ओशो
कृष्ण
कोई व्यक्ति
की बात नहीं है;
कृष्ण
तो चैतन्य की
एक घड़ी है,
चैतन्य
की एक दशा है, परम
भाव है।
जब भी
कोई व्यक्ति
परम को उपलब्ध
हुआ।
और उसने
फिर गीता पर कुछ
कहा,
तब—तब
गीता से पुरानी
राख झड़ गई,
फिर
गीता नया अंगारा
हो गई।
ऐसे
हमने गीता को
जीविंत रखा है।
समय
बदलता गया,
शब्दों
के अर्थ बदलते
गये,
लेकिन
गीता को हम नया
जीवन देते चले
गए।
गीता
आज भी जिंदा है।
ओशो
कृष्ण
का संन्यास, उत्सवपूर्ण
संन्यास (अध्याय-6)
प्रवचन—पहला
श्रीमद्भगवद्गीता
श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं
कर्म करोति
यः।
स
संन्यासी च योगी
च न निरग्निर्न
चाक्रियः।।
1।।
श्रीकृष्ण
भगवान बोले, हे
अर्जुन, जो
पुरुष कर्म के
फल को न चाहता
हुआ करने
योग्य कर्म
करता है, वह
संन्यासी और
योगी है और
केवल अग्नि को
त्यागने वाला
संन्यासी, योगी
नहीं है; तथा
केवल
क्रियाओं को
त्यागने वाला
भी संन्यासी,
योगी नहीं
है।
कृष्ण
के साथ इस
पृथ्वी पर एक
नए संन्यास की
धारणा का जन्म
हुआ। संन्यास
सदा से संसार-विमुख
धारा
थी--संसार के
विरोध में, शत्रुता
में। जीवन का
निषेध, कृष्ण
के पहले तक
संन्यास की
व्याख्या थी;
लाइफ
निगेटिव था।
जो छोड़ दे
सब--कर्म को, गृह को, जीवन
के सारे रूप
को--निष्क्रिय
हो जाए, पलायन
में चला जाए, हट जाए जीवन
से, वैसा
ही व्यक्ति
संन्यासी था।
कृष्ण ने
संन्यास को
बहुत नया आयाम,
एक न्यू
डायमेंशन
दिया। वह नया
आयाम इस सूत्र
में कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं।
अर्जुन
के मन में भी
यही खयाल था
संन्यास का। अर्जुन
भी यही सोचता
था कि सब
छोड़कर चला
जाऊं, तो जीवन
संन्यास को
उपलब्ध हो
जाएगा।
अर्जुन भी
सोचता था, कर्तव्य
छोड़ दूं, करने
योग्य है वह
छोड़ दूं, कुछ
भी न करूं, अक्रिय
हो जाऊं, निष्क्रिय
हो जाऊं, अकर्म
में चला जाऊं,
तो संन्यास
को उपलब्ध हो जाऊंगा।
लेकिन कृष्ण
ने उससे इस
सूत्र में कहा
है, फल की
आकांक्षा न
करते हुए जो
कर्म को करता
है, उसे ही
मैं संन्यासी
कहता हूं। उसे
नहीं, जो
कर्म को छोड़
देता है मात्र,
लेकिन फल की
आकांक्षा
जिसकी शेष
रहती है। जो बाह्य
रूपों को छोड़
देता है, लेकिन
अंतर जिसका
पुराना का
पुराना ही बना
रह जाता है, उसे मैं
संन्यासी
नहीं कहता
हूं।
तो
संन्यास की इस
धारणा में दो
बातें समझ
लेनी जरूरी
हैं। एक तो
संन्यास का
बहिर रूप है; लेकिन
एक संन्यास की
अंतरात्मा भी
है। पुराना
संन्यास बहिर
रूप पर बहुत
जोर देता था।
कृष्ण का
संन्यास
अंतरात्मा के
रूपांतरण पर,
इनर ट्रांसफार्मेशन
पर जोर देता
है।
कर्म
को छोड़ना बहुत
कठिन नहीं है।
आलसी भी कर्म
को छोड़कर बैठ
जाते हैं। और
इसलिए, अगर
पुराने
संन्यास की
धारणा ने
आलसियों को आकर्षित
किया हो, तो
बहुत आश्चर्य
नहीं है। और
इसलिए, अगर
पुराने
संन्यास की
धारणा को
मानने वाले समाज
धीरे-धीरे
आलसी हो गए
हों, तो भी
आश्चर्य नहीं
है। जो कुछ भी
नहीं करना चाहते
हैं, उनके
लिए पुराने
संन्यास में
बड़ा रस मालूम
होता है। कुछ
न करना कोई बड़ी
उपलब्धि नहीं
है।
इस जगत
में कोई भी
कुछ नहीं करना
चाहता है। ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जो
कुछ करना
चाहता है।
लेकिन सारे
लोग करते हुए
दिखाई पड़ते
हैं, इसलिए
नहीं कि कर्म
में बहुत रस
है, बल्कि
इसलिए कि फल
बिना कर्म के
नहीं मिलते
हैं। हम कुछ
चाहते हैं, जो बिना
कर्म के नहीं
मिलेगा। अगर
यह तय हो कि हमें
बिना कर्म किए,
जो हम चाहते
हैं, वह
मिल सकता है, तो हम सभी
कर्म छोड़ दें,
हम सभी
संन्यासी हो
जाएं! लेकिन
चाह पूरी करनी
है, तो
कर्म करना
पड़ता है। यह
मजबूरी है, इसलिए हम
कर्म करते
हैं।
कृष्ण
इससे उलटी बात
कह रहे हैं।
वे यह कह रहे हैं, कर्म
तो तुम करो और
फल की आशा छोड़
दो। हम कर सकते
हैं आसानी से,
कर्म न करें
और फल की आशा
करें। जो आसान
है, वह यह
मालूम पड़ता है
कि हम कर्म तो
न करें और फल की
आशा करें। और
अगर कोई फल
पूरा कर दे, तो हम कर्म
छोड़ने को सदा
ही तैयार हैं।
कृष्ण इससे
ठीक उलटी ही
बात कह रहे
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
कर्म तो तुम
करो ही, फल
की आशा छोड़
दो। यह फल की
आशा छूट जाए, तो कृष्ण के
अर्थों में
संन्यास फलित
होगा।
फल की
आशा के बिना
कर्म कौन कर
पाएगा? कर्म
करेगा ही कोई
क्यों? दौड़ते
हैं, इसलिए
कि कहीं पहुंच
जाएं। चलते
हैं, इसलिए
कि कोई मंजिल
मिल जाए। आकांक्षाएं
हैं, इसलिए
श्रम करते हैं;
सपने हैं, इसलिए
संघर्ष करते
हैं। कुछ पाने
को दूर कोई तारा
है, इसलिए
जन्मों-जन्मों
तक यात्रा
करते हैं।
वह
तारा तोड़ दो।
कृष्ण कहते
हैं,
वह तारा तोड़
दो। नाव तो खेओ
जरूर, लेकिन
उस तरफ कोई
किनारा है, उसका खयाल
छोड़ दो।
पहुंचना है
कहीं, यह
बात छोड़ दो; पहुंचने की
चेष्टा जारी
रखो।
असंभव
मालूम पड़ेगा।
अति कठिन
मालूम पड़ेगा।
फिर नाव किसलिए
चलानी है, जब
कोई तट पर
पहुंचना नहीं!
पर
कृष्ण बहुत
अदभुत बात
कहते हैं। वे
यह कहते हैं
कि नाव चलाने
से कोई तट पर नहीं
पहुंचता, जन्मों-जन्मों
तक चलकर भी
कोई मंजिल पर
नहीं पहुंचता,
आकांक्षाएं करने से कोई आकांक्षाएं
पूरी होती
नहीं हैं।
लेकिन जो आदमी
नाव चलाए और
किनारे पर
पहुंचने का
खयाल छोड़ दे, उसे बीच
मझधार भी
किनारा बन जाती
है। और जो
आदमी कल की
आशा छोड़ दे और
आज कर्म करे, कर्म ही
उसका फल बन
जाता है, कर्म
ही उसका रस बन
जाता है। फिर
कर्म और फल में
समय का
व्यवधान नहीं
होता। फिर अभी
कर्म और अभी
फल।
संन्यास
जीवन का त्याग
नहीं है कृष्ण
के अर्थों में, जीवन
का परम भोग
है।
जीवन
का रहस्य ही
यही है कि हम
जिसे पाना
चाहते हैं, उसे
हम नहीं पा
पाते हैं।
जिसके पीछे हम
दौड़ते हैं, वह हमसे दूर
हटता चला जाता
है। जिसके लिए
हम प्रार्थनाएं
करते हैं, वह
हमारे हाथ के
बाहर हो जाता
है। जीवन
करीब-करीब ऐसा
है, जैसे
मैं मुट्ठी
में हवा को बांधूं।
जितने जोर से
कसता हूं
मुट्ठी को, हवा उतनी
मुट्ठी के
बाहर हो जाती
है। खुली मुट्ठी
में हवा होती
है, बंद
मुट्ठी में
हवा नहीं
होती।
हालांकि जिसने
मुट्ठी बांधी
है, उसने
हवा बांधने को
बांधी है।
जीवन
को जो लोग
जितनी
वासनाओं-आकांक्षाओं
में बांधना
चाहते हैं, जीवन
उतना ही हाथ
के बाहर हो
जाता है। अंत
में सिवाय
रिक्तता, फ्रस्टे्रशन,
विषाद के
कुछ भी हाथ
नहीं पड़ता है।
कृष्ण
कहते हैं, खुली
रखो मुट्ठी; आकांक्षा से
बांधो मत,
इच्छा से बांधो मत। जीओ, लेकिन
किसी आगे
भविष्य में
कोई फल मिलेगा,
इसलिए
नहीं। फिर किसलिए?
हम पूछना
चाहेंगे कि
फिर किसलिए
जीओ?
कृष्ण
कहते हैं, जीना
अपने में ही
आनंद है।
जीने
के लिए कल की
इच्छा से
बांधना
नासमझी है।
जीना अपने में
ही आनंद है।
यह पल भी काफी
आनंदपूर्ण
है। और तब
श्रम ही अपने
में आनंद हो
जाए,
कर्म ही
अपने में आनंद
हो जाए, तो
कुछ आश्चर्य
नहीं है।
लेकिन
कृष्ण के समय
तक सारा
संन्यास भगोड़ा, एस्केपिस्ट था, पलायनवादी
था। हट जाओ।
जहां-जहां दुख
है, वहां-वहां
से हट जाओ।
जहां-जहां
पीड़ा है, वहां-वहां
से हट जाओ।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं, पीड़ा
स्थान की वजह
से नहीं है; पीड़ा वासना
के कारण है।
वही उनकी
बुनियादी खोज
है।
पीड़ा
इसलिए नहीं है
कि आप बाजार
में बैठे हो; और
जंगल में
बैठोगे, तो
सुख हो जाएगा।
अगर आप जिस
भांति दुकान
पर बैठे हो, उसी भांति
मंदिर में बैठ
गए, तो कोई
सुख न होगा।
आप ही तो
मंदिर में बैठ
जाओगे! आप
बाजार में थे;
आप ही जंगल
में बैठ
जाओगे। आपमें
कोई फर्क न हुआ,
तो जंगल में
उतनी ही पीड़ा
है, जितनी
बाजार में
दुकान पर थी।
सवाल
यह नहीं है कि
जगह बदल ली
जाए। जगह का
कोई भी संबंध
नहीं है। जहां
आज आपकी दुकान
है,
कल कभी वहां
जंगल रहा था।
और कल कभी कोई
संन्यास लेकर
उस जंगल में
आकर बैठ गया
होगा। जगह वही
है; अब
वहां दुकान
है। जहां आज
जंगल है, कल
दुकान हो
जाएगी। जहां
आज दुकान है, कल जंगल हो
जाएगा। जगहों
में कोई अंतर
नहीं है। जमीन
ने तय नहीं कर
रखा है कि
कहां जंगल हो
और कहां दुकान
हो। दुकान तय
होती है मन से,
स्थान से
नहीं। दुकान
तय होती है
मनःस्थिति से,
परिस्थिति
से नहीं।
कृष्ण
कहते हैं, अगर
तुम तुम ही
रहे, तो
तुम कहीं भी
भाग जाओ, दुख
तुम्हारे साथ
पहुंच जाएगा।
वह तुम्हारे भीतर
है, वह
तुममें है, वह तुम्हारी
वासना में है,
वह
तुम्हारी
इच्छा में है।
जहां इच्छा है,
वहां दुख
छाया की तरह
पीछा करेगा।
इसलिए भागो
जंगल में, गुफाओं
में, हिमालय
पर, कैलाश
पर। दुख को
तुम पाओगे कि
वह तुम्हारे
साथ मौजूद है।
खोलोगे आंख, पाओगे, सामने
खड़ा है। बंद
करोगे आंख, पाओगे, भीतर
बैठा है।
दुख उस
चित्त में
निवास करता है, जो
वासना में
जीता है।
फिर यह
भी मजे की बात
है कि जो आदमी
संसार छोड़कर
भागता है, वह
भी वासनाएं छोड़कर
नहीं भागता।
वह भी किसी
वासना के लिए
संसार छोड़कर
भागता है। इस
बात को भी
थोड़ा ठीक से समझ
लेना जरूरी
है। वह पाना
चाहता होगा
मोक्ष, पाना
चाहता होगा
परमात्मा, पाना
चाहता होगा
स्वर्ग, पाना
चाहता होगा
शांति, पाना
चाहता होगा
आनंद। लेकिन
पाना जरूर
चाहता है।
नीत्शे
ने कहीं बहुत
व्यंग्य किया
है उन सारे लोगों
पर,
जो जीवन को
छोड़कर भागते
हैं। उसने कहा
है कि तुम
अजीब हो पागल!
