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रविवार, 25 मई 2014

समाधि के सप्‍त द्वार-(ब्‍लावट्सकी) प्रवचन--03

सम्यक दर्शन—प्रवचन—तीसरा

ध्यान-शिविर, आनंद-शिला,
अंबरनाथ; रात्रि 10 फरवरी 1973,

हे शिष्य, इसके पहले कि तू गुरु के साथ और प्रभु के साथ साक्षात्कार के योग्य हो सके, तुझे क्या कहा गया था?
अंतिम द्वार पर पहुंचने के पहले तुझे अपने मन से अपने शरीर को अलग करना सीखना है, छाया को मिटा डालना है और शाश्वत में जीना सीखना है। इसके लिए तुझे सर्व में जीना और श्वास लेना है, वैसे ही जैसे वह जिसे तू देखता है, तुझमें श्वास लेता है। और तुझे सर्व भूतों में स्वयं को और स्वयं में सर्व भूतों को देखना है।
तू अपने मन को अपनी इंद्रियों की क्रीड़ाभूमि नहीं बनने देगा।
तू अपनी सत्ता को परम सत्ता से भिन्न नहीं रखेगा, वरन समुद्र को बूंद और बूंद को समुद्र में डुबा देगा।
इस प्रकार तू प्राणिमात्र के साथ पूरी समरसता में जीएगा, सभी मनुष्यों के प्रति ऐसा प्रेम-भाव रखेगा, जैसे कि वे तेरे गुरु-भाई हैं--एक ही शिक्षक के शिष्य और एक ही प्यारी मां के पुत्र।


सूफी फकीर बायजीद से किसी ने पूछा कि क्या मैं कुछ प्रश्न पूछ सकता हूं? तो बायजीद ने कहा, तुम पूछ सकते हो; लेकिन तुम प्रश्न पूछ सकते हो, इसीलिए उत्तर पाने के योग्य भी हो, ऐसा मत सोचना। तुम प्रश्न पूछोगे, जरूरी नहीं है कि मैं उत्तर भी दूं। क्योंकि उत्तर मैं तभी दे सकता हूं, जब तुम पात्र हो उत्तर को झेलने के।
गलत आदमी को दिया गया ज्ञान खतरनाक हो सकता है। अपात्र के हाथ में शक्ति, स्वयं उसके लिए और दूसरों के लिए भी हानिकर हो सकती है। अमृत भी अपात्र में जहर हो जाता है।
यह सूत्र शुरू होता है:
"हे शिष्य, इसके पहले कि तू गुरु के साथ और प्रभु के साथ साक्षात्कार के योग्य हो सके, क्या कहा गया है तुझे करने को, कैसी पात्रता तेरी निर्मित होनी चाहिए?'
लोग गुरु को खोजते हैं बिना इसकी फिक्र किए कि वे अभी शिष्य होने के योग्य हैं या नहीं। लोग परमात्मा को भी खोजते हैं, बिना इसके लिए जरा भी प्रयास किए कि उनके पास वे आंखें हैं भी कि जो परमात्मा सामने हो, तो उसे देख पाएं। और परमात्मा सदा ही सामने है और गुरु भी इतना ही निकट है।
इस अस्तित्व में जिसकी भी सत्य के लिए प्यास है, उसे मार्गदर्शन देनेवाला बहुत निकट ही उपलब्ध है। यहां कभी भी उनकी कमी नहीं है कि जो आपका हाथ पकड़ें और रास्ते पर ले जाएं। और अगर आपको लगता हो कि उनकी कमी है, तो आप एक ही बात समझना कि आपकी योग्यता नहीं कि कोई आपका हाथ पकड़े। या शायद अगर कोई आपका हाथ भी पकड़े तो आप अपना हाथ झटक कर छुड़ा लेंगे। या आपका हाथ पहले ही किन्हीं और ने पकड़ रखे हैं। या आपके हाथ इतने भरे हैं--आपने किसी और के हाथ पकड़े रखे हैं कि अब उन हाथों को हाथ में लेकर आपको किसी यात्रा पर ले जाना संभव नहीं है।
गुरु न मिले तो एक ही बात समझना कि शिष्य होना अभी संभव नहीं हुआ। जिसके आप योग्य हो जाते हैं, वह तत्क्षण मिल जाता है; इसमें जरा भी संदेह नहीं है। अगर न मिले, तो अर्थ एक ही होता है कि हम हैं अयोग्य।
क्या होगी पात्रता शिष्य की कि गुरु के साथ और प्रभु के साथ साक्षात्कार हो सके? वह अभी बूढ़ा होता चला जा रहा है। शरीर तो बिलकुल पानी की लहर है। उस पर जो प्रतिबिंब बनते हैं, वे बस पानी पर बने प्रतिबिंब हैं। जरा-सी हलचल और सब खो जाता है। जिस शरीर में हमें सौंदर्य दिखाई पड़ता है, उसमें कितनी शाश्वतता है? वह कितनी देर टिकेगा? और जो टिकता ही नहीं, वह था भी--इसका निश्चय करना मुश्किल है। जिन्होंने जाना है, वे कहते हैं कि जो है, वह सदा है और सदा रहेगा। और जो अभी है और कल नहीं हो जाता है, समझना कि वह था ही नहीं। तुम्हें भ्रांति हो गई थी कि वह है; क्योंकि सत्य तो नष्ट नहीं होता, भ्रांतियां ही नष्ट होती हैं।
रात एक सपना देखा, सुबह नहीं हो जाता है। आप सपना क्यों कहते हैं, रात जिसे देखा था उसे? क्योंकि जब देख रहे थे, तब तो वह बड़ा सत्य था, तब तो जरा-सा भी संदेह न उठता था, रंचमात्र भी मन में ऐसा खयाल न आता था कि जो मैं देख रहा हूं, वह असत्य होगा, कि स्वप्न होगा; तब तो पूरा यथार्थ था। और अगर स्वप्न में आपकी प्रेयसी मर गई थी या प्रियजन मर गया था, तो आप रोए थे और वे आंसू सच्चे थे। लेकिन इतने सच्चे भी हो सकते हैं कि जाग कर भी आंखें आप गीली पाएं। कि स्वप्न में आप सम्राट हो गए थे, तो जो आनंद मिला था, वस्तुतः सम्राट होकर जो आनंद मिलेगा, उसमें रत्ती भर भी तो फर्क नहीं है। स्वप्न जब है, तब तो बिलकुल सत्य मालूम पड़ता है, सुबह फिर आप उसे स्वप्न क्यों कह देते हैं? क्योंकि वह टूट गया, क्योंकि अब वह नहीं है। और जो इतनी जल्दी नहीं हो गया, वह रहा भी न होगा।
लेकिन जिसे हम जीवन कहते हैं, उस जीवन के स्वप्न से भी कुछ लोग जाग जाते हैं। यह वाणी उन जागे हुए लोगों की है। और तब हम जिसे जीवन कहते हैं, उससे जागकर वे हैरान होते हैं और पाते हैं कि वह भी स्वप्न था। तो इस पूरब ने, इस भूमि पर, एक सूत्र सत्य का खोजा था, और वह सूत्र यह था, जो किसी भी अवस्था में चित्त की, चैतन्य की--किसी भी अवस्था में समाप्त नहीं होता, नष्ट नहीं होता, वही सत्य है। चेतना की हर स्थिति में जो बना रहता है, चाहे आप सोएं, चाहे स्वप्न देखें, चाहे जागें, चाहे समाधि में प्रविष्ट हो जाएं, चाहे निर्वाण को उपलब्ध हो जाएं, जो हर स्थिति में सत्य होता है, चैतन्य की स्थितियों से जिसमें कोई भेद नहीं पड़ता, उसे हमने शाश्वत कहा है।
और जब तक हम उसे नहीं पा लेते, तब तक हम धन के नाम पर कंकड़-पत्थर बटोर रहे हैं। और जब तक हम उसे नहीं पा लेते, तब तक सौंदर्य के नाम पर बच्चों का खेल कर रहे हैं। और जब तक हम उसे नहीं पा लेते, तब तक हमें प्रेम का कोई भी पता नहीं हो सकता। तब तक सब झूठ है; हम झूठे आदमी हैं। और यह जो झूठा आदमी है--परिवर्तन के आसपास निर्मित होता--इसका नाम ही छाया है।
