मन का
ढांचा--
जन्मों-जन्मों
का (अध्याय—5) प्रवचन--तैईसवां
नैव किंचित्करोमीति
युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यग्शृण्वस्पृशग्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपग्श्वसन्।।
8।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त
इति धारयन्।।
9।।
और
हे अर्जुन, तत्व को
जानने वाला सांख्ययोगी
तो देखता हुआ,
सुनता हुआ,
स्पर्श
करता हुआ, सूंघता
हुआ, भोजन
करता हुआ, गमन
करता हुआ, सोता
हुआ, श्वास
लेता हुआ, बोलता
हुआ, त्यागता
हुआ, ग्रहण
करता हुआ तथा
आंखों को
खोलता और
मींचता हुआ भी,
सब
इंद्रियां
अपने-अपने
अर्थों में बर्त रही
हैं, इस
प्रकार समझता
हुआ निःसंदेह
ऐसे माने कि
मैं कुछ भी
नहीं करता
हूं।
तत्व
को जानता हुआ
पुरुष सब करते
हुए भी ऐसा ही जानता
है, जैसे मैं
कुछ भी नहीं
करता हूं।
इंद्रियां बर्तती
हैं अपने-अपने
स्वभाव से।
इंद्रियों के
वर्तन को, तत्व
को जानने वाला
पुरुष, अपना
कर्म नहीं
मानता है।
तत्व को जानने
वाला पुरुष
कर्ता नहीं
होता, वरन
इंद्रियों के
कर्मों का
मात्र साक्षी
होता है।
एक, तत्व को
जानने वाला
पुरुष। कौन है
जो तत्व को जानता
है? ध्यान
रहे, कृष्ण
नहीं कहते, तत्वों को
जानने वाला
पुरुष। कहते
हैं, तत्व
को जानने वाला
पुरुष।
तत्व
एक ही है। वह
जो जीवन के, गहन जीवन के
प्राण में
छिपा है, वह
अस्तित्व एक
ही है।
हम
साधारणतः
पांच तत्वों
की बात करते
हैं, वे तत्व
नहीं हैं।
मिट्टी है, पानी है, आग
है, आकाश
है, वायु
है; वे
वस्तुतः तत्व
नहीं हैं। और
विज्ञान तो एक
सौ आठ तत्वों
की बात करता
है। लेकिन अब
इधर विज्ञान
को यह खयाल
आना शुरू हुआ
कि जो उसने एक
सौ आठ तत्व सोचे
थे, वे कोई
भी तत्व नहीं
हैं।
विज्ञान
भी एक सौ आठ
तत्वों की
लंबी संख्या
के बाद एक नए
नतीजे पर
पहुंच रहा है
और वह यह कि ये
एक सौ आठ तत्व
भी एक ही तत्व
के रूप हैं।
उस तत्व को
विज्ञान इलेक्ट्रिसिटी
कहता है, विद्युत
कहता है।
कृष्ण उस तत्व
को विद्युत नहीं
कहते, चेतना
कहते हैं, कांशसनेस
कहते हैं।
शायद बहुत
शीघ्र विज्ञान
को स्वीकार कर
लेना पड़ेगा कि
वह तत्व चेतना
ही है। क्यों?
क्योंकि अब
तक विज्ञान यह
भी मानने को
राजी नहीं था
कि एक तत्व
है। वह कहता
था, एक सौ
आठ तत्व हैं।
ऊपर से
देखने पर अनंत
तत्व मालूम
पड़ते हैं जगत
में। तत्वों
के भीतर जब
विज्ञान का
प्रवेश हुआ, तो पता चला
कि सभी तत्व
एक ही तत्व के
भिन्न-भिन्न
रूप हैं। जैसे
एक ही सोने के
बहुत-से आभूषण
हों। रूप अलग
हैं। वह जो रूपायित
हुआ है, जो
पीछे छिपा है,
वह एक है।
इसे विज्ञान
अब स्वीकार
करता है कि वह
एक तत्व
विद्युत
ऊर्जा है, शक्ति
है। अभी उसे
धर्म की दूसरी
बात से भी सहमत
होना पड़ेगा।
अब तक वह पहली
बात से भी
सहमत नहीं था
कि तत्व एक है।
वह कहता था, तत्व अनेक
हैं।
अब तक
विज्ञान प्लूरालिस्ट
था, अनेक को
मानता था। अब
विज्ञान मानिस्ट
हुआ, अब वह
एक को मानने
लगा। वह कहता
है, एक ही
ऊर्जा है।
पानी में भी
वही ऊर्जा है
और पत्थर में
भी वही ऊर्जा
है। उस ऊर्जा
के कणों का
विभिन्न जमाव
है। बस, उसका
ही सारा अंतर
है। वह अंतर
ठीक आभूषण
जैसे सोने के
विभिन्न जमाव
से निर्मित
होते हैं, वैसा
ही अंतर है।
और बहुत देर
नहीं है कि एक
तत्व को हम अब
दूसरे तत्वों
में
रूपांतरित कर
सकेंगे।
बहुत
जमाने तक अल्केमिस्ट
खोजते थे, कोई ऐसी
तरकीब कि
जिससे लोहा
सोना हो जाए।
अब बहुत कठिन
नहीं है।
क्योंकि लोहा
भी उसी ऊर्जा से
बना है, जिससे
सोना बना है।
और लोहा सोना
बन सकता है और
सोना लोहा बन
सकता है।
ज्यादा देर
नहीं है, मौलिक
बात तय हो गई
है कि दोनों
को बनाने वाला
संघटक एक ही
तत्व है।
इसलिए
रूपांतरण हो
सकता है।
ऐसे भी
आप देखते हैं, कोयले को
पड़ा हुआ।
सोचते न होंगे
कि हीरा भी कोयला
है। हीरा भी
कोयला है!
हीरा भी कोयले
का ही रूप है।
लाखों साल तक
जमीन के नीचे
गर्मी में दबा
रहने पर कोयला
हीरे में
रूपांतरित
होता है। एक
ही तत्व हैं; दोनों में
कोई भी भेद
नहीं है।
सारे
तत्वों के
भीतर एक है। धर्म
की इस पहली
घोषणा से
विज्ञान रिलक्टेंटली, बहुत
झिझकते-झिझकते
राजी हो गया
है। मजबूरी थी।
विज्ञान सत्य
को इनकार नहीं
कर सकता है।
अब दूसरा कदम
और शेष रह गया
है। और वह कदम
यह है कि वह एक
तत्व चेतन है
या अचेतन? अब
तक विज्ञान
माने चला जाता
है कि वह
अचेतन है। यह
उसका दूसरा
आग्रह है।
पहला आग्रह था,
अनेक हैं
तत्व। वह गिर
गया। दूसरा
आग्रह अभी शेष
है कि वह तत्व
अचेतन है।
धर्म
का खयाल है कि
वह तत्व अचेतन
नहीं है। और उसके
कारण हैं।
क्योंकि धर्म
का खयाल है कि
निकृष्ट से
श्रेष्ठ अगर
जन्मता है, तो मानना
होगा कि वह
उसमें कहीं
छिपा था, सदा
मौजूद था। अगर
बीज से वृक्ष
पैदा होता है,
तो चाहे
दिखाई पड़ता हो
और चाहे न
दिखाई पड़ता हो,
वृक्ष बीज
में छिपा था, पोटेंशियली मौजूद था।
अन्यथा पैदा
नहीं हो सकता
है। यदि चेतना
पैदा हो रही
है जगत में
कहीं भी, और
पदार्थ से ही
पैदा हो रही
है, तो
समझना पड़ेगा
कि वह पदार्थ
में कहीं गहरे
में छिपी है, मौजूद है।
उसकी मौजूदगी
को इनकार करना
अवैज्ञानिक
है, वैज्ञानिक
नहीं। जो भी
प्रकट हो सकता
है, वह
छिपा है और
मौजूद है। अनमैनिफेस्टेड
है, अव्यक्त
है, अप्रकट
है।
लेकिन
विज्ञान कहता
है कि एक ही
चीज है अब जगत में, वह है
विद्युत
ऊर्जा। और
धर्म भी कहता
है, एक ही
चीज है जगत
में, वह है
चेतना। यह
चेतना अप्रकट
हो सकती है
विद्युत
ऊर्जा में।
मनुष्य में
आकर विकसित
होकर प्रकट हो
जाती है।
एक
छोटा बच्चा
है। वह कल
जवान होगा, परसों बूढ़ा
होगा। आज
विज्ञान
मानता है कि
जवान और बूढ़े
होने का
बिल्ट-इन-प्रोग्रेम
उसके जेनेटिक
सेल में मौजूद
है। वह जो
बच्चे का पहला
अणु है
मां-बाप से
मिला, उसमें
उसकी पूरी
जिंदगी का
ब्लूप्रिंट, पूरा नक्शा
मौजूद है।
अन्यथा वह हो
नहीं सकता।
एक बीज
आप जमीन में गाड़ देते
हैं। फिर
उसमें से
अंकुर निकलता
है, फिर पत्ते
आते हैं। बड़ी
हैरानी की बात
है कि इस बीज में
ठीक वैसे ही
पत्ते आते हैं,
जैसे इस बीज
के पिता वृक्ष
में थे। यह
पत्तों का
बिल्ट-इन-प्रोग्रेम
अगर बीज के
भीतर छिपा हुआ
न हो, तो
बड़ा चमत्कार
है। यह वैसे
ही पत्ते वापस
कैसे आ सकते
हैं? या तो
फिर यह बीज
अदभुत होशियार
है, या फिर
इस बीज के
पीछे कोई बहुत
बड़ा जादूगर बैठा
है। इस बीज
में भी वैसे
ही फूल लगेंगे,
जैसे उस
वृक्ष में लगे
थे, जिससे
यह बीज आया
है। वे ही
वृक्ष की
पत्तियां
होंगी, वे
ही शाखाएं
होंगी। वही
फैलाव होगा।
वही रूप-रंग
होगा। वही फूल
फिर से
खिलेंगे। और
इस एक बीज से
फिर करोड़ों
बीज पैदा
होंगे--वही
बीज, जिनसे
यह पैदा हुआ
था। इस बीज के
भीतर बिल्ट-इन,
छिपा हुआ प्रोग्रेम
है।
वैज्ञानिक
आज कह सकते
हैं कि बीज
में वृक्ष पूरी
तरह छिपा हुआ
है। प्रकट
होने की देर
है। समय लगेगा
प्रकट होने
में। लेकिन जो
प्रकट होगा, वह मौजूद
था। कह सकते
हैं, बीज
वृक्ष है, अदृश्य;
और वृक्ष
बीज है, दृश्य
हो गया।
लेकिन
इतनी जगत में
चेतना दिखाई
पड़ती है, यह
पदार्थ में
अगर छिपी न हो,
तो प्रकट
कहां से होगी!