तुम कहते हो, हम इच्छाओं
को छोड़कर
भागते हैं, लेकिन मैंने
एक भी ऐसा
आदमी नहीं
देखा जो किसी
इच्छा के लिए
न भाग रहा हो।
यहां इच्छाएं
छोड़ता है, वहां
इच्छाएं पाने
के लिए भागता
है! और अगर
किसी इच्छा के
लिए ही इच्छा छोड़ी गई, तो इच्छा
कहां छोड़ी
गई है? ऐसे
तो कोई भी छोड़
देता है।
एक
आदमी को
सिनेमा जाना
होता है, तो
दुकान छोड़कर
जाता है। एक
आदमी को
वेश्या को
खरीदना होता
है, तो कुछ
छोड़कर खरीदना
होता है। जीवन
की इकॉनामी
है। एक ही चीज
से आप सब
चीजें नहीं
खरीद सकते। एक
चीज छोड़नी
पड़ती है, तो
दूसरी चीज
खरीद सकते
हैं। जीवन का
अपना अर्थशास्त्र
है।
आपके
खीसे में एक
रुपया पड़ा हुआ
है। रुपया बहुत
चीजें खरीद
सकता है। जब
तक नहीं खरीदा
है,
तब तक रुपया
बहुत चीजें
खरीद सकता है।
लेकिन जब
खरीदने
जाएंगे, तो
एक ही चीज
खरीद सकता है।
जब आप एक चीज खरीदेंगे,
तो बाकी जो
चीजें रुपया
खरीद सकता था,
उनका त्याग
हो गया। अगर
आपने एक रुपए
से टिकट खरीद
ली और रात
जाकर सिनेमा
में बैठ गए, तो आप एक
रुपए से और जो
खरीद सकते थे,
उस सबका
आपने त्याग कर
दिया। आप भी
त्याग करके
वहां गए हैं।
हो सकता है, बच्चे को
दवा की जरूरत
हो, आपने
उसका त्याग कर
दिया। हो सकता
है, पत्नी
के तन पर कपड़ा
न हो, उसको पकड़े की
जरूरत हो, आपने
उसका त्याग कर
दिया। हो सकता
है, आपका
खुद का पेट
भूखा हो, लेकिन
आपने अपनी भूख
का त्याग कर
दिया।
जगत
में जीवन की
एक इकॉनामी
है,
अर्थशास्त्र
है। यहां एक
इच्छा पूरी
करनी हो, तो
दूसरी
इच्छाएं छोड़नी
पड़ती हैं। तो
जो आदमी संसार
की इच्छाएं
छोड़कर जंगल
चला जाता है, पूछना जरूरी
है, वह
क्या पाने
वहां जा रहा
है? कहेगा,
परमात्मा
को पाने जा
रहा हूं, आत्मा
को पाने जा
रहा हूं, आनंद
को पाने जा
रहा हूं।
लेकिन
इच्छाओं को छोड़कर
अगर किसी
इच्छा को पाने
ही जा रहे हैं,
तो आप
संन्यासी
नहीं हैं।
कृष्ण
कहते हैं
संन्यासी उसे, जो
किसी इच्छा के
लिए और
इच्छाओं को
नहीं छोड़ता, जो इच्छाओं
को ही छोड़
देता है। इस
फर्क को ठीक से
समझ लें। किसी
इच्छा के लिए
छोड़ना, तो
सभी से हो
जाता है। नहीं,
इच्छाओं को
ही छोड़ देता
है।
हम
कहेंगे कि
इच्छा छूटी कि
कर्म छूट
जाएगा! हम
कहेंगे कि
इच्छा अगर छूट
जाए,
तो फिर हम
कर्म क्यों
करेंगे? यह
भी हमारा
इच्छा से भरा
हुआ मन सवाल
उठाता है।
क्योंकि हमने
बिना इच्छा के
कभी कोई कर्म
नहीं किया है।
लेकिन कृष्ण गहरा
जानते हैं। वे
जानते हैं कि
इच्छा छूट जाए,
तो भी कर्म
नहीं छूटेगा,
सिर्फ गलत
कर्म छूट
जाएगा। यह
दूसरा सूत्र
इस सूत्र में
समझ लेने जैसा
है।
इसलिए
वे कहते हैं, जो
करने योग्य है,
वही कर्म।
जैसे ही इच्छा
छूटी कि गलत
कर्म छूट
जाएगा, ठीक
कर्म नहीं छूटेगा।
क्योंकि ठीक
कर्म जीवन से
वैसे ही
निकलता है, जैसे झरने
सागर की तरफ
बहते हैं। ठीक
कर्म जीवन में
वैसे ही खिलता
है, जैसे
वृक्षों में
फूल खिलते
हैं। ठीक कर्म
जीवन का
स्वभाव है।
गलत
कर्म जीवन का
स्वभाव नहीं
है। इच्छाओं के
कारण गलत कर्म
जीवन करने को
मजबूर होता
है। जो आदमी
चोरी करता है, वह
भी ऐसा अनुभव
नहीं करता कि
मैं चोर हूं।
बड़े से बड़ा
चोर भी ऐसा ही
अनुभव करता है
कि मजबूरी में
मैंने चोरी की
है; मैं
चोर नहीं हूं।
बड़े से बड़ा
चोर भी ऐसा ही
अनुभव करता है
कि ऐसा दबाव
था परिस्थिति
का कि मुझे
चोरी करनी पड़ी
है, वैसे
मैं चोर नहीं
हूं। बुरे से
बुरा कर्म करने
वाला भी ऐसा
नहीं मानता कि
मैं बुरा हूं।
वह ऐसा ही
मानता है, एक्सिडेंट है बुरा
कर्म।
आज तक
पृथ्वी पर ऐसा
एक भी आदमी
नहीं हुआ, जिसने
कहा हो कि मैं
बुरा आदमी
हूं। वह इतना
ही कहता है, आदमी तो मैं
अच्छा हूं, लेकिन
दुर्भाग्य कि
परिस्थितियों
ने मुझे बुरा
करने को मजबूर
कर दिया।
लेकिन
परिस्थितियां!
उसी
परिस्थिति
में बुद्ध भी
पैदा हो जाते
हैं;
उसी
परिस्थिति
में एक डाकू
भी पैदा हो
जाता है; उसी
परिस्थिति
में एक
हत्यारा भी
पैदा हो जाता
है। एक ही घर
में भी तीन
लोग तीन तरह
के पैदा हो
जाते हैं।
बिलकुल एक-सी
परिस्थिति भी
एक-से आदमी पैदा
नहीं कर पाती।
परिस्थिति
भेद कम डालती
है;
इच्छाएं
भेद ज्यादा
डालती हैं।
इच्छाएं
इतनी मजबूत
हों,
तो हम सोचते
हैं कि एक
इच्छा पूरी
होती है, थोड़ा-सा
बुरा भी करना
हो, तो कर
लो। इच्छा की
गहरी पकड़ बुरा
करने के लिए राजी
करवा लेती है।
बुरा काम भी
कोई आदमी किसी
अच्छी इच्छा
को पूरा करने
के लिए करता
है। बुरा काम
भी किसी अच्छी
इच्छा को पूरा
करने के लिए
अपने मन को
समझा लेता है
कि इच्छा इतनी
अच्छी है, साध्य
इतना अच्छा है,
इसलिए अगर
थोड़े गलत
मार्ग भी पकड़े
गए, तो
बुरा नहीं है।
और ऐसा नहीं
है कि
छोटे-छोटे साधारणजन
ऐसा सोचते हैं,
बड़े
बुद्धिमान
कहे जाने वाले
लोग भी ऐसा ही
सोचते हैं।
माक्र्स या
लेनिन जैसे
लोग भी ऐसा ही
सोचते हैं कि
अगर अच्छे अंत
के लिए बुरा
साधन उपयोग
में लाया जाए,
तो कोई
हर्जा नहीं है;
ठीक है।
लेकिन हम जो
करना चाहते
हैं, वह तो
अच्छा ही करना
चाहते हैं।
बुरे
से बुरे आदमी
की भी
तर्क-शैली यही
है कि जो मैं
करना चाहता
हूं,
वह तो अच्छा
ही है। अगर
मैं एक मकान
बना लेना चाहता
हूं और उसकी
छाया में
दोपहर
विश्राम करना
चाहता हूं, तो बुरा
क्या है! सहज, स्वाभाविक,
मानवीय है।
फिर इसके लिए
थोड़ी
कालाबाजारी
करनी पड़ती है,
थोड़ी चोरी
करनी पड़ती है,
थोड़ी
रिश्वत देनी
पड़ती है, वह
मैं दे लेता
हूं। क्योंकि
उसके बिना यह
नहीं हो
सकेगा।
कृष्ण
कहते हैं कि
जिस आदमी की
इच्छाएं छूट
जाएं, उस आदमी
के बुरे कर्म
तत्काल छूट
जाते हैं।
लेकिन अच्छे
कर्म नहीं
छूटते।
अच्छा
कर्म वही
है--उसकी
परिभाषा अगर
मैं देना
चाहूं, तो
ऐसी देना पसंद
करूंगा--अच्छा
कर्म वही है, जो बिना
इच्छा के भी
चल सके। और
बुरा कर्म वही
है, जो
इच्छा के
पैरों के बिना
न चल सके। जिस
कर्म को चलाने
के लिए इच्छा
जरूरी हो, वह
बुरा है; और
जिस कर्म को
चलाने के लिए
इच्छा बिलकुल
भी गैर-जरूरी
हो, वह
कर्म अच्छा
है। अच्छे का
एक ही अर्थ है,
जीवन के
स्वभाव से
निकले, जीवन
से निकले।
कृष्ण
कहते हैं, अगर
इच्छाएं छोड़
दे कोई और
सिर्फ कर्म
करे, तो
उसे मैं
संन्यासी
कहता हूं।
यह बड़ी इसोटेरिक, बड़ी
गुह्य
व्याख्या है।
साधारणतः यही
दिखाई पड़ता है
संन्यासी और
गृहस्थ का
फर्क कि गृहस्थ
वह है जो घर
में रहे, संन्यासी
वह है जो घर
छोड़ दे। कृष्ण
की परिभाषा
में उलटा भी
हो सकता है।
घर में रहने
वाला भी संन्यासी
हो सकता है, घर छोड़ने
वाला भी
गृहस्थ हो
सकता है।
कृष्ण
की परिभाषा
थोड़ी गहन है।
अगर कोई आदमी
घर छोड़ दे, किसी
इच्छा के लिए,
तो वह
गृहस्थ है। और
अगर कोई आदमी
घर में चुपचाप
रहा आए बिना
किसी इच्छा के,
तो वह
संन्यासी है।
अगर कोई आदमी
अपने घर में बिना
इच्छाओं के
जीने लगे, तो
घर आश्रम हो
गया। और अगर
कोई आदमी
आश्रम में
जाकर नई
इच्छाओं के
आस-पास जाल
बुनने लगे, तो वह घर हो
गया।
ऐसा
संन्यासी
आपने देखा है, जिसकी
इच्छा न हो? अगर ऐसा
संन्यासी
नहीं देखा
जिसकी इच्छा न
हो, तो
समझना कि आपने
संन्यासी ही
नहीं देखा है।
आदमी
का मन, बहुत
रूपों में
अपने को बचाने
में कुशल है।
सब तरफ से
अपने को बचाने
में कुशल है।
विपरीत
स्थितियों
में भी अपने
को बचा लेता
है। जंगल में
भी बैठ जाएं, तो वहां भी
इच्छा के जाल
बुनता रहता
है। मंदिर में,
तीर्थ में
भी बैठकर
इच्छाओं के
जाल बुनता रहता
है। मन का काम
ही इच्छाओं के
जाल निर्मित
करना है।
अगर हम
ऐसा कहें कि
मन ऐसा वृक्ष
है,
जिस पर
इच्छाओं के
पत्ते लगते
हैं, लगते
ही चले जाते
हैं। एक पत्ता
कुम्हलाया, गिरा नहीं
कि नए पत्ते
के पीके
निकलने शुरू
हो गए, अंकुरित
होने लगे। अगर
और गहरे में
देखें, तो
पुराना पत्ता
गिरता तभी है,
जब उसके
नीचे से नया
पत्ता उसे
गिराने के लिए
धक्के देने
लगता है। एक
इच्छा छूटती
तभी है, जब
दूसरी इच्छा
जगह बनाने के
लिए मांग करती
है कि मुझे
जगह खाली करो।
एक इच्छा हटती
तभी है, जब
उससे भी प्रबल
इच्छा धक्के
देकर जगह
बनाती है। मन
में इच्छाएं
निर्मित होती
चली जाती हैं।
कृष्ण
कहते हैं, इच्छाएं
न हों, तो
संन्यासी हो
जाएगा। मैं
आपसे कहता हूं,
जिसमें
इच्छाएं न
रहीं, उसमें
मन भी न रहा।
क्योंकि मन और
इच्छाएं एक ही
चीज का नाम
है। मन समस्त
इच्छाओं का
जोड़ है, समस्त
कामनाओं का
जोड़, समस्त
तृष्णाओं का
जोड़। अगर
इच्छाएं न रही,
तो मन न रहा।
कृष्ण
कहते हैं, जिसके
पास मन न रहा, वह संन्यासी
है। कर्म न
रहा, नहीं;
मन न रहा, वह संन्यासी
है।
बुरे
कर्म तो गिर
जाएंगे, क्योंकि
बुरे कर्म
बिना इच्छाओं
के कोई भी नहीं
कर सकता।
इसमें
एक बहुत गहन
आस्था भी
प्रकट की गई
है।
कृष्ण
की मनुष्य पर
निष्ठा
अपरिसीम है।
इतनी निष्ठा
शायद ही किसी
दूसरे
व्यक्ति की
पृथ्वी पर कभी
रही हो। जो
आदमी भी मानता
है कि तुम्हें
अच्छा होना
पड़ेगा, उस
आदमी की आदमी
पर बहुत
निष्ठा नहीं
है। कृष्ण की
निष्ठा है कि
आदमी तो अच्छा
है, सिर्फ
मन मौजूद न हो,
तो आदमी की
अच्छाई में
कोई कमी ही
नहीं है। वह
अच्छा है ही।
वह स्वभावतः
अच्छा है। वह शुभ
है। इतनी ही
शर्त काफी है
कि वह इच्छाएं
छोड़ दे और
उसके भीतर शुभ
का जन्म हो
जाएगा। वह बिलकुल
शुद्ध, पवित्रतम,
निर्दोष, निष्कलंक
प्रकट हो
जाएगा। उसकी
इनोसेंस, उसका
निर्दोषपन
जाहिर हो
जाएगा।
जैसे
दर्पण पर धूल
जम गई हो और
धूल को किसी
ने पोंछ दिया
हो और दर्पण शुद्ध
हो जाए। लेकिन
क्या आप
कहेंगे कि जब
दर्पण पर धूल
थी,
तब दर्पण
अशुद्ध हो गया
था? आपको
तस्वीर नहीं
दिखाई पड़ती थी,
यह बात
दूसरी है।
लेकिन दर्पण
तब भी अशुद्ध
नहीं हो गया
था। दर्पण तब
भी पूरा ही
दर्पण था। सिर्फ
धूल की एक
पर्त थी कि
तस्वीर दिखाई
नहीं पड़ती थी।
दर्पण में धूल
कहीं घुस नहीं
गई थी, प्रवेश
नहीं कर गई थी,
बाहर ही
बाहर थी। फूंक
मार दी, झाड़
दी। धूल हट गई,
दर्पण साफ
हो गया।
कृष्ण
की दृष्टि में
आदमी दर्पण की
तरह शुद्ध है।
इच्छाएं करता
है,
तो धूल
इकट्ठी कर लेता
है चारों तरफ,
इच्छाओं के
कण इकट्ठे कर
लेता है।
अभी
पश्चिम में इस
बात पर काफी
चिंतन-मनन
चलता है कि जब
आदमी इच्छाएं
करता है, तो
क्या उसके मन
में कोई अंतर
पड़ता है
इच्छाओं के
करने से? जब
एक आदमी क्रोध
से भरता है, तब उसके पास
वही मन रहता
है, जो
क्रोध करने के
पहले था? जब
एक आदमी क्षमा
से भरता है, तब उसके पास
वही मन रहता
है, जो
क्रोध के वक्त
था?
तो अब
मनोविज्ञान
कहता है कि मन
तो वही रहता है, लेकिन
मन के आस-पास
की चीजें बदल
जाती हैं। जब आदमी
क्रोध से भरता
है, तो
शरीर की
ग्रंथियां
ऐसे जहर को
छोड़ देती हैं,
जो मन को
चारों तरफ से
घेर लेता है, पायजनस कर
देता है, जैसे
दर्पण को धूल
घेर ले। और जब
आदमी प्रेम से
भरता है, तो
उसकी
रस-ग्रंथियां
उसके सारे
शरीर से उस अमृत
को छोड़ देती
हैं; तब भी
मन वही रहता
है, लेकिन
उसके चारों
तरफ रस की धार
बहने लगती है--उसी
आदमी के पास।
कृष्ण
और भी गहरी
बात कहते हैं।
वे कहते हैं
कि आदमी की
चेतना तो
निर्दोष है
ही। बस, तुमने
चाहा कि दोष
इकट्ठे होने
शुरू हुए। वे
भी बाहर ही
इकट्ठे होते
हैं, भीतर
प्रवेश नहीं
करते। एक क्षण
को भी कोई इच्छाएं
छोड़ दे, तो
वे सारे दोष
गिर जाते हैं।
और तब बुरा
कर्म असंभव हो
जाता है।
लेकिन शुभ
कर्म जारी
रहता है। सच तो
यह है कि जो
शक्ति हमारे
बुरे कर्म में
लगती है, वह
सारी शक्ति बच
जाती है और
शुभ कर्म में
समायोजित हो
जाती है।
कृष्ण
के लिए, कर्म
इच्छाओं के
कारण से नहीं
होते; कर्म
जीवन के
स्वभाव की
स्फुरणा है; जीवन की
एनर्जी से
होते हैं।
जहां शक्ति है,
वहां कर्म
आएगा।
क्योंकि
शक्ति कर्म
में प्रकट
होना चाहती
है।
यह
परमात्मा
इतने बड़े
विराट जगत में
प्रकट होता है, यह
उसकी ऊर्जा है,
शक्ति है, जो प्रकट
होना चाहती
है। जमीन से
एक पत्थर हटा
लिया और एक
फव्वारा
फूटने लगा। यह
फव्वारा कहीं जाने
को नहीं फूट
रहा है। इसके
भीतर ऊर्जा है,
वह प्रकट
होना चाहती
है।
आदमी
की अगर
इच्छाएं गिर
जाएं, तो उसके
जीवन की पूरी
ऊर्जा शुभ में
प्रकट होना
चाहती है।
इच्छाओं रहित
चेतना शुभ की
ऊर्जा को
प्रकट करने
लगती है।
तो
कृष्ण कहते
हैं,
बुरे कर्म
गिर जाएंगे।
जो करने योग्य
है, वही
किया जा
सकेगा। इसको
ही मैं
संन्यास कहता हूं।
उसको नहीं कि
जिसने अग्नि
छोड़ दी।
उन
दिनों अग्नि
को छोड़ना बहुत
बड़ी घटना थी।
इसको थोड़ा
खयाल में ले
लें। यह सूत्र
जब कहा गया, तब
अग्नि को
छोड़ना बहुत
बड़ी घटना थी।
आज हमारे मन
में खयाल आएगा
कि यह क्या
बात कहते हैं
कृष्ण कि
जिसने अग्नि
छोड़ दी! आज
हमारे लिए
अग्नि उतनी
बड़ी घटना नहीं
है। लेकिन जिस
दिन यह बात
कही गई थी, उस
दिन अग्नि
उतनी ही बड़ी
घटना थी, जितनी
अगर हम आज
सोचना चाहें,
तो सिर्फ एक
ही बात खयाल
में आ सकती
है। जैसे आज
अगर हम कहें
कि जिस
व्यक्ति ने
यंत्रों का
उपयोग छोड़
दिया! आज अगर
पैरेलल, समानांतर
कोई बात कहना
चाहें; अगर
आज हम कहें कि
जिस व्यक्ति
ने यंत्रों का
उपयोग छोड़
दिया!
तो आप
सोचें कि
यंत्र के
उपयोग छोड़ने
में करीब-करीब
जीवन का सब
कुछ छूट
जाएगा।
क्योंकि आज जीवन
को यंत्र ने
सब तरफ से घेर
लिया है। वह
आदमी ट्रेन
में नहीं बैठ
सकेगा। वह आदमी
माइक से नहीं
बोल सकेगा। वह
आदमी चश्मा
नहीं लगा
सकेगा। वह
आदमी कपड़ा
नहीं पहन
सकेगा। सब
यंत्र पर
निर्भर है। वह
आदमी फाउंटेनपेन
से नहीं लिख
सकेगा। वह
आदमी जाकर नाई
से बाल नहीं
बनवा सकेगा।
थोड़ा सोचें कि
जिस आदमी ने
यंत्र का
उपयोग छोड़
दिया, उसके
जीवन में क्या
बच रहेगा? कुछ
नहीं बच
रहेगा।
उस दिन
अग्नि इतनी ही
बड़ी घटना थी।
तो उस दिन कृष्ण
कहते हैं कि
जिसने अग्नि
छोड़ दी। उस
दिन सब कुछ
अग्नि पर
निर्भर था:
भोजन, जीवन की
सुरक्षा, जीवन
की व्यवस्था।
अग्नि बहुत
बड़ी घटना थी। जब
तक अग्नि नहीं
थी आदमी के
पास, तब तक
आदमी इतना
असुरक्षित था,
कहना चाहिए,
सभ्य नहीं
था। आदमी सभ्य
हुआ अग्नि के
साथ।
अग्नि
नहीं थी, तो
मांसाहार
भोजन के
अतिरिक्त और
कोई उपाय न था।
या कच्चे फल
खा लेता, या
मांस खा लेता।
अग्नि थी, तो
भोजन पकाकर
उसने खाना
शुरू किया।
अग्नि नहीं थी,
तो दिनभर
ही घूम-फिर
सकता था। रात
होते ही खतरे
में पड़ जाता
था। चारों तरफ
जंगली जानवर
थे, उनका
भय था। रातभर
आधे लोगों को
पहरा देना पड़ता,
आधे लोग
सोते। तब भी
खतरा हमेशा
मौजूद रहता। सभ्य
होने का मौका
नहीं था। खाना
और रात सो लेना,
दो काम जीवन
की सारी ऊर्जा
ले लेते थे।
अग्नि ने आकर
बड़ा उपाय कर
दिया। अग्नि
ने सुरक्षा दे
दी। जंगल का
आदमी चारों
तरफ अग्नि
जलाकर बीच में
आराम से सोने
लगा। अग्नि
पहला देवता था,
आदमी को
सभ्य करने
वाला। सभ्यता
आई अग्नि के साथ।
तो जिस
जिन यह सूत्र
कहा गया, उस
दिन अग्नि ने
जीवन को चारों
तरफ से इसी
तरह सिविलाइज
किया था, सभ्य
किया था, जैसे
आज यंत्रों ने
किया हुआ है।
अग्नि
छोड़ दे जो उस
दिन,
उसका सब छूट
जाता था। सब!
उसके हाथ में
कुछ बचता नहीं
था। वह सभ्य
जीवन से हट
जाता था। वह
असभ्य जीवन की
ओर, वन की
ओर, अरण्य
की ओर हट जाता
था। वह उसी
दुनिया में
लौट जाता, जहां
अग्नि के पहले
आदमी रहता था,
गुफाओं
में। हाथ से
खाना नहीं
पकाता था। आग
जलाकर ठंड से
अपने को नहीं
बचाता था। वह
वहां लौट जाता
था। अग्नि
छोड़ने का अर्थ
यह है, गुफा-मानव
की ओर वापस
लौट जाए कोई।
तो भी
कृष्ण कहते
हैं,
वह संन्यासी
नहीं है।
क्योंकि अगर
यह कृत्य भी
किसी वासना से
प्रेरित होकर
हो रहा है, तो
संन्यास नहीं
है।
कृष्ण
कहते हैं, वासनाशून्य कृत्य। कोई
भी कृत्य
वासना से
शून्य हो जाए,
फिर चाहे वह
कृत्य कितना
ही बड़ा हो।
अर्जुन युद्ध
में जाने को
खड़ा है। कृष्ण
कहते हैं, तू
युद्ध में जा।
अगर फल की
आकांक्षा
छोड़कर जा सके,
तो यह युद्ध
भी संन्यास
है। फिर कोई
हर्ज नहीं है।
अजीब
बात कहते हैं!
जो आदमी सब
कुछ छोड़कर
जंगल की गुफा
में चला जाए, उसे
कहते हैं, वह
भी संन्यास
नहीं। अर्जुन
जो युद्ध में
खड़ा है, युद्ध
में लड़े, उससे
कहते हैं, यह
भी संन्यास
है!
कृष्ण
का यह वक्तव्य
बहुत सोचने
जैसा है। सैद्धांतिक
अर्थों में
उतना
मूल्यवान
नहीं, जितना
व्यावहारिक
अर्थों में
मूल्यवान है। अगर
भविष्य में इस
पृथ्वी पर कोई
भी संन्यास बचेगा,
तो वह कृष्ण
का संन्यास बच
सकता है, और
कोई संन्यास
बच नहीं सकता
है। क्योंकि
अगर आज कोई
मान ले पुराने
संन्यास की
धारणा को; पृथ्वी
पर साढ़े
तीन अरब लोग
हैं, अगर
ये छोड़कर जंगल
में चले जाएं,
तो जंगल में
सिर्फ मेला भर
जाएगा, और
कुछ भी नहीं
होगा! ये जहां
जाएंगे, वहीं
जंगल नहीं
रहेगा। ये
कहीं भी चले
जाएं, ये
जहां जाएंगे,
वहीं जंगल
सपाट हो
जाएगा।
यह साढ़े
तीन अरब लोगों
की पृथ्वी, जो
रोज बढ़ती जा
रही है। इस
सदी के पूरे
होते-होते और
एक अरब संख्या
बढ़ जाएगी। और
वैज्ञानिक कहते
हैं कि अगर सौ
वर्ष इसी तरह
संख्या बढ़ती रही,
तो आदमी को
कोहनी हिलाने
की जगह नहीं
बचेगी। सब जगह,
जहां भी
जाएगा, कोई
हाथ चारों तरफ
लगा रहेगा। अब
भागकर आप नहीं
जा सकेंगे।
तो फिर
क्या होगा
संन्यास का? पुराना
गुहा वाला
संन्यास तो
फिर नहीं हो
सकेगा। तो फिर
इस पृथ्वी पर
संन्यास ही
नहीं होगा? तब जो जीवन
का एक बहुत
अमृत-फूल नष्ट
हो जाएगा। तब
तो जीवन की एक
बहुत अदभुत
सुगंध--क्योंकि
जिसने
संन्यास नहीं
जाना, उसने
जीवन नहीं
जाना--वह नष्ट
हो जाएगा, वह
खो जाएगा।
कृष्ण का
संन्यास बच
सकता है।
इसलिए
मुझे कई बार
लगता है कि
गीता भविष्य
के लिए बहुत
सार्थक होती
चली जाएगी।
उसकी दृष्टि
भविष्य के लिए
रोज अनुकूल
पड़ती चली
जाएगी। कृष्ण
रोज करीब आते
चले जाएंगे।
क्योंकि वे
गहरी बात कर
रहे हैं। वे कह
रहे हैं, कहीं
कोई जाने की
जरूरत नहीं
है। जहां हो
वहीं, सिर्फ
एक शर्त पूरी
करो और तुम
गृहस्थ न रह
जाओगे। एक
शर्त पूरी करो,
और तुम
संन्यासी हो
जाओगे। और वह
शर्त है कि तुम
वासना मत करो,
फल की
आकांक्षा मत
करो।
कठिन
होगा समझना कि
फल की
आकांक्षा
कैसे न करें!
चौबीस घंटे के
लिए प्रयोग
करके देखें, तो
खयाल में आ
जाएगा, अन्यथा
शायद जीवनभर
समझने से खयाल
में न आ सके।
कुछ
चीजें हैं इस
जीवन में, जो
प्रयोग करने
से तत्काल समझ
में आ जाती
हैं। मुंह पर
कोई शक्कर का
एक टुकड़ा रख
दे, और
तत्काल समझ
में आता है कि
स्वाद क्या
है। एक जरा-सा टुकड?ा,
एक क्षण की
भी देर नहीं
लगती, पूरा
शरीर खबर देता
है कि क्या
है। और जिस
आदमी ने नहीं
स्वाद लिया हो,
उसे हम पूरे
के पूरे
जीवनभर
समझाते रहें
कि स्वाद क्या
है; वह
कहेगा, आप
कहते हैं, सब
ठीक है। लेकिन
फिर भी स्वाद
क्या है, अभी
समझ में नहीं
आया। उसमें
समझ की कोई
गलती नहीं है।
समझ का काम ही
नहीं है; अनुभव
का काम है।
कुछ बातें हैं,
जो समझ से
समझ में आती
हैं। बेकार
बातें समझने
से समझ में आ
जाती हैं।
गहरी और काम
की बातें सिर्फ
अनुभव से समझ
में आती हैं, समझने से
समझ में नहीं आतीं।
कृष्ण
कहते हैं, फल
की आकांक्षा
छोड़ दो।
हजारों
साल से हम सुन
रहे हैं। गीता
इतनी परिचित
है,
जितनी और
कोई किताब
परिचित नहीं
है। मुझसे कोई
बोला कि गीता
तो इतनी
परिचित है, आप गीता पर
क्यों बोलते
हैं? मैंने
कहा कि मैं
इसीलिए बोलता
हूं, क्योंकि
मैं मानता हूं
कि गीता के
संबंध में बड़ा
भ्रम हो गया
है कि परिचित
है। पढ़ ली, तो
हम सोचते हैं,
परिचित है।
गीता से
ज्यादा
अपरिचित
किताब मुश्किल
है। एक अर्थ
में ठीक है कि
परिचित है। सभी
लोगों के घरों
में रखी है और
धूल इकट्ठी करती
है। सभी लोगों
को पता है कि
गीता में क्या
लिखा है।
काश, सभी
लोगों को पता
होता, तो
यह दुनिया
बिलकुल दूसरी
हो सकती थी!
नहीं, पता
नहीं है। शब्द
पता हैं। शायद
अर्थ भी पता है,
क्योंकि
अर्थ शब्दकोश
में मिल जाता
है। अभिप्राय
पता नहीं है, क्या
प्रयोजन है!
ये
कृष्ण कहते
हैं कि तू फल
कि आकांक्षा
छोड़ दे और
कर्म कर।
मैं
आपसे कहूंगा, एक
चौबीस घंटे के
लिए--दुनिया
नष्ट नहीं हो
जाएगी--एक दिन
प्रयोग कर
लें। सुबह छः
बजे से दूसरे
दिन सुबह छः
बजे तक फल की
आकांक्षा छोड़
दें और कर्म
करें। और आपकी
जीभ पर स्वाद
आ जाएगा। और
आपको पता
चलेगा कि कर्म
हो सकता है, फल की
आकांक्षा के
बिना भी। और
पहली दफे आपके
जीवन में ऐसा
कर्म होगा, जिसको हम
टोटल एक्ट, पूर्ण कर्म
कह सकते हैं।
क्योंकि मन
कहीं नहीं दौड़ेगा;
फल की कोई
आकांक्षा
नहीं है। और
एक बार आपको स्वाद
आ जाए, तो
मैं आपको
भरोसा दिलाता
हूं कि वे
चौबीस घंटे
फिर कभी खतम नहीं
होंगे। छः बजे
शुरू जरूर
होगी यात्रा,
लेकिन
दूसरे छः फिर
कभी नहीं बजेंगे।
एक बार
स्वाद आ जाए, तो
आपको पता चले
कि इतने निकट
जीवन के, इतना
बड़ा सागर था
आनंद का, हमने
कभी नजर न की; हम चूकते ही
चले गए। हमारी
गर्दन ही
तिरछी हो गई
है। हम भागते
ही चले जाते
हैं। बस, चूकते
चले जाते हैं।
देख ही नहीं
पाते कि किनारे
कोई एक और
स्वाद भी है
जीवन का।
कभी-कभी उसकी
झलक मिलती है
किन्हीं
कृत्यों में।
कभी आप
अपने बच्चे के
साथ खेल रहे
हैं,
कोई फल की
आकांक्षा
नहीं होती।
कभी आपने खयाल
किया है कि
बच्चे के साथ
खेलने में
कैसा आह्लाद!
हां, अगर
बड़े के साथ
खेल रहे हैं, तो उतना
आह्लाद नहीं
होगा, क्योंकि
बड़े के साथ
खेल भी काम बन
जाता है। बाजी!
हार-जीत शुरू
हो जाती है।
फल की
आकांक्षा आ जाती
है। बाप अपने
छोटे-से बेटे
के साथ खेल रहा
है। कभी आपने
किसी बाप को
अपने छोटे
बेटे के साथ
खेलते देखा? वैसे यह
घटना दुर्लभ
होती जाती है।
बाप
अपने छोटे
बेटे के साथ
खेल रहा है।
हराने का कोई
सवाल नहीं
उठता। हराने
का खयाल भी
नहीं उठता।
हां,
खेल में हार
जाने का मजा
जरूर वह लेता
है। जमीन पर
लेट गया है, बेटे को
छाती पर बिठा
लिया है। बेटा
नाच रहा है
खुश होकर; बाप
को उसने हरा
दिया है!
