अपनी जगह खड़ी
रही। खड़ी ही न
रही, बल्कि
बहुत बढ़ गयी।
मंदिरों, मस्जिदों ने सहारा
दिया। आदमी
गहन अहंकार से
भर गया। इस
अहंकार के
कारण सीखना ही
असंभव! इस
अहंकार के
कारण झुकना
असंभव। इस
अहंकार के
कारण विनम्र
होना असंभव।
"चरित्रहीन
पुरुष का
विपुल
शास्त्र-अध्ययन
व्यर्थ है।'
महावीर
कह रहे हैं, शब्दों से
नहीं, अध्ययन
से नहीं, स्वाध्याय
से--स्वयं के
अध्ययन से यात्रा
शुरू होगी।
"चारित्र्यसंपन्न का अल्पतम
ज्ञान भी बहुत
है।'
थोड़ा
भी जानो, लेकिन
जानो। अपने
अनुभव से
जानो। थोड़ा भी
जानो, लेकिन
तुम्हारे ही
जीवन का निचोड़
हो। रत्तीभर
काफी है, लेकिन
तुमने
प्राणों को
डालकर उसे
सीखा हो। उधार
न हो। ऊपर-ऊपर
न हो।
सुना-सुनाया न
हो। तुम्हारे
भीतर प्राणों
ने गुनगुनाया
हो। तुमने
अपनी आंख से
जाना हो।
तुमने अपने हाथ
से छुआ हो। तो
अल्पतम ज्ञान
भी बहुत है।
"...और
चरित्रविहीन
का बहुत श्रुतज्ञान--बहुत
कुछ सुना हुआ,
बहुत
स्मृति से
इकट्ठा किया
हुआ, वैसा
ज्ञान--भी
निष्फल है।'
हम
जानते बहुत
हैं बिना
जाने।
गुरजिएफ के
पास जब पहली
दफा आस्पेंस्की
आया--उसका
प्रमुख
शिष्य--तो
गुरजिएफ ने
कहा, तू एक काम
कर। एक कागज
पर दो खंड कर
ले। एक तरफ लिख,
जो तू जानता
है। और एक तरफ
लिख, जो तू
नहीं जानता
है। और
ईमानदारी
बरत। क्योंकि
अगर मेरे पास
कुछ सीखना है,
तो ईमानदारी
से शुरुआत
करनी होगी।
फिर मेरा कुछ
खोता नहीं, अगर तू
बेईमान भी
रहे। जो तू
लिख देगा कि
तू जानता है, उस संबंध
में मैं फिर
कभी तुझसे बात
न करूंगा। बात
खतम हो गयी, तू जानता
है। और जो तू
लिख देगा कि
नहीं जानता है,
उस संबंध
में मैं तेरी
पूरी सहायता
करूंगा जानने
के लिए। अब तू
सोच ले। यह
कागज ले, भीतर
के कमरे में
जाकर लिख ले।
आस्पेंस्की
प्रसिद्ध
आदमी था। बड़ा
गणितज्ञ था।
जब गुरजिएफ के
पास आया तो
गुरजिएफ को तो
कोई भी नहीं
जानता था, आस्पेंस्की का नाम
अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति का नाम
था। उसने एक
बड़ी अदभुत
किताब "टर्सियम
आर्गनम' लिखी थी।
ऐसी किताबें
सदियों में
एकाध बार लिखी
जाती हैं।
कहते हैं, दुनिया
में केवल तीन
किताबें हैं
उस मूल्य की, पूरे मनुष्य
जाति के
इतिहास में।
पहली किताब अरिस्टाटल
ने लिखी थी।
उसका नाम है--"आर्गनम।' पहला
सिद्धांत।
दूसरी किताब
बेकन ने लिखी,
उसका नाम
है--"नोवम आर्गनम।'
नया
सिद्धांत। और
तीसरी किताब आस्पेंस्की
ने लिखी। उसका
नाम है--"टर्सियम
आर्गनम।'
तीसरा
सिद्धांत।
कहते हैं, इन
तीन किताबों
का कोई
मुकाबला नहीं
है।
और आस्पेंस्की
ने जब ऐसी
बहुमूल्य
किताब लिखी थी, तो स्वभावतः
अकड़ थी। अकड़
तो उसकी किताब
के पहले पन्ने
से ही पता
चलती है। पहले
पन्ने पर ही
वह लिखता है
कि अरस्तू ने
पहला
सिद्धांत
लिखा, बेकन
ने दूसरा लिखा,
मैं तीसरा
लिखता हूं, लेकिन तीसरा
पहले से भी
पहले मौजूद
था। यह मेरा
तीसरा
सिद्धांत
पहले से भी
पहले है! और
किताब तो
मूल्यवान है,
इसमें कोई
भी शक नहीं
है।
गुरजिएफ
को कोई भी
नहीं जानता
था। गुरजिएफ
को लोगों ने
जाना आस्पेंस्की
के कारण।
क्योंकि आस्पेंस्की
उसका शिष्य हो
गया। तो जरूर
इस फकीर में
कुछ होगा। और
गुरजिएफ ने
कहा, तू लिख
ले। क्योंकि
मैंने तेरी
किताब देखी है।
तू बड़े खतरे
में है। तुझे
पता नहीं है
और तुझे खयाल
है कि तुझे
पता है। यह
साफ हो जाए
पहले ही दिन, फिर बात चल
पड़ेगी।
आस्पेंस्की
आदमी निश्चित
ईमानदार रहा
होगा। सब दांव
पर लगा दिया
उसने। घंटेभर
वह बैठा रहा
उस कमरे में।
सर्द रात थी, पसीना-पसीना
हो गया। हाथ
में लिए कलम, कागज सामने रखे, चेष्टा
करता है, लेकिन
कुछ भी याद
नहीं आता जो
जानता हो, जो
वस्तुतः
जानता हो, जिसको
स्वयं जाना
हो। जिसका
साक्षात्कार
हुआ हो। न
ईश्वर को
जानता है, न
आत्मा को
जानता है। कुछ
भी तो नहीं
जानता। अभी
ध्यान भी तो
नहीं जाना।
अभी प्रेम भी
तो नहीं जाना।
परमात्मा तो
बहुत दूर है, अभी प्रेम
भी नहीं जाना।
रोता है, पसीने
से तरबतर है।
घंटेभर
बाद वापिस आता
है। गुरजिएफ
के चरणों में
गिर पड़ता है।
खाली कागज हाथ
में दे देता
है। कहता है, मैं कुछ भी
नहीं जानता।
मैं शिष्य
होने को तैयार
हूं। और वह
आखिरी क्षण है,
उसके बाद
उसने कभी
गुरजिएफ के सामने
किसी भी बात
को जानने का
दावा नहीं
किया।
गुरजिएफ
ने खूब भरा
उसे। खूब
उंडेला
उसमें। इतना
खाली पात्र
मिल जाए, तो
गुरु भी नाच
उठता है! और
इतना खाली हूं,
ऐसा मानने
को तैयार हो
जाए; खाली
तो सभी हैं।
मानने में
अड़चन है। खाली
हैं तो और
ढक्कन को बंद
किये बैठे हैं,
कि कोई
ढक्कन न खोल
ले, कोई
भीतर देख न ले!
तुमने
कभी विचार
किया कि क्या
तुम जानते हो? तुमने कभी
ईमानदारी से
उत्तर दिये? तुम्हारा
छोटा बच्चा
तुमसे पूछता
है, ईश्वर
है? तुम
कहते हो हां
है। वह कहता
है, दिखाओ।
तो तुम कहते
हो, बड़े हो
जाओ, तब
तुम्हें
दिखायी पड़ेगा।
तुम्हें
दिखायी पड़ा
बड़े होकर? क्यों
झूठ बोल रहे
हो! कम से कम
ईश्वर के
संबंध में तो
झूठ मत बोलो।
क्या तुम
बच्चे को दे
रहे हो? तुम
सोचते हो, ईश्वर
दे रहे हो।
तुम एक बड़े से
बड़ा झूठ दे
रहे हो। इसमें
ईश्वर तो
मिलेगा ही
नहीं तुम भी
खो जाओगे।
सभी
बच्चे बड़े होकर
अपने मां-बाप
का तिरस्कार
करने लगते
हैं। क्योंकि
एक न एक दिन यह
पता चल जाता
है कि धोखा दिया
गया। छोटे
बच्चे तो बड़ी
श्रद्धा से
भरे होते हैं।
तुम जो भी
कहते हो, मान
लेते हैं।
अश्रद्धा
जानते ही नहीं
अभी। लेकिन कब
तक ऐसा रहेगा!
जल्दी ही
सोच-विचार उठेगा,
संदेह
जगेंगे, प्रश्न
उठेंगे और तब
वे देखेंगे, कि तुम भी
उसी नाव में
सवार हो जिस
पर वे सवार हैं।
न तुम्हें
परमात्मा का
पता है, न
तुम्हें
आत्मा का पता
है, तुम
बकवास कर रहे
हो। जिस दिन
यह दिखायी
पड़ता है, उसी
दिन श्रद्धा
गिर जाती है।
और जिस बच्चे
की श्रद्धा
मां-बाप से
गिर जाती हो, उसकी
श्रद्धा सभी
जगह गिर जाती
है।
जो
इतने करीब थे, जो इतने
अपने थे, वे
भी धोखा दे
गये! वे भी झूठ
बोलते रहे! वे
भी दावे करते
रहे, जिनका
उन्हें कुछ भी
पता न था! तो अब
दूसरों का क्या
भरोसा? अगर
इस संसार में
तुम्हें इतने
अश्रद्धालु दिखायी
पड़ते हैं, उसका
बुनियादी
कारण यही है, बच्चों की
श्रद्धा के
साथ खिलवाड़
किया गया है।
उतना ही कहना,
जितना तुम
जानते हो। कुछ
हर्ज नहीं है
कह देने में
कि मुझे पता
नहीं है, खोज
रहा हूं, मिल
जाएगा तो
तुम्हें बता
दूंगा। अगर
तुम्हें मिल
जाए, तो
मुझे खबर
करना। मुझे
पता नहीं है।
यह भी पता
नहीं कि मैं
कौन हूं।
यह
झूठी अकड़ कि
मुझे पता है, सबसे महंगा
सौदा है। इसके
कारण ही
चरित्र का जन्म
नहीं हो पाता।
क्योंकि झूठ
से तो चरित्र
का जन्म नहीं
हो सकता।
अब यह
थोड़ा सोचना।
इसे
तुम धर्म की
शिक्षा कहते
हो। सारे धर्म
यह चेष्टा
करते हैं--ईसाई, हिंदू, जैन,
मुसलमान--सब
यह चेष्टा
करते हैं कि
धर्म की शिक्षा
रहे। क्या
शिक्षा तुम
दोगे? शिक्षक
को पता है? शिक्षक
को भी पता
नहीं है। ऐसे
तुम झूठ को
पैर लगा रहे
हो। ऐसे तुम
झूठ को
चलायमान कर
रहे हो। सब
धर्म शिक्षा
खतरनाक है।
क्योंकि
ज्ञान से भर
देगी। और
चरित्र से सदा
के लिए वंचित
कर जाएगी।
वास्तविक
धर्म की
शिक्षा तो एक
ही हो सकती है कि
तुम्हें जीवन
से निचोड़ने
की कला सिखायी
जाए। तुम्हें
कहा जाए कि
जीवन के
अनुभवों से
सीखना। अगर
क्रोध करते हो, तो खूब जागकर
क्रोध करना।
ताकि क्रोध
में क्या होता
है, यह
तुम्हें पता
चल जाए। फिर
तुम्हारी
मर्जी! फिर जो
श्रेयस्कर हो,
करना। अगर
तुम्हें लगे,
क्रोध ही
उचित है, वही
तुम्हारा
आनंद है, तो
वही करना।
लेकिन ऐसा तो
कभी हुआ नहीं
कि क्रोध में
किसी ने आनंद
पाया हो।
कामवासना में
तुम्हारा
आनंद है, तो
ठीक है, उसी
तरफ जाना।
लेकिन ऐसा कभी
हुआ नहीं कि
किसी ने आनंद
पाया हो। आनंद
तो मनुष्य के
भीतर है--न
क्रोध में है,
न काम में
है, न लोभ
में है।
रत्न
तो लाख मिले, एक हृदय-धन न
मिला
दर्द
हर वक्त मिला, चैन किसी
क्षण न मिला
खोजते-खोजते
ढल धूप गयी
जीवन की
दूसरी
बार मगर लौटकर
बचपन न मिला
और धर्म
का अर्थ है, दूसरी बार
बचपन का मिल
जाना। द्विज
हो जाना। धर्म
ऐसे रत्न की
तलाश है जो
तुम्हारे
भीतर छिपा पड़ा
है, जो
तुम्हारी
अंदर की
पर्तों में
दबा पड़ा है।
यह
धर्म किसी से
मिल नहीं
सकता। यह धर्म
किसी के हाथ
से
हस्तांतरित
नहीं हो सकता।
यह धर्म तो
तुम्हें अपने
भीतर उतरकर
ही खोजना
होगा।
जीवन
के हर अनुभव
को सीढ़ी
बनाना। और
जीवन के किसी
अनुभव से घबड़ाना
मत। यहां कुछ
भी बुरा नहीं
है। अगर सीख
लो, तो सभी
शुभ है। और न
सीखो, तो
सभी अशुभ है।
यहां कांटे भी
शिक्षा के लिए
हैं। यहां
अपमान में भी
राज है। यहां
दुख और दर्द में
भी प्रार्थना
के बीज ही
छिपे हैं।
सूफी
फकीर हसन
परमात्मा से
प्रार्थना
किया करता था
कि हे
परमात्मा! और
कुछ भी करना, लेकिन थोड़ा
दर्द बनाये
रखना, थोड़ा
दुख देते
रहना। एक दिन
किसी ने सुन
लिया। यह कैसी
प्रार्थना कर
रहा है! पूछा
कि हसन, प्रार्थनाएं
हमने बहुत सुनीं,
लोग करते
हैं
प्रार्थना
सुख की, सुख
के लिए, यह
कैसी
प्रार्थना!
