सूत्र:
निस्संकिय निक्कंखिय
निव्वितिगिच्छा
अमूढ़दिट्ठी
य।
उवबूह थिरीकरणे,
वच्छल पभावणे अट्ठ।। 78।।
जत्थेव पासे कई दुप्पउत्तं,
काएण वाया
अदु माणसेण।
तत्थेव धीरो
पडिसाहरेज्जा,
आइन्नओ खिप्पमिक्खलीणं।।
79।।
तिण्णो हु
सि अण्णवं
महं,
किं पुणचिट्ठसि
तीरमागओ।
पहला
सूत्र:
"सम्यक
दर्शन के आठ
अंग हैं: निःशंका, निष्कांक्षा,
निर्विचिकित्सा,
अमूढ़दृष्टि,
उपगूहन,
स्थिरीकरण,
वात्सल्य
और प्रभावना।'
एक-एक
अंग को बहुत
ध्यान से
समझना जरूरी
है।
"निःशंका...'
सम्यक
दर्शन का पहला
अंग, पहला चरण:
अभय। मन में
कोई शंका न हो,
कोई भय न
हो।
साहस!
क्योंकि जो
साहसी हैं वे
ही केवल सत्य
की खोज पर जा
सकेंगे। सत्य
की खोज में, समझ से भी
ज्यादा मूल्य
साहस का है।
साहस का अर्थ
होता है: जहां
कभी न गये हों,
जिसे कभी न
जाना हो, अपरिचित,
अनजान, अज्ञेय--उसमें
प्रवेश।
सत्य
है अपरिचित।
उसे अब तक
जाना नहीं। जो
जाना-माना है, उससे भय मिट
जाता है; उससे
हम परिचित हो
जाते हैं। जिस
रास्ते पर बहुत
बार आये-गये, उस रास्ते
पर फिर डर
नहीं लगता।
पहली बार, नये
रास्ते पर, भय प्रतीत
होता है: पता
नहीं, रास्ता
कहां ले जाये,
और पता नहीं
रास्ते पर
क्या घटे! और
सत्य का रास्ता
तो तुम कभी
चले नहीं। जिस
रास्ते पर तुम
चले हो, वह
है संसार का
रास्ता। साहस
के अभाव के
कारण ही हम
बार-बार संसार
के रास्ते पर
ही परिभ्रमण
करते रहते
हैं।
मनस्विद
कहते हैं कि
आदमी अपरिचित
सुख से भी
डरता है; परिचित
दुख को भी पकड़े
रखता है, कम
से कम परिचित
तो है! कम से कम
जाना-माना, अपना तो है!
इतने दिनों का
नाता तो है!
अपरिचित सुख
से भी भय लगता
है, कि पता
नहीं क्या हो,
क्या घटे!
और जो व्यक्ति
सत्य की खोज
में चला है, वह तो
अत्यंत
अपरिचित की
खोज में चला
है।
अकसर
लोग सत्य की
खोज नहीं करते, शास्त्र को पकड़कर बैठ जाते
हैं। क्योंकि
शास्त्र में
कहीं जाना नहीं--शब्द
का खेल है; बुद्धि
की खुजलाहट
है। तोते की
तरह रट लेंगे,
याद कर
लेंगे और सोच
लेंगे, पहुंच
गये। जैसे कोई
हिमालय के
नक्शे को लेकर
बैठ जाये, छाती
से लगाकर रखे
और सोचे कि
पहुंच गये; लेकिन हिलेरी
को या तेनसिंग
को जब गौरीशंकर
चढ़ना
होता है तो यह
छाती पर नक्शे
लगाने जैसा
नहीं है, यह
जीवन को दांव
पर लगाना है।
साहस चाहिये!
मृत्यु भी घट
सकती है। जो
है वह भी खो
सकता है। और उसका
तो कोई पता
नहीं जो मिलने
को है।
तो
जिसके पास
जुआरी जैसा
दिल है कि जो
है उसे दांव
पर लगा दे, उसके लिये
जो नहीं है, वही केवल
सत्य की खोज
में सफल हो
पाता है। दुकानदार
सफल नहीं हो
पाते।
हिसाबी-किताबी
सफल नहीं हो
पाते। इसलिये
महावीर सम्यक
दर्शन का पहला
सूत्र कहते
हैं: निःशंका।
मन में जरा भी
भय न हो, तो
ही जा सकोगे।
अभय का, वीरों
का मार्ग
है--कायरों का
नहीं, भगोड़ों का नहीं।
अब
यहां तो उलटी
हालत घटी है।
जैन धर्म को
स्वीकार
करनेवाले, जरा भी
साहसी नहीं
हैं। साहस से
उनका कोई संबंध
नहीं रहा है
और उन्होंने
अपनी कायरता
को अच्छे-अच्छे
शब्दों में ढांक लिया
है...अहिंसा!
अकसर मुझे ऐसा
दिखाई पड़ा कि
जो आदमी डरता
है कि कोई
उसकी हिंसा न
कर दे, वह
अहिंसक हो
जाता है। इस
भय से कि कहीं
दूसरा मेरी
हानि न कर दे, वह कहता है
हानि किसी को
पहुंचाना ही
नहीं। वह
स्वयं भी हानि
नहीं
पहुंचाता, क्योंकि
हानि
पहुंचाने में
हानि उठाने का
खतरा भी जुड़ा
है। वह किसी
को मारता भी
नहीं है, क्योंकि
मारने जाने
में अपने मारे
जाने की भी
संभावना
खुलती है। वह
अहिंसा की बात
करता है।
यहां
खयाल रखना, अहिंसा
वीरों का वेश
है--उनका नहीं
जो अभी डर रहे
हैं, भयभीत
हो रहे हैं, घबड़ा रहे
हैं। उनकी
अहिंसा किसी
काम की नहीं है।
वह तो केवल
लफ्फाजी है।
वह तो ऊपर से
थोप लिया आवरण
है। वह तो
अपने को छिपा
लेना है, सुरक्षा
है।
महावीर
कहते हैं, निःशंका पहला चरण
है। और जो
संसार से ही
घबड़ा गये हैं,
वह सत्य की
यात्रा पर
क्या खाक निकल
सकेंगे! जहां
डरने जैसा कुछ
भी न था, क्योंकि
जहां खोने
जैसा ही कुछ न
था, वहां
जो डर गये, वे
सत्य की
यात्रा पर
कैसे निकल
सकेंगे? इस
भेद को खयाल
में लो।
सत्य
की खोज के नाम
पर तुम कहीं
संसार से डरकर
तो नहीं बैठ
गये हो। जैन
मुनियों को
मैं देखता हूं
तो ऐसा ही
प्रतीत होता
है। अधिक मौकों
पर वे सत्य की
खोज में नहीं
गये, सिर्फ
संसार की खोज
से रुक गये
हैं। संसार की
खोज से रुक
जाना
अनिवार्य रूप
से सत्य की खोज
नहीं है। हां,
सत्य का
खोजी संसार की
खोज से मुक्त
हो जाता है, यह जरूर सही
है। लेकिन
संसार की खोज
छोड़ देनेवाला
सत्य की खोज
पर निकल जाता
है, यह
आवश्यक नहीं
है।
ऐसा
समझो, एक
आदमी गौरीशंकर
चढ़ने
जाता है--गौरीशंकर
चढ़ने
जायेगा तो
पूना छूटेगा।
लेकिन पूना छोड?कर
कोई बैठ जाये,
इससे गौरीशंकर
नहीं पहुंच
जायेगा। पूना
छोड़कर बैठने
के हजार उपाय
हैं: पूना की
ठीक सीमा पर
बाहर बैठा रहे;
जहां पूना
का कारपोरेशन
का क्षेत्र
शुरू होता है,
बस उसकी
सीमा पर बैठा
रहे। लेकिन
इससे कोई गौरीशंकर
पर नहीं पहुंच
जायेगा। हां,
गौरीशंकर की यात्रा
पर जो गया है
वह पूना से
जरूर मुक्त हो
जायेगा; उसे
पूना छोड़ना ही
पड़ेगा।
महावीर
ने संसार छोड़ा, सत्य की
यात्रा पर गये,
इसलिये।
बड़े साहस का
कदम उठाया।
लेकिन जैन मुनि!...वह
संसार से डरकर
बैठ गया है।
संसार से जो डर
गया वह सत्य
में तो जायेगा
ही कैसे? परिचित
से जो डर रहा
है वह अपरिचित
में तो जायेगा
कैसे? दिखाई
पड़नेवाले
से जो डर रहा
है वह अदृश्य
की यात्रा पर
तो कैसे कदम
उठायेगा? जहां
भीड़ है, संगी-साथी
हैं, परिवार
है, मित्र
हैं, उस
रास्ते पर, राजपथ पर
चलने से डर
रहा है, तो बीहड़ वनों
में और
पगडंडियों पर
उतरेगा? सत्य
की खोज पर तो
जाना पड़ता है
अकेले। वहां तो
कोई साथी न
होगा, कोई
संगी न होगा।
वहां तो
शास्त्र भी
छोड़ देने
होंगे, शब्द
भी छोड़ देने
होंगे। वहां
तो समाज से जो
लिया है वह सब
छोड़कर जाना
होगा। भाषा भी
छोड़ देनी
होगी। इसलिये
महावीर ने
अपने
संन्यासी को
मुनि कहा था, कि वह भाषा
का त्याग कर
दे। क्योंकि
भाषा तो समाज
की ही देन है।
गौर से देखें
तो भाषा ही
समाज है। जब
तुम बोलते हो
तभी समाज बनता
है; जब तुम
नहीं बोलते तो
समाज नहीं
बनता। तुम अगर
चुप खड़े हो तो
तुम अकेले हो;
बोले, कि
जुड़े।
थोड़ी
देर को सोचो!
एक गांव तय कर
ले कि अब वाणी
का त्याग करते
हैं, पूरा
गांव चुप हो
जाये, तो
उस गांव में
अकेले-अकेले
लोग रह
जायेंगे। उस
गांव में समाज
न रहेगा, क्योंकि
सेतु गिर
जायेंगे। दो
आदमियों के बीच
जो सेतु हैं
वे तो शब्द
हैं। अगर सारा
गांव तय कर ले
कि अब हम चुप
होंगे तो गांव
मिट जायेगा; व्यक्ति रह
जायेंगे, समूह
न रह जाएगा।
समूह तो जीता
है भाषा पर।
महावीर
ने कहा कि तुम
भाषा भी छोड़ोगे
तो ही जा
सकोगे सत्य
तक। हां, जब
सत्य को जान
लो, तब
चाहे भाषा का
उपयोग करके
लोगों को समझा
देना। लेकिन
जानते समय
छोड़कर जाना
होगा, मौन
होना होगा, शून्य होना
होगा। और जो
भी तुम्हारे
पास है उस
सबको उसके लिए
दांव पर लगा
देना होगा, जिसको न तुम
जानते, न
कोई आश्वासन
है जिसका कि
पक्का है, मिलेगा।
क्योंकि कोई
दूसरा
तुम्हें
आश्वासन नहीं
दे सकता। अगर
मुझे कुछ मिला
तो मैं लाख सिर
पटकूं तो
भी तुम्हें
समझा नहीं
सकता कि
तुम्हें भी मिलेगा।
कोई उपाय नहीं
है।
सत्य
की अनुभूति
आंतरिक है।
वस्तुतः नहीं
है सत्य, कि
तुम्हें दिखा
दूं हाथ में
रखकर, कि
यह रहा सत्य, ताकि
तुम्हें
भरोसा आ जाये।
तुम छूकर तो न
देख सकोगे, आंख से न देख
सकोगे, कान
से सुना न जा
सकेगा। भरोसा
करना होगा।
उसी भरोसे को
महावीर कहते
हैं: निःशंका,
ट्रस्ट। एक
गहन श्रद्धा
की जरूरत होगी;
एक ऐसी
श्रद्धा की, जिसमें जरा
भी संदेह न हो,
क्योंकि
जरा भी संदेह
हुआ तो संदेह
पैर को पीछे
खींच लेता है।
संदेह पैर को
आगे बढ़ने ही
नहीं देता।
अगर तुम्हें
जरा भी डर रहा
और पता, पता
नहीं होगा ऐसा,
न होगा
ऐसा--अगर ऐसी
तुम आशंका में
घिरे रहे, तो
कदम उठेगा
नहीं।
इसलिए
पहला कदम
महावीर कहते
हैं: निःशंका।
लेकिन हम तो
बड़ी आशंका से
भरे हैं। और
हमारी आशंकाएं
बड़ी अदभुत
हैं! हमारी
आशंकाएं ऐसी
हैं कि जैसे
कोई नंगा कहे
कि मैं नहाऊं
कैसे, क्योंकि
नहा
लूंगा तो फिर
कपड़े कहां निचोडूंगा,
कपड़े कहां सुखाऊंगा!
नंगा है, कपड़े
हैं नहीं; लेकिन
स्नान नहीं
करता इस डर से
कि कहीं कपड़े भीग
न जायें।
भिखारी है, डरता है कि
कहीं
चोर-लुटेरे न
मिल जाएं। पास
कुछ भी नहीं।
लुटेरे मिल भी
जाएंगे तो
उन्हीं को
लुटना पड़ेगा,
कुछ देकर
जाना पड़ेगा।
लेकिन, भिखारी
भी डरता है कि
कहीं
चोर-लुटेरे न
मिल जाएं।
हमारी दशा ऐसी
ही है। हमारे
पास कुछ भी नहीं
और आशंका बहुत
है कि कहीं खो
न जाये।
कभी
तुमने सोचा, क्या है
तुम्हारे पास
जो खो जायेगा?