सभी
बेटे बाप को
हराना चाहते
हैं। और जो
बाप जिद्द
करते हैं, वे
मुश्किल में
पड़ जाते हैं।
और जो बाप
होशियार हैं,
वे खुद जमीन
पर लेट जाते
हैं और हार
जाते हैं। और
उनके बच्चे
बाद में
पछताते हैं कि
बाप ने बहुत
गहरी मजाक कर
दी। लेकिन तब
कोई आकांक्षा
नहीं है, सिर्फ
उस छोटे-से
खेल में सब
समा गया है।
मेरे
एक मित्र
जापान के एक
घर में मेहमान
थे। सुबह घर
के बच्चों ने
उनको आकर खबर
दी कि हमारे
घर में विवाह
हो रहा है, आप
शाम सम्मिलित
हों। उन्हें
थोड़ी हैरानी
हुई, क्योंकि
बहुत छोटे
बच्चे थे। तो
उन्होंने सोचा
कि कुछ
गुड्डा-गुड्डी
का विवाह करते
होंगे।
उन्होंने कहा,
मैं जरूर
सम्मिलित
होऊंगा।
लेकिन सांझ के
पहले घर के
बड़े-बूढ़ों ने
भी आकर
निमंत्रण
दिया कि घर
में विवाह है,
आप
सम्मिलित
हों। तब वे
समझे कि मुझसे
भूल हो गई।
लेकिन
जब सांझ को घर
के हाल में गए, जहां
कि सब
बैंड-बाजा सजा
था, तो
देखा कि वहां
दूल्हा तो
नहीं है। वहां
तो गुड्डा ही
रखा है और
बारात तैयार
हो रही है! गांव
के आस-पास के
बूढ़े भी
इकट्ठे हुए
हैं; बारात
बाहर निकल आई
है। तब
उन्होंने एक
बूढ़े से पूछा
कि यह क्या
मामला है? मैं
तो सोचता था
कि बच्चों के
खेल बच्चों के
लिए शोभा देते
हैं, आप
लोग इसमें सब
सम्मिलित हैं!
तो उस
बूढ़े ने हंसकर
कहा कि अब
हमें बड़ों के
खेल भी बच्चों
के खेल ही
मालूम पड़ते
हैं। बड़ों के
खेल भी! अब तो
जब असली
दूल्हा भी
बारात लेकर चलता
है,
तब भी हम
जानते हैं कि
खेल ही है। तो
इस खेल में गंभीरता
से सम्मिलित
होने में हमें
कोई हर्ज नहीं
है। दोनों
बराबर हैं।
गांव
के बूढ़े भी
सम्मिलित हुए
हैं। मेरे
मित्र तो
परेशान ही
रहे। सोचा कि
सांझ खराब हो
गई। मैंने
उनसे पूछा कि
आप करते क्या
सांझ को, अगर
खराब न होती
तो? रेडियो
खोलकर सुनते,
सिनेमा
देखते, राजनीति
की चर्चा करते?
सुबह जो
अखबार में पढ़ा
था, उसकी
जुगाली करते?
क्या करते?
करते क्या?
कहा, नहीं,
करता तो कुछ
नहीं। तो फिर
मैंने कहा कि
बेकार चली गई,
यह खयाल
कैसे पैदा हो
रहा है? बेकार
जरूर चली गई, क्योंकि उस घंटेभर
में आपको एक
मौका मिला था,
जब कि
आकांक्षा फल
की कोई भी न थी,
तब आपको एक
खेल में
सम्मिलित
होने का मौका
मिला था, वह
आप चूक गए।
मैंने कहा, दोबारा
जाना। कोई
निमंत्रण न भी
दे, तो भी
सम्मिलित हो
जाना। और उस घंटेभर इस
बारात को आनंद
से जीना, तो
शायद एक क्षण
में वह दिखाई
पड़े, जो कि
फलहीन कर्म
है।
खेल
में कभी फलहीन
कर्म की
थोड़ी-सी झलक
मिलती है।
लेकिन नहीं
मिलती है, हमने
खेलों को नष्ट
कर दिया है।
हमने खेलों को
भी काम बना
दिया है।
उनमें भी हम
तनाव से भर जाते
हैं। जीतने की
आकांक्षा
इतनी प्रबल हो
जाती है कि
खेल का सब मजा
ही नष्ट हो
जाता है।
नहीं, कभी
चौबीस घंटे एक
प्रयोग करके
देखें, और
वह प्रयोग
आपकी जिंदगी
के लिए कीमती
होगा। उस
प्रयोग को
करने के पहले
इस सूत्र को
पढ़ें, फिर
प्रयोग को
करने के बाद
इस सूत्र को
पढ़ें, तब
आपको पता
चलेगा कि
कृष्ण क्या कह
रहे हैं। और
एक काम भी अगर
आप फल के बिना
करने में
समर्थ हो जाएं,
तो आपकी
पूरी जिंदगी
पर फलाकांक्षाहीन
कर्मों का
विस्तार हो
जाएगा। वही
विस्तार संन्यास
है।
होगा
क्या? अगर आप
फल की
आकांक्षा न
करें, तो
क्या बनेगा, क्या मिट
जाएगा?
नहीं, प्रत्येक
को ऐसा लगता
है कि सारी
पृथ्वी उसी पर
ठहरी हुई है!
अगर उसने कहीं
फल की
आकांक्षा न की,
तो कहीं ऐसा
न हो कि सारा
आकाश गिर जाए।
छिपकली भी घर
में ऐसा ही
सोचती है मकान
पर टंगी हुई
कि सारा मकान
उस पर सम्हला
हुआ है। अगर
वह कहीं जरा
हट गई, तो
कहीं पूरा
मकान न गिर
जाए!
हम भी
वैसा ही सोचते
हैं। हमसे
पहले भी इस
जमीन पर अरबों
लोग रह चुके
और इसी तरह
सोच-सोचकर मर
गए। न उनके
कर्मों का कोई
पता है, न
उनके फलों का
आज कोई पता
है। न उनकी
हार का कोई
अर्थ है, न
उनकी जीत का
कोई प्रयोजन
है। सब मिट्टी
में खो जाते
हैं। लेकिन
थोड़ी देर
मिट्टी बहुत
पागलपन कर
लेती है। थोड़ी
देर बहुत
उछल-कूद; जैसे
लहर उठती है
सागर में, थोड़ी
देर बहुत
उछल-कूद; उछल-कूद
हो भी नहीं
पाती कि गिर
जाती है वापस।
ऐसे ही हम
हैं।
कृष्ण
कहते हैं कि
जानो तुम कि
जिस परमात्मा
ने तुम्हें
पैदा किया या
जिस परमात्मा
की तुम एक लहर
हो,
जिसने
तुम्हें जीवन
की ऊर्जा दी, वही तुमसे
कर्म करवाता
रहा है, वही
तुमसे कर्म
करवाता रहेगा।
तुम जल्दी मत
करो। तुम अपने
सिर पर व्यर्थ
का बोझ मत लो।
तुम उसी पर
छोड़ दो। तुम
इसकी भी फिक्र
छोड़ दो कि कल
क्या होगा! जो
होगा कल, वह
कल देख लेंगे।
जो आज हो रहा
है, तुम
उसमें राजी
रहो। तुम अपने
को पूरा छोड़
दो। जैसे कोई
पानी में अपने
को छोड़ दे और
बह जाए। तैरे
नहीं, बह
जाए; जस्ट फ्लोटिंग।
तैरने का भी
श्रम मत करो।
बस, बह
जाओ। जीवन
तुम्हें जो दे,
उसमें
चुपचाप बह
जाओ। कोई
आकांक्षा कल
की मत बांधो,
कोई फल
निश्चित मत
करो, कोई
कर्म की नियति
मत बांधो,
वह प्रभु पर
छोड़ दो। वह उस
पर छोड़ दो, जो
समग्र को जी
रहा है। और
ऐसा करते ही
व्यक्ति
संन्यासी हो
जाता है।
संन्यासी
वह है, जिसने
कहा कि कर्म
मैं करूंगा, फल तेरे
हाथ।
संन्यासी वह
है, जिसने
कहा कि शक्ति
तूने मुझे दी
है, तो काम
करवा ले। न
मुझे कल का
पता है, न
मुझे बीते कल
का कोई पता
है। न मुझे यह
भी पता है कि
क्या मेरे हित
में है और
क्या मेरे
अहित में है।
मुझे कुछ भी पता
नहीं है। बाकी
तू सम्हाल।
जिसने जीवन की
परम सत्ता को
कहा कि सब तू
सम्हाल; मुझमें
जो ऊर्जा है, उससे जो काम
लेना है, वह
काम ले ले।
काम मैं
करूंगा, फल
की बातचीत
मुझसे मत कर।
ऐसा व्यक्ति
संन्यासी है।
सच, ऐसा ही व्यक्ति
संन्यासी है।
संन्यास
का अर्थ ही
यही है कि
जिसने अपनी
अस्मिता का
बोझ अलग कर
दिया, जिसने
अपने अहंकार
का बोझ अलग रख
दिया, जिसने
कहा कि अब
समर्पित हूं।
समर्पण
संन्यास है।
समर्पित
व्यक्ति फल की
आकांक्षा
नहीं करता। क्योंकि
हम जानते ही
नहीं कि क्या
ठीक है और
क्या गलत है।
क्या होना
चाहिए और क्या
नहीं होना
चाहिए, यह भी
हमें पता नहीं
है।
एक
अरेबिक कहावत
है कि अगर
परमात्मा
सबकी आकांक्षाएं
पूरी कर दे, तो
लोग इतने दुख
में पड़ जाएं, जिसका कोई
हिसाब नहीं।
उस कहावत के
पीछे फिर बाद
में एक सूफी
कहानी वहां
प्रचलित हुई,
वह मैं आपसे
कहूं, फिर
हम दूसरे
सूत्र पर बात
करें।
सुना
है मैंने, एक
आदमी ने यह
कहावत पढ़ ली
कि परमात्मा आकांक्षाएं
पूरी कर दे
आदमियों की, तो आदमी बड़ी
मुसीबत में पड़
जाएं। उसकी
बड़ी कृपा है
कि वह आपकी आकांक्षाएं
पूरी नहीं
करता।
क्योंकि
अज्ञान में की
गई आकांक्षाएं
खतरे में ही
ले जा सकती
हैं। उस आदमी
ने कहा, यह
मैं नहीं मान
सकता हूं।
उसने
परमात्मा की बड़ी
पूजा, बड़ी
प्रार्थना
की। और जब
परमात्मा ने
आवाज दी कि तू
इतनी
पूजा-प्रार्थना
किसलिए
कर रहा है? तो
उसने कहा कि
मैं इस कहावत
की परीक्षा
करना चाहता
हूं। तो आप
मुझे वरदान
दें और मैं आकांक्षाएं
पूरी करवाऊंगा;
और मैं
सिद्ध करना
चाहता हूं, यह कहावत
गलत है।
परमात्मा
ने कहा कि तू
कोई भी तीन
इच्छाएं मांग
ले,
मैं पूरी कर
देता हूं। उस
आदमी ने कहा
कि ठीक। पहले
मैं घर जाऊं, अपनी पत्नी
से सलाह कर
लूं।
अभी तक
उसने सोचा
नहीं था कि
क्या मांगेगा, क्योंकि
उसे भरोसा ही
नहीं था कि यह
होने वाला है
कि परमात्मा
आकर कहेगा। आप
भी होते, तो
भरोसा नहीं
होता कि
परमात्मा आकर
कहेगा। जितने
लोग मंदिर में
जाकर
प्रार्थना
करते हैं, किसी
को भरोसा नहीं
होता। कर लेते
हैं। शायद! परहेप्स!
लेकिन शायद
मौजूद रहता
है।
तय
नहीं किया था; बहुत
घबड़ा गया।
भागा हुआ
पत्नी के पास
आया। पत्नी से
बोल कि कुछ
चाहिए हो तो
बोल। एक इच्छा
तेरी पूरी
करवा देता
हूं। जिंदगीभर
तेरा मैं कुछ
पूरा नहीं
करवा पाया।
पत्नी ने कहा
कि घर में कोई कड़ाही
नहीं है। उसे
कुछ पता नहीं
था कि क्या
मामला है। घर
में कड़ाही
नहीं है; कितने
दिन से कह रही
हूं। एक कड़ाही
हाजिर हो गई।
वह आदमी
घबड़ाया। उसने
सिर पीट लिया
कि मूर्ख, एक
वरदान खराब कर
दिया! इतने
क्रोध में आ
गया कि कहा कि
तू तो इसी
वक्त मर जाए
तो बेहतर है।
वह मर गई। तब
तो वह बहुत
घबड़ाया। उसने
कहा कि यह तो
बड़ी मुसीबत हो
गई। तो उसने
कहा, हे
भगवान, वह
एक और जो
इच्छा बची है;
कृपा करके
मेरी स्त्री
को जिंदा कर
दें।
ये
उनकी तीन
इच्छाएं पूरी
हुईं। उस आदमी
ने दरवाजे पर
लिख छोड़ा है
कि वह कहावत
ठीक है।
हम जो
मांग रहे हैं, हमें
भी पता नहीं
कि हम क्या
मांग रहे हैं।
वह तो पूरा
नहीं होता, इसलिए हम
मांगे चले
जाते हैं। वह
पूरा हो जाए, तो हमें पता
चले। नहीं
पूरा होता, तो कभी पता
नहीं चलता है।
कृष्ण
कहते हैं, मांगो
ही मत।
क्योंकि
जिसने
तुम्हें जीवन
दिया, वह
तुमसे ज्यादा
समझदार है।
तुम अपनी
समझदारी मत
बताओ। डोंट
बी टू वाइज।
बहुत
बुद्धिमानी
मत करो। जिसने
तुम्हें जीवन
दिया और जिसके
हाथ से चांदत्तारे
चलते हैं और
अनंत जीवन
जिससे फैलता
है और जिसमें
लीन हो जाता
है, निश्चित,
इतना तो तय
ही है कि वह
हमसे ज्यादा
समझदार है। और
अगर वह भी
नासमझ है, तो
फिर हमें
समझदार होने
की चेष्टा
करनी बिलकुल
बेकार है।
कृष्ण
कहते हैं, उस
पर छोड़ दो।
तुम किए चले
जाओ; सब उस
पर छोड़ दो।
और बड़ा
आश्चर्य तो यह
है कि जो छोड़
देता है, वह सब
पा लेता है जो
मिलने जैसा
है। और जो
नहीं छोड़ता--इस
अरेबियन
कहावत में उस
आदमी के हाथ
में कड़ाही
तो कम से कम
हाथ लग
गई--लेकिन जो
नहीं छोड़ता है,
उसके हाथ
में कड़ाही
भी लगती होगी,
इसका कोई
भरोसा नहीं।
संन्यासी
वह है, जिसने
फल का खयाल ही
छोड़ दिया, जो
आज जी रहा है, यहीं।
क्या
आप सोच सकते
हैं कि बिना
फल के आप कुछ
गलत काम कर
सकेंगे? अगर
चोर को भरोसा
न हो कि रुपए
मिल सकेंगे; तिजोरी लूट
ही लूंगा, फल
पा ही लूंगा; चोर चोरी
करने जा सकेगा?
असंभव है।
आपके जीवन से
बुरा कर्म
तत्क्षण गिर
जाएगा, अगर
आकांक्षा और
फल की कामना
गिर गई। फिर
भी जीवन की
ऊर्जा काम
करेगी। लेकिन
तब प्रभु का
हाथ बन जाती
है जीवन की
ऊर्जा, और
वैसा प्रभु के
हाथ बने हुए
आदमी को कृष्ण
संन्यासी
कहते हैं।
यं संन्यासमिति
प्राहुर्योगं
तं विद्धि
पाण्डव।
न ह्यसंन्यस्तसंकल्पो
योगी भवति
कश्चन।। 2।।
इसलिए
हे अर्जुन, जिसको
संन्यास ऐसा
कहते हैं, उसी
को तू योग जान,
क्योंकि
संकल्पों को न
त्यागने वाला
कोई भी पुरुष
योगी नहीं
होता।
संकल्पों
को न त्यागने
वाला पुरुष
योगी नहीं
होता है। और
संकल्पों को
जो त्याग दे, वही
संन्यासी है।
संकल्प
क्यों है
हमारे मन में? संकल्प
क्या है? इच्छा
हो, तो
संकल्प पैदा
होता है। कुछ
पाना हो तो
पाने की
चेष्टा, कुछ
पाना हो तो
पाने की शक्ति
अर्जित करनी
होती है।
संकल्प है
वासना को पूरा
करने की
तीव्रता, वासना
को पूरा करने
के लिए तीव्र
आयोजन। संकल्प
विल है। जब
मैं कुछ पाना
चाहता हूं, तो अपने को
दांव पर लगाता
हूं। अपने को
दांव पर लगाना
संकल्प है।
जुआरी संकल्पवान
होते हैं।
भारी संकल्प
करते हैं। सब
कुछ लगा देते
हैं कुछ पाने
के लिए। हम सब
भी जुआरी हैं।
मात्रा
कम-ज्यादा
होती होगी।
दांव छोटे-बड़े
होते होंगे।
लगाने की
सामर्थ्य
कम-ज्यादा
होती होगी। हम
सब लगाते हैं।
अपनी इच्छाओं
पर दांव लगाना
ही पड़ता है।
सिर्फ जुआरी
वही नहीं है, जिसकी
कोई
फलाकांक्षा
नहीं है। वह
जुआरी नहीं
है। उसके पास
दांव पर लगाने
का कोई सवाल
नहीं है। कोई
उसका दांव
नहीं है। हम
तो संकल्प करेंगे
ही।
कृष्ण
कहते हैं, सब
संकल्प छोड़ दे,
वही योगी है,
वही
संन्यासी है।
संकल्प
तभी छूटेंगे, जब
कुछ पाने का
खयाल न रह
जाए। नहीं तो
संकल्प जारी
रहेंगे। मन
चौबीस घंटे
संकल्प के
आस-पास अपनी
शक्ति इकट्ठी
करता रहता है।
जो इच्छाएं
संकल्प के
बिना रह जाती
हैं, वे इंपोटेंट,
नपुंसक रह
जाती हैं।
हमारे भीतर
बहुत इच्छाएं
पैदा होती
हैं। सभी
इच्छाएं
संकल्प नहीं बनतीं।
इच्छाएं बहुत
पैदा होती हैं,
फिर किसी
इच्छा के साथ
हम अपनी ऊर्जा
को, अपनी
शक्ति को लगा
देते हैं, तो
वह इच्छा
संकल्प हो
जाती है।
निष्क्रिय
पड़ी हुई
इच्छाएं
धीरे-धीरे
सपने बनकर खो
जाती हैं।
जिसके पीछे हम
अपनी शक्ति लगा
देते हैं, अपने
को लगा देते
हैं, वह
इच्छा संकल्प
बन जाती है।
संकल्प
का अर्थ है, जिस
इच्छा को पूरा
करने के लिए
हमने अपने को
दांव पर लगा
दिया। तब वह डिजायर न
रही, विल
हो गई। और जब
कोई संकल्प से
भरता है, तब
और भी गहन
खतरे में उतर
जाता है।
क्योंकि अब
इच्छा, मात्र
इच्छा न रही
कि मन में
उसने सोचा हो
कि महल बन
जाए। अब वह
महल बनाने के
लिए जिद्द
पर भी अड़ गया। जिद्द पर अड़ने का
अर्थ है कि अब
इस इच्छा के
साथ उसने अपने
अहंकार को
जोड़ा। अब वह
कहता है कि
अगर इच्छा पूरी
होगी, तो
ही मैं हूं।
अगर इच्छा
पूरी न हुई, तो मैं
बेकार हूं। अब
उसका अहंकार
इच्छा को पूरा
करके अपने को
सिद्ध करने की
कोशिश करेगा।
जब इच्छा के
साथ अहंकार
संयुक्त होता है,
तो संकल्प
निर्मित होता
है।
अहंकार, मैं,
जिस इच्छा
को पकड़ लेता
है, फिर हम
उसके पीछे
पागल हो जाते
हैं। फिर हम
सब कुछ गंवा
दें, लेकिन
इस इच्छा को
पूरा करना बंद
नहीं कर सकते।
हम मिट जाएं।
अक्सर ऐसा
होता है कि
अगर आदमी का
संकल्प पूरा न
हो पाए, तो
आदमी
आत्महत्या कर
ले। कहे कि इस
जीने से तो न
जीना बेहतर
है। पागल हो
जाए। कहे कि
इस मस्तिष्क
का क्या उपयोग
है! संकल्प।
लेकिन
साधारणतः हम
सभी को सिखाते
हैं संकल्प को
मजबूत करने की
बात। अगर
स्कूल में
बच्चा परीक्षा
उत्तीर्ण नहीं
कर पा रहा है, तो
शिक्षक कहता
है, संकल्पवान बनो। मजबूत
करो संकल्प
को। कहो कि
मैं पूरा करके
रहूंगा। दांव
पर लगाओ अपने
को। अगर बेटा
सफल नहीं हो
पा रहा है, तो
बाप कहता है
कि संकल्प की
कमी है। चारों
तरफ हम संकल्प
की शिक्षा
देते हैं।
हमारा पूरा तथाकथित
संसार संकल्प
के ही ऊपर खड़ा
हुआ चलता है।
कृष्ण
बिलकुल उलटी
बात कहते हैं।
वे कहते हैं, संकल्पों
को जो छोड़ दे
बिलकुल।
संकल्प को जो
छोड़ दे, वही
प्रभु को
उपलब्ध होता
है। संकल्प को
छोड़ने का मतलब
हुआ, समर्पण
हो जाए। कह दे
कि जो तेरी
मर्जी। मैं नहीं
हूं। समर्पण
का अर्थ है कि
जो हारने को, असफल होने
को राजी हो
जाए।
ध्यान
रखें, फलाकांक्षा
छोड़ना और असफल
होने के लिए
राजी होना, एक ही बात
है। असफल होने
के लिए राजी
होना और फलाकांक्षा
छोड़ना, एक
ही बात है। जो
जो भी हो, उसके
लिए राजी हो
जाए; जो
कहे कि मैं
हूं ही नहीं
सिवाय राजी
होने के, एक्सेप्टिबिलिटी के
अतिरिक्त मैं
कुछ भी नहीं
हूं। जो भी
होगा, उसके
लिए मैं राजी
हूं। ऐसा ही
व्यक्ति
संन्यासी है।
तो
संन्यासी का
तो अर्थ हुआ, जो
भीतर से
बिलकुल मिट
जाए; जो
भीतर से
बिलकुल मर
जाए। संन्यास
एक गहरी मृत्यु
है, एक
बहुत गहरी
मृत्यु।
एक
मृत्यु से तो
हम परिचित हैं, जब
शरीर मर जाता
है। लेकिन वह
मृत्यु नहीं
है। वह सिर्फ
धोखा है।
क्योंकि फिर
मन नए शरीर निर्मित
कर लेता है।
वह सिर्फ
वस्त्रों का
परिवर्तन है।
वह सिर्फ
पुराने घर को
छोड़कर नए घर में
प्रवेश है।
इसलिए
जो जानते हैं, वे
मृत्यु को
मृत्यु नहीं कहते,
सिर्फ नए
जीवन का
प्रारंभ कहते
हैं। जो जानते
हैं, वे तो
योग को मृत्यु
कहते हैं। वे
तो संन्यास को
मृत्यु कहते
हैं।
वस्तुतः
आदमी भीतर से
तभी मरता है, जब
वह तय कर लेता
है कि अब मेरा
कोई संकल्प
नहीं, मेरी
कोई फल की
आकांक्षा
नहीं, मैं
नहीं। जैसे ही
कोई व्यक्ति
यह कहने की
हिम्मत जुटा
लेता है कि अब
मैं नहीं हूं,
तू ही है, उस क्षण महामृत्यु
घटित होती है।
और
ध्यान रहे, उस
महामृत्यु
से ही महाजीवन
का आविर्भाव
होता है। जैसे
बीज टूटता है,
तो अंकुर
बनता है, वृक्ष
बनता है। अंडा
टूटता है, तो
उसके भीतर से
जीवन बाहर निकलता
है; पंख
फैलाता है, आकाश में उड़
जाता है। ऐसे
ही हम भी एक
बंद बीज हैं, अहंकार के
सख्त बीज। जब
अहंकार की यह
पर्त टूट जाए
और यह बीज की
खोल टूट जाए, तो ही हमारे
भीतर से एक महाजीवन
का पक्षी पंख
फैलाकर उड़ता
है विराट आकाश
की ओर।
लेकिन
हम तो इस बीज
को बचाने में
लगे रहते हैं।
हम उन पागलों
की तरह हैं, जो
बीज को बचाने
में लग जाएं।
बीज को बचाने
से कुछ होगा? सिर्फ सड़ेगा।
बीज को बचाना
पागलपन है।
बीज बचाने के
लिए नहीं, तोड़ने
के लिए है।
बीज मिटाने के
लिए है। क्योंकि
बीज मिटे, तो
अंकुर हो।
अंकुर हो, तो
अनंत बीज
लगें। अहंकार
हमारा बीज है,
सख्त गांठ।
और
ध्यान रहे, बीज
की खोल जो काम
करती है, वही
काम अहंकार
करता है। बीज
की सख्त खोल
क्या काम करती
है? वह जो
भीतर है कोमल
जीवन, उसको
बचाने का काम
करती है। वह
सेफ्टी मेजर
है, सुरक्षा
का उपाय है।
वह जो खोल है
सख्त, वह
भीतर कुछ कोमल
छिपा है, उसको
बचाने की
व्यवस्था है।
लेकिन
बचाने की
व्यवस्था अगर
टूटने से
इनकार कर दे, तो
आत्महत्या बन
जाएगी। जैसे
कि हम एक
सिपाही को
युद्ध के
मैदान पर कवच
पहना देते हैं
लोहे के। वह
बचाने की
व्यवस्था है
कि बाहर से
हमला हो, तो
बच जाए। लेकिन
फिर कवच इतना
सख्त हो जाए
और प्राणों पर
इस तरह कस जाए
कि जब सिपाही
युद्ध से घर
लौटे, तब
भी कवच छोड़ने
को राजी न हो; बिस्तर पर
सोए, तो भी
कवच को पकड़े
रखे; और कह
दे कि अब मैं
कवच कभी नहीं
निकालूंगा; तो वह कवच
उसकी कब्र बन
जाएगी। वह
मरेगा उसी कवच
में, जो
बचाने के लिए
था।
बीज की सख्त
खोल,
उसके भीतर
कोमल जीवन
छिपा है, उसको
बचाने की
व्यवस्था है।
उस समय तक
बचाने की
व्यवस्था है,
जब तक उस
बीज को ठीक
जमीन न मिल
जाए। जब ठीक
जमीन मिल जाए,
तो वह बीज
टूट जाए, सख्त
खोल मिट जाए, गल जाए, हट
जाए; अंकुरित
हो जाए अंकुर;
निकल आए
कोमल जीवन।
सूर्य को छूने
की यात्रा पर
चल पड़े।
ठीक
हमारा अहंकार
भी हमारे बचाव
की व्यवस्था है।
हमारा अहंकार
भी हमारे बचाव
की व्यवस्था है।
जब तक ठीक
भूमि न मिल
जाए,
वह हमें
बचाए। ठीक
भूमि कब
मिलेगी?
अधिक
लोग तो बीज ही
रहकर मर जाते
हैं। उनको कभी
ठीक भूमि
मिलती हुई
मालूम नहीं पड़ती।
उस ठीक भूमि
का नाम ही
धर्म है। जीवन
की सारी खोज
में जितने
जल्दी आप धर्म
के रहस्य को समझ
लें,
उतने जल्दी
आपको ठीक भूमि
मिल जाए।
यह मैं
गीता पर बात
कर रहा हूं
इसी आशय से कि
शायद आपके
किसी बीज को
भूमि की तलाश
हो। कृष्ण की
बात में, कहीं
हवा में, वह
भूमि मिल जाए।
इस चर्चा के
बहाने कहीं
कोई स्वर आपको
सुनाई पड़ जाए
और वह भूमि
मिल जाए, जिसमें
आपका बीज अपने
को तोड़ने को
राजी हो जाए।
इसलिए
तो कृष्ण पूरे
समय अर्जुन से
कह रहे हैं कि
तू अपने को
छोड़ दे, तू
अपने को तोड़
दे।
सारा
धर्म यही कहता
है। सारी
दुनिया के
धर्म यही कहते
हैं। चाहे
कुरान, चाहे
बाइबिल, चाहे
महावीर, चाहे
बुद्ध।
दुनिया में
जिन्होंने भी
धर्म की बात
कही है, उन्होंने
कहा है कि तुम मिटो। अगर
तुम अपने को बचाओगे, तो तुम
परमात्मा को
खो दोगे। और
तुम अगर अपने को
मिटाने को
राजी हो गए, तो तुम
परमात्मा हो
जाओगे। मिटो!
अपने को मिटा डालो!
तुम ही
तुम्हारे लिए
बाधा हो। अब
इस खोल को तोड़ो।
इस खोल को कई
जन्मों तक
खींच लिया। अब
तुम्हारी आदत
हो गई खोल को
खींचने की। अब
तुम समझते हो
कि मैं खोल
हूं। अब तुम, भीतर
का वह जो कोमल
जीवन है, उसको
भूल ही चुके
हो। वह जो
आत्मा है, बिलकुल
भूल गई है और
शरीर को ही
समझ लिया है
कि मैं हूं। वह
जो चेतना है, बिलकुल भूल
गई है और मन की
वासनाओं को ही
समझ लिया है
कि मैं हूं।
अब इस खोल को
तोड़ो, इस
खोल को छोड़
दो।
लेकिन
हम संकल्प
करके इस खोल
को बचाए चले
जाते हैं।
संकल्प इस खोल
को बचाने की
चेष्टा है। हम
कहते हैं, मैं
अपने को बचाऊंगा।
हम सब
एक-दूसरे से
लड़ रहे हैं, ताकि कोई
हमें नष्ट न
कर दे। हम सब
संघर्ष में लीन
हैं, ताकि
हम बच जाएं।
डार्विन
ने कहा है कि
यह सारा जीवन स्ट्रगल
फार सरवाइवल
है। यह सब
बचाव का
संघर्ष है। और
वे ही बचते
हैं,
जो
सर्वाधिक
योग्य हैं। सरवाइवल
आफ दि फिटेस्ट।
वे जो
सर्वाधिक
योग्य हैं, वे ही बचते
हैं।
लेकिन
अगर डार्विन
ने कभी कृष्ण
को समझा होता, तो
कृष्ण कुछ
दूसरा सूत्र
कहते हैं।
कृष्ण कहते
हैं कि जो
श्रेष्ठतम
हैं, वे तो
अपने को बचाते
ही नहीं। और
जो मिटते हैं,
वे ही बचते
हैं।
जीसस
से पूछा होता
डार्विन ने, तो
जीसस भी यही
कहते कि अगर
तुमने बचाया
अपने को, तो
खो दोगे। और
अगर खोने को
राजी हो गए, तो बच
जाओगे।
धर्म
कहता है कि
हमने खोल को
समझ लिया
अंकुर, तो हम
भूल में पड़
गए। यह खोल ही
है। और आप मत मिटाओ, इससे
अंतर नहीं
पड़ता। खोल तो
मिटेगी। खोल
को तो मिटना
ही पड़ेगा।
सिर्फ एक जीवन
का अवसर व्यर्थ
हो जाएगा। फिर
नई खोल, और
फिर आप उस खोल
को पकड़ लेना
कि यह मैं हूं,
और फिर आप
एक जीवन के
अवसर को खो
देना!
संकल्प
हमारी बचाने
की चेष्टा है।
हर आदमी अपने
को बचाने में
लगा है। आदमी
ही क्यों, छोटे
से छोटा
प्राणी भी अपने
को बचाने में
लगा है।
छोटा-सा पक्षी
भी बचा रहा
है। छोटा-सा
कीड़ा-मकोड़ा
भी बचा रहा
है। एक पत्थर
भी अपनी
सुरक्षा कर रहा
है। सब अपनी
सुरक्षा कर
रहे हैं। अगर
हम पूरे जीवन
की धारा को
देखें, तो
हर एक अपनी
सुरक्षा में
लगा है।
संन्यास
असुरक्षा में
उतरना है, ए
जंप इनटु
दि इनसिक्योरिटी।
संन्यास का
अर्थ है, अपने
को बचाने की
कोशिश बंद। अब
हम मरने को राजी
हैं। हम बचाते
ही नहीं हैं, क्योंकि हम
कहते हैं कि
बचाकर भी कौन
अपने को बचा
पाया है!