तुम्हारा
दिमाग ठीक है?
या मैंने
गलत सुना? मुझे
लगा कि तुम कह
रहे हो, हे
परमात्मा! रोज
मुझे थोड़ा दुख
जरूर देते रहना।
हसन ने
कहा, गलत नहीं
सुना। लेकिन
दुख में जब
मैं होता हूं,
तब
प्रार्थना सुगम
होती है।
इसलिए दुख की
प्रार्थना
करता हूं, क्योंकि
दुख की छाया
में ही मैं
प्रार्थना कर पाता
हूं। अभी मैं
इतना योग्य
नहीं कि सुख
में
प्रार्थना कर
सकूं। सुख में
भूल जाता हूं।
दुख में याद
बनी रहती है।
तो थोड़ा दुख
देते रहता।
ऐसा न हो कि
सुख ज्यादा दे
दो, और मैं
तुम्हें ही
भूल जाऊं।
क्योंकि
तुम्हें ही
भूल गया, तो
सुख का क्या
करूंगा? तुम
याद रहे, थोड़ा
दुख भी रहा तो
ठीक है।
तुम्हारी याद
के साथ दुख
झेलना बेहतर।
तुम्हारी याद
के बिना सुख
में उतरना
खतरनाक।
स्वर्ग
भी नर्क हो
जाता है, अगर
परमात्मा का
स्मरण न रहे।
नर्क भी
स्वर्ग हो
सकता है, अगर
उसकी याद बनी
रहे। वस्तुतः
तो उसी की याद में
स्वर्ग है।
स्मरण में, बोध में, ध्यान
में।
चरित्र
रुक गया है, अवरुद्ध हो
गया है। झूठे
ज्ञान के कचरे
ने, कंकड़-पत्थरों ने
झरने को
अवरुद्ध कर
दिया है। तो पहली
बात जो
धार्मिक
व्यक्ति को
करने की है, वह यह
है--तथाकथित
ज्ञान को हटा
दो। इस कूड़े-कर्कट
को अलग करो।
इसको अलग करते
ही तुम बड़े निर्भार
हो जाओगे। बोझ
उतर जाएगा। न
हिंदू रहोगे,
न मुसलमान,
न जैन, न
ईसाई।
क्योंकि यह सब
तो उधार ज्ञान
के कारण तुम
बने हो। तब
तुम सिर्फ
शुद्ध खालिस
आदमी रह
जाओगे। शुद्ध,
सहज आदमी।
और तुम्हारी
आंखें निर्मल
बच्चे की
भांति हो
जाएंगी।
क्योंकि
ज्ञान ने ही
तुम्हें बूढ़ा
किया है। अगर
ज्ञान तुम हटा
दो, तो
दूसरा बचपन
आने लगा।
रत्न
तो लाख मिले, एक हृदय-धन न
मिला
मिलेगा
भी कैसे!
हृदय-धन तो
भीतर है।
बाहर
जो भी मिल
जाएगा, वह
और कुछ भी हो, हृदय-धन तो
नहीं हो सकता।
और जो हृदय-धन
नहीं है, वह
धन कैसा! वह आज
नहीं कल छिनेगा।
दर्द
हर वक्त मिला, चैन किसी
क्षण न मिला
चैन तो
भीतर मिलता
है। चैन तो
उसे मिलता है, जो अपनी ही
छाया में आ
गया। जो अपने
भीतर इतना उतर
गया कि संसार
की तरंगें वहां
तक पहुंच नहीं
पातीं। चैन तो
बस उसे मिलता
है।
दर्द
हर वक्त मिला, चैन किसी
क्षण न मिला
खोजते-खोजते
ढल धूप गयी
जीवन की
दूसरी
बार मगर लौट
के बचपन न
मिला
और जब
तक दूसरी बार
बचपन न मिले, समझना कि
जीवन व्यर्थ
गया। दूसरी
बार बचपन मिल
जाए, कि
जीवन सार्थक
हुआ। उस दूसरे
बचपन को ही तो
संतत्व कहते
हैं। पहला बचपन
मूल्यवान है,
लेकिन खोयेगा।
क्योंकि पहला
बचपन अबोध है।
उसे खोना ही
पड़ेगा। उसे
बचाने का कोई
उपाय नहीं है।
वह खोने को ही
है। बच्चा सरल
है, साधु
है, लेकिन
उसकी साधुता
इतनी सरल है
कि संघर्ष में
टिक न सकेगी।
उसकी साधुता
इतनी
स्वाभाविक है
कि जीवन के
उपद्रव में दब
जाएगी। उसकी
साधुता
जानेवाली है।
कोई उपाय नहीं
बचाने का।
एक और
बचपन आता है, जब तुम अपने
हाथ से बचपन
लाते हो। हटा
देते हो सब कूड़ा-कर्कट
जानकारी का।
फिर अनजान हो
जाते हो, जैसे
छोटा बच्चा।
तुम्हारी
आंखें विचारों
से भरी नहीं
हैं। निर्मल
हो जाती हैं।
तुम्हारी
खोपड़ी में कोई
बोझ नहीं। तुम
फिर से आंख खोलकर
जगत को देखते
हो, जैसा
तुमने पहली
बार आंख खोलकर
गर्भ के बाद
देखा था।
जन्मे थे और
आंख खोली थी।
उतनी ही निष्कपटता
से फिर से तुम
जगत को देखते
हो। इसी को तो
हम संतत्व कहते
हैं। कहो
"केवल ज्ञान।'
यह
दूसरा बचपन
बड़ा बहुमूल्य
है। यह कभी खोयेगा
नहीं।
क्योंकि इसे
तुमने अर्जित
किया है। पहला
बचपन मिला था, दूसरा तुमने
कमाया है। जो
कमाया है, वह
कभी खोयेगा
नहीं। जो मिला
था, वह
वापिस लिया जा
सकता है। पहला
बचपन मुफ्त था।
दूसरा बचपन अर्जित
है। पहला बचपन
अबोध था।
दूसरा बचपन बड़ा
बोधपूर्ण है,
बुद्धत्वपूर्ण है। पहला
बचपन
कठिनाइयों को
नहीं जानता
था। कठिनाइयों
में गया, भटक
गया। दूसरा
बचपन सारी
कठिनाइयों को
पार करके आया
है, जानकर
आया है। देख
लिये जीवन के
सब अनुभव। फांक
ली धूल सभी
रास्तों की।
और सभी घाटों
का पानी पी
लिया। सब
पाप-पुण्य पहचान
लिये।
बुरे-भले
अनुभव, मीठे-कडुवे
अनुभव, सबसे
गुजरकर आया
है। जीवन की
परीक्षा पर
कसकर उतरा है।
कसौटी से
गुजरा है। यह
जो दूसरा बचपन
है, इसे
फिर कोई छीन
नहीं सकता। यह
फिर तुम्हारी
निधि है। यही
है हृदय-धन।
"चरित्र-संपन्न
का अल्पतम
ज्ञान भी बहुत
है।'
यह
अल्पतम ज्ञान
आता ही चरित्र
से है। जीवन
को जीने से
आता है। जीवन
के साथ जूझने
से आता है। जीवन
की चुनौती
स्वीकार करने
से आता है।
जीवन जो अड़ंगे
देता है, उनको
पार करने से
आता है।
यह
ज्ञान चरित्र
का ही निचोड़
है, सार है। जैसे
हजारों फूलों
को निचोड़कर
इत्र बनता है,
ऐसे हजारों
अनुभवों को निचोड़कर
ज्ञान बनता
है। एक बार
क्रोध किया, दो बार
क्रोध किया, हजार बार
क्रोध किया, लाख बार
क्रोध किया, इन सारे क्रोधों
से तुमने जब
अनुभव को निचोड़ा,
और पाया कि
सब व्यर्थ था,
कुछ भी
करने-जैसा न था,
नाहक ही
परेशान हुए!
