जिन-सूत्र-भाग-2
प्रश्न
सार:
1—संन्यास
लेकर साधना करना,
संन्यास न लेकर
साधना करना—दोनों
स्थितियों में
आपके मार्ग का
ही अनुसरण है।
फिर संन्यास से
विशेष फर्क क्या
है?
2—आपने
कहा आँख आक्रमण
होती है। लेकिन
आपकी आंखों में
तो प्रेम का सागर
दिखाता है,
और जी करता है उन्हें
निहारता ही रहूं।
क्या आँख को कान—जैसा
ग्राहक बनाया
जा सकता है।
3—क्या
स्वाद को भी परमात्मा—अनुभूति
का साधन बनाया
जा सकता है?
4—भगवान
का प्रवचन सुनते
हुए उनकी आवाज
से ह्रदय व कर्ण—तंतुओं
पर एक अजीब तरह
का कंपन। तब से
साधारण ध्वनियों
से भी अजीब कंपन
व आनंद की लहर पैदा
होना। क्या बुद्ध—पुरूषों
के स्वर में विशेष
कुछ? साथ ही
भगवान की अपस्थिति
में एक आनंददायक
गंध का मिलना।
वहीं गंध कभी ध्यान
में व आश्रम में
अन्यत्र भी मिलना।
क्या काल—विशेष
की गंध विशेष भी
होती है?
5—आप
कहते, संन्यास
सत्य का बोध है।
क्या संन्यास
के लिए गैरिक वस्त्र
व माला अनिवार्य? क्या कोई बिना
दीक्षा लिये आपके
बताए मार्ग पर
नहीं चल सकता?
पहला
प्रश्न:
हम
संन्यास लेते
हैं और साधना
करते हैं, हम संन्यास
नहीं लेते और
साधना करते
हैं--दोनों
हालत में आपके
मार्ग का
अनुसरण करते
हैं। कृपया
बताएं कि
संन्यास से
जीवन में
विशेष फर्क क्या
आता है?
संन्यास
लिये बिना
फर्क को जानने
का कोई उपाय
नहीं। संन्यास
स्वाद है।
संन्यास है
स्वाद मेरे
निकट आने का।
संन्यास साहस
है समर्पण का।
साधना
तुम करते हो; लेकिन
संन्यासी
अकेला नहीं है,
तुम अकेले
हो। तुम भी
साधना करते हो,
संन्यासी
भी साधना करता
है। संन्यासी
मेरे साथ है, तुम मेरे
साथ नहीं।
मैं तो
दोनों के साथ
हूं! लेकिन
तुम साधना
करते हो अपने
हिसाब से।
सुनते हो मुझे, पर चुनते
तुम्हीं हो।
संन्यासी
चुनता भी नहीं।
वह एक बार
मुझे चुन लेता
है। उसने छोड़
दिया चुनाव।
उसने कहा, बहुत
हो गया!
मैं तो
दोनों के साथ
हूं, लेकिन
संन्यासी
मेरे साथ हो
जाता है। और
इससे बड़ा
क्रांतिकारी
फर्क पड़ता है।
पर वैसा फर्क
जानोगे तो ही
जानोगे।
एक बड़ी
प्रसिद्ध
ईसाई महिला
हुई--थैरेसा।
गरीब भिखारिन
थी। और एक दिन
उसने अपने
गांव में
घोषणा की कि
मैं जीसस के
लिए एक बड़ा
चर्च, एक
बड़ा मंदिर
बनाना चाहती
हूं। लोग
हंसे। लोगों
ने पूछा, तेरे
पास संपत्ति
कितनी है! तो उसने
दो पैसे
निकालकर अपनी
जेब से बताए
कि मेरे पास
दो पैसे हैं।
लोग और भी
हंसे।
उन्होंने कहा
तू पागल हो
गयी है। दो
पैसों में
कहीं चर्च बना
है? उसने
कहा वह तो
मुझे भी मालूम
है। लेकिन मैं
अकेली नहीं
हूं; परमात्मा
भी मेरे साथ
है। दो पैसे
और थैरेसा
तो ना-कुछ है; लेकिन दो
पैसे +
परमात्मा
बहुत कुछ है।
और क्या
चाहिए!
जिस
जगह उसने खड़े
होकर यह बात
कही थी, आज
दुनिया का
सबसे सुंदर
चर्च है।
बना--किसी गहरे
समर्पण से बना;
संपत्ति से
नहीं बना। यह
बात कि थैरेसा
अकेली नहीं
है। दो पैसे
हैं थैरेसा
के पास, लेकिन
परमात्मा भी
है।
तुम जब
साधना कर रहे
हो मेरी बात
सुनकर, तो
तुम चुनाव कर
रहे हो--जो
तुम्हें लगता
है ठीक--वह तुम
करते हो; जो
तुम्हें ठीक
नहीं लगता वह
तुम नहीं करते
हो। तो
तुम्हारा
खयाल है कि
तुम मेरी
मानकर चल रहे
हो, तुम
अपनी ही मानकर
चल रहे हो।
संन्यासी
का अर्थ है:
उसने कहा, अब हम अपनी न
मानेंगे, आपकी
मानेंगे। अब
हम चुनना
छोड़ते हैं। अब
हम राजी हैं
जहां ले चलो।
संन्यासी का
अर्थ है: प्रेम
का अंधापन।
संन्यासी ने
कहा कि अब
तुम्हारी आंख
काफी है, हमारी
आंख की कोई
जरूरत नहीं।
पर यह तुम न
जान सकोगे।
जैसे कोई आदमी
पूछे कि प्रेमी
और गैर-प्रेमी
में फर्क क्या
है? जिसने
स्वाद लिया है
उसमें, और
जिसने स्वाद
नहीं लिया है,
फर्क क्या
है? स्वाद
के बिना जानने
का कोई उपाय
नहीं है। इसे
खयाल में ले
लेना।
मैं तो
साथ हूं, लेकिन
तुम जिस दिन
मेरे साथ हो
जाओगे उस दिन
जीवन में एक
क्रांति घटनी
शुरू होगी, जिसकी तुम
अभी कल्पना भी
नहीं कर सकते।
तब तुमने एक
सहारा लिया।
तब तुमने कोई
हाथ पकड़े।
तब तुम्हारे
जीवन में एक
भरोसा आया।
मैं एक
बड़े
वैज्ञानिक की
जीवन-कथा पढ़ता
था। वनस्पतिशास्त्री
हुआ बड़ा। वह
एक पहाड़ की
कंदरा में खिलनेवाले
फूलों का
अध्ययन करना
चाहता था, लेकिन उन
फूलों तक
पहुंचने का
कोई उपाय न
था। वह बड़ी
गहरी खाई-खड्ड
में थे। वैसे
फूल कहीं और
खिलते भी न
थे। कोई उपाय
न देखकर उसने
अपने छोटे
बेटे को रस्सी
में बांधा, कमर से
रस्सी बांधी
और उसे उस
खड्ड में
लटकाया। और
उससे कहा कि
तू कुछ फूल उखाड़
लाना। छोटा बेटा
लटका। वह बड़ी
खुशी से लटका।
उसने तो खेल समझा।
और जब बाप
लटका रहा हो, तो बेटे को
क्या फिकिर!
वह तो बड़ा
आनंदित हुआ।
उसने तो नीचे
जाकर फूल भी
इकट्ठे कर
लिये; लेकिन
बाप के
हाथ-पैर कंप
रहे थे। भेजा
तो है बेटे को,
लेकिन यह
खतरनाक काम
है। लौटेगा
जिंदा? उसने
ऊपर से
चिल्लाकर
पूछा, कोई
तकलीफ तो नहीं
है? कोई घबड़ाहट
तो तुझे नहीं
हो रही है? उसने
कहा घबड़ाहट
कैसी! जब
रस्सी मेरे
बाप के हाथ
में है, तो घबड़ाहट
कैसी?
बाप
घबड़ा रहा है, डर रहा है; क्योंकि
यात्रा तो
जोखिम की है।
अब इस बेटे के
भीतर जो भरोसा
है, वह अगर
न हो, तो खतरा
हो सकता है। घबड़ाहट ही
खतरा पैदा कर
देती है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, बड़ा
दुष्ट-चक्र
है--घबड़ाहट
के कारण तुम
संन्यास नहीं
लेते।
डर--संसार का, समाज का, प्रतिष्ठा
का। डर के
कारण तुम
अकेले-अकेले
चलते हो।
अकेले के कारण
तुम और भी डर
की स्थिति पैदा
कर रहे हो।
और कुछ
जीवन की
सूक्ष्मतम
घटनाएं हैं, हृदय के कुछ
राज और रहस्य,
जो भरोसे से
ही खुलते हैं,
श्रद्धा से
खुलते हैं।
तो तुम
साधना कर रहे
हो--वह बुद्धि
से है। जिसने
संन्यास लिया, वह हृदय में
उतरा; उसने
बुद्धि को एक
तरफ रखा। उसने
कहा अब सुनेंगे
हृदय की, अब
गुनेंगे
प्रेम की।
निश्चित ही
प्रेम अंधा है;
लेकिन
प्रेम के
अंधेपन में
ऐसी आंखें हैं
कि सदियों तक
बुद्धिमानी
में जीओ
तो भी उन्हें
तुम पा न
सकोगे।
प्रेमी पागल
है।
इसलिए
जिन्होंने
संन्यास नहीं
लिया है, वे
सोचते हैं कि
संन्यासी
पागल है। ठीक
ही सोचते हैं।
लेकिन यह पागलपन
कुछ ऐसा है कि
हजार बुद्धिमत्ताएं
इस पर निछावर
की जा सकती
हैं। साधना तो
तुम भी कर रहे
हो, लेकिन
संन्यासी ने
कुछ गहन में
प्रतिज्ञा जगायी है।
बैठे
हैं तेरे दर
पे कुछ करके
उठेंगे
या
वस्ल ही हो
जाएगा या मरके
उठेंगे
उसने
जीवन को दांव
पर लगाने की
हिम्मत की है।
संन्यासी
जुआरी है। तुम
होशियार हो।
तुम दुकानदार
हो।
मुझे
सुनकर तुमने
जो पाया है, वह कुछ भी
नहीं है--उसके
मुकाबले जो
तुम मेरे पास
आकर पाओगे। जो
तुमने बुद्धि
से सुनकर पाया
है, वह तो
भोजन की मेज
से गिर गये
टुकड़े हैं।
भिखमंगा ही
तुमने रहना तय
किया है--बात और!
संन्यासी
मेरा अतिथि
है। तुम
बाहर-बाहर रहोगे।
नहीं कि मैंने
निमंत्रण
नहीं भेजा था;
तुमने
निमंत्रण
स्वीकार न
किया। तुमने
हजार बहाने
उठाए। तुमने
कहा आते हैं, अभी और काम
हैं।
जीसस
ने एक कहानी
कही है कि एक
सम्राट की
बेटी का विवाह
था और उसने एक
हजार देश के प्रतिष्ठिततम
लोगों को
निमंत्रण
भेजे। लेकिन
किसी ने कहा कि
अभी तो फसल
कटने का समय
है और मैं न आ
सकूंगा, क्षमा
चाहता हूं। और
किसी ने कहा
कि अदालत में
मुकदमा है और
मैं क्षमा
चाहता हूं। और
किसी ने कुछ
और, और
किसी ने कुछ
और...। जब उसके
संदेशवाहक
वापिस लौटे
हैं तो
उन्होंने कहा
कि बहुत-से
मेहमानों ने
बहुत-से बहाने
बताए, वे न
आ सकेंगे।
तो
सम्राट ने कहा, फिर तुम
रास्तों पर
जाओ और जो भी
आने को राजी हो,
उसे बुला
लाओ। अब
निमंत्रण की फिकिर छोड़ो,
क्योंकि
मेरा राजमहल
खाली न रहे।
मेरी बेटी का
विवाह है।
राजमहल में
भीड़ हो। जो भी
राह पर मिले!
अब तुम मेरे
निमंत्रण की फिकिर मत
करना। जो आने
को राजी हो, उसको बुला
लाना।
आए
मेहमान। भिखमंगे
भी आए। गरीब
भी आए।
अशिक्षित भी
आए। जिनको निमंत्रण
न भेजा गया था, वे भी आए। और
जीसस ने कहा
है, यह
कहानी घटी हो
या न घटी हो, क्योंकि
सम्राटों के
निमंत्रण में
लोग कभी इनकार
नहीं करते, लेकिन
परमात्मा के
निमंत्रण के
साथ रोज ही ऐसा
होता है।
निमंत्रण
तो मैंने
तुम्हें भेज
दिया है। तुम मेरी
शिकायत न कर
सकोगे। मैंने
तो बुलावा दे
दिया है। अब
तुमने कोई
बहाना निकाल
लिया, तुम्हारी
मर्जी! यह महल
तो खाली न
रहेगा। मेहमान
तो आएंगे। तुम
न आए तो कुछ
फर्क न पड़ेगा।
तुम्हारी जगह
कोई और होगा।
मुझे
सुनकर तुमने
जो पाया, वह
तो भोजन के टेबिल
से गिर गये
टुकड़े हैं।
उनसे ही
तृप्ति मत मान
लेना। मेरे
पास आकर तुम
जो पाओगे...।
मेरे
पास आने का और
क्या उपाय है? कंधे से
कंधा लगाकर
खड़े हो जाओ तो
मेरे पास थोड़े
ही आ जाओगे।
हृदय से हृदय
लगाकर खड़े हो
जाओ, तो!
संन्यासी ने
वही किया है।
उसने हिम्मत
की है। उसने
मेरे साथ होने
के लिए जगहंसाई
मोल ली है।
लोग हंसेंगे।
लोग कहेंगे, पागल हुए!
लोग कहेंगे, बुद्धि खो
दी! कुछ तो
सोचो!
सम्मोहित हो
गये? किस
जाल में पड़
गये हो? तुम
जैसा
बुद्धिमान
आदमी और किसी
की बातों में
आ गया! पर उसने
मेरे साथ रहना
चुना है, संसार
के साथ रहना
नहीं चुना। उस
चुनाव में ही
क्रांति घटती
है।
छलकती है
जो तेरे जाम
से उस मय का
क्या कहना
तेरे
शादाब ओंठों
की मगर कुछ और
है साकी
तुम्हें
अगर पैमाने से
छलकती
शराब से ही
तृप्ति होती
हो, तुम्हारी
मर्जी!
छलकती है
जो तेरे जाम
से उस मय का
क्या कहना
खूब
है वह शराब
भी।
तेरे
शादाब ओंठों
की मगर कुछ और
है साकी
लेकिन
अगर ओंठों पर
ओंठ रखकर ही
पीना हो शराब को, तो संन्यास
लिये बिना कोई
उपाय नहीं है।
और यह तो तुम
पास आओगे तो
ही जानोगे। यह
बात
समझाने-समझने
की नहीं। यह
बात कुछ करने
की है।
मेरे
किये जो हो
सकता है, वह
मैं कर रहा
हूं। लेकिन
तुम भी हाथ बढ़ाओ।
मैंने
तुम्हारे
द्वार पर
दस्तक दी है, कम से कम
दरवाजा खोलो!
नहीं
तो ऐसा न हो कि
तुम समझदारी
में बैठे ही रह
जाओ। यह
मधुशाला सदा न
खुली रहेगी।
कोई मधुशाला
सदा नहीं खुली
रहती है।
द्वार-दरवाजे
बंद होने का
समय आ जाएगा।
उस महफिले-कैफो-मस्ती
में,
उस अंजुमने-इर्फानी
में
सब
जाम-बकफ
बैठे ही रहे,
हम
पी भी गये, छलका भी गये
तुम बुद्धिमानों
की सभा जैसी
सभा मत बना
लेना अपनी।
उस अंजुमने-इर्फानी
में
--बड़े
बुद्धिमानों
की सभा थी।
उस महफिले-कैफो-मस्ती
में
--मस्ती
और आनंद और
उल्लास के
क्षण में बुद्धिमानों
की बड़ी सभा
थी।
सब
जाम-बकफ
बैठे ही रहे
--बुद्धिमान
थे, कैसे पीएं! तो
अपने जाम
सामने रखकर
बैठे ही रहे।
गैर-बुद्धिमान
जो थे--
हम
पी भी गये, छलका भी गये!
पी लो
और छलका लो! कब
तब जाम लिये
बैठे रहोगे? किसकी राह
देखते हो? कोई
कहे? किसकी
प्रतीक्षा कर
रहे हो? समय
बीता जाता है।
पल-पल, घड़ी-घड़ी
मधुशाला के
द्वार बंद
होने का समय
आया जाता है।
फिर मत रोना!
अभी अपनी
करोगे, फिर
मत
चीखना-चिल्लाना!
क्योंकि बंद दरवाजों
के सामने
चीखने-चिल्लाने
से फिर कुछ भी
नहीं होता।
और मैं
कहता हूं, ऐसा बहुत-से
लोग कर रहे
हैं। महावीर
को गये पच्चीस
सौ साल हो गये,
कितने लोग
अभी भी उस
दरवाजे के
सामने चीख रहे,
चिल्ला रहे
हैं! उन्हीं
को जैन कहते
हैं। बुद्ध को
गये पच्चीस सौ
साल हो गये, कितने लोग
उस दरवाजे के
सामने प्याले
लिये खड़े हैं
कि खोलो
द्वार, हम
प्यासे हैं; भरो हमारे
प्याले! लेकिन
मधुशाला जा
चुकी! उन्हीं
को तो बौद्ध
कहते हैं। ऐसे
ईसाई हैं, हिंदू
हैं, मुसलमान
हैं।
मैं
तुम्हें आगाह
किये देता।
मेरे जाने के
बाद तुम
संन्यास
लोगे। लेकिन
तब किसी मतलब
का न होगा; फिर थोथा
होगा।
महावीर
के साथ
संन्यासी
होने में तो
साहस था; महावीर
के बाद
जैन-मुनि होने
में कोई साहस
नहीं।
जैन-मुनि
प्रतिष्ठा है
अब। अब तो
उसका आदर है।
महावीर के साथ
तो अनादर था।
जैन-मुनि होना
उस समय तो
केवल कुछ
थोड़े-से
हिम्मतवर
लोगों की बात
थी। इसीलिए तो
महावीर को
महावीर कहा।
उनके साथ जो
खड़े हुए, उनके
लिए भी हिम्मत
की बात थी। सब
तरह से प्रतिष्ठा,
पद, मान,
सम्मान
खोना पड़ा।
जीसस
के साथ जो चले, उनके लिए तो
सूली मिली। अब
तो जीसस के
पीछे जो चलते
हैं, वे
सिंहासनों पर
विराजमान
हैं। पीछे तो
बड़ा आसान हो
जाता है।
मैं एक
कहानी पढ़ रहा
था।
न्यूयार्क के
बड़े चर्च में, सबसे बड़े
चर्च में, जो
कि दुनिया का
सबसे ज्यादा
संपत्तिशाली
चर्च है, प्रधान
पुरोहित अपने
प्रवचन की
तैयारी कर रहा
है कि उसके एक
शागिर्द ने दौड़कर
उससे कहा कि
सुनो, क्या
कर रहे हो? कौन
आया है, पीछे
तो देखो! देखा
तो खुद जीसस!
वेदी के सामने
खड़े हैं!
प्रधान
पुरोहित भी
घबड़ाया। ऐसा
कभी हुआ न था।
जीसस को गये
दो हजार साल
हो गये। यह कौन
सज्जन आ गये
हैं! बिलकुल
जीसस-जैसे
मालूम पड़ते
हैं! बड़ा
मुश्किल है, कहें इनसे
कुछ कि न कहें!
शागिर्द ने
पूछा कि क्या
करूं, कुछ
आज्ञा? तो
बड़े पुरोहित
ने कहा एक काम
कर, कि वह
जो दान की
पेटी है, उस
पर बैठ जा। यह
आदमी पता नहीं
किस तरह का है,
कौन है!
लगता
जीसस-जैसा है,
लेकिन पेटी
न ले भागे! दान
की पेटी पर
बैठ जा और व्यस्त
दिखने की
कोशिश कर।
इसकी तरफ
ध्यान मत दे।
अगर
जीसस चर्च में
आज आ जाएं तो
पुरोहित को
अपनी प्रतिष्ठा, सम्मान, धन
बचाने की फिकर
होगी कि यह
आदमी कहां
भीतर आ गया!
कृष्ण
की तुम बड़ी
पूजा करते हो; लेकिन कभी
सोचा कि कृष्ण
तुम्हारे
द्वार पर आ जाएं
मोर-मुकुट
बांधे, बांसुरी
बजाने लगें, तो तुम
पुलिस में खबर
करोगे! तुम
घबड़ा जाओगे!
मरे
हुए पैगंबरों
की पूजा बड़ी
आसान है, क्योंकि
उसमें कुछ भी
तो लगता नहीं।
कुछ भी लगता
नहीं। कुछ
दांव नहीं।
कुछ जोखिम
नहीं। लाभ ही
लाभ है। जीवित
पैगंबर के साथ
खड़े होने में हानि
ही हानि है, लाभ कहां?
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, अगर हम
संन्यास लें
तो लाभ क्या
होगा? मैं
उनसे कहता हूं,
कहीं और!
तुम कहीं और
लेना, यहां
तो हानि होगी।
यहां तो जो
तुम्हारे पास
है वह भी खो
जाएगा। यहां
तो शून्यता
मिलेगी, रिक्तता
मिलेगी। यहां
तो जो है वह खो
जाएगा। तुम भी
खो जाओगे।
मिटना हो तो
यहां आना। लाभ
की बात, तो
कहीं और! कहीं,
जहां जीवन
खो चुका है।
कहीं, जहां
केवल लकीरें
रह गयी हैं।
पिटी हुई
लकीरें रह गयी
हैं--मुर्दा
लकीरें, मुर्दा
शास्त्र।
वहां कोई
जोखिम नहीं है,
लाभ ही लाभ
है।
लोग
तुम्हें गीता
पढ़ते देख लें
तो लाभ ही लाभ है।
लोग सोचते हैं, आदमी भला
होगा; भरोसेऱ्योग्य मालूम होता
है; धार्मिक
है। दुकान पर
भी बैठे हो
अगर गीता लेकर
तो ग्राहक
तुमसे ज्यादा
मोल-भाव नहीं
करेगा।
इसीलिए
तो लोग
चंदन-तिलक
लगाकर बैठते
हैं। राम-राम
बोलते रहते
हैं दुकान पर!
धार्मिक
आदमी को
दूसरों को
लूटने में
सुविधा हो
जाती है, आसानी
हो जाती है।
लाभ ही लाभ है!
मेरी किताब
लेकर तुम
बैठोगे तो
हानि ही हानि
है। किसी ने
देख लिया कि
अरे, तो
तुम भी उलझ
गये! तो तुम पर
भी भरोसा गया!
संन्यास, अभी मेरे
साथ संन्यास,
दुस्साहस
है! लेकिन धन्यभागी
हैं वे जो
दुस्साहस कर
लेते हैं!
क्योंकि जो खोने
को राजी नहीं,
वह पा न
सकेगा। जो सब
खोने को राजी
है, वही सब
पाने का मालिक
होता है। जो
मिटने को राजी
है, परमात्मा
उसी को भर
देता है, पूरा
कर देता है।
तुम खाली तो
होओ, तुम
जगह तो
बनाओ--प्रभु
आएगा।
दूसरा
प्रश्न:
कल
आपने कहा कि
आंख आक्रामक
होती है।
लेकिन आपकी
आंखों में तो
मुझे प्रेम का
सागर दिखायी
देता है और जी
करता है कि
उन्हें
निहारता ही
रहूं। कृपया
बताएं कि क्या
कान की तरह
आंख को भी
ग्राहक बनाया
जा सकता है?
मेरी
आंखों में
तुम्हें
प्रेम का सागर
दिखायी पड़
सकता है।
क्योंकि मैं
तुम्हें नहीं
देख रहा हूं, तुम्हारे
भीतर जो छिपा है
उसे देख रहा
हूं। मैं
तुम्हें देख
ही नहीं रहा
हूं। मैं
तुम्हारी
संभावना को
देख रहा हूं।
मैं बीज को
नहीं देख रहा
हूं--मैं उन
फूलों को देख
रहा हूं जो
कभी खिलेंगे,
खिल सकते
हैं। मैं
तुम्हारे
आर-पार देख
रहा हूं।
लेकिन यह
देखना तभी
संभव है जब
कोई स्वयं को
देख लिया हो; उसके पहले
संभव नहीं है।
स्वयं को
जानने के बाद
तो सभी चीजें
अनाक्रामक हो
जाती हैं।
स्वयं को
जानने के बाद
तो हिंसा बच
ही नहीं सकती।
स्वयं को
जाननेवाला तो
सब भांति
हिंसा से
शून्य हो जाता
है। लेकिन यह
तो स्वयं को
जानने के बाद
घटेगा। अभी तो
तुम्हें चुनाव
करना होगा।
अभी तो
तुम्हें अपने
व्यक्तित्व
में वे बातें
चुननी होंगी
जो कम से कम
आक्रामक हैं।
और एक-एक कदम
यात्रा करनी
होगी, एक-एक
सीढ़ी चढ़नी
होगी। आंखें
भी अनाक्रामक
हो जाती हैं।
सारा व्यक्तित्व
ही अनाक्रामक
हो जाता है।
जिस दिन
परमात्मा ही
दिखायी पड़ने
लगता है, आक्रमण
करोगे किस पर?
यहां
तुम इतने बैठे
हो, मुझे एक
ही दिखायी पड़
रहा है। रूप
होंगे अनेक।
बहुत शैलियों
में परमात्मा
आया है।
रंग-ढंग अलग
हैं। आकृति
अलग है। लेकिन
है वही। जैसे
सोने को किसी
ने बहुत-बहुत
आभूषणों में
ढाला हो। जैसे
कुम्हार ने एक
ही मिट्टी से
बहुत-बहुत ढंग
के बर्तन बनाए
हों। उस अरूप को
देखने की
क्षमता लेकिन
तभी आती है जब
तुमने उसे
अपने भीतर पा
लिया हो।
इसे
स्मरण रखो।
तुम
वही देख सकते
हो दूसरे में, जो तुमने
स्वयं में
पहले देख लिया
हो। तुम दूसरे
में वही देखते
रहोगे जो तुम
स्वयं में
देखते हो। अगर
तुम क्रोधी हो,
तो दूसरे
में तुम्हें
क्रोध दिखायी
पड़ता रहेगा।
अगर तुम दुष्ट
हो, तो
दूसरे में
तुम्हें
दुष्टता
दिखायी पड़ती रहेगी।
अगर तुम हिंसक
हो, तो
सारा संसार
तुम्हें
हिंसक मालूम
पड़ता रहेगा।
अगर तुम चोर
हो, तो तुम
हर एक से डरे
रहोगे, क्योंकि
तुम्हें हर जगह
चोर ही दिखायी
पड़ेगा। जगत
प्रतिबिंब है
तुम्हारा, दर्पण
है--तुम्हारी
ही छवि बनती
है।
जैसे
ही तुमने
स्वयं को
जाना--स्वयं
की वास्तविकता
में, उसकी
परिपूर्णता
में--वैसे ही
रूप खो जाते
हैं, अरूप
का सागर चारों
तरफ फैल जाता
है। फिर कुछ भी
आक्रमण नहीं,
क्योंकि आक्रमण
करे कौन? करे
किस पर? कौन
मारे? किसे
मारे? फिर
तो ऐसा है
जैसे अपने ही
दोनों हाथ। एक
हाथ से दूसरे
हाथ को मारने
का अर्थ क्या
है? तब
दूसरा भी
स्वयं है। तब
तुम दूसरे में
भी अपने को
फैला हुआ पाते
हो। तभी प्रेम
घटता है, जब
दूसरा मिट
जाता है।
लेकिन दूसरा
तभी मिटेगा जब
तुम मिट जाओ।
इसलिए सारी
यात्रा अपने
घर से शुरू
होती है। सारी
पूजा, सारी
प्रार्थना, सारी साधना
अपने अंतर्तम
से शुरू होती
है।
एक बार
भीतर के
सौंदर्य की
झलक मिल गयी
कि तुम जहां
आंख खोलोगे
वहीं, वहीं
तुम उसे
विराजमान
पाओगे। तुम
चकित होओगे, तुम चमत्कृत
होओगे कि इतने
दिन तक चूकते
कैसे रहे!
इन्हीं
रास्तों से
गुजरे, यही
वृक्ष थे, यही
लोग थे, यही
पशु-पक्षी थे,
यही कोयल
रोज गीत गाती
रही, यही
आंखें थीं, कल भी इनमें झांका था, लेकिन
परमात्मा से
चूकते क्यों
रहे? जिसकी
पहचान अपने
भीतर न थी, जिसकी
प्रत्यभिज्ञा
भीतर न हुई थी,
उसे तुम
बाहर पहचानते
कैसे? बाहर
पहचानने की
सारी संभावना
अंतर्तम में घटती
है। पहले
वहां। सबसे
पहले वहां।
हुस्न
ही हुस्न है
जिस सिम्त भी
उठती है नजर
कितना
पुरकैफ
ये मंजर, ये
समां है साकी
हुस्न
ही हुस्न है
जिस सिम्त भी
उठती है नजर--फिर
तो जहां आंख
उठती है, सौंदर्य
ही सौंदर्य
है! इस
अस्तित्व में
असुंदर तो कुछ
हो नहीं सकता।
कहीं देखने
में भूल हो
गयी होगी। इस
अस्तित्व में
असुंदर के
होने का उपाय
नहीं है।
अस्तित्व
सौंदर्य से
भरा है, सौंदर्य
का सागर है।
कितना
पुरकैफ
ये मंजर
कितना
आनंद से भरा
हुआ है सब...
ये
समां है साकी।
लेकिन, यह आनंद
पहले भीतर
स्वाद लेना
पड़े। यह आनंद
पहले भीतर
उठे। यह भीतर
से तुम्हारे
प्राणों में जगे और
तुम्हारी
आंखों और
कानों और
तुम्हारे हाथों
में छा जाए।
फिर तुम जो छुओगे
वही परमात्मा
है। अभी तो
तुम जो छुओगे
वही मिट्टी हो
जाता है। सोना
छुओ, मिट्टी
हो जाता है।
क्योंकि अभी
सिवाय वासना के
कुछ भी भीतर
नहीं है।
वासना सोने को
छुए, मिट्टी
हो जाता है।
प्रार्थना
मिट्टी को छुए,
सोना हो
जाती है।
तुम्हारे
पास आंख चाहिए, दृष्टि
चाहिए।
तुम्हारे पास
भीतर सघन
प्रतीति
चाहिए।
निश्चित ही तब
फिर कुछ आक्रमण
नहीं रह जाता।
इसीलिए तो
कृष्ण गीता
में अर्जुन को
कह सके, कि
तू फिकर मत कर!
तू सिर्फ एक
उसको याद रख।
तू सिर्फ उस
एक को अपने
भीतर
विराजमान
देख। तू केवल
उस एक को
पहचान ले
जिसका तू
उपकरण मात्र
है। जो तुझसे
अभिव्यक्त
हुआ है, बस
तू उसको पहचान
ले। उसकी शरणागति
हो जा। फिर
कोई चिंता
नहीं। फिर तू
युद्ध कर न कर,
कुछ भेद
नहीं पड़ता। न
कोई कभी मारा
गया है, न
कभी कोई मारा
जा सकता है।
अगर
कोई मुझसे
पूछे, तो
कृष्ण ने गीता
में जो कहा है,
वह महावीर
का परिशिष्ट
है। अगर
महावीर प्रारंभ
हैं, तो
गीता अंत है।
बड़ा मुश्किल
होगा यह समझना;
क्योंकि
जैनों को तो
गीता से बड़ा
विरोध रहा है;
क्योंकि
उन्हें तो लगा
यह आदमी कृष्ण,
हिंसा की
तरफ उत्तेजित
कर रहा है
लोगों को, हिंसा
की तरफ भेज
रहा है। जैनों
को तो ऐसा लगा कि
अर्जुन तो भाग
जाना चाहता था,
जैन-मुनि
होना चाहता था,
छोड़ देना
चाहता था, यह
सब हिंसा
है--और कृष्ण
ने इसको
भरमाया, भटकाया!
तो जैनों ने
क्षमा नहीं
किया कृष्ण को,
सातवें
नर्क में डाला
है। और सब
पापी तो छूट जाएंगे;
लेकिन
कृष्ण अंततः
जब यह सृष्टि
पूरी समाप्त होगी
तब छूटेंगे।
बात
तर्कपूर्ण है; क्योंकि और
पापियों ने
पाप किये हों,
लेकिन पाप
को
दर्शन-शास्त्र
तो नहीं
बनाया। और
पापियों ने
हिंसा की हो, लेकिन अपराध
का भाव तो
उनके भीतर था
ही कि हम गलत
कर रहे हैं।
कृष्ण ने तो
गलत को सही है,
ऐसा सिद्ध
किया। गलत को
दर्शन दिया।
गलत को शास्त्र
बनाया। तो
साधारण
पापियों को तो
ठीक है कि आज
नहीं कल उनका दंड
पूरा हो
जाएगा। इस
आदमी को कितना
दंड दें? इसने
तो अपराध का
भाव ही हटा
दिया। अपराध
का भाव हो तो
आदमी
रूपांतरित
होता है।
हिंसा हो गयी,
दुखी होता
है; पश्चात्ताप
करता है; व्रत-नियम
लेता है; अपने
कर्मों को
धोने-पोंछने
की, निर्जरा
की चिंता करता
है; शुभ
कर्म करता है
कि अशुभ हो
गया है, अब
इसको किसी तरह
तराजू को
बराबर करो, संतुलन करो;
जीवन में
हिसाब की
व्यवस्था
बिठाता है; आज गलती हो
गयी कल न हो, इसका निर्णय
लेता है।
कृष्ण
ने तो समझा
दिया की गलती
है ही नहीं, हो ही नहीं
सकती। "न हन्यते
हन्यमाने
शरीरे।' मारने
से भी कहीं
शरीर मरता है?
न आग में
जलाने से जलता,
न शस्त्रों
से छेदने से
छिदता। "नैनं
छिंदंति
शस्त्राणि, नैनं दहति
पावकः।'
तो यह
तो हिंसा के
लिए है। इससे
बड़ा और प्रबल
समर्थन क्या
होगा? ऐसा
जैनों ने
समझा। चूक
गये! क्योंकि
वे महावीर को
भी नहीं समझे,
तो कृष्ण को
कैसे समझेंगे?
महावीर को
समझा होता, तो कृष्ण
महावीर का ही
अंतिम चरण हैं;
महावीर ने
जो कहा, उसकी
ही निष्पत्ति
हैं, उसका
ही परम रूप
हैं।
महावीर
ने कहा, मत
मारो, क्योंकि
दूसरे में भी
तुम्हारे
जैसी ही चेतना
विराजमान है।
यह पहला कदम
हुआ शिक्षा
का: मत मारो, क्योंकि दूसरे
में भी
तुम्हारे
जैसी ही चेतना
विराजमान है।
जब तुम इसमें
निष्णात हो
गये, तब
दूसरा कदम
उठता है, आखिरी
शिक्षा आती है,
चरम शिक्षा
आती है, कि
अब अगर तुम
मारना चाहो, तो मारो, लेकिन
तुम मारनेवाले
मत बनना। अगर
परमात्मा की
मर्जी हो तो
तुम निमित्त
हो जाओ। क्योंकि
कोई मरता
कहां!
अहिंसा
पहले कदम पर
सिखाती है: मत
मारो। क्योंकि
तुममें मारने
की बड़ी
आकांक्षा है:
दूसरे को
विनष्ट करने
की बड़ी
आकांक्षा है।
अभी तुम्हें
यह तो दिखायी पड़ना संभव
न हो सकेगा कि
दूसरे में
परमात्मा है।
पहले मारने से
रुको, ताकि
परमात्मा
दिखायी पड़ जाए।
फिर दिखायी पड़
गया परमात्मा,
फिर कृष्ण
कहते हैं, अब
क्या फिकिर!
अब अगर
परमात्मा की
मर्जी हो तो
मारो! क्योंकि
अब तुम जानते
हो कि मारने
से भी कोई
मरता नहीं। यह
अहिंसा का
आखिरी कदम
हुआ।
लेकिन, पहले स्वयं
के भीतर
प्रतीति सघन
होनी चाहिए। जिसने
स्वयं को जाना
उसने सबको जान
लिया। जो उस
एक को जानने
से चूक गया, वह सब जानने
से चूक गया।
पूछा
है, "कल आपने
कहा आंख
आक्रामक होती
है...।'
आंख
क्या आक्रामक
होगी? तुम
आक्रामक हो, इसलिए आंख
भी आक्रामक हो
जाती है। यह
तो पहला पाठ
तुम्हें दिया
कि आंख की
बजाय तुम कान
की तरफ झुको।
इसको तुम
शाब्दिक
अर्थों में मत
लेना। इसका कुल
इतना ही
प्रतीक-अर्थ
है कि तुम
सक्रियता से
निष्क्रियता
की तरफ झुको; करने की
बजाय न करने
की तरफ झुको; बाहर दौड़ने
की बजाय भीतर
उतरो; पुरुष
न होकर स्त्री
बनो; ग्राहक
बनो, आक्रामक
नहीं। तुम
इससे यह मतलब
मत समझ लेना
कि आंखें फोड़
लो, कि
आंखें बंद कर
लो, कि अब
तो कान से ही
जीएंगे।
यह तो
केवल प्रतीक
था। कान के
लिए जो मैंने
समझाया, वह
तो केवल
प्रतीक था।
अगर तुम्हारी
समझ में आ जाए
तो फिर
तुम्हारी आंख
भी कान-जैसी
ही हो जाएगी; तुम्हारे
हाथ भी
कान-जैसे हो
जाएंगे। यह तो
इंद्रियां
हैं।
तुम्हारे हाथ
में मैं तलवार
दे दूं; तलवार
थोड़े ही कुछ
करती है, तुम
पर निर्भर है।
तुम चाहो तो
किसी स्त्री
के साथ
बलात्कार कर
सकते हो इस
तलवार के कारण;
और तुम चाहो
तो कोई किसी
स्त्री के साथ
बलात्कार
करने जा रहा
हो, तो तुम
उस तलवार के
कारण
बलात्कार को
रोक सकते हो।
तलवार क्या
करेगी! मैंने
तुम्हें
माचिस दे दी; तुम चाहो तो
दीया जला लो, अंधेरे में
रोशनी हो जाए।
तुम्हारे
रास्ते पर ही
नहीं, दूसरों
के रास्ते पर
दीया जला दो; उनके रास्ते
पर भी रोशनी
हो जाए। और
तुम चाहो तो
घर में आग लगा
दो किसी के।
माचिस में थोड़े
ही कुछ है!
माचिस ने थोड़े
ही कहा है कि
किसी के घर
में आग लगाओ, कि दीया
जलाओ! तुम पर
निर्भर है।
आंख भी
अनाक्रामक हो
सकती है--तुम
अगर अनाक्रामक
हो। और कान भी
आक्रामक हो
सकता है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी उस
पर बड़ी नाराज
हो रही थी। और
चिल्ला रही थी
कि बहुत हो
गया; अब
मेरे
बर्दाश्त के
बाहर है। अब
मैं और बर्दाश्त
नहीं कर सकती।
मुल्ला ने कहा
हद्द हो गयी! मैं
कुछ बोला ही
नहीं हूं। मैं
सिर्फ चुप
बैठा हूं!
उसने कहा वह
मुझे मालूम
है। लेकिन तुम
इस ढंग से चुप
बैठे हो कि अब
बर्दाश्त के
बाहर है!
चुप
बैठना भी
बर्दाश्त के
बाहर हो सकता
है। ढंग पर
निर्भर है।
तुम्हारी
खामोशी में भी
हिंसा हो सकती
है। तुम इसलिए
चुप बैठ सकते
हो कि तुम
इतनी गहन हिंसा
से भरे हो कि
अब तुम कुछ
कहना भी नहीं
चाहते। लेकिन
तुम्हारी
चुप्पी में भी
गाली हो सकती
है। गाली के
लिए बोलना ही
थोड़े ही जरूरी
है, बिना
बोले गाली हो
सकती है।
तुम्हारे
उठने-बैठने के
ढंग में गाली
हो सकती है।
तुम जिस ढंग से
दूसरे को
सुनते हो, उसमें
गाली हो सकती
है।
तुमने
देखा कभी? कोई आदमी घर
आया। तुम
सुनना नहीं
चाहते। तुम उसके
सामने बैठकर
ही जम्हाई
लेते हो। तुम
उससे कुछ कहते
नहीं। कहते तो
तुम हो, बड़ी
कृपा हुई, आए!
कितने दिनों
से आंखें तरस
गयी थीं! कहते
तो तुम यही
हो। कहते तो
तुम हो, अतिथि
तो देवता है!
और जम्हाई ले
रहे हो। बार-बार
घड़ी देख रहे
हो। अब और
क्या कहना है?
कुछ सिर पर हथौड़ा
मारोगे तभी
उसकी समझ में
आएगा? कोई
बोल रहा है, तुम बार-बार
घड़ी देख रहे
हो। तुम क्या
कह रहे हो? शायद
तुम्हें भी
पता न हो। तुम
बिना कहे कुछ
कह रहे हो।
तुम्हारे
बोलने में, तुम्हारे
सुनने में, तुम्हारे
उठने-बैठने
में, न
बोलने में, चुप रहने
में--सब तरफ से
हिंसा हो सकती
है।
मैंने
सुना है, अमरीका
का एक बड़ा धार्मिक
उपदेशक है, डाक्टर फोसदिक।
उसके संबंध
में एक मित्र
किसी को कह
रहा था कि हम
दोनों साथ-साथ
मछली मारने
गये। अब कुछ
मामला ऐसा
है...मछली मारनेवाले
या कार चलानेवाले,
कुछ काम ऐसे
हैं कि वह
गाली देना सीख
ही जाते हैं।
कार चलानेवाला
गाली न दे, बड़ा
मुश्किल! क्रोध
आ ही जाता है।
इतने लोग, कोई
उसके सामने से
निकल जाता है;
कोई गलत, नियम तोड़
देता है; कोई
उसको पीछे छोड़
देता है; कोई
उसके आगे है, वह हार्न बजाए
जा रहा है और
वह हटता ही
नहीं है!
मेरे
एक मित्र हैं।
वे कहते हैं
कि मैंने इसीलिए
खुद कार चलानी
छोड़ दी, क्योंकि
उसमें गाली
देना बिलकुल
जरूरी है।
उससे बचा ही नहीं
जा सकता। मछली
मारने का काम
भी ऐसा ही है।
घंटों बैठे
हैं और मछली
पकड़ में नहीं
आती, क्या
करो! या
कभी-कभी मछली
फंस भी जाती
है और तुम
खींच ही रहे
थे कि छूट
गयी। कभी तो
ऐसा हो जाता
है, हाथ
में भी आ गयी
और छलांग लगा
गयी। तो मछुए
भी गाली देने
लगते हैं।
यह फोसदिक
अपने मित्र के
साथ मछली
मारने गया। और
उस मित्र ने
लौटकर अपनी
पत्नी से कहा
कि आज एक बड़ी
हैरानी की बात
देखी। जब फोसदिक
ने एक बड़ी
मछली पकड़ी
घंटों की
मेहनत के बाद, तो वह बड़ा
खुश था; लेकिन
जैसे ही उसने
हाथ में उठायी
वह छलांग लगा
गयी और नाव के
बाहर कूद गयी।
तो मित्र ने
कहा, मैं
सोचता था कि
अब तो इसके
मुंह से कुछ
अपशब्द
निकलेगा, कोई
गाली! लेकिन फोसदिक
बिलकुल चुप
रहा, कुछ
भी नहीं बोला।
मित्र ने अपनी
पत्नी को कहा
कि इतनी
अपवित्र
शांति मैंने
कभी नहीं
देखी। अपवित्र
शांति!
धर्मगुरु है,
गाली दे
नहीं सकता, अपशब्द बोल
नहीं सकता।
लेकिन शांति
भी अपवित्र हो
सकती है। चुप
रहने में भी
तीर हो सकते
हैं, कांटे
हो सकते हैं, जहर हो सकता
है।
तुम
सभी जानते हो।
चुप रहकर भी
तुम चोट
पहुंचा सकते
हो। कभी-कभी
तो ऐसा होता
है कि बोलकर
इतनी गहरी चोट
पहुंचायी ही
नहीं जा सकती, जितनी चुप
रहकर
पहुंचायी जा
सकती है।
तो
जरूरी नहीं है
कि तुम्हारा
कान मैंने कह
दिया कि
अनाक्रामक है, तो हो। तुम
पर निर्भर है।
यह तो प्रतीक
था।
सुनने
और देखने में
भेद है। कान
सुनता है, ग्रहण करता
है। आंख जाती
है, छूती
है, खोजती
है। बस इतना
प्रतीक था।
तुम कान-जैसे
बनना। तुम्हारी
आंख भी
कान-जैसी बन
जाए। वह भी
ग्राहक हो। वह
इस परम
सौंदर्य को, जो चारों
तरफ फैला है, इसे पीए।
इसे उघाड़े
न, बलात्कार
न करे!
व्यभिचार न
करे, चोट न
करे! बस इतनी
बात थी।
यह हो
सकता है।
लेकिन यह होगा
तुम्हारे रूपांतरण
से।
तीसरा
प्रश्न:
"रसो वै सः' के संदर्भ
में बताएं कि
क्या स्वाद को
भी परमात्म-अनुभूति
का साधन बनाया
जा सकता है?
बनाए
जाने का सवाल
ही नहीं है।
सभी अनुभव उसी
के साधन हैं।
स्वाद भी।
मैं
तुम्हें
अस्वाद नहीं
सिखाता। मैं
तुम्हें परम
स्वाद सिखाता
हूं। आंख भी
उसी को देखे।
कान भी उसी को
सुनें। हाथ
उसी को छुएं।
रस उसी का ही
तुम्हारी
जिह्वा में
उतरे, तुम्हारे
कंठ के पार
जाए। तुम उसे
ही खाओ और तुम
उसे ही पीओ, और तुम उसे
ही बिछाओ और
तुम उसे ही ओढ़ो।
वही हो जाए
तुम्हारा सब
कुछ। तुम उसी
में स्नान करो,
तुम उसी में
श्वास लो! तुम
उसी में चलो, उसी में
बैठो; उसी
में बोलो, उसी
में सुनो!
तुम्हारा
सारा जीवन उसी
से भर जाए।
क्योंकि
परमात्मा कोई
खंड नहीं है
कि तुम गये
मंदिर, घंटा-भर
परमात्मा को
दे दिया और
तेईस घंटे अपने
लिए बचा लिये।
यह तो धोखा
है। ऐसे कहीं
कुछ जीवन में
क्रांति नहीं
होती। यह तो
तुमने हिसाब
कर लिया कि चलो
एक घंटे
परमात्मा को
दे दें, दूसरी
दुनिया भी
सम्हाल ली। यह
दुनिया तो तेईस
घंटे सम्हाल
ही रहे हैं।
कुछ वह एक
घंटा महंगा
नहीं है। और
उस एक घंटे भी
तुम परमात्मा
के मंदिर में
हो कैसे सकते
हो? जो
आदमी तेईस
घंटे परमात्मा
के विपरीत जी
रहा हो, वह
एक घंटे
परमात्मा में जीएगा
कैसे?
ऐसा
समझो कि गंगा
बस काशी में
आकर पवित्र हो
जाती हो--पहले
अपवित्र, बाद
में फिर
अपवित्र--ऐसा
कैसे होगा? गंगा तो सतत
धारा है। अगर
पहले पवित्र
थी, तो ही
काशी में
पवित्र हो
सकेगी। और
काशी में पवित्र
है, तो आगे
भी पवित्र ही
रहेगी।
शृंखला है, सातत्य है, सिलसिला है।
तो ऐसा
थोड़े ही है कि
तुम मंदिर के
द्वार पर आए, बाहर तो
पवित्र नहीं
थे; भीतर
गये, घंटा
बजाया--पवित्र
हो गये, प्रार्थना
कर ली! फिर
बाहर आए, फिर
चोगा बदल लिया,
फिर पवित्र
हो गए, फिर
अपवित्र हो गये,
फिर बैठ गये
अपनी दुकान पर,
फिर वही
करने लगे जो
कल तक करते
थे। उस मंदिर
में जाने ने
तुम्हारे
जीवन में कोई
रूपांतरण न किया।
नहीं, धर्म तो
चौबीस घंटे की
बात है। तब तो
बड़ी कठिनाई
है। चौबीस
घंटे अगर धर्म
में जीना हो, तो तुम
कहोगे बड़ा
मुश्किल है!
इसलिए मैं कहता
हूं कि सोना
भी उसी में।
जब बिस्तर
बिछाओ, तो
उसी को देखना।
जागना भी उसी
में; जब
आंख खोलो,
तो उसी को
देखना। यही तो
अर्थ था
प्राचीन परंपराओं
का कि लोग
प्रभु का
स्मरण करते
सोते, राम-राम
जपते हुए
सोते। यह कोई
जपने की बात
नहीं है कि
तुमने राम-राम
शब्द दोहरा दिया
और सो गये।
भाव दशा की।
कि राम का नाम
ही जपते उठते।
भाव दशा की!
आंख खोलते तो
उसी को देखते;
आंख बंद
करते तो उसी
को देखते। उसी
में है नींद, उसी में है
जागृति। भोजन
करते, तो
भी उसी के
नाम-स्मरण से
करते; थोड़ा
भोग पहले उसे
लगा देते।
पहले भोग, फिर
भोजन; तो
भोजन भी
पवित्र हो
गया। तो फिर
भोजन भी
प्रार्थना हो
गयी।
इसे
तुम ऐसा समझो
कि भूख लगे
तुम्हें, तो
भी जानना उसी
को भूख लगी
तुम्हारे
भीतर। सच भी
यही है, वही
भूखा होता है।
वही जीता है।
वही जन्मता है।
वही विदा होता
है। वही शरीर
में आया, वही
शरीर से
जाएगा। उसकी
ही भूख, उसकी
ही प्यास। तो
उठना-बैठना ही
फिर पर्याप्त
आराधना हो
जाती है।
आराधना ऐसी
अनुस्यूत हो जाए
जैसे श्वास।
याद भी अलग से
न करनी पड़े, तो ही तुम
परम मुक्ति के
स्वाद को चख
सकोगे।
वह रसरूप
है। इसलिए
जहां भी रस
मिले, उसी
को समर्पण कर
देना। भोजन
में रस आए, प्रसन्न
होना कि प्रभु
प्रसन्न हुआ,
उसे रस
मिला। तुम
केवल साधन हो।
तुम्हारे माध्यम
से उसने आज
फिर भोजन
किया। तुम
माध्यम हो।
तुम्हारे
माध्यम से आज
उसने फिर बगीचे
के फूलों की
सुगंध ली। वही
तो तुम्हारे
भीतर चैतन्य
होकर बैठा है।
तुम तो मिट्टी
के दीये हो; ज्योति तो उसकी
है। सब अनुभव
उसके हैं।
ऐसा जो
व्यक्ति भाव
में निमज्जित
होने लगे और सब
भांति अपने को
परमात्मा में गूंथ
ले--इसी को
महावीर ने कहा, सुई गिर जाए,
बिना धागा-पिरोयी, तो खो जाती
है। धागा-पिरोयी
सुई गिर भी
जाए तो नहीं
खोती। ऐसा
निमज्जित हुआ
व्यक्ति अगर
भटक भी जाए तो
नहीं भटकता।
क्योंकि ऐसे
व्यक्ति के भटकने
का उपाय ही न
रहा। यह भटकाव
भी उसी का है! अगर
ऐसे व्यक्ति
की नाव मझधार
में भी डूब
जाए तो उसे
चिंता नहीं
होती। मझधार
भी उसी की है!
ऐसे व्यक्ति
को कोई चिंता
होती ही नहीं।
सभी कुछ उसी
का है! इस
समर्पण-भाव से
तुम्हें सब
जगह उसी का रस
आने लगेगा।
ऋग्वेद
में वचन है: "केवलाघो भवति केवलादि।' अकेले मत
खाना, बांटकर खाना।
अकेले खाने
में पाप है।
खाने में पाप
नहीं। अन्न तो
ब्रह्म है।
लेकिन अकेले
खाने में पाप
है। छीनकर
खाने में पाप
है। चुराकर
खाने में पाप
है। बांटकर
खाना। साझेदार
बनाकर खाना।
फिर पाप खो
गया।
जितना
तुम बांट सको, जो भी
तुम्हारे पास
है, उसे
तुम अहर्निश
बांटो। गा
सकते हो, तो
गाओ--गीत
बांटो। नाच
सकते हो, तो
नाचो--नाच
बांटो। जो भी
तुम्हारे पास
है, उसे
बांटो। बस
पुण्य हो
जाएगा।
बांटने में पुण्य
है। रोक लेने
में पाप है।
यह बड़ा
महत्वपूर्ण
सूत्र है। नदी
ठहर जाए तो पाप
है। नदी ठहरकर
डबरा बन जाए
तो पाप है।
बहती रहे, सागर की तरफ उंडलती
रहे, सागर
में जाकर
उतरती
रहे--फिर पाप
नहीं।
तुम्हारे
जीवन में बहाव
रहे! भोजन करो, लेकिन...तुमने
खयाल किया, पशुओं को
देखा, पशु
जब भी भोजन
करते हैं तो
उठाकर भोजन
अकेले में भाग
जाते हैं। बांट
नहीं सकते, भयभीत हैं।
दूसरा दुश्मन
है! आदमी
अकेला प्राणी
है संसार में,
जो दूसरे को
निमंत्रण
देकर भोजन
करता है। बुला
लाता है।
मेरे
एक प्रोफेसर
थे। बहुत
प्यारे आदमी
थे! दुर्गुण
एक था--शराबी
थे। मैं उनके
घर एक बार
मेहमान हुआ।
था उनका
विद्यार्थी
मैं, लेकिन
उनका बड़ा
सम्मान मेरे
प्रति था। वे
बड़े बेचैन हुए
कि वे शराब
कैसे पीएंगे;
अब ये कुछ
दिन मैं उनके
घर रहूंगा।
मैंने उन्हें
कुछ बेचैन
देखा। मैंने
पूछा कि मामला
क्या है? आप
कुछ बेचैन
मालूम होते
हैं।
उन्होंने कहा
कि तुमसे छुपाना
क्या! मुझे
शराब पीने की
आदत है। तो
मैंने कहा, आप पी सकते
हैं। इसमें
परेशान होने
की क्या बात
है? उन्होंने
कहा कि परेशान
होने की बात
है कि मैं
अकेला नहीं पी
सकता।
दो-चार-दस को
बुलाता हूं, तब पी सकता
हूं। वह हुल्लड़
मचेगी, तुम्हें
अच्छा न
लगेगा।
मैंने
कहा, फिर शराब
पाप न रही, फिर
पुण्य हो गयी।
मैं भी
बैठूंगा और
मजा लूंगा। पी
तो नहीं सकता,
क्योंकि
मैंने कोई और
शराब पी ली है
और अब कोई शराब
उसके ऊपर नहीं
हो सकती।
लेकिन
बैठूंगा। यह
तो पुण्य हो
गया, यह तो
प्रार्थना हो
गयी कि आप
लोगों को
बुलाकर पीते
हैं। यह तो
मुझे अत्यंत
खुशी की बात
मालूम पड़ी कि
आप अकेले नहीं
पी सकते। तो
शराब में भी
सौंदर्य आ
गया।
पाप भी
पुण्य हो सकता
है। पुण्य भी
पाप हो सकता
है। जीवन बड़ा
जटिल है। जीवन
गणित जैसा
नहीं है। अगर
तुमने गणित की
तरह पकड़ा तो
तुम चूक जाओगे।
तो कभी-कभी
तुम पुण्य भी कर
सकते हो और वह
पाप हो। और
कभी-कभी तुम
पाप भी कर
सकते हो और
पुण्य हो जाए।
मैंने
उनसे कहा, पुण्य हो
गया। आप
बुलाकर पीते
हैं, अकेले
नहीं पी सकते,
छिपकर नहीं
पी सकते--बस, ठीक है।
फैलते
हैं--शुभ है।
आज यह शराब
पीकर फैल रहे
हैं, कल और
बड़ी शराब पीकर
भी फैलेंगे।
फैलना तो जारी
है। सागर की
तरफ चल तो रहे
हैं।
यह
ऋग्वेद का
सूत्र: "केवलाघो
भवति केवलादि'--वही पापमय
है भोजन, जो
अकेले कर लिया
जाए, बांटा
न जाए। जो भी
हो तुम्हारे
पास--भोजन की ही
बात नहीं
है--जो भी
रसपूर्ण हो, जो भी
आनंदपूर्ण हो,
उसे छिपाकर
मत बैठना।
प्रकाश
तुम्हारे
भीतर जगे
तो उसे ढांक
मत लेना।
जीसस
ने कहा है
अपने शिष्यों
को कि जब
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा का
स्वर गूंजे, तो चढ़ जाना
छप्पर पर, जितने
जोर से चिल्ला
सको, चिल्लाना;
ताकि जो
गहरी नींद में
सोए हैं, वे
भी सुन लें, वे भी वंचित
न रह जाएं।
तो जो
तुम्हारे पास
हो, उसे
बांटना, फैलाना!
संस्कृत
का शब्द
"ब्रह्म' बड़ा
प्रीतिकर है!
इसका अर्थ
होता है: जो
फैलता ही चला
जाता है; जो
विस्तीर्ण ही
होता चला जाता
है। आधुनिक विज्ञान
ने ब्रह्म
शब्द को बड़ा
नया अर्थ दे
दिया है।
आइंस्टीन के
पहले तक ऐसा
समझा जाता था
कि संसार
कितना ही बड़ा
हो, फिर भी
इसकी सीमा तो
होगी ही। हम न
पा सकते हों सीमा,
हमारी
सामर्थ्य न हो,
हमारे साधन
सीमित हों, पर फिर भी
कहीं इसकी
सीमा तो होगी
ही। यह बात खयाल
में थी। और यह
भी बात खयाल
में थी कि यह
संसार जैसा है,
बस वैसा ही
है। अब इसमें
नया क्या हो
सकता है! नया
आएगा कहां से?
संसार के
बाहर तो कुछ
और है नहीं।
तो जो है, है।
इसी में
रूपांतरण
होता रहता है,
रूप बदलते
रहते हैं। नदी
का जल सागर
में गिर जाता
है। सागर का
जल बादलों में
उठ जाता है।
बादलों का जल
नदी में गिर
जाता है।
लेकिन जल तो घूमता
रहता है--वही
का वही है।
फिर
आइंस्टीन की
खोजों ने एक
बड़ा अनूठा
आयाम खोला। वह
आयाम यह था कि
संसार जैसा है
वैसा ही नहीं
है, विस्तीर्ण
हो रहा है। "एक्सपैंडिंग
यूनिवर्स।' फैलता जा
रहा है! बड़ी
तीव्र गति से
फैल रहा है! जैसे
कोई छोटा
बच्चा अपने
गुब्बारे में
हवा भर रहा हो
और गुब्बारा
बड़ा होता जा
रहा हो! तब
ब्रह्म शब्द
के नये अर्थ
उभरकर आए।
ब्रह्म
शब्द का अर्थ
होता है: "दि एक्सपैंडिंग
वन।' वह जो
फैलता ही जा
रहा है।
ब्रह्म का
अर्थ है: विस्तीर्ण
होता जा रहा
है। जो ठहरा
नहीं है। जो
कहीं ठहरता
नहीं। जो किसी
सीमा को सीमा
नहीं बनाता, जो हमेशा सीमा
के ऊपर से बह
जाता है।
अगर
तुम्हें
परमात्मा को
जानना हो, तो छोटे
पैमाने पर ही
सही, लेकिन
तुम भी सीमा
मत बनाना।
फैलना, फैलते
जाना! सुगंध
हो तुम्हारे
पास, बांटना
हवाओं को!
प्रकाश हो, बांट देना
रास्तों पर!
बोध हो, दे
देना दूसरों
को! जो कुछ भी
तुम्हारे पास हो...!
और ऐसा
तो कौन है
मनुष्य जिसके
पास कुछ भी न
हो! ऐसा तो
मनुष्य है ही
नहीं कोई कि
जिसके पास कुछ
भी न हो।
परमात्मा तो
सभी के भीतर
है, इसलिए
कुछ न कुछ तो
होगा। खोजना।
तुम अकारण नहीं
हो सकते।
तुम्हारे
द्वारा उसने
कोई गीत गाना
ही चाहा है।
तुम्हारे
द्वारा उसने
कोई नाच नाचना
ही चाहा है।
तुम्हारे
द्वारा उसने
कोई फूल
खिलाना ही
चाहा है।
व्यर्थ तुम
नहीं हो सकते।
तुम्हारी कोई
नियति है।
तुम्हारे
भीतर छिपा हुआ
कोई राज है। खोलो, खोजो!
मेरे लिए धर्म
उसी रहस्य को
खोजने की कुंजी
है। तुम तुम
बनो! तुम्हारी
नियति खुले, बिखरे, फैले।
तुम्हारे
जीवन में बाढ़
आए।
इसी को
तो महावीर ने
कहा कि मुनि
जैसे-जैसे उस अश्रुतपूर्व
को सुनता, जानता; जैसे-जैसे
अतिशय रस के
अतिरेक से
भरता, वैसे-वैसे
प्रफुल्लित
होता; वैसे-वैसे
उत्साहित
होता; वैसे-वैसे
फूल खिलने
लगते हैं, कमल
खिलने
लगते हैं, पंखुड़ियां खुलने लगती
हैं, कलियां
फूल बनतीं।
फैलो! कली मत
रह जाना। वही
दुर्भाग्य
है।
मेरे
लिए अधार्मिक
आदमी वही है, जो कली रह
गया। धार्मिक
वही है, जो
फूल बन गया। फूलो! फैलो!
कोई सीमा मत बांधो।
बाढ़ बनो। और
तुम जितना फैलोगे,
तुम पाओगे
उतनी ज्यादा
फैलने की
क्षमता आने
लगी। तुम
जितना
बांटोगे, उतना
पाओगे मिलने
लगा। और कुछ
भी पाप नहीं
है, रोक
लेना पाप है।
अर्थशास्त्री
कहते हैं कि
रुपया जितना
चले उतना समाज
संपन्न होता
है। इसीलिए तो
रुपये को "करेंसी' कहते हैं। "करेंसी' का मतलब, जो
चलता रहे, भ्रमण
करता रहे। अब
समझ लो कि दस आदमी
हैं गांव में
और दसों के
पास दस रुपये
हैं, वे
दसों अपने
रुपयों को
रखकर बैठ गये
हैं, तो
गांव में केवल
दस रुपये हैं।
फिर दसों अपने
रुपयों को
चलाते हैं।
एक-दूसरे से
सामान खरीदते
हैं। एक का
रुपया दूसरे
के पास जाता
है, दूसरे
का तीसरे के
पास जाता
है--दस रुपये
के सौ हो जाते
हैं, हजार
हो जाते हैं।
क्योंकि
रुपया आता है,
जाता है। पकड़े रहो, तो एक ही
रहता है। आता
रहे, जाता
रहे, तो
अनेक हो जाते
हैं। तुम गड़ाकर
रख दो जमीन
में, तो "करेंसी' "करेंसी'
न रही, मर
गयी। इसीलिए
तो कंजूस आदमी
से अभागा आदमी
दुनिया में
दूसरा नहीं
है। "करेंसी'
मार डालता
है। चलने नहीं
देता। चलन को
रोक देता है।
नदी को बहने
नहीं देता, डबरा बना
लेता है। फिर
डबरा सड़ता
है। फिर डबरे
में घास-पात
गिरते हैं, बदबू आती
है। कृपण आदमी
में बदबू आती
है।
इसीलिए
तो दानी की
इतनी महिमा
रही है। दान
को धर्म का
आधार कहा है; लोभ को पाप
का। कारण, लोभ
रोक लेता है; दान बांट
देता है। दान
से चीजें
फैलती हैं। और
जो बात बाहर
की संपदा के
संबंध में सही
है, मैं
तुमसे कहना
चाहता हूं, भीतर की
संपदा के
संबंध में और
भी ज्यादा सही
है। जब बाहर
तक की संपदा
रोक लेने से
मर जाती है--मरी-मरायी
संपदा भी रोक
लेने से मर
जाती है--जब
बाहर की संपदा
चलाने से मरी-मरायी
संपदा भी
जीवित मालूम
होने लगती है,
तो भीतर की
थोड़ी सोचो!
वहां का धन तो
जीवंत धन है।
उसे रोका कि
गया! उसे चलने
दो। चलन में
रहने दो। "करेंसी'
बनाओ।
एक ही
पाप है मेरी
दृष्टि में।
और वह पाप है, जो तुम्हें
मिला है भीतर,
उस पर तुम
सांप की तरह
कुंडली मारकर
बैठ गये हो, तो पाप है।
उसे बांटो!
परमात्मा
बांटने के नियम
को मानता है, फैलने के
नियम को मानता
है। तुम भी
फैलो!
नहीं, स्वाद में
कोई पाप नहीं;
लेकिन
स्वाद अकेले
मत लेना।
बांटना। भोजन
में कोई पाप
नहीं है। उसी
की भूख है!
लेकिन जो
तुम्हारे पास
हो उसे बांटकर
खाना। इतना भर
स्मरण रहे कि
किसी भी चीज
की मालकियत मत
बनाना। आए हाथ
में, चली
जाने देना।
जैसी आयी, वैसी
जाने देना, बहने देना।
जहां तुम
मालिक बने, वहीं पाप
शुरू हुआ। जब
तक तुम मालिक
नहीं हो, केवल
संपदा को यहां
से वहां जाने
देने के
माध्यम हो, उपकरण हो, निमित्त
मात्र
हो--वहां तक
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर खूब
खिलेगा, खूब
फैलेगा। तो एक
ही सूत्र याद
रखने जैसा है: कृपण
मत होना।
चौथा
प्रश्न:
पिछले
दिन आपका
प्रवचन सुनते
हुए आपकी आवाज
से हृदय और कर्णत्तंतुओं
पर एक अजीब
तरह का कंपन
हुआ और तब से
साधारण ध्वनियां
भी अजीब कंपन
और आनंद की
लहर पैदा कर
रही हैं।
कृपया बताएं
कि क्या बुद्धपुरुषों
के स्वर में
कुछ है, जो
विशेष प्रभाव
पैदा करता है?
साथ ही आपकी
उपस्थिति में
एक विशेष
आनंददायक गंध
मिलती है; और
वह कभी आश्रम
में और कभी
ध्यान के समय
भी मिलती है।
इस संदर्भ में
भी बताएं कि
क्या काल या
समय-विशेष की
विशेष गंध भी
होती है?
सुनोगे
यदि, तो कुछ
निश्चित कंपेगा
हृदय में। जगह
दोगे मुझे
भीतर आने की
थोड़ी; राह
में न अड़कर
खड़े हो जाओगे;
द्वार-दरवाजा
बंद न करोगे, खोलोगे; तो
हवाएं आएंगी,
सूरज की
रोशनी आएगी, भीतर कुछ
होगा। अगर
तुमने मुझे
जगह दी, तो
जो मेरे भीतर
हुआ है, उसके
कंपन तुम तक
पहुंचेंगे।
यही तो
सत्संग का
अर्थ है। यही
तो सारा
प्रयोजन है कि
मैं यहां हूं
और तुम यहां
हो। यही तो प्रयोजन
है कि किसी
भांति मेरे
हृदय और
तुम्हारे
हृदय की
लयबद्धता बंध
जाए। किसी
भांति, जिस
लय से, जिस
तरंग से मैं
जी रहा हूं, उस तरंग का
तुम्हें भी
थोड़ा-सा स्वाद
आ जाए, अनुभव
आ जाए।
उपाय
क्या है?
थोड़ी
दूर मेरे साथ
चलो। थोड़ी दूर
मेरे साथ धड़को।
थोड़ी दूर मेरे
साथ श्वास लो।
जब तुम मुझे
गौर से सुनोगे, तो तुम
पाओगे, तुम
वहां
सुननेवाले
नहीं रहे, मैं
यहां बोलनेवाला
नहीं रहा, दोनों
की
सीमा-रेखाएं
कहीं घुल-मिल
गयीं। कभी-कभी
तुम पाओगे, तुम यहां बोलनेवाले
होकर बैठ गये,
मैं वहां
सुननेवाला
होकर बैठ गया।
कभी-कभी
तुम चौंककर
पाओगे, कौन-कौन
है?
जब
सुरति बंधेगी, जब मेरा
तुम्हारा धागा
मिलेगा, तो
अचानक "मैं' और "तू' की
आवाजें बंद हो
जाएंगी।
सुनने के किसी
गहन क्षण में
कभी-कभी क्षणभर
को "तारी' लग
जाएगी। वह क्षणभर
की "तारी' समाधि
के अनुभव-जैसी
है। क्षणभर
का है--आएगा, जाएगा--लेकिन
स्वाद दे
जाएगा। बूंद
एक गिर जाएगी
अमृत की। फिर
तुम तड़पोगे।
फिर तुम वही न
हो सकोगे जो
तुम थे कल तक।
तुम किसी को
समझा भी न
सकोगे कि क्या
हो गया है।
बताने का भी
कोई उपाय न
पाओगे। बेबूझ
होगी घटना। लेकिन
इतनी गहन होगी
कि उसे तुम
इनकार भी न कर सकोगे।
इधर
मैं बोल रहा
हूं, तो
तुम्हें कुछ
समझाने को
नहीं। इस खयाल
में पड़ना
ही मत। यहां
मैं बोल रहा
हूं तुम्हें
कुछ समझाने को
नहीं। यहां
मैं बोल रहा
हूं कि बोलने
के माध्यम से
मेरा और
तुम्हारा
तालमेल किसी
क्षण बैठ जाए।
कब बैठ जाए, कोई जानता
नहीं। कब
किसका बैठ जाए,
कोई जानता
नहीं। कब
किसकी घड़ी आ
जाए, कोई
जानता नहीं।
मगर
सुनते-सुनते...इसीलिए
तो रोज बोले
चला जाता हूं।
अगर कुछ समझाना
होता, तो
बात खतम हो
जाती। यह बात
खतम होनेवाली
नहीं है, क्योंकि
समझाने से
इसका कोई
संबंध नहीं
है। यह बात
चलती रहेगी।
क्योंकि इसका
प्रयोजन कुछ और
ही है।
इसका
प्रयोजन
रासायनिक है, बौद्धिक
नहीं है। "अल्केमिकल'
है। इसका
प्रयोजन है कि
सुनते-सुनते,
सुनते-सुनते,
कभी-कभी एक
क्षण को तुम
अपने को भूल
जाओगे। सुनने
में लवलीन हो
जाओगे, तल्लीन
हो जाओगे, तन्मय
हो जाओगे; एक
क्षण को तुम
भूल जाओगे, वह जो
अहंकार तुम
चौबीस घंटे पकड़े रखते
हो, एक
क्षण को
तुम्हारे हाथ
से छूट जाएगा।
किसी पंक्ति
के काव्य में डूबकर, क्षणभर को तुम
छुटकारा पा
जाओगे अपनी
सहज अहंकार की
व्यवस्था से।
उसी क्षण में
मिलन हो
जाएगा। उसी
क्षण में तीर
की तरह मैं
तुम्हारे
हृदय में चुभ
जाऊंगा।
एक बूंद तुम
पर बरस जाएगी।
मेघ तो
दूर हैं, लेकिन
एक बूंद बरस
जाए, तो
फिर चातक
प्रतीक्षा कर
सकता है
जन्मों-जन्मों
तक। फिर कोई
अड़चन नहीं है।
फिर चातक
जानता है कि होता
है सत्य; होता
है प्रेम; होती
है प्रार्थना;
होते हैं
ऐसे क्षण
जिनको
परमात्मा के
कहने के अतिरिक्त
और कोई उपाय
नहीं--कि है
परमात्मा! कि
कहीं ऐसी घड़ी
आती है जीवन
में, जब
हजार-हजार
सूरज प्रगट हो
जाते हैं।
हजार-हजार
नीलकमल
तुम्हारे
प्राणों में
खिल जाते हैं।
बोलता
हूं; इस बोलने
का प्रयोजन
ऐसे ही है
जैसे कोई
संगीतज्ञ
वीणा को बजाए।
तो कुछ समझाने
को नहीं
बजाता। तुम
मुझे एक वीणावादक
की तरह याद
रखना। यह
बोलना मेरी
वीणा है। यह
जो मैं तुमसे
कह रहा हूं, कह कम रहा
हूं, गा
ज्यादा रहा
हूं। इसका
प्रयोजन
तुम्हारी समझ
में आ जाए, तो
बस काफी है।
वह प्रयोजन
इतना ही है, इस वाद्य को
सुनते-सुनते...जैसे
वीणा को
सुनते-सुनते
कभी-कभी "तारी'
लग जाती है।
डोलने लगता है
आदमी। कुछ
भीतर कंपने
लगता है। कोई
पत्थर जैसी
चीज भीतर
पिघलने लगती
है, बहने
लगती है। एक
क्षण को एक
झरोखा खुलता,
एक वातायन
खुलता, आकाश
दिखायी पड़
जाता है। जैसे
बिजली कौंध
गयी। अंधेरा
खो गया--एक
क्षण को
सही--लेकिन
फिर तुम जानते
हो कि प्रकाश
है, और तुम
यह भी जानते
हो कि राह है।
एक क्षण को दिखी
थी बिजली की
कौंध में, लेकिन
दिख गयी। अब
तुम्हें कोई
यह नहीं कह
सकता कि राह
नहीं है, और
तुम्हें कोई
यह नहीं कह
सकता कि
प्रकाश सब कल्पना
है, कि
प्रकाश सब
सपना है। अब
तुम्हें कोई
भी झुठला न
सकेगा। यह है
प्रयोजन।
तो ऐसा
हो सकता है, सुनते-सुनते
एक कंपन हो
गया हो। हो
जाए कंपन, तो
एकदम खो भी न
जाएगा, क्योंकि
इतना गहरा
घटता है! फिर
तुम चले भी जाओगे
उठकर यहां से,
तो कंपन
जारी रहेगा।
और तब उन
कंपती हुई नयी
तरंगों के
आधार से जब
तुम वृक्षों
को देखोगे,
तो उनकी
हरियाली और ही
होगी! उन्हीं
फूलों को जिन्हें
कल भी देखा था,
फिर देखोगे,
तुम पाओगे
उन फूलों की
कोमलता और ही
है! कोई दिव्य
आभा उन्हें
घेरे है।
हरियाली के
चारों तरफ कोई
आभामंडल
वृक्षों को
घेरे है।
उन्हीं लोगों
को देखोगे,
अपनी पत्नी
को घर जाकर देखोगे
और पाओगे, वह
तुम्हारी
पत्नी ही नहीं,
उसमें
परमात्मा भी
है। अपने पति
को घर जाकर देखोगे,
तो पति होना
गौण हो जाएगा,
उसका
परमात्मा
होना प्रमुख
हो जाएगा।
अपने बेटे को देखोगे, तो बेटा ही
नहीं रह
जाएगा।
इस नये
अनुभव के आधार
पर तुम्हारे
जीवन की सारी
संरचना में
क्रांति होने
लगेगी।
क्योंकि जो
तरंग
तुम्हारे
भीतर मुझे
सुनकर पैदा
हुई, वह तरंग
तुम्हारी है।
इसलिए मेरे
सुनने से तुम उसको
बांध मत लेना।
वह तरंग तो
तुम्हारी है।
मेरा बोलना तो
निमित्त-मात्र
था। मेरे
बोलने की
संगति में तुम
अपने ही भीतर
के किसी छिपे
हुए तल से
परिचित हुए
हो। लेकिन
परिचित तुम
अपने ही भीतर
के तल से हुए
हो। मेरे
प्रकाश में जो
तुमने देखा है,
वह
तुम्हारा ही
है; वह
मेरा नहीं है।
रोशनी मेरी
होगी, लेकिन
जो खजाना
तुमने खोज
लिया है वह
तुम्हारा ही
है।
इसलिए
तुम यह मत
सोचना कि वह, यहां मुझे
सुनना तुमने
बंद किया कि
खो जाएगा। जो
इस तरह हो कि
मेरे सुनने से
पैदा हो और
बाहर जाते ही
खो जाए, तो
समझना कि
तुमने सुना ही
नहीं। वह
बौद्धिक था।
वह सिर की
खुजलाहट थी।
सुन लिया, अच्छा
लगा, मनोरंजन
हुआ, लेकिन
तुम कहीं हिले
नहीं।
तुम्हारी
नींव का कोई
पत्थर न सरका।
तुम्हारे
भीतर कोई नये
का उदघाटन न
हुआ, कोई
नये का
आविष्कार न
हुआ। तो
थोड़ी-सी
शब्दों की, सूचनाओं की,
तथ्यों की
संपदा बढ़
जाएगी, उधारी
थोड़ी और
तुम्हारी बढ़
जाएगी। तुम और
उधार हो गये, तुम्हारा
नगद होना और
भी ढंक गया।
इससे कुछ लाभ
न होगा। तुम
ज्ञानी बन
जाओगे, पंडित
बन जाओगे, लेकिन
इससे धर्म का
जन्म न होगा।
अगर सच
में तुमने
सुना, ऐसी
गहनता से सुना
कि तुम्हारा
पूरा
व्यक्तित्व
जैसे कान हो गया--आंख
भी कान, हाथ
भी कान, हृदय
भी कान--जैसे
तुम सिर्फ एक
द्वार हो गये,
और तुमने
मुझे आने
दिया--तुम्हारे
ऊपर निर्भर है
कि कितना मुझे
आने दोगे--अगर
तुम मुझे पूरा
आने दो तो
तरंगें नहीं,
अंधड़ उठ
जाएंगे। अगर
तुम मुझे पूरा
आने दो तो
तूफान उठ
जाएंगे। अगर
तुम मुझे पूरा
आ जाने दो, हिम्मत
करके तुम पूरे
द्वार-दरवाजे
खोल दो और कहो
कि आओ, राजी
हूं--इसी को तो
मैं संन्यास
कहता हूं, इसी
को तो मैं
दीक्षा कहता
हूं--तो तुम
फिर दुबारा
वही न हो
सकोगे। एक नये
जीवन का
प्रारंभ हुआ।
फिर तो मुझे
बोलने की भी
जरूरत न होगी।
अगर तुम राजी
हो और खुले हो,
तो मेरी
चुप्पी भी
तुम्हें कंपाएगी।
क्योंकि असली
में मेरा सवाल
ही नहीं है।
मेरी
खामोशी-ए-दिल
पर न जाओ
कि
इसमें रूह की
आवाज भी है
बोलता
हूं, या चुप
हूं, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। बोलूं
तो रूह की आवाज
है, न
बोलूं तो रूह
की आवाज है।
तुम जब
सुनने में
तत्पर हो
जाओगे, जब
तुम सुनने में
कुशल हो जाओगे,
तो तुम मेरी
चुप्पी को भी
सुन सकोगे, मेरे मौन को
भी सुन सकोगे।
मेरी
खामोशी-ए-दिल
पर न जाओ
कि
इसमें रूह की
आवाज भी है
आज
तुम शब्द न दो, न दो
कल
भी मैं कहूंगा
तुम
पर्वत हो
अभ्रभेदी शिलाखंडों
के गरिष्ठपुंज
चांपे इस
निर्झर को रहो, रहो
तुम्हारे
रंध्र-रंध्र
से
तुम्हीं
को रस देता
हुआ
फूटकर--मैं
बहूंगा
तुम्हीं
ने धमनी में
बांधा है लहू
का वेग
यह
मैं अनुक्षण
जानता हूं
गीत
जहां सब कुछ
है, तुम
धृति-पारमिता
जीवन
के सहज छंद--
तुम्हें
पहचानता हूं
मांगो
तुम चाहो जो:
मांगोगे, दूंगा
तुम
दोगे जो--मैं सहूंगा
आज
नहीं
कल
सही,
कल
नहीं
युगऱ्युग
बाद ही:
मेरा
तो नहीं है यह
चाहे
वह मेरी
असमर्थता से
बंधा हो
मेरा
यह भावऱ्यंत्र?
एक
मचिया है सूखी
घास-फूस की
उसमें
छिपेगा
नहीं औघड़
तुम्हारा दान
साध्य
नहीं मुझसे, किसी से
चाहे सधा हो
आज
नहीं कल सही,
चाहूं
भी तो कब तक
छाती में दबाए
यह
आग--मैं
रहूंगा?
आज
तुम शब्द न दो, न दो
कल
भी--मैं
कहूंगा।
कवि
के ये शब्द
बड़े गहन हैं।
परमात्मा
जब उतरता है, छिपाना
मुश्किल।
परमात्मा जब
उतरता है, तो
उसे प्रगट
होने देने से
रोकना
मुश्किल।
परमात्मा जब
उतरता है, तो
प्रगट होगा
ही।
एक
मचिया है, सूखी
घास-फूस की
मेरा
यह भावऱ्यंत्र
चाहे
वह मेरी
असमर्थता से
बंधा हो
मेरा
तो नहीं है यह
उसमें
छिपेगा
नहीं औघड़
तुम्हारा दान
साध्य
नहीं मुझसे, किसी से
चाहे सधा हो
आज
नहीं
कल
सही,
चाहूं
भी तो कब तक
छाती में दबाए
यह
आग--मैं
रहूंगा
आज
तुम शब्द न दो, न दो
कल
भी--मैं
कहूंगा।
जिसके
जीवन में
परमात्मा
उतरा है, उसे
खोजना ही
पड़ेगा संवाद
का कोई उपाय।
उसे शब्द
खोजने ही
पड़ेंगे, क्योंकि
उसे बांटना
पड़ेगा। उसे
साझीदार बनाने
ही होंगे।
यहां
मैं बोले चला
जा रहा हूं, सिर्फ
इसीलिए कि तुम
साझीदार बनो।
निमंत्रण है
मेरा कि जो
मुझे हुआ है, चाहो तो
तुम्हें भी हो
सकता है। आग
यहां लगी है, एक चिनगारी
भी तुम ले लो
तो तुम्हारे
भी सूर्य
प्रज्वलित हो
जाएं। दीया
यहां जला है, तुम जरा
मेरे पास आ
जाओ, या
मुझे पास आ
जाने दो, तो
तुम्हारा
दीया भी जल
जाए। जलते ही
मेरा न रह
जाएगा। जलते
ही तुम पाओगे
तुम्हारा ही
था, सदा से
तुम्हारा था।
और
पूछा है कि
आपकी
उपस्थिति में
एक विशेष आनंददायक
गंध मिलती है
और कभी आश्रम
में, कभी
ध्यान के समय
में भी मिलती
है। वह गंध भी
तुम्हारी ही
है। कस्तूरी
कुंडल बसै।
इसमें मेरी
चेष्टा इतनी
ही है कि
तुम्हें
तुम्हारी तरफ
उन्मुख कर दूं,
कि तुम्हें
धक्का दे दूं
तुम्हारी
तरफ। कहां भागे
फिरते हो? कहां
ढूंढ़ते
हो कस्तूरी? तुम्हारी ही
नाभि में छिपी
है। हां, कभी-कभी
मुझे
सुनते-सुनते
तुम्हें गंध आ
जाएगी। तुम
सोचोगे, मेरी
है। तुम्हारी
है! तुम शांत
हो गये सुनते-सुनते,
थिर हो गये
सुनते-सुनते,
सुनते-सुनते
तन्मयता जगी,
उस तन्मयता
में तुम्हारी
ही गंध ने
तुम्हें छू
लिया और भर
दिया। इसीलिए
तो कभी ध्यान
में भी उठेगी।
अगर मेरी होती
तो तुम्हारे
ध्यान में
कैसे उठती!
मेरा
कुछ लेना-देना
नहीं। मैं तो
दर्पण हूं, तुम अपने को
ही देख लो।
दर्पण से
ज्यादा नहीं।
पर उतना ही
प्रयोजन है।
मैं यहां नहीं
हूं। दर्पण
कुछ होता थोड़े
ही है, दर्पण
तो एक खालीपन
है। तुम हटे
कि दर्पण खाली।
तुम आए कि
दर्पण भरा
लगता है।
सुना
है मैंने, मुल्ला नसरुद्दीन
एक राह से
गुजरता था। एक
दर्पण पड़ा मिल
गया। उठाकर देखा।
कभी दर्पण
इसके पहले
उसने देखा न
था। सोचा, अरे!
तस्वीर तो
मेरे पिताजी
की मालूम पड़ती
है। मगर जवानी
की होगी। हद्द
हो गयी! मैंने
कभी सोचा भी न
था कि मेरे
पिताजी और
तस्वीर उतरवाएंगे!
ऐसे रंगीन
तबीयत के तो
आदमी न थे! मगर
मिल गयी तो
अच्छा हुआ।
झाड़-पोंछकर
खीसे में रखकर
घर चला आया।
कहीं बच्चे, पत्नी फोड़-फाड़
न दें, खो-खवा
न दें, ऊपर
चढ़ गया, छप्पर
में छिपाकर रख
आया। लेकिन
पत्नी से कभी कोई
पति कुछ छिपा
पाया है!
पत्नी ने देखा,
कुछ छिपा
रहा है। रात
जब मुल्ला सो
गया तो वह उठी,
दीया जलाया,
छप्पर के
पास गयी, निकाला,
देखा; तो
उसने कहा अरे!
तो इस औरत के
पीछे दीवाना
है! आज पता चला!
दर्पण
हूं मैं। तुम
जो लेकर आओगे
वही तुम्हें दिखायी
पड़ जाएगा।
दर्पण से
ज्यादा नहीं।
इसलिए
किन्हीं-किन्हीं
क्षणों में जब
तुम अपनी ऊंचाई
पर होओगे, तो तुम्हें
अपनी ऊंचाई भी
मुझमें
दिखायी पड़
जाएगी। और
किन्हीं-किन्हीं
क्षणों में जब
तुम अपनी नीचाई
पर होओगे, तो
तुम्हारी
नीचाई भी
मुझमें
दिखायी पड़
जाएगी। तो जो
जैसा आता है
वैसा, वैसा
ही मुझमें
देखकर लौट
जाता है।
किन्हीं
गहन क्षणों
में जब तुम
अपनी आखिरी ऊंचाई
पर छलांग लेते
हो, क्षणभर को उड़ते हो
आकाश में, तब
तुम्हें ऐसा
लगेगा कि ये ऊंचाइयां
मेरी तो नहीं
हो सकतीं; तो
तुम सोचोगे कि
शायद किसी और
की, किसी
और ने दिखा
दीं। लेकिन
स्मरण रखना, तुम्हारी ही
ऊंचाइयां
हैं, तुम्हारी
ही नीचाइयां
हैं; मुझ
पर मत थोपना।
क्योंकि उस थोपने
में भ्रांति
हो जाती है।
उस थोपने में
बड़ी भूल हो
जाती है।
हां, मेरी निकटता
में तुम्हें
कुछ दिखायी पड़
सकता है। तो न
तो इस दर्पण
की पूजा करना।
क्योंकि तुम
सोचोगे, यह
गंध इसी दर्पण
से उठी; यह
स्वाद इसी
दर्पण से आया।
इस दर्पण की
पूजा में मत पड़ना। और न
नाराज होकर इस
दर्पण को तोड़-फोड़ देना।
इन दोनों से
बचना।
आखिरी
सवाल:
आपने
कहा कि
संन्यास सत्य
का बोध है।
फिर क्या
संन्यास के
लिए गैरिक
वस्त्र और
माला भी अनिवार्य
हैं? और
क्या कोई
व्यक्ति बिना
दीक्षा लिए
आपके बताए
मार्ग पर नहीं
चल सकता है? कृपाकर मार्गदर्शन
करें।
मार्गदर्शन
के बिना भी
चलो न!
मार्गदर्शन
की क्या जरूरत
है? जब
दीक्षा के
बिना चल सकते
हो...। दीक्षा
और क्या है? अत्यंत
समीपता से
लिया गया
मार्गदर्शन
है। बहुत पास
से, बहुत
करीब से, बहुत
पास से सुना
गया
मार्गदर्शन
है। श्रद्धा
से सुना गया
मार्गदर्शन
है। दीक्षा और
क्या है?
मुझसे
पूछते हो, मार्गदर्शन
दें। तुम लेने
को तैयार हो? वही लेने की
तैयारी तो
संन्यास की
घोषणा है कि
मैं तैयार हूं,
आप दें।
मेरी झोली
फैली है, आप
भरें। फिर मैं
अगर कंकड़-पत्थर
से भी भर दूं, तो भी अगर
तुमने
श्रद्धा से
स्वीकार किया
हो तो वे कंकड़-पत्थर
तुम्हारे लिए
हीरे-मोती हो
जाएंगे। लेकिन
अगर तुमने
अश्रद्धा से
झोली फैलायी
हो और हीरे-मोतियों
से भी भर दूं, तो कंकड़-पत्थर
हो जाएंगे।
क्योंकि
तुम्हारी
श्रद्धा बड़ी
शक्ति है।
तुम्हारी
श्रद्धा बड़ा
रूपांतर
करनेवाली
ऊर्जा है।
सब कुछ
तुम पर निर्भर
है, अंततः तुम
पर निर्भर है।
अगर पात्र गलत
हो, अगर
पात्र दूषित
हो, अगर
पात्र गंदा हो,
तो उसमें
फिर शुद्ध जल
न भरा जा
सकेगा। मैं तो
शुद्ध ही ढालूंगा,
लेकिन वह
तुम तक पहुंच
न पाएगा। सब
कुछ तुम पर निर्भर
है। अगर
मार्गदर्शन
चाहिए, तो
करीब आओ।
संन्यास
तो सिर्फ करीब
आने की तुम्हारी
तरफ से घोषणा
है। गैरिक
वस्त्र, माला
तो केवल
प्रतीक हैं।
लेकिन तुम...और
जीवन के अंगों
में तुम
प्रतीकों को सत्कारते
हो या नहीं सत्कारते
हो? तुम्हारा
किसी से प्रेम
हो गया, तो
तुम कुछ भेंट
ले जाते हो कि
नहीं ले जाते
हो? फूल ले
गये तुम, गुलाब
का एक फूल ले
गये--अपनी
प्रेयसी को
देने या
प्रेमी को देने।
वह प्रेयसी
तुमसे पूछे, यह गुलाब के
फूल में क्या
धरा है? किसलिए ले आए गुलाब
के फूल, क्या
प्रेम काफी
नहीं है? तो
तुम भी चौंकोगे।
तुम उसे
आलिंगन करना
चाहो; वह
कहे दूर रहो, आलिंगन में
क्या धरा है? क्या प्रेम
बिना आलिंगन
के नहीं हो
सकता? तुम
उसका हाथ हाथ
में लेना चाहो
और वह झिड़क
दे और कहे, दूर
रहो! इस हाथ
में हाथ लेने
से पसीना ही
पैदा होगा, प्रेम कैसे
पैदा होगा? प्रेम करो, यह फिजूल की
बातें क्यों
करते हो? तुम्हें
पता है कैसे
प्रेम करोगे
फिर? फिर
प्रेम का कोई
उपाय न रह
जाएगा।
प्रेम
जैसी अपूर्व
घटना भी
माध्यम चाहती
है। नाव चाहती
है, जिस पर
सवार हो सके।
प्रेम तो बड़ा
सूक्ष्म है।
कहीं स्थूल
में जड़ें देनी
होंगी; नहीं
तो प्रेम टिक
न पाएगा।
आकाश
में खिले
सुंदरतम फूल
भी गहरी भूमि
में गड़े होते
हैं। वे अगर
यह तय कर लें
कि आकाश में
ही रहेंगे, तो खो
जाएंगे। कमल
जल के ऊपर उठा
हुआ भी, सरोवर
की कीचड़ में
दबा होता है।
अगर कमल कहे, क्या सार है
कीचड़ में पड़े
होने से? कीचड़
कीचड़ है, मैं
कमल हूं। तो
टूट जाएगा
संबंध। कमल
कुम्हलाएगा
और मर जाएगा।
तुमने
कभी खयाल किया, किसी ने
प्रेम से
तुम्हें एक
रूमाल भेंट दे
दिया; उस
रूमाल का
मूल्य फिर
नहीं रह जाता,
अमूल्य हो
जाता है! ऐसे
बाजार में चार
आने में मिलता
है। लेकिन
तुमसे कोई कहे
कि चार आने
में दे दो, तो
तुम कहोगे, पागल हो गये
हो? प्राण
चले जाएं, इसे
न दे सकूंगा।
वह कहेगा, तुम
पागल या मैं
पागल? चार
आने में जितने
चाहो बाजार
में मिलते
हैं। दर्जन से
लो तो और भी
सस्ते मिलते
हैं। क्या
पागल हो रहे
हो? लेकिन
तुम कहते हो, मेरी
प्रेयसी की
याददाश्त है।
या मेरे मित्र
की याददाश्त
है। किसी ने
बहुत भाव से
दिया है।
छोटे-छोटे
प्रतीक हैं।
छोटे-छोटे
प्रतीकों पर
बसा बड़ा आकाश
है। प्रतीक को
मत देखो, पीछे
छिपे आकाश को
देखो।
तुम
गये, किसी के
चरणों में सिर
रखा। क्या सार
है? श्रद्धा
क्या बिना
चरणों में सिर
रखे नहीं हो सकती?
ठीक! किसी
पर तुम्हें
क्रोध आ जाता
है, तुम
क्या करते हो?
उठाकर जूता
उसके सिर पर
मार देते हो।
तुम क्या कर रहे
हो? श्रद्धा
के विपरीत।
उसका सिर अपने
चरणों में रख
रहे हो। क्रोध
बिना इसके
नहीं हो सकता?
क्रोध में
जूता उठाने की
क्या जरूरत है?
जूते और
क्रोध का क्या
लेना-देना? गाली देने
की क्या जरूरत
है क्रोध में?
क्योंकि
प्रेम में
स्तुति करने
को तुम राजी नहीं।
प्रेम में
प्रार्थना
करने को तुम
राजी नहीं। तो
फिर क्रोध में
गाली भी छोड़
दो!
नहीं, आदमी जहां
है, वहां
आदमी पृथ्वी
और आकाश का
मिलन है; शरीर
और आत्मा का
मिलन है; स्थूल
और सूक्ष्म का
मिलन है। आदमी
जहां है, वहां
दो जगतों
में एकसाथ खड़ा
है। जड़ें जमीन
में हैं, फूल
आकाश में हैं।
दोनों जुड़े
हैं।
ये
गैरिक वस्त्र
तो केवल
प्रतीक हैं।
लेकिन जिन्होंने
भाव से लिये
हैं, उनके
जीवन में
क्रांति हो
जाएगी। मैंने
तो निश्चित
भाव से दिये
हैं।
लेनेवाले पर
निर्भर है। यह
माला तो बस
प्रतीक है। इस
माला में कुछ
भी धरा नहीं।
परसों
एक मित्र पूछते
थे--संन्यास
उन्होंने
लिया, भाववाले
व्यक्ति हैं।
सरलचित्त
हैं--पूछने लगे,
इस माला का
वैज्ञानिक
कारण क्या है?
वैज्ञानिक
कारण माला का
हो ही कैसे
सकता है? वैज्ञानिक
कारण--और माला
का! कोई भी
कारण वैज्ञानिक
नहीं हो सकता
माला का--कारण
धार्मिक है।
कारण आत्मिक है,
वैज्ञानिक
नहीं है। तो
मैंने उनसे
कहा, वैज्ञानिक
पूछना हो तो
"लक्ष्मी' से
पूछ लेना।
वैज्ञानिक
कारण? प्रेम
का कहीं कोई
वैज्ञानिक
कारण होता?
मुल्ला
नसरुद्दीन
की लड़की के
प्रेम में एक
युवक पड़ गया।
वह आया, उसने
मुल्ला को कहा
कि आपकी लड़की
से मुझे प्रेम
हो गया है, मुझे
विवाह की
आज्ञा दें।
मुल्ला ने कहा,
पहले सिद्ध
करो, प्रेम
का कारण क्या
है? उस
युवक ने कहा, कारण कुछ भी
नहीं है, महानुभाव!
प्रेम हो गया
है। प्रेम में
कहीं कारण
होता? और
जहां कारण हो,
वहां प्रेम
हो सकता है? कारण हो तो
प्रेम हो ही
नहीं सकता।
कारण हो तो
व्यवसाय होता
है, धंधा
होता है, सौदा
होता है।
अकारण होता है
प्रेम।
तुम्हारा
मुझसे प्रेम
हो गया है।
मेरा तुमसे प्रेम
हो गया है। अब
कुछ प्रतीक
देना जरूरी है।
यह माला तो
ऐसे समझो जैसे
भांवर पड़ गयी।
फंसे! यह तो एक
तरह का विवाह
हुआ। इसका कोई
कारण नहीं है।
यह प्रेम हो
गया। इसका कोई
बुद्धियुक्त
हिसाब नहीं
है। यह कुछ
हृदय की बात
हो गयी।
तुमने
मेरे हाथ में
हाथ डाल दिया; मैंने
तुम्हारा हाथ
अपने हाथ में
ले लिया। इसकी
याददाश्त के
लिए तुम्हें
यह माला दे दी
कि अब तुम इसे
याद रखना। अब
तुम अकेले
नहीं हो, मैं
भी हूं। अब तुम
जो करो, मुझे
भी याद रखकर
करना। अब तुम
जो भी बनो, मैं
भी जुड़ा हूं।
अगर शराबघर
जाओ, जाना--लेकिन
मुझको भी घसीटोगे।
यह माला लटकी
रहेगी। यह
कहती रहेगी, अकेले नहीं
जा रहे हो। यह
तुम्हें
रोकेगी। यह कई
बार तुम्हारे
पैर को आगे
बढ़ने से रोक
लेगी। यह कई
बार तुम्हें उस
जगह ले जाएगी
जहां तुम कभी
न गये थे, और
उस जगह से रोक
देगी जहां तुम
बहुत बार गये
थे। क्रोधित
होने को हो
रहे होओगे कि
यह माला दिखायी
पड़ जाएगी।
आग-बबूला होने
को जा ही रहे थे,
कि हाथ
उठाकर मारने
को ही थे कि यह
गैरिक वस्त्र
दिखायी पड़
जाएंगे, कोई
भीतर लौट जाएगा।
कहेगा, यह
तुम क्या कर
रहे हो?
अब तुम
ही नहीं हो, अब मैं भी
तुम्हारे साथ
प्रतिबद्ध
हुआ। यह एक "कमिटमेंट'
है, एक
प्रतिबद्धता
है। यह मेरा
भरोसा है तुम
पर। यह मैं
कहता हूं कि
ठीक है, अब
तुम नरक जाओगे
तो मुझको भी
जाना पड़ेगा।
तुम्हारी
मर्जी! प्रेम
में घसिटन
तो होती है।
अगर तुम नर्क
ही जाना
चाहोगे तो ठीक
है, मैं भी आऊंगा; लेकिन
अब अकेला न
छोडूंगा।
ये
सिर्फ प्रतीक
हैं। इन
प्रतीकों का
कोई वैज्ञानिक
कारण नहीं है।
इनकी कोई
वैज्ञानिक व्याख्या
नहीं हो
सकती--जरूरत
भी नहीं है।
ये इंकिलाब
का मुज्दा
है, इंकिलाब नहीं
ये आफताब का परतौ है, आफताब नहीं
यह
केवल शुभ
समाचार है
क्रांति का, यह क्रांति
नहीं है।
तुमने वस्त्र
पहन लिये गैरिक
तो कोई
क्रांति हो
गयी, ऐसा
नहीं
है--सिर्फ शुभ
समाचार है।
ये इंकिलाब
का मुज्दा
है इंकिलाब
नहीं
तुमने
गैरिक वस्त्र
पहन लिये, तो कोई सूरज
उग गया, ऐसा
नहीं है। यह
तो केवल
प्रतिबिंब
है।
ये आफताब का परतौ है...
ये
तो केवल झलक
है।
...आफताब नहीं।
और, सूरज से
जुड़ा है गैरिक
रंग। यह सूरज
का रंग है। यह
सूरज की पहली
किरण का रंग
है। यह
सूर्योदय की
खबर है। यह एक
शुभ समाचार
है। यह तो
शुरुआत है
मेरे साथ जुड़ने
की। इसे अंत
मत समझ लेना।
भड़कती जा
रही है दम-ब-दम
इक आग-सी दिल
में
ये
कैसे जाम हैं
साकी, ये
कैसा दौर है
साकी
यह तो
तुम राजी हुए, तो शुरुआत
हुई। बहुत
पीने-पिलाने
को है। यह तो
तुम निमंत्रण
स्वीकार कर
लिये।
भड़कती जा
रही है दम-ब-दम
इक आग-सी दिल
में
ये
गैरिक वस्त्र तो
उस भीतर दिल
की आग के बाहर
प्रतीक हैं।
ये
कैसे जाम हैं
साकी, ये
कैसा दौर है
साकी
यह तो
सूचना है सारे
जगत को। यह तो
खबर है औरों को
कि वे जान लें
कि अब तुम वही
नहीं हो जो कल
तक थे। यह तो
खबर है औरों
को कि अब वे
तुमसे अपेक्षा
न करें--वैसी
अपेक्षाएं
जैसी उन्होंने
कल तक की थीं।
यह तो खबर है
औरों को कि अब
वे गाली दें, तुम उत्तर न
दोगे। यह तो
उनको खबर है
कि तुम बदल
गये, कि
तुम मर गये और
नये हो गये, कि तुम्हें
सूली लग गयी
और तुम्हारा
नया पुनर्जन्म
हुआ।
बागवानों
को बताओ, गुलो-नसरीं से कहो
इक खराबे-गुलो-नसरीने-बहार
आ ही गया
जाओ!
मालियों को
बताओ! खबर कर
दो बागवानों
को!
बागवानों
को बताओ, गुलो-नसरीं से कहो
और
फूलों से कह
दो।
इक खराबे-गुलो-नसरीने-बहार
आ ही गया
जहां
कोई आशा न थी
वसंत आने की, वहां भी
वसंत आ ही
गया। यह तो
सिर्फ वसंत के
आने की खबर
है।
जिनके
भीतर हिम्मत
हो वसंत को
झेलने की, इस आग में
जलने की और निखरने
की, शुद्ध
सोना बनने
की--मैं राजी
हूं।
प्रतीकों
पर मत जाओ। यह
तो बहाने हैं।
इनसे धोखा मत
खाओ। यह तो
केवल शुरुआत
है--अ, ब, स।
जैसे छोटे
बच्चों को हम पढ़ाते हैं,
"ग' गणेश
का--पहले पढ़ाते
थे, अब पढ़ाते
हैं "ग' गधे
का। क्योंकि
गणेश तो एक "सेकुलर' राज्य में, धर्म-निरपेक्ष
राज्य में ठीक
नहीं है। गधा
प्रतीक है। "ग'
गधे का।
हालांकि "ग' न गधे का है
और न गणेश का।
मगर बच्चे को पढ़ाने के
लिए कुछ
तस्वीर देनी
पड़ती है--"ग' गधे का, "ग'
गणेश का, कुछ तो; क्योंकि
बच्चा "ग' नहीं
जानता, गधे
को जानता है।
गधे के साथ "ग'
सीख लेता
है। फिर गधा
तो भूल जाता
है "ग' रह
जाता है। फिर
ऐसा थोड़े ही
है कि जब भी
तुम पढ़ोगे,
तो कभी "ग' आएगा तो फिर
कहोगे "ग' गधे
का। तो तुम पढ़
ही न पाओगे।
फिर तो गधे और
गणेश सब गये।
फिर तो "ग' रह
जाता
है--शुद्ध।
यह तो
सिर्फ शुरुआत
है--अ, ब, स।
"संन्यास' गैरिक
वस्त्र का।
"संन्यास' माला
का। लेकिन यह
तो शुरुआत है।
धीरे-धीरे जैसे
तुम रगोगे-पगोगे,
रस-भीगोगे,
डूबोगे, संन्यास
ही रह जाएगा; गैरिक
वस्त्र और
माला
महत्वपूर्ण न
रह जाएंगे।
तुम कृतज्ञ
रहोगे उनके
लिए, क्योंकि
उन्होंने
यात्रा
करवायी। पहला
कदम उनसे उठा।
तुम्हारा
धन्यवाद उनके
प्रति रहेगा।
लेकिन तुम
उनसे बंधे न रह
जाओगे।
ये
बंधन
तुम्हारी
मुक्ति की तरफ
पहले कदम हैं।
आज
इतना ही।
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