जिन सूत्र--(भाग--2)
सूत्र:
सूत्र:
जह कंटएण
विद्धो,
सव्वंगे
वेयणद्दिओ
होइ।
तह
चेव उद्धियम्मि
उ, निस्सल्लो
निटवुओ होइ।।
एवमणुद्धियदोसो,
माइल्लो
तेणं दुक्खिओर
होइ।
सो
चेव चत्त
दोसो,
सुविसुद्धो
निव्वुओ
होई।। 113।।
णाणेण ज्झाणादो
सव्वकम्मणिज्जरणं।
णिज्जरणफलं मोक्खं,
णाणब्भासं
तदो कुज्जा।।
114।।
तेसिं तु तवो
ण सुद्धो,
निक्खंता
जे महाकुल्ला।
जं नेवन्ने
वियाणंति,
न सिलोगं पवेज्जइ।।
115।।
नाणमयवायसहिओ,
सीलुज्जलिओ
तवो मओ
अग्गी।
पहला
सूत्र--
"जैसे
कांटा चुभने
पर सारे शरीर
में वेदना या
पीड़ा होती है
और कांटे के
निकल जाने पर
शरीर निशल्य
अर्थात
सर्वांग सुखी
हो जाता है, वैसे ही
अपने दोषों को
प्रगट न
करनेवाला
मायावी दुखी
या व्याकुल
रहता है; और
उनको गुरु के
समक्ष प्रगट
कर देने पर सुविशुद्ध
होकर सुखी हो
जाता है। मन
में कोई शल्य
नहीं रह जाता।'
यह
सूत्र
अत्यधिक
महत्वपूर्ण
है। इस सूत्र
को खोजते
मनोविज्ञान
को बहुत देर
लगी। जो महावीर
ने कहा पच्चीस
सौ वर्ष पहले, वह फ्रायड
को अभी-अभी इस
सदी में जाकर
खयाल में आया।
इस एक सूत्र
पर सारा
आधुनिक मनोविज्ञान
खड़ा है।
मनोचिकित्सक
कहते हैं, जो
भी मन में दबा
पड़ा है अगर
प्रगट हो जाए,
तो उससे
मुक्ति हो
जाती है।
मनोविश्लेषण
की सारी
प्रक्रिया
अचेतन में पड़ी
हुई भावनाओं,
विचारों, वासनाओं को
चेतन में लाने
की प्रक्रिया
है।
कीमिया
का सूत्र
है--अचेतन से
हम बंधे होते हैं, चेतन होते
ही हम मुक्त
हो जाते हैं।
जिसे हमने
भीतर ठीक-ठीक
जान लिया, उससे
हमारा
छुटकारा हो
जाता है। और
जिसे हमने अपने
भीतर ठीक-ठीक
न जाना, जिसका
हमने
साक्षात्कार
न किया, वह
अंधेरे में
पड़ा हमारी
गर्दन में
फांसी की तरह
लटका रहता है।
महावीर इस दशा
को शल्य की
दशा कहते हैं।
उनका
शब्द भी बड़ा
महत्वपूर्ण
है। जैसे
कांटा चुभा
हो, तो तुम
भूल जाओ
थोड़ी-बहुत देर
को, काम
में उलझ जाओ, लेकिन कांटे
की चुभन
बार-बार
तुम्हें अपनी
तरफ खींचती
रहती है। हजार
काम हों तो भी
बीच-बीच में
कांटे की चुभन
याद आ जाती
है। कांटा चुभा
हो, चलो, बैठो, बात
करो, लेकिन
हर जगह अंतराल
में से कांटे
की चुभन याद आ
जाती है। यह
जो चुभन है, इसको महावीर
कहते हैं शल्य
की अवस्था। इस
चुभन को निकाल
दो, तो निशल्य-चित्त
का जन्म होता
है, स्वस्थ-चित्त
का जन्म होता
है। तुम्हारे
भीतर ऐसा कुछ
भी न रह जाए जो
तुमने दबाया
है। तुम्हारे
भीतर ऐसा कुछ
भी न रह जाए जो
तुमने छिपाया
है। तुम्हारे
भीतर ऐसा कुछ
भी न रह जाए
जिसे देखने से
तुम डरते हो, जिसे आंख के
सामने करने
में भय लगता
है। पीठ के
पीछे कुछ भी न
रह जाए, सब
आंख के सामने
आ जाए, आंख
के सामने आते
ही कांटे विदा
होने शुरू हो
जाते हैं।
मनोविश्लेषक
वर्षों मेहनत
करते हैं।
उनकी चिकित्सा
का सारसूत्र
इतना ही है कि
जिसे वे बीमार
कहते हैं, वह महावीर
का शल्य से
भरा हुआ
व्यक्ति है।
उसे बीमार
कहना शायद ठीक
नहीं। उसे
चिकित्सा की उतनी
जरूरत नहीं है,
जितनी
आत्म-साक्षात्कार
की जरूरत है।
पर
जाने-अनजाने
मनोविश्लेषण
यही करता है।
मरीज को कह
देते हैं कि
तुम लेट जाओ।
चिकित्सक पीछे
बैठ जाता है, मरीज से
कहता है, तुम्हें
जो भी मन में
उठे--प्रासंगिक,
अप्रासंगिक--उसे
उठने दो और
बोले जाओ। तुम
उसमें
काट-छांट न
करो। तुम किसी
तरह के सेंसर
न बनो। अनर्गल
भी आता हो तो
आने दो, क्योंकि
अनर्गल का भी
कोई भीतरी
कारण है तभी आ
रहा है।
असंबद्ध आता
है, उसे भी
आने दो, क्योंकि
असंबद्ध भी
आना चाहता है
तो उसके भीतर
भी कारण है।
तुम
कभी चकित
होओगे, तुम
कोई एक शब्द
ले लो, बिलकुल
निष्पक्ष
शब्द: गाय, घोड़ा,
हाथी या कार
या कुत्ता; और शांत
बैठकर यह
कोशिश करो कि
अब कुत्ता
शब्द के उठते
ही तुम्हारे
भीतर जो-जो
शब्द उठते हैं
उन्हें तुम
लिखते जाओ।
तुम चकित हो
जाओगे। जिन
शब्दों का
कुत्ते से कोई
संबंध नहीं है,
जिन
विचारों का
कोई ज्ञात
कारण नहीं
मालूम होता
कुत्ते से
क्यों जुड़े
होंगे, वे
उठने शुरू हो
जाते हैं। एक
साधारण-सा
शब्द कुत्ता
तुम्हारे
भीतर लहर पैदा
करता है और उस
लहर में बंधे
हुए अचेतन से
न-मालूम कितने
वर्षों के या
जन्मों के भाव
और विचार चले
आते हैं, किसी
तरह बंधे।
कुत्ता
शब्द कहते ही
शायद तुम्हें
याद आ जाए अपना
कोई मित्र, जिसके पास
कुत्ता था।
मित्र की याद
आते ही आ जाए
उसका मकान।
मकान की याद
आते ही तुम चल
पड़े। कुत्ते
से यात्रा
शुरू हुई थी, तुम कहां
पूरी करोगे, कहना कठिन
है।
इसको
मनोवैज्ञानिक
कहते
हैं--"फ्री
एसोसिएशन।' स्वतंत्र-साहचर्य
का नियम।
तुम्हारे
भीतर सभी
चीजें गुंथी
पड़ी हैं। सभी
तार उलझे हैं।
एक तार खींचो,
दूसरे तार
खिंच आते हैं।
लेकिन यही
गुत्थी तो मनुष्य
का रोग है।
यही तो उसका
शल्य है। इस
गुत्थी को
सुलझाना है।
कहीं से भी
शुरू करो।
मनस्विद
कहता है, तुम
बोले जाओ।
चिकित्सक
सुनता रहता
है। कुछ करता
नहीं, कुछ
बोलता नहीं, सिर्फ इतनी
याद दिलाता
रहता है कि
हां, मैं
यहां हूं। मैं
सुन रहा हूं, ध्यानपूर्वक
सुन रहा हूं।
वह जितने
ध्यानपूर्वक
सुनता है, उतने
ही तुम्हारे
गहरे अचेतन से
चीजों को निकलना
आसान हो जाता
है। इसीलिए तो
हम किसी आदमी को
खोजते हैं जो
हमारी बात
शांति से सुन
ले। कितना
दूभर हो गया
है ऐसे आदमी
का पाना, जो
हमारी बात
शांति से, ध्यानपूर्वक
सुन ले। जब भी
तुम्हें कोई
ऐसा आदमी मिल
जाता है जो घड़ीभर
तुम्हारे दिल
की बात सुन
लेता है, तुम
हलके हो जाते
हो। कहां से
आता है हलकापन?
कोई बात
पत्थर की तरह
छाती पर पड़ी
थी, किसी
ने बांट ली।
कुछ किसी ने
बोझ तुम्हारा
उतार लिया।
किसी ने सहारा
दे दिया, तुम्हारे
सिर पर जो
पत्थर था उसे
नीचे रख दिया।
बात करके आदमी
हलका हो जाता
है।
मनस्विद
इस सदी में
जाकर इस सूत्र
को पकड़ पाये।
महावीर ने आज
से ढाई हजार
साल पहले कहा
है। कहा है कि जब
तक तुम्हारे
भीतर कुछ भी ऐसा
पड़ा है जो तुम
बताने में
डरते हो, तब
तक तुम बीमार
रहोगे, तब
तक कांटा छिदा
रहेगा।
तुम्हें नग्न
होकर प्रगट हो
जाना है।
कहते
हैं महावीर, कम से कम
अपने गुरु के
पास तो इतना
करो। शायद संसार
में तो बहुत
मुश्किल
होगी। वहां
इतने समझदार
व्यक्ति पाने
कठिन होंगे, जो तुम्हारी
भूलों को, चूकों
को क्षमा कर
सकें। वहां
ऐसे व्यक्ति
पाने कठिन
होंगे, जो
तुम्हें
तुम्हारी
बातों को
सुनकर, तुम्हारे
संबंध में कुछ
निर्णय न
बनाने लगें।
तुम कहो कि
मैंने चोरी की
है, तो जो
तुम्हें चोर न
समझने लगें, ऐसे व्यक्ति
पाने कठिन
होंगे। तुम
कहो कि मैंने
पाप किया है, तो तुम्हें
पापी समझकर
निंदित न मान
लें। इसीलिए
तो आदमी डरा
है। तुम किसी
से कह नहीं
सकते कि मैं
झूठ बोला। लोग
कहेंगे, झूठ
बोले! तो
तुम्हारा
भरोसा टूट
जाएगा। तुम्हें
जिंदगी में
अड़चन होगी। तो
झूठ को तुम
छिपाते हो।
पता भी चल जाए,
तो तुम सिद्ध
करने की कोशिश
करते हो कि
नहीं, मैं
सच ही बोला।
अगर पकड़ भी
जाओ, तो
तुम कहते हो
भूल-चूक से हो
गया होगा, मेरे
बावजूद हो गया
होगा, मैंने
चाहा न था।
पहले तो तुम
छूटने की
कोशिश करते हो
कि किसी को
पता न चल
पाये।
संसार
में ऐसी आंखें
खोजनी कठिन
हैं, जो तुमने
क्या किया
क्या नहीं
किया, क्या
सोचा क्या
नहीं सोचा, इसके बावजूद
भी तुम्हारा
मूल्य कम न
करें। जो तुम्हारे
अस्तित्व को
बेशर्त
स्वीकार करते हों।
गुरु का यही
अर्थ है, एक
ऐसे आदमी को
खोज लेना जो
उन रास्तों से
गुजरा है, जिन
पर तुम अभी
हो। एक ऐसे
आदमी को खोज
लेना जिसने
भूलें की हैं,
पाप किये
हैं, चूकें
की हैं और
उनके पार हो
गया। एक ऐसे
आदमी को खोज
लेना जो
समझेगा
तुम्हारी
पीड़ा, क्योंकि
इसी पीड़ा से
वह भी गुजरा
है।
तो अगर
तुम्हें कोई
ऐसा गुरु मिल
जाए जिसकी आंखों
में तुम्हारी
निंदा न हो, तो ही गुरु
मिला। जहां
निंदा हो, वहां
तो समझना कि
संसार ही जारी
है।
इसे
खयाल में
लेना। अगर तुम
जाओ किसी मुनि, किसी साधु, किसी
संन्यासी के
पास और तुम
कहो कि मैं
बहुत बुरा
आदमी हूं, और
मेरे मन में
चोरी के भाव
उठते हैं, और
कभी ऐसे सपने
भी मैं देखता
हूं कि पड़ोसी
की पत्नी को
ले भागा हूं, और कभी किसी
की हत्या कर
देने की भी
वासना जग उठती
है, कभी
मैं क्रोध से
भी भरता हूं, और जिससे
तुम यह कह रहे
हो अगर उसकी
आंखों में निंदा
झलक जाए, तो
समझ लेना यह
आदमी गुरु
नहीं है। यह
आदमी अभी पार
नहीं हुआ।
क्योंकि जो
पार हो गया, उसकी आंखों
में करुणा
बेशर्त है। और
अगर इस आदमी
की आंखों में
निंदा झलक जाए,
तो फिर तुम
कैसे इसके
सामने अपने को
खोल पाओगे?
