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सोमवार, 5 मई 2014

जिन सुत्र--(भाग--1) प्रवचन--23

जीवन की भव्‍यता:  अभी और यहीं—प्रवचन—तेईसवां

सूत्र:

सदहदिपत्‍तेदि, रोचेदि य तह पुणोफासोदि
धम्‍मं भोगनिमित्‍तं, ण दु सो कम्‍मक्‍खयाणिमित्‍तं।। 55।।

सुहपरिणमो पुण्‍णं, असुहो पाव ति भणियमन्‍नेसु
परिणामो णन्‍नगदो, दुक्‍खक्‍खयकारणरं समयं।। 56।।

पुण्‍णं पि जो समिच्‍छदि, संसारो तेण ईहिदो होदि
पुण्‍णं सुगईहेंदु, पुण्‍णखएणेव णिव्‍वाणं।। 57।।

कम्‍ममसुहं कुसीलं, सुहकम्‍मं चावि जाणसुसीलं
कह तं होदि सुसीलं, जं संसार पवेसेदि।। 58।।


सोवण्‍णियं पि णियलं, बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं
बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्‍भं।। 59।।

तम्‍हा दु कुसीलेहिं, रायं मा कुणह मा व संसग्‍गं
साहीणो हि विणासो, कुसीलसंसग्गरायेण।। 60।।

वरं वयतवेहि सग्‍गो, मा दुक्‍खं णिरई इयरेहिं
छायातवट्ठियाणं, पडिवालंताण गुरूभेयं ।। 61।।

पहला सूत्र:

"अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है, उसकी प्रतीति करता है, उसमें रुचि रखता है, उसका पालन भी करता है, किंतु यह सब वह धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है, कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।'