खयाल
रखना, इसमें
जल्दी नहीं की
जा सकती। सब
चीजें समय पर
पकती हैं। और
फूल अपने-आप
खिलते हैं, उन्हें
जबर्दस्ती
नहीं खोलना
होता, प्रतीक्षा
जरूरी है।
अगर
तुमने सुन
लिया कि क्रोध
बुरा है और
पहले से ही
मान लिया कि
क्रोध बुरा है, और फिर तुम
सोचने लगे कि
अब अनुभव से निचोड़ लें,
तुम न निचोड़
पाओगे।
क्योंकि
तुम्हारी
धारणा तो पहले
से ही तैयार
है।
कोई
धारणा नहीं
चाहिए। क्रोध
को निर्धारणा
से देखो। जैसे
तुम्हें किसी
ने कभी कुछ
नहीं कहा
क्रोध के
संबंध
में--अच्छा है, बुरा है; पाप
है, पुण्य
है। कामवासना
को निर्धारणा
से देखो। जैसे
कोई तुम्हें सिखानेवाला
नहीं आया। तुम
पृथ्वी पर
पहली दफा आये
हो, और
तुम्हें किसी
ने कोई शिक्षा
नहीं दी; तुम
कामवासना को
ऐसी खुली नजर
से देखो, तो
जल्दी ही निचोड़
आ जाएगा हाथ
में। वही-वही
हम दोहराये
चले जाते हैं।
लेकिन, अड़चन
क्या है? अड़चन
यह है, कि
अनुभव के पहले
हमारी धारणा
निर्मित हो
जाती है।
अभी
बच्चे को पता
भी नहीं है कि
झूठ बोलना क्या
है, और हम उसे
सिखाने लगते
हैं--सच बोलना,
झूठ मत
बोलना। हमारी
बात सुनकर ही
उसे पहली दफा
पता चलता है
कि झूठ भी कुछ
है।
मैंने
सुना है, गांव
में एक नया
मौलवी आया। वह
उत्सुक था
जानने को कि
उसके प्रवचन
गांव के लोगों
को कैसे लग
रहे हैं। उसने
मुल्ला नसरुद्दीन
से पूछा--वह
रोज-रोज सुनने
आता है, सामने
ही बैठता
है--पूछा उससे
कि कैसा लग
रहा है मेरा
बोलना
तुम्हें, जो
मैं समझा रहा
हूं? नसरुद्दीन ने कहा कि धन्यभाग
कि आप आये! आप
जब तक न आये थे,
हमें पता ही
न था कि पाप
क्या है।
धर्मगुरु
से पता चलता
है कि पाप
क्या है। यह पाप
सिर्फ शब्द है, कोरा शब्द
है। धर्मगुरु
से पता चलता
है, पुण्य
क्या है। यह
पुण्य भी कोरा
शब्द है। जीवन
ही तुम्हारा
गुरु है। और
जीवन से ही सीखे
बिना कोई और
दूसरा उपाय
नहीं। कोई
सस्ता उपाय
नहीं। कोई
करीब का मार्ग
नहीं। जीवन के
दुर्धर्ष संघर्ष
से ही गुजरे
बिना कोई कभी
पहुंचता नहीं।
परमात्मा
जीवन की
यात्रा का
अंतिम पड़ाव
है। सस्ते में
किसी ने कभी
परमात्मा
पाया नहीं।
जिसने पाने की
कोशिश की, नकली सिक्के
हाथ लगे। झूठे
सिक्के हाथ
लगे। जिसने
सस्ते में पाने
की कोशिश की, उसे
परमात्मा के
नाम पर केवल
सिद्धांत हाथ
लगे, सत्य
हाथ न लगा।
"चरित्रसंपन्न का अल्पतम
ज्ञान भी बहुत
है।' क्योंकि
उसका अल्पतम
ज्ञान उसके ही
जीवन का निचोड़
है। सारा
संसार भी कहे
कि तुम गलत हो,
तो भी उसे
अंतर नहीं
पड़ता।
विवेकानंद
ने रामकृष्ण
को पूछा, ईश्वर
है? आपके
पास कोई
प्रमाण है? रामकृष्ण
हंसने लगे।
उन्होंने कहा,
मैं प्रमाण
हूं। मेरे पास
कोई प्रमाण
नहीं, मेरा
अनुभव प्रमाण
है। सारी
दुनिया कहे कि
नहीं है, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता।
मैंने जाना
है।
तुम्हें
तो कोई जरा-सा
संदिग्ध कर दे, तो तुम
डांवांडोल हो
जाते हो, नास्तिक
से लोग बात
करने में डरते
हैं। क्योंकि
कहीं वह
तुम्हारे
संदेह को जगा
न दे। कहीं श्रद्धा
को डगमगा न
दे। ऐसी
श्रद्धा दो कौड़ी की है,
जिसे कोई
डगमगा दे। यह
उधार है। यह
श्रद्धा उधार
है, इसलिए
डरती है कि
बाहर से आयी
श्रद्धा है, बाहर से
संदेह भी आ
सकता है और
उसे तोड़ सकता
है।
शास्त्रों
में लिखा
है--हिंदू-शास्त्रों
में लिखा है, जैन-मंदिर
में मत जाना
चाहे पागल
हाथी के पैर के
नीचे दबकर भी
मर जाने की
नौबत क्यों न
आ जाए। पागल
हाथी पीछे लगा
हो, और जैन-मंदिर
आ जाए, तो
उसमें शरण मत
लेना, पागल
हाथी के पैर
के नीचे दबकर
मर जाना बेहतर
है। ऐसा ही
जैन-शास्त्रों
में भी लिखा
है कि हिंदू
मंदिर में शरण
मत लेना। जैन
हो कि हिंदू, मुसलमान हो
कि ईसाई, पागलपन
एक-जैसा है।
क्यों, इतनी क्या घबड़ाहट है?
कहीं
जैन-सिद्धांत
कान में न पड़
जाएं--मंदिर
में कहीं कोई
प्रवचन चलता
हो।
हिंदू-शास्त्र
कान में न पड़
जाएं--कहीं तुम्हारा
संदेह जग न
जाए, कहीं
श्रद्धा
डगमगा न जाए।
इन घबड़ाये
हुए लोगों ने
लोगों को
जगाया नहीं, सुलाया।
हिम्मत न दी, और कमजोर
बनाया। बल न
दिया, और
नपुंसकता दी।
नहीं, अगर
तुम्हारे
अनुभव से कुछ
आया है, अगर
तुमने देखा है
गौरीशंकर
के शिखर को, सूरज की
किरणों में
जगमगाते, फिर
सारी दुनिया
कहे कि नहीं
है, तो भी
कोई फर्क न
पड़ेगा। तुम
कहोगे
तुम्हारी मर्जी,
मानो न मानो,
मैंने देखा
है। मैंने खुद
जाना है।
महावीर
कहते हैं, थोड़ा-सा
ज्ञान हो, लेकिन
अपने जानने से
आया हो, तो चरित्रविहीन
के बहुत सुने
हुए, इकट्ठे
किये हुए
ज्ञान से
बेहतर है।
चरित्रहीन का
ज्ञान बड़ा
धोखा है। उधार
है।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
को उसके
धर्मगुरु ने
बहुत समझाया
और कहा कि तू
शराब छोड़ दे।
एक दिन उसने कसम
भी ले ली। फिर
जब लौटने लगा
सांझ अपने घर
की तरफ और
शराबघर आया, तो हाथ-पैर
कंपने लगे
उसके। खींचने
लगा शराबघर
उसे। इतनी प्रगाढ़ता
से, जैसा
पहले भी कभी न
खींचा था।
क्योंकि पहले
तो सिर्फ
शराबघर था, आज भीतर एक
कसम भी ले ली
थी, वह भी
दूसरे के कहने
से ले ली थी।
मन बड़ा आतुर
होने लगा। मन
हजार बहाने
खोजने लगा। कि
छोड?
भी, कौन
देख रहा है!
किसको पता है
स्वर्ग-नर्क
का! और क्या
जरूरत किसी की
बातों में
पड़ने की! किस प्रभाव
में आकर तुमने
हां भर दी? लेकिन,
गांव के लोग
हैं, देख
लेंगे, धर्मगुरु
तक खबर पहुंच
जाएगी। फिर
प्रतिष्ठा भी
दांव पर है।
फिर उसे यह भी
लगने लगा कि यह
भी बड़ी मेरी
कमजोरी है कि
मैं इतनी-सी
बात पर विजय
नहीं पा सकता!
तो अहंकार ने
बल पकड़ा। किसी
तरह उसने पचास
कदम अपने को
घसीट लिया घर
की तरफ। पचास
कदम के बाद, उसने जोर से
अपनी पीठ थपथपायी,
उसने कहा कि
नसरुद्दीन,
गजब कर
दिया! अब आ, तुझे
दिल खोलकर
पिलाता हूं।
इस खुशी में
कि तू शराबघर
के सामने से
निकल आया, पचास
कदम। वाह रे
तेरा संकल्प!
चल, अब इस
खुशी में तुझे
पिलाता हूं।
और उसने खूब पिलायी।
दुगुनी
पिलायी।
अगर
हमने उधार
लिया है
चरित्र, तो
ऐसा ही होगा।
हम कोई न कोई
बहाना खोज
लेंगे। कोई न
कोई रास्ता
निकाल ही लेंगे।
इसी से पाखंड
पैदा होता है।
एक
चेहरा हम ऊपर
बना लेते हैं, एक चेहरा
हमारा भीतर
होता है। जो
भीतर का चेहरा
है, वही
परमात्मा के
सामने है। जो
बाहर का चेहरा
है, वह
संसार के
सामने भला हो।
तुम दूसरों को
धोखा दे लेना,
तुम
अस्तित्व को
धोखा न दे
पाओगे।
अस्तित्व के सामने
तो नग्न ही
खड़ा होना
होगा।
थोवम्मि सिक्खिदे जिणइ, बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो।
जो चरित्रसंपन्न
है, थोड़ा-सा
भी जानता है
तो पर्याप्त
है। एक कण भी अपना,
तो बहुत।
अपना होना
चाहिए।
प्रामाणिक
रूप से अपना
होना चाहिए।
जो
पुण चरित्तहीणो, किं तस्स
सुदेण बहुएण।।
और
बहुत सुना हुआ, बहुत पढ़ा
हुआ--बहुश्रुत--किस
काम का जो
अपने चरित्र
से निचुड़कर
हाथ में न आया
हो।
"निश्चयनय के अनुसार
आत्मा का
आत्मा में
आत्मा के लिए
तन्मय होना ही
सम्यक-चारित्र्य
है।'
यह
सूत्र
बहुमूल्य है।
यह सूत्र इन
सारे सूत्रों
में कोहिनूर
है। आत्मा में
आत्मा का
आत्मा के लिए
ही तन्मय होना
चरित्र है। यह
महावीर की
परिभाषा है।
अपने में पूरी
तरह डूब जाना
चरित्र है। उस
डुबकी को
लगाकर जो बाहर
आता है, वह
बाहर भी ताजा
होता
है--लेकिन वह
ताजगी गौण है,
असली बात तो
भीतर डुबकी
लगाना है। जो
भीतर डुबकी
लगाकर आता है,
उसके बाहर
के जीवन में
भी सब
रूपांतरित हो
जाता है। वह
वही नहीं हो
सकता जो कल तक
था। और यह रूपांतरण
चेष्टित नहीं
होता। यह
रूपांतरण आरोपित
नहीं होता। यह
रूपांतरण अभ्यासजन्य
नहीं होता। यह
रूपांतरण सहज
होता है, बोध
से होता है।
जैसे
अंधे को आंख
मिल गयी। तो
अब दरवाजे से
निकल जाता है।
अब दीवाल से
नहीं टकराता।
ऐसा थोड़े ही
है कि रोकता
है अपने को
दीवाल से न टकराऊं।
रोकने की भी
कोई जरूरत
नहीं, आंख
मिल गयी। या
अंधेरे में
दीया जल गया।
अभी तुम टटोल-टटोलकर जा
रहे थे। दीया
जलते ही टटोलना
बंद कर देते
हो। बंद करने
के लिए कोई
कसम थोड़े ही
खानी पड़ती है
कि अब कभी भी टटोलूंगा
नहीं। अब कसम
खाता हूं कि
टटोलने का
त्याग करता
हूं। कुछ कसम
नहीं खानी
पड़ती! दीये के
जलते ही
टटोलना
समाप्त हो
गया। अंधेरा
गया, टटोलेगा कोई किसलिए।
आंख
मिल गयी, तो
हम यह भी नहीं
सोचते कि
दरवाजा कहां
है। आंख मिलते
ही दरवाजा
दिखायी पड़ने
लगता है। हम
चुपचाप निकल जाते
हैं। तुमने
खयाल किया, तुम सोचते
हो कि यह
दरवाजा है, इससे निकलूं?
यह दीवाल है,
इससे न निकलूं?
इतने विचार
की भी कहां
जरूरत पड़ती है?
जिसके पास
आंख है, निर्विचार
में दरवाजे से
निकल जाता है।
"निश्चयनय के अनुसार, आत्मा का
आत्मा में
आत्मा के लिए
तन्मय होना...।'
"आत्मा
का आत्मा में
आत्मा के लिए
तन्मय होना।'
न कुछ और
पाने को है, न कहीं जाने
को है। आत्मा
ही गंतव्य है।
आत्मा ही साधन,
आत्मा ही
साध्य। आत्मा
ही यात्री, आत्मा ही मंजिल,
आत्मा ही यात्रापथ
है। स्वयं के
स्वभाव में
डूब जाना ही
सब कुछ है, धर्म
है।
णिच्छयणयस्स
एवं, अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो।
सो
होदि हु सुचरित्तो, जोई सो लहइ
णिव्वाणं।।
"...और
ऐसे चरित्रशील
योगी को ही
निर्वाण की
उपलब्धि होती
है।'
तो सार
की बात सिर्फ
एक है, सूत्र
की बात सिर्फ
एक है कि बाहर
न जाओ, भीतर
आओ। बाहर
दौड़ती ऊर्जा
के
द्वार-दरवाजे
बंद कर दो, ताकि
ऊर्जा भीतर
गिरने लगे।
ताकि तुम अपने
में डूब सको।
बाहर तो जाओ
ही न, बाहर
के विचारों
में भी मत
जाओ। क्योंकि
वे भी बाहर ही
ले जाते हैं।
तो निर्विचार
के क्षण में, जब कोई
विचार नहीं, कोई क्रिया
नहीं--निर्विचार,
निष्क्रिय--जब
तुम थिर बैठे
हो, न तो
कोई क्रिया कर
रहे हो और न
कोई विचार कर
रहे हो, सिर्फ
होश मात्र शेष
है, उस होश
में जो घटता
है, वही
चारित्र्य
है।
तो
चरित्र का कोई
संबंध नहीं है
कि किसी से झूठ
बोलो, कि सच
बोलो; कि
ईमानदारी रखो,
कि बेईमानी
करो। खयाल करो,
जो चरित्र
ईमानदारी, बेईमानी,
झूठ, सच,
इन पर
निर्भर है, वह चरित्र
तो सामाजिक है,
आत्मिक
नहीं। अगर तुम
जंगल में चले
जाओ, तो
फिर तुम कैसे
सच बोलोगे? किससे
बोलोगे? अगर
तुम जंगल में
चले जाओ, तो
तुम कैसे ईमानदार
बनोगे? बोलो।
बेईमानी ही
करने का उपाय
नहीं, तो
ईमानदार कैसे बनोगे। तो
यह तो इसका
अर्थ यह हुआ
कि चरित्रवान
केवल समाज में
ही चरित्रवान
हो सकता है।
समाज के बाहर
होते ही चरित्रशून्य
हो जाएगा।
चरित्रहीन भी
नहीं कह सकते
हम उसको, क्योंकि
चरित्रहीन
होने के लिए
भी समाज जरूरी
है।
चरित्रवान
के लिए भी
समाज जरूरी, चरित्रहीन
के लिए भी
समाज जरूरी; जो समाज को
छोड़कर गया, वह चरित्रशून्य
हो जाएगा।
लेकिन महावीर
चरित्र की
दूसरी ही व्याख्या
करते हैं।
महावीर की
व्याख्या के
हिसाब से
हिमालय की
गुफा में बैठा
हुआ योगी भी चरित्रवान
होगा, अगर
वह अपनी आत्मा
में रम रहा
है। अगर आत्मा
से इधर-उधर हट
गया है, स्वप्न
जग गये, विचार
उठ गये, तो
चरित्रहीन हो
गया।
चरित्रहीनता
और चरित्रवान
का संबंध
महावीर आंतरिकता
से बना रहे
हैं। क्योंकि
जो चरित्र समाज
से बंधा हो, उसको क्या
चरित्र कहना!
जो बाहर पर
निर्भर है, उस पर अपनी
क्या मालकियत!
महावीर कहते
हैं, अपने
पूरे मालिक हो
जाना है।
इसलिए
चरित्र की
उन्होंने एक
बड़ी अनूठी
व्याख्या की।
तुम अकेले भी
चरित्रवान हो
सकते हो। तुम
अपने कमरे में
बैठे हो, कोई
भी नहीं है, तो भी तुम
चरित्रवान हो
सकते हो, चरित्रहीन
हो सकते हो।
चरित्रवान, अगर तुम
शांत हो, निर्मल
हो; कोई
तरंग नहीं
उठती, मन
की झील पर कोई
लहर नहीं है; सब मौन, निस्तब्ध,
तो तुम
चरित्रवान
हो।
इसलिए
महावीर ने
ध्यान को एक
नया शब्द
दिया: सामायिक।
यह शब्द बड़ा
प्यारा है।
ध्यान से भी ज्यादा
प्यारा है।
महावीर ने आत्मा
को कहा है, समय। वह
उनका आत्मा का
नाम है। और
समय में डूब जाना,
सामायिक।
वह ध्यान का
उनका नाम है।
शुद्ध समय में
डूब जाना, सामायिक।
"अप्पा अप्पमि अप्पणे सुरदो।' आत्मा का
आत्मा में
आत्मा के लिए
तन्मय हो जाना।
बस तुम ही
बचो। कुछ और न
बचे। शुद्धतम
तुम, तुम ही
बचो। कोई
विजातीय तत्व
न रह जाए।
तुम्हारा स्वभाव
ही स्वभाव शेष
रहे। बस वहीं
से चारित्र्य
शुरू होता है।
फिर
ऐसा व्यक्ति
बाहर तो
चरित्रवान
होता ही है, क्योंकि
जिसने स्वयं
का आनंद ले
लिया, वह
अब ऐसा कुछ भी
न कर सकेगा
जिससे स्वयं
से दूरी बढ़े।
जब भी तुम झूठ
बोलते हो, स्वयं
से दूरी बढ़
जाती है।
इसे
समझो।
अभी तो
पश्चिम में
उन्होंने
अदालतों में
यंत्र लगा रखे
हैं। "लाई-डिटेक्टर्स।' झूठ को पकड़नेवाले
यंत्र। आदमी
अब झूठ भी
नहीं बोल
सकता। मशीन पर
आदमी को खड़ाकर
देते हैं, और
जैसे ही वह
झूठ बोलता है,
मशीन घंटी
बजाने लगती है।
तरकीब क्या है,
मशीन काम
कैसे करती है?
मशीन का काम
बड़ा सीधा-सरल
है। जब तुम सच
बोलते हो, तब
तुम एकस्वर
होते हो। किसी
ने पूछा, कितना
बजा है घड़ी
में? तुमने
कहा, नौ
बजे हैं। तो
तुम्हारे
भीतर
एकस्वरता
होती है। कहीं
कोई खंड नहीं
होता। कहीं
कोई विपरीतता
नहीं होती।
तुम्हारा
हृदय एक धुन
में रहता है, एक लय में
रहता है।
फिर
किसी ने तुमसे
पूछा, तुमने
चोरी की? तो
तुम जानते तो
हो कि तुमने
चोरी की है, इसलिए हृदय
में तो तुम
कहते हो, की,
और बाहर
कहते हो, नहीं
की। द्वंद्व
पैदा हुआ। तो
हृदय की धड़कन
चूक जाती है।
एक धड़कन भी चूक
जाती है हृदय
की, वह
नीचे मशीन पकड़
लेती है। बस
उसका काम इतना
ही है कि वह
पकड़ ले कि
तुम्हारा
हृदय लयबद्ध
चलता रहा, कि
उसकी लय
छूटी-टूटी।
जैसे ही लय
छूटी-टूटी, घंटी बजती
है। तत्क्षण
तुम पकड़े
गये। तुम झूठ
बोल ही नहीं
सकते, बिना
लय को तोड़े।
क्योंकि
तुम्हें तो
पता है सत्य
का कि चोरी
तुमने की है।
इसको तुम कैसे
झुठलाओगे?
तुम
दूसरों से कह
दो मैंने नहीं
की है चोरी, और तुम
कितने ही जोर
से कहो कि
मैंने चोरी
नहीं की है, तुम्हारा
हृदय तो कहे
ही चला जाएगा
भीतर कि की है,
की है।
जितना हृदय
कहेगा की है, उतने ही जोर
से तुम कहोगे
नहीं की है।
तुम्हारे ऊपर
का जोर इतना
ही बतायेगा
कि भीतर तुमने
की है। और
हृदय में खंड
हो जाएंगे।
हृदय दो आवाजों
से भर जाएगा।
उन्हीं दो आवाजों
को यंत्र पकड़
लेता है। हृदय
की धड़कन की
लयबद्धता टूट
जाती है।
तुम्हारा तार
डगमगा जाता है।
झूठ
तुम शांत रहकर
नहीं बोल
सकते। अशांत
हो जाओगे। झूठ
बोलते ही बेचैनी
पैदा होगी।
चैन से झूठ
नहीं बोल
सकते। और जो
आदमी निरंतर
झूठ बोल रहा
है, उसकी
बेचैनी का तो
तुम हिसाब
लगाओ! उसको
कितनी याद
रखनी पड़ती है,
किससे क्या
बोला, किससे
क्या नहीं
बोला। आज क्या
बोला, कल
क्या बोला।
हजार झूठों का
हिसाब रखना
पड़ता है। झूठ बोलनेवाले
के पास अच्छी
स्मृति होनी
चाहिए। अगर
स्मृति ठीक न
हो, तो बड़ी
गड़बड़ हो जाती
है।
एक
बहुत बड़ा
वैज्ञानिक
जीवनभर
अविवाहित रहा।
भुलक्कड़ था।
किसी ने उससे
पूछा कि तुमने
विवाह क्यों न
किया? उसने
कहा मैं एक
लड़की के प्रेम
में था। और
मैंने उससे
विवाह का
निवेदन भी
किया था और
उसने स्वीकार
भी कर लिया
था। तो मित्र
ने पूछा कि
फिर क्या हुआ?
फिर हुआ
क्यों नहीं
विवाह? उसने
कहा, गड़बड़
हो गयी। तीसरे
दिन मैंने
दोबारा उससे
निवेदन कर दी।
स्वीकार भी कर
लिया था, निवेदन
भी कर दिया था
और तीसरे दिन
मैंने उससे
दुबारा
निवेदन कर
दिया, मैं
भूल ही गया।
उसी से वह
नाराज हो गयी।
स्मृति
अच्छी चाहिए।
झूठ जितना
बोलता है आदमी, उतनी ही
अच्छी स्मृति
चाहिए।
सत्य बोलनेवाले
को स्मृति की
कोई भी जरूरत
नहीं है। सत्य
बोलनेवाला
तो वही बोलता
है, जो है।
सीधा-साफ होता
है। सत्य बोलनेवाले
के भीतर
खंड-खंड, टुकड़े-टुकड़े
नहीं होते।
कोई विभाजन
नहीं होता।
अखंड होता है।
तो
जिसने एक दफा
भीतर डुबकी
लगायी, उस
अखंड का आनंद
ले लिया, वह
झूठ न बोल
सकेगा।
क्योंकि जब भी
वह झूठ बोलेगा,
तभी पायेगा
कि बहुत दूर
फेंक दिया गया
भीतर की शांति
से। बेचैनी आ
गयी। बेईमानी
न कर पायेगा।
क्योंकि जब भी
बेईमानी
करेगा, तभी
पायेगा कि
अपने से बहुत
फासला हो गया।
किसी को चोट न
पहुंचा
पायेगा।
क्योंकि जब भी
किसी को चोट पहुंचायेगा,
तभी पायेगा
अपने घर का
रास्ता भूल
गया।
किसी
स्वर्ग के लिए
नहीं बोलता है
सच। और न किसी
पुण्य के लिए
बोलता है। न
किसी भय से, न किसी
प्रलोभन से।
लेकिन जो भीतर
आनंद घटा है, उस आनंद के
कारण अब गलत
होना मुश्किल
हो जाता है।
"जिसे
जानकर योगी
पाप और पुण्य
दोनों का
परिहार कर
देता है, उसे
ही कर्मरहित
निर्विकल्प
चारित्र्य
कहा गया है।'
महावीर
कहते हैं कि न
केवल परमयोग
की अवस्था में
पाप का परिहार
हो जाता है, पुण्य का भी
परिहार हो
जाता है। बुरा
तो करता ही
नहीं वैसा
व्यक्ति, अच्छा
भी नहीं करता।
यह जरा
गहन बात है।
यह जरा ऊंची
बात है। पहले
तल पर तो
बुराई छूटती
है। दूसरे को
चोट देना बंद
हो जाती है।
दूसरे को कोई
नुकसान नहीं
पहुंचाता।
किसी तरह का
पाप नहीं करता।
लेकिन
धीरे-धीरे जब
और भी भीतर
रमता है, तो
उसे यह समझ
में भी आना
शुरू होता है
कि कोई किसी
को सुख नहीं
दे सकता।
किसने कब
किसको सुख दिया!
हम सभी
एक-दूसरे को
सुख देने की
कोशिश करते
हैं, दे
पाते हैं केवल
दुख। बाप कहता
है, बेटे
को सुख दे रहा
है। बेटा कहता
है, बाप को
सुख दे रहा
है। पति कहता
है,पत्नी
को सुख दे रहा
है। पत्नी
कहती है, पति
के सुख के लिए
चेष्टा कर रही
है। सब एक-दूसरे
को सुख देने
की चेष्टा में
लगे हैं लेकिन
जीवन में
सिवाय दुख के
कुछ भी नहीं
है। मामला क्या
है? जहां
इतने लोग सुख
दे रहे हैं, सुख ही सुख
भर जाना था।
सुख कहीं
दिखायी नहीं पड़ता।
महावीर
कहते हैं, सुख कोई दे
नहीं सकता।
सुख आंतरिक
दशा है। इसलिए
वह कहते हैं, एक ऐसी घड़ी
आती है जब और
भीतर की
गहराइयों का पता
चलता है, तो
आदमी दुख देने
की तो बात दूर,
दूसरे को
सुख देने की
चेष्टा भी
नहीं करता।
हां, कोई
ले ले सुख, उसकी
मर्जी। कोई ले
ले दुख, उसकी
मर्जी।
आत्मस्थित
हुआ व्यक्ति
अपने स्वभाव
में जीता है।
फिर तुम्हारी
मर्जी।
महावीर से
बहुत लोगों ने
दुख भी ले
लिया। महावीर
ने दिया नहीं।
किसी को इसीलिए
दुख हो गया कि
वह नग्न खड़े
थे। कोई
इसीलिए दुखी
हो गया।
तुम्हारा
क्या
लेना-देना था? महावीर नग्न
खड़े थे, तुम्हें
क्या अड़चन थी?
तुम्हें
तकलीफ थी, आंख
बंद करके गुजर
जाते। यह
तुम्हारा
प्रश्न था।
महावीर को
इससे क्या
लेना-देना था?
लेकिन कोई
इसी से दुखी
हो गया।
कोई
दुखी हो जाता
है, कोई सुखी
हो जाता है, यह उसकी
मर्जी। यह
उसकी समस्या
है। महावीर कहते
हैं, जो
अपने में डूबा
वह अपने में डूबकर रह
जाता है। तब
वह न तो सुख
देता है, न
दुख देता है।
न वह पाप करता
है, न वह
पुण्य करता
है। अगर ठीक
से समझो, तो
वह कुछ करता
ही नहीं। वह
सिर्फ होता
है। वह शुद्ध
अस्तित्व
होता है। करने
की बात ही धीरे-धीरे
समाप्त हो
जाती है।
"जिसे
जानकर योगी
पाप-पुण्य
दोनों का
परिहार कर
देता है, उसे
ही
निर्विकल्प
चारित्र्य
कहा है।' यह
चरित्र की
आखिरी कोटि
हुई। इससे ऊपर
फिर चरित्र
नहीं जा सकता।
पाप से तो
छूटे, पुण्य
से भी छूटे।
पाप ऐसे है, महावीर ने
कहा, जैसे
लोहे की
जंजीरें, और
पुण्य ऐसे है
जैसे सोने की
जंजीरें! पाप
दुख लाता है।
पुण्य सुख
लाता है।
लेकिन सुख में
ही तो छिपा
हुआ दुख आ
जाता है। पाप
अपमानित करवा
देता है।
पुण्य
सम्मानित
करवा देता है।
लेकिन सम्मान
में ही तो
अहंकार आ जाता
है। इसलिए
दोनों से ही
छूट जाना है।
जंजीर
कितनी ही सोने
की बनी हो, हीरे-जवाहरात
जड़ी हो, तो
भी जंजीर है।
और कारागृह
कितना ही सजा
हो, तो भी
कारागृह है।
दोनों से
मुक्त हो जाना
है। न अच्छा, न बुरा। इन
दोनों के जो
पार हो गया, वही शुद्ध
स्वभाव को
उपलब्ध होता
है। इसको
महावीर
निर्वाण कहते
हैं। इसको निर्विकल्प
चारित्र्य
कहा है। इसे
हम दूसरों से
बातें सुनकर
नहीं पा सकते।
दूसरों से सुनेंगे
तो हमारे मन
में और ही तरह
की बात उठती
है।
मेरे
पास एक वृद्ध
सज्जन आये।
उनके युवा
बेटे ने
संन्यास ले
लिया है। वे
बहुत नाराज थे।
उनकी उम्र
होगी कोई
पचहत्तर
वर्ष। वे कहने
लगे, आपने यह
क्या किया? मेरे युवा
बेटे को
संन्यास दे
दिया। यह तो
बुढ़ापे की बात
है। यह तो
आखिरी बात है
संन्यास।
संन्यास
आखिरी बात है!
उसे टाले
जाना है अंतिम
क्षण के लिए।
जब हाथ-पैर
में कोई शक्ति
न होगी, और
श्वासें लड़खड़ा
जाएंगी, तब
संन्यास
लेंगे? जब
पैर उठते न
बनेंगे। जब तक
पैर उठते थे
तब तक वेश्यागृह
गये और जब पैर
न उठेंगे, तब
दूसरों के
कंधों पर सवार
होकर मंदिर
जाएंगे।
ऊर्जा पर ही
तो सवार होना
होता है। जब
तक ऊर्जा रहती
है, तब तक
आदमी संसार की
बातों में पड़ा
रहता है। कहते
हैं धर्म की
बात ठीक है, वह बूढ़े
सज्जन कहने
लगे धर्म की
बात बिलकुल ठीक
है, मैं यह
नहीं कहता कि
संन्यास गलत
है, लेकिन
समय अभी नहीं
है।
मैंने
कहा ठीक है, आपके बेटे
को मैं समझा-बुझाकर
वापिस संसार
में भेज दूंगा;
आपका क्या
इरादा है? यह
वे सोचकर न
आये थे। वे तो
बेटे को छुड़ाने
आये थे। लेकिन
मैंने कहा, बेटा छूटे
तो एक ही शर्त
पर छूट सकता
है। कि आपकी
तो उम्र
पचहत्तर साल
हो गयी, आप
कब बूढ़े होंगे
अब? उन्होंने
कहा, वह तो
ठीक है, लेकिन
अभी बहुत जिम्मेवारियां
हैं।
बेटे
को भी ऐसी ही जिम्मेवारियां
होंगी
पचहत्तर साल के
हो जाने पर। जिम्मेवारियां
कम नहीं होतीं, बढ़ती जाती
हैं। क्योंकि
जिंदगी रोज और
नयी-नयी जिम्मेवारियों
को इकट्ठा
करती चली जाती
है।
तो फिर
मैंने कहा, बेटे को ले
लेने दो, कम
से कम वह इतना
तो कहता है कि
मेरे ऊपर कोई जिम्मेवारियां
नहीं हैं। न
अभी उसने शादी
की है, न
अभी घर बसाया
है। अभी तुम
कहते हो कि
संन्यास मत लो,
बुढ़ापे में
लेना। तुम
बूढ़े हो गये
हो, तुम
कहते हो कि जिम्मेवारियां
हैं।
आदमी
सुन-सुनकर जिन
बातों को ठीक
मान लेता है, उन्हें कभी
हृदय से थोड़े
ही ठीक मानता
है। ठीक मान
लेता है, क्योंकि
कौन जद्दोजहद
करे, कौन
तर्क करे, कौन
विवाद करे!
ठीक है
संन्यास, मगर
अभी नहीं। जो
ठीक है, तो
अभी। और जो
ठीक नहीं है, तो कभी
नहीं। ऐसा साफ
होना चाहिये
व्यक्ति को।
अगर कोई चीज
सत्य है, तो
फिर एक क्षण
भी उसे टालना
उचित नहीं।
कौन जाने वह
क्षण आये, न
आये। कल आये, न आये।
बुढ़ापे के पहले
ही आदमी मर जा
सकता है। या
बुढ़ापे में इतना
अपंग हो जाए
कि फिर कुछ भी
न कर पाये--बैठ
भी न सके, उठ
भी न सके, खाट
से लग जाए।
तो जो
सत्य है, तो
अभी। अगर सत्य
नहीं है, तो
साफ समझो कि
कभी नहीं।
बुढ़ापे में भी
क्यों? चार
दिन बुढ़ापे के
बचे हैं, उनको
भी ठीक से भोग
लेना। उनका भी
कुछ उपयोग कर
लेना--थोड़ा धन
और इकट्ठा कर
लेना।
लेकिन
आदमी बड़ा
होशियार है।
वह तर्क से
कुछ बातों को
ठीक मान लेता
है। क्योंकि
कौन विवाद करे!
या पंरपरा
से ठीक मान
लेता है। सभी
ठीक मानते हैं, इसलिए ठीक
होंगी।
एक
बहुत बड़े मनस्विद
मायर्स
ने अपने संस्मरणों
में लिखा है...मायर्स
खोज कर रहा था
कि लोगों की
क्या धारणा है, मरने के बाद
क्या होता है,
इस संबंध
में। तो वह जो
भी मिलता उससे
ही पूछता कि
तुम्हारी
मरने के बाद
क्या स्थिति
होगी, इस
संबंध में
क्या धारणा है?
एक महिला से
उसने पूछा, उसकी जवान
बेटी अभी-अभी
मर गयी थी, तो
उसने पूछा कि
तुम्हारी
बेटी मर गयी, तुम्हारा
क्या खयाल है,
तुम्हारी
बेटी का क्या
हुआ होगा? तो
उस महिला ने
बड़े क्रोध से
देखा और कहा, क्या हुआ
होगा? वह
स्वर्ग के सुख
भोग रही है।
लेकिन मैं
आपसे प्रार्थना
करती हूं कि
इस तरह की
दुखदायी बातें
मुझसे न करें।
अब इसे थोड़ा
सोचो, मायर्स ने लिखा है
कि एक तरफ वह
कहती है, स्वर्ग
के सुख भोग
रही है, और
दूसरी तरफ
कहती है कि आप
इस तरह की
दुखदायी बातें
न करें।
एक ही
वचन में दो
विरोधाभास!
अगर वस्तुतः
लड़की स्वर्ग
के सुख भोग
रही है, तो
दुखदायी बात
नहीं है। और
अगर दुखदायी
बात है, तो
स्वर्ग के सुख
की बात केवल
कल्पना है।
केवल
सुनी-सुनायी
है।
एक
दो और सागरे-सरशार
फिर
तो होना ही है
मुझे होशियार
छेड़ना ही
है साजे-जीस्त
मुझे
आग बरसायेंगे
लबे-गुफ्तार
कुछ
तबियत तो हम
रवां कर लें
आज
की रात और
बाकी है
फिर
कहां ये हसीं
सुहानी रात
ये
फरागत ये कैफ
के लम्हात
कुछ
तो आसूदगी-ए-जौके-निहां
कुछ
तो तस्कीने-शोरिसे-जज्ब?ात
आज
की रात जाविदां
कर लें
आज
की रात और आज
की रात
लोग
कहते हैं कि
आज नहीं कल
जिंदगी तो हाथ
से चली जाएगी।
ऐसा कहते भी
हैं, और फिर भी
कहते हैं--
एक
दो और सागरे-सरशार
एक
दो और भरे
प्याले ले आओ।
फिर
तो होना ही है
मुझे होशियार
फिर तो
जागना है। फिर
तो ध्यान करना
है। फिर तो
समाधि को
उपलब्ध होना
है।
एक
दो और सागरे-सरशार।
ले
आओ, एक-दो
लबालब प्याले
और।
फिर
तो होना ही है
मुझे होशियार
अगर
होशियार ही
होना है, तो
एक-दो प्याले
और क्यों? क्योंकि
अगर होशियार
ही होना है तो
दो प्याले और
होशियारी को
खराब करेंगे।
ध्यान को नष्ट
करेंगे।
लेकिन
लोग कहते हैं, होना ही है
होशियार--मजबूरी
है। होश तो
आयेगा ही, थोड़ा
और पी लें।
छेड़ना ही
है साजे-जीस्त
मुझे
आग बरसायेंगे
लबे-गुफ्तार
कुछ
तबियत तो हम
रवां कर लें
--फिर
जीवन का संगीत
छिड़नेवाला
है; उसके
पहले, उसके
पहले हम थोड़ी
बेहोशी का भी
मजा ले लें, थोड़ी मस्ती
पैदा कर लें।
कुछ
तबियत तो हम
रवां कर लें
आज
की रात और
बाकी है
--और
यह रात तो
जाएगी। थोड़ा
और भोग लें।
फिर
कहां ये हसीं
सुहानी रात
ये
फरागत ये कैफ
के लम्हात
--फिर
यह मादक क्षण
कहां मिलेंगे!
कुछ
तो आसूदगी-ए-जौके
निहां
--कुछ
तो तृप्त कर
लें छिपी हुई
वासनाओं को, दबी हुई
वासनाओं को।
कुछ
तो तस्कीने-शोरिसे
जज्बात
--कुछ
तो अशांत
मनोभावनाओं
की शांति कर
लें, तृप्ति
खोज लें। कुछ
तो उन्हें
संतोष दे लें।
आज
की रात जाविदां
कर लें
और आज
की रात को सुख
से ऐसा भर लें
कि अमर हो जाए।
आज
की रात और आज
की रात।
ऐसे ही
आदमी सोचता
चलता है। धर्म
को टालता कल पर।
अधर्म को करता
आज की रात।
धर्म को करता
स्थगित, अधर्म
को कभी स्थगित
नहीं करता।
अगर तुमसे मैं
कहूं ध्यान
करो, तुम
कहते हो, करेंगे,
जरूर
करेंगे, समय
आने पर। यह
समय कभी भी न
आयेगा। अगर
मैं कहूं
प्रार्थना कर
लो, तो तुम
कहते हो, फुर्सत
कहां! क्रोध
करने को
फुर्सत मिल
जाती है। रोष
करने को
फुर्सत मिल
जाती है। लोभ
करने को
फुर्सत मिल
जाती है। और
जब तुम क्रोध
करते हो तब
तुम कभी नहीं
कहते कि कल कर
लेंगे। तुम आज
करते हो।
गुरजिएफ
ने लिखा है कि
उसका पिता मर
रहा था। उसने
अपने बेटे को
अपने पास
बुलाया--गुरजिएफ
को। वह नौ साल
का था और उससे
कहा, मेरे पास
देने को कुछ
भी नहीं है।
लेकिन एक बात
मेरे बाप ने
मुझे दी थी, उसने मुझे
बड़ा सहारा
दिया, वही
मैं तुझे दे
जाता हूं।
खयाल रखना, तेरी उम्र
अभी ज्यादा भी
नहीं है, लेकिन
याद रखना, कभी
तेरे काम पड़
जाएगी। और
उसने कहा एक
बात, अगर
कभी क्रोध का
मौका आ जाए, तो जिसने
तुझे गाली दी
हो, अपमान
किया हो, उससे
कहना चौबीस
घंटे बाद आकर
जवाब दूंगा।
चौबीस घंटे
बाद!
और गुरजिएफ
ने लिखा है कि
जिंदगी में
फिर क्रोध का
मौका ही न
आया। क्योंकि
जब भी किसी ने
क्रोध किया, मरते हुए
बाप की बात
याद रही।
मैंने कहा, चौबीस घंटे
बाद। चौबीस
घंटे बाद किसी
ने कभी क्रोध
किया है? चौबीस
मिनट बाद
मुश्किल है; चौबीस पल
बाद मुश्किल
है! क्रोध तो
उसी वक्त होता
है। उसी वक्त
जलती है आग।
यह तो ऐसा हुआ
कि चौबीस घंटे
बाद, तुम
इतना सोचोगे-विचारोगे
चौबीस घंटे कि
तुम्हें साफ
ही हो जाएगा
कि या तो उस
आदमी ने जो
बात कही थी वह
ठीक ही थी, या
उस आदमी ने जो
बात कही थी वह
बिलकुल
गैर-ठीक थी।
अगर गैर-ठीक
थी, तो
क्रोध क्या
करना! अगर ठीक
थी, तो
क्रोध क्या
करना! चौबीस
घंटे का फासला
अगर हो जाए, तो क्रोध
संभव नहीं।
लेकिन
वैसा फासला हम
ध्यान के लिए
करते हैं, क्रोध के
लिए नहीं।
इसलिए ध्यान
कभी संभव नहीं
हो पाता। लोग टाले चले
जाते हैं।
"आभ्यंतर-शुद्धि
होने पर
बाह्य-शुद्धि
भी नियमतः
होती है।
आभ्यंतर-दोष
से ही मनुष्य
बाह्य-दोष
करता है।'
स्मरण
रखना इस सूत्र
को: अब्भंतरसोधीए, बाहिरसोधी वि होदि णियमेण।
नियम से हो
जाती है बाहर
की शुद्धि, अगर भीतर
शुद्धि हो
जाए। अब्भंतर-दोसेण
हु, कुणदि णरो बाहिरे
दोसे। और
भीतर के दोष
ही बाहर आते
हैं।
इसलिए
बाहर के दोषों
को बदलने की
चिंता मत करो।
भीतर जड़ें
खोजो। बाहर की
बदलाहट तो ऐसे
है जैसे कोई
पत्ते काटता
रहे वृक्ष के
और जड़ों को पानी
देता रहे। तो
पत्ते नये आते
रहेंगे। पत्ते
काटने से
वृक्ष नहीं
मरते। पत्ते
काटने से वृक्ष
और सघन हो
जाते हैं।
पत्ते काटने से
एक पत्ते की
जगह तीन पत्ते
आ जाते हैं।
अगर
वृक्ष को
मिटाना ही हो, तो जड़ काटो।
जड़ भीतर छिपी
है। अंधेरे
में दबी है।
और ऐसा ही
मनुष्य के
जीवन में है।
ऊपर क्रोध आता
है, लोभ
आता है, काम
आता है, तुम
इनके साथ लड़ने
में लग जाते
हो। ये पत्ते
हैं। जड़, जड़
कहां है? जड़,
महावीर
कहते हैं, बेहोशी
है। जड़
मूर्च्छा है।
जड़ नींद है।
जड़ काटो। होश
से भरो। जागो।
अगर
जागरण आ जाए
तो क्रोध, माया, लोभ,
मोह ऐसे ही
खो जाते हैं
जैसे जड़ें काट
देने पर पत्ते
खो जाते हैं
अपने-आप।
पत्तों को
तुम्हें
तोड़ना भी न
पड़ेगा, खुद
ही कुम्हला
जाएंगे, खुद
ही समाप्त हो
जाएंगे।
"आभ्यंतर-शुद्धि
होने पर
बाह्य-शुद्धि
भी नियमतः
होती है।
आभ्यंतर-दोष
से ही मनुष्य
बाह्य-दोष
करता है।'
जैसे
ही भीतर की
क्रांति घटती
है, भीतर
दीया जलता है,
तुम अचानक
हैरान हो जाते
हो कि बाहर सब
बदल गया। सब
वही है, और
फिर भी वही
नहीं है।
रक्सेत्तरब
किधर गया, नग्मात्तराज़ क्या हुए
गम्जा-ओ-नाज
क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या
हुआ
रक्सेत्तरब
किधर गया--वे
सुख के जो
नृत्य बाहर चल
रहे थे, कहां
गये?
नग्मात्तराज
क्या हुए--वे
जो गायक बड़े
मधुर मालूम
होते थे, उनका
क्या हुआ!
गम्जा-ओ-नाज
क्या हुए, अस्वा-ओ-फन को क्या
हुआ।
कटाक्ष, हाव-भाव, सब
खो गये।
उन सब
में अर्थ था, क्योंकि
भीतर तुम सोये
थे। ऐसा समझो,
तुम्हारी
नींद संसार से
जोड़े हुए है।
नींद है सेतु
तुममें और
संसार में।
जागरण सेतु है
तुममें और
परमात्मा
में। या
तुममें और
तुम्हारी स्वयं
की सत्ता में।
अगर
सोये हुए हो, तो संसार
चलता रहेगा।
संसार सोये
हुए आदमी का सपना
है। अगर जागे
हो, संसार
समाप्त हुआ।
नहीं कि वृक्ष
खो जाएंगे। नहीं
कि मकान खो
जाएंगे। नहीं
कि तुम्हारी
पत्नी और
बच्चे खो
जाएंगे।
लेकिन कुछ खो
जाएगा। मकान
होगा, तुम्हारा
न होगा। पत्नी
होगी, तुम्हारी
न होगी। "मेरा'
"तेरा' खो
जाएगा। लोभ खो
जाएगा। कोई
अगर गाली देगा,
तो गाली तो
बाहर से आयेगी
अब भी, लेकिन
तुम अचानक
पाओगे कि
समस्या उसी
आदमी की है।
मैंने
सुना है, एक
झेन फकीर
रास्ते से
गुजर रहा था
और एक आदमी उसे
लकड़ी मारकर
भागा। उसके
संगी-साथी ने
कहा, कुछ
करो, तुम
खड़े हो! वह
फकीर बोला, मैं क्या
करूं? समस्या
उसकी है, मेरी
नहीं। उसके
भीतर जरूर कुछ
आग जल रही
होगी। उस आग
के प्रभाव में
ही वह क्रोध
से भर गया है।
अगर मैं उसे
आज न
मिलता--अच्छा
हुआ मैं मिल
गया--नहीं तो
वह किसी और पर
उबल पड़ता। वह
तो अच्छा हुआ
कि मुझ पर उबला,
किसी और पर
उबलता तो
दूसरा भी उस
पर टूट पड़ता। वह
मुश्किल में
पड़ जाता। वैसे
ही मुश्किल
में है! इतना
क्रोध उसके
भीतर जल रहा
है, अब और
उसे दंड देने
की जरूरत है
क्या? दंड
उसने काफी पा
ही लिया।
लेकिन समस्या
उसकी है, समस्या
मेरी नहीं है।
कोई
तुम्हें गाली
देता है, समस्या
गाली
देनेवाले की
है। तुम्हारा
क्या है! तुम
इस सारी
दुनिया को
कैसे बदलोगे?
यह दुनिया
कुछ ऐसी है!
बड़ी
प्रसिद्ध कथा
है कि शिव और
पार्वती एक
पूर्णिमा की
रात विहार पर
निकले।
स्वभावतः शिव
नंदी पर बैठे
हैं, पार्वती
साथ-साथ चल
रही हैं। राह
से दो आदमी आये
और उन्होंने
कहा, यह
देखो, मुस्तंड खुद तो चढ़ा
बैठा है बैल
पर और स्त्री
को नीचे चला
रहा है। यह
कैसा
शिष्टाचार! तो
शिव ने कहा, देख, मैं
नीचे आ जाता
हूं, तू
ऊपर बैठ जा।
वे नीचे चलने
लगे, पार्वती
नंदी पर बैठ
गयीं। फिर कुछ
लोग मिले, उन्होंने
कहा, देखो,
यह औरत पति
को नीचे चलवा
रही है, खुद
चढ़कर
बैठी है। यह
कैसा पति, और
यह कैसी पत्नी,
और यह कैसा
प्रेम! तो शिव
ने कहा, अब
क्या करें? चलो हम
दोनों ही बैठ
जाएं। तो वे
दोनों ही नंदी
पर सवार हो
गये। कुछ लोग
मिले, उन्होंने
कहा इन
मूर्खों को
देखो, नंदी
को मार
डालेंगे। दोनों
के दोनों चढ़े
हैं। यह कोई
ढंग हुआ! आखिर
पशुओं पर भी
कुछ दया होनी
चाहिए। तो शिव
ने कहा, अब
तो एक ही उपाय
है। वे दोनों
उतर गये और
उन्होंने कहा,
अब नंदी को
हम अपने कंधों
पर उठा लें।
नंदी को बांधकर
डंडों में
कंधों पर रखकर
चले। बड़ा मुश्किल
था!
फिर
कुछ लोग मिल
गये। और
उन्होंने कहा, ये पागल
देखो! एक पुल
पर से गुजर
रहे थे जब ये
लोग मिले।
उन्होंने कहा,
ये पागल
देखो, अच्छा
भला नंदी, उस
पर बैठकर
यात्रा कर
सकते थे, तो
उसको कंधे पर
लादकर चले रहे
हैं। तो शिव
और पार्वती
दोनों खड़े हो
गये, और
उन्होंने कहा
अब हम क्या
करें? अब
तो कुछ करने
को बचा नहीं।
जो-जो कहा
लोगों ने, हमने
किया। तो वे
वहीं खड़े थे, नंदी भी
घबड़ा गया
लटका-लटका।
उसने जोर से
लातें फड़फड़ायीं,
वह पुल के
नीचे! नदी में
गिर गया।
कहानी
का अर्थ है, लोग क्या
कहते हैं, इस
पर बहुत ध्यान
देने की जरूरत
नहीं। लोग तो कुछ
न कुछ कहेंगे।
लोग बिना कहे
नहीं रह सकते।
असली सवाल
अपने भीतर है।
लोग जो कहते
हैं, वह
उनकी दृष्टि
है। लोग जो
कहते हैं, वह
उनकी समस्या
है। उसे तुम
अपनी समस्या
मत बनाना। और
तुम लोगों का
अनुकरण करके
मत चलने लगना।
अन्यथा तुम
कहीं के न रह
जाओगे।
अन्यथा तुम्हारी
वही गति होगी
जो नंदी की
हुई। तुम कहीं
से गिरोगे।
ध्यानी
व्यक्ति
धीरे-धीरे
अपने हृदय की
सुनकर चलता
है। वह अपने
भीतर से अपना
राग नहीं छूटने
देता। वह भीतर
के धागे को पकड़े
रखता है। कौन
क्या कहता है, कौन क्या
करता है, यह
बिलकुल गौण
है। इसका कोई
भी मूल्य नहीं
है।
"आभ्यंतर-शुद्धि
होने पर
बाह्य-शुद्धि
नियमतः होती
है।'
वह
अपने भीतर को
निखारता है, जगाता है, शुद्ध करता
है। वह अपने
भीतर मंदिर
बनाता है। वह
अपने भीतर की
प्रतिमा को
साफ करता है।
बस वहां जब
शुद्धि हो
जाती है, उसके
बाहर भी
शुद्धि की झलक
आने लगती है।
वहां जब धूप-दीप
जलने लगते हैं,
बाहर भी
रोशनी और गंध
आने लगती है।
मगर, उसका
सारा उपक्रम
और सारा काम
भीतर है।
धर्म
का कोई संबंध
बाहर से नहीं।
धर्म का सारा
संबंध भीतर से
है। धर्म
तुम्हारे और
तुम्हारे ही
बीच की बात
है। धर्म का
कुछ लेना-देना
किसी और से
नहीं है। धर्म
नितांत
वैयक्तिक है।
"अप्पा अप्पणे सुरदो।' आत्मा का
आत्मा में
आत्मा के लिए
तन्मय हो जाना।
"इसीलिए
कहा गया है कि
जैसे शुभ
चरित्र के
द्वारा अशुभ
प्रवृत्ति का
निरोध किया
जाता है, वैसे
ही शुद्ध
उपयोग के
द्वारा शुभ
प्रवृत्ति का
निरोध किया
जाता है। अतएव
इसी क्रम से
योगी आत्मा का
ध्यान करे।'
महावीर
कहते हैं, पहले शुभ
चरित्र पैदा
होता है। जैसे
तुम भीतर प्रवेश
करते हो, शांत
होते हो, तुम्हारे
चरित्र में एक
शुभता
आती है, शुभ
चरित्र पैदा
होता है। शुभ
चरित्र से
अशुभ चरित्र
अपने-आप कट
जाता है। जैसे
प्रकाश से अंधेरा
कट जाता है।
शुभ चरित्र के
द्वारा अशुभ
का निरोध हो
जाता है। और
फिर, शुभ
के भी ऊपर
शुद्ध चरित्र
है। क्योंकि
शुभ में भी
अशुभ से थोड़ा
जोड़ है। संबंध
तो अशुभ से बना
ही है, उसी
के विपरीत है
शुभ।
एक
आदमी लोभी है, वह दान करता
है। तो लोभ
अशुभ है, दान
शुभ है। लेकिन
दान जुड़ा है लोभ
से ही। न लोभ
किया होता, तो दान कैसे
करता। पहले धन
इकट्ठा किया,
फिर दान कर
रहा है। तो यह
जो शुभ है, यह
अशुभ का ही
संगी-साथी है।
अच्छा है, लेकिन
है तो अशुभ का
ही संगी-साथी।
एक आदमी ने क्रोध
किया, फिर
आकर
पश्चात्ताप
किया। क्षमा
मांगी। क्रोध
किया, वह
अशुभ था; क्षमा
मांगी, वह
शुभ हुआ; लेकिन
क्षमा भी तो
क्रोध करने के
कारण ही हुई।
तो क्षमा भी
क्रोध से ही
जुड़ी है।
क्षमा भी क्रोध
का ही अनुसंग
है। इसलिए
शुद्ध तो नहीं
है। अशुद्धि
उसके लिए
जरूरी है। शुभ
कर्म अशुभ
कर्म से जुड़े
हैं।
तो
पहले तो शुभ
के द्वारा
अशुभ को काटे।
दान से लोभ को
काटे। क्षमा
से क्रोध को काटे।
प्रेम से
कामवासना को
काटे।
क्रूरता को करुणा
से काटे।
लेकिन ये सब
हैं शुभ। और
अशुभ के साथ
इनका संबंध
है। ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। एक
उजला पहलू है, एक अंधेरा
पहलू है।
लेकिन दोनों
जुड़े हैं।
महावीर
कहते हैं, परम स्थिति
तो तब पैदा
होगी, जब
शुद्ध आत्मा
पैदा होगी। न
जहां शुभ है, और न अशुभ
है। न जहां
काम है, न
जहां क्रोध है;
न जहां
ब्रह्मचर्य
है, न जहां
करुणा है।
क्योंकि
ब्रह्मचर्य
भी जुड़ा तो
कामवासना से
ही है। उलटा
सही।
कामवासना नीचे
की तरफ जा रही
है, ब्रह्मचर्य
ऊपर की तरफ जा
रहा है, लेकिन
ऊर्जा तो वही
है। बात तो
वही है।
परम
अवस्था में न
तो कामवासना
है, न
ब्रह्मचर्य
है। परम
अवस्था में न
तो क्रोध है, न करुणा है।
परम अवस्था
में न तो
हिंसा है, न
अहिंसा है।
इसको महावीर
शुद्ध अवस्था
कहते हैं।
जह व णिरुद्धं
असुहं, सुहेण सुहमिव तहेव सुद्धेण।
तम्हा
एण कमेण य, जोई झाएउ
णिय आदं।।
जैसे
शुभ के द्वारा
अशुभ का निरोध
हो जाता है, वैसे ही
शुद्ध के
द्वारा शुभ का
भी निरोध हो जाता
है। और जब शुभ
और अशुभ दोनों
का निरोध हो जाता
है, तो जो
शेष रह जाता
है, वही
निर्वाण है।
यह आत्यंतिक
कल्पना है।
इससे ऊपर
मनुष्य का
स्वप्न कभी
नहीं गया।
इससे ऊपर जाने
का कोई उपाय
भी नहीं। यह आखिरी
उत्तुंग
ऊंचाई है। यह गौरीशंकर
है चैतन्य का।
इससे ज्यादा
पवित्रता की
और कोई कल्पना
न कभी की गयी, न की जा सकती
है। यहां शुभ
भी अशुभ है।
यहां पाप
भी...पाप तो पाप
है ही, यहां
पुण्य भी पाप
जैसा है। यहां
संसार पूरे द्वंद्व
के साथ पीछे
छूट गया। यह
निर्द्वंद्व,
अद्वैत
चित्त की
अवस्था है।
महावीर
कहते हैं, योगी ऐसे ही
क्रम से, क्रम
से ध्यान की
इस परम अवस्था
को उपलब्ध हो,
यही समाधि
है, यही
निर्वाण है।
इस परम
उदात्त
कल्पना से तुम
भयभीत और
चिंतित मत हो
जाना। कहीं
ऐसा न हो जाए
कि यह इतनी
ऊंचाई, तुम
सोचो अपने से
न मिल सकेगी।
कहीं इससे
तुम्हारे मन
में हताशा न
पैदा हो जाए।
क्योंकि कभी-कभी
ऐसा होता है, अगर बहुत
उत्तुंग शिखर
हो, तुम
देखकर ही डर
जाओ, और
तुम सोचो, हम
कैसे जा
सकेंगे? चले
गये होंगे
महावीर, कोई
बुद्ध, कोई
कृष्ण।
अद्वितीय
पुरुष हैं, अवतारी
पुरुष हैं। हम
साधारणजन।
लेकिन
ध्यान रखना, वे भी
तुम्हारे
जैसे ही
साधारणजन थे।
इसीलिए महावीर
ने अवतार की
धारणा को
इनकार कर
दिया। महावीर
ने कहा अवतार
की धारणा में
खतरा है। अवतार
का मतलब होता है,
कोई
विशिष्ट
व्यक्ति; ईश्वर
है, वह
ईश्वर की तरह
उतरा है। तो
ठीक है, अगर
उसने इतनी
ऊंचाई पा ली
तो कौन से
गुण-गौरव की
बात है। ऐसी
ऊंचाई को लेकर
ही उतरा था।
साधारणजन, महावीर
ने कहा--नहीं
है कोई अवतार।
कोई भी नहीं
है।
तीर्थंकर
की धारणा
अवतार से
बिलकुल उल्टी
है। तीर्थंकर
का अर्थ है, नीचे से जो
ऊपर चढ़ा है।
अवतार का अर्थ
है, ऊपर से
जो नीचे
अवतरित हुआ
है। हिंदुओं
की धारणा
अवतार की है।
कृष्ण हैं, राम हैं, वे
अवतारी पुरुष
हैं। महावीर
अवतारी पुरुष
नहीं हैं। वे
तीर्थंकर
हैं। वे
क्रमशः नीचे
से ऊपर गये
हैं। वे तुम
जहां खड़े हो
वहीं खड़े थे, वहीं से ऊपर
गये हैं।
इसलिए महावीर
के साथ यात्रा
ज्यादा सुगम
है। क्योंकि
महावीर तुम
जैसे हैं। अगर
तुम अशुद्ध हो,
तो वे भी
अशुद्ध थे।
अगर तुम
मनुष्य हो
कमजोर, सीमाओं
में बंधे, तो
वे भी मनुष्य
थे। और अगर वे
कर सके, तो
बड़ी आशा पैदा
होती है, तुम
भी कर सकते
हो। और जो पाप
तुम्हें ऊपर
बहुत ज्यादा
बोझिल मालूम
पड़ते हैं, वे
कुछ भी नहीं
हैं--सिर्फ
नींद में देखे
गये सपने हैं।
उड़ने के
लिए ही जो है
बनी वह गंध
सदा उड़ती ही
है,
चढ़ने के
लिए ही जो है
बनी वह धूप
सदा चढ़ती
ही है
अफसोस
न कर सलवट है
पड़ी गर तेरे
उजले कुर्ते
में,
कपड़ा तो
है कपड़ा
ही आखिर कपड़ों
में शिकन पड़ती
ही है
यह
सारी शिकन
कपड़े पर है।
शरीर पर है, मन पर है--यह
सारी शिकन
कपड़े पर है।
अफसोस
न कर सलवट है
पड़ी गर तेरे
उजले कुर्ते
में,
कपड़ा तो
है कपड़ा
ही आखिर कपड़े
में शिकन पड़ती
ही है
लेकिन
भीतर तुम्हारे
अंतर्तम में
जो जी रहा है, वहां कोई
शिकन कभी नहीं
पहुंचती।
तुम्हारे अंतर्तम
में एक बिंदु
है, एक
केंद्र है, जिसको
महावीर आत्मा
कहते हैं।
उस
आत्मा तक कोई
पाप कभी नहीं
पहुंचता।
वहां तुम अभी
भी गौरीशंकर
पर ही विहार
कर रहे हो।
वहां तुम अभी
भी परमात्मा
में ही बसे
हो। बाहर की
परिधि गंदली
हो गयी है; लंबी यात्रा
है
जन्मों-जन्मों
की, कपड़े
धूल से भर गये
हैं। कपड़े
उतार डालो।
अपने को
पहचानो, तुम
कपड़े नहीं हो।
तुम देह नहीं,
मन नहीं।
तुम साक्षी हो;
चैतन्य हो।
तुम परम बोध
की अवस्था हो।
वहां तुम वैसे
ही शुद्ध हो
जैसे महावीर,
जैसे बुद्ध,
जैसे
कृष्ण। वहां
परमात्मा
विराजमान है।
इसलिए
इस ऊंचाई की
बात से हताश
मत हो जाना।
यह ऊंचाई की
बात तो केवल
तथ्य की सूचना
है। इस ऊंचाई
की बात से तो
तुम उत्साह से
भरना कि अहो!
ऐसी संभावना
मेरे भीतर भी
है। जो महावीर
के लिए हो सका, वह सब के लिए
हो सकता है।
महावीर
ने मनुष्य को
बड़ा आश्वासन
दिया है। दो कारणों
से। एक, महावीर
ने घोषणा की
कि मनुष्य के
ऊपर और कोई भी
नहीं। कोई
परमात्मा
नहीं। मनुष्य
ही अपनी शुद्ध
अवस्था में
परमात्मा हो
जाता है।
महावीर ने कहा,
आत्मा के
तीन रूप हैं। बहिर्आत्मा--जब
चेतना बाहर जा
रही है।
अंतरात्मा--जब
चेतना भीतर आ
रही है। और
परमात्मा--जब
चेतना कहीं भी
नहीं जा रही; न बाहर, न
भीतर। बहिर्आत्मा--जब
चेतना पाप कर
रही है।
अंतरात्मा--जब
चेतना पुण्य
कर रही है।
परमात्मा--जब
चेतना न पाप
कर रही है, न
पुण्य कर रही
है। बहिर्आत्मा--जब
अशुभ से संबंध
जुड़ा।
अंतरात्मा--जब
शुभ से संबंध
जुड़ा।
परमात्मा--जब
सब संबंध छूट
गये। असंग का
जन्म हुआ।
निर्विकल्प
का जन्म हुआ।
वही निर्वाण है।
उसे
पाये बिना चैन
मत पाना। उसे
पाये बिना रुकना
मत। आज कितना
ही कठिन मालूम
पड़े, लेकिन
तुम्हारा
जन्मसिद्ध
अधिकार है।
उसे पाया जा
सकता है। उसे
पाया गया है।
और जो एक मनुष्य
के जीवन में
घटा, वह
सभी मनुष्यों
के जीवन में
घट सकता है।
वह सभी की
नियति है।
लेकिन
तुम्हारे ऊपर
है। तुम अगर
दावा करो, तो
ही पा सकोगे।
तुम अगर
भिखारी की तरह
बैठे रहो, तो
खो दोगे।
दूसरी
बात। पहले तो
महावीर ने कहा
आदमी के ऊपर
कोई भी नहीं, परमात्मा भी
नहीं। इसलिए
मनुष्य को
उन्होंने
आत्यंतिक
गरिमा दी। और
दूसरी बात
उन्होंने कहा,
किसी से
मांगने को
यहां कुछ भी
नहीं।
परमात्मा ही
नहीं है, मांगोगे
किससे? मुफ्त
यहां कुछ भी न
मिलेगा। श्रम
करना होगा। इसलिए
महावीर की
संस्कृति
श्रमण-संस्कृति
कहलायी।
श्रम करना
होगा। पूजा से
न मिलेगा, श्रम
से मिलेगा।
भिखारी की तरह
मांगकर न
मिलेगा, अर्जित
करना होगा। यह
पहाड़ चढ़ने
से ही चढ़ा जा
सकेगा। यह
किसी दूसरे के
कंधों पर
यात्रा
होनेवाली
नहीं है। लोग
तीर्थयात्रा
को जाते हैं, डोली में
बैठ जाते हैं।
यह ऐसा तीर्थ
नहीं है जहां
डोली में
बैठकर यात्रा
हो सकेगी।
अपने ही पैरों
से चलना होगा।
इसलिए महावीर
ने कहा, जब
ऊर्जा जगती हो,
जब जीवन में
प्रफुल्लता
हो, शक्ति
हो, तब कल
पर मत टालना।
यह मत कहना कि
कल बुढ़ापे में।
महावीर
पहले मनुष्य
हैं, जिन्होंने
पृथ्वी पर
धर्म को युवा
के साथ जोड़ा
और कहा, यौवन
और धर्म का
गहन मेल है।
क्योंकि
ऊर्जा चाहिए
यात्रा के लिए,
संघर्ष के
लिए, तपश्चर्या
के लिए, संयम
के लिए, विवेक
के लिए, बोध
के लिए--ऊर्जा
चाहिए। ऊर्जा
के अश्व पर ही सवार
होकर तो हम
पहुंच
सकेंगे।
इसलिए कल पर
मत टालना।
महावीर
ने मनुष्य को
परम
स्वतंत्रता
भी दी और परम
दायित्व भी।
परम
स्वतंत्रता, कि कोई
परमात्मा ऊपर
नहीं है। और
परम दायित्व,
कि
तुम्हारी
जिंदगी
तुम्हारे हाथ
में है। जो भी
परिणाम होगा,
तुम ही
जिम्मेवार
होओगे। कोई और
जिम्मेवार नहीं
है। महावीर की
इस स्वाधीनता
को, और
महावीर के इस
दायित्व को
जिसने समझ
लिया, वही
जिन है।
जैन-घर में
पैदा होने से
कोई जिन नहीं
होता। जिन तो
एक भावदशा
है। परम
उत्तरदायित्व
और परम
स्वातंत्र्य
की इकट्ठी भावदशा
का नाम जिनत्व
है।
तो
जहां भी कोई
इस अवस्था को
उपलब्ध हो
जाएगा, उसका
संग-साथ
महावीर से जुड़
गया। जैन-घर
में पैदा होने
के कारण ही मत सोचना
कि तुम जैन हो
गये। इतना
सस्ता काम
नहीं है।
श्रम। श्रम से
अर्जित।
मिल
सकता है
हृदय-धन।
हृदय-धन
तुम्हारे पास
है ही। सिर्फ
भीतर आंख
खोलनी है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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