और अगर
यह आदमी किसी
भी तरह से
तुम्हारे
संबंध में
निर्णय बनाने
लगे, तुम्हारे
किये, सोचे
हुए कारणों से,
तो फिर यहां
तुम अपने को
खोल न पाओगे।
यहां खुलना
संभव न होगा।
यहां भी तुम
बंद ही रह
जाओगे। उसकी
आंख ही
तुम्हें बंद
कर देगी। उसके
बैठने का ढंग
ही तुम्हें
बंद कर देगा।
उसके देखने का
ढंग ही
तुम्हारे
द्वार पर ताला
जड़ देगा। तुम
फिर खोल न
पाओगे।
इसे
तुम गुरु की
कसौटी समझो।
गुरु खोजने के
लिए यह एक बड़ा
आसान उपाय है
कि तुम अपने
पापों की बात
कहना, अपनी
भूलों की बात
कहना, अगर
गुरु सच में जाग्रतपुरुष
है, तो
उसकी करुणा
तुम्हारी तरफ
गहन होकर
बहेगी। उसकी
क्षमा बेशर्त
है। वह यह
नहीं कहता कि
तुमने क्या
किया है, वह
कहता है, तुम
जो हो, वह
परम हो, धन्य
हो!
इसे
ऐसा समझो!
तुम्हारी
आत्मा
तुम्हारे
कृत्यों का
जोड़ नहीं।
तुम्हारी
आत्मा तुम्हारे
विचारों का
जोड़ नहीं।
तुम्हारी
आत्मा तुमने
जो किया है
उससे बहुत बड़ी
है। तुम्हारी
आत्मा तुमने
जो सोचा है
उससे बहुत बड़ी
है। तुम्हारी
आत्मा के
संबंध में कोई
निर्णय
तुम्हारे विचार
और कृत्य से
नहीं लिया जा
सकता है। तुम्हारा
विचार और
तुम्हारा
कृत्य तो बाहर
की बातें हैं।
तुम्हारी
आत्मा तो भीतर
है। तुम्हारी
आत्मा का
मूल्य
निरपेक्ष है, सापेक्ष
नहीं है। वह
किसी चीज से
आंका नहीं जा
सकता। तुम तुम
होने की वजह
से मूल्यवान
हो। तुम होने
की वजह से
मूल्यवान हो।
तुम्हारा अस्तित्व
बस काफी है।
तुम परमात्मा
हो। ऐसी जहां
किसी की आंख
तुम पर पड़े और
तुम्हारे
भीतर के
परमात्मा को
जगाने लगे, तो ही जानना
कि गुरु मिला।
जहां
निंदा हो, जहां
तुम्हारे
पापों के
प्रति क्रोध
पैदा हो, जहां
तुम्हारे
पापों में रस
पैदा हो, क्योंकि
निंदा रस है; और जो तुम्हारे
पाप में रस ले
रहा है--निंदा
करने का ही
सही, बुरा
कहने का ही
सही, तुम्हें
नीचा दिखाने
का सही, वह
अहंकार से भरा
हुआ व्यक्ति
है। वह यह
मौका नहीं
छोड़ेगा।
तुमने पाप की
बात कही, तो
उसकी आंख
कहेगी, अच्छा,
तो फिर एक
पापी आया!
तुम्हारे पाप
को देखकर वह अपने
को पुण्यात्मा
समझने लगेगा।
तुम्हारे पाप
के कारण वह
अपने को बड़ा
समझेगा, तुम्हें
छोटा समझेगा।
जिस
आंख से
तुम्हें पता
चले कि तुम
छोटे किये जा
रहे हो, वह
गुरु की आंख
नहीं। अगर इस
एक सूत्र को
तुम ठीक से
समझ लो तो
गुरु खोजने
में बड़ी आसानी
हो जाएगी। तुम
भटक न सकोगे। जो
तुम्हें सर्वांगरूप
से स्वीकार कर
ले। तुम जैसे
हो। जो
तुम्हें अन्यथा
नहीं बनाना
चाहता। जो यह
भी नहीं कहता
कि तुम अच्छे
बनो, क्योंकि
अच्छे बनने की
चेष्टा में तो
तुम्हें बुरा
मान ही लिया।
जो तुमसे यह
भी नहीं कहता कि
छोड़ो यह
पाप, पुण्य
की कसम लो, क्योंकि
जिसने पुण्य
की कसम लेने
के लिए तुमसे
कहा उसने तुम्हारे
पापी होने को
स्वीकार कर
लिया। जो स्वीकार
कर लिया गया, वह क्षमा
नहीं होता।
नहीं, जिसकी करुणा
और जिसके
प्रेम में तुम
अपने को खोल
सको, जैसे
सुबह का सूरज
निकलता है और
कलियां गहरी श्रद्धा
से खुल जाती
हैं किरणों की
चोट पड़ते ही।
पता नहीं, खिलकर
क्या होगा? अनजान घटना
है, कली
कभी खिली नहीं
है, सूरज
ने द्वार पर
दस्तक दी है, कली उस
द्वार पर
दस्तक देते
मेहमान की बात
सुनकर, पुकार
सुनकर खुल
जाती है। सूरज
ने पुकारा है,
कली खुल
जाती है, पंखुड़ियां खोल देती है,
गंध को मुक्त
कर देती है।
उसी खुलने में
कली फूल बन
जाती है। तुम
जब तक अपने को
छिपाये हो, तुम्हें एक
भी व्यक्ति
ऐसा न मिला
जिसके सामने
तुम अपने को
पूरा खोल
देते। यही
महावीर की नग्नता
का सूत्र है। दिगंबर
होने का मौलिक
अर्थ यही है।
तुम्हें एक
ऐसा व्यक्ति न
मिला जिसके सामने
तुम निपट नग्न
हो जाते! तुम
जैसे थे वैसे
ही हो जाते!
जिसकी
मौजूदगी
तुम्हारे लिए
किसी तरह की
निंदा न थी, प्रशंसा न
थी, अपमान
न था। जिसकी
मौजूदगी में
तुम्हें अन्यथा
करने की कोई
चेष्टा न थी।
तुम जैसे थे, भले थे।
तुम्हें वैसा
ही स्वीकार
किया था।
अगर
तुम्हें एक भी
व्यक्ति ऐसा
मिल जाए, तो
उसी के पास
तुम्हें पहली
दफे अपनी
आत्मा की खबर
मिलेगी।
क्योंकि उसी
के पास तुम
नग्न, सहज,
सरल हो
पाओगे। वह तुम
पर कोई आग्रह
नहीं रखता। वह
यह कहता ही
नहीं कि
तुम्हें कोई
आदर्श पूरे
करने हैं। वह
कहता है, तुम
तो परमात्मा
हो ही। अगर
भूल-चूक भी
हुई है, तो
परमात्मा से
हुई है। और जो
हो गया, हो
गया। जो जा
चुका, जा
चुका। बीती को
बिसार दो। जो
घटा था वह तो
ऐसा ही था
जैसे पानी पर
खींची
लकीरें--अब
कहीं भी नहीं
हैं। अब तुम
व्यर्थ
परेशान मत
होओ।
गुरु
का अगर सत्संग
मिल जाए, तो
कर्मों से ऐसे
ही छुटकारा
मिल जाता है
जैसे सुबह जागकर
सपनों से
छुटकारा मिल
जाता है। अगर
गुरु की मौजूदगी
हो और फिर भी
कर्मों से
छुटकारा न
मिले, तो
समझना कि
तुमने अपने को
खोला नहीं।
तुमने अपने को
प्रगट नहीं
किया।
यह
सूत्र अति
क्रांतिकारी
है। ईसाइयत ने
जीसस के इसी
सूत्र के आधार
पर--मेरी अपनी
दृष्टि तो यही
है कि जीसस ने
अपना उपदेश
शुरू करने के
पहले भारत में
ही शिक्षा
ली--इसीलिए
यहूदी उन्हें
कभी स्वीकार न
कर पाये।
क्योंकि वह
कुछ लाते थे
जो बड़ा परदेशी
था। उससे
यहूदी-विचार
का कोई तालमेल
नहीं बैठता था।
ईसाइयों के
पास भी जीसस
के तीस वर्ष
के जीवन की
कोई कथा नहीं
है। आखिरी तीन
वर्षभर
की कथा है।
बाकी तीस वर्ष
कहां बिताये, कैसे बिताये?
किन गुरुओं
के पास, किस
सत्संग में, कहां जागा
यह व्यक्ति, इसकी कोई
कथा उनके पास
नहीं है।
इतना
तो तय है कि
जीसस अपने देश
में नहीं थे।
देश से तो
उन्हें जैसे ही
वह पैदा हुए
हट जाना पड़ा
था, भाग जाना
पड़ा था।
मां-बाप लेकर
उन्हें भाग
गये थे। फिर
जीसस मिस्र
में रहे, भारत
में रहे, तिब्बत
में रहे।
संभावना तो
यहां तक है कि
वह जापान तक
पहुंचे।
क्योंकि
जापान में भी
एक जगह है, जहां
अभी भी
लोक-कथा
प्रचलित है कि
वहां जीसस का
आगमन हुआ था।
उन्होंने
सारे पूरब में
तलाश की।
निश्चित
ही जब जीसस
भारत आये
होंगे, तो
महावीर की
वाणी उस समय
तक प्रज्वलित
वाणी थी। पांच
सौ वर्ष पहले
ही महावीर
विदा हुए थे। बुद्ध
की वाणी अभी
जीती-जागती
थी। अभी हवा
में तरंग थी।
फूल जा चुका
था, लेकिन
अभी हवा में
गंध नहीं चली
गयी थी। गंध
अभी मौजूद थी।
निश्चित ही
जीसस ने जो
सूत्र पकड़ा, जिसको ईसाई कनफेशन
कहते हैं, वह
महावीर के इसी
सूत्र से कहीं
जुड़ा होना चाहिए।
सिर्फ ईसाइयत
अकेला धर्म है
जिसने कनफेशन
को बहुत मूल्य
दिया है। जाकर
धर्मगुरु के
सामने, जो
भी तुमने पाप
किया हो उसे
प्रगट कर
देना। सरल मन
से कह देना, यह भूल हो
गयी है। यह
स्वीकार करते
ही कि मुझसे
भूल हो गयी है,
भूल से
मुक्ति होनी
शुरू हो जाती
है। स्वीकार में
मुक्ति है। और
जैसे ही तुम
कह आते हो
किसी को जो
निंदा नहीं
करेगा, जिसका
तुम्हें
भरोसा है कि
जो तुम्हारे संबंध
में बुरी
धारणा न
बनायेगा, जिसका
तुम्हें
भरोसा है कि
तुम इंचभर
नीचे न गिरोगे
उसकी नजर में,
वस्तुतः
तुम ऊपर उठोगे
क्योंकि पाप
की स्वीकृति,
भूल की
स्वीकृति
पुण्यात्मा
का कृत्य है, तो तुम हलके
होकर लौटोगे।
हिंदू
गंगा में
स्नान कर आते
हैं। सोचते
हैं, पाप का
प्रक्षालन हो
जाएगा। अगर
भावपूर्वक
किया हो, तो
हो जाएगा।
गंगा नहीं
करती पाप का
प्रक्षालन।
गंगा क्या
करेगी? तुम्हारा
भाव करता है।
अगर तुम यह
भाव से गहरे
भरे हो कि
गंगा में
स्नान कर
आयेंगे तो
जो-जो भूल-चूक
की थी वह धुल
जाएंगी, अगर
तुम्हारा भाव
यह प्रगाढ़
है, तो
निश्चित ही
गंगा में
डुबकी लेते ही
तुम दूसरे हो
जाओगे।
क्योंकि गंगा
के सामने
तुमने स्वीकार
कर लिया--हो
गयी थी भूलें,
अब तू बहा
दे मां, और
क्षमा कर! तो
संभव है कि
तुम लौट आओ
हलके होकर।
ताजे होकर।
जरूरी नहीं है
कि यह घटे, तुम
पर निर्भर है।
तुम कितने गहन
भाव से, कितनी
गहरी श्रद्धा
से, कितने
संकल्प और
समर्पण से
झुके थे, डुबकी
लगायी थी, तुम्हारी
श्रद्धा
कितनी गहरी थी,
उतना ही
गंगा असर कर
पायेगी।
सूत्र वही है।
अब यह
भी सोचने-जैसी
बात है, किसी
मनुष्य के
सामने अपने
पाप को प्रगट
करने में खतरा
तो है ही। कौन
जाने वह आदमी
अभी उस जगह हो
या न हो।
संदेह तो
रहेगा ही। यह
आदमी अभी ऐसी
जगह न हो और
तुम अपना पाप
खोल दो, और
यह आदमी अभी
उसी जगह हो
जहां इसे अभी
पाप में रस है,
और यह
कुतूहलवश तुम
से पूछने
लगे...।
फ्रायड
ने एक जगह
लिखा है कि
मनोवैज्ञानिक
तभी ठीक
अर्थों में
मनोवैज्ञानिक
हो पाता है जब
उसकी क्यूरिआसिटी, उसकी कुतूहलता
समाप्त हो
जाती है। जब
तक कुतूहल है,
तब तक वह
सहयोगी नहीं
हो सकता।
किसी
ने आकर तुमसे
कहा कि मैंने
एक स्त्री के साथ
व्यभिचार
किया है। पहली
बात तुम्हारे
मन में क्या
उठती है? कुतूहल
उठता है। तुम
जानना चाहते
हो कौन-सी
स्त्री, किस
की स्त्री, कब किया, कैसे
किया, तुम
ब्यौरे और
विस्तार में
जाना चाहते
हो। तुम इस
आदमी के भीतर
इसके पाप में
रस लेने लगते
हो, तो चूक
हो गयी। यह जो
रस ले रहा है
पाप में, यह
तुमने जो इसके
सामने प्रगट
किया है, इसे
छिपाकर न रख
सकेगा। इसकी
यह अफवाहें
बनायेगा। यह
किसी से
कहेगा। जो
तुम्हारे
सुनने में रस
ले रहा है, वह
किसी से कहने
में भी रस
लेगा। और इसके
सामने
तुम्हारी
प्रतिमा नीची
हो जाएगी। यह
तुम्हें कल तक
धार्मिक
समझता था, अब
अधार्मिक
समझेगा। और यह
अपने आपको
तुमसे बड़ा मान
लेगा।
कठिन
है किसी व्यक्ति
के सामने जाकर
खोलना। पता
नहीं, इस
व्यक्ति में
अभी कुतूहल
शेष हो। अभी
आक्रामक
कुतूहल इसके
भीतर मौजूद
हो। और यह
तुम्हारे
भीतर खोजबीन
करने लगे। और
यह तुम्हारे
सुकोमल
हिस्सों से
परिचित हो जाए
और किसी दिन
हमला करे।
किसी दिन बीच
बाजार में खड़े
होकर चिल्ला
दे--ए पापी!