हाथ
तुम्हारे
खाली हैं, हृदय
तुम्हारा
रिक्त है, संपत्ति
के नाम पर कुछ
ठीकरे इकट्ठे
कर रखे हैं जो
मौत तुमसे छीन
ही लेगी। तुम
लाख उपाय करो तो
भी अंततः मौत
से तुम
हारोगे।
कितने ही बचो,
इधर बचो उधर
बचो, इधर छिपो उधर छिपो, एक
न एक दिन मौत
तुम्हारी
गर्दन पकड़ ही
लेगी।
अंततः
मौत जीतेगी, तुम न जीत
पाओगे--इतनी
बात निश्चित
है। बीच में कितनी
देर तुम धोखा
दे लेते हो, मौत को इससे
क्या फर्क
पड़ता है? अंततोगत्वा
मौत तुम्हारी
गर्दन पकड़
लेगी और तुम्हारे
ठीकरों को
उगलवा लेगी।
जिसे तुमने इनकमटैक्स
आफिस से बचा
लिया होगा, उसको तुम
मौत से न बचा
सकोगे। जिसको
तुमने चोरों
से, डाकुओं
से बचा लिया
होगा, उसको
तुम मौत से न
बचा सकोगे।
यहां, पहली तो बात:
तुम्हारे पास
कुछ है नहीं, और जो
तुम्हारे पास
है वह सब मौत
छीन लेगी। तो गंवाने
का डर क्या है?
भय क्या है?
लेकिन तुम
बड़े भयभीत
होते हो।
महावीर
कहते हैं, ठीक से अपनी
स्थिति को
समझो तो आशंका
का कोई कारण
ही नहीं है।
आशंका के लिए
जरा भी कोई
आधार नहीं है।
आशंका कल्पित
है और जब
आशंका गिर
जाये, और
तुम देख लो
खुली आंख से
कि आशंका की
तो कोई बात ही
नहीं है, मेरे
पास कुछ है
नहीं...।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
के द्वार पर
एक भिखारी
आया। तो
मुल्ला ने उसे
देखते ही से
कहा कि मालूम
होता है गांव
में नये-नये
आये हो।
उस
भिखारी ने कहा, आप कैसे
पहचान गए? बिलकुल
ठीक कहते हैं।
मैं अभी
स्टेशन से ही उतरकर चला
आ रहा हूं।
मगर आप पहचाने
कैसे? आप
कोई ज्योतिषी
हो?
उसने
कहा कि मैं
कोई ज्योतिषी नहीं, लेकिन गांव
के भिखारी
जानते हैं कि
यहां कुछ मिलेगा
नहीं।
भिखारी
को भी देने
योग्य हमारे
पास क्या है! हमारे
पास है ही
कहां कुछ!
लेकिन हम
मानकर बैठे हैं, मान्यता है,
और मान्यता
में हम काफी
रस लेते हैं।
मान्यता के
ढक्कन को उघाड़कर
भी भीतर के
खाली बर्तन को
नहीं देखते।
डर लगता है कि
कहीं ऐसा न हो
कि खाली ही हो!
मुट्ठी हम
बांधकर रखते
हैं, खोलते
नहीं, क्योंकि
कहीं दिखाई न
पड़ जाये कि
खाली है। हम अपने
को समझाये
रखते हैं कि
है, बहुत
है। हम
गुनगुनाते
रहते हैं कि
बहुत है। और
फिर आशंका
पैदा होती है
कि कहीं छिन न
जाये।
महावीर
जब तुमसे कहते
हैं, आशंका
नहीं चाहिये,
निःशंका की स्थिति
चाहिये, तो
वे यह नहीं कह
रहे हैं कि
तुम निःशंका
को आरोपित
करो। वे इतना
ही कह रहे हैं
कि तुम अपनी
आशंका को जरा
गौर से खोलकर,
आंखों के
सामने बिछाकर
तो देख लो:
वहां कोई कारण
है? कोई भी
कारण नहीं है!
जिस दिन
तुम्हें ऐसी
दृष्टि
उपलब्ध होगी कि
डरने का कोई
भी कारण नहीं
है, खोने
का कोई उपाय
नहीं, क्योंकि
है ही नहीं, उसी क्षण
तुम्हारे
जीवन में एक
नई ऊर्जा का
आविर्भाव
होगा। उस नई
ऊर्जा को कहो:
श्रद्धा, भरोसा,
ट्रस्ट। उस
नई ऊर्जा को
कहो: निःशंका।
तब तुम असंदिग्ध
भाव से बिना
पीछे लौटकर
देखे, सत्य
की खोज में
निकल जाओगे।
वह भाव
तुम्हें, यह
अनुभव कि मेरे
पास कुछ भी
नहीं है, ना-कुछ
ही दांव पर
लगाना है, मिला
तो ठीक न मिला
तो कुछ खोता
नहीं--तो फिर
दांव पर लगाने
में तुम झिझकोगे
नहीं। तुम सभी
दांव पर लगा
दोगे।
मैंने
सुना है, एक
आदमी अमरीका
की एक कार बेचनेवाली
दुकान में
गया। वह जिस
कार को खरीदना
चाहता था, उसका
मिलना
मुश्किल था।
दुकानदार ने
कहा, "कम से
कम साल भर
रुकना पड़ेगा।
लंबा क्यू है।
और कोई उपाय
नहीं अभी देने
का।' वह
आदमी बड़ा
नाराज हो गया।
उसने कहा कि सालभर! गुस्से
में उसने अपने
खीसे से नोटों
के बंडल निकाले
और जो कचरा
फेंकने की
टोकरी थी, उसमें
डालकर दरवाजे
के बाहर हो
गया। दुकानदार
भी चकित हो
गया। और बहुत
धनी लोग देखे
थे, मगर यह
आदमी अदभुत
है! हजारों
डालर, ऐसे
कचरे में
डालकर चला
गया। उसने
जल्दी से नोट निकलवाये,
गिनती
करवाई; दुगने
थे, जितने
कि कार के दाम
हो सकते थे।
उसने फौरन अपने
आदमियों को
कहा कि जाकर
कार उसके घर
पहुंचा दो।
कार घर पहुंचा
दी। दूसरे दिन
वह हैरान हुआ।
भागा हुआ उस
आदमी के घर
गया और कहा, "महानुभाव!
वह सब नोट
नकली हैं।' उस आदमी ने
कहा, नकली
न होते तो हम कचराघर
में फेंकते?
एक बार
तुम्हें
दिखाई पड़ जाये
कि नोट नकली
हैं, तो कचराघर
में फेंकना भी
आसान है। अड़चन
कहां है? वस्तुतः
ढोना मुश्किल
हो जायेगा। उस
बोझ को तुम किसलिये
ढोओगे! उस
बोझ को किस
कारण ढोओगे!
महावीर
तुमसे
श्रद्धा जन्माने
को नहीं कहते।
यही महावीर का
और अन्य
शिक्षकों का
भेद है।
महावीर कहते
हैं, तुम अपनी
आशंका को ठीक
से पहचान लो, वह गिर
जाएगी। जो शेष
रह जायेगा, वही श्रद्धा
है। इसलिये
महावीर
श्रद्धा शब्द
का उपयोग नहीं
करते। एक-एक
शब्द खयाल
करना। यहां
महावीर
श्रद्धा कह
सकते थे, लेकिन
नहीं कहा; साहस
कह सकते थे, नहीं कहा।
नकारात्मक
शब्द उपयोग
किया: निःशंका।
कोई विधायक
शब्द उपयोग न
किया, क्योंकि
विधायक की कोई
जरूरत नहीं
है। सिर्फ आशंका
की समझ आ जाए
कि व्यर्थ है,
कोरी है, अकारण
है--जैसे ही
आशंका गिर
जाती है तो जो शंकारहित
चित्त की दशा
है वही
श्रद्धा है, वही साहस है,
वही अभय है।
तुम्हारे
भीतर एक अनूठी
ऊर्जा का जन्म
होगा। वह दबी
पड़ी है।
तुम्हारी
चट्टान ने, आशंका की
चट्टान ने उस
झरने को फूटने
से रोका है।
हटा दो
चट्टान: झरना
अपने से फूट
पड़ेगा! झरना
तो है ही! झरना
तुमने खोया
नहीं है।
इसलिए
महावीर नहीं
कहते कि झरने को
खोजो। महावीर
नहीं कहते कि
श्रद्धा को
आरोपित करो।
महावीर कहते
हैं, सिर्फ
आशंका को उघाड़ो।
दूसरा
चरण है: निष्कांक्षा।
जो भी तुम करो
सत्य की खोज
में, उसमें
कोई आकांक्षा
मत रखना।
क्योंकि
आकांक्षा ही
संसार है। अगर
सत्य की खोज
पर भी आकांक्षा
लेकर गये, तो
तुम अपने को
धोखा दे रहे
हो, तुम
संसार में ही
दौड़ रहे हो।
तुम्हें
भ्रांति हो गई
है कि तुम
सत्य की खोज
पर जा रहे हो।
सत्य की खोज
पर वही जाता
है जिसकी
आकांक्षा गिर
गई।
आकांक्षा
को हम समझें।
फिर
नकारात्मक
शब्द है: निष्कांक्षा।
आकांक्षा
क्या है? जैसे
हम हैं उससे
हम राजी नहीं
हैं। एक बड़ी
गहरी बेचैनी
है--कुछ होने
की, कुछ
पाने की, कहीं
और होने की, कहीं और
जाने की। जहां
हम हैं वहां
अतृप्ति! जैसे
हम हैं वहां
अतृप्ति! जो
हम हैं उससे
अतृप्ति! कुछ
और होना था, कहीं और
होना था। किसी
और मकान में, किसी और
गांव में!
किसी और पति के
पास, किसी
और पत्नी के
पास! कोई और
बेटे होते!
कोई और देह
होती! कोई और तिजोड़ी
होती! लेकिन
कुछ और! "कुछ
और' की दौड़
आकांक्षा है।
तुम
थोड़ा सोचो!
कहीं भी तुम
होते, क्या
इससे
आकांक्षा की
दौड़ रुक जाती?
तुम सोचते
हो, जिस
महल में
तुम्हें होना
चाहिए था, उसमें
कोई है, उससे
तो पूछो! वह
कहीं और होने
की दौड़ में
लगा है। तुम
जिस पद पर
नहीं हो और
सोचते हो, होना
चाहिए थे, उस
पद पर भी कोई
है। उससे तो
पूछो! वह कहीं
और जाने की
तैयारी में
लगा है। जिस
गांव तुम
पहुंचना
चाहते हो, वहां
भी कोई रहता
है। उससे तो
पूछो! वह
बिस्तर-बोरिया
बांधे बैठा है
कि कब ट्रेन
मिल जाये कि
वह कहीं और चल
पड़े।
यहूदियों
में एक कहानी
है। एक यहूदी
धर्मगुरु
ने--गरीब आदमी
था--एक रात
सपना देखा।
सपना देखा कि
देश की
राजधानी में
जो पुल है नदी
के ऊपर, उसके
एक किनारे
बिजली के ठीक
खंभे के नीचे
बड़ा धन गड़ा
है। उसने धन भी
देखा--हीरे-जवाहरात
चमकते हुए!
सुबह उठा, सोचा
सपना है।
लेकिन दूसरी
रात सपना फिर
आया, ठीक
वैसा का वैसा।
दूसरे दिन
सुबह जागकर
वह एकदम यह न
कह सका कि
सपना है, क्योंकि
सपने इस तरह
नहीं दुहरते।
फिर भी उसने
सोचा कि क्या
भरोसा, कहां
जाना! लेकिन
तीसरी रात
सपना फिर आया,
तब रुकना
मुश्किल हो
गया। उसने कहा,
कोई
राजधानी इतनी
दूर भी नहीं
है, जाकर
देख तो आऊं
मामला क्या
है! वह कभी
राजधानी गया
भी न था। जब वह
गया तो चकित
हुआ। ठीक जैसा
पुल उसने सपने
में देखा था
वैसा ही पुल
राजधानी का
है। तब तो
उत्साह बढ़ा।
तेजी से चलने
लगा। दूसरी
तरफ पहुंचा।
ठीक बिजली का
खंभा वहीं है जहां
सपने में देखा
था। ठीक वैसा
ही बिजली का बल्ब
लगा है--तब तो
भरोसा और बढ़ा।
लेकिन एक मुसीबत
थी। सपने में
उसने यह न
देखा था कि एक
पुलिसवाला
वहां पहरा
देता है। तो
वह राह देखने
लगा कि
पुलिसवाला
जाये तो मैं
खोदकर देखूं।
लेकिन
पुलिसवाला
तभी जाता जब
दूसरा आ जाता,
डयूटी
बदलती। वह दोत्तीन
दिन ऐसे चक्कर
मारता रहा।
पुलिसवाले ने
भी बार-बार इस
आदमी को वहां
चक्कर मारते
देखा। उसे बुलाया
पास और कहा कि
सुनो, क्या
मामला है? आत्महत्या
करनी है पुल
से कूदकर? क्योंकि
इसीलिये वहां
वह खड़ा रहता
था कि कोई
आत्महत्या न
कर ले। मामला क्या
है?
उस
यहूदी
धर्मगुरु ने
कहा, अब आपसे
छिपाना क्या
है; एक
सपने के चक्कर
में पड़ गया
हूं। वह
पुलिसवाला
हंसा और उसने
कहा, ठहरो!
इसके पहले कि
तुम अपना सपना
कहो, मैं
भी तुम्हें कह
दूं। तीन दिन
से मैं भी एक सपना
देख रहा हूं।
मैं एक सपना
देख रहा हूं
कि फलां-फलां
गांव में...। जो
उसने नाम लिया
तो वह धर्मगुरु
बड़ा हैरान हुआ,
वह तो उसी
के गांव का
नाम है!
फलां-फलां
गांव में
फलां-फलां नाम
का एक
धर्मगुरु है।
उसने
कहा, अरे ठहरो!
यह मेरा नाम
है और मेरे
गांव का तुम पता
ले रहे हो! मैं
ही हूं वह
धर्मगुरु।
वह
पुलिसवाला
बहुत हंसा।
उसने कहा कि
मैं तीन दिन
से एक सपना
देखता हूं कि
जहां
धर्मगुरु सोता
है उसके
बिस्तर के
नीचे एक खजाना
गड़ा है।
मैं तो एक दिन
तो सोचा सपना
है, दूसरे
दिन कैसे
सोचूं कि सपना
है!