संसार की आदत आसानी से नहीं जाती। जन्मों-जन्मों तक जिसे पाला है, संवारा है, वह आदत संसार को छोड़ने भी चलो तो भी साथ चलती है।
इसे समझें, क्योंकि इसे बिना समझे कोई कभी धार्मिक न हो पायेगा। बहुत हैं जिन्होंने संसार छोड़ दिया। बाहर दिखायी पड़नेवाला संसार छोड़ देना कठिन भी नहीं। आश्चर्य तो यही है कि बाहर दिखायी पड़नेवाले संसार को लोग कैसे पकड़े रहते हैं! इतना व्यर्थ है, इतना असार है कि किसी भी थोड़ी-सी प्रज्ञावान चेतना को छोड़ने का खयाल आ जाये तो कुछ आश्चर्यचकित होने की बात नहीं। कुछ भी मिलता हुआ दिखायी नहीं पड़ता, तो छोड़ने का मन आ जाता है।
लेकिन बाहर के संसार से भी ज्यादा भीतर एक संसार है। वह संसार है कि अगर हम छोड़ते भी हैं कुछ, तो कुछ पाने के लिए ही छोड़ते हैं। वह पाने की वृत्ति नहीं जाती। तो लोग संसार छोड़ देते हैं तो सोचते हैं, मोक्ष पाने के लिए; धन छोड़ देते हैं तो सोचते हैं, पुण्य पाने के लिए। लेकिन पाने की वासना भीतर खड़ी रहती है।
महावीर इन सूत्रों में यही बात साफ करना चाहते हैं कि असली संसार "पाने की वासना' में है। पाने की वासना के कारण बाहर का संसार है। बाहर के संसार के कारण पाने की वासना नहीं है।
तो तुम संसार को छोड़ भी दो और तुम्हारे भीतर की वासना की आग सुलगती रह जाये तो कुछ अंतर न हुआ।
महावीर कहते हैं ऐसे धार्मिक व्यक्ति को--"अभव्य जीव।' वह सिर्फ भव्य दिखायी पड़ता है, लेकिन उसकी भव्यता बाहर-बाहर है, भीतर उसके राग खड़ा है, भीतर लोभ खड़ा है।
तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा, जिसके भीतर लोभ न हो? तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जो धार्मिक हो, धार्मिक होने के आनंद के कारण; जो यह नहीं कहता हो कि धार्मिक श्रम, पुरुषार्थ से मैं कुछ भविष्य में कमाने जा रहा हूं? तुमने ऐसा धार्मिक व्यक्ति देखा जिसके मन में भविष्य की कोई आकांक्षा न हो, फलाकांक्षा न हो?
तो तुम अगर अपने धार्मिक गुरुओं से, साधुओं से जाकर पूछो कि आप ये पुण्य, तपश्चर्या, साधना, ध्यान, सामायिक, उपवास, व्रत, नियम, इन सबका पालन कर रहे हैं--किसलिए? और अगर वे बता सकें कि किसलिए तो समझना कि वे अभव्य जीव हैं। अभी उनमें भव्यता का जन्म नहीं हुआ। और वे सभी बता सकेंगे कि पुण्य के लिए, स्वर्ग के लिए; भविष्य में उच्च योनियां मिलें, देवलोक मिले--इसलिए या उनमें जो बहुत ज्यादा तर्ककुशल हैं, वे कहेंगे, मोक्ष के लिए; सबसे छुटकारा हो जाये, इसलिए।
लेकिन जो आदमी छूटना चाहता है, उसका छुटकारा हो नहीं सकता; क्योंकि अभी कोई चाह बची--छूटने की चाह बची। तो सब चाहें निमज्जित हो जाएं छूटने की चाह में, तो छूटने की चाह एक मजबूत रस्से की तरह हो जायेगी। छोटी-छोटी चाहें तो थोड़े-थोड़े धागे हैं, उन सबको एक ही रस्से में इकट्ठा कर लिया--छूटने की चाह, मोक्ष की आकांक्षा। तो जैसा छोटी-छोटी वासनाओं ने बांधा था, उससे भी ज्यादा यह मोक्ष की रस्सी बांध लेगी।
महावीर कहते हैं, अगर तुमने कुछ पाने के लिए छोड़ा तो छोड़ा ही नहीं। धोखा किसको दिया? अपने को दे लिया।
उपनिषदों में एक बड़ा अदभुत सूत्र है: कृपणा फलहेतवः। जो व्यक्ति फल की आकांक्षा से कुछ काम करता है वह कृपण है, वह कंजूस है। उसे जीवन की कला ही न आयी। उसने जीवन का सत्य ही न जाना।
महावीर का यह सूत्र भी यही कह रहा है कि अगर तुमने कुछ पाने की आकांक्षा से--भला वह आकांक्षा मोक्ष की ही हो--धर्म किया तो धर्म किया ही नहीं, धर्म का धोखा किया। अभव्य जीव यद्यपि धर्म में श्रद्धा रखता है लेकिन उसकी श्रद्धा में "यद्यपि' जुड़ा हुआ है। उसकी प्रतीति भी करता है। उसमें रुचि भी रखता है, उसका यथाशक्य पालन भी करता है--फिर भी वह धर्म को निमित्त समझकर करता है, साध्य समझकर नहीं। धर्म का भी साधन बनाता है। धर्म से भी कुछ पाना है, इसलिए करता है। अगर धर्म के बिना जो वह पाना चाहता है मिल जाये तो वह धर्म को कूड़े-कर्कट में फेंक देगा। अगर तुम्हारे साधु-संन्यासियों और मुनि महाराजों को पता चल जाये कि स्वर्ग पहुंचने का कोई शार्टकट भी है तो वे सब अपने पीछी-कमंडल छोड़कर भाग खड़े होंगे, क्योंकि उसी के लिए तो वे इस लंबे रास्ते से जा रहे थे। अगर कोई पास का रास्ता मिल गया है, कोई सुगम रास्ता मिल गया है, तो कौन कष्ट उठायेगा!
पास का रास्ता मिल जाने पर भी जो धर्म के रास्ते पर खड़ा रहे, उसे ही जानना कि वह धार्मिक है। क्यों? क्योंकि उसके लिए धर्म साध्य है, साधन नहीं।
ये दो शब्द बड़े विचारणीय हैं। धर्म साधन नहीं, साध्य है। तो जल्दी क्या है? तो जाना कहां है?
वास्तविक धार्मिक व्यक्ति का प्रत्येक पल मोक्ष है। वह ध्यान करता है क्योंकि ध्यान में परम आनंद है। इसलिए नहीं कि आनंद मिलेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए "इसलिए' जैसी कोई बात ही नहीं। वह सामायिक में बैठता है। क्योंकि सामायिक आनंद है, सामायिक परम शांति है।
भेद समझ लेना, क्योंकि दोनों की बातें एक-सी लगती हैं। धार्मिक कहता है, शांति के लिए सामायिक में बैठता हूं। तो महावीर कहेंगे अभव्य है, अभी कृपण है, अभी वासना लगी है। अभी सामायिक को भी यह साधन बना रहा है। तो कभी इसने धन को साधन बनाया था--सोचा था, धन से सुख मिलेगा; कभी इसने पद को साधन बनाया था--सोचा था पद-प्रतिष्ठा से सुख मिलेगा; कभी यह सेनापति हो गया था, दुर्धर्ष युद्ध में उतरा था, हजारों की गर्दनें काट दी थीं--सोचा था इससे सुख मिलेगा। लेकिन एक बात अभी भी कायम है कि सुख को पाना होगा किसी साधन से। कभी धन साधन, कभी पद साधन, कभी तलवार साधन; अब व्रत, उपवास, नियम--साधन; योग, ध्यान, सामायिक--साधन। लेकिन मूल गणित वही है। जो भी कर रहा है, अधार्मिक व्यक्ति उसमें रस नहीं लेता। उसका रस हमेशा फल में है। गीता में कृष्ण जो कहते हैं: फलाकांक्षा! वह देख रहा है आगे: यह मिलेगा, यह मिलेगा, यह मिलेगा--इसलिए कर रहा है। अगर पता चल जाये नहीं मिलेगा तो उसका करना अभी रुक जाये। तो वह पूछेगा, फिर कैसे मिलेगा?
महावीर कहते हैं, जिस व्यक्ति को धर्म में साध्य दिखायी पड़ने लगा वही व्यक्ति भव्य है। तो तुम मंदिर जाओ, मस्जिद जाओ, कुरान पढ़ो, गीता पढ़ो, पूजा करो, प्रार्थना करो--एक बात भीतर खोजते रहना: ये तुम साधन की तरह कर रहे हो, निमित्त की तरह? तो महावीर की दृष्टि में अभव्य हो। अभी तुम्हारे भीतर उस पवित्र उन्मेष का जन्म नहीं हुआ जो तुम्हें दिव्य बना दे, भव्य बना दे।
"भव्य' शब्द महावीर का अपना है। दिव्य शब्द का वे उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि दिव्य से तो देवता और अंततः परमात्मा का खयाल आ जाता है। इसलिए महावीर की भाषा में भव्य का वही अर्थ है जो समस्त अन्य धर्मों की भाषा में दिव्य का है। भव्य का अर्थ है: जिसका जीवन प्रतिपल साध्य हुआ। भव्य का अर्थ है: जो कृपण न रहा। कृपणा फलहेतवः! अब जिसके लिए फल का कोई सवाल ही नहीं है! अब जिसकी सारी कृपणता मिटी, कंजूसी मिटी! अब जो जिंदगी में चाह के ढंग से नहीं जीता--अचाह का मजा ले रहा है; अचाह में डूबता है, रस लेता है!
एक क्षण को भी तुम्हें पता चल जाये कि ऐसा भी जीने का ढंग है जिसमें भविष्य की कोई जरूरत नहीं, वहीं भव्यता उतरती है।
"भविष्य' शब्द भी सोचने जैसा है, क्योंकि उसकी भी मूल धातु भव्य की ही है।
जिससे भव्य बना है, उसी से भविष्य बना है। दोनों शब्दों का मूलस्रोत एक ही है। यह बड़े सोचने जैसी बात है! हम भविष्य को भव्य क्यों कहते हैं? अतीत तो किसी तरह काट लिया, वर्तमान भी किसी तरह गुजार रहे हैं; सारी आशा भविष्य में लगी है। तो हम भविष्य को तो भव्य बनाते हैं! उटोपिया! जो नहीं हुआ है वह भविष्य में होगा। इसलिए भव्य भविष्य को हम मानते हैं कि भविष्य भव्य है। हमारी सारी आकांक्षाओं का सार-निचोड़ भविष्य में है। जो होना था और नहीं हो पाया, वह भविष्य में होगा, कल होगा। जो हमें बनना था और नहीं बन पाये वह हम कल बनेंगे। जो वर्षा हमारे जीवन में घटनी थी और नहीं घट पायी, सूखे रह गये, वह कल होगी।
