प्रेम
है आत्यंतिक मुक्ति–प्रवचन—तीसवां
प्रश्न
सार:
1—नरहरि
कैसे भगति
करूं मैं तोरी,
चंचल है मति मोरी।
2—आपने
कहा कि जहां उत्कट
प्यास होगी वहां
पानी को आना ही
पड़ेगा। अब पानी
तो आ गया है;
लेकिन क्या मैं
तुरंत अंजुलि
भरकर पानी पीना
शुरू करूं,
या पानीमुंह
तक आ जाए, उसकी
प्रतीक्षा करूं?
पहला
प्रश्न:
नरहरि
कैसे भगति
करूं मैं तोरी,
चंचल
है मति मोरी!
भक्ति
के मार्ग पर
मन की चंचलता
बाधा नहीं है।
भक्ति के
मार्ग पर मन
की चंचलता
साधन बन जाती है।
वही भक्ति और
ज्ञान का भेद
है।
ज्ञान
के मार्ग पर
चंचलता बड़ी
बाधा है।
क्योंकि
ध्यान उपजाना
होगा। और
ध्यान तो तभी
उपजेगा जब मन
की सारी
कल्पनाएं, सारे विचार,
सारी
तरंगें सो
जायें। ध्यान
तो मन की
अचंचल दशा का
नाम है। तो
ज्ञान के
मार्ग पर चंचल
मन शत्रु
मालूम होता
है। उससे
संघर्ष करना
होगा। लेकिन
भक्ति के
मार्ग पर चंचल
मन से कोई
विरोध नहीं
है। जो लहरें
मन की संसार
के लिए उठती
हैं उन्हीं
लहरों को
परमात्मा के
लिए उठाना है।
लहरें बनी
रहें--बस परमात्मा
के लिए उठने
लगें! तरंगें
उठती रहें, विचार हों, भावनाएं हों,
कोई अड़चन
नहीं
है--लेकिन उन
सभी भावनाओं
और तरंगों और
विचारों में
परमात्मा का
रूप समा जाये।
चंचल मन भी उसके
चरणों में
समर्पित हो
जाये
इसलिए
भक्ति बड़ी सहज
है, और ज्ञान
असहज है।
भक्ति
तुम्हारे
स्वभाव का उपयोग
करती है।
ज्ञान, तुम
जैसे हो, उसे
इनकार करता है;
और तुम जैसे
होने चाहिए, उसके आदर्श
को निरूपित
करता है।
भक्ति कहती है,
तुम जैसे हो,
ऐसे ही
भगवान को
स्वीकार हो।
तुम भर भगवान
को स्वीकार कर
लो, भगवान
ने तुम्हें
स्वीकार किया
ही हुआ है। उसके
स्वीकार के
बिना तुम हो
ही न सकते थे।
बुरे भले, जैसे
हो, तुम
उसके चरणों
में अपने को
डाल दो। तुम
उससे ही कह दो
कि हमारे किए
कुछ न होगा।
कर-करके ही तो
हम भटके। किया
तो बहुत, कुछ
भी न हुआ। अब
तेरी मर्जी!
तो
भक्ति और
ज्ञान के
फासले को समझ
लेना। यह प्रश्न
साधक का तो
सम्यक है, लेकिन
शब्दावली
भक्त की है।
"नरहरि कैसे भगति करूं
मैं तोरी
चंचल
है मति मोरी!'
यह
शब्दावली तो
भक्त की है।
और यह प्रश्न
साधक का है, भक्त का
नहीं। इसे तुम
स्पष्ट अलग-अलग
कर लोगे तो
सुलझाव हो
जायेगा। अगर
तुम साधक होने
के मार्ग पर
हो तो भक्ति
का कोई सवाल
नहीं है।
"नरहरि' का
कोई सवाल नहीं
है। तब तो तुम
हो और तुम्हें
अपने प्राणों
को अपनी ही
ऊर्जा से
शुद्ध करना है।
तब तुम अकेले
हो; कोई
संग-साथ नहीं
है।
लेकिन, अगर तुम भक्ति
के मार्ग पर
हो तो "नरहरि'
तुम्हें
घेरे खड़ा है; तुम्हारी
श्वास-श्वास
में छिपा है।
तुम जब चंचल
होते हो तब
वही तुम्हारे
भीतर चंचल हो
रहा है। ये
लहरें भी उसी
की हैं, यह
सागर भी उसी
का है।
यह
सागर और लहर
में फासला
क्यों करते हो? लहर हो सकती
है सागर के
बिना? सागर
हो सकता है
लहर के बिना? सागर होगा
लहर के बिना
तो मुर्दा
होगा। उसमें प्राण
ही न होंगे।
उसमें जीवन का
कोई लक्षण न होगा।
और लहरें हो
सकती हैं सागर
के बिना? असंभव।
न तो लहरें हो
सकती हैं सागर
के बिना; अगर
होंगी तो किसी
चित्र में
चित्रित
होंगी, वास्तविक
न होंगी, कागजी
होंगी। और
सागर नहीं हो
सकता लहरों के
बिना; अगर
होगा तो
मुर्दा होगा।
उसमें कोई
जीवन न होगा।
जीवन होगा तो हवाएं भी उठेंगी और
जीवन होगा तो
तरंगें भी उठेंगी।
और जितना
विराट सागर
होगा उतने
विराट तूफानों
को झेलने की झमता
होगी। ये
लहरें भी उसी
की हैं। यह मन
भी उसी का! हम
भी उसी के! यह
तन भी उसी का!
भक्त
की भाषा अलग
है। इस प्रश्न
में उलझन है। यह
प्रश्न साफ
नहीं है। और
जिसने भी ये
दो पंक्तियां
रची होंगी, उसके मन में
भी साफ नहीं
थी बात कि वह
क्या कह रहा
है। उसके मन
में खिचड़ी
रही। प्रश्न
तो साधक का था,
और भाषा
भक्त की थी।
ऐसी उलझन में
जो भी पड़ेगा
वह बड़े संकट
में पड़ जाता
है--आत्मसंकट
में। उसका मन
दो खंड़ों
में बंट जाता
है। वह टिकिट
तो लेता है
कलकत्ता जाने
की और ट्रेन
में बैठ जाता
है बंबई की।
तो वह सोचता
है, टिकिट भी मेरे पास
है; और वह
सोचता है टिकिट-चैकर
मुझे परेशान
क्यों कर रहा
है! टिकिट
उसके पास है, लेकिन उसे
किसी और दिशा
में जाना था।
जहां वह जा
रहा है, वहां
की टिकिट
उसके पास नहीं
है।
ऋग्वेद
में एक परम
वचन है: "ऋतस्य
यथा प्रेत'; जो
प्राकृतिक है,
वही प्रिय
है। जो
स्वाभाविक है,
वही शुभ है।
स्वभाव के
अनुसार जीवन
व्यतीत करो। ऋतस्य यथा
प्रेत! यही
लाओत्सु का
आधार है: ताओ।
पूरे ताओ को
इस ऋग्वेद के
एक छोटे-से
सूत्र में रखा
जा सकता है: ऋतस्य
यथा प्रेत।
जो
प्राकृतिक, वही प्रिय।
तुम श्रेय और
प्रेय को तोड़ो
मत। जो
प्रीतिकर लग
रहा है वही
श्रेयस्कर
है। प्रीतिकर
लगना श्रेयस्कर
की खबर है।
कहीं पास ही
श्रेय भी छुपा
होगा। तुम
श्रेय के
द्वार को खोज
लो।
इसलिए
वेदों का जो
ऋषि है, वह
कोई भगोड़ा
नहीं है। उसने
जीवन का निषेध
नहीं किया है।
जीवन का परम
स्वीकार है।
परमात्मा ने
जो दिया है, वह प्रसाद
है। वह उसकी
भेंट है। उसका
अस्वीकार
कैसे हो? उसका
त्याग कैसे हो?
त्याग
का तो अर्थ ही
होगा: कि तेरी
भेंट हम...राजी
नहीं होते
तेरी भेंट से!
तेरी भेंट, भेंट के
योग्य नहीं!
तूने जीवन
दिया, यह
ले वापिस!
दोस्तोवस्की
के बड़े
प्रसिद्ध
उपन्यास
"ब्रदर्स करमाझोव' में एक
पात्र नाराज
होकर ईश्वर से
कहता है: यह अपनी
टिकिट तू
वापिस ले ले।
यह जीवन हमें
नहीं चाहिए!
सम्हाल अपने
जीवन को! जीवन
को जो त्यागकर
जा रहा है, वह
यही कह रहा है
कि ये फूल
हमें न भाये, ये फूल हमें
शूल सिद्ध
हुए। यह तूने
जो वर्षा की
थी, यह
अमृत की नहीं
थी, जहर की
थी। और यह
तूने हमें
जीवन दिया था,
यह देने
योग्य न था।
तूने किसे
धोखा देना
चाहा?
त्यागी
यह कह रहा है
कि हम छोड़ते
हैं तेरे जीवन
को; हमें
आवागमन से
छुटकारा
चाहिए।
त्यागी प्रकृति
के विपरीत
चलता है। वह
नदी की धार के
विपरीत लड़ता
है। वह
गंगोत्री की
तरफ बहता है; भक्त
गंगासागर की
तरफ। भक्त
कहता है, जहां
ले जाये गंगा!
हम भी उसी के, गंगा भी उसी
की, हवाएं भी उसी की।
तो जहां भी
पहुंचा देगा
वहीं मंजिल
होगी! और हम
कौन हैं मंजिल
को तय करें! तो
अगर मन में
तरंगें उठती
हैं तो उन्हीं
तरंगों में वह
प्रभु के नाम
को गुनगुनाता
है।
इसलिए
भक्त तुम्हें
गुनगुनाता
मिलेगा।
ज्ञानी
तुम्हें मौन
मिलेगा।
ज्ञानी बाहर से
ही मौन नहीं
है, भीतर से
भी चुप है।
शब्द उठा कि
संसार उठा। वह
संसार से ही
नहीं डर गया, शब्द से भी
डर गया है।
भक्त तुम्हें
बाहर भी गुनगुनाता
मिलेगा, भीतर
भी गुनगुनाता
मिलेगा।
लहरें उसे
स्वीकार हैं।
वह लहरों को
बदलने की
कीमिया जानता
है। उसने
लहरें भी
परमात्मा के
चरणों में
समर्पित कर दी
हैं। वह इससे
भयभीत नहीं
होता।
प्रकृति और
उसके बीच कोई
विरोध नहीं
है। इनकार की
भाषा उसे नहीं
आती। वस्तुतः
भक्त के लिए
इनकार की भाषा
में ही
नास्तिकता
छिपी है।
इसलिए
ऐसा तो हुआ कि
अनेक ज्ञानी
नास्तिक हुए; लेकिन एक भी
भक्त नास्तिक
नहीं हुआ। यह
तुम थोड़ा
सोचना।
बुद्ध
नास्तिक हैं। परमज्ञान
को उपलब्ध हो
गए, लेकिन
नास्तिकता
इससे नहीं
छूटी है।
महावीर नास्तिक
हैं। परमज्ञान
को उपलब्ध हुए,
लेकिन
परमात्मा की
कोई जगह नहीं।
क्योंकि जब पूजा
की ही जगह न हो
तो परमात्मा
की कैसे जगह
हो सकती है? जब
प्रार्थना की
ही जगह न हो तो
परमात्मा की कैसे
जगह हो सकती
है?
तो एक
अनूठी घटना
घटी कि बुद्ध
और महावीर
जैसे परमज्ञानी
नास्तिक हैं।
जब पश्चिम को
पहली दफा पता
चला बुद्ध और
महावीर का तो
पश्चिम में तो
ईसाई शास्त्री
समझ ही न सका
यह, कि
धार्मिक और
नास्तिक, यह
हो कैसे सकता
है! क्योंकि
पश्चिम में
इस्लाम, यहूदी,
ईसाई, तीनों
ही भक्ति के
संप्रदाय
हैं। वो ज्ञान
के संप्रदाय,
उनमें कोई
भी नहीं है।
तो उन्होंने
एक ही तरह का
ढंग जाना
था--भक्त का।
यह उनके लिए
असंभव था कि
भगवान के बिना
भक्त हो कैसे
सकता है! तो
प्रथम-रूप जो
किताबें लिखी
गयीं जैन धर्म
और बौद्ध धर्म
पर, पश्चिम
के लेखकों ने
लिखीं, उन्होंने
लिखा: ये
नीतिशास्त्र
की व्यवस्थाएं
हैं, धर्म
नहीं हैं।
मारल कोड्स!
क्योंकि धर्म
तो ईश्वर के
बिना होगा
कैसे? लेकिन
धर्म ईश्वर के
बिना हो सकता
है। वस्तुतः
साधक का धर्म
ईश्वर के बिना
ही होगा।
भगवान, भक्त के
हृदय का
आविर्भाव है।
वह पूजा का ही
सघन रूप है।
वह प्रार्थना
ही पर्त दर
पर्त जमती
जाती है, तब
परमात्मा
बनती है। वह
लहरें, तरंगें
अस्वीकार
नहीं की गयीं,
तभी सागर
मिलता है।
ज्ञानी तो
धीरे-धीरे
लहरों को
अस्वीकार
करके सागर को
भी छोड़कर मरुस्थल
में विराजमान
हो जाता है।
ऋतस्य
यथा प्रेत!
तो घबड़ाओ
मत! उसने
तरंगें दी हैं, उसी को
समर्पित कर
दो। और उसी की
बात उसे लौटा देने
में लगता क्या
है?
सामवेद
में भी एक वचन
है: देवस्य
पश्य काव्यम्!
यह जो दिखायी
पड़ रहा है, यह परमात्मा
का प्रगट
काव्य है।
छिपा है वही पीछे।
यह जो
गुनगुनाहट
दिखायी पड़ती
है प्रकृति के
नाम से, इसके
पीछे उसी का
कंठ छिपा है।
चाहे कोयल की
कुहू-कुहू में
और चाहे कौवों
की शिकायत
में--वही छिपा
है। कांव-कांव
हो कि
कुहू-कुहू, अंधेरी रात
हो कि प्रकाश से
भरा हुआ दिवस
हो, और
जन्म हो कि
मृत्यु हो--सब
तरफ उसी के
हाथ हैं। यह
काव्य उसका
है।
देवस्य पश्य काव्यम्!
यह जो दिखाई
पड़ रहा है
संसार, यह
उसी का प्रगट
काव्य है।
जैसे कवि तो
छिपा है और
हमें केवल
कविता हाथ लग
रही है।
तुम्हारे
भीतर भी जो
तरंगें उठा
रहा है वह वही
है। तुम भी
उसी की तरंग
हो। तुममें
उठी तरंगें भी
उसी की तरंगें
हैं।
तो यदि
भक्त का
तुम्हारे पास
मन हो तो
चिंता मत करो।
उसने तरंगें
उठाने योग्य
तुम्हें समझा, इसके लिए
धन्यवाद दो।
उसने तुम्हें
जीवन दिया।
उसने तुम्हें
रस दिया। उसने
तुम्हें होने के
हजार-हजार
आयाम दिये।
उसने तुम्हें
प्रेम दिया, राग-रंग
दिए। स्वीकार
करो! और
स्वीकार करते
ही तुम पाओगे
कि दंश चला
गया। कांटा
नहीं चुभता फिर।
भक्त तो कहता
है:
पकड़े
जाते हैं फरिश्तों
के लिखे पर, नाहक
आदमी
कोई हमारा दमेत्तहरीर
भी था?
भक्त
तो भगवान से
कहता है कि फरिश्तों
ने जो हमारे
संबंध में खबर
दी हैं, उनका
भरोसा मत
करना। हमारे
पाप-पुण्यों
का जो
लेखा-जोखा
तुम्हारे फरिश्तों
ने बताया है
उसका भरोसा मत
करना। "आदमी
कोई हमारा दमेत्तहरीर
भी था?' अगर
पूछना हो तो
आदमियों से
पूछना, क्योंकि
आदमी ही समझ
पाएंगे कि
तुमने हमें ऐसा
बनाया था। फरिश्तों
को क्या पता
कि तुमने
कितना प्रेम
भर दिया था हमारे
रग-रेशे में? फरिश्तों को क्या पता
कि कितना नाच
और कितनी
तरंगें तुमने
दी थीं? नहीं,
इनकी बात पर
भरोसा मत
करना। अगर
हमने भूल-चूक की
हो तो तुमने
करवायी थी। और
अगर गवाह
चाहिए हो तो
आदमियों से पूछना,
क्योंकि वे
हमें समझ
सकेंगे।
क्योंकि जैसे
वे हैं वैसे
हम हैं।
पकड़े
जाते हैं फरिश्तों
के लिखे पर, नाहक
आदमी
कोई हमारा दमेत्तहरीर
भी था?
अगर
कोई चश्मदीद
आदमी हमारा
गवाह हो तो ही
बात का भरोसा
करना।
ईसाइयत
कहती है कि
जीसस होंगे
तुम्हारे
गवाह। जीसस
बाइबिल में
जगह-जगह दो
वचनों का
उपयोग करते
हैं। कभी-कभी
वे कहते हैं, मैं हूं
ईश्वर-पुत्र!
लेकिन इससे भी
ज्यादा बार वे
कहते हैं, मैं
हूं मनुष्य का
पुत्र! सन आफ
मैन! बड़ा जोर
है उनका इस
बात पर कि मैं
आदमी का बेटा
हूं; जैसे
ईश्वर का बेटा
होना नंबर दो
है। और जीसस कहते
हैं कि मैं
तुम्हारा
गवाह हूं। यह
थोड़े सोचने
जैसी बात है।
इस्लाम
मुहम्मद को
ईश्वर का
अवतार नहीं
मानता, न
तीर्थंकर
मानता
है--इतना ही
मानता है, ईश्वर
का भेजा हुआ
दूत; लेकिन
आदमी। यह बात
महत्वपूर्ण
है। यह महत्वपूर्ण
इसलिए है कि
आदमी ही आदमी
का गवाह हो सकेगा।
अगर राम
तुम्हारे लिए
गवाही देंगे
तो गड़बड़ हो जायेगी,
क्योंकि वे
अपने मापदंड
से सोचेंगे।
उनके मापदंड
बड़े कठोर हैं,
अति कठोर
हैं, अमानवीय
हैं, असंभव
हैं! कोई धोबी
कह देता है
अपनी पत्नी को
कि "मैं कोई
रामचंद्र
नहीं हूं कि
सालों सीता रावण
के घर रही और
फिर भी उसे
स्वीकार कर
लिया! एक रात
भी अगर तू घर
नहीं रही, मैं
स्वीकार
करनेवाला
नहीं हूं।' यह खबर काफी
हो जाती है
राम को सीता
को त्याग देने
के
लिए।...मर्यादा!
अब ऐसा
व्यक्ति अगर
तुम्हारे
बाबत गवाही
देगा तो तुम
मुश्किल में
पड़ोगे। इसकी
गवाही का मापदंड
बड़ा ऊंचा होगा, अमानवीय
होगा। तुम तो
इसके सामने हर
हालत में पापी
सिद्ध हो
जाओगे।
इसलिए
इस्लाम कहता
है, मुहम्मद
कोई ईश्वर के
अवतार नहीं
हैं। वे आदमी
जैसे आदमी
हैं। और आदमी
की जो
मुसीबतें हैं,
उसकी
मुसीबतें
हैं। और आदमी
की जो आंतरिक पीड़ाएं
हैं! उनकी
आंतरिक पीड़ाएं
हैं। और आदमी
के मन के जो
भाव हैं, वेग
हैं, वह
उनके भाव, वेग
हैं। उनकी
गवाही का अर्थ
है।
भक्त
तो कहता है, तुमने जैसा
बनाया वैसा
मैं हूं।
मैंने स्वयं को
तो बनाया नहीं
है। यह मन भी
तुमने दिया
है। मुझे तो
सिर्फ मिला
है। इसका
कर्ता मैं
नहीं हूं।
इसलिए तुम
जानो, तुम्हारी
जिम्मेवारी
है।
अगर
भक्त को भगवान
का स्मरण भी
भूल जाता है
तो भी वह बहुत
चिंता नहीं
करता। वह कहता
है, तुम्हीं
भुला रहे हो।
तू
है तो तेरी
फिक्र क्या,
तू
नहीं, तो
तेरा जिक्र
क्या?
अगर तू
है तो हमने
तेरी फिक्र न
भी की तो भी तू
है! और अगर तू
नहीं है तो
तेरा जिक्र भी
करते रहे तो
क्या सार?
तू
है तो तेरी
फिक्र क्या,
तू
नहीं, तो
तेरा जिक्र
क्या?
और
निश्चित ही
आदमी कमजोर है, असहाय है! क्षणभर
भाव से भर
जाता है; क्षणभर
बाद भाव का
तूफान उतर
जाता है, ज्वार
उतर जाता है, सब भूल जाता
है।
देखो
मंदिर में
आदमी को पूजा
करते--कैसी
पवित्रता
झलकती है उसके
चेहरे से!
नमाज पढ़ते
देखो किसी
को--कैसा
निर्दोष भाव
आंखों में उतर
आता है! चेहरे
पर कोई
अद्वितीय आभा
आ जाती है।
फिर इसी आदमी
को बाजार में
देखो, किसी
से लड़ते-झगड़ते,
दुकान
चलाते, तो
तुम भरोसा ही
न कर सकोगे कि
वही आदमी है!
मन है प्रतिपल
बदला जाता:
अभी कुछ, अभी
कुछ। मन
तरंगायित है।
चंचल होना मन
का स्वभाव है।
अगर उसकी याद
भी आती है तो
भी थिर नहीं हो
पाती। किसी
क्षण बड़े जोर
से आती है, रोएं-रोएं
को कंपा जाती
है। और कभी
भूल जाता है
तो दिनों निकल
जाते हैं और
याद नहीं आती।
जब तुम्हें
याद आती है, तब तुम
चौंकते हो, रोते हो कि
अरे, इतने
दिन भूला रहा!
लेकिन
मनुष्य की यह
नैसर्गिक
स्थिति है।
श्वास भीतर
जाती है, फिर
बाहर जाती है।
तुम भीतर ही
श्वास को रखना
चाहोगे, मर
जाओगे। भीतर
जो आयी है वह
बाहर जायेगी।
बाहर जो गयी
है वह फिर
भीतर आयेगी।
ऐसा प्रतिपल श्वास
का आंदोलन
चलेगा। सभी
स्थितियों
में विरोध
रहेगा। दिन
काम करोगे, रात सो
जाओगे। एक
क्षण तय करोगे,
दूसरे क्षण
निश्चय टूट
जायेगा। ऐसे
ही श्वास आती-जाती
रहेगी। ऐसी ही
लहरों पर नौका
डोलती रहेगी।
अब दो
उपाय हैं। एक
तो ज्ञानी का
उपाय है, जो
कि बड़ा दुर्गम
है; क्योंकि
स्वयं से
चेष्टा करनी
पड़ेगी। अपने
छोटे-छोटे
हाथों से इस
पूरे सागर को
शांत करना पड़ेगा।
इसलिए महावीर
को अगर हमने
महावीर कहा तो
ऐसे ही नहीं
कहा। बड़ी
घनघोर
तपश्चर्या थी!
दुर्धर्ष!
जन्मों-जन्मों
की तपश्चर्या
थी, तब
कहीं जाकर वह
क्षण आया
सौभाग्य का कि
लहरें शांत
हुईं। यह बड़ी
लड़ाई थी। हां,
जिन्हें
लड़ने का शौक
है वे इस
रास्ते पर जा
सकते हैं। यह
रास्ता भी
पहुंचा देता
है। भक्त ने
तो प्राकृतिक
रास्ते को
चुना है।
और अगर
तुम नैसर्गिक
और स्वाभाविक
ढंग से, बिना
बहुत
जद्दोजहद के,
बिना
व्यर्थ का
संघर्ष किए
पहुंच जाना चाहते
हो तो भक्त का
ही रास्ता है।
उसी पर छोड़ दो।
जो ज्ञानी
जन्मों-जन्मों
में कर पाता
है, भक्त
क्षण में कर
लेता है। और
जो क्षण में
हो सकता है
उसको
जन्मों-जन्मों
में करने की जिद्द, जिद्द ही है। जो
क्षण में हो
सकता हो, उसे
जन्मों-जन्मों
तक करके क्या
करना है? इकट्ठा
ही छोड़ सकते
हो...।
रामकृष्ण
के पास एक
आदमी आया। वह
हजार सोने की अशर्फियां
लाया। उसने
उनके चरणों
में रख दीं और
कहा कि यह
मुझे आपको
देना है।
रामकृष्ण ने
कहा कि ठीक है, अब तू ले आया
है तो लौटाऊंगा
तो तुझे बुरा
लगेगा, ले
लिया। ये मेरी
हो गयीं। अब
तू इतना काम
कर दे मेरी
तरफ से: इनको
ले जाकर गंगा
में डाल आ। यह
मेरी हो गयीं।
अब तू इतना
काम और कर दे
मेरे लिए कि
इनको जाकर
गंगा में डाल
आ।
वह
आदमी गया तो, लेकिन लौटा
नहीं, बड़ी
देर होने लगी।
तो रामकृष्ण
ने कहा कि जाओ,
देखो वह
क्या कर रहा
है! वह वहां
एक-एक अशर्फी
को बजा-बजाकर,
खनका-खनकाकर फेंक रहा था
पानी में। भीड़
इकट्ठी हो गयी
थी। चमत्कार
हो रहा था कि
यह आदमी भी
क्या कर रहा है!
और वह एक-एक को
बजाता, परखता,
देखता, फेंकता।
तो देर लग रही
थी। गिनती
रखता--तीन सौ तीन,
तीन सौ
चार--ऐसा
धीरे-धीरे जा
रहा था! तो
रामकृष्ण ने कहा,
उससे जाकर
कहो कि नासमझ,
जब इकट्ठी
करनी हों तो
एक-एक अशर्फी
को जांच-जांचकर,
परख-परखकर
गिनती कर-करके,
खाते में
लिख-लिखकर
करना पड़ता है।
जब पूरी फेंकनी
हैं नदी में
तो हजार हुईं
कि नौ सौ
निन्यानबे हुईं
कि एक हजार एक
हुईं! जब
फेंकना है तो
इकट्ठा फेंका
जा सकता है; गिन-गिनकर
वहां क्या कर
रहा है?
भक्त
कहता है, जब
डालना ही है
उसके चरणों
में तो
गिन-गिनकर क्या
डालना, इकट्ठा
ही डाल देंगे!
और यह भी
अहंकार क्यों
करना कि पुण्य
ही उसके चरणों
में डालेंगे!
यह
भक्त की महिमा
है। वह कहता
है, पाप भी
उसी के चरणों
में डाल देंगे!
यह भी अहंकार
हम क्यों रखें
कि हम पुण्य
ही तेरे चरणों
में चढ़ाएंगे,
पाप न चढ़ाएंगे?
इसमें भी
बड़ी सूक्ष्म
अस्मिता है
छिपी हुई, कि
मैं और पाप
तेरे चरणों
में चढ़ाऊं!
नहीं, पहले
पुण्य का
निर्माण
करूंगा, फिर
चढ़ाऊंगा।
मैं, और
गलत तेरे
चरणों में
आऊं--नहीं! आऊंगा--सर्व
सुंदर होकर, सर्वांग
सुंदर होकर, महिमा से
आवृत्त
होकर--तब तेरे
चरणों में
रखूंगा! इसमें
भी बड़ी
अस्मिता है।
भक्त कहता है,
अब जैसा भी
हूं, दीनऱ्हीन,
बुरा-भला, सुंदर-असुंदर,
स्वीकार कर
लो!
इसीलिए
खड़ा रहा
कि
तुम मुझे
पुकार लो
जमीन
है न बोलती
न
आसमान बोलता
जहान
देखकर मुझे
नहीं
जबान खोलता
नहीं
जगह कहीं जहां
न
अजनबी गिना
गया
कहां-कहां
न फिर चुका
दिमाग-दिल
टटोलता
कहां
मनुष्य है कि
जो
उम्मीद
छोड़कर जीया
इसीलिए
अड़ा रहा
कि
तुम मुझे
पुकार लो
इसीलिए
खड़ा रहा
कि
तुम मुझे
पुकार लो!
पुकार
कर दुलार लो
दुलार
कर सुधार लो!
भक्त
कहता है, तुम्हीं...!
पुकारकर
दुलार लो, दुलारकर सुधार लो!
तुम्हीं...!
भक्त
की बड़ी अनूठी
भाव-दशा है।
भक्त को कुछ
भी करना नहीं
है, सिर्फ
कर्तापन का
भाव छोड़ना है।
ज्ञानी को बहुत
कुछ करना
है--लंबी
यात्रा है। और
मजा यह है कि
ज्ञानी
कर-करके भी
अंत में यही
कर पाता है कि
कर्तापन का
भाव छोड़ पाता
है। वह उसकी
अंतिम सीढ़ी
है। भक्त की
वही प्रथम
सीढ़ी है।
इसलिए मैं
बार-बार कहता
हूं, ज्ञानी
क्रमशः चलता
है, भक्त
छलांग लगाता
है। ज्ञानी
सीढ़ी से उतरता
है; भक्त
छलांग लगाता
है।
इसलिए
महावीर के
वचनों में
तुम्हें एक
क्रमबद्धता मिलेगी, एक
वैज्ञानिक
शृंखला
मिलेगी। एक
कदम दूसरे कदम
से जुड़ा हुआ
है। एक-एक कदम
ब्योरेवार, साफ-साफ! सब
इंगित-इशारे
हैं। पूरा
नक्शा है। जगह-जगह
मील के पत्थर
हैं। कितने आ
गये, कितना
आगे जाने को
है--सब लिखा
है।
महावीर
ने चौदह गुणस्थान
कहे हैं और
पूरी यात्रा
को चौदह खंडों
में बांट दिया
है। एक-एक खंड
का स्पष्ट मील
का पत्थर है।
तुम पक्की तरह
जान सकते हो
कि तुम कहां
हो, कितने चल
गये हो और
कितना चलने को
बाकी है। चौदहवें
गुणस्थान
के बाद ही
यात्रा पूरी
होती है।
भक्त
के पास कोई गुणस्थान
नहीं है। भक्त
के पास कोई
नक्शा ही नहीं
है। भक्त के
पास कोई
क्रमबद्ध सीढ़ियां
नहीं हैं।
भक्त को कुछ
पता भी नहीं
कि वह कहां है।
वह इतना ही भर
जानता है कि
जहां भी हूं, उसी का हूं; जैसा भी हूं,
उसी का हूं।
बस इतना सूत्र
उसके हृदय में
सघन होता चला
जाता है।
और यह
निर्भर करता
है तुम पर, चाहो तो एक
क्षण में
छलांग लग जाये,
चाहो तो तुम
जन्मों-जन्मों
तक छलांग का
विचार करते
रहो।
जो
गणित से जीते
हैं उनके लिए
ज्ञान का
रास्ता है। जो
प्रेम से जीते
हैं उनके लिए
भक्ति का रास्ता
है।
"नरहरि कैसे भगति करूं
मैं तोरी
चंचल
है मति मोरी!'
उस
चंचल मति को
उसके चरणों में
रख दो! कहना, ले सम्हाल!
फिर अगर वह
कहे कि नहीं, तुम्हीं
सम्हालो मेरे
लिए, तो
जैसे
रामकृष्ण ने
उस आदमी से
कहा था कि जा मेरे
लिए गंगा में
फेंक आ, तो
तुम सम्हालना
जब तक उसने
तुम्हें दी
है। वह अमानत
है। तुम्हारा
कुछ लेना-देना
नहीं है। वह
कहता है, सम्हाल
मेरे लिए।
अमानत है, तो
तुमने सम्हाल
ली है; जब मांगेगा
तब वापस लौटा
देंगे।
दूसरा
प्रश्न:
दो
दिन पहले
संध्या के
दर्शन में
आपने एक युवती
से कहा था, श्रद्धा
करो। और मैंने
भी आपकी बात
पर श्रद्धा की
कि जहां उत्कट
प्यास होगी
वहां पानी को
आना ही पड़ेगा।
अब पानी तो आ गया
है, लेकिन
क्या मैं
तुरंत अंजलि
भर के पीना
शुरू करूं या
पानी मुंह तक
आ जाये, इसकी
धैर्य से
प्रतीक्षा
करूं?
तुम्हारी
जैसी मर्जी!
साधना
के जगत में हर
जगह भक्त और
साधक का फर्क है।
साधक तत्क्षण
अंजलि भरकर पी
लेगा। भक्त थोड़ी
मान-मनौवल
चाहता है। वह
कहता है, भगवान
कहे, "पीयो!' थपथपाए कि "चलो पीयो
भी! माना कि
बहुत देर
प्यासे रहे, अब तो पी लो।'
तो वह रूठकर
खड़ा हो जाता
है।
झुकाया
तूने, झुके
हम, बराबरी
न रही
यह
बंदगी हुई ऐ
दोस्त! आशिकी
न रही।
वह बड़े
मान-मनौवल
लेता है। वह
कहता है, "झुकें? क्यों
झुकें?' और वह यह इसीलिए
कह पाता है, "क्यों झुकें',
क्योंकि वह
झुका तो है
ही।
सब
उसने छोड़ा है
तो यह हक
अर्जित किया
है कि वह थोड़ा रूठने-मनाने
का खेल खेल
सकता है।
साधक
के सामने जब
पानी आता है
तो वह तत्क्षण
पी लेता है, क्योंकि ऐसे
ही तो बहुत
प्रतीक्षा की
उसने। और वह
सदा डरा होता
है कि कहीं
छूट न जाये, आया हुआ
कहीं खो न
जाये। जिसने,
इतने श्रम
से आया है, इतनी
लंबी यात्रा
करके आया है, तब कहीं
पानी के दर्शन
हुए, वह तो
एकदम झुक जाता
है और पीने
में लग जाता
है। लेकिन
भक्त को तो
बिना कुछ किए
मिलता है। वह कोई
लंबी यात्रा
करके आया नहीं
है। "उसके' प्रसाद
से मिलता है।
"उसकी' अनुकंपा
से मिलता है।
उसने कुछ
अर्जित किया,
ऐसा नहीं
है। उसने किसी
योग्यता के बल
पर पाया, ऐसा
नहीं। उसने तो
अपनी
अपात्रता को
जाहिर करके, उसके ही हाथ
में सब छोड़कर
पाया है। तो
वह चाहे तो
थोड़ी
मान-मनौवल कर
सकता है। रुक
सकता है। वह
कहता है, "आने
दो, थोड़ा
और जल को बढ़ने
दो। इतना आ
गया है तो ओंठ
तक भी आ ही
जायेगा। तब पी
लेंगे। अंजुलि
भी क्यों
बांधें? और
जिसने इतनी
कृपा की है कि
जल को ले आया
है इतने करीब,
वह इतनी और
भी करेगा।'
उल्फत का
जब मजा है कि
वह भी हों
बेकरार
दोनों
तरफ हो आग बराबर
लगी हुई।
और
भक्त को तो
जैसे-जैसे
भक्ति में
गहराई आती है, वैसे-वैसे
यह बात दिखाई
पड़ने लगती है
कि मैं ही उसे
नहीं खोज रहा
हूं, वह भी
मुझे खोज रहा
है। सचाई भी
यही है। प्यासा
ही जलस्रोत को
नहीं खोज रहा
है, जलस्रोत
भी प्रतीक्षा
कर रहा है कि
आओ। क्योंकि
जब प्यासा
जलस्रोत पर
तृप्त होता है,
तब जलस्रोत
भी तृप्त होता
है। प्यासे की
ही प्यास नहीं
बुझती, जलस्रोत
की भी
जन्मों-जन्मों
की प्यास
बुझती है।
जलस्रोत का
सुख यही है कि
किसी की प्यास
बुझे।
तुम ही
खोज रहे हो
परमात्मा को, अगर ऐसा ही
होता और उसे
कोई प्रयोजन
नहीं है तुमसे,
तो खोज पूरी
भी होती, इसकी
संभावना नहीं
है। क्योंकि
अगर उसको रस ही
न हो खोजे
जाने में, तो
तुम कैसे खोज
पाते? तुम
खोज पाते हो, क्योंकि वह
भी चाहता है
तुम खोज लो।
वह ऐसी जगह
खड़ा होता है
कि तुमसे मिलन
हो जाये। वह
ऐसे तुम्हारे
पास ही आकर
खड़ा हो जाता है
कि तुम जरा ही
खोजबीन करो कि
मिलना हो जाये।
तुमने
बच्चों को
देखा है न, छिया-छी
खेलते, बस
वही खेल है! वे
कोई ज्यादा
दूर नहीं चले
जाते कि फिर
तुम खोज ही न
पाओ। वहीं
कमरे में बिस्तर
के पीछे छिपे
हैं, कि
पलंग के नीचे
चले गए हैं।
तुमको भी पता
है, उनको
भी पता है।
जिसको
पता है वह भी
दो-चार चक्कर
लगाकर बिस्तर
के नीचे आ
जाता है कि
अरे! और इस तरह
चमत्कृत होता
है कि जैसे
कुछ पता न था।
हालांकि वह
आंख बंद किये
खड़ा था, लेकिन
उसने थोड़ी-सी
आंख खोलकर देख
लिया था कि कहां
जा रहे हो!
सबको पता है।
इसलिए
हिंदू इस जगत
को लीला कहते
हैं।...छिया-छी
है।
परमात्मा
भी तुम्हें
खोज रहा है।
तुम्हीं अकेले
नहीं हो खोज
में। यह
तुम्हारा हाथ
ही उसके हाथ
की तरफ नहीं
बढ़ा है, उसका
हाथ भी
तुम्हारे हाथ
की तरफ बढ़ा
है। शायद
तुमने हाथ
बढ़ाया, उससे
पहले ही उसने
हाथ बढ़ा दिया
है। तुम्हें जब
से बनाया, तब
से ही हाथ बढ़ाए
खड़ा है। तुमने
बड़ी देर कर दी
है।
उल्फत का
जब मजा है कि
वह भी हों
बेकरार
दोनों
तरफ हो आग
बराबर लगी
हुई।
--आग
दोनों तरफ
बराबर लगी हुई
है। प्यासा वह
भी है कि तुम
आओ।
वैज्ञानिक
कहते हैं, सूरज निकलता
है, फूल
खिलते हैं। अब
तक ऐसा ही
समझा जाता रहा
है कि यह
एकतरफा
लेन-देन है:
सूरज निकला, फूल खिले।
सूरज तो बहुत
कुछ देता है
फूलों को।
सूरज के बिना
तो फूल खिल न
सकेंगे।
कवियों को सदा
इस बात पर
संदेह रहा है
और अब कुछ
वैज्ञानिकों
को भी संदेह
होना शुरू हुआ
है। और वह संदेह
यह है कि
एकतरफा तो जगत
में कुछ भी
नहीं हो सकता।
यहां तो सब
लेन-देन
संतुलित है।
यहां तो दोनों
तराजू समान
होने चाहिए।
अन्यथा अव्यवस्था
हो जायेगी।
सूरज देता रहे,
फूल लेते
रहें; सूरज
देता रहे, फूल
लेते रहें--तो
एक दिन सूरज
का दिवाला
निकल जायेगा।
और फूलों के
पेट इतने बड़े
हो जाएंगे कि
वे अपने को सम्हाल
न पाएंगे।
नहीं, फूल
भी कुछ दे रहे
होंगे। और
सुबह जब सूरज
निकलता है तो
फूल ही नहीं
खिलते, सूरज
भी फूलों को
खिला देखकर
खिलता होगा।
यह अब
तक तो कविता
रही है। लेकिन
अभी इधर दस वर्षों
में
वैज्ञानिकों
को इस पर
संदेह आने लगा
है और शक होने
लगा है कि यह
कविता कहीं सच
ही न हो।
क्योंकि सब
तरफ जीवन में
लेन-देन बराबर
है। तुम जिसे
प्रेम देते हो, तत्क्षण
उससे प्रेम
पाते हो। अगर
तुम ही प्रेम
दे रहे हो और
दूसरी तरफ से
प्रेम नहीं
लौटता, तुम
जल्दी ही थक
जाते हो। तुम
उदास हो जाते
हो। तुम अपने
रास्ते पर लग
जाते हो। तुम
सोचते हो, यह
द्वार अपने
लिए नहीं। तुम
अगर मित्रता
बांट रहे हो
और दूसरी तरफ
से मित्रता के
लिए कोई प्रतिसंवेदन
नहीं होता, कोई संवाद
नहीं उठता, दूसरे हृदय
से कुछ खबर
नहीं आती कि
तुम्हारी मित्रता
स्वीकार की
गयी, अस्वीकार
की गयी; चाही
गई थी, नहीं
चाही गई थी; दूसरा
प्रसन्न हुआ
कि नहीं
प्रसन्न हुआ;
दूसरा अगर
तटस्थ ही खड़ा
रहे उपेक्षा
से--तो जल्दी
ही मित्रता
सूख जाती है।
सींचना तभी
संभव हो पाता
है जब दोनों
तरफ से बह चले;
आये भी जाये
भी; लौटे।
और जब तुम
किसी को प्रेम
देते हो और
प्रेम वापस
लौटता है तो
हजार गुना
होकर लौटता
है। फिर तुम
देते हो, फिर
हजार गुना
होकर लौटता
है। दो प्रेमी
एक-दूसरे को
देकर इतना पा
लेते हैं
जितना
उन्होंने दिया
कभी भी नहीं
था; क्योंकि
दोनों की तरफ
हजार गुना
होकर लौटने लगता
है।
दो
प्रेमियों का
जोड़ केवल जोड़
नहीं होता, गुणनफल होता है। जो
अंतिम हिसाब है
उसमें ऐसा
नहीं होता कि
तीन + तीन = छह।
उसमें ऐसा
होता है: तीन तीन से =
नौ। गुणनफल
की तरह चलती
है, बढ़ती
जाती है
संख्या। बड़ा
होता चला जाता
है। दोनों
प्रेमी छोटे
हो जाते हैं
और दोनों के
आसपास
आने-जानेवाला
प्रेम बहुत
बड़ा हो जाता
है। दोनों
प्रेमी दो तट
की भांति हो
जाते हैं और
प्रेम की गंगा
बड़ी होने लगती
है। लेकिन यह
तभी संभव है
जब लौटता भी
हो।
मेरी
भी दृष्टि यही
है कि फूल भी
लौटाते हैं। और
जिस दिन
पृथ्वी पर एक
भी फूल न होगा, उस दिन सूरज ऊगना न
चाहेगा। ऊगने
का कोई अर्थ न
रह जायेगा।
किसके लिए?
मैं
यहां बोल रहा हूं।
तुम अगर समझते
हो तो ही बोल
सकता हूं। तुम्हारी
आंख से, तुम्हारे
भाव से, तुम्हारी
मुद्रा से अगर
समझ को लौटते
हुए देखता हूं
तो ही बोल
सकता हूं।
अन्यथा फिर
दीवालों से
बोलने में और
तुमसे बोलने
में कोई फर्क
न रह जायेगा।
फिर दीवालों
से ही बोल ले
सकता हूं। तुम
दीवाल नहीं
हो। इसलिए
धीरे-धीरे
मैंने भीड़ में
बोलना बंद कर
दिया, क्योंकि
मैंने पाया कि
वहां बड़ी
दीवाल खड़ी है।
भीड़ तो खड़ी
होती है, लेकिन
दीवाल की तरह
खड़ी होती है।
वहां संवेदनशील
चित्त नहीं
हैं। तो मैं
बोलता हूं, लेकिन लौटता
कुछ भी नहीं।
और अगर लौटता
न हो, कम से
कम समझ न
लौटती हो, आंखों
की झलक न
लौटती हो, जरा-सी
रोशनी है, तुम्हारी
आंख में कौंध
जाती है, अगर
वह न लौटती हो,
तो बोलना
व्यर्थ हो
जाता है।
मैं
कहता हूं, सूरज नहीं ऊगेगा, जिस
दिन फूल नहीं
खिलेंगे। यह
तो हम जानते
हैं कि फूल
नहीं खिलेंगे
अगर सूरज नहीं
ऊगेगा।
दूसरी बात भी
इतनी ही
सुनिश्चित
है। फूलों की
तरफ से किसी
ने अभी बहुत
गवाही नहीं
दी। फूलों की
तरफ से खोज
नहीं हुई। फूल
छोटे-छोटे हैं,
सूरज बड़ा
है।
लेकिन
आदमी के जगत
में उलटी हालत
है। आदमी छोटा
है और कहता है, हम परमात्मा
को खोजते हैं।
और परमात्मा
बड़ा है, सूरज
की भांति।
परमात्मा
तुम्हें खोज
रहा है। तुम
छोटे-छोटे फूल
हो। वह
तुम्हारी
तलाश कर रहा
है। उसकी
किरणें
तुम्हें आकर
घेर लेना चाहती
हैं, तुम्हारे
साथ हवाओं में
नाचना चाहती
हैं। इसे अगर
स्मरण रखा तो
कोई डर नहीं
है, थोड़ी
देर रुक जाना।
जो छाती तक आ
गया है पानी, वह ओंठों तक
भी आ जायेगा।
वह तुम्हें डुबा लेना
चाहता है अपने
में। वह डूबकर
बड़ा मस्त
होगा। वह
डुबाकर बड़ा
मस्त होगा। वह
तुम्हें अपने
में आत्मसात
कर लेना चाहता
है। तुम उसी
की ऊर्जा
हो--दूर भटक
गयी। वह
तुम्हें पाकर
वैसा ही
प्रसन्न होगा
जैसे कोई
प्रेयसी, उसका
पति खोया हुआ
वापिस लौट आए;
या कोई मां,
उसका बेटा
खोया हुआ
वापिस लौट आए;
या कोई बाप।
यह
आनंद एकतरफा
होनेवाला
नहीं है। इस
जगत में एकतरफा
कुछ भी नहीं
है। इसे तुम
जीवन का बुनियादी
सत्य समझो।
यहां जहां भी
एक तरफ तुम
कुछ देखो, समझना कि
दूसरी तरफ भी
कुछ हो रहा
है। यहां ताली
एक हाथ से
नहीं बजती।
तो
भक्त अकेला ही
ताली न बजा
पाएगा। और
भक्त अकेला
भजन न कर
पायेगा। और
भक्त अकेला
कीर्तन न कर
पायेगा। अगर
पाए न कि भजन
में वह भी
सम्मिलित है, कहीं पीछे
खड़ा वह भी
गुनगुना रहा
है, और
कीर्तन में
अगर पाए न कि
वह भी नाच रहा
है--कितनी देर
भक्त अकेला चल
पाएगा? ईंधन
जल्दी ही चुक
जायेगा। वही
है जो ईंधन को डाले
चला जाता है।
इसलिए अगर
साधक हो और
बड़ी मेहनत से
पहुंचे हो
जलस्रोत पर, तो अंजुलि
भरकर पीना ही
पड़ेगा; तुम
देर तक
प्रतीक्षा
नहीं कर सकते।
क्योंकि साधक
मानता है, मैं
ही खोज रहा हूं;
परमात्मा
मुझे नहीं खोज
रहा है।
परमात्मा का साधक
को कोई बड़ा
सवाल ही नहीं
है। साधक सत्य
खोजता है।
सत्य का अर्थ
होता है:
तटस्थ। भक्त भगवान
खोजता है।
भगवान का अर्थ
होता है:
व्यक्ति, प्रेम
से लबालब!
सत्य रूखा
शब्द है। सत्य
में तर्क की
भनक है, गणित
का स्वाद है।
सत्य शब्द में
कोई रसधार
नहीं है, मरुस्थल
जैसा है। अब
तुम लगाओ सत्य
को छाती से, तुमको पता
चलेगा! तो तुम
तो लगा रहे हो,
लेकिन सत्य
बिलकुल हाथ
नहीं फैला
रहा। जैसे तुम
किसी खंभे को
छाती से लगा
रहे हो, ऐसा
सत्य छाती से
लगेगा।
"भगवान!'
भक्त यही कह
रहा है कि अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति तटस्थ
नहीं है। इतना
ही अर्थ है
भगवान शब्द
का। भगवान से
कोई मतलब नहीं
है कि कोई
बैठा है आकाश
में व्यक्ति
की तरह। यह
शब्द तो सूचक
है। यह तो
इतना कह रहा
है कि
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति उदासीन
नहीं है।
अस्तित्व
तुम्हारे
प्रति प्रेम
से लबालब है, भरा हुआ है।
यह सत्य नहीं
है, बल्कि
प्रेम है।
इसलिए
जब जीसस ने
कहा कि
परमात्मा
प्रेम है तो
उनका यही अर्थ
था। कह सकते
थे, परमात्मा
सत्य है।
गांधी ने कहा
ही है: द्रुथ
इज गाड; सत्य
परमात्मा है।
लेकिन सत्य
बड़ा रूखा-सूखा
शब्द है; जैसे
किसी तर्क का,
गणित का, हिसाब का
शब्द है।
इसमें भगवान
का रस नहीं।
सत्य को
परमात्मा
कहने का अर्थ
है कि
परमात्मा नहीं
है, सत्य
है। फिर सत्य
को खोजना
पड़ेगा। सत्य
तुम्हें नहीं
खोजेगा। सत्य
को क्या पड़ी
है? सत्य
में तो कोई
प्राण भी नहीं
हो सकते। जब
सत्य में
प्राण होते
हैं और भीतर
ज्योति का
दीया जलता है,
तब वह
परमात्मा हो
जाता है, तब
वह सत्य नहीं
रह जाता।
इसलिए जीसस
ज्यादा सही
हैं, जब वे
कहते हैं
परमात्मा
प्रेम है या
प्रेम परमात्मा
है।
तो अगर
तुमने भक्त की
तरह से छलांग
लगायी है तो
कोई फिक्र
नहीं, रुके
रहना, ठहरे
रहना--वह
बढ़ेगा। तुम
जितनी जिद्द
करोगे उतनी
तीव्रता से
बढ़ेगा।
तुम्हारी जिद्द
भी तुम्हारे
भरोसे की
अभिव्यक्ति
होगी। तुम्हारी
जल्दबाजी
अधैर्य की, तुम्हारी
प्रतीक्षा
तुम्हारे
धैर्य की!
खुद्दारियां
यह मेरे तजस्सुस
की देखना
मंजिल
पर आकर अपना
पता पूछता हूं
मैं।
भक्त
कहता है, देखो
मेरी तलाश का
स्वाभिमान कि
मंजिल पर आ
गया हूं और मंजिल
पर आकर अपना
पता पूछता
हूं।...छिया-छी!
भक्त
कभी-कभी बड़े
स्वाभिमान से
भी बात करता
है। भक्त ही
कर सकता है
स्वाभिमान से
बात, क्योंकि
जिसका कोई
अहंकार नहीं
वही स्वाभिमान
से बात कर
सकता है।
महाराष्ट्र
में प्यारी कथा
है विठोबा के
मंदिर की, कि एक भक्त
अपनी मां की
सेवा कर रहा
है और कृष्ण
उसे दर्शन
देने आए हैं।
उन्होंने
द्वार पर दस्तक
दी है। तो
उसने कहा, अभी
गड़बड़ न करो, अभी मैं मां
के पैर दाबता
हूं। लेकिन
कृष्ण ने कहा,
सुनो भी मैं
कौन हूं!
जिसके लिए
तुमने सदा प्रार्थना
की और सदा
पुकारा, वही
कृष्ण हूं।
इतनी मुश्किल
और इतनी
प्रार्थनाओं
के बाद आया
हूं।' तो
उसके पास एक
ईंट पड़ी थी, उसने ईंट
सरका दी, लेकिन
उस तरफ देखा
नहीं, और
कहा, "इस पर
बैठो, विश्राम
करो, जब तक
मैं मां के
पैर दाब लूं।'
वह रातभर
पैर दाबता रहा
और कृष्ण उस
ईंट पर
खड़े-खड़े थक
गये और मूर्ति
हो गये होंगे।
तो विठोबा की
मूर्ति है वह
ईंट पर खड़ी
है। मगर गजब
का भक्त रहा
होगा--गजब का
भरोसा रहा
होगा!
खुद्दारियां
यह मेरे तजस्सुस
की देखना!
--यह
स्वाभिमान
मेरी खोज का!
मंजिल
पर आकर अपना
पता पूछता हूं
मैं।
कृष्ण
को भी खड़ा
रखा। कृष्ण को
भी ईंट पर खड़ा
कर दिया। भक्त
का भरोसा इतना
है, भक्त की
श्रद्धा इतनी
है कि जल्दी
क्या है! बेचैनी
क्या है! भक्त
को भगवान मिला
ही हुआ है। भगवान
लौट जायेगा, यह तो सवाल
ही नहीं उठता।
लौट भी जायेगा
तो जायेगा
कहां!
इसलिए
अगर भक्त की
दशा हो और खेल
थोड़ी देर और
चलाना हो, तो जलस्रोत
सामने फूट पड़े,
तुम्हें
छाती तक डुबा
ले, तो भी
खड़े रहना, कोई
हर्जा नहीं।
आएगा! वह भी आ
रहा है, तुम्हें
खोज रहा है।
वह ओंठों तक
भी आयेगा। लेकिन
अगर बहुत
चेष्टा से आए
हो तो इतना
धैर्य मत
करना।
क्योंकि जो
चेष्टा से
मिलता है वह
क्षण में खो
भी सकता है।
मन की किसी
भाव-दशा में
जलस्रोत
दिखाई पड?ता
है; भाव-दशा
बदल जाये, खो
जायेगा। अगर
मन की तरंगों
पर कब्जा पाकर,
ध्यानस्थ
होकर, उसके
जलस्रोत की
झलक मिली हो
तो जल्दी पी
लेना, क्योंकि
तरंगों का
क्या पता, विचार
फिर आ जायें, फिर चूक जाओ!
साधक
कई बार चूक
जाता है
पहुंच-पहुंचकर; क्योंकि
साधक का
पहुंचना मन की
एक खास दशा पर निर्भर
करता है। वह
दशा बड़ी
संकीर्ण है और
बड़ी कठिन है!
उसे क्षणभर
भी बांधकर
रखना बहुत
मुश्किल है।
महावीर ने कहा
है, अड़तालीस
सैकिंड
तुम ध्यान में
रह जाओ तो
सत्य की
उपलब्धि हो जायेगी।
अड़तालीस सैकिंड!
अड़तालीस सैकिंड
भी मन को
ध्यान की
अवस्था में
रखना कठिन है।
लेकिन
भक्त तो चौबीस
घंटे भी भगवान
के भाव में रह
सकता है। वह
भूलता भी है
तो भी उसी को
भूलता है; याद भी करता
है तो भी उसी
की याद करता
है--लेकिन उससे
कभी नहीं
छूटता। उसका
भूलना भी उसी
का भूलना है!
अगर पीठ भी
करता है तो
उसी की तरफ
करता है और
मुंह भी करता
है तो उसी की
तरफ करता है। भक्त
की बड़ी अनूठी
स्थिति है!
तो तुम
पर निर्भर है, पूछनेवाले पर निर्भर
है। अगर
बामुश्किल
खोज पाए हो तो
जब पहुंच जाओ
पास तो देर मत
कर देना, एकदम
पी लेना! कौन
जाने, कहीं
पास आया हुआ
स्रोत फिर न
खो जाये! हां, अगर भक्त हो
तो थोड़ा मजा
और खेल का ले
सकते हो। और
पहुंचकर खेल
का जो मजा है
वह और ही है!
पहले तो हम तड़फते
हैं, डरे
हुए रहते हैं,
परेशान
रहते हैं, बेचैन
रहते हैं!
इसलिए
तुमने अकसर
देखा, मंजिल
पर जब लोग
पहुंच जाते
हैं तो सामने
ही बैठ जाते
हैं विश्राम
के लिए! वैसे
चलते रहे, बड़े
मीलों चलकर आए
होंगे, लेकिन
ठीक जब द्वार
पर आ जाते हैं
तो सोचते हैं
ठीक, सीढ़ियों
पर बैठ जाते
हैं विश्राम
करने के लिए।
अब कुछ देर
नहीं, लेकिन
अब पहुंच ही
गए तो अब
जल्दी भी क्या
है!
तीसरा
प्रश्न:
आपके
प्रति इतना
प्रेम रहते
हुए भी आपको
सुनते वक्त
कभी-कभी
अकुलाहट और
क्रोध क्यों
उठने लगता है?
प्रेम
है--इसीलिए।
तुम्हारा
प्रेम क्रोध
से मुक्त तो
अभी नहीं हो
सकता।
तुम्हारे
प्रेम में तो
क्रोध अभी होगा
ही। तुम्हारी
दोस्ती में
तुम्हारी
दुश्मनी भी
अभी होगी। क्योंकि
तुम बंटे-बंटे
हो। अभी तुम
एकरस नहीं। अभी
तो तुम जिससे
प्रेम करते हो, उसी को
क्रोध भी करते
हो। अभी तो
तुम जिस पर श्रद्धा
करते हो, उसी
पर अश्रद्धा
भी करते हो।
अभी तो तुम
विरोधाभासी
हो। अभी तो
तुम्हारा
चित्त एक
द्वंद्व की
अवस्था में
है--जहां
विपरीत से छुटकारा
नहीं हुआ; जहां
विपरीत मौजूद
है। तो अगर
तुम मुझे
प्रेम नहीं
करते तो जरूर
कोई नाराजगी न
होगी।
तुमने
देखा, अगर
किसी को
दुश्मन बनाना
हो तो पहले
दोस्त बनाना
जरूरी है। तुम
बिना दोस्त
बनाए किसी को
दुश्मन बना
सकते हो? कैसे
बनाओगे? कोई
उपाय नहीं।
दोस्ती दुश्मनी
में बदल सकती
है, दुश्मनी
दोस्ती में
बदल सकती है; लेकिन सीधी
दुश्मनी
बनाने का कोई
उपाय नहीं। हम
नाराज उन्हीं
पर होते हैं
जिनसे हमारा
लगाव है।
अपनों से हम
नाराज होते
हैं, परायों
से तो हम
नाराज नहीं
होते।
तो
मुझसे अगर
तुम्हारा
लगाव है तो
बहुत बार नाराजगी
भी होगी। उससे
कुछ घबड़ाने
की जरूरत
नहीं--वह
प्रेम की छाया
है। उससे कुछ चिंतित
भी मत हो
जाना।
क्योंकि उससे
अगर तुम चिंतित
हुए तो खतरा
है। खतरा यह
है कि तुम अगर
उस पर बहुत
ज्यादा ध्यान
देने लगे
चिंतित होकर, तो कहीं वही
तुम्हारे
ध्यान से
मजबूत न होने
लगे। स्वीकार
कर लेना कि
ठीक है, प्रेम
है तो कभी-कभी
नाराजगी भी हो
जाती है। लेकिन
उस पर ज्यादा
ध्यान मत
देना। ध्यान
देने से; जिस
पर भी हम
ध्यान दें वही
बढ़ने लगता है।
ध्यान भोजन
है।
इसीलिए
तो हम बहुत रस
लेते हैं। अगर
कोई तुम्हारे
प्रति ध्यान न
दे तो तुम कुम्हालने
लगते हो।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, बच्चे को
अगर मां का
ध्यान न मिले
तो बच्चा, भोजन
सब तरह से
मिले, चिकित्सा
मिले, सुविधा-सुख
मिले, तो
भी कुम्हला
जाता है।
ध्यान मिलना
चाहिए। ध्यान
पाने के लिए
बच्चा तड़फता
है, रोता
है, चीखता
है। तुमने
देखा, बच्चे
को कह दो, "घर
में मेहमान आ
रहे हैं, शोरगुल
मत करना'! वैसे
वह शांति से
बैठा था, खेल
रहा था अपने
खिलौनों से, मेहमान के
आते ही वह
शोरगुल मचाएगा।
क्योंकि इतने
लोग घर में
मौजूद हैं, इनका ध्यान
आकर्षित करने
का मौका वह
नहीं चूक सकता।
और वह
एक ही रास्ता
जानता है ध्यान
आकर्षित करने
का कि कुछ
उपद्रव खड़ा कर
दे।
ध्यान
भोजन है।
इसीलिए तो लोग
इतने आतुर
होते हैं कि
दूसरों का
ध्यान
आकर्षित कर
लें। कोई राजनेता
बनना चाहता
है--वह
कुछ भी नहीं
है, आकांक्षा
इतनी है कि
हजारों लोगों
का ध्यान मेरी
तरफ हो।
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री...तो
करोड़ों लोगों
का ध्यान मेरी
तरफ हो।
तुमने
देखा कि
राजनेता जब तक
पद पर होते
हैं तब तक
स्वस्थ रहते
हैं; जैसे ही
पद से उतरे कि
बीमार पड़ जाते
हैं! राजनेता
जब तक सफल
होता रहता है
तब तक बिलकुल
स्वस्थ रहता
है; असफल
हुआ कि मरा, फिर नहीं जी
सकता। क्या हो
जाता है? जब
तक ध्यान मिलता
है तब तक
भोजन। ध्यान
ऊर्जा है। तुम
जब भी किसी की
तरफ देखते हो
गौर से, तब
तुम उसे ऊर्जा
दे रहे हो।
तुम्हारी
आंखों से
जीवन-स्रोत
बहता है।
इसलिए
जिन लोगों को
ठीक-ठीक
रास्ते से
ध्यान नहीं
मिल पाता वे
उलटे उपाय भी
करते हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
राजनेताओं
में और
अपराधियों
में कोई फर्क
नहीं है। फर्क
इतना ही है कि
राजनेता
समाज-सम्मत
उपाय से ध्यान
आकर्षित करता
है; अपराधी, समाज-असम्मत
उपाय से।
हत्या कर देता
है किसी की, अखबार में
फोटो तो छप
जाता है, चर्चा
तो हो जाती
है। लोग कहते
हैं, बदनाम
हुए तो क्या, कुछ नाम तो
होगा! तुम भला
सोचते होओ कि
अपराधी को
कैसा कठिन
नहीं मालूम
पड़ता होगा जब
जंजीरें
डालकर पुलिस
के आदमी उसे जेलखाने
की तरफ ले
जाते हैं! तुम
गलती में हो, तुम जरा फिर
से गौर से
देखना! जब
किसी आदमी को
जंजीर बांधकर
पुलिसवाले ले
जाते हैं तो
तुम उसकी अकड़
देखना--वह किस
शान से चलता
है! बाजार में
वह प्रतिष्ठित
है, वह खास
आदमी है! बाकी
किसी के हाथ
में तो जंजीरें
नहीं और बाकी
की तरफ तो
चार-पांच
पुलिसवाले
आसपास नहीं चल
रहे हैं, उसी
के पास चल रहे
हैं! जैसे
राष्ट्रपति
के आगे-पीछे
पुलिसवाले, ऐसा अपराधी
के आगे पीछे
भी पुलिसवाले!
जैसे राजनेता
को भीड़ देखती
है, वैसे
अपराधी को भी
देखती है।
मैंने
सुना है, एक
राजनेता मरा
तो उसकी
प्रेतात्मा
अपनी अर्थी के
साथ गयी। एक
दूसरी
प्रेतात्मा, एक पुराने
भूतपूर्व
राजनेता, वे
भी वहां मौजूद
थे मरघट पर।
तो उस नये
राजनेता की
प्रेतात्मा
ने उनसे कहा
कि अगर मुझे
पता होता कि
मरने पर इतनी
भीड़ इकट्ठी
होगी, मैं
कभी का मर गया
होता। इतनी
भीड़ इकट्ठी
हुई, जिंदगी
में कभी नहीं
हुई थी! अगर
मुझे पहले पता
होता तो मैं
कभी का मर गया
होता!
भीड़ को
इकट्ठा करने
का बड़ा शौक है, बड़ा रस है।
उसके पीछे
मनोवैज्ञानिक
सत्य है। अगर
कोई भी उपाय न
मिले तो आदमी
उलटे-सीधे उपाय
करता है।
एक
आदमी ने
अमरीका में इस
सदी के
प्रारंभ में अपने
को प्रसिद्ध
करने के लिए
आधे बाल काट
लिए, आधी दाढ़ी-मूंछ
काट ली।
न्यूयार्क की
सड़कों पर वह
तीन दिन घूमता
रहा। जहां गया
वहीं लोगों ने
चौंककर
देखा कि क्या
हुआ! सब
अखबारों में
उसका नाम छपा।
तीन दिन में वह
आदमी हर आदमी
की जबान पर
था। और जब
उससे पूछा गया
कि यह तुमने किसलिए
किया है, तो
उसने कहा कि
इसमें क्या
कुछ बताने की
बात है! मैं
मरा जा रहा था,
कोई मुझे
जानता ही
नहीं! हम आए और
चले! किसी की नजर
भी न पड़ी! यह भी
कोई जिंदगी
हुई? और
मुझमें कोई
गुणवत्ता तो
है नहीं; मैं
कोई बड़ा कवि
नहीं हूं, कोई
बड़ा चित्रकार
नहीं हूं कि
लोग मुझे
देखेंगे--तो
मैंने कहा, कुछ तो करूं!
यह मुझे सूझ
गया। मगर अब
चित्रकार
मेरा चित्र
उतारने को आ
रहे हैं और
कवि मेरे संबंध
में कविताएं
लिख रहे हैं।
खयाल
रखना, जिस
पर भी तुमने
ध्यान दिया वह
मजबूत होता
चला जाता है।
आधुनिक
विज्ञान ने जो
बड़ी से बड़ी खोजें
की हैं उनमें
एक खोज बड़ी
चमत्कारी
है--और वह यह कि
जब वैज्ञानिक
निरीक्षण
करता है परमाणुओं
का, अणुओं
का, गहरी
खुर्दबीन से,
तो एक बहुत
अनूठी बात पता
चली कि जब वह
उनका
निरीक्षण
करता है तब
उनका व्यवहार बदल
जाता है।
परमाणुओं का
निरीक्षण
करने से व्यवहार
बदल जाता है!
यह तो हद्द हो
गयी। इसका तो
यह अर्थ हुआ
कि जब तुम गौर
से कुर्सी को
देखते हो तो
कुर्सी वही
नहीं रह जाती,
जब वह कोई
नहीं देख रहा
था, जैसी
तब थी! यह आदमी
के संबंध में
तो समझ में
आता है कि
रास्ते पर तुम
चले जा रहे हो,
कोई भी नहीं
है, तो तुम
एक ढंग के
आदमी होते हो।
फिर रास्ते पर
कोई निकल आया,
दो आदमी
निकल आए, तो
तुम बदल जाते
हो, तुम
थोड़े सम्हलकर
चलने लगते हो।
और अगर दो स्त्रियां
निकल आएं और
अगर सुंदर
हुईं, तब
तो तुम बिलकुल
ही बदल जाते
हो। तब तो तुम
एकदम झाड़ देते
हो अपने को; सब तरह से
सुंदर होकर, टाई-वाई ठीक
करके चल पड़ते
हो! चेहरे पर
रौनक आ जाती
है, पैर
में गति आ
जाती है!
तुमने
देखा, दस
आदमी बैठकर
बात कर रहे
हों और एक
स्त्री वहां आ
जाये, बात
का पूरा का
पूरा रूप बदल
जायेगा--तत्क्षण!
अब वह दसों के
बीच एक होड़
शुरू हो गयी
कि इस स्त्री
का ध्यान कौन
आकर्षित करे!
स्त्री
यानी मां! उसी
से आंख का
पहला संबंध है।
उसी से पहला
ध्यान मिला
था। उसी की
आंख से पहली
जीवन की
ज्योति पायी
थी। जैसे ही
स्त्री को
देखा कि
तत्क्षण वही
ध्यान की
ज्योति पाने
की आकांक्षा
जगती है। और
दसों में
प्रतिस्पर्धा
हो जायेगी कि
कौन इस स्त्री
को आकर्षित कर
लेता है। जो
आकर्षित कर
लेगा वह जीत
गया, वह नेता
हो गया, बाकी
नौ हार गये।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
वस्तुएं तक
वही नहीं रह
जातीं
निरीक्षण
करने के साथ, जैसी वह
पहले थीं।
उनमें भी
रूपांतरण हो
जाता है। यह
तो हद्द हो
गयी। परमाणु
को देखने के
साथ ही व्यवहार
बदल जाता
है--इससे एक
बात सिद्ध
होती है कि
परमाणु भी
आत्मवान हैं।
वहां भी
चैतन्य है।
चैतन्य के
अतिरिक्त तो
ऐसा नहीं हो
सकता।
तो तुम
जब वृक्ष को
गौर से देखते
हो तो तुम यह
मत सोचना कि
वृक्ष वही
रहा--बदल गया। इस
पर बहुत
प्रयोग हो रहे
हैं। अगर तुम
एक वृक्ष को
चुन लो बगीचे
में और रोज
उसके पास जाकर
उसको ध्यान दो, और ठीक उसके
ही मुकाबले
वैसा ही दूसरा
वृक्ष हो उसको
ध्यान मत दो, पानी दो, खाद
दो, सब
बराबर, सिर्फ
ध्यान मत दो
और एक वृक्ष
को चुनकर तुम
उसे रोज ध्यान
दो, दुलराओ,
पुचकारो,
प्यार करो,
उससे थोड़ी
बात करो, थोड़ी
गुफ्तगू अपनी
कहो, थोड़ी
उसकी
सुनो--तुम
अचानक हैरान
होओगे, जिस
वृक्ष को
ध्यान दिया वह
दुगनी
गति से बढ़ता
है।
इसके
अब तो
वैज्ञानिक
प्रमाण हैं।
उसमें जल्दी
फूल आ जाते
हैं। और फूल
उसके बड़े
होंगे। खाद और
पानी में कोई
फर्क नहीं है।
दोनों वृक्ष
एक साथ रोपे
गए थे, एक
ऊंचाई के थे; लेकिन जल्दी
ही, जिसको
ध्यान दिया
गया था वह बढ़
जायेगा, जिसको
ध्यान नहीं
दिया गया, उपेक्षित,
दुर्बल, दीन
रह जायेगा।
यही
सत्य भीतर के
संबंध में भी है।
उन्हीं बातों
को ध्यान दो
जिन्हें तुम
बढ़ाना चाहते
हो। मुझसे
तुम्हें
प्रेम है, प्रेम को ही
ध्यान दो। हां,
बीच-बीच में
छाया पड़ती है
क्रोध की, ध्यान
मत देना।
क्योंकि
जिसको तुम
ध्यान दोगे वह
बढ़ेगा। प्रेम
को ही ध्यान
देना! ध्यान
देते-देते तुम
पाओगे, क्रोध
कम होने लगा।
एक दिन ऐसी
घड़ी आयेगी कि
क्रोध की सारी
ऊर्जा ध्यान
में निमज्जित
होकर प्रेम बन
जायेगी। तब
क्रोध की छाया
भी न बनेगी।
तब प्रेम
शुद्ध होगा।
और जहां प्रेम
शुद्ध है वहीं
प्रार्थना का
जन्म हो जाता
है।
"आपके प्रति
इतना प्रेम
रहते हुए भी, आपको सुनते
वक्त कभी-कभी
अकुलाहट और
क्रोध क्यों
उठने लगता है?'
और भी
कारण हैं। मैं
जो कह रहा हूं, वह सभी से
तुम्हें
सांत्वना
मिले, ऐसा
जरूरी नहीं
है। उसमें
बहुत है जिससे
तुम्हें
सांत्वना न
मिलेगी।
उसमें बहुत है
जिससे तुम्हारी
धारणाएं टूटेंगी।
उसमें बहुत है
जिनके कारण
तुम्हारे
बंधे हुए
विचार उखड़ेंगे।
उसमें बहुत है
जिनसे
तुम्हारी अब
तक की की गयी
व्यवस्था में
विघ्न-बाधा
पड़ेगी। तो
अकुलाहट भी
होगी।
अगर
तुम एक रास्ते
पर चल रहे थे
और सोच रहे थे
कि सब ठीक है
और मुझसे
मिलना हो गया, और मैंने
कहा कि कुछ भी
ठीक नहीं है
इसमें--तो अकुलाहट
स्वाभाविक
है।
एक
सूफी मेरे पास
लाया गया। तीस
साल से निरंतर
स्मरण-स्मरण
परमात्मा का
कर रहा है, जिक्र कर
रहा है। और
ऐसी घड़ी आ गयी
थी कि उसे अब सब
जगह परमात्मा
दिखायी पड़ता
है--वृक्षों
में, पहाड़ों
में, पत्थरों
में। तो मैंने
उससे कहा कि
तीन दिन मेरे
पास रहो और
तीन दिन के
लिए यह स्मरण
बंद कर दो।
उसने कहा, क्यों?
मैंने कहा,
तीस साल हो
गए, अब
इसका भी तो
पता लगाना
जरूरी है कि
यह कहीं स्मरण
ही तो नहीं है!
यह कहीं
आत्म-सम्मोहन
तो नहीं है!
क्योंकि
बार-बार
दोहरा-दोहरा-दोहराकर
कहीं ऐसा तो
नहीं तुमने
खयाल पैदा कर
लिया है!
तुम्हें
दिखायी नहीं
पड़ता, सिर्फ
भ्रांति हो
रही है।
उसने
कहा, यह बात तो
ठीक है। वह
थोड़ा डरा भी।
लेकिन फिर भी
उसने कहा, मैं
कोशिश
करूंगा। तीन
दिन वह मेरे
पास था। उसने
परमात्मा का
स्मरण छोड़
दिया, नमाज
न पढ़ी। तीसरे
दिन सुबह वह
मुझ पर बहुत
नाराज हो गया।
उसने कहा, यह
तो सब खराब कर
दिया। तीस साल
की मेरी साधना
पर पानी फेर
दिया! यह
तुमने कैसी
दुश्मनी की? मैंने
तुम्हारा
क्या बिगाड़ा
था?
मैंने
कहा, मैंने
कुछ बिगाड़ा
नहीं है, कोई
दुश्मनी नहीं
की है। एक
तथ्य का
तुम्हारे सामने
उदघाटन हुआ।
यह परमात्मा
जो तुम सोच रहे
हो कि तुम्हें
दिखायी पड़ता
है, अभी
दिखायी नहीं
पड़ा है। तुमने
सिर्फ अपनी आंख
में धुंध खड़ी
कर ली है। तीस
साल की मेहनत
अगर तीन दिन
में खो जाये, तो बचाने
योग्य ही न
थी। तीस साल
में अगर वह घड़ी
न आयी कि
तुम्हारे
बिना याद किए
परमात्मा याद
रहे तो कब
आयेगी? तो
कहीं कुछ भूल
हो रही है।
तुम्हारी
याददाश्त में
कहीं कोई
भूल-चूक है।
तुम्हारी
प्रक्रिया
भ्रांत है।
तो
स्वाभाविक है
कि वह मुझ पर
नाराज हुआ। वह
नाराज होकर
चला गया। फिर
कोई पंद्रह
दिन बाद वापस
लौटा। उसने
कहा, क्षमा
करना। शायद आप
जो कहते हैं, ठीक है; यद्यपि
मैं नाराज हुआ,
क्योंकि
मेरी
सांत्वना छीन
ली, मेरी
सुरक्षा छीन
ली। मैं सोचता
था, एक
सत्य मिल गया
है और वह सत्य
छीन लिया!
यद्यपि अब मैं
समझता हूं कि
आपने छीना कुछ
भी नहीं। मेरी
मुट्ठी खाली
थी। मैंने
खोलकर न देखी
थी। मैंने मान
रखा था। अब
मैं पूछने आया
हूं कि क्या
करूं।
तो ऐसा
बहुत बार होगा
कि
सुनते-सुनते
तुम्हें अकुलाहट
होगी।
क्योंकि तुम
अपनी सारी
मान्यताओं को
घर नहीं छोड़कर
आ गये हो। तुम
उन्हें साथ ले
आये हो। जब
मैं कुछ बोल
रहा हूं तो
तुम्हारी
मान्यताओं से
सतत संघर्ष चल
रहा है। एक
शब्द
तुम्हारे
भीतर जाता है
तो तुम्हारे
हजार शब्दों
की भीड़ उसे
भीतर घुसने
नहीं देती। बेचैनी
खड़ी होगी, अकुलाहट खड़ी
होगी और क्रोध
भी उठेगा।
लेकिन इसे
समझने की
कोशिश करना।
अकुलाहट
तभी खड़ी होती
है जब मेरे
शब्द तुम्हें
कुछ दृष्टि
देते हैं और
वह दृष्टि
तुम्हारी धारणाओं
के विपरीत
पड़ती है। तो
जल्दी मत करना।
सुनना, समझना।
वह अकुलाहट
तुम्हारे मन
की तरकीब है धुआं
खड़ा करने की, ताकि तुम
समझ ही न पाओ।
उस अकुलाहट
में तुम चूक
जाओगे। उस
वक्त शांत
रहकर सुन
लेना। मन से कहना,
घबड़ा मत, घर चलकर
विचार कर
लेंगे; पहले
समझ लेने दे।
तुझे तो हम
समझते हैं, वर्षों तेरे
साथ रहे हैं; इस बात को भी
समझ लेने दे।
फिर दोनों पर
ठीक-ठीक तौलकर
विचार कर
लेंगे, तराजू
में रख लेंगे,
हिसाब-किताब
लगा लेंगे।
फिर जो ठीक
होगा उसे मान
लेंगे।
अगर
तुमने ठीक से
सुना तो फिर
कोई अड़चन नहीं
है। सत्य की
एक खूबी है।
तुम उसे ठीक
से सुन लो, फिर तुम
उससे बचकर भाग
न सकोगे। उससे
बचने का एक ही
उपाय है कि तुम
ठीक से सुनो
ही न; सुनते
वक्त ही तुम
गड़बड़ कर दो तो
ठीक है। अगर सुन
लिया तो फिर
असत्य उसके
सामने टिक न
सकेगा। अगर
तुम्हारी
धारणा ठीक
होगी तो बचेगी;
अगर ठीक न
होगी तो गिर
जायेगी।
दोनों हालत
में शुभ है।
फिर
मेरी बातें
सुन-सुनकर
तुम्हारे
जीवन में
रूपांतरण होंगे।
वे रूपांतरण
समाज को
स्वीकृत
होंगे, ऐसा
नहीं है। समाज
को धार्मिक
व्यक्ति कभी
स्वीकृत नहीं
रहा, क्योंकि
समाज अभी तक
धार्मिक नहीं
है। समाज को
सांप्रदायिक
व्यक्ति
स्वीकृत हैं,
क्योंकि
समाज
सांप्रदायिक
है। हिंदू स्वीकृत
है, मुसलमान
स्वीकृत है, ईसाई
स्वीकृत है; धार्मिक
व्यक्ति किसी
को स्वीकृत
नहीं है। मैं
न तुम्हें
हिंदू बना रहा,
न ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध। मेरी
चेष्टा अनूठी
है। मैं
तुम्हें सिर्फ
धार्मिक
बनाना चाहता
हूं:
विशेषण-शून्य।
तो तुम
जब लौटकर
जाओगे, अगर
मेरी बात
तुम्हारे मन
में गूंज गई, तुम्हारे
हृदय को छू गई,
तुम्हारे
प्राणों का
तार बज गया, तो तुम कुछ
अन्यथा होने
लगोगे।
रूपांतरण शुरू
होगा। तुम
जहां हो, वहां
अड़चन आएगी।
तुम मुझ पर
क्रोधित भी
होओगे।
मुझको
तो होश नहीं
तुझको खबर हो
शायद
लोग
कहते हैं कि
तुमने मुझे बर्बाद
किया।
तो तुम
मुझ पर नाराज
होओगे। कहोगे
कि इस आदमी न
बर्बाद किया।
भले-चंगे
थे! अपना
काम-धाम करते
थे। यह सब
गड़बड़ हो गया।
ये गेरुए
वस्त्र, यह
माला--लोग
कहते हैं, पागल
हो गये! लोग
कहते हैं, सम्मोहित
हो गये! अड़चन
होगी दफ्तर
में, दुकान
में। मैं
जानकर ही अड़चन
खड़ी कर रहा
हूं; क्योंकि
उसी अड़चन के
माध्यम से तुम
बदलोगे, अन्यथा
तुम बदल न
सकोगे।
सुविधा
से कोई बदलता
नहीं--चुनौती
से बदलता है।
चुनौती कष्टपूर्ण
होती है।
प्रथम चरण में
बड़ी पीड़ा होती
है; लेकिन
पीड़ा के बाद
ही नया जन्म
है।
तो
तुम्हारी
नाराजगी, तुम्हारा
क्रोध एकदम
अकारण है, ऐसा
भी नहीं है।
फिर जो मेरे
प्रेम में पड़
गए हैं, काफी
गहरे, जिनको
समाज की भी
चिंता नहीं है
अब, उनको
भी अड़चन है।
उनको मेरे
बिना
खाली-खाली लगता
है। वह भी
नाराजगी का
कारण है। वे
मुझे न सुनें
ज्यादा दिन तक
तो बेचैनी
होती है। तो
जिस आदमी पर
हमें निर्भर
हो जाना पड़ता
है, उस पर
नाराजगी होने
लगती है कि यह
तो बात बुरी हुई।
यह तो एक तरह
की परतंत्रता
हो गयी। अगर वह
दो-चार महीने
मेरे पास न
आएं तो मन
बड़ा-बड़ा वीरान
हो जाता है; दौड़ होने
लगती है आने
की; हजार
काम छोड़कर आने
का मन होने
लगता है। यह
नशा ऐसा है। इसकी
तलफ भी होगी।
तो जैसी
नाराजगी आनी
शुरू होगी कि
यह क्या मामला
हुआ, यह तो
हम जैसे किसी
के वश में हो
गए, जैसे
कोई हमें
खींचने लगा, कोई धागे
बंध गए, जैसे
प्रेम ने कुछ
जंजीरें बना
लीं! तो भी नाराजगी
आती है।
तेरे
बगैर किसी चीज
की कमी तो
नहीं
तेरे
बगैर तबियत उदास
रहती है।
सब हो
तुम्हारे पास
लेकिन अगर
तुमने अपने
हृदय में मुझे
थोड़ी-सी जगह
दी तो मेरे
बिना थोड़ी तबियत
उदास रहने
लगेगी। तो जो
तुम्हें उदास
कर रहा है, उससे तुम
नाराज न होओगे
तो क्या करोगे?
यद्यपि यह
उदासी
संक्रमण काल
की है। जल्दी
ही यह उदासी
भी चली जाएगी।
और जल्दी ही
ऐसी घड़ी भी आ
जायेगी कि
यहां भाग-भागकर
आने की जरूरत
न रहेगी। तुम
जहां होओगे
वहीं मैं चला आऊंगा। वह
घड़ी आने के
पहले यह उदासी
की घड़ी
गुजरेगी।
वीरां है
मयकदा खुम-ओ-सागर
उदास हैं
तुम
क्या गए कि
रूठ गये दिन
बहार के।
तो अगर
मेरे साथ
तुमने अपनी
बहार का संबंध
जोड़ा--जो कि
जुड़ ही जाएगा; अगर
तुम्हारा नाच
मेरे साथ पैदा
हुआ, तो
संबंध जुड़ ही
जायेगा; अगर
तुम यहां आकर
खुश हुए, प्रसन्न
हुए, आनंदित
हुए, उत्साह
जगा, उत्सव
हुआ--तो घर
लौटकर तुम
उदास हो
जाओगे। तो मन
यहां की तरफ
भागा-भागा
रहेगा। करोगे
कुछ, याद
यहां की बनी
रहेगी। पत्नी,
बच्चे पराए
मालूम होने
लगेंगे। अपना
ही घर धर्मशाला
मालूम होने
लगेगा। तो
नाराजगी
बिलकुल
स्वाभाविक
है। लेकिन यह
संक्रमण की
बात है। थोड़े
और गहरे
उतरोगे तो
धीरे-धीरे
तुम्हें पहली
दफा
पत्नी-बच्चे
अपने मालूम
होंगे।
मैं
तुम्हें
तोड़ने को नहीं
हूं, किसी से
भी तोड़ने को
नहीं हूं! वही
मेरी निष्ठा
है। तुम्हें
मैं किसी से
भी तोड़ने की
चेष्टा नहीं
कर रहा हूं।
तुम्हें जोड़ने
की ही चेष्टा
है। लेकिन
इसके पहले कि
असली जोड़ घटे,
नकली जोड़ टूटेंगे।
इसके पहले कि
तुम अपने
बच्चों को सच
में प्रेम कर
पाओ, वह जो
झूठा प्रेम
है--जो तुमने
अब तक समझा है
प्रेम है--वह जायेगा।
वह जायेगा तो
तुम बेचैन
होओगे। तुम्हारे
हाथ खाली लगने
लगेंगे।
तुम्हारा
हृदय रिक्त
होता हुआ
मालूम पड़ेगा।
लेकिन भरने की
वह पहली शर्त
है। तुम्हें
पहले सूना
करूंगा, खाली
करूंगा, ताकि
तुम भरे जा
सको। तुम्हें काटना
भी पड़ेगा, छैनी
उठाकर
तुम्हारे कई
टुकड़े अलग भी
करने पड़ेंगे--तभी
तुम्हारी
प्रतिमा निखर
सकती है।
तो
अकारण नहीं है, स्वाभाविक
है। अगर समझ
लिया तो बेचैन
न होओगे। ये
बेचैनी की
घड़ियां बीत जायेंगी।
प्रेम
कभी भी किसी
को दुखी नहीं
किया है। और प्रेम
कभी किसी के
लिए बंधन नहीं
बना है। अगर
मालूम पड़ता हो
तो इतना ही
समझना कि
नया-नया है।
यह स्वाद अभी
जबान पर बैठा
नहीं; एक
दफा बैठ
जायेगा तो तुम
पाओगे, प्रेम
ही
स्वतंत्रता
है।
प्रेम
मुक्ति है।
प्रेम से बड़ी
कोई मुक्ति नहीं।
आज
इतना ही।
THANK YOU GURUJI
जवाब देंहटाएं