हीरे-जवाहरात
सब साफ दिखाई
पड़ते हैं। और
आज तीसरी रात
फिर सपना देखा
है। और तुमसे इसलिए
कह रहा हूं कि
तुम्हारा
चेहरा उस सपने
में मुझे
दिखाई पड़ता
है। यह माजरा
क्या है? तुम
तीन दिन से
यहां चक्कर भी
लगा रहे हो।
उस
धर्मगुरु ने
कहा कि अब कुछ
माजरा नहीं
है। मैं कुछ
और ही सपना
देखा हूं।
लेकिन अब मैं
कुछ कहूंगा
नहीं, अब
मैं जाता हूं
गांव अपने
वापस।
वह
भागा आया।
उसने अपनी खाट
के नीचे खोदा, पाया, खजाना
था!
हसीद
फकीर इस कहानी
में बड़ा रस
लेते हैं।
क्योंकि यह
कहानी जीवन की
कहानी है। तुम
सोच रहे हो, कहीं और
खजाना गड़ा
है, किसी
राजधानी में,
किसी पुल के
पास। वहां जो
खड़ा है वह सोच
रहा है कि
तुम्हारे घर
खजाना गड़ा
है।
तुमने
कभी देखा!
कभी-कभी राह
से चलते भिखमंगे
को देखकर भी
धनपति के मन
में भीर्
ईष्या आ जाती
है। कभी-कभी
सम्राटों के
मन मेंर्
ईष्या आ जाती
है। क्योंकि
जिस मस्ती से
भिखारी चल
सकते हैं उस
मस्ती से
सम्राट तो
नहीं चल सकते।
बोझ भारी है, चिंता बहुत
है। रात सो भी
नहीं सकते।
कौन सम्राट सो
सकता है
भिखारी की
तरह! राह के
किनारे की तो
बात दूर; सुंदरतम,
सुविधा से
सुविधापूर्ण
कक्षों में भी,
आरामदायक
बिस्तरों पर
भी नींद नहीं
आती। चिंताएं
इतनी हैं, मन
ऊहापोह में
लगा रहता है।
और भिखारी राह
के किनारे, अखबार को
बिछाकर ही सो
जाता है और घुर्राटे
लेने लगता है।
कभी-कभी
सम्राटों के
मन में भीर्
ईष्या उठती है
कि ऐसा
स्वास्थ्य, ऐसी
निश्चिंतता, ऐसी शांति, ऐसे विश्राम
की दशा काश, हमारी भी
होती! भिखमंगा
भी रोज महल के
पास से निकलता
है, सोचता
है, काश, हमारे पास
ऐसा महल होता!
आकांक्षा
का अर्थ है:
तुम जहां हो
वहां राजी नहीं।
जो जहां है
वहां राजी
नहीं। कहीं और
दिखाई पड़ता है
जीवन का
स्वप्न पूरा
होता। वहां जो
है, उसका भी
जीवन का
स्वप्न पूरा
नहीं हो रहा
है। यहां भिखमंगे
तो पराजित हैं
ही, यहां
सिकंदर भी
पराजित हैं।
यहां भिखमंगे
तो खाली हाथ
हैं ही, यहां
सिकंदर भी
खाली हाथ हैं।
जिस दिन
तुम्हें
आकांक्षा की
यह व्यर्थता
दिखाई पड़ जाती
है, उसी
दिन निष्कांक्षा
पैदा होती है,
निष्काम-भाव
पैदा होता है।
सत्य
के जगत में
तुम आकांक्षा
से नहीं जा
सकोगे।
क्योंकि सभी
आकांक्षा
संसार में
लौटा लाती है।
तो महावीर
कहते हैं, अगर तुम
स्वर्ग की
आकांक्षा से
सत्य की खोज
करो, चूक
जाओगे।
क्योंकि
स्वर्ग की खोज
फिर संसार की
ही खोज है।
परिमार्जित, सुधरे हुए
संस्कार--संसार
का ही संस्करण
है वह। यहीं
जो सुख नहीं
मिल पाये हैं,
उनका ही
बढ़ा-चढ़ा रूप
है, फैला
विस्तार है।
जो शराब यहां
नहीं पी, वहां
बहिश्त में
उसके झरने
बहाये हैं--वह
तुम्हारी ही
कल्पना है। जो
स्त्रियां
यहां उपलब्ध
नहीं हो सकीं,
वहां अप्सराओं
की तरह बैठी
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही हैं! इतना
ही नहीं, अगर
तुम किसी
वृक्ष के नीचे
ध्यान वगैरह
करो, तो
उर्वशी और
मेनका आकर
तुमको परेशान
करेंगी।
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही हैं
बिलकुल कि तुम
कब करो
तपश्चर्या कि
वे आयें। यह
वासना, अतृप्त
वासना ही, नये-नये
विक्षेप कर
रही है। यह
अतृप्त वासना
का ही विस्तार
है।
तो
महावीर कहते
हैं, किसी भी
तरह के लाभ की
आकांक्षा--वह
स्वर्ग का ही
लाभ क्यों न
हो--संसार में
लौटा लायेगी,
सम्यक
दृष्टि पैदा न
होगी।
निष्कांक्षा!
कैसे निष्कांक्षा
पैदा हो? आकांक्षा
को समझने से; आकांक्षा की
व्यर्थता को
देख लेने से।
जैसे कोई आदमी
रेत से तेल निचोड़
रहा हो, और
न निचुड़ता
हो और परेशान
हो रहा हो और
कोई उसे बता
दे कि "पागल, रेत में तेल
होता ही नहीं;
इसलिए तू
लाख उपाय कर, तेरे उपायों
का सवाल नहीं
है, तेल
निकलेगा नहीं;
तू लाख सिर
मार, तेरा
सिर टूटेगा, गिरेगा, रेत
से तेल
निकलेगा
नहीं।'
अकांक्षा
से कभी सत्य
नहीं निकला, क्योंकि
आकांक्षा
स्वप्नों की
जननी है।
आकांक्षा का
जिसने सहारा
पकड़ा, वह
सपनों में खो
गया; उसने
अपने सपनों का
संसार बना
लिया। लेकिन
सत्य उससे कभी
निकला नहीं।
वह रेत की तरह
है; उससे
तेल निकल नहीं
सकता। तेल
वहां है नहीं।
ध्यान
रखना, महावीर
की प्रक्रिया
का यह
अनिवार्य
हिस्सा है कि
वह जो है उसे
देखने को कहते
हैं। आकांक्षा
है तो
आकांक्षा को
देखो, पहचानो,
परखो, चारों
तरफ से अवलोकन,
निरीक्षण
करो, विश्लेषण
करो। खोज करो
कि इससे तुम
जो चाह रहे हो
वह हो भी सकता
है? अगर
नहीं हो सकता
तो आकांक्षा
गिर जायेगी।
जो शेष रह
जायेगी, चित्त
की दशा, निष्कांक्षा,
वही दूसरा
चरण है सम्यक
दृष्टि का।
तीसरा--निर्विचिकित्सा।
जुगुप्सा का
अभाव। अपने
दोषों को तथा
दूसरों के
गुणों को
छिपाने का नाम
है जुगुप्सा।
प्रत्येक
व्यक्ति उलझा
है जुगुप्सा
में। हम अपने
दोष छिपाते
हैं और दूसरों
के गुण छिपाते
हैं।
अगर
तुमसे कोई कहे
फलां आदमी
देखा, कितनी
प्यारी
बांसुरी
बजाता है, तुम
फौरन कहते हो:
वह क्या
बांसुरी बजायेगा!
चोर, लुच्चा,
लंपट! अब
चोर, लुच्चा,
लंपट से
बांसुरी
बजाने का कोई
भी संबंध नहीं
है। कोई चोर
है, इससे
बांसुरी
बजाने में
बाधा नहीं
पड़ती। लेकिन
तुम तत्क्षण
दबा देते हो
कि वह चोर है, वह क्या
बांसुरी बजायेगा!
और तुम
अपने दोषों को
छिपाये चले
जाते हो। तुम
अगर क्रोध भी
करते हो तो
जिस पर क्रोध
करते हो उसी
के हित के
लिये करते हो, सुधार के
लिये, एक
तरह की सेवा
समझो। अगर तुम
बच्चे को
पीटते भी हो, तो उसी के
भविष्य के
लिये। हालांकि
कभी पीटने से,
किसी का
भविष्य बना
नहीं, बिगड़ा भला हो। मां
अगर बेटे को
पीटती है, तो
सोचती है, क्योंकि
वह कपड़े खराब
कर आया, धूल-धवांस में
खेला, या
गलत बच्चों के
साथ खेला।
लेकिन अगर
भीतर खोज करे
तो पायेगी कि
वह क्रोध से
उबल रही थी।
पति से कुछ
झंझट हो गई
थी। पति पर न
फेंक पाई
क्रोध को, बच्चे
की प्रतीक्षा
करती रही।
क्योंकि यह बच्चा
कल भी उन्हीं
बच्चों के साथ
खेला था और कल भी
यह धूल-धवांस
से भरा लौटा
था। बच्चे
हैं--लौटेंगे
ही। बच्चे
बूढ़े नहीं
हैं। और समय
के पहले
उन्हें बूढ़ा बनाने
की चेष्टा बड़ी
खतरनाक है। उनके
लिये अभी
कपड़ों का कोई
मूल्य नहीं
है--और शुभ है
कि कोई मूल्य
नहीं है।
क्योंकि जिस
दिन कपड़ों का
मूल्य हो जाता
है उसी दिन
अपने भीतर के
सब मूल्य खो
जाते हैं। अभी
भीतर का आनंद
पर्याप्त है,
कपड़े गंदे
भी हो जाते
हैं तो चिंता
नहीं; लेकिन
भीतर का खेल
शुद्ध रहता है,
स्वच्छ
रहता है। अभी
भीतर की मौज
इतनी बड़ी है कि
थोड़ी धूल पड़
जाये तो
बर्दाश्त कर
लेती है। अभी
बच्चे में
प्रदर्शन का
भाव नहीं जगा
है और अभी
थोथी वस्तुओं
का मूल्य
निर्मित नहीं
हुआ है। अभी
असली का मूल्य
है। खेल का
आनंद, रस
मूल्यवान है।
कपड़े इत्यादि
अभी निर्मूल्य
हैं। अभी इनका
कोई, कोई
अर्थ नहीं है।
लेकिन कल भी
वह ऐसा ही आया
था, तब मां
ने कुछ भी न
कहा था। लेकिन
आज टूट पड़ती है,
पीटने लगती
है। पूछो तो
कहेगी, सुधार
के लिये!
लेकिन अगर गौर
से निरीक्षण
करे तो पायेगी
कि पति पर
नाराजगी थी।
पति पर निकाल
न सकी--पति परमात्मा
है! ऐसा पतियों
ने ही समझाया
हुआ है, तो
उन पर नाराजगी
निकाली भी
नहीं जा सकती।
वहां
द्वार-दरवाजा
बंद है।
तो
जैसे पानी
नीचे की तरफ
बहता है, ऐसा
ही क्रोध भी
अपने से कमजोर
की तरफ बहता
है। बच्चे से
ज्यादा कमजोर
और तुम क्या
पाओगे? बच्चे
से ज्यादा
कोमल और तुम
क्या पाओगे? पति अगर
नाराज हो जाता
है दफ्तर में
मालिक से, तो
घर पत्नी पर
निकाल लेता
है। पत्नी
नाराज हो जाती
है, बच्चे
पर निकाल लेती
है। बच्चे को
तुमने देखा!
जाकर अपने
कमरे में
बैठकर या तो
किताब फाड़
डालेगा, या
अपनी गुड़िया
की टांगें तोड़
देगा, क्योंकि
अब और कहां
निकाले!
सारा
संसार वहां
खतम हो जाता
है।
हम
अपने दोषों को
भी बड़ी सुंदर
व्याख्या
देते हैं। हम
दूसरों के
गुणों को भी
स्वीकार नहीं
करते, अस्वीकार
करते हैं। और
हम अपने दोषों
को भी बचाते
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का बेटा उससे
पूछ रहा था।
एक आदमी
मुसलमान था, हिंदू हो
गया था। उसके
बेटे ने पूछा
कि पिताजी, इसको हम
क्या कहें? उसने कहा, "क्या कहना, गद्दारी है!
जो आदमी
मुसलमान से
हिंदू हो गया,
यह गद्दारी
है।' पर
उसके बेटे ने
कहा कि कुछ ही
दिन पहले, एक
आदमी हिंदू से
मुसलमान हुआ
था, तब
आपने यह न कहा?
उसने कहा कि
वह धर्म-रूपांतरण
था। उस आदमी
को बुद्धि आई
थी, सदबुद्धि का
आविर्भाव हुआ
था।
तो जब
हिंदू
मुसलमान बने, तो मुसलमान
कहता है, सदबुद्धि;
और जब
मुसलमान
हिंदू बन जाये
तो गद्दार!
यही हिंदू के
लिए मूल्य है।
मैं एक
जैन संत को
जानता था। वे
हिंदू थे और
जैन हो गये।
तो जैन उनसे बड़े
प्रसन्न थे, हिंदू बड़े
नाराज थे।
हिंदू उनकी
बात भी न करते।
लेकिन जैन
उन्हें बड़ा
सम्मान देते,
उतना
सम्मान देते,
जितना कि
उन्होंने कभी
जैन संतों को
भी नहीं दिया
था। क्योंकि
इस आदमी का
हिंदू से जैन
हो जाना, इस
बात का सबूत
था कि जैन
धर्म सही है।
तब तो कोई हिंदू
जैन होता है, नहीं तो
क्यों होगा!