कहां जा रहा
है? या
किसी दिन इससे
कोई झंझट हो
जाए, झगड़ा हो जाए और यह
खोल दे सारी
बात। आदमी
आखिर आदमी है।
इसलिए
हिंदुओं ने और
भी अदभुत बात
खोजी। उन्होंने
कहा, गंगा में
जाकर समर्पित
कर आना। गंगा
तो किसी से
कहेगी नहीं।
गंगा में तो
कोई कुतूहल
नहीं है। गंगा
तो वैसी ही
बहती रहेगी
जैसी पहले बह
रही थी। तुम
आये या न आये, कोई फर्क न
पड़ेगा। गंगा
के सामने तो
तुम पूरा खोल
सकोगे। वहां
तो छिपाने की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
क्योंकि वहां
दूसरा कोई
मनुष्य नहीं है
जिससे छिपाने
का कोई कारण
हो, जो कल
खोल दे, परसों
खोल दे, किसी
आवेश के क्षण
में बोल दे।
तो डर भी नहीं
है, तुम
पूरा खोल सकते
हो।
महावीर
के सूत्र को
हिंदुओं ने
उसकी आत्यंतिक
ऊंचाई पर
पहुंचा दिया।
उन्होंने कहा, आदमी को हटा
ही लो। गंगा
ठीक है। वैसे
महावीर का भी
मतलब यही था, उस आदमी के
सामने खोलना
जाकर जिसका
आदमी हट गया
हो और गंगा
पैदा हो गयी
हो। मतलब तो
वही था। उस
आदमी के पास
चले जाना
जिसके भीतर अब
गंगा बह रही
हो। उसमें जरा
डुबकी लगा
लेना। खोल
देना सब। इस
बात को भी
खयाल में ले
लें कि जब तुम
गंगा के सामने
खोलते हो, तो
खोलने में
बहुत अड़चन
नहीं है।
क्योंकि तुम जानते
हो गंगा ही
है। अड़चन नहीं
है, तो लाभ
भी कम होगा।
सुविधा तो
बहुत है खोल
देने की, लेकिन
लाभ कम होगा।
क्योंकि अड़चन
बिलकुल नहीं
है, चुनौती
बिलकुल नहीं
है। जब तुम
गुरु के सामने
जाकर खोलते हो,
तो संदेह और
श्रद्धा के
बीच हजार बार
डोलते हो।
कहूं, न
कहूं? इतना
बचा लूं, या
इतना कह दूं? थोड़ी
साज-संवार
करके कहूं, शृंगार करके
कहूं, थोड़ा
लीप-पोतकर
कहूं कि जैसा
है वैसा ही कह
दूं? थोड़ा
सुंदर बना लूं
पाप को, थोड़े
फूल लगा लूं
पाप पर, थोड़े
इस ढंग से
कहूं कि मेरी
मजबूरी थी।
थोड़ा तर्क, थोड़े विचार
का सहारा देकर
कहूं, पाप
पूरा मेरे ऊपर
न पड़े, दूसरों
पर भी
उत्तरदायित्व
बांटकर
कहूं? गुरु
के सामने जाने
में तो हजार
संकल्प-विकल्प
होंगे। वहीं
तुम्हारा
विकास है, प्रौढ़ता है।
अगर
तुमने संदेह
की बात चुनी
और श्रद्धा की
छोड़ी, तो भटके अतल
खाइयों में।
अगर संदेह
चीखता-चिल्लाता
रहा फिर भी
तुम श्रद्धा के
साथ गये, श्रद्धा
की बांह गही,
तो
तुम्हारे
भीतर एक
क्रांति घटी।
तुम संदेह पर
जीते, तुम
श्रद्धा में
प्रविष्ट
हुए।
गंगा
के पास सुविधा
तो है, चुनौती
नहीं है। और
जहां चुनौती
नहीं है, वहां
विकास नहीं
है। इसलिए
गुरु--ऐसा
मनुष्य जो
गंगा हो गया
है--उसमें
दोनों गुण
हैं। वह
मनुष्य भी
है--वह
तुम्हें समझ
सकता है; उन्हीं
अनुभवों से
स्वयं भी
गुजरा है--और
गंगा भी है।
उसके भीतर
गंगा भी बह
रही है। वह
तुम्हें
क्षमा कर
सकेगा।
अब इसे
ऐसा समझें।
वही
आदमी तुम्हें
क्षमा कर सकता
है जिसने स्वयं
को क्षमा कर
दिया हो।
जिसने स्वयं
को क्षमा नहीं
किया है, वह
तुम्हें
क्षमा नहीं कर
सकेगा। जो अभी
स्वयं से लड़
रहा है, वह
कैसे तुम्हें
क्षमा करेगा?
समझो कि कोई
आदमी अभी
कामवासना से
खुद ही लड़ रहा
है और तुमने
जाकर उसके
सामने
कामवासना की बात
कही, वह
तुम पर टूट
पड़ेगा। वह
कहेगा पापी हो,
जघन्य पापी
हो, नरक
में सड़ोगे।
वह तुमसे जब
यह कहता है, तो वह सिर्फ
इतना ही बता
रहा है कि अभी
कामवासना को
वह भी सरलता
से ले नहीं
सकता। अभी
संघर्ष कायम
है। अभी ऐसे
ही नहीं सुन
सकता जैसे और
बातों को सुन
लेता है। अभी
कामवासना उसे
हिला जाती है।
शब्द ही हिला
जाता है। अभी
भय है। अभी
खुद की जीत
पूरी नहीं
हुई। अभी हार
का खुद ही
भीतर डर है।
तुम
अगर जैन-मुनि
के सामने
वात्स्यायन
का काम-सूत्र
खोलकर रख दो, वह आंख बंद
कर लेगा, या
किताब फेंक
देगा। घबड़ा
जाएगा।
तुम
जैन-मुनि को
खजुराहो नहीं
ले जा सकते।
खजुराहो के
मंदिर में वह
प्रवेश न करेगा।
वह दूर-दूर
बचेगा, भागेगा।
अभी जो डर
उसके भीतर है,
वह डर बाहर
प्रक्षेपित
होगा। अभी
खजुराहो की मूर्तियां
भय का कारण बन
जाएंगी।
मेरे
एक मित्र
विंध्य-प्रदेश
के शिक्षा
मंत्री थे। एक
अमरीकी कवि
खजुराहो
देखने आया। वह
कभी पंडित
जवाहरलाल
नेहरू का
परिचित था, मित्र था, तो उन्होंने
विशेष खबर की
कि कोई योग्य
व्यक्ति जाकर
साथ खजुराहो
दिखा दे। वह
जो मेरे मित्र
शिक्षा
मंत्री थे, वही
विंध्य-प्रदेश
के
मंत्रिमंडल
में सबसे ज्यादा
सुशिक्षित
व्यक्ति थे तो
उन्हीं को भेजा
गया।
वे गये, लेकिन वे
बड़े डरे हुए
थे। भयभीत थे
कि पता नहीं
यह आदमी क्या
सोचकर जाएगा?
क्या
सोचेगा--खजुराहो
की नग्न, कामुक
भाव-भंगिमाएं,
काम से
लिप्त युगल
जोड़े, संभोगरत मूर्तियां!
क्या सोचेगा!
तो मन में
थोड़े अपराधी
थे। उसे
घुमाया पूरे
मंदिर में--जो
विशेष मंदिर
है, पूरा
दिखाया। बाहर
आकर कहा कि
क्षमा करें, इससे आप ऐसा
मत सोचें कि
यह कोई भारत
की मौलिक
संस्कृति है।
यह भारत की मूलधारा
नहीं है। यह
तो
तांत्रिकों
के प्रभाव में
एक तरह की
विकृति है। ये
अश्लील
मूर्तियां
हमारे सभी
मंदिरों की
प्रतिनिधि
नहीं हैं।
इसको आप खयाल
रखना। आप ऐसा
मत सोच लेना
कि हमारे सभी मंदिर
ऐसे हैं। करोड़
मंदिर हैं, उसमें एक
मंदिर ऐसा है।
इसको खयाल में
रखना, अनुपात
को खयाल में
रखना। ये
अश्लील
मूर्तियां
भारत की आत्मा
को प्रगट नहीं
करतीं। ये सिर्फ
भारत में कभी
एक विकृति की
धारा चली थी, उसके शेष
चिह्न हैं।
वह
अमरीकी कवि तो
बहुत चौंका।
वह तो बड़े भाव
से भरा था।
उसके सामने तो
भारत की महिमा
पहली दफा प्रगट
हुई थी। उसने
सुना ही सुना
था अब तक कि भारत
मनुष्य की
अंतरात्मा
में बड़े गहरे
उतरा है, आज
उसने देखा भी
था।
प्रत्यक्ष
प्रमाण थे। उसने
सुना ही सुना
था अब तक कि
तंत्र ने
मनुष्य की
अंतर्तम-वासना
के छोर छुए
हैं। आखिरी
केंद्र को छुआ
है, रूपांतरण
की विधियां
खोजी हैं, आज
मूर्तियों
में इसे
सुस्पष्ट
लिखे देखा था।
वह तो
भाव-विभोर था।
वह तो जैसे
किसी ने नींद से
झकझोरा हो, ऐसा घबड़ा
गया। उसने कहा,
क्या कहा, अश्लील! तो
फिर मुझे फिर
से चलकर
दिखाना होगा,
क्योंकि
मुझे कोई
मूर्ति
अश्लील दिखी
नहीं। अब तुम
मुझे चलकर बता
दो, कौन-कौन
सी मूर्तियां
अश्लील हैं, और कौन-कौन
सी मूर्तियां
हैं जो विकृत
हैं, और
रुग्ण मन की
प्रतीक हैं।
क्योंकि मुझे
तो पता ही
नहीं, मैं
तो इसी भाव से
भरा जा रहा था
कि अदभुत है, तुमने याद
दिला दी, तो
मैं चलूं फिर
से।
वह
मेरे मित्र
मुझे कह रहे
थे कि मैं ऐसा
गिरा, जैसे
किसी ने आकाश
से पटक दिया
हो। यह एक
आदमी है जिसे
कुछ अश्लील न
दिखायी पड़ा।
अश्लील हमें
भीतर की
अश्लीलता से
दिखायी पड़ता
है। जो हमारे
भीतर है, वही
हमें बाहर
दिखायी पड़ता
है।
तो अगर
कोई गुरु
उत्सुकता ले, तुम्हारे
घावों को
कुरेदने लगे,
निंदा करे,
तुम्हें
पापी ठहराये,
तुम्हारा
न्यायाधीश
बने, तो
समझना गुरु
नहीं। अभी
गंगा बही
नहीं। अभी गंगा
का अवतरण नहीं
हुआ इस
व्यक्ति पर।
इसमें डुबकी
लेने से कुछ
भी न होगा।
इसमें डुबकी
लेने से तुम
और गंदे हो
जाओगे। यह कोई
नाला है--शहर
के बीच से
बहता। यह कोई
गंगा नहीं है।
यह सब नालियों
का कूड़ा-कर्कट
और गंदगी को
लेकर बह रहा
है। यह तुम्हें
पवित्र नहीं
कर सकता।
महावीर
ने जो कहा है:
गुरु के समक्ष
सब कुछ जो प्रगट
कर दे, वह सुविशुद्ध
होकर सुखी हो
जाता है; इस
सूत्र को
जैनों ने बहुत
कम विचारा है,
बहुत कम
इसकी परिभाषा
की है, क्योंकि
यह सूत्र तो
सारे कर्म के
सिद्धांत को
दो कौड़ी
का कर देता
है। यह सूत्र
तो बड़ा
क्रांतिकारी है।
यह तो जड़मूल
से कर्म के
सिद्धांत को उखाड़
फेंकता है।
महावीर यह कह
रहे हैं कि
अगर तुमने सरल
मन से स्वीकार
कर लिया, तो
मुक्ति हो
गयी। शल्य
जाता रहा।
कांटा चुभेगा
नहीं फिर। बात
समाप्त हो
गयी। इसी को
तो संतों ने
कहा है कि
गुरु की कृपा
से क्षणभर
में हो सकता
है। लेकिन
गुरु की कृपा
उसी पर हो सकती
है, जो
