करना है संसार,
होना है धर्म—प्रवचन—छठवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1—भगवान
श्री के पास आते
ही बुद्धि ह्रदय
में व शब्द मौन
में रूपांतरित।
और सुनते समय ह्रदयका आंसू
बनकर बहना। घर
लौटने पर यह अवस्था
बनी रहेगी। संदेह,
कैसे स्थित हो
यह अवस्था?
2—आपके
पास संन्यास लेने
आया हूं,
कल घर से पत्र मिला
है कि मेरे गैरिक
वस्त्र पहनते
ही मेरे माता—पिता
आत्महत्या कर
लेंगे। वे कम शिक्षित
है, उन्हें
समझाना भी कठिन
है। क्या करूं, कृपया बताएं?
3—मा
योग लक्ष्मी के
वक्तव्य पर एक
मित्र की बेचैनी।
4—सभी
प्रश्न गिर गये।
उत्तर की भूख
प्यास, चाह
नहीं। आगे क्या? सुख—प्राप्ति, महासुख—प्राप्ति
की एक झलक के बाद
आगे क्या?
पहला
प्रश्न:
यहां
आते ही बुद्धि
हृदय में और
शब्द मौन में रूपांतरित
हो गये। आपको
सुनते समय
मेरा हृदय कभी-कभी
आंसू बनकर
बहने लगता है।
संदेह है कि यहां
से घर लौटने
पर भी यह
अवस्था बनी
रहेगी अथवा
नहीं।
कृपापूर्वक
समझाएं कि किस
तरह यह अवस्था
स्थिर हो?
पहली
बात, आंसुओं
से ज्यादा
पवित्र
मनुष्य के पास
और कुछ भी
नहीं है।
आंसुओं से बड़ी
कोई
प्रार्थना नहीं
है। आंसुओं का
केवल एक रूप
ही लोगों ने
जाना है। वह
रूप
है--दुख-रूप।
आंसुओं का एक
और रूप है--आंनद-रूप।
उसे बहुत कम
लोग जान पाये।
बहुत कम लोग जान
पाते हैं।
किसी
को तुम रोते
देखते हो, तो सोचते हो
दुखी होगा।
किसी को तुम
रोते देखते हो,
तो सोचते हो
कुछ पीड़ा
होगी। कुछ
चुभन होगी, जलन होगी।
जरूरी नहीं।
आंसू तो तभी
बहते हैं जब
कोई भी भावदशा
इतनी ज्यादा
हो जाती है कि
तुम संभाल
नहीं पाते।
कोई भी भावदशा।
दुख बहुत हो
जाए तो आंसुओं
से बहता है।
सुख बहुत हो
जाए तो भी
आंसुओं से बहता
है। पीड़ा बहुत
हो, तो
आंसुओं से
बहकर हल्का हो
जाता है मन।
आनंद बहुत हो,
तो आंसुओं
से बह जाता
है।
तो
पहली तो बात, आंसुओं के
साथ दुख का
अनिवार्य
संबंध मत जोड़ना।
गहरे में
हमारे मन में
यह बात बनी ही
हुई है कि आंसू
दुख के कारण
आते हैं। तो
हम आंसुओं को
छिपाते भी
हैं। आंसू आते
हों तो रोकते
भी हैं। आंसू
आ न जाएं, इसका
हम बहुत उपाय
करते हैं। इस
उपाय को छोड़ो।
यही उपाय घर
जाकर रोकने का
कारण बन
जाएगा।
यहां
मेरे पास हो, यहां एक और
तरह की हवा
है। यहां सब
स्वीकार है।
यहां तुम
रोओगे, तो
कोई तुम्हें
दुखी न
मानेगा। तुम
रोओगे, तो
शायद दूसरे
तुम सेर्
ईष्या करें।
सोचें कि तुम धन्यभागी
हो कि रो पाते
हो, पीड़ित
हों अपने मन
में कि हम
नहीं रो पाते।
तुम्हारे
आंसू यहां
संपदा की तरह
स्वीकार किये जाएंगे।
घर लौटकर
नहीं। दूसरी
ही हवा होगी। दूसरा
संयोग होगा
आंसुओं के
साथ।
तो अगर
चाहते हो कि
यह परम आंसू
सदा बहते रहें, तो भीतर कुछ
स्मरण करने का
है। और वह
स्मरण यह है
कि आंसुओं का
दुख से कुछ
लेना-देना
नहीं है।
अन्यथा तुम
खुद ही रोक
लोगे, कोई
और नहीं
रोकेगा। कौन
रोकता है! कोई
किसी को रोक
नहीं सकता!
लेकिन
तुम्हीं रोक
लोगे।
तुम्हीं सकुचा
जाओगे।
तुम्हीं
सोचोगे, कोई
क्या कहेगा!
घर में बच्चे
होंगे
तुम्हारे, पत्नी
होगी, पिता-मां
होंगे, क्या
कहेंगे! दुकान
पर बैठे रोने
लगोगे, ग्राहक
क्या कहेंगे!
दफ्तर में
बैठे रोने लगोगे,
दफ्तर के
लोग क्या
कहेंगे!
रास्ते पर
रोने लगोगे, राह चलते
लोग क्या
कहेंगे!
आंसुओं
के साथ दुख
जुड़ा है।
क्योंकि हमने
एक ही तरह के
आंसू अब तक
जाने हैं, वे दुख के
आंसू हैं। कोई
मरा, तो हम रोये। कोई
जीवन में
विषाद आया, तो हम रोये।
हम कभी आनंद
से रोये
नहीं। हम कभी
उत्फुल्लता
से रोये
नहीं। हमारे आंसू
कभी नृत्य
नहीं बने।
इसलिए एक गलत
संयोग आंसुओं
से जुड़ गया
है। अब तो ऐसे
भी लोग हैं
पृथ्वी पर, जो दुख में
भी न रोयेंगे--दुख
में रोनेवाले
लोग भी विदा
हो रहे हैं।
आनंद में रोनेवाले
लोग तो बहुत
समय पहले विदा
हो गये। अब तो
दुख में रोनेवाले
लोग भी विदा
हो रहे हैं।
अब तो उस आदमी
को हम कहते
हैं बलशाली, जो दुख में
भी रोता नहीं।
पत्नी
मर गयी है और
वह नहीं रोता।
हम कहते हैं, यह है
विवेकशील। हम
कहते हैं, यह
है संयमी।
नियंत्रण इसे
कहते हैं! यह
है आदमी
बुद्धिमान।
अब तो हम कहते
हैं कि जो रोये,
वह नामर्द!
अब तो हम रोनेवाले
को कहते हैं, क्या
स्त्रियों की
तरह रो रहे हो!
मर्द बनो! हिम्मत
जुटाओ!
रोने से क्या
होगा! ऐसा तो
होता ही है।
आदमी मरता ही
है। रोओ मत, आंसू मत गुमाओ।
अब तो लोग दुख
में भी रोना
बंद कर रहे
हैं।
जिस
दिन लोग दुख
में भी रोना
बंद कर देंगे, उस दिन आदमी
पाषाण हो
जाएगा। पत्थर
हो जाएगा। उस
दिन आदमी के
भीतर फिर कोई
भी रोमांच न
उठेगा। फिर
आदमी के भीतर कोई
लहर न आयेगी।
फिर कोई गीत न जन्मेगा।
फिर आदमी
बिलकुल पत्थर
होगा। ऐसे
बहुत लोग हैं
जो पत्थर हो
गये हैं। वे
दुख में भी
नहीं रो सकते।
श्रेष्ठतम
आदमी तो आनंद
में भी रोता
है।
निकृष्टतम
आदमी दुख में
भी नहीं रोता।
दुख में भी जो
न रोये वह
बिलकुल पत्थर
हो गया। सुख
में भी जो रोये, वह बह गया, बिलकुल तरल
हो गया। और एक
बार तुम सुख
का रोना सीख
लो, एक बार
तुम्हें रोने
का आनंद अनुभव
में आ जाए, रोने
की पवित्रता,
रोने की
प्रार्थना की
तुम्हें झलक
मिल जाए, तो
तुम्हारे हाथ
में एक महान
कुंजी आ गयी।
फिर
तुम जहां भी
मौका
होगा--कभी
किसी खिले फूल
को देखकर भी
आंखें आंसुओं
से भर जाएंगी।
इतना अपूर्व
सौंदर्य है इस
जगत में! कभी
आकाश के तारों
को देखकर भी
आंखें डबडबा
आएंगी। इतना
रहस्यपूर्ण
है यह जगत! तब
तुम पाओगे कि
तुम्हारे
भीतर एक सिहरन
जन्मी। एक नये
तरह का आवेग, एक नया आवेश,
एक नयी
प्रफुल्लता।
मैं भी
कहता हूं कि
दुख में रोने
की कोई जरूरत नहीं।
क्योंकि मैं
कहता हूं, रोने को तो
सुख बनाया जा
सकता है। मेरे
कहने में, औरों
के कहने में
फर्क है। वे
कहते हैं, दुख
में भी मत
रोना, क्योंकि
रोने से
कमजोरी प्रगट
होती है। मैं
तुमसे कहता
हूं, रोने
को तो आनंद
बनाया जा सकता
है। दुख में
मत रोना, जब
रोना ही है तो
आनंद में
रोना। और जो
आदमी आनंद में
रोना सीख लेता
है, उसके
जीवन में दुख
के आंसू विदा
हो जाते हैं। तुमने
आंसुओं को राह
दे दी। अब दुख
में रोने की
कोई जरूरत ही
न रही। अब तो
आंसू उस ऊंचाई
पर उड़ने
लगे, अब
जमीन पर सरकने
की कोई जरूरत
न रही। जिसको
पंख लग गये, वह जमीन पर
थोड़े ही घसिटता
है। दूसरे हैं
कि तुम्हारी
जमीन पर
घसीटने की
क्षमता भी छीन
लेना चाहते
हैं। मैं हूं
कि तुम्हें
आकाश में उड़ने
की क्षमता
देना चाहता
हूं।
तुम
आनंद में रोओ।
आंसुओं से
आनंद को जोड़ो।
यह तो कीमिया
है जीवन की।
तब दुख भी आनंदरूप
हो जाएगा। तब
पीड़ा भी प्रेमरूप
हो जाएगी। तब
उदासी में भी
तुम पाओगे, उसका ही
सरगम बजता है।
विषाद में भी
उसी की गुनगुनाहट
तुम्हारे
हृदय में गूंजेगी।
मृत्यु के
क्षण में भी
तुम पाओगे, जीवन शाश्वत
है। मृत्यु के
क्षण में भी
तुम जीवन के
आह्लाद से ही नाचोगे।
लेकिन एक बार
आंसुओं को
आनंद की कला
सीख लेने दो।
एक बार आंसुओं
को आनंद से
जुड़ जाने दो।
जानता
हूं, भय उठता
होगा मन में
कि यहां तो
आंसू इतना
हलका कर जाते
हैं, इतना
हृदय भर जाता
है, घर
जाकर क्या
होगा? तुम
तो तुम ही
रहोगे। मैं
तुम्हें रुला
रहा हूं, ऐसा
मत सोचना। तुम
ही रो रहे हो।
क्योंकि यहां
और भी हैं, जो
नहीं रो रहे।
अगर मैं रुला
रहा होता, तो
और भी रोते।
अगर मेरे हाथ
में होता
रुलाना, तो
और भी रोते।
तुम रो रहे हो,
तो तुम ही
रो रहे हो, मैं
नहीं रुला
रहा। मेरे
बहाने तुम
थोड़ा अपने को
दमन से, नियंत्रण
से ढीला कर
लिये हो। मैं
सिर्फ बहाना
हूं, निमित्त
हूं।
अगर यह
तुम्हारी समझ
में आ जाए कि
तुम ही रो रहे
हो, मैं
सिर्फ
निमित्त हूं,
तब तुम्हें
हर जगह
निमित्त मिल
जाएंगे। फूल
को देखकर रो
लेना। बच्चे
को नाचते, खुशी
से भरा हुआ
देखकर रो
लेना। पक्षी
का गीत सुनकर
रो लेना। झरने
की आवाज सुनकर
रो लेना। वृक्षों
के हरे पत्ते,
आकाश में
घिरे मेघ और
रो लेना।
कितना है
चारों तरफ
रहस्य! किसी
को भी निमित्त
बना लेना।
एक बार
तुम्हें यह
समझ में आ जाए
कि रोने की
क्षमता
तुम्हारी है, तो फिर कोई
भी निमित्त
काम कर देगा।
ऐसे ही समझो
कि आये, अपना
कोट टांगना है,
तो खूंटी पर
टांगते
हैं; कोई
भी खूंटी काम
दे देगी।
खूंटी नहीं
मिलेगी तो
तीली पर टांग
देंगे, खीली
पर टांग
देंगे। वह भी
नहीं मिलेगी
तो दरवाजे के
कोने पर टांग
देंगे।
कोट
तुम्हारा है, तुम मुझ पर
टांग रहे हो।
अगर कोट मेरा
हो, तो
निश्चित तुम
जब घर जाओगे
तो कोट यहीं
रह जाएगा।
आंसुओं
के संबंध में
ही नहीं, जीवन
के समस्त
अनुभवों के
संबंध में यह
याद रखना कि
जो घटता है, तुम्हारे
अंतर्तम में
घटता है। बाहर
हो सकता है
निमित्त मिल गया
हो। जब
तुम्हें
तारों में
सौंदर्य
दिखायी पड़ता
है, तब भी
सौंदर्य
तुम्हारे
भीतर ही घटता
है। तारे तो
केवल निमित्त
हैं। उन्हीं
तारों के नीचे
दूसरे भी तो
जा रहे हैं
अंधे, जिनको
कुछ भी नहीं
दिखायी पड़ता।
तुम अगर उन्हें
दिखाओ भी, तो
वे तुम्हारी
तरफ चकित होकर
देखेंगे कि हो
क्या गया है
तुम्हें! तारे
हैं, इतना
आश्चर्य में
होने की क्या
बात है!
एक
मंदिर की घंटियां
बज रही थीं।
एक संगीतज्ञ
बैठा था मंदिर
के बाहर, एक
वृक्ष के तले।
घंटियों का
मधुर कलरव उसे
आंदोलित करने
लगा। उसने अपने
पास बैठे
मित्र से कहा,
सुनते हो, कैसा अपूर्व
कलरव है। उस
आदमी ने कहा, इस मंदिर के
पुजारी के घंटनाद
के कारण कुछ
भी तो सुनायी
नहीं पड़ता! ये घंटियां
इतने जोर से
बज रही हैं कि
तुम क्या कह
रहे हो, यह
भी सुनायी
नहीं पड़ता।
जरा घंटियां
बंद हो जाने
दो, फिर
कहना।
वह
संगीतज्ञ कह
रहा है, सुनते
हो घंटियों का
कलरव नाद! ऐसे
अपूर्व स्वर,
ऐसे पवित्र
स्वर सुने हैं
कभी! शायद
संगीतज्ञ बहुत
धीरे-धीरे
फुसफुसाया
होगा कि कहीं
घंटियों के
नाद में कोई
व्याघात न पड़
जाए। लेकिन मित्र
कह रहा है कि
जरा घंटियों
की बकवास बंद
हो जाने दो, फिर कहना।
मुझे कुछ
सुनायी नहीं
पड़ता। ये घंटियां
कुछ सुनने दें
तब न!
मेरे
पास तुम हो।
तो मैं सिर्फ
निमित्त हूं।
मेरे निमित्त
तुम्हारे
भीतर का दृश्य
तुम्हें दिख
जाए, बस काम हो
गया। जो दिखे
उसे अपने भीतर
ही जानना। तो
तुम घर ले जा
सकोगे। अगर
तुमने समझा
मेरे कारण
दिखा है, तो
तुम मुझसे बंध
जाओगे। फिर
तुम घर न ले जा
सकोगे। फिर घर
तो तुम बहुत
उदास जाओगे।
और घर तो तुम
वंचित अनुभव
करोगे कि वे
आंसू अब नहीं
बहते, जो
हलका कर जाते
थे। वह रहस्य
अब नहीं उठता
भीतर। वैसा
संगीत अब नहीं
छूता। तो तुम
तो घर जाकर, आने के पहले
जितना घर दुखी
था, उससे
ज्यादा दुखी
घर में पहुंच
जाओगे। उससे भी
ज्यादा विषाद
में उतर
जाओगे।
क्योंकि यह अनुभव
तुम्हें और भी
दुखी करेगा।
नहीं, वैसा देखना
ही गलत है। जो
घटता है, तुम्हारे
भीतर घटता है।
निमित्त बाहर
हो सकते हैं।
जो घटता है, तुममें घटता
है। तुम उसके
मालिक हो।
इसलिए तुम अगर
ले जाना चाहो,
तो दुनिया
में कोई
रोकनेवाला
नहीं। हां, लेकिन डर भी
मेरी समझ में
आता है। डर भी
तुम्हारे
भीतर है। तुम
जानते हो कि
घर इस सरलता
से तुम रो न
सकोगे।
एक
मित्र ने कहा, यहां तो हम
नाचते हैं, बड़ा आनंद आ
रहा है, घर
कैसे नाचेंगे?
कौन रोकता
है? थोड़ी
प्रतिष्ठा
दांव पर लगानी
होगी, और
तो कुछ दांव
पर नहीं लगाना
है। कौन रोकता
है? कौन
किसको रोक
सकता है? हां,
लेकिन घर नाचोगे, तो पत्नी समझेगी
कि दिमाग खराब
हुआ। बच्चे भी
छिप-छिपकर
देखेंगे कि
पिताजी को
क्या हो गया!
पास-पड़ोस के
लोग भी पूछने
लगेंगे कि कुछ
गड़बड़ हो गयी।
प्रतिष्ठा
दांव पर
लगेगी। अब
तुम्हारे ऊपर
है, प्रतिष्ठा
चुन लेना, या
नाच चुन लेना।
अगर
प्रतिष्ठा
में ज्यादा रस
होगा, प्रतिष्ठा
चुन लोगे, नाच
में ज्यादा रस
होगा, नाच
चुन लोगे।
इस जगत
में हर चीज
कीमत पर मिलती
है। जहां तुम्हें
लगता है कि
कीमत नहीं
चुका रहे, वहां भी
कीमत चुकानी
पड़ती है। जेब
से न भी देनी
पड़ती हो, चाहे
ऊपर से दिखायी
भी न पड़ती हो, लेकिन हर
जगह कीमत
चुकानी पड़ती
है। अगर नाच
चाहिए, तो
प्रतिष्ठा छोड़नी
पड़ती है। अगर
प्रतिष्ठा
चाहिए, तो
नाच छोड़ना
पड़ता है।
अगर
तुम चाहते हो
कि आंसू
तुम्हारे
जीवन में बहते
ही रहें झरने
की तरह, और
आंसुओं का अर्ध्य
परमात्मा के
चरणों पर चढ़ता
ही रहे; अगर
तुम चाहते हो
आंसू ही
तुम्हारे फूल
होंगे प्रभु
के चरणों में,
तो फिर
तुम्हें कोई न
रोक सकेगा।
लेकिन दांव पर
लगाना होगा।
मीरा ने कहा
है, "लोक-लाज
खोयी।' नाची होगी, तो लोक-लाज
तो खोयी
होगी! अब तो
मीरा बड़ी
प्रतिष्ठित
है। अब तो मीरा
का भजन गाओ, तो कोई
लोक-लाज न
खोनी पड़ेगी।
मीरा ने खोयी
थी। अब तो
मीरा का भजन
भी
प्रतिष्ठित
हो गया। कभी
तुम्हारे
आंसू भी
प्रतिष्ठित
हो जाएंगे।
लेकिन अभी, अभी तो
प्रतिष्ठा
खोनी पड़ेगी।
मीरा
के पति ने अगर
उसके लिए जहर
भेजा था, तो
वह इसीलिए
भेजा था। कुछ
मीरा से विरोध
न था, विरोध
था मीरा के
कारण उसकी तक
प्रतिष्ठा
धूल में मिली
जाती थी। शाही
घर की महिला, सड़कों पर
नाचने लगी
आवारा, तो
राणा के मन को
चोट पहुंचती
होगी। लोग आकर
कहते होंगे कि
तुम्हारी
पत्नी राह पर
नाच रही है, भीड़ लगाकर
लोग खड़े होकर
देखते हैं, वस्त्र तक
उतर जाते हैं,
हाथ से गिर
जाता है साड़ी
का पल्ला, ऐसा
तो कभी न हुआ
था! घूंघट के
जो कभी बाहर न
निकली थी, सड़कों
पर नचा
रहे हो! कुछ
करो!
प्रतिष्ठा
दांव पर लगी
होगी। मीरा को
मार डालना
चाहा होगा। हट
ही जाए यह! यह
कलंक मालूम
पड़ा होगा। लेकिन
मीरा नाचती
रही। जहर भी
पी गयी और
नाचती रही।
जहर
दिया या नहीं
दिया, यह
बात बड़ी नहीं।
लेकिन बात
इतनी खयाल
रखना, जहर
पी गयी और
नाचती रही।
जहर स्वीकार
कर लिया, नाच
को त्यागना
स्वीकार न
किया। तो घर
जाकर अगर रोना
चाहोगे, तो
कई तरह का जहर
पीना पड़ेगा।
उतनी हिम्मत
हो, तो
जहां तुम हो
वहां
तुम्हारा नाच,
वहां
तुम्हारे
आंसू, वहां
तुम्हारे गीत
कौन छीन सकता
है! लेकिन लोग
छीन लेते हैं,
क्योंकि हम
लोगों से कुछ
चाहते
हैं--इज्जत, प्रतिष्ठा।
स्वभावतः
इज्जत और
प्रतिष्ठा वे
अपने ही
मापदंड से
देते हैं। अगर
तुम उनका
मापदंड पूरा
करो, तो
इज्जत और
प्रतिष्ठा
देते हैं। इसी
आधार पर तो उन
सबने
तुम्हारी
गर्दन को जकड़
लिया है। हाथों
में जंजीरें
डाल दी हैं।
प्रतिष्ठा
चाहते हो, तो सौदा साफ
है। तुम्हें
समाज के
अनुसार चलना होगा।
लोग जैसा कहते
हैं वैसा ही
मानना होगा।
इस बदले में
वे तुम्हें आदर
देंगे। अगर
तुमने उनके
नियम तोड़े, स्वभावतः
तुम्हें
अनादर
मिलेगा।
वही है
जहर--अनादर का, अप्रतिष्ठा
का, अपमान
का। उसे तुम
पीने को राजी
हो, तो
तुम्हारी
आंखें सदा ही
मेघों की
भांति बरसती
रहेंगी। और
तुम्हारे
आंसू कहीं भी गिरें, परमात्मा
के चरणों में
पहुंच
जाएंगे।
भय
तुम्हें उठ
रहा है, तुम्हारे
ही भीतर। यहां
तो एक वातावरण
है। यहां तो
और भी पागल
हैं, तुम
अकेले थोड़े
ही। यहां तो
तुमसे बड़े
पागल हैं।
यहां तो हालत
ऐसी उलटी है
कि जिसको न भी
आंसू आते हों,
वह भी लाने
की कोशिश कर
सकता है।
क्योंकि यहां
आंसू आने से
प्रतिष्ठा
मिल सकती है।
यहां तो जिसको
नाच न भी आता हो,
वह भी नाच
सकता है।
जिसके भीतर
उमंग न भी
उठती हो, वह
भी दिखला सकता
है कि बड़ी
उमंग उठ रही
है। क्योंकि
यहां तो उमंग
उठने से
प्रतिष्ठा
मिलती है।
यहां तो
पागलपन और
प्रतिष्ठा
में विरोध
नहीं है। यहां
तो पागलपन
प्रतिष्ठा का
कारण बन सकता
है।
घर
जाकर हालत
उलटी होगी।
पागलपन और
प्रतिष्ठा, दोनों के
बीच चुनाव
करना होगा।
इतना ही मैं
तुमसे कह सकता
हूं कि अगर
तुम्हें रस
आया हो आंसुओं
में, तो
फिर फिक्र मत
करना। दो-चार
दिन की बात
है। लोग
दो-चार दिन
हंस लेते हैं।
हंस लेने, देना।
तुम भी उनकी
हंसी में
सम्मिलित हो
जाना। तुम भी
अपने पर हंस
लेना। दो-चार
दिन लोग कहते
हैं पागल, फिर
कौन बैठा रहता
है तुम्हारे
लिए! सोचने की लोगों
को फुर्सत
कहां है!
किसको समय रखा
है! कौन चिंता
करता है! फिर
लोग स्वीकार
कर लेते हैं
कि हो गये
पागल, बात
खतम हो गयी।
दो-चार दिन
में सब
व्यवस्था बैठ
जाती है।
पत्नी भी मान
लेती है कि अब
ठीक है, तुम्हारे
साथ ही जीना
है। बच्चे भी
मान लेते हैं
कि ठीक है।
दो-चार दिन की
ही हिम्मत, जीवनभर के
लिए
स्वतंत्रता
का मार्ग खोल
देती है। लेकिन
हर स्थान पर
कीमत तो
चुकानी ही
पड़ेगी।
पूर्ण
होकर रुदन भी
युग-गान बनता
है,
मधुरतम
गान बनता है।
जब
हृदय का एक
आंसू
सब
समर्पण-भाव
लेकर
नैन-सीपी
में उतर कर
अर्चना
का अर्ध्य
बनता,
एक
क्षण पाषाण भी
भगवान बनता है
पूर्ण
होकर रुदन भी
युग-गान बनता
है,
मधुरतम
गान बनता है।
तुम्हारी
आंख से जिस
क्षण आंसू बहे, अगर समर्पण
का हो, गीत
का हो, अर्चना
का हो, प्रभु
के चरणों में चढ़ाने के
लिए हो, तो
उस आंसू के
क्षण में ही, अगर तुम
पत्थर की
प्रतिमा के
सामने भी बैठे
हो--एक क्षण
पाषाण भी
भगवान बनता
है। तो उस
आंसू के बीच, उतर आने से
आंख में, सामने
रखा हुआ पाषाण
भी भगवान बनता
है। तुम्हारे
आंसू में बड़ा
बल है। अगर
तुमने बिना रोये
पाषाण की
मूर्ति को
देखा, तो
पाषाण की
मूर्ति ही
रहेगी। तब
तुमने तर्क से
देखा, बुद्धि
से देखा, विचार
से देखा। रो
कर देखा, आंख
को गीली करके
देखा, तब
तुमने हृदय से
देखा; आर्द्रता
से देखा, भावना
से देखा। उस
आंसू-भरी आंख
को पत्थर भी पत्थर
नहीं मालूम
होता। उसमें
प्राणों की
प्रतिष्ठा हो
जाती है।
आंसू
से रहित आंख
पथरीली है।
आंसू से रहित
आंख पाषाण है।
पाषाण से
पाषाण ही दिख
सकता है। आंख
में जब आंसू
होते हैं, तभी आंख
जीवंत होती
है। जब गीली
होती है, तभी
रसभरी होती
है। जब गीली
होती है, तभी
आंख में काव्य
होता है, कविता
होती है। जब
गीली होती है,
तभी आंख के
तारों पर कोई
संगीत छिड़ता
है। उस गीली
आंख से संसार
को देखो, संसार
न दिखायी
पड़ेगा। पाषाण
भगवान बनता
है। संसार
भगवान बनता
है। तुम्हारी
आंख की ही बात
है। सारी बात
आंख की है।
आंसू-भरी आंख,
आत्मा-भरी
आंख है। लेकिन
ये आंसू आनंद
के हों, अहोभाव
के हों। ये
शिकायत में न गिरें, धन्यवाद
के हों; आभार
के हों। उसकी
अनुकंपा के
लिए, गहन
कृतज्ञता के
हों।
और बात
तुम्हारे ही
हाथ में है।
इसे जितनी बार
दुहराया जाए
उतना ही कम
है। इस संबंध
में अतिशयोक्ति
नहीं हो सकती।
इस संबंध में
पुनरुक्ति
नहीं हो सकती, कि तुम अपने
मालिक हो। तुम
जैसे हो अभी, ऐसा होना
तुमने चुना
है। फिर दुखी
होना व्यर्थ
है। तुमने दुख
को ही चुना
है। तुमने गलत
को ही चुना
है। अगर
तुम्हारी संवेदना
मर गयी है, अगर
तुम्हारी
भावना मर गयी
है, अगर
तुम्हारी
खोपड़ी में
सिर्फ कुछ
क्षुद्र विचार
ही रह गये हैं
और जीवन कहीं
भी किसी और तरंग
से आंदोलित
नहीं होता है,
तो ऐसा होना
ही तुमने चुना
है। किसी को
दोष मत देना।
मेरे
पास अगर तुम आ
गये हो, तो
इतनी-सी बात
भी सीख लो तो
बहुत है कि
जैसे तुम हो, यह तुम्हारा
निर्णय है।
अन्यथा होना
है, बस
तुम्हारे
निर्णय को ही
बदलने की बात
है। कुछ और
नहीं बदलना।
यह मत सोचना
कि सारी
दुनिया को
बदलेंगे। जो
लोग दुनिया को
बदलने निकलते
हैं, वे वे
ही लोग हैं जो
स्वयं को
बदलने से बचना
चाहते हैं।
चालबाजी है।
खुद बदलने में
घबड़ाते
हैं। खुद को
बदलने में
कठिनाई मालूम
होती है, तो
दुनिया को
बदलने के सपने
देखते हैं।
राजनेता हैं,
समाजनेता हैं, इसी
तरह के
धोखेबाज, आत्म-प्रवंचक
हैं। एक ही
बदलाहट संभव
है और वह
तुम्हारी
बदलाहट है। और
तुम्हारे
अतिरिक्त
वहां कोई भी
मालिक नहीं
है। तुम्हीं
मालिक हो। इसी
को महावीर
कहते हैं
व्यक्ति की
परम स्वतंत्रता
और परम
दायित्व।
शुभ
हैं, तुम्हारे
आंसू।
संभालना।
आंखों ने गीला
होना जाना है,
अब सूखे
मरुस्थल मत
बनाना आंखों
में। अब मरूद्यान
उठा है, जगा
है, तो
संभालना।
चांद
निकला तो
अंधेरा भी
मुस्कुराने
लगा
हंसा
जो फूल तो
कांटों पे नशा
छाने लगा
वह
प्यार का ही
था जादू तो यह
मिट्टी का
सितार
न
कोई शब्द हुआ
और गुनगुनाने
लगा
अगर
आंसू उतरे
हैं--कांटों
पे नशा छाने
लगा। अगर इस
नशे में
तुम्हें आनंद
आ रहा हो, रस
निमग्नता आ
रही हो, तुम
डूब रहे हो, तो इस रस को
बचाना, और
चाहे कुछ भी
छोड़ना पड़े।
क्योंकि
अंततः यही रस
तुम्हें
परमात्मा से जोड़ेगा।
इस रस के बिना
और कोई सेतु
नहीं है
मनुष्य और परमात्मा
के बीच। यही
रस, यही
आंसू सेतु
बनेंगे। यही
आंसू धागा
बनेंगे।
तुम्हारी सुई
धागा पिरोयी
हो जाएगी। हृदयपूर्वक
रोना। सब
लोक-लाज छोड़कर
रोना। सब भय, शंकाएं
छोड़कर रोना।
जब रोओ तो बस
आंख ही हो जाना।
और आंख से
आंसू ही नहीं बहें, तुम्हीं
बहना।
चांद
निकला तो
अंधेरा भी
मुस्कुराने
लगा
और एक
बार तुम्हारे
भीतर चांद
निकल आए, एक
बार तुम्हारे
भीतर अहोभाव
की पहली झलक, प्रतीति आ
जाए।
चांद
निकला तो
अंधेरा भी
मुस्कुराने
लगा
तब तुम
पाओगे कि दुख
भी सुख में
रूपांतरित हो जाता
है, अंधेरा
प्रकाश बन
जाता है।
मृत्यु जीवन
बन जाती है।
शत्रु मित्र
हो जाते हैं।
हंसा
जो फूल तो
कांटों पे नशा
छाने लगा
और एक
बार तुम्हारे
भीतर का फूल
हंसने लगे, तो तुम्हारे
भीतर के
कांटों तक पर
नशा छाने
लगेगा।
यह बड़ी
गहरी कीमिया
की बात है। जो
व्यक्ति आंसुओं
से भर जाता
है--आह्लाद के, आनंद के, उसके
भीतर जो
कल्प-कांटे थे,
वे भी नरम
होने लगते
हैं। उसका
क्रोध नरम हो
जाएगा।
रोनेवाला
आदमी क्रोध
करने में
धीरे-धीरे
असमर्थ हो
जाएगा।
कांटों पर नशा
छाने
लगा। उसकी
घृणा समाप्त
होने लगेगी।
जिसने रोना
जान लिया, वह
किसी को घृणा
न कर सकेगा।
जिसने रोना
जान लिया, उसके
संदेह गिरने
लगेंगे। उसकी
गीली आंखें उसे
श्रद्धा की
तरफ ले जाने
लगेंगी।
कांटों
पे नशा छाने
लगा।
एक
सूत्र भी
तुम्हारे हाथ
में आ जाए
जीवन को बदलने
का, तो सारा
जीवन
रूपांतरित
होने लगता है।
हंसा
जो फूल तो
कांटों पे नशा
छाने लगा
वह
प्यार का ही
था जादू तो यह
मिट्टी का
सितार
न
कोई शब्द हुआ
और गुनगुनाने
लगा
मेरे
पास तुम हो, इस घड़ी को
प्रेम की घड़ी
अगर बनाया, अगर मेरे
प्यार को अपने
भीतर
प्रविष्ट
होने दिया, और अगर अपने
प्यार को मेरी
तरफ बहने दिया,
तो सितार छिड़ जाएगा,
तो राग बजने
लगेगा। शब्द
भी न होगा--न
कोई शब्द हुआ
और गुनगुनाने
लगा--और हृदय
गुनगुनाने
लगेगा। मौन
संगीत, नीरव
संगीत, शून्य
संगीत बजने
लगेगा। पर हो
रहा है सब
तुम्हारे भीतर।
मेरे
पास आकर अपने
भीतर की
थोड़ी-सी झलक
ले लो, फिर
उसे सम्हाले
हुए घर जाना।
फिर उसे
सम्हाले हुए
अपनी दुनिया
में वापस
लौटना और तुम
पाओगे वहां भी
थोड़ा भी
सम्हालने से सम्हला
रहता है।
स्वभावतः
यहां से
ज्यादा वहां
सम्हालना
होगा। लेकिन
बात सम्हालने
की ही है। यह
मत सोचना कि
मैं कुछ कर
रहा हूं। तुम
कुछ होने दे
रहे हो। और
तुम अगर होने
दोगे, तो
तुम जहां हो
वहीं होता
रहेगा। फिर
प्रेम का
संबंध कोई
स्थान का
संबंध नहीं।
तुम मेरे से दस
फीट दूर बैठे
हो, कि
हजार फीट, कि
हजार मील, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। प्रेम
कोई फासला जानता
नहीं। और घृणा
निकटता नहीं
जानती। जिस आदमी
को तुमसे घृणा
है, वह
तुम्हारे पास
भी बैठा रहे, शरीर से
शरीर भी लगा
हो, तो भी
कहां पास! और
जिससे
तुम्हें
प्रेम है, वह
सात समंदर पार
हो, तो भी
कहां दूर!
प्रेम दूरी
नहीं जानता, घृणा निकटता
नहीं जानती।
तो अगर
तुमने मेरे और
तुम्हारे बीच
प्रेम की धारा
को जरा बहने
दिया, तो
फिर तुम कहीं
भी रहो, आंख
बंद करते ही
तुम मेरी
मौजूदगी में
हो जाओगे। आंख
बंद करते ही
आंखें फिर
पुरनम होने
लगेंगी। फिर
गीली होने
लगेंगी। आंख
बंद करते ही
फिर वीणा बजने
लगेगी।
हजारों
लोग सारी
दुनिया के
कोने-कोने से
आ रहे हैं।
उनकी तकलीफ
तुम समझते हो!
तुम तो पास हो
बहुत--कोई बड़ौदा
में है, कोई
बंबई में है, कोई बहुत
दूर हुआ
दिल्ली में
है--लेकिन दूर,
बड़ी दूर से
लोग आ रहे हैं,
उनके साथ
क्या घट रहा
है? दो
महीने, तीन
महीने रहने के
बाद उन्हें
वापस लौट जाना
पड़ता है, लेकिन
वे वापस कभी
नहीं लौटते।
संबंध बन गया,
फिर वे जहां
होते हैं वहीं
से जरा आंख
बंद करने, स्वयं
को थिर करने, शांत करने
की बात है कि
जैसे रेडियो
पर तुम कोई भी
स्टेशन पकड़
लेते
हो--जरा-सा सुई
को घुमाने की
बात है, ठीक
जगह लाने की
बात है; सुई
ठीक जगह आ जाती,
तत्क्षण
दूरी समाप्त
हो जाती है।
तो लंदन हो, कि टोकियो
हो, कि
वाशिंगटन हो,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
ऐसे ही हृदय
का भी वाद्य है।
अगर तुमने ठीक
मेरे पास
बैठकर इतना भी
पहला पाठ सीख
लिया कि कैसे
तुम्हारे
हृदय की सुई मेरी
तरफ उन्मुख हो
जाए, तुम
कैसे मेरी तरफ
उन्मुख हो जाओ,
बस फिर तुम
जहां भी आंख
बंद कर लोगे, थोड़ा अपने
को सम्हालकर
शांत कर लोगे,
थोड़ी
तरंगें मन की
बैठ जाने दोगे,
थोड़ी मेरी
याद करोगे, अचानक पाओगे,
दूरी गयी।
दूरी समाप्त
हुई। तुम ऐसे
ही मुझे पा
लोगे जैसे तुम
मुझे यहां
पाये हुए हो।
लेकिन सारी
बात तुम पर निर्भर
है। मालिक तुम
हो।
दूसरा
प्रश्न:
आपके
पास संन्यास
लेने के लिए
आया हूं, लेकिन कल ही
घर से पत्र
आया है कि अगर
मैं गैरिक-वस्त्र
पहनूंगा तो
मेरे
माता-पिता
रस्सी ले लेंगे।
मेरे
माता-पिता
ग्रामीण हैं
और हिंदी भी
नहीं जानते, उन्हें
समझाना कठिन
है । कृपया बतायें
कि मैं क्या
करूं?
माता-पिता
गांधीवादी
मालूम होते
हैं, रस्सी ले
लेंगे, फांसी
लगा लेंगे!
निश्चित
ही गांधीवादी
लोगों से बड़ी
झंझट है।
हिंसक कहता है, तुम्हें मार
डालेंगे। गांधीवादी
कहता है, हम
मर जाएंगे।
मगर दोनों की
आकांक्षा एक
ही है कि
तुम्हें हम
स्वतंत्र न
होने देंगे, जैसा हम
चाहेंगे वैसा
करवा कर
रहेंगे। तो जो
कहता है, हम
तुम्हें मार
डालेंगे, उससे
तो बचने का
उपाय भी है।
लेकिन जो कहता
है, हम मर
जाएंगे, उससे
कैसे बचें!
बड़ी कठिनाई
है। लेकिन कुछ
बातें खयाल
में लेनी
चाहिए।
पहली
बात, तुम
पृथ्वी पर
पहली दफे नहीं
हो। और
तुम्हारे
माता-पिता
पहले माता-पिता
नहीं हैं। अब
तक किसी
माता-पिता ने,
पूरे
मनुष्य-जाति
के इतिहास में,
किसी के
संन्यास लेने
पर रस्सी नहीं
ली। कहते सभी
थे। कहा सभी
ने। बुद्ध के
पिता ने भी।
मगर रस्सी
किसी ने नहीं
ली। कोई
मां-बाप आज तक
मरा नहीं इस
कारण कि बेटे
ने संन्यास ले
लिया। थोड़ा
सोचो तो, बेटे
के मरने पर
नहीं मरते
मां-बाप, संन्यास
लेने पर मर
जाएंगे! गांधीवादी
धमकी है, घबराने
की कोई जरूरत
नहीं। दो कौड़ी
की है। इसका
कोई भी मूल्य
नहीं है। कोई
कभी किसके लिए
मरता है!
एक
युवक एक सूफी
फकीर के पास
जाता था। रस
में डूबने
लगा। मस्ती
भरने लगी। भाव
उठने लगा कि
हो जाए वह भी
फकीर। पर उसने
कहा, मैं हो
नहीं सकता हूं,
मेरी पत्नी
मर जाएगी!
मेरे बेटों का
क्या होगा? मेरे
मां-बाप वृद्ध
हैं, वे जी
न सकेंगे, एक
दिन। कई लोगों
की हत्या मेरे
सिर पड़ जाएगी,
आप क्या
कहते हैं!
उस
फकीर ने कहा, एक काम करो।
आठ-दस दिन यह
मैं तुम्हें
श्वास की
साधना देता
हूं, उसे
कर लो। उसने
कहा, इससे
क्या होगा? उसने कहा कि
फिर दसवें दिन
तुम सुबह ही
सांस साधकर
पड़ जाना। मर
गये। फिर मैं आऊंगा, फिर
सारा दृश्य
अपन समझ लेंगे
कि तुम्हारे
मरने से
कौन-कौन मरता
है। उसने कहा,
यह बात तो
ठीक है!
दसवें
दिन...दस दिन
उसने अभ्यास
किया सांस को
साधने का, फिर दसवें
दिन सांस को
रोककर पड़ रहा।
रात से ही
उसने कह दिया
था कि हृदय
में बड़ी धड़कन
हो रही है, घबड़ाहट
हो रही है, ऐसा-वैसा,
तो घर के
लोग तैयार ही
थे, कि
मरता है, क्या
होता है! सुबह
वह मर ही गया।
छाती पीटना, रोना-चिल्लाना
शुरू हो गया।
वह फकीर आया।
बंधा हुआ सब
षडयंत्र था।
उस फकीर ने
आकर कहा, क्यों
रोते-चिल्लाते
हो? उन्होंने
कहा, यह
बेटा मर गया, आप तो
महापुरुष हैं,
चमत्कार
करें। आप तो
कुछ भी कर
सकते हैं।
आपके आशीष से
क्या नहीं हो
सकता! उसने
कहा मैं
करूंगा, लेकिन
इसकी जगह मरने
को कौन तैयार
है? क्योंकि
यमदूत खड़े हैं,
वे कहते हैं
हम किसी को तो
ले ही जाएंगे।
बिना...खाली
हाथ नहीं जा
सकते। कोई और
जाने को राजी
हो तो चलो हम
किसी और को ले
जाएंगे। इतना
मैं उन्हें
समझा-बुझा
सकता हूं।
पिता ने कहा
कि मेरा मरना
तो मुश्किल है,
और भी बेटे
हैं। उनकी भी
मुझे फिक्र
करनी है, कोई
यह ही तो एक
बेटा नहीं है।
मां ने कहा कि
मैं मर जाऊंगी
तो मेरे पति
का क्या होगा?
बुढ़ापे में
मैं ही तो
इनकी सेवा कर
रही हूं। ऐसा
एक-एक इनकार
करता चला गया।
पत्नी जो खूब
छाती पीट-पीटकर
रो रही थी और
कहती थी मैं
मर जाऊंगी, जब यह सवाल
उठा, तो
उसने कहा अब छोड़ो भी, यह तो मर ही
गये, हमको छोड़ो। अब
यह तो मर गये, हम किसी तरह
चला लेंगे।
तो
फकीर ने कहा, बेटा! अब उठ, अब क्या कर
रहा है? अब
पड़ा-पड़ा क्या
सोच रहा है? वह आदमी उठा
और उसने कहा
कि ठीक, अब
यह तो मर ही
गये उसने कहा,
और ये लोग
तो चला ही
लेंगे, मैं
आया। आपके
पीछे आता हूं।
किसी
ने कभी रस्सी
ली नहीं। इससे
कुछ घबड़ाने
की जरूरत नहीं
है। इससे कुछ
परेशान होने
की जरूरत नहीं
है। और इस तरह
की धमकियों से
दब जाना बहुत
खतरनाक है। इस
तरह की
धमकियों से एक
बार दब गये कि
सदा के लिए दब
गये। तो अगर
तुम गांधीवादी
हो--तुम भी, क्योंकि
उन्हीं
मां-बाप के
बेटे हो--तो
रास्ता यह है
कि तुम कह दो, हम भी रस्सी
ले लेंगे अगर गेरुवा न
पहनने दिया।
और क्या
करोगे! होने
दो रस्साकसी!
अब और तो मैं
सलाह क्या दे
सकता हूं! लिख
दो पत्र कि
फौरन तार से
सूचना भेजें
संन्यास लेने
की आज्ञा, नहीं
तो रस्सी ले
लूंगा।
अगर
तुम संन्यास
लेना ही चाहते
हो, तो फिर
तुम्हें कोई
नहीं रोक
सकता। तुम न
लेना चाहते
होओ, तो यह
तरकीब काफी है
तुम्हें
रोकने को।
लेकिन ध्यान
रखना, मां-बाप
ने नहीं रोका
तुम्हें, तुम
खुद रुके। यह
भी तुम खयाल
रखना। अगर तुम
रुकते हो, तो
तुम खुद रुके।
तुम बेईमान हो,
यह तो
मां-बाप का
बहाना ले
लिया। यह तो
तुमने एक
तरकीब खोज ली
कि क्या करें,
मां-बाप
मरने को तैयार
हैं। इसलिए
रुक रहे हैं।
लेकिन कल
मां-बाप
मरेंगे ही।
मरने से कौन
कब बचा है! जो
होना ही है, वह होगा ही।
और अगर
तुम्हारे
संन्यास से ही
मरते हों तो
कम से कम एक तो
उनके खाते में
बात लिखी
रहेगी कि
धार्मिक
व्यक्ति हैं,
संन्यास के
कारण मरे।
ऐसा
कभी हुआ नहीं
है। होता नहीं
है। मौत की धमकियां
देनेवाले मौत
का भी उपयोग
करते हैं जीवन
के उपयोग के
लिए ही। जो
तुम्हारे
संन्यास से
घबड़ा रहे हैं, वे अपनी मौत
से न घबड़ायेंगे।
थोड़ा सोचो तो!
तुम कर क्या
रहे हो? सिर्फ
गैरिक-वस्त्र
पहन रहे हो।
घर में रहोगे,
घर का काम
करोगे, शायद
पहले से
ज्यादा बेहतर
करोगे। शायद
मां-बाप की
सेवा भी पहले
से ज्यादा
बेहतर करोगे।
दो-चार-आठ दिन
में वे समझ
जाएंगे कि
संन्यास ने
तुम्हें बिगाड़ा
नहीं, बनाया।
और मेरा
संन्यास वैसा
तो संन्यास
नहीं है कि
तुम घर छोड़कर
भाग जाओ; मां-बाप
बूढ़े हैं
उन्हें छोड़कर
भाग जाओ, पत्नी
को छोड़कर भाग
जाओ; बच्चों
को छोड़कर भाग
जाओ, मैं
कोई भगोड़ापन
तो तुम्हें सिखा
नहीं रहा हूं।
उन्हें
शायद नासमझी
होगी। उनको
शायद अंदाज भी
न होगा।
संन्यास का
मतलब वे समझते
होंगे पुराना
संन्यास। तो
तुम जब घर
पहुंचोगे, समझा लेना।
और मैं मानता
हूं गैर पढ़े-लिखे
आदमियों को
समझा लेना सदा
आसान है। क्योंकि
ज्यादा
हार्दिक होते
हैं। इसीलिए तो
उन्होंने
धमकी दी
बेचारों ने।
नहीं तो तर्क
देते कि
संन्यास में
कोई लाभ नहीं
है, और सब
पक्ष-विपक्ष
लिखते। सीधी
बात कह दी कि मर
जाएंगे।
भावुक लोग
होंगे।
सीधे-साधे लोग
होंगे। सरल
लोग होंगे। डर
गये होंगे कि
बेटा कहीं छूट
न जाए। लेकिन
जब तुम घर लौट
जाओगे गैरिक-वस्त्रों
में, उनके
चरण छुओगे
और उनकी सेवा
में रत हो
जाओगे--जैसे
तुम कभी भी न
थे--क्योंकि
मैं कहता हूं,
जो संन्यास
तुम्हें
अपनों से तोड़
दे वह संन्यास
नहीं है!
संन्यास तो
वही है जो
तुम्हें दूसरों
से भी जोड़ दे, अपनों से तो
जोड़े ही!
संन्यास है
योग, जोड़। तोड़नेवाली
बात ही गलत
है।
तो
दो-चार दिन
में उनको भी
समझ में आ
जाएगा। गैर पढ़े-लिखे
हैं, जल्दी
समझ आ जाएगा। पढ़े-लिखे
होते, तो
महीनों लग
जाते।
क्योंकि तर्क
उठाते, विवाद
करते, विचार
करते।
सीधे-साधे
ग्रामीण लोग
हैं, जल्दी
समझ में आ
जाएगा। तुम पर
निर्भर करेगा।
तुम्हारे
व्यवहार पर
निर्भर
करेगा। संन्यस्त
होकर अगर तुम
और भी प्यारे
हो गये--जैसे तुम
कभी भी न थे--तो
फिर कोई अड़चन
नहीं। वे
क्यों मरना
चाहेंगे! फिर
तो तुम
संन्यास छोड़ोगे
तो वे कहेंगे,
रस्सी ले
लेंगे, अब
संन्यास मत
छोड़ना।
इतने
लोगों ने
संन्यास लिया
है, सभी के
साथ कुछ न कुछ
ऐसे ही सवाल
उठते हैं। लेकिन
कमजोरी सदा
भीतर होती है।
कल एक
मित्र पूछते
थे कि अब आप गेरुवे
पर ही ज्यादा
जोर दे रहे
हैं, पहले आप
साधु...सफेद
वस्त्रों में
भी संन्यास दे
देते थे। तो
मैंने उनको
कहा, मेरे
गांव में, जहां
मैं पैदा
हुआ--पता नहीं,
दूसरे
गांवों में भी
ऐसा होता
होगा--जहां
मैं पैदा हुआ,
वहां जब मैं
छोटा था, तो
बच्चों में एक
पारिभाषिक
शब्द था। छोटे
बच्चे भी--और
छोटे बच्चे, हमसे भी
ज्यादा
छोटे--खेलने
में सम्मिलित
होना चाहते थे,
और मां-बाप
कहते हैं कि
जाओ, अपने
छोटे भाई को
भी ले जाओ, और
छोटी बहन को
भी ले जाओ, इनको
भी खेलने दो।
और वे सब खेल
खराब कर देते
हैं, क्योंकि
वे छोटी उम्र
के--न दौड़ सकते
हैं, न भाग
सकते हैं! तो
मेरे गांव में
उनके लिए एक पारिभाषिक
शब्द था, उन्हें
हम खेल में
सम्मिलित कर
लेते थे, उनको
कहते हैं--"दूध
की दोहनिया।'
बस इतना, खेलनेवाले समझ लेते
हैं कि यह
इसको दौड़ने दो,
भागने दो, मगर यह कोई
खेल का हिस्सा
नहीं है। "दूध
की दोहनिया।'
अभी
दूध-पीता है।
खेलने दो, कूदने
दो, वह
प्रसन्न होता
है बहुत। वह
समझता है लोग
उसके पीछे दौड़
रहे
हैं--कोई-कोई
थोड़ा दौड़ भी
देता है--लेकिन
न उसको कोई पकड़ता
है, न उसको
कोई परेशान
करता है। वह
ऐसे ही
उछल-कूद करता
रहता है। दूध
की दोहनिया
है।
तो
मैंने उनसे
कहा कि सफेद
वस्त्रों में
संन्यास देता
था, वह सब
"दूध की दोहनिया'
हैं।
संन्यास भी
लेना चाहते
हैं, हिम्मत
भी नहीं है
गैरिक-वस्त्रों
की, तो चलो!
खेलने दो, दौड़ने
दो। कभी तो
समझ बढ़ेगी,
तब गैरिक
में आ जाएंगे।
चलो लेना तो
चाहते हैं, आधे-आधे
हैं। अब उनको
मैं धीरे-धीरे
कह रहा हूं कि
अब बहुत हो
गया, "दूध
की दोहनिया'
सदा थोड़े ही
बने रहोगे! अब बढ़ो, अब
थोड़ी उम्र
पाओ। तो माला,
चलो आधा
सही। माला से
थोड़े राजी हो
गये, फिर धीरे-धीरे
गैरिक
वस्त्रों से
भी राजी हो
जाएंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
को एक रेलवे
क्रासिंग पर
नौकरी मिल
गयी। पहले ही
दिन आधा
दरवाजा तो
उसने खोल दिया
क्रासिंग का
और आधा बंद
रखा। एक कारवाला
आदमी रुका, उसने कहा कि
जिंदगी हो गयी
मुझे यहां से
गुजरते, मगर
या तो दरवाजा बंद
होता है, या
खुला होता है;
यह आधा क्या
मामला है! नसरुद्दीन
ने कहा, मुझे
पूरा भरोसा
नहीं है कि
ट्रेन आयेगी;
इसलिए आधा
खोल रखा है।
जिनको
पूरा भरोसा
नहीं है अपने
पर, उनको
मैंने कहा चलो,
सफेद
वस्त्रों में
रहो, "दूध
की दोहनिया!'
आधा तो खोला,
देखेंगे।
आधा आगे देख
लेंगे। लेकिन कमजोरियां
भीतर हैं। अब
लोग छोटी-छोटी
अजीब-अजीब कमजोरियां
लाते हैं। यह
तो ठीक है कि
तुम्हारे
पिता ने तुम्हें
अच्छा बहाना
दिया कि रस्सी
ले लेंगे। एक
सज्जन आये, वे कहने लगे
कि और तो सब
ठीक है, गैरिक-वस्त्र
भी ले सकते
हैं, लेकिन
सर्दी में क्या
होगा! कोट
वगैरह सब
महंगे बनाकर
रखे हैं, उनका
क्या होगा!
तुम सोच ही
नहीं सकते
आदमी कैसे
बहाने खोजता
है। तो सर्दी
में तो पहन
सकते हैं ऊनी
वस्त्र दूसरे
रंगों के? जैसे
कुछ वस्त्रों
के पहनने से
कुछ होना-जाना
है! तुम बात ही
चूक गये, तुम
इशारा ही न
समझे। यह तो बात
समर्पण की थी।
सर्दी और
गर्मी का यहां
कोई उपाय न
था। समर्पण
यानी
बारहमासी।
इसमें कोई एक
ऋतु में यह
पहन लेंगे, दूसरी ऋतु
में वैसा पहन
लेंगे।
लोग
संन्यास ले
जाते हैं, माला मैं
उनके गले में
डालता नहीं कि
वे जल्दी से
उसे अंदर छिपा
लेते हैं। वह
है ही इसीलिए कि
लोग तुम्हें
पागल समझें।
कि लोग हंसें,
कि लोग मौका
दें कि अच्छा,
तो तुम भी
गये! उसे तुम
जल्दी से अंदर
छिपा रहे हो!
तो माला रही, न रही, बराबर
हो गया।
छोटी-छोटी
बातें लोग
खोजते हैं।
लेकिन उन सब
बातों के पीछे
उनका खुद का
ही भय है।
छिपा हुआ है।
अपने भय को पहचान
लो, फिर
तुम्हें कोई
रोकनेवाला
नहीं है।
और
किसी के कारण
रुकना भी मत।
अगर रुकते हो, तो अपने भय
के कारण रुकना,
अन्यथा तुम
दूसरे पर
नाराज रहोगे।
तुम समझोगे कि
पिता ने, मां
ने रोक दिया।
यह गलत बात
होगी। यह उनका
भाव, उन्होंने
प्रगट कर दिया
कि वे रस्सी
ले लेंगे, अगर
उनको लेनी
होगी तो ले
लेंगे। अब जो
इतनी-सी बात
पर रस्सी लेते
हैं, वे
ज्यादा दिन
बिना रस्सी
लिए रह भी
नहीं सकते।
कोई और बहाने
लेंगे। तुम
उन्हें अच्छी
रस्सी का
इंतजाम कर
देना, और
क्या करोगे!
लेकिन
कोई कभी रस्सी
लेता नहीं। दो
दिन बाद सब
ठीक हो जाता
है। घबड़ा गये
होंगे, पुरानी
धारणा है। और
पुरानी धारणा
खतरनाक थी।
लाखों लोग
अपने घरों को
छोड़कर चले
गये। इसके
कारण धर्म को
जितना नुकसान
पहुंचा, और
किसी बात से
नहीं पहुंचा।
धर्म शब्द ही घबड़ानेवाला
हो गया। धर्म
में कोई
उत्सुक हुआ, तो घर के लोग
चिंतित हुए कि
अब कुछ उपद्रव
होगा। लाखों
लोगों ने घर
छोड़ दिया। उनके
घरों पर क्या
गुजरी, उनके
पत्नी-बच्चे
भूखे मरे, उनके
बाप, मां, बुढ़ापे में
कैसे जीये,
किसी ने कोई
इतिहास न
लिखा! लिखा
जाना चाहिए। गहन
दुख उससे पैदा
हुआ होगा।
लेकिन सदियों
से ऐसा चला
है। उसके कारण
एक भय समा
गया। लोग
भीतर-भीतर
डरने लगे। तो
ऊपर-ऊपर पूजा
भी करते हैं
संन्यासी की,
भीतर-भीतर
डरते हैं।
दूसरे का बेटा
संन्यासी हो
जाए, तो
लोग सम्मान
करने आते हैं।
खुद का होने
लगे, तो
रस्सी लेते
हैं। यह कैसी
दुविधा है!
महावीर भी
किसी के बेटे
थे और बुद्ध
भी किसी के
बेटे थे। जो
पिता
तुम्हारे
संन्यास लेने
से डर रहा है, वह पिता भी
बुद्ध के
चरणों में सिर
झुका आयेगा और
कभी न सोचेगा
कि बुद्ध के
पिता पर क्या
गुजरी! यही
गुजरी। इससे
बहुत भयंकर
गुजरी।
मैं तो
संन्यास को
ऐसा रूप दे
रहा हूं कि
उससे किसी को
पीड़ा न हो।
क्योंकि जिस
संन्यास से पीड़ा
हो वह भी क्या
लेने योग्य
है! जिससे
कहीं दुख पैदा
हो, उससे
तुम्हें सुख
पैदा न हो
सकेगा। जिसके
कारण तुम
दूसरों को दुख
दो, उसके
कारण तुम्हें
सुख पैदा कैसे
हो सकता है?
तो मैं
तो कहूंगा:
तुम संन्यस्त
बनो, घर जाओ, जैसी तुमने
सेवा कभी न की
थी वैसी
मां-बाप की
सेवा करो, क्योंकि
फिर संन्यासी
का दायित्व भी
तुम्हारे ऊपर
है। दो-चार
दिन वे नाराज
होंगे, चीखेंगे-चिल्लायेंगे,
लेकिन तुम
अपने व्यवहार
से सिद्ध कर
दो कि वे बिलकुल
गलत
चीख-चिल्ला
रहे हैं। बस, तुम्हारा
व्यवहार ही
पर्याप्त
प्रमाण होगा।
और यह मत सोचो
कि वे पढ़े-लिखे
नहीं हैं, हिंदी
भी नहीं समझते
हैं। न समझें,
प्रेम तो
समझेंगे! इतना
गैर पढ़ा-लिखा
कौन है, जो
प्रेम न समझे?
ढाई आखर
प्रेम के काफी
हैं। तुम उनके
पैर दबाओगे,
यह तो
समझेंगे! और
वे कुछ भी
कहें, तुम
शांति से सुनोगे,
यह तो
समझेंगे! और
एक बात भर
तुम्हारे
व्यवहार से
जाहिर हो जानी
चाहिए कि
तुमने जो
संन्यास लिया
है, वह
संसार-विरोधी
नहीं है।
घर-विरोधी
नहीं है। हम
घर को मंदिर
के खिलाफ नहीं
लड़ा रहे
हैं। हमारी
चेष्टा है कि
घर मंदिर हो
जाए। तो कितनी
देर लगेगी
उनको समझाने
में? जल्दी
ही वे समझ
जाएंगे। और
अगर तुम्हारे
व्यवहार ने
उन्हें
प्रमाण दिया,
तो दुबारा
जब तुम आओगे, वे भी
संन्यास लेने
आ जाएंगे।
रस्सी मैं
उनको दूंगा।
उनको क्यों...।
माला यानी
रस्सी! फांसी है।
तो उनको
समझाना कि अगर
रस्सी ही लेनी
है, तो
माला ले लो।
जब मरने की ही
तैयारी हो गयी,
तो फिर
संन्यास में
ही मर जाओ।
संन्यास की
मृत्यु महाजीवन
का द्वार है।
मगर
ध्यान रखना, अपने हृदय
पर। तुम अगर
स्वयं भयभीत
हो और मां-बाप
का सिर्फ
बहाना खोज रहे
हो, तो फिर
अभी संन्यास
मत लेना। फिर
अभी आओ, ध्यान
करो, जाओ।
धीरे-धीरे रस
को गहन होने
दो। सदा अपने
ही हृदय के
ठीक से
निरीक्षण और निदान
के बाद कुछ
करना। दूसरे
के कारण
आंदोलित और
परेशान होने
की कोई भी
जरूरत नहीं
है।
रजकण
को बिना चूमे
कंचन है मिला
किसको?
रजकण
को बिना चूमे
कंचन है मिला
किसको?
कांटों
में बिना घूमे
मधुवन है मिला
किसको?
तू
देख के कुछ
मुश्किल
क्यों हार गया
हिम्मत,
देहरी
को बिना लांघे
आंगन है मिला
किसको?
थोड़ी
कठिनाइयां
स्वाभाविक
हैं। वे चुनौतियां
हैं। वे न
होतीं, तो
बुरा होता। वे
हैं, तो
अच्छा है।
उन्हीं
चुनौतियों से
पार होकर तो
जीवन उठता है।
राह पर जो
पत्थर पड़े हैं,
वे ही तो सीढ़ियां
बन जाते हैं।
पत्थरों
से घबड़ाओ
मत, सीढ़ियां बनाओ।
अच्छा है कि
मां-बाप ने एक
चुनौती दी। अब
इस चुनौती को
समझो। इस
चुनौती के
योग्य अपने को
बनाओ। इस
चुनौती को
स्वीकार करो।
एक मौका मिला।
एक संघर्ष
हुआ। इस
संघर्ष से
कैसे ऊपर जाओ,
इसका मार्ग
खोजो। इसका
कैसे
अतिक्रमण हो,
इसकी विधि
खोजो। इससे घबड़ाकर
बैठ मत जाओ।
इससे घबड़ाकर
डर मत जाओ।
अन्यथा तुम
सदा के लिए
मुर्दा रह जाओगे।
जीवन
चुनौतियों को
स्वीकार करने
से आगे बढ़ता
है। धन्यभागी
हैं वे
जिन्हें बहुत चुनौतियां
मिलीं।
क्योंकि
उन्हीं के
जीवन में
निखार आया।
रजकण
को बिना चूमे
कंचन है मिला
किसको?
कांटों
में बिना घूमे
मधुवन है मिला
किसको?
तू
देख के कुछ
मुश्किल
क्यों हार गया
हिम्मत,
देहरी
को बिना लांघे
आंगन है मिला
किसको?
तीसरा
प्रश्न:
मा
योग लक्ष्मी
ने कहा है कि
भगवान श्री ने
कुछ पुतलियां, कठपुतलियां बनायी हैं
खेल के लिए।
तो क्या हम
लोग भगवान के
हाथ की
कठपुतली भर
हैं?
हो
तो नहीं; हो
जाओ तो
तुम्हारा बड़ा
सौभाग्य!
कठपुतली
होना कुछ आसान
बात नहीं।
कठपुतली होना
इस संसार में
सबसे कठिन बात
है। वही तो
कृष्ण का पूरा
उपदेश है
अर्जुन को, कठपुतली हो
जा।
अगर
गीता को एक
शब्द में रखना
हो, तो इतना
ही कहा जा
सकता
है--कठपुतली
हो जा। तू सिर्फ
निमित्त
मात्र हो जा।
उपकरण मात्र।
करने दे उसे
जो कर रहा है।
खींचने दे उसे
धागे, तू
नाच। उसकी
मर्जी जैसा
नचाये! आंगन टेढ़ा हो, तो ठीक। ठीक
हो, तो ठीक,
न ठीक हो तो
ठीक। जैसी
उसकी मर्जी।
तू बीच में बाधा
मत डाल। शरणागति
का और अर्थ
क्या है? समर्पण
का और अर्थ
क्या है? समर्पण
का इतना ही
अर्थ है कि अब
मैं अपनी मर्जी
छोड़ता।
लक्ष्मी
ने ठीक ही कहा
है। लेकिन
होना आसान नहीं
है। आमतौर से
लोग सोचते हैं, कठपुतली
होने में क्या
रखा है, बिलकुल
आसान बात है।
सबसे कठिन बात
अहंकार का समर्पण
है! अपने को
हटाकर रख
देना! अपने
हृदय के मंदिर
में किसी और
को विराजमान
कर लेना! अपने
अतिरिक्त!
सिंहासन से
स्वयं उतर
जाना और किसी
और को बैठ
जाने देना
सिंहासन पर!
बहुत कठिन है,
इसीलिए तो
प्रेम कठिन
है। क्योंकि
प्रेम में हम
किसी को अपने
सिंहासन पर
विराजमान
करते हैं। फिर
प्रार्थना तो
और भी कठिन है।
क्योंकि
प्रेम में तो
हम आधा-अधूरा
विराजमान
करते हैं, प्रार्थना
में पूरा
विराजमान
करते हैं। प्रार्थना
में हम पूरे
मिट जाते हैं।
कठपुतली
हो जाओ, फिर
कुछ करने को
नहीं बचता।
आखिरी करना कर
लिया। कठिन से
कठिन बात जीत
ली। छू लिया गौरीशंकर
का शिखर। ऐसे
हो जाओ जैसे
नहीं हो। जहां
ले जाये प्रभु,
चलो। अपनी
मर्जी अलग हटा
लो। जैसे कोई
नदी में बहता
हो। देखा है, जिंदा आदमी
कभी-कभी डूब
जाता है, मुर्दा
कभी नहीं
डूबता।
मुर्दे को कभी
डूबते देखा, मुर्दा कुछ
जानता है, जो
जिंदा को पता
नहीं। कोई
तरकीब। वह
तरकीब यह है
कि मुर्दा "नहीं'
है। जिंदा
डूब जाता है, मुर्दा ऊपर
आ जाता है जल
पर। क्योंकि
मुर्दा अब है
ही नहीं, डूबे
कौन? डुबाओगे कैसे? जो
है ही नहीं, उसे डुबाओगे
कैसे?
वास्तविक
धर्म का जन्म, जब तुम
मुर्दे की
भांति हो जाते
हो। तुम कह देते
हो परमात्मा
को, अब मैं
अपनी तरफ से
नहीं चलता। डुबाये तू,
तो हम डूबने
को राजी। उबारे
तू, तो हम
उबरने को
राजी। जो तू करवाये, उस पर हमारी
कोई टिप्पणी
नहीं, कोई
टीका नहीं; कोई शिकायत
नहीं। हम तेरे
हाथ की
कठपुतली हैं।
जब तक नचाये, नाचेंगे; जब नाच बंद
कर देगा, तो
रुक जाएंगे।
खुशी
जिसने खोजी वह
धन लेके लौटा
हंसी
जिसने खोजी
चमन लेके
लौटा
मगर
प्यार को
खोजने जो चला
वह
न
तन लेके
लौटा, न मन लेके लौटा
लौटा
ही नहीं। डूब
ही गया। सब
खोकर लौटा।
अपने को भी
खोकर लौटा।
समर्पण प्रेम
की आखिरी ऊंचाई
है। वह प्रेम
का सार-निचोड़
है। समर्पण का
अर्थ है, मैं
नहीं, तू।
वह
न लेन-देन, हानि-लाभ
नहीं है
भिन्न
है अभिन्न, गुणा-भाग
नहीं है
क्या
दिया है, क्या
लिया है, यह
तनिक न सोच
प्यार
सिर्फ प्यार
है, हिसाब
नहीं है
लेकिन
जिस मित्र ने
पूछा है, उसे
थोड़ी अड़चन हुई
होगी।
कठपुतली!
कठपुतली तो हम
निंदा के स्वर
में उपयोग
करते हैं। जब
हम किसी आदमी
की निंदा करते
हैं, तो
कहते हैं, बस
कठपुतली है
वह। किसी के
हाथों की
कठपुतली। उसका
कोई अपना
निजत्व थोड़े
ही है। उसका
कोई अपना बल
थोड़े ही है।
कठपुतली शब्द
का तो हम उपयोग
करते हैं, जब
हम किसी को
अत्यंत दीन, दुर्बल, नपुंसक
कहना चाहते
हैं। बलशाली
को थोड़े ही हम
कठपुतली कहते
हैं। फिर
"निर्बल के बल
राम' का
क्या अर्थ है?
निर्बल के
बल राम! इसका
तो अर्थ इतना
ही हुआ कि जो
निर्बल होने
को राजी है, बस परमात्मा
उसी का है। जो
अपने को
मिटाने को राजी
है, वहीं
तो जगह खाली
होती है, परमात्मा
का प्रवेश
होता है। गुरु
के पास उसी परम
समर्पण के क, ख, ग का
शिक्षण है।
गुरजिएफ
का एक शिष्य
था--बेनेट।
उसने संस्मरण लिखा
है कि गुरजिएफ
ने मुझे कहा
कि जाकर दरवाजे
के पास बगीचे
में एक गङ्ढा
खोद। और जब तक
मैं न रोकूं, रुकना मत।
खोदते ही
जाना। दुपहर
हो गयी। बेनेट
खोदता रहा, खोदता रहा
पसीने से लथपथ।
सांझ हो गयी।
गुरजिएफ का
कोई पता नहीं।
सोचने लगा भूल
गया, या
किसी काम में
उलझ गया, अब
मैं बंद करूं
कि नहीं, अब
तो हाथ-पैर लड़खड़ाने
लगे। अब तो
कुदाली उठे ही
न। और तब
गुरजिएफ आया।
सूरज ढल रहा
था और उसने
कहा कि ठीक है,
अब इस गङ्ढे
को पूर दे।
स्वभावतः मन
में सवाल
उठेगा, यह
क्या मूढ़तापूर्ण
बात हुई! दिनभर
गङ्ढा खुदवाया, टूट गया
शरीर पूरा, टूट-टूट भर
गयी शरीर में
और अब कहते हो,
पूर दे।
लेकिन
बेनेट ने गङ्ढे
को पूरना शुरू
कर दिया। बड़ा
थका-मांदा है।
मिट्टी
उठा-उठाकर
भरना, जब
सूरज बिलकुल
ढलता था, तब
वह गङ्ढे
को पूर कर
निपट पाया; गुरजिएफ आया
और उसने कहा
कि ऐसा कर, वह
सामने जो
वृक्ष है, उसको
काटना है पूरे
चांद की रात
है, काटने
में लग जा। दिनभर
का थका हुआ, अब वृक्ष
काटना है! न
भोजन मिला, न विश्राम
मिला! और
बेनेट वृक्ष
को काटने चला।
वह वृक्ष पर
चढ़ा काट रहा
है, एक ऐसा
क्षण आया कि
हाथ से उसकी कुल्हाड़ी
गिर गयी। इतना
सुस्त हो गया
है। और ऐसे एक
वृक्ष की शाखा
का सहारा लेकर
नींद लग गयी।
बस में ही न
रहा।
गुरजिएफ
आया, उसने
नीचे से खड़े
होकर बेनेट को
सोये हुए देखा,
खुद चढ़ा, हिलाया, बेनेट
ने आंख खोली
और बेनेट ने
अपने
संस्मरणों
में लिखा है, ऐसी शुद्ध
आंख मैंने कभी
जानी ही न थी
कि मेरे पास
हो सकती है।
ऐसी निर्मल
आंख! आंख
खुलते ही सारा
जगत और मालूम
पड़ा। जैसे मैं
बिलकुल नया-नया
आया हूं, अभी-अभी
अवतरित हुआ
हूं। जैसे अभी
मेरा जन्म हुआ।
इतनी ताजगी, और ऐसा
निर्भार
चित्त!
पूछा
बाद में उसने
गुरजिएफ से कि
ऐसा कैसे हुआ, तो उसने कहा,
अगर तू एक
बार भी इनकार
करता, या
तर्क उठाता, तो यह घड़ी न
आती। जानता था,
यह बिलकुल
स्वाभाविक था,
दिनभर गङ्ढा
खोदने के बाद
फिर मिट्टी
भरने के लिए
कहना बिलकुल
व्यर्थ बात है,
कठोर बात है,
सारहीन है।
कोई भी पूछेगा,
इसका मतलब
क्या है? गङ्ढा किसलिए खुदवाया? गुरजिएफ ने
कहा इतना अगर
तू पूछ लेता, तो यह घड़ी न
आती। फिर तूने
गङ्ढा भी
भर दिया। फिर
तू बिलकुल
थका-मांदा था,
फिर भी तूने
इनकार न किया,
मैंने कहा
लकड़ी काट, तो
तूने यह न कहा,
यह अब न हो
सकेगा, कल
सुबह करूंगा।
यह तेरा जो
सहज समर्पण था,
यह तुझे उस
जगह ले गया; जहां तक
तेरी
सामर्थ्य थी
तूने किया, और जहां
तेरी समार्थ्य
समाप्त हो गयी,
वहीं तेरा
अहंकार भी
समाप्त हो
गया। वहीं तुझे
गहरी तंद्रा आ
गयी। ऐसी
तंद्रा समाधि
की पहली झलक
है। ऐसी
तंद्रा में
पहली दफा आदमी
को पता चलता
है कि समाधि जब
पूरी होगी तो
कैसी होगी। एक
बूंद टपकती है
अमृत की, सागर
का फिर हम
अनुमान लगा
सकते हैं।
तो मैं
तुमसे कहता
हूं: हो तो
नहीं कठपुतली, हो जाओ तो धन्यभागी
हो! जिसने
पूछा है, उसने
तो बेचैनी से
पूछा है। उसने
तो पूछा है, इसका क्या
मतलब? क्या
हम कठपुतली
हैं? हो
सको, तो
तुम्हारे
जीवन में ऐसा
द्वार खुल
सकता है, जिसे
तुम अहंकार के
कारण कभी भी न
खोल पाओगे। अहंकार
के हटते ही
खुलता है।
अहंकार ताले
की तरह पड़ा
है। अहंकार
गिरा कि ताला
गिरा। द्वार खुलता
है। तुमने
जितना अपने को
जाना है, उससे
तुम बहुत बड़े
हो। उससे तुम
बहुत ज्यादा
हो। तुम्हें
अपना कुछ भी
पता नहीं है
कि तुम कौन
हो। जिस छोटे
से टुकड़े को
तुमने समझ रखा
है यह मैं हूं,
वह तो कुछ
भी नहीं है।
वह तो एक लहर
है। सागर का तो
तुम्हें
स्मरण ही नहीं
रहा है। जब
तुम इस लहर की
पकड़ से छूट
जाओगे, तो
सागर में
उतरोगे।
समर्पण है
सागर में
उतरने का
सूत्र।
आखिरी
प्रश्न:
सभी
प्रश्न गिर
गये। उत्तर की
भूख नहीं, प्यास नहीं,
चाह नहीं।
तो फिर आगे
क्या करें? सुख-प्राप्ति,
महासुख-प्राप्ति
की एक झलक मिल
जाए तो आगे
क्या होता है?
आगे
के खयाल से मन
पैदा होता है।
आगे के विचार
से मन पैदा होता
है। वर्तमान
में जीने से
मन समाप्त हो
जाता है। आगे
का विचार उठते
ही मन फिर
निर्मित होने
लगता है। फिर
चित्त तना।
फिर चित्त की
यात्रा शुरू
हुई।
मत
पूछो आगे क्या
होता है! आगे
की चिंता भी
क्या! जो इस
घड़ी हो रहा है, उसे भोगो।
जो इस घड़ी मिल
रहा है, उसे
पीओ। जो इस
घड़ी तुम्हारे
पास खड़ा है, उसे मत
चूको। जो नदी
सामने बह रही
है, झुको, डूबो, आगे क्या
होता है! आगे
का खयाल आते
ही, जो
मौजूद है, उससे
आंख बंद हो
जाती है। और
चिंतन, चिंता,
विचार, कल्पना,
स्वप्न, चल
पड़े तुम फिर।
फिर चले दूर
सत्य से। फिर
छूटे वर्तमान
से। फिर टूटे
सत्ता से।
सत्ता से
टूटने का उपाय
है, आगे का
विचार।
अगर
थोड़ा-सा सुख
मिल रहा है, उसे भोगो।
तुम इस क्षण
अगर सुखी रहे,
तो अगला
क्षण इससे
ज्यादा सुखी
होगा, यह
निश्चित है।
क्योंकि तुम
सुखी होने की
कला को थोड़ा
और ज्यादा सीख
चुके होओगे।
अगर इस क्षण
तुम आनंदित हो,
तो अगला
क्षण ज्यादा
आनंदित होगा,
यह निश्चित
है। क्योंकि
अगला क्षण
आयेगा कहां से?
तुम्हारे
भीतर से ही जन्मेगा।
तुम्हारे
आनंद में ही
सराबोर जन्मेगा।
अगला क्षण भी
तुमसे ही
निकलेगा। अगर
यह फूल गुलाब
के पौधे पर
सुंदर है, तो
अगला फूल और
भी सुंदर
होगा। पौधा तब
तक और भी
अनुभवी हो
गया। और जी
लिया थोड़ी देर।
जीवन को और
समझ गया। जीवन
को और थोड़ा
परिचित हो
गया।
तुम्हारा
अगला क्षण
तुमसे
निकलेगा। तुम
अगर अभी दुखी
हो, अगला
क्षण और भी
ज्यादा दुखी
होगा। तुम अगर
अभी परेशान हो,
अगले क्षण
में परेशानी
और बढ़ जायेगी,
क्योंकि एक
क्षण की
परेशानी तुम
और जोड़ लोगे।
तुम्हारी परेशानी
का संग्रह बड़ा
होता जाएगा।
इस क्षण की
चिंता करो, बस उतना
काफी है। इस
क्षण के पार
मत जाओ। क्षण में
जीओ।
क्षण को जीओ।
क्षण से दूसरा
क्षण अपने-आप
निकलता है, तुम्हें
उसकी चिंता, उसका विचार,
उसका आयोजन
करने की कोई
जरूरत नहीं
है। और अगर
तुमने आयोजन
किया, तो
तुम यहां चूक
जाओगे। चूक से
निकलेगा अगला
क्षण, महाचूक होगी फिर।
अगले क्षण तुम
फिर और अगले
क्षण के लिए
सोचोगे, तुम
ठहरोगे
कहां? तुम
घर कहां
बनाओगे? आज
तुम कल के लिए
सोचोगे, कल
जब आयेगा तो
आज की भांति
आयेगा, फिर
तुम कल के लिए
सोचोगे। कल
कभी आया?
जिसे
तुम आज कह रहे
हो, यह भी तो
कल कल था।
इसके लिए तुम
कल सोच रहे थे,
आज यह आ गया
है, अब तुम
फिर आगे के
लिए सोच रहे
हो। यह तो
दृष्टि की बड़ी
गहरी भ्रांति
है। इससे जो
सामने होता है,
वह तो दिखता
ही नहीं और जो
नहीं होता है,
उसका हम
विचार करते
रहते हैं।
पूछा
है, सुख-प्राप्ति,
महासुख-प्राप्ति
की एक झलक मिल
जाए तो आगे
क्या होता है?
स्वभावतः
एक झलक के बाद
दूसरी झलक!
बड़ी झलक!! मगर
तुम कृपा करो,
उसका विचार
मत करो, अन्यथा
यही झलक चूक
जाएगी। तुम
महा झलक का
हिसाब करते
रहोगे, तुम
महा झलक का
सपना देखते
रहोगे, और
यहां बही जाती
जिंदगी, हाथ
से निकला जाता
समय। यह झलक चूकी, तो
आगे की झलक भी
उपलब्ध
होनेवाली
नहीं। इस झलक
को पी लो, आत्मसात
कर लो, पचा
जाओ। फिर और
बड़ी झलक होगी।
तुम
जितने योग्य
होते जाते हो, उतना ही
परमात्मा
तुम्हें देता
चला जाता है।
तुम्हारी
योग्यता से
ज्यादा
तुम्हें कभी नहीं
दिया जा सकता।
तुम्हारी
योग्यता से
ज्यादा दे
दिया जाए, तो
तुम झेल न
सकोगे।
तुम्हारे
पात्र से
ज्यादा सागर
तुममें कैसे
ढाला जा सकता
है! तुम्हारे
पात्र की सीमा
ही तुम्हारी
प्राप्ति की
सीमा रहेगी।
चाहे वर्षा
कितनी ही हो, तुम्हारा
कटोरा जितना
है, उससे
ज्यादा उसमें
कभी न भर
सकेगा। कटोरे
को बड़ा होने
दो। और उसके
बड़े होने का
एक ही ढंग है, इस क्षण को
ऐसे गहन-भाव
से जीओ, इस क्षण को
ऐसे
प्रीति-भाव से
जीओ, इस
क्षण को ऐसे
नाचते-उत्सव
से जीओ कि
उस उत्सव में
तुम फैल जाओ, तुम्हारा
पात्र बड़ा हो
जाए।
खयाल
किया तुमने, दुख में
आदमी सिकुड़ता
है। सुख में
आदमी फैलता
है। दुख में
आदमी छोटा हो
जाता है। आनंद
में आदमी फूल
जाता है। तुमने
खयाल किया, जब तुम दुखी
होते, तो
तुम चाहते हो
न कोई मिले, न कोई बात
करे, तुम
द्वार-दरवाजे
बंद करके
बिस्तर में पड़
जाना चाहते
हो। जब तुम
बहुत दुखी
होते हो, तो
तुम सोचते हो,
अब तो मर ही
जाएं। मर ही
जाएं का मतलब,
अब तो कब्र
में छिप जाएं।
लेकिन
जब तुम आनंदित
होते हो, तो
तुम
द्वार-दरवाजे
खोलकर बाहर
आते हो सूरज की
किरणों में, हवाओं के
संसार में। जब
तुम आनंदित
होते हो, तो
तुम किसी
मित्र के पास
जाते हो, किसी
प्रियजन के
पास बैठते हो,
कोई गीत
गुनगुनाते हो,
कोई वीणा
बजाते हो। जब
तुम आनंदित
होते हो, तो
तुम बंटते
हो। तब तुम
चाहते हो कोई
तुम्हें
लूटे। तब तुम लुटने को
तरसते हो। तब
तुम चाहते हो
कोई आये और
साझीदार हो
जाए। इतना
तुम्हें मिल
रहा है कि
अकेले तुम
क्या करोगे? तुम उसे
किसी को
बांटना चाहते
हो। आनंदित
क्षण में आदमी
फैलता
है--पात्र बड़ा
होता है। दुख
के क्षण में सिकुड़ता
है।
तो अगर
यह क्षण तुमने
आनंद में न
जीया, तो
अगले क्षण तुम
और भी सिकुड़
जाओगे। आनंद
का अभ्यास
जारी रखो।
आनंद को भोगते
रहो, ताकि
तुम और आनंद
को पाने के
योग्य होते
रहो। आनंद को
जितना भोगोगे,
उतना ही तुम
पाओगे और
ज्यादा आनंद
पास आने लगा।
नृत्यकार
नाचता रहता है, तो और बड़े
नृत्य की
संभावना
जनमती रहती
है। गीतकार
गुनगुनाता
रहता है, तो
और गीत पैदा
होते रहते
हैं। जीवन तो
जीने से बढ़ता
है। बैठे-बैठे
खोपड़ी में मत
खोये रहो। आओ,
फैलो। बड़ा
जीवन है। बड़ा
अवसर है। यहां
एक-एक क्षण को
बहुमूल्य
बनाया जा सकता
है। एक-एक
क्षण हीरा हो
सकता है।
लेकिन
अधिक लोग सोये
हैं। भविष्य
की योजना कर रहे
हैं। सोच रहे
हैं, कल क्या
होगा? कल
को भूलो, आज काफी है।
आज पर्याप्त
है। इतना मैं
तुमसे जरूर कहता
हूं, यह
आश्वासन देता
हूं कि अगर
तुमने कल को
भूला तो कल
आयेगा, आज
से भी सुंदर
फूल लायेगा।
आज से भी
सुंदर गीत
लायेगा।
क्योंकि आज
तुम्हारे
हृदय का पात्र
बड़ा हो, तो
इसी पात्र में
तो कल की
वर्षा भरेगी।
"सभी प्रश्न
गिर गये।
उत्तर की भूख
नहीं, प्यास
नहीं, चाह
नहीं। तो फिर
आगे क्या करें?'
करने की भी
कोई जरूरत है? होना
काफी नहीं! यह
करने का
पागलपन क्यों
है?
इन दो
शब्दों को ठीक
से समझ
लो--करना और
होना।
क्या
करें? क्या
होना काफी
नहीं है! कमरे
में तुम बैठे
हो, उसी
अखबार को फिर
पढ़ने लगते हो
जिसको सुबह से
तीन दफे पढ़ चुके।
क्योंकि करें
क्या? रेडियो
खोल लेते हो, वही खबरें
जो अखबार में
पढ़ चुके
रेडियो से सुनने
लगते हो। करें
क्या? कुछ
न कुछ करने
में तुम अपने
को व्यस्त
रखते हो। क्या
थोड़ी देर के
लिए "होना' उचित
नहीं है? कुछ
न करो। अखबार
को हटा दो, रेडियो
बंद कर दो, शांत
बैठ जाओ, कुछ
देर को बस हो
रहो। यही तो
ध्यान है।
होना
ध्यान है।
करना मन है।
मन
तुम्हें
बैठने नहीं
देता। मन कहता
है, क्या कर
रहे बैठे-बैठे?
कुछ करो, उठो। होटल
ही चलो।
सिनेमा देख
आओ। कोई, खोज
लो कोई शिकार,
उसकी खोपड़ी
खाओ। कुछ करो।
खाली
बैठे-बैठे
क्या कर रहे
हो? समय
गंवा रहे हो।
तो महावीर ने
बारह साल
खाली-खाली
जंगल में खड़े
समय गंवाया!
कुछ भी किया
नहीं। बारह
साल में कोई
भी एक ऐसी बात
नहीं कि जिसको
कोई अखबार
छापने लायक
समझे। न कोई "इलेक्शन' लड़े, कोई
चुनाव लड़े।
बोले ही नहीं।
खड़े ही रहे।
चुपचाप रहे।
कृत्य जैसा
कुछ भी बारह
साल में नहीं
घटा। महावीर
के बारह साल
ऐसे रिक्त हैं
जैसे कि किसी
और के जीवन
में खोजने मुश्किल
हैं। उसी
रिक्तता में
महावीर की महिमा
है। बारह साल
कुछ भी न
किया। बैठे तो
बैठे, खड़े
तो खड़े; लेटे
तो लेटे। ऐसे
हो गये, जैसे
व्यस्तता का
जो रोग आदमी
पर सवार होता
है, वह
बिलकुल
समाप्त हो
गया।
थोड़ा
सोचो इस बात
को, थोड़ा
इसका ध्यान
करो, थोड़ा
इसको भीतर रसने
दो, उतरने
दो, बैठने
दो--बैठे हैं
तो बैठे हैं; न कुछ करने
को है, न
कुछ सोचने को
है। तब तुम
हो। उस होने
के क्षण में
ही आत्मा से
परिचय होता
है। आत्मा
यानी होना।
शुद्ध होना।
मात्र होना।
और तभी गहन
शांति की
वर्षा होती है
और परम आनंद
के वाद्य बजते
हैं। अमृत के
बादल बरसते
हैं। होने
में। करना
संसार है, होना
धर्म है। करना
बाहर है, होना
भीतर। जैसे ही
तुमने कुछ
किया कि गये
बाहर।
मैं लोगों
से कहता हूं, ध्यान कोई
क्रिया नहीं
है, ध्यान
है अक्रिया।
उनसे मैं कहता
हूं, बस
बैठ जाओ, कुछ
न करो। वे
कहते हैं, कुछ
तो बता दें, आलंबन तो
चाहिए। कुछ
आधार--राम-राम जपें? माला
फेरें? जिन लोगों
ने माला फेरना
और राम नाम
जपना निकाला
है, उन
लोगों ने कारण
से ही निकाला
है। ये वे लोग
हैं, जो
बिना किये
नहीं रह सकते।
दुकान न
करेंगे, तो
माला जपेंगे।
अखबार न पढ़ेंगे,
तो गीता पढ़ेंगे।
लेकिन पढ़ेंगे!
थोड़ी देर को
खाली न छूटेंगे
कि कुछ भी न हो;
मिट जाए
सारा कृत्य का
संसार, खो
जाए दूर, सिर्फ
होना रह जाए!
श्वास चले, हृदय धड़के,
बोध रहे, बस काफी है।
वे पूछते हैं,
कुछ आलंबन
दे दो। आलंबन
का मतलब है, कुछ करने के
लिए, कुछ
तो दे दो, माला
ही सही! उसको
ही, माला
के गुरिये
सरकाते
रहेंगे। कुछ
करने को तो
रहेगा!
तुमने
कभी खयाल नहीं
किया कि माला
का गुरिया कोई
आदमी सरकाता
है, तुम
सोचते हो बड़ा
धार्मिक आदमी
है। तुम्हारी
धारणा है।
अन्यथा बड़ा मूढ़तापूर्ण
कृत्य कर रहा
है। माला के गुरिये
सरका रहा है!
लेकिन उससे एक
तरह की राहत
मिलती है, वह
जो करने का
पागलपन है, व्यस्त रहता
है। कुछ तो कर
रहे हैं! चलो
माला की गिनती
ही कर रहे हैं!
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
को नींद नहीं
आती थी। उसके
डाक्टर ने कहा
तुम ऐसा करो, भेड़ों की गिनती
करो। ऐसा कई
डाक्टर लोगों
को समझाते
हैं--कुछ भी
गिनती करने
में लग जाओ, माला फेरने
जैसा काम है, कुछ भी
गिनती करो; एक से सौ तक
जाओ, फिर
सौ से उल्टे लौटो--निन्यानबे,
अट्ठानबे,
सतानबे...ऐसा कुछ भी
करते रहो।
थोड़ी देर में
थक मरोगे, ऊब
जाओगे कि यह
भी क्या करना!
इसी ऊब में
नींद आ जाएगी।
ऊब में नींद
बड़ी आसानी से
आती है। नींद
के लिए ऊब बड़ी
उपयोगी है।
मुल्ला
ने कहा, यह
ठीक! उसने
गिनती की। एक
बज गया रात का,
दो बज गया, तीन बज गया, लाखों
करोड़ों पर
पहुंच गयी
संख्या और चली
जा रही है
संख्या, और
वह इतना
उत्तेजित हो
गया कि नींद
कहां! फिर उसने
सोचा, यह
तो पूरी रात
ऐसे ही बीत
जाएगी, और
इतनी करोड़ों भेड़ें अब
इनका करना
क्या? तो
उसने सबका ऊन
काटना शुरू कर
दिया। अब ऊन
के ढेर पर ढेर
लग गये। उसने
कहा, अब
करो क्या? कंबल
बनवा डाले।
फिर कोई पांच
बजे के करीब
जोर से
चिल्लाया:
बचाओ, बचाओ!
तो पत्नी घबड़ाकर
उठी, उसने
कहा हुआ क्या?
उसने कहा, मर जाएंगे; इतने कंबल खरीदेगा
कौन?
व्यस्त
आदमी विचारों
में ही व्यस्त
हो जाता है।
स्वभावतः
उसकी घबड़ाहट, इतने कंबल
इकट्ठे हो गये
होंगे! होते
ही जा रहे, होते
ही जा रहे, एक
राशि आकाश
छूने लगी होगी,
तो घबड़ाया
कि मर गये, दिवाला
निकल जाएगा। बिकेंगे
कहां? खरीदेगा कौन? इतने
तो आदमी भी
नहीं हैं।
माला जो फेर
रहा है, वह
भी व्यस्त हो
रहा है।
राम-राम, राम-राम
जप रहा है, वह
भी व्यस्त हो
रहा है।
ध्यान का
अर्थ है, करने
से होने पर
रूपांतरण।
करने को छोड़ना
और होने में
डूबना।
"पूछते हो आगे
क्या करें?' जरूरत नहीं
कुछ करने की।
प्रश्न सब गिर
गये! पक्का
भरोसा है!
उत्तर की कोई
भूख नहीं, चाह
नहीं, पक्का
भरोसा है! अगर
कुछ बचे हों
तो पूछ लेना, अन्यथा पीछे
सतायेंगे
वे। अन्यथा
उठ-उठकर खड़े
होंगे। जल्दी
मत करो। खोज
लो ठीक से।
अगर सच में ही
खतम हो गये, तो शुभ घड़ी आ
गयी। सौभाग्य
की घड़ी आ गयी।
संबोधि का
क्षण करीब आने
लगा। अब करने
की फिकर छोड़ो,
अब तो जितनी
देर होने में
बीत जाए उतना
ही शुभ है। अब
तो जब मौका
मिले, तब
बैठे रहो।
ठीक है, जब जरूरत हो,
दुकान
चलानी है, बच्चे
पालने हैं, उतना कर दो।
लेकिन वह भी
ऐसे करो कि
भीतर तो न करना
ही बना रहे।
वह भी ऐसे करो
जैसे जल में
कमलवत। कर
लिया, चल
पड़े। कर आये, हो गया। मगर
इसको बोझ मत
बनाओ, चिंता
मत बनाओ। जब
मौका मिले, जहां मौका
मिले--कार में
बैठे हो, बस
में बैठे हो, ट्रेन में
बैठे हो--खाली
रहो। भीतर कुछ
भी न करो।
इस
मंदिर को अब
खाली होने दो।
जन्मों-जन्मों
तक भरा रखा, भरने से
सिर्फ कूड़ा-कर्कट
इकट्ठा हुआ।
अब सिर्फ खाली
रखो, उस
खालीपन में ही
शुद्धता है।
उस खालीपन को
ही महावीर ने
शुद्धि कहा
है। न शुभ से
भरो, न
अशुभ से भरो, अब तो सब हटा
दो। खाली करो।
शुद्ध आकाश रह
जाए। निर्मल
आकाश रह जाए
भीतर, जिसमें
कृत्य की कोई
रेखा भी न हो।
कोरा कागज रह
जाए। यही
ध्यान है।
और इसी
ध्यान से
रोज-रोज अमृत
घना होगा। इसी
ध्यान से
रोज-रोज समाधि
सघन होगी। इसी
ध्यान से रोज-रोज
परमात्मा पास, और पास आता
चला जाएगा। एक
दिन तुम अचानक
पाओगे, तुम
तो नहीं रहे, परमात्मा ही
शेष रहा।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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