तो जैनों से
भी ज्यादा आदृत
जैनों में वे
थे; लेकिन
हिंदुओं में
उनका बड़ा
अनादर था
क्योंकि यह
गद्दार था।
इसने हिंदू
धर्म की
अवमानना की।
तुम
इसे जरा गौर
करना। हमारे
जीवन में
दोहरे मूल्य
होते हैं।
अपनी भूल को
भी हम सोने से ढंक
लेते हैं; दूसरे के
सौंदर्य को भी
हम मिट्टी से
पोत देते हैं।
इसको महावीर
कहते हैं
जुगुप्सा।
जुगुप्सा
के अभाव का
नाम है: निर्विचिकित्सा।
यह
बहुत
बहुमूल्य
सूत्र है। इसे
अगर खयाल में रखा
तो ही तुम
आत्म-रूपांतरण
को पा सकोगे, अन्यथा
नहीं।
क्योंकि जो
आदमी अपनी
भूलें छिपाता
है और दूसरों
के गुण दबाता
है, वह
आदमी कभी
गुणवान न हो
सकेगा। दूसरे
के गुण को
देखना, पहचानना,
स्वीकार
करना; क्योंकि
दूसरे में
देखकर ही तो
तुममें भी उसके
जन्म का
सूत्रपात
होगा। किसी के
मधुर कंठ को
सुनकर ही तो
तुम्हें भी
खयाल उठेगा कि
मेरा कंठ भी
मधुर हो सकता
है। किसी कोयल
की कुहू-कुहू
सुनकर तो
तुम्हारे
भीतर भी रस का
संचार होगा।
लेकिन
तुमने कहा, "यह क्या
कुहू-कुहू है?
यह सब
शोरगुल है! यह
सब उत्पात है!
यह कोई संगीत है?'
अगर तुमने
कुहू-कुहू को
इनकार किया तो
तुमने अपने
भीतर भी
कुहू-कुहू की
संभावना को
इनकार कर
दिया।
तो
दूसरे में जब
कोई महिमा
दिखाई पड़े तो
सम्मान और
समादर से, अहोभाव से, उसे स्वीकार
करना। उस
स्वीकृति में,
तुम्हारे
भीतर भी महिमा
के जन्म का
पहला बीजारोपण
होगा। और अपने
भीतर जब कोई
दोष दिखाई पड़े
तो उसे छिपाना
मत, क्योंकि
छिपाने से दोष
मिटते नहीं, छिप जाते
हैं, और
भीतर-भीतर
बढ़ते रहते
हैं। जिसे
तुमने छिपाया
वह बढ़ेगा।
अपना दोष हो
तो उसे प्रगट
कर देना; उसे
स्वीकार कर
लेना।
तुमने
कभी खयाल किया, दोष स्वीकार
करते से ही
तुम्हारे
भीतर क्रांति
घटित हो जाती
है! उस दोष का
तुम्हारे ऊपर
कब्जा छूट
जाता है।
ईसाइयों
में कन्फैशन
का बड़ा मूल्य
है। उसी कन्फैशन
की तरफ महावीर
का इशारा है। कन्फैशन
का अर्थ होता
है: अपनी बड़ी
से बड़ी भूल को
भी स्वीकार कर
लेना।
स्वीकार करते
ही तुम हलके
हो जाते हो।
प्रगट करते ही
तुम
निर्विकार हो
जाते हो।
छिपाया, दबाया,
तो जो आज
छिपाया है उसे
कल भी छिपाना
पड़ेगा। और मजा
यह है कि जिसे तुम
छिपाओगे,
दूसरे उघाड़ने
की कोशिश
करेंगे।
क्योंकि जो
तुम उनके साथ
कर रहे हो, वही
वे तुम्हारे
साथ कर रहे
हैं। तुम उनके
गुणों को दाब
रहे हो, उनके
दुर्गुणों
को उघाड़ रहे
हो--वे
तुम्हारे
गुणों को दाब
रहे हैं, तुम्हारे
दुर्गुणों
को उघाड़ रहे
हैं। तो तुम
जो छिपाओगे,
उसे लोग उघाड़ेंगे।
और अगर तुमने
छिपाया और न
छिपा पाये और
लोगों ने उघाड़ा
तो भी दुख
होगा, पीड़ा
होगी, नाराजगी
होगी, क्रोध
होगा। इससे
अंधेरा बढ़ेगा,
प्रकाश
घटेगा। जो हो
गई हो भूल, उसे
स्वीकार कर
लेना।
चौथा
चरण है: अमूढ़दृष्टि।
यह बहुत
क्रांतिकारी
चरण है।
महावीर
ने कहा है, दुनिया में
तीन तरह की मूढ़ताएं
हैं, भ्रांत
दृष्टियां
हैं। एक मूढ़ता
को वे कहते
हैं, लोकमूढ़ता। अनेक लोग
अनेक कामों
में लगे रहते
हैं, क्योंकि
वे कहते हैं
कि समाज ऐसा
करता है; क्योंकि
और लोग ऐसा
करते हैं।
उसको महावीर
कहते हैं: लोकमूढ़ता।
क्योंकि सभी
लोग ऐसा करते
हैं, इसलिए
हम भी
करेंगे!...सत्य
का कोई हिसाब
नहीं है--भीड़
का हिसाब है।
तो यह तो भेड़चाल
हुई।
एक
स्कूल में एक
शिक्षक ने
पूछा एक छोटे
बच्चे से कि
तुम्हारे घर भेड़ें हैं, तो अगर
तुमने अपने
आंगन में दस भेड़ें बंद
कर रखी हैं और
उनमें से एक
छलांग लगाकर
बाहर निकल
जाये, तो
कितनी पीछे बचेंगी? उस बच्चे ने
कहा: एक भी
नहीं। उस
शिक्षक ने कहा,
"तुम्हें
कुछ गणित का
हिसाब है? मैं
कह रहा हूं दस
अंदर हैं, और
एक छलांग
लगाकर निकल
जाये तो कितनी
बचेंगी?' उसने कहा, "गणित की तुम
समझो, भेड़ों को मैं
अच्छी तरह
जानता हूं। एक
निकल गई तो सब निकल
गईं। गणित का
मुझे भला पता
न हो, लेकिन
भेड़ों का
मुझे पता है।'
भेड़चाल!
भीड़ के पीछे
चले चलना! यह
भरोसा रखकर कि
जहां सब जा
रहे हैं ठीक
ही जा रहे
होंगे! और मजा
यह है कि बाकी
सबका भी यही
भरोसा है। वह
जो तुम्हारे
पड़ोस में चल
रहा है, तुम्हारी
वजह से चल रहा
है। कि तुम जा
रहे हो तो ठीक
ही जा रहे
होओगे; और
तुम जा रहे हो
उसकी वजह से
कि वह जा रहा
है तो ठीक ही
जा रहा होगा।
इसको महावीर
कहते हैं: लोकमूढ़ता।
और
सत्य की तरफ
केवल वही जा
सकता है जो भेड़चाल
से ऊपर उठे; जो
धीरे-धीरे
अपने को जगाए
और देखने की
चेष्टा करे कि
जो मैं कर रहा
हूं, वह
करना भी था या
सिर्फ इसलिए
कर रहा हूं कि
और लोग कर रहे
हैं!
अकसर
तुम कहते पाये
जाते हो कि
हमारे घर में
तो यह सदा से
चला आया है।
हमारे पिता भी
करते थे, उनके
पिता भी करते
थे, इसलिए
हम भी कर रहे
हैं। तुमने
कभी यह भी
पूछा कि इसके
करने का कोई
प्रयोजन है, कोई लाभ है? इसके करने
से जीवन में
कुछ संपदा, शांति, आनंद
का अवतरण होता
है? नहीं, तुम्हारे
पिताजी भी सत्यनारायण
की कथा करवाते
थे, तुम भी
करवा रहे हो; क्योंकि
हमारे यहां
सदा से होता
चला आया है! और सत्यनारायण
की कथा में
सत्य जैसा कुछ
भी नहीं है; मगर हो रही
है कथा!
क्योंकि न
करवायें, तो
तुम अकेले पड़
जाते हो, भीड़
से टूटते हो।
और भीड़
के साथ हम
जुड़े रहते
हैं--भय के
कारण। अकेले
होने में डर
लगता है।
मंदिर तुम चले
जाते हो--पिताजी
भी जाते थे; पिताजी के
पिताजी भी
जाते थे। उनसे
भी अगर पूछा जाता,
वे कहते, "हम क्या
करें, हमारे
पिताजी जाते
थे, उनके
पिताजी जाते
थे।' ऐसे
पंक्तिबद्ध मूढ़ता
चलती रहती है।
हिम्मत
होनी चाहिए
साधक में, कि वह इस
पंक्ति के
बाहर निकल
आये। अगर उसे
ठीक लगे तो
बराबर करे, लेकिन ठीक
लगना चाहिए
स्वयं की
बुद्धि को। यह
उधार नहीं होना
चाहिए। और अगर
ठीक न लगे, तो
चाहे लाख कीमत
चुकानी पड़े तो
भी करना नहीं चाहिए,
हट जाना
चाहिए।
तुम
झुक जाते हो
पत्थर की
मूर्ति के
सामने जाकर, क्योंकि और
सब भी कहते
हैं कि भगवान
की मूर्ति है।
और तुम कभी भी
नहीं सोचते कि
भगवान की
मूर्ति है!
भगवान की कोई
मूर्ति हो
सकती है? क्योंकि
समस्त ज्ञानी
कहते हैं, वह
अमूर्त, निराकार,
निर्गुण, अनंत, असीम--उसकी
मूर्ति हो
सकती है? हां,
अगर
तुम्हें लगता
हो, तुम्हारी
अंतरप्रज्ञा
कहती हो, हां,
हो सकती है,
तुम्हारे
भाव में लगता
हो कि हां, है--तो
झुकना। फिर
चाहे सारा
संसार कहे कि
नहीं है तो
फिक्र मत
करना। तो
महावीर यह
नहीं कह रहे
हैं, वे
तुम्हें कोई
स्पष्ट
निर्देश नहीं
दे रहे हैं कि
तुम क्या करो।
वे इतना ही कह
रहे हैं कि जो
भी तुम करो वह
तुम्हारी
अंतःप्रज्ञा
की साक्षी से
किया गया हो, बस। वे यह
नहीं कह रहे
हैं कि तुम
मस्जिद जाओ कि
मंदिर जाओ कि
गुरुद्वारा
कि चर्च। इससे
कोई प्रयोजन
नहीं है। जो
तुम्हारी
अंतःप्रज्ञा
कहे, जो
तुम्हारा बोध
कहे, वही
तुम करना; उससे
अन्यथा मत
करना, अन्यथा
वह लोकमूढ़ता
होगी।
दूसरी मूढ़ता को
उन्होंने
कहा--देवमूढ़ता, कि लोग
देवताओं की
पूजा करते
हैं। कोई
इंद्र की पूजा
कर रहा है कि
इंद्र पानी गिरायेगा;
कि कोई कालीमाता
की पूजा कर
रहा है कि
बीमारी दूर हो
जायेगी। लोग
देवताओं की
पूजा कर रहे
हैं।
महावीर
कहते हैं, देवता भी तो
तुम्हारे ही
जैसे हैं! यही
वासनायें, यही
जाल, यही
जंजाल उनका भी
है। यही
धन-लोलुपता, यही
पद-लोलुपता, यही राजनीति
उनकी भी है।
तो अपने ही
जैसों की पूजा
करके, तुम
कहां पहुंच
जाओगे? जो
उन्हें नहीं
मिला है वह
तुम्हें कैसे
दे सकेंगे?
महावीर
कहते हैं कि
देवता का अर्थ
है: होंगे स्वर्ग
में, सुख में
होंगे, तुमसे
ज्यादा सुख
में होंगे; लेकिन अभी
आकांक्षा से
मुक्त नहीं
हुए।
महावीर
और बुद्ध ने
मनुष्य की
गरिमा को
देवता के ऊपर
उठाया।
महावीर और
बुद्ध ने
देवताओं को आदमी
के पीछे छोड़
दिया। महावीर
और बुद्ध ने
कहा कि जो
निर्विकार हो
गया है, जो निष्कांक्षा
से भर गया है, जो निष्काम
हो गया है, देवता
भी उसके पैर छुएं, देवता
भी उसके चरणों
में झुकें।
हिंदू बहुत
नाराज हुए, क्योंकि जैन
कथायें हैं, बौद्ध
कथायें
हैं--ब्रह्मा,
विष्णु, महेश
को भी बुद्ध
और महावीर के
चरणों में
झुका देती
हैं। बुद्ध को
जब ज्ञान हुआ,
तो खुद
ब्रह्मा आकर
चरण छुआ।
हिंदुओं को
बड़ा कष्ट हो
जाता है कि यह
क्या बात हुई:
"ब्रह्मा से
पैर छुआ रहे
हो! ब्रह्मा
तो जगत का स्रष्टा
है। उसने तो
बनाया। और
ब्रह्मा से
पैर छुआ रहे
हो!'
लेकिन
जैनों और
बौद्धों का
कारण है।
वे
कहते हैं, ब्रह्मा का
जीवन तो उठाकर
देखो। कथा है,
कि उसने
पृथ्वी को बनाया,
और वह
पृथ्वी पर
मोहित हो गया,
कामातुर हो
गया। कामांध
होकर पृथ्वी
के पीछे भागने
लगा। पिता, बेटी के
प्रति कामांध
हो गया! बेटी
घबड़ा गई कि इस
पिता से कैसे
बचे! तो वह
अनेक-अनेक
रूपों में
छिपने लगी। वह
गाय बन गई, तो
ब्रह्मा सांड
बन गया। और इस
तरह सारी
सृष्टि हुई।
जैन और
बौद्ध कहते
हैं कि ये तो
देवता भी कामातुर
हैं! तो तुम
हिंदू
देवताओं की
कथायें पढ़ो।
किसी ऋषि की
पत्नी सुंदर
है, तो कोई
देवता लोलुप
हो जाता है, काम-लोलुप
हो जाता है, तो षडयंत्र
करके स्त्री
के साथ कामभोग
कर लेता है।
महावीर
और बुद्ध कहते
हैं कि यह तो देवमूढ़ता
हुई। अगर
पूजना है तो
उनको पूजो, जिनके जीवन
से सारी
आकांक्षा चली
गई है। अगर पूजना
है, तो
उनको पूजो,
जिनके जीवन
से सारे
मल-दोष समाप्त
हो गए हैं।
इन
देवताओं का
चरित्र तो
देखो, महावीर
कहते हैं! हम
गौर से कभी
देवताओं का चरित्र
देखते नहीं, अन्यथा हम बड़े
चकित होंगे कि
इस चरित्र के
रहते हुए, इनको
देवता कहे
जाने का कारण
क्या है!
दिव्यता तो
कहीं भी मालूम
नहीं पड़ती।
इंद्र
के संबंध में
कितनी कथायें
हैं कि जब भी
कोई तेजस्वी
व्यक्ति, कोई
तपस्वी, चैतन्य
की ऊंचाइयों
पर पहुंचने
लगता है, सहस्रार
के करीब उसकी
ऊर्जा आती है,
कि इंद्र का
देवासन डोलने
लगता है।
क्यों? क्योंकि उसे
डर लगता है कि
कोई
प्रतिद्वंद्वी
पैदा हुआ।
प्रतिद्वंद्वी!
यह तो कोई
राजनीतिज्ञ
की स्थिति हो
गई, कि कोई
राष्ट्रपति
है, कोई
प्रधानमंत्री
है, और
दूसरा चेष्टा
करने लगा, और
लोक में उसकी
प्रतिष्ठा
बढ़ने लगी तो घबड़ाहट
पैदा हो जाती
है कि यह आदमी
कुर्सी छीनने
आ रहा है!
यह
इंद्र देवता
कैसा, जिसको
अपने आसन के
छिन जाने की
इतनी चिंता और
घबड़ाहट
है; और फिर
जो उस आसन को
बचाने के लिये
सब तरह के उपाय
करता है--सही, गलत; भेज
देता है मेनका
को कि भ्रष्ट
करो
विश्वामित्र
को! यह तो ऐसे
ही हुआ जैसे
राजनेता के
पास किसी
वेश्या को भेज
दिया, और
फिर चित्र
निकलवा लिये
और अखबारों
में छाप दिये
तो लोक में
प्रतिष्ठा
खतम हो गई! यह
तो कोई सम्यक
उपाय भी न
हुआ। यह तो
शुद्ध
राजनीति भी न
हुई। यह तो
राजनीति का भी
बड़ा गर्हित
रूप हुआ। यह
तो तरकीब बड़े वासनातुर
चित्त की हो
सकती है।
तो
महावीर कहते
हैं, पहली मूढ़ता--लोकमूढ़ता;
दूसरी मूढ़ता--देवमूढ़ता।
देवताओं
से सावधान!
दिव्यत्व
की पूजा
करो--देवताओं
की नहीं। और दिव्यत्व
कभी-कभी घटता
है--उन
मनीषियों में, जिनके भीतर
चैतन्य सब तरह
से शुद्ध और
निर्विकार
हुआ। ध्यान की
आखिरी
ऊंचाई--समाधि--समाधि
की पूजा करो!
इसलिए जैनों
ने महावीर की
पूजा की, ऋषभ
की पूजा की, नेमि की
पूजा की; तीर्थंकरों की पूजा की, देवताओं की
पूजा नहीं की।
मनुष्यों की
पूजा की, जो
परमशुद्ध
हो गए!
बौद्धों ने
बुद्ध की पूजा
की, बुद्ध
को भगवान कहा;
लेकिन
देवताओं को
नहीं पूजा। यह
बड़ी क्रांतिकारी
घटना थी। यह
बड़ी गहरी
दृष्टि थी। इस
दृष्टि से बड़े
रूपांतर हुए।
धर्म का नया
रूप प्रगट
हुआ।
और
तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते
हैं--गुरुमूढ़ता।
लोग हर किसी
को गुरु बना
लेते हैं!
जैसे बिना गुरु
बनाए रहना ठीक
नहीं मालूम
पड़ता--गुरु तो
होना ही
चाहिए! तो
किसी को भी
गुरु बना लेते
हैं। किसी से
भी कान फुंकवा
लिए! यह भी
नहीं सोचते कि
जिससे कान फुंकवा
रहे हैं उसके
पास कान फूंकने
योग्य भी कुछ
है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं कि हम
पहले गुरु बना
चुके हैं, तो
आपका ध्यान
करने से कोई
अड़चन तो न
होगी? मैंने
कहा, "अगर
तुम्हें पहले
गुरु मिल चुका
है तो यहां आने
की कोई जरूरत
नहीं।' वे
कहते हैं, "मिला
कहां!' वह
तो गांव में
जो ब्राह्मण
था, उसी को
बना लिया था।
अभी
उसको खुद ही
कुछ नहीं
मिला। तो तुम
सोचते तो थोड़ा
कि जिसे तुम
गुरु बनाने जा
रहे हो, वह
कम से कम
तुमसे एक कदम
तो आगे हो!
लेकिन गुरु होना
चाहिए!...बिना
गुरु के कैसे
रहें! तो किसी
को भी गुरु
बना लेते हो!
जो मिल गया
वही गुरु हो गया।
पिता के गुरु
थे तो वही
तुम्हारे
गुरु हो गये, पति के गुरु
थे तो वही
पत्नी के गुरु
हो गये। बिना
इस बात का
विचार किए कि
यह बड़ी महिमापूर्ण
बात है, यह
जीवन की बड़ी
चरम खोज
है--गुरु को
खोज लेना!
गुरु
को खोज लेने
का अर्थ, एक
ऐसे हृदय को
खोज लेना है
जिसके साथ तुम
धड़क सको
और उस लंबी
अनंत की
यात्रा पर जा
सको।
तो
महावीर कहते
हैं, ये तीन मूढ़ताएं
हैं और इन मूढ़ताओं
के कारण
व्यक्ति सत्य
की तरफ नहीं
जा पाता। या
तो भीड़ को
मानता है, या
देवी-देवताओं
को पूजता रहता
है। कितने देवी-देवता
हैं! हर जगह
मंदिर खड़े
हैं। हर कहीं
भी झाड़ के
नीचे रख दो एक
पत्थर और पोत
दो लाल रंग उस
पर, थोड़ी
देर में तुम
पाओगे, कोई
आकर पूजा कर
रहा है! तुम
करके देखो!
तुम सिर्फ
बैठे रहो दूर
छिपे हुए, देखते
रहो। तुमने ही
पत्थर रख दिया
है और सिंदूर
पोत दिया है; थोड़ी देर
में कोई न कोई
आकर पूजा
करेगा। बड़ी मूढ़ता है।
मैंने
सुना है, जिस
आदमी ने
अमरीका में
पहला बैंक
खोला, उससे
बाद में जब
पूछा गया, कि
तुमने यह बैंक
खोला कैसे? उसने कहा कि
कोई काम-धाम न
था मेरे पास, कुछ और न सूझा
मेरे लिए तो
मैंने एक
तख्ती लटका दी
अपने घर के
सामने, "बैंक'
उस पर लिख
दिया। थोड़ी
देर में देखा
कि एक आदमी आकर
ढाई सौ डालर
जमा करवा गया।
तो मैं खुद भी
चमत्कृत हुआ।
यह मैंने सोचा
न था। दूसरे
दिन देखा कि
एक दूसरा आदमी
आया और वह भी
कोई सौ डालर
जमा करवा गया।
फिर तो मेरी इतनी
हिम्मत बढ़ गई
कि मेरे पास
जो पच्चीस
डालर थे वे भी
मैंने जमा कर
दिये। बैंक चल
पड़ा!
तुम
अगर थोड़ी देर
किसी पत्थर पर, सिंदूर
पोतकर बैठ जाओ,
तो शाम होतेऱ्होते
तुम खुद ही
पूजा करोगे।
क्योंकि तुम देखोगे कि
इतने लोग पूजा
कर रहे हैं, सभी गलत
थोड़े ही हो
सकते हैं!
माना कि
तुम्हीं ने
रंग पोता था, लेकिन जरूर
कुछ बात होगी,
कुछ राज
होगा। शायद
तुमने ठीक
पत्थर पर रंग
पोत दिया है।
अनजाने सही।
तुमने
परमात्मा की
किसी प्रतिमा
पर रंग डाल
दिया, इतने
लोग पूज रहे
हैं!
यह मूढ़ता
छूटनी
चाहिए।
...तो
महावीर कहते
हैं अमूढ़दृष्टि
पैदा होती है।
अमूढ़दृष्टि
चौथा चरण है
सम्यक दर्शन
का।
पांचवां
चरण है: उपगूहन।
उपगूहन
का अर्थ है:
अपने गुणों और
दूसरों के
दोषों को प्रगट
न करना। यह
जुगुप्सा के
ठीक विपरीत है।
अपने गुण
प्रगट न करना
और दूसरे के
दोष प्रगट न
करना। हम तो
करते हैं उलटा
ही:
अपने गुण
प्रगट करते
हैं, जो नहीं
हैं वे भी
प्रगट कर देते
हैं; और
दूसरे के दोष
प्रगट करते
हैं, जो
नहीं है वे भी
प्रगट कर देते
हैं, जो
हैं उनकी तो
बात ही छोड़
दो।
महावीर
कहते हैं, जिसको सत्य
की खोज पर
जाना है, उसे
ये सारे संयम,
ये अनुशासन,
ये मर्यादाएं,
अपने जीवन
में उभारनी
पड़ेंगी। अपने
गुणों को मत
कहना, दूसरों
के दोषों को
मत कहना।
तुम्हारा
क्या प्रयोजन
है? दूसरे
का दोष
है--दूसरा
जाने। और तुम
जान भी कैसे
सकते हो, क्योंकि
तुम दूसरे के
स्थान पर खड़े
नहीं हो सकते।
दूसरे की
परिस्थिति का
तुम्हें पता
नहीं है।
दूसरे ने किस
परिस्थिति
में ऐसा दोष
किया, इसका
तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
अगर वैसी ही
ठीक
परिस्थिति
तुम्हारे
जीवन में भी
होती तो शायद
तुम भी न बच
सकते।
कोई
भूखा है, और
किसी ने चोरी
कर ली; किसी
की मां मर रही
है और दवा
नहीं है, और
किसी ने किसी
का जेब काट
लिया--तुम भी
उसकी परिस्थिति
में अपने को
रखकर देखो, तो शायद तुम
भी यही कर
लेते।
लेकिन
हम परिस्थिति
से तोड़ लेते
हैं तथ्यों को
अलग। हम कहते
हैं, यह आदमी
चोर है! और हम
परिस्थितियों
की बात ही भूल
जाते हैं। यह
किन
परिस्थितियों
में चोर था?
मनोवैज्ञानिक
पश्चिम में
बहुत अध्ययन
कर रहे हैं
अपराध के ऊपर।
और उनके जो
नतीजे हैं वे
बहुत घबड़ानेवाले
हैं। आनेवाली
सदी में, अगर
उनके नतीजे
स्वीकार किये
गये तो
अदालतों को
विदा हो जाना
पड़ेगा।
अदालतों के
ज्यादा दिन नहीं
हैं--दिन लद
गये! क्योंकि
अदालतें
बुनियादी
गलती पर खड़ी
हैं।
मजिस्ट्रेट
इस तरह से
बैठकर निर्णय
करता है जैसे
कि चोर होना
कोई सारी परिस्थितियों
से टूटा हुआ
अलग तथ्य है।
उन्हीं परिस्थितियों
में यह
मजिस्ट्रेट
भी चोरी करता।
मनस्विद
कहते हैं कि
अपराध की
जितनी समझ
बढ़ती जा रही
है, उससे पता
चलता है कि
लोग मजबूरी
में अपराध करते
हैं।
दो तरह
के अपराधी
हैं। एक तो
अपराधी हैं जो
इस तरह मजबूर
हो जाते हैं, इस तरह
मजबूर किये
जाते हैं, सारी
समाज की
परिस्थिति
उन्हें ऐसी
जगह ले आती है,
जहां अपराध
किये बिना वे
जी नहीं सकते।
जहां अपराध
करना ही उनके
बचने का
एकमात्र उपाय
रह जाता है।
अगर अपराध न
करना हो तो
मरने के सिवा उनके
पास कोई
सुविधा नहीं
है। और मजा यह
है कि इस समाज
में मरना भी
अपराध है।
यहां
आत्महत्या
करना भी अपराध
है। अगर करते पकड़े गये
तो सजा पाओगे।
यहां जीना तो
मुश्किल है ही,
यहां मरना
भी मुश्किल
है। यहां जीने
भी नहीं देते
ठीक से, यहां
मरने की भी
आज्ञा नहीं
है।
तो ऐसी
परिस्थिति
में कुछ लोग
हैं, जो अपराध
करते हैं। और
कुछ दूसरा एक
वर्ग है जो
किसी मानसिक
रोग के कारण
अपराध करता
है। उसकी
परिस्थिति
नहीं थी अपराध
करने की। जैसे
क्लिप्टोमैनिया
है। कुछ लोग
हैं जिनको
चोरी का रोग
होता है। अपराध
नहीं। उनको
चोरी करने में
मजा आता है।
उनको कोई कमी
नहीं है। वे
लखपति हो सकते
हैं, और
ऐसी चीजों की
चोरी कर सकते
हैं जिनका कोई
मूल्य भी नहीं
है; जैसे
कि माचिस की
डिबिया
उन्होंने
खीसे में रख
ली। कोई कारण
नहीं है, क्योंकि
उनके पास खूब
है। और माचिस
की डिबिया का
कोई मूल्य
नहीं है।
लेकिन उनको
कुछ मानसिक रोग
है।
मैं एक
प्रोफेसर को
जानता हूं।
उनको इस तरह
का रोग था।
उनकी पत्नी ने
मुझे कहा कि
आप कुछ करिये।
वे कोई ऐसी
चीज भी चुराकर
नहीं लाते हैं
कि कोई अपराध
कहा जा सके।
किसी के घर
बैठे हैं, पैंसिल दिख
गई, वह
खीसे में सरका
ली। किसी के
यहां भोजन
करने गये हैं,
चम्मच ही
डाल लिया।
पत्नी परेशान
कि यह आज नहीं
कल, यह
झंझट...। और
उसने मुझसे
कहा कि आपसे
उनका लगाव है;
शायद...।
तो मैं
उनसे
धीरे-धीरे बात
किया। मैंने
उनकी बड़ी प्रशंसा
की, क्योंकि
मैं समझा कि
उनको कोई कमी
तो है नहीं।
धनपति घर से
हैं, अच्छी
नौकरी पर हैं।
पत्नी भी
नौकरी पर है, खुद भी
नौकरी पर हैं।
सब कुछ है। तो
कोई चम्मच चुराने
का कोई
परिस्थिति
में तो कारण
नहीं है। तो
जरूर कुछ मन
में कारण
होगा। तो
मैंने कभी उनकी
चोरी का विरोध
नहीं किया। इस
ढंग से उनको
फुसलाया कि
उनको लगे कि
शायद मैं भी
उसी रोग का
बीमार हूं।
उनको मैंने
इसी तरह बात
की कि जैसे
मैं भी चम्मचें
उठा लाता हूं।
तो उन्होंने
कहा, "अरे!
यह तो अच्छा
हुआ; आपसे
दिल खोल सकते
हैं। आपको मैं
दिखाऊंगा,
घर चलिए।' उन्होंने एक
अलमारी में, जितनी चीजें
चुराई थीं वे
सब सजा रखी
थीं। उस पर चिटें
भी लगा रखी
थीं कि किसके
घर से कब लाए।
और उन्होंने
बड़ी
प्रसन्नता से
दिखाईं।
उनका
इलाज करना
पड़ा। वे
मानसिक रूप से
रोगी थे। चोरी
के माध्यम से, वे यह सिद्ध
कर रहे थे कि
वे दूसरों से
ज्यादा कुशल
हैं। दूसरे
उनकी चोरी
नहीं पकड़ पाते,
वे कर जाते
हैं। यह चोरी
में चोरी कारण
नहीं थी--अपनी
कुशलता, अपनी
होशियारी, सिद्ध
करने की
चेष्टा थी।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, इस तरह का
बीमार
चिकित्सा
चाहता है।
उसको मनोचिकित्सा
चाहिए। और
जिसने
परिस्थितिगत
रूप से चोरी की
हो, उसकी
परिस्थिति
में रूपांतरण
चाहिए। अपराध समाप्त
हो जाते हैं।
या तो कोई
परिस्थिति के
कारण चोर है
तो परिस्थिति
बदलनी चाहिए;
और या कोई
मानसिक रोग के
कारण चोर है, तो मानसिक
रोग का इलाज
होना चाहिए। जेलखाने
खाली हो जाते
हैं। जेलखाने
में बस दो तरह
के लोग पड़े
हुए हैं।
महावीर
कहते हैं, दूसरे के
दोष को बताना
ही मत।
तुम्हें क्या
पता, किस
मजबूरी में, किस कठिनाई
में उसने किया
हो? और
तुम्हें क्या
पता उसके
जन्मों-जन्मों
की जीवन-कथा
का? लंबी
यात्रा है। उस
लंबी यात्रा
में कहां उसने
किसी दोष को
अर्जित कर
लिया हो, अनजाने
सीख लिया हो!
और फिर
तुम कौन हो
निर्णायक?
जीसस
ने भी यही बात
कही है। कहा
है कि निर्णायक
मत बनना, "जज
ई नाट!' दूसरे
के न्यायाधीश
मत बनना।
दूसरा स्वयं
जिम्मेवार है
अपने कृत्यों
के लिए; अपने
कृत्यों का फल
स्वयं पा
लेगा। तुम बीच
में निंदा, तुम बीच में
विरोध और
व्याख्या मत
करना। और
ध्यान रखना, जैसे दूसरे
के गुणों को
देखना जरूरी,
दुर्गुणों को देखना
जरूरी
नहीं--अपने दुर्गुणों
को देखना
जरूरी है, अपने
गुणों को
देखना जरूरी
नहीं है।
क्योंकि जो
व्यक्ति अपने
गुणों को बहुत
देखने लगता है,
वह फूलने लगात है
गुब्बारे
जैसा। उसका
अहंकार मजबूत
होने लगता है।
तो अपने गुब्बारे
को, अहंकार
के गुब्बारे
को दोषों को
देख-देखकर फोड़ते
रहना, ताकि
अहंकार बड़ा न
हो। और अपने
गुणों की कोई
चर्चा मत
करना।
क्योंकि अगर
वे हैं तो
उनकी सुगंध
अपने से पहुंच
जाएगी। अगर वे
नहीं हैं तो चर्चा
करने से कुछ सार
नहीं।
"उपगूहन' के बाद छठवां
है:
स्थिरीकरण।
महावीर कहते
हैं कि जीवन
की, सत्य
की इस यात्रा
में बहुत बार
चूकें होंगी;
बहुत बार
पांव
यहां-वहां पड़
जायेंगे; बहुत
बार तुम भटक
जाओगे। तो
उसके कारण
व्यर्थ परेशान
मत होना और
अपराध भाव भी
मत लाना। यह स्वाभाविक
है। जब भी
तुम्हें
स्मरण आ जाए, फिर अपने को
मार्ग पर आरूढ़
कर लेना। उसका
नाम है:
स्थिरीकरण।
फिर अपने को
स्थिर कर
लेना।
जैसे
तुमने तय किया, क्रोध न
करेंगे; समझ
आई कि क्रोध न
करेंगे; देखा,
बार-बार
क्रोध करके कि
सिवाय दुख के
कुछ भी न हुआ; देखा क्रोध
करके कि अपने
लिये भी नर्क
बना, दूसरे
के लिये भी
नर्क बना--तय
किया, अब
क्रोध नहीं
करेंगे। ऐसी समझपूर्वक
एक स्थिति बनी
क्रोध न करने
की। लेकिन फिर
भी चूकें
होंगी। किसी
आवेश के क्षण
में पुनः क्रोध
हो जाएगा।
लंबी आदत है।
जन्मों-जन्मों
के संस्कार
हैं; इतनी
जल्दी नहीं
छूट जाते।
फिर-फिर पकड़
लिये जाओगे।
तो जब याद आ
जाए, जैसे
ही याद आ जाए, अगर क्रोध
के मध्य में
याद आ जाए, तो
पुनः अपने को
अक्रोध में
स्थिर कर
लेना। अगर
गाली आधी निकल
गई थी, तो
बस आधी को
पूरा भी मत
करना। यह भी
मत कहना कि अब
पूरी तो कर
दूं। बीच से
ही रोक लेना।
वहीं क्षमा
मांग लेना।
वहीं हाथ जोड़
लेना। कहना, माफ करना, क्षमा करना,
भूल हो गई।
वापस लौट आना।
फिर स्थिर हो
जाना।
स्थिरीकरण
बहुत उपयोगी
सूत्र है। और
जिनको जीवन को
साधना है, उनके लिए
निरंतर उसका
उपयोग करना
होगा, क्योंकि
भूलें तो
होंगी ही। फिर
भूलों को लेकर
मत बैठ जाना
और उनमें बहुत
रस मत लेने
लगना, कि
भूल हो गई, अपराध
का भाव, और गिल्ट...।
क्योंकि वह भी
गलत है। वह भी
नाहक अपने घाव
को कुरेद-कुरेदकर
खराब करना है।
हो गई भूल, याद
आ गई, वापस
लौट जाए।
तुम
ध्यान करने
बैठते हो, थिरता टूट
जाती है: किसी
विचार के पीछे
चल पड़े। कभी-कभी
ऐसे विचार, जिनसे
तुम्हें जाने
का कोई संबंध
न था--तुम ध्यान
करने बैठे, एक कुत्ता
भौंकने लगा; अब कुत्ते
के भौंकने से
तुम्हारा कोई
लेना-देना न
था, लेकिन
कुत्ते के
भौंकने से
तुमको अपने
मित्र के
कुत्ते की याद
आ गई। मित्र
के कुत्ते की
याद आई तो
मित्र की याद
आ गई। मित्र
के साथ कभी दो
साल पहले कोई
सुंदर दिन
बिताया था
पहाड़ों पर, वह याद आ
गया--चल पड़े!
जब याद
आ जाये कि अरे!
तब तत्क्षण
स्थिर हो जाना।
फिर वापस लौट
आना। फिर इसको
लेकर परेशान
मत होना, कि
यह मैंने क्या
कर लिया, क्योंकि
वह परेशानी भी
फिर ध्यान में
न लगने देगी।
तो जैसे ही
याद आ जाए, स्मरण
हो, चुपचाप
अपने को स्थिर
कर लेना। नहीं
तो लोग क्या
करते
हैं--पहले
गलती करते हैं,
फिर गलती के
संबंध में
पश्चात्ताप
करते हैं, फिर
रोते हैं, अपराध
अनुभव करते
हैं--तो गलती
से भी ज्यादा
गलती हो गई।
गलती तो एक
जगह होकर पूरी
हो गई फिर
उसका सिलसिला
चल पड़ा। अब
उसका पश्चात्ताप
करो। अब रोओ।
अब कहो कि भूल
हो गई, डिग गया अपने पथ
से, पापी
हो गया!
महावीर
कहते हैं, इस सब में
पड़ने की इतनी
ऊर्जा खराब मत
करना। आया
स्मरण, कि
भूल के रास्ते
पर चले गये थे,
तत्क्षण
चुपचाप वापस
लौट आना। ऐसा
बार-बार
स्थिरीकरण होतेऱ्होते,
होतेऱ्होते,
जिसको
कृष्ण ने
स्थिति भी कहा
है, स्थितिप्रज्ञ कहा है--वह
स्थिति
घटेगी। कभी
ऐसी घड़ी आ
जाती है कि
फिर कोई भूल
नहीं होती।
तुम्हारी
थिरता शाश्वत
हो जाती है।
तुम्हारी लौ
अकंप हो जाती
है।
सातवां:
वात्सल्य।
इसे समझना।
भक्ति
के संप्रदाय, प्रार्थना
को मूल्य देते
हैं। तो तीन
शब्द समझ लेना,
तो ही
वात्सल्य समझ
में आयेगा:
प्रार्थना, प्रेम, वात्सल्य।
प्रार्थना
होती है, जो
अपने से बड़ा
है--परमात्मा,
उसके
प्रति।
प्रार्थना
में एक मांग
होती है। प्रार्थना
शब्द में ही
मांग छिपी है।
इसलिए मांगनेवाले
को हम
प्रार्थी
कहते हैं।
मांगा उससे जा
सकता है जिसके
पास हमसे
ज्यादा हो, अनंत हो। तो
प्रार्थना
सिर्फ भगवान
से की जा सकती
है। लेकिन
महावीर की
व्यवस्था में
भगवान की कोई
जगह नहीं
है--प्रार्थना
की कोई जगह
नहीं।
फिर
दूसरा शब्द
है: प्रेम।
प्रेम होता है
सम अवस्था, सम स्थितिवाले
लोगों में--एक
स्त्री में, एक पुरुष
में; दो
मित्रों में,
मां में, बेटे में; भाई-भाई
में--ऐसा
समस्थिति!
परमात्मा ऊपर
है, प्रार्थी
नीचे है।
लेकिन प्रेमी
साथ-साथ खड़े हैं।
परमात्मा से
सिर्फ मांगा
जा सकता है, उसको दिया
तो क्या जा
सकता है! देने
को हमारे पास
कुछ भी नहीं
है। उसके सामने
हम निपट
भिखारी हैं, समग्ररूपेण
भिखारी।
देंगे क्या? देने को कुछ
भी नहीं है।
अपने को भी
दें तो भी वह
देना नहीं है,
क्योंकि हम
भी उसी के हैं
तो देना क्या
है? उससे
हम सिर्फ मांग
सकते हैं, सिर्फ
मांग सकते
हैं। उसके सामने
हम सिर्फ
भिखारी हो
सकते हैं।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, परमात्मा
की कोई जरूरत
नहीं, क्योंकि
परमात्मा के
कारण सारा
संसार भिखारी
हो जाता है।
प्रेम
में हम लेते
हैं, देते हैं,
क्योंकि
दोनों समान
हैं। जिसको
तुम प्रेम करते
हो, तुम
देते भी हो; लेकिन देते
तुम इसीलिए हो
कि मिले। जो
तुम्हें
प्रेम करता है,
वह भी देता
है; लेकिन
देता इसीलिए
है कि मिले, वापिस हो।
तो प्रेम में
लेन-देन है।
परमात्मा की
तरफ से इकतरफा
है; सिर्फ
मिलता है; देने
को हमारे पास
कुछ भी नहीं
है। प्रेमी
लेते-देते
हैं।
वात्सल्य
ठीक
प्रार्थना का
उलटा है।
वात्सल्य का
अर्थ है: तुम
दो। इसलिए हम
कहते हैं, मां का
वात्सल्य
होता है बेटे
की तरफ। बेटा
क्या दे सकता
है? छोटा-सा
बेटा है, अभी
पैदा हुआ, चल
भी नहीं सकता,
बोल भी नहीं
सकता, कुछ
लाया भी नहीं,
बिलकुल नंग-धड़ंग चला
आया है। हाथ
खाली है। वह
देगा क्या? इसलिए समान
तल तो है नहीं
मां का और
बेटे का। और
मांग भी नहीं
सकता, क्योंकि
मांगने के लिए
भी अभी उसके
पास बुद्धि
नहीं है। तो
मां का
वात्सल्य है।
मां उसे जो प्रेम
करती है वह
सिर्फ
देने-देने का
है। मां देती
है, वह
लौटा भी नहीं
सकता। उसको
अभी होश ही
नहीं लौटाने
का।
वात्सल्य
का अर्थ है:
तुम दो जैसे
मां देती है।
तो
महावीर कहते
हैं, प्रार्थना
नहीं, प्रेम
नहीं--वात्सल्य।
तुम तो लुटाओ,
जो
तुम्हारे पास
है दिये चले
जाओ। इसकी
फिक्र ही मत
करो कि किसको
दिया। बस इसकी
फिक्र करो कि
दिया। तो जो
तुम्हारे पास
हो, वह तुम
देते चले जाओ।
कुछ तुम्हारे
पास बाहर का
देने का न हो
तो भीतर का
दो। वस्तुएं न
हों तो अपना
प्राण बांटो,
अपना
अस्तित्व
बांटो, पर
दो और देते
रहो!
तो
जैसे भक्ति के
रास्ते पर
प्रार्थना
सूत्र है, ठीक उससे
विपरीत, ध्यान
के रास्ते पर
वात्सल्य
सूत्र है।
भक्ति के
रास्ते पर तुम
भिखारी होकर
भगवान के
मंदिर पर जाते
हो: ध्यान के
रास्ते पर तुम
सम्राट होकर,
तुम बांटते
हुए जाते हो, तुम देते
हुए जाते हो!
तुम मांगते
नहीं। क्योंकि
मांग में तो
आकांक्षा
है--वह तो पहले
ही चरण में
समाप्त हो गई।
अब
तुम्हारे पास
कुछ है, तुम
उसे बांटते
हो--और जब तुम
बांटते हो, तब तुम पाते
हो: और आने लगा!
अनंत ऊर्जा
उठने लगी!
तुम्हारे सब
जलस्रोत खुल
जाते हैं।
तुम्हारे
झरने सब फूट
पड़ते हैं।
जितना
तुम्हारे कुएं
से पानी उलीचा
जाता है, तुम
पाते हो: उतना
ही नया पानी आ
रहा है। सागर
तुममें अपने
को उंडेलने
लगता है।
तो लुटाओ!
दोनों हाथ
उलीचिए, यही
सज्जन को काम।
कबीर ने कहा
है: उलीचो!
महावीर का
वात्सल्य वही
है जिसको कबीर
कहते हैं: उलीचना।
और प्रभावना!
और
आठवां चरण है
सम्यक दर्शन
का: प्रभावना।
यह महावीर का
अपना शब्द है।
इसके लिए कहीं
तुम्हें
पर्याय न
मिलेगा। प्रभावना
का अर्थ होता
है: इस भांति जीयो कि
तुम्हारे
जीने से धर्म
की प्रभावना
हो। इस ढंग से
उठो-बैठो कि
तुम्हारे
उठने-बैठने से
धर्म झरे।
और जिनके जीवन
में धर्म की
कोई रोशनी
नहीं है, उनको
भी प्यास पैदा
हो। तुम्हारा
चलना, तुम्हारा
व्यवहार, तुम्हारे
जीवन की
शैली--सभी प्रभावना
बन जाए। प्रभावना--धर्म
की, सत्य
की।
तुम एक
ज्योतिर्मय
व्यक्तित्व
बन जाओ कि जिनके
भी पास ज्योति
नहीं है, उनको
भी ज्योति
होनी चाहिए!
और यह
जीवन--अंधेरे
का भी क्या
कोई जीवन है, ऐसा भाव उठे!
तुम जहां से
गुजर जाओ, वही
लोगों के हृदय
में एक लहर
दौड़ जाए। और
लोगों का जीवन
सत्य की तरफ
उन्मुख हो।
महावीर
कहते हैं, इस सत्य की
खोज का आठवां
अंग है: प्रभावना।
क्योंकि तुम
जब सत्य को
खोजने चले हो,
तो अकेले
नहीं। उसमें
भी कंजूसी मत
कर बैठना। नहीं
तो वह भी
स्वार्थ हो
जायेगा। तो
जिसकी खोज पर
तुम चले हो और
जो तुम्हें
मिलने लगा है,
उसकी खोज पर
औरों को भी
लगा देना।
लेकिन खयाल रखना,
महावीर बड़े
अनूठे शब्दों
का उपयोग करते
हैं। वे यह
नहीं कहते, तुम लोगों
को उपदेश
देना। वे यह
नहीं कहते, तुम लोगों
को आदेश देना।
वे कहते हैं, प्रभावना!
तुम्हारे
होने के ढंग
से ही उनको
उपदेश मिल जाए।
तुम्हारे होने
के ढंग से
उनको आदेश मिल
जाए।
तुम्हारा होने
का ढंग ही
उनको पकड़ ले
और एक नये
नृत्य में डुबा
दे और एक, एक
नई मस्ती से
भर दे!
तुम्हारा
होना ही, तुम्हार अस्तित्व
मात्र, तुम्हारा
उनके पास से
गुजर जाना: एक
नए जगत का प्रवेश
हो जाए उनके
जीवन में!
तुम्हारा
उनके पास आ
जाना, तुम्हारा
सत्संग, तुम्हारी
मौजूदगी, उन्हें
रूपांतरित कर
दे! उनकी
आंखें उस तरफ
उठ जायें जहां
कभी न उठी
थीं। लेकिन
इसके लिए वे जो
शब्द उपयोग
करते हैं, वह
बड़ा अनूठा है: प्रभावना!
तुम उन्हें
प्रभावित भी
करने की
चेष्टा मत करना।
तुम्हारा
होना प्रभावना
बने! वे
प्रभावित हों:
तुमसे
नहीं--धर्म से;
तुमसे
नहीं--सत्य से;
जो तुममें
घटा है--उससे; वह जो
पारलौकिक
तुममें उतरा
है--उससे।
ये आठ
अंग स्मरण हों
तो सम्यक
दर्शन
निर्मित होता
है।
यह
पहला सूत्र
है:
निस्संकिय निक्कंखिय
निव्वितिगिच्छा
अमूढ़दिट्ठी
य।
उवबूह थिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ।।
ये आठ
बातें सम्यक
दर्शन के आठ
अंग हैं।
दूसरा
सूत्र: "जब कभी
अपने में
दुष्प्रयोग
की प्रवृत्ति
दिखाई दे तो
उसे तत्काल मन, वचन, काया
से धीर (सम्यक
दृष्टि) समेट
ले; जैसे
कि जातिवंत
घोड़ा रास के
द्वारा शीघ्र
ही सीधे
रास्ते पर आ
जाता है।'
और
महावीर इस बात
को बार-बार
दोहराते हैं
कि तुम कभी
ऐसा मत समझ
लेना कि सिद्ध
हो गये। क्योंकि
इस अनंत की
खोज के मार्ग
पर बहुत ऐसे पड़ाव आते
हैं जहां यह
भ्रम पैदा
होता है कि हो
गये सिद्ध।
सिद्ध होने का
भ्रम बड़ा आसान
है, क्योंकि
अहंकार को बड़ा
भाता है, कि
हो गये सिद्ध,
पहुंच गये!
तुम
ध्यान रखना कि
ऐसा भाव जब भी
तुम्हें आएगा
कि पहुंच गए, तभी तुम
तत्क्षण
पाओगे कि कुछ
विकृति घटी, कुछ
दुष्प्रयोग
हुआ, कहीं
कोई भूल हुई।
तो
स्मरण रखना कि
भूल होती
रहेंगी अंतिम
क्षण तक।
निर्वाण के
आखिरी क्षण तक
भूल होती
रहेंगी।
समाधि के परम
फूल के खिलने
तक भूल होती
रहेंगी।
भूल
मनुष्य का
स्वभाव है। और
भूलों का
जन्मों-जन्मों
का इतिहास है।
इसलिए जहां भी
कहीं ऐसा लगे, कि
दुष्प्रयोग
में
प्रवृत्ति
दिखाई दे, उसे
तत्काल मन, वचन और काया
से (सम्यक
दृष्टि) धीरपुरुष
समेट ले; जैसे
कि जातिवंत
घोड़ा रास के
द्वारा शीघ्र
ही सीधे
रास्ते पर आ
जाता है।
तो
अपनी लगाम को
कभी भी छोड़ मत
देना। जब तक
घोड़ा है, तब
तक लगाम को
हाथ में रखना।
घोड़ा यानी मन।
जब तक मन है, तब तक लगाम
मत छोड़ देना।
मन पर भरोसा
मत कर लेना।
क्योंकि बहुत
बार घोड़ा
बिलकुल
ठीक-ठीक चल रहा
है, घंटों
तक ठीक-ठीक चल
रहा है और
तुम्हारा मन
होता है, अब
लगाम की क्या
जरूरत है, रख
दो ताक पर; अब
तो सब ठीक चल
रहा है, अब
होश की क्या
जरूरत है, अब
निरंतर स्मरण
की क्या जरूरत
है, घोड़ा
तो ठीक
अपने-आप ही चल
रहा है! ऐसा
भरोसा मत करना।
लगाम के रखते
ही तत्क्षण
घोड़ा अपने स्वभाव
के अनुकूल
बरतने लगेगा।
लगाम तो हाथ
में रखनी
पड़ेगी जब तक
घोड़ा है। जब
तक मन न मर जाए,
जब तक कि मन
से परिपूर्ण
मुक्ति न हो
जाए, जब तक
तुम्हारे
भीतर विचारों
की तरंगें
उठती हैं--तब
तक लगाम का
खयाल रखना। और
जैसे ही तुम्हें
लगे कि कहीं
घोड़ा गलत
रास्ते पर
जाने लगा, मार्ग
से च्युत हुआ,
दुष्प्रयोग
में लगा, कहीं
कोई
प्रवृत्ति
उठने लगी, फिर
आंख गलत पर
पड़ी, फिर
कान ने गलत को
सुना, फिर
हाथ गलत की
तरफ बढ़े, फिर
विचार में गलत
की छाया
पड़ी--तत्क्षण
मन, वचन, काया से धीरपुरुष
अपने को फिर
ऐसे समेट
ले...मन, वचन,
काया
से--शरीर को
तत्क्षण हटा
ले वहां से।
शरीर
को हटाने का
अर्थ समझना।
जब भी
तुम्हारे मन
में कोई तरंग
उठती है, तत्क्षण
शरीर में भी
समानांतर
तरंग उठती है।
अगर तुम्हारे
मन में
कामवासना उठी,
तो तत्क्षण
शरीर
कामवासना के
लिये तत्पर
होने लगता है,
तरंग उठती
है। और जब भी
तुम्हारे मन
में कोई तरंग
उठती है, और
शरीर में तरंग
उठती है, तो
तुम्हारे
भीतर भाषा और
वचन निर्मित
होता है। रूप
बनता है विकार
का। प्रतिमायें
उठती हैं।
स्वप्न
निर्मित होता
है।
वचन से
अर्थ है:
विचार; मन
की कल्पना का
जाल। और मन, शरीर, वचन,
तीनों में
एक साथ लहर
आती है। तीनों
को एक साथ
खींच लेना!
किसी एक को
खींच लेने से
काम न चलेगा।
तुम, हो
सकता है शरीर
को खींचकर
दरवाजा बंद
करके बैठ जाओ,
इससे कुछ
फर्क न पड़ेगा।
बहुत-से जैन
मुनि शरीर को
खींचकर बैठ गए
हैं, लेकिन
मन और वचन में
तरंगें उठती
रहती हैं। शरीर
को खींच लेना
बहुत आसान है।
शरीर को खींच
लेने में बहुत
कठिनाई नहीं
है। शरीर बहुत
स्थूल है।
उससे भी गहरा
वचन है। विचार
में भी तरंग न
उठे।
लेकिन
बहुत-से लोग
विचार को भी
खींचकर बैठ
जाते हैं। फिर
भी मन में
तरंग उठती है।
मन यानी अचेतन।
तो दिनभर
याद नहीं आते, लेकिन रात
सपने में याद आ
जाते हैं। दिनभर
तुम सम्हाले
रहते हो। कोई
विचार नहीं
उठने देते।
लेकिन स्वप्न
में विचार आ
जाते हैं। तो
भी, दुष्प्रवृत्ति
हो गई। तो भी, तुम च्युत
हुए। इन सबसे धीरपुरुष
अपने को
खींचता रहता
है।
"तू महासागर
को तो पार कर
गया है, अब
तट के निकट
पहुंचकर
क्यों खड़ा है? उसे
पार करने में
शीघ्रता कर हे
गौतम, क्षणभर का भी
प्रमाद मतकर!'
यह
तीसरा सूत्र
है आज के लिए।
यह महावीर ने
अपने महानिर्वाण
के क्षणभर
पहले कहा था।
यह अपने पट्ट
शिष्य गौतम के
लिये कहा था।
गौतम
महावीर का
प्रथम गणधर
है--उनका सबसे
ज्यादा निकट
का शिष्य।
लेकिन
विडंबना
भाग्य की, कि वह आया था
सबसे पहले, लेकिन
मुक्ति का
स्वाद न ले
सका। वह
महावीर के पास
वर्षों रहा, फिर भी उस
परम दशा को न
पहुंच सका, जिसको हम
कैवल्य कहें,
समाधि
कहें। मन मिट
न सका। और
उसने कुछ छोड़ा
हो करने में, ऐसा भी नहीं
है। उसने सब
किया जो
महावीर ने
कहा। लेकिन एक
छोटा-सा राग
पैदा हो
गया--वह राग था
महावीर के
प्रति। वह राग
था महावीर के
चरणों का।
उतने ही राग
ने रोक लिया।
एक प्रेम लग गया
महावीर से।
महावीर के
बिना उसे
तकलीफ होने
लगी। दिन को
भी कहीं जाता
तो बस महावीर
की ही याद आती
रहती। महावीर
ने उसे कई बार
कहा कि तूने
सब छोड़ दिया, अब मुझे
क्यों पकड़
लिया है? क्योंकि
असली सवाल
छोड़ने का
नहीं--असली
सवाल तो पकड़
ही छोड़ देने
का है।
तुमने
कुछ पकड़ा, किसी ने कुछ
और पकड़ा, किसी
ने कुछ और
पकड़ा--लेकिन
पकड़ तो जारी
रहती है। किसी
ने धन पकड़ा, किसी ने
धर्म पकड़ा।
किसी ने पत्नी
पकड़ी, किसी
ने गुरु
पकड़ा--लेकिन
पकड़ तो जारी
रहती है।
और
महावीर बड़े
कठोर हैं इस
दृष्टि से।
क्योंकि उनका
पूरा राग से
ही विरोध है।
वह पूरा रास्ता
ही वीतराग का
है। तो यह
गौतम सब छोड़
आया। पत्नी
होगी, बच्चे
होंगे, घर-द्वार
होगा, मित्र-परिजन
होंगे, धन-संपत्ति
होगी, पद-प्रतिष्ठा
होगी--सब छोड़
आया! यह बड़ा
पंडित था, ब्राह्मण
था। इसने सब
शास्त्र वेद,
उपनिषद, सब
छोड़ दिये।
लेकिन उस सबको
छोड़कर महावीर
के चरणों को पकड़कर बैठ
गया। यह अब
महावीर का
दीवाना बन
गया। तो महावीर
उससे बार-बार
कहते रहे कि
तू मुझे भी छोड़।
यह बात ही सुनकर
उसको कष्ट
होता। यह बात
ही कल्पना के
बाहर थी:
महावीर को छोड़ो!