अपने हृदय को
पूरा खोल दे।
पात्र खुला हो,
तो गुरु की
कृपा तो होती
ही रहती है, वह भर जाए।
लेकिन कोई
खोले अपने
पात्र को।
जैसे
एक कांटा चुभने
पर सारे शरीर
में वेदना या
पीड़ा होती है।
कांटा चुभता
तो एक जगह है, लेकिन वेदना
एक जगह सीमित
नहीं रहती।
कांटा चुभता
तो पैर में है,
लेकिन सिर
तक चोट मारता
है। कांटा
चुभता तो जरा-सी
जगह में है, लेकिन पीड़ा
विस्तीर्ण हो
जाती है।
छोटा-सा पाप, सारे शरीर
को घाव बना
देता है।
छोटी-सी भूल, छोटा-सा झूठ,
सारे शरीर
पर फैल जाता
है, तन-प्राण
पर फैल जाता
है। तो किसी
भूल को छोटी मत
समझना। कांटे
को छोटा समझकर
तुम छोड़ तो
नहीं देते।
तुम यह तो
नहीं कहते--है
ही क्या, जरा-सा
कांटा है। छह
फीट के शरीर
में एक आधा
इंच का कांटा
लगा है, क्या
परवाह! लेकिन आंधा इंच
का कांटा छह
फीट के शरीर
को विक्षुब्ध
कर देता है।
महावीर
ने शब्द चुना
है, शल्य। वह
कहते हैं, साधारण
आदमी बड़े
शल्यों से
बिंधा है। और निशल्य
होना है। एक
भी शल्य न रह
जाए।
इसे हम
समझें।
एक झूठ
तुम बोले।
शल्य चुभा।
कांटा बिंधा।
जैसे ही तुम
झूठ बोलते हो, तुम एक
विरोधाभास
में पड़े, एक
कंट्राडिक्शन
पैदा हुआ। और
जहां ऊर्जा
में
विरोधाभास
पैदा होता है;
वहीं अड़चन,
पीड़ा, मवाद
पड़ती है। वहीं
घाव, फोड़ा
पैदा होता है।
तुमने एक झूठ
बोला, झूठ
बोलने का अर्थ
ही यह है कि
तुम जानते हो
कि सच क्या है,
उसके
विपरीत बोला।
जो तुम हृदय
से जानते हो, उसके विपरीत
कहा। जो
तुम्हारा
हृदय कह रहा
है, उससे
विपरीत
तुम्हारी
वाणी ने कहा।
तुम्हारे
भीतर एक विरोध
पैदा हुआ।
जानते थे कुछ,
कहा कुछ। थे
कुछ, बताया
कुछ। एक उलझन
पैदा हुई, एक
गांठ पड़ी। यह
गांठ गड़ेगी।
यह गांठ
तुम्हें सतायेगी,
यह तुम्हें
ठीक से सोने न
देगी। यह
तुम्हें ठीक
से भोजन न
करने देगी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
भोजन करने के
पहले कम से कम
आधा घंटा न तो
झूठ बोलना, न क्रोध
करना, न
कोई वैमनस्य,
न कोई द्वेष,
न कोईर्
ईष्या, तो
ही भोजन ठीक
से पचेगा।
तुम कोशिश
करके देखो।
भोजन कर रहे
हो, उसी
वक्त झूठ बोलकर
देखो। उसी
वक्त क्रोध की
बात करके
देखो। अब तो
इस पर प्रयोग
किये गये हैं,
यंत्र
लगाकर जांच की
गयी है--कि
आदमी भोजन कर
रहा है, यंत्र
के पर्दे पर
उसके पेट की
पूरी तस्वीर दिखायी
पड़ रही है, पाचक-रस
छूट रहे हैं
और तभी पत्नी
ने कुछ बात कह
दी और वह आदमी
क्रोधित हो
गया। जैसे ही
क्रोधित हुआ,
पाचक-रस बंद
हो जाते हैं।
शरीर भीतर
सिकुड़ जाता
है। पेट ठंडा
हो जाता है।
गरमी खो जाती
है। गरमी
खोपड़ी में आ
गयी, पेट
से खो गयी।
गरमी ऊपर चढ़
गयी, पेट
में न रही। अब
भोजन तो पड़ता
है पेट में, लेकिन
पाचक-रस उससे
मिलते नहीं।
भोजन भारी हो जाता
है। यह पचेगा
नहीं। या तो
कब्जियत
बनेगी, या डायरिया
बनेगा, लेकिन
इससे
मांस-मज्जा
निर्मित न
होगी। अब यह ठंडा
पेट इस भोजन
को पचाने में
बड़ी देर लगायेगा,
बड़ी
मुश्किल से पचायेगा।
एक रोग की
गांठ पैदा
होगी।
तुम
भोजन कर रहे
हो, तुम झूठ
बोल दिये भोजन
करते वक्त, तत्क्षण पेट
सिकुड़ जाता
है। क्योंकि
एक विरोधाभास
पैदा हो गया।
तुम जब झूठ
बोलो तब खयाल
करना, तुम्हारे
शरीर के भीतर
तत्क्षण
रूपांतरण हो जाता
है। कलियां
बंद हो जाती
हैं। तुम
सुरक्षा करने
को तत्पर हो
जाते हो। तुम
लड़ने-झगड़ने को
राजी हो जाते
हो। हजार तर्क
तुम्हारे मन
में घूमने
लगते हैं, कैसे
झूठ को सच
सिद्ध करें।
सिद्ध तो झूठ
को ही करना
पड़ता है, सत्य
तो
स्वयंसिद्ध
है। इसलिए जो
सत्य बोलता है,
उसके भीतर
विचार कम हो
जाते हैं। कोई
जरूरत नहीं रह
जाती। सत्य को
विचार की
जरूरत नहीं, जैसा था
वैसा कह दिया।
झूठ के लिए
हजार विचार करने
पड़ते हैं; सेतु
बनाने पड़ते
हैं, व्यूह
रचना पड़ता है,
क्योंकि अब
झूठ बोल दिये
हैं इसे सत्य
सिद्ध करना
है। सबसे कठिन
काम है जगत
में--जो नहीं
है, उसको
"है' जैसा सिद्ध
करना। अब इस
सिद्ध करने
में तुम्हें
बड़ी अड़चन
होगी। कांटा चुभ गया।
ऐसे
कांटे चुभते
जाते हैं, जिंदगी की
यात्रा पर
जैसे-जैसे हम
आगे बढ़ते हैं,
कांटे ही
कांटे चुभते
जाते हैं! एक
घड़ी ऐसी आती
है, सारे
तन-प्राण में
शल्य ही शल्य
हो जाते हैं, कांटे ही
कांटे हो जाते
हैं। कितना
झूठ बोले? कितनी
विकृतियों
को पाला-पोसा?
कितने जहर
पीये? कितने
अपने हाथ से
क्रोध की अग्नियां
जलायीं? कितना अपने
हाथ से द्वेष औरर्
ईष्या को पाला
और सींचा?
गलत को ही
सींचते रहे।
अगर आत्मा खो
जाती है, तो
आश्चर्य क्या!
अगर आत्मा दब
जाती है इन सभी
कांटों के
भीतर, तो
आश्चर्य क्या!
आत्मा का तो
फूल खिलेगा
कैसे, तुम
तो कांटों को
संभाल रहे हो।
जिन्हें निकालना
था, उन्हें
तुमने मित्र
समझा है।
जिन्हें
हटाना था, जिन्हें
झाड़ देना था, झटकार देना
था, उन्हें
तुम छाती से
लगाकर बैठे
हो। तुमने उन्हें
संपदा समझा है।
महावीर
कहते हैं, जैसे कांटा चुभने पर
सारे शरीर में
वेदना या पीड़ा
होती है। और कांटे
के निकल जाने
पर शरीर निशल्य,
सर्वांग-सुखी
हो जाता है।
एक छोटा-सा
कांटा निकलने
का सुख देखा? कांटा
निकलते ही सब
हलका हो जाता
है। एक भार हटा।
एक चित्त से
पीड़ा गयी। एक
प्रसन्नता
उठी। एक
साधारण भौतिक
कांटे के
निकलने से।
थोड़ा सोचो तो,
आध्यात्मिक
कांटों का
निकल जाना
कैसा निर्भार
न कर देगा! पंख
लग जाएंगे
तुम्हें। उड़ने
लगोगे आकाश
में। वजन न रह
जाएगा
तुममें। हवा की
तरह हो
जाओगे--मुक्त।
पवित्र हो
जाओगे गंगा की
तरह। फिर कुछ
तुम्हें अपवित्र
न कर पायेगा।
तुम जिन
कांटों को
लगाकर बैठे हो,
उन्हीं से
नासूर हो गये
हैं।
"कांटे
के निकल जाने
से शरीर निशल्य
सर्वांग-सुखी
हो जाता है।
वैसे ही अपने
दोषों को
प्रगट न
करनेवाला
मायावी दुखी
या व्याकुल रहता
है। और उनको
गुरु के समक्ष
प्रगट कर देने
पर सुविशुद्ध
होकर सुखी हो
जाता है। मन
में कोई शल्य
नहीं रह जाता।'
महावीर भी
नहीं कहते कि
तुम जाओ और
बीच बाजार में
खड़े होकर अपने
पापों की
घोषणा करो।
वस्तुतः उस
तरह की घोषणा
में खतरा है।
एक तो तुम कर न सकोगे।
और अगर कभी
किया तो
अतिशयोक्ति
कर दोगे।
क्योंकि तब
तुम बाजार में
घोषणा करके यह
सिद्ध करना
चाहोगे कि मुझसे
बड़ा पाप की
घोषणा
करनेवाला कोई
भी नहीं है, देखो। तब
तुम
अतिशयोक्ति
कर दोगे। तब
तुमने जो पाप
नहीं किये हैं,
वह भी तुम
स्वीकार कर
लोगे।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
पर एक मुकदमा
चला। जब सालभर
की सजा काटकर
वह वापस लौटा,
तो मैंने
पूछा, नसरुद्दीन,
तुम्हारी
उम्र नब्बे
वर्ष की हो
गयी, तुम
यह कर कैसे
सके? मुकदमा
यह था कि उसने
एक युवती के
साथ बलात्कार
किया। उसने
कहा, मैंने
इस युवती को
जाना भी नहीं,
न बलात्कार
किया है, लेकिन
जब अदालत में
सुंदर युवती
ने कहा, तो
मैं इनकार न
कर सका। यह
बात ही मुझे
प्रसन्नता से
भर गयी कि
नब्बे साल का
बूढ़ा और बीस
साल की युवती
से बलात्कार
कर सका। मैं
इनकार न कर
सका। यह सालभर
की सजा काट
लेने जैसी
लगी।
मनोवैज्ञानिक
इसका अध्ययन
करते रहे। कुछ
लोगों ने अपने
पाप की घोषणाएं
की हैं; वे
भी
अतिशयोक्तिपूर्ण
हैं, झूठी
हैं। पाप को
बढ़ा-चढ़ाकर
कहा है।
आदमी
अदभुत है। या
तो पाप को
छिपाता है, या बढ़ा-चढ़ाकर
कहता है। झूठ
की पकड़ ऐसी है
कि अगर इस तरफ
से हटे, तो
दूसरी अति पर
झूठ हो जाती
है।
गांधी
की आत्मकथा
में ऐसी ही
अतिशयोक्ति
है। रूसो
की आत्मकथा
में इसी तरह
की अतिशयोक्ति
है। अगस्तीन
की आत्मकथा
में इसी तरह की
अतिशयोक्ति
है और
टालस्टाय की
आत्मकथा में भी
इसी तरह की
अतिशयोक्ति
है। अब तो
इसके बिलकुल
प्रबल प्रमाण
मिल गये हैं
कि टालस्टाय
ने ऐसी बातें
कही हैं जो
हुई नहीं थीं।
लेकिन पाप को
बढ़ा-चढ़ाकर
बखान किया।
अगर यही सदगुण
है कि अपने
पाप को खोल
देना, तो
छोटे-मोटे पाप
क्या खोलो!
सोचो तुम्हीं!
अगर गये तुम
और स्वीकार ही
करना है पाप
और तुमने कहा
कि किसी के दो
पैसे चुरा लिये,
तो तुमको भी
दीनता लगेगी
कि चुराये भी
तो दो पैसे
चुराये! तो मन
करेगा कि जब
चोरी स्वीकार
ही कर रहे हो, तो लाखों की
करने में क्या
हर्जा है! कहो
कि दो लाख चुरा
लिये। पापी भी
क्या
छोटे-मोटे
होना! जब पाप
की ही
स्वीकृति कर
रहे हो, तो
कम से कम और
कहीं आगे न हो
सके, इसमें
तो आगे हो
जाओ। अहंकार
वहां भी पकड़
लेगा। वहां भी
झूठ हो जाएगा।
तो न तो ऐसे
पाप की स्वीकृति
करना जो किया
नहीं, न
ऐसे पुण्य की
घोषणा करना जो
किया नहीं।
महावीर
कहते हैं, इसलिए एकांत
में, गुरु
के सामीप्य
में--जो
तुम्हें समझ
सकेगा--उससे
चुपचाप अपनी
बात कह देना।
और तुम उसके
सामने न तो
पाप को छोटा
करके बोल
पाओगे, न
बड़ा करके बोल
पाओगे।
क्योंकि उसका
सरल वातावरण,
उसकी शांति,
उसका आनंद
तुम्हारे
अहंकार को
मौके न देगा।
उसकी
विनम्रता
तुम्हें
विनम्र
बनायेगी। उसकी
सहजता
तुम्हें सहज
बनायेगी।
गुरु के दर्पण
के सामने
बैठकर
तुम्हें वही
तस्वीर घोषणा
करनी पड़ेगी, जो तुम हो।
बस उतनी ही
घोषणा कर देनी
है, जो तुम
हो। इस घोषणा
से ही तुम
निर्भार होते
हो। तुम्हारे
चित्त का बोझ
हलका हो जाता
है। द्वंद्व
मिट जाता है, विरोधाभास
समाप्त हो
जाता है, गांठें
खुल जाती हैं।
और, जो तुम एक
व्यक्ति को कह
सके और आनंद
पा सके, तो
तुम धीरे-धीरे
पाओगे कितना न
होगा आनंद अगर
मैं सबको
कहता! धीरे-धीरे
तुम पाओगे
तुमने औरों के
सामने भी स्वीकार
करना शुरू कर
दिया। क्या है
जगत के पास जो
तुमसे छीन
लेगा? देने
को क्या है? पद, प्रतिष्ठा,
सब झूठे
लुभावने भ्रम
हैं। छीन क्या
लेगा? जो
तुमसे छीन
सकता है जगत, वह किसी
मूल्य का
नहीं। जो
तुम्हें दे
सकता है, वह
किसी मूल्य का
नहीं। और इससे
छिपाकर जो तुम
खोते हो, वह
बहुमूल्य है।
और इसे प्रगट
करके अपने
चित्त को तुम
जो पाओगे, वह
तुम्हारी
आत्मा है। वह
परम धन है।
सदा से है।
महावीर
ने जैसा कहा, जीसस ने
जैसा कहा, हिंदुओं
ने जैसा माना,
किसी न किसी
के समाने हृदय
को खोलना है।
किसके सामने
खोलते हो, यह
बात उतनी
महत्वपूर्ण
नहीं है; खोलते
हो, यह बात
महत्वपूर्ण
है। जिसके
सामने खोल सको,
वहीं खोल
देना। अपने
प्रिय के
सामने खोल
देना। अपनी
पत्नी के
सामने खोल
देना। अपनी
मां के सामने
खोल देना।
अपने मित्र के
सामने खोल
देना। जिसके
पास भी तुम
पाओ कि सुविधा
है खोल देने
की, दूसरा
निंदा न करेगा,
वहीं खोल
देना। तो वहीं
थोड़ा-सा गुरु
प्रसाद मिलेगा।
हां, गुरु
मिल जाए, तब
तुम्हें पूरा
आकाश मिलेगा।
तेरे
गुनाहगार
गुनाहगार ही
सही
तेरे
करम की आस
लगाये हुए तो
हैं
यूं
तुझको
अख्तियार है
तासीर दे न दे
दस्ते-दुआ
हम आज उठाये
हुए तो हैं
भक्त
कहता है--
तेरे
गुनाहगार, गुनाहगार ही
सही
माना
कि हम
पापी हैं, स्वीकार।
तेरे
करम की आस
लगाये हुए तो
हैं
लेकिन
तेरी करुणा की
आशा लगाये
बैठे हैं। तू
क्षमा करेगा, यह भरोसा
है।
तेरे
करम की आस
लगाये हुए तो
हैं
यूं
तुझको
अख्तियार है
तासीर दे न दे
क्षमा
कर या न कर, यह तेरी
मर्जी।
यूं
तुझको
अख्तियार है
तासीर दे न दे
दस्ते-दुआ
हम आज उठाये
हुए तो हैं
लेकिन
प्रार्थना
में हमने अपने
हाथ उठाये हैं।
तू हमसे यह न
कह सकेगा कि
हमने हाथ न
उठाये थे।
तेरी करुणा के
लिए हम तैयार
हैं, तू दे न
दे। हमने
प्रार्थना
भेज दी है, तू
पूरी कर, न
कर। फल तेरे
हाथ में है।
प्रार्थना
हमने कर दी
है। तू यह न कह
सकेगा कि हमने
प्रार्थना न की।
एक
छोटा बच्चा बगीचे में
खेल रहा है।
उसका बाप पास
ही बैठा हुआ
है। वह बच्चा
एक बड़ी चट्टान
को उठाने की
कोशिश कर रहा
है, वह उठती
नहीं। वह सब
तरफ से खींचने
की कोशिश कर
रहा है, लेकिन
वह उससे
ज्यादा वजन की
है। हिलती भी
नहीं। आखिर
उसके बाप ने
उससे कहा, तू
अपनी पूरी
ताकत नहीं लगा
रहा है। उसने
कहा, मैं
अपनी पूरी
ताकत लगा रहा
हूं। जितनी
लगा सकता हूं,
पूरी लगा
रहा हूं। बाप
ने कहा कि
नहीं, तेरी
ताकत में यह
भी सम्मिलित
है कि तू
मुझसे भी कह
सकता है कि
साथ दो। तू
पूरी ताकत
नहीं लगा रहा
है। तेरी ताकत
में यह भी
सम्मिलित है
कि तू मुझसे
भी कह सकता है
कि आओ, इस
चट्टान को
उठाने में साथ
दो।
प्रार्थना
पूरी ताकत है।
जो तुम कर
सकते हो तुमने
किया, फिर
तुम परमात्मा
से कहते हो कि
हम सीमित हैं,
अब तू भी
कुछ साथ दे।
यूं
तुझको
अख्तियार है
तासीर दे न दे
दस्ते-दुआ
हम आज उठाये
हुए तो हैं
अपने
हाथ हमने
प्रार्थना
में उठाये हैं, अब तेरी
मर्जी!
यह हाथ
उठाना आदमी
एकदम से परमात्मा
के सामने नहीं
कर सकता, क्योंकि
परमात्मा का
हमें कोई पता
नहीं। कहां है?
किस दिशा
में है? कौन
है? कैसे
पुकारें? क्या
है उसका नाम? क्या कहें? कौन-सी भाषा
वह समझता है? गुरु के पास
आसान है। वहां
से हम जीवन का
क, ख, ग
सीखते हैं।
वहां से हम
परमात्मा की
तरफ पहली सीढ़ी
लगाते हैं। वह
पहला पायदान
है। क्योंकि
गुरु हमारे
जैसा है और
हमारे जैसा
नहीं भी है।
कुछ-कुछ हमारे
जैसा है और
कुछ-कुछ हमसे
पार। कुछ-कुछ
हमारे-जैसा है
और कुछ-कुछ
परमात्मा
जैसा है। गुरु
एक अदभुत संगम
है, जहां
आदमी और
परमात्मा का
मिलन हुआ है।
जहां
तक हमारे जैसा
है वहां तक तो
हम उससे बोल
सकते हैं। वहां
तक तो हम कह
सकते हैं।
वहां तक तो वह
हमें समझेगा।
और जहां वह
हमारे जैसा
नहीं है, वहां
से उसकी क्षमा
आयेगी। यही
गुरु का चमत्कार
है। यही गुरु
की महिमा है।
है मनुष्य, ठीक
तुम्हारे
जैसा। ऐसे ही
हाथ-पैर, ऐसा
ही मुंह, ऐसी
ही
जरूरतें--भोजन,
भूख-प्यास,
सर्दी-गर्मी,
जन्म-मृत्यु--सब
तुम्हारे
जैसा है। वहीं
से गुजरा है, उन्हीं
राहों से
गुजरा है, जहां
तुम गुजर रहे।
उन्हीं अंधेरों
में से टटोल-टटोलकर
मार्ग बनाया
है उसने, जहां
तुम टटोल रहे।
वह तुम्हें
समझ सकेगा, क्योंकि तुम
उसकी ही
अतीत-कथा हो।
तुम उसी की
आत्मकथा हो। जहां
वह कल था, वहां
तुम आज हो। और
जहां वह आज है,
वहां तुम कल
हो सकते हो।
परमात्मा
बहुत दूर है।
गुरु पास भी, और दूर भी।
परमात्मा तक
सेतु फैलाना
बड़ा कठिन है।
आदमी की
सामर्थ्य के
बाहर है। तुम
कहते तो हो
परमात्मा शब्द,
लेकिन कोई
भाव उठता है
भीतर? कुछ
भाव नहीं
उठता। जब तक
तुम किसी
मनुष्य में
परमात्मा की
पहली झलक न
पाओगे, तब
तक तुम्हारे
परमात्मा
शब्द में कोई
प्राण न
होंगे। गुरु
परमात्मा
शब्द को
सप्राण करता है।
तो तुम्हारे
जैसा है, इसलिए
तुम जो कहोगे,
समझेगा।
समझेगा कि चोरी
का मन हो गया
था। दस हजार
रुपये पड़े थे
रास्ते के
किनारे, कोई
देखनेवाला न
था, उठा
लेने का मन हो
गया था। वह
कहेगा, बहुत
बार मेरा भी
हुआ है ऐसा।
कुछ चिंता न
करो। कुछ घबड़ाने
की बात नहीं।
देखो, मैं
उसके पार आ
गया। तुम भी आ
जाओगे। सभी को
होता है।
स्वाभाविक है।
मानवीय है।
तुम्हारे
जैसा है गुरु, तुम्हारी
भाषा समझेगा।
और ठीक
तुम्हारे जैसा
भी नहीं है कि
निंदा करे, कि तुम्हारे
रोग में रस ले,
कुतूहल करे,
कि
खोद-खोदकर, कुरेद-कुरेदकर
तुम्हारे
भीतर छिपे हुए
रहस्यों को
चेष्टा कर-करके
जाने। न, गुरु
तो सिर्फ
निष्क्रिय-भाव
से, शांत-भाव
से सुन लेता
है तुम जो
कहते हो। और
तुम्हें
आश्वासन दे
देता है।
यह
आश्वासन शब्द
का उतना नहीं
है जितना उसके
सत्व का है।
अपने
अस्तित्व से, अपनी
उपस्थिति से
तुम्हें
आश्वासन दे
देता है।
तुम्हारे हाथ
को हाथ में ले
लेता है। या
तुम्हारे सिर
पर अपना हाथ
रख देता है।
और तुम अनुभव
कर लेते हो कि
उसने क्षमा कर
दिया। और अगर
उसने क्षमा कर
दिया, तो
परमात्मा
निश्चित
क्षमा कर
देगा। जब गुरु
तक क्षमा करने
में समर्थ है,
तो
परमात्मा की
तो बात ही
क्या कहनी!
यूं
तुझको
अख्तियार है
तासीर दे न दे
दस्ते-दुआ
हम आज उठाये
हुए तो हैं
गुरु
खोज लेना साधक
के लिए पहली
अनिवार्य बात है।
जीवन
पाया पर जीवन
में क्या
दो
क्षण सुख के
बीत सके?
मन छलने वाले
मिले बहुत पर
क्या
मिल मन के मीत
सके?
मन का
मीत मिल जाए, तो गुरु
मिला। शरीर से
मित्रता रखनेवाले
बहुत मिल
जाएंगे। शरीर
का उपयोग
करनेवाले बहुत
मिल जाएंगे।
तुम्हारा
साधन की तरह
उपयोग करनेवाले
बहुत मिल
जाएंगे।
तुम्हारे
साध्य की
तुम्हें जो
याद दिलाये, जब वह मिल
जाए, तो मन
का मीत मिला।
गुरु मित्र
है।
बुद्ध
ने तो कहा है, कि मेरा जो
आनेवाला
अवतार होगा, उसका नाम
होगा
मैत्रेय।
मित्र। गुरु
सदा से निकटतम
मित्र है।
कल्याण-मित्र।
तुम से कुछ
चाहता नहीं।
उसकी चाह जा
चुकी। वह अचाह
हुआ। तुम्हारा
कोई उपयोग
करने का
प्रयोजन
नहीं। उसे कुछ
उपयोग करने को
बचा नहीं। जो
पाना था, पा
लिया। वह अपने
घर आ गया। वह
तुम्हारी
सीढ़ी न
बनायेगा। वह
तुम्हारे
कंधे पर न चढ़ेगा।
प्रयोजन
नहीं। जो
देखना था, देख
लिया; जो
होना था, हो
लिया। सब तरह
तृप्त। ऐसा
कोई व्यक्ति
मिल जाए, तो
सौभाग्य है!
ऐसे व्यक्ति
की छाया फिर
छोड़ना मत। फिर
बना लेना अपना
घोंसला उसी की
छाया में। फिर
करना विश्राम
वहीं और खोल
देना अपने हृदय
को पूरा। निशल्य
हो जाओगे तुम।
मन में कोई
शल्य नहीं रह
जाता।
लेकिन
लोग बड़े उलटे
हैं। लोग गुरु
से बचते हैं।
और उनको पकड़
लेते हैं जो
गुरु नहीं
हैं। क्योंकि
जो गुरु नहीं
हैं, उनसे
तुम्हें कुछ
खतरा नहीं है।
जो गुरु नहीं हैं,
वे तुम्हें मिटायेंगे
नहीं--तुम्हें
सूली भी न
देंगे, तुम्हें
सिंहासन भी न
देंगे, वे
तुम्हारी
मृत्यु न
बनेंगे। उनके
पास तुम झूठी सांत्वनाएं
लेकर घर आ
सकते हो। सत्य
तो वहां न
मिलेगा। सत्य
तो महंगा है।
उसके लिए तो
प्राणों से
कीमत चुकानी
पड़ती है।
सांत्वना
मिलेगी, लेकिन
सांत्वना बड़ी
सस्ती है।
आईने
से बिगड़ के
बैठ गये
जिनकी
सूरत जिन्हें
दिखायी गयी
गुरु
से तो लोग
नाराज हो जाते
हैं। क्योंकि
गुरु तो दर्पण
है। तुम्हारी
सूरत
तुम्हारे सामने
आ जाएगी।
आईने
से बिगड़ के
बैठ गये
जिनकी
सूरत जिन्हें
दिखायी गयी
तो
गुरु का काम
तो बड़ा कठिन
है। उसे
तुम्हें तुम्हारी
सूरत भी
दिखानी है और
तुम्हें तुम्हारी
सूरत से मुक्त
भी करना है।
तुम जैसे हो वह
बताना है, और तुम जैसे
हो सको उस तरफ
ले जाना है।
और तुम्हारी
निंदा भी न हो
जाए, तुम्हारा
आत्मविश्वास
भी न खो जाए, तुम्हारी
प्रतिमा भी
खंडित न हो
जाए, बड़ा
नाजुक काम है।
तुम्हें
संभालना भी है,
तुम्हें
गिरने भी नहीं
देना है, और
तुम्हें
संभालना भी
ऐसे है कि
तुम्हें ऐसा न
लगने लगे कि
कोई
जबर्दस्ती
संभाल रहा है।
कहीं तुम्हें
ऐसा न लगने
लगे कि
तुम्हारी
स्वतंत्रता खोयी जा
रही है, तुम
गिरने की
स्वतंत्रता
खोये दे रहे
हो।
तो
गुरु का काम
इस जगत में
सबसे नाजुक
काम है। मूर्तिकार
पत्थर की
मूर्ति खोदते
हैं, चित्रकार
कैनवस पर
चित्र बनाते
हैं, कवि
शब्दों को
जमाते हैं, संवारते हैं, गुरु
चैतन्य की
मूर्ति
निखारता
है--बड़ा नाजुक है।
और नाजुकता
यही है कि
गुरु को
विपरीत काम करने
पड़ते हैं। एक
तरफ तुम घबड़ाकर
गिर ही न जाओ, दूसरी तरफ
तुम कहीं इतने
आश्वस्त भी न
हो जाओ कि तुम
जो हो वही रह जाओ!
तुम्हारे
बीज को तोड़ना
भी है। तुम
जैसे हो उसे
बदलना भी है, लेकिन
तुम्हें कोई
चोट न पड़े, हिंसा
न हो जाए।
तुम्हें कहीं
ऐसा न लगने
लगे कि यह
बंधन हो गया, यह
परतंत्रता हो
गयी, यह तो
कारागृह हो
गया।
स्वेच्छा से,
स्वतंत्रता
से तुम्हारे
जीवन में
अनुशासन आये।
यही जटिलता
है। थोपा न
जाए, आये।
गुरु के प्रेम
में आये, गुरु
की उपस्थिति
में आये। गुरु
के आदेश से न आये,
बस उसके
उपदेश से आये।
वह तुम्हें
आज्ञा न दे।
कोई गुरु
आज्ञा नहीं
देता। जो
आज्ञा देते
हैं वे गुरु
नहीं हैं।
गुरु तो सिर्फ
कहता है, निवेदन
करता है।
सुझाव ज्यादा
से ज्यादा, आज्ञा नहीं।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
भी बचानी है
और तुम्हारी
सत्य की
यात्रा को भी
पूरा करना है।
लेकिन
इसकी पहली
शुरुआत, महावीर
कहते हैं, भूलों
के समग्र
स्वीकार से
होती है। निशल्य
हुआ व्यक्ति
स्वस्थ हो
गया। उसके
मानसिक रोग
गये। उसकी
मानसिक उपाधियां
गिरीं।
मन स्वस्थ हो,
तो आत्मा की
तरफ यात्रा
हो।
इसे हम
समझें।
अगर
शरीर बीमार हो, तो मन की तरफ
यात्रा नहीं
हो सकती। जैसे
कोई आदमी
बीमार है, क्या
वीणा बजाये!
कैसे गीत गाये?
खाट से लगा
है, कैसे
नाचे? कैसा
साहित्य का रस,
कैसा काव्य,
कैसी
चित्रकला, कैसी
मूर्ति! अभी
शरीर रुग्ण है,
घावों से
भरा है। तो
शरीर में अटका
रहता है। शरीर
स्वस्थ हो
जाता है, तो
आदमी मन की
तरफ चलता है।
तो फिर गीत भी
सुनता है, संगीत
भी सुनता है।
नाचता भी है, चित्र भी
बनाता है, मूर्ति
भी गढ़ता।
बगीचा लगाता
है, फूल संवारता
है। सौंदर्य
का अनुबोध
होता है। एक
नया रस का संसार
खुलता है।
शरीर स्वस्थ
हो तो आदमी मन
की ऊर्जा का
उपयोग करना
शुरू करता है।
मन की तरंगों
पर चढ़ता
है। लेकिन मन
अगर रुग्ण हो,
तो आत्मा की
तरफ नहीं जा
सकता। जब मन निशल्य
होता है, तो
और एक नयी
अंतिम यात्रा
शुरू होती
है--आत्मा की
खोज, परमात्मा
की खोज, सत्य
की खोज। शरीर,
मन, दोनों
संतुलन में
हों, तो ही
आत्मा की खोज
हो सकती है।
अब
मुझको करार है
तो सबको करार
है
दिल
क्या ठहर गया
कि जमाना ठहर
गया
जैसे
ही मन की उधेड़बुन
ठहर जाती है, दिल ठहर जाता
है, कि
सारी आपा धापी,
सारी
दौड़-धूप, सब
बंद हुई।
दिल
क्या ठहर गया
कि जमाना ठहर
गया
सब ठहर
जाता है, समय
ठहर जाता है।
उस परम ठहराव
में ध्यान के
फूल खिल सकते
हैं। उस परम
शांति में
आदमी अपनी आखिरी
मंजिल की तरफ
जाता है।
"ज्ञान
से ध्यान की
सिद्धि होती
है। ध्यान से
सब कर्मों की
निर्जरा होती
है। निर्जरा का
फल मोक्ष है।
अतः सतत ज्ञानाभ्यास
करना चाहिए।'
णाणेण ज्झाणसिज्झी, झाणादो सव्वकम्मणिज्जरणं।
णिज्जरणफलं मोक्खं, णाणब्भासं तदो
कुज्जा।।
"ज्ञान
से ध्यान की
सिद्धि होती
है।' ज्ञान
को ठीक से समझ
लेना। ज्ञान
का अर्थ शास्त्र-अध्ययन
नहीं। वह तो
महावीर बहुत
पहले इनकार कर
चुके। ज्ञान
का अर्थ
सूचनाओं का
संकलन नहीं
है। ज्ञान का
अर्थ है, जो
है उसे वैसा
ही जानना।
जैसा है वैसा
ही जानना।
तथ्य को
तोड़ना-मरोड़ना
नहीं। तथ्य के
ऊपर अपने मन
को आरोपित न
करना। तथ्य को
विकृत न करना।
जो है, जैसा
है, उसे
वैसे ही जानने
का नाम ज्ञान
है।
गुलाब
का फूल खिला।
तुम कहते हो, सुंदर है।
तो जो जैसा है
उससे तुम हट
गये। तुमने
अपने मन को
आरोपित किया।
यह सुंदर का
खयाल तुम्हारा
है। गुलाब के
फूल को कुछ भी
पता नहीं है
कि सुंदर है, असुंदर है।
आदमी हट जाए
पृथ्वी से तो
भी गुलाब का
फूल खिलेगा। गेंदे का
फूल भी
खिलेगा।
लेकिन न तो गेंदे
का फूल असुंदर
होगा, न
गुलाब का फूल
सुंदर होगा। न
गेंदे का
फूल कम सुंदर
होगा, न
गुलाब का फूल
ज्यादा सुंदर
होगा। घास के
फूल भी खिलते
रहेंगे। सभी
एक जैसे
होंगे।
मनुष्य के हट
जाते ही मूल्य
हट जाते हैं।
जब तुम
कहते हो गुलाब
का फूल सुंदर
है, तो तुमने
फूल के साथ
कुछ जोड़ा।
तथ्य को तथ्य
न रहने दिया।
तुमने कल्पना
जोड़ी। तुमने
अपना भाव
डाला। तुमने
तथ्य को अतथ्य
किया। गुलाब
को देखो, कुछ
कहो मत। कुछ जोड़ो मत।
वहां हो गुलाब,
यहां हो तुम,
दो उपस्थितियां--शून्य,
शांत--शब्द
का कोई भी
रोग-राग न हो।
शब्द बीच में
उठे ही नहीं।
शब्द सत्य को
विकृत करता
है। मौन का
सेतु हो। वहां
गुलाब खिले, यहां तुम खिलो।
दोनों
एक-दूसरे के
आमने-सामने
साक्षात्कार हो।
न तुम कुछ कहो,
न तुम कुछ
सोचो, न
तुम कोई धारणा
बनाओ, तुम
बस देखते रहो
जो है। जो है
उसे प्रगट
होने दो, फैलने
दो। तब तुम
पहली दफे
जानोगे गुलाब
को--नामरहित, विशेषणरहित,
रूपरहित। गुलाब
अपने समग्र
वैभव से प्रगट
होगा। तुम्हारी
आत्मा पर
फैलता चला
जाएगा। तुम
पहली दफा स्पर्श
करोगे उसका, जो है। और जो
गुलाब के साथ
कह रहा हूं, वही सारे
जीवन के साथ
करो, तो
महावीर कहते
हैं, ज्ञान।
"णाणेण ज्झाणसिज्झी।'
और ज्ञान से
ध्यान सिद्ध
होता है। बड़ा
अमूल्य सूत्र
है। ऐसे ज्ञान
का अपने-आप
रूपांतरण ध्यान
में हो जाता
है। यह ज्ञान
की विशुद्धि
ही ध्यान बन
जाती है।
ध्यान का अर्थ
है, निर्विचार-चित्त।
जब तुम तथ्य
को तथ्य की
तरह देखने में
कुशल हो जाते
हो, तो
विचार विदा हो
जाते हैं।
उनकी तरंगें
नहीं उठतीं।
मौन में
साक्षात्कार
होने लगता है।
तुम्हारी आंख
खाली हो जाती
है। तुम सिर्फ
देखते हो, कुछ
डालते नहीं।
तुम सिर्फ
सुनते हो, कुछ
विचारते
नहीं। तुम
सिर्फ छूते हो,
व्याख्या
नहीं करते।
व्याख्या
करना, विचार
करना, कुछ
डालना, कुछ
जोड़ना, ये
सब मन के
कृत्य हैं। जब
ये सब कृत्य
खो जाते हैं, मन खो जाता
है। जहां मन
नहीं, वहां
ध्यान। मन का
अभाव, ध्यान।
अ-मन की
अवस्था, ध्यान।
"ज्ञान
से ध्यान की
सिद्धि होती
है। और ध्यान
से सब कर्मों
की निर्जरा
होती है।'
सुनो, महावीर कहते
हैं, ध्यान
से सब कर्मों
की निर्जरा
होती है। जो
तुमने किये
हों पाप-पुण्य
अनंत-अनंत
जन्मों में, क्षणभर के ध्यान से
मिट जाते हैं।
क्यों, ऐसा
कैसे होता
होगा? यह
गणित कुछ समझ
में नहीं आता।
क्योंकि
जनम-जनम तक
पाप किये--चोरी
की, बुराई
की, झूठ
बोले, हत्या
की, हत्या
का सोचा--कम से
कम आत्महत्या
की--सब तरह के
गर्हित कृत्य
किये हैं, जन्मों-जन्मों
तक इतने
कर्मों का जाल,
और ध्यान से
मिट जाएगा, क्या मामला
है? ध्यान
से इसलिए मिट
जाता है कि जो
तुमने किया, वह सपना था।
कर्ता का भाव
स्वप्न है।
रात भर कितने
काम करते हो, सुबह अलार्म
बजा, पक्षी
चहचहाये,
आंख खुली, सब गया--रात
कितना क्रम था,
कितना
उपक्रम था, कितना उपाय
था, कितनी
दौड़-धूप थी, कितना पाया,
कितना खोया,
आंख खुलते
ही सब खाली हो
गया।
निर्जरा
का अर्थ है, जिसे तुमने
कर्म जाना वह
माया से
ज्यादा नहीं।
महावीर माया
शब्द का उपयोग
नहीं करते।
लेकिन इससे
क्या फर्क
पड़ता है! उनका
वक्तव्य इतना
साफ है।
महावीर यह कह
रहे हैं, जो
तुमने किया वह
स्वप्नवत है।
जागने की जरूरत
है, जागते
ही स्वप्न खो
जाते हैं। रात
तुमने चोरी की,
सुबह जागकर
फिर तुम
परेशान तो
नहीं होते कि
रात चोरी की, चोर बना, अब
क्या करूं, अब क्या न
करूं? क्या
अब दान करूं? क्या जाकर
पुलिस में रपट
लिखाऊं? क्या करूं? रात किसी की
हत्या कर दी, तो सुबह तुम घबड़ाते तो
नहीं कि पुलिस
आती होगी।
जागते ही
निर्जरा हो
गयी। जागते ही
निर्जरा
इसीलिए हो सकती
है कि जो किया
था वह सोते का
सपना था।
"ध्यान
से सब कर्मों
की निर्जरा
होती है।' निर्जरा
शब्द बड़ा
प्यारा है।
महावीर का
अपना है।
निर्जरा का
अर्थ होता है,
झड़ जाना।
जैसे पतझड़
में पत्ते झड़
जाते हैं।
जैसे स्नान
करते वक्त
शरीर की धूल
झड़ जाती है।
बैठ गये
जलस्रोत के
निकट, जलप्रपात
के नीचे, सब
धूल झड़ जाती
है। ऐसे ध्यान
से जब स्नान
हो जाता है, तो सब
निर्जरा हो
जाती है।
"निर्जरा
का फल मोक्ष
है।' और
निर्जरा की
अंतिम अवस्था
जहां सब झड़
गया, कुछ
भी न बचा; सब
घास-पात, सब
पात-पत्ते, सब धूल-धवांस,
सब गिर गयी,
कुछ भी न
बचा, तुम
ही बचे
तुम्हारी
निपट शुद्धि
में, तुम्हारा
एकांत बचा, तुम्हारा
कैवल्य बचा, बस तुम्हारी
भीतर की रोशनी
बची, शून्य
में जलता हुआ
प्राण का दीया
बचा, सब हट
गया, वही
मोक्ष है।
मोक्ष कोई
भौगोलिक
अवस्था नहीं।
मोक्ष
तुम्हारी
शुद्धतम
अवस्था है।
कहो परमात्मा
या मोक्ष, एक
ही बात है।
"अतः सतत ज्ञानाभ्यास
करना चाहिए।'
महावीर के
इस वचन को
जैन-मुनियों
ने समझा कि सतत
शास्त्र पढ़ते
रहना चाहिए।
करते ही यही
बेचारे!