यह भी
बिल्ट-इन है, इसका भी
पदार्थ में
छिपा हुआ रूप
है। फिर यह कहना
गलत है कि
पदार्थ में
छिपी है, क्योंकि
धर्म भी कहता
है, एक ही
तत्व है; और
विज्ञान भी
कहता है, एक
ही तत्व है।
पदार्थ में
छिपी है, ऐसा
कहने से दो
तत्वों का
खयाल आता
है--पदार्थ है
कुछ, चेतना
उसमें छिपी
है। इसलिए
विज्ञान के
हिसाब से भी
कहना ठीक नहीं
कि पदार्थ में
छिपी है। धर्म
के लिहाज से
भी कहना ठीक
नहीं कि
पदार्थ में
छिपी है। फिर
तो यही कहना
ठीक है कि
विज्ञान जिसे
विद्युत कहता
है, धर्म
उसे चेतना
कहता है। और
धर्म की बात
ही ज्यादा सही
मालूम पड़ती
है। क्योंकि
जो प्रकट होता
है, वह
कहीं मौजूद
होना चाहिए।
अन्यथा वह
प्रकट नहीं हो
सकता है।
कृष्ण
कहते हैं, जो इस एक
तत्व को जानता
है।
इसलिए
तत्वों की बात
उन्होंने
नहीं कही। एक
ही काफी है।
अज्ञानी बहुत
चीजों को
जानते हैं; ज्ञानी एक
को ही जानता
है। इसलिए कई
बार ऐसा हो
सकता है कि
अज्ञानी के
साथ ज्ञानी
परीक्षा में
हार जाए।
अगर हम
बुद्ध और
महावीर को किसी
अज्ञानी के
साथ परीक्षा
में बिठा दें, तो हार जाने
का डर है!
अज्ञानी बहुत
चीजें जानता
है। अगर
अज्ञानी
पूछने लगे कि
आक्सीजन क्या
है? तो
बुद्ध जरा
मुश्किल में
पड़ेंगे। या
अज्ञानी
पूछने लगे कि
साइकिल का
पंक्चर कैसे जुड़ता है? तो महावीर
को जरा अड़चन
आएगी। और जरा
क्या, काफी
अड़चन आएगी!
साइकिल रिपेयरिंग
से उनका कभी
कोई संबंध
नहीं रहा।
अज्ञानी
बहुत चीजें
जानता है। एक
को छोड़कर सब जानता
है। ज्ञानी
सबको छोड़ देता
है और एक को जानता
है। लेकिन उस
एक को जानकर
वह सब जान
लेता है। और
अज्ञानी सबको
जानकर कुछ भी
नहीं जानता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, एक को जान
लेता है जो--एक
तत्व को--ऐसे
ज्ञानवान व्यक्ति
को, ऐसे
सांख्य को
उपलब्ध
व्यक्ति को, इंद्रियों
का कर्म अपना
किया हुआ नहीं,
इंद्रियों
का ही किया
हुआ मालूम
पड़ता है।
यह
दूसरी बात समझ
लेनी जरूरी
है।
इंद्रियां
आपके काम कर
रही हैं, लेकिन
निरंतर आप एक
भ्रांत
आइडेंटिटी, एक झूठा
तादात्म्य कर
लेते हैं और
सोचते हैं, मैं कर रहा
हूं। जब आपको
भूख लगती है, तब आप कहते
हैं, मुझे
भूख लगी है।
कृपा करके फिर
से सोचना, भूख
आपको लगती है
या पेट को
लगती है? भूख
आपको लगती है
या आपको पता
चलती है?
इन
दोनों में
फर्क है। भूख
का लगना एक
बात है, भूख
का पता लगना
दूसरी बात है।
आपके पेट में
जब भूख लगती
है, तब
आपको पता चलता
है कि भूख लगी
है। लेकिन भूख
तो पेट को ही
लगती है। और
पेट को जरा से
में धोखा दिया
जा सकता है।
और आपकी भूख
मिट जाएगी। एक
शक्कर की गोली
आपके पेट में डाल
दी जाए, पेट
धोखे में आ
जाएगा। भूख मर
जाएगी। आप
कहेंगे, भूख
खतम हो गई।
शक्कर की गोली
से भूख खतम
नहीं होती।
सिर्फ शक्कर
की गोली से
पेट खबर देना
बंद कर देता
है कि भूख लगी
है। खबर आपको
नहीं मिलती; भूख खतम हो
जाती है।
भूख तो
लगती है पेट
को। पेट की
इंद्रिय को
भूख लगती है।
लेकिन आप कहते
हैं, मुझे भूख
लगी। कान को
सुनाई पड़ता है,
आप तो सिर्फ
जानते हैं कि
कान को सुनाई
पड़ा। लेकिन आप
कहते हैं, मुझे
सुनाई पड़ता
है। आंख से
दिखाई पड़ता है,
आपको तो पता
चलता है कि
आंख को दिखाई
पड़ता है। आपको
दिखाई नहीं
पड़ता। लेकिन
आप कहते हैं, मुझे दिखाई
पड़ता है।
प्रत्येक
इंद्रिय से हम
अपने को जोड़
लेते हैं। असल
में बहुत निकट
है इंद्रिय, इसलिए जोड़ना
आसानी से हो
जाता है। आप
चश्मा लगाए
हुए हैं।
चश्मे से आपको
दिखाई पड़ता है,
तो भी आप
सोचते हैं, मुझे दिखाई
पड़ता है।
चश्मे को
दिखाई पड़ता
है। चश्मे से
आंख को दिखाई
पड़ता है। आंख
से आपको पता
चलता है कि
दिखाई पड़ रहा
है। लेकिन
चश्मा अलग
हटाकर देखें,
तब आपको पता
चलेगा। तब
आपको पता
चलेगा कि नहीं,
अब मुझे
दिखाई नहीं पड़
रहा। आप तो
वहीं हैं, बीच
से चश्मा हट
गया। आंख बंद
कर लें; आप
तो अब भी वहीं
हैं, जहां
आंख खुली थी
तब थे; लेकिन
अब दिखाई नहीं
पड़ रहा है।
दिखाई आंख से पड़ता
है। आंख यंत्र
है, उपकरण
है। सारी
इंद्रियां
काम करती हैं
और आप अपने को
जोड़ लेते हैं
कि मैं। मुझे
दिखाई पड़ता है;
मुझे सुनाई
पड़ता है; मुझे
भूख लगती है; मुझे प्यास
लगती है।
कृष्ण
कहते हैं, जो उस एक तत्व
को जान लेता
है, वह यह
भी जान लेता
है, इंद्रियां
अपना काम कर
रही हैं, मैं
कर्ता नहीं
हूं। और इसलिए
कई बार ऐसा भी
हो जाता, कई
बार ऐसा भी हो
जाता है कि इन
इंद्रियों के
साथ निरंतर
तादात्म्य के
कारण आप अपने
को यही समझ
लेते हैं कि
मैं
इंद्रियों का
जोड़ मात्र हूं।
इंद्रियों का
जोड़ मात्र!
फिर उसका कभी
पता नहीं चलता,
जो जोड़ के
पार है। जो ट्रांसेंडेंटल
है, उसका
कभी पता नहीं
चलता।
इंद्रियों
से यह जोड़ तोड़
देना पड़ेगा।
इसे तोड़ने के
दो उपाय हैं।
एक तो निरंतर
खयाल रखें कि जो
इंद्रियों को
हो रहा है, वह
इंद्रियों को
हो रहा है; आपको
नहीं हो रहा
है। इसकी
रिमेंबरिंग
चाहिए निरंतर,
सतत स्मरण
कि भूख पेट को
लगी है; दर्द
पैर में हो
रहा है; कांटा
हाथ में चुभा
है; शरीर
थक गया है।
निरंतर, जिन-जिन
क्रियाओं के
पीछे आप
निरंतर मैं का
उपयोग करते
हैं, बड़ी
कृपा होगी, उसके पीछे
उनसे संबंधित इंद्रियों
का उपयोग
करें। कहें कि
पैर थक गया है।
और
हैरानी होगी, यह बात
अनुभव करने से
फर्क मालूम
पड़ेगा। जब आप
कहेंगे, पैर
थक गया है, तो
इसका परिणाम
चित्त पर
बिलकुल दूसरा
होगा, बजाय
उसके, जब
आप कहते हैं, मैं थक गया
हूं। मैं बहुत
बड़ी चीज है।
पैर बहुत छोटी
चीज है। पैर
के थकने
से जरूरी नहीं
है कि मैं थक
जाऊं। मैं
बहुत ही और
हूं। पैर से
अपने को थोड़ा
अलग करके
देखना शुरू
करें।
इंद्रियों से
थोड़ा दूर खड़े
होकर देखना
शुरू करें।
जैसे-जैसे यह
समझ गहरी होगी,
वैसे-वैसे
लगेगा, इंद्रियां
अपना काम करती
हैं। मैं कोई
कर्ता नहीं
हूं।
एक झेन
फकीर से किसी
ने जाकर पूछा, आपकी साधना
क्या है? उसने
कहा, जब
भूख लगती, तब
मैं खाना दे
देता हूं। जब
नींद आती है, तो मैं
बिस्तर लगा
देता हूं। तो
उस आदमी ने पूछा,
किसके लिए?
तो झेन फकीर
ने कहा, जिसको
नींद आती है, उसके लिए; जिसको भूख
लगती है, उसके
लिए। उस आदमी
ने पूछा, आप
किस तरह की
बातें कर रहे
हैं! इस मकान
में, इस झोपड़े
में आप अकेले
ही दिखाई पड़ते
हैं, और तो
कोई भी नहीं
है!
उस
फकीर ने कहा, जब मैं
अज्ञानी था, तब मुझे भी
एक ही दिखाई
पड़ता था इस झोपड़े
में। अब मुझे
दो दिखाई पड़ते
हैं। एक मैं, जो जानने वाला
है; और एक
वह, जो
करने वाला है।
जिसे भूख लगती
है, वह मैं
नहीं हूं।
जिसे नींद आती
है, वह मैं
नहीं हूं। जो
थक जाता है, वह मैं नहीं
हूं। जो देखता
है, जो
सुनता है, वह
मैं नहीं हूं।
अब इस कमरे
में एक वह भी
है, जो
थकता है; और
एक वह भी है, जो कभी नहीं
थका। एक वह भी,
जो दुखी और
सुखी होता
रहता है; और
एक वह भी, जो
कभी दुखी और
सुखी नहीं
हुआ।
कृष्ण
कहते हैं, ऐसा व्यक्ति
इंद्रियों के
काम को
इंद्रियों का
काम समझता है।
जोड़ता नहीं
अपने को, अलग
जानता है।
जितना यह
ज्ञान बढ़ता
जाता है कि
मैं पृथक हूं,
उतना ही
इंद्रियां
मालिक नहीं रह
जातीं; गुलाम
हो जाती हैं।
उतना ही शरीर
पर वश, शरीर
की मालकियत आ
जाती है।
लेकिन
हम सारे लोग
दुनिया में
दूसरों की
मालकियत करने
में समय गंवा
देते हैं, अपनी
मालकियत का
खयाल ही नहीं
आ पाता।
दूसरों की
मालकियत!