वह सब छोड़ने
को तैयार था
महावीर के
लिए। सब छोड़ा
ही महावीर के
लिए था। अब यह
तो बात जरा
ज्यादा हो गई
कि महावीर को
भी छोड़ो।
तो फिर सब
छोड़ा ही किसलिए
था! वह महावीर
के लिए ही
छोड़ा था। वह
मुक्त न हो
सका।
महावीर
ने जिस दिन
देह छोड़ी, उसे सुबह ही
दूसरे गांव
में उपदेश के
लिए भेजा।
शायद जानकर ही
भेजा हो।
क्योंकि वह
पास रहेगा तो
बहुत दुखी
होगा। यह
मृत्यु उसके
सामने, कहीं
उसे
विक्षिप्त न
कर दे। उसका
लगाव बहुत था।
फिर पीछे से
खबर मिलेगी तो
बात आई-गई हो
जाएगी। फिर
धीरे-धीरे
सम्हल जाएगा।
आघात मृत्यु
का सीधे, महावीर
को अपने सामने
ही, मरा
हुआ देखना, देह से छूट
जाना
देखना--शायद
उसके प्राणों
को तोड़ दे, शायद
वह सह न पाये!
तो उसे दूसरे
गांव भेज दिया।
जब वह सांझ को
लौट रहा था
दूसरे गांव से
तो राहगीरों
ने रास्ते में
उससे कहा कि
गौतम, तुम्हें
कुछ पता है, महावीर जा
चुके! अब तुम
कहां जा रहे
हो? अब वह
सत्पुरुष न
रहा!
तो वह
वहीं रोने
लगा। वहीं
छाती पीटकर
चिल्लाने
लगा। भरी
आंखों से, टपकते
आंसुओं से, उसने उन
लोगों से पूछा
कि "एक बात
मुझे पूछनी है
कि यह कैसा
हुआ? यह
उन्होंने कैसा
अन्याय किया?
जीवनभर मैं
उनके साथ रहा।
तो आज तो कम से
कम मुझे बाहर
न भेजते, दूर
न भेजते! यह
उन्होंने
कौन-सा बदला
लिया! एक ही
बात पूछनी है
मुझे: मरते
समय मुझे याद
किया था? मरने
के पहले मेरे
लिये कोई
इशारा छोड़ा? क्योंकि मैं
तो अभी भी
अंधेरे में
भटक रहा हूं।
मेरा क्या
होगा? दीया
बुझ गया--अब
मेरा क्या
होगा?' तो
उन लोगों
ने...यह सूत्र
महावीर ने
गौतम के लिए
कहा है, इसलिए
गौतम का नाम
इस सूत्र में
आता है...उन लोगों
ने गौतम को
कहा, महावीर
ने तुझे याद
किया था। वे
यह सूत्र तेरे
लिये छोड़ गए
हैं: "तू
महासागर को तो
पार कर गया है,
अब तट के
निकट पहुंचकर
क्यों खड़ा है?
उसे पार
करने में
शीघ्रता कर!
हे गौतम, क्षणभर
का भी प्रमाद
मत कर!'
तिण्णो
हु सि अण्णवं
महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ।
अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम्!
मा पमायए।।
"हे गौतम!
तू पूरा
भवसागर पार कर
गया, सारा
संसार छोड़
दिया, सब
तरफ से राग की
जड़ें उखाड़
लीं--और अब तू
किनारे को पकड़कर
क्यों रुका है?'
किनारा
यानी महावीर।
ऐसा समझो कि
तुम उस दूर के
किनारे को
पाने के लिए
सारी नदी पार
करते हो, निश्चित
ही उस किनारे
जाने के लिए
ही नदी पार करते
हो। फिर इस
नदी के सारे
कष्ट उठाते हो--तूफान,
झंझावात, धार के
उपद्रव, मृत्यु
का डर, डूब
जाने का भय--यह
सबको तुम पार
कर जाते हो।
फिर उस दूसरे
किनारे को पकड़कर
रुक जाते हो।
रुके हो नदी
में ही।
किनारे को पकड़कर
रुके हो! तुम
कहते हो, इसी
किनारे के लिए
तो सारी नदी
पार की, वह
किनारा छोड़ा,
नदी छोड़ी,
इतना
संघर्ष
झेला--अब इस
किनारे को न छोड़ेंगे!
तो
महावीर कहते
हैं, यह तो कुछ
लाभ न हुआ।
रुके तुम अब
भी नदी में हो।
अब इस किनारे
को भी छोड़ो,
बाहर निकलो!
अब पार हो गए, नदी छूट गई, किनारे को
भी छोड़ो!
तो
गुरु का उपयोग
दूर के किनारे
की तरह है। नदी
को पार करने
में निमित्त
बना लेना, लेकिन जब
नदी पार हो
जाए, तो
गुरु को पकड़कर
मत रुक जाना।
महावीर कहते
हैं, क्षणभर का भी
प्रमाद मत कर,
और इसमें क्षणभर की
देर मत कर, आलस्य
मत
कर--क्योंकि
समय बीता जाता
है, फिर
लौटकर न आएगा!
और जो
महावीर के
जीते-जी न हो
सका, वह
महावीर की
मृत्यु के
कारण हो गया।
गौतम को वह
चोट भारी पड़ी।
किनारा उसने
नहीं छोड़ा, किनारा खुद
ही जा चुका था
अब। अब पकड़ने
को कुछ था भी
नहीं। जो
जीवनभर
महावीर के साथ
रहकर बोध न
हुआ, वह
महावीर के
मरने के एक
दिन बाद...गौतम
समाधि को
उपलब्ध हो
गया। उसने जान
लिया: संसार
ही असार नहीं
है, यहां सदगुरु के
चरण भी छूट
जाते हैं!
यहां संपत्ति
ही नहीं छूटती,
सदगुरु भी छूट जाता
है। यहां सभी
कुछ असार है।
यहां अपने में
ही लौट आने
में सार है।
ऐसा
समझ कर...और तो
सब छोड़ ही
चुका था, यह
महावीर के
प्रति लगाव था,
यह भी छूट
गया और यह
लगाव बिलकुल
मानवीय है, समझ में आता
है। महावीर
जैसा प्यारा
पुरुष हो तो
किसे लगाव न
हो! गौतम की
अड़चन समझ में
आती है।
महावीर ही
कठोर मालूम
होते हैं।
गौतम का भाव
तो ठीक ही है; समझ में
पड़ता है। इतना
प्यारा पुरुष
कभी-कभी होता
है। और ऐसे
प्यारे पुरुष
के पास पकड़
लेने का मन
किसके मन में
न होगा! और
एकबारगी ऐसा
भी होता है कि छोड़ो
मोक्ष, छोड़ो बैकुंठ--यही
चरण काफी है!
ऐसा ही गौतम
को हुआ होगा।
सब संसार
छोड़ने की
हिम्मत की थी,
लेकिन ये
चरण न छोड़
सका। लेकिन
फिर ये चरण एक
दिन छूट गए।
जो भी बाहर है,
वह छूट ही
जाएगा।
इसलिए
महावीर कहते
हैं: आत्मा
में ही रमण
करो। सब तरफ
से अपने में
ही लौट आओ!
अपने में ही
लीन हो जाओ! उस
आत्मलीनता को
ही महावीर ने
मोक्ष कहा है।
यह जो
निमंत्रण
गौतम के लिए
है, यही
निमंत्रण
तुम्हारे लिए
भी है।
पोत
अगणित इन
तरंगों ने
डुबाए, मानता मैं
पार
भी पहुंचे
बहुत से
बात
यह भी जानता
मैं
किंतु
होता सत्य यदि
यह
भी, सभी जलयान
डूबे
पार
जाने की
प्रतिज्ञा
आज
बरबस ठानता
मैं
डूबता
मैं, किंतु
उतराता
सदा
व्यक्तित्व
मेरा
हों
युवक डूबे भले
ही
है
कभी डूबा न
यौवन
तीर
पर कैसे रुकूं
मैं
आज
लहरों में
निमंत्रण!
महावीर
दूर अनंत के
सागर की लहरों
का निमंत्रण
हैं। और
निमंत्रण ही
नहीं, उस
दूर के सागर
तक पहुंचने का
एक-एक कदम भी
स्पष्ट कर गए
हैं। महावीर
ने अध्यात्म
के विज्ञान
में कुछ भी
अधूरा नहीं
छोड़ा, खाली
जगह नहीं है।
नक्शा पूरा
है। एक-एक इंच
भूमि को ठीक
से माप गए हैं
और जगह-जगह
मील के पत्थर
खड़े कर गए हैं।
ये आठ
सूत्र सम्यक
दर्शन के सध
जाएं तो सब सध
गया। ये आठ सध
जाएं तो समाधि
सध गई, क्योंकि
इन आठ के सधते
ही सारी
समस्याएं
तिरोहित हो
जाती हैं। जो
शेष रह जाता
है, वही
समाधान है।
महावीर
के निमंत्रण
को अनुभव करो!
उनकी पुकार को
सुनो! ऐसे
खाली
नाममात्र को
जैन होकर बैठे
रहने से कुछ
भी न होगा।
ऐसी नपुंसक स्थिति
से कुछ लाभ
नहीं। उठो!
अपने का जगाओ!
बहुत बड़ी
संभावना
तुम्हारी
प्रतीक्षा कर
रही है। खतरा
है! इसलिए
महावीर कहते
हैं: अभय, साहस
चाहिए!
खतरा
यही है:
पोत
अगणित इन
तरंगों ने
डुबाए, मानता मैं
--बड़ा
है, विराट
है सागर! और न
मालूम कितने
पोत डूब चुके
हैं!
पोत
अगणित इन
तरंगों ने
डुबाए, मानता मैं
पार
भी पहुंचे
बहुत से
बात
यह भी जानता
मैं।
लेकिन
कुछ हैं जो
पार भी पहुंच
गए हैं। कोई
महावीर, कोई
बुद्ध, कोई
कृष्ण, कोई
क्राइस्ट, कोई
मुहम्मद पार
भी पहुंच गये
हैं। बहुत-से
खो भी गये
हैं। अनंत खो
गए हैं।
कहते
हैं, हजार
बुलाए जाते तो
सौ पहुंचते
हैं। सौ जो
पहुंचते हैं,
उनमें से दस
चलते हैं। और
दस चलते हैं, एक कहीं सिद्धावस्था
को उपलब्ध हो
पाता है।
किंतु
होता सत्य यदि
यह
भी, सभी जलयान
डूबे
पार
जाने की
प्रतिज्ञा
आज
बरबस ठानता
मैं
लेकिन, अगर यह भी
सत्य होता कि
जो भी गया, सभी
डूब गए, तो
भी--
पार
जाने की
प्रतिज्ञा,
आज
बरबस ठानता
मैं
--क्योंकि
यहां इस
किनारे कुछ भी
तो नहीं है।
यहां बचे भी, तो भी तो कुछ
बचने जैसा
नहीं है। और
सागर में अगर
डूबे भी तो डूबकर
भी कुछ मिलता
है।
डूबता
मैं किंतु उतराता
सदा
व्यक्तित्व
मेरा।
तुम तो
डूब जाओगे, लेकिन आत्मा
उतराएगी।
तुम तो डूबोगे
तभी आत्मा उतराएगी।
तुम तो आत्मा
में पत्थर की
तरह हो।
तुम्हारी वजह
से आत्मा तैर
नहीं पाती, तिर
नहीं पाती।
हों
युवक डूबे भले
ही
है
कभी डूबा न
यौवन
तीर
पर कैसे रुकूं
मैं
आज
लहरों में
निमंत्रण।
सुनो
इस निमंत्रण
को! करो
हिम्मत! चलो
थोड़े कदम
महावीर के
साथ! थोड़े ही
कदम चलकर तुम
पाओगे कि जीवन
की रसधार बहने
लगेगी। थोड़े
ही कदम चलकर
तुम पाओगे, संपदा करीब
आने लगगी।
आने लगीं शीतल
हवाएं--शांति
की, मुक्ति
की! फिर तुम
रुक न पाओगे।
फिर तुम्हें कोई
भी रोक न
सकेगा। थोड़ा
लेकिन स्वाद
जरूरी है। दो
कदम चलो, स्वाद
मिल जाए; फिर
तुम अपने
स्वाद के बल
ही चल पड़ोगे।
लाओत्सु
ने कहा है, एक कदम तुम
उठा लो, फिर
फिक्र नहीं।
बस एक कदम तुम
न उठाओ तो बड़ी
फिक्र है।
पहला कदम तुम
उठा लो तो बस, दूसरा तुम
उठाओगे ही।
क्योंकि पहले
को उठाने में
ही ऐसा रस बरस
जाता है, फिर
कौन पागल होगा
जो दूसरा कदम
न उठाए! और एक-एक
कदम चलकर
हजारों मील की
यात्रा भी
अंततः पूरी हो
जाती है! दो
कदम तो कोई
एकसाथ चल भी
नहीं सकता। एक
कदम! छोटा कदम!
जितनी
तुम्हारी
सामर्थ्य में
आता हो, इतना
बड़ा कदम!
लेकिन उठाओ!
बैठे-बैठे
बहुत जन्म
खोए--और मत खोओ!
धम्मपद
में बुद्ध ने
कहा है: "उत्तिट्ठे!' उठो! "न पमज्जेय्य!'
उठो! प्रमाद
मत करो! सोये
मत रहो! आलसी
मत रहो! जो उठता
है, वही
पाता है। जो
सोया रहता, वह सभी कुछ
खो देता है।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं