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शुक्रवार, 23 मई 2014

जिन सूत्र--(भाग--2) प्रवचन--08

प्रेम है द्वार—प्रवचन—आठवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्‍नसार:

1—महावीर ने आत्‍मा को समय क्‍यों कहा? समय और आत्‍मा में क्‍या संबंध है?

2—पत्‍नी मूर्ति पूजक। पति का ध्‍यान के लिए आग्रह तथा मूर्ति पूजा को व्‍यर्थ बताना। उदाहरण में पत्‍नी द्वारा मीरा जैसी मूर्तिपूजक का प्रमाण पति का निरूतर होना। यथार्थता पर प्रकाश डालने के लिए भगवान से निवेदन।

3—किसी का सहारा पकड़ने, किसी के प्रेम के साये में बैठने का ख्‍याल; लेकिन वैसा न होने पर भी संतोष ही  कि कम से कम अपना दुःख और किसी की उपेक्षा तो साथ है। ऐसा क्‍यो?


पहला प्रश्न:

महावीर ने आत्मा को समय क्यों कहा? कृपाकर बतायें कि समय और आत्मा में क्या संबंध है?

लबर्ट आइंस्टीन ने अस्तित्व के संघटक तत्व दो माने हैं। टाइम और स्पेस। समय और क्षेत्र। और फिर बाद में जैसे-जैसे आइंस्टीन की खोज गहरी होती गयी, उसे यह भी प्रतीत होने लगा कि इन दो तत्वों को दो कहना ठीक नहीं है। इसलिए फिर उसने दोनों के लिए एक ही शब्द चुन लिया: स्पेसियोटाइम। समय-क्षेत्र।
क्षेत्र बाहर है, समय भीतर है।
जीवन को अगर हम ठीक से समझें, तो हमें होने के लिए दो चीजें चाहिए। कोई जगह चाहिए होने के लिए। हम कुछ जगह घेरेंगे। तुम यहां बैठे हो, तो तुमने थोड़ी जगह घेरी। वही है क्षेत्र, आकाश, स्पेस। लेकिन उतना काफी नहीं है। अगर उतना ही हो, तो तुम वस्तु हो जाओगे। फिर तुममें और टेबल और कुर्सी में कोई फर्क न रहेगा। टेबल और कुर्सी ने भी जगह घेरी है। जैसी तुमने जगह घेरी। तुम जिस फर्श पर बैठे हो, उसने भी जगह घेरी है। जैसी तुमने जगह घेरी है।
फिर तुममें और पत्थर में फर्क क्या है?
तुमने कुछ और भी भीतर घेरा है, वही समय है। पत्थर के लिए कोई समय नहीं है, कुर्सी के लिए कोई समय नहीं है। मनुष्य के लिए समय है। पशु-पक्षियों के लिए थोड़ा-सा बोध है समय का, बहुत ज्यादा बोध नहीं है। वृक्षों को और भी कम बोध है समय का। मनुष्य को बहुत बोध है समय का। तुम कहीं हो स्थान में, और कहीं हो समय में। इन दोनों रेखाओं का जहां कटने का बिंदु है, वहीं तुम्हारा अस्तित्व है।
तो हम पदार्थ को कह सकते हैं स्पेस। क्योंकि वह सिर्फ क्षेत्र घेरता है। और चेतना को कह सकते हैं समय। चेतना और पदार्थ से मिलकर जगत बना। वस्तुएं हैं, उन्हें अपने होने का कोई पता नहीं। और जैसे ही हमें अपने होने का पता चलता है, वैसे ही समय का भी पता चलता है। हमारा होना अंतर्तम में समय की घटना है।
तो एक तो हम इस तरह समझ सकते हैं आधुनिक भौतिकी के आधार पर कि आइंस्टीन ने जिस भांति अंतर-आकाश को समय कहा, वैसे ही महावीर ने भी आत्मा को समय कहा है। और जब मैं अलबर्ट आइंस्टीन का नाम लेता हूं महावीर के साथ, तो और भी कारण है। दोनों की चिंतनधारा एक-जैसी है। महावीर ने अध्यात्म में सापेक्षवाद, रिलेटीविटी को जन्म दिया और आइंस्टीन ने भौतिक विज्ञान में रिलेटीविटी को, सापेक्षवाद को जन्म दिया। दोनों का चिंतन-ढंग, दोनों के सोचने की पद्धति, दोनों का तर्क एक-जैसा है। अगर इस दुनिया में दो आदमियों का मेल खाता हो बहुत निकट से, तो महावीर और आइंस्टीन का खाता है। महावीर का फिर से अध्ययन होना चाहिए, आइंस्टीन के आधार पर। तो महावीर में बड़े-बड़े नये तरंगों का, नये उद्भावों का जन्म होगा। जो हमें महावीर में नहीं दिखायी पड़ा था, वह आइंस्टीन के सहारे दिखायी पड़ सकता है। महावीर और आइंस्टीन में जैसे धर्म और विज्ञान मिलते हैं। जैसे महावीर धर्म के जगत के आइंस्टीन हैं, और आइंस्टीन विज्ञान के जगत का महावीर है। एक।
दूसरी बात, समय शब्द टाइम शब्द से ज्यादा बहुमूल्य है। टाइम का तो सिर्फ इतना ही अर्थ होता है, जितना काल का होता है। टाइम का ठीक अनुवाद करना हो तो समय नहीं करना चाहिए, काल। काल का अर्थ होता है, जो बीत रहा है। काल का अर्थ होता है, जो जा रहा है। समय का अर्थ होता है, जो थिर है। समता से बना है, सम्यकत्व से बना है समय। संतुलन से बना है। संबोधि से बना है। जो मूल धातु संबोधि में है, सम्यकत्व में है, समता में है, समाधि में है, वही मूल धातु समय में है। इसलिए "टाइम' का ठीक-ठीक अनुवाद समय नहीं है। और समय का ठीक अनुवाद "टाइम' नहीं है।
समय बड़ा बहुमूल्य शब्द है। काल तो केवल इसकी एक भाव-भंगिमा है। काल से ज्यादा छिपा है समय में। अगर समय को जानना हो, तो सम्यकत्व को उपलब्ध होना पड़ेगा। इतने शांत हो जाना पड़ेगा कि जहां कोई विचार की तरंग न रह जाए। तब तुम्हें पहली दफे पता चलेगा, तुम किस धातु से बने हो। तब तुम्हें पता चलेगा तुम कौन हो। समता की आखिरी घड़ी में ही तुम्हें अपने समय का बोध होगा। इसलिए महावीर ने आत्मा को समय कहा। समता की अनुभूति।
कृष्ण ने कहा है, समत्व योग है। समत्व को ही योग कहा है। इतने सम हो जाओ तुम कि द्वंद्व के जगत के पार हो जाओ।
साधारणतः हम बंटे हैं। साधारणतः हमारा चुनाव है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है। आत्मा न स्त्री है, न पुरुष। इसलिए समय है। आत्मा का जो अनुभव है, वहां न तो तुम स्त्री रह जाओगे, न पुरुष। दोनों द्वंद्व गये। तुम दोनों द्वैत के पार हुए--अद्वैत हुए। जिस क्षण तुम्हें पता चलेगा तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का, उस क्षण न तुम स्त्री होओगे, न पुरुष। उस क्षण तुम न जवान होओगे, न वृद्ध। उस समय तुम न गोरे होओगे, न काले। उस क्षण तुम न स्वस्थ होओगे, न अस्वस्थ। सब द्वंद्व गया, समता आयी। उस क्षण न तुम सुखी होओगे, न दुखी। उस क्षण न रात होगी, न दिन। उस क्षण न जन्म होगा, न मृत्यु। उस क्षण गये सारे द्वंद्व। उस क्षण बस निर्द्वंद्व-भाव शेष रहा। इसलिए महावीर ने आत्मा को समय कहा। समता, सम्यकत्व
ऐसा गहरा सम्यकत्व कि जहां अतिक्रमण हो जाता है। विपरीत के चक्के से छूटना हो जाता है।
और इसीलिए महावीर ने ध्यान को सामायिक कहा। सामायिक है समय तक पहुंचने का उपाय। सामायिक है सम्यकत्व तक पहुंचने की विधि। धीरे-धीरे डूबो और शांत बनो। जैसे-जैसे शांत बनोगे, जैसे-जैसे तरंगें कम होंगी, वैसे-वैसे भीतर का स्वाद आना शुरू होगा।
महावीर ने बहुत सोचकर ही समय नाम दिया आत्मा को। उसका वैज्ञानिक अर्थ भी है, उसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। वैज्ञानिक अर्थ तो मैंने कहा, जो आइंस्टीन का अर्थ है, वही महावीर का है। और आध्यात्मिक अर्थ मैंने कहा, जो कृष्ण का अर्थ है--योग को सम्यकत्व कहने का, समत्व कहने का--वही महावीर का अर्थ है।

दूसरा प्रश्न:

मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे ध्यान करने को कहता हूं और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है। पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी। मेरे पास इसका जवाब नहीं है। कृपया बतायें कि यह बात कहां तक ठीक है, और यह कि पत्नी को कैसे समझाऊं?