लेकिन ध्यान
रहे, दूसरों
की कितनी ही
मालकियत आप कर
लें, मालिक
आप कभी न हो
पाएंगे।
मालिक तो
सिर्फ वही हो
सकता है, जो
अपना मालिक हो
जाता है। और
दूसरों के जो
मालिक होते
हैं, वे
गुलामों के भी
गुलाम होते
हैं।
मैंने
सुना है, एक
आदमी एक गाय
को रस्सी से
बांधकर एक सड़क
से गुजरता है।
एक फकीर भी
निकल रहा है
वहां से। उस
फकीर ने अपने
शिष्यों से
कहा कि देखते
हो तुम, यह
एक आदमी और यह
एक गाय दोनों
बंधे हैं। जो
गाय को बांधे
हुए था, उसने
कहा, माफ
करिए, आप
गलत बोलते
हैं! मैं नहीं
बंधा हूं; मैं
गाय को बांधे
हुए हूं। उस
फकीर ने कहा, देखते हो
शिष्यों, ये
दोनों
एक-दूसरे से बंधे
हैं। उस आदमी
ने कहा, गलत
बोलते हैं आप।
मैं गाय से
नहीं बंधा हूं;
गाय मुझसे
बंधी है।
मैंने गाय को
बांधा हुआ है।
उस फकीर ने
कहा, अच्छा
तो तुम गाय को
छोड़ दो। फिर
देखें, कौन
किसके पीछे
भागता है! जो
पीछे भागेगा,
वही गुलाम
है, उस
फकीर ने कहा।
और मैं तुमसे
कहता हूं, गाय
बांधी गई है; तुम बंधे
हो। गाय को
तुम
जबर्दस्ती
बांधे हो, खुद
को तुम
स्वेच्छा से
बांधे हुए हो।
गाय मजबूरी
में गुलाम है;
तुम अपनी
इच्छा से
गुलाम हो। छोड़ो
गाय को, जरा
हम भी देखें
कि कौन किसके
पीछे भागता
है! उस आदमी ने
कहा कि यह तो
नहीं हो
सकेगा। गाय
खरीदकर ला रहा
हूं। तो उसने
अपने शिष्यों से
कहा कि देखते
हो! अभी जो
मैंने कहा था,
वह गलत था।
अब मैं तुमसे
कहता हूं, गाय
इस आदमी से
नहीं बंधी है,
यह आदमी गाय
से बंधा है।
यह आदमी गाय
का गुलाम है।
असल
में जिसको हम बांधते
हैं, उससे हम
बंध जाते हैं।
जिसको हम
गुलाम बनाते
हैं, उसके
हम गुलाम बन
जाते हैं।
इसलिए इस
दुनिया में
जितने ज्यादा
गुलाम जिस
आदमी के पास, उतनी बड़ी
उसकी गुलामी।
लेकिन दूसरे
पर मालकियत का
मजा बड़ा है।
और
ध्यान रहे, दूसरे की
मालकियत का
मजा केवल
उन्हीं को है,
जिन्होंने
अपनी मालकियत
का रस नहीं
जाना। जिसने
एक बार भी
अपनी मालकियत
का रस जाना, वह इस
दुनिया में
किसी का मालिक
न होना चाहेगा।
क्योंकि वह
जानता है कि
किसी का मालिक
होना, अपनी
गुलामी के
आधार रखना है।
लेकिन हम बड़ा
रस लेते हैं।
मैंने
सुना है, एक
दिन एक आदमी
ने अपने मकान
को पोतने के
लिए एक आदमी
को ठेका दिया
है। दो रुपया
घंटे से वह
मकान पोतने का
ठेका देकर गया
है। जब सांझ
को वापस लौटा,
तो देखा कि
वह आदमी झाड़
के नीचे आराम
से लेटा हुआ
है। उसने पूछा
कि क्या कर
रहे हो? मकान
की पोताई
नहीं कर रहे? उसने कहा कि
कर रहा है; देखो!
मकान की तरफ
देखा, एक
दूसरा आदमी पोताई कर
रहा है! उस
मकान के मालिक
ने पूछा कि
मैं समझा
नहीं! तो उसने
कहा कि मैंने
दो रुपया घंटे
के हिसाब से
इस आदमी को
काम करने के
लिए रखा है। उस
मकान मालिक ने
पूछा, बड़े
पागल हो! इससे
तुम्हें
फायदा क्या
होगा? क्योंकि
दो रुपए घंटे
पर मैंने
तुम्हें रखा है।
दो रुपए घंटे
पर तुमने इसे
रखा है। फायदा
क्या है? उसने
कहा कि
कभी-कभी मालिक
होने का मजा
हम भी लेना
चाहते हैं! हम
जरा वृक्ष के
नीचे लेटे हैं।
इट इज़ वर्थ
टु बी दि बास
फार सम टाइम।
कभी थोड़ा बास
हो जाने में
थोड़ा मजा आता
है। आज दिनभर
से लेटे हैं
और आज्ञा दे
रहे हैं कि यह
कर, ऐसा
कर। फायदा तो
कुछ भी नहीं, उसने कहा। दिनभर
गंवाया, लेकिन
जरा मालिक
होने का मजा!
जिंदगी
के आखिर में
ऐसी हालत न हो
कि पाएं कि जिंदगी
गंवायी, थोड़ा मालिक
होने का मजा
लिया।
यह
आदमी मूढ़
मालूम पड़ता
है। लेकिन
इससे कम मूढ़
आदमी खोजना
मुश्किल है।
यह आदमी मूढ़
मालूम पड़ता है; आप हंसते
हैं इस पर।
लेकिन जिंदगी
के आखिर में
अपना हिसाब
करीब-करीब ऐसा
पाएंगे कि
थोड़ा बास होने
का मजा लिया!
हाथ में कुछ
होगा नहीं।
हाथ में तो
केवल उनके कुछ
होता है, जो
अपने मालिक।
तो
कृष्ण कहते
हैं, वैसा
व्यक्ति जो
तत्व को जान
लेता, इंद्रियां
अपना काम करती
हैं, ऐसा
जान लेता, और
ऐसा जानते ही
दूर खड़ा हो
जाता है
इंद्रियों के
सारे धुएं के
बाहर।
इंद्रियों की
बदलियों के
बाहर सूरज के
साथ एक हो
जाता है।
वह जो
सूरज के साथ
एक हुआ है, वह मालिक
है। उसकी कोई
गुलामी नहीं
है। ऐसा व्यक्ति
ही निष्काम कर्म
को उपलब्ध
होता है। ऐसे
व्यक्ति के
आनंद की कोई
सीमा नहीं है।
ऐसे व्यक्ति
की मुक्ति का
कोई अंत नहीं
है। और जब तक
ऐसा न हो जाए, तब तक जीवन
हम गंवा रहे
हैं; तब तक
हम जीवन से
कुछ कमा नहीं
रहे हैं। चाहे
हम कितना ही
कमाते हुए
मालूम पड़ रहे
हों, हम
सिर्फ गंवा रहे
हैं। यहां ढेर
लग जाएगा धन
का, और
वहां जिंदगी
चुक जाएगी।
यहां सामान
इकट्ठा हो
जाएगा, और
आदमी खो
जाएगा। और
यहां संसार की
विजय-यात्रा
पूरी हो जाएगी,
और भीतर हम
पाएंगे कि हम
खाली हाथ आए
और खाली हाथ
जा रहे हैं।
इंद्रियों
पर थोड़ी
जागरूकता
लानी जरूरी
है। इसलिए
कृष्ण के ये
वचन सिर्फ
व्याख्या से
समझ में आ
जाएंगे, इस
भूल में पड़ने
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। ये सारे
सूत्र साधना
के सूत्र हैं।
लेकिन
मजा है, हमारे
मुल्क में लोग
गीता का पाठ
कर रहे हैं! सोचते
हैं, पाठ
से कुछ हो
जाएगा। पाठ
तोते भी कर
लेते हैं। और
पाठ करने वाले
अक्सर
धीरे-धीरे
तोते हो जाते
हैं। सब कंठस्थ
हो जाता है।
दोहराना आ
जाता है।
यंत्रवत गीता
बोलने लगते
हैं। सब अर्थ
उन्हें पता
हैं। सब शब्द
उन्हें पता
हैं। गीता
पूरी कंठस्थ है।
करने को कुछ
बचता नहीं।
कृष्ण अपना
सिर ठोकते
होंगे।
गीता
के सूत्र
साधना के सूत्र
हैं। समझ लिया
कि ठीक बात है, इंद्रियां
अपना काम करती
हैं। लेकिन कल
सुबह फिर कहा
कि मुझे भूख
लगी है, तो
गलती है। फिर
समझे नहीं।
फिर भीतर से
थोड़ा सोचना
चाहिए, मुझे
भूख लगती है?
इंद्रियों
के प्रत्येक
कृत्य में
खोजकर देखें, कर्ता आप
नहीं हैं।
इंद्रियों का
समस्त कर्म
प्रकृति से हो
रहा है। आपकी
कोई भी जरूरत
नहीं है। कभी
आप खयाल करते
हैं! खाना तो आप
मुंह में डाल
लेते हैं; पचाते
आप हैं? कौन
पचाता है? खाना
आप खाते हैं; पचाता कौन
है? कभी
पता चलता है, कौन पचा रहा
है? इंद्रिय
पचा रही है।
पता ही नहीं
चलता, कौन
पचा रहा है!
कौन इस रोटी
को खून बना
रहा है!
मिरेकल घट रहा
है पेट के
भीतर।
अभी
वैज्ञानिक
फिलहाल समर्थ
नहीं हैं।
कहते हैं कि
शायद अभी और
काफी समय
लगेगा, तब
हम रोटी से
सीधा खून बना
सकेंगे। आपका
पेट कर ही रहा
है वह काम
बिना किसी बड़े
आइंस्टीन की
बुद्धि के।
इंद्रिय कुछ आइंस्टीन
से कम
बुद्धिमान
मालूम नहीं
पड़ती! प्रकृति
कुछ कम
रहस्यपूर्ण
नहीं मालूम
पड़ती।
वैज्ञानिक
कहते हैं, और अगर हम
किसी दिन रोटी
से खून बनाने
में समर्थ भी
हो गए, तो
एक आदमी का
पेट जो काम
करता है, उतना
काम करने के
लिए कम से कम
एक वर्ग मील
जमीन पर
फैक्टरी बनानी
पड़ेगी! एक पेट
में जो काम
चलता है, एक
वर्ग मील का
भारी कारखाना
होगा, तब
कहीं हम रोटी
को खून तक ले
जा सकते हैं।
वह भी अभी
सूत्र साफ
नहीं हो सके।
लेकिन आप रोज
कर रहे हैं।
कौन कर रहा है?
आप कर रहे
हैं? आप तो
सो जाते हैं
रात, तब भी
होता रहता है।
आप शराब पीकर
नाली में पड़े
रहते हैं, तब
भी होता रहता
है।
मैं एक
स्त्री को
देखने गया, वह नौ महीने
से बेहोश थी, कोमा में
पड़ी है। और
डाक्टर कहते
हैं, अब
कभी होश में
नहीं आएगी।
चार साल तक
बेहोश रह सकती
है और बेहोशी
में ही मर
जाएगी। लेकिन
बराबर
ग्लूकोज दिया
जा रहा है, दूध
पिलाया जा रहा
है, पेट
पचा रहा है; वह नौ महीने
से बेहोश है।
शरीर खून बना
रहा है। सांस
चल रही है।
कौन ले रहा है?
यह काम कौन
कर रहा है? आप?
तो वह औरत
तो बेहोश पड़ी
है; वह तो
है ही नहीं अब
एक अर्थ में।
प्रकृति किए चली
जा रही है!
इंद्रियां
प्रकृति के
हाथ हैं, हमारे
भीतर फैले
हुए।
इंद्रियां
प्रकृति के हाथ
हैं, हमारे
द्वारा बाहर
के आकाश और
जगत तक फैले
हुए।
इंद्रियां
प्रकृति का
यंत्र हैं, वे अपना काम
कर रही हैं, भूलकर उनसे
अपने को न
जोड़ें। जो
इंद्रियों से अपने
को जोड़ता है, वह अज्ञानी
है। जो
इंद्रियों से
अपने को अलग देख
लेता है, वह
ज्ञानी है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, कल
आपने
अंतर्मुखी व
बहिर्मुखी
व्यक्तित्व की
सविस्तार
चर्चा की। इस
संबंध में एक
बात और स्पष्ट
करना है। किसी
का अंतर्मुखी
होना अथवा
किसी का
बहिर्मुखी
होना, इसके
क्या मौलिक
आधार व कारण
हैं? और
क्या
बहिर्मुखता या
अंतर्मुखता
अपरिवर्तनीय
है? स्वतः
कृष्ण
अंतर्मुखी
हैं या
बहिर्मुखी?
जो
भी हम हैं, जहां भी हम
हैं, जैसे
भी हम हैं, वह
हमारे अनंत
जन्मों की
यात्राओं का
इकट्ठा जोड़
है। अनंत
संस्कार का
जोड़ है।
बहिर्मुखी हैं
तो, अंतर्मुखी
हैं तो। जो
हमने किया
है--अंतहीन आवर्तन
लिए हैं जीवन
के--जो हमने
किया है, उस
सबका इकट्ठा
रूप ही हमारा
आज का होना
है।
उदाहरण
के लिए, कल
आपने दिन में
आठ दफे क्रोध
किया। आठ बार
क्रोधित हुए,
नाराज हुए,
आग से भर गए,
आंखें खून
से भर गईं।
मैं भी कल था; कल मैंने आठ
बार क्रोध
नहीं किया। हम
दोनों रात साथ-साथ
सोए। एक ही
कमरे में सोए।
लेकिन मेरे सपने
अलग होंगे, आपके सपने
अलग होंगे।
कमरा एक होगा।
बिस्तर एक
जैसा हो सकता
है। सब एक
जैसा है। मेरे
सपने अलग
होंगे, आपके
सपने अलग
होंगे।
क्योंकि आठ
बार दिन में क्रोध
किया, सपनों
में जुड़ेगा।
नहीं किया आठ
बार, सपनों
में घटेगा।
फिर हम
दोनों सुबह
उठे। मैंने
पाया कि मेरी
चाय आने में
थोड़ी देर हो
गई। आपने भी
पाया कि चाय आने
में थोड़ी देर
हो गई। तो हम
दोनों की
प्रतिक्रियाएं
अलग होंगी।
जिसने कल आठ
बार क्रोध किया
है, वह आज फिर
सुबह तैयार उठ
रहा है। फिर
संभावना बहुत
है कि वह तत्काल
क्रोध कर ले।
जिसने कल आठ
बार क्रोध
नहीं किया, उसकी
संभावना है कि
वह क्रोध का
कोई मौका आए, तो छोड़ जाए, बच जाए, वंचित
रह जाए।
एक-एक
व्यक्ति अपने
जीवन में जो
भी कर रहा है--इस
जीवन में तो
ही, पिछले
जीवनों में
भी--उन सबका
जोड़ है।
बहिर्मुखी
का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति,
जिसने
निरंतर
बहिर्मुखता
को साधा है।
निरंतर! धन
खोजा कभी, कभी
यश खोजा, कभी
वासना, और
चक्कर लेता
रहा उन्हीं
के। तो
धीरे-धीरे, धीरे-धीरे
मन की वह जो
अंतर्मुखता
की धारणा है, वह क्षीण
होती चली जाती
है। और
अंतर्मुखी जो
द्वार है, वह
निरंतर बंद
रहने से जंग
खा जाता है।
फिर उसे एकदम
से खोला नहीं
जा सकता। जैसे
घर में कोई एक
दरवाजे को
दो-चार-दस साल
बंद रखे, तो
फिर एकदम से
खोलना
मुश्किल हो
जाए। वह चूं-चर्राहट
करे, बहुत
आवाज करे; मुश्किल
पड़े; तोड़ना
पड़े। लेकिन
जिस दरवाजे को
हम रोज खोलते हैं,
वह भी बीस
साल पुराना होगा,
लेकिन वह
खुलने में
सुगमता पाता
है। जो हम करते
रहते हैं
निरंतर, वह
सुगम हो जाता
है।
हम सभी
बहिर्मुख
जीवन में जीते
हैं। सारी शिक्षा, सारा समाज, परिवार, जगत
बहिर्मुखी
होने के लिए
तैयारी
करवाता है।
एक-एक बच्चे
को हम तैयार
करते हैं, शिक्षा
देते हैं।
ध्यान की कभी
नहीं देते, प्रतियोगिता
की देते हैं, कांपिटीशन की देते हैं;
एंबीशन,
महत्वाकांक्षा
की देते हैं।
शांति की कभी
नहीं देते, मौन की कभी
नहीं देते, शब्द की
जरूर देते
हैं। शब्द
सिखाते हैं हम
हर बच्चे को, मौन किसी
बच्चे को नहीं
सिखाते। और
शब्द में जो
जितना कुशल हो
जाए, संभव
है कि उतना
सफल हो जाए।
मौन जो रह जाए,
हो सकता है
जिंदगी में
हार जाए, असफल
हो जाए।
पूरी
जिंदगी हम
बाहर की तरफ
जीते हैं।
सारा शिक्षण, सारी सफलता,
सारा
इंतजाम जगत का
बहिर्मुखी
है। और हम
उसमें ही
दौड़ते चले
जाते हैं।
बच्चे आते हैं,
हम पागलों
की दौड़ में हम
उनको भी
सम्मिलित कर
लेते हैं। जैसे
किसी
पागलखाने में
हम एक बच्चे
को भेज दें।
बहुत संभावना
है कि बच्चा
पागल हो
जाएगा। पागलों
के साथ रहेगा,
पागल अपने
ढंग सिखा
देंगे। और अगर
बच्चे न सीखें
ढंग, तो
मां-बाप नाराज
होते हैं कि
हम तुम्हें
अपने ढंग सिखा
रहे हैं और
तुम सीखते
नहीं! और
मां-बाप कभी
नहीं सोचते कि
उनके ढंग से
वे खुद कहां
पहुंचे हैं!
कहीं नहीं
पहुंचे हैं।
लेकिन बड़ा
आग्रह है कि
अपने ढंग
बच्चों पर थोप
दें।
सब
पीढ़ियां अपने
बच्चों को
बहिर्मुखी कर
जाती हैं। और
बच्चे भी
पिछले जन्म से
बहिर्मुखी होकर
आते हैं।
ध्यान रहे, जो बच्चा
आपके घर में
पैदा होता है,
वह थोड़ी ही
देर पहले बूढ़ा
रह चुका है।
एकदम बच्चा तो
इस जमीन पर
कोई पैदा होता
नहीं। बूढ़े पैदा
होते हैं। वह
तो बहिर्मुखी
होने की सारी
यात्रा लेकर आ
ही रहे हैं।
फिर दुबारा
चारों तरफ से
दबाव पड़ता है
उनके बहिर्मुखी
होने का। ऐसा
जन्मों-जन्मों
तक चलता है।
इस
जन्मों-जन्मों
की यात्रा में
अगर धीरे-धीरे
सौ में से
निन्यानबे
आदमी
बहिर्मुखी हो
जाते हैं, तो आश्चर्य
नहीं है।
आश्चर्य तो यह
है कि कुछ लोग
फिर भी
अंतर्मुखी रह
जाते हैं, हमारी
सारी
व्यवस्था के
बावजूद, हमारे
बावजूद! हमारे
सारे इंतजाम
को तोड़कर
भी कुछ लोग
भाग निकलते
हैं।
यह
बहिर्मुखता
जीवन में
उपयोगी है, इसलिए हम
सीख लेते हैं;
युटिलिटेरियन है।
अंतर्मुखी
आदमी जीवन में
असफल हो जाता
है। आप जानते
हैं, हम
अंतर्मुखी
आदमी को कहते
हैं, बुद्धू।
लेकिन कभी
समझा आपने, सोचा कि यह
बुद्धू शब्द
जो है बुद्ध
से बना है!
असल
में जब पहली
दफा बुद्ध बैठ
गए सब
घर-द्वार छोड़कर, तो जो
बुद्धिमान थे
गांव में, उन्होंने
कहा, बुद्धू
निकला! बुद्ध
को। क्योंकि
बुद्धूपन तो
था ही हम सबकी
आंखों में, हम सबकी
दुनिया में, हिसाब में।
सुंदर
स्त्रियां
थीं, जैसी
कि किसी आदमी
को शायद ही
कभी मिली हों।
छोड़कर भाग
गया! यह आदमी
बुद्धू है।
साम्राज्य
था। हम जिंदगीभर
खोजते हैं, और नहीं
पाते। नाक रगड़ते
रहते हैं
पत्थरों पर और
नहीं पहुंच
पाते। और इस
आदमी को जन्म
से मिला था
साम्राज्य।
सिंहासन पर
बैठने का क्षण
आता था और भाग खड़ा
हुआ! बुद्धू
है।
बुद्ध
को तो सीधा
सामने किसी ने
भी नहीं कहा होगा।
लेकिन जब कोई
और आदमी बुद्ध
की तरह झाड़ के
नीचे हाथ
बांधकर बैठने
लगा, तो
उन्होंने कहा,
यह भी
बुद्धू हुआ; यह भी बुद्ध
जैसा हुआ!
यह जो
हमारा जगत है, वहां केवल
बहिर्मुखता
उपयोगी मालूम
पड़ती है, अंतर्मुखी
का कोई मूल्य
नहीं है। कोई
मूल्य नहीं
है। लेकिन
जीवन की
गहराइयों में
अंतर्मुखता
का ही मूल्य
है।
बुद्धू
हम जिनको कहते
हैं, वे हमको
बुद्धू मानते
हैं। बुद्ध से
हम पूछने जाएंगे,
तो वे हम को
अज्ञानी
मानते हैं। वे
मानते हैं कि
तुम सब नासमझ
हो। क्योंकि तुम
जो कर रहे हो, उससे कहीं
पहुंचोगे
नहीं। और जिन
चीजों में तुम
मूल्य देख रहे
हो, उनमें
कोई भी मूल्य
नहीं है। अगर
हार गए, तब
तो हारोगे ही;
अगर जीत गए,
तो भी
मुश्किल में
पड़ोगे।
जिंदगी
बहुत कंपनसेशन
करती है, बहुत
हैरानी के। जो
लोग जिंदगी
में असफल रहते
हैं, उनको
जिंदगी में
तकलीफ होती
है। असफलता की
पीड़ा, अहंकार
को चोट लगती
है। जो लोग
सफल हो जाते
हैं, उनको
मरते वक्त
भारी पीड़ा
होती है।
बराबर हो जाता
है दोनों का पलड़ा।
मरते वक्त सफल
आदमी को भारी
पीड़ा होती है
कि सब
किया-कराया
गया!
मैंने
सुना है, एक
आदमी बड़ा
व्यवसायी है।
लेकिन
धीरे-धीरे कुछ
दिन से पता
चलता है कि
उसका मुनीम
पैसे हड़प
रहा है।
धीरे-धीरे बात
पक्की हो गई, प्रमाण हाथ
लग गए, तो
उस मालिक ने
उस मुनीम को
एक दिन बुलाया
और कहा कि
तुम्हारी
तनख्वाह
कितनी है? उस
मुनीम ने कहा
कि पंद्रह सौ
रुपए महीना।
उस मालिक ने
कहा, मैं
तुम पर बहुत
प्रसन्न हूं।
और आज से
तुम्हारी
तनख्वाह करते
हैं दो हजार।
फिर कहा, नहीं-नहीं-नहीं,
दो हजार तो
कम ही होगा।
तुम्हारा काम
देखते हुए ढाई
हजार करना ठीक
होगा। मुनीम
तो एकदम हैरानी
से खड़ा हो
गया। उसने कहा,
क्या कह रहे
हैं आप! एकदम
हजार रुपए की
बढ़ती! छाती
जोर से धड़कने
लगी। मालिक ने
कहा कि इतने
से तुम खुश हो
गए? मैंने
तो सोचा था कि
तीन हजार...। उस
मुनीम ने हाथ
पकड़ लिए और
कहा, धन्यवाद!
मालिक ने कहा
कि एक आखिरी
बात और कि आज
से तुम्हारी
नौकरी खतम। उस
आदमी ने कहा, आप क्या कह
रहे हैं? अगर
नौकरी ही खतम
करनी थी, तो
तीन हजार तक
तनख्वाह
क्यों बढ़ाई? उस मालिक ने
कहा, अब
तुम जरा
ज्यादा
परेशान
रहोगे।
पंद्रह सौ की
नौकरी नहीं
छूट रही है, तीन हजार की
छूट रही है! अब
जाओ।
सफल
आदमी मरते
वक्त पाता है
कि तीन हजार
की नौकरी गई।
मुश्किल से तो
राष्ट्रपति
हो पाए थे, वह गया मामला!
चपरासी मरते
वक्त इतनी
तकलीफ नहीं
पाता। चपरासी
जिंदा में
बहुत तकलीफ
पाता है, कि
सिर्फ चपरासी!
राष्ट्रपति
मरते वक्त
तकलीफ पाता है
कि
राष्ट्रपति
हुए और मरे।
तीन हजार
तनख्वाह मिली,
एंड फायर्ड!
जिंदगी
बराबर कर देती
है चपरासी और
राष्ट्रपति
को। चपरासी को
जिंदगी में
तकलीफ मिल
जाती है, राष्ट्रपति
को मरने में।
अगर हिसाब
लगाने जाएं, तो कुछ फर्क
नहीं रहता। पलड़े
बराबर हो जाते
हैं।
बुद्ध
जैसा आदमी
कहेगा, तुम
यह सब पाकर
करोगे क्या? आखिर में
एकदम हटा दिए
जाओगे सबसे।
और जो चीज छीन
ही ली जानी
हैं, उन्हें
हम खुद छोड़
देते हैं अपनी
मौज से। जो
स्त्रियां
छिन जाएंगी, जो धन छिन
जाएगा, वह
हम छोड़ देते
हैं अपनी मौज
से। हम मालिक
हैं अपने। तुम
गुलाम हो। तुम
तड़पते
हुए मरोगे; हम खुशी से
जिंदा
रहेंगे। और
मौत हमसे कुछ
भी न छीन
पाएगी। मौत
हमारे पास आकर
थक जाएगी और हार
जाएगी और
मुश्किल में
पड़ जाएगी कि
क्या छीनो!
क्योंकि हम सब
पहले ही दे
चुके, जो
मौत हमसे ले
लेती।
इस
पृथ्वी पर
बुद्धिमान
लोगों ने वह
सब खुद ही छोड़
दिया है, जो
मौत उनसे छीन
लेती है। और
जिस व्यक्ति
को मौत का
खयाल है, वह
अंतर्मुखी हो
जाएगा; और
जिसको जिंदगी
का खयाल है, वह
बहिर्मुखी हो
जाएगा।
जिंदगी में
बहिर्मुखता
उपयोगी है।
मौत को ध्यान
में रखिएगा, तो
अंतर्मुखता
उपयोगी है।
इसलिए
जिन समाजों
में मौत का
स्मरण रहा है
सदा, वे
अंतर्मुखी
रहे। और जिन
समाजों में
मौत भुला दी
गई, उन
समाजों में
बहिर्मुखता
बढ़ गई।
बुद्ध
के पास कोई
जाता, तो वे
कहते, पहले
ध्यान मत करो,
पहले मरघट
पर तीन महीने
रहकर आओ। वह
कहता, लेकिन
मुझे ध्यान
सीधा सिखा दें;
मरघट से
क्या मतलब है?
बुद्ध कहते,
जो आदमी मौत
के प्रति जागा
नहीं, वह
अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट नहीं हो
सकता। पहले
तुम देखकर आओ,
जिंदगी का
फल क्या है! तब
तुम्हारी बहिर्मुखता
टूटेगी।
पहले तुम देखो
कि जो सफल हुए
थे, वे
कहां जा रहे
हैं!
जिन्होंने
जिंदगी में सब
पा लिया था, आखिर में वे
अर्थी पर बंधे
हुए मरघट
पहुंच जाते
हैं। तुम जरा
मरघट पर तीन
महीने रहकर
देख आओ कि
बहिर्मुखता
का अंतिम
परिणाम क्या
है! फिर तुम
अंतर्मुखी हो
सकोगे।
लेकिन
हम मौत की बात
ही नहीं करते।
बच्चों को हम
कभी मौत की
बात नहीं
बताते। अर्थी
निकलती हो, तो बच्चों
को मां घर में
बुला लेती है,
भीतर आ जा।
बाहर कोई
अर्थी निकल
रही है! बुद्धिमान
मां हो, तो
बच्चे को बाहर
ले आना चाहिए
कि देख, अर्थी
निकल रही है।
लेकिन तब मुश्किल
में पड़ेगी वह।
क्योंकि कहीं
बच्चा अगर
ज्यादा
बुद्धिमान हो
जाए, तो
मुश्किल आ
सकती है।
बच्चा अगर
पूछने लगे, अगर सभी को
मर जाना है, तो फिर इस सब
दौड़-धूप का
क्या फायदा?
लेकिन
मां-बाप अपने
बच्चे के कंधे
पर यात्रा करना
चाहते हैं
लंबी। वह
श्रवण के अंधे
मां-बाप ने तो
तीर्थयात्रा
की थी, बाकी
सब मां-बाप भी
अपने बच्चों
पर धन की, यश
की यात्रा
करना चाहते
हैं। सभी अंधे
यात्रा करना
चाहते हैं। वह
कोई श्रवण के
मां-बाप करना
चाहते थे, ऐसा
नहीं। सभी
अंधे यात्रा
करना चाहते
हैं। फिर भी
उन्होंने
बेचारों ने
तीर्थयात्रा
की थी। सभी
मां-बाप अपने
बच्चों के
कंधों से
यात्रा करना
चाहते हैं, इसलिए बच्चा
अगर यात्रा
करने में
सहायता न दें,
तो मां-बाप
बड़े पीड़ित
होते हैं।
एक
मेरे मित्र
हैं। उनका
युवा पुत्र मर
गया। पुत्र एक
राज्य में
मिनिस्टर था।
बड़े पीड़ित हुए, बड़े दुखी
हुए। मेरे
निकट हैं।
मैंने उनसे
पूछा, इतनी
पीड़ा, इतना
दुख, बात
क्या है? कहने
लगे कि अगली
बार उसके चीफ
मिनिस्टर हो
जाने की
बिलकुल
संभावना थी।
मैं तो बहुत
चौंका। मैंने
सोचा भी नहीं
था कि गहरे
में पीड़ा कहां
छिदती है।
चीफ
मिनिस्टर हो
जाने की
संभावना थी!
खुद भी होना
चाहा है जिंदगीभर
उन्होंने; हो नहीं पाए
हैं। अब अपने
अहंकार को
पुत्र के कंधों
पर रखकर
यात्रा करना
चाहते थे। वह
हो जाता। वह
मर गया। कहने
लगे कि अब मैं
तो बिलकुल मरा
ही जैसा हो
गया हूं।
मैंने कहा, अभी दूसरा
बेटा है, उस
पर कुछ इरादे बांधो! कहे,
वह है तो
जरूर, लेकिन
उतना योग्य
नहीं है।
जिस
दिन उनके घर
गया, पुत्र मर
गया है, लेकिन
वे सब तारों
की गड्डी पास
में लिए बैठे हैं!
जब मैं उनके
घर गया
सांत्वना
प्रकट करने कि
न हों परेशान,
तो गड्डी
उन्होंने
सरका दी। कहा
कि देखें, राष्ट्रपति
का भी तार आया,
प्रधान
मंत्री का भी
तार आया। लड़के
का मरना, आंसू
बह रहे हैं।
लेकिन
राष्ट्रपति
का तार आया है,
उसकी चमक भी
है आंखों में।
आदमी का मन!
बाप
बेटों पर
यात्रा करना
चाहते हैं। जो
खुद नहीं कर
पाए, अनफुलफिल्ड ड्रीम्स, अधूरे रह गए,
अतृप्त
सपने बच्चों
पर पूरा करना
चाहते हैं। तो
इसलिए वे उनको
बहिर्मुखी बनाएंगे
ही; वे
उनको छोड़ नहीं
सकते।
अंतर्मुखी वे
हो जाएं, तो
कठिनाई हो
जाएगी।
जिंदगी
का खयाल रखा, तो जिंदगी
में उपयोगिता
बहिर्मुखता
की है। अगर
मृत्यु का
स्मरण रखा, तो उपयोगिता
अंतर्मुखता
की है। और
ध्यान रखें, जिंदगी तो
चली जाएगी; मृत्यु बहुत
थिर और स्थायी
है। और जिंदगी
का आखिरी पड़ाव
मौत है। जो
आखिरी पड़ाव
को सम्हाल
लेता है, वही
आगे की यात्रा
को सम्हालता
है। और जो
यहां बीच की
व्यर्थ की
बातों को
सम्हाल रहा है,
वह कुछ
सम्हाल नहीं
पाता, सिर्फ
समय को खोता
है। इसलिए हम
बहिर्मुखी हो जाते
हैं।
लेकिन
जो बहिर्मुखी
है, आज अगर हम
उसे चाहें कि
वह अंतर्मुखी
हो जाए, तो
बहुत कठिन है।
जन्मों की
यात्रा है
उसकी बहिर्मुखता
की। अगर हम
कहें कि तू
अंतर्मुखी हो जा,
तो वह कहेगा
कि असंभव
मालूम होता
है। फिर अगले
जन्म तक
प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
लेकिन अगले जन्म
में भी वह
अंतर्मुखी हो
नहीं पाएगा।
क्योंकि इस
जिंदगी का और
जुड़ जाएगा बहिर्मुखता
की यात्रा का
हिस्सा। वह और
भी बहिर्मुखी
हो जाएगा।
इसलिए
कोई जरूरत
नहीं है कि
बहिर्मुखी
अंतर्मुखी हो, तभी धार्मिक
हो सके।
बहिर्मुखी
बहिर्मुखी रहते
हुए धार्मिक
हो सकता है।
उसकी धर्म की
साधना में भेद
होंगे। वही
भेद कृष्ण
स्पष्ट कर रहे
हैं। वे कह
रहे हैं, भेद
यही है कि
बहिर्मुखी
कर्म को छोड़
नहीं सकेगा।
कर्म को करे, फल को छोड़
दे। कर्म में
दौड़े, फल
को छोड़ दे।
कर्म करे, कर्ता
को भुला दे।
बहिर्मुखी
रहे, लेकिन
इस बहिर्मुखी
यात्रा को भी
धन से हटाकर धर्म
पर लगा दे। पदार्थ
से हटाकर
परमात्मा पर
लगा दे। पद से
हटाकर परमपद
पर लगा दे।
इतना करे।
धीरे-धीरे
वहीं पहुंच जाएगा,
जहां
अंतर्मुखी
पहुंचता है।
अंतर्मुखी
का मार्ग अलग
होगा। यह
बदलाहट कठिन
है। लेकिन
कभी-कभी
बदलाहट होती
है। असंभव नहीं
है। मैंने कहा, साधारणतः
बहिर्मुखी
अंतर्मुखी
नहीं बनाया जा
सकता।
अंतर्मुखी
बहिर्मुखी
नहीं बनाया जा
सकता। लेकिन
कभी-कभी बदलाहट
होती है।
बदलाहट
दो कारणों से
होती है। या
तो कोई इतना बहिर्मुखी
हो कि उसके
जीवन में
अंतर्मुखता न के
बराबर, शून्य
शेष रह जाए।
सिर्फ
बहिर्मुखी ही
हो जाए। धन ही
धन, धन ही
धन; मकान, धन, दौलत,
यश, इसी-इसी
में डूब जाए।
इतना डूब जाए,
और उसी डूबे
में कोई इतना
बड़ा धक्का, कोई इतना
बड़ा शॉक आ जाए
कि सब
छितर-बितर हो
जाए, तो
एकदम से कनवर्शन
होता है। इतना
बड़ा धक्का आए
कि उसके बाहर
के बनाए हुए
सारे महल ताश
के पत्तों की
तरह एकदम गिर
जाएं। सब राख
हो जाए। इतने
बड़े धक्के में
संभावना है कि
वह एकदम लौट
जाए।
लेकिन
अगर छोटा-मोटा
बहिर्मुखी
होगा, तो
नहीं लौटेगा।
आखिरी
एक्सट्रीम पर
गया हुआ बहिर्मुखी
होगा, तो
लौट सकता है।
अंत पर पहुंच
गया हो, जो
भी पाने जैसा
था पा लिया हो,
और फिर सब
जमीन पर गिरकर
मिट्टी में
मिल जाए। तो
ऐसा आदमी--अब
आगे तो कोई
उपाय बचता
नहीं--पीछे
लौट जाता है।
लेकिन
अगर पूरा
बहिर्मुखी न
हो, पचहत्तर परसेंट हो,
तो अभी
पच्चीस परसेंट
आगे यात्रा
बाकी रहती है।
वह सोचता है, कोई बात
नहीं। इस
मध्यावधि
चुनाव में
नहीं आए, कोई
फिक्र नहीं। डेढ़ साल और
रुक जाओ। और
रुक जाओ, डेढ़ साल
और प्रतीक्षा
करो। फिर एक
दांव लगाया
जाए। अभी
मोरारजी तक
नहीं थके हैं।
अभी डेढ़
साल के बाद
दांव लगाने की
आकांक्षा है!
बहिर्मुखता
अगर पूरी हो, तो भी किसी
बड़ी दुर्घटना
के क्षण
में--दुर्घटना
के क्षण
में--व्यक्ति
सब छोड़ देता
है, कि ठीक
है, जाने
दो। मिट्टी हो
गया जो किया।
ठीक उलटे पर लौट
जाता है।
इसलिए
कभी कोई
वाल्मीकि गहन
पाप करते-करते
क्षणभर
में संत हो
जाता है।
बहिर्मुखी है
पूरा; अंतर्मुखी
हो जाता है।
एक गहन घटना
घट गई, एक
बहुत बड़ा शॉक,
जो सोचा भी
नहीं था।
वाल्मीकि को
खयाल न था। वाल्मीकि
तो बाद में
हुए। तब तो
उनका नाम बाल्या
भील था। काम
था, डकैती,
हत्या।
एक
साधु को लूट
लिया। पर उस
साधु ने कहा
कि तुम इतना
उपद्रव, इतनी
लूट-खसोट, यह
सब करते हो।
किसके लिए? मुझे मारना
जरूर। रस्सी
से बांधकर एक
वृक्ष से कस
दिया। कहा, मारना जरूर।
लेकिन इतना जवाब
तो दे दो!
क्योंकि मेरा
तो काम पूरा
हो गया, साधु
ने कहा, मेरे
मरने से कोई
फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
इतना तो बता
दो कि यह करते किसलिए हो?
उसने कहा, अपने घर
वालों के लिए।
तो उस साधु ने
कहा, मुझे
यहां बांध जाओ
और जरा घर
वालों से
पूछकर आओ कि
इस हत्या का
जो फल होगा, उसके लिए वे बंटाने को
राजी हैं? भागीदार
होंगे?
आदमी
शांत और सीधा
मालूम पड़ता
था। मरने को
तैयार था।
भागता नहीं
था। सीधा बंधकर
खड़ा हो गया
था। बाल्या
ने सोचा, पूछ
लूं। हर्ज
क्या है!
लौटकर घर जाकर
पत्नी से पूछा
कि मैं इतनी हत्याएं
करता हूं, इतने
डाके डालता
हूं। कल अगर
इसके फल में
मुझे नर्क
जाना पड़े, तो
कौन-कौन मेरे
साथ चलेगा? पत्नी ने
कहा, यह
तुम जानो। यह
तुम्हारा काम!
इससे हमारा
क्या
लेना-देना? हमें तो तुम
पत्नी बनाकर
घर ले आए हो।
दो रोटी दे
देते हो, काफी
है। तुम कहां
से रोटी लाते
हो, यह तुम
जानो। तुम कैसे
रोटी लाते हो,
यह
तुम्हारा काम
है। पिता से
पूछा। पिता ने
कहा कि मुझ
बूढ़े को क्यों
फंसाते
हो? तुम्हारा
काम, तुम
जानो! बूढ़ा
आदमी हूं, मुझे
दो रोटी देते
हो, इतना
तुम्हारा
कर्तव्य है
बेटे होने की
तरह।
सारा
भवन गिर गया
उसका। सारी हत्याएं
आंख के सामने
खड़ी हो गईं, सारे डाके।
जिनके लिए किए
थे, वे
भागीदार बनने
को राजी नहीं
हैं! लौट पड़ा।
आदमी बदल गया।
कोई सोच नहीं
सकता था, इस
डकैत और
लुटेरे से
रामायण का
जन्म होगा। लौट
गया बिलकुल।
बात ही खतम हो
गई। वह जिस
साधु से उसको
संदेश मिला था,
वह साधु तो
पीछे पड़ गया
होगा, वाल्मीकि
और भी आगे
निकल गया।
क्या
हुआ? एक
दुर्घटना। एक
ऐसा धक्का, जिसमें सारा
मकान जिस
बुनियाद पर
खड़ा था, वह
ढह गया। कभी
ऐसा कनवर्शन...।
इसी को
मैं कनवर्शन
कहता हूं।
हिंदू
मुसलमान हो
जाए, इसको मैं कनवर्शन
नहीं कहता। यह
निपट नासमझी
है। ईसाई
हिंदू हो जाए,
यह पागलपन
है। इसमें कोई
मतलब नहीं है।
ये सब पोलिटिकल
स्टंट हैं कि
कोई हिंदू को
ईसाई बनाता
रहे; कोई
ईसाई को हिंदू
बनाता रहे।
कोई
आर्यसमाजी किसी
को शुद्ध करे;
कोई किसी को
अशुद्ध करे।
यह सब पागलपन
है।
एक ही कनवर्शन
है, और वह कनवर्शन
है, संसार
से चित्त हट
जाए और परमात्मा
की तरफ चला
जाए। एक ही
रूपांतरण है,
और कोई
रूपांतरण
नहीं है। ऐसे
क्षणों में
कभी होता है
कि बहिर्मुखी
एकदम
अंतर्मुखी हो
जाता है।
लेकिन यह
कभी-कभी होता
है। मुश्किल
से होता है।
इसका हिसाब
नहीं रखना
चाहिए। यह एक्सेप्शनल
है, अपवाद
है। इसको नियम
नहीं बनाना चाहिए।
नियम तो यही
है कि आप जो
हैं, उसका
ही उपयोग करके
धर्म की
यात्रा पर निकलें।
प्रतीक्षा न
करें कि
अंतर्मुखी हो
जाएंगे, तब।
इसमें
एक-दो बातें
और खयाल में
ले लें।
साधारणतः
आदमी बीच में
होते हैं, न पूरे
अंतर्मुखी
होते हैं, न
पूरे
बहिर्मुखी
होते हैं; मीडियाकर होते हैं।
इनकी बड़ी
तकलीफ होती
है। इनकी जिंदगी
में सब कुछ
कुनकुना, ल्यूकवार्म होता है। न
तो इतना उबलता
कि भाप बन जाए,
न इतना ठंडा
होता कि बर्फ
बन जाए। बस
कुनकुना रहता
है! दोनों तरफ
यात्रा हो
सकती है। पानी
बहुत ठंडा हो
जाए, तो
बर्फ हो जाता
है; पानी
नहीं रह जाता।
उबल जाए, भाप
बन जाए, तो
फिर पानी नहीं
रह जाता।
लेकिन
कुनकुना बना रहे--न
इधर, न
उधर--वह पानी
ही बना रहता
है। न कभी वह
सौ डिग्री तक
पहुंचता है कि
भाप बनकर उड़
जाए आकाश में।
न कभी वह इतने
शून्य डिग्री
के नीचे
पहुंचता है कि
जमकर पानी
बर्फ हो जाए।
अंतर्मुखता
भी एक छोर है, बहिर्मुखता
दूसरा छोर है।
दोनों छोरों
में से कहीं
से भी छलांग
लग सकती है।
लेकिन बीच में
से कहीं छलांग
नहीं लग सकती।
इसलिए बीच के
लोग सबसे
ज्यादा तकलीफ
में पड़ जाते
हैं। फिर भी बीच
में भी बहुत
कम लोग हैं, न के बराबर।
और जिसकी समझ
में आ जाए कि
मैं बीच में
हूं, उसे
भी देखना
चाहिए कि उसका
झुकाव क्या
है। अगर
बहिर्मुखता
का है, तो
ठीक है।
अंतर्मुखता
का है, तो
ठीक है। और
अपनी नियति और
अपने
व्यक्तित्व को,
अपने साइकोलाजिकल
टाइप को ठीक
से समझकर उसके
अनुकूल साधना
पद्धति को चुन
लेना चाहिए।
यहां
कृष्ण दो की
बात कर रहे
हैं, कर्म-संन्यास
और
कर्म-त्याग।
इन दो में से
कोई भी एक चुन
लेना चाहिए।
क्या चुनते
हैं, इससे
फर्क नहीं
पड़ता। कहां
पहुंचते हैं,
असली सवाल
यही है।
कृष्ण
का
व्यक्तित्व?
हां, पूछते हैं, कृष्ण का
व्यक्तित्व
कैसा है? यह
थोड़ा कठिन है।
यह थोड़ा कठिन
इसलिए है कि
कृष्ण के पास
व्यक्तित्व
नहीं है।
इसलिए कठिन
है।
जो
पहुंच जाता है, उसके पास
व्यक्तित्व
खो जाता है।
व्यक्तित्व
उनके पास होते
हैं, जो
यात्रा में
हैं। मंजिल पर
व्यक्तित्व
नहीं होते।
मंजिल पर तो
परमात्मा ही
बचता है। व्यक्तित्व
यात्रा में
होते हैं। जैसे
वाहन! मैं बैलगाड़ी
पर बैठा हूं, आप हवाई
जहाज पर बैठे
हैं, कोई
रेलगाड़ी में
बैठा है, कोई
मोटरगाड़ी
में बैठा है।
ये वाहन तो
यात्रा में
होते हैं।
मंजिल पर
पहुंचे कि
वाहन से उतर
जाता है आदमी।
फिर न हवाई
जहाज में होते
हैं आप, न बैलगाड़ी
में होते हैं।
बैलगाड़ी
भी गई, हवाई
जहाज भी गया, मंजिल आ गई।
कृष्ण
जैसे लोग
मंजिल पर खड़े
हुए लोग हैं।
ये व्यक्तित्व
से उतर गए।
व्यक्तित्व
गया। उसी व्यक्ति
को हम अवतार
कहते हैं, जिसका
व्यक्तित्व
नहीं है। इसको
समझ लें। उसी
व्यक्ति को
अवतार कहते
हैं, जिसका
कोई
व्यक्तित्व
नहीं है। जब अपना
व्यक्तित्व
नहीं होता, तभी तो
परमात्मा
प्रकट होता
है। जब तक
अपना व्यक्तित्व
होता है, तब
तक प्रकट नहीं
होता।
कृष्ण
तो बांसुरी की
तरह हैं। अपना
कोई स्वर नहीं
है। परमात्मा
जो बजा दे, वही।
बांसुरी को
कुछ गाना नहीं
है। बांसुरी के
पास अपना गीत
गाने को नहीं
है। बांसुरी
तो पोली है, बांस का
टुकड़ा है
पोला। बस, परमात्मा
जो बजा दे, वही
बज जाएगा।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति
इसीलिए अवतार
हैं, व्यक्ति
नहीं हैं।
पर्सनैलिटी
गई। शून्य की भांति
हैं खाली, रिक्त।
अपना कुछ भी
नहीं बचा। अब
तो परमात्मा जो
करवा ले।
इसलिए कृष्ण
के पास व्यक्तित्व
नहीं है, न
बहिर्मुखी, न
अंतर्मुखी।
कृष्ण के पास
व्यक्तित्व
ही नहीं है।
इसमें
एक खयाल और ले
लें।
महावीर
भी जब ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाते हैं, तो उनके पास
कोई
व्यक्तित्व
नहीं बचता।
बुद्ध भी जब
ज्ञान को
उपलब्ध हो
जाते हैं, तो
उनके पास भी
कोई
व्यक्तित्व नहीं
बचता। लेकिन
महावीर की जो
साधना पद्धति है,
उस साधना
पद्धति के
कारण एक
व्यक्तित्व
हमें मालूम
पड़ता है। उनका
कोई
व्यक्तित्व
बचता नहीं, लेकिन साधना
पद्धति का एक
व्यक्तित्व
हमें मालूम
पड़ता है।
बुद्ध का भी
एक
व्यक्तित्व
मालूम पड़ता
है। उनकी भी
एक साधना
पद्धति है।
कृष्ण
इस मामले में
बहुत विशिष्ट
हैं। उनकी एक
साधना पद्धति
नहीं है। वे
समस्त साधना
पद्धतियों की
बात करते हैं।
इसलिए उनका
कोई व्यक्तित्व
भी मालूम नहीं
पड़ता। इसलिए
कृष्ण को कोई
जैसा चाहे, वैसा देख ले
सकता है। भागवतकार
कुछ और अर्थों
में देखते हैं
कृष्ण को; कवि
कुछ और अर्थों
में देखते
हैं। केशव से
पूछें, तो
कुछ और कहेगा।
सूर से पूछें,
तो कुछ और
कहेंगे। गीता
के कृष्ण कुछ
और मालूम होते
हैं, भागवत
के कुछ और
मालूम होते
हैं! हजार तरह
की बातें उनके
व्यक्तित्व
से झलकती हैं।
शून्य हैं।
कोई एक साधना
की पद्धति
नहीं है।
इसीलिए
राम को हमने
कभी
पूर्णावतार
नहीं कहा।
क्योंकि राम
की एक विशिष्ट
साधना पद्धति
है, जीवन की
एक व्यवस्था
है। वह
व्यवस्था ही
उनका व्यक्तित्व
मालूम पड़ती
है। वे हमारे
जगत से संबंधित
होते हैं एक
विशेष
व्यक्तित्व
को बीच में
लेकर। कृष्ण
हमसे सीधे
संबंधित हैं;
कोई
व्यक्तित्व
नहीं है।
नग्न! कोई
वस्त्र साथ
में नहीं है।
कोई मर्यादा
नहीं, कोई
सीमा नहीं।
इसलिए
इस देश में
हमने किसी को
पूर्ण अवतार
नहीं कहा
सिवाय कृष्ण
के। उसका कारण
है। पूर्ण प्रकट
हो रहा है
उनसे।
व्यक्तित्व
से सदा अपूर्ण
प्रकट होता है, चुना हुआ
प्रकट होता
है।
खतरे
हैं पूर्ण
प्रकट करने
में। खतरा
सबसे बड़ा तो
यह है कि बहुत मिसअंडरस्टैंडिंग
पैदा होगी।
महावीर के
संबंध में
इतनी गलतफहमी
नहीं हो सकती, क्योंकि
उनकी रूप-रेखा
साफ है। वे जो
कहते हैं, वह
एक साधना है।
बुद्ध के
संबंध में
भ्रांति नहीं
हो सकती, वे
एक साधना हैं।
राम के
संबंध में
भ्रांति नहीं
हो सकती; बात
साफ है। राम
प्रेडिक्टेबल
हैं। अगर हमें
पता भी न हो, अगर रामायण
का एक पन्ना
खो जाए, बिलकुल
खो जाए, तो
उस पन्ने को
हम फिर से लिख
सकते हैं। आगे
के पन्ने और
पीछे के पन्ने
बता देंगे कि
इस आदमी ने
बीच में क्या
किया होगा।
प्रेडिक्टेबल
है। अगर
रामायण का एक
अध्याय खतम हो
जाए, तो
फिर से लिखा
जा सकता है; इसमें अड़चन
नहीं आएगी।
क्योंकि राम
का व्यक्तित्व
एक लीक में
बंधा हुआ है, सीधा है। हम
जानते हैं कि
दो और दो चार
हुए हैं, इतना
सीधा है।
लेकिन
कृष्ण के
मामले में तय
नहीं है। अगर
एक अध्याय खो
जाए, तो उसको
दुबारा नहीं
लिखा जा सकता,
जब तक कृष्ण
फिर से पैदा न
हों। उसको कोई
पूरा नहीं कर
सकेगा।
क्योंकि कुछ
नहीं कहा जा
सकता, यह
आदमी क्या
करेगा। यह
बांसुरी बजाएगा
बीच में, कि
युद्ध में
लड़ेगा, कि सखियों के
साथ नाचेगा, कि स्त्रियों
के कपड़े उठाकर
वृक्ष पर चढ़
जाएगा! बीच
में क्या
करेगा, कुछ
पक्का नहीं
है। बीच में
कुछ भी हो
सकता है। अनप्रेडिक्टेबल
है।
पूर्ण
आदमी सदा ही
भविष्यवाणी
के बाहर होगा।
और इसलिए
पूर्ण
व्यक्ति को
समझना कठिन
होगा। इसलिए
कृष्ण को
मानने वाले, प्रेम करने
वाले बहुत हैं,
लेकिन फिर
भी कृष्ण को
मानने वाले न
के बराबर हैं।
कृष्ण
को मानना बहुत
दुरूह है, बहुत कठिन
है। इसलिए जो
भी मानता है, वह भी चुन
लेता है। वह
भी पूरे कृष्ण
को नहीं मानता,
वह भी चुनाव
कर लेता है।
कुछ लोग हैं, जो
बाल-कृष्ण को
मानते हैं। वे
युवा-कृष्ण की
बिलकुल बात ही
नहीं करते। वे
कहते हैं, हमारे
तो बाल-गोपाल
भले हैं।
क्योंकि वह
बाद का कृष्ण
खतरनाक मालूम
पड़ता है। तो
वे तो कहते हैं,
छोटा
कन्हैया।
उससे ही वे
अपना काम चला
लेते हैं।
उनका डर अपना
है। क्योंकि
बाद में वह जो
कृष्ण जवान हो
जाता है और
जवान होकर जो
करता है, वह
उनके लिए घबड़ाने
वाला है।
अब
सूरदास कैसे
जवान कृष्ण को
मानें! वे तो
स्त्रियों को
देखकर आंख फोड़
लिए! बड़ी
कठिनाई है।
कृष्ण और सूर
के बीच, जवान
कृष्ण और सूर
के बीच तालमेल
नहीं हो सकता।
क्योंकि कहां
सूरदास! देखा
कि आंख भटकाती
है वासना में,
फोड़ दो आंख। आंख फोड़ दी! और
कहां कृष्ण कि
पूरी आंखें नचाकर
बांसुरी बजा
सकते हैं। और
कहां सूरदास,
आंख फोड़कर
बैठ गए।
सूरदास
कहेंगे कि बाद
का कृष्ण
भरोसे का नहीं
है। अपना
बाल-कृष्ण ठीक
है। वह सूरदास
की सीमा है।
इसलिए
बाल-कृष्ण से
अपना काम चला
लेंगे।
अब अगर
कोई केशव को
कहे कि
बाल-कृष्ण से
काम चला
लो--दही की
मटकी तोड़े, यह करे, वह
करे--वे
कहेंगे, उसमें
कुछ रस नहीं
है। उसमें कोई
खास बात नहीं
है। केशव के
लिए तो युवा
कृष्ण, यौवन
के पूरे
राग-रंग में
नाचता हुआ।
क्योंकि केशव
कहते हैं कि
जो परमात्मा
राग-रंग में
पूरा न नाच
सके, वह
अभी कमजोर है।
अभी उसे भी भय
है क्या? आदमी
भयभीत हो, समझ
में आ जाए।
परमात्मा भी
भयभीत हो, तो
फिर समझ में
नहीं आता। वह
तो अभय होकर...।
तो
केशव बच्चे
कृष्ण को छोड़
देंगे, युवा
कृष्ण की कथा
के आस-पास
उनके सब गीत
रचे जाएंगे।
वह जो
गीत-गोविंद का
रूप होगा, वह
युवा का होगा।
वह राग-रंग है,
युवा काव्य
है, सौंदर्य
है, संगीत
है, वह सब
उसमें आएगा।
ये
अपने-अपने
चुनाव होंगे।
और कृष्ण इतने
विराट हैं कि
पूरा पचाने की
हिम्मत न के
बराबर होती
है। थोड़ा-थोड़ा
अपना जितना पच
सके, आदमी चुन
लेता है।
लेकिन
मेरा कहना है, जब भी कोई चुनेगा,
तब वह खंड
कर देगा। और
खंडित कृष्ण
का कोई अर्थ नहीं
होता। अखंड
कृष्ण का ही
कुछ अर्थ है।
इसलिए मैं
कहता हूं कि
मानने वाले
बहुत हैं, फिर
भी मानने वाले
न के बराबर
हैं। क्योंकि
जो पूरे अखंड
कृष्ण को जान
पाए, वही
मान पाएगा, अन्यथा नहीं
मान सकता है।
तो
कृष्ण का कोई
अपना
व्यक्तित्व
नहीं है।
कृष्ण के सब
व्यक्तित्व
अपने हैं।
इसलिए कृष्ण
के हमने कितने
नाम रखे, खयाल
किया! इतने
नाम रखे कृष्ण
के, जिसका
हिसाब नहीं।
जितने नाम हो
सकते हैं, सब
कृष्ण के रख
दिए। क्योंकि
इतने आदमी
इसमें झलके एक
साथ! इतने
व्यक्तित्व
इसमें दिखाई पड़े।
कौन
सोच सकता है
कि जो आदमी
बांसुरी
बजाने जैसे
कोमल जगत में
जीता हो, वह
आदमी चक्र
लेकर खड़ा हो
जाएगा! कोई
सोच नहीं सकता
कि जिन
अंगुलियों ने
बांसुरी बजाई
हो, वे
हत्या का चक्र
भी हाथ ले
सकती हैं! ये अंगुलियां
बड़ी अजीब हैं!
इनका
व्यक्तित्व
क्या है? बांसुरी
बजाने वाली अंगुलियां
चक्र हाथ में
नहीं ले सकती
हैं। सुदर्शन
लेकर हत्या का
इंतजाम करना,
अचूक हत्या
का इंतजाम
करना, बांसुरी
बजाने वाली
अंगुलियों का
काम नहीं है!
इन अंगुलियों
का कोई
व्यक्तित्व
अगर होता, तो
यह मुश्किल
था।
हम सोच
भी नहीं सकते
कि बुद्ध या
महावीर या
जीसस चक्र
लेकर खड़े हो
जाएंगे। सोच
भी नहीं सकते।
लेकिन कृष्ण
सोचे जा सकते
हैं। इनकंसिवेबल
हैं, सोचना
कठिन पड़ता है,
लेकिन वे कर
सकते हैं।
यह जो
व्यक्ति है, इसके पास
अपना कोई निजी
व्यक्तित्व
नहीं है। इसलिए
इस मुल्क के
समझदार लोगों
ने इसे पूर्ण अवतार
कहा। पूर्ण
अवतार इसीलिए
कि जिसके पास
अपनी कोई धारणा
नहीं, जिसके
पास अपना कोई
वाहन नहीं, जिसके पास
अपना कुछ भी
नहीं है; पूरा
परमात्मा
जैसा प्रकट
होना चाहे, हो सकता है।
जो जरा भी
बाधा नहीं
देगा।
अगर
राम से
परमात्मा कहे
कि जरा नाचो, तो राम
कहेंगे, ठहरिए!
यह हमसे न हो
सकेगा। नाचना!
तो राम
परमात्मा से
कहेंगे, सम्हालिए। इतना आगे
हम न जा
सकेंगे। यह
हमसे न होगा।
राम परमात्मा
में भी चुनाव
कर लेंगे। वे
कहेंगे, इतना
हम प्रकट कर
सकते हैं, इसके
आगे हमसे
प्रकट न होगा।
हमारी सीमा
है। लेकिन
कृष्ण से कुछ
भी कहे, वे
राजी हो जाएंगे।
राजी क्या, वे देर ही
नहीं
लगाएंगे। वे
नाचने लगेंगे!
यह जो
कृष्ण की
स्थिति है, यह एक
व्यक्तित्व-मुक्त,
ट्रांस-पर्सनैलिटी,
यह
व्यक्तित्व-अतीत
उनकी स्थिति
है। और इसीलिए
उनको हम पूर्ण
कह पाए।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा
करोति यः।
लिप्यते
न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।
10।।
जो
पुरुष सब
कर्मों को
परमात्मा में
अर्पण करके और
आसक्ति को
त्यागकर कर्म
करता है, वह पुरुष जल
से कमल के
पत्ते की सदृश
पाप से लिपायमान
नहीं होता।
परमात्मा
को समर्पण
करके समस्त
कर्मों को जीता
है जो पुरुष, वह कमल के
पत्तों की
भांति जल में
रहते हुए भी
जल से, पाप
से लिप्त नहीं
होता है।
दोत्तीन
छोटी-सी बातें
खयाल में ले
लेनी जरूरी
हैं। पहली बात, परमात्मा को
समर्पित कर
देता है जो!
हम भी
परमात्मा को
समर्पित करना
चाहते हैं। कभी-कभी
करते हैं, लेकिन केवल
अपनी असफलताएं!
सफलताएं कभी
भी नहीं। केवल
पराजय, जीत
कभी भी नहीं।
केवल दुख, सुख
कभी भी नहीं।
कोई
हार जाता है, तो कहता है, भाग्य। और
कोई जीत जाता
है, तो
कहता है, मैं।
कोई टूट जाता
है, गिर
जाता है, तो
कहता है, अवसर,
समय। सफल हो
जाता है, तो
कहता है, मैं।
सफलताएं सब
मैं को
समर्पित कर
देते हैं; असफलताएं सब
परमात्मा को
समर्पित कर
देते हैं! दुख
आते हैं, तो
परमात्मा की
तरफ हाथ उठाकर
कहते हैं कि
क्यों देता है
दुख! सुख आते
हैं, तो अकड़कर
निकलते हैं कि
देखा, सुख
निर्मित कर
लिया!
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, सब
समर्पित कर
देता है जो।
समर्पित
तो हम भी करते
हैं, सब नहीं,
चुन-चुनकर
समर्पित करते
हैं। सब! कह
देता है, हार
तेरी, जीत
तेरी। कह देता
है, तू ही
है, मैं
नहीं। कह देता
है, फल
तेरे। न फल
आएं, तो
निष्फलता
तेरी। मेरा
कुछ भी नहीं।
स्वभावतः, जो
इतनी
सामर्थ्य
दिखा पाएगा...।
और
ध्यान रहे, समर्पण से
बड़ी सामर्थ्य
नहीं है।
समर्पण से बड़ा
संकल्प भी
नहीं है।
समर्पण कमजोरों
की दुनिया की
बात नहीं है, समर्पण इस
जगत में बड़ी
से बड़ी शक्ति
की घटना है।
जो कह
देता है, सब
तेरा, स्वभावतः
उसी क्षण बाहर
हो जाता है।
स्वभावतः, उसी
क्षण सारी
झंझट के बाहर
हो जाता है।
फिर छुएगा
कैसे! फिर पाप छुएंगे
कैसे? जब
कर्म ही नहीं
छूता, तो
पाप कैसे
छुएंगे! पुण्य
भी नहीं
छुएंगे, ध्यान
रखना। नहीं तो
भूल होती है
निरंतर गीता पढ़ने
वालों को। वे
सोचते हैं कि
ऐसे आदमी को पाप
नहीं छूते, पुण्य
इकट्ठे करता
चला जाता है!
पुण्य भी नहीं
छुएंगे। जिसे
पाप नहीं छूते,
उसे पुण्य
छुएंगे? वह
जो कमल का
पत्ता होता है;
क्या आप
सोचते हैं, गंदा पानी
उसको नहीं
छूता, स्वच्छ
पानी छू लेता
है? क्या
पानी में इत्र
डाल देंगे, तो छू लेगा?
नहीं, जब कर्म ही
नहीं छूते, तो न पाप
छूता है, न
पुण्य छूते
हैं। कुछ भी
नहीं छूता।
वैसा आदमी
अस्पर्शित, अनटच्ड जीवन से
गुजर जाता है।
बस, ठीक
कमल के पत्ते
की तरह। जल
में ही होता
है। पूरे समय
जल की धार भी
उस पर पड़ती
है। कभी जल की
लहरें छलांग
मारकर उसकी
छाती पर पड़
जाती हैं। बूंदें
चमकने लगती
हैं उसकी छाती
पर मोतियों की
तरह। लेकिन
अस्पर्शित; पत्ते को छू
नहीं पातीं।
पड़ी रहती हैं
ऊपर, तो
पड़ी रहें।
परमात्मा को
समर्पित।
सागर जाने, सागर की
लहरें जानें।
जब वापस लेना
होगा हवा के
झोंकों को, फिर उतर
जाएंगी
बूंदें।
लेकिन पत्ता
अस्पर्शित रह
जाता है।
ठीक
ऐसे ही, जो
पुरुष कर देता
सब कर्म
समर्पित
प्रभु को, वह
भी अस्पर्शित
जीवन में
यात्रा करता
है। और जिसे न
पाप छुएं
और न पुण्य, उसकी ताजगी,
उसका क्वांरापन,
उसकी वर्जिनिटी...।
सच पूछें, तो
वही क्वांरा
है। जिसे छू
जाएं पाप और
पुण्य, वह क्वांरा न
रहा।
ईसाइयों
की कथा है कि
जीसस क्वांरी
लड़की से पैदा
हुए। ईसाई
समझाने में
बड़ी मुश्किल
में पड़ते हैं
कि कैसे पैदा
हुए होंगे क्वांरी
लड़की से! बड़ी
मुश्किल में
रहे हैं।
ईसाइयों को
बड़ी कठिनाई आई
है कि कैसे
समझाएं कि क्वांरी
लड़की से पैदा
हुए होंगे।
काश!
जीसस को
समझाने वालों
को पता होता
कि कर्मों के
बाहर कमल के
पत्ते की तरह
भी रहा जा सकता
है। अगर कर्मों
के बाहर रहा
जा सकता है, तो संभोग के
क्षण में भी
संभोग के बाहर
रहा जा सकता
है। अगर संभोग
के क्षण में
संभोग के बाहर
रहा जा सके; वह व्यक्ति
कहीं भी संभोग
में सम्मिलित
न हो, न
पुरुष, न
स्त्री; संभोग
बाहर घटती
घटना हो, परमात्मा
को समर्पित; तो निश्चित
कहना पड़ेगा कि
यह बेटा
वर्जिन मां का
है; क्वांरी मां का बेटा
है।
और
मुझे लगता है
कि जीसस क्वांरी
मां से ही
पैदा हुए
होंगे। सच तो
यह है कि जीसस के
संबंध में यह
बात दुनिया को
पता चल गई।
कृष्ण भी क्वांरी
मां से पैदा
होंगे।
महावीर और
बुद्ध भी क्वांरी
मां से पैदा
होंगे।
क्योंकि इतना
पवित्र पुत्र
जिस मां से
पैदा हो, उस
मां को अगर क्वांरापन
न हो, तो
पैदा हो नहीं
सकता।
पर क्वांरेपन
का बहुत गहरा
अर्थ
है--अस्पर्शित, कृत्य के
बाहर। कर्म
परमात्मा को
समर्पित है तब।
तब कोई भी
व्यक्ति इस
जीवन से ऐसे
गुजर जाता है,
जैसे आया ही
न हो। ऐसे
गुजर जाता है
कि जैसे हवा
का झोंका आया
और निकल गया।
जैसा आया, वैसा
ही निकल गया।
यह
सूत्र, निष्काम
कर्मयोगी हो
कोई या कोई
कर्म-त्याग के
संन्यास में
जी रहा हो, दोनों
के लिए सार्थक
है। एक ही बात
स्मरण रखने की
है, सारे
कर्म
परमात्मा को
समर्पित!
वही है
धार्मिक, जो
कहता है कि
करने वाला
परमात्मा है।
वही है अधार्मिक,
जो कहता है,
करने वाला
मैं हूं। अगर
आपने
प्रार्थना
करने में भी
यह कहा कि
मैंने
प्रार्थना की
है, तो आप
अधार्मिक हो
गए। आपने पूजा
करके भी यह कहा
कि मैंने पूजा
की है, तो
आप अधार्मिक
हो गए! जहां
कृत्य का भाव
स्वयं से जुड़ा,
अधर्म आ
गया। और जहां
कृत्य
परमात्मा पर
छोड़ दिया, वहीं
धर्म है।
आज
इतना ही! फिर
कल हम बात
करेंगे।
पांच
मिनट बैठे
रहेंगे, वैसे
ही जैसे कमल
का पत्ता पानी
में बैठा रहता
है। थोड़ा इस
कीर्तन को इस
कीर्तन की
लहरों को उछल
जाने दें आपके
पास। शायद कुछ
बूंद पड़ी रह
जाएं! बैठे
रहें पांच
मिनट। इतनी
देर बैठे रहे
हैं, पांच
मिनट जल्दी न
करें। कोई
एकाध जन बीच
में उठता है, दूसरों को
तकलीफ होती
है। तो पांच
मिनट भजन का
आनंद लें, और
फिर चुपचाप
चले जाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें