सूत्र:
मग्गो मग्गफलं ति
य, द्रविहं
जिणसासणे
समक्खादं।
मग्गो खलु
सम्मतं मग्गफलं होई
निव्वाणं।।
52।।
दंसणाणचरित्ताणि,
मोक्खमग्गो
त्ति सेविदव्वाणि।
साधूहि इदं
भणिदं,
तेहिं दु बंधो
व मोक्खो
वा।। 53।।
आण्ण्णाणादो पाणी,
जदि मण्णादि
सुद्धसंपओगादो।
हवदि त्ति दुक्खमोक्खं
परसमयरदो
हवदि जीवो।।
54।।
जिन-दर्शन
गणित, विज्ञान
जैसा दर्शन
है। काव्य की
उसमें कोई जगह
नहीं है।
वही
उसकी
विशिष्टता
है।
दो और
दो जैसे चार
होते हैं, ऐसे ही
महावीर के
वक्तव्य हैं।
उन्हें समझने के
लिए ठीक
वैज्ञानिक की
बुद्धि
चाहिए। जैसे सौ
डिग्री तक हम
पानी को गर्म
करें, तो
वह भाप बन
जाता है। सौ
डिग्री तक
पानी गर्म हुआ
कि भाप बनेगा
ही। इस भाप को
बनाने के लिए
न तो किसी की प्रार्थना
करनी जरूरी है,
न किसी का
आशीर्वाद
लेना जरूरी
है।
और अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म न हुआ, तो लाख प्रार्थना करो, लाख आशीर्वाद लो, पानी पानी ही रहेगा, भाप न बनेगा।
और अगर सौ डिग्री तक पानी गर्म न हुआ, तो लाख प्रार्थना करो, लाख आशीर्वाद लो, पानी पानी ही रहेगा, भाप न बनेगा।
जैसे
विज्ञान कहता
है, परमात्मा
की कोई जरूरत
नहीं है, प्रकृति
के नियम काफी
हैं, पर्याप्त
हैं; परमात्मा
के होने से उन
नियमों में
कुछ जुड़ेगा
नहीं।
विज्ञान की एक
मूलभूत धारणा
है--और वह है
न्यूनतम
सिद्धांत।
जितने कम
सिद्धांतों से
काम चल सके
उतना उचित है।
चेष्टा तो
विज्ञान की
यही है कि
अंततः एक ही
सिद्धांत मिल
जाये जिससे
जीवन की सारी
पहेली सुलझ सके।
इसलिए
गैर-अनिवार्य
को बिलकुल जगह
नहीं देना है।
अगर सौ
डिग्री गर्म
करने से पानी
भाप बन जाता है
तो फिर पानी
को भाप बनाने
के लिए और
किसी परमात्मा
की जरूरत नहीं
है। और किसी
की प्रार्थना
भी व्यर्थ है।
इस नियम को जिसने
जान लिया, वह अगर पानी
को भाप बनाना
चाहेगा तो बना
लेगा।
विज्ञान
के हिसाब से
परमात्मा
हमारे अज्ञान का
हिस्सा है।
क्योंकि हम
जानते नहीं
जीवन के नियम
को, इसलिए हम
परमात्मा का
नाम लेते हैं।
तुमने देखा भी
होगा, जब
भी तुम कहते
हो "परमात्मा
जाने' तो
तुम्हारा
मतलब यह होता
है कि कोई
नहीं जानता।
"परमात्मा
जाने' का
यह अर्थ नहीं
होता कि
परमात्मा
जानता है--इतना
ही अर्थ होता
है कि तुम भी
नहीं जानते, कोई भी नहीं
जानता। जहां
तुम्हें अपने
अज्ञान को
प्रगट करना
होता है वहां
तुम परमात्मा
को ले आते हो।
लेकिन इस ढंग
से प्रगट करते
हो कि लगता है
जैसे कोई
जानता है।
"परमात्मा
जाने', इसमें
तुमने यह भी
छिपा लिया कि
मैं नहीं जानता।
और दूसरे के
सामने यह बात ढांक दी, अज्ञान को
छिपा लिया, प्रगट न
होने दिया।
विज्ञान
कहता है:
जैसे-जैसे
ज्ञान बढ़ता है, परमात्मा
हटता जाता है।
जिस दिन ज्ञान
पूरा हो
जायेगा, परमात्मा
शून्य हो
जायेगा।
महावीर
की भी ऐसी ही
दृष्टि है।
इसलिए महावीर ने
परमात्मा को
इनकार किया, प्रार्थना
को इनकार
किया--शुद्ध
जीवन के गणित को
समझने की
कोशिश की।
आदमी
बंधन में है, तो कारण
होंगे। अगर
आदमी को
बंधन-मुक्त
होना है तो उन
कारणों को अलग
करना होगा। बस,
इतना
सीधा-साफ। और
सब आकांक्षाएं,
अपेक्षाएं
अपने-आपको
भुलाने के
उपाय हैं।
कोई
तुम्हें बंधन
में डाला नहीं
है, कोई
तुम्हें
मुक्त करने न
आयेगा। जीवन
के सीधे नियम
का तुम उपयोग
नहीं किये, इसलिए बंधन
में पड़ गये
हो। उपयोग कर
लोगे, बंधन
के बाहर हो
जाओगे।
जैसे
कोई आदमी
सम्हलकर चलता
हो तो गिरता
नहीं। जो आदमी
गिर जाता है, उससे हम
कहते हैं, सम्हलकर
चलो!
सम्हलकर
चलने का क्या
अर्थ होता है? सम्हलकर
चलने का अर्थ
होता है: जमीन
की गुरुत्वाकर्षण
की शक्ति है, उसका ध्यान
रखकर चलो। अगर
इरछे-तिरछे
चले--गिरोगे।
वही
गुरुत्वाकर्षण
का नियम जो
तुम्हें चलाता
है, सम्हालता
है, जिसके
बिना चल न
सकोगे, अगर
उसके विपरीत
गये तो गिरोगे,
हाथ-पैर तोड़
लोगे, फिर
कभी चल न
पाओगे। तो
गुरुत्वाकर्षण
के निमय
को समझ लो और
अपने और उस
नियम के बीच
एक संगीत का
संबंध बना लो।
इतना ही धर्म
है।
महावीर
धर्म की
परिभाषा करते
हैं: जीवन के
स्वभाव सूत्र
को समझ लेना
धर्म है। जीवन
के स्वभाव को
पहचान लेना
धर्म है।
स्वभाव ही
धर्म है।
ये
सूत्र ऐसे ही
सीधे-साफ हैं।
पहला
सूत्र:
मग्गो मग्गफलं
ति य, द्रविहं जिणसासणे
समक्खादं।
मग्गो
खलु सम्मतं
मग्गफलं
होइ निव्वाणं।।
"जिन-शासन
में मार्ग तथा
मार्ग-फल, इन
दो प्रकारों
से कथन किया
गया है। मार्ग
है मोक्ष का
उपाय और फल है
निर्वाण।'
मार्ग
और मार्ग-फल!
बस महावीर के
सारे वचन इन दो
हिस्सों में
बांटे जा सकते
हैं: कारण और
कार्य। ऐसा
करो तो ऐसा
होगा। बस इतनी
दो सरणियों
में महावीर के
पूरे कथन
बांटे जा सकते
हैं। कुछ कथन
हैं जो बताते
हैं क्या करो
और कुछ कथन हैं
जो बताते हैं
कि फिर क्या
होगा। अगर जहर
पी लो तो
मृत्यु होगी।
अगर अमृत को
खोज लो तो अमरत्व
को उपलब्ध हो
जाओगे।
परिणाम
कारण के पीछे
ऐसे ही चला
आता है जैसे
तुम्हारे
पीछे तुम्हारी
छाया चली आती
है। तो करना
क्या है? न
प्रार्थना, न पूजा, न
मंदिर, न
पाठ; क्योंकि
इनसे कुछ भी न
होगा। इनसे
कारण का कोई
संबंध नहीं
है।
यह तो
ऐसे ही है
जैसे वर्षा
नहीं हो रही
और कोई यज्ञ
कर रहा है।
इसका कुछ लेना-देना
नहीं है। यज्ञ
से कोई
कार्य-कारण का
संबंध नहीं है
वर्षा से। कि
कोई बीमार पड़ा
है और तुम
ताबीज बांध
रहे हो; ताबीज
से और बीमारी
का कोई
कार्य-कारण का
संबंध नहीं
है। इलाज करो।
बीमारी के
रोगाणु हैं, उनसे मुक्त
होने की
व्यवस्था
करो। ताबीज से
रोगाणु डरेंगे
न और न मुक्त
होंगे और न
तुम उनसे
मुक्त हो सकोगे।
महावीर
कहते हैं, जीवन में
दुख है तो तुम
ठीक-ठीक कारण
खोजो। दुख से
तुम बचना
चाहते हो, यह
तो हमें मालूम
है; लेकिन
सिर्फ बचने की
आकांक्षा से
बच न सकोगे। और
दुख से तुम
बचना चाहते हो,
इसलिए कोई
भी कुछ बता
देता है, वही
करने लगते
हो--इससे भी न
बच सकोगे। हो
सकता है बतानेवाले
की भी
आकांक्षा शुभ
हो; खोजनेवाले की भी
आकांक्षा शुभ
हो; लेकिन
आकांक्षाओं
से थोड़े ही
जीवन चलता है।
जीवन चलता है
सत्यों से, नियमों से।
तो नियम को
खोज लो। नियम
के खोजते ही
जीवन में
क्रांति घटित
होती है।
उस
नियम की खोज
को महावीर
कहते हैं:
मार्ग। वही
मार्ग पकड़ में
आ जाये तो फिर
परिणाम के लिए
प्रार्थना भी
करनी जरूरी
नहीं है, उतना
भी समय खराब
मत करना।
क्योंकि जब
तुमने आग जला
दी और पानी
गर्म होने लगा
तो अब बैठकर
प्रार्थना मत
करना कि हे
परमात्मा, इसको
भाप बना! अब
किसी
परमात्मा को
बीच में लाने
की जरूरत नहीं
है। अब तो
पानी भाप
बनेगा। ईंधन
पूरा है, आग
जल उठी
है--पानी भाप
बनेगा। अब इसे
कोई रोक भी न
सकेगा। इस
नियम के
विपरीत कुछ घट
न सकेगा।
महावीर
चमत्कार में
नहीं मानते।
कोई वैज्ञानिक
बुद्धि का
व्यक्ति नहीं
मानता।
चमत्कार कहीं
न कहीं धोखा
होगा, क्योंकि
नियमों का कोई
अपवाद नहीं
होता। अगर कोई
आदमी हाथ से
राख निकाल
देता है तो
कहीं न कहीं
कोई मदारीगिरी
होगी, क्योंकि
जीवन के नियम
किसी का अपवाद
नहीं मानते।
जीवन के नियम
व्यक्तियों
की चिंता नहीं
करते--निर्वैयक्तिक
हैं, सार्वभौम
हैं। उनसे
अन्यथा होने
का उपाय नहीं।
अगर
कोई आदमी साठ
डिग्री पर
पानी को भाप
बना दे तो या
तो थर्मामीटर
से धोखा दे
रहा है या किसी
तरह का आयोजन
कर रहा है, जिससे
तुम्हें यह
भ्रम पैदा
होता है कि
साठ डिग्री पर
पानी भाप बन
रहा है।
पानी
तो सौ डिग्री
पर ही भाप
बनेगा। उसने
किसी तरह का
भ्रमजाल रचा
है। लेकिन
चमत्कार जगत
में नहीं
होते।
चमत्कार
का तो अर्थ यह
होता है कि
जगत के नियम पक्षपात
करते हैं।
किसी एक आदमी
की मानकर कुछ उलटा
भी कर देते
हैं। किसी
दूसरे की
मानकर नियम
में शिथिलता
कर देते हैं।
किसी तीसरे पर
नाराज हो जाते
हैं। जिस पर
प्रसन्न हैं, साठ डिग्री
पर पानी भाप
बन जाता है; जिस पर
नाराज हैं, उसके लिए डेढ़
सौ डिग्री पर
भी भाप नहीं
बनता।
मगर
महावीर कहते
हैं, पानी सौ
डिग्री पर भाप
बनता है। नियम
न नाराज होते
न प्रसन्न
होते। नियम
निर्वैयक्तिक
है। इसको खयाल
में लेना।
परमात्मा
व्यक्ति है।
तो जब
भी हम
परमात्मा की
बात करते हैं, हमारे मन
में
संभावनाएं
उठने लगती हैं
कि अगर खूब
प्रार्थना
करें, खूब
स्तुति करें,
खूब
समझा-बुझा लें,
तो जो दूसरे
के लिए नहीं
हुआ है वह
हमारे लिए हो
जायेगा।
क्योंकि
व्यक्ति के
आते ही लगता
है फुसला लेंगे,
राजी कर
लेंगे, समझा
लेंगे, रोयेंगे,
गिड़गिड़ायेंगे,
सहानुभूति
पैदा कर लेंगे,
करुणा मांगेंगे!
आखिर
परमात्मा
दयालु है, तो
खूब रोयेंगे
तो दया उठेगी।
लेकिन
महावीर कहते
हैं, ऐसे तुम
किसी और को
धोखा नहीं दे
रहे, अपने
को ही धोखा दे
रहे हो।
ऐसी चेष्टाएं
व्यर्थ हैं और
उनमें गंवाया
गया समय तुमने
व्यर्थ ही
गंवाया।
मार्ग को खोज
लो!
महावीर
का जोर मार्ग
पर है; परमात्मा
के सहारे पर
नहीं; परमात्मा
के आलंबन पर
नहीं। यही तो
सारे विज्ञान
की दृष्टि है।
विज्ञान कहता
है, कहीं
कुछ घट रहा
है। हमें आज
पता न हो
क्यों घट रहा
है; लेकिन
जिस दिन पता
चल जायेगा उस
दिन फिर घटाने
की शक्ति
हमारे हाथ में
आ जायेगी।
और जब
तक हमें पता
नहीं है तब तक
बेहतर है कि
हम कहें कि
हमें मालूम
नहीं।
तो
महावीर के
अधिक वचन तो
मार्ग-सूचक
हैं। और कुछ
वचन फल-सूचक
हैं। ऐसा पूरा
जिन-शासन दो
हिस्सों में
विभाजित है।
आइंस्टीन
भी इससे राजी
होगा। प्लांक
भी इससे राजी
होगा। रसेल भी
इसमें भूल-चूक
न निकाल
पायेगा।
इसलिए महावीर
के वचनों में
या जैन
शास्त्रों
में तुम्हें
कहीं काव्य न
मिलेगा, काव्य
का चमत्कार न
मिलेगा। पढ़ोगे
तो रूखे-सूखे
लगेंगे। ठीक
गणित की
किताबें हैं--ज्यामिति,
आध्यात्मिक
ज्यामिति।
अंतरात्मा के
संबंध में ज्यामेट्री
खड़ी की है।
तो
उपनिषदों में
जैसा सौंदर्य
है, कृष्ण के
वचनों में
जैसा रस है
वैसा महावीर
के वचनों में
नहीं है।
गणित
को गाया नहीं
जा सकता। गणित
को गाओ तो गणित
बिगड़ जाता है।
क्योंकि गाने
के लिए कुछ
गैर-गणित भीतर
लाना पड़ता है।
इसलिए
तो हम कवि से
कभी तार्किक
होने की अपेक्षा
नहीं करते। और
कवि अगर सपनों
की बात करे तो हम
उसे क्षमा
करते हैं। और
कवि अगर
मनगढंत बातों
में घूमे तो
हम कहते हैं, कवि है, कविता
है।
लेकिन
गणितज्ञ से हम
दूसरी
अपेक्षा करते
हैं। गणितज्ञ से
हम चाहते हैं
सीधी-साफ रेखा
हो, शुद्ध
रेखा हो, जिसमें
कुछ भी
गणितज्ञ ने
अपने भाव के
कारण न डाला
हो। केवल सत्य
का प्रतिफलन
हो। शुद्ध सत्य
का प्रतिफलन
हो। सजावट न
हो, शृंगार
न हो।
इसलिए
महावीर के वचन, जैसे महावीर
नग्न हैं वैसे
ही महावीर के
वचन भी नग्न
हैं। उनमें
कोई सजावट
नहीं है। जैसा
है वैसा कहा है।
और जिनके पास
वैज्ञानिक
बुद्धि है
उनको महावीर
पर बड़ी
श्रद्धा पैदा
होगी। उनको
महावीर के साथ
बड़ा संबंध जुड़
जायेगा।
"मार्ग
तथा मार्ग-फल,
इन दो
प्रकार से कथन
किया है।
मार्ग मोक्ष
का उपाय है और
उसका फल मोक्ष
या निर्वाण...'
मोक्ष
या निर्वाण
शब्द को समझ
लेना चाहिए।
"मोक्ष'
शब्द बड़ा
अनूठा है।
भारत के बाहर
की किन्हीं भाषाओं
में मोक्ष के
पर्यायवाची
कोई शब्द नहीं
है। स्वर्ग है
सभी भाषाओं
में, लेकिन
मोक्ष भारत के
बाहर की
किन्हीं
भाषाओं में
नहीं है।
क्योंकि
मोक्ष की
धारणा ही किसी
और देश में
पैदा नहीं
हुई। उतनी
ऊंचाई तक, उतनी
गहराई तक
मनुष्य की
चिंतना और
ध्यान गया नहीं
कहीं और।
मोक्ष
का अर्थ होता
है: जहां सुख
भी नहीं, दुख
भी नहीं।
स्वर्ग
का अर्थ होता
है: जहां सुख
है, भरपूर
सुख है।
स्वर्ग का
अर्थ होता है:
जो हम चाहते
हैं वही है; जैसा हम
चाहते हैं
वैसा है।
हमारी चाह का
परिपूरक है।
हमारी चाह को
भरता है।
हमारी चाहत के
अनुकूल जहां
सब हो रहा है
वहां स्वर्ग
है। तो जहां
हमारी चाह
पूरी होती है
वहां क्षणभर
को हम भी
स्वर्ग में हो
जाते हैं।
नर्क
का अर्थ है:
जहां सब हमारी
चाह के विपरीत
हो रहा है; जो हम चाहते
हैं ठीक उससे
उलटा हो रहा
है; जिस-जिससे
हम बचना चाहते
हैं वही-वही
हो रहा है।
नर्क
और स्वर्ग
सारी दुनिया
की भाषाओं में
हैं।
"मोक्ष'
बड़ा अनूठा
शब्द है।
मोक्ष का अर्थ
है: न तो हमारी
अब कोई चाह है,
न हमारी कोई
पसंद है।
क्योंकि
महावीर कहते
हैं, जब तक
चाह है तब तक
बंधन रहेगा।
हां, यह भी
हो सकता है कि
तुम सोने के
बंधन बना लो; लोहे की
जंजीरें तोड़ डालो और
सोने की
जंजीरें ढाल
लो। और यह भी
हो सकता है उन जंजीरों
पर हीरे-मोती
जड़ दो। वे
प्यारे लगने
लगें। वे इतने
प्यारे हो
जायें कि
आभूषण मालूम
पड़ें।
बहुत-से
आभूषण, जिन्हें
तुम आभूषण
समझते हो, जंजीरें
सिद्ध होते
हैं; और
बहुत-सी
जंजीरें
जिनकी
तुम्हें याद
भी नहीं आती
कि जंजीरें
हैं, आभूषणों
में छिप गई
हैं।
तो
महावीर कहते
हैं, सुख की
आकांक्षा या
सुख का मिलना
भी जंजीर है--सोने
की जंजीर है।
दुख का मिलना
लोहे की जंजीर
है। लेकिन
दोनों बांधते
हैं। तुमने
खयाल किया? कभी तुम्हें
एकाध क्षण को
भी ऐसी चैतन्य
की घड़ी आई, जब
न सुख की
आकांक्षा है न
दुख की? तब
तुमने देखा, कैसी मुक्ति
अनुभव होती
है! सब सीमाएं
समाप्त हो
जाती हैं। सब
कारागृह
विलुप्त हो
जाते हैं! क्षणभर
को तुम्हारे
चेतना के आकाश
में एक भी
बादल नहीं रह
जाता। निरभ्र
आकाश! अनंत
आकाश! जैसे ही
उठी आकांक्षा,
बादल घिरे,
अंधेरा
छाया! आकाश तो
खो गया, बदलियां
रह गईं! धुएं
के बादल रह
गये!
कभी क्षणभर को
भी अगर
तुम्हारे
जीवन में ऐसा
हो जाता हो, जब न सुख की
इच्छा है, न
दुख की, कोई
इच्छा नहीं है,
तुम
अनिच्छा में
बैठे हो--उसी
घड़ी को महावीर
"सामायिक' कहते
हैं। तुम
संसार के बाहर
हो। क्योंकि
महावीर के
हिसाब में
संसार का अर्थ
है: चाह के भीतर
होना।
चाह से
भरे होना
संसार में
होना है। फिर
तुम चाह कोई
भी करो। चाहे
पृथ्वी के धन
की हो, चाहे
स्वर्ग के धन
की हो; चाहे
तुम पुण्य की
आकांक्षा करो;
लेकिन कोई
भी आकांक्षा
है, चाहत
जारी है--और
तुम संसार में
हो।
ऐसी भी
घड़ियां हैं
चैतन्य की, जब कोई चाह
नहीं, जब
तुम हो--निपट
अकेले! शुद्ध!
कोई धुएं की
रेखा भी भीतर
नहीं। उस क्षण
में तुम कहां
होते हो? उस
क्षण में तुम
शरीर के भीतर
होते हो? नहीं,
उस क्षण में
शरीर की
स्मृति खो
जाती है। तुम
विदेह हो जाते
हो। क्योंकि
शरीर से हमारा
संबंध चाह का
संबंध है। उस
क्षण में तुम
शरीर में नहीं
होते। उस क्षण
में तुम
पृथ्वी पर
नहीं होते। उस
क्षण में तुम
स्थान में
नहीं होते। उस
क्षण में तुम
समय में भी
नहीं होते। उस
क्षण में तुम
अचानक किसी
दूसरे ही लोक
में प्रवेश कर
गये--पार का
लोक! जल्दी ही
तुम लौट आओगे।
क्योंकि उस
पार के लोक
में जीने की, उस ऊंचाई पर
जीने की
तुम्हारी
क्षमता नहीं
है। उस ऊंचाई
पर श्वास लेने
की तुम्हारी
कुशलता नहीं
है। उन
ऊंचाइयों पर उड़ने की
अभी तुमने आदत
नहीं डाली, अभ्यास नहीं
किया है।
इसलिए
कभी-कभी क्षणभर
को जब चाह छूट
जाती है, तब
तुम एकदम
मुक्ति अनुभव
करते हो।
ऐसे ही
तो पहली दफा
आदमी को मोक्ष
का खयाल उठा होगा
कि जो क्षणभर
को हो सकता है
वह सदा को
क्यों न हो! जो
एक क्षण को
चेतना में
कभी-कभी झलक
जाता है, वह
सदा के लिए
चेतना का
स्वभाव क्यों
न बन जाये!
मोक्ष
का अर्थ है:
जहां चेतना की
कोई चाह नहीं।
जहां चाह नहीं
वहां संसार
में कोई राह
नहीं।
चाह
राह बनाती है; संसार में
ले आती है।
क्योंकि जहां
चाह आई, वहां
वस्तुओं का
संसार आया।
तुमने कुछ
चाहा, तुम्हारी
आंख दूर गई, "पर' पर
पड़ी--तुम बंधे!
तुम उलझन में
पड़े!
और
जिसने सुख
चाहा--उसे दुख
मिला।
यह तो
हमारा सबका
अनुभव है। सभी
ने सुख चाहा है--मिला
कहां? चाहा
तो सभी ने सुख
है; पाया
सभी ने दुख
है। इसे तुम
कब देखोगे?
कब जागोगे
कि चाह तो कुछ
और होती है, मिलता कुछ
और है।
तो
महावीर कहते
हैं, यह जीवन
का आधारभूत
नियम है कि जो
सुख चाहेगा वह
दुख पायेगा।
सुख की चाह
में ही दुख
छिपा है। इसे
समझो।
पहला, सुख वही
चाहता है जो
दुखी है--एक
बात। क्योंकि तुम
वही चाहते हो
जो तुम्हारे
पास नहीं है।
जो तुम्हारे
पास है, तुम
क्यों चाहोगे?
जो
तुम्हारे पास
है ही, उसकी
तो चाह खो
जाती है; जो
नहीं है उसकी
ही चाह पैदा
होती है। अभाव
चाह को
जन्माता है।
अभाव
जन्मदाता है।
तो जिस
आदमी ने सुख
चाहा, एक
बात तो उसने
यह बतायी कि
वह दुखी है।
फिर जिस आदमी
ने सुख चाहा, उसने दूसरी
बात भी बतायी
कि अगर यह न
मिला तो मैं
और दुखी हो जाऊंगा,
विषाद
घेरेगा, असफलता
हाथ लगेगी। और
जैसे ही उसे
यह खयाल आया
कि अगर यह न
मिला तो मैं
और दुखी हो जाऊंगा,
विषाद होगा
मेरे जीवन में,
उद्विग्न
हो जाऊंगा,
हारा हुआ, थका हुआ, पराजित--भय
समाया! भय आया!
यह आदमी वैसे
ही दुखी था, इसने सुख की
चाह करके और
दुख बुला लिया,
और भयभीत हो
गया। अब यह
डगमगाते
कदमों से सुख की
तरफ चलता है।
और, सुख हम सदा
बाहर मांगते
हैं: किसी
स्त्री से मिलेगा,
किसी पुरुष
से मिलेगा, धन से
मिलेगा, पद
से मिलेगा!
लेकिन पद से
सुख का क्या
संबंध है? तुम
कितनी ऊंची
कुर्सी पर
बैठते हो, इससे
सुख का क्या
संबंध? तुम
कितने बड़े
मकान में हो, इससे क्या
सुख का संबंध
है?
सुख का
मकान के बड़े
और छोटे होने
से कहीं भी तो कोई
संबंध नहीं
है। क्योंकि
सड़क पर खड़े
भिखारी भी कभी
सुखी देखे गये
हैं। महावीर
खुद ही ऐसे
भिखारी थे। और
कभी महलों में
सम्राट भी
दुखी देखे गये
हैं।
तो दुख
और सुख का
संबंध
स्थितियों से
तो मालूम नहीं
पड़ता, परिस्थितियों
से तो मालूम
नहीं
पड़ता--कुछ भीतरी
दशाओं से जुड़ा
है। तो जब भी
तुमने बाहर
मांगा, गलत
जगह मांगा। और
मांग मात्र
बाहर की होती
है। भीतर तो
मांगोगे
किससे, मांगोगे
क्या? वहां
तो कुछ भी
नहीं
है--शून्य
आकाश है। वहां
तो कोरापन है।
वहां तो तुम
मुट्ठी
बांधना चाहोगे
तो बंधेगी
नहीं; बंध
भी जायेगी तो
हाथ में कुछ न
आयेगा। आकाश को
कौन मुट्ठी
में बांध सका
है! आत्मा को
भी कोई नहीं
बांध सका है।
तो
भीतर तो कुछ पकड़
में आता नहीं, बाहर पकड़
में चीजें आ
जाती हैं, तो
हम सोचते हैं
बाहर होगा।
ऐसे बाहर
दौड़ते हैं
जहां नहीं है।
फिर एक न एक
दिन स्वप्न
टूटता है और
पता चलता है
यहां नहीं है;
हम महादुखी
हो जाते हैं।
उस महादुख
से और बड़े सुख
की आकांक्षा
पैदा होती है।
क्योंकि
जितने हम दुखी
होते हैं उतनी
ही तीव्र
आकांक्षा होती
है कि जल्दी
करो, मौत
करीब आयी जाती
है, सुखी
होना है। ऐसा
एक दुष्टचक्र
है। दुख में
से सुख की
आकांक्षा
निकलती है; सुख की
आकांक्षा में
से और बड़ा दुख
निकलता है।
तो
महावीर कहते
हैं, जिसने
छोड़ा है, उसने
सिर्फ दुख को ही
नहीं छोड़ा, उसने सुख को
भी छोड़ा है।
उसने नर्क का
ही त्याग नहीं
किया...। वह तो
सभी करते हैं;
उसमें
कौन-सी कुशलता
है? उसमें
कौन-सी मेधा
है? दुख से
कौन नहीं बचना
चाहता--सभी
बचते हैं। उसमें
कौन-सी
बुद्धिमानी
है? उसमें
कौन-सी
विशेषता है।
लेकिन जिसने
गौर से देखा, समझा, जीवन
की पर्तों को उघाड़ा, रहस्य
को पहचाना, गणित का
सूत्र समझ में
आ गया उसे कि
दुख की सारी
चाल यही है कि
वह तुम्हें
सुख का
आश्वासन देता
है और भरमा
लेता है। तुम
सुख के
आश्वासन में
दुख के पीछे
चले जाते हो, भटक जाते
हो। मिलता दुख
है, चाहते
सदा सुख हो।
जो
जागा इस अनुभव
में, उसने सुख
नहीं चाहा। और
जिसने सुख
नहीं चाहा, उसके जीवन
से दुख विदा
होने लगे।
क्योंकि बिना
सुख की चाह के
दुख निर्मित
नहीं हो सकता।
थोड़ा
सोचो!
जिस
आदमी ने सफलता
नहीं चाही, उसे तुम
विफल कैसे
करोगे? और
जिसने कभी
जीतना नहीं
चाहा, उसे
तुम हराओगे
कैसे? और
जिसने कभी धनी
होने के
पागलपन में
अपने को नहीं
लगाया, उसे
तुम निर्धन
कैसे कर पाओगे?
और जिसने
तुमसे सम्मान
नहीं मांगा, तुम उसका
अपमान कैसे
करोगे? करोगे
कैसे? उपाय
कहां है? उसने
तुम्हें
सुविधा कहां
दी?
जिसने
सम्मान चाहा, उसे तुम
अपमानित कर
सकते हो।
जिसने धन चाहा,
उसकी चाह
में ही वह
निर्धन हो
गया। जिसने
जीत चाही, उसने
पराजय के ढेर
लगा लिये।
इसलिए
महावीर कहते
हैं: मोक्ष का
अर्थ है इस अनुभव
को तुम्हारे
जीवन की स्थिर
दशा बना लेना कि
न सुख की चाह न
दुख की चाह, न नर्क न
स्वर्ग, कोई
चाह नहीं।
अचाह
की दशा मोक्ष
है।
तो यह
तो परिणाम है
मोक्ष। मोक्ष
यहां घट सकता
है। ऐसा मत
सोचना जैसा कि
साधारणतः लोग
समझते हैं कि
मोक्ष मरने के
बाद घटता है।
जिसको जीते-जी
नहीं घटा उसे
मरने के बाद
भी नहीं
घटेगा। पहले
तो मोक्ष जीवन
में उतरता है।
इसलिए व्यक्ति
पहले
जीवन-मुक्त
होता
है--जीते-जी
मुक्त होता
है। फिर जो
जीते-जी मुक्त
हो गया, वह
तो मरने के
बाद भी मुक्त
रहेगा।
मुक्ति एकमात्र
संपदा है जिसे
मृत्यु नहीं
छीन पाती। और सारी
संपदाएं
मृत्यु छीन
लेती है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं: अगर तुम
थोड़े भी बुद्धिमान
हो, थोड़ा
हिसाब तो करो,
गणित तो बिठाओ!
तुम जो इकट्ठा
कर रहे हो वह
सब मौत छीन
लेगी। पहले तो
कर न पाओगे।
कौन कब कर
पाया? और
अगर किसी तरह
कर भी लिया तो
जब तक तुम कर
पाओगे, मौत
द्वार पर आ
जायेगी।
करोगे तुम, छीन लेगी
मौत। यह कैसी
नासमझी कर रहे
हो? उसे
कमा लो, जिसे
मौत न छीन
सकती हो:
मुक्त दशा!
चैतन्य की
अचाह की दशा!
चैतन्य का
निरभ्र आकाश,
जिसमें कोई
चाह के बादल
नहीं! फिर मौत
कुछ भी न कर
पायेगी।
मौत एक
जगह जाकर
हारती है--वह
मोक्ष है। और
सभी चीजों पर
जीत जाती है।
अब इसे समझना।
हमारी
जीवन की भी
आकांक्षा है, इसलिए मौत
जीत जाती है।
जीवेषणा! हम जीना
चाहते हैं--हर
हाल जीना
चाहते हैं! हर
शर्त पूरी
करने को राजी
हैं, लेकिन
जीना चाहते
हैं। सड़ते
हों, गलते
हों, मरते
हों, खाट
पर पड़े हों, अस्पतालों
में लटके हों,
उलटे-सीधे
हाथ-पैर बंधे
हों--लेकिन
जीना चाहते
हैं। मरना
नहीं चाहते।
कैसी भी हालत
में आदमी पड़ा
हो और उससे
पूछो, "मरना
चाहते हो?' वह
इनकार करेगा।
तुम चकित
होओगे, बहुत-से
लोग कहते हैं
कि "अब तो
भगवान उठा लो!'
वह भी मरना
नहीं चाहते।
वह भी कहने की
बातें कर रहे
हैं।
मेरा
एक मित्र मरना
चाहता था, आत्महत्या
करना चाहता
था। उसके पिता
बहुत घबड़ा
गये। इकलौता
बेटा था और
अकेले मुझसे
ही उसकी
दोस्ती थी, तो वे मुझे
बुलाने आये।
तो मैंने कहा,
"घबड़ाओ मत! मैं उसे
भलीभांति
जानता हूं।
चिंता न करो।'
पर वे बोले
कि चिंता होती
है, उसने
दरवाजा बंद कर
लिया है। और
अगर दरवाजे पर
खटका भी करो
तो वह
चिल्लाता है,
कि "मैं मर जाऊंगा, दरवाजा नहीं
खोलूंगा।'
वह कुछ कर न
ले, सिर न
तोड़ दे। कुछ
छुरी वगैरह न
छिपा रखी हो, कुछ जहर
वगैरह न रखे
हो, कोई
गोलियां न ले
आया हो! और
पिता वैद्य
हैं तो और भी
डरे कि वह जहर
तो हमारे घर
में रहता ही
है, गोलियां
भी हैं, दवाइयां
भी हैं, वह
कुछ ले न गया
हो उठाकर!
तो मैं
गया। भीड? लगी थी, मुहल्ला
इकट्ठा था।
मैंने दरवाजे
पर जाकर कहा
कि सुनो, मरना
है तो इतना
शोरगुल क्यों
कर रहे हो? शोरगुल
जिसको जिंदा
रहना है उसको
शोभा देता है।
अब जिसको मरना
ही है तो यह
इतना क्या
विज्ञापन? दरवाजा
खोलो और
मेरे साथ चलो!
तुम्हें मरने
की कोई ढंग से
व्यवस्था
जुटा देंगे; यह कोई ढंग
चुना? अब
जब मरना ही
है...।
तब वह
मुझे तो धमकी
दे नहीं सका
कि मर जाऊंगा।
अब उसे कुछ
समझ में न आया
तो उसने
दरवाजा खोल दिया।
मैंने कहा, "तुम मेरे
साथ
आओ--नर्मदा पर
चलेंगे।
"धुआंधार' ले
चलेंगे। वहां
से तुम कूद
जाना। चांद की
रात है, जलप्रपात
है, जब मर
ही रहे
हो--जिंदगी
में तो कुछ
नहीं मिला, कम से कम मौत
को ही सुंदर
बना लो!'
उसने
मेरी तरफ बड़ी
गौर से और
हैरानी से
देखा; क्योंकि
जो भी आये थे, वह सब समझा
रहे थे दरवाजे
के बाहर से कि
बेटा मरना मत!
ऐसा मत करना, वैसा मत
करना!
एक लड़की
से उसका प्रेम
था। उस लड़की
ने विवाह करने
से इनकार कर
दिया था। तो
लोग समझा रहे
थे: "उससे अच्छी
लड़कियां
मिल जायेंगी, उसमें रखा
क्या है? तू
घबड़ाता
क्यों हैं?' मगर वह जिद्द
पकड़े हुए
था।
मैं
उसे घर ले आया
और मैंने कहा
कि रात तुझे
जो भी करना हो, क्योंकि यह
आखिरी रात
है--कोई फिल्म
देखनी है? कोई
मिठाई खानी है?
कुछ आखिरी
पत्र वगैरह
लिखना? कुछ
भी तुझे करना
हो तो बोल, क्योंकि
फिर मौका नहीं
रहेगा। और दो
बजे रात हम
उठेंगे और चल
पड़ेंगे। तू
कूद जाना, हम
विदा कर
आयेंगे।
मित्र का
कर्तव्य
है...कि जो असमय
में काम आये
वही मित्र है।
अब इस वक्त
तेरे कोई काम
नहीं आ सकता।
वह
सुनता था मेरी
बात, बड़े
क्रोध से
देखता था।
बोलता भी नहीं
था कुछ। दो
बजे रात का
अलार्म भर
दिया। दोनों
हम सो गये।
बीच में
अलार्म-घड़ी रख
ली। जैसे ही
दो बजे अलार्म
बजा, उसने
जल्दी से
अलार्म बंद
किया। मैंने
उसका हाथ घड़ी
पर पकड़ा।
मैंने कहा, अलार्म बंद
नहीं कर सकते!
वह एकदम बैठ
गया और चिल्लाया
कि तुम मेरे
दुश्मन हो कि
मेरे दोस्त? तुम मुझे
क्यों मारने
में लगे हो? क्या मुझे
मरना ही पड़ेगा?
"...मेरा
कोई प्रयोजन
नहीं है। तुम
मरना चाहो तो
मैं साथ देता
हूं। तुम जीना
चाहो तो मैं
साथ देने को
तैयार
हूं--मेरा काम
साथ देने का
है--तुम अगर
मरने में सुख
पाते हो तो
मैं क्यों
बाधा दूं! तुम
फिर सोच लो, सुबह कहीं
तुम बदल मत
जाना--सूरज
ऊगा देखकर, फिर लोग, भीड़
देखकर--फिर
तुम मौत की
बात मत कर
लेना। अब तुम
तय कर लो। अगर
मरना हो तो मर
जाओ। अगर
जिंदा रहना है
तो जिंदा रहो,
फिर मरने की
बात मत करो।'
वह
आदमी अभी भी
जिंदा है। वह
मुझ पर बहुत
नाराज है!
उसने शादी भी
कर ली किसी
दूसरी स्त्री
से। अब तो
बच्चे भी हैं
उसके। और कभी
मैं गया उस गांव
दुबारा तो
उसको बुलाता
हूं तो वह बड़ी
नाराजगी में
आता है। वह
प्रसन्न नहीं
है। जैसे
मैंने उसका
कोई अहित
किया। और मैं
वही कर रहा था
जो वह करना
चाहता था।
लोग
कहते हैं कि
मर जायें अब
तो! वे यह नहीं
कह रहे हैं कि
मरना चाहते
हैं। भूल मत
समझ लेना। वे
तो सिर्फ यही
कह रहे हैं कि
जिंदगी थोड़ी
बेहतर होनी
चाहिए। यह कोई
जिंदगी है।
इस
मरने की चाह
में ही जीवन
की आकांक्षा
है। इस मरने
की चाह में भी
और जीवन को
चूस लेने का
भाव है। वे यह
कह रहे हैं कि
अब जिंदगी में
कुछ सार तो
नहीं मालूम
पड़ता, क्या
फायदा जीने
से! लेकिन फिर
भी भीतर जीने
की आकांक्षा
है! अन्यथा
कौन किसको
मरने से रोक सका
है? कौन कब
रोक सकता है?
दुनिया
के सरकारी कानूनों
में अगर सबसे मूढ़तापूर्ण
कोई है तो वह
आत्महत्या के
विपरीत कानून
है। वह कुछ
समझ के बाहर
है। सरकारों
को ऐसे कानून नहीं
बनाने चाहिए
जिनको वह पूरा
न करवा सकती हों।
आत्महत्या का
कानून कोई
सरकार पूरा
नहीं करवा
सकती। जिसको मरना
है, उसे कोई
कैसे रोक सकता
है, थोड़ा
सोचो तो! सौ
में
निन्यानबे
लोग जो मरने की
चेष्टा करते
हैं, वे
सिर्फ दिखावा
करते हैं, मरना
नहीं चाहते सौ
में से
निन्यानबे
मरने की चेष्टा
करके बच जाते
हैं। वे बचने
का पहले ही इंतजाम
कर लेते हैं।
आकांक्षा
जीने की इतनी प्रगाढ़ है!
और वह जो एक
आदमी मर जाता
है, वह भी
मरना चाहता था,
इसमें
संदेह है। मर
गया, यह
दूसरी बात है।
कुछ जरा जरूरत
से ज्यादा इंतजाम
कर गया। कुछ
समझ न पाया।
दस गोलियां
लेनी थीं, बीस
ले लीं। कुछ
भूल-चूक गणित
में हो गई।
सोचती थी
पत्नी कि पति
सांझ घर आ
जायेंगे, वे
दो दिन तक
नहीं आये और
वह रात
पड़ी-पड़ी मर
गई।
जो सौ
में से एक मर
जाता है, वह
भी ऐसा लगता
है कि भूल-चूक
से सफल हो
गया। निन्यानबे
तो सफल नहीं
होते, क्योंकि
वह असफलता का
इंतजाम पहले
से कर लेते हैं।
मरने की
चेष्टा, उनकी
कुछ घोषणा है
जीवन के बाबत।
वे किसी और तरह
का जीवन चाहते
हैं लेकिन
जीवन नहीं
चाहते, ऐसा
नहीं है। जीवन
तो चाहते ही
हैं--और तरह का
जीवन चाहते
हैं। इस जीवन
से तृप्ति
नहीं हो रही
है। तो वे इस
जीवन के प्रति
शिकायत कर रहे
हैं मरने की
कोशिश में।
लेकिन
कौन किसको रोक
सकता है? मरना
कोई चाहता
नहीं, इसलिए
कानून चलता
है। अन्यथा
मैं नहीं
देखता कोई उपाय
है कि तुम
कैसे किसी
आदमी को रोक
सकोगे मरने
से। जिसको
मरना है वह
राह खोज लेगा।
मौत तो
व्यक्ति का
जन्मसिद्ध
अधिकार है।
इसको कोई
राज्य छीन
नहीं सकता।
लेकिन
कोई मरना ही
नहीं चाहता, छीनने का
सवाल ही नहीं
है। कभी-कभी
कोई भूल-चूक
से सफल हो
जाता है। वह
भी पछताता होगा
मरकर कि "अरे,
यह मैंने
क्या कर लिया!
यह जरा मैं
अति कर गया। जरा
दो कदम ज्यादा
उठा लिये, जरा
दो कदम कम
उठाने थे।' प्रेत होकर
वह भी पछताता
होगा।
महावीर
कहते हैं:
चूंकि
जीवेषणा है, इसलिए मौत
तुमसे कुछ छीन
पाती है। जिस
व्यक्ति की
जीवन की
आकांक्षा भी न
रही...। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि उसको मरने
की आकांक्षा
पैदा हो जाती
है। क्योंकि
जिसको जीवन की
आकांक्षा न
रही, उसे
मरने की
आकांक्षा
कैसे पैदा
होगी? वह
तो जो है उसे
स्वीकार कर
लेता है। जीवन
तो जीवन, मौत
तो मौत। उसने
अपनी
आकांक्षाओं
को आरोपित
करना बंद कर
दिया। जो तथ्य
है, स्वीकार
कर लेता है।
अभी जी रहा है,
तो जी रहा
है; क्षणभर बाद सांस
बंद हो गई तो
वह चुपचाप बंद
कर लेगा। वह
एक दफा ज्यादा
सांस लेने की
चेष्टा न
करेगा। हां!
मरने के महले
मरेगा भी नहीं;
क्योंकि
उसमें भी जीवेषणा,
आकांक्षा, चाह का
हिस्सा होता
है
मुक्तपुरुष
वही है जिसके
भीतर से अब
जीवन की भी
आकांक्षा नहीं
रही। फिर मौत
कोई परिणाम
नहीं ला पाती।
और
जहां मौत
व्यर्थ हो
जाती है, वही
कसौटी है कि
तुमने परम
जीवन को जाना।
उस परम जीवन
का नाम महावीर
मोक्ष रखते
हैं या निर्वाण।
लेकिन
बुद्ध और
महावीर दोनों
ने निर्वाण
शब्द का उपयोग
अलग-अलग
अर्थों में
किया है।
बुद्ध के
निर्वाण का
ठीक वही अर्थ
होता है जो
दीये के बुझने
का होता है।
दीये को फूंककर
बुझा देते हैं, उसको हम
कहते हैं दीये
का निर्वाण हो
गया। महावीर
के निर्वाण
शब्द का अर्थ
अलग है, क्योंकि
उनकी
जीवन-दृष्टि
अलग है।
महावीर कहते
हैं, दीया
नहीं बुझता।
दीया तो बुझेगा
ही नहीं कभी; यह ज्योति
तो सदा रहनेवाली
है। सिर्फ
दीये की
ज्योति से
धुआं नहीं
उठता।
"वाण'
का अर्थ
होता है
वासना। "निब्बाण'
का अर्थ
होता है:
वासनारहित हो
जाना। तुमने देखा,
ईंधन जलाते
हो: लपटें भी
उठती हैं, धुआं
भी उठता है।
अगर ईंधन गीला
हो तो धुआं बहुत
उठता है; अगर
ईंधन सूखा हो
तो कम उठता
है। अगर ईंधन
बिलकुल सूखा
हो तो धुआं उठ
ही नहीं सकता;
क्योंकि
धुआं आग के
कारण नहीं
उठता, लकड़ी
के गीलेपन
के कारण उठता
है; लकड?ी के कारण
नहीं उठता, वह जो लकड़ी
में पानी छिपा
है, उसके
कारण उठता है।
तो
महावीर कहते
हैं कि जब ऐसी
सूखे ईंधन
जैसी व्यक्ति
की चेतना हो
जाती है, जिसमें
वासना का कोई
गीलापन नहीं
रहा, सूख
गई पोर-पोर, वासना-मात्र
सूख गई, हरी
वासना जरा भी
न रही--तब लपट
तो उठती है, लेकिन धुआं
नहीं उठता।
उस
निर्धूम लपट
का नाम
निर्वाण है।
वासना के गिर
जाने का नाम
निर्वाण।
बुद्ध
के हिसाब से
तो आत्मा के
मिट जाने का
नाम निर्वाण, महावीर के
हिसाब से
वासना के मिट
जाने का नाम निर्वाण।
"मार्ग
है उपाय, मोक्ष
है फल।' और
इन दो बातों
में, महावीर
कहते हैं, सारी
बात हो गई।
"दर्शन,
ज्ञान, चारित्र्य
तथा तप को जिनेंद्रदेव
ने मोक्ष का
मार्ग कहा है।
शुभ और अशुभ
भाव मोक्ष के
मार्ग नहीं
हैं। इन भावों
से तो नियमतः
कर्म-बंध होता
है।'
फिर
मार्ग क्या है?
"दंसणाणचरित्ताणि...'
दर्शन, ज्ञान, चरित्र
और तप--ये शब्द
बड़े बहुमूल्य
हैं। महावीर
का सारा नवनीत
इन तीन शब्दों
में, त्रिरत्न--दर्शन,
ज्ञान, चरित्र--में
समाया हुआ है।
"दर्शन'
का अर्थ है:
देखने की
क्षमता; द्रष्टा,
साक्षी।
"ज्ञान' का
अर्थ है:
साक्षी को जो
दिखाई पड़ता है;
द्रष्टा के
जो अनुभव में
आता है। और
"चारित्र्य' का अर्थ है:
जो जागा, जिसने
देखा, जिसने
जाना--उस
जानने के कारण
जो जीवन में
उतर आता है।
तो
पहली तो घटना
घटती है
साक्षी-भाव
में दर्शन की।
दूसरी घटना
घटती है बोध
की, ज्ञान
की--समझ में
आया। तीसरी
घटना घटती है
चारित्र्य
की। क्योंकि
जो समझ में आ
गया, उससे
विपरीत करोगे कैसे?
अगर
तुम जैन
मुनियों से
पूछो तो वे
अकसर उलटी व्याख्या
कर रहे हैं।
वे चरित्र को
पहले रखते हैं
जबकि किसी
सूत्र में
महावीर ने
चरित्र को पहले
नहीं रखा; चरित्र को
अंतिम रखा है।
पहला दर्शन, फिर ज्ञान, फिर चरित्र।
अगर जैन मुनि
से पूछो तो वह
कहता है:
"चरित्र! पहले
चरित्र को सुधारो।
जब चरित्र सुधरेगा
तो ज्ञान
होगा।
चरित्रहीन को
कहीं ज्ञान
हुआ है? और
जब ज्ञान होगा
तब कहीं दर्शन
उपलब्ध होगा।'
उसने सारी
बात उलटी कर
ली।
लेकिन
महावीर के
शब्दों में
कहीं भी
चरित्र पहले
नहीं आता--आ
नहीं सकता।
पहले तो
मूर्च्छा तोड़नी
जरूरी है।
दर्शन यानी
मूर्च्छा का
टूट जाना; देखने की
क्षमता आ जाना;
आंख का खुल
जाना। आंख
खुली कि अनुभव
में आना शुरू
होता है कि
क्या है सत्य।
वह जो "क्या है
सत्य', उसकी
अनुभूति है, उसका नाम
ज्ञान है।
तो
ज्ञान
शास्त्र से
नहीं मिल
सकता।
इसलिए
महावीर ने
ज्ञान को दर्शन
के बाद रखा
है। ज्ञान तो
मिल सकता है
केवल ध्यान से, शास्त्र से
नहीं। और
चारित्र्य
कभी भी अभ्यास
करने से नहीं
पैदा हो सकता।
अभ्यास से तो
जो पैदा होता
है, वह आदत
है।
चारित्र्य
तो तब पैदा
होता है जब
तुम्हारे भीतर
दृष्टि इतनी
सघन होती है
कि तुम उसके
विपरीत नहीं
चल पाते।
मैंने
सुना है, एक
बिच्छू ने एक केंकड़े से
कहा कि मुझे
नदी के उस पार
जाना है, मित्र!
पार करवा दो!
उस केंकड़े
ने कहा, "तुमने
मुझे नासमझ
समझा है? बीच
रास्ते में
मेरी पीठ पर
बैठे डंक मार
दोगे, डूब जाऊंगा, मर जाऊंगा।'
बिच्छू
ने कहा, "मालूम
होता है तर्क
में तुम बहुत
कमजोर हो। तुमने
ठीक
तर्क-शास्त्र
का शिक्षण
नहीं लिया। अरे
नासमझ! जब मैं
पीठ पर तेरी
बैठा हूं और
डंक मारूंगा
तो तू डूबेगा
वह तो ठीक, मैं
भी तो डूबूंगा!
मैं भी तो
मरूंगा! तो यह
बात तर्क के
विपरीत है।
ऐसा मैं कैसे
कर सकूंगा? तेरी ही मौत
होती होती तो
समझ में आ
सकता था; तेरी
मौत तो मेरी
मौत भी बनेगी।
इसलिए यह बात तर्क
के अनुकूल
नहीं है।' केंकड़े
ने कहा, "बात
तो ठीक है।
तर्क के
बिलकुल
अनुकूल नहीं
है। आओ बैठ
जाओ!' बैठ
गया पीठ पर
बिच्छू, चल
पड़े दोनों और
बीच मझधार में
जो होना था
हुआ। बिच्छू
ने डंक मारा।
जब डंक मारा
और दोनों डूबने
लगे तो
मरते-मरते केंकड़े
ने पूछा कि
महानुभाव, तर्क
का क्या हुआ? उस बिच्छू
ने कहा, "तर्क
का इससे क्या
संबंध है? यह
मेरा चरित्र
है।'
लोग
जैसा जी रहे
हैं वैसा जीने
को मजबूर हैं।
उनके पास
दृष्टि ही
वैसी जीने की
है। तुम सोचते
हो, कोई आदमी
शराब पीता है,
इसलिए
मूर्च्छित
है। असलियत और
है। वह मूर्च्छित
है, इसलिए
शराब पीता है।
तुम सोचते हो,
एक आदमी
मांसाहार
करता है, इसलिए
हिंसक है। तुम
गलत सोचते हो।
वह आदमी हिंसक
है, इसलिए
मांसाहार
करता है। अगर
तुमने ऐसा
सोचा कि
मांसाहार करने
के कारण हिंसक
है तो
तुम्हारी
चेष्टा यह होगी
कि मांसाहार छुड़ा दो।
मांसाहार तो
छूट जायेगा, लेकिन अगर
वह हिंसक होने
के कारण
मांसाहारी था,
तो हिंसा
नहीं छूटेगी।
फिर हिंसा नये
मार्ग खोज
लेगी। किसी और
तरफ से हिंसक
हो जायेगा वह।
किसी और बहाने
से हिंसा
करेगा।
ध्यान
रखना, हम
जैसे हैं वह
हमारे भीतरी
चित्त की
अवस्था के
कारण है।
बाहर
से भीतर को
नहीं बदला जा
सकता। आचरण से
अंतस नहीं
बदला जा सकता।
लेकिन अंतस
बदल जाये तो
आचरण तत्क्षण
बदलना शुरू हो
जाता है।
महावीर
का सूत्र
बिलकुल साफ
है: दर्शन, ज्ञान, चरित्र।
इन तीन को जैनों
ने त्रिरत्न
कहा है। ये
उनकी तीन मणियां
हैं, जिन
पर मोक्ष का
भवन निर्मित
होता है। ये
आधार हैं। और
ये तीन रत्न
जिसके पास हैं
उसके पास सब आ
गया--सारी
संपदा सारे
जगत की।
त्रिलोक की सारी
संपदा उसके
पास आ गई।
दर्शन
उपलब्ध होता
है--जागरण से, अप्रमत्तता
से, होश
से। दर्शन का
अर्थ तुम जैन
दर्शन, हिंदू
दर्शन, बौद्ध
दर्शन, ऐसा
मत समझ लेना।
दर्शन का अर्थ
फिलासफी
नहीं है।
दर्शन का अर्थ
है: देखने की
क्षमता; तुम्हारी
आंखों का
निष्कलुष हो
जाना; तुम
ऐसे देख सको
कि देखने में
तुम अपने
भावों को
मिश्रित न करो;
तुम
निर्भाव से
देख सको; तटस्थ,
निष्पक्ष, निर्विकार,
तुम अपने को
बीच में न डालो;
तुम अपने को
बिना डाले देख
सको। तो फिर
तुम्हारे
जीवन में
दर्शन उपलब्ध
होगा।
क्रोध
आये, क्रोध को
गौर से देखना।
क्रोध को
रोककर चरित्र
निर्मित करने
की कोशिश मत
करना। क्रोध
को गौर से
देखना। इतने
गौर से देखना
कि तुम्हें
क्रोध का सारा
अर्थ समझ में
आ जाये। इतने
गौर से देखना
कि तुम क्रोध
से पृथक और
अलग साक्षी हो,
यह
तुम्हारी
अनुभूति में आ
जाये। इतने
गौर से देखना
कि क्रोध वहां
पड़ा रह जाये
वस्तु की तरह,
तुम यहां
द्रष्टा की
तरह खड़े रह
जाओ; तुम्हारे
दोनों के बीच
का सेतु टूट
जाये।
दर्शन
का अर्थ होता
है सारे सेतुओं
का टूट जाना।
व्यक्ति
अलिप्त खड़ा
होकर देखता है--क्रोध
है तो क्रोध
को; काम है तो
काम को; हिंसा
है तो हिंसा
को; प्रेम
है तो प्रेम
को; राग है
तो राग को
अलिप्त भाव से
देखता है, सिर्फ
देखता है।
जिसको कृष्णमूर्ति
अवेयरनेस
कहते हैं, होश;
जिसको
बुद्ध ने
सम्यक स्मृति
कहा है, ठीक-ठीक
स्मृति, जिसको
गुरजिएफ ने
सेल्फ-रिमेंबरिंग
कहा है, आत्म-बोध;
उसी को
महावीर दर्शन
कहते हैं। इधर
दर्शन की क्षमता
घनी होगी कि
दर्शन से
जो-जो तुम्हें
दिखाई पड़ेगा,
वह जो दर्शन
का सार इकट्ठा
होने लगेगा वह
है ज्ञान। तो
एक तो ज्ञान
है जो शास्त्र
से मिलता है
और एक ज्ञान
है जो जीवन के
साक्षी-भाव से
मिलता है।
उसको महावीर
ज्ञान कहते
हैं। पढ़ लोगे
शास्त्र में,
उससे क्या
होगा? अकसर
ऐसा हुआ है:
अहले-दानिश
आम हैं, कमयाब
हैं अहले-नजर
क्या
तअज्जुब कि
खाली रह गया
तेरा अयाग।
अहले-दानिश
आम
हैं--शास्त्रों
के जानकार
बहुत हैं।
तथाकथित
बुद्धिमान
बहुत हैं।
तथाकथित बुद्धिशाली
बहुत हैं।
कमयाब
हैं अहले-नजर--लेकिन
जिनके पास
द्रष्टा की
दृष्टि है, अहले-नजर, जिनके
पास शुद्ध आंख
है, देखने
की क्षमता है,
ऐसे
बहुत-बहुत
विरले हैं।
अहले-दानिश
आम हैं, कमयाब
हैं अहले-नजर
क्या
तअज्जुब कि
खाली रह गया
तेरा अयाग।
अगर
तुम्हारे
जीवन की
प्याली अमृत
से बिना भरी
रह गई तो कुछ
आश्चर्य नहीं; क्योंकि
तुमने
शास्त्रों से
ही जीवन की
प्याली को
भरना चाहा।
शास्त्रों से
ही तुमने सोचा
कि तुम बुद्धिमान
हो जाओगे। तो अहले-दानिश
हो गये, तथाकथित
बुद्धिमान हो
गये। कंठस्थ
हो गये सत्य।
लेकिन कंठस्थ
सत्य, सत्य
नहीं
है--मात्र
थोथे
सिद्धांत
हैं। प्राण
कौन डालेगा
उनमें? प्राण
तो व्यक्ति को
स्वयं डालने
होते हैं। इसे
याद रखना।
जिसे
तुम पाओ वही
सत्य है। जिसे
तुमने नहीं
पाया वह सत्य
नहीं हो सकता; वह सत्य के
संबंध में कोई
सिद्धांत
होगा। ऐसा ही
समझो कि
पाक-शास्त्र
पढ़ते रहो, पढ़ते
रहो, इससे
न तो भूख
मिटेगी, न
जीवन पुष्ट
होगा। रोटी पकानी
पड़ेगी। आटा
गूंथना
पड़ेगा।
चूल्हा जलाना
पड़ेगा। इतना
ही नहीं, फिर
रोटी पचानी
पड़ेगी। रोटी
भी बन जाये तो
भी कुछ काम
नहीं आती, जब
तक कि पचाने
की क्षमता न
हो, जब तक
रोटी पचे न और
लहू में
रूपांतरित न
हो जाये, हड्डी,
मांस-मज्जा
न बने, तब
तक किस काम की?
दर्शन
की भट्टी में
ज्ञान की रोटी
पकती है। और
ज्ञान की रोटी
को जब तुम
पचाते हो और
ज्ञान की रोटी
जब तुम्हारा
खून, मांस-मज्जा
बन जाती है, तो
चारित्र्य।
चरित्र आखिरी
बात है। सबसे
पहले तो शून्य
आकाश में
दर्शन घटता
है। फिर दर्शन
उतरता है
तुम्हारी
अंतरात्मा
में, ज्ञान
बनता है। फिर
ज्ञान
तुम्हारे
जीवन में अनस्यूत
हो जाता है।
तब चारित्र्य
बनता है। ये
त्रिरत्न और
तप।
"तप'
शब्द भी
समझने जैसा
है। तप का
अर्थ अपने को
दुख देना नहीं
होता। तपस्वी
का अर्थ अपने
को सतानेवाला
नहीं है, मेसोचिस्ट नहीं है। तप
का अर्थ होता
है: दुख आये तो
उसे सहिष्णुता
से स्वीकार
करना। तप का
अर्थ है: दुख आये
तो उसे दुश्मन
की तरह
दुत्कारना
नहीं; उसे
भी मित्र की
तरह स्वीकार
कर लेना।
साधारणतः हम
सुख को तो
बुलाते हैं, दुख को दुत्कारते
हैं। तप का
अर्थ होता है:
सुख को तो
बुलाना मत; आ गये दुख को
स्वीकार कर
लेना।
तप
हमसे ठीक उलटी
व्यवस्था है।
अभी हम कहते
हैं, सुख आये,
चिट्ठियां लिखते हैं
सुख को कि आओ, निमंत्रण
भेजते हैं। और
दुख को, बिना
बुलाया भी आ
जाये--बिना
बुलाया ही आता
है, क्योंकि
कौन दुख को
बुलाता
है--उसे हम
धक्का देते
हैं, बाहर
निकालते हैं।
तपश्चर्या
का अर्थ है: इस
जीवन-दृष्टि
का ठीक उलटा
हो जाना। सुख
को बुलाना
नहीं, कोई
निमंत्रण
नहीं लिखना और
दुख आ जाये तो
जो आ गया बिना
बुलाये, अतिथि
देव है, उसको
स्वीकार कर
लेना।
तो तप
का अर्थ दुख
पैदा करना
नहीं है; लेकिन
दुख जो तुमने
जन्मों-जन्मों
में अर्जित
किया है, वह
आयेगा। उसके
साथ क्या रुख
अपनाओगे? तप
एक रुख है, दृष्टि
है। तप यह
कहता है, मैंने
दुख के बीज
बोये थे, अब
फसल काटने का
वक्त आ गया तो
मैं काटूंगा।
यह फसल कौन
काटेगा? दुख
के बीज मैंने
बोये थे तो
फसल भी मुझे
ही काटनी
है। तो अब
रो-रोकर क्या काटनी! अब
स्वीकार-भाव
से काट लेनी
है।
इसे
खयाल रखना; नहीं तो
भ्रांति क्या
है कि जो लोग
तपस्वी बनते
हैं, वे
सोचते हैं, अभी सुख को
लिखते थे चिट्ठियां,
अब दुख को
लिखो! मगर चिट्ठियां
लिखना जारी
रहता है।
बुलावा भेजते
ही रहते हैं।
पहले सुख को पकड़ते थे; अब वे सोचते
हैं, दुख
को पकड़ो। पहले
सुख को न जाने
देते थे; अब
दुख जाने लगे
तो वे कहते
हैं, "मत
जाओ! तुम्हारे
बिना हम कैसे
रहेंगे!' लेकिन
यह तो विकृति
हो गई। यह तो
रोग हो गया। यह
तो पुराना रोग
बदला तो नया
रोग पकड़ गया।
तप का
सिर्फ इतना ही
अर्थ है कि जो
आये दुख तो निश्चित
हमने कमाया
होगा; बिना
कमाये कुछ भी
आता नहीं। तो
हमने किसी न किसी
रूप में उसे
बुलाया होगा।
बिना बुलाये
कुछ भी आता
नहीं। हमने
सुख मानकर ही
बुलाया होगा;
लेकिन वह
हमारी
मान्यता
भ्रांत थी।
जिसको हमने
सुख कहकर
पुकारा था, वह दुख का
नाम था। आ गया
दुख, अब
इसे स्वीकार
कर लेना। इसे
धक्के नहीं
देना, इनकार
नहीं करना।
इसका भी
साक्षी-भाव
रखना है।
"दर्शन,
ज्ञान, चरित्र
और तप जिनेंद्रदेव
ने मोक्ष के
मार्ग कहे।
शुभ और अशुभ
भाव मोक्ष के
मार्ग नहीं
हैं...।'
यह बड़ी
क्रांतिकारी
बात है: "शुभ
और अशुभ भाव मोक्ष
के मार्ग नहीं
हैं। इन भावों
से तो नियमतः
कर्म-बंध होता
है।'
अच्छा
करूं, बुरा
न करूं, पुण्य
करूं, पाप
न करूं--ये शुभ
भाव हैं। किसी
को दुख न दूं, सुख दूं--ये
शुभ भाव हैं।
मुझसे हिंसा न
हो, अहिंसा
हो; लोभ न
हो, दान हो;
क्रोध न हो,
दया हो, करुणा
हो--ये शुभ भाव
हैं। लेकिन
महावीर कहते हैं,
मुझसे कुछ
हो, इसमें
ही बंधन है।
बुरे का तो
बंधन होता ही
है, भले का
भी बंधन हो
जाता है। लोभी
तो बंधता
ही है, दानी
भी बंध जाता
है। और पापी
तो बंधता
ही है, पुण्यात्मा
भी बंध जाता
है, यद्यपि
पुण्यात्मा
की जंजीरें
सोने की होती हैं।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, शुभ और
अशुभ भाव
मोक्ष का
मार्ग नहीं
हैं। दोनों से
मुक्त होना
है। अशुभ को
तो छोड़ना ही
है, शुभ को
भी छोड़ना है।
असाधु को तो
छोड़ना ही है, साधु के भी
पार जाना है।
एक ऐसी दशा
चाहिए, जो
सभी दशाओं का
अतिक्रमण कर
जाती हो। एक
ऐसी दशा, जिसका
लगाव, आग्रह
किसी भी बात
में न हो।
"इन भावों से
तो नियमतः
कर्म-बंध होता
है।'
दोस्तों
के इस कदर
सदमे उठाए जान
पर
दिल
से दुश्मन की
शिकायत का
गिला जाता
रहा।
अगर
तुम गौर से
देखो तो
मित्रों ने
इतने कष्ट दिये
हैं कि अब
दुश्मनों की
क्या शिकायत
करनी! महावीर
कहते हैं, अगर गौर से
देखो तो शुभ
आकांक्षाओं
से ही पटा पड़ा
है नर्क का
मार्ग। अशुभ
आकांक्षाओं
की तो बात ही छोड़ो; उनकी
तो शिकायत
क्या करनी!
अगर कोई
क्रोधी बंधन
में पड़ा है तो
यह तो स्वाभाविक
है; लेकिन
चेष्टा करके
जो दया कर रहा
है, वह भी
बंधन में पड़
जाता है। वहां
भी अहंकार निर्मित
होता है
दोस्तों
के इस कदर
सदमे उठाए जान
पर
दिल
से दुश्मन की
शिकायत का
गिला जाता
रहा।
शुभ ने
ही इस बुरी
तरह सताया है, अशुभ की तो
शिकायत क्या
करें! अपनों
ने इस तरह सताया
है कि परायों
की तो बात ही
क्या करें! उनकी
शिकायत करने
जैसी भी नहीं
रही।
तुमने
देखा, तुम्हारे
शुभ भावों ने
ही तुम्हें
कितना सताया
है! प्रेम ने
कितना सताया
है, यह तो
देखो! फिर
घृणा की
सोचना। तुम
किसी के लिए
अच्छा करना
चाहते थे, उसके
कारण कितनी
झंझट में पड़े
हो। फिर तुम
किसी के लिए
बुरा करना
चाहते थे, उसकी
सोचो।
महावीर
कहते हैं, तुम
अच्छा-बुरा
दोनों ही
करनेवाले
नहीं हो, ऐसे
साक्षी बन
जाओ। वहां से
मोक्ष का
द्वार खुलता
है। अच्छा और
बुरा तो कर्म
का ही मार्ग
है। और कर्म
तो बांधता
है। न शुभ न
अशुभ--दोनों
के मध्य में
संतुलित!
क्षुरस्य
धारा निशिता
दुरत्यया।
छुरे
की तीक्ष्ण
धारा की भांति, जैसे कोई
पतले छुरे की
धार पर चलता
हो, ऐसा
मार्ग है। शुभ
को भी एक तरफ
छोड़ देना, अशुभ
को भी दूसरी
तरफ छोड़ देना।
संयमी का अर्थ
है: जो दोनों
के मध्य चलने
में कुशल हो
गया; जो
चुनाव नहीं
करता, च्वायसलेस,
विकल्परहित,
निर्विकल्प
चलता है; जो
मध्य में
सम्हलकर चलता
है।
हिंदू
शास्त्र कहते
हैं: मध्यं
अभयम्! जो
मध्य में है
उसे कोई भय
नहीं। इधर-उधर
हुए कि भय
शुरू हुआ। जरा
भी झुके बायें, जरा भी झुके दायें,
तो भय शुरू
हुआ। न तो
वामपंथी और न
दक्षिणपंथी, ठीक मध्य
में, जो
अपने को
सम्हाल ले!
कठिन
लगेगा, क्योंकि
हमें आसान
लगता है: अशुभ
छोड़ना है, कोई
हर्जा नहीं है;
शुभ को पकड़
लेंगे! क्रोध
छोड़ना है, छोड़
देंगे; करुणा
को पकड़ लेंगे।
लेकिन कुछ पकड़ने
को तो होगा! पकड़ने
की हमारी
पुरानी आदत
है।
महावीर
कहते हैं, पकड़ ही
संसार है। और
सारी पकड़ का
छूट जाना, मुट्ठी
का खुल जाना
ही मोक्ष है।
"अज्ञानवश
यदि ज्ञानी भी
ऐसा मानने लगे
कि शुद्ध सम्प्रयोग
अर्थात, भक्ति
आदि शुभ भाव
से दुख-मुक्ति
होती है तो वह
भी राग का अंश
होने से पर-समयरत
होता है।'
महावीर
भक्ति को भी
बंधन का कारण
कह रहे हैं। यह
भी अज्ञानवश
तथाकथित
बुद्धिमान
आदमी भी ऐसा
मानने लगे कि
शुद्ध सम्प्रयोग, शुद्ध भक्ति,
तो क्यों बांधेगी, तो वह भी गलत
है। शुभ भक्ति
से भी राग का
ही अंश निर्मित
होता है।
महावीर
का मार्ग
संकल्प का मार्ग
है। वहां
भक्ति के लिए
भी जगह नहीं
है।
भगवान
के लिए जगह
नहीं है; भक्ति
के लिए तो जगह
कैसे हो सकती
है!
ऋग्वेद
में ऋषि ने
पूछा है:
कस्मै देवाय हविषा
विधेम।
किस
देवता को हम
अपनी
पूजा-अर्चना चढ़ायें, किस देवता
की उपासना
करें? लेकिन
महावीर कहते
हैं, जहां
तक उपासना है
वहां तक तो
किसी दूसरे से
बंधन हो जायेगा।
पर-समयरत,
दूसरे पर
निर्भर हो
जाओगे।
परमात्मा
होगा तो परतंत्रता
होगी। और
परतंत्रता
होगी तो बंधन निर्मित
रहेगा। तुम
स्वतंत्र
कैसे हो जाओगे?
तुम
परिपूर्ण
मुक्त कैसे हो
सकोगे?
महावीर
के हिसाब में
परमात्मा का होना
मोक्ष के
विपरीत है। या
तो मोक्ष हो
सकता है या
परमात्मा हो
सकता है। अगर
परमात्मा है तो
मोक्ष नहीं हो
सकता; क्योंकि
परमात्मा तो
निरंकुश
होगा। वह तो
नियम के ऊपर
होगा। महावीर
कहते हैं, नियम
के ऊपर किसी
का भी होना
खतरनाक है, क्योंकि फिर
उसकी मर्जी!
जैसा हिंदू
कहते हैं, परमात्मा
की लीला, इच्छा!
उसने संसार
बनाया! यह
महावीर को
बर्दाश्त के
बाहर है।
महावीर
कहते हैं, इसका तो
अर्थ हुआ कि
जो लोग मुक्त
हो गये, अगर
परमात्मा की
लीला हो जाये,
इच्छा हो
जाये तो उनको
वापस संसार
में भेजा जा
सकता है। तो
ऐसे मोक्ष का
तो कोई मूल्य
न रहा। अगर
परमात्मा की
मर्जी से
संसार निर्मित
होता है तो
मोक्ष लेकर भी
हम क्या करेंगे?
उसकी मर्जी
जिस दिन बदल
जाये, आज्ञा
दे दे कि चलो
मोक्ष खाली
करो, संसार
वापस लौटो!
अगर खेल ही है
और वह निरंकुश
है और वह नियम
के ऊपर है, तो
फिर व्यर्थ
बात हो गई।
महावीर
पूछते हैं कि
परमात्मा
नियम के ऊपर
है, या नियम
परमात्मा के
ऊपर है? अगर
नियम
परमात्मा के
ऊपर है तो
परमात्मा परमात्मा
नहीं। फिर
नियम ही
परमात्मा है।
और अगर परमात्मा
नियम के ऊपर
है तो नियम सब
बकवास है। फिर
नियम का क्या
अर्थ? उसकी
निरंकुश
इच्छा है; जब
वह जैसा चाहे
कर दे।
इसलिए
महावीर कहते
हैं, अगर जगत
में व्यवस्था
चाहिए...अब तुम
चकित होओगे कि
दृष्टियां
कितनी मौलिक
रूप से भिन्न
हो सकती हैं!
हिंदू कहते
हैं, अगर
जगत में
व्यवस्था
चाहिए तो
परमात्मा चाहिए।
क्योंकि बिना
परमात्मा के
कौन व्यवस्था करेगा?
अराजकता हो
जायेगी। और
महावीर कहते
हैं, अगर
परमात्मा हुआ
तो अराजकता हो
जायेगी। क्योंकि
फिर व्यवस्था
कैसे सम्हलेगी?
अगर नियम के
ऊपर कोई बैठा
है जो नियम को
भी तोड़-मरोड़
कर सकता है तो
अव्यवस्था हो
जायेगी।
महावीर परमात्मा
को उसी कारण
से इनकार करते
हैं जिस कारण
से हिंदू
स्वीकार करते
हैं।
और
मोक्ष का अर्थ
ही है कि एक
ऐसी चित्त की
दशा, एक ऐसे
चैतन्य की दशा
जिसको फिर
वापस न लौटाया
जा सके।
अन्यथा इतने
श्रम, इतनी
तपश्चर्या, इतनी चेष्टा
से जो उपलब्ध
हुआ है, वह
किसी
परमात्मा के
खेल की बात बन
जाये तो थोड़ी
ज्यादती हो
गई।
जन्मों-जन्मों
की चेष्टाओं
के बाद जिसे
पाया जाता है,
उसे पाकर
अगर जरा-सी
उसकी मर्जी के
बदलने से खोना
पड़े, तो वह
उपलब्धि
उपलब्धि के
योग्य न रही।
फिर जगत एक
पागलपन है।
"शुद्ध
सम्प्रयोग
अर्थात भक्ति
आदि शुभ भाव
से दुख मुक्ति
होती है, ऐसा
अगर कोई मानता
हो तो वह गलत
मानता है, क्योंकि
वह भी राग का
अंश है।'
अगर
भक्तों की बात
सुनें तो लगता
भी है कि राग का
अंश। शुद्ध
राग है, बड़ा
श्रेष्ठ राग
है, जरा भी
दूषित नहीं है
संसार
से--लेकिन फिर
भी राग तो है
ही!
उसके
मजकूर के
सिवा "बेदार'
और
कुछ बात खुश
नहीं आती।
भक्त
कहता है, भगवान
की याद के
सिवाय और कुछ
बात में मजा
नहीं आता।
लेकिन इसका
अर्थ तो साफ
हुआ कि मजा
अभी अपना नहीं
है--उसकी याद!
तो कहीं
निर्भर है, पर है, अपने
से बाहर है।
शाम
से आ रही है
याद तेरी
जाम
छलका रही है
याद तेरी
झनझना-सा
रहा है साजे-खयाल
गीत-से
गा रही है याद
तेरी।
लेकिन
भक्त वैसे ही
शब्दों का
उपयोग करता है
परमात्मा के लिए
जो वह प्रेयसी
के लिए करता
है या प्रेमी
के लिए करता
है। फर्क नहीं
मालूम पड़ता।
ऐसा लगता है
कि जो हमारा
राग मनुष्यों
के प्रति था, उसी राग को
हम परमात्मा
की तरफ आरोपित
कर देते हैं।
शाम
से आ रही है
याद तेरी
जाम
छलका रही है
याद तेरी
झनझना-सा
रहा है साजे-खयाल
गीत-से
गा रही है याद
तेरी।
यह हम
प्रेयसी के
लिए भी कह
सकते हैं और
परमात्मा के
लिए भी कह
सकते हैं।
इसलिए
सूफियों के
वचन दोहरे
अर्थ किये जा
सकते हैं। या
तो तुम उनका
अर्थ कर लो
सांसारिक, तो प्रेयसी
के लिए कहे
गये हैं; या
अर्थ कर लो
आध्यात्मिक, तो परमात्मा
के लिए कहे
गये हैं।
लेकिन शब्द वही
के वही हैं।
उमर खैयाम
की रुबाइयां
इसी तरह
भ्रष्ट हुईं।
जिस व्यक्ति
ने पहली दफा
अनुवाद किया फिटज़राल्ड
ने, अंग्रेजी
में, उसने
समझा कि ये
मधु-गीत हैं, शराब की
प्रशंसा में
गाये गए गीत हैं।
लेकिन उमर खैयाम
शराब कहता है
परमात्मा की
याद को, उसकी
स्मृति को, जिक्र को।
और जिन साकियों
की वह बात
करता है, वह
वही परमात्मा
है। और जिस
मधु के ढालने
की बात कर रहा
है, वह
जीवन-रस है।
लेकिन इससे
क्या फर्क
पड़ता है? फिटज़राल्ड ने अनुवाद
दिया। उसने
समझा कि यह सब
प्रेयसी, साकी,
मधुशाला--ये
सब संसार की
ही चीजें हैं।
दोनों
के लिए उपयोग
हो सकते हैं।
चलो
छिया-छी हो
अंतर में
तुम
चंदा
मैं
रात सुहागन
चमक-चमक
उट्ठे
आंगन में
चलो
छिया-छी हो
अंतर में
भक्त
जो भाषा बोलते
हैं--मीरा की
भाषा, चैतन्य
की भाषा या
कबीर की--उसमें
कठिनाई मालूम
होगी।
कबीर
कहते हैं, मैं राम की
दुलहन हो गया!
आखिर भाषा तो
इसी जगत के
रागात्मक
शब्दों का
उपयोग कर रही
है। मीरा कहती
है, "सेज को
तैयार किया है,
तुम कब आओगे?'
"सेज को
तैयार किया है'--यह तो
सुहागरात की
ही बात हो गई।
तो
महावीर के
कहने में
सार्थकता भी
है कि कितना
ही शुद्ध राग
हो जाये, कितना
ही शुद्ध सम्प्रयोग,
कितनी ही
शुद्ध भक्ति
हो, लेकिन
उसमें स्वर तो
संसार का ही
होगा।
सहर के
वक्त मय पीने
से मुझको रोक
मत नासेह
कि
सिजदे के लिए
दिल में
जरा-सा सिद्क
लाना है।
सूफी
कहते हैं कि
हमें
प्रार्थना के
वक्त पीने से
मत रोको, क्योंकि
प्रार्थना के
लिए थोड़ी सचाई
लानी है। और
बिना पीए कहीं
सचाई हुई? बिना
पीए तो आदमी
झूठ और धोखे
दिये चला जाता
है। इसलिए तो
शराबी की
बातें सुनो, वह ज्यादा
ईमानदारी की
होती है। वह
सच बोलने लगता
है। फिक्र ही
न रही झूठ
बोलने की। झूठ
याद कौन रखे!
फायदा, हानि,
लाभ--कुछ भी
न रहा।
सहर के
वक्त मय पीने
से मुझको रोक
मत नासेह!
--हे
धर्मगुरु!
मुझे
प्रार्थना के
समय शराब पीने
से मत रोक!
कि
सिजदे के लिए
दिल में
जरा-सा सिद्क
लाना है।
--थोड़ी-सी
सचाई तो होनी
चाहिए, नहीं
तो प्रार्थना
झूठी हो
जायेगी।
अब या
तो हम समझ लें
कि यह बाहर की
शराब है या हम
समझ लें कि
किसी भीतर की
शराब है।
लेकिन महावीर
कहते हैं, शराब शराब
है। तुम इसे
कितना ही ऊंचा
उठाओ, और
कितने ही
शुद्ध
अंगूरों से निचोड़ो, शराब शराब
है। और नशा
नशा है। यह
किसी की सुंदर
सूरत को देखकर
छा जाये या यह
परमात्मा के
फूल और
पक्षियों के
गीत सुनकर आ
जाये, इससे
क्या फर्क
पड़ता है? लेकिन
तुम्हारा राग
अभी भी बाहर
है। सुंदर स्त्री
बाहर है, सुंदर
पुरुष बाहर है,
सुंदर फूल
भी बाहर
हैं--और सुंदर
परमात्मा का आकाश
और चांद तारे
भी बाहर हैं।
"राग
का अंश होने
से भक्ति भी
पर-समयरत
है।'
वह
दूसरे में
लगी। दूसरे
में उत्सुक
है। अपनी तरफ
नहीं लौट रही
है। दूसरे की
तरफ बह रही
है। और दूसरा
बंधन है।
इसलिए
महावीर भक्ति
को भी जगह न
देंगे। और अगर
हम भक्तों की
बातें सुनें
तो महावीर की
बात में सचाई
भी मालूम पड़ती
है, निश्चित
सचाई मालूम
पड़ती है।
क्योंकि भक्त
भगवान से ऐसी
बातें करता
है। जैसे
प्रेमी
एक-दूसरे से
बातें करते
हैं। मान-मनौवल
भी चलती है।
रूठना-मनाना
भी चलता है।
शिकवा-शिकायत
भी चलती हैं।
मुझको
इस तर्जेत्तगाफुल
पे खफा होना
था
उल्टे
तुम मुझ पे
खफा हो यह
तमाशा क्या है?
भक्त
भगवान से कहता
है:
मुझको
इस तर्जेत्तगाफुल
पे खफा होना
था--तुम्हारे
उपेक्षा-भाव
पर मुझे नाराज
होना चाहिए; चिल्लाता
रहता हूं, तुम्हारा
कोई उत्तर भी
नहीं पाता...
मुझको
इस तर्जेत्तगाफुल
पे खफा होना
था
उल्टे
तुम मुझ पे
खफा हो यह
तमाशा क्या है?
भक्त
तो बात करता
है, प्रार्थना
करता है, बोलता
है, रोता
है कभी, कभी
भगवान पर
नाराज भी हो
जाता है। खफा
भी हो जाता है,
दो-चार दिन
प्रार्थना भी
नहीं करता, बंद कर देता
है
द्वार-दरवाजे
कि पड़े रहो।
फिर मना भी
लेता है।
लेकिन
महावीर
कहेंगे, यह
सारा खेल तो
कल्पना का है।
यह तो राग का
ही है। इसमें
तो दूसरा अभी
भी मौजूद है।
माना कि शुद्ध
हुआ, शुभ
हुआ, किसी
को हानि नहीं
हो रही है
इससे, लाभ
ही हो रहा
है--लेकिन फिर
भी, जहां
तक लाभ हो रहा
है वहां तक
हानि भी जुड़ी
है। इसके भी
पार जाना है।
महावीर
के लिए भाव भी
बंधन है।
इसलिए महावीर
का मार्ग
शुद्ध
निर्भाव का मार्ग
है। जैन भी
जैन मंदिरों
में जो कर रहे
हैं, महावीर
लौटें तो
नाराज होंगे।
कहेंगे, "तुम
यह क्या कर
रहे हो? यही
सब तो मैंने
मना किया था।'
महावीर की
ही मूर्ति के
सामने बैठे
हैं साज-शृंगार
लगाकर, कि
हे प्रभु!
महावीर से ही
बातें चल रही
हैं। महावीर
से बात चलाने
का उपाय नहीं
है। अगर
महावीर की
मानते हो, अगर
महावीर के
मार्ग को
शुद्ध रखना है,
तो महावीर
से बातें
चलाने का उपाय
नहीं है। सच
तो पूजा भी
जैन धर्म में
संभव नहीं हो
सकती; प्रार्थना
की कोई
गुंजाइश नहीं
है; भक्ति
का कोई मार्ग
नहीं है।
लेकिन मंदिर
बनते हैं, पूजा
होती है, प्रतिमा
खड़ी होती है।
बात
असल ऐसी है कि
जिन्हें भक्त
होना चाहिए था, वह अगर जैन
घरों में पैदा
हो जाते हैं
तो वह क्या
करें! खुद तो
भक्त होने का
उपाय नहीं है,
महावीर को
ही भ्रष्ट कर
लेते हैं।
दुनिया
के सभी धर्म
भ्रष्ट हो गये
हैं, संकर हो
गये हैं; क्योंकि
लोग जन्मों के
कारण धर्मों
में हैं। और यह
बड़ी खतरनाक
बात है। मैं
तो चाहूंगा, महावीर का
धर्म शुद्ध
हो। क्योंकि
शुद्ध हो तो
कुछ थोड़े-से
लोग जो संकल्प
से पहुंच सकते
हैं, उनका
रास्ता
सीधा-साफ हो।
लेकिन वह
शुद्ध तभी हो
सकता है, जब
लोग उसे स्वयं
चुनें, जन्म
के कारण धर्म
आरोपित न हो।
तो कृष्ण के
मार्ग पर ऐसे
लोग मिल
जायेंगे
जिनको महावीर
के मार्ग पर
होना चाहिए
था। वे वहां
सब खराब कर
रहे हैं। वे
प्रार्थना भी
करते हैं, लेकिन
उनको आंसू
नहीं बहते। वे
कहते हैं, "कैसे
प्रार्थना
करें, हृदय
में कोई रसधार
आती ही नहीं!' इधर महावीर
के मार्ग पर
ऐसे लोग हैं
जो कृष्ण के
मार्ग पर होते
तो सुगमता से
पहुंच जाते।
उनकी आंखें
लबालब भरी
हैं। उनकी
प्याली छलकी
जा रही है।
लेकिन महावीर
के वचन हैं कि
राग का अंश है
भक्ति, तो
रोके हुए हैं।
आंसुओं को
सुखाने की
कोशिश कर रहे
हैं।
अड़चन
पैदा होती है
अगर तुम अपने
से विपरीत चले
गये।
किसी
ने पीछे पूछा
था कि क्या
ऐसा नहीं हो
सकता कि हम
समर्पण और
संकल्प में
समन्वय
स्थापित कर
लें? वही तो
तुमने किया
है। हो सकता
है, यह
सवाल ही नहीं
है--वही हुआ
है। लेकिन
समन्वय हो
नहीं सकता।
सिर्फ समझौता
हो जाता है।
तो तुम दोनों
बातों का
तालमेल बिठा
लेते हो। लेकिन
उस तालमेल बिठालने
में दोनों
मार्ग भ्रष्ट
हो जाते हैं।
ऐसा ही
समझो, बैलगाड़ी से कोई
यात्रा करता
है, कोई
कार से यात्रा
करता है, कोई
रेलगाड़ी से, कोई हवाई
जहाज से--सब
पहुंच जाते
हैं। सबके मार्ग
अलग हैं।
रेलगाड़ी रेल की
पटरियों पर
दौड़ती है। बैलगाड़ी
को पटरियों पर
दौड़ने की कोई
जरूरत नहीं है,
ऊबड़-खाबड़ जंगली
पथ से भी गुजर
जाती है। कार
वहां से न
गुजर सकेगी।
अब ये सब
रास्ते और ये
सब वाहन ठीक
हैं। लेकिन
तुमने अगर कहा,
समन्वय
स्थापित कर
लें कि चलो
बैलों को लेकर
कार में जोत
दें, कि
कार का इंजिन बैलगाड़ी
में रख दें, कि रेल के
चक्के बैलगाड़ी
में ठोक दें
और बैलगाड़ी
के चक्के रेल
में ठोक
दें--तो
समन्वय
स्थापित नहीं
होगा सिर्फ
इतना ही होगा
कि कोई भी
वाहन चलाने
में, पहुंचाने
में समर्थ न
रह जायेगा। यह
समन्वय नहीं
हुआ। यह तुमने
रास्ते ही खराब
कर लिए, वाहन
ही नष्ट कर
दिए।
प्रत्येक
मार्ग पर
सुनिश्चित
चिह्न हैं और
प्रत्येक
मार्ग की अपनी
सुनिश्चित
दिशा है। तो
जब मैं महावीर
के मार्ग पर
बोल रहा हूं
तो तुम खयाल
रखना: मैं
चाहता हूं कि
शुद्ध महावीर
की बात
तुम्हारी समझ
में आ जाये; फिर जिसको
वह यात्रा सुगम
मालूम पड़े वह
चल सके। वहां
भक्ति को भूल ही
जाना। वहां
सूफियों से
कुछ लेना-देना
नहीं। वहां तो
तुम शुद्ध
निर्भाव होने
की चेष्टा करना,
क्योंकि
वही निर्भाव
ही वहां गाड़ी
का चाक है।
लेकिन
अकसर लोग ऐसा
करते हैं:
महावीर के
मार्ग पर भाव
ले आयेंगे और
जब नारद को पढ़ेंगे
तब उनकी
बुद्धि में
निर्भाव उठने
लगेगा। ये तरकीबें
हैं न पहुंचने
की। ये बहाने
हैं ताकि तुम
पहुंच न पाओ।
ऐसे उलझाव खड़े
करते हो।
अंततः
समन्वय है, लेकिन वह है
गंतव्य पर
पहुंचकर।
जहां से मैं खड़े
होकर देख रहा
हूं, वे
सभी रास्ते
यहीं आ जाते
हैं। लेकिन हर
रास्ते की
व्यवस्था अलग
है। कोई पहाड़
से गुजरता है,
कोई
रेगिस्तानों
से गुजरता है,
कोई
हरियाली से
भरे उपवन से
गुजरता है।
किसी रास्ते
पर कोयल की
कुहू-कुहू है
और किसी
रास्ते पर
बिलकुल
सन्नाटा है, पक्षी हैं
ही नहीं।
रास्तों
की अलग-अलग
व्यवस्था है।
और प्रत्येक
ने चेष्टा की
है कि उसका
रास्ता शुद्ध
रहे।
तो
महावीर साफ
किये दे रहे
हैं:
अण्णाणादो णाणी जदि मण्णादि सुद्ध संपओगादो
हवदि त्ति दुक्खमोक्खं, परसमयरदो हवदि जीवो।।
भक्ति
भी दुख-मुक्ति
की तरफ नहीं
ले जायेगी।
ध्यान
रखना, जब
महावीर कहते
हैं, भक्ति
दुख-मुक्ति की
तरफ नहीं ले
जायेगी, तो
यह सार्थक है
वचन महावीर के
मार्ग पर। यह
वचन आत्यंतिक
नहीं है। इस
वचन से नारद
गलत नहीं
होते। इस वचन
से सिर्फ इतना
ही साफ होता
है कि महावीर
के मार्ग पर
भक्ति की कोयल
की कुहू-कुहू
नहीं है। और
अगर महावीर के
मार्ग पर
भक्ति की कोयल
की कुहू-कुहू
सुनाई पड़े, तो तुम भटक
गये हो, तुम
मार्ग पर हो
नहीं। वहां
भाव बंधन है; क्योंकि
वहां दूसरे की
मौजूदगी
परतंत्रता है।
धिगस्तु परवश्यताम्।
--धिक्कार
है परवशता को,
परतंत्रता
को!
वहां
परमात्मा
प्रीतिकर
नहीं है। उसकी
मौजूदगी ही
अपनी गुलामी
का सबूत है।
महावीर
अपने मार्ग की
बात कर रहे
हैं। अब यह
तुम्हें बड़ा कठिन
लगता है।
तुम्हें लगता
है, अगर
महावीर सही
हैं तो नारद
गलत होने
चाहिए। वहां
तुम भूल कर
रहे हो।
तुम्हें लगता
है, अगर
नारद सही हैं
तो महावीर गलत
होने चाहिए। तुम
बड़ी जल्दी कर
रहे हो। तुम
जीवन की
विराटता को
नहीं देख
पाते। जीवन
इतना विराट है
कि सब विरोधी
मार्गों को
अपने में समाए
हुए है। यहां
महावीर भी सही
हैं और नारद
भी सही हैं।
और नारद के
मार्ग पर चलकर
भी लोग पहुंच गये
हैं और महावीर
के मार्ग पर
भी चलकर लोग
पहुंच गये
हैं।
लेकिन
एक बात तय है:
जो भी चले हैं
वे पहुंचे हैं।
कुछ लोग हैं
जो मार्गों के
किनारे बैठकर विचार
कर रहे हैं
कौन सही है!
जीवन ऐसे ही
बीता चला जाता
है सोचने में, कौन सही है!
सही का भी
कैसे पता
चलेगा जब तक
चलोगे नहीं? चलने से ही
पता चलेगा कौन
सही है।
क्योंकि जब करीब
आने लगोगे
जलस्रोत के, तो ठंडी हवाएं
छूने लगेंगी।
जब करीब आने
लगोगे मंजिल
के तो जीवन
में आलोक आने
लगेगा। जब
करीब आने
लगोगे तो दर्शन
ज्ञान बनेगा,
ज्ञान
चरित्र
बनेगा।
जैसे-जैसे
करीब-करीब आओगे,
वैसे पाओगे
तुम
रूपांतरित
हुए, बदले,
नये हुए, नया जन्म
हुआ।
एक-एक
कदम पर जन्म
है। एक-एक पल
नये का
आविर्भाव है।
उस आविर्भाव
से ही प्रमाण
मिलता है कि
मैं जो चल रहा
हूं तो ठीक चल
रहा हूं।
लेकिन जो बैठे
हैं उनके पास
कोई उपाय नहीं
है कि जानें
कौन ठीक है।
तर्क
जुटायेंगे, चिंतन
करेंगे, शास्त्रों
का मेलत्ताल
बिठायेंगे।
और
तर्क वेश्या
जैसा है। उसका
कोई मूल्य
नहीं है। तुम
जैसा उसका
उपयोग करना
चाहो वैसा कर
ले सकते हो।
अब महावीर
कहते हैं, व्यवस्था के
कारण
परमात्मा को
स्वीकार नहीं किया
जा सकता।
हिंदू कहते
हैं, व्यवस्था
के लिए
परमात्मा की
जरूरत है, अन्यथा
व्यवस्था कौन
करेगा? विपरीत
तर्क, लेकिन
दोनों ठीक
मालूम होते
हैं अपनी-अपनी
जगह। तुम
सोच-सोचकर
बैठ-बैठकर, विचार
कर-करके कभी न
पहुंच पाओगे।
उठो और चलो!
महावीर
का मार्ग
शुद्धतम
मार्गों में
से एक है।
लेकिन उसे
शुद्ध रखना।
महावीर के
मार्ग पर पूजा
को मत ले आना, प्रार्थना
को मत ले आना।
अगर
पूजा-प्रार्थना
में ही रस है
तो पूजा-प्रार्थना
के मार्ग हैं।
बजाय इसके कि
तुम मार्ग को
खराब करो, तुम्हीं उतरकर
दूसरे मार्ग
पर चले जाना।
दुनिया
बड़ी धार्मिक
हो जायेगी उस
दिन, जिस दिन
लोग सुलभता से
एक मार्ग से
दूसरे मार्ग
पर जा सकेंगे;
न उन्हें
कोई रोकेगा, न कोई बाधा
डालेगा, न
उन्हें कोई
जबर्दस्ती
अपने मार्ग पर
खींचेगा, न
कोई कन्वर्ट
करने को
उत्सुक होगा
और न कोई रोक
लेने को उत्सुक
होगा। अगर
किसी के मन
में उमंग उठी
है आनंद की, रस की, भाव
की, तो वह
मार्ग खोज
लेगा भाव का।
कोई बाधा नहीं
डालेगा, न
कोई उसे
प्रभावित
करेगा कि इस
मार्ग पर आओ। क्योंकि
कभी-कभी प्रभाव
में तुम गलत
मार्ग पर जा
सकते हो।
कभी-कभी रोकने
की वजह से गलत
मार्ग पर रुक
सकते हो।
जीवन
एक मुक्त
हलन-चलन, रूपांतरण,
बदलाहट की
सुविधा होनी
चाहिए।
महावीर
का मार्ग
अपने-आप में
पूर्ण सही है।
पर उससे कोई
और गलत नहीं
होता। उससे
विपरीत दिखाई पड़नेवाले
भी गलत नहीं
होते। इतना
तुम्हें
स्मरण रहे तो
तुम्हारे
भीतर
संप्रदाय का
भाव पैदा नहीं
होगा।
संप्रदाय
का भाव इस तरह
पैदा होता है।
इन सूत्रों को
जो पढ़ेगा...।
जैन पढ़ते रहे
हैं। तो जब वे
देखते हैं
किसी को मंदिर
की तरफ जाते
कृष्ण के, तब उनको
लगता है, बेचारा
भटका! उनको याद
आता है महावीर
का सूत्र कि
राग का अंश है
भक्ति! और यह
आदमी राग में
पड़ा है।
नहीं, यह तुम
सोचना ही मत।
तुमने अपने
लिए सोच लिया,
काफी है।
तुम्हें
दूसरे की अंतर्व्यवस्था
का कुछ भी पता
नहीं है। तुम
बस अपने लिए
निर्णय कर लो,
उतना बहुत।
और वह निर्णय
भी चलने के लिए
हो, बैठे-बैठे
सोचने के लिए
नहीं।
महावीर
तुम्हें वहां
ले जाना चाहते
हैं जहां न
कोई विचार रह
जाता, न कोई
भाव रह जाता, न कोई चाह रह
जाती, न
कोई परमात्मा
रह जाता--जहां
बस तुम एकांत
अकेले अपनी
परिपूर्णता
शुद्धता में
बच रहते हो!
निर्धूम
जलती है
तुम्हारी
चेतना!
हर
मंजर-ए-बुलंद
भी अब पस्त हो
चुका
ऐ
अर्श किस फजा
में उड़ा जा
रहा हूं मैं।
ऊंचाइयां
भी जहां नीचे
छूट जाती हैं।
हर
मंजर-ए-बुलंद
भी अब पस्त हो
चुका
ऊंचाइयां
भी पीछे छूट
गईं। ऊंचाइयां
भी! नीचाइयां
तो छूट ही गईं, ऊंचाइयां भी छूट गईं।
अशुभ तो छूट
ही गया, शुभ
भी छूट गया।
पाप तो छूटा, पुण्य भी
छूटा।
हर
मंजर-ए-बुलंद
भी अब पस्त हो
चुका
ऐ
अर्श किस फजा
में उड़ा जा
रहा हूं मैं।
--और
मैं किस आकाश
में उड़ रहा
हूं!
महावीर
उस आकाश को
आत्मा कहते
हैं। अंतर्आकाश!
परम आनंद है
वहां! परम
शांति!
महावीर
उस परम दशा को
ही परमात्म-दशा
कहते हैं।
परमात्मा
एक नहीं है
महावीर के लिए, वरन
प्रत्येक
व्यक्ति की
नियति है। हर
व्यक्ति
परमात्मा
होने के मार्ग
पर है। हर
व्यक्ति परमात्मा
हो रहा है; देर-अबेर
होता चला जा
रहा है।
परमात्मा
सृष्टि के
प्रथम क्षण
में नहीं है--परमात्मा
प्र्रत्येक
व्यक्ति की अंतिम
उपलब्धि में
है। उतने ही
परमात्मा हैं जितनी
आत्माएं हैं।
फिर ये
आत्माएं
बहिर्मुखी
हों तो
परमात्मा
बाहर की तरफ
देख रहा है; अंतर्मुखी
हों तो अंदर
की तरफ देख
रहा है। बहिर्मुख,
अंतर्मुख,
दोनों से
मुक्त हों तो
परमात्मा
स्थित हुआ, स्वस्थ हुआ,
अपने में
लौट आया। इस
अवस्था को
महावीर मोक्ष
कहते हैं।
आज
इतना ही।
thank you guruji
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