दिनांक
10 दिसंबर, 1976;
श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
पहला
प्रश्न :
अष्टावक्र—गीता
में जीवन—मुक्त
की चर्चा कई
बार हुई है।
जीवन—मुक्त पर
कुछ प्रकाश
डालने की
अनुकंपा करें।
वन जैसा
है वैसी ही
मृत्यु होगी।
जो उस पार है
वैसा ही इस
पार होना
पडेगा। जैसे
तुम यहां हो
वैसे ही वहां
हो सकोगे।
क्योंकि तुम
एक सिलसिला हो, एक
तारतम्य हो।
ऐसा मत सोचना
कि मृत्यु के
इस पार तो
अंधेरे में
जीयोगे और मृत्यु
के उस पार
प्रकाश में।
जो यहां नहीं
हो सका, वह
केवल शरीर छूट
जाने से नहीं
हो जायेगा।
तुम तुम ही
रहोगे। मौत से
कुछ भेद नहीं
पड़ता है। तुम
आनंदित थे
जीवन में, तो
मृत्यु के पार
भी आनंदित
रहोगे; फुत्यु
के मध्य भी आनंदित
रहोगे। तुम
दुखी थे तो
मृत्यु
तुम्हें सुख न
दे पायेगी।
अगर तुम जीवन
में नर्क में
हो तो जीवन के
पार भी नर्क
ही तुम्हारी
प्रतीक्षा
करेगा। इसे
तुम ठीक से
समझ लो।
आदमी
बहुत बेईमान
है। टालने की
बड़ी इच्छा
होती है। वह
सोचता है. कर
लेंगे। मुक्त
भी होना है तो मृत्यु
के बाद, अभी
तो कुछ जल्दी
नहीं है।
प्रभु स्मरण
भी करना है तो
कर लेंगे मरते
समय, कर
लेंगे तीर्थ—यात्रा,
मरते समय
सुन लेंगे पाठ।
बुढ़ापे में
संन्यास।
कल
पर हम छोड़ते
हैं;
आज तो जी
लें उसी ढांचे
में, जिसमें
हम जीते रहे
हैं। आज तो कर
लें बुरा, कल
अच्छा कर लेंगे।
अच्छे को हम
टालते हैं, बुरे को हम
कभी नहीं
टालते। तो
बंधन तो आज, मुक्ति कल—ऐसा
हमारा गणित है।
इस गणित को
तोड्ने का
उपाय है
जीवनमुक्त
सत्य में।
जीवन
में ही मुक्ति
हो,
तो ही
मुक्ति होगी।
जीते—जी
जागोगे, तो
ही जागोगे।
सोचो, जीते—जी
जो न जाग सका, वह मरने में
कैसे जागेगा?
मृत्यु तो
जीवन का चरम
निष्कर्ष है।
मृत्यु तो
कसौटी है।
तुम्हारे
जीवन भर का
सारा सार—संचित
मृत्यु के
क्षण में
तुम्हारी आंखों
के सामने
प्रगट हो
जायेगा।
मृत्यु तो
निर्णायक है।
वह तो सारे
जीवन की कथा
का सार—निचोड़
है।
मृत्यु
में जीवन
समाप्त नहीं
होता, तुम
सारे जीवन को
इकट्ठा करके
नई यात्रा पर
निकल जाते हो।
अगर तुम
क्रोधित थे तो
तुम्हारी
मृत्यु में भी
क्रोध होगा।
अगर तुम दुखी
थे तो दुख की
घनी अमावस
होगी। अगर
तुम्हारे
जीवन का
प्रत्येक पल
प्रफुल्ल था,
आनंदमग्न
थे, नृत्य
था, गीत था,
संगीत था
सुगंध थी—तो
मृत्यु
महोत्सव हो
जायेगी।
व्यक्ति
जैसा जीता
वैसा ही मरता।
हम अलग— अलग
जीते ही नहीं, हम
अलग— अलग मरते
भी हैं। हमारी
जीवन—शैली ही
भिन्न नहीं
होती, हमारी
मृत्यु—शैली
भी भिन्न होती
है। तुम न तो
ठीक से जीते न
तुम ठीक से
मरते। तुम
अंधे की तरह
जीते हो, अंधे
की तरह मरते
हो। इसलिए
मृत्यु का
पूरा दर्शन
नहीं हो पाता।
जर्मनी
का महाकवि
गेटे मरण—शैव्या
पर पड़ा था।
उसने आंख खोली, उसके
चेहरे पर एक
मुस्कुराहट
फैल गई। और
उसने कहा. ये
दीये बुझा दो।
उसके आसपास
दीये जल रहे
थे। उसने कहा.
ये दीये बुझा
दो, क्योंकि
अब मुझे महाप्रकाश
दिखाई पड़ने
लगा है। आंख
बंद कर ली और
मर गया। अब इन
दीयों की कोई
जरूरत नहीं है।
अब मिट्टी के
दीये आवश्यक
नहीं। अब
चैतन्य का
दीया जल उठा
है।
ऐसी
प्रतीति तो
तभी हो सकती
है जब तुमने
जीवन की रत्ती—रत्ती
स्वर्णमय बना
ली हो। जब
प्रकाश
तुम्हारे
जीवन के कण—कण
से झरा हो, तो
ही मृत्यु के
क्षण में
महासूर्य
प्रगट होगा।
इसलिए
मृत्यु का
अनुभव सभी का
अलग—अलग है।
और जब तक
मृत्यु
तुम्हें
मुक्ति जैसी
अनुभव न हो, समझना
जीवन व्यर्थ
गया। जब तक
मृत्यु
तुम्हें
प्रभु के
द्वार पर खड़ा न
कर दे, मृत्यु
में तुम्हें
प्रभु की
भुजायें
स्वागत करती
हुई न मिलें, उसकी बांहें
फैली हुई
तुम्हारे
आलिंगन को तत्पर
न हों—तब तक
समझ लेना कि
जीवन व्यर्थ
गया। मृत्यु
ने प्रमाण—पत्र
नहीं दिया।
तुम्हें फिर
आना पड़ेगा।
मुक्त
का अर्थ होता
है : जो फिर न
आयेगा, जो
दुबारा न
आयेगा। बुद्ध
ने उसके लिए
शब्द दिया है : 'अनागामिन', जो फिर नहीं
आयेगा, जो
दुबारा नहीं
लौटेगा।
मुक्त का अर्थ
है, जिसने
जीवन का पाठ
सीख लिया; अब
इस पाठशाला
में दुबारा
आने की जरूरत
नहीं होगी।
मृत्यु
में अगर
तुम्हें
मुक्ति अनुभव
हो जाये तो बस
फिर कोई जन्म
नहीं है।
लेकिन मृत्यु
में मुक्ति
अनुभव कैसे
होगी? जीवन
में ही अनुभव
नहीं हुई तो
मृत्यु में
कैसे अनुभव
होगी? जब
सब सुविधा थी,
जब आंखें
साबित थीं, हाथ—पैर
स्वस्थ थे, मन में बल था,
भीतर ऊर्जा
थी, जब
तरंग थी मौजूद;
जब तुम चढ़
सकते थे लहर
पर और दूर के
किनारों तक यात्रा
कर सकते थे; जब पाल भर
खोल देने की
जरूरत थी और
जीवन की
हवायें
तुम्हें दूर की
यात्रा पर ले
जातीं—तब तुम
इंच भर न हिले।
तो मृत्यु के
क्षण में जब
सब शिथिल हो
जायेगा, पाल
फट जायेगा, हवायें सो
जायेंगी, ऊर्जा
खो जायेगी, सब तरफ गहन
सन्नाटा होने
लगेगा, तुम
थके—हारे
गिरने लगोगे
कब्र में—तब!
तब तुम कैसे
कर पाओगे? तब
बहुत मुश्किल
हो जायेगा।
टालो
मत। जो करना
है उसे आज कर
लो। कल पर भी
मत टालो; क्योंकि
कल मृत्यु है,
जीवन आज है।
जीवन सदा आज
है। मृत्यु
सदा कल है।
अभी तक तुम
मरे नहीं। आज
तो जीवन है।
अभी उतद्वो
जलीवन। है।
क्षण भर के
बाद की कौन
कहे! क्षण भर
बाद तुम हो या
न हो, इस
जीवन का उपयोग
इस जीवन का
उपयोग तुम
करते हो
क्षुद्र में,
व्यर्थ में;
और सोचते हो
: कल, जब सब
काम चुक
जायेगा, जीवन
की दूकान बंद
करने का समय आ
जायेगा, तब
फिर याद कर
लेंगे
परमात्मा को।
तुम धोखा दे
रहे हो, अपने
को धोखा दे
रहे हो।
मुक्त
होना है तो
अभी होना है।
ध्यान करना है
तो अभी करना
है।
प्रार्थना से
भरना है तो
अभी भरना है।
एक—एक क्षण
में तुम धीरे—धीरे
प्रार्थना के
मनके पिरोते
चले जाओ तो मृत्यु
के समय तक
तुम्हारे
जीवन की माला
तैयार हो
जायेगी।
जीवन—मुक्त
का अर्थ होता
है,
जिसने
स्थगन नहीं
किया; जो
बाट नहीं जोह
रहा; जो आज
अपने को
रूपांतरित कर
रहा है; इस
क्षण का उपयोग
कर रहा है; इस
अवसर को खाली
नहीं जाने दे
रहा है। इस
अवसर की जो
क्षमता है
उसका पूरा
सदुपयोग कर लो।.....
यह एक आयाम।
दूसरा
आयाम जीवन—मुक्त
का होता है :
भगोड़े मत बनो।
जीवन से भाग कर
मुक्ति नहीं
है। पहला अर्थ
: मृत्यु की
आशा मत करो।
जो जीवन में
नहीं मिलेगा
वह मृत्यु में
भी नहीं
मिलेगा।
दूसरा अर्थ :
जीवन से भागो
मत,
भगोड़े मत
बनी। हिमालय
की गुफा—कंदराओं
में नहीं है
मुक्ति। यहां,
जहां जीवन
का संघर्ष है,
बाजार में,
ठेठ भीड़—भाड़
में, यहीं
मुक्ति है।
कहीं जाओ मत।
कहीं जाने से
कुछ हल न होगा।
तुम तुम ही
रहोगे। तुम
जैसे हो वैसे
ही रहोगे। तुम
हिमालय की
गुफा में बैठ
जाओगे, इससे
क्या फर्क
पड़ेगा ? न
बैठे अपने घर
में, बैठ
गये हिमालय की
गुफा में—इससे
क्या फर्क
पड़ेगा? तुम्हारा
चित्त तो न
बदल जायेगा। तुम्हारी
चैतन्य की
धारा तो
अविच्छिन्न
वही की वही
रहेगी। इतना
ही होगा कि
गुफा और
अपवित्र हो
जायेगी तुम्हारी
मौजूदगी से।
तुम गुफा में
भी बाजार की
दुर्गंध ले
आओगे।
जीवन—मुक्त
का अर्थ होता
है : भागो मत; जहां
हो वहीं बदली।
बदलाहट असली
सवाल है, भगोड़ापन
नहीं; पलायन
नहीं। तो घर
में हो..... तो घर
में पति हो तो
पति, पत्नी
हो तो पत्नी, बाप हो तो
बाप, दूकानदार
कि मजदूर, जहां
हो, जैसा
है।
अष्टावक्र
ने बार—बार
कहा है : जीवन
जैसा मिले उसे
वैसा ही जी
लेना; अन्यथा
की मांग न
करना। जीवन
जैसा मिले उसे
परम स्वीकार
से जी लेना। प्रभु
ने जो दिया है
उसमें राज
होगा। प्रभु
ने जो दिया है
उसमें
प्रयोजन होगा,
उसमें कुछ
कीमिया होगी;
तुम्हें
बदलने का कोई
उपाय छिपा
होगा। दुख
दिया है तो
तुम्हें
निखारने को
दिया होगा।
दुख में आदमी
निखरता है; सुख में तो
जंग खा जाता
है। सुख ही
सुख में तो
आदमी मुर्दा—मुर्दा,
थोथा हो
जाता है।
तुम
देखते, जिसको
तुम तथाकथित
सुखी आदमी
कहते हो, वह
कैसा पोचा हो
जाता है! उसके
जीवन में कोई
गहराई नहीं
होती। संघर्ष
ही न हो तो
गहराई कहां!
और जीवन में
दुख न झेला हो
तो निखार
कहां! सोना तो
आग से गुजर कर ही
स्वच्छ होता
है, सुंदर होता
है, शुद्ध
होता है। जीवन
की आग से ही
गुजर कर आत्मा
भी शुद्ध होती
है, निखरती
है, स्वर्ण
बनती है।
तो
जो हो, जैसा हो,
उससे भागना
मत, वहीं
जागना। असली
प्रक्रिया
जागने की है।
जो करो
होशपूर्वक
करना। दुख आ
जाये, दुख
को भी
होशपूर्वक
झेलना, अंगीकार
कर लेना। इंकार
जरा भी न करना।
स्वीकार— भाव
से मान कर कि
जरूर कोई
प्रयोजन होगा—और
निश्चित तुम
पाओगे
प्रयोजन है।
दुख तुम्हें
बदलेगा, माजेगा,
निखारेगा, ताजा करेगा,
और किसी बड़े
सुख के लिए
तैयार करेगा।
जीवन
तपश्चर्या है।
जीवन—मुक्त
का दूसरा आयाम, दूसरा
अर्थ जीवन में
ही मुक्ति है,
इससे भिन्न
नहीं।
और
तीसरा अर्थ।
साधारणत:
तथाकथित
धर्मगुरुओं
ने मोक्ष को
और जीवन को
विपरीत बना
दिया है। जैसे
अगर तुम्हारा
जीवन में रस
है तो परमात्मा
में तुम विरस
हो गये।
साधारणत: जीवन
और परमात्मा
के बीच एक
विरोध खड़ा कर
दिया, एक
द्वंद्व खड़ा
कर दिया है।
और बड़े
आश्चर्य की
बात है, यह
उन्हीं लोगों
ने जो अद्वैत
की बात करते
हैं; उन्हीं
लोगों ने जो
कहते हैं
निर्द्वंद्व
हो जाओ, जिनकी
सारी शिक्षा
निर्द्वंद्व
की है, उन्हीं
ने यह भेद खड़ा
कर दिया है।
तो तुम्हें
बड़ी फासी लग
गई है, तुम्हारे
गले में। ऐसा
लगता है जीवन
में रस लिया
तो अपराध हो
गया और जीवन
में रस न लो, तभी
परमात्मा
मिलेगा।
अब
जीवन में रस
बिलकुल
स्वाभाविक है—परमात्मा
का ही दिया
हुआ है। वह
रसधार उसी ने
बहाई है।
तुम्हारा हाथ
नहीं है जीवन
के रस में।
तुम्हारा हाथ
होता तो तुम
अलग भी कर
लेते।
तुम्हारे हाथ
में परमात्मा
का ही हाथ
पिरोया हुआ है।
तुम अलग न कर
पाओगे। यह कोई
तुम्हारी
मर्जी थोड़े ही
है कि जीवन में
रस है, कि फूल
सुंदर लगते
हैं, कि
संगीत मस्ती
से भर देता है,
कि नीले
आकाश को देख
कर मन शांत
होता है, कि
सौंदर्य को
देख कर मन
पुलकित होता
है। यह रस
बहता है, यह
तुम्हारा कुछ
अपना निर्णय
थोड़े ही है।
ऐसा तुमने
पाया है। ऐसी
प्रभु की
मर्जी है।
जार्ज
गुरजिएफ कहा
करता था कि अब
तक जमीन पर जो
धर्म रहे हैं, करीब—करीब
सभी परमात्मा—विरोधी
हैं। यह बात
बहुत अजीब—सी
लगती है, क्योंकि
धर्म तो
परमात्मा की
पूजा करते हैं
और गुरजिएफ कहता
है, परमात्मा—विरोधी!
और गुरजिएफ
कहता है, तुम्हारे
जो अब तक के
महात्मा हैं,
वे सब
परमात्मा के
दुश्मन हैं।
क्योंकि वे सब
उस चीज के
विपरीत
तुम्हें ले जाते
हैं जो
परमात्मा ने
दी है।
परमात्मा ने
दिया है नाच, यह सारा
जीवन उत्सव से
भरा है। यहां
फूल—फूल पत्ती—पत्ती
पर नृत्य की
छाप है। यहां
सब तरफ
इंद्रधनुषी
रंग हैं।
तुम्हारे
महात्मा में
कोई
इंद्रधनुष
होता ही नहीं,
तुम्हारे
महात्मा में
कोई फूल खिलता
ही नहीं।
तुम्हारा
महात्मा करीब—करीब
मुर्दा है—जीवन
से क्षीण और
रिक्त। नदी
कभी वहां बहती
थी, अब नदी
बहती नहीं। सब
सूख गया है; सिर्फ रेत
का पाट भर पड़ा
रह गया है, सूखी
धार रह गई है।
नदी बहती थी, इसका स्मरण
रह गया है।
नदी अब बची
नहीं।
परमात्मा सब
जगह हरा है।
इस हरियाली के
विपरीत जाने
की कोई जरूरत
नहीं। इस
हरियाली में
ही उसे खोज
लेना है। तो
जो सच में परम
ज्ञानी हुए—अष्टावक्र
कि कबीर कि
नानक कि
मुहम्मद कि
लाओत्सु—उन
सबकी शिक्षा
का एक बहुत
महत्वपूर्ण
सार है, और
वह यह है कि जहां—जहां
जीवन है वहां—वहां
परमात्मा
छिपा है।
तुम्हें
दिखाई न पड़े
तो अपनी आंख
आजो, अपनी आंख
पर ध्यान का
काजल लगाओ।
तुम्हें
दिखाई न पड़े
तो समझना कि
पर्दा तुम्हारे
ऊपर है। अपना
पर्दा हटाओ।
अपने हृदय के
किवाडु खोलो।
घूंघट हटाओ।
लेकिन जीवन
में ही
परमात्मा है।
जीवन में ही
मोक्ष है।
जापान
के बहुत बड़े
फकीर रिंझाई
ने कहा है : संसार
और निर्वाण एक
ही हैं। जीवन—मुक्त
में दोनों मिल
जाते हैं।
जीवन—मुक्त
अद्वैत की परम
अवस्था है.
जीवन भी मिल
गया,
मोक्ष भी
मिल गया। जहां
जीवन और मोक्ष
का संगम होता
है वहां जीवन—मुक्त।
साधारणत:
तुम्हें
जीवित आदमी
मिलेंगे, उनमें
मोक्ष नहीं है।
और तुम्हें
मुर्दा आदमी
मिलेंगे, उनमें
मोक्ष है, लेकिन
जीवन नहीं है।
दोनों चूक गये।
तुमने
पुरानी कहानी सुनी
है?
एक जंगल में
आग लग गई और एक
अंधा और एक
लंगड़ा दोनों
उस जंगल में
थे, दोनों
ने विचार किया
कि बचने का एक
ही उपाय है कि
लंगड़ा अंधे के
कंधों पर सवार
हो जाये। अंधे
को दिखाई नहीं
पड़ता, पैर
साबित हैं, चल सकता है।
लेकिन अंधा
अगर अपने ही
पैर से चले और
अपनी ही अंधी आंखों
से देखे तो जल
मरेगा, जंगल
चारों तरफ
लपटों से भरा
है, निकलना
बहुत मुश्किल
है। टटोल न
सकेगा, रास्ता
खोज न सकेगा।
लंगड़े को
दिखाई पड़ता है,
लेकिन पैर
नहीं हैं।
मालूम है कि
कहां लपटें
नहीं हैं, दौड़
सकता है र
लेकिन दौड़े
कैसे!
उन
दोनों ने
निर्णय कर लिया
और एक आपसी
समझौता किया।
लंगड़ा अंधे के
कंधों पर सवार
हो गया। वे
दोनों उस आग
लगे जंगल से
बाहर निकल आये।
दोनों अलग—
अलग मर जाते।
दोनों साथ हो
कर बाहर निकल
आये। एक संगम
हुआ। एक बड़ी
अदभुत घटना घट
गई। लंगड़े ने
अंधे को आंखें
दे दीं; अंधे
ने लंगड़े को
पैर दे दिए।
जीवन—मुक्त
ऐसी ही दशा है—जहां
जीवन के कंधों
पर परमात्मा
सवार हो जाता है; जहां
जीवन की
साधारणता में
परमात्मा की
असाधारणता
प्रगट होती है।
इसलिए तो
अष्टावक्र
कहते हैं :
जीवन—मुक्त
ऊपर से देखने
पर तो साधारण
जैसा ही मालूम
पड़ता, साधारण
आदमी जैसा ही
मालूम पड़ता है।
उसका वर्तन, उसका
व्यवहार ऊपर
से तो साधारण
आदमी जैसा होता
है, लेकिन
भीतर बड़ी
असाधारणता
होती है, बड़ी
भिन्नता होती
है। क्या
भिन्नता होती
है? रहता
है जगत में, लेकिन लिप्त
नहीं होता।
जीता है जगत
में, लेकिन
बंधनग्रस्त
नहीं होता।
चलता है, उठता
है, बैठता
है, काम
करता है, परमात्मा
जो करवाये
करता है—लेकिन
कर्ता नहीं
बनता, निमित्त
मात्र रहता है।
जो हो, हो।
जो न हो, न
हो। न तो कुछ
होना चाहिए, ऐसा उसका
आग्रह है; न
ऐसा नहीं होना
चाहिए, ऐसा
उसका कोई
आग्रह है। ऐसा
व्यक्ति
संसार में
रहता है और
फिर भी संसार
में नहीं रहता।
अष्टावक्र
कहते हैं ऐसा
व्यक्ति
देखता है और नहीं
देखता; होता
है और नहीं
होता। यह
अपूर्व घटना
है। इस जगत
में जो सबसे
महत्वपूर्ण
घटना है, सबसे
उत्कृष्ट, वह
है जीवन—मुक्ति—जहां
जीवन और मोक्ष
का मिलन हो
गया; जहां
जीवन के कंधों
पर, जीवन
की ऊर्जा पर
मोक्ष सवार हो
गया।
तुम
दो तरह के लोग
तो साधारणत:
देख लोगे, वे
तुम्हारे
पहचाने हुए
हैं। एक है
भोगी, वह
अंधा है। वह
टकराता फिरता
है, टटोलता
फिरता है और
जलता रहता है,
दुख भोगता
रहता है। और
एक है
तुम्हारा
महात्मा, वह
लंगड़ा है। वह
बैठा है
मुर्दे की तरह।
उसे दिखाई तो
पड़ता है कि
रास्ता कहां
है, लेकिन
चल नहीं पाता,
क्योंकि
लंगड़ा चले
कैसे!
परमज्ञानी
दोनों का जोड़
है। संसार से
भागता नहीं; संसार में
ही परमात्मा
को उपलब्ध कर
लेता है। जीवन
ही साधना बन
जाती है। जीवन
ही मंदिर बन
जाता है। देह
ही मंदिर बन
जाती है।
प्रभु—मंदिर
यह देह री!
क्षिति
की क्षमता जल
की समता
पावक
दीपक जाग्रत
ज्योतित
निशि—दिन
प्रभु का नेह
री!
प्रभु—मंदिर
यह देह री!
गगन
असीमित पवन
अलक्षित
प्रभु
कर उनसे पल—पल
रक्षित
यह
पंचमहला गेह
री।
प्रभु—मंदिर
यह देह री।!
अतिथि
पधारो, भाग्य
सवारो
क्षण
भर को कंचन
छवि पाये
चरण
बिछी यह खेह
री!
प्रभु
—मंदिर यह देह
री!
यह
देह जब प्रभु—मंदिर
बन जाती और यह
संसार जब
परमात्मा का
ही विस्तार हो
जाता है और
पदार्थ में भी
जब परमात्मा
की झलक दिखाई
पड़ने लगती है, तब
जीवन—मुक्त।
या अगर तुम
विरोधाभास
में कहना चाहो,
क्योंकि
विरोधाभास
धर्म की भाषा
है : जहां
कारागृह ही घर
हो जाता है और
जहां बंधन ही
आभूषण मालूम
होने लगते हैं,
वहीं जीवन—मुक्त
फलित होता है।
जीवन—मुक्त
जैसा है, जहां
है, उससे
रत्ती भर
अन्यथा होने
की आकांक्षा
नहीं है। सब
असंतोष गया।
एक महातृप्ति
उदित हुई। सब
भांति
परितुष्ट।
जीवन—मुक्त
को जगत
परिपूर्ण है, जैसा
होना चाहिए
ठीक वैसा है।
इससे
श्रेष्ठतर हो
नहीं सकता।
उसकी शिकायत
नहीं है। और
अगर ऐसा संगम
सध जाये तो
मौत फिर
तुम्हें नष्ट
न कर पायेगी।
क्योंकि यह
मौत से ऊपर
कुछ तुमने पा
लिया जिसको
मौत नहीं मिटा
सकती। फिर मौत
की लपटें
तुम्हें जला न
पायेंगी। अगर
तुम्हारे
भीतर अंधे और
लंगड़े का मिलन
हो गया; अगर
तुम्हारे
भीतर देह और
आत्मा का मिलन
हो गया, संसार
और मोक्ष का
मिलन हो गया; अगर
तुम्हारे
भीतर साधारण
और असाधारण का
मिलन हो गया; अगर
तुम्हारे
भीतर बाहर और
भीतर का मिलन
हो गया; कोई
भेद न रहा
बाहर और भीतर
में, बाहर
भीतर हो गया, भीतर बाहर
हो गया, सब
संयुक्त हो
गया—ऐसी
संयुक्त घटना
अगर तुम्हारे
भीतर घट गई तो फिर
मृत्यु की
लपटें कितनी
ही जलती रहें,
चिता कितनी
ही धधके, तुम्हें
न धधका सकेगी।
तुम पार हो
गये। जंगल में
आग लगी रहे, चिता जलती
रहे, तुम्हारा
अंधा और तुम्हारा
लंगड़ा, तुम्हारे
खंड अखंड हो
गये। जुड़ गये।
इस जोड़ का नाम
योग है। इस
जोड़ की स्थिति
को ही हम योगी
की दशा कहते
हैं।
यह
समझना कठिन
मालूम होता।
संसार में तुम
जीते हो, भोगी
तुम हो, भोग
का कष्ट तुमने
देखा है। और
तुम्हारे आस—पास
महात्मा हैं
जो तुम्हें
समझा रहे हैं
कि छोड़ दो यह
सब, भाग
जाओ इस सब से।
उनकी बात भी
जँचती है, क्योंकि
तू_मने दुख
तो पाया है, सच कहते हैं।
और ऐसा लगता
है कि अब इस
दुख से छूटने
का और कोई उपाय
नहीं, छोड़
कर भाग जाओ।
लेकिन
तुम कभी इन
साधु —महात्माओं
की आंख में
झांको तो, थोड़े
इनका हाथ हाथ
में ले कर
देखो—तो इनके
भीतर जीवन बचा
है या सिर्फ
खंडहर हैं? इनकी आंख
में झांको, कोई गहराई
है? इनके
पास बैठो, इनके
पास कोई प्रेम
की वर्षा है? अमृतधार
बहती है?
नहीं, तुम्हारी
धारणायें तुम
अगर बना कर
बैठ गये हो तो
बात अलग है।
तुम्हारी
धारणा है कि
महात्मा होने का
अर्थ कि जो
दिन में एक
बार भोजन करे।
तो फिर ठीक है,
यह आदमी दिन
में एक बार
भोजन करता है—महात्मा
होना चाहिए।
तुमने
महात्मा की
बड़ी सस्ती
व्याख्या कर
ली है। यही
आदमी मुसलमान
को महात्मा न
मालूम पड़ेगा,
जैन को
महात्मा
मालूम पड़ता है।
मुसलमान का
फकीर मुसलमान
को महात्मा
मालूम पड़ता है,
जैन को
बिलकुल
महात्मा नहीं
मालूम पड़ता।
अब यह भी क्या
पागलपन है कि
दिन भर उपवास
किया, रमजान
रखा और रात
भोजन कर रहे
हो! यह कोई
महात्मापन
हुआ? रात
में तो
अज्ञानी भोजन
करते हैं, अज्ञानी
तक नहीं करते।
ये सूफी फकीर
हैं? ये
दिन भर तो
उपवास किए हैं,
अब रात भोजन
कर रहे हैं
सूरज ढलने के
बाद! इनका दिमाग
खराब हो गया
है! लेकिन
मुसलमान को
इसमें फकीर
दिखाई पड़ता है।
उसकी धारणा है।
दिगंबर
जैन का मुनि
अगर खड़ा हो तो
सारी दुनिया
को पागल मालूम
पड़ेगा—नंगा
सड़क पर खड़ा हो
गया। और
दिगंबर जैन
मुनि जब उसके
बाल बढ़ जाते
हैं तो केश—लुंच
करता है, अपने
केश नोच लेता
है, उखाड़
देता है। तुम
भी जानते हो, कभी—कभी
स्त्रियां
क्रोध में आ
जाती हैं तो
बाल उखाड़ने
लगती हैं। तो
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, यह
तो कुछ पागलपन
का लक्षण है।
आदमी कहता है
कि ऐसा हो रहा
है कि अपने
बाल नोच डालूं
क्रोध की हालत
में ऐसा हो
जाता है। तो
यह तो पागलपन
है। और
पागलखानों
में ऐसे पागल
हैं जो बाल
नोच लेते हैं
अपने। अब ये
जैन मुनि, दिगंबर
को तो लगेगा
अहा! जब जैन
मुनि केश—लुंच
करते हैं तो
सारे जैनी
इकट्ठे होते
हैं, उत्सव
मनाते हैं।
बीच में सिन
केश लोंचता है
और वे सारे
उत्सव मनाते
हैं कि कैसी
महान घटना का
दर्शन कर रहे
हैं! लेकिन
दूसरे सब हंस
रहे हैं।
दूसरे सब समझ
रहे हैं कि ये
दिमाग खराब
होने की बातें
हैं। यह कोई
बात हुई?