इसलिए सभी लोगों के मन में भविष्य तो भव्य होता है। दीन से दीन, दुखी से दुखी, पीड़ित से पीड़ित व्यक्ति के मन में भी भविष्य भव्य होता है--इसीलिए उसे भविष्य कहते हैं।
लेकिन महावीर कहते हैं, भव्य वह है जिसका कोई भविष्य नहीं; जो "अभी और यहीं' बिना किसी चाह के जीने लगे।
जब तक भविष्य है तब तक तुम अभव्य हो। भविष्य है ही तरकीब झुठलाने की, जीवन में प्रवंचना की। ऐसे कल्पनाओं का जाल बुन-बुनकर तुम अपने को समझा लेते हो, सांत्वना दे लेते हो। कभी धन के माध्यम से दी थी, अब धर्म के माध्यम से देते हो। महावीर कहते हैं, बहुत फर्क नहीं है। चाहे कितनी ही तुम श्रद्धा दिखाओ, कितनी ही प्रतीति जतलाओ, कितनी ही रुचि प्रगट करो, पालन भी कर लो--लेकिन तुम्हारे पालन करने में भी अभव्यता रहेगी, क्योंकि तुम्हारी नजर भविष्य पर लगी रहेगी। तुम करोगे, लेकिन व्यवसायी की तरह करोगे। धर्म तुम्हारा कृत्य ही रहेगा, तुम्हारे जीवन की लीला न हो पायेगी। और जब धर्म जीवन की लीला बन जाये...।
अगर तुम्हें कभी कोई ऐसा व्यक्ति मिल जाये जो कहे कि ध्यान में आनंद है, इसलिए ध्यान कर रहा हूं; ध्यान से आनंद मिलेगा, इसलिए नहीं--ध्यान ही आनंद है। दान कर रहा हूं, इसलिए नहीं कि दान से स्वर्ग मिलेगा--दान में स्वर्ग है। देता हूं, क्योंकि देने में ही फूल खिल रहे हैं। फूल कल नहीं हैं, भविष्य में नहीं हैं--अभी खिल रहे हैं, यहीं खिल रहे हैं। यहां देने का खयाल नहीं उठा कि वहां फूल खिलने लगे! यहां शांत बैठने का खयाल नहीं उठा कि शांति होने लगी! यहां आनंदित होने की उमंग उठी कि आनंद आ गया!
युगपत साधन और साध्य मिल जाते हैं--एक ही क्षण में, एक ही पल में।
गुरजिएफ के एक शिष्य बैनेट ने एक अनूठा संस्मरण लिखा है। बैनेट गुरजिएफ का सबसे लंबे समय तक शिष्य रहा। पश्चिम से जो व्यक्ति सबसे पहले गुरजिएफ के पास पहुंचा वह बैनेट था। और अंत तक जो गुरजिएफ के साथ लगा रहा वह भी बैनेट था। कोई पैंतालीस साल का संबंध था। बैनेट ने लिखा है कि गुरजिएफ के साथ काम करते हुए, एक दिन गुरजिएफ ने उसे कहा था वह गङ्ढे खोदता रहे, तो दिनभर गङ्ढे खोदता रहा। वह इतना थक गया था...! वह गुरजिएफ की एक प्रक्रिया थी थका देना, इतना थका देना कि हाथ हिलाने की भी स्थिति न रह जाये। क्योंकि गुरजिएफ कहता था कि जब तुम इतने थक जाते हो कि हाथ हिलाने की भी स्थिति नहीं रह जाती तभी तुम्हारा परम शक्ति से संबंध जुड़ता है। जब तक तुममें शक्ति होती है तब तक परम शक्ति तुममें प्रवाहित नहीं होती। तो उसे थका दिया था। वह दिनभर से थक गया था। तीन रात से सोया भी न था। वह गिरा-गिरा हो रहा था। खोद रहा था, लेकिन अब उसे समझ में नहीं आ रहा था कि अगली बार कुदाली उठा सकेगा कि नहीं। कुदाली उठाये-उठाये झपकी खा रहा था। तब गुरजिएफ आया और उसने कहा कि यह क्या कर रहे हो? इतने जल्दी नहीं, अभी तो जंगल जाना है और कुछ लकड़ियां काटकर लानी हैं।
तो गुरजिएफ की शर्तों में एक शर्त थी कि वह जो कहे, करना ही होगा। क्योंकि उसी माध्यम से वह सोयी हुई चेतना को जगा सकता है। तो बैनेट की बिलकुल इच्छा नहीं थी। जाने का जंगल तो सवाल ही नहीं था। अपने कमरे तक कैसे लौटेगा--यह चिंता थी। कहीं बीच में गिरकर सो तो नहीं जायेगा। लेकिन जब गुरजिएफ ने कहा तो गया। जंगल गया, लकड़ियां काटीं। जब वह लकड़ियां काट रहा था, तब अचानक घटना घटी। अचानक उसे लगा सारी सुस्ती खो गयी और एक बड़ी ऊर्जा का जैसे बांध टूट गया! यहां बिलकुल खाली हो गया था शक्ति से; जगह, स्थान निर्मित हो गया था। भीतर जहां ऊर्जा भरी है, वहां से टूट पड़ी। बही गङ्ढे की तरफ। गङ्ढा बन गया था थकान के कारण। ऊर्जा बही और सारा शरीर, रोआं-रोआं ऐसी शक्ति से भर गया जैसा कभी भी न हुआ था। उसने कभी ऐसी शक्ति जानी ही न थी। उस क्षण उसे लगा, इस समय मैं जो चाहूं वह हो सकता है। इतनी शक्ति थी! तो उसने सोचा, क्या चाहूं? जिंदगीभर सोचा था आनंदित...तो उसने कहा, मैं आनंदित होना चाहता हूं। ऐसा भाव करना था कि वह एकदम आनंदित हो गया। उसे भरोसा ही न आया कि आदमी के बस में है क्या आनंदित होना! चाहते तो सभी हैं--होता कौन है! उसने सोचा कि आनंदित हो जाऊं...यह तो सिर्फ खेल कर रहा था शक्ति को देखकर। इतनी शक्ति नाच रही थी चारों तरफ, रोआं-रोआं ऐसा भरा-पूरा था कि उसको लगा इस क्षण में तो अगर मैं जो भी चाहूंगा हो जायेगा तो क्या चाहूं! "आनंदित!' ऐसा सोचना था, यह शब्द का उठना था--आनंद--कि उसकी पुलक-पुलक नाच उठी। उसे बस भरोसा न आया। उसने कहा कोई धोखा तो नहीं खा रहा हूं, कोई सपना तो नहीं देख रहा हूं, कोई मजाक तो नहीं की जा रही है मेरे साथ। तो उसने सोचा कि उलटा करके देख लूं: दुखी हो जाऊं! ऐसा सोचना था कि "दुखी हो जाऊं' कि एकदम गिर पड़ा! चारों तरफ जैसे अंधेरा छा गया! जैसे अचानक सूरज डूब गया! जैसे सब तरफ दुख ही दुख और दुख की तरंगें उठने लगीं! वह घबराया कि यह तो मैं नर्क में गिरने लगा। यह हो क्या रहा है! उसने कहा, मैं शांत हो जाऊं, वह तत्क्षण शांत हो गया।
उसने सब मनोभाव उठाकर देखे। फिर तो एक-एक पर प्रयोग करके देखा--क्रोध, घृणा, प्रेम--और जो भाव उसने उठाया वही भाव परिपूर्ण रूप से प्रगट हुआ।
वह भागा हुआ आया। उसने गुरजिएफ को कहा कि चकित हो गया हूं। उसने कहा, अब चकित होने की जरूरत नहीं, चुपचाप सो जा! अब जो हुआ है इसे चुपचाप संभालकर रख और याद रखना, कभी भूलना मत कि अगर आदमी ठीक स्थिति में हो तो जो चाहता है, वही हो जाता है। गैर-ठीक स्थिति में तुम चाहते रहो, चाहते रहो, कुछ भी नहीं होता। ठीक स्थिति में जब भीतर के तार मिलते हैं तो साधन और साध्य की दूरी खो जाती है। इसको ही हिंदुओं ने कल्पवृक्ष की अवस्था कहा है।
कल्पवृक्ष स्वर्ग में लगा हुआ कोई वृक्ष नहीं है। कल्पवृक्ष तुम्हारे भीतर की एक चैतन्य अवस्था है।
बैनेट के उल्लेख से तुम समझ सकते हो कल्पवृक्ष का क्या अर्थ होगा। कल्पवृक्ष का अर्थ होगा कि जहां साधन और साध्य का फासला न रहा, जहां दोनों के बीच कोई दूरी न रही। यहां साधन हुआ नहीं कि साध्य आ ही गया। एक साथ, युगपत! क्षणभर का भी, क्षण के खंड का भी हिस्सा नहीं है--यही कल्पवृक्ष की धारणा है।
कल्पवृक्ष की धारणा है कि जिस वृक्ष के नीचे तुम बैठे, इधर तुमने मांगा उधर मिला। ऐसे कोई वृक्ष कहीं नहीं हैं, लेकिन ऐसे वृक्ष तुम बन सकते हो। और उस बनने की दिशा में जो पहला कदम है वह यह कि साधन और साध्य की दूरी कम करो। क्योंकि जहां साधन और साध्य मिलते हैं, वहीं वह घटना घटती है कल्पवृक्ष की।
और तुमने खूब दूरी बना रखी है। तुम तो सदा दूरी निर्मित करते चले जाते हो। तुम कहते हो, कल मिले। तुम्हें यह भरोसा ही नहीं आता कि आज मिल सकता है, अभी मिल सकता है, इसी क्षण मिल सकता है।
तुमने आत्मबल खो दिया है। तुमने जन्मों-जन्मों तक वासना के चक्कर में पड़कर...वासना का चक्कर ही यही है: साध्य और साधन की दूरी यानी वासना; साध्य और साधन का मिलन यानी आत्मा।...तो तुमने इतनी दूरी बना ली है कि इस जन्म में भी तुम्हें भरोसा नहीं आता कि मिलेगा, तो तुम कहते हो, अगले जन्म में! अगले जन्म पर भी भरोसा नहीं आता, क्योंकि तुम जानते हो अपने आपको भलीभांति कि कितने जन्मों से तो भटक रहे हो कुछ मिलता तो नहीं। तो तुम कहते हो, स्वर्ग में, परलोक में; इस लोक में नहीं तो परलोक में। तुम दूर हटाये जा रहे हो। तुम साध्य और साधन के बीच समय की बड़ी दूरी बनाये जा रहे हो। यह समय को हटा दो और गिरा दो।
कृष्ण कहते हैं, फलाकांक्षा छोड़ दो। उपनिषद कहते हैं, कंजूस मत बनो। महावीर कहते हैं, भव्य हो जाओ। भविष्य के पीछे क्यों पड़े हो? तुम भव्य हो सकते हो। तुमने भविष्य को भव्यता दे रखी है।
 भव्य का अर्थ हुआ: ऐसी घड़ी जहां तुम्हें पाने को कुछ भी नहीं; जहां सब मिला हुआ है। ऐसी परितृप्ति, ऐसा परितोष!
तो फिर भी तुम्हारे जीवन से धर्म होता है, लेकिन अब धर्म खेल की तरह है। जैसे कोई संगीतज्ञ अपनी वीणा पर धुन उठाता है--नहीं कि कुछ पाना है, बल्कि इसलिए कि इतना मिला है, इसे गुनगुनाए, इसे गाए, इसका स्वाद लेता है, कि कोई नर्तक नाचता है--नहीं कि कोई देखे; कोई देख ले, यह उसका सौभाग्य है, न देखे उसका दुर्भाग्य है।
वानगाग के चित्रों को देखने एक आदमी आया। उसे कुछ समझ में न आया कि इन चित्रों में क्या है। उसने इधर-उधर देखा और फिर वह जाने लगा तो उसने वानगाग को कहा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आता। मैं तो यह भी तय नहीं कर सकता कि चित्र सीधे लटके हैं कि उलटे लटके हैं। इनमें है क्या?
वानगाग की आंख में, कहते हैं आंसू आ गये। उस आदमी ने कहा कि क्या मैंने आपको दुख पहुंचाया? वानगाग ने कहा, नहीं! लेकिन मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं: काश, तुम्हारे पास मेरे जैसी देखनेवाली आंखें होतीं! तुम बिलकुल अंधे हो, इसलिए आंख में आंसू आ गये, और कोई कारण नहीं।
जो व्यक्ति धार्मिक है, उसके पास एक आंख है, जो अधार्मिक के पास नहीं है। उसके पास एक तीसरा नेत्र है। उसके पास दिव्य चक्षु है। और वह दिव्य चक्षु प्रत्येक चीज को भव्य कर देता है, सुंदर कर देता है। वह जहां भी आंख डालता है, वहीं मिट्टी सोना हो जाती है। वह जहां हाथ रखता है, वहीं मिट्टी सोने में बदल जाती है। वह जिस तरफ उठता है, बैठता है, उसी तरफ कल्पवृक्ष निर्मित होने लगता है।
यह तुम्हारे बस में है कि तुम भव्य हो जाओ। लेकिन भव्य होने का एक ही उपाय है कि भविष्य गिर जाए। भविष्य से ले लो वापस, तुमने जो भव्यता उसे दी है। और उस भविष्य से छीनी गयी भव्यता को अपने हृदय में आरोपित करो।
"अभव्य जीव धर्म को भोग का निमित्त समझकर करता है; कर्मक्षय का कारण समझकर नहीं।'
वह तो धर्म से भी कर्म का जाल ही फैलाता है, कर्म का क्षय नहीं होता। वह तो धर्म के नाम पर ही इस संसार की ही वृत्तियों को फिर-फिर आरोपित कर लेता है।
हविश को आ गया है गुल खिलाना
जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।
वह जो वासना है, उसको भी बड़े फूल खिलाना आता है। तुम अगर भागे संसार से तो वह धर्म के फूल खिलाने लगती है। तुम अगर भागे विचार से तो वह ध्यान के फूल खिलाने लगती है।
हविश को आ गया है गुल खिलाना
जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।
जरा सावधान रहना! तुम्हारी तृष्णा बड़े-बड़े रूप रख लेती है। तृष्णा बड़ी बहुरूपिया है। तुम जैसा रूप चाहते हो वह वैसा ही रखकर नाचने लगती है। वह कहती है, चलो यही सही। लेकिन जब तक तुम उसको ठीक से पहचान न लोगे, उसके सब रूपों में, जब तुम एक बुनियादी बात न पहचान लोगे कि तृष्णा साधन और साध्य की दूरी है...फिर जहां भी साधन और साध्य की दूरी हो, समझना कि तृष्णा ने रूप धरा। सावधान हो जाना!
जरा ए जिंदगी! दामन बचाना!
...तब तुम सावधान हो जाना कि फिर आया भविष्य; कहीं से तृष्णा ने द्वार खटखटाया। फिर तुमने कहा, कल--तृष्णा आ गयी! फिर तुमने कहा, ऐसा हो जाये, ऐसा होता, और उसका तुम आयोजन करने लगे--बस तृष्णा आ गयी! जिस घड़ी तुम बैठे हो या चल रहे हो या उठे हो, खड़े हो, और उस घड़ी में कोई तृष्णा नहीं है--तुम बैठे हो तो बस बैठे हो आनंदित; खड़े हो तो खड़े हो आनंदित; चल रहे हो तो चल रहे आनंदित--जीवन के ये छोटे-छोटे कर्म भव्य हो जाते हैं।
झेन फकीर कहते हैं, जिसने साधारण में असाधारण को खोज लिया, उसी ने खोजा। जो असाधारण के चक्कर में लगा है, वह तो साधारण ही रह जायेगा। क्योंकि असाधारण का चक्कर तृष्णा का चक्कर है।
एक झेन फकीर से किसी ने पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध नहीं हुए थे, तब तुम क्या करते थे? उसने कहा, लकड़ी काटता था, कुएं से पानी भरकर लाता था। और उसने पूछा, अब जब कि तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये हो, अब क्या करते हो? उसने कहा, अब भी लकड़ी काटता हूं, अब भी कुएं से पानी भरकर लाता हूं। तो उसने कहा, फिर फर्क क्या है? फर्क बहुत बड़ा है। पहले भी कुएं से पानी भरकर लाता था, लेकिन कुछ पाने की आकांक्षा थी उसके द्वारा; पहले भी लकड़ी काटता था, लेकिन वासना कहीं भविष्य में थी।
...अब भी लकड़ी काटता है, अब भी पानी भरकर लाता है--करोगे भी क्या? जीवन तो इन्हीं छोटी-छोटी चीजों से मिलकर बना है। लकड़ी भी काटोगे, पानी भी भरकर लाओगे, घर में बुहारी लगाओगे, खाना बनाओगे, कपड़े धोओगे, स्नान करोगे, भोजन करोगे, सोओगे, उठोगे, बैठोगे, चलोगे--जीवन इन्हीं छोटे-छोटे अणुओं से बना है।
लेकिन फर्क एक आ जायेगा।
कृत्य भव्य हो जाता है जब उसमें कोई तृष्णा नहीं होती। जैसे ही तृष्णा से छूटा कि कृत्य पवित्र हुआ।
लेकिन हम तो ऐसे उलझ गये हैं तृष्णा में कि कभी-कभी जहां उलझे हैं वहां से भाग भी खड़े होते हैं--तो और सब तो छोड़ जाते हैं लेकिन तृष्णा हमारे साथ चली जाती है।
ये न जाना था इस महफिल में दिल रह जायेगा
हम ये समझे थे चले आयेंगे दमभर देखकर।
लेकिन लगाव कुछ ऐसा बन जाता है कि दिल महफिल में रह जाता है और महफिल दिल में समा जाती है। फिर तुम भागते फिरते हो, लेकिन कुछ अंतर नहीं पड़ता। तुम जहां जाते हो फिर वहां एक संसार खड़ा हो जाता है, क्योंकि संसार का जो "ब्लू-प्रिंट' है, उसका जो बुनियादी नक्शा है, वह तुम्हारी तृष्णा में है।
"वह अभव्य जीव नहीं जानता कि पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। धर्म अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुःखों के क्षय का कारण होता है।'
"पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है।' पुण्य की परिभाषा महावीर कर रहे हैं। दूसरे के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है। अन्य के साथ शुभ परिणाम का संबंध पुण्य है।
तुमने किसी को दान दिया--एक संबंध निर्मित हुआ। लेकिन पुण्य का संबंध है--तुमने दिया! तुमने किसी से छीन लिया, चोरी की, तो फिर एक संबंध बना--तुमने किसी से छीना! दोनों अलग-अलग हैं। किसी को दिया--छीनने से बिलकुल उलटा है। छीनना देने से बिलकुल उलटा है। देना पुण्य है, तो छीनना पाप है।
लेकिन दोनों हालत में एक बात है समान--दूसरा मौजूद है। दिया तो दूसरे को, छीना तो दूसरे से। दूसरा तो है ही!
तो महावीर कहते हैं, पर-द्रव्य में प्रवृत्त शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है। फिर धर्म क्या है? धर्म पाप और पुण्य से मुक्ति है--न दिया और न छीना। धर्म अनन्यगत, दूसरे से मुक्त हो जाना है।
"अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम है, जो यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।'
ये महावीर के मूल आधार-सूत्र हैं, "स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम!' ये उनके पारिभाषिक शब्द हैं।
जो अपने में ही रमण कर रहा है.......
तुम बैठे हो, कुछ भी नहीं कर रहे हो, सिर्फ बैठे हो: अपने में ही रमण हो रहा है! तुम अपने में ही डूबे हो, लीन हो, तल्लीन हो। मन कहीं जा ही नहीं रहा है। न भविष्य में जा रहा है, न दूसरे में जा रहा है। क्योंकि दूसरे में भी जाना भविष्य में जाना है। तुम दूसरे का कोई चिंतन ही नहीं कर रहे--सारा चिंतन रुक गया है। तुम विचार ही नहीं कर रहे हो, क्योंकि सभी विचार दूसरे के हैं। तुम सिर्फ हो!
यह स्व-द्रव्य में होना--तुम मात्र हो, कुछ भी नहीं हो रहा है। तुम कोई संबंध निर्मित नहीं कर रहे। तुम कोई सेतु नहीं बना रहे। दूसरे के पास जाने की कोई आकांक्षा नहीं। दूसरे से दूर जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं। दूसरा तुम्हारी कल्पना के लोक में है ही नहीं। बस अकेले तुम अपने से भरे हो! अपने से भरपूर, लबालब, कहीं जाते हुए नहीं! तरंग भी नहीं, लहर भी नहीं। क्योंकि लहर भी कहीं जाती है। तुम बस यहीं हो। ऐसी घड़ी को महावीर कहते हैं धर्म।
लहर उठी--और अगर लहर दूसरे के हित में हुई तो पुण्य, अहित में हुई तो पाप। लहर ही न उठी, तुम स्व-द्रव्य में लीन बैठे रहे--तो धर्म। तो धर्म पुण्य और पाप के पार है।
जो पुण्य और पाप के पार है उसका भविष्य नहीं हो सकता। तुम अपने में तो बस अभी और यहीं हो सकते हो--यही वर्तमान के क्षण में। तुम अपनी आत्म-सत्ता का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि सत्ता उपलब्ध ही है। उसके लिए कल तक रुकने की जरूरत नहीं; यह कहने की जरूरत नहीं कि कल अपने में प्रवेश करूंगा। हां, दूसरे में प्रवेश करना हो तो कल तक रुकना पड़ेगा; दूसरे को राजी करना होगा, समझाना-बुझाना पड़ेगा। लेकिन अपने में प्रवेश करना हो तो इसके लिए तो कल तक छोड़ने की जरूरत नहीं। इसके लिए तो कोई भी साधन जरूरी नहीं है। क्योंकि वहां तो तुम हो ही; सिर्फ थोड़ा विस्मरण हुआ है। स्मरण आते ही तुम अचानक पाते हो कि तुम सदा अपने घर में थे। यह अपने घर में होना धर्म है।
पाप तो बांधता ही है, पुण्य भी बांध लेता है। इसलिए महावीर कहते हैं, जिसने पुण्य को धर्म समझा, उसने अभी धर्म को नहीं समझा। उसने अपनी पाप की वृत्ति को ही सजा लिया, सुंदर बना लिया; लेकिन पाप को जाना नहीं कि पाप क्या था। पाप यही था कि अपने से बाहर चले गये थे। दूसरे की हत्या करने गये थे कि दूसरे को बचाने गये थे, दोनों बातें बराबर हैं। अपने से बाहर चले गये थे। वहीं मौलिक पाप हो गया।
सितम है ऐ रोशनी सितम है कि वह भी अब धूप की है जद में
जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में।
तुम बैठे हो छिपे, दरख्तों के नीचे, थोड़ी-सी छाया है, भरी दोपहरी में--लेकिन धीरे-धीरे धूप वहां भी पहुंच जाती है। धीरे-धीरे धूप उसे भी छीन लेती है।
सितम है ऐ रोशनी! सितम है कि वह भी है अब धूप की जद में--वह भी आ गया अब धूप के घेरे में--जरा-सा साया जो रह गया था घने दरख्तों की तीरगी में।
तो पहले आदमी पाप से बचता है और पुण्य की छाया में बैठना चाहता है। लेकिन ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है पुण्य भी पाप का ही विस्तार है। ज्यादा देर नहीं लगती कि पता चलता है कि पुण्य भी सजायी हुई बेड़ी है, जंजीर है। जल्दी ही पता चलता है कि यह भी डूब गया पाप में।
जिस दिन पुण्य भी पाप जैसा दिखायी पड़ने लगता है, उस दिन व्यक्ति धर्म को उपलब्ध होता है।
महावीर की धर्म की परिभाषा बड़ी पराकाष्ठा की है, आत्यंतिक है; उससे ज्यादा शुद्ध परिभाषा खोजनी मुश्किल है।
"धर्म है अनन्यगत अर्थात स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम और तब यथासमय दुखों के क्षय का कारण होता है।'
वह तुम्हें सोचना नहीं है कि दुख क्षय हों या दुख के कारणों का क्षय हो। वह तो यथासमय हो जाता है। यह यथासमय की बात भी समझ लेनी चाहिए।
महावीर कहते हैं, हमने पाप किये जन्मों-जन्मों, बीज बोए, वृक्ष लगाए। यथासमय फल पकेंगे और गिर जायेंगे। उसमें जल्दी नहीं की जा सकती। इतना ही किया जा सकता है कि दुबारा बीज मत बोना। जो लग गए हैं फल वह तो पकेंगे और गिरेंगे--पककर ही गिरेंगे; परिपक्व होकर ही गिरेंगे
उन्हें चुपचाप स्वीकार कर लेना। बड़ा दुख होगा, उसे स्वीकार कर लेना। उसी को महावीर तप कहते हैं। जो दुख हमने बोये थे और अब पक गए हैं, अब उन दुखों को हमें भोगना होगा। उन्हें चुपचाप भोग लेना। उनके प्रति कोई भी प्रतिक्रिया न करना। यह भी मत कहना कि यह बुरा है। उन्हें हटाने की कोशिश मत करना। उनसे बचने और भागने की कोशिश मत करना। क्योंकि तुम्हारी सब कोशिश विलंब करेगी।
तुम तो अहोभाव से स्वीकार कर लेना कि अहो, जो दुख बोये थे उनके फल पक गये और दुख भोगने का क्षण आ गया! धन्यभागी हूं, छुटकारा हुआ!
सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा
मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा।
महावीर कहते हैं, जीना ऐसे जैसे कि मरने का वक्त तो तय है। तो क्या करें, जीना पड़ेगा! और जीवन के लिए व्यवस्था ऐसे ही जुटा लेना जैसे कि अब जीना है, फटे वस्त्र हैं तो सी लेता है आदमी। सद चाक हुआ गो जाम-एत्तन मजबूरी थी सीना ही पड़ा--हजार-हजार बार कपड़े फट गये; लेकिन मजबूरी थी, विवशता थी--सीना ही पड़ा। मरने का वक्त मुकर्रर था, मरने के लिए जीना ही पड़ा।
चुपचाप, हर हाल उस समय तक प्रतीक्षा करनी होगी जब पाप के फल पक जाएं और गिर जाएं--यथासमय। महावीर कहते हैं, वह अपने-आप! जैसे फलों के पकने का समय है, मौसम है, ऐसे सारे जीवन के कर्मों के पकने का समय है। वह अपने-आप पक जाते हैं, तुम्हें उनकी चिंता नहीं करनी। तुम भविष्य की चिंता छोड़ो! तुम वर्तमान में, स्वयं में, स्व-परिणाम में लीन होना सीखो। धीरे-धीरे बाकी सब अपने से आप यथासमय हो जायेगा। उसका तुम्हें हिसाब भी नहीं रखना। जब पाप का फल आये और दुख हो, पीड़ा हो, तो उसे स्वीकार कर लेना। वही तप है।
"जो पुण्य की इच्छा करता है, वह भी संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु अवश्य है। किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।'
महावीर कहते हैं, शुभ है पुण्य की इच्छा करना; लेकिन है संसार की ही इच्छा। इसलिए पुण्य की इच्छा पर ही मत रुक जाना। पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप से छुटकारा हो सके। एक कांटा लग जाए, दूसरे से निकाल लेते हैं--ऐसे ही पुण्य की इच्छा करना ताकि पाप निकल जाये। लेकिन जब एक कांटा निकल जाये तो दूसरे को घाव में मत रख लेना। दूसरा भी उतना ही कांटा है; माना कि पहले को निकालने में सहयोगी हुआ। धन्यवाद दे देना और दोनों को फेंक देना। पाप जब निकल जाये तो पुण्य को मत सम्हालने लगना; अन्यथा संसार ही सम्हाला जाता है।
"जो पुण्य की इच्छा करता है वह भी संसार की ही इच्छा करता है। पुण्य सुगति का हेतु है, किंतु निर्वाण तो पुण्य के क्षय से ही होता है।'
इधर अंधेरे की लानते हैं, उधर उजाले की जहमतें हैं
तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में?
बड़ी कठिनाई है! इधर अंधेरे की लानते हैं--यहां अंधेरे की तकलीफें हैं। उधर उजाले की जहमतें हैं--उधर प्रकाश की भी झंझटें हैं। इधर पाप सताता है, उधर पुण्य भी सताता है। तेरे मुसाफिर लगाएं बिस्तर कहां पे सहराए-जिंदगी में? यह जो जिंदगी का मरुस्थल है, इस पर कहां विश्राम करें? इस जिंदगी के मरुस्थल में विश्राम की कोई जगह नहीं। विश्राम की जगह तो मुसाफिर के भीतर है। यहां बाहर बिस्तर लगाया तो भटके। यहां तो भीतर बिस्तर लगाना होगा। उस भीतर बिस्तर लगाने को महावीर कहते हैं, "अनन्यगत; स्व-द्रव्य में प्रवृत्त परिणाम।' लगा लिया भीतर बिस्तर!
देखा विष्णु को, सो रहे हैं क्षीर-सागर में! लगाया बिस्तर क्षीर-सागर में! कथा प्रीतिकर है!
क्षीर-सागर का अर्थ है: अमृत का सागर, जिसका कोई अंत नहीं आता। उस पर बिस्तर लगा है। और बिस्तर किसका है? शेषनाग का। उसने कुंडली मारी है।
नाग प्रतीक है तुम्हारी ऊर्जा का, कुंडलिनी का, तुम्हारे भीतर छिपी हुई ऊर्जा का। उसी ऊर्जा की कुंडली मारकर अनंत के सागर पर जो बिस्तर लगाकर लेट गया है...! लक्ष्मी उसके पैर दबाती है! सारे सुख उसके पैर दबाने लगते हैं। सब वैभव सहज ही उसे उपलब्ध हो जाते हैं। नहीं कि वह उनकी चेष्टा करता है। जब तक चेष्टा है तब तक दुख ही पैर दबाता है। जब तक चेष्टा है, वासना है, तब तक पीड़ा ही हाथ आती है। जब तक मांगना है, तब तक परम संपदा नहीं मिलती।
यहां मांगने से भीख नहीं मिलती, परम संपदा कहां मिलेगी! परम संपदा मिलती है सम्राटों को, जिन्होंने भीतर के क्षीर-सागर पर अपनी ही ऊर्जा के शेषनाग की कुंडलिनियों पर विश्राम लगा दिया है, बिस्तर लगा दिया है।
नहीं, बाहर कोई जगह नहीं है इस जीवन के मरुस्थल में जहां विश्राम मिल सके। यहां तो दौड़ना ही दौड़ना होगा। यहां तो हर बिंदु जो विश्राम का मालूम पड़ता है, केवल नयी दौड़ का प्रारंभ सिद्ध होता है। सोचकर आते हैं कि अब, अब विश्राम का क्षण आया; पहुंचते-पहुंचते विश्राम का क्षितिज और आगे सरक जाता है।
वासना में कभी किसी ने विश्राम नहीं जाना। विश्राम वहां नहीं है। विराम वहां नहीं है, राम वहां नहीं है। विश्राम तो भीतर है जहां तृष्णा शून्य हो जाती है।
"अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो।'
इस वचन को गौर से सुनना।

"अशुभ कर्म को कुशील और शुभ कर्म को सुशील जानो। किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है, जो संसार में प्रविष्ट कराता है?'

पहले महावीर कहते हैं, अशुभ कर्म को कुशील, शुभ कर्म को सुशील जानो। तत्क्षण दूसरे वाक्य में खंडन करते हैं। कहते हैं, किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? तर्क से भरी हुई बुद्धि को लगेगा, यह क्या मामला है! यह तो वक्तव्य तत्क्षण विपरीत हो गया। एक वाक्य पहले ही कहा कि अशुभ को कुशील, शुभ को सुशील जानो--और फिर कहते हैं कि सुशील कैसे जाना जा सकता है शुभ को, क्योंकि वह संसार में प्रवेश कराता है!
यह दो तलों के लोगों के लिए कहा गया वक्तव्य है। महावीर जैसे व्यक्तियों के वक्तव्यों में अगर असंगति मिले तो इतना ही समझना कि वह वक्तव्य कई तलों पर दिये गये हैं। पहले वे कह रहे हैं उससे, जो पाप में रत है। उससे वे कह रहे हैं कि अशुभ कर्म को कुशील जान, शुभ कर्म को सुशील। फिर जब वह पाप से मुक्त हो गया है, तो वे उससे कहते हैं, "लेकिन सुन! उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट कराता है? यह भी सुशील नहीं है। यह तो कामचलाऊ बात थी, व्यवहारिक थी।
महावीर ने कहा है, वक्तव्य उनके दो आधारों पर हैं--व्यवहारिक-नय और निश्चय-नय। एक वक्तव्य ऐसा है जो व्यवहारिक है। एक कांटे को दूसरे कांटे से निकालना है; इसलिए वे कहते हैं, यह कांटा बड़ा शुभ है, इससे तुम लगे हुए कांटे को निकाल लो। जब कांटा निकल जाता है तब वे निश्चय वक्तव्य देते हैं। वे कहते हैं, अब दोनों कांटों को फेंक दो क्योंकि कोई कांटा सुशील कैसे हो सकता है! कांटा तो दुशील ही है, कुशील ही है।
तो महावीर की सारी वाणी दो तलों पर है। एक तल है जहां तुम खड़े हो, तुमसे बोल रहे हैं। और दूसरा तल है जब तुम उनकी सुन लोगे, समझ लोगे, मान लोगे, तब तत्क्षण वे तुमसे कहेंगे, अब इस कांटे को पकड़कर पूजा मत करने लगना।
पुण्य अच्छा है कामचलाऊ दृष्टि से; क्योंकि पाप से छुटकारा दिलाने में सहयोगी है। लेकिन इसको पकड़कर मत बैठ जाना। पुण्य ही तुम्हारे जीवन की अंतिम दिशा न बन जाये। अन्यथा बीमारी से छूटे, औषधि से पकड़ गये। औषधि शुभ है, बीमारी से छुटा देने को; लेकिन औषधि की पूजा मत करना। पुण्य के गुणगान मत गाना।
लेकिन यही होता है। एक आदमी जरा-सा दान कर देता है तो उसकी चर्चा करता है। न केवल चर्चा करता है, आयोजन करता है कि लोग जानें कि इसने दान किया; अखबार में खबर छपे, फोटो छपे कि इसने दान किया!
महावीर कहते हैं, दान किया, यह तो ऐसा ही था कि पाप किया था, उसका प्रक्षालन किया; पाप किया था, उसका पश्चात्ताप किया--इसमें शोरगुल क्या मचा रहे हो? किसी आदमी को टी. बी. हो गयी थी, उसने दवा ली, ठीक हो गया--तो वह कोई अखबारों में खबर देने जाता है कि देखो, मैं कैसा महापुरुष, कि दवा ली और ठीक हो गया! तो हम उसे पागल कहेंगे।
महावीर कहते हैं, खूब पाप किया है, थोड़ा-थोड़ा पुण्य करके उसे छांटते हो, तो इसमें शोरगुल मचाने की कोई जरूरत नहीं। तो वास्तविक पुण्यात्मा व्यक्ति तो ऐसे करेगा पुण्य कि एक हाथ से करे और दूसरे हाथ को पता न चले। चुपचाप करेगा। पता ही नहीं चले किसी को; क्योंकि पुण्य तो पश्चात्ताप है, इसमें पता चलाने जैसा क्या है? वह तो मजबूरी से कर रहा है कि खूब पाप किए हैं, अब उनको धोना है; खूब गंदगी इकट्ठी कर ली है, अब स्नान करना है। तो तुम स्नान-घर अपना मकान के सामने थोड़े ही बनाते हो--कि खड़े हैं बीच सड़क पर और स्नान कर रहे हैं; कि सारा गांव देख ले कि कैसे स्वच्छ हो रहे हैं! स्नान-घर में तो तुम छिपकर चुपचाप स्नान कर लेते हो। तुम्हारा पुण्य का गृह भी ऐसा ही छुपा होना चाहिए। क्योंकि अगर तुमने इससे प्रशंसा पायी तो यह एक नया उपद्रव बन जायेगा। तो फिर तुम प्रशंसा पाने का जो मजा है उसके लिए पुण्य करने लगोगे। फिर भव्य न रहे, अभव्य हो गए।
तो पुण्य को जो चुपचाप करे वही भव्य है। पुण्य की जो घोषणा करके करे वह अभव्य है। लेकिन हम तो पुण्य करते ही इसलिए हैं ताकि घोषणा हो। हम तो पुण्य करने के लिए राजी ही इसीलिए होते हैं, पुण्य के लिए थोड़े ही, घोषणा के लिए।
जो लोग दान इकट्ठा करते हैं वे भलीभांति जानते हैं। वे गांव के दो-चार धनी-मानी व्यक्तियों से पहले लिस्ट पर नाम लिखवा लाते हैं। वे कहते हैं, न देना आप दस हजार, देना हजार; लेकिन लिख तो दो दस हजार, ताकि दूसरे लोगों को देखकर लगे कि फलां ने दस हजार दिये, जब ईष्या जगे, स्पर्धा पैदा हो: "अच्छा तो यह अपने को समझता क्या है! दस हजार दिये तो लिखो ग्यारह हजार!'
दान के लिए भी अहंकार को ही फुसलाना पड़ता है। पुण्य के लिए भी बीमारी को ही खुजलाना पड़ता है। फिर जब दान हो जाए तो दानी प्रतीक्षा करता है: अब प्रतिफल! शोभाऱ्यात्रा निकले। बैंड-बाजे बजें! सारे गांव में चर्चा हो! दूर-दूरदिगंत तक उसकी खबर पहुंचे!
एक सज्जन मुझे मिलने आये थे। पत्नी भी साथ थी। तो पत्नी ने मुझसे कहा कि शायद आपको मेरे पति का परिचय नहीं है। पत्नी मुझे एक-दो बार आकर मिल गयी थी। मैंने कहा कि ये पहली दफे आये हैं। उसने कहा, "ये बड़े दानी हैं। एक लाख रुपया अब तक दान कर चुके हैं।'
पति ने तत्क्षण पत्नी का पैर दबाया और कहा, "एक लाख नहीं एक लाख दस हजार!' वह दस हजार भी कम बोल रही है तो पति को कष्ट हो गया; सुधार किया।
दानी दान से मान इकट्ठा नहीं कर सकता। दानी मानी नहीं हो सकता। क्योंकि जो मानी है वह दानी कैसे हो सकेगा?
तो महावीर कहते हैं, "अशुभ कर्म को कुशील और शुभ को सुशील जानो किंतु उसे सुशील कैसे कहा जा सकता है जो संसार में प्रविष्ट करा दे?' नहीं वह भी कुशील है अंततः। अगर पाप की दृष्टि से सोचो तो पुण्य सुशील है। अगर मोक्ष की दृष्टि से सोचो तो पुण्य कुशील है!
इसलिए महावीर के सभी वक्तव्य दृष्टि-वक्तव्य हैं। इसको महावीर की परिभाषा में "नय' कहते हैं--देखने का एक ढंग। महावीर कहते हैं, कोई भी वक्तव्य निरपेक्ष नहीं है, सापेक्ष है।
तुम कहते हो, फलां आदमी बहुत लंबा। इसका कोई मतलब नहीं होता, क्योंकि कोई ऊंट से लंबा नहीं होगा, पहाड़ से लंबा नहीं होगा, झाड़ से लंबा नहीं होगा। तुम जब कहते हो फलां आदमी लंबा, तो तुम मानकर चलते हो कि आदमी की एक सामान्य ऊंचाई है, छह फीट, वह सात फीट है। लेकिन पहाड़ के नीचे है।
कहते हैं, ऊंट पहाड़ के पास जाने से डरते हैं। डरते होंगे, क्योंकि जब रेगिस्तान में चलते रहते हैं तो वही पहाड़ है। जब पहाड़ करीब आने लगता है तो दीनता प्रगट होती है।
हमारे सभी वक्तव्य सापेक्ष हैं। एक दृष्टि से ठीक होंगे, तत्क्षण दूसरी दृष्टि से गलत हो जायेंगे।
आइंस्टीन ने तो बहुत बाद में, ढाई हजार साल बाद महावीर के, विज्ञान के जगत में सापेक्षता का नियम सिद्ध किया। पर महावीर ने ढाई हजार साल पहले धर्म के जगत में वही नियम सिद्ध किया था।
महावीर और आइंस्टीन बड़े एक साथ खड़े हैं। जो दान महावीर का धर्म के जगत में है, वही दान आइंस्टीन का विज्ञान के जगत में है। आइंस्टीन ने डांवांडोल कर दिया विज्ञान का सारा जगत। सारी चीजें सापेक्ष हो गयीं। निरपेक्ष कोई वक्तव्य न रहा। कोई ऐसा वक्तव्य नहीं है जो तुम बिना किसी शर्त के कह सको। सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है।
महावीर ने भी कहा, सभी वक्तव्यों के पीछे शर्त है। इसलिए इसमें तुम विरोध मत देखना और विसंगति मत देखना। यह दो दृष्टियों से कही गयी बात है।
कितनी ही चेष्टा करो, पुण्य के द्वारा तुम्हारा परम रूप प्रगट न हो सकेगा। पुण्य बीच की मंजिल हो सकती है। पाप से हटकर थोड़ी देर पुण्य में विश्राम कर लेना--लेकिन जाना है मोक्ष।
ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहुंच न सकी
ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।
पुण्य को कितना ही छलकाओ, पुण्य को कितना ही प्रदर्शित करो, इससे तुम्हारा भव्य रूप प्रगट न होगा। शुभ रूप प्रगट होगा, भव्य रूप नहीं क्योंकि भव्य तो शुभ से भी उतना ही दूर है जितना शुभ अशुभ से दूर है। भव्य तो बड़ा लोकतीत है।
ये मय छलक के भी उस हुस्न को पहुंच न सकी
ये फूल खिलके भी तेरा शबाब हो न सका।
वह जो तुम्हारा परम सौंदर्य है, जो अंतसादर्य है, उसको पुण्य भी नहीं छू सकता। क्योंकि पुण्य भी कृत्य है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, आत्मा से छोटा होता है। कृत्य कितना ही बड़ा हो, कर्ता से छोटा होता है। तुमने जो किया है वह तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। करनेवाला सदा ही बड़ा है।
यह बड़ा मूलभूत दृष्टिकोण है कि कर्ता कृत्य से बड़ा है। जिस जीवन की ऊर्जा से छोटी-छोटी लहरें पुण्य की उठती हैं, वे लहरें उस जीवन-ऊर्जा से बड़ी नहीं हो सकतीं। सागर में कितनी ही बड़ी लहर उठती हो, सागर से बड़ी नहीं हो सकती।
तुम सोच सकते हो सागर में ऐसी कोई लहर कभी उठ सकती है जो सागर से बड़ी हो? असंभव! कितनी ही बड़ी लहर उठे, एक बात तय रहेगी कि सागर से छोटी रहेगी। अब तुम कोई चाय की प्याली में थोड़े ही सागर की लहर उठा सकते हो। चाय की प्याली में चाय की प्याली की ही लहर उठेगी। वह चाय की प्याली से छोटी रहेगी।
