जीवन
तैयारी है, मृत्यु
परीक्षा है—प्रवचन—चौदहवां
जिन सूत्र--(भाग--2)
प्रश्नसार:
1—भगवान
श्री की आंखों
से निरंतर आशीर्वाद
की वर्षा। उनके
दृष्टि पात मित्र
से शरीर में कंपन
व अंतर्तम में
बर्छी की चुभन।
मृत्यु घटित होती—सी
लगती है। फिर भी
आत्यंतिक—मृत्यु
क्यों नहीं?
2—भगवान
श्री के सान्निध्य
से भीतर प्रेम—प्रवाह
प्रारंभ—हर व्यक्ति,
हर वस्तु के प्रति।
प्रेम पूरित होकर
किसी से गले लगने
को बढ़ने पर दूसरे
द्वारा संकोच
व अनुत्साह, प्रश्न कर्ता
का पीछे हाट जाना।
मार्गदर्शन की
मांग।
3—तूने
आटा लगाया और फंसाया। अब
हम अकेले तड़प
रहे है। जिम्मेवार
कौन?
4—भगवान
श्री, तेरी रजा
पूरी हो।
पहला
प्रश्न:
आपकी
आंखों से
निरंतर
आशीर्वाद
बरसता-सा प्रतीत
होता है, मधुर और
सलोना।
श्रोताओं पर
आपकी आंखें
घूमती हैं और
जैसे ही मुझ
पर पड़ती हैं, लगता है कोई बर्छी
मेरे अंतर्तम
में छिद गयी।
सारा शरीर
कांप जाता है।
मृत्यु-सी
घटित होती है।
लेकिन आत्यंतिक-मृत्यु
क्यों नहीं घट
जाती?
वह
भी घटेगी।
थोड़ी
प्रतीक्षा, थोड़ी बाट जोहनी
होगी।
प्रारंभ हो
गया है।
धीरे-धीरे
मरने की कला
आती है। इतना
साहस नहीं
होता कि एक
छलांग में
आदमी मर जाए।
रत्ती-रत्ती
छूटता है।
लेकिन एक-एक
कदम से चलकर
हजारों मील की
यात्रा पूरी
हो जाती है।
इसलिए चिंता
का कोई कारण
नहीं है।
और
ध्यान
निश्चित ही
मृत्यु जैसा
है। क्योंकि
जिसे हमने
जीवन कहा है
वह जीवन नहीं
है। और जिसे
हमने अब तक
मृत्यु समझा
है वह मृत्यु
नहीं है। हम
बड़े धोखे में
हैं। जिसे हम
जीवन कहते हैं, वह केवल एक
सपना है। और
जिसे हम
मृत्यु कहते
हैं, वह है
केवल इस सपने
का टूट जाना।
लेकिन चूंकि सपने
को हम सत्य
मानते हैं, जोर से पकड़ते
हैं उसे, छाती
से लगाये रखते
हैं उसे। जीवन
को जोर से पकड़ने
के कारण ही
मौत दुखदायी
मालूम होती
है। अन्यथा
मृत्यु में
कोई दुख नहीं
है। मृत्यु
विश्राम है, विराम है।
जीवन को गलत
समझा है, इसलिए
मृत्यु के
संबंध में भी
गलत दृष्टि बन
गयी है।
ध्यान
है मृत्यु को
ठीक-ठीक जानना, पहचानना।
अहंकार को
धीरे-धीरे
डुबाना और खोना।
जहां तुम नहीं
होते, वहीं
परमात्मा
होता है। जहां
तुम मिटे, परमात्मा
हुआ।
तुम्हारे
मिटे बिना वह
हो भी नहीं
सकता। तुम
बहुत जगह घेरे
हो। उसके लिए
अवकाश नहीं है
भीतर आने को। मिटो, मरो,
विदा होओ, ताकि वह आ
सके। और तुम
ही तुम्हारी
बीमारी हो।
लेकिन इस
बीमारी को
तुमने अपना
शृंगार समझा है।
इस अहंकार को
तुमने अपनी
आत्मा समझा
है। इससे भूल
हो रही है।
जो
मेरे पास
आयेंगे, वे
चाहे किसी
कारण से मेरे
पास आ रहे हों,
मैं उन्हें
पास मरने के
लिए ही बुला
रहा हूं। मैं
उन्हें स्वाद
देना चाहता
हूं मृत्यु
का। एक बूंद
भी तुम चख लो
मृत्यु की, तो मृत्यु
के द्वार से
ही अमृत की
पहली झलक मिलती
है। मृत्यु के
आवरण में छिपा
है अमृत। मृत्यु
की ओट में छिपा
है परमात्मा।
जब
मंसूर को सूली
लगी, तो वह
आकाश की तरफ
देखकर
खिलखिलाकर
हंसने लगा।
किसी ने पूछा
उस भीड़ में से
जो उसकी हत्या
कर रही थी कि
क्या देखकर
हंस रहे हो? तो मंसूर ने
कहा, तुम
जिसे मृत्यु
समझ रहे हो, वह मेरे
परमात्मा से
मेरा मिलन का
द्वार है। उसे
मैं खड़ा देख
रहा हूं। वह
हाथ फैलाये बाहुओं
में लेने को
तत्पर है। तुम
यहां मुझे
मारो कि वहां
मैं उसके
आलिंगन में
गिरा। इसलिए
हंस रहा हूं
कि तुम्हें
किसी को
दिखायी नहीं
पड़ता! वह
बिलकुल सामने
खड़ा है। इधर
मेरे मरने की
देर है कि उधर
मिलन हुआ।
जल्दी करो, देर क्यों लगा
रहे हो?
जिन्होंने
भी स्वयं को
जाना, उन्होंने
जाना, मृत्यु
कचरे को ले
जाती है, सोने
को तो छोड़
जाती है।
व्यर्थ को बहा
ले जाती है, सार्थक को
तो निखार जाती
है, साफ-सुथरा
कर जाती है।
मृत्यु वरदान
है। और जिसे
मृत्यु में भी
वरदान दिख गया,
उसे फिर
कहां वरदान न
दिखेगा! जिसने
मृत्यु में भी
परमात्मा के
हाथ देख लिये,
स्वभावतः
जीवन में तो
उसके हाथ देख
ही लेगा। उसने
आखिरी कसौटी
पार कर ली।
जब तक
तुम मृत्यु
में जीवन का
सूत्र न खोज
लोगे, तब तक
तुम्हें
बार-बार
जन्मना होगा,
मरना होगा।
तुम फिर-फिर
भेजे जाओगे, क्योंकि
परीक्षा में
तुम उत्तीर्ण
नहीं होते।
जीवन तैयारी
है, मृत्यु
परीक्षा है।
परीक्षा अंत
में है, स्वभावतः।
जीवनभर
तैयारी करते
हैं हम, तैयारी
किसलिए? कभी सोचा
मृत्यु अंत
में क्यों आती
है? परीक्षा
को अंत में
आना ही होगा।
मृत्यु जीवन की
समाप्ति नहीं
है। जीवनभर
में तुमने कुछ
सीखा, कुछ
जाना, कुछ निचोड़ा, कुछ सार हाथ
आया, इसकी
परीक्षा है।
अगर कुछ सार
हाथ आया हो, तो मृत्यु
तुम्हें मार
नहीं पाती।
अगर कुछ भी हाथ
न आया हो, तो
मृत्यु
तुम्हें मार
पाती है। फिर
फेंके जाते हो
जन्म में। जो
मृत्यु से
चूका, फिर जन्मेगा।
मृत्यु
से चूकने के
कारण ही जन्म
है। जो मृत्यु
को जागकर
जी लिया, सौभाग्य
से जी लिया, जिसने
मृत्यु को
आत्मसात कर
लिया; जो
मरा तन्मयता
से, आनंद
से, अहोभाव
से, जिसने
मृत्यु में भी
परमात्मा के
हाथ फैले देख
लिये, फिर
उसका कोई जन्म
नहीं है।
इसलिए मैं
कहता हूं, ध्यान
तो मृत्यु को
ही सीखना है।
स्वेच्छा से
सीखना है। और
अभी तुम न सीखोगे
तो मौत जब
आयेगी, तो
अचानक तुम
अपने को तैयार
न कर पाओगे।
मौत तो
अचानक आती है, अकस्मात, कोई खबर
नहीं देती, कोई
पूर्व-संदेशा
नहीं भेजती।
एक दिन अचानक
द्वार पर खड़ी
हो जाती है:
तुम
अस्त-व्यस्त!
तुम चलने को
तैयार भी नहीं
होते, बोरिया-बिस्तर
भी बांधा नहीं
होता, व्यर्थ
से सार्थक को छांटा
नहीं होता, सार से असार
को अलग नहीं
किया होता, सब उलझा पड़ा
होता है--बीच
में मौत आकर
खड़ी हो जाती
है। क्षणभर
का समय भी
नहीं देती कि
तुम जमा लो, कि तुम
तैयारी कर लो,
कि तुम
पाथेय जुटा लो,
कि आनेवाली
लंबी यात्रा
के लिए तुम
अपने को तत्पर
कर लो, एक
क्षण का अवकाश
नहीं; मौत
आयी--समय गया।
मौत के आते ही
समय नहीं बचता।
अकस्मात
आनेवाली यह
मृत्यु, इसकी
अगर तुमने
जीवन में
रोज-रोज
तैयारी न की, तो जैसा
पहले भी इसने
तुम्हें गैरत्तैयार
पाया, इस
बार भी
पायेगी।
फिर चूकोगे, फिर उतरोगे
जन्म के गङ्ढे
में, फिर भटकोगे
इन्हीं
अंधेरी
गलियों में, फिर इन्हीं
कंटकाकीर्ण
मार्गों पर, फिर इन्हीं
वासनाओं की, इन्हीं
क्रोध-कामनाओं
की, लोभ, मद-मत्सर की
भीड़ में फिर
खो जाओगे।
इसलिए
कहता हूं, ध्यान
मृत्यु है। और
अगर तुमने
मुझे गौर से
देखा, तो
उस गौर के
क्षण में
ध्यान की
थोड़ी-सी झलक
तुम्हें
आयेगी। अगर
तुमने शांत
होकर मुझे
देखा, तो
शांति के क्षण
में बर्छी
चुभेगी।
चुभनी ही
चाहिए। वही
प्रयोजन है
मेरा और तुम्हारा
यहां होने का
कि मैं
तुम्हें थोड़े
मृत्यु के
दर्शन दे दूं।
और एक बार
तुम्हें
मृत्यु की झलक
आने लगे और रसधार
बहने लगे, और
तुम देखो कि
अरे, कैसा
नासमझ था, मृत्यु
तो वरदान है, अब तक मैंने
अभिशाप समझा!
बस, फिर
तुम्हें कोई
डिगा न सकेगा।
फिर तुम चल
पड़े सीधी डगर
पर। फिर मिली
राह। अब
तुम्हारी
दिशा उचित
हुई।
जैसे-जैसे
मृत्यु का रस
बढ़ने लगेगा, वैसे-वैसे
जिसे तुम जीवन
कहते हो, इससे
हाथ छूटने
लगेंगे। मैं
तुमसे यह नहीं
कहता कि त्यागो।
मैं तो सिर्फ
इतना ही कहता
हूं, जागो। जैसे-जैसे
जागोगे, त्याग
घटता है। किया
त्याग भी कोई
त्याग है! करना
पड़े, बात
ही व्यर्थ हो
गयी! हो जाए।
दृष्टि से हो,
दर्शन से
फले, बोध
का परिणाम हो।
इधर तुम जागो,
उधर जागने
की छाया की
तरह त्याग भी
घटे। स्वाभाविक
है कि जब कोई
चीज व्यर्थ
दिखायी पड़ जाए,
हाथ से छूट
जाए; मुट्ठी
खुल जाए, गिर
जाए। उसे
त्याग क्या
कहना! छूट
गयी। छोड़ा, ऐसा क्या
कहना! छोड़ने
जैसा क्या है!
कचरे में न पकड़ने
जैसा है कुछ, न छोड़ने
जैसा है कुछ।
लेकिन यह तो
मृत्यु के स्वाद
से ही संभव
होगा।
तो
यहां मेरे पास
जब होओ, तब
सच ही मेरे
पास हो जाओ।
तब कोई दूरी
मत रखो। तब
बीच में
विचारों का
व्यवसाय न
चलने दो। तब चिंतन
की धारा मत
बहने दो। तब
हटाकर सब
बदलियों को
सीधा-सीधा
मुझे देखो!
यहां मैं नहीं
हूं। जैसे ही
तुम सीधा-सीधा
मुझे देखोगे,
नहीं होने
की एक लहर
तुममें भी
उठेगी। इधर
मैं मिटा हूं,
अगर मेरे
साथ संगसाथ क्षणभर को
भी साधा, तो
उधर तुम भी
पाओगे कि
मिटने लगे।
सत्संग
का इतना ही
अर्थ है, किसी
ऐसे व्यक्ति
के सान्निध्य
में मिटने की
कला सीख लेना,
जो मिट गया
हो। किसी
शून्य के पास
बैठकर शून्य
होने का अनुभव
ले लेना।
शुरू-शुरू में
जरूरत है
सहारे की।
अकेले तो तुम
बहुत घबड़ाओगे।
इधर मैं हूं, तो तुम्हें
भरोसा है कि
आदमी मिट भी
जाए तो भी होता
है, घबड़ाने की कोई बात
नहीं। वस्तुतः
जितना मिट जाए,
उतना ही प्रगाढ़ता
से होता है।
जब कोई आदमी
बिलकुल शून्य
हो जाता है, तो पूर्ण हो
जाता है। इस
आश्वासन में
बंधे तुम मेरे
करीब आ सकते
हो। बिना इस
आश्वासन के
तुम बहुत डरोगे।
तुम नाव को
किनारे से छोड़ोगे
नहीं। तुम
किनारे को जकड़े
रहोगे।
ठीक हो
रहा है। छुरी
चुभती है, चुभने दें। और
आकांक्षा भी
ठीक है। वह
आकांक्षा सूचक
है कि छुरी को चुभने
दिया है। पूछा
है, आत्यंतिक-मृत्यु
कब घटित होगी?
घबड़ाओ मत, वह भी
होगी। चले
चलो। राह पर
हो।
सत्संग
का जिसे सुख आ
गया, उसकी भावदशा
ऐसी हो जाती
है--
कुछ
न हुआ, न हो
मुझे
विश्व का सुख, श्री, यदि
केवल
पास
तुम रहो।
मेरे
नभ के बादल
यदि न कटे--
चंद्र
रह गया ढंका,
तिमिर
रात को तिरकर
यदि न अटे
लेश
गगन भास का,
रहेंगे
अधर हंसते, पथ पर, तुम
हाथ
यदि गहो।
कुछ
न हुआ, न हो
रहेंगे
अधर हंसते, पथ पर, तुम
हाथ
यदि गहो।
बहु
रस साहित्य विपुल
यदि न पढ़ा--
मंद
सबों ने कहा,
मेरा
काव्यानुमान
यदि न बढ़ा--
ज्ञान, जहां का
तहां रहा,
रहे, समझ है
मुझमें पूरी,
तुम
कथा
यदि कहो।
अगर, तुमने
फैलाया अपने
प्राणों का
सेतु मेरी तरफ,
तुमने अगर
हाथ मेरी तरफ
बढ़ाया--मेरा
हाथ बढ़ा ही
है--मैं
तुम्हारे हाथ
गहने को तैयार
हूं।
प्रतीक्षा है
बस तुम्हारे
हाथ के बढ़ने
की। हाथ से
हाथ भी छू
जाएगा, तो
छुरी लगेगी।
हाथ में हाथ
पकड़ आ जाएगा, तो आत्यंतिक
मृत्यु भी
घटेगी। अब तुम
जिनको भी ऐसा
हो रहा
हो--उन्हें
जानना चाहिए
कि सौभाग्यशाली
हैं, कुंजी
हाथ में आने
लगी। देर न
लगेगी ताले खोल
लेने में।
छोटी-सी कुंजी
होती है, बड़े
से बड़े विराट
महलों के ताले
खुल जाते हैं।
छोटी-सी कुंजी
होती है, बड़े-बड़े
द्वार खुल
जाते हैं। यह
जो अभी छोटी-सी
छुरी की तरह
छिदती मालूम
पड़ती है, यह
कुंजी है। इसी
राह चले चले, तो महामृत्यु
घटेगी। भागना
भर मत। घबड़ाना
भर मत।
साधक
अपनी मृत्यु
खोज रहा है।
परमात्मा का
तो हमें पता
नहीं। इतना ही
पता है कि हम
जो हैं, गलत
हैं। इस गलत
को मिटाने के
लिए साधक
आकांक्षा कर
रहा है। इस
आशा में कि जब
गलत मिटेगा, तो जो शेष
रहेगा, ठीक
होगा। प्रकाश
का हमें कुछ
पता नहीं, यह
अंधेरा हमें
खूब भटका लिया
है, इतना
हमें पता है।
यह अंधेरा न
रहेगा, तो
जो बचेगा वह
प्रकाश होगा,
यही हम सोच
सकते हैं, यही
हम कामना कर
सकते हैं।
साधक
ने जीवन तो
देखा--तुम सब
ने जीवन
देखा--चारों
तरफ जीवन का
सपना
तुम्हारे
फैला है, पाया
क्या? सब
पा लिया हो तो
भी कुछ नहीं
मिलता। जो कुछ
नहीं पा पाते
वे तो नंगे रह
ही जाते हैं, खाली रह ही
जाते हैं, जो
सब पा लेते
हैं वे भी
खाली रह जाते
हैं। इस जीवन
की जैसे ही
समझ साफ होती,
वैसे ही
आदमी सोचता है
कि यह जीवन तो
देख लिया, अब
मृत्यु को भी
देख लें। शायद
जो यहां नहीं,
वहां हो।
इधर खोजा, इस
राह पर खोजा, नहीं मिला, विपरीत राह
पर खोज लें।
अपने से दूर
जाकर देख लिया,
अब अपने पास
आकर देख लें।
बाहर जाकर देख
लिया, अब
भीतर आकर देख
लें। विचार
करके, चिंतन-मनन
करके देख लिया,
अब ध्यान
करके देख लें।
होने की प्रगाढ़
आकांक्षा
करके देख ली, अब न होने की
कामना करके
देख लें। वह न
होने की कामना
ही प्रार्थना
है।
जैसे-जैसे
मृत्यु
इंच-इंच
तुममें
प्रवेश करेगी, तुम पाओगे
मृत्यु के
बहाने
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर आने लगा।
वह सदा मृत्यु
के बहाने ही आता
है। वह केवल
उनके पास ही
आता है, जो
मरने को तत्पर
हैं। जो कहते
हैं तेरे बिना
जीना, इसके
लिए हम राजी
नहीं। तेरे
साथ मरने को
राजी हैं, तेरे
बिना जीने को
राजी नहीं। जो
ऐसा दांव लगाता
है, वही
उसे पाता है।
तुम
मुझमें प्रिय!
फिर परिचय
क्या!
जैसे-जैसे
उसकी थोड़ी-सी
किरणें
तुम्हारे भीतर
प्रवेश करती
हैं, तो पहले
तो किरणें
मारती हैं, मिटाती हैं,
जलाती हैं।
तुम
मुझमें प्रिय!
फिर परिचय
क्या!
तारक
में छवि
प्राणों में
स्मृति
पलकों
में नीरव पद
की गति
लघु
उर में पुलकों
की संसृति
भर
लायी हूं तेरी
चंचल
और
करूं जग में
संचय क्या!
थोड़ा-सा
परमात्मा
संचय कर लो--
भर
लायी हूं तेरी
चंचल
लघु
उर में पुलकों
की संसृति
और
करूं जग में
संचय क्या!
तेरा
अधर-विचुंबित
प्याला
तेरी
ही
स्मित-मिश्रित
हाला
तेरा
ही मानस
मधुशाला;
फिर
पूछूं
क्यों मेरे
साकी!
देते
हो मधुमय
विषमय क्या!
परमात्मा
का हाथ
तुम्हारे
पहचानने में
आने लगे, फिर
तुम न
पूछोगे।
फिर
पूछूं
क्यों मेरे
साकी
देते
हो मधुमय
विषमय क्या!
फिर उस
प्याली में जो
भी हो; मृत्यु
सही, तो महाजीवन
है। जहर अमृत
है। फिर मिटा
डाले वह तो
यही तुम्हारे
निर्माण की
प्रक्रिया
है। नष्ट कर
डाले, प्रलय
में डाल दे
तुम्हें, तो
यही तुम्हारा
सृजन है।
सुनार
सोने को आग
में डालता है।
अगर सोने के
पास भी थोड़ी
बुद्धि होती, तो चिल्लाता,
तड़फता,
कहता यह
क्या करते हो,
मार ही
डालोगे क्या?
लेकिन सोने
को पता भी
कैसे हो कि
यही शुद्ध स्वर्ण
बनने की
प्रक्रिया
है। ऐसे, आग
में गुजरकर ही
जो शेष रह
जाएगा, वही
कुंदन है।
मरकर भी
तुम्हारे
भीतर जो नहीं मरता,
वही आत्मा
है। मिटकर
भी जो
तुम्हारे
भीतर नहीं
मिटता, वही
तुम्हारा
वास्तविक
होना है।
मृत्यु
से गुजरना ही
होगा। मेरे
पास तुम अगर और
कुछ सीखकर
गये, तो तुम कूड़ा-कर्कट
बीनकर
चले गये। अगर
मौत सीखकर
गये, तो
तुमने कुंजी
ले ली।
हमने
भारत के परम
रहस्यवादी
ग्रंथों को उपनिषद
कहा है।
उपनिषद का
अर्थ होता है, गुरु के पास
होना। उपनिषद
का अर्थ होता
है, पास
बैठना। बस
इतना।
पास
बैठने से क्या
हो जाएगा?
जो मिट
गया है, उसके
पास बैठने से
तुम्हारे
भीतर भी मिटने
का साहस
जगेगा। जो मिट
गया है उसके
पास बैठने से,
उसकी खाई
में झांकने से,
उसकी अतल
गहराई में
झांकने से तुम
भी खिंचने
लगोगे अतल
गहराई की तरफ।
जो मिट गया है
उसे देखकर
तुम्हें पता
चलेगा कि जो
मिट गया है, कैसा कमलवत
हो गया है; मरकर
कैसे महाजीवन
का अवतरण हो
जाता है!
इस जगत
में सबसे कठिन
बात यह भरोसा
है कि मरकर भी
मैं बचूंगा।
यह बड़ी से बड़ी
श्रद्धा है कि
मरकर मैं
बचूंगा।
जिसको यह
भरोसा आ गया, वही धार्मिक
है। और जो इस
भरोसे के
सहारे पर चल
पड़ा, साधक
है। जो पहुंच
गया, उसे
हम सिद्ध कहते
हैं।
रोम-रोम
में नंदन
पुलकित
सांस-सांस
में जीवन
शत-शत
स्वप्न-स्वप्न
में विश्व
अपरिचित
मुझमें
नित बनते मिटते
प्रिय
स्वर्ग
मुझे क्या
निष्क्रिय लय
क्या;
फिर
पूछूं
क्यों मेरे
साकी!
देते
हो मधुमय
विषमय क्या!
मृत्यु
दे रहा हूं
तुम्हें, ले
लेना। दो खयाल
रखना। एक, घबड़ाकर
बचाने में मत
लग जाना। उस
बचाने की
प्रक्रिया
में तुम्हारे
भीतर हजार
तर्क उठते हैं,
हजार संदेह
उठते हैं। वे
तर्क और संदेह
केवल निमित्त
मात्र हैं, वस्तुतः
गहरे में तुम
बचना चाहते हो,
भागना
चाहते हो।
भागने के लिए
कोई रेशनलाइजेशन,
कोई
बुद्धिगत
उपाय खोजते
हो। तो एक तो
इससे बचना। और
दूसरी बात, स्वाभाविक
है कि
आकांक्षा उठे
कि थोड़ी-थोड़ी
मृत्यु घटती
है, ऐसा रस
आ रहा है, पूरी
क्यों नहीं घट
जाती! उसकी
बहुत ज्यादा
चाहना मत
करना। उसकी
प्रतीक्षा
करना, चाहना
नहीं।
क्योंकि
चाहने से बाधा
पड़ेगी। और देर
लगेगी।
कुछ
ऐसा है कि
जहां से चाह
आती है, वह
मृत्यु का
स्रोत नहीं
है। जहां से
चाह आती है, वहीं
जीवेषणा है।
एक क्षण को
तुमने मेरी
आंख में देखा,
या मैंने
तुम्हें
देखा। एक
धक्का लगा, एक सुख की
तरंग उठी, कुछ
चुभा
हृदय में।
पीड़ा भी हुई, लेकिन मीठी
हुई। जो पीड़ा
को देखेगा
सिर्फ, वह
भाग खड़ा होगा।
जो मिठाई को
देखेगा सिर्फ,
वह और की
मांग करने
लगेगा। लेकिन
दोनों डांवांडोल
हो गये।
तुमने सुना, जीसस को जब
सूली लगी तो
उनके दोनों
तरफ दो चोरों
को भी सूली दी
गयी। जीसस बीच
में थे, सूली
पर लटके, दोनों
तरफ दो चोरों
को भी सूली दी
गयी थी। जिनने
ऐसा आयोजन
किया था, उनका
तो केवल अर्थ
इतना ही था कि
वे जीसस को भी एक
चोर-लफंगे
से ज्यादा
नहीं समझते।
इसलिए दो
चोरों के
साथ-साथ सूली
दी थी। लेकिन,
ईसाई संतों
ने बड़ी अनूठी
बात इस
साधारण-सी घटना
में खोज ली।
यह साधारण-सी
घटना एक गहरा
बोध-प्रसंग बन
गयी।
जैकब बहुमे ने
कहा है कि
जीसस के दोनों
तरफ दो चोर
खड़े हैं, लटके
हैं सूली पर, अगर तुम जरा
बायें झुककर
नमस्कार किये
तो चोर को
नमस्कार हो
गयी, दायें
झुककर
नमस्कार किये
तो चोर को
नमस्कार हो
गयी। ठीक बीच
में रहे तो ही
तुम्हारा
नमस्कार जीसस
को पहुंचेगा।
यह तो बड़ी
मीठी बात कही बहुमे ने।
जरा इधर-उधर
हुए कि चूके।
सत्य मध्य में
है। दोनों तरफ
चोर हैं।
दोनों तरफ
असत्य है। परमात्मा
मध्य में है, दोनों तरफ
शैतान है।
तो न
तो भाग जाना घबड़ाकर, न बहुत
वासना से भरकर
मेरी तरफ
भागने लगना।
दोनों हालत
में चूक हो
जाएगी, क्योंकि
दोनों अतियां
हैं। तुम जहां
हो वहीं शांति
से, स्वीकार-भाव
से प्रतीक्षा
करना। वहीं नत
हो जाना, वहीं
तुम्हारा सिर
झुके। न तो
तुम कहना कि
मैं चाहता हूं
ऐसा हो, न
तुम कहना मैं
चाहता हूं
वैसा हो। तुम
कहना, अब
मैं कुछ चाहता
ही नहीं। चाह
को तुम हटा
लेना।
क्योंकि चाह
डांवांडोल कर
देगी। चाह
कंपित कर
देगी। तुम बेचाह
होकर, जो
घटे उसके
स्वीकार-भाव
से भरना।
इसे
समझो। चाह में
अस्वीकार है। बेचाह में
स्वीकार है।
जब तुम कहते
हो, जो हो
उसके लिए मैं
राजी हूं, तो
मृत्यु, आत्यंतिक-मृत्यु
भी जल्दी
घटेगी। लेकिन
तुमने कहा कि
जल्दी घटे, तुम यह कह
रहे हो कि मैं
अपनी
आकांक्षा जो
घट रहा है
उसके ऊपर रखता
हूं। यह अपनी
आकांक्षा को
घटने के ऊपर
रखना ही जीवेषणा
है। तो मौत
नहीं घटेगी, देर लग
जाएगी। मांगा,
तो देर लग
जाएगी।
छोड़ो
परमात्मा पर, जो दे रहा है
उसके लिए
धन्यवाद दो।
जो नहीं दे रहा
है, जानो
कि अभी तैयारी
न होगी।
क्योंकि जब
फसल के पकने
का समय आ जाता
है, फसल
पकती ही है।
सभी चीजें
अपने समय पर
पक जाती हैं।
और हर
बात की घड़ी, हर बात का
बंधा हुआ क्रम
है। छलांगें
नहीं लगतीं।
क्रमिक, धीरे-धीरे,
आहिस्ता-आहिस्ता
तैयारी होती
है। क्योंकि तुम
अगर तैयार न
हो और कुछ
तुम्हें मिल
जाए, तो
तुम गंवा
दोगे। तुम अगर
तैयार न हुए
और कुछ तुम्हारी
अपात्रता में
गिरा, तो
नष्ट हो जाएगा।
धीरे-धीरे, आहिस्ता-आहिस्ता
चुभने दो
इस छुरी को।
इसकी पीड़ा को
भी स्वीकार
करो, इसके
प्यार को भी
स्वीकार करो।
इसकी पीड़ा भी,
इसकी मिठास
भी। तुम चुनो
मत। जितना हो
रहा है, उसके
लिए धन्यवाद;
जो नहीं हो
रहा है, उसके
लिए भरोसा कि
होगा। ऐसी
श्रद्धा से जो
चलता है, वह
एक दिन मिट भी
जाता है और मिटकर
सर्वांग
सुंदर भी हो
जाता है।
दूसरा
प्रश्न:
जबसे
आपके शिष्यों
का, आपके
साहित्य का और
अंततः आपका ही
संपर्क उपलब्ध
हुआ है, मेरे
जीवन में
प्रेम का
प्रवाह आरंभ
हो गया है। हर
आदमी, हर
चीज अच्छी
लगने लगी है।
परंतु कई बार
जब मैं प्रेम
से भरकर दूसरे
के गले मिलना
चाहता हूं, तो वह दूसरा सकुचा
जाता है और
फिर मैं पीछे
हट जाता हूं।
कृपया बतायें
कि ऐसे समय
में मैं क्या
करूं?
प्रेम
नाजुक बात है।
प्रेम को अगर
ठीक से समझा, तो उसमें यह
बात समाहित है
कि दूसरे का
ध्यान रखना।
प्रेम का अर्थ
ही यह होता है
कि दूसरे का
ध्यान रखना।
तुम
किसी के गले
लगना चाहते हो, लेकिन दूसरा
लगना चाहता है
या नहीं? इतना
काफी नहीं है
कि तुम गले
लगना चाहते
हो। शुभ है कि
तुम्हारे
हृदय में गले
लगने का भाव जगा।
धन्यभागी
हो! आभारी बनो
प्रभु के।
लेकिन इतने से
जरूरी नहीं है
कि दूसरे को
तुम्हारे
कंधे लगना ही
पड़ेगा। तब तो
प्रेम न हुआ, तब तो
बलात्कार
हुआ। तब तो
तुमने दूसरे
के साथ
जबर्दस्ती की,
यह तो हिंसा
हो गयी। यह तो
प्रेम के
बहाने हिंसा
हो गयी।
प्रेम
तो
रत्ती-रत्ती
संभलकर चलता
है, इंच-इंच
संभलकर चलता
है। प्रेम तो देखता
है कि दूसरा
कितने दूर तक
चलने को राजी है,
उससे इंचभर
ज्यादा नहीं
चलता।
क्योंकि
प्रेम का अर्थ
ही है कि
तुम्हें
दूसरे का खयाल
आया। दूसरे का
मूल्य! दूसरा
साध्य है, साधन
नहीं! तुम गले
लगना चाहते हो;
दूसरा लगना
चाहता है या
नहीं? दूसरे
को देखकर कदम
उठाना। और
धीरे-धीरे कदम
उठाना, अन्यथा
दूसरा घबड़ा ही
जाएगा। तब
तुम्हारा प्रेम
आक्रमण जैसा
मालूम पड़ेगा।
तुमने दूसरे की
चिंता ही न
की। तुम इतनी
देर भी न रुके
कि पूछ तो
लेते कि मैं
पास आता हूं, आ जाऊं?
प्रेम
सदा द्वार पर
दस्तक देता
है। पूछता है, क्या भीतर आ
सकता हूं? अगर
इनकार आये, तो
प्रतीक्षा
करता है, नाराज
नहीं हो जाता।
क्योंकि यह
दूसरे की स्वतंत्रता
है। दूसरे का
स्वत्व है, अधिकार है
कि वह कब
तुम्हारे गले
लगे, कब न
लगे। तुम्हें
प्रेम का अवरतण
हुआ है, उसे
तो नहीं हुआ।
तुम्हारे
भीतर प्रेम
फैलना शुरू
हुआ है, उसे
तो तुम्हारे
प्रेम का कोई
पता नहीं। और
वह दूसरा व्यक्ति
तो प्रेम के
नाम पर इतने
धोखे खा चुका
है कि उसे
क्या पता कि
फिर कोई नया
धोखा नहीं पैदा
हो रहा है।
प्रेम के नाम
पर ही लोगों
को सताया गया
है, इसलिए
लोग सकुच गये
हैं। मां ने
किया प्रेम, बाप ने किया
प्रेम, भाई
ने किया प्रेम,
पत्नी ने
किया प्रेम, मित्रों ने
किया प्रेम, और सबने
प्रेम के नाम
पर चूसा, और
सबने प्रेम के
नाम पर
तुम्हारी
छाती पर पत्थर
रखे। बहाना
प्रेम था, काम
कुछ और लिया।
जिसने भी कहा,
मुझे तुमसे
प्रेम है, उसी
से तुम डरने
लगे। क्योंकि
अब कुछ और
होगा! इस प्रेम
के पीछे छिपा
हुआ कोई न कोई
रोग होगा।
रोगी
आदमी के प्रेम
में भी रोग
होता है।
स्वाभाविक
है। कुछ और
होता है! बाप
अपने बेटे से
कहता है कि तू
देख, पढ़-लिख, बड़ा बन, प्रतिष्ठित
हो। तुझसे
मेरा प्रेम है
इसलिए यह कह
रहा हूं।
लेकिन बेटा
अगर
अप्रतिष्ठित
हो जाए, बड़े
पदों पर न
पहुंचे, तो
प्रेम खो जाता
है। तो
प्रतिष्ठा से
प्रेम होगा, बेटे से
कहां प्रेम
है!
महत्वाकांक्षा
से प्रेम होगा;
शायद, मेरा
बेटा है, खूब
प्रशंसा पाये,
इससे प्रेम
होगा, क्योंकि
इसके बहाने
मेरा अहंकार
भी तृप्त होगा।
मेरा बेटा
प्रधानमंत्री
हो गया, राष्ट्रपति
हो गया, तो
यह अहंकार की
ही यात्रा हुई
प्रेम के
द्वारा। यह
प्रेम नहीं।
यह प्रेम के
पीछे
महत्वाकांक्षा
का रोग है।
प्रेम तो कुछ
भी नहीं
मांगता, देता
है।
पत्नी
कहती है, मैं
तुम्हें
प्रेम करती
हूं। पति कहता
है, मैं
तुम्हें
प्रेम करता
हूं। और
जैसे-जैसे प्रेम
के जाल में
दूसरा फंसता
है, पता
चलता है कि यह
तो फांसी हो
गयी। पत्नी
स्वतंत्रता
मार डालती है
पति की
बिलकुल।
हिलने-डुलने
योग्य भी नहीं
रहने
देती--पंगु कर
देती है।
पक्षाघात! पति
पत्नी की
स्वतंत्रता
मार डालता है।
दोनों
एक-दूसरे के
गुलाम हो जाते
हैं।
प्रेम
गुलामी देता
है? प्रेम
स्वतंत्रता
देता है।
प्रेम
स्वतंत्रता
में सहारा
देता है।
प्रेम चाहता
है, तुम्हें
जो सुखद हो, करो। यह
प्रेम नहीं है,
कुछ और है।
यह प्रेम के
नाम पर दूसरे
पर मालकियत
करने का सुख
है। यह हिंसा
है। दूसरे को
वस्तु बना
देना, परिग्रह
बना लेना
हिंसा है।
पति-पत्नी
निरंतर कलह
में लगे रहते
हैं। कलह क्या
है? कलह यही
है कि कौन किस
पर मालकियत
करके दिखा दे!
कौन छोटा है, कौन बड़ा है?
जीवनभर
संघर्ष चलता
है पति-पत्नी
में। संघर्ष
एक ही बात का
है कि मालिक
कौन है? ऐसे
पत्नी कहती है,
तुम्हारी
दासी। पर यह
शब्द ही है, ऐसा स्वीकार
नहीं करती।
ऐसा दासी कहकर
भी पैर पकड़ने
से शुरू करती
है, गर्दन
पर समाप्त
करती है। आखिर
में गर्दन दबा
लेती है।
प्रेम
से इतने कांटे
चुभे हैं
लोगों को, और प्रेम के
नाम पर
इतना-इतना दुख
लोगों ने पाया
है कि जब भी
तुम कहोगे कि
मुझे तुमसे
प्रेम हो गया
है और हाथ फैलाओगे,
दूसरा सकुचा
जाए, आश्चर्य
नहीं है।
दूसरे का
ध्यान रखना।
और एक खयाल
रखना कि प्रेम
जब भी आक्रामक
होता है, तो
दूसरे को घबड़ा
देता है।
प्रेम में
आक्रमण होना
ही नहीं
चाहिए।
आक्रमण होते
ही प्रेम में हिंसा
समाविष्ट हो
जाती है। अब
राह चलते किसी
अजनबी को तुम
जबर्दस्ती
गले लगाकर
आलिंगन कर लो,
तो वह
पुलिस-थाने
में खबर करेगा
कि यह आदमी पागल
है। कुछ
लेना-देना
नहीं है
मुझसे!
तुम्हारे
भीतर प्रेम का
अवतरण हुआ है, लेकिन जब
तुम दूसरे को
आलिंगन करते
हो तो दूसरा
भी समाविष्ट
हुआ। तुम
अकेले न रहे।
हां, तुम
एकांत अपने
कमरे में
बैठकर प्रेम
के गीत गुनगुनाना,
नाचना, कोई
मनाही नहीं
है। अन्यथा
तुमने प्रेम
का गलत अर्थ
समझा। और फिर
इस बात का भी
डर है कि तुम जिसे
प्रेम कह रहे
हो, वह
प्रेम है? या
कि वासना ने
नये रूप रखे? या वासना
नये ढंग लेकर
आयी? या
वासना ने
प्रेम का आवरण
पहना? क्योंकि
मेरी नजर ऐसी
है कि जब भी
तुम किसी व्यक्ति
की तरफ वासना
से भरकर देखते
हो, तो
दूसरा
सकुचाता है, डरता है, घबड़ाता
है; क्योंकि
वासना तो एक
कारागृह है।
और घबड़ाहट
स्वाभाविक
है। क्योंकि
वासना का अर्थ
ही यह होता है
कि तुम दूसरे
व्यक्ति का
उपयोग करना
चाहते हो। कोई
भी नहीं चाहता
उसका उपयोग
किया जाए।
उपयोग
का मतलब हुआ
कि तुमने
दूसरे
व्यक्ति को वस्तु
में बदल दिया।
उसकी आत्मा
मार डाली। उपयोग
तो वस्तुओं का
होता है, व्यक्तियों
का नहीं।
कुर्सी का
उपयोग होता है,
टेबल का
उपयोग होता है,
मकान का
उपयोग होता है,
व्यक्तियों
का तो नहीं।
जब भी तुम
वासना से किसी
की तरफ देखते
हो, तब
तुमने इस ढंग
से देखा कि
तुम कामवासना
के लिए इस
दूसरे
व्यक्ति का
उपयोग करना
चाहते हो। दूसरा
तत्क्षण सचेत
हो जाता है, सावधान हो
जाता है। वह
अपनी रक्षा
में लग जाता
है।
आक्रामक
प्रेम में डर
है कि कहीं
कामवासना
छिपी हो।
वास्तविक प्रेम
तो प्रार्थनापूर्ण
होता है, वासनापूर्ण नहीं होता।
वास्तविक
प्रेम को
दूसरे को गले
लगाना जरूरी
भी नहीं है।
वास्तविक
प्रेम तो एक आशीर्वाद
है। तुम किसी
के पास से
गुजरे, आशीर्वाद
से भरे हुए
गुजरे, काफी
है। आत्मा आत्मा
को गले लग गयी,
शरीर को
शरीर से लगाने
से क्या
प्रयोजन है!
कभी-कभी आत्मा
के गले लगने
के साथ-साथ
शरीर का गले
लगना भी घट
जाए, तो
शुभ है। लेकिन
वह घटे, घटाया
न जाए। कभी
ऐसा होगा कि
तुम बड़े
आशीर्वाद से
भरे हुए किसी
के पास से
निकलते थे और
उसके हृदय में
भी तुम्हारे
आशीर्वाद की
तरंगें पहुंचीं
और दोनों
एक-साथ किसी
अनजानी शक्ति
के वशीभूत
होकर एक-दूसरे
के गले लग
गये।
तो तुम
गले लगे ऐसा
नहीं, दूसरा
गले लगा ऐसा
नहीं, प्रेम
ने दोनों को
गले लगा दिया।
यह बड़ी और घटना
है। जब तुम
लगते हो गले, तो वासना
है। तुम्हारी
वासना के कारण
दूसरा हटेगा।
कृपा करके ऐसा
आक्रमण किसी
पर मत करना।
तुम दूसरे को
भयभीत कर
दोगे।
वासना
की आंख से
देखा जाना
किसी को भी
पसंद नहीं।
प्रेम की आंख
से देखा जाना
सभी को पसंद
है। तो दोनों
आंखों की
परिभाषा समझ
लो। वासना का
अर्थ है, वासना
की आंख का
अर्थ है कि
तुम्हारी देह
कुछ ऐसी है कि
मैं इसका
उपयोग करना चाहूंगा।
प्रेम की आंख
का अर्थ है, तुम्हारा
कोई उपयोग
करने का सवाल
नहीं, तुम
हो, इससे
मैं आनंदित
हूं।
तुम्हारा
होना, अहोभाग्य
है! बात खतम हो
गयी। प्रेम को
कुछ लेना-देना
नहीं है।
वासना कहती है,
वासना की
तृप्ति में और
तृप्ति के बाद
सुख होगा; प्रेम
कहता है, प्रेम
के होने में
सुख हो गया।
इसलिए प्रेमी
की कोई मांग
नहीं है।
तब तो
तुम अजनबी के
पास से भी
प्रेम से भरे
निकल सकते हो।
कुछ करने का
सवाल ही नहीं
है। हड्डियों
को हड्डियों
से लगा लेने
से कैसे प्रेम
हो जाएगा!
प्रेम तो दो
आत्माओं का
निकट होना है।
और कभी-कभी
ऐसा हो सकता
है कि जिसके
पास तुम
वर्षों से रहे
हो, बिलकुल
पास रहे हो, पास न होओ; और कभी ऐसा
भी हो सकता है
कि राह चलते
किसी अजनबी के
साथ तत्क्षण
संग हो जाए, मेल हो जाए, कोई भीतर का
संगीत बज उठे,
कोई वीणा
कंपित हो उठे।
बस काफी है।
उस क्षण
परमात्मा को
धन्यवाद देकर
आगे बढ़ जाना।
पीछे लौटकर भी
देखने की
प्रेम को
जरूरत नहीं
है। पीछे
लौट-लौटकर
वासना देखती
है। और वासना
चाहती है कि
दूसरा मेरे
अनुकूल चले।
अब जिन
मित्र ने पूछा
है, वह कहते
हैं कि दूसरा
हट जाता है
अगर मैं आलिंगन
करना चाहता
हूं। इतनी तो
स्वतंत्रता
दूसरे को दो, अन्यथा यह
तो बलात्कार
हो जाएगा। यह
तो एक तरह की
तानाशाही हो
जाएगी। तुम
दूसरे को इतना
भी नहीं मौका
देते कि वह हट
सके। दूसरा सकुचा रहा
है, वह इस
बात की खबर दे
रहा है कि
तुम्हारे
प्रेम में अभी
प्रार्थना का
स्वर नहीं है।
अभी प्रेम में
कहीं छिपी
वासना है; कहीं
दुर्गंध है।
कहीं देह की
बदबू है।
आत्मा की
सुवास नहीं।
अभी वह
तुम्हारे से
हटकर यह खबर
दे रहा है
तुम्हें कि
तुम अभी उस
परिशुद्धि को
उपलब्ध नहीं
हो, जहां
अजनबी भी
तुम्हारे
हाथों में, तुम्हारी
बांहों में
आये और समा जाए।
तो इसका संकेत
समझना।
दूसरे
व्यक्ति की
परिपूर्ण
स्वतंत्रता
को सदा
स्वीकार
करना। और इतना
काफी है कि
तुम पास से
निकल गये।
दूसरा दिखा, दूसरे में
तुम्हें
परमात्मा
दिखा, परमात्मा
का रूप दिखा, तुम अहोभाव
से गुजर गये।
कभी-कभी ऐसा
हो जाएगा कि
दोनों के हृदय
में एक-साथ
कोई तीसरी
शक्ति--परमात्मा
कहो, प्रेम
कहो--एक साथ
उठेगी, समवेत,
और तुम
दोनों
एक-दूसरे के
आलिंगन में
गिर जाओगे।
लेकिन वह
आलिंगन
तुम्हारा
नहीं होगा, न दूसरे का
होगा, वह
आलिंगन
परमात्मा का
होगा। उस क्षण
की प्रतीक्षा
करो। तब तक
जल्दी मत
करना। प्रेम
बड़ी पवित्र
घटना है।
जब तुम
प्रेम करने की
चेष्टा करने
लगते हो, तभी
अपवित्र हो
जाता है
प्रेम।
तुम्हारा कृत्य
नहीं है
प्रेम--प्रेम
है समर्पण, परमात्मा के
हाथों में
अपने को छोड़
देना। पहले
परमात्मा का
आलिंगन तो कर
लो। फिर, परमात्मा
के बहुत रूप
हैं, इनका
आलिंगन भी हो
जाएगा। और हुआ
या नहीं, उसका
कोई प्रयोजन
नहीं है।
प्रेम पाप
नहीं है, लेकिन
प्रेम को
थोपना पाप है।
प्रेम तो बड़ा
पुण्य है।
फिराक की बड़ी
प्रसिद्ध
पंक्तियां हैं--
कोई
समझे तो एक
बात कहूं
इश्क
तौफीक है
गुनाह नहीं
प्रेम
तो प्रसाद
है--तौफीक।
प्रभु-प्रसाद, प्रभु-कृपा,
अनुकंपा; न मालूम
कितने पुण्यों
का फल है।
इश्क तौफीक है
गुनाह नहीं।
अपराध नहीं है
प्रेम, लेकिन
तुम प्रेम के
साथ भी दर्ुव्यवहार
कर सकते हो।
तुम इसे पाप
बना सकते हो।
आदमी ने यही
तो किया, प्रेम
को पाप बना
दिया। तुम
श्रेष्ठतम को
भी निकृष्टतम
कीचड़ में घसीट
सकते हो। और
तुम
श्रेष्ठतम को
निकृष्ट कीचड़
से निकाल भी
सकते हो। तुम
पर निर्भर है।
तो सदा
ध्यान रखना, दूसरे की
स्वतंत्रता
पर आंच न आने
पाये। और यह
मैं अजनबियों
के लिए ही
नहीं कह रहा
हूं, जिनको
तुम अपना
मानते हो, उनके
संबंध में भी
खयाल रखना।
तुम्हारी
पत्नी की
स्वतंत्रता
को आंच न आने
पाये।
तुम्हारे पति की
स्वतंत्रता
को आंच न आने
पाये। जहां
आंच आने लगे, समझना प्रेम
पाप होने लगा।
आलोक तो मिले,
आंच न आये।
प्रकाश तो
मिले, लेकिन
ताप पैदा न
हो। चांद की
तरह हो प्रेम,
सूरज की तरह
नहीं। जला न
दे, झुलसा
न दे। चांद की
तरह--सुधा
बरसे, अमृत
बरसे, सोमरस
बहे। शीतलता
दे। तो ही
प्रेम पुण्य
है।
जो
तुम्हारे
बहुत पास हैं, तुम्हारा
बेटा, तुम्हारी
बेटी--छोटा
बच्चा
तुम्हारे घर
पैदा हुआ है, परमात्मा ने
एक रूप लिया, परमात्मा
तुम्हारी
तलाश में आया
इस बहाने, इस
निमित्त--तुम
इस छोटे-से
बच्चे को
ढांचों में मत
ढालना। तुम इस
तरह की कोशिश
मत करना, कि
यह तुम्हारे
पीछे-पीछे चले,
तुम्हारी
हां में हां
मिलाये। तुम
जो कहो, वही
करे। तुम इसे
मार मत डालना।
परमात्मा तुम्हारे
घर आया है, तुम
इस बच्चे को
परमात्मा की
प्रतिष्ठा
देना। इसकी
स्वतंत्रता
को स्वीकार
करना।
हां, अपना अनुभव
इसे दे देना।
लेकिन वह
अनुभव आदेश न
हो। तुमने जो
जाना है, उसकी
संपत्ति इसे
सौंप देना।
लेकिन चुनाव
का हक इसी को
देना कि वह
चुन ले--राजी
हो, न हो
राजी। न राजी
हो तो नाराज
मत होना। राजी
हो तो प्रसन्न
मत होना।
क्योंकि
प्रसन्नता और नाराजगी
की राजनीति से
ही हम बच्चों
के ऊपर
जबर्दस्ती
करते हैं। बाप
एक बात कहता
है बेटे से, कहता है
तेरी जो मर्जी
हो वैसा कर।
लेकिन अगर बाप
की मर्जी के
खिलाफ करता है,
तो बाप दुखी
मालूम पड़ता
है। तो बेटा
बाप को सुखी
करना चाहता है
कि चलो! अगर
बाप की मर्जी
के अनुसार करता
है, तो बाप
प्रसन्न होता
है। तो बेटा
बाप को प्रसन्न
करना चाहता है
कि चलो!
ऐसे-ऐसे
धीरे-धीरे बेटे
की आत्मा खो
जाती है।
इसीलिए
तो दुनिया में
इतनी भीड़ है
और इतने आत्महीन
लोग हैं।
आत्मा कहां? आत्मा तो
स्वतंत्रता
में पनपती है,
फैलती है, फूलती है।
तो चाहे अजनबी,
चाहे जिनको
तुम अपने कहते
हो...अपने
जिनको कहते हो
वे भी अजनबी
हैं। जो बेटा
तुम्हारे घर
पैदा हुआ है, उसे तुम
जानते हो, कौन
है? कहां
से आया है? क्या
संदेश लाया है?
क्या उसकी
नियति है? तुम्हें
कुछ भी तो पता
नहीं! सिर्फ
तुम्हारे घर
पैदा हो गया
है, तुम्हें
माध्यम चुन
लिया है। तुम
इससे ज्यादा
पागलपन से मत
भर जाना कि
उसकी गर्दन
दबाने लगो।
अजनबी तो
अजनबी है।
इसीलिए
तो सारे
धर्मशास्त्र
कहते हैं, यहां कौन
अपना है? अपने
ही हम अपने
नहीं हैं, दूसरे
की तो बात ही
मुश्किल है।
अपना ही हमें पता
नहीं कि हम
कौन हैं, तो
किस को हम पहचानें।
न, पास हों
लोग कि दूर
हों, अपने
हों कि पराये
हों, स्वतंत्रता
को मत तोड़ना।
जहां प्रेम
स्वतंत्रता तोड़ता है, वहीं पाप हो
जाता है।
अन्यथा प्रेम
तो इस जगत में,
इस अंधेरे
जगत में
परमात्मा की
किरण है। इस
गहन अंधकार
में प्रेम ही
एकमात्र ज्योतिशिखा
है।
फिर
किसी के सामने
चश्मेत्तमन्ना
झुक गयी
शौक
की शोखी में
रंगे-एहतिराम
आ ही गया
बारहा
ऐसा हुआ है
याद तक दिल
में न थी
बारहा
मस्ती में लब
पर उनका नाम आ
ही गया
जिंदगी
के
खाका-ए-सादा
को रंगीं
कर दिया
हुस्न
काम आये न आये
इश्क काम आ ही
गया
सौंदर्य
साथ दे या न दे, प्रेम सदा
साथ देता है।
सौंदर्य काम
आये न आये, प्रेम
सदा काम आ
जाता है।
जिंदगी
के
खाका-ए-सादा
को रंगीं
कर दिया
वह
जिंदगी की जो
सादी-सी
रूपरेखा है, सादा
रेखाचित्र है,
उसे रंगीन
कर देता है
प्रेम।
जिंदगी
में जो
हरियाली
दिखायी पड़ती
है, वह प्रेम
की आंखों के कारण।
जो फूल खिलते
हैं, वह
प्रेम की
आंखों के
कारण। जीवन के
कंकड़-पत्थरों
में जो
कभी-कभी हीरे
दिखायी पड़
जाते हैं, वह
प्रेम के
कारण। पदार्थ
में परमात्मा
की थोड़ी-सी जो
झलक मिलने
लगती है, वह
प्रेम के
कारण। अगर
प्रेम न हो, तो बनाओ
मंदिर, मस्जिद,
गुरुद्वारे,
सब व्यर्थ
होंगे।
प्रेम
के कारण ही
मंदिर की
पत्थर की
प्रतिमा में
परमात्मा की
झलक मिलती है।
प्रेम के कारण
ही काबे का
साधारण-सा
पत्थर
परमात्मा का
प्रतीक हो
जाता है।
कितने लोगों
ने चूमा है उस
पत्थर को!
किसी और पत्थर
को इतने लोगों
ने नहीं चूमा
होगा। धन्यभागी
है काबा का
पत्थर!
करोड़ों-करोड़ों
लोग जनम-जनम
प्रतीक्षा
करते हैं उस
पत्थर के पास
जाकर चूम लेने
की। इतने
लोगों के
चुंबन ने अगर
उस पत्थर को
परमात्मा
नहीं बना दिया
है, तो फिर
परमात्मा हो
ही नहीं सकता।
इतने लोगों ने
प्रेम बरसाया
है, पत्थर
भी परमात्मा
हो ही जाएगा।
जब तुम
मंदिर में
जाकर, किसी
और के मंदिर
में जाकर
मूर्ति देखते
हो, तो मत
कहना पत्थर की
है। तुम्हारे
लिए पत्थर की
होगी, क्योंकि
प्रेम की
तुम्हारे पास
आंख नहीं। लेकिन
जो भक्ति से, श्रद्धा से
भरकर उसी
मंदिर में
जाता है, उसे
पत्थर की
प्रतिमा मुस्कुराती
लगती है कभी, कभी आंसू
बहाती लगती
है। उसे पत्थर
की प्रतिमा
जीवंत मालूम
होती है।
जिंदगी
के खाक-ए-सादा
को रंगीं
कर दिया,
हुस्न
काम आये न आये
इश्क काम आ ही
गया
सौंदर्य
तो आज नहीं कल
खो जाता है।
सौंदर्य तो
सपना है। पानी
पर खींची लकीर
है। लेकिन
प्रेम, प्रेम
सत्य है। प्र्रेमपात्र
बदल जाते हों,
प्रेम नहीं
बदलता। बचपन
में अपनी मां
को कोई प्रेम
करता है; पिता
को प्रेम करता
है; थोड़ा
बड़ा होकर
भाई-बहन को
प्रेम करता है;
पास-पड़ोस, मित्रों को
प्रेम करता है;
और थोड़ा बड़ा
होकर किसी
स्त्री को
प्रेम करता है;
और थोड़ा बड़ा
होकर बच्चों
को प्रेम करता
है; और
थोड़ा बड़ा होकर
किसी दिन किसी
मंदिर में, किसी मस्जिद
में झुकता है
किसी अज्ञात
प्रेमपात्र
के लिए।
प्रेमपात्र
बदलते रहते
हैं, लेकिन
प्रेम नहीं
बदलता। बचपन
से लेकर अंत
तक, जन्म
से लेकर
मृत्यु तक अगर
कोई एक चीज
तुम्हारे
भीतर सदा चलती
रहती है, तो
प्रेम है।
जैसे सांस सदा
चलती रहती है।
सांस शरीर को
संभाले रखती
है, प्रेम
आत्मा को
संभाले रखता
है।
प्रेम
सौभाग्य है!
लेकिन भूलकर
भी दूसरे पर
उसे मत थोपना।
अपने भीतर
संभालकर! बाहर
उछालने की
जरूरत भी नहीं
है। दिखावा
करने का, प्रदर्शन
करने का कोई
कारण भी नहीं
है। कबीर ने
कहा है--हीरा
पायो गांठ
गठियायो, वाको
बार-बार क्यों
खोले? हीरा
मिल जाता है
किसी को
रास्ते पर पड़ा,
जल्दी से
गांठ में गठियाकर
संभालकर चल
पड़ता है, फिर
इधर बार-बार
थोड़े ही खोलकर
देखता है? अगर
कभी शक भी हो
तो थोड़ा हाथ
डालकर समझ
लेता है कि है,
फिर अपना चल
पड़ता है।
प्रेम
का हीरा
तुम्हें
मिला--हीरा
पायो गांठ गठियायो, वाको बार-बार
क्यों खोले? अब इसमें
कोई दिखाना
थोड़े ही है, बाजार में
जाकर घोषणा
थोड़े ही करनी
है कि हम एक
बड़े प्रेमी हो
गये, कि जो
मिलता है उसको
गले लगते हैं।
संभाल लो भीतर,
बांध लो
गांठ और जितना
भीतर छिपा सको
उतना भीतर
छिपा दो। तुम
पाओगे, वह
हीरा बीज बन
जाता है।
उसमें अंकुर
आते हैं। यह
हीरा कोई
पत्थर नहीं है,
यह हीरा तो
प्राण का
सारभूत अंश
है। इसे छिपा दो
अपने अचेतन की
गहराइयों
में। इसे बाहर
मत उछालते
फिरो, अन्यथा
गंवा दोगे।
बीज तो
जमीन में छिपा
देने को होता
है। बाहर रखे
रहोगे, खराब
हो जाएगा।
छिपा दो अपनी
चेतना की भूमि
में। गहन तल
में डाल दो।
वहां से फूटेगा,
वहां से
निकलेंगी
कोंपलें, वहां
से उगेगा
अंकुर, और
एक बीज में
लाखों-करोड़ों
बीज लगेंगे।
यह जो
छोटा-सा प्रेम
का दीया जला
है, इसे
हवाओं में
लेकर मत भटको
यहां-वहां, बुझ जाएगा।
इसे तो
संभालकर रखो।
यह सूरज बन सकता
है।
तीसरा
प्रश्न:
तूने
आटा लगाया और
हमें फंसाया।
अब हम कष्ट पा
रहे हैं और
अकेले-अकेले तड़फ रहे
हैं, इसका
जिम्मेवार
कौन?
आटे
का लोभ। आटे
के लोभ ने
फंसा दिया। न
करते लोभ, न फंसते।
अब जब फंस ही गये
हो, तो
पीड़ा कांटे के
कारण नहीं हो
रही है। अभी
भी कांटे से
संघर्ष चल रहा
होगा, इसीलिए
हो रही है।
अब
कांटे के साथ
ही हो लो। अब
कांटे से राजी
हो जाओ। जिससे
हम राजी हो
जाते हैं, उसी से पीड़ा
होनी बंद हो
जाती है। पीड़ा
से भी राजी हो
जाओ, तो
पीड़ा समाप्त हो
जाती है।
इसे
समझना।
जब तक
हम लड़ते रहते
हैं किसी चीज
से, तभी तक
पीड़ा होती है।
जब स्वीकार कर
लिया, कहा
कि चलो, सौभाग्य
कि इस योग्य
समझे गये कि फंसाये
गये, कि इस
योग्य समझे
गये कि कांटा
हमारे लिए
डाला गया।
जीसस ने कहा
है, परमात्मा
अपना जाल
फेंकता है मछुवे
की भांति।
उसमें बहुत-सी
मछलियां
फंस जाती हैं,
लेकिन सभी
चुनी नहीं
जातीं। जिनको
व्यर्थ पाता
है, उन्हें
वापस सागर में
छोड़ देता है; जिन्हें
सार्थक पाता
है, उन्हें
घर ले जाता
है।
अगर
फंस गये होओ
मेरे जाल में, कांटा छिद
गया, सौभाग्यशाली
हो! परमात्मा
का लोभ रहा होगा।
आटे का लोभ
उसी को मैं कह
रहा हूं। आत्मा
को पाने का
लोभ रहा
होगा--आटे का
लोभ! वह लोभ भी सौभाग्य
है! धन के लोभी
तो बहुत हैं, धर्म के
लोभी कहां? पदार्थ के
लोभी तो बहुत
हैं, परमात्मा
के लोभी कहां?
कंकड़-पत्थर बीननेवाले
तो बहुत हैं, करोड़ों हैं,
हीरों के पारखी
कहां? उसी
को आटे का लोभ
कह रहा हूं।
नहीं तो मेरे
पास आ नहीं
सकते थे। मेरे
पास आने में
बाधाएं तो बहुत
हैं, सुविधाएं
कहां हैं? जो
सब तरह की
बाधाओं को तोड़कर
आ सकता है, वही
आ सकता है।
यह
कांटा जो
तुम्हें छिद
गया है, यह
तुम्हारे
जन्मों-जन्मों
का पुण्य ही
हो सकता है, अन्यथा छिद
नहीं सकता था।
अब इस कांटे
से लड़ो
मत। कहीं भीतर
लड़ाई चल रही
होगी। कहीं अब
भी लग रहा
होगा कि यह
कहां उलझ गये!
यह कांटा तो
पीड़ा दे रहा
है! पीड़ा तो
होगी। सभी
निखार पीड़ा से
संभव होते
हैं। यह
प्रसव-पीड़ा
है। अनेक बार
गर्भवती
स्त्री को मन
में खयाल आता
है, कहां
उलझ गये! बोझ
बढ़ता जाता है
पेट में, वमन
होने लगता है,
भोजन पचता
नहीं, रात
नींद नहीं आती,
एक लंबी
यातना हो जाती
है। कितनी बार
नहीं गर्भवती
स्त्री सोचती
होगी कि अच्छा
होता कि प्रेम
में पड़े ही न
होते! लेकिन
इस पीड़ा को
झेल लेती है, तो मां बन जाती
है। और मां
बने बिना कोई
स्त्री पूर्ण
नहीं होती।
पुरुष
तो बाप बनने
से कुछ बहुत
नहीं
पाता--थोड़ी
बहुत झंझटें
पाता
होगा--क्योंकि
बाप होना
पुरुष का कोई
निसर्ग नहीं
है, सामाजिक
व्यवस्था है।
प्रकृति में
आदमी को छोड़कर
और तो बाप
कहीं होता
नहीं। मां तो
सभी जगह होती
है। पशु में, पक्षी में, सब जगह मां
होती है। मां
नैसर्गिक
व्यवस्था है।
बाप सामाजिक
व्यवस्था है।
इसी कारण
माक्र्स जैसे
विचारकों ने
तो यह भी कहा
कि जब समाजवाद
पूरी तरह
व्यवस्थित हो
जाएगा, तो
बाप की संस्था
खो जाएगी।
क्या जरूरत रह
जाएगी? राज्य
काम कर देगा बाप
का। वैसे कर
ही रहा है
धीरे-धीरे।
शिक्षा मुफ्त,
अस्पताल
मुफ्त, तो
बाप का काम
छिनता जा रहा
है। एक न एक
दिन कम्युनिज्म
जब पूरी तरह
फैल
जाएगा--ऐसा
माक्र्स का
खयाल--बाप
समाप्त हो
जाएगा। मां
समाप्त नहीं
होगी। मां को
समाप्त करने
का कोई उपाय
नहीं है।
तो बाप
को तो थोड़ी
झंझट-सी ही
होती है बाप
बनकर, लेकिन
मां बड़ी
सौभाग्य से भर
जाती है। मां
बने बिना
स्त्री ऐसी ही
होती है जैसे
कि कोई वृक्ष
जिस पर फूल
नहीं आया, फल
नहीं
लगे--बांझ।
प्रसाद नहीं
होता। मां बनते
ही स्त्री के
भीतर से एक
आभा फूटती है।
जीवनदात्री!
लेकिन वह जीवनदात्री
बनने के लिए
पीड़ा सहनी
पड़ती है।
और
इसलिए ठीक भी
है कि बाप को
तो कोई पीड़ा
सहनी नहीं
पड़ती। इसलिए
बच्चा पैदा हो
जाता है, इससे
बाप को तो कोई
पीड़ा सहनी
नहीं पड़ती।
बाप तो
करीब-करीब
बाहर खड़ा रह
जाता है। बाप
का कोई बहुत
बड़ा सहयोग
नहीं है। जो
बाप करता है
वह एक
इंजेक्शन भी
कर सकता है।
इससे कोई, बाप
का कोई ऐसा
आत्यंतिक साथ
नहीं है।
झेलना तो मां
को पड़ता है।
एक नये जीवन
का आरोपण, उस
नये जीवन का
भीतर बढ़ना।
फिर वह उसी
बच्चे के लिए
जीती है। नौ
महीने तक उसी
के लिए सांस
लेती है, उसी
के लिए भोजन
करती है, उसी
के लिए उठती-बैठती
है। स्वभावतः
एक गहन सृजन
की प्रक्रिया
होती है, लेकिन
पीड़ा! फिर
बच्चे का पैदा
होना और बड़ी
प्रसव-पीड़ा
है।
तो
जैसे-जैसे तुम
मेरे जाल में
फंसोगे, वैसे-वैसे
पीड़ा बढ?गी। तुम
गर्भित हुए।
सत्य ने
तुम्हारे
भीतर जगह
बनायी। अब
तुम्हें
बहुत-सी पीड़ाएं
होंगी जो
तुम्हें कभी
भी न हुई थीं।
वह सत्य को
जन्म देने की पीड़ाएं
हैं। और वे
बढ़ती जाएंगी
क्रमशः, जैसे-जैसे
नौ महीने का
समय करीब
आयेगा वे बढ़ती
जाएंगी। और
आखिरी क्षण
में तो महापीड़ा
होगी। लेकिन
उस पीड़ा से
गुजरे बिना
कोई सत्य को
जन्म नहीं दे
पाता।
सत्य
को जन्म देना
हो, तो गर्भ
धारण करना ही
होगा। जिसको
तुम अभी कांटा
कह रहे हो, वह
तुम्हारे
भीतर पड़ गया
गर्भ का बीज
है। चुभता है,
इसलिए
कांटा कहते हो,
ठीक। गड़ता
है, इसलिए
कांटा कहते हो,
ठीक। लेकिन
उसी कांटे में
तुम्हारा
सारा भविष्य,
तुम्हारी
सारी नियति
निर्भर है।
अगर सत्य तुमसे
जन्म ले ले, तो वही
तुम्हारा
जन्म होगा। और
निश्चित ही यह
पीड़ा साधारण
प्रसव की पीड़ा
से बहुत
ज्यादा है।
क्योंकि
साधारण प्रसव
की पीड़ा में
तो तुम दूसरे
को जन्म देते
हो, नौ
महीने में
झंझट खतम हो
जाती है। यहां
तो तुम्हें
अपने को जन्म
देना है। समय
का कुछ पक्का नहीं
कितना लगेगा।
नौ महीने भी
लग सकते हैं, नौ वर्ष भी
लग सकते हैं, नौ जन्म भी
लग सकते हैं।
तुम पर निर्भर
है। कितनी
त्वरा, कितनी
प्यास, और
झेलने की
कितनी क्षमता!
अहोभाव से
झेलने की
क्षमता, आनंदभाव से झेलने की
क्षमता, नाचते
हुए झेलने की
क्षमता, इस
पर निर्भर करता
है; उतना
ही समय कम
होता जाएगा।
पीड़ा
स्वाभाविक
है। लेकिन उस
पीड़ा को
सौभाग्य
बनाने की
चिंता करो।
आज
भी है "मज़ाज़' खाकनशीं
और
नजर अर्श पर
है क्या कहिये
जैसे
ही तुम मेरे
करीब आये, एकदम से तुम
आसमान पर तो न
पहुंच जाओगे।
रहोगे तो तुम
जमीन पर, सिर्फ
नजर आकाश की
तरफ उठेगी।
अड़चन शुरू
हुई। पैर जमीन
पर, आंख
आकाश की तरफ!
पहले जमीन पर
ही आंखें भी गड़ी थीं।
एक तालमेल था।
दुकान पर थे
तो दुकान पर थे।
अब पैर दुकान
पर होंगे, आंखें
मंदिर में। अब
करते होओगे
भोजन, स्मरण
आत्मा का। अब
गिनते होओगे
रुपये और भीतर
याद परमात्मा
की। अब अड़चन
हुई। अब एक
द्वंद्व शुरू
हुआ। एक महाद्वंद्व,
एक संघर्ष,
जिसको गीता
कहती
है--कुरुक्षेत्र।
अब एक धर्मक्षेत्र,
कुरुक्षेत्र,
उपद्रव
शुरू हुआ! अब
एक बड़ा संघर्ष
है।
आज
भी है "मज़ाज़' खाकनशीं
और
नजर अर्श पर
है क्या कहिये
फिर
वही रहगुजर
है क्या कहिये
जिंदगी
राह पर है
क्या कहिये
आह
तो बेअसर थी
बरसों से
नग्मा भी
बेअसर है क्या
कहिये
हुस्न
है अब न हुस्न
के जलवे
अब
नज़र ही नज़र है
क्या कहिये
धीरे-धीरे, सौंदर्य तो
सब खो जाएगा, दिखायी पड़नेवाली
चीजें तो सब
खो जाएंगी, रूप तो सब खो
जाएगा, आकार
तो सब खो
जाएगा, आंख
ही बचेगी।
शुद्ध।
अब
नजर ही नजर है
क्या कहिये
उसी को
तो हमने दर्शन
कहा है, द्रष्टा
की स्थिति कहा
है, साक्षीभाव कहा है। सब
खो जाएगा। सब
दृश्य खो
जाएंगे। सिर्फ
आंख। पहले तो
बड़ा सूनापन, बड़ा सन्नाटा
लगेगा।
तो
पूछा है, अकेले-अकेले
तड़फ रहे
हैं, इसका
जिम्मेवार
कौन? मुझे
पता है, जब
व्यक्ति
परमात्मा की
तरफ चलता है, तो पहले तो
संसार छूटने
लगता है हाथों
से, भीड़
विदा होने
लगती है, अकेला
रह जाता है।
परमात्मा
मिले, इसके
पहले बिलकुल
अकेला हो जाता
है। जब बिलकुल
अकेला हो जाता
है, तभी तो
परमात्मा के
योग्य बनता
है। महावीर ने
उस अकेलेपन को
कैवल्य कहा
है। जब बिलकुल
केवल तुम ही
रह गये, तुम्हारा
होना ही रह
गया।
हुस्न
है अब न हुस्न
के जलवे,
अब
नज़र ही नज़र है
क्या कहिये!
पीड़ा
होगी। बड़ी गहन
रात्रि मालूम
होगी। पर सूरज
के ऊगने के
पहले रात तो
गहन अंधेरी हो
ही जाती है।
इस
एकांत को
अकेलापन मत
समझो। इस
एकांत को उसे
पाने की
तैयारी समझो। जरा-सी
दृष्टि बदलने
की बात है, जरा
दृष्टिकोण
बदलने की बात
है और सब अर्थ
और हो जाता
है। अकेलापन
अकेलापन
मालूम होता है
अगर उन लोगों
का खयाल करो, जिनने कल तक घेरा
था और अब वे
दूर हटते चले
गये हैं। स्वभावतः
अगर पति ध्यान
करेगा, पत्नी
थोड़ी दूर होने
लगेगी। पत्नी
ध्यान करेगी,
पति थोड़ा
दूर होने
लगेगा।
घर-द्वार, बच्चे,
अपने, दूर
होने लगेंगे।
ऐसा बाहर से
दूर हों ऐसा
जरूरी नहीं, लेकिन भीतर।
भीतर कोई
सरकने लगेगा
पार, गहरे
में जाने
लगेगा। बाहर
से आंख झपकने
लगेगी, भीतर
आंख खुलने
लगेगी।
रोज
ऐसा होता है।
रात
तुम सोते हो, तब तुम्हें
पत्नी की याद
रह जाती है? पति की याद
रह जाती है? बेटे-बेटी
की याद रह
जाती है? मित्र-प्रियजन
की याद रह
जाती है? कुछ
भी नहीं। आंख
बंद हुई, संसार
गया। तुम अपने
भीतर डूबे।
ध्यान में तो यह
घटना और भी
गहरी घटेगी।
तो अकेलापन
आयेगा। अगर
तुमने बाहर पर
नजर रखी, तो
यह लगेगा
अकेलापन; अगर
भीतर पर नजर
रखी तो यह
लगेगा एकांत।
एकांत और
अकेलेपन में
बड़ा फर्क है। भाषाकोश
में कोई फर्क
नहीं है। भाषाकोश
में तो दोनों
का अर्थ एक ही
लिखा है। जीवन
के कोश में
बड़ा फर्क है।
एकांत
का अर्थ तो
बड़ा
आनंदपूर्ण
है। अकेलेपन
का बड़ा दुखपूर्ण
है। तुम गलत
व्याख्या मत
करो। इसे अकेलापन
मत कहो, इसे
कहो एकांत।
इसे कहो शुद्ध
अपना होना।
इसे कहो
तैयारी।
प्रभु के पास
जा रहे हैं, तो भीड़ लेकर
तो कोई कभी
गया नहीं।
एकाकी। अकेले
ही जाना पड़ता
है। उस मंदिर
में दो तो कभी
साथ प्रविष्ट
हुए नहीं। एक
ही प्रविष्ट
होता है। तो
इसे तैयारी
समझो। और
जितना एकांत
बढ़ने लगेगा
उतना जानना कि
प्रभु पास आ
रहा है, संसार
दूर हो रहा
है। एक
क्रांति घट
रही है। पहले-पहले
तो यह
मिटने-जैसा ही
लगेगा।
इसीलिए तो
इसको मैं
मृत्यु कहता
हूं।
मिटते
हुओं को देखकर
क्यों रो न दे
"मज़ाज़'
आखिर
किसी के हम भी
मिटाये हुए तो
हैं
जो
मेरे पास आ
रहे हैं, वह
समझेंगे। वह
इस बात को
समझेंगे। जब
वह दूसरे को
मिटते, एकांत
की पीड़ा में
उतरते
देखेंगे, तो
वह समझेंगे।
मिटते
हुओं को देखकर
क्यों रो न दे
"मज़ाज़'
आखिर
किसी के हम भी
मिटाये हुए तो
हैं
सीने
में उनके ज़ल्वे
छुपाये
हुए तो हैं
हम
अपने दिल को
तूर बनाये हुए
तो हैं
बस
इतना ही खयाल
रहे कि रोशनी
जलती रहे। दिल
का दीया जलता
रहे। भीतर होश
बना रहे।
संसार तो छूटेगा, छूटना ही
है। लाख उपाय
करो, पकड़कर रखा जा सकता
नहीं। कोई
नहीं रख सका, तुम भी न रख
सकोगे। कोई
अपवाद नहीं
है।
जो कल
छूटना ही है, उसे अपने
हाथ से छोड़
देना कला है।
शान है उसमें।
गरिमा है, गौरव
है। यही तो
संन्यासी का
गौरव है।
संन्यासी का
गौरव क्या है?
यही कि
संसारी को
जबर्दस्ती छुड़ाया
जाता; संन्यासी
खुद ही कह
देता है कि ठीक
है, जो
छूटना है, छूट
गया। संसारी
बड़ी पीड़ा से
छोड़ता है, रो-रोकर
छोड़ता है, दीन
होकर छोड़ता
है। लगता है
जैसे लूटा जा
रहा है।
संन्यासी यह
देखकर कि यहां
तो सभी लुट
जाते हैं, खुद
खड़ा होकर लुट
जाता है। कहता
है, ठीक
है। पीड़ा होगी,
भीड़ विदा
होगी, अकेलापन
आयेगा, उसी
अकेलेपन की
राह से
परमात्मा
आयेगा।
अकेलापन तो
सेतु है उसके
आने के लिए; हमने पुल
बनाया। इसे इस
तरह देखोगे,
तो इस पीड़ा
में भी सुख
होगा।
जब तुम
कुछ निर्माण
कर रहे होते
हो, तो माथे
से पसीना बहता
रहे, तो भी
सुख होता है।
क्योंकि तुम
जानते हो, यह
तो श्रम है।
और इस श्रम के
पीछे फल है।
यह तो श्रम है,
सृजन है।
इसके पीछे
अहोभाव चला आ
रहा है। इसके
पीछे उपलब्धि
है।
इस
एकांत से ही
परमात्मा
तुम्हारे पास
आयेगा। जिस
दिन तुम मौन
हो जाओगे, उस दिन वह
बोलेगा। जिस
दिन तुम अकेले
हो जाओगे, उसी
दिन उसके हाथ
तुम्हारे हाथ
में आ जाते
हैं। वह कोई
दूर थोड़े ही
है। पास ही है,
लेकिन तुम
भीड़ में इतने
उलझे हो कि
उसे देख नहीं
पाते।
खुद
दिल में रह के
आंख से परदा
करे कोई
हां, लुत्फ जब है
पा कर भी
ढूंढा करे कोई
ऐसा ही
लुत्फ चल रहा
है। पाया ही
हुआ है, उसी
को ढूंढ रहे
हैं। उसे कभी
खोया नहीं है,
लेकिन भीड़
में आंखें उलझ
गयी हैं। भीड़
में आंखें
उलझने के कारण
वह तुम्हारे
पास ही खड़ा है,
कंधे से
कंधा सटाये,
तुम्हारे
हृदय में धड़क
रहा है, तुम्हारी
सांसों में चल
रहा है, बह
रहा है, दिखायी
नहीं पड़ता।
इधर से अकेले
हुए, भीड़
को विदा किया,
वह दिखायी
पड़ने लगेगा।
एक दफा दिखायी
पड़ जाए, फिर
मैं तुमसे
नहीं कहता कि
भीड़ को छोड़ो,
फिर मैं
कहता हूं, उतर
जाना संसार
में। फिर
तुम्हें सभी
के भीतर वही
दिखायी पड़ने
लगेगा। फिर
भीड़ उसी की
भीड़ है। लेकिन
अभी भीड़ उसी
की नहीं है।
अभी तो अपने भीतर
भी उसे नहीं
जाना, तो
दूसरे के भीतर
कैसे जानना हो
सकता है!
"तरु'
का प्रश्न
है।
रोयें
न अभी अहले-नजर
हाल पर मेरे
होना
है अभी मुझको
खराब और जियादा
आवारा-ओ-मजनू
ही पे मौकूफ
नहीं कुछ
मिलने
हैं अभी मुझको
खिताब और जियादा
तो
तरु से मैं
कहता हूं, अभी घबड़ा मत,
अभी तो और
मुसीबतें आने
को हैं। और
कोई तुझसे सहानुभूति
दिखायें तो
उनसे कह देना--
रोयें
न अभी अहले-नजर
हाल पे मेरे
होना
है अभी मुझको
खराब और जियादा
आवारा-ओ-मजनू
ही पे मौकूफ
नहीं कुछ
मिलने
हैं अभी मुझको
खिताब और जियादा
लेकिन
मजनू हुए बिना
कौन लैला को
पा सका! और मजनू
हुए बिना कोई
परमात्मा को
कैसे पा सकता
है! आवारा हुए
बिना! आवारा
का अर्थ है
जिसका अब कुछ
भी नहीं; रिक्त,
खाली, अकेले।
ऐसा हुए बिना
कौन उसे
निमंत्रण दे
सका!
जीसस
निरंतर कहते
थे कि कोई गड़रिया
अपनी भेड़ों
को लेकर आता।
सांझ का
अंधेरा घिरने
लगा, सूरज ढल
गया, अचानक
देखता कि एक भेड़ खो
गयी। तो सभी भेड़ों को
उस अंधेरी रात
में किसी
वृक्ष के तले
छोड़कर, उस भेड़ को
खोजने निकल
जाता है जो खो
गयी। मिले
हुओं को छोड़कर
उसे खोजने
निकल जाता जो
खो गयी। अंधेरी
रात में
पुकारता, टेरता,
और जब वह
मिल जाती, तो
पता है क्या
करता? उसे
कंधे पर रख
लौटता। खो गये
को कंधे पर
रखकर लौटता
है। और जीसस
कहते थे, मैं
भी ऐसा ही गड़रिया
हूं।
अगर हम
सच में ही रो उठें, तो
उसके हाथ
तुम्हारे
आंसू तक पहुंच
ही जाएंगे, पोंछ देंगे
तुम्हारे
आंसू। अगर हम
सच ही पीड़ा से
भर जाएं, तो
वह दौड़ा
चला आयेगा। हम
अगर भटक ही
जाएं उसको
खोजते-खोजते,
तो आयेगा
जरूर, और
कंधे पर रखकर
ले जाएगा। उसे
खोजना कोई
आदमी का ही
अकेले कृत्य
थोड़े ही है।
उसकी भी कुछ
जिम्मेवारी
है। दोतरफा
जिम्मेवारी
है। हम उसे खोजें,
वह हमें खोजे।
और ऐसा ही चल
रहा है।
परमात्मा
तो हमें खोज
ही रहा है।
जिस दिन हम खोजने
लगते हैं, उसी दिन
हममें और
उसमें तालमेल
हो जाता है।
आखिरी
प्रश्न:
भगवान
श्री, तेरी
रज़ा पूरी
हो!
चैतन्य
भारती ने पूछा
है। "पूछना' कहना ठीक
नहीं, कहा
है। "तेरी रज़ा
पूरी हो।' यही
प्रार्थना का
मूलमंत्र है।
इसमें ही पग जाओ
पूरे-पूरे, तो कुछ और
करने को नहीं
है!
जीसस
को सूली हुई, आखिरी क्षण
उन्होंने
आकाश की तरफ
मुंह उठाकर
कहा कि हे
परमात्मा, यह
क्या दिखा रहा
है! एक संदेह
उठ आया होगा
कि मैं तेरे
लिए जीआ, तेरी
प्रार्थना
में जीआ, तेरी पूजा
में जीआ, तेरे नाम को
फैलाने के लिए
जीआ और यह
तू मुझे क्या
दिखा रहा है!
एक शिकायत आ
गयी
होगी--हलकी-सी
बदली, छोटी-सी
बदली जीसस की
छाती पर तैर
गयी। एक क्षण
को सूरज ढक
गया होगा।
लेकिन जीसस
तत्क्षण पहचान
लिये कि चूक
हो गयी, भूल
हो गयी।
तत्क्षण कहा,
क्षमा कर, यह मैंने
क्या कहा!
तेरी रज़ा
पूरी हो! तू जो
दिखा रहा है, वही ठीक है।
तेरी रज़ा
से ऊपर मेरी रज़ा नहीं
है। तेरी इच्छा
से ऊपर मेरी
इच्छा नहीं
है। तू जो
चाहता है, वही
मैं चाहूं, बस इतनी ही
मेरी इच्छा
है। यह मैंने
कैसे कहा!
आखिरी
क्षण! बिलकुल
स्वाभाविक
है। बड़ी पीड़ा
जीसस को दी
गयी। सूली पर
लटकाया गया।
स्वाभाविक है, मानवीय। इस
बात से सिद्ध
होता है कि
जीसस परमात्मा
के बेटे तो थे
ही, आदमी
के बेटे भी
थे। इससे कुछ
और सिद्ध नहीं
होता। इससे
सिर्फ आदमियत
सिद्ध होती
है।
और
जीसस ने बहुत
बार बाइबिल
में जगह-जगह
कहा, कहीं वह
कहते हैं मैं
आदमी का बेटा
हूं, कहीं
कहते हैं
परमात्मा का
बेटा हूं। वह
दोनों हैं।
सभी दोनों
हैं। उन्हें
याद आ गयी, सभी
को याद नहीं
आयी है।
तो
आदमी का बेटा
बोला, यह
क्या दिखा रहा
है मुझे!
लेकिन तभी
उन्हें स्मरण
आ गया होगा कि
अरे! मैं आदमी
का बेटा ही नहीं,
परमात्मा
का भी बेटा
हूं। फिर बाप
की जो मर्जी!
फिर उसकी जो रज़ा! वह कुछ
बुरा तो न
चाहेगा। उससे
ज्यादा समझदार
मैं तो नहीं
हो सकता। अगर
उसने यही चाहा
है, तो यही
ठीक होगा, इसीलिए
चाहा है। उसकी
चाह का निर्णय
मैं कौन हूं
करनेवाला?
पूछा
है, "तेरी रज़ा पूरी
हो।' इसे
मैं कहता हूं
प्रार्थना का
मूलमंत्र। अगर
यही तुम्हारे
जीवन पर छा
जाए, इसी
रंग में तुम
रंग जाओ, तो
यही
गैरिक-वस्त्र है,
यही गेरुआ
रंग है। यही
संन्यासी की भावदशा
है। हर घड़ी जो
भी हो, तुम
यही जानना कि
परमात्मा ने
किया, ठीक
ही किया होगा।
बुरा हो तो, भला हो तो, सुख मिले तो,
दुख मिले तो,
कांटे
मिलें तो, फूल
मिलें तो, तुम
सभी उसी को
समर्पित करते
चले जाना। तुम
सभी उसको
अर्पित करते
चले जाना।
कहना, जो
तेरी रज़ा।
तुम प्रसन्न
रहना। तुम बोझ
अपने सिर पर न
ढोना। तुम
नाहक ही अपने
सिर पर बोझ
रखे हो। करनेवाला
वही। तुम
व्यर्थ करने
की झंझट अपने
सिर पर ले
लिये हो।
सुनी
है तुमने
कहानी? एक
सम्राट आता
था। राह पर
उसने एक
भिखारी को देखा।
दूर है गांव।
सम्राट को दया
आ गयी, उसने
भिखारी को कहा,
तू भी आ, रथ
में बैठ जा।
वह भिखारी बैठ
तो गया, लेकिन
अपनी पोटली जो
सिर पर रखे था,
सिर पर ही
रखे रहा। वह
सम्राट ने कहा
पोटली नीचे रख
दे, अब
इसको सिर पर
क्यों रखे है?
उसने कहा कि
नहीं मालिक, इतना ही
क्या कम है कि
आपने मुझे
बैठने दिया; अब पोटली का
बोझ भी आपके
रथ पर रखूं!
नहीं, नहीं,
ऐसा मैं
कैसे कर सकता
हूं! लेकिन
तुम रथ पर बैठे
हो, पोटली
सिर पर रखे हो,
क्या सोचते
हो रथ पर बोझ
नहीं है? बोझ
तो रथ पर ही है,
चाहे तुम
सिर पर रखो, चाहे तुम
नीचे रख दो।
परमात्मा
कर्ता है।
सारा कृत्य
उसका है।
वस्तुतः
परमात्मा का
कोई और अर्थ
नहीं है। इस
सारे खेल का
जो इकट्ठा जोड़
है। इस सारे
कर्म के महत
प्रवाह का जो
केंद्र है, वही तो
परमात्मा है।
लेकिन हम सब
अपनी-अपनी पोटली
सिर पर रखे
हैं, हम
कहते हैं, मैं
कर रहा हूं।
हम कहते हैं, अब इतना बोझ
परमात्मा पर
क्या डालना! चांदत्तारे
जो चला रहा है,
वह तुम्हें
नहीं चला
पायेगा! सारी
प्रकृति कैसे
लयबद्ध-स्वर
में बह रही है!
एक तुम्हीं
चिंता लिये
बैठे हो कि
तुम्हें
स्वयं को
चलाना है। इस
चिंता का छोड़
देने का ही
अर्थ है, "तेरी
रज़ा पूरी
हो।' इस
चिंता को तभी कोई
छोड़ सकता है
जब अहंकार को
छोड़ दे। जब कह
दे कि अब मैं
नहीं हूं, तू
ही है।
जिसके
हृदय में यह
दीया जल जाए
कि उसकी मर्जी
पूरी हो, और
मैं अपनी
मर्जी को उसके
विरोध में खड़ा
न करूंगा, लड़ाऊंगा नहीं, मैं
धार के खिलाफ,
धारे के
खिलाफ बहूंगा
नहीं, नदी
जहां ले जाएगी
वहीं जाऊंगा,
समर्पित
करता हूं, अपने
को छोड़ता हूं
उसकी धारा
में--डुबाये
तो डूबूंगा
और डूबने को
ही किनारा
समझूंगा।
बचाये तो बचूंगा।
ऐसी चित्तदशा
में दुख हो
सकता है? पीड़ा
हो सकती है? ऐसी चित्तदशा
में नर्क हो
सकता है? असंभव।
स्वर्ग खुल
गया।
बुझ
रहे हैं एक एक
करके अकीदों
के दीये
इस
अंधेरे का भी
लेकिन सामना
करना तो है
आस्था
के दीये बुझते
गये। और यह
सबसे बड़ा दीया
है आस्था का।
यही आस्तिकता
है।
बुझ
रहे हैं एक एक
करके अकीदों
के दीये
इस
अंधेरे का भी
लेकिन सामना
करना तो है
और
जैसे-जैसे
आस्था के दीये
बुझते गये हैं
वैसे अंधेरा
गहन होता गया
है। और यह
सबसे
महत्वपूर्ण
दीया है।
आस्था
का--तेरी रज़ा, तेरी मर्जी,
तेरी इच्छा
पूरी हो। मैं
समर्पित। मैं बहूंगा।
मैं तैरूंगा
भी नहीं। मैं
पतवार न चलाऊंगा।
मैं नाव में
पाल बांध दिया
हूं अब, तेरी
हवाएं
जहां ले जाएं।
रामकृष्ण
कहते थे, दो
तरह से नदी
पार हो सकती
है। या तो
पतवार चलाओ, या पाल खोल
दो। पाल जो
खोल देता है, वही भक्त
है। पतवार जो
चलाता है, वह
भक्त नहीं है।
वह अभी भी
अपने पर भरोसा
किये है। वह
अभी भी अपनी बाहुओं के
बल पर जी रहा
है। अभी सोचता
है, अगर
मैं न कुछ
किया, तो
उस पार पहुंचूंगा
नहीं। भक्त
कहता है, अगर
इस पार रखा है,
तो यह पार
भी उसी का है।
तो इस पार ही
रहेंगे। उस
पार पहुंच ही
गये। इसी पार
रहते हुए उस
पार पहुंच
गये।
दूर
कितने भी रहो
तुम, पास
प्रतिपल,
क्योंकि
मेरी साधना ने
पल निमिष चल,
कर
दिये
केंद्रित सदा
को ताप बल से
विश्व
में तुम और
तुम में विश्व
भर का प्यार!
हर
जगह ही अब
तुम्हारा
द्वार।
इस
गांव एक काशी, उस गांव एक
काबा,
इसका
इधर बुलावा, उसका उधर
बुलावा,
इससे
भी प्यार
मुझको, उससे
भी प्यार
मुझको,
किसको
गले लगाऊं, किससे करूं
दिखावा;
परजात
क्यों बनाऊं, दीवार क्यों
उठाऊं,
हर
घाट जल पीआ
है, गागर
बदल-बदल कर
जिसे
दिखायी पड़ने
लगा, सभी घाट
उसके हैं।
बहुत बार शरीर
बदले, वह
सिर्फ गागर का
बदलना है।
बहुत बार
इच्छाएं बदलीं,
वह भी सिर्फ
गागर का बदलना
है। बहुत बार
मन बदला, वह
भी सिर्फ गागर
का बदलना है।
प्यास एक है
और उस प्यास
को तृप्त
करनेवाला जल
एक है।
हर घाट
जल पीआ है, गागर
बदल-बदलकर।
और एक
बार तुम्हें
यह समझ में आ
जाए, यह
दिखायी पड़ने
लगे--थोड़ी-सी
भी झलक आ जाए
कि सारे
कृत्यों के
पीछे वही है, सारे घाटों
के पीछे वही
है; प्यास
में भी वही, जल में भी
वही; जो
तुम्हें चला
रहा है, वही
सबको चला रहा
है; जो
तुम्हें राह
पर चलने का
सुझाव दे रहा
है, वही
तुम्हारे राह
पर पत्थर भी
रख रहा है; तो
जरूर दोनों
में कुछ
तालमेल होगा।
बिना पत्थरों
के चुनौती न
होगी। इसलिए
पत्थर भी रख
रहा है।
तुम्हें
पुकार भी रहा
है कि आओ और
चलो, और
राह को दुर्गम
भी बना रहा
है। क्योंकि
दुर्गम राह पर
चलोगे तभी
तुम्हारा
निर्माण होगा,
सृजन होगा।
तुम्हें
आनंद की
आकांक्षा से
भी भरा है, और
हजार-हजार तरह
के दुख भी
पैदा कर रहा
है, क्योंकि
उन दुखों के
बीच ही अगर
तुम आनंदित हो
सको, तो ही
आनंद का कोई
अर्थ है। अगर
दुख न होते और
तुम आनंदित
होते, तो
उस आनंद में
कोई रीढ़ न
होती, कोई
बल न होता।
विपरीत
स्थिति पैदा
करके चुनौती
पैदा की गयी
है। संघर्ष का
मौका तुम्हें निखारने
का उपाय है।
समझने
की कोशिश हर
घटना, हर पल
में करना। और
जैसे ही कभी
तुम भूलने-भटकने
लगो; और मन
होने लगे कहने
का कि हे
प्रभु! यह
क्या दिखा रहा
है, तो
तत्क्षण जाग
जाना, चौंकना!
अपने को झकझोर
लेना और कहना,
तेरी मर्जी
पूरी हो। तेरी
रज़ा पूरी
हो। यह
तुम्हारा
मंत्र बन
जाए--महामंत्र।
इसे तुम ओंकार
समझो। राम-राम
जपने से जो
लाभ न होगा, वह लाभ इस एक
सूत्र को पकड़
लेने से
होगा--तेरी रज़ा
पूरी हो। हर
घड़ी; निमिष-पल;
रात-दिन; सुख में, दुख
में; हार
में, जीत
में; सम्मान
में, अपमान
में; इसे
याद रखना, और
गहरे इसे दोहाराते
रहना--तेरी रज़ा
पूरी हो। और
जब दोहराओ,
तो केवल
शब्द ही मत
दोहराना, इसमें
अपनी आत्मा
उंडेल देना।
इस एक मंत्र
में सारे
मंत्र समा जा
सकते हैं।
जीसस ने
कहा है, "दाई
किंग्डम
कम, दाई
विल बी डन', प्रभु,
तेरा राज्य
उतरे; प्रभु
तेरी रज़ा
पूरी हो।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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