कृष्ण
कहते हैं, संकल्पों
को छोड़ देता
है जो, वही
योगी है।
लेकिन
एक आदमी कहता
है कि मैंने
संकल्प किया
है कि मैं
परमात्मा को
पाकर रहूंगा।
फिर यह आदमी
संन्यास नहीं
पा सकेगा। अभी
इसका संकल्प
है। यह तो
परमात्मा को
भी एक एडीशन
बनाना चाहता
है अपनी
संपत्ति में।
इसके पास एक
मकान है, दुकान
है, इसके
पास सर्टिफिकेट्स
हैं, बड़ी
नौकरी है, बड़ा
पद है। यह
कहता है कि सब
है अपने पास, अपनी मुट्ठी
में भगवान भी
होना चाहिए!
ऐसे नहीं
चलेगा। ऐसे
नहीं चलेगा, ऐसे सब तरह
का फर्नीचर
अपने घर में
है; यह
भगवान नाम का
फर्नीचर भी
अपने घर में
होना चाहिए!
ताकि हम
मुहल्ले-पड़ोस
के लोगों को
दिखा सकें कि
पोर्च में
देखो, बड़ी
कार खड़ी है।
घर में मंदिर
बनाया है, उसमें
भगवान है। सब
हमारे पास है।
भगवान भी हमारा
परिग्रह का एक
हिस्सा है।
जो भी
संकल्प करेगा, वह
भगवान को नहीं
पा सकेगा।
क्योंकि
संकल्प का
मतलब ही यह है
कि मैं मौजूद
हूं। और जहां
तक मैं मौजूद
है, वहां
तक परमात्मा
को पाने का कोई
उपाय नहीं है।
बूंद कहे कि
मैं बूंद रहकर
और सागर को पा
लेना चाहती
हूं, तो आप
उससे क्या
कहिएगा, कि
तुझे गणित का
पता नहीं है।
बूंद कहे, मैं
बूंद रहकर
सागर को पा
लेना चाहती
हूं! बूंद कहे,
मैं तो सागर
को अपने घर
में लाकर
रहूंगी! तो सागर
हंसता होगा।
आप भी हंसेंगे।
बूंद नासमझ
है। लेकिन
जहां आदमी का
सवाल है, आपको
हंसी नहीं
आएगी। आदमी
कहता है, मैं
तो बचूंगा और
परमात्मा को
भी पा लूंगा।
यह वैसा ही
पागलपन है, जैसे बूंद
कहे कि मैं तो बचूंगी और
सागर को पा लूंगी।
अगर
बूंद को सागर
को पाना हो, तो
बूंद को मिटना
पड़ेगा, उसे
खुद को खोना
पड़ेगा। वह
बूंद सागर में
गिर जाए, मिट
जाए, तो
सागर को पा
लेगी। और कोई
उपाय नहीं है।
अन्यथा कोई
मार्ग नहीं
है। आदमी भी
अपने को खो दे,
तो
परमात्मा को
पा ले। बूंद
की तरह है, परमात्मा
सागर की तरह
है। आदमी अपने
को बचाए और
कहे कि मैं
परमात्मा को
पा लूं--पागलपन
है। बूंद पागल
हो गई है।
लेकिन बूंद पर
हम हंसते हैं,
आदमी पर हम
हंसते नहीं
हैं। जब भी
कोई आदमी कहता
है, मैं
परमात्मा को
पाकर रहूंगा,
तो वह आदमी
पागल है। वह
पागल होने के
रास्ते पर चल
पड़ा है। मैं
ही तो बाधा
है।
कबीर
ने कहा है कि
बहुत खोजा।
खोजते-खोजते
थक गया; नहीं
पाया उसे। और
पाया तब, जब
खोजते-खोजते
खुद खो गया।
जिस दिन पाया
कि मैं नहीं
हूं, अचानक
पाया कि वह
है। ये दोनों
एक साथ नहीं
होते। इसलिए
कबीर ने कहा, प्रेम गली
अति सांकरी,
ता में दो न समाय। वह
दो नहीं समा
सकेंगे वहां।
या तो वह या
मैं।
संकल्प
है मैं का
बचाव। वह जो
ईगो है, अहंकार
है, वह
अपने को बचाने
के लिए जो
योजनाएं करता
है, उनका
नाम संकल्प
है। वह अपने
को बचाने के
लिए जिन फलों
की आकांक्षा
करता है, उन
आकांक्षाओं
को पूरा करने
की जो
व्यवस्था करता
है, उसका
नाम संकल्प
है।
नीत्शे
ने एक किताब
लिखी है, उस
किताब का नाम
ठीक इससे उलटा
है। किताब का
नाम है, दि
विल टु
पावर--शक्ति
का संकल्प। और
नीत्शे कहता
है, बस, एक
ही जीवन का
असली राज है
और वह है, शक्ति
का संकल्प।
संकल्प किए
चले जाओ। और
शक्ति, और
शक्ति, और
ज्यादा
शक्ति--चाहे
धन, चाहे
यश, चाहे
पद, चाहे
ज्ञान--लेकिन
और शक्ति
चाहिए। बस, जीवन का एक
ही राज है, नीत्शे
कहता है कि और
शक्ति चाहिए।
उसका संकल्प
किए चले जाओ।
जो संकल्प
करेगा, वह
जीत जाएगा। जो
नहीं करेगा, वह हार
जाएगा। और जो
हार जाएं, उन्हें
मिटा डालो।
उनको बचाने की
भी कोई जरूरत
नहीं है।
क्योंकि वे
जीवन के काम
के नहीं हैं।
जो जीत जाएं, उन्हें
बचाओ।
नीत्शे
जो कह रहा है, वह
संकल्प की फिलासफी
है; वह
संकल्प का
दर्शन है।
इसलिए नीत्शे
ने कहीं कहा
है कि मैं एक
ही सौंदर्य
जानता हूं। जब
मैं
सिपाहियों को
रास्ते पर
चलते देखता
हूं और उनकी संगीनें
सूरज की रोशनी
में चमकती हैं,
बस, इससे
ज्यादा सुंदर
चीज मैंने कोई
नहीं देखी। निश्चित
ही, जब
संगीन चमकती
है रास्ते पर,
तो इससे
ज्यादा सुंदर
प्रतीक
अहंकार का और
कोई नहीं हो
सकता। नीत्शे
कहता है, मैंने
कोई और इससे
महत्वपूर्ण
संगीत नहीं सुना।
जब सिपाहियों
के युद्ध के
मैदान की तरफ
जाते हुए
जूतों की आवाज
रास्तों पर
लयबद्ध पड़ती है,
इससे सुंदर
संगीत मैंने
कोई नहीं
सुना।
निश्चित
ही,
अहंकार अगर
कोई संगीत
बनाए, तो
जूतों की
लयबद्ध आवाज
के अलावा और
क्या संगीत
बना सकता है!
अगर अहंकार
कोई संगीत, कोई मेलोडी,
अगर अहंकार
कभी कोई मोजार्ट
और बीथोवन
पैदा करे, अगर
अहंकार कभी
कोई बड़ा
संगीतज्ञ, तानसेन
पैदा करे, तो
अहंकार जो
संगीत बनाएगा,
वह जूतों की
आवाज से ही
निकलेगा। वह
जो आर्केस्ट्रा
होगा, उसमें
जूतों के
सिवाय कुछ भी
नहीं होगा। संगीनें
हो सकती हैं, जूते हो
सकते हैं।
संगीनों की
चमकती हुई धार
हो सकती है, जूतों की
लयबद्ध आवाज
हो सकती है।
लेकिन नीत्शे
ठीक कहता है।
संकल्प का यही
परिणाम है, संकल्प का
यही अर्थ है।
वह अहंकार की
बेतहाशा पागल
दौड़ है।
कृष्ण
कहते हैं, लेकिन
संकल्प जहां
है...।
इसलिए
बहुत-से लोगों
को--यह मैं
आपको इंगित करना
उचित
समझूंगा--बहुत-से
लोगों को यह
भ्रांति हुई
है कि नीत्शे
और कृष्ण के
दर्शन में मेल
है। क्योंकि
नीत्शे भी युद्धवादी
है और कृष्ण
भी अर्जुन को
कहते हैं, युद्ध
में तू जा।
इससे बड़ी
भ्रांति हुई
है। लेकिन
उन्हें पता
नहीं कि दोनों
की जीवन की
मूल-दृष्टि
बहुत अलग है!
कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं कि
तू युद्ध में
जाने के योग्य
तभी होगा, जब
तेरा कोई
संकल्प न रहे।
तू युद्ध में
जाने के योग्य
तभी होगा, जब
तेरी कोई
कामना न रहे।
तू युद्ध में
जाने की तभी
योग्यता
पाएगा, जब
तू न रहे।
संन्यासी की
तरह युद्ध में
जा।
कृष्ण
का युद्ध
धर्मयुद्ध
है। बहुत और
ही अर्थ है
उसका। और जब
नीत्शे कहता
है कि युद्ध में
जा,
तो वह कहता
है, युद्ध
का अर्थ ही है,
दूसरे को
नष्ट करने की
आकांक्षा।
युद्ध का अर्थ
ही है, स्वयं
को सिद्ध करने
का प्रयास।
युद्ध का अर्थ
ही है कि मैं
हूं, और
तुझे नहीं
रहने दूंगा।
युद्ध एक
संघर्ष है अहंकार
की घोषणा का।
तो जिन
लोगों ने भी
नीत्शे और
कृष्ण के बीच
तालमेल बिठालने
की कोशिश की
है,
वे एकदम
नासमझी से भरे
हुए वक्तव्य
हैं। नीत्शे
और कृष्ण के
बीच कोई
तालमेल नहीं
हो सकता, बिलकुल
विपरीत लोग
हैं। शर्तें
उनकी अलग हैं।
कृष्ण अर्जुन
को युद्ध पर
भेज सकते हैं,
जब अर्जुन
बिलकुल शून्यवत
हो जाए। और
अगर शून्य
लड़ेगा, तो
अधर्म के लिए
नहीं लड़ सकता।
अधर्म के लिए
लड़ने के लिए
शून्य को क्या
कारण है? शून्य
अगर लड़ेगा, तो धर्म के
लिए ही लड़
सकता है।
क्योंकि धर्म
स्वभाव है। और
शून्य स्वभाव
में जीने लगता
है। वह स्वभाव
से लड़ सकता है।
इसलिए
कृष्ण ने अगर
अर्जुन को इस
युद्ध के लिए
कहा कि तू जा
युद्ध में, तो
युद्ध में
जाने के पहले
बड़ी शर्तें
हैं उनकी। वे
शर्तें
अर्जुन पूरी
करे, तो ही
युद्ध की
पात्रता आती
है। वह शर्तें
पूरी कर दे, तो अर्जुन
में कुछ भी
नहीं रह जाता
जो अर्जुन का
है, अर्जुन
परमात्मा का
हाथ बन जाता
है। जो भी ये
शर्तें पूरी
कर देगा, वह
परमात्मा का
हाथ हो जाता
है। वह एक
सिर्फ बांस की
पोंगरी हो गया,
जिसमें गीत
प्रभु का होगा
अब। वह तो
सिर्फ खाली
जगह है, जिससे
गीत बहेगा--एक
पैसेज, एक
मार्ग, एक
जगह, एक
रास्ता। बस, इससे ज्यादा
नहीं।
संकल्प
सब छोड़ दे
कोई। और
संकल्प तभी
छोड़ेगा, जब
इच्छाएं छोड़
दे। इसलिए
पहले सूत्र
में कृष्ण ने
कहा, इच्छाएं
न हों। तब
दूसरे सूत्र
में कहते हैं,
संकल्प न
हों। अगर
इच्छाएं
होंगी, तो
संकल्प तो
पैदा होंगे
ही। इच्छाएं
जहां होंगी, वहां संकल्प
भी आरोपित
होंगे।
संकल्प
का अर्थ है, जिस
इच्छा ने आपके
अहंकार में
जड़ें पकड़ लीं,
जिस इच्छा
ने आपके
अहंकार को
अपना सहयोगी
बना लिया, जिस
इच्छा ने आपके
अहंकार को परसुएड
कर लिया, फुसला
लिया कि आओ
मेरे साथ, चलो
मेरे पीछे, मैं तुझे
स्वर्ग
पहुंचा देती
हूं। अहंकार
जिस इच्छा के
पीछे चलकर
स्वर्ग पाने
की खोज करने
लगा, वही
संकल्प है।
इसलिए
पहले सूत्र
में कहा, इच्छाएं
न हों; दूसरे
सूत्र में कहा,
संकल्प न
हों; तब
संन्यास है।
तो
संन्यास का
अर्थ संकल्प
नहीं है।
संन्यास का
अर्थ समर्पण
है--समर्पण, सरेंडर।
मंदिर
में तो जाकर
हम भी
परमात्मा के
चरणों में सिर
रख देते हैं।
लेकिन जरा गौर
से खोजकर देखेंगे, तो
बहुत हैरान
होंगे। यह
शरीर वाला सिर
तो नीचे रखा
रहता है, लेकिन
असली सिर पीछे
खड़ा हुआ देखता
रहता है कि
मंदिर में और
भी कोई देखने
वाला है या
नहीं! अगर कोई
देखने वाला
होता है, तो
मंत्रोच्चार
जोर से होता है।
अगर कोई देखने
वाला न हो, तो
जल्दी निपटाकर
आदमी चला जाता
है। वह असली
अहंकार तो
पीछे खड़ा रहता
है। वह
परमात्मा के
चरणों में भी
सिर नहीं
झुकाता है।
असल
में,
हमारे जीवन
का सारा ढंग
सिर झुकाने का
नहीं है। जीवन
का सारा ढंग
सिर को अकड़ाने
का है।
कभी-कभी
झुकाते हैं, मजबूरी में!
लेकिन वह
अस्थायी उपाय
होता है। इसलिए
जिस आदमी ने
आपसे सिर झुकवा
लिया, उसको
आपसे सदा
सावधान रहना
चाहिए।
क्योंकि आप
कभी इसका बदला
चुकाएंगे।
जिस आदमी ने
कभी आपके
सामने सिर
झुकाया हो, अब उससे जरा
बचकर रहना।
आपने एक
दुश्मन बना लिया
है। वह आपसे बदला
लेगा।
क्योंकि सिर
मन मर्जी से
नहीं झुकाता।
सिर मन बड़ी बेमर्जी
से झुकाता है।
और प्रतीक्षा
करता है कि कब
मौका मिल जाए।
कब मौका मिल
जाए कि मैं भी
इस सिर को झुकवा
लूं!
जब तक
मन है, तब तक
सिर नहीं झुक
सकेगा। और
जहां मन नहीं
है, वहां
सिर झुका ही
हुआ है। वहां
खड़ा हुआ सिर
भी झुका ही
हुआ है।
कृष्ण
जब कहते हैं, संकल्प
न रहे, तो
वे यह कह रहे
हैं कि भीतर
वह अहंकार न
रह जाए, जो क्रिस्टलाइज
करता है सब
संकल्पों को।
भीतर
मैं का स्वर
जारी रहता है
चौबीस घंटे।
मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
आप मैं न
बोलें। न! न
बोलने से काम
नहीं चलेगा, बोलना
तो पड़ेगा ही।
लेकिन जब आप
बोलते हों कि मैं,
तब भी जानें
कि भीतर कोई
मैं सघन न हो
पाए। भीतर कोई
मैं मजबूत न
हो पाए। मैं
यह सिर्फ शब्द
में रहे, भाषा
में रहे, व्यवहार
में रहे, भीतर
गहरा न हो
पाए। लेकिन
हमारी हालत
उलटी है। हम
अक्सर बाहर से
मैं का उपयोग
न भी करें, तो
भी भीतर मैं
मौजूद रहता
है!
हुबार्ड
करके एक
विचारक है।
उसने एक
छोटा-सा
अभ्यास विकसित
किया है
साधकों के
लिए। और वह
अभ्यास यह है
कि दिन में
तुम खयाल रखो
कि कितनी बार
मैं का उपयोग
किया; इसे नोट
करते रहो। तो हुबार्ड
के साधक अपनी
जेब में एक
नोट बुक लिए
रहते हैं और दिनभर वे
आंकड़े लगाते
रहते हैं कि
कितना मैं का
उपयोग किया।
दंग रह जाते
हैं देखकर कि दिनभर में
इतना मैं!
इतनी बार मैं
बोले!
फिर हुबार्ड
कहता है, इसका
होश रखो। होश
रखने से मैं
का उपयोग कम
होता चला जाता
है। आज सौ दफे
हुआ। कल नब्बे
दफे हुआ।
दो-चार महीने
में वह दो-चार
दफे होता है। चार-छः
महीने में वह शून्यवत
हो जाता है।
लेकिन तब साधक
को पता चलता
है कि मैं का
उपयोग न भी
करो, तो भी
भीतर मैं खड़ा
है। तब पता
चलता है, तब
खयाल में आता
है कि मैं का
उपयोग मत करो,
तो भी मैं
खड़ा है।
रास्ते
पर आप चले जा
रहे हैं। कोई
नहीं है, तो आप
और ढंग से
चलते हैं। फिर
दो आदमी
रास्ते पर
निकल आए, आपका
मैं मौजूद हो
गया। भीतर कुछ
हिला; भीतर
कुछ तैयार हो
गया। टाई
वगैरह उसने
ठीक कर ली; कपड़े
उसने ठीक किए;
चल पड़ा। बाथरूम
में आप होते
हैं तब? कल
खयाल करना। बाथरूम
में वही आदमी
रहता है, जो
बैठकखाने
में रहता है? तब आपको पता
चलेगा कि बाथरूम
में और कोई
स्नान करता है;
बैठकखाने में और कोई
बैठता है! आप
ही। आप ही जब बैठकखाने
में होते हैं,
तो कोई और
होते हैं। आप
ही जब बाथरूम
में होते हैं,
तो कोई और
होते हैं।
बाथरूम
में कोई देख
नहीं रहा है, इसलिए
मैं को थोड़ी
देर के लिए
छुट्टी है।
अभी इसकी कोई
जरूरत नहीं, क्योंकि मैं
का सदा दूसरे
के सामने मजा
है, दूसरे
के सामने लिया
गया मजा है। बाथरूम
में छुट्टी दे
देते हैं।
लेकिन बाथरूम
में अगर आईना
लगा है, तो
आपको जरा
मुश्किल
पड़ेगी।
क्योंकि आईने
में देखकर आप
दो काम करते
हैं। दिखाई
पड़ने वाले का भी
और देखने वाले
का भी। दो हो
जाते हैं, दो
मौजूद हो जाते
हैं आईने के
साथ। आईने के
सामने खड़े
होकर फिर सब
बदल जाता है।
सूक्ष्म, भीतर,
चौबीस घंटे
बोलें, न
बोलें, मैं
की एक धारा
सरक रही है।
एक बहुत
अंतर्धारा, अंडर करेंट
है। उसके
प्रति सजग
होना जरूरी
है। उसके प्रति
सजग हो जाएं, तो
धीरे-धीरे आप
समझ सकते हैं
कि वही धारा
संकल्पों को
पैदा करवाती
है। क्योंकि
बिना संकल्प
के वह धारा एक्चुअलाइज
नहीं हो सकती।
ऐसा
समझें कि जैसे
आकाश में भाप
के बादल उड़ रहे
हैं। जब तक
उनको ठंडक न मिले, तब
तक वे पानी न
बन सकेंगे, आकाश में
उड़ते रहेंगे।
ठंडक मिले, तो पानी बन
जाएंगे। और
ठंडक मिले, तो बर्फ बन
जाएंगे।
ठीक
हमारे मन में
भी अंतर्धारा
बड़ी बारीक बहती
रहती है, भाप
की तरह, अहंकार
की। इस भाप की
तरह बहने वाली
अहंकार की जो
बदलियां
हमारे भीतर
हैं, उनका
हमें तब तक
मजा नहीं आता,
जब तक कि वे
प्रकट होकर
पानी न बन
जाएं। पानी ही
नहीं, जब
तक वे बर्फ की
तरह सख्त, जमकर
दिखाई न पड़ने
लगें सारी
दुनिया को, तब तक हमें
मजा नहीं आता।
तो
अहंकार ऐसे
कर्म करेगा, जिनके
द्वारा बादल
पानी बन जाएं।
ऐसे कर्म करेगा,
जिनके द्वारा
पानी सख्त
बर्फ, पत्थर
बन जाए; तब
लोगों को
दिखाई पड़ेगा।
तो अगर आप
अकेले हैं, तब आपके
भीतर अहंकार
बादलों की तरह
होता है। जब
आप दूसरों के
साथ हैं, तब
पानी की तरह
हो जाता है।
और अगर आप कुछ
धन पाने में
समर्थ हो गए, कुछ पद पाने
में सफल हो गए,
कुछ स्कूल
से शिक्षा
जुटा ली, कुछ
कूड़ा-कबाड़
इकट्ठा करने
में अगर आप
सफल हो गए, तो
फिर आपका पानी
बिलकुल बर्फ,
ठोस पत्थर
के बर्फ की
तरह जम जाता
है, फ्रोजन। फिर वह साफ
दिखाई पड़ने
लगता है।
दिखाई ही नहीं
पड़ने लगता है,
गड़ने लगता है
दूसरों को।
और जब
तक अहंकार
दूसरे को गड़ने
न लगे, तब तक
आपको मजा नहीं
आता। तब तक
मजा आ नहीं
सकता। जब तक
आपका अहंकार
दूसरे की छाती
में चुभने
न लगे, तब
तक मजा नहीं
आता। मजा तभी
आता है, जब
दूसरे की छाती
में घाव बनाने
लगे। और दूसरा
कुछ भी न कर
पाए, तड़फकर रह जाए, और
आपका अहंकार
उसकी छाती में
घाव बनाए। तब
आप बिलकुल
विनम्र हो
सकते हैं। तब
आप कह सकते
हैं, मैं
तो कुछ भी
नहीं हूं।
भीतर मजा ले
सकते हैं उसकी
छाती में चुभने
का, और ऊपर
से हाथ जोड़कर
कह सकते हैं
कि मैं तो कुछ
भी नहीं हूं, सीधा-सादा
आदमी हूं!
यह जो
हमारे
संकल्पों की, अहंकारों
की, वासनाओं
की अंतर्धारा
है, इस
अंतर्धारा को
ही विसर्जित
कोई करे, तो
संन्यास
उपलब्ध होता
है। इसलिए
संन्यास एक
विज्ञान है।
एक-एक इंच
विज्ञान है।
संन्यास कोई
ऐसी बात नहीं
है कि आप कहीं
अंधेरे में पड़ी
कोई चीज है कि
बस उठा लिए।
संन्यास एक
विज्ञान है, एक साइंस
है। और आपके
पूरे चित्त का
रूपांतरण हो,
एक-एक इंच
आपका चित्त
बदले, आधार
से बदले शिखर
तक, तभी
संन्यास फलित
होता है।
आधार
क्या है? आधार
है फल की
आकांक्षा।
प्रक्रिया
क्या है? प्रक्रिया
है संकल्प।
उपलब्धि क्या
है? उपलब्धि
है अहंकार। ये
तीन शब्द खयाल
ले लें: फल की
आकांक्षा, संकल्प
की प्रक्रिया,
अहंकार की
सिद्धि। आधार
में फल की
आकांक्षा, मार्ग
में संकल्पों
की दौड़, अंत
में अहंकार की
सिद्धि।
यह
हमारा गृहस्थ
जीवन का रूप
है। जो भी ऐसे
जी रहा है, वह
गृहस्थ है। जो
इन तीन के बीच
जी रहा है, वह
गृहस्थ है। जो
इन तीन के
बाहर जीना
शुरू कर दे, वह संन्यस्त
है।
कहां
से शुरू
करेंगे? वहीं
से शुरू करें,
जहां से
कृष्ण कहते
हैं। फल की
आकांक्षा से
शुरू करें, क्योंकि
वहां लड़ाई
सबसे आसान है।
क्योंकि अभी
बादल है वहां,
पानी भी
नहीं बना है।
बर्फ बन गया, तो बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। फिर
बर्फ को पहले पिघलाओ, पानी बनाओ।
फिर पानी को
गर्म करो, भाप
बनाओ। और तभी
भाप से मुक्त
हुआ जा सकता
है, आकाश
में छोड़कर आप
भाग सकते हो
कि अब छुटकारा
हुआ। वहीं से
शुरू करें।
बहुत
कुछ तो आपके
भीतर बर्फ बन
चुका होगा।
अभी उसके साथ
हमला मत
बोलें। बहुत
कुछ अभी पानी
होगा।
प्रक्रिया चल
रही होगी बर्फ
बनने की, अभी
उसको भी मत छुएं।
अभी तो उन
बादलों की तरफ
देखें, जिनको
आप पानी बना
रहे हैं। जिन
आकांक्षाओं को
अभी आप नए
संकल्प दे रहे
हैं, उनकी
तरफ देखें। उन
आकांक्षाओं
के प्रति सजग हों
और लौटकर पीछे
देखें कि इतनी
आकांक्षाएं
पूरी कीं, पाया
क्या? इतने
फल पाए, फिर
भी निष्फल
हैं।
अगर
पचास साल की
उम्र हो गई, तो
लौटकर पीछे
देखें कि पचास
साल में इतना
पाने की कोशिश
की, इतना
पा भी लिया, फिर भी
पहुंचे कहां?
पाया क्या?
और अगर पचास
साल और मिल
जाएं, तो
भी हम क्या
करेंगे? हम
वही पुनरुक्त
कर रहे हैं।
जिसके पास दस
रुपए थे, उसने
सौ कर लिए
हैं। सौ की
जगह वह हजार
कर लेगा। हजार
होंगे, दस
हजार कर लेगा।
दस हजार होंगे,
लाख कर
लेगा। लेकिन
दस हजार जब
कोई सुख न दे
पाए! और जब एक
रुपया पास में
था, तो
खयाल था कि दस
रुपए भी हो
जाएं, तो
बहुत सुख आ
जाएगा। दस
हजार भी कोई
सुख न ला पाए, तो दस लाख भी
कैसे सुख ला
पाएंगे?
लौटकर
पीछे देखें।
और अपने अतीत
को समझकर, अपने
भविष्य को
पुनः धोखा न
देने दें।
नहीं तो
भविष्य रोज
धोखा देता है।
भविष्य रोज
विश्वास
दिलाता है कि
नहीं हुआ कल, कोई बात
नहीं; कल
हो जाएगा। वही
उसका सीक्रेट
है आपको पकड़े
रखने का। कहता
है, कोई
फिक्र नहीं; हजार रुपए
से नहीं हो
सका, हजार
में कभी होता
ही नहीं; लाख
में होता है।
जब लाख हो
जाएंगे, तब
यही मन कहेगा,
लाख में कभी
होता ही नहीं;
दस लाख में
होता है। यह
मन कहे चला
जाएगा। इस मन
ने कभी भी
नहीं छोड़ा कि
कहना बंद किया
हो। जिनको
पूरी पृथ्वी
का राज्य मिल
गया, उनसे
भी इसने नहीं
छोड़ा कि तुम
तृप्त हो गए
हो। उनको भी
कहा कि इतने
से क्या होगा?
अभी
देख रहे हैं
आप,
अमेरिका और
रूस के बीच एक
जी-जान की
बाजी चली पिछले
दोत्तीन
वर्षों में कि
चांद पर पहुंच
जाएं। इस जमीन
पर साम्राज्य बढ़ाकर देख
लिया, कुछ
बहुत रस मिला
नहीं। अब चांद
पर साम्राज्य
बढ़ाना है!
चांद पर झंडा गाड़ देना
है। वह किसी
की छाती में
झंडा गाड़ना
है। मंगल पर
कल गाड़
देंगे। होगा
क्या?
हम
गणित को ही
नहीं समझते, उसको
फैलाए चले
जाते हैं।
गणित सीधा और
साफ है कि फल
की दौड़ से सुख
का कोई भी
संबंध नहीं
है। संबंध ही
नहीं है। सुख
का संबंध है
कर्म में रस
लेने से। सुख
का संबंध फल
में रस लेने
से जरा भी नहीं
है। सच तो यह
है कि जिसने
फल में लिया
रस, मिलेगा
उसे दुख।
फल में
रस,
दुख उसकी
निष्पत्ति
है। जितना
ज्यादा फल में
रस लिया, उतना
ज्यादा दुख
मिलेगा। दो
कारण से दुख
मिलेगा। अगर
फल नहीं मिला,
तो दुख
मिलेगा। यह
दुख मिलेगा कि
फल नहीं मिल पाया,
मैं हार
गया। पराजित,
पददलित।
अगर मिल गया, तो भी दुख
मिलेगा, क्योंकि
मिलते ही पता
चलेगा कि इतनी
मेहनत की, इतना
श्रम उठाया और
यह मिल भी गया
और फिर भी कुछ
नहीं मिला!
फल दो
तरह से दुख
लाता है। हारे
हुओं को भी और
जीते हुओं को
भी। हारे हुओं
को कहता है कि
फिर कोशिश करो, तो
जीत जाओगे।
जीते हुओं को
कहता है कि
किसी और चीज
पर कोशिश करो।
यह मकान तो
बना लिया, ठीक
है। एक हवाई
जहाज और खरीद
लो। क्योंकि
हवाई जहाज के
बिना कभी किसी
को सुख मिला? हवाई जहाज जिसको
मिल जाता है, उसे कुछ हुआ
नहीं। कुछ और
कर डालो।
और कुछ
लोग ऐसी जगह
पहुंच जाते
हैं एक दिन, जहां
कुछ करने को
नहीं बचता। सब
कुछ उनके पास हो
जाता है। आज
अमेरिका में
वैसी हालत हो
गई है। कुछ
लोग तो उस जगह
पहुंच गए हैं,
जिनके पास
सब है, अतिरिक्त
है। तो अमेरिका
में जो आज
चीजें बेचने
वाले लोग हैं,
वे मन की
तरकीब को
जानते हैं। वे
क्या कहते हैं?
वे लोगों को
समझाते हैं कि
एक मकान से
कहीं सुख मिला?
सुख उनको
मिलता है, जिनके
पास दो मकान
हैं। वह एक ही
मकान में पति-पत्नी
रह रहे हैं
कुल जमा, उसमें
बीस कमरे हैं।
वह उनको समझा
रहा है--वह जो
जमीन बेचने
वाला, मकान
बेचने वाला
आदमी--कि एक
मकान से कहीं
सुख मिलता है?
अमेरिका
के मकानों का
विज्ञापन
अखबारों में देखें, तो
आपको बहुत
हैरानी होगी।
अखबारों में
विज्ञापन
कहते हैं, कहीं
एक मकान से
सुख मिलता है?
एक मकान और
चाहिए हिल
स्टेशन पर।
जिनके पास दो
मकान हैं, उनसे
कहते हैं कि
एक मकान और
चाहिए समुद्र
तट पर। वह मन
की तरकीब का
खयाल है कि
सुख! मन हमेशा कहता
है कि सुख मिल
सकता है। या
तो तुमने गलत
चीज में सोचा
था पहले। इसी
मन ने समझाया
था वह भी। अब
यही मन समझाता
है कि दूसरी
चीज चुनो। या मन
कहता है--अगर
हार गए, तो
वह कहता
है--हारने में
तो दुख मिलता
ही है, और
संकल्प करो।
और संकल्प करो,
तो जीत
जाओगे।
मन के
इस गणित को
समझेंगे आप, तो
कृष्ण का महागणित
समझ में आ
सकेगा। वह
संन्यास का है,
वह बिलकुल
उलटा है। वह
यह है कि मन की
इस प्रक्रिया
में जो उलझा, वह सिवाय
दुख के और
कहीं भी नहीं
पहुंचता है।
सुख
है। ऐसा नहीं
कि सुख नहीं
है। सुख
निश्चित है, लेकिन
उसकी
प्रक्रिया
दूसरी है।
उसकी प्रक्रिया
है कि बर्फ को
पानी बनाओ, पानी को भाप
बनाओ। भाप से
छुटकारा, नमस्कार
कर लो। भाप से
कहो कि जाओ; यात्रा पर
निकल जाओ आकाश
की।
अहंकार
को संकल्पों
में बदलो, संकल्पों
को कामनाओं
में कामनाओं
का छुटकारा कर
दो। अहंकार को
गलाओ, संकल्प
का पानी बनाओ।
संकल्प को भी
आंच दो, ज्ञान
की आंच दो, उसको
भाप बन जाने
दो। वह बादल
बनकर तुमसे हट
जाए। उसके
बाहर हो जाओ।
और जिस
दिन भी कोई
व्यक्ति ऐसी
स्थिति में आ
जाता है--और
कोई भी आ सकता
है,
क्योंकि
सभी उस स्थिति
के हकदार हैं।
वह कृष्ण कुल
अर्जुन से ही
कहते हों, ऐसा
नहीं है। कोई
भी, जिसके
जीवन में
चिंतना आ गई
हो, उसके
लिए सिवाय
इसके कोई भी
मार्ग नहीं
है। जिसने
सोचा हो जरा
भी, उसके
लिए सिवाय
इसके कोई मार्ग
नहीं है।
और अगर
आपको अब तक यह
पता न चला हो
कि इच्छाओं के
मार्ग से सुख
नहीं आता है, तो
आप समझना कि
आपने अभी
सोचना शुरू
नहीं किया।
अगर आपको अभी
यह खयाल न आया
हो कि इच्छाएं
दुख लाती हैं,
तो आप समझना
कि अभी आपके
सोचने की
शुरुआत नहीं
हुई। क्योंकि
जो आदमी भी सोचना
शुरू करेगा, जीवन की
पहली
बुनियादी बात
उसको यह खयाल
में आएगी। यह
पहला चरण है
सोचने का कि
इच्छाएं कभी भी
सुख लाती नहीं,
दुख में ले
जाती हैं। फिर
सुख कहां है?
तो दो
उपाय हैं। या
तो हम समझें
कि फिर सुख है
ही नहीं; या
फिर एक उपाय
यह है कि सुख
इच्छाओं के अतिरिक्त
कहीं हो सकता
है। इसके पहले
कि हम निर्णय
करें कि सुख
है ही नहीं, कुछ क्षण
इच्छाओं के
बिना जीकर देख
लें।
ऐसे भी
कुछ लोग हैं, जो
कहते हैं, सुख
है ही नहीं; दुख ही है।
जैसे फ्रायड
कहेगा, दुख
ही है। आप
ज्यादा से
ज्यादा इतना
कर सकते हैं
कि सहने योग्य
दुख उठाएं, ज्यादा मत
उठाएं। या ऐसा
कर सकते हैं
कि अपने को इस
योग्य बना लें
कि सब दुखों
को सह सकें। सुख
है नहीं।
फ्रायड कहता
है, कहीं
कोई सुख नहीं
है। ज्यादा और
कम दुख हो सकता
है; ज्यादा
सहने वाला कम
सहने वाला
आदमी हो सकता
है। लेकिन दुख
ही है।
लेकिन
फ्रायड का यह
वक्तव्य
अवैज्ञानिक
है। एक तरफ से
फ्रायड ठीक
कहता है, क्योंकि
जितना उसने
समझा, सभी
इच्छाएं दुख
में ले जाती
हैं। इसलिए
उसका यह
वक्तव्य ठीक
है कि दुख ही
है। लेकिन
फ्रायड को उस
क्षण का कोई
भी पता नहीं
है, जो
इच्छाओं के
बाहर जीया जा
सकता है। एक
क्षण का भी
उसे कोई पता
नहीं है, जो
इच्छाओं के
बाहर जीया जा
सकता है।
जिनको
पता है, बुद्ध
को या कृष्ण
को, वे
हंसेंगे
फ्रायड पर कि
तुम जो कहते
हो, आधी
बात सच कहते
हो। इच्छाओं
में कोई सुख
संभव नहीं है।
लेकिन सुख
संभव नहीं है,
यह मत कहो।
क्योंकि
इच्छाओं के
बिना आदमी संभव
है। और
इच्छाओं के
बिना जो आदमी
संभव है, उसके
जीवन में सुख
की ऐसी वर्षा
हो जाती है--कल्पनातीत!
स्वप्न भी
नहीं देखा था,
इतने सुख की
वर्षा चारों
ओर से हो जाती
है। जैसे ही
इच्छाएं हटीं,
और सुख आया।
अगर
इसे मैं ऐसा
कहूं, तो शायद
आसानी होगी
समझने में।
सुख और इच्छा में
वैसा ही संबंध
है, जैसा
प्रकाश और
अंधेरे में।
अगर इसे ठीक
से समझना
चाहें, तो
ऐसा समझें कि
सुख के विपरीत
दुख नहीं है, सुख के
विपरीत
इच्छाएं हैं।
सुख का जो अपोजिट
पोल है, वह
दुख नहीं है।
सुख का जो
विरोधी है, वह इच्छा
है। कमरे में
दीया जलाया; अंधेरा नहीं
रहा। कमरे में
दीया बुझाया;
अंधेरा भर
गया। इच्छाएं
भरी हों, अंधेरा
भरा है। दीया
जलाएं, इच्छाहीन
मन को जलाएं, अंधेरा खो
जाएगा।
अंधेरे में
दुख है; इच्छाओं
में दुख है।
कृष्ण
जिस संन्यास
की बात कर रहे
हैं,
वह कोई उदास,
जीवन से
हारा हुआ, थका
हुआ, आदमी
नहीं है। कृष्ण
जिस संन्यास
की बात कर रहे
हैं, वह
हंसता हुआ, नाचता हुआ
संन्यास है।
उस संन्यास के
होठों पर
बांसुरी है।
वह
संन्यास वैसा
नहीं है, जैसा
हम चारों तरफ
देखते हैं
संन्यासियों
को--उदास, मुर्दा,
मरने के
पहले मर गए, जैसे
अपनी-अपनी
कब्र खोदे हुए
बैठे हैं!
कृष्ण उस
संन्यास की
बात नहीं कर
रहे हैं। बड़े
जीवंत, लिविंग,
तेजस्वी
संन्यास की
बात कर रहे
हैं; नाचते
हुए संन्यास
की; जीवन
को आलिंगन कर
ले, ऐसे
संन्यास की।
भागता नहीं है,
ऐसे
संन्यास की।
हंसते हुए, आनंदित
संन्यास की।
ध्यान
रहे,
जो आदमी
इच्छाओं की
कामना को तो
नहीं छोड़ेगा,
फल की कामना
को नहीं
छोड़ेगा, सिर्फ
जीवन और कर्म
के जीवन से
भागेगा, वह
उदास हो
जाएगा। दुखी
तो नहीं रहेगा,
उदास हो
जाएगा। इस
फर्क को भी
थोड़ा खयाल में
ले लेना आपके
लिए उपयोगी
होगा।
उदास
उस आदमी को
कहता हूं मैं, जो
सुखी तो नहीं
है, और
दुखी होने का
भी उपाय नहीं
पा रहा है।
उदास वह आदमी
है, जो
सुखी तो नहीं
है, लेकिन
दुखी होने का
भी उपाय नहीं
पा रहा है। अगर
उसको दुख भी
मिल जाए, तो
थोड़ी-सी राहत
मिले। बंद हो
गया है सब तरफ
से। सुख की
कोई यात्रा
शुरू नहीं हुई,
दुख की
यात्रा बंद कर
दी।
हीरे-जवाहरात
हाथों में
नहीं आए, कंकड़-पत्थर
रंगीन थे, खेल-खिलौने
थे, उनको
सम्हालकर
छाती से बैठे
थे, उनको
भी फेंक दिया।
ऐसा आदमी उदास
हो जाता है।
कंकड़-पत्थर
सम्हाले बैठे
हैं आप।
भूल-चूक से
मैं आपके
रास्ते से
गुजर आया और
आपसे कह दिया, क्या
कंकड़-पत्थर
रखे हो? अरे,
पकड़ना है तो
हीरे-जवाहरात
पकड़ो! छोड़ो
कंकड़-पत्थर।
आप मेरी बातों
में आ गए, फेंक
दिए कंकड़-पत्थर।
कंकड़-पत्थर
का बोझ तो कम
हो जाएगा, उनसे
आने वाली
दुख-पीड़ा भी
कम हो जाएगी। कंकड़-पत्थर
चोरी चले जाते,
तो जो पीड़ा
होती, वह
भी नहीं होगी।
कंकड़-पत्थर
खो जाते, तो
जो दर्द होता,
वह भी नहीं
होगा। कंकड़-पत्थर
कोई चुरा न ले
जाए, उसकी
जो चिंता होती
है, वह भी
नहीं होगी।
रात आसानी से
सो जाएंगे।
लेकिन खाली
हाथ! हीरे
जवाहरात, कंकड़-पत्थर
फेंकने से
नहीं आते।
खाली हाथ उदास
हो जाएंगे।
जिस
चित्त में सुख
का आगमन नहीं
हुआ और दुख की स्थिति
को छोड़कर भाग
खड़ा हुआ, वह
उदास हो जाता
है। उदासी एक
निगेटिव
स्थिति है।
वहां दुख भी
नहीं है; और
सुख का कोई
रास्ता नहीं
मिल रहा। और
जो भी रास्ता
मिलता है, वह
फिर दुख की
तरफ ले जाता
है। तो वहां
जाना नहीं है।
सुख का कोई
रास्ता नहीं
मिलता। तो आंख
बंद करके अपने
को सम्हालकर
खड़े रहना है।
इस सम्हालकर
खड़े रहने में
उदासी पैदा
होती है।
संन्यास जो
इतना उदास हो
गया, उदासीन,
उसका कारण
यही है।
कृष्ण
नहीं कहेंगे
यह;
मैं भी नहीं
कहूंगा। मैं
कहता हूं, कंकड़-पत्थर
फेंकने की
उतनी फिक्र मत
करो। हीरे-जवाहरात
मौजूद हैं, उनको देखने
की फिक्र करो।
जैसे ही वे
दिखाई पड़ेंगे,
कंकड़-पत्थर हाथ
से छूट जाएंगे,
छोड़ने नहीं
पड़ेंगे। और
उनके दिखाई
पड़ने पर जीवन
में जैसे कि
बिजली कौंध गई
हो, ऐसे
आनंद की लहर
दौड़ जाएगी।
संन्यासी
अगर आनंदित
नहीं है, आह्लादित
नहीं है, नाचता
हुआ नहीं है, प्रफुल्लित
नहीं है, तो
संन्यासी
नहीं है।
लेकिन
वैसा
संन्यासी, सिर्फ
कृष्ण जो कहते
हैं, उस
तरह से हो
सकता है। कर्म
को छोड़ा कि आप
उदास हुए; क्योंकि
आपके जीवन की
जो ऊर्जा है, जो एनर्जी
है, वह
कहां जाएगी!
उसे प्रकट
होना चाहिए, उसे
अभिव्यक्त
होना चाहिए।
अगर हम किसी
झाड़ पर पाबंदी
लगा दें कि तू
फूल नहीं खिला
सकेगा; बंद
रख अपने फूलों
को! तो झाड़
बहुत मुश्किल
में पड़ जाएगा,
क्योंकि
ऊर्जा का क्या
होगा?
ऐसे ही
वह आदमी
मुश्किल में
पड़ जाता है, जो
कर्म को छोड़
देता है; जीवन
को छोड़कर भाग
जाता है।
प्रकट होने का
उपाय नहीं रह
जाता। सब झरने
भीतर बंद हो
जाते हैं; भीतर
ही घूमने लगते
हैं; विक्षिप्त
करने लगते
हैं। चित्त को
ग्लानि और
उदासी से भर
जाते हैं; अनंत
अपराधों से भर
जाते हैं, पश्चात्तापों
से भर जाते
हैं। और फिर, फिर वही
वासनाएं वापस
मन को खींचने
लगती हैं, क्योंकि
उनका कोई तो
अंत नहीं हुआ
है।
कृष्ण
कहते हैं, कर्म
करो पूरा, छोड़
दो फल का
खयाल। कर्म को
इतनी पूर्णता
से करो कि फल
के खयाल के
लिए जगह भी न
रह जाए। और तब
एक नए तरह का
आनंद भीतर
खिलना शुरू हो
जाता है। हीरे
प्रकट होने
लगते हैं; फिर
कंकड़-पत्थर
अपने आप छूटते
चले जाते हैं।
जो भी
करें, उसे
पूरा। अगर
भोजन भी कर
रहे हैं, तो
इतने आनंद से
और इतना पूरा
कि भोजन करते
वक्त चित्त
में और कुछ भी
न रह जाए। सुन
रहे हैं मुझे,
तो इतना
पूरा कि सुनते
वक्त चित्त
में और कुछ भी
न रह जाए। बोल
रहे हैं, तो
इतना पूरा कि
बोलना ही मैं
हो जाऊं; बोलते
वक्त और कुछ
भी भीतर न रह
जाए।
अगर
कर्म इतनी तीव्रता
से और पूर्णता
से किए जाएं, तो
आपका फल अपने
आप छूटने
लगेगा। फल के
लिए जगह न रह
जाएगी मन में
बैठने की।
कर्महीन
क्षणों में ही
फल भीतर
प्रवेश करता है।
निष्क्रिय
क्षणों में ही
फल भीतर घुसता
है। और आकांक्षाएं
मन को पकड़ती
हैं और हम कल
का सोचने लगते
हैं कि कल
क्या करें? जिसके
पास अभी करने
को कुछ नहीं
होता, जिसकी
शक्ति अभी में
पूरी नहीं डूब
पाती, उसकी
शक्ति कल की
योजना बनाने
लगती है। आज
और अभी और इस
क्षण में अपनी
पूरी शक्ति को
जो लगा दे, फल
को प्रवेश
करने का मौका
नहीं रह जाता।
और एक
बार पूरे कर्म
का आनंद आ जाए, तो
फल आपसे हाथ
भी जोड़े कि
मुझे भीतर आ
जाने दो, तो
भी आप उसे
भीतर नहीं आने
देंगे। आप
उससे कहेंगे,
बात
समाप्त। वह
नाता टूट गया।
पहचान लिया
मैंने कि तुम
आते हो सुख की
आशा लेकर; दे
जाते हो दुख!
तुम्हारा
चेहरा, जब
तुम दूर होते
हो, तो
मालूम पड़ता है
सुख है; और जब
तुम छाती से
लग जाते हो, तब पता चलता
है दुख है।
तुम धोखेबाज
हो। फल की आकांक्षा
धोखेबाज है, प्रवंचना
है।
ये तीन
बातें--फल की
आकांक्षा, संकल्प
की प्रक्रिया,
अहंकार का
सघन होना--ये
तीन गृहस्थी
की व्यवस्थाएं
हैं। इन तीन
के जो बाहर है,
वह
संन्यस्त है।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट रुकेंगे।
इसके आगे के
सूत्र पर हम
कल सुबह बात
करेंगे। अभी
पांच मिनट रुकेंगे।
जिस आनंदित
संन्यासी की
मैंने बात कही
और कृष्ण
जिसकी बात कर
रहे हैं, वे
हमारे
संन्यासी
यहां इकट्ठे
हैं; वे
आपको प्रसाद
देंगे आनंद
का। पांच मिनट
वे यहां
नाचेंगे आनंद
से। आप पांच
मिनट बैठकर
ताली बजाकर
उनके आनंद में
सहभागी हों और
उनका प्रसाद
लेकर जाएं।
कोई भी उठेगा
नहीं, कोई
भी जाएगा
नहीं।
आज इतना
ही
thank you guruji
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