नुष्य को सदा एक पागलपन सवार रहता है। जो मैं मानता हूं, वह दूसरा भी माने। जो मैं मानता हूं, वही ठीक है। जो दूसरा मानता है, वह गलत है। यह अहंकार की ही घोषणा है।
महावीर ने कहा है, दूसरा भी ठीक है।
मैं ही ठीक हूं, ऐसी धारणा निर्बुद्धिपूर्ण है। फिर अगर तुम्हारी पत्नी को मूर्तिपूजा में आनंद मिल रहा है, तो तुम बाधा डालनेवाले कौन? तुम्हें प्रयोजन क्या? सिर्फ पति होने के कारण? तुम्हें अड़चन मालूम हो रही है कि पत्नी पर पूरा कब्जा नहीं है। मैं ध्यान करता हूं, पत्नी मूर्तिपूजा करती है! तुम्हें ध्यान में रस आ रहा है, ध्यान करो। पत्नी को मूर्तिपूजा में रस आ रहा है, मूर्तिपूजा करने दो।
रस असली बात है। रसो वै सः। उस परमात्मा का स्वभाव रस है। कैसे रस मिलता है, यह बात गौण है। आम खाने हैं या गुठलियां गिननी हैं?
लेकिन लोग गुठलियों का ढेर लगाये बैठे हैं। उसी को वे दर्शनशास्त्र कहते हैं। आम खाना तो भूल ही गये। तुम्हारी पत्नी तुमसे बेहतर है। कम से कम यह तो नहीं कहती कि तुम ध्यान छोड़ो। तुमसे ज्यादा समतावान है। पत्नियां अकसर ऐसी होतीं नहीं, तुम सौभाग्यशाली हो। पत्नियां इतनी आसानी से कब्जा नहीं छोड़तीं। मेरे पास जो मामले आते हैं, दस मामलों में नौ पत्नियों के होते हैं कि वे पतियों पर जबर्दस्ती करती हैं। एक पति का होता है कि वह पत्नी पर जबर्दस्ती करता है।
इस दृष्टि को छोड़ो। स्वतंत्रता प्रेम का अनिवार्य लक्षण है। अगर तुम पत्नी को प्रेम करते हो, चाहते हो, उसका शुभ चाहते हो, मंगल चाहते हो, तो उसे स्वतंत्रता दो। हालांकि तुम्हारा मन यही कहेगा, मंगल चाहते हैं इसीलिए तो ध्यान करवा रहे हैं। तुम्हारा मन कहेगा, मंगल चाहते हैं इसीलिए तो मूर्तिपूजा से छुटकारा दिला रहे हैं, नहीं तो कौन फिजूल मेहनत करता! उसके ही हित में! लेकिन उसका हित वही निर्णय कर सकेगी, तुम न निर्णय कर सकोगे।
बड़ा कठिन है दूसरे के स्थान पर खड़े होकर दूसरे की स्थिति को देखना। वह सबसे बड़ी कला है। तुम स्त्री होकर देखो। तब तुम्हें समझ में आयेगा कि ध्यान और मूर्तिपूजा का फर्क क्या है? मूर्तिपूजा--पूजा का भाव ही स्त्रैण-ध्यान है। वह स्त्री का ढंग है ध्यान करने का। स्त्री ध्यान भी करे, तो वह प्रार्थना से भिन्न नहीं हो सकता। प्रेम उसका स्वभाव है। पुरुष के लिए प्रेम और बहुत-सी चीजों में एक घटना है। स्त्री के लिए प्रेम उसका सब-कुछ है। पुरुष चौबीस घंटे में कुछ क्षण प्रेमपूर्ण होता है, लेकिन प्रेम सब कुछ नहीं है। और भी बहुत कुछ है पुरुष को करने को। स्त्री के लिए प्रेम सब-कुछ है, उसका सर्वस्व है। ध्यान की बात तो स्त्री को जमेगी ही नहीं। वह ध्यान भी करेगी तो नाम ही ध्यान रहेगा, होगी प्रार्थना। ध्यान में भी आंसू बहेंगे। ध्यान में भी रस उमगेगा। ध्यान में भी मूर्ति प्रविष्ट हो जाएगी। ध्यान में भी परमात्मा रूप धर लेगा। स्त्री के पास रूप देने की कला है।
इसलिए तो गर्भ है उसके पास।
निराकार आत्मा उतरती है और स्त्री के गर्भ में रूप ले लेती है। मूर्ति का जन्म हो जाता है। पुरुष के पास वैसी क्षमता नहीं है। वह निराकार को आकार बनाने में कुशल नहीं है। वह निराकार को आकार देने में समर्थ नहीं है। स्त्री की बड़ी सामर्थ्य है। उसके पास कुछ है, जिससे निराकार आकार बन जाता है। सामान्य जीवन में भी आत्मा प्रविष्ट होती है और देह धरकर बाहर आती है। जब प्रविष्ट होती है आत्मा स्त्री के गर्भ में, तब अरूप होती है। निराकार होती है। स्त्री उसे रूप देती है। आकार देती है, रेखाएं देती है। देह देती है।
तो स्त्री के अस्तित्व में ही देह देने का ढंग छिपा हुआ है। अगर वह ध्यान भी करेगी, तो उसके गर्भ में भगवान रूप ले लेंगे। वह उसके देखने का ढंग है। पुरुष को समझ में नहीं आता कि क्या पत्थर की मूर्ति के सामने बैठकर पूजा कर रही हो! पत्थर की मूर्ति तुम्हें है। जिसकी आंखें प्रेम से गीली हैं, उसके लिए पत्थर की मूर्ति मुस्कुराती है, गाती है, गुनगुनाती है। बातचीत चलती है। ऐसा ही नहीं कि स्त्री ही बोलती है, परमात्मा भी उससे उसी ढंग से बोलता है। सच तो यह है कि अगर स्त्री ठीक प्रार्थना में हो तो कम ही बोलती है। रूठ-रूठ जाती है, परमात्मा मनाता है।
तुम उसे न समझ पाओगे। जरूरत भी तुम्हें समझने की नहीं है। तुम्हारा मार्ग ध्यान है। पुरुष का मार्ग ध्यान है। तुम अगर प्रार्थना भी करोगे, तो भी तुम्हारा आकर्षण ध्यान की तरफ लगा रहेगा। तुम प्रार्थना भी ध्यान के लिए ही करोगे। तुम चाहोगे कि किसी तरह विचार से छुटकारा हो जाए, किसी तरह यह सब तरंगें समाप्त हों--निस्तरंग हो जाऊं! स्त्री कहती है, कैसे यह सब तरंगें रसपूर्ण हो जाएं। निस्तरंग होने की कोई आकांक्षा नहीं है। तुम्हारी आकांक्षाएं अलग हैं। होनी ही चाहिए। पुरुष और स्त्री बड़े विपरीत हैं। इसीलिए तो उनमें आकर्षण है। विपरीत में आकर्षण होता है, खिंचाव होता है। इसीलिए तो पुरुष स्त्री पर आसक्त है, स्त्री पुरुष पर आसक्त है। अगर बिलकुल एक जैसे होते तो आकर्षण टूट जाता। विपरीत खींचता है। लेकिन इस विपरीतता को समझना चाहिए।
स्त्री तोड़ने की कोशिश करती है पति को कि वह भी उसी के ढंग से चले, पति तोड़ने की कोशिश करता है स्त्री को कि वह भी उसके ढंग से चले। यहीं भ्रांति हो जाती है, यहीं गलती हो जाती है। यहीं महावीर को समझना बड़ा उपयोगी है। महावीर ने जो दृष्टि दी है, वह है स्यातवाद। वे कहते हैं, दूसरा भी ठीक होगा। होना चाहिए। नहीं तो दूसरा टिका क्यों रहेगा उस पर? मूर्ति इतने दिन से मिटायी जाती रही है, फिर भी बनी है। कितनी मूर्तियां तोड़ी गयीं, फिर-फिर बन जाती हैं। जब तक स्त्री है, मूर्ति टूट नहीं सकती। कोई उपाय नहीं। स्त्री को ही तोड़ डालो, तो बात अलग। उस दिन मूर्ति टूट जाएगी। लेकिन स्त्री को तोड़कर तुम भी न बचोगे।
पुरुष के धर्म मूर्ति-विरोधी हैं। स्त्री का धर्म रूप का, रंग का, रस का, उत्साह का, उत्सव का। पुरुष का धर्म त्याग का, तपश्चर्या का, संकल्प का, संघर्ष का। स्त्री का धर्म समर्पण का, शरणागति का। स्त्री ने चाहा नहीं निराकार को कभी, स्त्री को तो समझ में भी नहीं आता कि निराकार को चाह कर करोगे क्या? जिससे छाती न लग सको, जिसे भर-आंख देख न सको, जिसके हाथ में हाथ न दे सको, जिसे सुन न सको, जिससे बोल न सको, ऐसे निराकार के होने में और न होने में क्या फर्क है? निर्गुण को क्या करोगे? खाओगे, पीओगे, ओढ़ोगे, बिछाओगे--क्या करोगे?
नहीं, स्त्री की तो प्रार्थना है कि तुम सगुण होकर आना। तुम रूप धरकर आना, ताकि तुम्हें देख तो सकूं। आंखें जन्मों-जन्मों की प्यासी हैं। तुम बोलना, ताकि तुम्हारा संगीतपूर्ण स्वर मेरे सोये प्राणों को जगा सके। तुम आना, मुझे सहलाना; तुम आना, मेरे साथ नाचना।
तुम स्त्री को बाधा मत दो। बाधा देना अधार्मिक है। अगर उसे रस मिल रहा है, ठीक। अगर तुम्हारी समझ में नहीं पड़ता, तो तुम्हें समझने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें जिसमें रस मिल रहा है, ठीक! रस ही असली बात है। रस है मापदंड। रस न मिल रहा हो, तो सोचने की जरूरत है। और मुझे लगता है, तुम्हारी स्त्री को तुमसे ज्यादा रस मिल रहा है। तुम्हें पूरा रस नहीं मिल रहा। तुम्हारा ध्यान ठीक नहीं उतर रहा। क्योंकि जब खुद का ध्यान ठीक उतरता है, कौन फिकिर करता है? तुम्हें अड़चन है। तुम दूसरे के सामने सिद्ध करना चाहते हो कि मेरा ध्यान बड़ा बहुमूल्य है। तुम तर्क और प्रमाण, विवाद खड़ा करना चाहते हो। इस तरह दूसरे को तुम राजी करके अपनी आंखों के सामने यह भाव बनाना चाहते हो कि नहीं, तुम्हारी बात ठीक होनी ही चाहिए। देखो पत्नी ने भी मान लिया।
लेकिन यह मनवाना खतरनाक है। उसे चलने दो उसकी राह पर। दूसरे की सहमति आवश्यक कहां है? तुम अपने ध्यान में डूबो, उसे अपनी प्रार्थना में डूबने दो। डूब-डूबकर तुम एक दिन पाओगे कि तुम एकऱ्ही गहराई में पहुंच गये हो। वहां तुम्हारा मिलन होगा, वहां तुम अपनी पत्नी को फिर नये रूप में पाओगे। वहां तुम देखोगे, अरे! प्रार्थना भी वहीं ले आयी, पूजा भी वहीं ले आयी, ध्यान भी वहीं ले आया। सभी मार्ग वहीं ले आते हैं। अंतर यात्रा-पथों का है, मंजिल का नहीं है।
दूसरे को समझने की, दूसरे की स्थिति को समझने की करुणा दिखानी चाहिए। तर्क बड़ा कठोर है। प्रेम बड़ा करुणापूर्ण है। अगर तुम अपनी पत्नी को चाहते हो, तो तुम यही चाहोगे कि वह सुख को पाये, आनंद को पाये, महासुख की यात्रा पर जाए। प्रभु उसे मिलें। फिर जिस ढंग से उसने चाहा हो, वैसे मिलें। और परमात्मा उसी ढंग से मिल जाता है, जिस ढंग से तुम उसे खोजते हो। वह तुम्हारे ढंग से तुम्हारे पास आ जाता है। हजार रूप हैं उसके। अरूप भी वही है। संकल्प से भी मिल जाता है। समर्पण से भी मिल जाता है। सत्य बेशर्त है। उसकी कोई शर्त नहीं कि ऐसे आओगे, तो ही मिलूंगा। आओ, बस आओ। किस रास्ते से आते हो, पूरब कि पश्चिम, कि उत्तर कि दक्षिण, नहीं कोई भेद पड़ता। नाचते आते, गीत गाते आते, कि मौन आते, नहीं फर्क पड़ता।
मीरा वहीं पहुंच गयी, जहां महावीर पहुंचे। और अगर चुनना ही हो, तो मीरा का मार्ग ज्यादा रसपूर्ण है। वहां बहुत फूल खिले हैं। महावीर का मार्ग तो मरुस्थल जैसा है। सूखा। मरुस्थल का भी सौंदर्य है। मरुस्थल की भी विराटता है। मरुस्थल का भी विस्तार है। सन्नाटा है। मरुस्थल की शांति है। लेकिन फूलों से लदे वृक्षों के नीचे से गुजरने का भी अपना सौंदर्य और अपना आनंद है। मीरा नाचती हुई पहुंची। महावीर ठहरकर पहुंचे, मीरा नाचकर पहुंची। महावीर रुककर पहुंचे, मीरा दौड़कर पहुंची। लेकिन जो घटा वह बिलकुल एक है।
तुम्हें जो उचित लगता हो, चलो। न तो दूसरे को मौका दो कि तुम्हारे मार्ग पर बाधा दे और न तुम ऐसी कुछ कोशिश करो कि किसी के मार्ग पर बाधा पड़े। तुम्हें कैसे पता चला कि मूर्तिपूजा ठीक नहीं है? तुमने मूर्तिपूजा की? अगर की होती, तो पता चलता। की ही नहीं, तर्कजाल बिठाये बैठे हो। मूर्तिपूजा का तर्कजाल से कुछ लेना-देना नहीं है। मूर्तिपूजा तो रस का अनुबंध है। प्रेम का अनुबंध है। स्त्री तो सपनों में जीती है। मगर उसकी शक्ति इतनी है कि सपनों को साकार कर लेती है। जाने दो, उसे विदा दो खुशी के साथ कि तू अपने मार्ग पर जा।
"मेरी पत्नी मूर्तिपूजा करती है, लेकिन मैं उसे ध्यान करने को कहता हूं।' बंद करो ऐसा कहना! तुम कौन हो? पति होने से तुम उसकी आत्मा के मालिक नहीं हो। यह जो सात फेरे पड़े होंगे, इनसे एक सांसारिक रिश्ता बन गया है, लेकिन उसकी आत्मा को तुमने खरीद नहीं लिया। मुक्त करो उसे। उसे जाने दो अपने मार्ग पर। उसे चुनने दो अपनी विधि, अपना विधान। उसके हृदय को बहने दो।
"और कहता हूं कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है।' भूलकर ऐसी बात मत कहना। किसी को उसके रास्ते से व्यर्थ ही भटकाना मत। अगर व्यर्थ होगी, तो एक दिन उसे समझ में आयेगी बात, तब वह रूपांतरित होगी। कोई किसी दूसरे के समझाये कहीं समझा है? अपने अनुभव से ही लोग जागते हैं। अगर सार्थक होगी, तो पहुंच जाएगी। अगर व्यर्थ होगी, तो आज नहीं कल, भटककर लौट आयेगी। जब तुमसे पूछे कि समझाओ मुझे ध्यान, क्योंकि मूर्तिपूजा तो मेरी व्यर्थ हुई, तब निवेदन कर देना। लेकिन तब तक प्रतीक्षा करना, धैर्य रखना। जिस दिन पूछे तुमसे, जिस दिन तुम्हारा आनंद उसे छुए और उसे लगे कि तुम तो कुछ पा लिये और मैं कुछ चूक गयी हूं, उस दिन समझा देना।
गुरु बनने की चेष्टा मत करो। जिस दिन कोई शिष्य बनकर आ जाए, उस दिन अपना सत्य निवेदन कर देना। तब भी तुम यह मत कहना कि मूर्तिपूजा गलत है। तब तुम इतना ही कहना कि ध्यान सही है। इनमें फर्क है। क्योंकि तुम इतना ही कह सकते हो कि मैंने ध्यान किया और पाया कि सही है। मूर्तिपूजा मैंने कभी की नहीं, तो मैं कौन? मैं कैसे कहूं, गलत या सही? कुछ भी कह सकता नहीं। ध्यान मैंने किया है और पाया है कि सही है। अगर तेरी मूर्तिपूजा का रास्ता तुझे न पहुंचाता हो, तो यह मेरे ध्यान के सूत्र हैं, यह निवेदन है। लगे तुझे ठीक, चल पड़। न लगे ठीक, तेरी मर्जी। फिर भी थोपना मत। सत्य थोपे नहीं जाते।
सत्याग्रह शब्द बिलकुल गलत है। सत्य का कोई आग्रह होता ही नहीं। सत्य का सिर्फ निवेदन होता है। सत्य की तो आग्रह के साथ अगर तुमने गांठ बांध दी, तो आग्रह जीत जाएगा, सत्य मर जाएगा। सत्य की फांसी लग जाती है सत्याग्रह में। आग्रह? महावीर ने कहा है, निराग्रह। जो निराग्रह-भाव को उपलब्ध होता है, वही सत्य को उपलब्ध होता है। सब आग्रह छोड़ो। जगत बड़ा है, विराट है। तुमने सब रास्ते नहीं नाप लिये हैं और न सभी सागरों की गहराई ही छुई है। और तुम सभी घाटों से उतरे नहीं, और तुमने सभी नावों से यात्रा नहीं की है। तुम इतना ही कह सकते हो कि मेरी नाव ने पहुंचा दिया। दूसरी नावें पहुंचाती हैं, नहीं पहुंचाती हैं, मैं कैसे कहूं? जो चले हों उन नावों से, पूछो उनसे।
महावीर कहते हैं खुद, कि मैं एक तीर्थ बनाता हूं। तीर्थ का अर्थ होता है, घाट। नदी बड़ी है। बड़ी गंगा है। गंगोत्री से सागर तक फैली है। हजारों-लाखों घाट हैं। महावीर कहते हैं, मैं एक घाट बनाता हूं। एक तीर्थ बनाता हूं। इसीलिए तीर्थंकर शब्द। वह यह नहीं कहते कि दूसरे घाट गलत हैं। वह कहते हैं, इतना ही मैं कहता हूं कि मेरे घाट से मैं पहुंचा, तुम भी पहुंच सकते हो। अगर मेरा घाट तुम्हें आकर्षित करता हो, अगर मेरे घाट में तुम्हें कोई लुभावना निमंत्रण मिलता हो, आ जाओ, मेरी नाव तैयार है। महावीर तो एक माझी हैं। नाव लिए तैयार खड़े हैं, जिनको उतरना हो इस घाट से, इससे उतर जाएं। लेकिन महावीर कहते हैं, नदी बड़ी है, घाट और भी हैं। और औरों से भी लोग उतरे ही होंगे, अन्यथा घाट टूट गये होते, बंद हो गये होते, समाप्त हो गये होते। अगर कोई कभी न उतरा होता, अगर उन घाटों से चलकर लोग डूबते ही रहे होते और दूसरा किनारा मिलता ही न होता, तो घाट समाप्त हो गये होते।
इतने धर्म हैं जगत में, क्योंकि सभी धर्मों में सत्य का कोई अंश है। सभी किसी न किसी तरह किसी न किसी को पहुंचाते रहे, अन्यथा उनके होने का अर्थ खो जाए। असत्य जी नहीं सकता। थोड़ी-बहुत देर शोरगुल मचा सकता है, मर जाएगा। सत्य ही जीता है। सत्य ही जीतता है। सत्यमेव जयते
मूर्तिपूजा व्यर्थ है, ऐसा तो कहना ही मत। इससे तुम्हारा क्रोध तो मालूम पड़ता है, प्रेम नहीं मालूम पड़ता। इससे तुम्हारी हिंसा तो मालूम पड़ती है, तुम्हारी करुणा नहीं मालूम पड़ती। इससे ऐसा तो लगता है कि तुम पत्नी को दबाने को उत्सुक हो, अपने पीछे चलाने को उत्सुक हो, छाया बनाने को उत्सुक हो, उसको तुम आत्मा की स्वतंत्रता देने को तैयार नहीं। और प्रेम, कैसा प्रेम, जो इतनी भी स्वतंत्रता न दे! पूजा, प्रार्थना, ध्यान तो बड़ी आत्यंतिक बातें हैं। इससे पति-पत्नी का कुछ लेना-देना नहीं।
दुनिया जब अच्छी होगी, तो स्वतंत्रता और गहन होगी--पत्नी हो सकता है मस्जिद जाए, पति हो सकता है मंदिर जाए। बेटे हो सकता है कहीं भी न जाएं, ध्यान करें और कोई किसी को बाधा न दे। जिसको जहां ठीक लगे। किसी को कुरान से रस मिल जाता है, रसधार बहती है, बहे। रसधार ही असली बात है। कोई गीता में डूब जाता है, डूबे। डूबना ही असली बात है। कोई महावीर के साथ चल पड़ता है; कोई मीरा के साथ नाचता है, नाचे, चले। एक ही बात ध्यान में रहे, रूपांतरण हो रहा? तुम रससिक्त हो रहे? तुम्हारे प्राण मधु से भर रहे? तुम्हारे प्राण मधुमय हो रहे? तुम डूब रहे? तुम नाच रहे? तुम शांत, आनंदित हो रहे? बस। और ऐसा भी जब हो, तब भी दूसरे पर थोपना मत।
एक बात स्मरण रखना, स्वतंत्रता थोपी नहीं जा सकती। तो मोक्ष तो कैसे थोपा जा सकता है! अगर कोई व्यक्ति अपनी ही मर्जी से नर्क भी जाए, तो भी प्रसन्न होगा। और अगर जबर्दस्ती स्वर्ग में भी धका दिया जाए, तो भी अप्रसन्न होगा। जबर्दस्ती में अप्रसन्नता है। नर्क भी अपनी ही मर्जी से चुना हो, तो स्वतंत्रता है। स्वर्ग भी जबर्दस्ती मिल जाए--कि पुलिसवाले हथकड़ी डालकर तुम्हें स्वर्ग ले जाएं, तब तो तुम्हें स्वर्ग भी नर्क हो जाएगा। स्वर्ग वहीं है जहां स्वतंत्रता है। जहां परतंत्रता है, वहीं नर्क है। किसी के लिए नर्क खड़ा मत करना। पत्नी तुम पर निर्भर है, आर्थिक रूप से निर्भर है। पत्नी तो ऐसे है जैसे वृक्ष पर छायी हुई लता हो, वृक्ष पर निर्भर है। वृक्ष हट जाए तो लता जमीन पर गिर जाए। उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत है। इस सहारे को शोषण मत बनाना। इस सहारे के आधार पर उसको चूसने मत लगना, उसकी आत्मा को नष्ट मत करने लगना।
"पत्नी उत्तर देती है कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी।'
ठीक ही उत्तर देती है। और बेचारी कहे भी क्या? तुम ज्यादा तर्क-कुशल होओगे, तुम ज्यादा सिद्धांत की बकवास कर सकते होओगे, वह इतना ही निवेदन कर सकती है कि मुझे कुछ और तो पता नहीं, लेकिन क्या तुम कहते हो कि मीरा को परमात्मा नहीं मिला? और अगर मीरा को मूर्तिपूजा से मिल गया, तो मुझे क्यों न मिलेगा? वह एक छोटा-सा निवेदन कर रही है कि बख्शो मुझे, छोड़ो मुझे! निश्चित ही मीरा को भी परमात्मा मिला। मूर्तिपूजा से ही मिला। मूर्तिपूजा और न पूजा का थोड़े ही सवाल है, जहां तुम अपने हृदय को उंडेल देते हो, वहीं से मिल जाता है। तुम पत्थर पर उंडेल दो हृदय को, वही पत्थर परमात्मा हो जाता है।
परमात्मा कहीं कोई बैठा थोड़े ही है? तुम अपना जीवन-दान देकर उसे सृजन करते हो। परमात्मा मनुष्य का सृजन है। वह तुम्हारी सृष्टि है। ऐसा थोड़े ही है कि तुम गये और मिल गया। कि कहीं किसी पहाड़ की कंदरा में छिपा बैठा है, कि आसमान में चांदत्तारों पर बैठा है, कि तुम्हें खोजना है जरा। खोजना नहीं है, निर्मित करना है। परमात्मा तो नृत्य-जैसा है। इसलिए मुझे प्रीतिकर लगता है हिंदुओं का यह खयाल कि उन्होंने शिव को नटराज कहा।
परमात्मा नर्तक जैसा है। अगर तुम्हें नृत्य खोजना हो, तो तुम जंगल में खोजोगे? नृत्य खोजना हो तो नाचना सीखो। नृत्य कहीं रखा हुआ थोड़े ही मिलेगा। किसी तिजोरी में बंद थोड़े ही है। नृत्य तो तुम नाचोगे तो होगा। और जब तक तुम नाचते रहोगे, तब तक रहेगा। नाच बंद हुआ कि नृत्य बंद हुआ। नृत्य गया। तुम ऐसा नहीं कह सकते कि आज नाच लिये, यह देखो हमारी मुट्ठी में नाच रखा है। नाचोगे, बस उतनी ही देर रहता है। जितनी देर नाचे, नृत्य। जितनी देर नहीं नाचे, नाच खो गया।
परमात्मा नृत्य जैसा है। नटराज! तुम जब ध्यान में हो, तब होता है। जब तुम ध्यान के बाहर हो गये, खो गया। जब तुम प्रार्थना में होते हो, तब होता है। जब तुम प्रार्थना के बाहर हो गये, खो गया। इसीलिए तो मैं कहता हूं, प्रार्थना हो या ध्यान, तुम्हारी सहज चर्या बने। चौबीस घंटे तुम्हारा वातावरण बने। तो ही परमात्मा को तुम पा सकोगे, नहीं तो न पा सकोगे।
प्रतिपल उसे जन्म देना पड़ता है, तो ही परमात्मा तुम्हारे हाथ में होता है। परमात्मा सृजनात्मकता है। तुम सृजन करो, तो मिलता है। औरों ने कहा है, परमात्मा स्रष्टा है, मैं तुमसे कहता हूं कि तुम स्रष्टा हो। और तुम परमात्मा को जन्म दोगे, तो होगा। परमात्मा प्रथम नहीं है; तुम्हारे जीवन की श्रेष्ठतम ऊंचाई और गहराई में है; परमात्मा अंतिम है। परमात्मा कारण नहीं है जगत का, जगत की नियति है। जहां पहुंचना चाहिए सभी को। जैसा होना चाहिए सभी को। वह फूल है, आखिरी खिला हुआ फूल। उससे ऊपर फिर कुछ भी नहीं।
तो अगर कोई प्रार्थना से खुल रहा है, खिल रहा है, सुगंधित हो रहा है, खुश होओ। ठीक कहती है पत्नी, कि मीरा भी तो मूर्तिपूजा करती थी। मीरा के पति को भी ऐसी ही अड़चन थी, जैसी तुमको है। पुरुष को प्रार्थना जमती नहीं। पुरुष को थोड़ी गड़बड़ मालूम होती है, वह तर्क उसकी पकड़ में नहीं आता। आ नहीं सकता। उसको दो और दो चार होते हैं, यह तो समझ में आता है, गणित उसके लिए सीधी भाषा है, काव्य उसको समझ में नहीं आता। इसलिए स्त्री और पुरुष एक दूसरे को समझ नहीं पाते। तुम अभी तक अपनी पत्नी को समझ पाये? इतने वर्ष साथ रह लिये! कह सकते हो हिम्मत से कि समझ गये? मुश्किल है। न पत्नी तुम्हें समझ पाती है।
जब पति और पत्नी बात करते हैं, तो तुम समझो कि बात होती ही नहीं। एक कुछ कहता है, दूसरा कुछ सुनता है। एक-दूसरे के तर्क समानांतर चलते हैं, कहीं मिलते नहीं। क्योंकि दोनों के देखने के ढंग बड़े भिन्न हैं। पत्नी तार्किक है ही नहीं। वह एक-एक सीढ़ी कदम-कदम रखकर तर्क को नहीं फैलाती, सीधी छलांग लेती है। एक बात से दूसरी बात पर उछल जाती है। पति चौकन्ना खड़ा रह जाता है कि अभी यह तो कोई बात ही न थी! लेकिन पत्नी के चलने के ढंग बड़े अदृश्य हैं। अचेतन हैं। तुम क्या कहते हो, यह वह कम सुनती है; तुम क्या कहना चाहते हो, यह वह पहले सुन लेती है। तुम शब्दों से क्या कह रहे हो, इसकी वह बहुत फिकर नहीं करती, तुम्हारी आंखें क्या कह रही हैं, तुम्हारे हाथ क्या कह रहे, तुम्हारे पैर क्या कह रहे, उसे वह पहले सुन लेती है। वह तुम्हारे शब्दों के धोखे में नहीं आती।
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन पर मुकदमा था। देखकर वह एकदम घबड़ा गया! जूरी बारह स्त्रियां बैठी हैं। उसने कहा, मैं अपना अपराध इसी वक्त स्वीकार करता हूं। मजिस्ट्रेट ने कहा, अभी तो अदालत शुरू भी नहीं हुई। उसने कहा, अब कोई जरूरत ही नहीं। एक स्त्री को धोखा नहीं दे पाता, बारह! यह संभव नहीं है। जो सजा हो आप मुझे दे दें, इस झंझट में मैं पड़ने को ही राजी नहीं।
स्त्री के देखने, पकड़ने के ढंग परोक्ष हैं। इसलिए तुम कभी-कभी हैरान भी होते हो कि मैंने इतनी अच्छी बात कही, फिर भी पत्नी को प्रसन्नता न हुई? तुमने कही तो अच्छी बात, लेकिन बात के पीछे-पीछे तुम कुछ और भी कह रहे थे। बात के किनारे-किनारे कोई और बात भी दबी-दबी चल रही थी। तुम्हारी आंखें, तुम्हारा चेहरा उसे प्रगट कर रहे थे।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है कि तुम मुझे प्रेम करते हो? तुम मुझे बुढ़ापे में भी प्रेम करोगे? तुम मुझे सदा ही प्रेम करते रहोगे? मुल्ला अपना अखबार पढ़ रहा है। भन्ना रहा है भीतर कि वह पढ़ने नहीं दे रही। वह कहता है कि हां देवी, सदा-सदा प्रेम करूंगा। तुमसे ज्यादा सुंदर कोई स्त्री नहीं है। तुम परम सुंदरी हो। और तुम सदा सुंदर रहोगी। मैं सोच ही नहीं सकता कि कभी तुम बूढ़ी हो सकती हो। और फिर बोला कि अब बकवास बंद करो, मुझे अपना अखबार पढ़ने दो।
मगर वह जो भीतर का भाव है, वह तो चेहरा कहे दे रहा है। तुम क्या कहते हो, यह स्त्री नहीं सुनती; तुम क्या हो, इसे सुनती है। इसलिए तुम सब उपाय करते हो, फिर भी तुम पाते हो कि कुछ बात पहुंची नहीं।
जब तक तुम ठीक-ठीक सच्चे न होओ, जब तक तुम जो कहो और तुम जो हो उसमें कोई भेद ही न हो, तब तक तुम स्त्री के साथ कोई संवाद नहीं कर सकते। असंभव है।
स्त्री द्वंद्व को कम जानती है। ज्यादा भोली-भाली है। सीधी-साफ है। पुरुष ज्यादा कुशल हो गया है। और उसकी कुशलता चल जाती है बाजार में, क्योंकि वहां दूसरे भी पुरुष हैं। तो वहां तर्क एक ही है। इसलिए बड़े से बड़ा योद्धा भी पत्नी के सामने कंपने लगता है। बड़े से बड़ा संघर्षशील व्यक्ति भी, जो बाहर विजय-पताका फहरा आता है, घर आते ही डरने लगता है कि चले घर! क्या हो जाता है? एक स्त्री को तुम नहीं हरा पाते! स्त्री कुछ और ढंग से बनी है। उसकी कीमिया अलग है।
तुम्हारी पत्नी ठीक ही कहती है कि मीरा भी तो पहुंच गयी। अगर एक पहुंच गया उस मार्ग से, तो हम भी पहुंच जाएंगे। तुम उस पर कृपा करो! तुम उसे कहो कि तू चल, अपनी राह से चल। अगर तुम ध्यान पर वस्तुतः चल रहे हो, तो तुम उसे प्रार्थना पर चलने दोगे। तुम्हारा ध्यान कम से कम इतना बल तो तुम्हें देगा। तुम्हारा ध्यान कम से कम इतनी समझ तो तुम्हें देगा, इतनी प्रज्ञा तो तुम्हें देगा।
पूछा है, मेरे पास इसका जवाब नहीं है। मेरे पास भी नहीं है। इसका जवाब ही नहीं है, करोगे क्या? इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। मीरा पहुंची है, अब जवाब हो भी कहां से? तो तुम ऐसी जगह जवाब खोजने में लगे हो, जहां जवाब नहीं है।
महावीर भी पहुंचे हैं, मीरा भी पहुंची है। कृष्ण भी पहुंचे, क्राइस्ट भी पहुंचे। मुहम्मद भी पहुंचे, बुद्ध भी पहुंचे। अलग-अलग रास्तों से पहुंचे। सभी पहुंच जाते हैं। चलते भर रहो, चलना भर न रुके। भटको तो भी पहुंच जाओगे, लेकिन रुको भर मत, चलते रहो। आज भटकोगे, कल भटकोगे, कब तक भटकोगे? आखिर भटकन भी पहचान में आने लगेगी। रोज-रोज भटकोगे, समझ में आने लगेगा। गलत समझ में आ जाए, तो ठीक की तरफ पैर पड़ने लगते हैं। असार समझ में आ जाए, तो सार की तरफ यात्रा शुरू हो जाती है। और तो कोई रास्ता भी नहीं है। अनुभव ही रास्ता है।
"और यह समझाएं कि मैं पत्नी को कैसे समझाऊं?'
समझाओ ही नहीं। तुम समझो। लौटकर घर पत्नी से क्षमा मांग लेना कि अब तक जो कहा-सुना, कि मूर्तिपूजा व्यर्थ है इत्यादि, वह मेरी भूल थी। तू अपनी राह पर जा। शायद तुम्हारा यह क्षमा मांग लेना ही रास्ता बनेगा कि वह भी तुम्हें समझ सके और तुम भी उसे समझ सको। जरूरी नहीं है कि तुम्हारी पत्नी को प्रार्थना में आनंद मिल ही रहा हो। जरूरी नहीं है कि मूर्तिपूजा में उसे रस आ ही रहा हो। लेकिन पति की बात तोड़ने में भी रस आता है। गुलामी तोड़ने में सभी को रस आता है। जबर्दस्ती तोड़ने में सभी को रस आता है। हो सकता है मूर्तिपूजा इसीलिए चल रही हो कि तुम विरोध में हो।
कभी-कभी कोई पति मेरे पास आ जाता है, वह कहता है मैं तो संन्यास ले रहा हूं, अब मेरी पत्नी! मैंने कहा, अब जरा मुश्किल है। पहले पत्नी आ जाए और संन्यास ले ले, तो संभावना है कि पति को आज नहीं कल ले आयेगी। लेकिन पति पहले आ जाए तो बहुत मुश्किल हो जाती है। फिर तो पत्नी आती ही नहीं। फिर तो वह इस तरफ कान ही नहीं देती। पति और पत्नी के बीच ऐसी दुश्मनी कि सारी दुनिया से पत्नी हारने को तैयार है, लेकिन पति से कभी नहीं। यह तो परमात्मा हैं, इनसे हारना! कभी नहीं।
पश्चिम में बड़ा विचारक हुआ, हेनरी थारो। किसी ने उससे पूछा कि तुमने विवाह क्यों न किया? उसने कहा कि एक होटल से भोजन करके निकल रहा था, धक्कम-धुक्का थी, भीड़-भाड़ थी। एक स्त्री के पैर पर मेरा जरा पैर पड़ गया, वह एकदम आगबबूला होकर चिल्लायी कि शैतान कहीं के! हरामजादे!! तो मैं एकदम घबड़ा गया कि अब यह फजीहत होगी। उसने लौटकर मुझे देखा, अरे! उसने कहा कि क्षमा करना! मैं समझी कि मेरे पति हो। तो उसी दिन मैंने तय कर लिया, कभी नहीं। और सब बन जाऊंगा, पति कभी नहीं बनूंगा
एक गहन संघर्ष है। इसे समझने की कोशिश करो। पुरुष पाशविक-दृष्टि से स्त्री से ज्यादा बलशाली है। उसके पास ज्यादा "मस्कुलर' शक्ति है। शरीर से थोड़ा बड़ा भी है, शक्तिशाली भी है। स्त्री को सब तरह से दबा लेता है। तो फिर स्त्री भी उसे दबाने के सूक्ष्म रास्ते निकालती है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। कमजोर की भी तरकीबें होती हैं सताने की। उसकी फिर सूक्ष्म तरकीबें होती हैं। तुम उसे मार सकते हो, पीट सकते हो, ठीक। लेकिन वह कुछ ऐसे छोटे-छोटे उपद्रव कर सकती है, जिनकी इकट्ठी मात्रा तुम्हें पागल कर दे। छोटे-छोटे दिखायी पड़ते हैं, सीधे तुमसे संबंध भी नहीं, तुम तर्क भी नहीं कर सकते।
जैसे जिस दिन तुम्हारी पत्नी से झंझट हो गयी हो और तुम उसको अकड़ बताये, परेशान किये, उस दिन घर में बर्तन, प्याली ज्यादा टूटेंगे। क्या करोगे? तुम यह तो कह ही नहीं सकते कि यह मेरे कारण टूट रहे हैं। वह सीधा तुम पर हमला कर ही नहीं रही। वह तुम्हें नहीं मार रही है, प्यालियों को मार रही है। बर्तन जोर से बजेंगे। लेकिन अगर दिनभर यह चलता रहा है, तो तुम्हारे मस्तिष्क पर धीरे-धीरे चोट पड़ रही है। तुम जानते हो कि बर्तन किसके सिर पर टूट रहे हैं। क्यों टूट रहे हैं। दरवाजे जोर से लगेंगे। घर में एक तूफान-सा मालूम पड़ेगा। सीधे वह तुम पर हमला भी नहीं करेगी। उसका हमला बड़ा सूक्ष्म होगा, बड़ा अहिंसक होगा, लेकिन वह तुम्हें तोड़ लेगी। किसी को एक चांटा मार देना उतना नहीं तोड़ता, जितना दिनभर उसको सताये चले जाओ। तो स्त्रियां उस कला में पारंगत हो गयी हैं। क्योंकि पुरुष ने उनको ऊपर से तो दबा लिया, लेकिन अब वे क्या करें? सीधा उत्तर देने का उनके पास कोई उपाय नहीं। तो उन्होंने परोक्ष उत्तर देने शुरू कर दिये। वे बूंद-बूंद सताती हैं। लेकिन बूंद-बूंद की इकट्ठी मात्रा बड़ी हो जाती है, गागर भर जाती है। और फिर वे छोटी-छोटी चीज में प्रतिरोध करती हैं।
रोज...मैं अनेकों घरों में ठहरता था--यात्रा के दिनों में...तो बैठे हैं, मैं पति के साथ बैठा हूं कार में, वह हार्न बजा रहे हैं, पत्नी कहती है, आते हैं। मगर आ ही नहीं रही। अब उसे पता है कि ठीक वक्त पर कहीं जाना है। लेकिन यह मौका है, जब वह दिखा देगी कि मालिक कौन है। यह मौका वह नहीं छोड़ सकती। वह अभी सज ही रही है। अभी वह साड़ी ही चुन रही है। पति भन्नाये जा रहे हैं। लेकिन अब करोगे भी क्या? अब इस वक्त झगड़ा-झांसा खड़ा करना और देर करवा देगा। इस वक्त शांति से पी जाना ही ठीक है। यह परोक्ष आक्रमण है।
तो अगर हो सकता है, तुम्हारी पत्नी को प्रार्थना-पूजा से कोई रस भी न आ रहा हो, लेकिन चूंकि तुम जिद्द किये जा रहे हो कि ध्यान करो, तो एक बात तो पक्की है कि वह ध्यान न करेगी। और ध्यान न करने के लिए ही हो सकता है पूजा-प्रार्थना में उलझी हो। तुम हटा लो अपना विरोध। तुम उससे जाकर क्षमा मांग लेना कि अब तक जो कहा-सुना, सब भूल थी, गलत था, मुझे माफ कर दे; अब मेरा कोई आग्रह नहीं कि तू ध्यान कर, अब तो तू जो कर, वही ठीक है। प्रार्थना कर, पूजा कर, मीरा भी पहुंची, तू भी पहुंच सकती है। तब तुमने उसे छुट्टी दे दी। अब वह सोचेगी कि वस्तुतः उसे मिल रहा है रस, या सिर्फ तुम्हारा विरोध करने का रस था? अब पुराने रस का तो कोई कारण न रहा। अगर विरोध का ही रस था, तो वह तो खतम हो गया। विरोध ही खतम हो गया। तो रस मिल रहा होगा, तो ठीक। न मिल रहा होगा, तो वह ध्यान की तरफ अपने-आप आ जाएगी। लेकिन तुम लाने की चेष्टा छोड़ दो। कोई किसी को जबर्दस्ती परमात्मा की तरफ कभी नहीं ला पाया है।

तीसरा प्रश्न:

सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का सहारा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैठूं, लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता है कि कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ में है। कृपया बतायें कि ऐसा क्यों होता है?

नुष्य बहुत जटिल है। सुख की खोज करता है। सुख न मिले, तो दुख से राजी हो जाता है। क्योंकि खोज की भी एक सीमा है। फिर खोजते ही चले जाना व्यर्थ श्रम मालूम होता है। तो दुख से राजी हो जाता है। राजी ही नहीं होता, एक तरह का दुख में रस लेने लगता है। यह बड़ी खतरनाक चित्त की दशा है।
अगर दुख में तुम रस लेने लगे, तब तो तुमने सुख के सब द्वार बंद कर दिये। दुखी रहते-रहते, बहुत दिन तक दुखी रहते-रहते दुख के साथ संग बन गया, संबंध बन गये। फिर तो अगर कोई आ भी जाए सुख देने, तो भी तुम द्वार बंद कर लोगे। तुम कहोगे, दुख से अब पुराना नाता बन गया। अब छोड़े नहीं बनता। अब संग-साथ छोड़ना संभव नहीं है। इसी तरह मनुष्य के भीतर दुखवाद पैदा होता है।
जो लोग दुखवादी हैं, वे प्रथम सभी सुखवादी थे। सुख की खोज में गये थे, लेकिन सुख तक पहुंच न पाये। न पहुंचने से यह सिद्ध नहीं होता कि सुख नहीं है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि तुम्हारे पहुंचने में कहीं भूल-चूक रही। तुमने कुछ गलत दिशा में खोजा। तुमने ठीक से नहीं खोजा। या पूरी त्वरा और शक्ति से नहीं खोजा। तुमने पूरा अपने को दांव पर नहीं लगाया। इतना ही सिद्ध होता है। सुख तो है। लेकिन सुख मिलता है बड़ी गहन खोज से। लेकिन रास्ते में धीरे-धीरे कष्ट और कष्ट और कष्ट झेलते-झेलते तुम्हारा कष्ट के साथ संग-साथ बन गया। तुम्हारी दोस्ती कष्ट से हो गयी। अब तो तुम्हें ऐसा डर लगेगा कि कहीं कष्ट छूट न जाए! नहीं तो अकेले हो जाएंगे। इस तरह दुखवाद पैदा होता है।
स्त्रियों में यह दुखवाद पुरुष से ज्यादा जल्दी पैदा हो जाता है। फिर दुख में एक रस--रुग्ण रस! उसे तुम बहुत मूल्य मत देना। फिर वह दुख के गीत गाने लगती हैं।
विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात...
लेकिन फिर दुख को ही गीत बना लिया जाता है। फिर आंसू गिनने में ही समय व्यतीत होने लगता है। फिर आदमी अपने घाव के साथ ही खेलने लगता है। फिर पीड़ा होती है तो अच्छा लगता है। कुछ तो हो रहा है। ऐसा तो नहीं कि खाली हैं। इसको खयाल रखना, आदमी खाली होने के बजाय दुखी होना पसंद करता है। कम से कम दुख में कुछ भराव तो है। बिलकुल खाली होना कठिन मालूम होता है। या तो सुख, या दुख; खाली होने को कोई भी राजी नहीं। और यहां जीवन का एक बड़ा परम सत्य स्मरण में रखने योग्य है--जो खाली होने को राजी है, वही सुख को उपलब्ध होता है।
तो जितने लोग सुख की खोज करते हैं, वे धीरे-धीरे दुख से राजी हो जाते हैं। फिर दुख को पकड़कर बैठ जाते हैं। दुख ही उनका शृंगार हो जाता है। फिर वे दुख के गीत गाते हैं। फिर दुख की कविताओं को जन्म देते हैं।
विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात
वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात...
ऐसे लोग दुख का संग्रह करने लगते हैं; दुख की तलाश करने लगते हैं। कहां-कहां दुख मिलेगा वहां-वहां जाते हैं। ऊपर से कहते हैं हम सुख चाहते हैं, लेकिन दुख की खोज करते हैं। और जब सुख आये तो द्वार बंद कर लेते हैं, दुख आये तो द्वार पर खड़े मिलते हैं। ऐसा बहुतों के साथ हो गया है। इसीलिए तो संसार में इतना दुख है। यह दुख होना नहीं चाहिए। मैं कल एक पंक्ति पढ़ रहा था। किसी ने कहा है--
रोग पैदा कर कोई तू जिंदगी के वास्ते
सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं
खूब बात कही है!
सिर्फ सेहत के सहारे जिंदगी कटती नहीं।
सिर्फ स्वस्थ रहने से कहीं जिंदगी कटी है!
रोग पैदा कर कोई तू जिंदगी के वास्ते
तो लोग रोग पैदा कर लेते हैं। उन्होंने अनेक-अनेक नाम रखे हैं। महत्वाकांक्षा, राजनीति रोगों के नाम हैं। धन, पद, प्रतिष्ठा रोगों के नाम हैं। सेहत तो प्रेम की है। प्रेम के अतिरिक्त सब रोग है। प्रेम चूक जाता है, तो आदमी और रोग खोजने लगता है। क्या करें! कुछ तो करना होगा, व्यस्त तो रहना होगा। जिंदगी है, तो खाली तो न बैठे रहेंगे।
जिस महिला ने पूछा है उसे जागना चाहिए। उसने बड़ा खतरनाक चुनाव कर लिया है: "सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का सहारा पकडूं' सोचना क्या है? पकड़ो! साचते-सोचते तो दिन निकल जाएंगे। सोचते-सोचते तो जीवन निकल जाएगा। इसमें सोचना क्या है? इसमें इतने सोच-विचार की बात ही कहां है? क्रोध करते वक्त नहीं सोचते, प्रेम करते वक्त बड़ा सोच-विचार करते हो!
"सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का सहारा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैठूं।'
बैठो! क्योंकि प्रेम की सुगंध में ही परमात्मा की पहली खबर मिलती है। और जिसका प्रेम का फूल अनखिला रह गया, उसकी प्रार्थना का फूल कैसे खिलेगा?
नहीं कि मनुष्य के प्रेम पर अंत है, लेकिन शुरुआत है। मनुष्य के प्रेम से हम पहला अ, , स...क, , ग सीखते हैं। मनुष्य पर प्रेम का अंत नहीं है। मनुष्य पर प्रेम की समाप्ति नहीं, क्योंकि प्रेम तो विराट के साथ ही तृप्त हो सकता है। मनुष्य के साथ कैसे तृप्त होगा! लेकिन प्रेम के पहले चरण उथले में ही उठते हैं। जैसे कोई तैरना सीखने जाता है तो पहले उथले में सीखता है। एकदम से सागर में नहीं उतर जाता। किनारे पर सीखता है। जहां कोई भय नहीं है वहां सीखता है। फिर किसी का सहारा लेकर सीखता है। फिर जब तैरना आ जाता है, तो किसी के सहारे की जरूरत नहीं रह जाती। फिर अकेला दूर गहरे में चला जाता है।
मनुष्य का प्रेम परमात्मा के लिए किनारा है। मनुष्य का सहारा तो सीखने भर के लिए है। फिर तो नाव छोड़ देनी है अनंत के सागर में। लेकिन जो किनारे पर ही नहीं आया, वह सागर में कैसे उतरेगा?
"किसी के प्रेम के साये मैं बैठूं।' सोचना नहीं है, बैठो! सोचना प्रेम के बिलकुल विपरीत है। सोचनेवाले सोचते ही रह जाते हैं। प्रेम करनेवाले और सोचनेवालों में बड़ा भेद है।
मैंने सुना है इमेनुअल कांट एक बड़ा विचारक हुआ, एक स्त्री ने उससे प्रेम निवेदन किया। दोत्तीन वर्ष तो उसके प्रेम में रही, राह देखी कि वह निवेदन करे। क्योंकि स्त्रियां प्रतीक्षा करती हैं। निवेदन भी आक्रमण है। वह स्त्रैण-मन को ठीक नहीं लगता। वह राह देखती है कि प्रेमी निवेदन करे। लेकिन कांट कुछ बोला ही नहीं। तीन साल बीत गये। मजबूरी में उस स्त्री ने कहा कि क्या कहते हो, कुछ कहो। ऐसे जिंदगी बीत जाएगी। मैं तुम्हारी होना चाहती हूं सदा के लिए। कांट ने कहा, मुझे डर था कि कभी न कभी यह सवाल उठेगा। मैं इस पर सोचूंगा
वह बड़ा दार्शनिक था। बड़ी अदभुत कथा है। और कथा ही होती तो भी ठीक था, सही है। वह सोचता रहा, सोचता रहा। कहते हैं तीन साल बाद उसने जाकर उस युवती के घर पर दस्तक दी। युवती के पिता ने द्वार खोला। उसने पूछा कि कैसे आये, बहुत दिन से दिखायी नहीं पड़े। उसने कहा कि मैं यह कहने आया हूं कि मैंने निर्णय कर लिया कि विवाह करूंगा। पिता ने कहा, तुम बड़ी देर से आये। उसका तो विवाह हो भी चुका, एक बच्चा भी पैदा हो गया। तुम इतनी देर कहां रहे? कांट ने कहा, मैं सोचता रहा। जेब से उसने अपनी किताब निकाल कर बतायी। विवाह के पक्ष में और विपक्ष में जितनी भी बातें हो सकती थीं, सब उसने लिख रखी थीं। हिसाब लगाया था, पक्ष में कितनी हैं, विपक्ष में कितनी हैं; फायदा क्या होगा, हानि क्या होगी? और तब उसने यही तय किया था कि फायदा थोड़ा ज्यादा है। बहुत रत्तीभर का फर्क है। कोई ज्यादा फर्क नहीं है। हानि भी बहुत है, लेकिन फायदा थोड़ा ज्यादा है। और फायदा यह है कि उससे अनुभव होगा।
सोचते-सोचते तो जिंदगी बीत जाएगी। सोचना किसलिए है? मौत तुमसे न पूछेगी कि सोच लिया, चलना है कि नहीं? मौत आ जाएगी। जैसे मौत आती है वैसे ही प्रेम को भी आने दो। द्वार-दरवाजे खोलो, भय क्या है?
प्रेम से लोग बहुत डरते हैं। लोग कहते तो हैं कि प्रेम चाहिए लेकिन डरते बहुत हैं। क्योंकि प्रेम एक तरह की मृत्यु है। अहंकार को विसर्जित करना होता है।
जैसा मैं देख पाता हूं, इस महिला के मन में बड़ा अहंकार होगा। अहंकार प्रेम का दुश्मन है। अहंकार किसी के साथ झुकने नहीं देता। प्रेम में तो झुकना पड़ेगा। प्रेम में तो दूसरे के लिए जगह बनानी पड़ेगी। अहंकार को थोड़ी-सी जगह खाली करनी पड़ेगी। जैसे तुम अकेले एक कमरे में रहते आये थे, तो एक बात थी। फिर किसी प्रेमी को लिवा लाये, मित्र को लिवा लाये, पत्नी को लिवा लाये, पति को लिवा लाये उसी कमरे में, तो अब सब नया इंतजाम करना होगा। अब बहुत-से समझौते करने होंगे। दो जहां रहेंगे वहां बहुत-से समझौते होंगे। संघर्ष भी होगा। कभी अशांति के क्षण भी होंगे। कभी कलह भी होगी। कभी सौंदर्य के, सत्य के, संगीत के फूल भी खिलेंगे। कभी कांटे भी चुभेंगे। हर गुलाब की झाड़ी पर कांटे हैं। प्रेम तो गुलाब का फूल है। बहुत कांटे हैं उसके आसपास। कांटों से आदमी डरते हैं। फूल तो चाहते हैं, कांटों से डरते हैं।
लेकिन जिसको फूल चाहिए, उसे कांटों को भी स्वीकार करना होगा। कांटों में ही फूल का मजा है। कांटों में ही फूल का रस है। नहीं तो प्लास्टिक के फूल खरीद लाओ। इसीलिए तो वेश्याएं दुनिया में पैदा हुईं। वे प्रेम के डर के कारण पैदा हुईं। वेश्या का मतलब है, प्लास्टिक का फूल। कोई नाता-रिश्ता नहीं। कोई कांटे चुभने का कारण नहीं। जब किसी स्त्री को या किसी पुरुष को तुम अपने पास लेते हो, तो पास लेने में खतरा है। दो दुनियाएं पास आ रही हैं। संघर्ष होगा। लेकिन संघर्ष प्रीतिकर है। समझ बढ़ेगीप्रौढ़ता आयेगी।
पूछा है, "सोचती हूं दुख से छूटने के लिए किसी का सहारा पकडूं, किसी के प्रेम के साये में बैठूं।'
मैं यह तो नहीं कह सकता कि दुख से छूट जाओगी प्रेम का साया मिल जाए तो, इतना कह सकता हूं--दुख आंख खोलने में सहयोगी होगा। प्रेम भी दुख देगा, लेकिन प्रेम का दुख बड़ी मधुर पीड़ा जैसा है। बिना प्रेम के जो दुख है, वह तो बस कांटे ही कांटे हैं। प्रेम के दुख में कांटे तो हैं, लेकिन फूल भी हैं। और प्रेम तुम्हें तृप्त कर देगा, यह भी मैं नहीं कहता। प्रेम सच तो तुम्हें और भी अतृप्त करेगा, और बड़े प्रेमी की तलाश पर भेजेगा। क्योंकि कोई आदमी, या कोई स्त्री प्रेम को पूरा नहीं कर सकते। प्रेम की आखिरी तलाश तो परमात्मा के लिए है। उससे कम पर तृप्ति होनेवाली नहीं है। लेकिन, सहारा मिलेगा। उस बड़ी यात्रा पर जाने की हिम्मत आयेगी। जब आदमी के प्रेम में ऐसे फूल खिल जाते हैं--छोटे सही, जल्दी कुम्हला जानेवाले सही; सुबह खिलते हैं, सांझ मुर्झा जाते हैं, सही--लेकिन जब आदमी के प्रेम में इतने फूल खिल जाते हैं, तो आदमी और परमात्मा के प्रेम में कैसे फूल न खिलेंगे!
तुम्हें पहली भनक परमात्मा की प्रेम के द्वार से ही मिलेगी। तो मैं यह तो नहीं कहता कि तुम्हारा दुख मिट जाएगा, इतना कह सकता हूं कि तुम्हारा दुख सृजनात्मक हो जाएगा। सुख की थोड़ी झलकें मिलेंगी। उन्हीं झलकों का सहारा पकड़कर, निचोड़ निकालकर तुम महासुख की यात्रा पर जा सकोगे।
फिर कहा है, "लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता है।' यह खतरनाक संतोष है। यह संतोष नहीं है, सांत्वना है। संतोष बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका ऐसा उपयोग कभी मत करना। यह सांत्वना है। यह अपने को समझा लेना है। और आदमी बड़ा कुशल है अपने को समझा लेने में। अंगूर खट्टे हैं। जो नहीं मिलता, वह पाने योग्य ही नहीं। जिसको हम नहीं खोज पाते, हमारा अहंकार कहने लगता है हम खोजना ही कहां चाहते हैं! गरीब कहने लगता है धन में क्या रखा है। गरीब कहने लगता है, धन में क्या रखा है! अमीर कहे तो समझ में आता है। गरीब कहे तो कुछ समझ में आता नहीं। गरीब कहने लगता है, क्या रखा है इस संसार को जीत लेने में। सिकंदर, नेपोलियन कहें; महावीर, बुद्ध कहें; ठीक। अभी संसार को जीता नहीं, किससे कह रहे हो, क्या रखा है संसार को जीत लेने में? कहीं मन को समझा तो नहीं रहे। कहीं मन चाहता तो नहीं है कि जीत लें संसार को, लेकिन देखते हैं अपनी असामर्थ्य, जीतना तो कठिन है, तो अहंकार अपने को बचा लेता है। अहंकार कहता है, जीतना ही कौन चाहता है!
तुमने कभी खयाल किया, तुमने अपने जीवन में कितनी पर्तें सांत्वना की बना ली हैं। उन सांत्वनाओं के कारण ही तो तुम आबद्ध हो गये हो, बंध गये हो, जकड़ गये हो। तोड़ो सांत्वनाएं! यह संतोष नहीं है।
तुमने कहावत सुनी है--"संतोषी सदा सुखी।' गलत है। "सुखी सदा संतोषी।' संतोष से कभी सुख नहीं आता, सुख से जरूर संतोष आता है। संतोष तो सिर्फ अपने को समझा लेने जैसा है। नहीं है हालत आगे बढ़ने की, क्या करें, तो तुम समझा लेते हो। तुम कहते हो, हम जाना नहीं चाहते, पाने योग्य कुछ है ही नहीं, हमें तो पहले से पता है वहां कुछ भी नहीं रखा है। लेकिन जरा गौर से अपने मन का निरीक्षण करना। और अगर यह संतोष हो, तब तो ठीक है। फिर तो प्रश्न पूछने की जरूरत ही नहीं। अगर यह संतोष होता तो प्रश्न उठता ही नहीं। संतोष से कभी प्रश्न उठा है? संतोष तो ऐसा परितृप्त है, ऐसा परितृप्त है, कि कहां प्रश्न की गुंजाइश! यह सांत्वना है। और स्त्रियां सांत्वना में बड़ी कुशल हैं। क्योंकि संघर्ष में बड़ी कमजोर हैं।
"लेकिन उसके न मिलने पर भी संतोष ही होता है।' यह संतोष मुर्दा है। इस लाश को हटाओ! अन्यथा तुम भी इस लाश के साथ मर जाओगे। मुर्दों की दोस्ती ठीक नहीं। मुर्दों के साथ ज्यादा देर रहना भी ठीक नहीं। क्योंकि जिनके साथ हम रहते हैं, वैसे ही हो जाते हैं।
"संतोष होता है कि कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ में है।' यह भी कोई बात हुई! यह तो ऐसा हुआ कि सोये हैं जमीन पर और सोच रहे हैं कि कम से कम बिस्तर नहीं है यह भी तो संतोष है। बैठे हैं जमीन पर और सोच रहे हैं उस कुर्सी की बात, जो नहीं है कमरे में। इससे संतोष होता है कि कुर्सी नहीं है! इससे संतोष होता है, कि बिस्तर नहीं है! इससे संतोष होता है कि भोजन नहीं है! इससे संतोष होता है कि स्वास्थ्य नहीं है, कोई संगी-साथी नहीं है! अगर इससे संतोष हो रहा है, तो यह संतोष तो बीमारी है। इसे तोड़ो। असंतुष्ट बनो, अगर यह संतोष है तो। खोजो।
हां, मैं भी कहता हूं एक दिन प्रेमी के भी पार जाता है प्रेम, लेकिन पहले प्रेमी तो हो। प्रेमी से कुछ भी न मिलेगा। प्रेम की और बड़ी प्यास मिलेगी, और बड़ा असंतोष मिलेगा, परमात्मा को पाने की जलती हुई प्यास मिलेगी। प्रेमी की मौजूदगी से तुम्हें पता चलेगा कि नहीं, इस दिशा से कुछ मिलनेवाला नहीं। मगर प्रेमी की मौजूदगी के बिना यह पता नहीं चल सकता है।
एक आदमी रास्ते पर खड़ा है भिखारी की तरह। और फिर महावीर भी रास्ते पर आकर खड़े हो गये भिखारी की तरह। समझ लो कि दोनों भिखारी साथ-साथ चल रहे हैं। क्या ये दोनों एक ही जैसे हैं? एक महावीर हैं जिन्होंने महल देखे, महलों का सुख देखा, सुख की व्यर्थता देखी, महलों की असारता देखी। राज्य देखा, साम्राज्य देखा, राख देखी सब। और एक दूसरा भिखारी चल रहा है। उसने कुछ भी नहीं देखा। उसके मन में अभी भी सपने हैं। अभी भी कोई उसे राजा बना दे तो वह तत्क्षण तैयार हो जाएगा। हालांकि वह भी कहता है, कुछ सार नहीं। महावीर भी कहते हैं, कुछ सार नहीं। दोनों एक ही तरह के शब्दों का उपयोग करते हैं। लेकिन क्या दोनों के अर्थ एक ही हो सकते हैं? दोनों के अर्थों में जमीन-आसमान का फर्क है।
महावीर कहते हैं जानकर। वह दूसरा आदमी कह रहा है मानकर। अगर धन पड़ा मिल जाए तो महावीर उसके पास से ऐसे ही गुजर जाएंगे जैसे मिट्टी पड़ी है। वह दूसरा आदमी न गुजर सकेगा। वह कहेगा छोड़ो बकवास, हो गयी ज्ञान की बहुत बातचीत! अब मिल ही गया, तो अब इसका उपभोग कर लें!
"कम से कम अपना दुख और किसी की उपेक्षा तो साथ में है।' यह भी खूब धन! इसको धन कहते हो? इस धन को, इस धन के भ्रम को तोड़ो।
बिना प्यार के चले न कोई आंधी हो या पानी हो
नयी उमर की चुनरी हो या कमरी फटी-पुरानी हो
तपे प्रेम के लिए धरित्री जले प्रेम के लिए दीया
कौन हृदय है नहीं प्रेम की जिसने की दरबानी हो
तटत्तट रास रचाता चल
पनघट-पनघट गाता चल
प्यासी है हर गागर दृग की
गंगाजल ढलकाता चल
कोई नहीं पराया, सारी धरती एक बसेरा है
इसकी सीमा पश्चिम में तो मन का पूरब डेरा है
श्वेत बरन या श्याम बरन हो सुंदर या कि असुंदर हो
सभी मछलियां एक ताल की क्या मेरा क्या तेरा है
गलियां-गांव गुंजाता चल
पथ-पथ फूल बिछाता चल
हर दरवाजा राम-दुवारा सबको शीश झुकाता चल
हर दरवाजा राम-दुवारा सबको शीश झुकाता चल--अगर प्रेम किसी से किया तो राम-दुवारा खुला। जहां प्रेम ने दस्तक दी, वहीं राम-दुवारा खुला।
प्रेम से कभी बचना मत। प्रेम में उतरना। प्रेम से डरना मत। प्रेम बड़ी पीड़ा देगा, प्रेम जलायेगा, प्रेम अग्नि बन जाएगा, लेकिन अग्नि से ही गुजरकर कोई कुंदन बनता है, कोई शुद्ध स्वर्ण बनता है। प्रेम की अग्नि से घबड़ाना मत, भागना मत, अन्यथा अधकचरे, अधूरे, मिट्टी से भरे रह जाओगे।
तो मैं यह नहीं कहता कि प्रेम तुम्हें सुख ही सुख देगा। प्रेम कोई फूलों-बिछी सेज है, ऐसा मैं नहीं कहता। प्रेम बड़ी पीड़ा की डगर है। लेकिन उससे गुजरना जरूरी है। और उससे गुजरकर ही तुम प्रार्थना के योग्य बनोगे, प्रार्थना के लिए परिपक्व बनोगे। जैसे ही कोई व्यक्ति किसी के प्रेम में डूबा, स्वाद मिलना शुरू होता है। बहुत पर्दों के पार से परमात्मा की पहली झलक मिलनी शुरू होती है। इस पृथ्वी पर प्रेम से ज्यादा परमात्मा की झलक देनेवाली कोई अनुभूति नहीं है।
प्रेम इस जगत में उस जगत की किरण है। प्रेम इस अंधेरी रात में दूर परमात्मा का चमकता हुआ सितारा है। बहुत दूर है, लेकिन इस अंधेरे को पार करके एक किरण आ रही है। तुम उस किरण का सहारा पकड़ लो। ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा कि प्रेम से कोई तृप्त हुआ हो। इसलिए डर कुछ भी नहीं है। प्रेम तुम्हें और अतृप्त करेगा। नये शिखरों की चुनौती मिलेगी। नयी ऊंचाइयां खोजने के भाव मिलेंगे।
प्रेमियों में जो संघर्ष है, उसका कारण तुमने कभी सोचा? प्रेमियों में सदा संघर्ष बना रहता है, उसका कुल कारण इतना है कि हर प्रेमी यह कोशिश कर रहा है कि दूसरा परमात्मा की तरह हो। यही संघर्ष है। जहां भी दूसरा परमात्मा से थोड़ा नीचे पड़ता है, कलह शुरू हो जाती है। पति भी यही चेष्टा कर रहा है कि पत्नी परमात्मरूप हो, दिव्य हो। जैसे ही उससे नीचे पड़ती है, अड़चन होती है। पत्नी भी यही सोच रही है कि पति परमात्मा जैसा हो। दोनों की खोज सही है। और इसीलिए संघर्ष है। धीरे-धीरे यह अनुभव में आता है कि आदमी की सीमा है। तब नाराजगी चली जाती है। तब यह खयाल उठता है कि हम खोज ही गलत जगह रहे हैं। हमें थोड़े और ऊंचाई पर आंख उठानी होगी। आदमी के पार देखना होगा। या आदमी के गहरे में देखना होगा।
तुमने यह भी कभी खयाल किया कि जैसे ही तुम किसी के प्रेम में पड़ते हो, तुम वही नहीं रह जाते जो तुम अब तक थे। तुम्हारे भीतर कुछ नया उठने लगता है, कोई पंख खोलने लगता है। कोई आकाश की तरफ उड़ने के लिए तत्पर हो जाता है। तुमने कभी खयाल किया कि प्रेम के साथ, जो भी श्रेष्ठ भावनाएं हैं अचानक तुममें जगने लगती हैं। घृणा के साथ जो-जो अशुभ है, तुम्हारे भीतर घना होने लगता है। घृणा उठी कि हिंसा उठी। घृणा उठी कि क्रोध उठा। घृणा उठी कि तुम मरने-मारने को, मिटाने को तत्पर हुए। प्रेम उठा कि सृजन उठा। प्रेम उठा कि तुम बनाने को, संवारने को, शृंगार करने को राजी हुए। इधर प्रेम उठा कि शुभ भावनाओं का जन्म उसके साथ-साथ होने लगता है। प्रेम जितना ऊंचा उड़ता है, उतनी ही शुभता भी तुम्हारे भीतर ऊंची उठती है। जितने तुम प्रेम में जाते हो, उतने ही तुम दिव्य होने लगते हो।
नया-नया प्रेम तुम्हारे चेहरे पर एक ऐसी गरिमा दे जाता है, जो तुमने पहले कभी न जानी थी। एक आभामंडल, एक ऊर्जा, एक नया प्रकाश तुम्हारे चेहरे को घेर लेता है। तुम्हारी चाल बदल जाती है। तुम्हारी चाल में मीरा का थोड़ा नाच आ जाता है। माना कि वह परम प्रेमी की खोज पर थी, इसलिए पूरा नाच तो नहीं हो सकता, लेकिन थोड़ी घूंघर तो बजती है। रुक-रुककर बजती है। थोड़ी घूंघर तो बजती है। पायल की वैसी धुन नहीं होती कि आकाश को गुंजा दे, लेकिन आंगन को तो गुंजाती है। छोटा-सा कोने में दीया तो जलता है। महासूरज नहीं निकलता, जैसा कबीर कहते हैं कि हजार-हजार सूरज पैदा हो रहे हैं, लेकिन एक छोटा-सा दीया तो जलता है। दीया भी तो सूरज का ही प्रतिनिधि है। छोटा प्रतिनिधि सही। बहुत क्षुद्र सही। लेकिन सूरज की किरण में जो है, वही तो दीये की किरण में भी है। स्वभाव तो एक है।
नहीं कोई सागर नहीं उमड़ने लगता, लेकिन बूंद तो बरसती है। बूंद में वही है, जो सागर में है। जिसने बूंद को पहचाना, वह कभी सागर को भी खोज ही लेगा। जिसने बूंद को चखा, वह कितने दूर, कितने दिन तक सागर से वंचित रहेगा? जैसे-जैसे प्रेम की झलक मिलनी शुरू होती है, तुम्हारी प्रेम की आशा बढ़नी शुरू होती है।
अभाव से राजी मत होना। अनुपस्थिति से राजी मत होना। अभाव नर्क है। भावात्मक बनो। विधायक बनो। प्रेम नहीं है, इससे राजी मत हो जाना। तोड़ो चट्टानें हृदय की! बहने दो झरना प्रेम का! सांसारिक, तो सांसारिक सही। शरीर का, तो शरीर का सही। शुरू तो करो। कोई पहले कदम पर ही तो स्वर्ग नहीं पहुंच जाता है। लेकिन पहला कदम तो उठाओ। लाओत्सू ने कहा है, एक-एक कदम चलकर हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। एक कदम तो उठाओ।
प्रेम से थोड़े से लोग राजी हो जाते हैं। बहुत लोग प्रेम के अभाव में राजी हो जाते हैं। जो प्रेम के अभाव में राजी हो गये, वे तो अंधेरी रात में भटक गये। जो प्रेम से राजी हो गये, वे दीये को ही लेकर बैठे रह गये, जबकि सूरज उनका हो सकता था।
है कताअ एक जलवे पर
शौक अभी तंगदस्त है शायद
जो एक ही जलवे से राजी हो गया और सोचा कि काफी है, उसकी प्यास, उसका प्रेम, उसकी अभीप्सा तंगदस्त है। बड़ी कृपण है। कंजूस है। झोली भी फैलायी तो पूरी न खोलकर फैलायी।       
है कताअ एक जलवे पर
एक जलवे को काफी मान लिया! प्रेम की एक छोटी-सी ज्योति को काफी मान लिया!
शौक अभी तंगदस्त है शायद।
लेकिन मेरे देखे सबसे अभागे वे हैं जिन्होंने प्रेम के अभाव में संतोष कर लिया। उसके बाद उनका नंबर है, जिन्होंने प्रेम से संतोष कर लिया। सौभाग्यशाली तो वे हैं, जिन्होंने अभाव को तो टिकने न दिया, प्रेम को भी न टिकने दिया। प्रार्थना तक पहुंचे, परमात्मा तक पहुंचे।
रोज नया असंतोष जगाओ। धर्म संतोष नहीं है, परम असंतोष है। परम के लिए असंतोष है। क्षुद्र से राजी मत हो जाओ। जब तक विराट ही न मिल जाए, तब तक ठहरना मत। तब तक पड़ाव बहुत जगह बनाने होंगे--मील के कई पत्थर मिलेंगे--रुक जाना, रात ठहर जाना, लेकिन सुबह चल पड़ने की तैयारी रखना। घर मत बनाना कहीं। विश्राम कर लेना, विराम कर लेना, लेकिन ध्यान रखना, विश्राम सुबह चलने की तैयारी है।
प्रेम के मैं पक्ष में हूं। क्योंकि मेरे देखे प्रेम ही सेतु है दृश्य और अदृश्य के बीच, शरीर और अशरीरी के बीच, पदार्थ और परमात्मा के बीच।
गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे
हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे
फूल की गंध से तलवार को सर करना है
और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे
जब तुम्हारे हृदय में प्रेम नहीं, तुम पहाड़ हो। चट्टान...और चट्टान...और चट्टान...। झरने को रोके बैठे हो। जैसे ही तुम्हारे भीतर प्रेम उमगा, किरण उतरी, टूटी चट्टानें, निर्झर बहा।
गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे
ये वृक्ष क्या करते हैं जब खिल जाते हैं? ये गीत धरती का आकाश को सुना देते हैं। ये धरती की खबर आकाश को दे देते हैं कि धरती ही मत समझ लेना, फूल भी हैं। आकाश को भी मात कर देनेवाले फूल हैं धरती में छिपे। मिट्टी में सुगंध भी है, रंग भी है। इंद्रधनुषी रंग भी है।
फूल धरती की भेंट है आकाश को। जब कोई मनुष्य खिलता है तो सीमा असीम से बातें करती है। क्षुद्र विराट से बातें करता है। तब बूंद सागर से बात करती है, संवाद करती है। धरती का गीत, सीमा का गीत, बूंद का गीत!
गीत आकाश को धरती का सुनाना है मुझे
हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे
और जब तक तुम प्रेम को दाबे पड़े हो, तब तक तुम अंधेरे में पड़े हो। जागो! जलाओ दीया प्रेम का। मेरे मन में प्रेम का परिपूर्ण स्वीकार है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें विषाक्त कर दिया है। जिन्होंने प्रेम की निंदा की, उन्होंने तुम्हें प्रेम से भयभीत कर दिया है। उस भय के कारण तुम अकेले पड़े रह गये हो। तुम भटकते हो, लेकिन परमात्मा से कोई साथ नहीं बन पाता। तुम्हारे पास हाथ नहीं, जो परमात्मा का हाथ पकड़ लें। प्रेम वही हाथ तुम्हें देगा।
हर अंधेरे को उजाले में बुलाना है मुझे
फूल की गंध से तलवार को सर करना है
जीवन कठिन है, तलवार-जैसा है।
फूल की गंध से तलवार को सर करना है
और जीतना है प्रेम से। यही तो चुनौती है। यही तो अभियान है मनुष्य का। यही तो मनुष्य की उत्क्रांति है। विकास! या जो भी कहो। यही तो मनुष्य के रूपांतरण की कीमिया है।
फूल की गंध से तलवार को सर करना है
जीतना है प्रेम से इस संसार को। जीतना है प्रेम से इस देह को। जीतना है प्रेम से इन इंद्रियों को। जीतना है प्रेम से इस मन को। जीतना है प्रेम से पर को, स्व को।
फूल की गंध से तलवार को सर करना है
और गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे
और गीत गाकर ही जगाना है। झकझोर कर नहीं। कोई बिजली के धक्के देकर नहीं; गीत गा-गा के! जैसे मां सुबह किसी को उठाती है। एक गीत गाती है। या रात अपने बेटे को सुलाती है, एक लोरी गाती है। जो मैं तुमसे बोले चला जाता हूं, वह कुछ और नहीं है। तुम्हारे भीतर के पहाड़ को जगाना है।
गीत गा-गा के पहाड़ों को जगाना है मुझे
और सारे जागरण का सूत्र है--प्रेम।
डरो मत। प्रेम मिटाता है। निश्चय ही मिटाता है। लेकिन प्रेम जन्माता भी है। प्रेम सूली है, सच। प्रेम सिंहासन भी है। और जो सूली चढ़ता है, वही सिंहासन पर पहुंचता है।
रात इधर ढलती है तो दिन उधर निकलता है
कोई यहां रुकता है तो कोई वहां चलता है
दीप और पतंगे में फर्क सिर्फ इतना है
एक जल के बुझता है एक बुझ के जलता है
प्रेम जलाता है। लेकिन जगाता भी है। प्रेम मिटाता है। लेकिन जन्माता भी है। प्रेम मृत्यु है और महाजीवन की शुरुआत भी। व्यर्थ की निंदा छोड़ो। चलो प्रेम की डगर पर। और प्रश्न पूछा है किसी स्त्री ने। इसलिए तो और भी जरूरी है यह समझ लेना कि प्रेम से बचना मत। पुरुष तो प्रेम से बचकर भी कभी पहुंच सकता है। ध्यानी तो प्रेम को छोड़कर भी पहुंच सकता है। कठिन होगी डगर, बड़ी कठिन होगी--सरल हो सकती थी, गीत, रस भरी हो सकती थी--रूखी-सूखी होगी डगर, धूल धवांस भरी होगी, कंकड़, पत्थर, कंटकाकीर्ण होगा मार्ग, लेकिन पहुंच सकता है। लहूलुहान पहुंचेगा, लेकिन पहुंच सकता है। लेकिन स्त्री तो बिना प्रेम के पहुंच ही नहीं सकती। वह खो ही जाएगी इस डगर में।
दुनिया में दो ही धर्म वस्तुतः होने चाहिए। दो ही धर्म वस्तुतः हैं। एक स्त्री का धर्म, एक पुरुष का धर्म। और दुनिया के सारे धर्म दो हिस्सों में बांटे जा सकते हैं। पुरुष का धर्म कहता है, छोड़ो प्रेम। स्त्री का धर्म कहता है, बनाओ प्रेम को पूजा। लेकिन प्रेम होगा, तो ही तो पूजा बनेगी!
जिसने पूछा है, उसे मैं कहूंगा, घबड़ाओ मत। जीवन अनुभव के लिए है। इसे बंद कोठरी मत बनाओ। गुफा में मत छिपोखुलो, आने दो हवाएं, आने दो नयी सूरज की किरणें। जीओ। खतरनाक है जीना। लेकिन खतरा जीवन का लक्षण है। सुरक्षा में मौत है, सुरक्षा में कब्र है। उतरो। तूफान आयेंगे प्रेम के, झेलना। उन्हीं तूफानों में तुम्हारे भीतर कुछ सोया हुआ जगेगा, कोई चट्टान टूटेगी, निर्झर बहेगा। और घबड़ाना मत--
रात इधर ढलती है तो दिन उधर निकलता है
कोई यहां रुकता है तो कोई वहां चलता है
एक द्वार बंद हुआ नहीं कि दूसरा खुल ही जाता है।
दीप और पतंगे में फर्क सिर्फ इतना है
एक जल के बुझता है एक बुझ के जलता है
पतंगे बन सको तो पतंगे बनो। दीया बन सको तो दीया बनो। लेकिन दीया भी जलता है और पतंगा भी जलता है। दीया जलकर बुझता है, पतंगा बुझकर जलता है। कोई भी बनो। दीये बनो या पतंगे बनो। पतंगों की प्रशंसा में तो बहुत गीत लिखे गये हैं कि पतंगा जलता है, दीवाना है। दीये की प्रशंसा की किसी ने फिकिर नहीं की कि दीया भी पतंगे के लिए ही जल रहा है, कि आओ, कि प्रतीक्षा कर रहा है। जहां पतंगे और दीये का मिलना होता है, जहां दोनों अलग-अलग मिट जाते हैं और एकरूप हो जाते हैं, वहीं प्रेम का जन्म है।
परमात्मा से जब जुड़ोगे जुड़ोगे, अभी किसी छोटे परमात्मा से जुड़ो। सूरज जब पाओगे, पाओगे; अभी किरण पास आती है उसे तो पकड़ो। लेकिन जीवन विधायक हो, प्रेम का स्वीकार, सम्मान करने से भरा हो, तो मनुष्य ज्यादा देर तक मंदिर से दूर नहीं रह सकता।
प्रेम द्वार है।

आज इतना ही।


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