इसे थोड़ा समझ लें।
आपको भी आपकी छाया से कई दफा मिलना हो जाता है, कई बार आप लोगों से कहते हैं: मैंने अपने बावजूद ऐसा किया। मैं नहीं करना चाहता था, फिर भी मैंने ऐसा किया! यह नहीं कहना चाहता था, और मैं कह गया।
फ्रायड ने बड़ी खोज की है। लोग कहते हैं कि जबान चूक गई! लेकिन फ्रायड ने इस पर बड़ा काम किया और उसने कहा, जबान भी ऐसे नहीं चूकती है। जब आप भूल से भी कुछ कहते हैं, तब वह भी बहुत गहरा और सोचने जैसा है कि वैसा भी क्यों हुआ? उसके होने के पीछे आपकी छाया है। आपने एक झूठा व्यक्तित्व अपने भीतर बना रखा है। बच्चा पैदा होता है और झूठ निर्मित होना शुरू हो जाता है। छोटे-छोटे बच्चे राजनीतिज्ञ हो जाते हैं। बच्चा समझ लेता है कि मां मुस्कुराने से प्रसन्न होती है; मुस्कुराता हूं तो दूध देती है, मुस्कुराता हूं तो खिलौने ले आती है--तो बच्चे भी भीतर कोई मुस्कुराहट भी न हो, तो भी वह मुस्कुराता है। यह झूठ शुरू हो गया। जो उसके भीतर नहीं है, वह बाहर दिखा रहा है। इसको मैं राजनीति कहता हूं। यह बच्चा पॉलिटीशियन हो गया, यह राजनीतिज्ञ हो गया। जो इसके भीतर नहीं है, अब यह खेल कर रहा है। यह जानता है कि अगर मैं रोता हूं, परेशान होता हूं, चिढ़ता हूं, चिल्लाता हूं, चीखता हूं, मां नाराज होती है।
अब ये मनसविद कहते हैं कि बच्चे का चीखना, चिल्लाना, उसके लिए बहुत स्वास्थ्यकारी है। और जो बच्चे बचपन में नहीं चीख-चिल्ला पाते हैं, तूफान नहीं मचा पाते हैं, नाराजगी नहीं प्रकट कर पाते हैं, वे सदा के लिए मन से रुग्ण हो जाते हैं। क्योंकि यह चीखना, चिल्लाना, बच्चे का रोना एक गहरी प्रक्रिया है। यह दुख-विसर्जन का उपाय है। बच्चा जब दुखी होता है, वह उसको विसर्जित कर लेता है, वह रो लेता है, चिल्ला लेता है।
कभी एक बच्चे के साथ प्रयोग करें और आप चकित हो जाएंगे। बच्चा रो रहा है, तो न तो आप उसे डांटें, न उसे थपथपाएं, न समझाएं, शांति से उसके पास बैठे रहें, ध्यानपूर्वक उसको देखते रहें--प्रेमपूर्वक, ध्यानपूर्वक; लेकिन न तो उसे रोकें कि वह न रोए, न उसके सिर को थपथपा कर सुलाने की कोशिश करें; क्योंकि वह भी तरकीब है कि वह न रोए; उसे खिलौने भी मत दें; क्योंकि वह भी तरकीब है कि आप रिश्वत दे रहे हैं। उसका मन भी न हटाएं, कि देख, उस दरख्त पर एक सुंदर चिड़िया बैठी है। वह करके भी आप उसको अपने नैसर्गिक मार्ग से हटा रहे हैं। आप सिर्फ शांत, बिना क्रुद्ध हुए क्योंकि आपका क्रोध भी बच्चे के लिए दमन हो जाएगा। आपका फुसलाना, समझाना भी उसको उसकी निसर्गता
से हटाना हो जाएगा।
आप शांत, प्रेमपूर्ण होकर बच्चे पर ध्यान भर देते रहें, तो आप चकित होंगे, एक अनूठा अनुभव आपको होगा और अनुभव यह होगा कि जब तक आप बच्चे को प्रेमपूर्वक ध्यान देंगे, वह दिल खोल कर रोएगा, चीखेगा। जैसे ही आप ध्यान हटाएंगे; वैसे बच्चा खयाल रखेगा कि आप ध्यान दे रहे हैं या नहीं दे रहे हैं। आप ध्यान देते जाएं प्रेमपूर्ण--बच्चा थोड़ी देर रोता रहेगा। जोर से रोएगा, चिल्लाएगा फिर हलका हो जाएगा, मुस्कुराने लगेगा, प्रसन्न हो जाएगा और ऐसी प्रसन्नता बच्चे के चेहरे पर आएगी जो राजनीतिक नहीं है। वह आप को प्रसन्न करने के लिए नहीं हंस रहा है। अब यह हंसी उसके दुख के विसर्जन से आ रही है। अब वह हलका हो गया है।
कितनी देर रोएगा बच्चा? थोड़ी प्रतीक्षा करें। कितनी देर रोएगा? रोने दें। मगर यह प्रेमपूर्ण प्रतीक्षा और ध्यान जरूरी है। क्योंकि बच्चा बहुत सचेतन होता है। आपका जरा भी ध्यान हटा, तो वह जानता है कि आप उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। और आपकी उपेक्षा उसके लिए दमन बन जाती है।
मनसविद कहते हैं, नवीनतम खोजें ये हैं, कि सब बच्चों को हम इस भांति बड़ा कर सकें कि जब वे रोते हों, चिल्लाते हों, चीखते हों, तब हम उन्हें सहयोग दे सकें शांत, तो दुनिया में, और आगे की दुनिया में, विक्षिप्तता बहुत कम हो जाएगी। आप सबके भीतर रोना दबा है, चीखना दबा है। वह सब रुक गया है, अवरुद्ध हो गया है, इसलिए ध्यान पर मेरा इतना जोर है कि आप सब निकाल डालें, तो आप पुनः बच्चे की तरह हल्के और सरल हो जाएंगे। लेकिन डर लगता है, क्योंकि बचपन से उसे दबाया है। अब तो आप बहुत होशियार हो गए हैं। जब बहुत होशियार न थे, तब काफी होशियारी की और तब राजनीति के दांव अपने साथ खेले। तो अब आप बहुत होशियार हो गए हैं। अब तो आप जानते हैं कि अगर मैं चिल्लाया, तो कहीं मेरे गांव में खबर न हो जाए कि यह आदमी वहां रो रहा था। कहीं मेरी पत्नी न देख ले कि अरे तुम, जो इतने दबंग, और इस भांति रो रहे हो! वह जो हमने जाल बुन रखा है अपने आसपास, उससे एक झूठी छाया निर्मित हो गई है, एक शैडो परसनालिटि बन गई है। वह जो हमारे पास झूठे व्यक्तित्व की एक धारा चारों तरफ हमारे खड़ी है, वह जो हमारी छाया है--वह जब हम नहीं हंसना चाहते, तब हंसाती है; जब नहीं रोना चाहते, तब रुलाती है; जब रोना चाहते हैं, तब मुस्कुराती है--वह सब विक्षिप्त है। वह चौबीस घंटे हमारे साथ है, और वह हमारी छाती पर बैठ गई है। इसको हम अहंकार कहें तो हर्ज न होगा।
मनसविद कहते हैं कि इस छाया के कारण ही पूरी पृथ्वी पागल होती जा रही है। जितना सभ्य समाज हो, उतना पागलपन बढ़ जाता है। और जितना असभ्य समाज हो, उतना कम होता है पागलपन। ठीक असभ्य समाज में पागल होते ही नहीं। सभ्यता के साथ विक्षिप्तता आती है। शायद सभ्यता ही बहुत गहरे में विक्षिप्तता का मूल है, नींव है, आधार है, जड़ है।
क्यों, सभ्य होने के साथ विक्षिप्तता क्यों आती है?
आप बंट जाते हैं। आप दो हो जाते हैं। वह जो नैसर्गिक है आपके भीतर, स्वाभाविक है, उसके ऊपर एक आरोपित, संस्कारित व्यक्तित्व बैठ जाता है। फिर वही आपको चलाता है। आप अपने को जरा देखें चौबीस घंटे निरीक्षण करके, तो आपको पता चलेगा कि आप बिलकुल अस्वाभाविक हैं, झूठ हैं, एक नाटक हैं। और यह भी पता चल जाए कि आप एक नाटक हैं, तो भी बड़ी समझ आ जाए। आप समझते हैं कि नहीं यह नाटक नहीं है, जिंदगी है। यह भूल हो रही है। यह भी खयाल में आ जाए कि ठीक है, एक झूठ है, जो मैं चला रहा हूं--लेकिन होशपूर्वक। तो भी आप सत्य के निकट पहुंचने लगे।
जुंग ने भी इसे शैडो कहा है, छाया कहा है। हर आदमी के पीछे लगी है। और जैसे-जैसे आपकी उम्र बढ़ती जाती है, यह छाया बड़ी होती जाती है, सख्त और मजबूत। और ग्रस लेती है सब तरफ से, और आत्मा सिकुड़ जाती है। बच्चे के पास जो थोड़ी बहुत आत्मा होती है, वह बूढ़े के पास कहां होती है? लेकिन हम मानते हैं कि बूढ़े के पास अनुभव होता है, समझ होती है। यह छाया ही उसकी समझ और अनुभव है।
इसलिए जीसस ने अगर कहा, कि वे ही लोग मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश पा सकेंगे जो बच्चों की भांति सरल हैं, तो ठीक कहा है। अगर आप बूढ़े हो गए हैं सभी बूढ़े हो गए हैं। बच्चा पैदा होते से बूढ़ा होना शुरू हो जाता है। कई उम्र के बूढ़े हैं। कुछ कम उम्र के बूढ़े हैं, कुछ ज्यादा उम्र के बूढ़े हैं। कुछ अभी छोटे बूढ़े हैं, कुछ बड़े बूढ़े हैं। सब बूढ़े हैं। क्योंकि पैदा होते ही चारों तरफ जो झूठ का संसार--वे जो और छायावाले लोग हैं--वे चारों तरफ खड़े हैं। एक बच्चा उन्हीं के बीच तो पैदा होता है, उस बच्चे को कभी पता भी नहीं चलता। ऐसा हुआ कि अमेजान नदी के किनारे पहली दफा, आज से कोई सौ वर्ष पहले एक कबीले का पता चला। उस कबीले में जाकर खयाल में आया कि पूरा कबीला मलेरिया से बीमार है, पूरा कबीला। सब बच्चे बिना मलेरिया के पैदा होते हैं उस कबीले में भी; लेकिन पैदा होते से ही मलेरिया पकड़ जाता है, क्योंकि पूरा कबीला बीमार है, और चारों तरफ मच्छर हैं, मलेरिया के कीटाणु हैं।
उस कबीले को पता ही नहीं कि मलेरिया कोई बीमारी है, क्योंकि जब सभी बीमार हों, तो बीमारी नार्मल हो गई। तो वह कबीला तो मानकर ही चलता है कि ऐसा तो होता ही है जीवन में, यह बीमारी तो जीवन के साथ ही जुड़ी है और जब सभी बच्चे पैदा होते से ही बीमार हो जाते हैं, तो उन्हें कभी पता ही नहीं चलता कि वे बीमारी को ही स्वास्थ्य समझ लेते हैं। आधा-आधा जीते हैं, अधूरे, मरे-मरे जीते हैं। लेकिन यही स्वास्थ्य है। क्योंकि और स्वास्थ्य का कोई मापदंड भी तो नहीं है, जिससे तुलना की जा सके।
मनसविद कहते हैं कि यह सारी की सारी पृथ्वी विक्षिप्त है। और अगर मंगल ग्रह से कभी या और किसी ग्रह से कभी कोई दूसरा चैतन्य प्राणी इस पृथ्वी पर आए, तो शायद हमें पता चले कि हम सब विक्षिप्त हैं। और हम पैदा होते ही हो जाते हैं। सब बच्चे स्वस्थ पैदा होते हैं और होने के बाद रोग पकड़ना शुरू हो जाता है। क्योंकि बाप भी बीमार है, मां भी बीमार है, परिवार बीमार है, समाज बीमार है, देश बीमार है। पूरी मनुष्यता बीमार है और सब तरफ विक्षिप्तता के कीटाणु हैं। यह जो बीमार आदमी आपके भीतर पैदा हो जाता है, वह है आपकी छाया। और उसको आप इतने जोर से पकड़ लेते हैं, आप समझते हैं कि यही आपकी आत्मा, तो फिर छूटना मुश्किल हो जाता है।
यह सूत्र कहता है, अंतिम द्वार पर पहुंचने के पहले तुझे अपने मन से अपने शरीर को अलग करना सीखना है। छाया को मिटा डालना है और शाश्वत में जीना है।
छाया मिटे, तो ही शरीर और आप अलग हैं, उसका पता चलेगा। नहीं तो उसका पता ही न चलेगा। छाया के कारण पता भी नहीं चलता है कि आप कौन हैं। एक भ्रांत इकाई लगती है कि यह मैं हूं, तो आपकी वास्तविक इकाई का कोई पता ही नहीं चलता कि आप कौन हैं। आपका शरीर और आपका अस्तित्व अलग है, यह तभी पता चलेगा, जब आपको अपने अस्तित्व का पता चले। तो आपको तत्क्षण दिखाई पड़ेगा कि शरीर आपका अलग है।
लेकिन लोग उल्टा करने की कोशिश करते हैं। लोग ऐसा सोचते हैं कि शरीर अलग है, मैं अलग हूं। सोचने की जरूरत ही नहीं, यह बात सोचने की नहीं, और यह निष्पत्ति सोचने से नहीं आती। यह कोई तर्क का निष्कर्ष नहीं है कि आप आत्मा हैं, शरीर नहीं। यह एक अनुभव है। और यह अनुभव कितना ही विचारें, कितना ही विचारों को जोड़ें, उससे पैदा नहीं होता। अनुभव पैदा हो, तो विचार पैदा होता है। ध्यान रखें, विचार से कोई अनुभव नहीं आता, अनुभव हो तो विचार।
आपको पता नहीं कि आप आत्मा हैं। शास्त्रों से सुना है, सदगुरु ने कहा है। हमने भी सीख लिया है। वह सिखावन है। वह भी हमारा झूठा है, वह भी हमारी छाया का हिस्सा हो गया है। किसी से भी पूछें,तो वह कहता है, हां मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं हूं। और यह उसकी छाया बोल रही है, वह स्वयं नहीं बोल रहा है। हम सत्य भी झूठ के मुंह से बोलते हैं। हमारे सत्य भी झूठ हैं। क्योंकि हम झूठ हैं, हमसे जो भी होगा, वह झूठ हो जाएगा हमारे छूते ही। जैसे मिडास की कथा है कि वह जो भी छूता, वह सोना हो जाता। हम उससे भी बड़े कारीगर हैं। हम सत्य को भी छुएं तो झूठ हो जाता है। हम जो भी चीज हाथ में ले लें, झूठ हो जाती है। हमारे हाथों के कारण कुरान झूठ हो गई, बाइबिल झूठ हो गई, गीता झूठ हो गई, वेद झूठ हो गए। हमारे हाथों के कारण हम बुद्ध को झूठ कर देते हैं, महावीर को झूठ कर देते हैं, क्राइस्ट को झूठ कर देते हैं, कृष्ण को झूठ कर देते हैं। हम जिसे छूते हैं, वह झूठ हो जाता है। हम झूठ हैं।
और यह जो हमारी छाया है, यह जो हमारा झूठा खयाल है अपने होने का कि मैं यह हूं, इसे तोड़ने के लिए कुछ करना पड़ेगा। सोचने से नहीं होगा। सोचने से इसीलिए नहीं होगा कि सोचने पर तो कब्जा कर रखा है आपकी छाया ने ही। यह तो आपको वही सोचने का मौका देती है, जिससे उसको पोषण मिलता है। उसे ही तोड़ना है, तो फिर सोचने से नहीं हो पाएगा। आपको कुछ करना पड़े अस्तित्वगत, एक्जिस्टेंशियल। इसलिए ध्यान पर मेरा इतना जोर है। और मेरा ही नहीं, जो भी आपको अस्तित्व में ले जाना चाहता है, उसका जोर ध्यान पर होगा। और जो आपको विक्षिप्तता में ले जाना चाहता है, उसका जोर विचार पर होगा।
मैं आपको अच्छा आदमी नहीं बनाना चाहता हूं क्योंकि अच्छा आदमी तो उसी छाया का हिस्सा है। मैं तो आपको प्रामाणिक आदमी, अथेंटिक बनाना चाहता हूं। अच्छा नहीं, अच्छे-बुरे की बात ही व्यर्थ है। सच्चा, चोखा, खालिस, शुद्ध, शुभ नहीं। शुद्ध, निर्दोष, सीधा, साफ, नैसर्गिक; जैसा लाओत्से कहता है, सरल बच्चे की भांति, वैसा आदमी।
वैसा आदमी विचार से नहीं जन्मता। विचार तो हमारे भीतर सभी चीजों को आड़ा-तिरछा कर देता है। जैसे पानी में एक डंडे को डालें, डालते ही पानी में डंडा तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। होता नहीं है तिरछा; बाहर निकालें, सीधा है। ऐसा नहीं कि बाहर निकल कर फिर सीधा हो जाता है और भीतर जाकर तिरछा हो जाता है। पानी तिरछा नहीं कर सकता; लेकिन पानी में, पानी के माध्यम में, हर चीज तिरछी होकर दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है।
विचार का जो माध्यम है, वहां हर चीज तिरछी हो जाती है। ध्यान के माध्यम में चीजें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जैसी हैं। और विचार के माध्यम में वैसी दिखाई पड़ती हैं, जैसी आप देखना चाहते हैं। आप उनको आड़ा-तिरछा कर देते हैं, अपने अनुकूल कर देते हैं।
खयाल रहे, विचार में आप जो भी देखते हैं, उसे आप अनुकूल कर लेते हैं। और आप अगर गलत हैं, तो सब गलत हो जाता है।
ध्यान में आप वही देखते हैं, जैसा है। और आपको उसके अनुकूल होना पड़ता है। विचार में सब कुछ आपके अनुकूल हो जाता है।
ध्यान में आपको अस्तित्व के अनुकूल होना पड़ता है। इसलिए ध्यान में रूपांतरण हो जाता है।
छाया को मिटा डालना है और शाश्वत में जीना है।
कैसे मिटेगी यह छाया?
तीन बातें ध्यान रखनी जरूरी हैं। एक तो इसका खयाल रहे कि यह मैं नहीं बोल रहा हूं, यह मेरी छाया बोल रही है। यह मैं नहीं कर रहा हूं, यह मेरी छाया कर रही है। यह मैं नहीं मुस्कुराया, मेरी छाया मुस्कुराई है। इसका सतत स्मरण रहे, तो आपके और आपकी छाया के बीच अंतराल बढ़ता जाएगा। यह स्मरण ही अंतराल बन जाएगा।
दूसरी बात, यह जो छाया है आपकी, जो जगह-जगह प्रगट हो जाती है, अच्छा हो इसे संबंधों में प्रगट करने की बजाय, एकांत में प्रगट होने दें, क्योंकि तब संबंध जटिल हो जाते हैं।
मेरा अनुभव है कि आप रोज चौबीस घंटे के जीने में कुछ क्रोध इकट्ठा
कर लेते हैं; जैसे आदमी धूल इकट्ठी कर लेता है। धूल के लिए तो आप रोज स्नान कर लेते हैं; लेकिन क्रोध के लिए रोज आप क्या करते हैं? धूल इकट्ठी होती है, शरीर को धो डालते हैं, वस्त्र बदलते हैं। लेकिन मन पर भी धूल इकट्ठी होती है। चौबीस घंटे के जीने में धूल इकट्ठी होगी, स्वाभाविक है।
इस मन की धूल के लिए आप क्या करते हैं?
यह इकट्ठी होती चली जाती है। और तब उसकी पर्तें जम जाती हैं। और फिर ये पर्तें टूट-टूट कर गिरने लगती हैं; और वे अकारण, असमय में, कहीं भी गिर जाती हैं। उनका ध्यान रखें। वह आपकी छाया की पर्तें हैं, जो बहुत भारी हो गई हैं; और जिनको ढोना मुश्किल है।
कभी आपने खयाल किया, आप आकस्मिक, अचानक अपने को क्रोधित अनुभव करते हैं। या बहाना बहुत छोटा है, क्रोध बहुत ज्यादा कर लेते हैं। जहां सुई से काम चल जाता है, वहां एकदम तलवार निकाल ली। कभी आपने देखा भी यह? यह कैसे हो जाता है? जहां सुई से काम चल जाता वहां आपने तलवार कैसे निकाल ली? और सबको दिखाई पड़ता है, कि यह जरा ज्यादती है, आपको भर दिखाई नहीं पड़ता। कारण यह है कि आपको सुई से मतलब नहीं, आप तलाश में थे कि कहीं कोई मौका, कोई अवसर, कोई सुविधा मिल जाए--और भीतर बड़ी पर्त इकट्ठी हो गई क्रोध की, उससे आप छुटकारा पा लें।
जिन घरों में बच्चे नहीं होते, उन घरों में पति-पत्नी ज्यादा लड़ते हैं। बच्चे होते हैं तो कम लड़ते हैं। क्योंकि बच्चे काफी पर्त झड़ाने के लिए अवसर बन जाते हैं। कोई कमजोर चाहिए, जिस पर झड़ जाए। बड़े परिवार थे, संयुक्त परिवार थे, तो पति-पत्नी अक्सर संयुक्त परिवार में मित्र होते हैं; क्योंकि उनके कामन एनिमी होते हैं, जिनसे वे मिल कर लड़ते हैं। सास है, ससुर है, या कोई और है। लेकिन अगर पति-पत्नी अकेले रह जाएं, तो झंझट हो जाती है।
अगर आज अमरीका में इतने ज्यादा तलाक हैं, तो इसका कारण अमरीका नहीं, संयुक्त परिवार का विसर्जित हो जाना है।
वे तो जो निकट है उसी पर गिरेंगी। जो निकटतम है, उसी पर गिरेंगी। सिर्फ बहाने की तलाश रहती है; कोई बहाना मिल जाए, और हम निकाल दें। इससे सारे संबंध विकृत और विषाक्त हो जाते हैं। नहीं, यह योग्य नहीं है। अगर आपका शरीर गंदा है तो आप एकांत में स्नान कर लेते हैं; इसके लिए आप बाजार में खड़े होकर शोरगुल नहीं मचाते।
ध्यान स्नान है अंतस का।
वह जो रोज-रोज इकट्ठा हो जाता है, उसे आप एकांत में, ध्यान में विसर्जित करते हैं। लोग मुझसे आकर पूछते हैं, आज ही एक मित्र ने आकर पूछा, क्या केथारसिस बिलकुल जरूरी है? क्या यह रेचन इतना आवश्यक है कि हम चिल्लाएं, रोएं, क्रोधित हों?
क्या इसके बिना ध्यान न हो सकेगा?
नहीं हो सकेगा। हो सकता होता, तो हो ही गया होता। वह नहीं हो सका है अब तक, उसका कारण यही पर्तें हैं। और एकांत में झड़ाने में हमें कठिनाई मालूम पड़ती है; क्योंकि इररेशनल, अतक्र्य मालूम होती है बात। अगर किसी ने गाली दी, तो क्रोध करने में योग्य मालूम पड़ता है कि गाली दी, इसलिए क्रोध कर रहे हैं। और यहां मैं ध्यान में आपसे कहता हूं कि क्रोध को निकल जाने दें, तो आपको बड़ी मुश्किल मालूम पड़ती है। किस पर निकल जाने दें? कोई उपद्रव कर भी नहीं रहा है--कहां निकल जाने दें?
आपको यह कला सीखनी पड़ेगी। किसी पर क्रोध फेंकने की जरूरत नहीं है। यह खाली आकाश बड़े प्रेम से आपके क्रोध को स्वीकार कर लेता है। और मजा यह है कि अगर किसी आदमी पर आपने क्रोध निकाला, तो वहां से भी क्रोध निकलेगा, वहां भी ज्वालामुखी है, वह भी आपके जैसा आदमी है। वह भी तलाश में है, आप ही थोड़ी तलाश में हैं। यह मुलाकात, दोनों के लिए संगत है।
इसलिए बुद्ध ने कहा है कि क्रोध से क्या होगा? और क्रोध आएगा, फिर और क्रोध करना पड़ेगा। उसकी शृंखला का तो कोई अंत नहीं है। हमें तो दिखाई नहीं पड़ता, हमें वह शृंखला दिखाई नहीं पड़ती; नहीं तो हम जन्मों-जन्मों तक एक दूसरे से बंधे हुए क्रोध क्यों करते रहते? जिससे आप पिछले जन्म में लड़े हैं, उससे आप आज भी लड़ रहे हैं। चलता रहता है संघर्ष; लंबी यात्रा बन जाती है, शृंखला बन जाती है, कड़ियां बन जाती हैं।
तो दूसरे पर क्रोध करने से कुछ हल नहीं होगा। लेकिन खुले आकाश में क्रोध को विसर्जित कर दें, दूसरों का ध्यान ही न रखें। अपना ही ध्यान रखें कि मेरे भीतर क्रोध है, मैं इसे बाहर कर दूं। वह शून्य है, और शून्य की छाती बड़ी है। शून्य आपके क्रोध को वापस नहीं करता; आपके क्रोध को आत्मसात कर जाता है, पी जाता है। इसलिए हमने शंकर के गले में नीला रंग डाला है, वह जहर पीने का प्रतीक है। वह परमात्मा हमारा सारा जहर पी लेता है। वह नीलकंठ है। वह चारों तरफ मौजूद है। हम उसे सब जहर दे दें, बेफिक्र। वह जहर उसे नुकसान भी नहीं करेगा। सिर्फ उसका कंठ नीला हो जाएगा, और सुंदर लगेगा।
ध्यान में रेचन अनिवार्य है; क्योंकि वह स्नान है भीतर का। क्रोध भी शून्य में डाल दें; दुख भी, पीड़ा भी, संताप भी, चिंता भी। और इसको सिर्फ मन से ही न करें, इसको पूरे शरीर से प्रगट हो जाने दें। क्योंकि हमारा शरीर भी ग्रसित हो गया है। आपको पता नहीं क्योंकि हम शरीर के इतने अनविज्ञ हो गए हैं; आत्मा तो बहुत दूर है, हमें शरीर की भी कोई विज्ञता नहीं है। हमें यह भी पता नहीं कि हमारे शरीर में क्या हो रहा है, हम क्या कर रहे हैं।
आपको पता है, मनसविद कहते हैं कि जो लोग क्रोध को पी जाते हैं उनके दांत जल्दी खराब हो जाते हैं। अब दांत से क्रोध का क्या लेना-देना? लेकिन लेना-देना है। क्योंकि क्रोध जब आप करते हैं, आपने खयाल किया, आपके दांत पीसना चाहते हैं। आपके दांत किसी चीज को पकड़ना और काटना चाहते हैं। अगर आप ठीक क्रोध में बह जाएं, तो आप काट ही खाएंगे। छोटे बच्चे काट लेंगे, स्त्रियां काट लेंगी। पुरुष नहीं काटता तो अहंकार के वश; तबीयत तो उसकी भी होती है कि वह भी काट ले। क्योंकि हमारे पीछे करोड़ों वर्ष का जानवरों का इतिहास है। पशु तो जब क्रोधित होता है, तो दांत से ही चीरेगा, फाड़ेगा--नाखून और दांत दोनों चीजें हैं, दो ही उसके पास हथियार हैं। आदमी ने और हथियार बना लिए हैं, इसलिए दोनों हथियार बेकार हो गए। लेकिन शरीर की प्रक्रिया अब भी पुरानी है।
जैसे ही क्रोध आता है, आपके नाखूनों की तरफ और दांत की तरफ जहर फैलना शुरू हो जाता है। आपके खून में जहर की ग्रंथियां काम शुरू कर देती हैं, और वह आपके नाखून और आपके दांतों की तरफ दौड़ने लगता है, आपके शरीर को कुछ भी पता नहीं है।
आपके पास शरीर तो पशु का ही है। उसकी सारी व्यवस्था पशु की ही है। वह वैसे ही काम करता है, जैसा तब काम करता था, जब आप दांत से भर लेते थे गला दुश्मन का, नाखून से उसका पेट फाड़ डालते थे। अब भी आपका शरीर वैसे ही काम करता है। लेकिन अब आप न तो दांत का उपयोग करते हैं, न नाखून का। आपने और कुशल दांत और और कुशल नाखून निकाल लिए हैं। हम हाइड्रोजन बम तक पहुंच गए हैं। हमने काफी लंबी यात्रा कर ली है। लेकिन हमारा जहर, जो हमारे भीतर पैदा हो रहा है, उसको हाइड्रोजन बम तो पी नहीं सकता है। वह आपके शरीर में भर जाता है।
विलहेम रेक, जिन लोगों को क्रोध की आदत है, उनके दांत के मसूड़ों को दबाता था और दबाने से ही वह आदमी चीखने लगता था, और क्रोधित हो जाता था विलहेम रेक को अपने आसपास दो आदमी रखने पड़ते थे, जब वह मरीज का इलाज करता था। आदमी चीखने लगता था। क्योंकि वह आदमी जब ठीक क्रोध से भर जाता था तो जो आदमी निकट होता, विलहेम रेक, उसी पर हमला कर देता था। तो दो उसको सुरक्षा के लिए आदमी रखने पड़ते थे।
यह सब आपके भीतर भरा है। यह मैं किसी और के संबंध में नहीं कह रहा
हूं। यह बात आपसे हो रही है, निपट आपसे, सीधी। मन कहता है कि किसी और के बाबत कह रहे हैं और बिलकुल ठीक कह रहे हैं। यहां दूसरे की चर्चा ही नहीं है, आपसे सीधी-सीधी बात हो रही है। यह सब भी निकल जाना जरूरी है तब ही आप हल्के हो पाएंगे। तो जब ध्यान के लिए मैं कहता हूं कि आप अपने शरीर को विक्षिप्त हो जाने दें, तो मेरा प्रयोजन है। आपके शरीर में, जहां-जहां दबा है क्रोध, दबी है हिंसा, दबा है वैमनस्य, दबे हैं न मालूम कितने जहर घृणा के, वे सब निकल जाने दें। आप हल्के हो जाएंगे और उस हल्केपन में आपको पहली दफा भीतर के स्नान का पता चलेगा।
ध्यान भीतर का स्नान है। और रेचन अनिवार्य है, तभी आगे यात्रा हो सकती है।
हम मंदिर जाते हैं, तो स्नान करके जाते हैं। कोई नहीं पूछता कि स्नान करके जाने की क्या जरूरत है? जा सकते हैं मंदिर आप बिना स्नान किए भी, लेकिन तब मंदिर में आप होंगे भी, लेकिन मंदिर में प्रवेश न होगा। क्योंकि मंदिर में प्रवेश के लिए जो अपने को थोड़ा भी स्वच्छ करके नहीं गया है, और आशा में गया होगा कि मंदिर उसे स्वच्छ कर दे, वह नासमझ है।
जो हम मांगते हैं अस्तित्व से, उसकी हमें तैयारी चाहिए।
और हमें वही मिल सकता है, जिसके लिए हम तैयार होकर गए हैं। लेकिन वह बाहर का स्नान तो ठीक है; भीतर का स्नान अत्यंत जरूरी है मंदिर में जाने से पूर्व। और भीतर आपने इतने रोग इकट्ठे कर रखे हैं! और जब मैं कहता हूं रोग, तो मैं कोई उपमा का उपयोग नहीं कर रहा हूं, कोई प्रतीक नहीं कह रहा हूं; ठीक यही शाब्दिक अर्थ है मेरा--रोग इकट्ठे कर रखे हैं।
अभी तो जाना गया है कि आदमी के पचास से नब्बे प्रतिशत रोग उसके मन से पैदा हो रहे हैं। लेकिन परिणाम शरीर में होते हैं। क्योंकि मन से जहर धीरे-धीरे शरीर में रिस जाता है, भर जाता है, और शरीर में दूरगामी परिणाम होते हैं। यहां जो ध्यान में रेचन का हम प्रयोग कर रहे हैं, अगर आप हृदयपूर्वक कर सकें, तो आपका मन तो शुद्ध होगा ही, आप पाएंगे कि आपका शरीर भी--स्वास्थ्य के नए आयाम आप पा सकते हैं, कि बहुत सी बीमारियां अचानक गिर गईं आपके रेचन के साथ। वे जो आपको जकड़े हुए थे बहुत से रोग, सब अचानक विदा हो गए।
और, जैसे मैं उदाहरण के लिए कहता हूं कि अगर आपको अस्थमा है, तो उसका अर्थ है कि श्वास और मन में कहीं न कहीं कोई संबंध विकृत हो गया है, कहीं न कहीं कोई संबंध टूट गया है; कोई अड़चन आ गई है। अगर यह गहरी श्वास का आप ठीक से प्रयोग कर सकें, तो वह अड़चन टूट जाएगी, वह गिर जाएगी। अगर आपको सिर में दर्द बना रहता है, तो उसका अर्थ है कि सौ में नब्बे मौके तो ये हैं कि कुछ ऐसी चिंताएं घर कर गई हैं, जो कीड़े की तरह सिर को भीतर खाए चली जाती हैं।
और आप बोझिल हैं, भारी हो गए हैं। अगर वे चिंताएं गिर जाएं, तो आप अचानक पाएंगे कि आपका सिर हल्का हो गया है। भीतर जैसे कोई बोझ था सदा का, वह हट गया है। जैसे कोई खीली ठोके जा रहा था भीतर, वह बंद हो गई।
आपके शरीर में जो भी घट रहा है, उसके कहीं न कहीं सूत्र आपके मन में हैं। और आपके मन में जो घट रहा है, वह शरीर से जुड़ा है। यह रेचन अगर हो पाए, तो ही आपको पता चल सकेगा कि आप कुछ और हैं और शरीर कुछ और है। क्यों?
क्योंकि इस रेचन के होते ही आपके और शरीर के बीच जो हजार तरह के गठ-बंधन हो गए हैं रोगों के, वे टूट जाएंगे। आप रोगों के कारण शरीर से जुड़े हैं। आपको शरीर से जोड़ने की जो मौलिक संधि है, जोड़ है, वह रोग है।
हमने अपने मुल्क में उसे कर्मों की शृंखला कहा है। पापों की शृंखला कहा है। जिससे हम शरीर से जुड़े हैं, उसे नई भाषा में हम रोग कह सकते हैं, बीमारी कह सकते हैं। हमने ऐसा जाना है इस देश में कि हम बीमार हैं, इसलिए शरीर में हैं; जिस दिन हम बीमार न होंगे, उस दिन हम शरीर में न होंगे।
इसलिए इस मुल्क की हजारों-हजारों साल की प्रार्थना रही है कि हे प्रभु, कब आवागमन से मुक्ति होगी? आवागमन से मुक्ति का अर्थ है कि कब वह क्षण आएगा, जब कि शरीर से बांधनेवाला एक भी रोग न रह जाएगा और मेरी नाव शरीर से पूरी तरह छूट जाएगी। कहीं भी किनारे से कोई रस्सी बंधी न होगी। और तब मेरी नाव आनंद की यात्रा पर निकल जाएगी।
यह ध्यान के अतिरिक्त न कभी हुआ है, न हो सकता है। और जितना ज्यादा आप सभ्य हो गए हैं, उतने ही ज्यादा रेचन की जरूरत है। वह सभ्यता निकालकर फेंकनी पड़ेगी। सभ्यता महारोग है।
"इसके लिए तुझे सर्व में जीना और श्वास लेना है, वैसे ही जैसे वह सब जिसे तू देखता है, तुझ में श्वास लेता है। और तुझे सर्व भूतों में स्वयं को और स्वयं में सर्व भूतों को देखना है।
यह सूत्र बड़ा कीमती है। इसे समझें और प्रयोग में लाएं।
"इसके लिए तुझे सर्व में जीना और श्वास लेना है।
हम जीते हैं अपने में टूटे-टूटे। सर्व में जीने का क्या अर्थ होगा?
एक फूल खिला है और आप उसके पास बैठे हैं, मन होता है कि तोड़ो इस फूल को। यह आप अपने में जी रहे हैं। यह इतना सुंदर फूल खिला है, इसे सिर्फ तोड़ने का ही खयाल पैदा होता है। इस फूल में जीने का भाव पैदा नहीं होता? कितना सुंदर फूल खिला है। थोड़ा हम भी इसमें झांकें और प्रवेश करें, थोड़ा इसमें हम भी जीएं। शायद तब इसके सौंदर्य की गंध हमें भी छू जाए।
और तब शायद इसकी पंखुड़ियों पर जो ओस जमी है, वैसी ताजगी हममें भी उतर आए। तो फूल के पास बैठकर तोड़ने के भाव का अर्थ है कि फूल से हमें कोई मतलब नहीं है। हम फूल में नहीं जी सकते, हम केवल फूल का परिग्रह कर सकते हैं। फूल को हम अपने आसपास जिला सकते हैं, लेकिन हम फूल में प्रवेश नहीं कर सकते।
चांद निकला है, तो कभी सोचा है कि हम थोड़ा उड़ें। चांद पर तो अब आदमी पहुंचने लगा, लेकिन वे लोग जो चांद तक पहुंच रहे हैं, वे भी चांद तक उड़ान नहीं भर सकते। चांद पर पहुंच सकते हैं, उसमें कोई अड़चन नहीं। लेकिन चांद पर उड़ान का अर्थ है कि चांद निकला है आकाश में, थोड़ी देर को हम चांद के साथ एक हो जाएं। और चांद हो जाएं और चांद के साथ यात्रा करें आकाश की।
भूल जाएं अपने इस क्षुद्र अस्तित्व को यहां, उड़ जाएं दूर। एक काव्य की छलांग लगाएं--कभी सागर में, कभी आकाश में, कभी फूलों में, कभी पहाड़ों में, कभी किसी मनुष्य की आंखों में! उतरें दूसरे में, और दूसरे में थोड़ी देर को जीएं
अजीब लगता है; क्योंकि दूसरे में कैसे उतरें? एक गहरी समानुभूति हो तो उतरा जा सकता है। जब आप अपने प्रेमी की आंख में झांकें, तो सिर्फ प्रेमी की आंख में मत झांकें, उतर भी जाएं साथ, उसके भीतर प्रवेश भी कर जाएं। शुरू में शायद अड़चन भी मालूम पड़े; क्योंकि हम भयभीत हो गये हैं। और इसलिए हम एक-दूसरे की आंखों में देखने में डरते हैं। और अशिष्टता समझी जाती है, अगर कोई किसी की आंख में ज्यादा झांककर देखे, जब तक कि दूसरे से कोई बहुत ही निकट आत्मीयता न हो। नहीं तो कोई झांककर नहीं देखता। क्यों? क्योंकि दूसरे में उतर जाने का डर है। आंख द्वार है। अगर उसमें कोई झांककर देखे तो भीतर उतर सकता है।
अभी पश्चिम में कुछ नई विधियां खोजी गई हैं, जिनमें आंखों में झांकना भी एक विधि है। दो व्यक्ति बैठ जाते हैं और घंटे भर तक एक दूसरे की आंख में झांकते रहते हैं। अनूठे अनुभव होते हैं। कभी-कभी तो जीवन को बदल जाने वाले अनुभव होते हैं। क्योंकि अगर एक घंटे तक बिना पलक झपके आप एक-दूसरे की आंख में झांकते हैं, तो थोड़ी देर के बाद झलक एक क्षण को आती है कि आप को लगता है कि अपने में नहीं हैं, दूसरे में हैं। इसलिये आंख पर हमने प्रतिरोध लगा रखा है कि कोई किसी की आंख में न झांके। और अगर कोई आदमी आपको झांक कर देखे तो अशिष्ट मानते हैं। खतरनाक भी है।
क्योंकि आंख बहुत संवेदनशील झरोखा है, उससे कोई भीतर जा सकता है। इसलिए ही जिसको हम चाहते हैं कि हमारे भीतर जाएं, उसी को हम आंख से झांकने देते हैं। पर अगर एक-दूसरे की आंख में झांकें, तो आप एक-दूसरे में उतरने का अनुभव कर सकते हैं। और एक-दूसरे में ऐसे ही उतरना हो जाता है, जैसे कोई एक गहरे कुएं में उतर रहा हो। और दूसरे व्यक्ति में उतर कर जानना कि दूसरा क्या है, बहुत ही अनूठी प्रतीति है। उसके बाद आप वही नहीं होंगे, जो आप थे। आपका विस्तार हुआ--एक्सपेंशन आफ कांशसनेस, आपकी चेतना बढ़ी।
लेकिन व्यक्तियों में ही झांका जा सकता है, ऐसा नहीं है। पशुओं में भी झांका जा सकता है, और फूलों में, पौधों में भी और फिर पत्थर की चट्टानों में भी। और तब यह सारे अस्तित्व में झांका जा सकता है और जीया जा सकता है। और जब तक आप यह कला न सीख लेंगे, तब तक अहंकार से कोई छुटकारा नहीं।
अगर आप अहंकार को छोड़ने में लगे, तो कभी न छूटेगा। लेकिन आप अगर सर्व में जीने की कला सीख गए, तो एक दिन आप अचानक पाएंगे कि वह कहीं छूट गया है। आपको पता
भी नहीं चला, कब छूट गया। जैसे सांप की केंचुली कहीं छूट गई और बाद में उसे होश आया हो कि केंचुली कहां गई। जैसे सूखा पत्ता किसी वृक्ष से गिर गया हो और वृक्ष को पता भी न चला हो। वह अपनी गहरी शांति में मौन रहा हो, सूखे पत्ते की आवाज भी न आई हो। अचानक जब नया पत्ता आ गया हो, तब उसे खयाल में आया हो कि सूखे पत्ते कहां गए। ऐसा ही जो दूसरे में झांकना सीख जाता है, और सर्व में जीने की कला, तो धीरे-धीरे उसका अहंकार कब खो गया, उसे पता नहीं चलता।
और अगर आपको पता चले कि आपका अहंकार खो गया है, तो उसका मतलब कि यह एक नया अहंकार पैदा हो गया है कि मैं विनम्र हूं, कि मैं निरहंकारी हूं, कि मेरा अहंकार नष्ट हो गया है। यह कौन कह रहा है? यह कौन जान रहा है?
"सर्व में जीना है, सर्व में श्वास लेना है, वैसे ही जैसे वह सब जिसे तू देखता है, तुझ में श्वास लेता है।
इसका कोई छोटा प्रयोग करें, यहां कैम्प में। आप बहुत हैरान हो जाएंगे। कल सुबह, दोपहर जब मौज आ जाए और जब मन थोड़ा शांत, प्रफुल्लित और आनंदित हो। और यह भी खयाल ले लें कि धीरे-धीरे आपको अपने मन की एक जानकारी बना रखनी चाहिए कि आपका मन कब प्रसन्न होता है, कब आनंदित होता है। मन के भी मौसम हैं। और अगर आप ठीक से अपने मन का निरीक्षण एक तीन महीने तक करें, तो आप अपने भविष्य की भी घोषणा कर सकते हैं कि शुक्रवार की सुबह आप अपनी पत्नी को पहले से कह सकते हैं कि तू सावधान रहना, कि शुक्रवार की सुबह मैं थोड़ा अशांत होता रहा हूं। और वह मौसम आएगा। और अगर घर में हर आदमी का कैलेन्डर हो, तो पूरा घर सचेत हो सकता है। और तब बड़ी मौज होगी, बड़ा आनंद आएगा; क्योंकि आपको पता है कि शुक्रवार की सुबह पति क्रोधित होंगे, तो फिर आपको क्रोधित होने की कोई जरूरत नहीं। तब हंसा जा सकता है। और अगर पति को पता है कि पत्नी फलां संध्या को उपद्रव खड़ा करेगी, इसका अगर जाहिर ही है मामला, तो मुझसे कुछ लेना-देना नहीं है। वह वैसे ही है, जैसे मेनसिस होता है, माहवारी होती है। यह वैसे ही है। इससे कुछ नाराज होने की जरूरत नहीं, ये भीतरी परिवर्तन हैं व्यक्ति के। होते हैं, जैसे मौसम बदल जाता है। वर्षा आ जाती है, तो हम गाली नहीं देते हैं। और धूप निकल आती है, तो हम जानते हैं कि धूप निकलेगी। और रात अंधेरा हो जाता है, तो हम जानते हैं कि रात है। व्यक्ति भी ऐसे ही हैं।
तो कल जरा खयाल लेना कि मन जब प्रसन्न और आनंदित हो, थोड़ा ध्यान की तरफ झुका हो, तब एक छोटा सा प्रयोग करना। एक छोटे से पत्थर को बड़े प्रेम से उठा लेना, अपने हाथ में रख लेना, एकांत में बैठ जाना, आंख उस पत्थर पर जमा लेना, फिर धीरे-धीरे गहरी सांस लेना, और एक ही ध्यान रखना, देखते रहना, देखते रहना पत्थर को कि पत्थर कब श्वास लेना शुरू करता है। आप धीरे-धीरे श्वास लेते रहना और पत्थर पर आंखें गड़ाए रखना। आप चमत्कृत होंगे। वह क्षण शीघ्र ही आ जाएगा, जब आपको प्रतीति होगी कि पत्थर भी श्वास ले रहा है। आपकी ही श्वास विस्तीर्ण हो गई है। पत्थर की भी श्वास है, बहुत धीमी है। आपकी श्वास जुड़ जाए, तो मैग्नीफाइ हो जाती है, बड़ी हो जाती है। और तब आपको प्रतीति हो सकती है।
और अगर आपको पत्थर में श्वास की प्रतीति हो जाए, तो आपको महावीर की अहिंसा का पता चलेगा। और तब यह सारा जगत आपको श्वास से भरा हुआ, प्राणों से आन्दोलित लगेगा। तब यहां किसी को भी, एक पत्थर को भी चोट पहुंचाना मुश्किल हो जाएगा।
"श्वास लेना वैसे ही, जैसे सब जिसे तू देखता है, तुझमें लेता है। और तुझे सर्वभूतों में स्वयं को और स्वयं में सर्वभूतों को देखना है।
यह प्रतीति बढ़ती जाए। यह दोहरी तरह से हो सकती है। पहले देखना कि पत्थर में आपकी श्वास प्रवेश कर गई। फिर इससे उल्टा भी आप अनुभव कर सकते हैं कि पत्थर आपमें श्वास लेने लगा। लेकिन हमें श्वास की कला का पता नहीं है।
गुरजिएफ के संबंध में कहा जाता है कि कभी-कभी वह अचानक कुछ लोगों को अजीब तरह के धक्के, शाक दे देता था। जैसे आप गुरजिएफ के पास बैठे हैं, गुरजिएफ एक बहुत रहस्यवादी संत था। जैसे आप उसके पास बैठे हैं, अचानक आपको लगेगा कि बिना कुछ किए उसने आपकी नाभि पर चोट की और उसने आपको छुआ भी नहीं। उसके शिष्य बड़े हैरान थे कि वह करता क्या है? उसकी यह चोट बड़ी गहरी हो जाती थी। और तब शिष्यों ने धीरे-धीरे निरीक्षण किया कि वह करता क्या है। तो निरीक्षण में पाया कि वह पहला काम तो यह करता है कि वह आपके साथ श्वास लेने लगता है--जो श्वास आपकी है।
रिदिम, जो गति, वैसी गति वह भी श्वास की अपनी कर लेता है। और जब दोनों की गति बिलकुल एक हो जाती है, तब वह कोई भी विचार करे, वह आप में संक्रमित हो जाता है।
तो यह आप करके देख सकते हैं। जब भी किसी व्यक्ति के साथ आपकी श्वास बिलकुल एक गति हो जाती है, एक लय में बद्ध हो जाती है, तब आप भीतर मिल गए; तब आप दो प्राण नहीं, एक प्राण हो गए। और आपकी दो श्वासें एक वर्तुलाकार चक्र बन गईं। अब आप कोई भी भाव संक्रमित कर सकते हैं। अब कोई भी भाव भीतर प्रवेश हो जाता है। और यह न केवल व्यक्तियों के साथ, पशुओं के साथ, पौधों के साथ, पत्थरों के साथ, सभी के साथ हो सकता है। थोड़ा कठिन होता है, जैसे ही हम मनुष्य से नीचे जाते हैं। क्योंकि हम तो मनुष्य से ही नहीं जुड़ पाते हैं, तो पौधे से जुड़ना तो बहुत दूर का नाता है। वह भी हमारे परिवार का हिस्सा है; क्योंकि हम कभी पौधे थे। लेकिन बड़ी लंबी यात्रा हो गई। उससे हमारे नाते-रिश्ते बहुत दूर के हो गए। हम भी कभी पशु थे, पर उससे हमारे नाते-रिश्ते बहुत दूर के हो गए। लंबी है यात्रा और भाषा का बड़ा फासला पड़ गया है। आदमी से नहीं जुड़ पाते हम। जिनसे हम प्रेम करते हैं, उनके साथ भी हमने कभी एक लयबद्ध श्वास का अनुभव नहीं किया है।
इसे थोड़ा अनुभव करें और इस को थोड़ा फैलाएं। यह जैसे-जैसे फैलता जाएगा, तब आप सूरज को देख सकते हैं और आपको ऐसा नहीं लगेगा कि आप ही सूरज को देख रहे हैं। अगर आपको सर्व के साथ एक होने की थोड़ी सी प्रतीति है, तो आपको यह भी लगेगा कि सूरज भी आपको देख रहा है। और तब ऐसा नहीं लगेगा कि एक फूल के पास आप बैठे हैं, ऐसा भी लगेगा कि फूल आपके पास बैठा है। और ऐसा नहीं लगेगा कि आपने ही उसको निहारा, उसने भी आपको निहारा।
हमने बड़ी मीठी कथाएं इस संबंध में रची हैं। उन कथाओं में लोग कई बार उलझ जाते हैं और मुश्किल में पड़ते हैं, क्योंकि समझ नहीं पाते हैं। और धर्म के बहुत सत्य कविता में कहे गए हैं। और कोई उपाय नहीं है। धर्म की भाषा काव्य है। विज्ञान धर्म की भाषा नहीं है। हो भी नहीं सकता, होना भी नहीं चाहिए। कोई चेष्टा भी करे, तो वह अनुचित है।
तो हमने कहा है कि महावीर अगर निकलते हैं, या बुद्ध अगर निकलते हैं, तो असमय में भी वृक्ष पर फूल आ जाते हैं। हम सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि बुद्ध ही नहीं देखते वृक्ष को, वृक्ष भी बुद्ध को देखता है। और वृक्ष बेचारा कर भी क्या सकता है इससे ज्यादा कि बुद्ध पास आए हों, तो फूल बन जाए। फूल वृक्ष की आंखें हैं, उनसे वह बुद्ध को निहारेगा। कुछ लेन-देन होगा। दोनों के बीच कुछ मिलन हो जाएगा। जरूरी नहीं कि वृक्षों में फूल आए हों असमय में बुद्ध के निकलने पर, पर आने चाहिए। न भी आए हों, तो आने चाहिए। आए भी होंगे, शायद उन्हीं को दिखाई पड़े हों, जिनका अस्तित्व के साथ इतना तालमेल है। शायद हम अंधों को न भी दिखाई पड़े हों। क्योंकि हमको तो वस्तुतः भी जब फूल आ जाते हैं, तो कहां दिखाई पड़ते हैं?
जिस वृक्ष के पास से आप रोज गुजरते हैं, आपको पता ही नहीं चलता कब वृक्ष जवान हुआ, कब वृक्ष बूढ़ा हो गया, कब वृक्ष रो रहा था, कब वृक्ष हंसता था, कब प्रसन्न था और नाचता था। और कब उदास था, जीर्ण-जर्जर था, दीन था, कुछ पता नहीं चलता। आप समझते हैं, वही वृक्ष खड़ा है! वृक्ष में भी सब मौसम आ जा रहे हैं। उसके भीतर भी भाव की तरंगें हैं। कभी वह भी आनंद से नाचता होता है, तब वृक्ष के पास होने का मजा और है। कभी वह दुख से उदास और पीड़ित और ढला हुआ होता है, तब उसके पास बैठकर आप भी उदास हो जाएंगे। आपको पता भी नहीं चलेगा।
लेकिन किसको मतलब है! कौन देखता है! वृक्ष तो दूर है, घर में ही कौन किसको देखता है! पति पत्नी को, कि बाप बेटे को, कि बेटा बाप को!
किसी को किसी से प्रयोजन नहीं--अपने आप में बंद। कोई खिड़की नहीं, दरवाजा नहीं, सब बंद हैं। भागे चले जा रहे हैं। कभी-कभी किसी से टकरा जाते हैं, तो क्षण भर को एक-दूसरे का होश आता है।
मैं एक मनसविद को पढ़ रहा था। उसने बड़े मजे की बात लिखी है और विचार लिखे हैं। और सही भी हैं। उसने लिखा है कि अगर किसी स्त्री से प्रेम हो, उसका हाथ हाथ में लेकर अगर थोड़ी देर बैठे रहो, और हाथ को न थपथपाओ, तो वह भी भूल जाती है कि आपका हाथ उसके हाथ में है। इसलिए प्रेमी थपथपाते रहते हैं, हिलन-डुलन करते रहते हैं थोड़ी; क्योंकि उससे पता चलता है। उससे थोड़ी टक्कर होती रहती है। अगर एक प्रेयसी को या प्रियजन को आप छाती पर लगाए बैठे ही रह जाएं पंद्रह मिनट, तो दोनों ही भूल जाएंगे कि कोई दूसरा है। दूसरे का पता ही चलता है जब कि कुछ उपद्रव जारी रहे। कुछ हलन-चलन होता रहे। सब स्थिर हो जाए, तो हमें पता चलना बंद हो जाता है। कुछ उपद्रव चाहिए, तो पता चलता है।
सूरज भी देखता है आपको, वृक्ष भी और यह पृथ्वी भी। यह सारा अस्तित्व आप में उतना ही उत्सुक है, जितना आप इसमें। और जितनी आपकी उत्सुकता बढ़ती है, उतनी ही उसकी उत्सुकता प्रगट होती है। और तब एक कम्युनिअन, एक मिलन, एक आलिंगन घटित होता है। इस अस्तित्व के आलिंगन का नाम ही समाधि है। ध्यान से चलना है उस तरफ, जहां पर मिलना हो जाए।
लेकिन अगर आप रोते हुए, उदास, टूटे हुए, हारे हुए हैं, तो यह मिलन न हो पाएगा। टूटे हुए, हारे हुए से कौन मिलना चाहता है! दुखी, उदास से कौन मिलना चाहता है! क्योंकि तब मिलने का अर्थ है, वह दुख और उदासी आप में उंडेल देगा।
यह अस्तित्व आपकी प्रतीक्षा करता है कि किस दिन आप नाचते, गाते, आनंद से भरे हुए उसके निकट आएंगे--उस दिन यह मिलन हो पाएगा।
सब मिलन आनंद के क्षण में होते हैं।
और सब बिखराव दुःख के क्षण में होते हैं।
इसलिए दुःख में इतनी पीड़ा है। क्योंकि दुःख में हम अकेले रह जाते हैं। और किसी से कोई संबंध नहीं रह जाता। आनंद में, हम अकेले नहीं रह जाते। सारा अस्तित्व अपने पूरे उत्सव के साथ सम्मिलित हो जाता है।
"तू अपने मन को अपनी इंद्रियों की क्रीड़ाभूमि नहीं बनने देगा। तू अपनी सत्ता को परम सत्ता से भिन्न नहीं रखेगा, वरन समुद्र को बूंद में और बूंद को समुद्र में डुबा देगा।
तू डूब जाएगा अस्तित्व में और अस्तित्व को अपने में डूब जाने देगा।
"इस प्रकार तू प्राणीमात्र के साथ पूरी समरसता में जीएगा, सभी मनुष्यों के प्रति ऐसा प्रेम-भाव रखेगा, जैसे कि वे तेरे गुरुभाई हैं--एक ही शिक्षक के शिष्य और एक ही प्यारी मां के पुत्र।
अस्तित्व के प्रति एक परिवार का भाव--एक आत्मीयता का भाव।
हम सबके मन में शत्रुता है, हम लड़ रहे हैं। हम अस्तित्व को जीतने की कोशिश कर रहे हैं, जैसे कोई दुश्मनी है, स्पर्धा है, प्रतियोगिता है। उसके कारण ही हम दुःखी हैं। इससे कोई अस्तित्व का नुकसान नहीं होता। हम ही कट जाते हैं। अलग टूट जाते हैं, अजनबी हो जाते हैं। अस्तित्ववादी बहुत बार कहते हैं कि आदमी अजनबी हो गया है, सटरेंजर हो गया है। कोई किया नहीं है उसे, अपने आप हो गया है। और यह अस्तित्व आपका घर भी बन सकता है। आप ही खुल जाएं तो यह अस्तित्व भी खुल जाता है।
एक सूत्र स्मरण रखें कि जैसे आप हैं, वैसा ही यह अस्तित्व आपको प्रतीत होता है। यह सब दर्पण है चारों तरफ। आप अपनी ही शक्ल देख लेते हैं।
सुना है मैंने एक सम्राट के महल में एक कुत्ता घुस गया। और महल कांचों का बना था। और सम्राट ने सारे दर्पण लगा रखे थे दीवारों पर। कोई हजार-हजार दर्पण लगे थे। कुत्ता बहुत मुश्किल में पड़ गया। देखा उसने, हजारों कुत्ते चारों तरफ खड़े थे। डरकर भौंका।
जो डरते हैं, वही भौंकते हैं। उससे खुद को आश्वासन मिलता है कि हम डरे हुए नहीं, बल्कि हम डरा रहे हैं। डराने की चेष्टा डर का ही उपाय है। दूसरे को डराने वही जाता है, जो डरा ही हुआ है।
भौंका लेकिन अकेला नहीं भौंका, सब दर्पण के कुत्ते भी भौंके। और घबरा गया। हजारों कुत्ते--चारों ओर दुश्मन ही दुश्मनों से घिर गया। भागा दर्पणों की तरफ हमला करने को। क्योंकि सुरक्षा का एक ही उपाय जानता है आदमी भी और कुत्ता भी।
एक ही उपाय है सुरक्षा का। मैक्यावेली ने कहा है, सुरक्षा चाहिए तो आक्रमण उपाय है। उस कुत्ते ने भी मैक्यावेली की किताब, "दि प्रिंस' कहीं पढ़ ली होगी। उसने हमला किया। लेकिन जब आप हमला करेंगे, तो दुनिया बैठी रहेगी? सारे दर्पणों के कुत्तों ने भी हमला किया। फिर उस रात वह कुत्ता पागल हो गया। हो ही जाएगा। सुबह वह मरा हुआ पाया गया। और दर्पण में वहां कोई भी न था, अपनी ही प्रतिध्वनि थी।
इस अस्तित्व के साथ हम जो भाव बना लेते हैं उसकी प्रतिध्वनियां गूंजने लगती हैं। देखें शत्रुता से, और चारों तरफ शत्रु खड़े हो जाते हैं। और देखें मित्रता से वहां कोई शत्रु नहीं है। आप ही फैल कर गूंज जाते हैं। आप ही अपने को सुनाई पड़ते हैं। आपकी ही अनुगूंज, आप जी रहे हैं। यह सूत्र कहता है, मित्रता इस अस्तित्व के साथ।
विज्ञान और धर्म का यह मौलिक भेद है।
विज्ञान लड़ता है, जीतना चाहता है, विजय की उसकी यात्रा है।
धर्म जीतना नहीं चाहता है, लड़ना भी नहीं चाहता है, मैत्री उसका आधार है। वह अस्तित्व के साथ एक प्रेम-संबंध स्थापित करना चाहता है। अस्तित्व के साथ उसका प्रेमी और प्रेयसी का नाता है, शत्रु का नहीं। इसके गहन परिणाम होते हैं।
क्योंकि जब आप मित्र की तलाश में निकलते हैं, तो सारा अस्तित्व मित्रता के हाथ फैला देता है। उस क्षण आपको पता लगता है कि आप अजनबी नहीं हैं। और उस क्षण आपको यह भी पता लगता है कि पूरा अस्तित्व एक मां की गोद है। और उस समय आपको पता चलता है कि यह अस्तित्व अकारण ही आपको पैदा नहीं किया है। इसके उल्लास में, इसके उत्सव में, इसके आनंद में आपका जन्म है। आप इसके आनंद-क्रीड़ा के हिस्से हैं।
इसलिए हमने कहा जगत को परमात्मा की लीला, उसके आनंद का खेल। और हम सब उसके आनंद के खेल की लहरें हैं, उसका विस्तार हैं। लेकिन इस प्रतीति तक पहुंचने के लिए कि परमात्मा की लीला है।


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