शास्त्र-अभ्यास
तो खूब हो
जाता है, लेकिन
न तो उससे
ध्यान सधता
है--वस्तुतः
शास्त्र-अभ्यास
के कारण ध्यान
असंभव हो जाता
है--न उससे
कर्मों की
निर्जरा होती
है, न
मोक्ष मिलता
है। फिर भी--न
पौधा दिखायी
पड़ता, न फल
लगते, न
फूल आते--फिर
भी वे बैठे
हैं। शास्त्र
का अध्ययन
किये जा रहे
हैं।
ज्ञान-अभ्यास
का महावीर का
अर्थ है, तथ्य
को तथ्य की
तरह देखने का
अनुशासन। जो
जैसा है उसे
वैसा ही देखने
की
प्रक्रिया।
इसे साधना
होगा। क्योंकि
जन्मों-जन्मों
तक हमने
तथ्यों को
झुठलाना सीखा
है। हम कुछ का
कुछ देख लेते
हैं। हम देखते
भी होते हैं, लेकिन वह
नहीं दिखायी
पड़ता जो है।
और वह दिखायी
पड़ जाता है जो
हम देखना
चाहते हैं।
हमारे भीतर की
तरंगें जगत के
पर्दे पर
छायाएं बनाती
रहती हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन मेरे
पास आया। उसने
अपनी वसीयत
लिखी। वसीयत
देखकर मैं
चौंका। मैंने
कहा, मुल्ला, बड़े उदार
हो। क्योंकि
वसीयत में
उसने लिखा, कि मेरे
मरने के बाद
में मेरी
पत्नी को पचास
हजार रुपये
मिलें। लेकिन
यदि वह विवाह
करे, तो एक
लाख रुपये
मिलें। मैंने
कहा, लोग
तो लिख जाते
हैं कि अगर
पत्नी विवाह
करे, तो एक
पैसा न मिले।
अगर सदा मेरे
नाम के लिए रोती
रहे, तो सब
मिल जाए।
तुमने यह क्या
किया? तुम
बड़े उदार हो।
कभी मैंने
सोचा नहीं कि
तुम इतने उदार
होओगे। उसने
कहा, आप
गलत न समझें, मेरा मतलब
कुछ और ही है, लेकिन अब
आपसे क्या
छिपाना! क्या
मतलब है तेरा?
तो उसने कहा,
पहली तो बात
यह है कि जो
मूर्ख--और
केवल कोई मूर्ख
ही उससे विवाह
करेगा--विवाह
करेगा, उसके
लिए खर्च-पानी
के लिए कुछ
जरूरत पड़ेगी,
लेकिन
उसमें भी मेरा
रस नहीं। रस
मेरा इसमें है
कि कोई उससे
विवाह करे।
अकेला मैं ही
क्यों दुख पाऊं
इसकी वजह से? कोई और भी तो
चखे दुख! और
फिर एक और
कारण है। मर जाने
के बाद कम से
कम एक आदमी तो
दुखी रहेगा, कि मुल्ला न
मरता तो अच्छा
था।
लोग
कहते कुछ, भीतर कुछ और
होता। बोलते
कुछ, भाव
कुछ और होते।
पर्त दर पर्त
आदमी में झूठ
है। बाहर फिर
हम वही देखते
चले जाते हैं
जो पर्त दर
पर्त हममें
फैला है। तुम
दूसरे में वही
देख लेते हो, जैसी
तुम्हारी
देखने की आदत
हो गयी है।
चोर चोर को ही
देखता रहता
है। चोर को
साधु दिखायी
पड?ता ही
नहीं, दिखायी
पड़ ही नहीं
सकता। वह मान
ही नहीं सकता
कि कोई साधु
हो सकता है।
जब वह खुद ही
नहीं हो सका
साधु, तो
कौन हो सकता
है!
महावीर
कहते हैं
ज्ञान के
अभ्यास का
अर्थ है, तथ्य
को देखने की
कला। अपने को
हटाना, बीच
में मत डालना।
व्यवधान मत
बनना, सब
पर्दे हटा
लेना और जैसा
हो उसको वैसा
ही देखना, चाहे
कोई भी कीमत
देनी पड़े, चाहे
कोई भी कीमत
चुकानी पड़े।
शास्त्र-अभ्यासी
तो केवल
परंपरा के
अंधे पूजक
हैं।
लीक-लीक
गाड़ी चले, लीकै चले कपूत
लीक छांड़ि
तीनों चलें, शायर, सिंह,
सपूत
वह जो
शास्त्र की
लकीर पीटते
रहते हैं, वह तो कपूत
हैं। वह तो
कायर हैं।
उनमें तो कोई बल
नहीं।
लीक छांड़ि
तीनों चलें, शायर, सिंह,
सपूत।
जो भी
लीक को छोड़कर
चल सकता है, जो पिटी-पिटायी
बात को नहीं
देखता, जो पिटे-पिटाये
शब्दों को
नहीं दोहराता,
जो पिटी-पिटायी
धारणाओं में
नहीं जीता, जो सब जाल को
हटा देता है
और जीवन के
तथ्य को देखता
है और उस तथ्य
के अनुसार जीता
है, वही
बहादुर है, वही साहसी
है, वही
महावीर है।
शायर, सिंह,
सपूत। उसी
के जीवन में
काव्य का जन्म
होगा। उसी के
जीवन में
वीर्य का जन्म
होगा। वही
सपूत है।
क्योंकि वही
जीवन को धन्य
कर पायेगा।
वही भाग्यवान
है।
"उन
महाकुल वालों
का तप भी
शुद्ध नहीं है
जो प्रव्रज्जा
धारण कर
पूजा-सत्कार
के लिए तप
करते हैं। इसलिए
कल्याणार्थी
को इस तरह तप
करना चाहिए कि
दूसरे लोगों
को पता तक न
चले। अपने तप
की किसी के
समक्ष
प्रशंसा नहीं
करनी चाहिए।'
आदमी
ऐसा उलटा है, बेबूझ है।
उलटी खोपड़ी है
आदमी की। तप
भी करता है तो
भी कारण वही
पुराने
अहंकार के
होते हैं।
पहले धन की
अकड़ से चलता था
कि लाखों हैं,
अब इस अकड़
से चलता है कि
लाखों त्याग
दिये। पहले यह
अकड़ थी कि
देखो मेरे पास
कितना है, अब
यह अकड़ है कि
सुनो मैंने
कितना त्यागा
है। अकड़ अपनी
जगह कायम है।
रस्सी जल जाती
है, अकड़
नहीं जाती। तो
महावीर कहते
हैं, ऐसा
तप मत करना, वह तप भी
अशुद्ध है।
तेसिं तु तवो
ण सुद्धो, निक्खंता जे महाकुला।
जं नेवन्ने
वियाणंति, न सिलोगं
पवेज्जइ।।
पूजा-सत्कार
के लिए तप मत
करना। कल्याणार्थी
को तो ऐसे तप
करना चाहिए कि
किसी को पता न
चले। तप तो
एकांत में हो।
तप तो
तुम्हारा भीतर
है, भीतर हो।
अब
इसको समझना।
साधारणतः
पाप हम एकांत
में करते हैं, पुण्य भीड़
में करते हैं,
पाप हम
छिपाते हैं, पुण्य हम
बताते हैं।
पाप अगर
मजबूरी में
बताना भी पड़े,
तो कम से कम
बताते हैं।
पुण्य अगर
छिपाना भी पड़े,
तो कम से कम
छिपाते हैं।
मजबूरी में।
पुण्य को हम
बढ़ा-बढ़ाकर
बताते हैं, पाप को हम
घटा-घटाकर
छिपाते हैं।
पाप को हम छोटा
बना-बनाकर
भीतर रख लेते
हैं। पुण्य को
हम बड़ा बनाकर
आकाश में इंद्रधनुषों
की भांति
फैलाते हैं।
महावीर
कहते हैं, प्रक्रिया
उलटी होनी
चाहिए। पुण्य
को भीतर छिपाकर
रख लेना, पाप
को बाहर प्रगट
कर देना। पाप
को तो बता
देना, क्योंकि
जो बता दो वह
खो जाता है।
पुण्य बताया,
पुण्य खो
जाएगा। पाप
बताया, पाप
खो जाएगा। जो
बचाकर भीतर
रखते हो, वही
बीज बनता है।
जो छिपाया, वही बढ़ेगा।
पाप छिपाओगे,
पाप बढ़ेगा।
पुण्य छिपाओगे,
पुण्य
बढ़ेगा। अब तुम
पर निर्भर है।
गणित साफ है।
अगर तुमने पाप
छिपाया, तो
पाप बढ़ता जाता
है। वह
तुम्हारी
रंध्र-रंध्र
में मवाद की
तरह फैल जाता
है। उसकी अंतःधारा
तुम्हें पूरी
तरह ग्रसित कर
लेती है। और
पुण्य तुम
प्रगट करते हो,
वह खो जाता
है हाथ से।
पुण्य प्रगट
हुआ, ऐसे
जैसे कि सुगंध
निकल गयी फूल
से। फूल खाली
रह गया। गंध
गयी।
महावीर
कहते हैं उलटा
करो, थोड़े
समझदार बनो। छिपाओ
पुण्य को, किसी
को पता न चले।
जीसस ने कहा
है, एक हाथ
से दो, दूसरे
हाथ को पता न
चले।
प्रार्थना
करो एकांत में,
अकेले में।
अंधेरी रात
में।
तुम्हारी
पत्नी को, तुम्हारे
पति को पता न
चले। उठ गये
आधी रात, बैठ
गये अपने
बिस्तर पर, क्षणभर को उस एकांत
में परमात्मा
से अपने को जोड़ो।
भीड़-बाजार का
यह काम नहीं।
किसी को बताना
क्या है! किसी
से कहना क्या
है? कहा कि
हाथ से खो
जाएगा। कहा कि
गया। तीर निकला
धनुष से। फिर
लौटेगा नहीं।
रोको, संभालो। पुण्य को छिपाओ।
पाप को प्रगट
करो। क्योंकि
पाप छूट जाए, अच्छा।
पुण्य छिप जाए,
बीज बने, गहरे में
उतरे
तुम्हारे
अंतस्तल में
जाए, अंतरधारा बहे, तुम्हारे
रोएं-रोएं में,
रग-रग में
पुण्य की गंध
बहे, पुण्य
का आनंद बहे।
"ज्ञानमयी वायुसहित
तथा शील
द्वारा
प्रज्वलित तपोमयी
अग्नि संसार
के कारणभूत कर्मबीज
को वैसे ही
जला डालती है
जैसे वन में
लगी प्रचंड आग
तृण-राशि को
जला डालती है।' इस
ज्ञान की
अग्नि को
जलाओ। इस
ज्ञान के यज्ञ
को जलाओ। इसे
जलाना हो तो
तथ्य को तथ्य
के जैसा देखने
का साहस करो।
इसे अगर जलाना
हो तो व्यर्थ
को बाहर फेंको,
सार्थक को
भीतर संभालो।
बुरे को कहो।
कम से कम एक
आदमी तो खोज
लो, जिससे
तुम अपना पूरा
हृदय कह सको।
और शुभ को मंजूषा
में--हृदय की
मंजूषा में छिपाओ।
शुभ का सार
तुम्हारे
प्राणों में
बस जाए। और
अशुभ जैसे ही
तुम्हें पता
चले, तत्क्षण
उसे निवेदन कर
दो। गंगा में
बहा दो। तो
जन्मों का जो
कारणभूत बीज
है, जिसके
कारण हम पैदा
होते
हैं--वासना--वह
नष्ट हो जाती
है। या अहंकार,
वह नष्ट हो
जाता है। यह
शांति जिसकी
आदमी तलाश
करता है, पहाड़ों
पर न मिलेगी।
पहाड़ों की
शांति क्षणभर
का धोखा है।
यह शांति
तुम्हें भीतर
खोजनी होगी!
कितनी
शांति! कितनी
शांति!
समाहित
क्यों नहीं
होती यहां
मेरे हृदय की
क्रांति?
क्यों
नहीं
अंतर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य
वासी
अथिर
यायावर, अचिर
में चिर
प्रवासी
नहीं
रुकता, चाह
कर--स्वीकार
कर--विश्रांति?
मान
कर भी, सभी
ईप्सा, सभी
कांक्षा
जगत
की
उपलब्धियां
सब हैं लुभानी
भ्रांति।
कितनी
शांति! कितनी
शांति!
समाहित
क्यों नहीं
होती यहां
मेरे हृदय की
क्रांति?
पहाड़ों
पर जो शांति
है, बड़ी गहन
है। पहाड़ों की
है, तुम्हारी
नहीं। मंदिर
में जाकर बैठ
गये, शांति
है। मंदिर की
है, तुम्हारी
नहीं। इस
शांति से
तुम्हारे
भीतर का
उथल-पुथल, इस
शांति से
तुम्हारे
भीतर का रुदन,
इस शांति से
तुम्हारे
भीतर का
कोलाहल
समाप्त न
होगा।
समाहित
क्यों नहीं
होती यहां
मेरे हृदय की
क्रांति?
क्यों
नहीं
अंतर-गुहा का अशृंखल दुर्बाध्य
वासी
अथिर
यायावर, अचिर
में चिर
प्रवासी
नहीं
रुकता, चाह
कर--स्वीकार
कर--विश्रांति?
मान
कर भी, सभी
ईप्सा, सभी
कांक्षा
जगत
की
उपलब्धियां
सब हैं लुभानी
भ्रांति।
जानते
तो तुम भी हो।
लेकिन जानना
तुम्हारा मानने
का है।
मानकर
भी सभी ईप्सा, सभी कांक्षा
जगत
की
उपलब्धियां
सब हैं लुभानी
भ्रांति
कुछ हल
नहीं होता।
मानकर कहीं हल
हुआ है? सुनकर
मान लिया, कहीं
हल हुआ? जानना
होगा। ज्ञान!
फिर बनेगा
ध्यान। फिर
ध्यान से होगी
निर्जरा। फिर
निर्जरा से
मोक्ष।
इतना
ही फर्क है
परमात्मा में
और आदमी में
कि आदमी
व्यर्थ के बोझ
से ढंका है, जैसे हीरा कंकड़ों
में दबा, कि
सोना मिट्टी
में पड़ा। आग
से गुजर जाए, निखर जाए, कि
आदमी परमात्मा
है।
सरापा
आरजू होने ने
बंदा कर दिया
हमको
वगरना
हम खुदा थे गर
दिल-ए-बेमुद्दआ
होते
अगर
हृदय में
आकांक्षा, वासना का
बीज न होता, चाह न होती, तो हम स्वयं
ईश्वर थे। फिर
से चाह जल जाए,
हम फिर
ईश्वर हो
जाएं। चाह
हमें उतार
लायी जमीन पर।
लंगर की तरह
चाह ने हमें
जमीन से बांधा
है। ज्ञान की
अग्नि में चाह
जल जाती है।
ठीक कहते हैं
महावीर--"जैसे
प्रचंड अग्नि
में तृण-राशि
जल जाती है, ऐसा ही बीज
चाह का, तृष्णा
का जल जाता
है।' जल्दी
करो, क्योंकि
कल का कोई
भरोसा नहीं।
जलाओ इस आग
को। यह सोना
कब से
तुम्हारी
प्रतीक्षा
करता है।
जिसलिए
मैं पंख लाया
था,
वह
काम न इनसे ले
पाया।
इन
पंखों का
देनेवाला,
नाराज
न होगा क्या
मुझ पर?
पंखों
से बांध लिये
पत्थर!
फैलाओ
पंखों को। फिर
से तौलो हवाओं
पर। फिर उड़ो
आकाश की तरफ।
जिसलिए
पंख मैं लाया
था,
वह
काम न इनसे ले
पाया।
इन
पंखों का
देनेवाला,
नाराज
न होगा क्या
मुझ पर?
पंखों
से बांध लिये
पत्थर!
गिराओ
पत्थर। लेकिन
दूसरों की कही
हुई बातों से
यह न होगा।
सुना बहुत
कहते लोग, जगत माया
है। छूटती तो
नहीं! सुना
बहुत, लोग
कहते हैं
क्रोध आग है; मिटता तो
नहीं! सुना
बहुत, काम
पाप है; जाता
तो नहीं! क्या
इतने से साफ
नहीं हो रहा
कि सुना हुआ
जो है, पढ़ा
हुआ जो है; शास्त्र
से, संस्कार
से जो मिला है,
वह ज्ञान
नहीं! प्रकाश
की बातें हैं,
प्रकाश
नहीं।
पाकशास्त्र
है, भोजन
नहीं। जल का
सूत्र
होगा--एच टू
ओ--लेकिन एच टू
ओ से कहीं
प्यास किसी की
बुझी है!
कागज
पर किसी को एच
टू ओ लिखकर दे
दो, वह
प्यासा तड़फ
रहा है--वह
फेंक देगा
कागज, वह
कहेगा इसे
क्या करेंगे?
शास्त्र का
क्या करेंगे?
होगा ठीक
तुम्हारा
सूत्र, मुझे
जल चाहिए, सूत्र
नहीं। लेकिन
जल शास्त्र से
मिल भी नहीं सकता।
स्वयं से ही
मिल सकता है।
और जब तक वैसा जलस्रोत
तुम अपने भीतर
न खोज लो, प्यासे
तड़फते, जीवन के नाम
पर क्षण-क्षण
मरते ही तुम
रहोगे।
मन
में मिलन की
आस है,
दृग
में दरस की
प्यास है,
पर ढूंढता
फिरता जिसे,
उसका
पता मिलता
नहीं।
झूठे
बनी धरती बड़ी,
झूठे
बृहत आकाश हैं;
मिलती
नहीं जग में
कहीं,
प्रतिमा
हृदय के गान
की।
किसके
सामने नाचूं? किसके सामने
गीत गाऊं?
कहां चढ़ाऊं
जीवन का अर्ध्य?
कहां चढ़ाऊं
जीवन का
नैवेद्य? कहां
है वह द्वार, जो मेरे घर
का है? जो
वस्तुतः मेरे
घर का द्वार
है।
मन में
मिलन की आस है,
दृग
में दरस की
प्यास है,
पर ढूंढता
फिरता जिसे,
उसका
पता मिलता
नहीं,
बाहर
ढूंढते रहोगे, मिलेगा भी
नहीं। वह भीतर
छिपा बैठा है।
तुम्हारा
होना ही उसका
द्वार है। तुम
जरा शुद्ध होने
की कला भर सीख
लो। उसी को
महावीर ज्ञान
कहते हैं। और
घबरा मत जाना,
कितने ही
हारे होओ, कितने
ही भटके होओ, उससे तुम
दूर जाकर भी
दूर जा सकते
नहीं। उसे खोकर
भी तुम खो
सकते नहीं।
क्योंकि वह
तुम्हारा
स्वभाव है।
तृषित!
धर धीर मरु
में
कि
जलती भूमि के
उर में
कहीं
प्रच्छन्न जल
हो।
न
रो यदि आज तरु
में
सुमन
की गंध तीखी,
स्यात, मधुपूर्ण फल हो।
दुखों
की चोट खाकर
हृदय
जो कूप-सा
जितना
अधिक
गंभीर होगा;
उसी
में वृष्टि
पाकर
कभी
उतना अधिक
संचित
सुखों
का नीर होगा।
घबड़ाओ
मत! बहुत बार
ऐसा हुआ कि
महावीर और
बुद्ध जैसे पुरुषों
को देखकर बजाय
इसके कि लोगों
ने आशा के
सूत्र लिये
होते, लोग
निराश हो गये
और घबरा गये
और उन्होंने
कहा कि यह तो
कुछ ही लोगों
के वश की बात
है। यह तो महापुरुषों
की बात है।
अवतारी, तीर्थंकरों की बात है।
बुद्धों की
बात है। हम
साधारणजन! तो,
हम पूजा ही
करने के लिए
बने हैं। हम
कभी पूज्य होने
को नहीं बने।
तो हम प्रतिमा
के सामने फूल चढ़ाने को
ही बने हैं, हम कभी
परमात्मा की
प्रतिमा बनने
को नहीं बने हैं।
बड़ी
भूल हो गयी।
जिनसे आत्मविश्वास
लेना था, उनसे
हमने और दीनता
और हीनता ले
ली। उनका सारा
प्रयास यही था
कि तुम समझो
कि वे
तुम्हारे जैसे
ही पुरुष, आज
ऐसे गौरीशंकर
के शिखर जैसे
हो गये हैं।
तुम भी हो
सकते हो। देखा
कभी बड़वृक्ष
के नीचे, विराट
वृक्ष के नीचे
पड़ा छोटा-सा
बड़ का चीज! बड़ का
बीज सोच भी
नहीं सकता कि
इतना बड़ा
वृक्ष कैसे हो
सकेगा? लेकिन
हो सकता है।
उसकी संभावना
है। वैसी ही संभावना
तुम्हारी है।
बस थोड़े-से
जागने की, स्मरण
की बात है।
रे
प्रवासी, जाग!
तेरे
देश
का संवाद आया।
भेदमय
संदेश सुन
पुलकित
खगों ने
चंचु खोली;
प्रेम
से झुक-झुक
प्रणति में
पादपों
की पंक्ति
डोली;
दूर
प्राची की तटी
से
विश्व
के तृणत्तृण
जगाता;
फिर
उदय की वायु
का वन में
सुपरिचित
नाद आया
रे
प्रवासी, जाग!
तेरे
देश
का संवाद आया।
ये
जिन-सूत्र
तुम्हारे देश
की खबरें हैं।
रे
प्रवासी, जाग!
तेरे
देश
का संवाद आया।
महावीर
और बुद्ध डाकिया
हैं। चिट्ठीरसा।
खबरें लाते
हैं परमात्मा
की। तुम चिट्ठियों
को संभालकर
छाती पर मत रख
लेना। खोलो
और उनका अर्थ खोलो। खोलो
चिट्ठियों
को। उनका सार
समझो। ये चिट्ठियां
पूजने के लिए
नहीं हैं। ये चिट्ठियां
शास्त्र बना
लेने के लिए
नहीं हैं। ये चिट्ठियां
जीवन बनाने के
लिए हैं।
रे
प्रवासी, जाग!
तेरे
देश
का संवाद आया।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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