जिन सूत्र-(भाग--2)
सारसूत्र:
सारसूत्र:
इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए।। 108।।
समभावो समाइयं,
तणकंचण—सत्तुमित्तविसओ
त्ति।
निरभिस्संगं चित्तं,
उच्चियपवित्तिप्पहांण।।
109।।
वयणोच्चारणकिरियं,
परिचत्ता
वीयरायभावेण।
जो
झायदि अप्पाणं,
परम समाही
हवे तस्स।।
110।।
झाणणिलीणो साहू
परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं।
तम्हा दु
झाणमेव हि, सव्वउदिचारस्स
पडिक्कमणं।।
111।।
णियभावं ण
वि मुच्चइ,
परभांव णेव गेण्हए
केइं।
पहला
सूत्र--
इंदियत्थे विवज्जित्ता, सज्झायं चेव पंचहा।
तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, उवउत्ते इरियं रिए।।
साधारणतः
मनुष्य
इंद्रियों के
विषय-भोग के चिंतन
में लीन रहता
है। पांच
इंद्रियां
हैं। इसलिए
महावीर कहते
हैं, पांच ही
मनुष्य के
चिंतन के विषय
हैं।
"इंद्रियों
के विषय तथा
पांच प्रकार
के
चिंतन-कार्य
को छोड़कर केवल
गमन-क्रियाओं
में तन्मय हो,
उसी को
प्रमुख महत्व
देकर उपयोगपूर्वक,
जागृतिपूर्वक चलना
चाहिए।'
जो हम
कर रहे हैं, वह हम शायद
ही मनःपूर्वक
करते हैं। जो
हम करते हैं, यंत्रवत
करते हैं। मन
और हजार काम
करता है। जैसे
राह पर चल रहे
हैं--शरीर तो
राह पर होता
है, मन न
मालूम कहीं
और। हो सकता
है घर पर हो, दुकान पर हो,
मंदिर में
हो, लेकिन
एक बात
सुनिश्चित है
कि वहां नहीं
होगा जहां तुम
हो। जिस दिन
मन वहां हो
जाए जहां तुम हो,
उसी दिन
आत्मबोध का
प्रारंभ होता
है। मन का और
शरीर का
एक-साथ, एकऱ्ही स्थान, एकऱ्ही
काल में हो
जाना ध्यान
है। मन और
शरीर अलग-अलग चलते
रहते हैं। और
जब तक उन
दोनों का मिलन
न हो, तब तक
तुम्हें उसका
पता न चल
सकेगा जो
दोनों के पार
है।
महावीर
चलने पर जोर
देते हैं।
क्योंकि
महावीर का जो
संन्यासी है, वह
परिव्राजक था।
वह चलता रहता
है एक गांव से
दूसरे गांव।
महावीर ने कहा
है कि
संन्यासी
रुके न। यह
प्रतीक था। यह
प्रतीक लोगों
ने बड़ी जड़ता
से पकड़ लिया।
यह प्रतीक था
ऐसा जैसे कि
नदी चलती रहती
है, ऐसा
संन्यासी
चलता रहे।
कहीं ठहरे न, कहीं मन को न
लगाये, कहीं
डबरा न बनाये,
बहाव तोड़े न,
बहाव बना
रहे।
यह बात
बड़ी गहरी थी, इसे बड़े
ऊपरी अर्थों
में पकड़ लिया
गया। जैन-मुनि
अब भी चलता है,
एक गांव से
दूसरे गांव
बदल लेता है।
लेकिन भीतर का
बहाव कहां है!
भीतर तो सब जड़
है, सब
ठहरा हुआ है।
भीतर गति कहां
है? और
महावीर ने कहा
है, गति
धर्म है; अगति
अधर्म है।
महावीर
से ज्यादा
क्रांतिकारी
विचारक धर्म के
जगत में दूसरा
नहीं हुआ।
किसी दूसरे
व्यक्ति ने
नहीं कहा है, कि अगति
अधर्म है और
गति धर्म।
चलते ही रहना
है। कहीं
ठहरना नहीं।
कहीं रुकना
नहीं। रुकने का
अर्थ है, राग
बना। रुकने का
अर्थ है, आसक्ति
बनी। रुकने का
अर्थ है, वस्तु
महत्वपूर्ण
हो गयी, बहुत
महत्वपूर्ण
हो गयी, उसने
तुम्हारे लिए
कारागृह बना
लिया। अब तुम मुक्त
न रहे, बंध
गये। इसका यह
अर्थ न था कि
कहीं साधु
ठहरे न। इसका
अर्थ था, साधु
का चित्त कहीं
ठहरे न। तो
जैन-मुनि अब
भी चलता है, लेकिन चित्त
तो कभी का बंध
गया है, हजार
तरह के बंधनों
में।
इसलिए
महावीर अपने
मुनियों को
कहते हैं चलते
समय, उपयोगपूर्वक चलना। चलना
अकेला काफी
नहीं है। गति
अकेली काफी
नहीं है।
क्योंकि अगर
गति अकेली हो
और विवेक न हो
पीछे, तो
गति
विक्षिप्त
करेगी। देखें,
पूरब में डबरे बन
गये हैं चेतना
के। परंपरा, रूढ़ि, अतीत
बहुत बोझिल
होकर बैठ गया
है पत्थर की
तरह छाती पर।
तो पूरब में डबरे बन
गये हैं। कोई
गति नहीं
मालूम होती।
सागर की तरफ
बहाव नहीं
मालूम होता।
लेकिन
एक अर्थ में
लोग पश्चिम की
बजाय ज्यादा शांत
हैं। गरीब हैं, दीन हैं, हीन
हैं, दुखी
हैं, फिर
भी शांत हैं।
सुविधा नहीं
है, सुख
नहीं है, शायद
भोजन-वस्त्र-छप्पर
भी नहीं है, तो भी
पश्चिम के
मुकाबले
ज्यादा शांत
हैं--कम बेचैन
हैं।
पश्चिम
में गति पर
जोर है।
प्रगति पर जोर
है। दौड़ो, प्रतिस्पद्र्धा करो, जीवन
भागा जाता है।
रुको मत।
भागते ही रहो।
इसलिए स्पीड,
गति को
रोज-रोज नया
विकास मिलता
चला जाता है। परिणाम
यह हुआ कि
पश्चिम पागल
होने के करीब
है। धन भी है, सुविधा भी
है--गति हो तो
सुविधा बढ़ती
है, धन
बढ़ता है, समृद्धि
बढ़ती है, विज्ञान
बढ़ता है; सब
दिशाओं में
संपन्नता
बढ़ती है, बढ़ी--लेकिन
आदमी भीतर से
दौड़-दौड़कर
थक गया, टूट
गया। दौड़-दौड़कर
यह याद ही न
रही कि मैं
कौन हूं। दौड़-दौड़कर यह
भी भूल गया कि
कहां जा रहा
हूं। दौड़ना ही
याद रहा, मंजिल
का पता दौड़
में खो गया।
आपाधापी में
आत्मा का
स्मरण ही न
रहा।
दौड़
बहुत है।
लेकिन क्या
महावीर ऐसी ही
दौड़ को कहते
हैं? पश्चिम
तो विक्षिप्त
हुआ जा रहा
है। पूरब
मुर्दा हुआ जा
रहा है, पश्चिम
पागल हुआ जा
रहा है।
महावीर कहते
हैं, डबरे मत बनना।
लेकिन
विक्षिप्त
तूफान भी मत
बनना। चलना, विवेकपूर्वक। गति +
विवेक। गति +
उपयोग। गति +
चैतन्य। तो
तुम डबरे
की तरह सड़
भी न पाओगे और दौड़नेवाले
की तरह पागल
भी न हो
जाओगे। न तो
तुम लाश बनोगे,
न तुम बवंडर
बनोगे।
इन दोनों के
बीच तुम्हारे
जीवन की महिमा
का अवतरण
होगा। उस
संतुलन को साध
लेना ही संयम
है।
कहते
हैं महावीर, इंद्रियों
के पांच विषय
हैं, इसलिए
मन में पांच
तरह के चिंतन
चलते हैं। तुम्हें
खोजना चाहिए
कि तुम किस
इंद्रिय पर
अत्यधिक
चिंतन करते
हो। कुछ हैं, जो भोजन का
ही चिंतन करते
हैं; कुछ
हैं, जो
रूप का चिंतन
करते हैं; कुछ
हैं, जिन्हें
वाणी में, संगीत
में, ध्वनि
में रस है, वे
उसी का चिंतन
करते हैं। कुछ
हैं, जो
स्पर्श का
चिंतन करते
हैं, आलिंगन
का, चुंबन
का, इसका
चिंतन करते
हैं।
लेकिन
अगर तुम गौर
करोगे, तो
तुम पकड़ लोगे
कि तुम किस
इंद्रिय का
बहुत अधिक
चिंतन कर रहे
हो। चलते, बैठते,
उठते, सोते
उसी इंद्रिय
पर बार-बार
लौट आते हो।
भोजन का
दीवाना भोजन
के ही संबंध
में सोचता
रहता है।
नीरो
के संबंध में
कहा जाता है
कि वह इतना
भोजन के लिए
पागल था कि
भोजन
करते-करते ही रात
सो जाता था।
और उठते से ही
भोजन की मांग
शुरू हो जाती।
इतना ज्यादा
भोजन कोई कर
नहीं सकता।
क्योंकि भोजन
की एक सीमा है, एक जरूरत
है। तो उसने
चिकित्सक रख
छोड़े थे। वह
भोजन करे, चिकित्सक
उसे जल्दी से
वमन करवा दें,
ताकि वह फिर
भोजन कर सके।
पेट भरा हो तो
कैसे भोजन
करोगे? तो
वमन! ऐसा पागल
कोई आदमी नहीं
हुआ, जैसा
नीरो पागल था।
लेकिन
थोड़ा-बहुत
नीरो तुम अपने
में छिपा हुआ
पाओगे। जब पेट
भर गया हो, तब
भी तुम भोजन
किये चले जाओ,
तब
थोड़ा-बहुत अंश
में नीरो
तुम्हारे
भीतर है। नीरो
अतिशयोक्ति
है। तुम भी
लेकिन उसी
दिशा में गतिमान
हो।
पेट भर
गया हो, फिर
भी बैठकर तुम
भोजन का चिंतन
करो--अतीत भोजनों
का, या
भविष्य में
होनेवाली
संभावनाओं
का--तो भी तुम
पागल हो।
क्योंकि भोजन
पेट का काम
है। चिंतन-धारा
में भोजन की
इतनी छाया पड़े
तो कहीं कुछ रुग्ण
हो गया। कहीं
कुछ चूक हो
गयी। कहीं
तुम्हारे
भीतर से जीवन
का सहज संयम
उखड़ गया।
तुम्हारी चूल
ढीली पड़ गयी।
तुम्हारा चाक डगमगाने
लगा। जरूरत
जितनी है उससे
ज्यादा चिंतन
घातक है। फिर
चिंतन से घाव
बनता है।
फिर
मजा है कि
शरीर की जरूरत
तो पूरी हो
जाती है, चिंतन
से जो घाव
बनता है वह
जरूरत कभी
पूरी नहीं
होती। भोजन की
तो पूर्ति है,
स्वाद की
कहां पूर्ति
है! भोजन तो एक
मात्रा में
शरीर को भर
देगा, जरूरत
पूरी कर देगा,
स्वाद की
कोई मात्रा
कभी भी मन को
तृप्त नहीं कर
पाती।
मधु
पीते-पीते थके
नयन
फिर
भी प्यासे
अरमान!