महावीर कहते हैं कि जो हमारी अंतरात्मा है वह विराट है। कृत्य तो छोटी-छोटी तरंगें हैं। उन छोटी-छोटी तरंगों को तुम सब कुछ मत मान लेना। वे पुण्य की भी हों तरंगें तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य को न छू पायेंगी। और कितने ही पुण्य के फूल खिलते जाएं तो भी तुम्हारे परम सौंदर्य के सामने चरणों में चढ़ाने के योग्य भी न हो पायेंगे।
इस संसार में तो हम जो भी करते हैं वह कृत्य है। पुण्य करें, पाप करें; अच्छा करें, बुरा करें--जो भी हम बाहर करते हैं वह कृत्य है। जो भीतर बैठा है, करने के पार, साक्षी--वह इस संसार का हिस्सा नहीं है।
वही है हमारा परम सौंदर्य। वही है मुक्ति, मोक्ष।
मेरी रंगतेंनिखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं
मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा।
तुम कितनी ही लाख चेष्टाएं करो, तुम्हारे कृत्यों के कारण तुम्हारा रंग न निखरेगा। पाप से तो निखरेगा ही कैसे! और कालिख लग जायेगी। पुण्य से भी न निखरेगा। कितना ही सोना चढ़ा लो अपने ऊपर, तो भी न निखरेगा
मेरी रंगतेंनिखर सकीं, मेरी निहकतें न बिखर सकीं
और न तुम्हारी सुगंध बिखर सकेगी तुम्हारे कृत्यों से। क्योंकि तुम अपने कृत्यों से बहुत बड़े हो।
मैं वह फूल हूं कि जो इस चमन में गिला-गुजारे सबा रहा।
तुम्हारी शिकायत बनी ही रहेगी--तुम कितने ही बुरे कर्म करो; तुम नादिर हो जाओ, चंगेज हो जाओ, तैमूर, हिटलर हो जाओ; या तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो। तुम सम्राट अशोक हो जाओ कि सम्राट वू हो जाओ; तुम कितने ही पुण्य-कर्म करो तो भी तुम्हारा अंतिम निखार कृत्य से आनेवाला नहीं है।
तुम कृत्य से बड़े हो। ऐसे लहरों को निखार-निखारकर कहीं सागर निखरेगा?
सागर तो निखरेगा साक्षी-भाव में। सागर तो निखरेगा अनन्य भाव से स्व-द्रव्य में लीन हो जाने से।
उपनिषदों में बड़े बहुमूल्य वक्तव्य हैं: "यो वै भूमा तत्सुख'--विशाल में है सुख। विराट में है सुख। "नाल्पे सुखमस्ति'--लघु में सुख कहां! छोटे में सुख कहां! "भूमैव सुख'--निश्चय ही विराट में ही सुख है। "भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्यः' इसलिए उस एक विराट को ही जानने को आकांक्षा कर। विराट! जहां कोई सीमा नहीं, जिसकी कोई परिभाषा नहीं!
महावीर कहते हैं, वह विराट तुम्हारे भीतर छुपा है। तुम्हारे कृत्य तो छोटी-छोटी ऊर्मियां हैं--शुभ और अशुभ--लेकिन सभी ऊर्मियां हैं। दूसरे के किनारे की तरफ चल पड़ती हैं। जब सागर में कोई ऊर्मि नहीं होती तो सागर बे-किनारा होता है, क्योंकि किनारे की तरफ कुछ भी नहीं जा रहा है। जब सागर में कोई ऊर्मियां नहीं होतीं तो सागर किनारे से टूटा होता है--तटहीन। तब सागर विराट होता है।
"यो वै भूमा तत्सुख'--विराट में सुख है। "नाल्पे सुखमस्ति'--छोटे में कहां सुख! "भूमैव सुख'--विराट को खोज, विराट में ही सुख है।
"बेड़ी सोने की हो चाहे लोहे की, पुरुष को दोनों ही बेड़ियां बांधती हैं। इस प्रकार जीव को उसके शुभ-अशुभ कर्म बांधते हैं...।'
महावीर कहते हैं, बेड़ी सोने की या लोहे की, दोनों बांध लेती हैं। तुम इससे प्रसन्न मत हो जाना कि तुम कारागृह में बड़े खास कैदी हो। तुम्हारे हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; दूसरे साधारण कैदी हैं, लोहे से बंधे हैं--इससे तुम बहुत ज्यादा प्रसन्न मत हो जाना। भिखारी बंधा होगा लोहे की जंजीरों में, सम्राट बंधा है सोने की जंजीरों में। लेकिन असली सवाल तो बंधे होने का है। तो जो बुरा कर्म करता है, वह भी बंधा हुआ है। पापी तो बंधा ही होता है, पुण्यात्मा भी बंधा होता है। और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि पुण्यात्मा पापी से भी ज्यादा बंधा होता है। क्योंकि पापी तो लोहे की बेड़ियां छोड़ना चाहता है; पुण्यात्मा सोने की बेड़ियां बचाना चाहता है।
तो कभी-कभी तो ऐसा हो जाता है कि अपराधी भी छूटने को उत्सुक होता है, लेकिन साधु छूटने को उत्सुक नहीं होता। क्योंकि उससे तुम कैसे छूटने को उत्सुक होओगे जिससे बड़ा सुख मिल रहा है और जिसके कारण बड़ा सम्मान मिल रहा है; जिसके कारण अहंकार भरता है, फलता-फूलता है!
तो कभी-कभी तो ऐसा हुआ है कि वे लोग अभागे हैं जिनके हाथ में सोने की जंजीरें पड़ी हैं; वे उनको बचाने लगते हैं; वे उनको आभूषण समझने लगते हैं।
"अतः परमार्थतः दोनों ही प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनके साथ न राग करना चाहिए और न उनका संसर्ग। क्योंकि कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।'
और स्वाधीनता महावीर के लिए परम मूल्य है--अल्टीमेट वैल्यू! उसके पार कुछ भी नहीं। जब तुम परिपूर्ण स्वाधीन हो, जब तुम्हारी स्वाधीनता पर कोई सीमा नहीं, जब तुम्हारी स्वाधीनता पर कोई बाधा नहीं, अनवरुद्ध तुम्हारी स्वतंत्रता है--तभी तुम विराट हो, तभी तुम भूमा हो। तब तुम छोटे न रहे। और स्वतंत्रता तो दोनों से ही नष्ट हो जाती है। इसलिए न पाप को पकड़ना न पुण्य को; न संसार को पकड़ना, न त्याग को। संसार को मत पकड़ना, संन्यास को मत पकड़ना। संसार छोड़ने के लिए संन्यास का उपयोग कर लेना, बस। फिर उससे भी पार हो जाना।
यहां कारागृह से थक जाना तो जरूरी है; जिसको हम घर कहते हैं, अपना घर कहते हैं, आशियां कहते हैं--उससे भी थक जाना जरूरी है।
वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ
तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम।
अगर कोई गौर से देखे उथल-पुथल आंधियों की, तो तुम कारागृह से थोड़े ही थकोगे, घर से भी थक जाओगे।
वोह बिजलियों की चश्मके-पैहम कि कुछ न पूछ
तंग आ गए हैं जिंदगीए-आशियां से हम।
तब तुम जिंदगी के घर से भी थक जाओगे। जहां सुरक्षा मिलती है, शरण मिलती है, उससे भी थक जाओगे। जहां सहारा मिलता है, आसरा मिलता है, उससे भी थक जाओगे। शत्रु से तो थकोगे ही, मित्र से भी थक जाओगे। पराये से तो थकोगे ही अपने से भी थक जाओगे; क्योंकि वस्तुतः तो अपना भी पराया है।
तथापि, फिर महावीर कहते हैं, "परमार्थतः दोनों प्रकार के कर्मों को कुशील जानकर उनसे राग न करना चाहिए। क्योंकि उनका संसर्ग...कुशील कर्मों के प्रति राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता नष्ट होती है।'
"तथापि, व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं। क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहना कहीं बेहतर, कहीं अच्छा है।'
महावीर जब कह रहे हैं कि छोड़ दो सब--पुण्य भी, पाप भी--तब तत्क्षण उन्हें खयाल आया होगा कि आदमी बड़ा बेईमान है। उससे कहो, छोड़ दो पुण्य भी, पाप भी, तो पाप तो शायद न छोड़ेगा, पुण्य छोड़ देगा। वह कहेगा, बिलकुल ठीक! अभी मैंने कहा कि छोड़ दो संसार, छोड़ दो संन्यास! तुम में से कई के मन में उठा होगा: अरे, यह तो बिलकुल बेहतर, तो छोड़ दो संन्यास!
हम अपने मतलब की सुन लेते हैं।
एक मित्र ने संन्यास लिया और मुझसे पूछा कि "अंततः तो सब छोड़ ही देना है?' मैंने कहा, "अभी तुम लिये भी नहीं, अभी लेने को आये हो, अभी जल्दी मत करो।' पर उन्होंने कहा, अगर अंततः छोड़ ही देना है तो लेने से सार क्या? माना कि औषधि अंततः छोड़ देनी होगी--लेकिन तब जब बीमारी जा चुकी हो। तुम यह तो नहीं कहते चिकित्सक को कि औषधि लेने से फायदा क्या, अंततः तो छोड़ ही देनी है! अगर न लोगे तो बीमारी में अटके रह जाओगे। औषधि तो लेनी होगी और छोड़नी भी होगी। सीढ़ियां चढ़नी भी होंगी और छोड़नी भी होंगी। तुमने कहा, जब छोड़ ही देनी है तो चढ़ना क्या, तो फिर तुम नीचे ही रह जाओगे।
महावीर को तत्क्षण खयाल उठा होगा, यह जो मैंने कहा कि पाप भी छोड़ दो, पुण्य भी छोड़ दो, क्योंकि दोनों बंधन हैं--तो शायद आदमी चोरी तो नहीं छोड़ेगा, दान करना छोड़ देगा: "क्या फायदा! इतना ही बंधन काफी है चोरी का ही, अब और दान का बंधन क्यों सिर पर लेना! संसार का बंधन ही काफी है, अब संन्यास का बंधन और क्यों सिर पर लेना! एक ही बंधन बहुत है--हाथ में लोहे की जंजीरें पड़ी हैं, अब सोने की और क्या डालना!'
तो महावीर को तत्क्षण कहना पड़ा, "व्रत व तपादि के द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति उत्तम है। इनके न करने पर नर्कादि के दुख उठाना ठीक नहीं...।'
औषधि कड़वी भी हो तो भी उसका कड़वापन झेल लेना उचित है। क्योंकि उसके बिना फिर बीमारी का नर्क है।
"...क्योंकि कष्ट सहते हुए धूप में खड़े रहने की अपेक्षा छाया में खड़े रहने कहीं अच्छा है।'
संन्यास की एक छाया है। आत्यंतिक छाया नहीं, आखिरी छाया नहीं--आखिरी छाया तो आत्मा की है। संन्यास की एक सुरक्षा है; अंतिम सुरक्षा नहीं, बीच का पड़ाव है। लंबी यात्रा में बीच में पड़ी धर्मशाला है। वहां विश्राम करके सुबह चल पड़ना। लेकिन यह मत सोचना कि जब सुबह चल ही पड़ना है तो रात विश्राम क्या करना, चलते ही रहो! तो फिर तुम ज्यादा न चल पाओगे। तो फिर तुम बहुत दूर न पहुंच पाओगे।
महावीर जैसे व्यक्तियों को निरंतर एक अड़चन खड़ी रहती है: जब भी वे बोलते हैं तो एक तो वे बोलते हैं जो उन्हें लगता है ठीक है, और तत्क्षण उन्हें तुम्हारा भी ध्यान रखना पड़ता है, तब वे वह भी बोलते हैं जो तुम कहीं गलत न समझ लो। तो वे कहते हैं, "कोई फिक्र मत करना। कहा मैंने, माना कि सोने की जंजीर है पुण्य, लेकिन अभी जल्दी मत करना; पहले लोहे की जंजीर को सोने से बदल लेना। इतना तो करो! सोने की जंजीर थोड़ी हलकी होगी; लोहे की जंजीर जैसी भारी न होगी। सोने की जंजीर थोड़ी प्रीतिकर होगी। तुम उतने कुरूप न मालूम पड़ोगे जितने लोहे की जंजीर में मालूम पड़ते थे।'
संसार को थोड़ा बदलो संन्यास में। और जो दूसरा आत्यंतिक वक्तव्य है--पारमार्थिक चरम--वह तभी सार्थक है जब संन्यास फल जाए। जब पहला कांटा निकल जाए और दूसरा कांटा व्यर्थ हो जाए, तब उसे फेंक देना।
जीवन को ऐसे गुजारो जैसे पिछले किये हुए कर्मों का फल है। तटस्थता से, बड़ी दूरी के भाव से, उपेक्षा से, बिना प्रतिक्रिया किये, बिना छोटी-छोटी बातों में उलझे--ऐसे गुजर जाओ जैसे राह की धूल जब गुजरते हो तो पड़ती है। जब राह से चलते हो कुत्ते भी भौंकते हैं; जब राह से चलते हो, धूप भी पड़ती है--सबको तुम गुजार देते हो। जन्मों-जन्मों तक जो निर्मित किया है उसे धीरे-धीरे इसी तरह छोड़ने का उपाय--उपेक्षा! दुख आये तो उसे भी ठहर जाने देना। उसके साथ भी शत्रुता मत बांधना। न हो, ऐसा मत कहना।
है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम
रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम।
साधक यही पूछता रहता है अपने भीतर: "और, और कितनी यात्रा है?' अपनी जाती हुई, उम्र से पूछता है: "और कितना, और कितना?' लेकिन जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है। जो घटता है, उसे स्वीकार करके बैठ नहीं जाता। जो घटता है, उसे स्वीकार कर लेता है और यात्रा जारी रखता है।
है और कितनी दूर तेरी मंजिले-कयाम--और भीतर खयाल रखता है कि तेरा अंतिम लक्ष्य और कितनी दूर है? रह-रहके पूछते हैं यह उम्रे-रवां से हम--जाती हुई उम्र से पूछता रहता है कि और कितनी दूर है? और अपने को सम्हाले रखता है। विषाद में नहीं गिरने देता।
ऐ शमा! सुबह होती है रोती है किसलिए
थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे।
जैसे सुबह होने के करीब है, रात गहरी अंधेरी हो जाती है। सुबह होने के करीब रात सर्वाधिक अंधेरी हो जाती है। वह सुबह होने की खबर है।
इसलिए जिस व्यक्ति का मोक्ष और निर्वाण करीब आ रहा है, उसके दुख बड़े सघन हो जाते हैं। सभी फल अनंत-अनंत जन्मों के इकट्ठे पकने लगते हैं। यथासमय! आ गई घड़ी।
महावीर बड़ी बुरी तरह बीमार हुए। बुद्ध का शरीर भी विषाक्त हो गया था। रामकृष्ण कैंसर से विदा हुए; रमण भी।
बहुतों के मन में सवाल उठता है कि क्यों ऐसे सदपुरुष, और क्यों ऐसा दुखद अंत?
हमें समझ में नहीं आता है। हमें जीवन के गणित का पता नहीं है। जिनकी आखिरी घड़ी करीब आ गयी है, तो जन्मों-जन्मों के, अनंत-अनंत फल शीघ्रता से पकने शुरू हो जाते हैं, क्योंकि वे विदा होंगे जब, पूरी तरह से विदा होंगे, फिर दुबारा उनका आना नहीं है--तो सारा निपटारा, सारा कर्मक्षय त्वरा से होता है, तीव्रता से होता है। सब तरह की पीड़ाएं जिनको अब तक दबाकर बैठे रहे थे, उभरकर सामने आती हैं। और आ जाना जरूरी है। वह न केवल पुराने कर्मों का फल है बल्कि भविष्य की तैयारी भी। उनको वे कितनी शांति से देख लेते हैं, कितने सहज भाव से उनको गुजर जाने देते हैं--उससे उनकी अंतिम तैयारी होती है; अंतिम पाथेय निर्मित होता है।
ऐ शमा! सुबह होती है रोती है किसलिए
थोड़ी-सी रह गयी है इसे भी गुजार दे।
संसार को छोड़ना है, क्योंकि संसार में जो वसंत दिखायी पड़ता है वह झूठा है, इसलिए संसार को छोड़ते वक्त व्यक्ति के जीवन में सारे फूल गिर जायेंगे, पतझड़ हो जायेगी; पत्ते भी गिर जायेंगे; रूखे, नंगे वृक्ष खड़े रह जायेंगे। लेकिन यह कोई अंतिम अवस्था नहीं है। यह भी बीच का ही पड़ाव है। जिसने इस पतझड़ को भी पूरे भाव से स्वीकार कर लिया, उसके भीतर फिर एक और तरह का वसंत उठता है जिसकी कोई पतझड़ नहीं। जिसने इस पतझड़ को भी पूरे आत्मभाव से अंगीकार कर लिया, स्वागत से, और जरा भी ना-नुच न की, इनकार न किया--तप यही अर्थ रखता है--तो उसके जीवन में फिर फूल खिलते हैं। वे फूल विराट के हैं! वे फूल परम सागर के हैं, परम सत्य के हैं।
इन्हीं बजते हुए पत्तों से गुलशन फूट निकलेंगे
बहारों का यह मातम सिर्फ अंजामे-खिजां तक है।
तो तुम ऐसा मत देखना कि त्यागी दुखी है। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। तुम ऐसा मत सोचना कि त्यागी दुखवादी है। ऊपर से शायद दिखायी भी पड़े। क्योंकि तुम जिसे सुख मानते हो उसे वह छोड़ रहा है, तो तुम्हें लगेगा दुखवादी है। लेकिन त्यागी दुखवादी नहीं है। त्यागी ही परम भोग की तरफ जा रहा है। क्योंकि जिसे तुम सुख कहते हो वह सुख नहीं है। जिसे तुम दुख कहते हो वह दुख नहीं है। जिसे तुम सुख कहते हो वह केवल तुम्हारी आकांक्षा है, आशा है, तृष्णा है।
हविश को आ गया है गुल खिलाना,
जरा ए जिंदगी! दामन बचाना।
जिसे तुम सुख कहते हो वह तो केवल हविश है; वह तो एक तृष्णा है, जो कभी भरती नहीं, दुष्पूर है। और जिसे तुम दुख कहते हो, वह तुम्हारे अतीत में चाहे गए सुखों के फल हैं।
तो त्यागी वह है जो तुम्हारे सुख को सुख नहीं देखता, सिर्फ तुम्हारा सपना मानता है; और तुम्हारे दुख को वास्तविक मानता है, क्योंकि वह अतीत जन्मों में किये गये कर्मों का फल है। तो तुम्हारे सुख को तो वह बिलकुल छोड़ देता है, क्योंकि कल्पना को छोड़ने में देर क्या लगती है! कल्पना ही है, छोड़ने को कुछ है भी नहीं। कल्पना ही छोड़नी है; थी ही नहीं, सिर्फ विचार था। तो तुम्हारे सुख को तो तत्क्षण छोड़ देता है।
जो तुम्हारे सुख को छोड़ देता है, वही संन्यासी है। लेकिन दुख को इतनी आसानी से नहीं छोड़ा जा सकता। क्योंकि दुख अब कल्पना नहीं है। तुम्हारी अनंत-अनंत कल्पनाओं ने जो घाव तुम पर छोड़ दिये हैं, दुख उनका नाम है। तो दुख को वह स्वीकार करता है।
कल्पना का त्याग संन्यास; दुख का स्वीकार संन्यास। सुख तो यूं छूट जाता है क्योंकि सुख है कहां? छोड़नेऱ्योग्य कुछ है ही नहीं, मुट्ठी खाली है।
दो पागल बात कर रहे थे--पागलखाने में बैठे। एक पागल ने मुट्ठी बांध ली तो उसने कहा कि अनुमान लगाओ, मेरी मुट्ठी में क्या है? तो पहले पागल ने कहा कि कुछ थोड़े संकेत तो दो। उसने कहा, कोई संकेत नहीं। तीन मौके तुम्हें। तो पहले पागल ने कहा कि हवाई जहाज। दूसरे पागल ने कहा कि नहीं। तो पहले पागल ने कहा, हाथी। तो दूसरे पागल ने कहा, नहीं। तो पहले पागल ने कहा, रेलगाड़ी। तो उसने कहा, ठहर भाई, जरा मुझे देख लेने दे। उसने धीरे-से अपनी मुट्ठी खोलकर देखा और कहा कि मालूम होता है तूने झांक लिया।
वहां कुछ है नहीं! न रेलगाड़ी है, न हवाई जहाज, न हाथी है। मुट्ठी खोलने पर मुट्ठी खाली है। अगर मुट्ठी में कुछ है तो वह सिर्फ पागलपन के कारण है। वह पागलपन की धारणा है।
तो तुम्हारे सुख को छोड़ने में तो क्षणभर की देर नहीं लगती। सुख है ही नहीं। मुट्ठी खाली है।
इसलिए तो लोग मुट्ठी खोलकर नहीं देखते कि कहीं पता न चल जाये कि कुछ भी नहीं है। मुट्ठी बांधे रहो! कहते हैं, बंधी लाख की! मैं भी मानता हूं: बंधी लाख की, खुली खाक की! क्योंकि है ही नहीं कुछ वहां। बंधी है, इसलिए लाख मालूम होते हैं। बांधे रखो मुट्ठी, तिजोड़ी पर ताले डाले रखो। खोलकर मत देखना, अन्यथा खाली हाथ पाओगे।
तो सुख तो यूं ही छोड़ा जा सकता है। तत्क्षण छोड़ा जा सकता है। जरा-सा साक्षी-भाव--सुख गया! लेकिन दुख? दुख थोड़ा समय लेगा। अनंत-अनंत जन्मों में वह जो गलत-गलत धारणाओं के घाव छूट गये हैं, लकीरें छूट गयी हैं...।
तो सुख का त्याग और दुख का स्वीकार--यही महावीर का संन्यास है। और इस संन्यास का जो परम फल है, वह अपने आप घटता है। वह परम फल निर्वाण है। वह परम फल सुख नहीं है, पुण्य नहीं है, स्वर्ग नहीं है। वह परम फल मोक्ष है, परम स्वतंत्रता है।
स्वतंत्रता का इतना बड़ा उपदेष्टा कभी नहीं हुआ। और भी स्वतंत्रता की बात करनेवाले लोग हुए हैं; लेकिन महावीर की स्वतंत्रता के साथ ऐसी पकड़ है, ऐसी गहरी पकड़ है कि स्वतंत्रता को बचाने के लिए वे परमात्मा तक को स्वतंत्रता की वेदी पर आहुति दे देते हैं। लेकिन स्वतंत्रता की आहुति परमात्मा की वेदी पर नहीं देते। वे कहते हैं, परमात्मा रहेगा तो स्वतंत्रता पूरी न रहेगी। इसलिए परमात्मा नहीं है। स्वतंत्रता परिपूर्ण है। और इस परम स्वतंत्रता को पा लेने की ही सारी दौड़, सारी यात्रा, सारा धर्म, जन्मों-जन्मों के भटकाव!
कैसे इसे हम पायें?
धीरे-धीरे तुम स्वतंत्रता के सूत्रों को अपने जीवन में जगह देने लगो। जो-जो बांधता हो, उस-उससे जागने लगो। पहले पाप से जागोगे, क्योंकि वह बांधता है, इस बीच के उपाय में पुण्य का सहारा ले लेना। कहीं तो हाथ रखने के लिए जगह चाहिए। पाप से हटोगे तो पुण्य की भूमि चाहिए। उस पर खड़े हो जाना। लेकिन उस पर इतनी ज्यादा देर खड़े मत रहना कि फिर वहां घर बना लो। जैसे ही पाप समाप्त हो जाएं, पुण्य से भी छलांग लगा जाना। तब सब किनारे खो जाते हैं।
"यो वै भूमा तत्सुख'--और तब है सुख विराट में। "नाल्पे सुखमस्ति'--लघु में सुख कहां! "भूमैव सुख'--उस भूमा में ही सुख है।
उस भूमा की ही हम जिज्ञासा करें, उस भूमा को ही हम खोजें! वह भूमा हममें छुपा है। वह स्वतंत्रता हमारा स्वभाव है।

आज इतना ही।


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