तुम्हारी
धारणा से अगर
तुम चल रहे हो, तब
तो तुम्हें
महात्मा
दिखाई पड़
जायेगा, क्योंकि
तुमने एक बंधा
हुआ
दृष्टिकोण
बना रखा है।
लेकिन
निर्धारणा हो
कर जाओ। धारणा
छोड़ कर जाओ।
किसी धारणा से
मत देखो। सहज
देखो। तो तुम
अड़चन में पड़
जाओगे। तब
तुम्हें जो
महात्मा
दिखाई पड़ते थे
वे महात्मा न
दिखाई पड़ेंगे।
और हो सकता है,
जिनमें
तुम्हें कभी
महात्मा नहीं
दिखाई पड़ा था
उनमें कहीं
महात्मा के
दर्शन हो
जायें।
महात्मा
का अर्थ ही
यही होना
चाहिए कि
जिसके जीवन
में और
परमात्मा में
तालमेल हो गया, संगीत
बैठ गया, सुर
एक हो गया; जो
भोजन करते
वक्त ध्यान
मग्न है और
दूकान पर बैठा
हुआ प्रभु का
स्मरण कर रहा
है; जिसके
प्रभु—स्मरण
में और जीवन—कृत्य
में जरा भी
भेद नहीं रह
गया है।
कबीर
ने कहा है : 'उठूं
—बैठूं सो
सेवा!' मेरा
उठना—बैठना ही
प्रभु की सेवा
है।’चलूं —फिरूं
सो परिक्रमा!'
अब मंदिर
में जाकर
परिक्रमा
नहीं करता।
क्या फायदा? ऐसा चलता—फिरता
हूं उसमें
प्रभु की ही
परिक्रमा हो
रही है, किसी
और की तो
परिक्रमा हो
नहीं सकती, क्योंकि
प्रभु ही तो
है, कोई और
तो है नहीं।
उसके
अतिरिक्त तो
कुछ भी नहीं
है।’खाऊं—पीऊं
सो सेवा।’ मंदिर
में लोग जब
भगवान को भोग
लगाते हैं, तो कहते हैं,
सेवा कर रहे
हैं। और कबीर
कहते हैं कि
मैं खुद ही खा
पी लेता हूं वह
सेवा है; क्योंकि
भीतर बैठा तो
भगवान ही है, उसी के लिए
भोग लगा रहा
हूं।
जब
जीवन के
साधारण से
कृत्य भी
असाधारण की
महिमा से
मंडित हो जाते
हैं;
जब
क्षुद्रतम
दिखाई पड़ने
वाली बात में
भी विराट की
झलक आ जाती है,
जब अणु में
ब्रह्मांड
झलकने लगता—
तब जीवन —मुक्ति।
और
तुमसे मैं यही
कह रहा हूं।
मेरी सारी
देशना यही है।
इसलिए मैं
तुमसे कहता
हूं. संन्यास
तो ले लो लेकिन
घर छोड़ कर भाग
मत जाना। तुम
संन्यास को
अपने घर में
लाओ। संन्यास
इतनी बड़ी महाक्रांति
है कि तुम उसे
अपने घर में
लाओ,
जहां हो
वहीं खींचो, वहीं पुकारो।
तुम्हारा घर मंदिर
बने।
तुम्हारा
जीवन का जो
सहज कम है, उसको
असहज मत करो।
उल्टा—सीधा
करने से कुछ
सार
नहीं
है। परमात्मा
सीधे—सीधे
उपलब्ध है।
परमात्मा
बहुत सरलता से
उपलब्ध है।
तुम जरा सरल
हो जाओ।
जटिलता
तुम्हारी है; परमात्मा
की नहीं है।
परमात्मा
बहुत पास है, पास से भी
पास है।
मुहम्मद कहते
हैं कि वह जो
गले की नस है, जिसे काटने
से आदमी मर
जाता है, वह
भी दूर है; परमात्मा
उस पास से भी
ज्यादा पास है।
हृदय की धड़कन
से भी ज्यादा
पास है। सच तो
यह है, यह
कहना कि
परमात्मा पास
है, ठीक
नहीं; क्योंकि
परमात्मा और
तुम में जरा
भी फासला नहीं
है। पास में
भी तो फासला
हो जाता है।
तुम मेरे पास
बैठे तो भी हो
तो अलग ही, कि
दूर बैठे कि
पास बैठे—क्या
फर्क पड़ता है!
थोड़ी दूरी कम
है, लेकिन
दूरी तो है ही।
लेकिन
परमात्मा
तुम्हीं हो।
इस
बात की
उदघोषणा है
संन्यास कि
परमात्मा तुम
हो। तुम जैसे
हो,
यही प्रभु—पूजा,
यही प्रभु—सेवा,
यही
परिक्रमा।
तुम्हारा
सामान्य
व्यवहार
प्रार्थना है,
ध्यान है।
बस इतना ही
करो कि तुम
प्रत्येक
कृत्य को होश से,
साक्षी— भाव
से करने लगो।
दूसरा
प्रश्न :
जब
कभी कोई आपसे
पूछता है कि
ध्यान में ऐसा—ऐसा
अनुभव हो रहा
है और आप कह
देते हैं ऐसा
होना शुभ है, तब
तो अहंकार और
बड़ा होने लगता
है। और सब समय
तो अहंकार ही
सिर उठाता
रहता है। यह
प्रश्न लिखते
समय भी अहंकार
ने बहुत सोच—विचार
किया, फिर
भी।......?
अहंकार
के संबंध में
एक बात समझो। अहंकार
छोटा हो तो
उससे मुक्त होना
असंभव है। बात
तुम्हें बड़ी
उल्टी लगेगी, पर
मैंने उल्टी
बातें कहने का
तय ही कर रखा
है। अहंकार
छोटा हो तो
छोड़ना बहुत
मुश्किल।
अहंकार जितना
बड़ा हो उतना
ही जल्दी छूट
सकता है। जैसे
पका फल गिर
जाता है, ऐसे
ही पका अहंकार
गिरता है; कच्चा
फल नहीं गिरता।
जैसे कोई
बच्चा
गुब्बारे में
हवा भरता जाये,
भरता जाये,
फुग्गा बड़ा
होता जाता, होता जाता, फिर फड़ाक से
फूट जाता। ऐसा
कभी—कभी मैं
तुम्हारे
अहंकार में
हवा भरता हूं।
तुम कहते हो, ध्यान, मैं
कहता हूं अरे
कहा ध्यान, तुम तो
समाधिस्थ हो
गये! तुम कहते
हो, कमर
में दर्द होता
है; मैं
कहता, दर्द
नहीं, यह
तो कुंडलिनी—जागरण
है! तुम कहते
हो, सिर
में बड़ी पीड़ा
बनी रहती है, मैंने कहा, कहां की बातों
में पड़े हो, यह तो तीसरा
नेत्र, शिव—नेत्र
खुल रहा है।
सावधान
रहना! यह
फुग्गे में
हवा भरी जा
रही है। फिर
फूटेगा। जब
फूटेगा तब तुम
समझोगे।
अहंकार
के संबंध में
एक बात बहुत आवश्यक
है समझ लेनी।
इधर मेरे पास
पश्चिम से
बहुत लोग आते
हैं,
पूरब के
बहुत लोग आते
हैं। एक बात
देख कर मैं
हैरान हुआ
हूं. पूर्वीय
व्यक्ति को
समर्पण करना
बहुत सरल है।
वह आ कर चरणों
में एकदम गिर
जाता है।
पश्चिमी
व्यक्ति को
समर्पण करना
बहुत कठिन है,
चरण छूना ही
संभव नहीं
मालूम होता, बड़ा कठिन!
लेकिन एक और
चमत्कार की
बात है कि जब पश्चिम
का आदमी झुकता
है तो निश्चित
झुकता है। और
पूरब का जब
झुकता है तो
पक्का भरोसा
नहीं। पूरब का
आदमी झुकता है
तो हो सकता है
महज उपचारवश
झुक रहा है; झुकना चाहिए,
इसलिए झुक
रहा है; झुकने
की आदत ही हो
गई है; बचपन
से ही झुकाये
जा रहे हैं।
मेरे
पिता मुझे
कहीं ले जाते
थे बचपन में, वे
फौरन बता देते
कि जल्दी छुओ
इनके पैर। तो
मैं उनसे कहता
कि आप कहते
हैं तो मैं छू
लेता हूं बाकी
इन सज्जन में
मुझे छुने
योग्य, पैर
छूने योग्य
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। वे
कहते, तुम
यह बात ही मत
करो। यह मामला
रिश्तेदारी
का है, औपचारिकता
का है; तुम
यह विवाद में
मत पड़ो। मैं
तो जहां
तुम्हें कहूं
तुम पैर छुओ।
'तुम जहां
कहो मैं छू
लूंगा। मुझे
कोई अड़चन नहीं
है। लेकिन एक
बात आप खयाल
रखना, मैं
छू नहीं रहा
हूं।’
औपचारिकता
है। पूर्वीय
आदमी को
अभ्यास कराया
गया है सदियों
से : झुक जाओ, विनम्र
रहो। अहंकार
को बढ़ने का
मौका नहीं
दिया गया। तो
झुक तो जाता
है, लेकिन
झुकने में कुछ
बल नहीं है।
बल तो अहंकार
से ही आता है
और अहंकार तो
बढ़ा ही नहीं
कभी। पहले से
ही पिटी—पिटाई
हालत है।
पश्चिम का
आदमी आता है, झुकने की
बात उसे कभी
सिखाई नहीं गई;
किसी के
चरणों में
झुकने की बात
ही बेहूदी मालूम
पड़ती है, संगत
नहीं मालूम
पड़ती। क्यों?
क्यों किसी
के चरणों में
झुकना? अपने
पैर पर खड़े
होने की बात
समझाई गई।
संकल्प को
बढ़ाओ। मनोबल
को बढ़ाओ।
आत्मबल को
बढ़ाओ। पश्चिम
के आदमी को
अहंकार को
मजबूत करने का
शिक्षण दिया
गया है। लेकिन
जब भी पश्चिम
का कोई आदमी
झुकता है तो तुम
भरोसा कर सकते
हो कि यह
झुकना
वास्तविक है।
नहीं तो वह
झुकेगा ही
नहीं, क्योंकि
औपचारिक तो
झुकने का कोई
कारण ही नहीं
है। पूरब के
आदमी का कुछ
पक्का नहीं है।
कभी—कभी पूरब
का आदमी जब
नहीं झुकता है,
तब सुंदर
मालूम पड़ता है,
क्योंकि कम
से कम इतनी
हिम्मत तो है
कि उपचार के, परंपरा के, झूठे
शिष्टाचार के
विपरीत खड़ा हो
सकता है; यह
कह सकता है कि
नहीं, मेरा
झुकने का मन
नहीं है।
मैं
तुमसे यह कहना
चाहता हूं कि
झुकने के लिए पहले
कुछ अहंकार तो
होना चाहिए जो
झुके। अगर
दुनिया की
शिक्षा ठीक
रास्ते पर चले
तो हम पहले
अहंकार को
बढ़ाने का
शिक्षण देंगे।
हम प्रत्येक
बच्चे को उसके
पैर पर खड़ा
होना सिखायेंगे।
और कहेंगे, संकल्प
ही एकमात्र
जीवन है। लड़ो!
जूझो! संघर्ष
करो! झुको मत!
टूट जाओ, मिट
जाओ, मगर
झुको मत!
हारना ठीक
नहीं, मिट
जाना ठीक है।
जूझो! जब तक
बने, जूझो!