कुछ है
प्यास जो
मिटती नहीं। न
पीने से, न
खाने से, न
भोगने से...।
मधु
पीते-पीते थके
नयन
फिर
भी प्यासे
अरमान!
जीवन
में मधु, मधु
में गायन,
गायन
में स्वर, स्वर में
कंपन,
कंपन
में सांस, सांस में रस,
रस
में विष, विष
मध्य जलन,
जलन
में आग, आग
में ताप,
ताप
में प्यार, प्यार में
पीर,
पीर
में प्राण, प्राण में
प्यास,
प्यास
में तृप्ति, तृप्ति का
नीर,
और
यह तृप्ति, तृप्ति ही
क्षणिक,
विश्व
की मीठी-मीठी
मधुर थकान!
फिर भी
प्यासे अरमान!
एक कदम
दूसरे कदम पर
ले जाता है।
दूसरा तीसरे पर
ले जाता है।
वर्तुल बड़ा
होता चला जाता
है।
लेकिन
मौलिक प्यास
अपनी जगह बनी
रहती है।
क्योंकि उस
मौलिक प्यास
का संबंध जीवन
की आवश्यकता
से नहीं रहा, उस मौलिक
प्यास का
संबंध मन की
अनंत भूख से
जुड़ गया, अनंत
आकांक्षा से
जुड़ गया। मन
के क्षितिज से
जुड़ते ही कोई
भी प्यास
तृप्ति की
सीमा के बाहर हो
जाती है। दुष्पूर
हो जाती है, उसे भरा
नहीं जा सकता।
महावीर
कहते हैं अपने
संन्यासी को
कि तू इंद्रियों
के सारे विषय, उनका चिंतन,
उनका मनन
छोड़कर--चलता
हो, तो बस
चलना। इतना ही
ध्यान रहे, उपयोगपूर्वक। उपयोग
महावीर का
अपना
पारिभाषिक
शब्द है। उपयोग
का अर्थ है, होशपूर्वक,
योगपूर्वक। उपयोग का
अर्थ है, योगपूर्वक चलना। भीतर
का दीया डगमगाये
न। भीतर एक
सहज स्मरण बना
रहे कि मैं चल
रहा हूं, मैं
चल रहा हूं।
यह तो
उदाहरण के लिए
महावीर ने
कहा। ऐसा ही
स्मरण सभी
क्रियाओं के
साथ धीरे-धीरे
जोड़ देना। हर
क्रिया के साथ
भीतर का दीया
जुड़ जाए। भोजन
करते वक्त, भोजन कर रहा
हूं ऐसा होश
बना रहे, तो
तुम ज्यादा
भोजन न कर
सकोगे। तुम
चकित हो जाओगे।
ज्यादा भोजन
तभी कर लेते
हो जब तुम्हें
होश नहीं
रहता। अगर
मित्र आ गये
हैं घर पर, तो
तुम ज्यादा
भोजन कर लेते
हो। क्योंकि
मित्रों के
साथ मस्ती में,
बातचीत में
बेहोशी बढ़
जाती है।
रेडियो चलाकर
बैठ जाते हो, ज्यादा भोजन
कर लेते हो!
क्योंकि भोजन
की स्मृति
नहीं रह जाती,
मन रेडियो
में जाता है, शरीर
यंत्रवत भोजन
को भीतर डालता
चला जाता है।
जहां भी तुम
होश को ले
आओगे, वहीं
पाओगे, आवश्यकता
पूरी हुई कि
क्रिया रुक
जाती है। आवश्यकता
से रंचमात्र
ज्यादा नहीं
जाती। न केवल
यह आध्यात्मिक
अर्थों में
महत्वपूर्ण
है, यह
शारीरिक
स्वास्थ्य के
लिए भी
महत्वपूर्ण है।
मेरे
पास बहुत लोग
आते हैं, वे
कहते हैं, भोजन
हम ज्यादा कर
जाते हैं, क्या
करें? तो
मैं उनसे कहता
हूं, होशपूर्वक
भोजन करो। और
कोई डाइटिंग
काम देनेवाली
नहीं है। एक
दिन, दो
दिन डाइटिंग
कर लोगे
जबर्दस्ती, फिर क्या
होगा? दोहरा
टूट पड़ोगे फिर
से भोजन पर।
जब तक कि मन की
मौलिक
व्यवस्था
नहीं बदलती, तब तक तुम
दो-चार दिन
उपवास भी कर
लो तो क्या फर्क
पड़ता है! फिर
दो-चार दिन के
बाद उसी
पुरानी आदत
में सम्मिलित
हो जाओगे। मूल
आधार बदलना
चाहिए। मूल
आधार का अर्थ
है, जब तुम
भोजन करो, तो
होशपूर्वक
करो, तो
तुमने मूल
बदला। जड़
बदली।
होशपूर्वक
करने के कई
परिणाम
होंगे। एक
परिणाम होगा, ज्यादा भोजन
न कर सकोगे।
क्योंकि होश
खबर दे देगा
कि अब शरीर भर
गया। शरीर तो
खबर दे ही रहा
है, तुम
बेहोश हो, इसलिए
खबर नहीं
मिलती। शरीर
की तरफ से तो
इंगित आते ही
रहे हैं। शरीर
तो यंत्रवत
खबर भेज देता
है कि अब बस, रुको। मगर
वहां रुकनेवाला
बेहोश है। उसे
खबर नहीं
मिलती। शरीर
तो टेलीग्राम
दिये जाता है,
लेकिन जिसे
मिलना चाहिए
वह सोया है।
उसे कुछ पता
नहीं चलता।
फिर धीरे-धीरे
इस बेहोशी की
मात्रा इतनी
बढ़ जाती है कि
शरीर की
सूचनाओं का
खटका भी मालूम
नहीं होता।
होशपूर्वक
भोजन करो।
भोजन करते
वक्त सिर्फ भोजन
करो। उस समय न
बाजार की सोचो, न व्यवसाय
की सोचो, न
राजनीति की
सोचो--न धर्म
की सोचो। उस
समय कुछ सोचो
ही मत। उस
क्षण
तुम्हारा
सारा उपयोग, उस क्षण
तुम्हारा
सारा बोध भोजन
करने की सहज-क्रिया
में संलग्न
हो। तो पहली
बात, जैसे
ही शरीर खबर
देगा रुकने का
क्षण आ गया, वह तुम्हें
सुनायी
पड़ेगा। दूसरी
बात, अगर
तुम
होशपूर्वक
भोजन करोगे, तो ज्यादा चबाओगे।
बेहोशी में
आदमी सिर्फ
किसी तरह धकाये
जाता है अंदर।
जब तुम ठीक से
चबाते नहीं, तो अतृप्ति
बनी रहती है।
रस उत्पन्न
नहीं होता।
शरीर में भोजन
तो भर जाता है,
लेकिन
प्राण नहीं
भरते। शरीर
में भोजन तो
पड़ जाता है, लेकिन यह
भोजन पचेगा
नहीं। यह
मांस-मज्जा न
बनेगा। इसलिए
शरीर की जरूरत
भी पड़ी रह
गयी। भोजन भी
जरूरत से
ज्यादा भर दिया
और शरीर की
जरूरत भी पूरी
न हुई। तो तुम
दो अर्थों में
चूके।
अगर
होशपूर्वक
भोजन
करोगे...इसलिए
समस्त धर्मशास्त्र
कहते हैं, भोजन करते
समय बोलो मत, बात मत करो, क्योंकि बात
तुम्हें हटायेगी,
चुकायेगी। भोजन करते
समय सिर्फ
भोजन करो।
भोजन करते
वक्त भोजन को
ही ब्रह्म
समझो।
इसलिए
उपनिषद कहते
हैं--"अन्नं
ब्रह्म।' और
ब्रह्म के साथ
कम से कम इतना
तो सम्मान करो
कि होशपूर्वक
उसे अपने भीतर
जाने दो।
इसलिए
सारे धर्म
कहते हैं, भोजन के
पहले
प्रार्थना
करो, प्रभु
को स्मरण करो।
स्नान करो, ध्यान करो, फिर भोजन
में जाओ, ताकि
तुम जागे हुए
रहो। जागे रहे
तो जरूरत से ज्यादा
खा न सकोगे।
जागे रहे, तो
जो खाओगे वह
तृप्त करेगा।
जागे रहे, तो
जो खाओगे वह
चबाया जाएगा,
पचेगा,
रक्त-मांस-मज्जा
बनेगा, शरीर
की जरूरत पूरी
होगी। और भोजन
शरीर की जरूरत
है, मन की
जरूरत नहीं।
जागे
हुए भोजन
करोगे तो तुम
एक क्रांति
घटते देखोगे
कि धीरे-धीरे
स्वाद से
आकांक्षा उखड़ने
लगी। स्वाद की
जगह
स्वास्थ्य पर
आकांक्षा जमने
लगी। स्वाद से
ज्यादा
मूल्यवान
भोजन के प्राणदायी
तत्व हो गये।
तब तुम वही
खाओगे, जो
शरीर की निसर्गता
में आवश्यक है,
शरीर के
स्वभाव की
मांग है। तब
तुम कृत्रिम
से बचोगे, निसर्ग
की तरफ मुड़ोगे।
महावीर
कहते हैं, इस उपयोग की
क्रिया को हर
क्रिया से जोड़
देना है।
स्नान करो, तो उपयोगपूर्वक।
सुनो, तो उपयोगपूर्वक।
जैसे मुझे तुम
सुन रहे अभी।
एक ही सम्यक
ढंग है सुनने
का। असम्यक ढंग
तो बहुत हैं।
सम्यक ढंग एक
ही है, और
वह है कि जब
तुम सुन रहे
हो, तो
सिर्फ सुनो, सोचो मत। जब
तुम सुन रहे, तो सिर्फ
कान ही हो
जाओ।
तुम्हारा
सारा शरीर ग्राहक
हो जाए। सोच
लेना पीछे। दो
क्रियाएं एक साथ
न करो। अभी एक
क्रिया में ही
होश नहीं सधता,
तो दो में
कैसे सधेगा? एक में साध
लो, तो फिर
दो में भी सध
सकता है, फिर
तीन में भी सध
सकता है, फिर
और भी जटिल
आधार उपयोग के
लिये दिये जा
सकते हैं।
छोटी-छोटी
क्रियाओं से
शुरू करो!
चलना बड़ी छोटी
क्रिया है।
राह पर चल रहे
हैं, कुछ करने
जैसा कर भी
कहां रहे हैं!
उस समय इतना ही
होश रहे कि चल
रहा हूं। जब
मैं यह कह रहा
हूं कि इतना
होश रहे चल
रहा हूं--जयं
चरे--तो
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
तुम भीतर दोहराओ
कि मैं चल रहा
हूं, मैं
चल रहा हूं।
अगर तुमने ऐसा
दोहराया, शब्द
निर्मित किये,
तो तुम चूक
गये। तुम शब्द
में लग गये, फिर चूक
गये। जब मैं
कह रहा हूं जागकर
चलो, तो
इसका केवल
इतना ही अर्थ
है, मन में
कोई चिंतन न
चले। निर्मल
दर्पण हो मन का,
सिर्फ चलने
की छाया पड़े; सिर्फ चलने
का भान रहे--बेभान
न चलो।
कभी
रास्ते के
किनारे खड़े
होकर देखना, लोग कितने बेभान चल
रहे हैं! चले
जा रहे हैं, जैसे नींद
में
हों--अलसाये, तंद्रिल!
आंखों में कोई
नशा, भीतर
कोई मूर्च्छा,
बेहोशी!
अनेकों को तुम
पाओगे कि वे
बात करते चल
रहे हैं, चाहे
साथ कोई भी न
हो। उनके ओंठ फड़क रहे
हैं, वे
कुछ कह रहे
हैं। बहुतों
को तुम पाओगे,
वे हाथ से
कुछ इशारे भी
कर रहे हैं; किसी अनजाने
साथी को सिर
हिलाकर हां भी
भर रहे हैं; सिर हिलाकर
ना भी कर रहे
हैं। चल नहीं
रहे हैं और
बहुत-कुछ कर
रहे हैं। तुम
अपने को
बार-बार पकड़ो।
यह चोर पकड़
में आ जाए, यह
मूर्च्छा का
चोर तुम्हारी
पकड़ में आ जाए
और इसकी जगह
तुम उपयोग के
पहरेदार को
अपने जीवन में
जगा लो, तो
सब हो जाएगा।
यह शुरुआत है।
"गमन-क्रिया
में तन्मय हो,
उसी को
प्रमुख महत्व
देकर उपयोगपूर्वक
चले।'
हम जब
चलते हैं, तब हम कुछ और
करते हैं। जब
हम कुछ और
करेंगे, तब
शायद हम चलने
के संबंध में
सोचेंगे।
हमारा मन बड़ा
अस्त-व्यस्त
है।
कभी
साहिल पे रह
कर शौक तूफानों
से टकराएं
कभी
तूफां
में रह के
फिक्र है
साहिल नहीं
मिलता
किनारे
पर होते हैं
तो तूफानों
में टकराने की
आकांक्षा
पैदा होती है।
तूफानों
में उलझ जाते
हैं, तो साहिल
पर पहुंचने की,
किनारे पर
पहुंचने की
अभीप्सा होती
है।
कभी
साहिल पे रह
कर शौक तूफानों
से टकराएं
कभी
तूफां
में रह के
फिक्र है
साहिल नहीं
मिलता
ऐसे
तुम जहां नहीं
हो, वहां
होते हो; जहां
हो, वहां
नहीं होते।
पकड़ो अभी!
यहीं हो? पूरे-पूरे
यहीं हो? इस
क्षण में
तन्मय हो? या
मन कहीं और भी
जा रहा है? मैं
जो कह रहा हूं
अगर तुम उस पर
सोचने भी लगे,
तो चूके।
क्योंकि
सोचने का अर्थ
है, तुम या
तो अतीत में
गये--पहले
तुमने कुछ
सुना होगा, पढ़ा होगा, सोचा होगा, सार-संपदा
है तुम्हारे
विचारों की, उसका तुम मेलत्ताल
बिठाने
लगे...जो मैं
कहता हूं, ठीक
कहता हूं? जो
मैं कहता हूं
तुमसे मेल
खाता है? तुम्हारी
स्वीकृति है
या नहीं? या
तुम आगे निकल
गये। मैं कह
रहा हूं जागकर
चलो, तुम
सोचने
लगे--अच्छा, कल सुबह से जागकर
चलेंगे। तो भी
चूक गये। तो
भी भूल हो
गयी। तुमने तय
कर लिया मन
में कि ठीक है,
अब यह बात
समझ में आ गयी,
अब जागकर
ही काम करेंगे,
तो भी चूक
हो गयी, तो
भी तुमने जागकर
ही नहीं सुना
तो जागकर
तुम चलोगे
क्या!
तो
जैसे-जैसे तुम
पाओ कि मन
छिटक-छिटककर
भागता है, पारे की तरह
है--पकड़ो कि
छिटक-छिटक
जाता है, इधर
से पकड़ो तो
दूसरी राह खोज
लेता है। मगर
अगर तुम समझपूर्वक
मन का पीछा
करते रहो, तो
एक दिन ऐसी
घड़ी आती है कि
मन ठहर जाता
है, रुक
जाता है क्षण
में। स्थिर।
गीता उस
स्थिति को परम
स्थिति मानती
है। ऐसे
रुकते-रुकते
एक घड़ी आती है
जबकि जरा भी
कंपन नहीं
होता, तो स्थितिप्रज्ञ,
तो रुक गयी
प्रज्ञा।
महावीर उसको
ही उपयोग कहते
हैं।
"तिनके
और सोने में, शत्रु और
मित्र में
समभाव रखना ही
सामायिक है।'
जब
तुम्हें
उपयोग की कला
आ जाए, तो
बाहर की
छोटी-छोटी
चीजों की बजाय
फिर उस उपयोग
की कला का
भीतर प्रयोग
शुरू करना।
"तिनके
और सोने में'--तब सोना और
मिट्टी, दोनों
के बीच डावांडोल
मत होना। तब
यह मत कहना कि
सोना
मूल्यवान, मिट्टी
ना कुछ। तब
कंपना मत सोने
और मिट्टी में।
तब वहां भी
कंपन छोड़ना।
तब इतना ही
कहना, यह
सोना, यह
मिट्टी। और
आत्यंतिक
अर्थों में तो
मिट्टी हो कि
सोना, सब
बराबर है।
क्योंकि हम तो
विदा हो
जाएंगे और सब
यहीं पड़ा रह
जाएगा। जो पड़ा
ही रह जाएगा, हम नहीं थे
तब भी था, हम
नहीं होंगे तब
भी होगा, उसके
साथ क्या
राग-रस बनाना!
जो छूटेगा,
उसके साथ
संबंध बनाना
दुख के बीज
बोना है। क्योंकि
जब छूटेगा,
तो पीड़ा
होगी। तिनके
और सोने में, मिट्टी और
सोने में, कूड़ा-कर्कट
और सोने में
समभाव।
"शत्रु और
मित्र में', कौन अपना है,
कौन पराया
है? आये
अकेले, गये
अकेले। आये
खाली हाथ, गये
खाली हाथ। न
कोई संगी-साथी
लाये, न
कोई संगी-साथी
ले जाएंगे। दो
दिन का मेला
है। नदी-नाव
संयोग है।
किसी को बना
लिया मित्र, किसी को बना
लिया शत्रु।
किसी को कहा
अपना, किसी
को कहा पराया।
सब अजनबी थे।
और सब अजनबी हैं।
अपना ही पता
नहीं, दूसरे
का पता कैसे
हो! खुद से तो
पहचान नहीं हो
पायी अब तक, औरों की
पहचान की तो
बात ही छोड़
दो। कुछ अजनबियों
को कहते हैं
अपने और कुछ
अजनबियों को
कहते हैं
पराये, कुछ
अजनबियों को
कहते हैं
इन्हें हम
पहचानते हैं,
कुछ
अजनबियों को
कहते हैं
इन्हें हम
पहचानते नहीं।
लेकिन सभी
अजनबी हैं।
किसे पहचानते
हो तुम!
फिर हम
कैसे निर्णय
करते हैं कौन
मित्र, कौन
शत्रु? जिसका
हमारी
वासनाओं में
मेल खा जाए, वह मित्र।
और जो हमारी
वासनाओं में
बाधा बन जाए, वही शत्रु।
जो हमें धन की
यात्रा में
साथ दे, वह
मित्र। जो धन
में अवरोध खड़े
करे, हमारी
महत्वाकांक्षा
में रोड़े अटकाये,
वह शत्रु।
जो हमें सहारा
दे वह मित्र, जो सहारा न
दे वह शत्रु।
लेकिन सहारा
वासनाओं के
लिए ही हम
मांग रहे हैं।
पहले तो
वासनाएं ही
व्यर्थ हैं।
पहले तो
वासनाओं की
दौड़ ही व्यर्थ
है।
तो
महावीर कहते
हैं, "तिनके
और सोने में, शत्रु और
मित्र में
समभाव रखना ही
सामायिक है।'
यह ध्यान की
बड़ी गहरी
परिभाषा हुई।
ध्यान की
आत्यंतिक
परिभाषा हुई।
कहते हैं, समता
सामायिक है। सम्यकत्व,
संतुलन, संयम;
दो अतियों
के बीच डोलना
न, बीच में
खड़े हो जाना; न बायें, न
दायें; मध्य
में थिर हो
जाना सामायिक
है। प्रेम और
घृणा कोई भी पकड़े न, जन्म
और मृत्यु कोई
भी जकड़े
न। न तो हम
कहें किसी को
कि आओ, न हम
कहें किसी को
कि जाओ; न
तो किसी के
लिए स्वागत हो
और न किसी के
लिए अपमान हो,
ऐसी अवस्था
को महावीर
कहते हैं, सामायिक।
बेकार
बहाना, टालमटोल
व्यर्थ सारी
आ
गया समय जाने
का--जाना ही
होगा
तुम
चाहे कितना
चीखो-चिल्लाओ, रोओ,
पर
मुझको डेरा आज
उठाना ही होगा
कल
खेला था अलियों-कलियों
की गलियों में
अब
आज मुझे मरघट
में रास रचाने
दो
कल
मुस्काया था
बैठ किसी की
पलकों पर
अब
आज चिता पर
बैठ मुझे मुस्काने
दो।
जिस
जीवन में मौत
छिपी है, जहां
डेरा लग भी
नहीं पाता कि उखाड़ने का
समय आ जाता है।
ठोंक भी नहीं
पाते खूंटे--एक
तरफ ठोंकना
पूरा हो पाता
है, दूसरी
तरफ से उखड़ना
शुरू हो जाता
है। यह बाजार
भर भी नहीं
पाता कि संध्या
हो जाती है।
यहां मिलन हो
कहां पाता, और विरह की
यात्रा शुरू
हो जाती है।
बेकार
बहाना, टालमटोल
व्यर्थ सारी
आ
गया समय जाने
का--जाना ही
होगा
तुम
चाहे कितना
चीखो-चिल्लाओ, रोओ,
पर
मुझको डेरा आज
उठाना ही होगा
एक पल
भी यहां ठहराव
कहां है! बनाओ, मिटाओ; जमाओ, उखाड़ो; खोलो, बंद करो। इस
छोटी-सी
क्षणभंगुर
व्यवस्था में हम
मित्र भी बना
लेते, शत्रु
भी बना लेते।
राग बना लेते,
विराग बना
लेते। धन सम्हालकर
रख लेते, कूड़ा-कर्कट
बाहर फेंक
आते। और फिर
एक दिन हम पड़े
रह जाते, और
जो सम्हाला था
वह पड़ा रह
जाता। महावीर
कहते हैं, इसका
बोध रहे, इसकी
समझ रहे, तो
तुम जकड़ोगे
न, पकड़े न जाओगे, कारागृह
न बनाओगे--तुम
मुक्त रह
सकोगे। होश मुक्ति
है। चीजें
जैसी हैं उनको
वैसे ही देख
लेना मुक्ति
है।
सोना
सोना है, मिट्टी
मिट्टी है, लेकिन दोनों
में से कोई भी
तुम्हारा
नहीं। मित्र,
शत्रु, कौन
तुम्हारा है?
मित्र से
मित्रता गिर
जाने दो, शत्रु
से शत्रुता
गिर जाने दो।
तुम तो इस
सत्य को
पहचानो कि तुम
ही अगर अपने
हो जाओ, तो
बहुत काफी है।
तुम ही अगर
अपने मित्र हो
जाओ, तो
काफी है। तुम
ही अपने शत्रु
न रहो, तो
काफी है।
महावीर
ने कहा, आत्मा
ही अपना मित्र,
आत्मा ही
अपना शत्रु
है। अगर
विकासमान हो
तो मित्र, अगर
ह्रासमान हो
जाए तो शत्रु।
अगर आकाश की
तरफ ले चले, पंख बन जाए
तो मित्र, अगर
पाताल की तरफ
गिराने लगे, अंधेरी
गलियों में
भटकाने लगे, नरकों में डुबाने
लगे, तो
शत्रु। बाहर
मत खोजो शत्रु
और मित्र।
वहां भीतर ही
आत्मा से
मैत्री बना लो,
बस वही
मैत्री काम
आनेवाली है।
क्योंकि बस आत्मा
ही साथ
जानेवाली है।
वही साथ है
सदा से, वही
साथ होगी सदा।
आत्मा की परिभाषा
ही यही है, जो
सदा से साथ है,
जो स्वभाव
है।
इसलिए
क्षण से बहुत
व्यथित मत हो
जाओ, शाश्वत
पर ध्यान रखो।
शाश्वत पर
जिसका ध्यान है,
उसकी
सामायिक सध ही
जाएगी। अपने
से सध जाएगी। क्योंकि
उसके जीवन में
जिन बातों से
तनाव पैदा
होता था, वे
बातें
अर्थहीन हो
जाएंगी।
तुम्हें कोई
बता दे कि आज
सांझ तुम्हें
मरना है, मौत
आ गयी; फिर
कोई गाली दे
जाए, तो
शायद तुम गाली
का उत्तर भी न
देना चाहोगे। तुम
कहोगे, अब
क्या गाली का
उत्तर देना, हम ही चले!
शायद तुम
कहोगे, क्षमा
ही मांग लें।
कहोगे कि
भूल-चूक क्षमा
करना। कुछ
गलती हो गयी
होगी, इसलिए
गाली दे रहे
हो; अब
मेरे जाने का
वक्त आ गया, आज सांझ तो
मुझे जाना है,
अब क्या झगड़ा
रोपना! अब
क्या अदालतें
खड़ी करनी!
लेकिन तुम्हें
पता नहीं कि
मौत सांझ आ
रही है, तुम
ऐसे जीते हो
जैसे सदा यहां
रहना है। तो
इंच-इंच जमीन
के लिए लड़
जाते हो।
रत्ती-रत्ती,
कौड़ी-कौड़ी धन के लिए लड़
जाते हो।
छोटे-मोटे पद
के लिए लड़ जाते
हो। हजार तरह
के उपद्रव
अपने हाथ से
खड़े कर लेते
हो। इस बात को
बिना
सोचे-समझे कि
मेले में खड़े
हो। इस बात को
बिना
सोचे-समझे कि
यह कोई घर
नहीं, धर्मशाला
है। रात रुके,
सुबह जाना
है। महावीर
कहते हैं, यह
बोध पक्का हो
जाए, तो
सामायिक।
कृष्ण
ने कहा है: समत्व
योग है--समत्वं
योग उच्यते।
समत्व एक
योग है।
महावीर कहते
हैं, समता
सामायिक है।
वही बात कहते
हैं: सामायिक
का अर्थ होता
है, ध्यान;
आत्मा में
डूब जाना, तन्मय
हो जाना।
खयाल
करें--
जब तक
तुम बाहर उलझे
हो, स्वयं
में डूब न
सकोगे। बाहर
बनाया मित्र,
तो उलझे
बाहर। बाहर
बनाया शत्रु,
तो उलझे
बाहर। बाहर
सोचा पद पाना
है, तो
उलझे। बाहर
सोचा कि धन
पाना है, तो
उलझे। भीतर
जानेवाले को
बाहर की सभी
बातें उलझा
लेती हैं। और
भीतर ही तुम
हो। वहीं है
पाने योग्य।
वहीं है जाने
योग्य। वहीं
है परम सत्ता
का निवास।
वहीं है परमात्मा
का आवास। तो
भीतर जाने के
लिए बाहर जितने
कम से कम
उलझाव हों, उतने अच्छे।
जो आदमी
किनारे को पकड़
ले, वह
मझधार की तरफ
बहेगा कैसे? जो आदमी
किनारे को न
छोड़े, वह
नदी में बहेगा
कैसे, तैरेगा कैसे? किनारा
तो छोड़ना होगा।
और जो इस
किनारे को न
छोड़े, वह
उस किनारे की
तरफ जाएगा
कैसे? बाहर
को तुम अगर
बहुत पकड़े
हो, तो
भीतर जाने की
चेष्टा
व्यर्थ हो
जाएगी।
अनेक
लोग मेरे पास
आते हैं, वे
कहते हैं, ध्यान
करना है। करते
भी हैं, कहते
हैं, लेकिन
होता नहीं।
ध्यान तो करना
चाहते हैं वे,
लेकिन बाहर
से संबंध
शिथिल नहीं
किये हैं। कहते
हैं मझधार में
उतरने का मजा
लेना है, डुबकी
लगानी है, मगर
देखता हूं, किनारों की जंजीरों
को पकड़े
रुके हैं।
मझधार में
जाने की
चेष्टा है, आकांक्षा है,
किनारे को
छोड़ने की
हिम्मत और समझ
नहीं। ध्यान
कैसे होगा? ध्यान तो
अंतर्यात्रा
है। सामायिक
है।
तो
महावीर कहते
हैं, बाहर से
थोड़े हाथ
शिथिल करो, खाली करो।
बाहर से थोड़ी
आंख बंद करो।
अगर बाहर
मित्र है, तो
बाहर की याद
आयेगी; अगर
बाहर शत्रु है,
तो बाहर की
याद आयेगी।
खयाल रखना, मित्र ही
नहीं बांधते,
शत्रु भी
बांध लेते
हैं। अकसर तो
ऐसा होता है
कि मित्रों से
भी ज्यादा शत्रुओं
की याद आती
है। अकसर तो
ऐसा होता है
कि जिससे
तुम्हें
प्रेम है, उसकी
चाहे तुम
विस्मृति भी
कर दो, लेकिन
जिससे
तुम्हें घृणा
है और क्रोध
है, उसे
तुम भूल ही
नहीं पाते।
फूल तो भूल भी
जाएं, कांटों
को कैसे भूलोगे?
चुभते हैं।
अपनों को तो
तुम विस्मरण
भी कर सकते हो,
दुश्मनों
को कैसे
विस्मरण
करोगे? और
यह बाहर के
मित्र और बाहर
के शत्रु, बाहर
का धन और पद
खींचते हैं
बाहर की तरफ।
और भीतर तुम
जाना चाहते
हो।
लोग
कहते हैं हम
बड़े बेचैन हैं, शांति
चाहिए। और यह
सोचते ही नहीं
कि बेचैनी का
कारण जब तक न
मिटाओगे, शांति
कोई आकस्मिक
थोड़े ही मिलती
है! शांति कोई
अनायास आकाश
से थोड़े ही
बरस पड़ती है!
शांति उसे
मिलती है
जिसने अशांति
के कारणों से
अपने हाथ अलग
कर लिये। वे
कारण हैं बाहर
के द्वंद्व में
चुनाव करना।
कृष्णमूर्ति
कहते हैं, "च्वाइसलेस अवेयरनेस।'
वही महावीर
की सामायिक
है। चुनावरहित
बोध।
निर्विकल्प
जागरूकता। न
यह मेरा है, न वह मेरा
है। न यह, न
वह। फिर बाहर
से हाथ छूटे, फिर तुम चले
भीतर। फिर तुम
सरके
भीतर। फिर तो
तुम रोकना भी
चाहोगे कि अब
कैसे रुकें,
तो न रुक
पाओगे। जैसे
ढलान पर, चिकनी
मिट्टी पर तुम
फिसल चले। एक
बार हाथ से
जंजीरें भर छूट
जाएं। लेकिन जंजीरों
को तुमने समझा
है आभूषण। तुम
जंजीरों
में लेते हो
गौरव। तुम
मानकर चलते हो
कि जंजीरें ही
जीवन का सब
कुछ हैं, सार
हैं। कितना
बड़ा मकान है!
कितना सोने का
अंबार है!
कितनी बड़ी
कुर्सी पर तुम
बैठे हो!
तुमने
कारागृह को
महल समझ रखा
है। तो तुम छोड़ोगे
कैसे! पहले
बाहर से थोड़े
हाथ खाली करने
होंगे।
"तिनके
और सोने में, शत्रु और
मित्र में
समभाव रखना
सामायिक है।'
समभावो सामइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसओ त्ति।
निरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च।।
"राग-द्वेष
एवं अभिष्वंग
रहित उचित
प्रवृत्ति
प्रधान चित्त
को सामायिक
कहते हैं।'
"राग-द्वेष
से रहित।' न
कोई अपना, न
कोई पराया, न किसी से
मोह, न
किसी से
क्रोध।
"राग-द्वेष
रहित, अभिष्वंग रहित उचित
प्रवृत्ति
प्रधान चित्त
को सामायिक
कहते हैं।' बाहर नहीं
जा रहा जो
चित्त, भीतर
जा रहा जो
चित्त, उसे
सामायिक कहते
हैं। ध्यान
रखना, यहां
महावीर के
सूत्र का बड़ा
महत्वपूर्ण
शब्द
है--प्रवृत्ति
प्रधान
चित्त। एक तो
प्रवृत्ति है
बाहर की
तरफ--सांसारिक,
वह भी
प्रवृत्ति
है। महावीर
कहते हैं, भीतर
की तरफ आना भी
प्रवृत्ति
है। वह भी
यात्रा है।
वहां भी बल
चाहिए। वहां
भी विधायक बल
चाहिए।
तो
महावीर भीतर
आने को
निवृत्ति
नहीं कहते; उसे भी
प्रवृत्ति
कहते हैं।
बाहर जाना
प्रवृत्ति है,
भीतर आना
प्रवृत्ति
है। हां, जो
भीतर पहुंच
गया, वह
निवृत्ति को
उपलब्ध होता
है। तो
संन्यासी निवृत्त
नहीं है, प्रवृत्त
ही है। नयी
प्रवृत्ति है
उसकी, बाहर
की तरफ नहीं
है। तीर उसका
बाहर की तरफ
नहीं जा रहा
है, भीतर
की तरफ जा रहा
है, लेकिन
तीर अभी चढ़ा
है, प्रत्यंचा
अभी खिंची है।
सिद्ध
निवृत्त है। जो
पहुंच गया, जो कहीं भी
नहीं जा रहा
है, जो
अपने घर आ गया,
जिसने अपने
केंद्र को पा लिया,
वह निवृत्त
है।
इसलिए
साधारणतः हम
संन्यासियों
को निवृत्त कहते
हैं, वह गलत
है। संन्यासी
निवृत्त नहीं
है। संन्यासी
ने नई
प्रवृत्ति
खोजी। ऊर्जा
का नया प्रवाह
खोजा। नयी
यात्रा, नयी
तीर्थयात्रा,
पैरों के
लिए नया
लक्ष्य, नया
साध्य, नये
क्षितिज। धन
की आकांक्षा
नहीं है अब, पद की
आकांक्षा
नहीं है अब, अब तो स्वयं
को पाने की
आकांक्षा है,
स्वयं को
पाने की
अभीप्सा है, लेकिन वह भी
अभीप्सा है।
इसलिए महावीर
कहते हैं, जब
तक सिद्ध न हो
जाओ, तब तक
रुकना मत, चलते
ही जाना। जब
ऐसी घड़ी आ जाए
कि बाहर तो
छूट ही जाए, भीतर भी छूट
जाए--क्योंकि
बाहर और भीतर
साथ-साथ जुड़े
हैं, एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। जब
बाहर पूरी तरह
छूटेगा, तो भीतर भी
पूरी तरह छूटेगा;
और जब तक
भीतर का कुछ
बचा है तब तक
बाहर का भी कुछ
दबे-छिपे बचा
रहेगा--जब
दोनों ही छूट
जाएं, सिक्का
हाथ से गिर
जाए।
महावीर
ने आत्मा के
तीन रूप कहे--बहिरात्मा:
संसार की तरफ
प्रवृत्ति; अंतरात्मा
अपनी तरफ
प्रवृत्ति; और
परमात्मा: प्रवृत्तिशून्यता,
निवृत्ति।
केवल
परमात्मा
निवृत्त है।
महावीर को
उनके भक्तों
ने भगवान कहा
है। महावीर के
दर्शनशास्त्र
में स्रष्टा
की तरह भगवान
के लिए कोई
जगह नहीं है।
सृष्टि अनादि
है, किसी
ने कभी बनायी
नहीं। सृष्टि
का कोई मालिक,
कोई
परमात्मा, कोई
नियंता नहीं
है। फिर
महावीर के
भक्तों ने महावीर
को भगवान कहा,
और महावीर
ने कभी इनकार
भी नहीं किया
किसी को कि
मुझे भगवान मत
कहो। भगवान को
इनकार करके
फिर उन्होंने
कैसे स्वीकार
कर लिया स्वयं
को भगवान पुकारे
जाना?
महावीर
के विचार-जगत
में भगवान का
दूसरा ही अर्थ
है। उसका कोई
संबंध सृष्टि
के बनाने से
नहीं है।
नियंत्रण से
नहीं है।
भगवान का अर्थ
है, निवृत्ति
की परम दशा।
जिसकी सब
प्रवृत्ति जाती
रही। धन तो
छोड़ा ही, ध्यान
भी छोड़ा। पद
तो छोड़े ही, बाहर की दौड़
तो छोड़ी
ही, भीतर
की दौड़ भी
गयी--दौड़ ही
गयी। जो सब
भांति परम
अवस्था में
लीन हो गया--सिद्धावस्था;
अब कहीं
जाने को न रहा,
कुछ पाने को
न रहा, जो
पाना था पा
लिया, जहां
जाना था पहुंच
गये, जो
अपने स्वभाव
में लीन हो
गया, स्वभाव
की इस परम दशा
को महावीर ने
कहा, भगवान,
भगवत्ता।
और यही
निवृत्ति की
दशा है।
साधारणतः
हम बाहर का
चिंतन करते
हैं। भीतर का चिंतन
तो हमने किया
नहीं इसलिए
हमें यह तो
समझ के ही बाहर
मालूम होगा कि
ऐसी भी कोई
घड़ी आती है, जहां भीतर
का चिंतन भी
छूट जाता है।
हमसे तो बाहर
का चिंतन भी
नहीं छूटा।
हमसे तो अभी
मिट्टी-पत्थर
नहीं छूटे, हमसे ध्यान
कैसे छूटेगा?
हमसे धन
नहीं छूटता, ध्यान कैसे छूटेगा? ध्यान तो
हमें पता ही
नहीं, अभी
मिला ही नहीं,
छूटने की तो
बात ही दूर है!
लेकिन ध्यान
की परिपूर्णता
तभी है, जब
ध्यान भी
व्यर्थ हो
जाता है।
ध्यान
तभी तक
अर्थपूर्ण है, जब तक
प्रवृत्ति
शेष है। ध्यान
औषधि है। अंग्रेजी
का शब्द ध्यान
के लिए
है--मेडिटेशन।
वह शब्द बड़ा
अर्थपूर्ण
है। उसकी मूल
धातु वही है जो
अंग्रेजी के
दूसरे शब्द
मेडिसिन की
है। ध्यान
औषधि है।
बीमार जब तक
है, तब तक
औषधि की जरूरत
है। जब स्वस्थ
हो गये, तो
औषधि छूट जाती
है। अगर
स्वस्थ होने
के बाद भी
औषधि जारी रही,
तो औषधि खुद
ही रोग हो गयी,
उपाधि हो
गयी। छूटनी
ही चाहिए।
ध्यान तो छुड़ाने
को है, कि
बाहर की दौड़
छूट जाए।
इसलिए भीतर की
यात्रा है। जब
बाहर की दौड़
बिलकुल छूट
गयी, तो
भीतर की
यात्रा किसलिए?
बीमारी ही
चली गयी, औषधि
भी चली जाती
है।
तो इसे
खयाल रखना।
ध्यान की
अंतिम अवस्था
जिसको पतंजलि
ने समाधि कहा
है, उस अंतिम
अवस्था में
ध्यान का भी
त्याग हो जाता
है, परित्याग
हो जाता है।
और संन्यास की
अंतिम अवस्था
में संन्यास
भी व्यर्थ हो
जाता है। वीतरागता
की अंतिम
अवस्था में वीतरागता
भी व्यर्थ हो
जाती है। यह
सब साधन है।
साध्य के आते
ही साधन छूट
जाते हैं।
दुनिया
में दो तरह के
लोग हैं। एक
तो वे हैं, जो कहते हैं
अगर ध्यान
छोड़ना ही है, तो करें
क्यों? एक
वे, जो
कहते हैं अगर
ध्यान किया, इतनी
मुश्किल से
साधा, सम्हाला,
जन्मों की
तपश्चर्या से,
तो छोड़ेंगे
नहीं। दोनों
गलत हैं। ये
ऐसे ही लोग
हैं जो कहते
हैं, हम
सीढ़ी चढ़ेंगे
तो छोड़ेंगे
नहीं। लेकिन
सीढ़ी छोड़ने के
लिए है। चढ़ते
जाओ, छोड़ते
जाओ। और अगर
सीढ़ी पर रुक
गये, तो छत
पर न
पहुंचोगे।
सीढ़ी के आखिरी
पैर पर भी रुक
गये, तो भी
छत पर पहुंचने
से रुक गये। छोड़नी ही
पड़ेगी सीढ़ी।
सीढ़ी गुजर
जाने को है।
लेकिन दूसरे
हैं तर्क से
भरे लोग, वे
कहते हैं, अगर
छोड़ना ही है, तो कौन झंझट
उठाये चढ़ने
की! तो हम यहां
नीचे ही भले
हैं। अभी ही
छोड़े हुए हैं।
कृष्णमूर्ति
निरंतर अपने
शिष्यों को
कहते रहे हैं, ध्यान
व्यर्थ है।
ठीक कहते हैं,
सौ प्रतिशत
ठीक कहते हैं।
लेकिन शायद
जिनसे कहते
हैं, वे
ठीक नहीं हैं।
जिनसे कहते
हैं, उनकी
समझ के बाहर
है यह बात।
पहले तो
उन्हें ध्यान करवाओ, पहले
तो उन्हें
ध्यान पकड़ाओ,
पहले तो
बाहर से छुड़ाओ,
भीतर की
यात्रा पर
चलाओ, भीतर
की प्रवृत्ति
दो, फिर एक
दिन जब भीतर
की प्रवृत्ति
सध जाए, रमने लगें, बाहर
का स्मरण भूल
जाए और भीतर
का रस आने लगे,
तब उनको
कहना, चौंकाना
कि अब इसे भी छोड़ो।
क्योंकि यह भी
अभी बाहर है।
भीतर होकर भी
बाहर है। तुम
इससे भी
ज्यादा भीतर
हो। तुम सिर्फ
साक्षीभाव
हो। जिसको पता
चल रहा है
ध्यान का आनंद,
वही हो तुम।
ध्यान तुम
नहीं हो।
कोई
संभोग में सुख
ले रहा है।
उसकी भूल क्या
है? वह
साक्षी को
भोक्ता समझ
रहा है। फिर
कोई समाधि में
सुख लेने लगा।
उसकी भूल क्या
है? वही
भूल है। भूल
वही की वही
है। वह अब फिर
साक्षी को
भोक्ता समझ
रहा है। संभोग
हो कि समाधि, तुम दोनों
के पार हो।
तुम कुछ ऐसे
हो कि तुम सदा
पार ही हो।
कुछ भी घटे--धन
मिले कि ध्यान
मिले, पद
मिले कि
परमात्मा
मिले, तुम
सदा पार हो।
तुम्हारा
होना ट्रांसेंडेंटल
है, भावातीत है, विचारातीत है। तुम
साक्षी हो।
तुम जो देखते
हो, उसी से
अन्य हो जाते
हो। जो दृश्य
में बन जाता है
तुम्हारे लिए,
तुम उसी के
द्रष्टा हो
जाते हो।
इसलिए
कोई भी अनुभव
तुम्हारा
स्वभाव नहीं।
सब अनुभव
तुम्हारे लिए
दृश्य हैं।
आकाश में
चमकती बिजली
देखो, या
आंख बंद करके
ध्यान की
गहराइयों में
कौंधते हुए
प्रकाश देखो,
बराबर है।
बाहर खिले फूल
देखो, कि
भीतर ध्यान की
अंतिम
गहराइयों में
सहस्रार का
खिलता कमल
देखो, एक
ही बात है।
लेकिन, मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि उस
सहस्रार को
पाना मत। मैं
कह रहा हूं, बाहर के फूल
से तो भीतर का
फूल बड़ा कीमती
है। चलो बाहर
का फूल इसी
आशा में छोड़ो
कि भीतर का
फूल खिले। जिस
दिन भीतर का
फूल खिलेगा, उस दिन
तुमसे आखिरी
बात भी कही जा
सकेगी कि अब इसे
भी छोड़ो।
अभी और भी एक
है छिपा--उसके
भी पार--वही
तुम हो। जो
सदा पार है, जिसका
स्वभाव ही पार
होना है, वही
तुम हो।
तो
महावीर कहते
हैं
प्रवृत्ति--ध्यान
को भी, सामायिक
को भी।
निवृत्ति तो
तब होगी जब
ध्यान का भी
त्याग हो
जाएगा। इसका
अर्थ हुआ, संसारी
तो प्रवृत्त
है ही, संन्यासी
भी प्रवृत्त
है। दिशा
अलग-अलग, लक्ष्य
भिन्न-भिन्न,
पर दोनों
ऊर्जा के अश्व
पर सवार हैं, दोनों कहीं
जा रहे हैं, दोनों का
कोई लक्ष्य
है। तीर
प्रत्यंचा पर
चढ़ा है, अभी
तरकस में नहीं
पहुंचा। हम तो
बाहर की ही सोच-सोचकर
मरे जाते हैं।
महावीर कहते
हैं, एक
दिन भीतर
सोचना भी छोड़
देना। हम तो इंद्र्रियों
के विषय-सुख
सोच-सोचकर विदग्ध
होते रहते
हैं--
आज
की रात और
बाकी है
कल
तो जाना ही है
सफर पे मुझे
जिंदगी
मुंतजिर
है मुंह फाड़े
जिंदगी, खको-खून
में लथड़ी
है
आंख
में शोलाऱ्हाय
तुंद लिये
दो
घड़ी खुद को शादमां
कर लें
आज
की रात और
बाकी है
कल
तो जाना ही है
सफर पे मुझे
मरते-मरते
तक आदमी सोचता
है, कल तो
जाना है।
दो
घड़ी खुद को शादमां
कर लें
थोड़ा
और मजा ले लें, थोड़ा और सुख
लूट लें, थोड़ी
देर और सपनों
में खो लें, थोड़ी देर और
इस रस की
भ्रांति में
अपने को भरमा
लें, थोड़ी
देर और माया
का राग-रंग
चले।
आज
की रात और
बाकी है
कल
तो जाना ही है
सफर पे मुझे
दो
घड़ी खुद को शादमां
कर लें
आज
की रात और
बाकी है
एक
पैमाना-ए-मये-सरजोश
लुत्फे-गुफ्तार, गर्मी-ए-आगोश
बोसे--इस
दर्जा आतशीं
बोसे
फूंक
डालें जो मेरी
किश्तेऱ्होश
रूह
मखवस्ता
है तपां
कर लें
आज
की रात और
बाकी है
एक
पैमाना-ए-मये
सरजोश
एक
और तेज शराब
का प्याला पी
लें।
लुत्फे-गुफ्तार
गर्मी-ए-आगोश
और
थोड़ी देर
प्रिय से
बातें कर लें, आलिंगन कर
लें।
बोसे--इस
दर्जा आतशीं
बोसे
और
गर्म
चुंबन--आग्नेय
चुंबन। और
थोड़ी देर अपने
को गरमा लें।
फूंक
डालें जो मेरी
किश्तेऱ्होश
और जो
मेरी चेतना की
फसल को जला
डालें, ऐसे
गर्म चुंबन और
थोड़ी देर सही!
रूह
मखवस्ता
है तपां
कर लें
और
आत्मा ठंडी
पड़ी जाती है, थोड़ी गरमा
लें।
आज
की रात और
बाकी है
कल
तो जाना ही है
सफर पे मुझे
मरते-मरते
दम तक आदमी के
मन में ऐसा ही
चिंतन चलता
है।
क्षणभंगुर
जिंदगी को
देखकर आदमी
जागता नहीं, क्षणभंगुर
जिंदगी को
देखकर और जोर
से पकड़ लेता
है। वह कहता
है, कल तो
छूट जाएगा, तो आज भोग
लें। कल तो
छीन लिया
जाएगा, तो
आज भोग लें।
उसे यह खयाल
नहीं आता कि
जो छिन ही
जाएगा, वह छिना ही
हुआ है। वह
छिन ही चुका
है। वह कभी
मिला ही नहीं।
वह बस सपना
है। जो टूट
जाएगा, वह
सपना है। थोड़ी
देर और आंख
बंद करके देख
लो, क्या
सार है! जिनके
पास थोड़ी भी
बुद्धिमत्ता
है, वे
कहेंगे जो
सुबह टूट
जाएगा, वह
हमने अभी
छोड़ा। जो कल
छूट जाएगा, वह हमने आज
छोड़ा। इसीलिए
तो ज्ञानी
जीते-जी मर
जाता है। वह
कहता है, जब
कल मरना है, हम आज मर
गये। अब जीने
में अर्थ न
रहा। संन्यास
का यही अर्थ
है--जीते-जी मर
जाना। जान
लेना कि ठीक
है, मौत तो
होगी, तो
हो गयी। अब हम
ऐसे जीएंगे
जैसे हम नहीं
हैं। उठेंगे,
बैठेंगे, चलेंगे, लेकिन
वह जो होने का
दंभ था, अब
न रखेंगे। वह
मौत तो मिटायेगी
ही, हम ही
क्यों न मिटा
दें?
और
ध्यान रखना, जो स्वयं उस
दंभ को मिटा
देता है, उसके
सामने मौत हार
जाती है। फिर
मौत को मिटाने
को कुछ बचता
ही नहीं।
इसलिए मौत
संसारी को मारती
है, संन्यासी
को नहीं।
संन्यासी अमर
है। संसारी मरता
है, हजार
बार मरता है।
संन्यासी एक
बार मरता है।
संसारी हजार
बार मरता है, जबर्दस्ती
मारा जाता है।
संन्यासी
स्वेच्छा से
मरता है, एक
बार स्वयं ही
जीवन को उतारकर
रख देता है कि
हो गयी बात, ठीक है, जो
कल छिनना है
वह मैं स्वयं
छोड़े देता
हूं। संन्यास
स्वेच्छा से
स्वीकार की
गयी मृत्यु है।
"जो
वचन-उच्चारण
की क्रिया का
परित्याग
करके वीतराग
भाव से आत्मा
का ध्यान करता
है, उसको
परम समाधि या
सामायिक होती
है।'
यह
सूत्र बहुत
महत्वपूर्ण
है।
"जो
वचन-उच्चारण
की क्रिया का
परित्याग
करके।'
महावीर
ने मौन पर
बहुत जोर दिया
है। ऐसा किसी ने
इतना जोर नहीं
दिया मौन पर।
जोर सभी ने
दिया है, मौन
इतना
महत्वपूर्ण
है कि कोई भी
उसे छोड़ तो
नहीं सकता, लेकिन जैसा
जोर महावीर ने
दिया है, वैसा
किसी ने नहीं
दिया। महावीर
ने मौन को साधना
का केंद्र
बनाया। इसलिए
अपने
संन्यासी को मुनि
कहा। बुद्ध ने
अपने
संन्यासी को
भिक्षु कहा।
हिंदुओं ने
अपने
संन्यासी को
स्वामी कहा।
अलग-अलग जोर
है। हिंदुओं
ने स्वामी कहा,
क्योंकि
उन्होंने कहा
कि जो आत्मा
को जानने लगा,
वही अपना
मालिक
है--स्वामी।
बुद्ध ने
भिक्षु कहा, उन्होंने
कहा जिसने
अहंकार को
पूरा गिरा दिया,
इतना गिरा
दिया कि कहा
कि मैं भिक्षु
हूं, कैसा
स्वामी! जिसने
अस्मिता
जरा-भी न रखी, अहंकार
जरा-भी न रखा, भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो
गया। जिसने
सम्राट होने
की घोषणा न
की। जिसने सब घोषणाएं
वापिस ले लीं,
जिसने कहा
मैं कुछ भी
नहीं हूं। यही
अर्थ है भिक्षु
का।
महावीर
ने अपने
संन्यासी को
मुनि कहा।
मुनि का अर्थ
है, जो मौन हो
गया। जिसने
वचन-उच्चारण
की क्रिया का
परित्याग
किया। क्यों
महावीर ने
इतना जोर दिया
मौन पर, इसे
खयाल में लें।
मनुष्य की
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
बात बातचीत है,
भाषा है, बोलने की
क्षमता है।
पशु हैं, पक्षी
हैं, पौधे
हैं, हैं
तो, पर
भाषा नहीं है।
बोल नहीं
सकते। इसलिए
पशु-पक्षी-पौधे
अकेले-अकेले
हैं, उनका
कोई समाज नहीं
है। समाज के
लिए भाषा
जरूरी है।
आदमी का समाज है।
आदमी सामाजिक
प्राणी है, क्योंकि
आदमी बोल सकता
है। बोले बिना
जुड़ोगे
कैसे किसी से?
जब बोलते हो,
तभी सेतु
फैलते हैं और
जोड़ होता है।
तो भाषा का
अर्थ हुआ, व्यक्ति-व्यक्ति
के बीच जोड़नेवाले
सेतु। भाषा
मनुष्य को
समाज बनाती
है। समाज देती
है। समुदाय
देती है।
महावीर
ने कहा, मौन
हो जाओ। अर्थ
हुआ, टूट
जाओ, सारे
सेतु तोड़ दो
दूसरों से।
बोलने के ही
तो सेतु हैं, बोलने के
द्वारा जुड़े
हो, तोड़ दो
बोलने के सेतु,
अकेले हो
जाओ। बोलना
छोड़ते ही आदमी
अकेला हो जाता
है, चाहे
बाजार में खड़ा
हो। अगर बोलना
जारी रहे, तो
पहाड़ पर बैठा
भी अकेला नहीं
है। वहां भी
किसी से, कल्पना
के मित्र से, शत्रु से
बात करता
रहेगा। वहां
भी समाज बना
रहेगा।
कल्पना का ही
सही, लेकिन
समाज रहेगा।
आदमी अकेला न
होगा। बीच बाजार
में आदमी मौन
हो जाए, अचानक
उसी क्षण मौन
होते ही समाज
खो गया। भीड़
के कारण समाज
नहीं है, भाषा
के कारण समाज
है।
तो
महावीर ने कहा, जंगल में
भागने से क्या
सार होगा!
अपने में भाग
जाओ, छोड़
दो दूसरे तक
जाना--भाषा से
ही हम दूसरे
तक जाते
हैं--तोड़ दो
भाषा, अपने
में लीन हो
जाओ। महावीर
बारह वर्ष मौन
रहे। उन बारह वर्षों
में उन्होंने
क्या किया? उन्होंने सब
भांति अपने को
समाज से मुक्त
किया। वे परम
विद्रोही थे।
समाज से सब
भांति उन्होंने
सब तरह के
संबंध, सब
धागे तोड़
डाले।
उन्होंने सब
तरह से अपने
को समाज से
अलग किया, क्योंकि
उन्होंने
पाया कि जितने
तुम समाज से जुड़े
हो, उतने
ही अपने से
टूट जाते हो।
स्वाभाविक
गणित था। समाज
से टूट जाओ, अपने से जुड़
जाओगे। फिर
महावीर लौटे,
समाज में
लौटे, समझाने
आये, बोले,
लेकिन बारह
वर्ष के मौन
के बाद बोले।
अब समाज से जुड़ने
का कोई उपाय न
था। अब
उन्होंने सब
भांति अपनी निपटता,
एकांत को
उपलब्ध कर
लिया था। सब
भांति कैवल्य
को जान लिया
था, स्वयं
के अकेलेपन को
पहचान लिया
था। फिर आये। अब
कोई डर न था, अब बोले। अब
भाषा केवल
उपयोग की बात
रह गयी। एक साधनमात्र।
तुम्हारे लिए
भाषा केवल
साधन नहीं है।
भाषा तुम्हारी
व्यस्तता है।
बिना बोले तुम
घबड़ाने
लगते हो। अगर
कोई बात करने
को न मिले, तो
बेचैन होने
लगते हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
अगर तीन
सप्ताह किसी
आदमी को एकांत
में बंद कर
दिया जाए, तो पहले
सप्ताह तो वह
भीतर-भीतर बात
करता है; दूसरे
सप्ताह बोल-बोलकर बात
करने लगता
है--अकेले में;
और तीसरे
सप्ताह तो वह
बिलकुल खयाल
ही भूल जाता
है कि अकेला
है। वह अपनी
प्रतिमाएं
कल्पना की खड़ी
कर लेता है, उनसे बातचीत
में संलग्न हो
जाता है।
कम्युनिस्ट
मुल्कों में
जिन कैदियों
से उन्हें बात
उगलवानी
होती है, उनको
वे सताते नहीं,
उनको वे
सिर्फ एकांत
में डाल देते
हैं, अंधेरी
कोठरियों में
डाल देते हैं।
उनको पड़े रहने
देते हैं
अकेले में।
टेप लगे रहते
हैं उनके
आसपास, वे
कुछ भी बोलें
तो वह टेप में
संगृहीत हो
जाता है।
तीन-चार
सप्ताह के बाद
जो वह उगलवाना
चाहते थे, वह खुद ही
उगलने लगते
हैं। एक सीमा
है!
तुमने
कभी खयाल किया? कोई तुमसे
गुप्त बात कह
दे, कहे
किसी को कहना
मत, बस तुम
मुश्किल में
पड़े। उसका यह
कहना कि किसी
को कहना मत, कहने के लिए
बड़ा उकसावा बन
जाएगा। बड़ी
उत्तेजना
पैदा हो
जाएगी। आदमी
लेता है, देता
है, भाषा
में। भीतर
छिपाकर रखना
बहुत कठिन है।
मैंने
सुना है, एक
सूफी फकीर के
पास एक युवक
आया। और उस
युवक ने कहा
कि मैंने सुना
है कि आपको
जीवन का परम
रहस्य मिल गया,
आपके गुरु
ने आपको कुंजी
दे दी है, उस
गुप्त-कुंजी
को मुझे भी दे
दें। उस सूफी
फकीर ने कहा, ठीक! लेकिन
तुम इसे गुप्त
रख सकोगे? किसी
को बताना मत!
उसने कहा कसम
खाता हूं
आपकी--पैर
छुए--कभी किसी
को न बताऊंगा।
वह सूफी बोला
फिर ठीक, मैंने
भी ऐसी ही कसम
खायी है अपने
गुरु के सामने।
अब बोलो मैं
क्या करूं? अगर तुम
गुप्त रख सकते
हो जीवनभर, तो मैं भी रख
सकता हूं। और
अगर तुम सच
पूछते हो, तो
मेरे गुरु ने
भी मुझे बतायी
नहीं, क्योंकि
उसने भी अपने
गुरु के सामने
ऐसी ही कसम
खायी थी।
सिर्फ अफवाह
है, परेशान
मत होओ।
गुप्त
बात गुप्त रखी
नहीं जा सकती।
आदमी बोझिल
अनुभव करने
लगता है। जो
बाहर से आया
है वह बाहर
लौटाना पड़ता
है। जब तुम
बोलते हो, तुमने खयाल
किया, तुम
वही बोलते हो
जो बाहर से
तुम्हारे
भीतर आ गया
है। वह भारी
होने लगता है।
सुबह अखबार पढ़
लिया, फिर
वही अखबार तुम
दूसरों से
बोलने लगे। जब
तक तुम किसी
को बता न दो
तुमने अखबार
में क्या पढ़ा
है, तब तक
तुम्हें चैन
नहीं। यह
विजातीय तत्व
है जो बाहर से
आ जाता है, इसे
बाहर निकालना
पड़ता है। यह
तुम्हारी
प्रकृति को
विकृत करता
है। बाहर
निकलते ही से
तुम हलके हो
जाते हो।
इसीलिए तो
किसी से अपनी
बातें कहकर
आदमी हलकापन
अनुभव करता
है। रो लिया
दुखड़ा, हो
गये हलके।
पश्चिम
में तो अब कोई
किसी की सुनने
को राजी नहीं।
किसके पास
फुर्सत है! तो
व्यावसायिक
सुननेवाले
पैदा हो गये
हैं, उन्हीं
का नाम मनोवैज्ञानिक
है। वे
व्यावसायिक
हैं, उनका
कोई और काम
नहीं है। उनका
काम यह है कि
वे
ध्यानपूर्वक
तुम्हारी बात
सुनते हैं।
सुनते भी हैं
या नहीं, यह
भी कुछ पक्का
नहीं है, लेकिन
ध्यानपूर्वक
जतलाते हैं कि
सुन रहे हैं।
आदमी घंटाभर
अपनी बकवास
उन्हें
सुनाकर हलका
अनुभव करता
है। और इसके
लिए पैसे भी
देता है।
महंगा धंधा
है। काफी पैसे
देने पड़ते
हैं। लोग
वर्षों तक
मनोचिकित्सा
में रहते हैं।
एक चिकित्सक
को छोड़ फिर
दूसरे को पकड़
लेते हैं।
क्योंकि एक
बार वह जो
राहत मिलती है
किसी को, ध्यानपूर्वक
कोई तुम्हारी
सुन ले, तो
बड़ा आनंद आता
है। तुम हलके
हो जाते हो।
महावीर
ने कहा, भाषा
इस तरह अगर
व्यस्तता का
आधार बन गयी
हो तो रोग है।
तो तुम चुप हो
जाना।
"जो
वचन-उच्चारण
की क्रिया का
परित्याग
करके वीतराग
भाव से आत्मा
का ध्यान करता
है, उसको
परम समाधि या
सामायिक होती
है।'
यह बात
खयाल में
रखने-जैसी है।
कम से
कम दिन में
दो-चार घंटे
तो मौन में
बिताओ। नियम
ही बना लो कि
चौबीस घंटे
में कम से कम
चार घंटे तुम
अपने लिए दे
दोगे। बाकी दे
दो बीस घंटे
संसार के लिए, चार घंटे
अपने लिए बचा
लो। चलो चार
घंटे बहुत लगें,
घंटे से
शुरू करो।
लेकिन एक घंटा
अपने लिए बचा
लो। उस एक
घंटे में फिर
तुम बिलकुल
चुप हो जाओ। पहले-पहले
कठिन होगा।
ओंठ बंद कर
लेना तो आसान
है, भीतर
की तरंगें बंद
करना मुश्किल
होगा। लेकिन साक्षीभाव
से उन तरंगों
को देखते
रहो...देखते
रहो...देखते रहो।
धीरे-धीरे तुम
पाओगे, गति
विचारों की कम
हो गयी।
धीरे-धीरे तुम
पाओगे, कभी-कभी
बीच-बीच में
दो विचार के
अंतराल आने लगा,
खाली जगह
आने लगी, उसी
खाली जगह में
से रस बहेगा।
उसी खाली जगह
में से
तुम्हें
आत्मा की झलक
पहली दफे
मिलेगी। यह
झलक ऐसे ही
होगी जैसे
वर्षा में
बादल घिरे हों
और कभी-कभी
सूरज की झलक
मिल जाए क्षणभर
को, किरणों
की छटा छा जाए,
फिर सूरज ढक
जाए। लेकिन एक
बार झलक आने
लगे, एक
दफे वहां भीतर
की मुरली का
स्वर तुम्हें
सुनायी पड़ने
लगे, तो
जीवन में जो
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
है, वह घट
गया।
साज-शृंगार?
छोड़
दौड़ो सब
साज-सिंगार,
रास
की मुरली रही
पुकार।
गयी
सहसा किस रस
से भींग
वकुल
वन में कोकिल
की तान?
चांदनी
में उमड़ी
सब ओर
कहां
के मद की मधुर
उफान?
गिरा
चाहती भूमि पर
इंदु
शिथिलवसना
रजनी के संग;
सिहरते
पग सकता न
संभाल
कुसुम-कलियों
पर स्वयं
अनंग!
ठगी-सी
रूठी नयन
के पास
लिये
अंजन उंगली
सुकुमार,
अचानक
लगे नाचने
मर्म,
रास
की मुरली उठी
पुकार
साज-शृंगार?
छोड़
दौड़ो सब
साज-सिंगार,
रास
की मुरली रही
पुकार।
खोल
बांहें
आलिंगन हेतु
खड़ा
संगम पर
प्राणाधार;
तुम्हें
कंकन-कुंकुम
का मोह,
और
यह मुरली रही
पुकार।
सनातन
महानंद में आज
बांसुरी-कंकन
एकाकार।
बहा
जा रहा अचेतन
विश्व,
रास
की मुरली रही
पुकार।
साज-शृंगार?
छोड़
दौड़ो सब
साज-सिंगार,
रास
की मुरली रही
पुकार।
एक बार
भी तुम्हें
भीतर की
किरणों का बोध
हो जाए--सुन
पड़ी मुरली, रास का
निमंत्रण मिल
गया। उस परम
प्यारे की सुध
आ गयी। वह
तुम्हारे
भीतर ही बैठा
है। वह तुम्हें
सदा से ही
पुकारता रहा
है। लेकिन तुम
इतने व्यस्त
हो दूसरों के
साथ भाषा में,
बोलने में,
झगड़ने में,
मित्रता-शत्रुता
बनाने में; तुम इतने
व्यस्त हो
बाहर कि
तुम्हारे
भीतर अंतर्तम
से उठी मुरली
की पुकार
तुम्हें
सुनायी नहीं
पड़ती।
महावीर
ने कहा, मौन
हो जाओ; तो
तुम्हें अपने
संगीत का पहली
दफा अनुभव हो।
चुप हो जाओ, उस चुप्पी
में ही, उस
अनाहत का नाद
शुरू होगा। वह
ध्वनिहीन
ध्वनि, वह
स्वरहीन स्वर
तुम्हारे
भीतर से उठने
लगेगा।
तुम्हारी अतल
गहराइयों से,
तुम्हारी
चेतना की परम
गहराइयों से
तुम्हारे पास
तक पहुंचने
लगेगा। लेकिन,
मौन उसकी
अनिवार्य
शर्त है। और
मौन का अर्थ है
ओंठ से मौन, कंठ से मौन, भीतर विचार
से
मौन--धीरे-धीरे
सब तलों पर, सब पर्तों
पर मौन। तब
तुम मुनि हुए।
मुनि का कोई
संबंध
बाह्य-आचरण से
नहीं है। मुनि
का संबंध उस अंतसदशा
से है, मौन
की दशा से है।
और जो मौन को
उपलब्ध हुआ, वही बोलने
का हकदार है।
जो अभी मौन को ही
नहीं जाना, वह तो बाहर
के ही कचरे को
भीतर लेता है
और बाहर फेंक
देता है। उसका
बोलना तो वमन
जैसा है। जो मौन
को उपलब्ध हुआ,
उसके पास
कुछ देने को
है। उसके पास
कुछ भरा है, जो बहना
चाहता है, बंटना
चाहता है।
उसके पास कुछ
आनंद की संपदा
है, जो वह
तुम्हारी
झोली में डाल
दे सकता है।
महावीर
बारह वर्ष मौन
रहे। जीसस जब
भी बोलते, तो बोलने के
बाद कुछ दिनों
के लिए पहाड़
पर चले जाते।
वहां चुप हो
जाते। जब भी
कोई
महत्वपूर्ण
बात बोलते तब
तत्क्षण वे
पहाड़ चले
जाते। अपने
मित्र, संग-साथियों
को भी छोड़
देते, कहते,
अभी कोई मत
आना। अभी मुझे
जाने दो अकेले
में। उस अकेले
में जीसस क्या
करते? मुहम्मद
पर जब पहली
दफा कुरान की
आयत--पहली आयत
उतरी, तो
वे चालीस दिन
से मौन थे।
उसी मौन में
पहली दफे
कुरान उतरा।
जो भी
मौन में उतरा
है वही
शास्त्र है।
मौन में जो
नहीं उतरा, वह शास्त्र
नहीं। किताब
होगी। जो मौन
में कहा गया
है, मौन से
कहा गया है, वही उपदेश
है। जो शब्द
मौन में डूबे
हुए नहीं आये,
मौन में पगे
हुए नहीं आये,
वे सब शब्द
रुग्ण हैं।
स्वस्थ तो वे
ही शब्द हैं
जो मौन में पगे
हुए आते हैं।
और अगर तुम
ध्यान से सुनोगे,
तो तुम
तत्क्षण
पहचान लोगे कि
यह शब्द मौन
में पगा आया
है, या
नहीं आया है? तुम्हारा
हृदय तत्क्षण
गवाही दे
सकेगा। क्योंकि
जितना शून्य
लेकर शब्द आता
है, अगर
तुम
शांतिपूर्वक
सुनो, तो
शब्द चाहे तुम
भूल भी जाओ, शून्य सदा
के लिए
तुम्हारा हो
जाता है। शब्द
चाहे
तुम्हारे
स्मृति में
रहे या न रहे, शून्य तुम्हारे
प्राणों पर
फैल जाता है।
तुम्हें नया
कर जाता है, ताजा कर
जाता है।
ध्यान
में दर्शन है।
मौन में दर्शन
है। चुप्पी
में
साक्षात्कार
है।
देख
सकता हूं जो
आंखों से वो
काफी है "मज़ाज़'
अहले-इर्फां
की नवाजिश
मुझे मंजूर
नहीं
ठीक
कहा है मज़ाज़
ने।
दार्शनिकों
की सेवा करने
की मेरी इच्छा
नहीं।
दार्शनिकों
का सत्संग
करने की मेरी
कोई इच्छा
नहीं।
देख
सकता हूं जो
आंखों से वो
काफी है "मज़ाज़'
जो मैं
अपनी आंख से
देख सकता हूं, वह पर्याप्त
है। किसी और
से क्या पूछना
है!
किसी
और से क्या
पूछने जाना
है! आंख
तुम्हारे पास
है, लेकिन तुम्हारी
आंख इतने
शब्दों से भरी
है, इतने
विचारों से
ढंकी है, जैसे
दर्पण पर धूल
जम गयी हो, दर्पण
का पता ही न
चलता हो। झाड़
दो धूल, तुम्हारा
दर्पण फिर झलकायेगा।
झाड़ दो आंख से
विचारों की
धूल, झाड़
दो मन से
विचारों की
धूल, तुम
प्रतिबिंब
दोगे
परमात्मा का।
तुम्हारा दर्पण
खोया नहीं है,
सिर्फ ढंक
गया है धूल
में। और धूल
कितना ही दर्पण
को ढांक
ले, नष्ट
थोड़े ही कर
पाती है!
इसलिए जब तक
पोंछा नहीं है
तभी तक
परेशानी है।
पोंछते ही तुम
चकित हो
जाओगे।
जन्मों-जन्मों
के अंधकार को
क्षण में
पोंछा जा सकता
है। और
जन्मों-जन्मों
की जमी धूल को
क्षण में
बुहारा जा
सकता है। कुछ
ऐसा नहीं है
कि तुम्हें
जनम-जनम तक
सफाई करनी
होगी। सफाई तो
एक क्षण में
भी हो सकती
है। सिर्फ त्वरा
चाहिए।
प्रवृत्ति
चाहिए
अंतर्यात्रा
की।
"ध्यान
में लीन साधु
सब दोषों का
परित्याग करता
है। इसलिए
ध्यान ही
समस्त
अतिचारों का,
दोषों का
प्रतिक्रमण
है।'
महावीर
कहते हैं, और सब ठीक है,
लेकिन
वास्तविक
क्रांति
ध्यान में ही
घटती है।
समस्त
अतिचारों का,
सब दोषों का
परित्याग
ध्यान में ही
होता है। क्यों
ध्यान में
परित्याग
होता है? महावीर
नहीं कहते हैं,
करुणा
साधो। महावीर
नहीं कहते, दया साधो।
महावीर नहीं
कहते, दान
साधो, त्याग
साधो। महावीर
कहते हैं, ध्यान
साधो। क्यों?
क्योंकि
दान करोगे, तो पहले एक
कर्ता का भाव
था कि मेरे
पास धन है, दान
करोगे, दूसरे
कर्ता का भाव
पैदा हो जाएगा
कि मेरे पास
त्याग है, मैं
दानी हूं।
क्रोध किया था,
तो एक
अहंकार था, करुणा करोगे
तो दूसरा
अहंकार हो
जाएगा। दूसरा
अहंकार
स्वर्णिम है।
पहला अहंकार
सस्ता था।
लेकिन हैं तो
दोनों ही
अहंकार।
महावीर
कहते हैं, ध्यान।
ध्यान का अर्थ
है कि तुम्हें
पता चले, तुम
कर्ता ही नहीं
हो। न क्रोध
के न करुणा के,
न लोभ के न
दान के। तुम
अकर्ता हो, साक्षी हो।
"ध्यान
में लीन साधु
सब दोषों का
परित्याग करता
है।' परित्याग
हो जाता है।
"ध्यान ही
समस्त अतिचारों
का, दोषों
का
प्रतिक्रमण
है।'
झाणणिलीणो
साहू, परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं।
तम्हा
दु झाणमेव
हि, सव्वऽदिचारस्स पडिक्कमणं।।
ध्यान
सारभूत है। जो
निज को
निज-भाव से
देखता है।
"जो
निज-भाव को
नहीं छोड़ता और
किसी भी
पर-भाव को ग्रहण
नहीं करता, तथा जो सबका
ज्ञाता-द्रष्टा
है, वह परमत्तत्व
मैं ही हूं। आत्मध्यान
में लीन साधु
ऐसा चिंतन
करता, ऐसा
अनुभव करता
है।'
"जो
निज-भाव को
नहीं छोड़ता।'
ध्यान का
अर्थ है निजता
में आ जाना; अपने में आ
जाना। बाहर से
सब नाते छोड़
देना। बाहर से
सब नाते तोड़
देना। इसके
लिए जरूरी
नहीं है कि
तुम घर से भागो।
क्योंकि यह
बात तो आंतरिक
है। घर से
भागना भी बाहर
से ही जुड़े
रहना है। घर
तो बाहर है, न पकड़ो, न भागो। धन
तो बाहर है, न पकड़ो, न छोड़ो।
सिर्फ एक बात
स्मरण रखो कि
यह मैं नहीं
हूं। यह शरीर मैं
नहीं। यह घर
मैं नहीं। यह
धन मैं नहीं।
यह मन मैं
नहीं। इतना भर
स्मरण रखो।
इतना ही याद रहे
कि मैं सिर्फ
साक्षी हूं, द्रष्टा हूं,
देखनेवाला
हूं।
णियभावं
ण वि मुच्चइ, परभावं णेव गेण्हए
केइं।
जाणदि पस्सदि सव्वं, सोऽहं इदि चिंतए
णाणी।।
पर-भाव
को छोड़कर
निज-भाव को
नहीं छोड़ता।
सबका ज्ञाता-द्रष्टा
हूं, वह परम
तत्व मैं ही
हूं, ऐसी
चिंतन-धारा
जिसमें सतत
बहती रहती है,
आत्मध्यान में लीन
ज्ञानी ऐसी
परम दशा को जब
उपलब्ध होता
है, तो
घटता
है--असंभव
घटता है, आनंद
घटता है, सच्चिदानंद
घटता है।
जिसकी हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते
वह भी घटता
है। जिसका
हमें कभी कोई
स्वाद नहीं
मिला, यद्यपि
हम उसी के लिए तड़फ रहे
हैं, उसी
के लिए भाग
रहे हैं, दौड़
रहे हैं; अनेक-अनेक
दिशाओं में
उसी को खोज
रहे हैं जो भीतर
विराजमान है;
दसों
दिशाओं में
उसकी खोज कर
रहे हैं जो
ग्यारहवीं
दिशा में बैठा
है। खोजनेवाले
में बैठा है
और खोजनेवाला
भटक रहा है।
कस्तूरी
कुंडल बसै।
लेकिन मृग है
कि पागल है, दीवाना है, गंध की खोज
में भाग रहा
है। उसे याद
ही नहीं। आये
भी कैसे याद!
आदमी को याद
नहीं आती, मृग
को कैसे याद
आये! कैसे पता
चले कि मेरी
ही नाभि में
छिपा है नाफा
कस्तूरी का!
वहीं से आ रही
है गंध और
मुझे पागल किये
दे रही है।
जिस
आनंद को तुम
खोज रहे हो, जिस मुरली
की आवाज के
लिए तुम दौड़
रहे हो, वह
तुम्हारे
भीतर बज रही
है। लेकिन तुम
सपनों में
खोये हो। बाहर
की खोज सपना
है। और इसलिए जैसे
ही तुम्हारे
बाहर के सपने
टूटते हैं, तुम उदास हो
जाते हो। एक
सपने को दूसरे
सपने से जल्दी
से परिपूरक
बना लेते हो।
और जिस दिन सब
सपने हाथ से
छूटने लगते
हैं उस दिन
तुम आत्महत्या
करने की सोचने
लगते हो। सत्य
को पाये बिना
कोई जीवन नहीं
है। सपनों में
सिर्फ आभास
है।
गो
हमसे भागती
रही ये तेजगाम
उम्र
ख्वाबों
के आसरे पे
कटी है तमाम
उम्र
जुल्फों
के ख्वाब, होंठों के
ख्वाब और बदन
के ख्वाब
मिराजे-फन
के ख्वाब, कमाले-सुखन के
ख्वाब
तहजीबे-जिंदगी
के, फरोगे-वतन के
ख्वाब
जिंदा
के ख्वाब, कूचए-दारो-रसन के ख्वाब
ये
ख्वाब ही तो
अपनी जवानी के
पास थे
ये
ख्वाब ही तो
अपनी अमल की असास थे
ये
ख्वाब मर गये
हैं तो बेरंग
है हयात
यूं
है कि जैसे दस्तेत्तहे-संग
है हयात
ये
ख्वाब ही तो
अपनी जवानी के
पास थे
ये
ख्वाब ही तो
अपने अमल की असास थे
ये
अपने सारे
जीवन-आचरण की
नींव
थे--ख्वाब! सपने!
कहीं पा लेने
के।
ये
ख्वाब मर गये
हैं तो बेरंग
है हयात
जब ये
ख्वाब मरते
हैं तो लगता
है जीवन
रंगहीन हो
गया।
यूं
है कि जैसे दस्तेत्तहे-संग
है हयात
जब
ख्वाब मरते
हैं, तो ऐसा
लगता है जैसे
दो चट्टानों
के बीच में हाथ
पिचल गया हो।
ऐसी जिंदगी
पिचल जाती है।
बुढ़ापे में इसीलिए
दुख है।
बुढ़ापे का
नहीं है, मरे
हुए ख्वाबों
का। पिचले हुए
ख्वाबों
का है। धूल
में गिर गये इंद्रधनुषों
का। पैरों में
रुंध गये इंद्रधनुषों
का दुख है।
जवान
नशे में है।
बूढ़े का नशा
तो टूट जाता
है, लेकिन
होश नहीं आता।
नशा टूटते ही घबड़ाता है
बूढ़ा, परेशान
होता है।
लेकिन यह याद
नहीं आती कि
जिसके पीछे हम
दौड़ते थे, कहीं
ऐसा तो नहीं
घर में ही
छिपा हो।
आंखें बाहर
खुलती हैं, तो हम बाहर
देखते हैं।
कान बाहर
खुलते हैं, तो हम बाहर
सुनते हैं।
हाथ बाहर फैल
सकते हैं, तो
हम बाहर खोजते
हैं। भीतर न
तो आंख खुलती
है, न हाथ
खुलते हैं, न कान खुलते
हैं--कोई
इंद्रिय भीतर
नहीं जाती।
इसलिए भीतर की
हमें याद नहीं
आती।
भीतर
जाने की कला
का नाम ध्यान
है। बाहर जाने
की कलाओं का
नाम
इंद्रियां
हैं।
इंद्रियां हैं
बाहर
जानेवाले
द्वार, ध्यान
है भीतर
जानेवाला
द्वार।
इंद्रियों में
ही भटके रहे, खो गये, तो
तुम्हें जीवन
का सत्व न मिल
सकेगा। तो तुम
रोते आये, रोते
जाओगे। तो तुम
खाली आये, खाली
जाओगे।
ध्यान
को जगाओ!
क्योंकि
ध्यान ही भीतर
जा सकता है।
आंख भीतर नहीं
जा सकती, कान
भीतर नहीं जा
सकते, हाथ
भीतर नहीं जा
सकते। सिर्फ
ध्यान भीतर जा
सकता है।
जिसने ध्यान
को जगा लिया, उसने जीवन
का सारभूत पा
लिया। जिसने
ध्यान को जगा
लिया, उसके
भीतर सतत एक
धारा बहती
रहती है। सब
कामों-धामों,
व्यस्तताओं के बीच भी एक
स्मरण नहीं
मिटता, एक
दीया नहीं
बुझता, वह
दीया जगमगाता
रहता है--मैं
साक्षी हूं, मैं साक्षी
हूं, मैं
साक्षी हूं। ऐसा
कुछ शब्द नहीं
दोहराने
होते--खयाल
रखना--ऐसा बोध,
ऐसा भाव:
मैं साक्षी
हूं। यही समता
है, यही
समाधि है, यही
सामायिक है।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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