और अपने
अहंकार को
जितनी धार दे
सकते हो, धार
दो।
यह
जीवन का
पूर्वार्ध, कम
से कम पैंतीस
साल की उम्र
तक तो अहंकार
को परिपक्व
करने का
शिक्षण मिलना
चाहिए। फिर
पैंतीस साल के
बाद जीवन का
दूसरा अध्याय
शुरू होता है —उत्तरार्ध।
फिर समर्पण की
शिक्षा शुरू
होनी चाहिए।
फिर आदमी को
सिखाया जाना
चाहिए कि अब
तुम्हारे पास
है चरणों में
रखने को कुछ, अब झुकने का
मजा है। पहले
तो फल को कहना
चाहिए कि 'तू
लटका
ही
रहना, छोडना
मत झाड़ को; जल्दी
मत छोड़ देना, नहीं तो कच्चा
रह जायेगा।
पक! जितना रस
ले सके ले।’ लेकिन फिर
जब फल पक जाये
तब भी अटका
रहे तो सडेगा।
जब फल पक जाये
तो छोड़ दे
झाडू को, अब
बात खतम हो गई।
जीवन
का यह
अनिवार्य
हिस्सा है कि
जीवन को हमें
विरोध से ले
चलना पड़ता है।
एक
सूफी फकीर
बायजीद अपने
गुरु के साथ
नदी पार कर
रहा था। वह
उससे पूछने
लगा,
अपने गुरु
से, कि आप
सदा कहते हैं :
संकल्प भी
चाहिए, समर्पण
भी चाहिए।
दोनों बातें
विपरीत हैं।
कोई एक कहें; आप उलझा
देते हैं।
गुरु
पतवार चला रहा
था नाव की।
उसने एक पतवार
उठा कर नाव
में रख ली और
एक ही पतवार
से नाव चलाने
लगा। नाव गोल—गोल
घूमने लगी।
बायजीद ने कहा, आप
यह क्या कर
रहे हैं? कहीं
एक पतवार से
नाव चली? यह
तो गोल—गोल ही
घूमती रहेगी।
यह कभी उस पार
जाएगी ही नहीं।
तो उसके गुरु
ने कहा : एक
पतवार का नाम
है संकल्प और
एक पतवार का
नाम है समर्पण।
दोनों से ही
उस तरफ जाने
की यात्रा हो
पाती है। दो
पंख से पक्षी
उड़ता है। दो
पैर से आदमी
चलता है। और
तुम तो चकित
होओगे यह जान
कर कि
मस्तिष्क की
जो खोजबीन हुई
है उससे पता
चला है कि
तुम्हारे पास
दो मस्तिष्क
हैं दोनों तरफ,
उसके कारण
ही सोच—विचार
संभव होता है;
चिंतन, मनन,
ध्यान संभव
होता है।
यह
सारा जगत दिन
और रात, जीवन
और मौत, अंधेरा—उजाला,
प्रेम और
घृणा, करुणा
और क्रोध—ऐसे
विराधो से बना
है। यह जगत
विरोधों का
संगम है।
स्त्री और
पुरुष। साथ भी
नहीं रह पाते,
अलग भी नहीं
रह पाते। अलग
रहें तो पास
आने की इच्छा
होती है; पास
आयें तो फांसी
लग जाती है, अलग होने की
इच्छा होती है।
और दोनों के
बीच जीवन की
धारा बहती है।
दो किनारे, उनके बीच
जीवन की सरिता
बहती है।
ठीक
वैसी ही
संकल्प और
समर्पण की बात
है। विनम्रता
तो तभी आयेगी
जीवन में जब
तुम्हारे पास
अपने पैरों पर
खड़े होने का
बल हो।
तो
मैं तुमसे
जल्दी करने को
नहीं कहता।
मैं नहीं कहता
कि जल्दी से
तुम जल्दबाजी
में और अहंकार
छोड़ दो। कच्चा
अहंकार छोड़
दिया तो भीतर
घाव छूट जायेगा।
और वह घाव कभी
भरेगा नहीं।
अहंकार को
मजबूत होने दो, घबड़ाते
क्या हो? पहले
'मैं' को
घोषणा करने दो
कि मैं हूं।
जब घोषणा पूरी
हो जाये और पक
जाये, तब एक
दिन मैं को
परमात्मा के
चरणों में चढ़ा
देना। पका फल
चढ़ाना, खिला
फूल चढ़ाना; कच्चा फल मत
चढ़ा देना, कच्चा
फूल मत चढ़ा
देना। पक जाये
जब अहंकार तो
चढ़ा देना। तब
तुम्हारे
पीछे कोई रेखा
भी नहीं
छूटेगी। तब एक
अदभुत घटना
तुम्हें
अनुभव होगी :
अहंकार हट
जायेगा और निर—
अहकारिता की
अकड़ न आयेगी।
नहीं तो
अहंकार हट
जाता है और
विनम्र होने
की अकड़ आ जाती
है कि मैं
विनम्र हूं कि
मैं दासों का
दास! मगर पकड़
वही है। अभी
भी घोषणा वही
चल रही है।
अभी भी तुम
यही कह रहे हो
कि 'मुझसे
ज्यादा
विनम्र और कौन
है! दिखा दो
कोई और जो हो
मुझसे ज्यादा
विनम्र!' दौड़
अभी भी वही है,
प्रतिस्पर्धाएं
अभी भी वही
हैं। दूसरों
से ऊपर होने
की पहले दौड़
थी; अब भी
वही दौड जारी
है। फर्क नहीं
पड़ा।
तुम्हारे मूल
गणित में जरा
भी फर्क नहीं
पडा।
तुमने
देखे विनम्र
आदमी, तथाकथित
विनम्र आदमी!
उनकी आंखों
में कैसा
अहंकार झांकता
है! वास्तविक
विनम्र आदमी
में न तो
विनम्रता
होती और न ही
अहंकार होता,
दोनों नहीं
होते। झूठे
विनम्र आदमी
में विनम्रता
का बड़ा आरोपण होता
है और भीतर
छिपा हुआ
अहंकार होता
है। तुम जरा
खरोंच दो और
तुम पाओगे
अहंकार निकल आया।
और
रही बात यह कि
मेरे कहने न
कहने से कुछ
भी न होगा।
आदमी इतना
होशियार है कि
हर चीज से
अपने अहंकार
को भरने के
उपाय खोज लेता
है। अगर मैं
तुम्हारे
प्रश्न का
उत्तर दूं तो
तुम सोचते हो
कि जरूर मेरा
प्रश्न बहुत
महत्वपूर्ण
था,
इसलिए
उत्तर दिया; आखिर मेरा
प्रश्न था!
अगर तुम्हारे
प्रश्न का उत्तर
न दूं तो तुम
सोचते हो, क्या
उत्तर देंगे
वे! प्रश्न
मेरा था! बड़े—बड़े
उत्तर देने
वाले देख लिए,
कोई उत्तर
नहीं दे सकता!
आदमी
ऐसा चालाक है, ऐसा
कुशल है!
मैंने
सुना कि
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
पूना के सब
पहलवानों को
हरा दिया। फिर
तो उसके दिल
में योजना
बनने लगी कि
वह भारत केसरी
हो जाये, लंगोटा
घुमा दे सारे
भारत में। और
तभी उसको पता
चला कि घोड़नदी
में एक गंवार
पहलवान है और
वह कहता है, अरे ऐसे देख
लिए! अपने
घोड़े पर सवार
होकर घोड़नदी
गया। नदी के
किनारे ही वह
गंवई पहलवान.....,
वह कोई
पहलवान नहीं
था, गंवार
था, मगर था
मजबूत आदमी, वह अपने खेत
में कुछ काम
कर रहा था।
नसरुद्दीन ने
घोड़ा उसके बगल
में खड़ा किया
और कहा : भई
सुनते हो, कि
मैंने सुना, तुमने ऐसा
कहा कि कौन है
पहलवान! मैं
हूं पहलवान।
मुझसे लड़ोगे?
उस
आदमी ने एक
नजर देखा, दोनों
पैर पकड़ कर
मुल्ला को
उठाया, घुमाया
और नदी के उस
तरफ फेंक दिया।
कपड़े झाड़ कर
मुल्ला खड़ा
हुआ और बोला
भई, अगर
नहीं लड़ना है
तो साफ क्यों
नहीं कहते! यह
कोई बात हुई? नहीं लड़ना
है, मत लड़ो।
और अब कृपा
करके मेरे
घोड़े को भी इस
तरफ फेंक दो, क्योंकि
मुझे शहर
वापिस लौटना
है।
मगर
आदमी ऐसा है।
तुम हर स्थिति
में जो चाहते
हो कर लोगे।
तुम अपने
अहंकार को
सजाते ही रहते
हो,
किस—किस
भांति सजाते
हो! कभी तुम
अपनी इन सब
कलाबाजियों
को देखोगे तो
बड़े चकित हो
जाओगे। और
अहंकार से
मुक्त होना है
तो इन सारी
कलाबाजियों
का ठीक—ठीक
दर्शन करना
होगा। इनका
साक्षी बनना
होगा।
मैं
तुम्हें
तुम्हारे अहंकार
से मुक्त नहीं
करवा सकता—कोई
तुम्हें नहीं
करवा सकता।
तुम चाहो तो
हो सकते हो।
तुम न चाहो तो
कोई उपाय नहीं
है। तुम चाहो
तो जरूर हो
सकते हो।
लेकिन चाह को
बड़ी गहरी क्रांति
से गुजरना
होगा।
पहला
नियम है
अहंकार से
मुक्त होने का
कि तुम पहले
मुक्त होने की
चेष्टा न करो; इस
चेष्टा के
बजाय अपने
अहंकार की
सारी सूक्ष्म
गतिविधियों
को पहचानो कि
कहां—कहां से
अहंकार मजबूत
होता है; कैसे
—कैसे मजबूत
होता है; कैसे
—कैसे तर्क
खोजता है; कैसी—कैसी
तरकीबें
निकालता है।
उन सारी
तरकीबों को
अगर तुम जाग
कर देखने लगो तो
धीरे— धीरे तुम
पाओगे : जैसे —जैसे
तुम जागने लगे
वैसे —वैसे
अहंकार क्षीण
होने लगा।
अहंकार
कुछ है नहीं।
तुम अपने को
धोखा दे रहे
हो। अब तुम ही
अपने को धोखा
देना चाहते
हो
तो बड़ी कठिनाई
है। कोई सोया
हो तो जगा दो; लेकिन
कोई पड़ा हो
जागा हुआ और
सोने का बहाना
कर रहा हो तो
कैसे जगाओगे!
तुम धक्का दो,
वह करवट
लेकर फिर पड़ा
रहेगा। सोये
आदमी को जगाया
जा सकता है, जागे हुए को,
जो सोने का
बहाना कर रहा
है, कैसे
जगाओगे! कोई
उपाय नहीं है।
अहंकार
कुछ है थोड़े
ही—सिर्फ
धारणा है।
वास्तविक
होता तो
आपरेशन हो
सकता था; काट
कर अलग कर
देते। लेकिन
वास्तविक है
नहीं। तुम भी
अपने भीतर जा
कर खोजोगे तो
कहीं न पाओगे।
बोधिधर्म चीन
गया तो चीन का
सम्राट उससे
मिलने आया और
उसने कहा. और
सब तो ठीक है, यह अहंकार
मुझे बहुत अशांत
किए रहता है।
बोधिधर्म ने
कहा : ऐसा करो, सुबह तीन
बजे आ जाओ और
अहंकार को साथ
लेकर आना। मैं
बिलकुल शांत
ही कर दूंगा।
वह
थोड़ा डरा। तीन
बजे रात! और यह
आदमी कह रहा
है अहंकार को
साथ ही ले आना।
और मैं बिलकुल
शांत ही कर
दूंगा, एकबारगी
में निपटारा
कर दूंगा! यह
आदमी पागल तो
नहीं है! यह
क्या कह रहा
है! लेकिन यह
आदमी था बड़ा
प्रभावशाली—बोधिधर्म।
इसकी प्रतिभा
बड़ी अदभुत थी।
इसके आसपास की
हवा में बात
थी। तो सम्राट
आकर्षित तो
हुआ। और ऐसा
किसी ने कभी
कहा भी नहीं
था कि बस आ जाओ,
खतम कर
देंगे एक बार
में, यह
क्या बार—बार
लगा रखना!
जब
वह लौटने लगा, सीढियां
उतर रहा था, तब बोधिधर्म
ने फिर डंडा
बजा कर कहा कि
सुनो, भूल
मत जाना, तीन
बजे आ जाना और
यह मत भूल
जाना कि
अहंकार साथ ले
आना, नहीं
तो कहीं घर
छोड़ आओ!
सम्राट सोचने
लगा, यह
क्या पागल है
आदमी! घर छोड़
आऊंगा! अहंकार
कोई चीज है जो
घर छोड़ आऊंगा!
रात भर सो न
सका। कई बार
सोचा कि न
जाये, क्योंकि
उस अंधेरी रात
में, तीन
बजे रात उस
मंदिर में, एकांत में, यह आदमी कुछ
भरोसे का नहीं,
डंडा मारने
लगे या कुछ
करने लगे!
इसकी बात —चीत
ऐसी है। लेकिन
आकर्षण अदम्य
था, रुक भी
न पाया; तीन
बजे उठ ही आया।
उसके वजीरों
ने भी कहा कि
यह उचित नहीं
है, क्योंकि
यह आदमी कुछ
अभी नया—नया
आया है..... कुछ देर
रुके। यह कुछ
भरोसे का नहीं
है। इसकी
बातें उल्टी
हैं। और भी
लोगों से इसने
कुछ इसी तरह
की अनर्गल बातें
कही हैं। आप
थोड़े ठहरें।
लेकिन
सम्राट ने कहा
कि नहीं, उसने
बुलाया और ऐसा
किसी ने कभी
कहा भी तो नहीं
था, आश्वासन
भी किसी ने
नहीं दिया था,
मैं जाऊंगा,
देखूं क्या
होता है।
सम्राट
गया। कपता—कंपता, डरता—डरता
सीढ़ियां चढ़ा।
बोधिधर्म
बैठा था वहा
डंडा लिए।
उसने कहा :
बैठे जाओ
सामने। ले आये
अहंकार?
सम्राट
ने कहा. आप
कैसी बातें
करते हैं!
अहंकार कोई
र्च।ज थोड़े ही
है,
मैं ले आऊं!
तो
बोधिधर्म
हंसा। उसने
कहा. तो पचास
प्रतिशत काम
तो हल ही हो
गया। चीज नहीं
है अहंकार, वस्तु
नहीं है, कुछ
है नहीं!
सम्राट
ने कहा : कोई
वस्तु थोड़े ही
है;
सिर्फ खयाल
है।
तो
उसने कहा. चलो
आधा तो मामला
हल ही हुआ। अब
खयाल ही रह
गये,
खयाल को ही
हटाना है, आंख
बंद कर लो और
खयाल को खोजो
कि कहां है!
भीतर जाओ, ठीक
से जांच—पड़ताल
करो कि अहंकार
कहा छिपा बैठा
है। और मैं
यहां डंडा लिए
बैठा हूं जैसे
तुम पकड़ लो
भीतर, सिर
हिला
देना, उसी
वक्त खात्मा
कर दूंगा।
अब
तो सम्राट
बहुत घबड़ाया। आंख
तो बंद कर ली
और इस डर में
और घबड़ाहट में
गया भी भीतर, सब
तरफ झांकने भी
लगा। अहंकार
का तो कहीं
पता भी न चला।
घंटे बीत गये
वह एक गहरे
ध्यान में लीन
हो गया। सूरज
उगने लगा सुबह
का और वह
तल्लीन हो गया।
इस अहंकार को
खोजने के लिए
इतनी आतुरता
से गया कि
विचार तो बंद
हो गये।
जब
तुम वस्तुत:
त्वरा और
तीव्रता से
भीतर जाओगे, विचार
बंद हो
जायेंगे। मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, क्या
करें, ध्यान
नहीं होता, विचार—विचार
चलते रहते
हैं! तुम कभी.
भीतर जाने की
त्वरा ही नहीं
तुम्हारे
भीतर। मुर्दे—मुर्दे
जाते हो कि
चलो देखें, शायद! इस 'शायद'
से काम नहीं
होता कि चलो
ये कहते हैं, जरा आंख बंद
करके देख लें
एक सेकेंड कि
क्या होता है!
और
बोधिधर्म
सामने बैठा था
डंडा लिए और
वह डंडा मार
सकता है।
सम्राट गया।
उसने सब तरफ
खोजा। कहीं
कोई अहंकार
नहीं। अहंकार
की तो बात दूर, अहंकार
की छया भी
नहीं।’मैं'
का भाव ही
कहीं भीतर
नहीं है। तुम
हो, 'मैं' नहीं है।
अस्तित्व है,
'मैं' नहीं
है।’मैं' का कोई काटा
ही नहीं गड़ा
है कहीं भीतर।.
शांत होने लगा।
फिर तो
बोधिधर्म ने,
जब सूरज
उगने लगा, उसे
हिलाया और कहा
कि बस आंख
खोलो, अब
मुझे उत्तर दे
दो।
सम्राट
पैरों पर गिर
पड़ा। उसने कहा
: आपने ठीक वचन
दिया था, आपने
निश्चित ही
मिटा दिया।
मैं कभी भीतर
गया ही नहीं।
मैं बाहर ही
तलाश करता रहा
कि अहंकार से
कैसे छुटकारा
हो। और अहंकार
तो केवल धारणा
मात्र है।
कोई
भी बच्चा
अहंकार लेकर
थोड़े ही पैदा
होता है, हम
सिखा देते हैं।
सीखी हुई बात
है। सिर्फ
सीखी हुई बात
को भूलना है।
कुछ है नहीं।
तुम
कभी शांत बैठ
कर खोजो. क्या
है अहंकार? तुम
कुछ नहीं
पाओगे। जो बू
सम्राट बू ने
नहीं पाया, तुम भी नहीं
पाओगे।
अहंकार सिर्फ
एक खयाल है? एक सपना है
कि मैं कुछ
हूं। इसीलिए
तो हर कोई तोड़
देता है
तुम्हारे
अहंकार को।
रास्ते पर चले
जा रहे हैं, किसी ने
धक्का दे दिया......।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मुझसे बोला कि
जिंदगी बड़ी
अजीब है। पहले
मैं अपनी
प्रेयसी को
लेकर चौपाटी
जाता था तो
उधर बैठता था; एक
आदमी आया, होगा
कम से कम डेढ़
सौ किलो वजन
का आदमी। उसने
ऐसा लात मार
कर. और रेत
मेरी आंख में
फेंक दी। अब
प्रेयसी के
सामने बड़ी
बदनामी हो गई।
अब मैं दुबला—पतला
आदमी। मैंने
सोचा, यह
हड्डी—पसली
तोड़ देगा। तो
मैंने दो साल
तो प्रेम
इत्यादि एक
तरफ रख दिया, बस दंड—बैठक,
दंड—बैठक।
जब तक डेढ़ सौ
किलो वजन नहीं
हो गया, तब
तक फिर मैं
चौपाटी नहीं
गया। फिर अपनी
प्रेयसी को
लेकर चौपाटी
पहुंचा; एक
आदमी आ गया, वह कोई होगा
दो सौ किलो
वजन का। उसने
फिर पैर मारा
और रेत मेरी आंखों
में उछाल दी।
फिर मेरी
प्रेयसी के
सामने भद्द हो
गई।
पर
मुझसे वह कहने
लगा. अब मैं
करूं क्या? अगर
ऐसे ही चलता
रहा तो मैं
जिंदगी भर दंड—बैठकें
मार—मार कर मर
जाऊंगा। और
कोई न कोई
हमेशा मौजूद
है। कोई न कोई आंख
में रेत फेंक
ही सकता है।
तुमने
देखा, तुम
जिंदगी भर
करते क्या हो।
तुमने
बामेहनत, मुश्किल
कर—करा कर
किसी तरह फिएट
खरीदी, तुम्हारा
पड़ोसी
एंबेसेडर
खरीद लाया।
फिर किसी ने आंख
में धूल फेंक
दी! तुम किसी
तरह दंड—बैठक
लगा—लगा कर
एंबेसेडर
खरीद लाये, फिर पड़ोसी
ने इंपाला खरीद
ली। तुमने
किसी तरह मकान
बनाया, किसी
ने और बड़ा
मकान बना लिया।
जिंदगी ऐसे ही
दुख में बीत
जाती है।
अहंकार कभी
तृप्त नहीं हो
सकता, क्योंकि
अहंकार तो
तुम्हारा
खयाल मात्र है
और कोई भी उसे
तोड़ देता है।
कोई भी जरा
अकड़ कर खड़ा हो
गया कि
तुम्हारा अहंकार
दो कौड़ी का हो
जाता है।
तुम्हारा
अहंकार
तुम्हारा
खयाल है—दूसरों
की तुलना में।
तुम सोचते हो,
मैं बड़ा हूं?
विशिष्ट
हूं! यही सब
सोच रहे हैं।
यह बीमारी सभी
की एक जैसी है।
यहां
करोड़ों—करोड़ों
लोग हैं और
सभी एक ही
बीमारी से परेशान
हैं कि मैं
बड़ा। और सब यह
सिद्ध करने की
कोशिश कर रहे
हैं कि मैं
बड़ा,
मैं तुमसे
बड़ा!
कोई
यहां बड़ा नहीं
है,
कोई यहां
छोटा नहीं है।
सब बस अपने
जैसे हैं।
यहां
प्रत्येक
व्यक्ति
अद्वितीय है।
अहंकार की दौड़
भ्रांत है।
तुम जैसा न
कोई कभी हुआ
है, न कोई
कभी फिर होगा।
तुम जैसे बस
तुम हो। तुलना
का कोई उपाय
नहीं है।
तुलना की कोई
जरूरत नहीं है।
तुलना में
अहंकार है।
तुम
थोड़ा सोचो, सारी
दुनिया मर
जाये, सब
लोग मर जायें,
अकेले तुम
बचे, बैठे
अपने वृक्ष के
तले—उस वक्त
अहंकार होगा?
क्या मतलब
होगा अहंकार
का? कोई और
है ही नहीं।
कोई और लकीर
ही नहीं है, जिसके सामने
तुम अपनी लकीर
बड़ी करो। तुम
अकेले हो तो
फिर कैसा
अहंकार! और
मैं तुमसे
कहता हूं : यही
घटना घटी
सम्राट बू को;
जब वह भीतर
गया और विचार
शून्य हो गये
तो बिलकुल
अकेला रह गया,
दुनिया मिट
गई।
गहरी
नींद में
देखते हो, रोज
क्या होता है!
फिर भी
तुम्हें समझ
नहीं आती।
गहरी नींद में
अहंकार रह
जाता है? सम्राट
की गहरी नींद
में और भिखारी
की गहरी नींद
में तुम समझते
हो कुछ फर्क
रह जाता है ? सम्राट भी —गहरी
नींद में
सम्राट नहीं
रह जाता, भिखारी
भिखारी नहीं
रह जाता। गहरी
नींद में याद
ही नहीं रह
जाती कि तुम
हिंदू कि
मुसलमान कि
ईसाई, कि
महात्मा कि
गृहस्थ, कुछ
याद नहीं रह
जाता। किसके
पति, किसकी
पत्नी, किसके
बेटे, किसके
बाप—कुछ याद
नहीं रह जाता।
कितने
सर्टिफिकेट, कितनी
उपाधियां—कुछ
याद नहीं रह
जाता। गहरी
नींद में
तुम्हारा
अहंकार कहां
होता है? गहरी
नींद में
विचार नहीं
होता तो
अहंकार नहीं
होता। इसका
अर्थ हुआ कि
विचारों का
संग्रह ही
अहंकार है, भाव मात्र
है।
ऐसी
ही एक और दशा
है गहरी नींद
जैसी, सुषुप्ति
जैसी एक और
दशा है, जिसको
हम समाधि कहते
हैं। फर्क
थोड़ा ही है।
सुषुप्ति में
भी विचार खो
जाते, अहंकार
खो जाता, परम
शांति रह जाती,
लेकिन
बेहोशी होती
है। समाधि में
भी विचार खो
जाते, अहंकार
खो जाता, लेकिन
मूर्च्छा
नहीं होती, होश होता है।
बरन इतना ही
फर्क है।
इसलिए पतंजलि
ने तो
योगसूत्र में
कहा है. समाधि
सुषुप्ति
जैसी है— थोड़े—से
फर्क के साथ।
और वह थोड़ा—सा
फर्क है होश
का।
ऐसा
ही समझो कि
तुम्हारे
कमरे में दीया
नहीं जला है, सब
फर्नीचर
निकाल लिया
गया, दीवालों
से तस्वीरें
निकाल ली गईं,
कुछ सामान
कमरे में नहीं,
कमरा
बिलकुल खाली
है, लेकिन
अंधेरा है, दीया नहीं
जला—यह
सुषुप्ति।
फिर तुमने
दीया जला लिया,
कमरा अब भी
खाली है, लेकिन
अब
दीया
जल रहा है—यह
समाधि। इन
दोनों के बीच
में कमरा भरा
है,
बहुत
फर्नीचर—उसी
फर्नीचर के
इकट्ठे
उपद्रव का नाम
अहंकार, विचार—विचार,
भाव, मैं
यह, मैं वह,
मैं ऐसा!
कहीं भीतर तुम
पूरे वक्त इसी
चेष्टा में
लगे हो कि
सिद्ध कर दो
कि तुम कौन हो।
पता है ही
नहीं कि तुम
कौन हो और
सिद्ध करने में
लगे हो!
देखते
हो,
कोई आदमी का
पैर पैर पर पड़
जाता है तो
तुम कहते हो : 'जानते नहीं
हो मैं कौन
हूं!' तुम्हें
खुद पता है?
ऐसा
हुआ एक बार
मैं एक स्टेशन
पर ट्रेन में
सवार हो रहा
था। भीड़— भाड़
थी डब्बे के
बाहर। लोग बड़ा
धक्कम— धुक्की
कर रहे थे। एक
आदमी के पैर
पर मेरा पैर
पड़ गया। वह
बोला कि ' आप
देखते नहीं, अंधे हैं? देखते नहीं
मैं कौन हूं?' मैंने कहा :
मैं एक ज्ञानी
की तलाश में
ही था, आप
मुझे बतायें
कौन हैं? छोड़े
यह ट्रेन, जाने
दें।
मैंने
कहा : यह
बिस्तर रहा
नीचे, आप
बैठें। आप
कृपा करके
विराजे। अब और
तो यहां कुछ
है नहीं, सूटकेस
पर ही बैठ
जायें और मैं
यहां स्टेशन
पर प्लेटफार्म
पर बैठ कर
आपसे निवेदन
करता हूं आप
मुझे समझा दें
कि कौन हैं।
वे
कहने लगे कि
आप पागल हैं।
'तुम्हीं कहे
कि आपको पता
है कि मैं कौन
हूं तो मैं
समझा कि कम से
कम आपको तो
पता होगा ही।’
तुम्हें
पता नहीं तुम
कौन हो। सारी
दुनिया को पता
करवाना चाह
रहे हो कि पता चल
जाये कि मैं
कौन हूं! पहले
खुद तो पता
लगा लो। जिसने
खुद पता लगाया
वह तो हंसने
लगता है। वह
तो कहता है.
मैं हूं ही
नहीं। अब यह
बड़े मजे की
बात है। यह
खूब मजाक रही.
जिसको पता चल
जाता है कि
मैं कौन हूं
वह तो कहता मैं
हूं ही नहीं; और
जिसको पता
नहीं, वह
लाख उपाय कर
रहा है सिद्ध
करने के कि
मैं कौन हूं
मैं यह हूं
मैं वह हूं!
हजार
उपाधियां इकट्ठी
कर रहा है, लेबिल
चिपका रहा है,
रंग—रोगन कर
रहा है—मैं यह
हूं! अशानी
सिद्ध करने की
कोशिश में लगा
है कि मैं हूं
और ज्ञानी
जानता है कि
मैं हूं ही
नहीं, केवल
परमात्मा है।
कोई
हर्जा नहीं।
अगर अभी
अज्ञान है तो
अज्ञान है।
तुम जरा भीतर
जाओ। जरा खोजो।
इस अंधेरे में
कहीं
परमात्मा
बैठा है, तुम
जरा दीया जलाओ।
हम
ऐसे
मूर्च्छित
हैं कि हमें
पता नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक दिन अपने
फेमिली—डाक्टर
को फोन करके
बुलाया।
डाक्टर साहब
आये। गप्पें
होती रहीं।
ताश खेला गया।
जब शाम होने
लगी तो डाक्टर
उठे,
बोले अब
चलता हूं घर
में सब ठीक—ठाक
तो है न? मुल्ला
ने सिर पीट
लिया। बोला.
अरे दोपहर से
पत्नी बेहोश
पड़ी है, इसलिए
तो आपको
बुलाया था।
लेकिन होश
मुल्ला को भी
कहां! पत्नी
बेहोश पड़ी, यह तो ठीक है;
ये बेहोश
बैठे हैं।
डाक्टर आया तो
गपशप होने
लगीं, तो
ताश खेलने लगे,
तो शराब
ढाली गई होगी।
पुराने दोस्त,
पुराने यार
मिल बैठे, तो
गपशप हुई। भूल
ही गये। अब
याद आई कि
पत्नी बेहोश
पड़ी है।
पत्नी
बेहोश पड़ी है, क्या
मुल्ला होश में
है? होश
में यहां बहुत
कम लोग दिखाई
पड़ते हैं। करीब—करीब
लोग बेहोश हैं।
कभी—कभी क्षण
भर को तुम्हें
होश आता है।
उसी क्षण भर
में तुम्हें
याद आती है
परमात्मा की।
फिर होश खो
जाता है।
गुरजिएफ
कहता था कि
मैंने सैकड़ों
लोगों के जीवन
का अध्ययन
किया तो पाया
कि अगर एक
आदमी के सत्तर
साल के जीवन
में सात क्षण
के लिए भी होश
आ जाता हो तो
बहुत है। सात
क्षण के लिए—सत्तर
साल के जीवन
में!
एक
क्षण के लिए
भी होश आ जाये
तो तुम अचानक
पाओगे : अरे, तुम
जिसे अब तक
जीवन समझ रहे
थे, वह
सपना; और
जो जीवन था
वास्तविक, उस
तरफ तुमने
देखा ही नहीं!
कंकड़—पत्थर
बीनते रहे, हीरे—जवाहरात
ऐसे ही पड़े
रहे। कूड़ा—कर्कट
इकट्ठा करते
रहे, खजाना
जो मिला था, वह ऐसा ही
पड़ा रहा।
गंवाते रहे
जीवन को; कमाया
कुछ भी नहीं।
कमाना तो दूर,
जो अपना था
उसको भी नहीं
भोगा। जो मिला
ही था, उसका
भी रस न लिया, स्वाद न
लिया।
बुद्ध
के पास एक दिन
एक आदमी आया
और उसने कहा कि
मुझे बड़ी दया
आती है लोगों
पर,
मैं कुछ
सेवा करना
चाहता हूं आप
मुझे निर्देश दें।
कहते हैं, बुद्ध
उसकी तरफ गौर
से देखते रहे
और उनकी आंख
में एक आंसू
टपक आया। वह
आदमी तो घबड़ा
गया और उसने
कहा कि आपकी आंख
में आंसू बात
क्या है! आप
मुझमें क्या
देख रहे हैं? आप ऐसी क्या
तलाश कर रहे
हैं मुझमें?
वह
थोड़ा बेचैन भी
हो गया। बुद्ध
ने कहा कि
मुझे तुम पर
दया आती है।
तुम दूसरों पर
दया करने चले
हो। तुमने अभी
अपने पर भी
दया नहीं की।
तुम पहले अपने
पर तो दया करो!
वह
आदमी कहने लगा
: क्या मतलब
आपका? मेरे
पास सब है—धन—संपत्ति,
सुविधा, घर—द्वार,
मकान। मैं
सेवा कर सकता
हूं मैं दान
भी दे सकता
हूं। आप जरा
आज्ञा दें।
बुद्ध
ने कहा : उसकी
मैं बात ही
नहीं कर रहा; वह
सब पड़ा रह
जायेगा।
तुम्हें अपनी
भीतरी
संपत्ति का
कुछ पता है.? मुझे उस पर
दया आ रही है
कि यह आदमी
इतनी भीतर
संपत्ति लिए
बैठा है और
ऐसे ही मर
जाएगा!
मैं
भी तुमसे कहता
हूं : मुझे तुम
पर दया आ रही है।
इसलिए नहीं कि
तुम्हारे पास
कुछ भी नहीं
है;
इसलिए कि
तुम्हारे पास
सब कुछ है और
तुम पीठ किए
बैठे हो। जो
तुम्हारा है
उस पर भी
तुमने दावा
नहीं किया।
जिसके तुम
मालिक हो, उसको
भी नहीं देख
रहे। जो बस
मांगने से
तुम्हारा हो
सकता है, जरा
आंख खोलने से
तुम्हारा हो
सकता है; जो
साम्राज्य
तुम्हारा है;
जो प्रभु का
साम्राज्य
तुम लेकर ही
पैदा हुए थे—वह
ऐसा ही पड़ा सड़
रहा है और तुम
क्षुद्र के
पीछे भागे जा
रहे हो। विराट
को छोड़ कर
क्षुद्र के
पीछे भाग रहे
हो। सार्थक को
छोड़ कर व्यर्थ
के पीछे भाग
रहे हो। आत्मा
को खो कर तुम
हो क्या गये
हो? सिर्फ
छाया मात्र!
जर्मनी
में एक लोक
कथा है कि एक
आदमी पर एक
भूत नाराज हो
गया,
एक प्रेत
नाराज हो गया
और उस प्रेत
ने अभिशाप दे
दिया उस आदमी
को कि आज से
तेरी छाया खो
जायेगी। वह
आदमी तो हंसने
लगा। उसने कहा
कि यह भी कोई
अभिशाप हुआ, इससे मेरा
क्या बनेगा—बिगड़ेगा?
उसने कहा :
तू देखना। उस
आदमी ने बहुत
सोचा : इससे
मेरा क्या
बनेगा—बिगड़ेगा?
छाया से कुछ
ले—दे भी नहीं
रहा था। काम
भी क्या था
छाया का! लेकिन
आया शहर में
तो पता चला
झंझट हो गई।
गांव में खबर
फैल गई। लोग
देखने लगे, इसकी छाया
नहीं बनती!
उन्होंने कहा
: यह तो खतरा है।
ऐसा कभी सुना?
कथायें हैं
कि भूत—प्रेत
की छाया नहीं
बनती, यह
आदमी भूत—प्रेत
हो गया है।
उसके पहले कि
वह घर पहुंचता,
घर खबर
पहुंच गई।
पत्नी तो ताला
लगा कर भाग गई
पड़ोस में, मित्र
कन्नी काटने
लगे। जहां
जाये..... दूकान
पर पहुंचे तो
लोग दूकान बंद
कर लें कि बाबा,
क्षमा करो।
कोई भोजन देने
को तैयार नहीं।
अपने घर में
शरण न मिले।
उसने कहा : यह
तो बड़ी
मुश्किल हो गई।
तो मैं तो
सोचता था, छाया
खोने से क्या
बिगड़ेगा? छाया
खोने से इतना
बिगड़ गया!
और
मैं तुमसे
कहता हूं : तुम
सिर्फ छाया ही
बचे हो, आत्मा
खो दी है। तो
तुम्हारी
दुर्गति कैसी
होती होगी!
छाया खोने से
इतनी मुसीबत
हो गई; तुमने
आत्मा खो दी
है और छाया ही
बचा ली है।
लेकिन मुसीबत
ज्यादा नहीं
होती मालूम
पड़ती, क्योंकि
जिनके बीच तुम
रहते हो उन
सबने भी अपनी
आत्मा खो दी
है। सच तो यह
है, अगर
तुम आत्मा पा
लो तो अड़चन
शुरू होगी।
क्योंकि वे, जिनके पास
आत्मा नहीं है,
वे तत्क्षण
तुम्हारे
दुश्मन हो
जायेंगे।
अन्यथा लोग
क्यों महावीर
को पत्थर
मारें, क्यों
बुद्ध का तिरस्कार
करें, क्यों
मैसूर को सूली
लगायें, क्यों
सुकरात को जहर
पिलायें, क्यों
जीसस की हत्या
करें! ये
जिनकी
आत्मायें खो
गई हैं इनकी
भीड़ है। जब भी
कोई आत्मवान
आदमी इनके बीच
खड़ा होता है, इनको बड़ी
बेचैनी होती
है।
कैसी
मूढ़ता है!
आत्मवान आदमी
से सीखनी थी
कला कि हम भी
कैसे आत्मवान
हो जायें।
लेकिन
आत्मवान आदमी
को देख कर
इन्हें
बेचैनी होती
है। इनको
घबड़ाहट होती
है। ये कहते
हैं कि यह
आदमी खडा है
मौजूद, इससे
सिद्ध होता है
कि हम जो होना
चाहिए थे वह नहीं
हो पाये हैं।
हम हार गये।
इससे चिंता
पैदा होती है
कि अरे, हमारा
जीवन व्यर्थ
है! हटाओ इस
आदमी को, इसकी
मौजूदगी
उपद्रव करती
है।
तुमने
सुनी एक
स्त्री की बात? सुना
हैं, एक
स्त्री बड़ी
कुरूप थी। वह
कभी दर्पण में
नहीं देखती थी।
क्योंकि वह
कहती थी कि सब
दर्पण साजिश
कर रहे हैं।
दर्पण कोई
उसके सामने ले
आता तो दर्पण
तोड़ देती थी, क्योंकि
उसका खयाल था
कि दर्पण उसको
कुरूप बना रहे
हैं। अब, दर्पण
किसी को कुरूप
नहीं बनाता।
दर्पण तो तुम
जैसे हो वैसे
बतला देता है
तुम्हें, तुम्हारी
छवि प्रगट कर
देता है।
बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, क्राइस्ट
दर्पण हैं।
तुम्हारी
कुरूपता
दिखाई पड़ती है,
तुम नाराज
हो जाते हो।
तुम दर्पण
तोड्ने को
तैयार हो जाते
हो। तुम अपना
चेहरा बदलने
को राजी नहीं
होते। तुम बड़े
दया योग्य हो।
मैं
तुमसे कहना
चाहूंगा :
जागो! धीरे—
धीरे
मूर्च्छा
छोड़ो। अभी तुम
उठते भी हो
नींद—नींद में, चलते
भी हो नींद—नींद
में, बात
भी कर लेते हो,
उत्तर भी दे
देते हो।
लेकिन तुमने
कभी खयाल किया
कि तुम होश से
कर रहे हो यह? कोई तुम्हें
गाली देता है
तो तुम फिर
होशपूर्वक
क्रोध करते हो
या क्रोध हो
जाता है? जैसे
किसी ने बटन
दबा दी, बिजली
की बटन दबा दी,
पंखा चल पड़ा।
पंखा
यांत्रिक है।
किसी ने
तुम्हारी बटन
दबा दी और तुम
क्रोधित हो
गये। यह भी
यांत्रिक है।
यह भी यंत्रवत
है। इसमें
तुम्हें होश
कहां, तुम्हारा
होश कहां, तुम्हारी
जागृति कहां?
जब
कोई गाली दे, तब
शांत खड़े हो
जाना। एक क्षण
सोचना, ध्यान
करना। हो सकता
है गाली ठीक
ही हो। तो
धन्यवाद दे
देना आदमी को।
या हो सकता है
गाली बिलकुल
गलत हो, तब
हंस कर अपने
रास्ते पर चले
जाना, क्योंकि
गलत से क्या
झगड़ना! या तो
ठीक होगी गाली
या गलत होगी
गाली।
ठीक हो तो इस
आदमी ने बड़ी
कृपा की, कष्ट
उठाया और
तुम्हारा
सत्य तुम्हें
बताने आया।
गलत हो तो यह
आदमी बेचारा
नाहक झंझट में
पड़ा, नाहक
जनता की सेवा
कर रहा है! कोई
इसकी सेवा
चाहता भी नहीं,
मगर यह
मेहनत कर रहा
है। तो
धन्यवाद दे कर
अपने रास्ते
पर बढ़ जाना, कि भाई तुम
अपनी जनसेवा
जारी रखो, मगर
तुम जो कहते
हो वह मुझ पर
लागू नहीं
होता, हो
सकता है किसी
और पर लागू
होता हो, या
हो सकता है
तुम्हें लगता
हो कि मुझ पर
लागू होता हो,
फिर भी
तुमने कृपा की,
इतना श्रम
उठाया, उसके
लिए धन्यवाद
है। तब तुम
अचानक पाओगे
तुम्हारे
जीवन में होश
की एक किरण आई।
और उस होश की
किरण के साथ
ही अहंकार
विदा होने लगता
है।
तीसरा
प्रश्न :
एक
बार आपके
चित्र के
सामने बैठे —बैठे
मन में कई तरह के
द्वंद्व—जाल
पैदा हुए। एक
भाव आया कि यह
तो खतम नहीं
होगा, खोपड़ी
चलती ही रहेगी,
इसलिए आप ही
सम्हाले। तकण
एक हलकापन
महसूस हुआ और
मैं मस्ती में
डूब गया। और
तब आपका वह
गंभीर
मुद्रावाला
चित्र
खिलखिला कर
हंस पड़ा। आज
तक उसका स्मरण
बना है। भगवान,
आपको
प्रणाम!
ऐसा ही
सरल है। इतनी
ही सरल है बात।
खोपडी चलाते
रहो तो चलती रहेगी।
खोपड़ी—तुम्हारी
है। तुम इसको
सहयोग देते हो
तो चलती है; पैडल
मारते रहते हो
तो चलती है।
तुम एक बार भी
तय कर लो कि
ठीक, हो
गया बहुत; छोड़
दो गुरु पर, छोड़ दो
प्रभु पर, छोड़
दो किसी पर—कि
अब ठीक है, चलाना
हो तो चला, न
चलाना हो तो न
चला, लेकिन
मैं अब इसमें
उत्सुक नहीं
हूं; न
इसके पक्ष में
हूं न इसके
विपक्ष में
हूं। यही बात
महत्वपूर्ण
है। जब तक तुम
विपक्ष में हो,
तब तक
तुम्हारी
खोपड़ी चलती ही
रहेगी।
क्योंकि
विपक्ष का भी
मतलब यह होता
है कि तुम अभी
रस ले रहे हो।
सच
तो यह है, विपक्ष
से खोपड़ी और
भी चलती है।
अगर तुम्हारे
मन में कोई
विचार आता और
तुम चाहते हो
यह न आये तो और
भी आयेगा।
तुम्हारे न
लाने की
चेष्टा बार—बार
स्मरण बन
जायेगी। तुम
चाहते हो न
आये, हट
जाये—इसी से
घाव पैदा हो
जायेगा। और—
और आयेगा, बार—बार
आयेगा। तुम
जिस विचार से
मुक्त होना
चाहोगे वही
विचार
तुम्हारा
पीछा करेगा।
इसके पीछे गणित
है। मनस्विद
कहते हैं.
विपरीत का
नियम।
तुम
कोशिश करके
देखो। जिस चीज
को तुम भुलाना
चाहोगे, उसकी
याद और आयेगी।
क्योंकि
भुलाने में भी
तो याद आती है।
भुलाने में भी
तो याद हो रही
है। तुम चाहते
हो पत्नी भूल
जाये, मायके
गई है, वह
नहीं भूलती है।
और याद आती है।
तुम चाहते हो
बेटा चल बसा, शरीर छोड़
गया, भूल
जाये। तुम
जितना भूलने
की कोशिश करते
हो उतनी ही
याद आती है।
भूलने
का मतलब क्या
है?
यह भी याद
करने का एक
ढंग है। तो
याद मजबूत
होती है।
चाहते हो कुछ,
होता कुछ
.है। विपरीत
का परिणाम
होता रहता है।
विपरीत
परिणाम होता
रहता है।
नहीं, अगर
खोपड़ी को सच
में ही चाहते
हो कि बंद हो
जाये तो यह
चाहत भी छोड़
दो कि खोपड़ी
बंद हो जाये।
कहना. चलना हो
चल, न चलना
हो न चल; हमारी
तरफ से अब कोई
फर्क नहीं
पड़ता। यही
अर्थ है
समर्पण का।
इसलिए यह घटना
घट गई होगी।
'खयाल आया कि
यह तो खोपड़ी
चलती ही रहेगी,
इसलिए आप ही
सम्हाले!'
बस
इस खयाल में
घटना घट गई
होगी।’आप ही
सम्हाले' यह
महासूत्र बन
सकता है।
तुमसे जो न
सम्हले, मुझ
पर छोड़ कर
देखो। नहीं कि
मैं सम्हाल
लूंगा। इसकी
फिक्र मत करो।
तुम्हारे
छोड़ने से
सम्हल जाता है;
मेरे
सम्हालने का
कहां सवाल है!
मुझे तो पता भी
नहीं यह कब
हुआ! मैं किस—किस
खोपड़ी का
हिसाब रखूं!
इतनी खोपडिया
हैं!
तो
मैंने कुछ
किया, ऐसा तो
मत सोचना। वह
तो गलती हो
जायेगी। तुम
ने ही कुछ
किया। तुमने
छोड़ा। तुमने
समर्पण किया।
तुमने कहा, आप सम्हाले!
यह तुम्हारा
भाव ही गजब कर
गया।
लोग
मुझसे पूछते
हैं : हम अगर
आपको समर्पण
करें तो कुछ
होगा? मैं
उनसे कहता हूं
कि मेरे करने
का कोई सवाल ही
नहीं है।
तुम्हारा
समर्पण है, तुम्हारे
करने से कुछ
होता है।
समर्पण करने
से होता है।
इसलिए कभी
पत्थर की
मूर्ति के
सामने भी बैठ
कर अगर तुम
समर्पण कर
दोगे तो वहां
भी हो जायेगा।
यह मत सोच
लेना कि पत्थर
की मूर्ति कुछ
करती है।
पत्थर तो
पत्थर ही है।
पत्थर क्या
करेगा? लेकिन
तुमने अगर
समर्पण कर
दिया तो पत्थर
की मूर्ति तो
बहाना हो गई, निमित्त हो
गई; इस
बहाने तुमने
अपनी खोपड़ी
उतार कर रख दी।
तुमने कहा अब
ठीक, तू
सम्हाल।
तुम
किसी भी बहाने
अगर अपने को
खाली कर सकते
हो,
कर तुम्हीं
रहे हो। बहाना
चाहिए। बिना
बहाना
मुश्किल होता
है, कठिनाई
होती है।
इसलिए ये सब
बहाने हैं।
गुरु एक बहाना
है। और पतंजलि
ने तो
योगसूत्र में
कहा कि
परमात्मा भी
एक बहाना .है।
तुम बहुत
घबडाओगे। मगर
बात तो सही है।
परमात्मा भी
एक विधि है।
परमात्मा के
बहाने
तुम्हें
छोड़ना आसान हो
जाता है। तुम
कहते हो : अब
प्रभु तुम
सम्हालो। ऐसा
नहीं कि कोई
वहां झपट कर
सम्हाल लेता
है। कोई वहा
नहीं है। कोई
वहां नहीं है।
कोई सम्हालने
वाला नहीं है।
लेकिन जिस
क्षण तुम छोड़
पाते हो, उसी
क्षण क्रांति
घट जाती है।
तुम्हारे
छोड़ते ही बोझ
हलका हो जाता
है।
'जैसे ही कहा
आप ही सम्हाले,
तत्क्षण
एक हलकापन
महसूस हुआ और
मैं मस्ती में
डूब गया।’ वही
ऊर्जा जो
खोपड़ी में चल
रही थी, मुक्त
हो गई, मस्ती
बन गई। न तो
मैंने
तुम्हें
सम्हाला, न
मैंने
तुम्हें
मस्ती दी।
मस्ती उसी
ऊर्जा से बन
गई। वे ही अगर
जो विचारों और
शब्दों में
खोये जा रहे
थे, मुक्त
हो गये विचार—शब्दों
से। क्षण भर
में मदिरा
तैयार हो गई, तुम मस्त हो
गये, लवलीन
हो गये।
तुम्हारी मस्ती
तुम्हारे
भीतर।
तुम्हारी
मधुशाला
तुम्हारे
भीतर।
गुरु
तो तुम्हें
तुम्हारे ही
भीतर पहुंचा
देता है। गुरु
तो
गुरुद्वारा
है। वह तो
दरवाजा है। वह
तो तुम्हें
तुम्हारे ही
भीतर पहुंचा
देता है।
तुम
अगर सचाई की
बात पूछो तो
मैं तुम्हें
वही दे सकता
हूं जो तुम
अपने को देने
को राजी हो।
उससे ज्यादा
नहीं।
तो
यहां कोई आता
है,
परम आनंद से
भर जाता है और
कोई आ. कर वैसे
का वैसा ही
लौट जाता है।
जो वैसा का
वैसा ही लौट
जाता है, वह
कहता है कि
हमें तो कुछ
भी न हुआ। जो
परम आनंद से
भर कर लौटा, वह कहता है
कि बड़ी गुरु—कृपा
हुई! जो आनंद
से भर कर नहीं
लौटा, वह
समर्पण न कर
पाया। जो आनंद
से भर कर लौटा,
वह समर्पण
कर पाया।
समर्पण करने
से घटना घटी।
मैं
कुछ भी नहीं
कर रहा हूं।
इसलिए तो मैं
तुमसे कहता
हूं कि मेरे
जाने के बाद
भी तुम अगर
समर्पण करोगे
तो काम जारी
रहेगा, क्योंकि
अभी भी मैं
कुछ नहीं कर
रहा हूं। तो
जाने से भी
कोई फर्क नहीं
पड़ेगा।
इसीलिए तो
क्राइस्ट को
गये दो हजार
साल हो गये, कोई फर्क
नहीं पड़ता. अब
भी जो
क्राइस्ट को
प्रेम करता है,
घटना घट
जाती है।
बुद्ध को गये
ढाई हजार साल
हो गये, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जो
बुद्ध की
मूर्ति के
सामने आज भी भावपूर्ण
हो कर डूब
जाता है, घटना
घट जाती है।
वह सोचता है
कि अदभुत, ढाई
हजार साल हो
गये, फिर
भी प्रभु तुम
अभी तक कृपा
किए जा रहे हो!
प्रभु तब भी
कृपा नहीं
करते थे। तब
भी बहाना थे।
तब भी मूर्ति
ही थे।
इसे
तुम समझो तो
तुम्हारे पास
अपनी मालकियत
आ जाये। गुरु
तुम्हें
निर्भर नहीं
बनाना चाहता।
और जो बनाना
चाहे वह गुरु
नहीं है। गुरु
तुम्हें
आत्मनिर्भर
करना चाहता है, तुम्हें
मुक्त करना
चाहता है।
गुरु तुम्हें
बांध ले तो
दुश्मन हो गया।
मैं
तुम्हें
परिपूर्ण रूप
से मुक्त करना
चाहता हूं।
मैं तुम्हें
हर स्थिति में
मुक्त करना
चाहता हूं।
मैं तुम्हें
अपने से भी
मुक्त करना
चाहता हूं।
तभी मुक्ति की
मदिरा
तुम्हारे
जीवन में पूरी—पूरी
उतरेगी। तो
मैं फिर से
दोहरा दूं।
मैं तुम्हें
वही देता हूं
जो तुम अपने
को देने को
राजी हो जाते
हो। लेकिन तुम
अभी इतने कुशल
नहीं हो कि
सीधे—सीधे एक
हाथ से अपने
दूसरे हाथ को
दे दो; पहले
तुम मुझे देते
हो, फिर
मैं तुम्हें
देता हूं। ऐसे
जिस दिन तुम
समर्थ हो
जाओगे, तुम
सीधा—सीधा दे
लोगे। तुम
कहोगे आपको
क्यों कष्ट
दें! जब तक ऐसा
नहीं हुआ है, तुम मजे से
मुझे कष्ट दिए
चले जाओ, मुझे
कोई कष्ट नहीं
हो रहा है।
चौथा
प्रश्न :
आपने
मुझे वीणा दी, मैंने
बहुत कुछ
बजाना भी चाहा—जैजैवंती,
भैरवी, भैरव,
मेघमल्हार,
क्या—क्या
नहीं! लेकिन शोरगुल
के अतिरिक्त
कुछ भी न हुआ।
अब रखता हूं
आपकी वीणा
आपके ही चरणों
में, आप ही
बजायें!
बस
अब वीणा बजेगी।
अब वीणा
बजेगीबिना
मेरे बजाये
बजेगी। तुम
रखो भर। तुम
समर्पण भर करो।
तुम
गा दो,
मेरा
गान अमर हो
जाये।
मेरे
वर्ण—वर्ण
विश्रृंखल
चरण—चरण
भरमाये
गूंज—गूंज
कर मिटने वाले
मैंने
गीत बनाये
कूक
हो गई स्प गगन
की
कोकिल
के कंठों पर
तुम
गा दो,
मेरा
गान अमर हो
जाये।
दुख
से जीवन बीता
फिर भी
शेष
अभी कुछ रहता
जीवन
की अंतिम
घड़ियों में भी
तुमसे
यह कहता
सुख
की एक सांस पर
होता
है
अमरत्व
निछावर
तुम
छू दो,
मेरा
प्राण अमर हो
जाये।
तुम
गा दो,
मेरा
गान अमर दो
जाये।
तुम
रखो बांसुरी
प्रभु के
चरणों में।
तुम रख दो
वीणा। तुम
अपना कंठ भी
उसे दे दो।
कूक
हो गई स्प गगन
की
कोकिल
के कंठों पर
तुम
गा दो,
मेरा
गान अमर हो
जाये।
तुम
जब तक गाओगे, शोरगुल
ही होगा, क्योंकि
तुम शोरगुल ही
हो। तुम्हारा
हर प्रयास
तनाव लायेगा।
तुम्हारी. यह
धारणा ही कि
मेरे किए कुछ
हो सकता है, तुम्हारे
जीवन की सबसे
बड़ी दुविधा
है।
तुम्हारा यह
खयाल ही कि
मेरा प्रयास
मुझे
पहुंचायेगा, तुम्हें
प्रभु के
प्रसाद से
वंचित किए है।
तुम हलके हो
लो। तुम रखो, उतार दो सब
बोझ। तुम कह
दो : 'तू चल
मेरे भीतर। तू
गा मेरे भीतर।
तू बोल मेरे
भीतर। या तुझे
चुप होना हो
तो चुप रह
मेरे भीतर। अब
मैं न चलूंगा,
तू चल।
तुम
गा दो,
मेरा
गान अमर हो
जाये।
और
निश्चित ही
तुम्हारे
रखते ही, वीणा
में स्वर उठने
शुरू होते हैं।
अनूठे स्वर!
अज्ञात के
स्वर! ऐसे—जो
कभी नहीं सुने
गये! ऐसे—जों
किन्हीं
मर्त्य
अंगुलियों से
पैदा नहीं होते!
लेकिन
फिर भी मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं :
कोई प्रभु आ
कर बजाता नहीं
है,
तुम ही
बजाते हो।
लेकिन जैसे ही
तुम अपने को
छोड़ देते हो, तुम प्रभु
हो जाते हो।
तुम्हारी
सीमा उसी क्षण
मिट जाती है
जिस क्षण
तुमने कहा, अब मैं नहीं,
तू! बस
तुम्हारे
भीतर वही बहने
लगा। वही पहले
भी बह रहा था, लेकिन
तुम्हारी तू—तू
के कारण
शोरगुल मचता
था; तुम्हारी
मैं —मैं तू—तू
के कारण
उपद्रव होता
था। अब तुमने
सब हटा कर रख
दिया। तत्क्षण
उसकी धार बहने
लगती है।
सहज
हो जाओ और
निर्भार।
'अब रखना
चाहता हूं
आपकी वीणा
आपके ही चरणों
में, आप ही
बजायें!'
बजेगी
वीणा। तुम अगर
रख दो तो
तुम्हारे
कारण जो बाधा
पड़ती थी, न
पड़ेगी अब। बस
बाधा न पड़ी, सब होने
लगेगा। धार
बहेगी, सागर
में उतरेगी।
सीमा चलेगी, असीम से
मिलेगी।
तुम्हारे
कारण, तुम्हारी
चेष्टा के
कारण अड़चन
पैदा हो रही
है 1 तुम्हारी
सब चेष्टायें
धार के विपरीत
ले जाती हैं।
चेष्टा का
मतलब ही होता
है. नदी के
विपरीत बहना।
निश्चेष्टा का
अर्थ होता है.
नदी के साथ
बहना।
मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने घर के
बाहर बैठा था
और लोग दौड़े
आये,
उन्होंने
कहा कि सुनो, तुम्हारी
पत्नी नदी में
गिर गई और पूर
आया है। तो
मुल्ला भागा।
एकदम नदी में
कूद पड़ा। और
बड़े तेजी से
उल्टी धार की
तरफ हाथ—पैर
मार कर तैरने
लगा। लोग घाट
से चिल्लाये
कि नसरुद्दीन,
यह क्या कर
रहे हो? तुम्हारी
पत्नी बह गई
और तुम ऊपर की
तरफ जा रहे हो!
उसने
कहा : तुम चुप
रहो। तीस साल
से उसके साथ
रहता हूं अगर
सब स्त्रियां
नीचे की तरफ
जाती हैं तो
वह ऊपर की तरफ
गई होगी। उसे
मैं तुमसे
भलीभांति
जानता हूं।
तुम क्या खाक
मुझे समझा रहे
हो। मेरी
पत्नी और धार
के साथ बह
जाये, कभी हो
नहीं सकता। वह
ऊपर की तरफ गई
होगी। अगर तुम
लोगों को देखो
तो तुम उनको
पाओगे : सब अहंकार
धार के विपरीत
बहने की
चेष्टायें कर
रहे हैं। जो
नहीं होता, वह हो जाये!
जो नहीं हुआ
है, हो
जाये! किसी तरह
परमात्मा की
धार मोड़ दें
हम!
हम
मालिक होना
चाहते हैं
अस्तित्व के।
बस वहीं सारी
अड़चन है। वीणा
वही खंडित हो
जाती है, तार
टूट जाते हैं!
तुम नदी के
साथ बहो। नदी
तो जा रही है
महासागर की
तरफ, तुम
क्यों व्यर्थ
शोरगुल मचाते
हो?
रामकृष्ण
ने कहा है.
पतवारें बंद
करो,
पाल खोलो!
प्रभु की
हवायें तो बह
ही रही हैं, वे तुम्हें
ले जाएंगी।
तैसे
मत, बहो!
वीणा
बोलेंगी, गान उठेगा।
और ऐसा गान
उठेगा, जिसको
अनाहत कहते
हैं। एक तो
आहत है, जो
चोट करने से
पैदा होता है;
एक अनाहत है,
जो चोट करने
से पैदा नहीं
होता। उसी को
हमने
नादब्रह्म
कहा है।
तुम भर
चेष्टा मत करो।
तुम शात हो कर
बैठ जाओ, रख दो वीणा
को। और अचानक
तुम पाओगे :
शून्य से उठने
लगा संगीत-शून्य
का संगीत!
नीरव .है।
कहीं स्वर भी
सुनाई नहीं
पड़ता, फिर
भी मस्त होने
लगोगे, डोलने
लगोगे! रोआं-रोआं
एक अपूर्व
पुलक से भर
जायेगा!
पांचवां
प्रश्न :
ध्यान
में रोती हूं, आपका
चित्र देख कर
विभोर होती
हूं और आपकी
याद से
भी भीतर
बहुत कुछ घटित
होता है। क्या
करूं?
पूछा है
धर्मरक्षिता
ने।
अगर
ध्यान में
रोना आता है
तो इससे सुंदर
और कुछ भी
नहीं हो सकता।
रोओ! आंसुओ से
ज्यादा
बहुमूल्य
मनुष्य के पास
कुछ भी नहीं
प्रभु के
चरणों में
चढ़ाने को। और
सब फूल फीके
हैं-आंसुओ के
फूल जीवंत फूल
हैं; तुम्हारे
प्राणों से आ
रहे हैं; तुम्हारे
हृदय से आ रहे
हैं।
रोओ!
रोने में बाधा
मत डालना। ऐसा
मत सोचना, संकोच मत
करना। ऐसा मत
सोचना कि क्या
रो रही हूं
ठीक नहीं। दिल
खोल कर रोओ।
आनंदित हो कर
रोओ। मगन हो
कर रोओ।
रोने
का अर्थ ही
यही है : हृदय
बहने लगा।
रोने का अर्थ
क्या होता है?
साधारणत:
हमने रोने के
साथ बड़े गलत
संबंध जोड़ लिए
हैं। हम सोचते
हैं, लोग
दुख में ही
रोते हैं। गलत
बात। ही, दुख
में भी रोते
हैं; सुख
में भी रोते
हैं। और जब
महासुख बरसता
है तो ऐसे
रोते हैं जैसे
कि कभी नहीं
रोये थे।
रोने
का कोई संबंध
सुख-दुख से
नहीं है। रोने
का संबंध किसी
और बात से है।
वह बात है : जब
भी तुम्हारे
हृदय में कोई
भाव इतना हो
जाता है कि
समाता नहीं, अटता
नहीं, सम्हाले
नहीं सम्हलता,
तब आंसुओ की
धार लगती है।
दुख ज्यादा हो
तो भी आदमी
रोता है; महासुख
हो जाये तो भी
रोता है। गहन
शांति में भी
आंसू उतर आते
हैं। बड़े
प्रेम में भी
आंखें झरने
लगती हैं, झंड़ी
लग जाती है।
'ध्यान में
रोती हूं।
आपका चित्र
देख कर विभोर
होती हूं।
आपकी याद से
भी बहुत कुछ
घटित होता है।
अब क्या करूं?'
अब
कुछ करने की
बात ही नहीं
है। करना तो
उन्हीं के लिए
है जो रोने
में असमर्थ हैं।
करना तो
उन्हीं के लिए
है जिनके हृदय
कठोर हो गये
हैं और आंसुओ
के फूल नहीं
लगते हैं।
करना तो
उन्हीं के लिए
है जिनके जीवन
की भक्ति सूख
गई है, भाव सूख
गया है, बहाव
सूख गया है। जो
रो सकता है
उसके लिए तो
परमात्मा का
रास्ता खुला
है।
तुम्हारे
लिए तो द्वार
मंदिर के खुल
गये। रोओ!
आनंद—मग्न
होकर रोओ! ऐसे
भाव से रोओ कि
रोना ही रह जाये।
तुम्हारा
अपना यह खयाल
ही मिट जाये
कि मेरे भीतर
कोई रोने वाला
है;
रोना ही
रोना रह जाये।
बस, ध्यान
पूरा हो
जायेगा। वहीं
से समाधि
उतरेगी।
एक
रास्ता है
ध्यान का, एक
रास्ता है
प्रेम का। और
प्रेम का
रास्ता बड़ा
रसपूर्ण है।
ध्यान का
रास्ता बड़ा
सूखा—सूखा है।
जिसे प्रेम का
रास्ता मिल
जाये, वह
भूले ध्यान की
बात, भूले।
बिसारो
यह
बात। प्रेम ही
तुम्हारे लिए
पर्यात है।
पिया
खोलो किवाड़
पिया
खोलो किवाड़!
कोयल
की गंजी
पुकारें
बगिया
में मरमर
दुनिया
में जगहर
उतरी
किरण की
कतारें
पिया
खोलो किवाड़
पिया
खोलो किवाड़!
कोयल
की गंजी
पुकारें
कलियों
में गुनगुन
गलियों
में रुन—झुन
अंबर
से गाती
बहारें
पतझर
को भूली
हर
डाली फूली
बीती
को हम भी
बिसारें
गूंगी
थीं घड़ियां
गीतो
की कड़ियां
वीणा
को फिर
झनकारें
माना
कि दुख है
विधना
विमुख है
आओ
उसे ललकारे
पिया
खोलो किवाड़
पिया
खोलो किवाड़!
कोयल
की गंजी
पुकारें।
जो
रो उठा, उसने
तो प्रभु के
द्वार पर
दस्तक दे दी।
उसने तो कह
दिया : पिया
खोलो किवाड़!
पिया खोलो किवाड़!
रोने
से ज्यादा
बेहतर कोई
दस्तक मंदिर
के द्वार पर
कभी दी ही
नहीं गई है।
वह तो
श्रेष्ठतम
दस्तक है।
उससे
श्रेष्ठतर
फिर कुछ भी
नहीं है।
तो
तुम अगर रो
सकते हो तो
प्रभु की तुम
पर बड़ी कृपा
है,
अनंत कृपा
है।
आंसुओ
को प्रार्थना
बनने दो। कुछ
और करने को
नहीं है। कुछ
और करने की
बात ही मत
उठाना।
क्योंकि करने
में तो कर्ता
आ जायेगा।
रोने में
कर्ता बड़ी
सरलता से पिघल
जाता है। रोना
तो एक तरह का
पिघलना है।
इसीलिए तो
रोने में आदमी
डरते हैं।
पुरुषों
ने तो रोना
छोड़ ही दिया
है। वे तो भूल
ही गये रोने
की कला।
तुम्हें
पता है, दुनिया
में पुरुष
स्त्रियों से
दो गुने
ज्यादा पागल होते
हैं! और हर दस
साल में
महायुद्ध
चाहिए पुरुषों
को। अगर
दुनिया में
महायुद्ध अगर
बंद हो जायें
तो मैं समझता
हूं पुरुष सब
के सब पागल हो
जायेंगे, बच
ही नहीं सकते
फिर वे। लड़ाई—झगड़े
में निकाल
लेते हैं
पागलपन, दुश्मनी,
दंगा—फसाद,
हिंदू—मुसलमान
का दंगा, गुजराती—मराठी
का दंगा। कोई
भी बहाना, मरने—मारने
को तैयार हैं।
और
पुरुषों को
बचपन से
सिखलाया जाता
है। बच्चों को
हम कहते हैं : 'रोना
मत, मर्द
रोते नहीं!' क्या पागलपन
की बात है!
मर्द की आंखों
में उतनी ही आंसू
की ग्रंथियां
हैं जितनी
स्त्री की आंखों
में।
परमात्मा ने
भेद नहीं किया
है। परमात्मा
ने मर्द को भी
रोने के लिए आंखें
दी हैं, आंसू
दिए हैं; नहीं
तो आंसू देते
ही नहीं। अगर
मर्द रोते ही
नहीं, मर्द
को रोना ही
नहीं चाहिए तो
परमात्मा ने आंसू
दिये ही क्यों?
तो
परमात्मा ने
तुम्हारी आंख
में आंसू न
भरे होते।
लेकिन उतनी ही
ग्रंथियां
हैं। कोई
पुरुष रोने
लगे तो लोग
कहते हैं अरे,
अरे बंद करो,
क्या गैर—मर्दानी
बात कर रहे हो!
ये
पागलपन की
बातें हैं।
इनके कारण
आदमी जड़ हो
गया है।
स्त्रियां अब
भी थोड़ी बेहतर
हालत में हैं।
रो सकती हैं, कोई
उन्हें रोकता
नहीं। कहते
हैं :
स्त्रियां
हैं, चलो
रोने दो!
स्त्रियां
सौभाग्यशाली
हैं इस दृष्टि
से। और सब तो
उनसे छिन गया
है, लेकिन आंसू
कम से कम उनके
पास हैं। यह
उनकी बड़ी
धरोहर है।
घबड़ाओ
मत। कुछ और
करने की जरूरत
नहीं है। रोओ
और पुकारो!
पुकारो और
रोओ! धीरे—
धीरे पुकार भी
बंद हो जाये, फिर
आंसू ही
पुकारेंगे।
पुकारने वाला
भी खो जाये, फिर आंसू ही
एकमात्र बात
रह जायेगी। और
तुम पाओगे
इन्हीं आंसुओ
से मंजिल करीब
आने लगी।
पंथ
जीवन का, चुनौती
दे रहा है हर
कदम पर
आखिरी
मंजिल नहीं
होती कहीं भी
दृष्टिगोचर
धूल
से लद, स्वेद
से सिंच, हो
गई है देह
भारी
कौन
—सा विश्वास
मुझको खींचता
जाता निरंतर
पंथ
क्या, पद की
थकन क्या, स्वेद—क्या
क्या?
दो
नयन मेरी
प्रतीक्षा
में खड़े हैं!
एक
भी संदेश आशा
का नहीं देते
सितारे
प्रकृति
ने मंगल—शकुन
पथ में नहीं
मेरे संवारे
विश्व
का
उत्साहवर्धक
शब्द भी मैंने
सुना कब
किंतु
बढ़ता जा रहा
हूं लक्ष्य पर
किसके सहारे
विश्व
की अवहेलना
क्या, अपशकुन
क्या?
दो
नयन मेरी
प्रतीक्षा
में खड़े हैं!
रोओ!
रोने से
तुम्हारी आंखें
साफ होंगी। और
तुम्हारी आंखों
के साफ होते
ही तुम पाओगे
कि दो और नयन
प्रगट होने
लगे तुम्हारे आंसुओ
में।
दो
नयन मेरी
प्रतीक्षा
में खड़े हैं!
वे
प्रभु के नयन!
वे परमात्मा
की आंखें!
तुम्हारे
आंसू
तुम्हारी आंखों
से सारे घूंघट
को हटा देंगे।
आंखों के सारे
धूलिकण बह
जायेंगे। आंखों
की सारी कालिख
बह जायेगी।
जन्मों—जन्मों
का उपद्रव आंखों
पर इकट्ठा है ?ए
वह बह जायेगा।
तत्क्षण, जब
तुम आंसुओ से
भीगी आंखों को
ऊपर उठाओगे, तुम पाओगे.
पंथ
क्या, पद की
थकन क्या, स्वेद
कण क्या?
दो
नयन मेरी
प्रतीक्षा
में खड़े हैं!
किंतु
बढ़ता जा रहा
हूं लक्ष्य पर
किसके सहारे
विश्व
की अवहेलना
क्या, अपशकुन
क्या?
दो
नयन मेरी
प्रतीक्षा
में खड़े हैं!
वे
दो नयन उसी
क्षण दिखाई
पड़ने शुरू
होते हैं जब
तुम्हारे दो
नयन शुद्ध, साफ,
निर्दोष हो
जाते हैं। आंसुओ
से बड़ी आंख को
साफ करने की
कोई कला नहीं
है। शरीर के
तल पर भी यही
सही है और
आत्मा के तल
पर भी यही सही
है। तुम जा कर आंख
के डाक्टर से
पूछना। वह
कहता है. आंसू आंख
की सारी
बीमारियों को
शुद्ध करते
हैं। आंख पर
कोई भी कीटाणु
आ जाये, बीमारी
का कोई
इकेक्यान आ
जाये, आंसू
उसे मार डालते
हैं। एक—एक आंसू
लाख—लाख
कीटाणुओं को
मारने में सफल
हो जाता है।
यह
तो शरीर की
बात हुई। मैं
कोई शरीर का
डाक्टर नहीं
हूं। लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं. आंसू
तुम्हारे
भीतर के भी
बहुत—से रोगों
को मार डालते
हैं। जो दिल
खोल कर रो
सकता है उसका
क्रोध समाप्त
हो जायेगा। जो
दिल खोल कर रो
सकता है उसका
अहंकार पिघल
जायेगा। जो
दिल खोल कर रो
सकता है, वह
अचानक पायेगा
निबोंझ हो गया,
निर्भार हो
गया, उड़ने
को तैयार हो
गया।
गुरुत्वाकर्षण
कम हो जाता है।
तुम्हारी
आत्मा आकाश की
यात्रा पर
निकल सकती है।
आखिरी
प्रश्न :
कल
आपका जन्म—दिवस
है। आपके
प्रेमी, आपके
शिष्य, आपके
संन्यासी बड़ी—बड़ी
भावपूर्ण
भेंट लाये हैं।
मेरे पास कुछ
भी नहीं है।
मेरे पास भेंट
करने के लिए
शून्य के
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं
है। क्या आप
इसे स्वीकार
करेंगे?
शून्य
से बड़ी और
क्या भेंट हो
सकती है!
शून्य ही तुम
ले आओ, इसी की तो
मैं
प्रतीक्षा
करता हूं? तुम
कुछ और लाये, व्यर्थ। तुम
शून्य ले आये,
सार्थक।
शून्य यानी
समाधि। शून्य
यानी ध्यान। शून्य
यानी पूर्ण को
पाने का द्वार।
और
यह सवाल नहीं
है कि तुम कुछ
लाओ। तुम आ
गये,
इतना काफी
है। प्रेम
अपने में
पर्याप्त है।
कोई और भेंट
आवश्यक नहीं
है।
कोकिला
अपनी व्यथा
जिससे जताये
सुन
पपीहा पीर
अपनी भूल जाये
वह
करुण उदगार
तुमको दे
सकूंगा
प्राण!
केवल प्यार
तुमको दे
सकूंगा
प्राप्त
मणि—कंचन नहीं
मैंने किया है
ध्यान
तुमने कब वहा
जाने दिया है
आंसुओ
का हार तुमको
दे सकूंगा
प्राण!
केवल प्यार
तुमको दे
सकूंगा
फूल
ने खिल मौन
माली को दिया
जो
बीन
ने स्वरकार को
अर्पित किया
जो
मैं
वही उपहार
तुमको दे
सकूंगा
प्राण!
केवल प्यार
तुमको दे
सकूंगा
आ
उजेली रात
कितनी बार
भागी
सो
उजेली रात
कितनी बार
जागी
पर
छटा उसकी कभी
ऐसी न छाई
हास
में तेरे नहाई
यह जुन्हाई
ओ
अंधेरे —पाख
क्या मुझको
डराता
अब
प्रणय की
ज्योति के मैं
गीत गाता
प्राण
में मेरे समाई
यह जुन्हाई
हास
में मेरे नहाई
यह जुन्हाई
प्राण!
केवल प्यार
तुमको दे
सकूंगा
तुम
प्रेम ले आये, सब
ले आये! तुम
शून्य ले आये
तो समर्पण ले
आये, समाधि
ले आये। कुछ
और चाहिए नहीं।
इससे और बड़ी
कोई भेंट हो
नहीं सकती है।
यही
तुम्हें सिखा
रहा हूं कि
किस भाति
प्रेम बन जाओ, किस
भांति शून्य
बन जाओ। तुम
शून्य बन जाओ
तो परमात्मा
तुम्हारे
भीतर उतर आये।
धन्य
हैं वे जो मिट
जाते हैं, क्योंकि
प्रभु को पाने
के वे ही
अधिकारी हो जाते
हैं। अभागे
हैं वे जो
नहीं मिट पाते,
क्योंकि वे
भटकेंगे और
प्रभु को कभी
पा न सकेंगे।
मिटो—पाना हो
तो।
वर्षा
होती है
पहाड़ों पर, पहाड़
खाली रह जाते
हैं, क्योंकि
पहले से ही
भरे हैं।
झीलें भर जाती
हैं, क्योंकि
खाली हैं।
तुम
अगर खाली हाथ
ले कर आ गये हो
तो तुम भरे
हाथ ले कर
लौटोगे। भरे
हाथ लाने की
कोई जरूरत
नहीं है। भरे
हाथ आने की
कोई जरूरत
नहीं है।
तो
घबड़ाओ मत।
शून्य ले आये, सब
ले आये। प्रेम
ले आये, सब
ले आये।
हरि
ओंम तत्सत्!
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