संन्यास
की घोषणा (अध्याय—5)
प्रवचन—पहला
श्रीमद्भगवद्गीता
(अथ पंचमोऽध्यायः)
अर्जुन
उवाच
संन्यासं कर्मणां
कृष्ण पुनर्योगं
च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि
सुनिश्चितम्।।
1।।
हे
कृष्ण! आप
कर्मों के
संन्यास की और
फिर निष्काम
कर्मयोग की
प्रशंसा करते
हैं, इसलिए
इन दोनों में
एक जो निश्चय
किया हुआ कल्याणकारक
होवे, उसको
मेरे लिए
कहिए।
मनुष्य
का मन निरंतर
ही आज्ञा
चाहता है।
मनुष्य का मन, कोई और तय कर
दे, ऐसी
आकांक्षा से
भरा होता है।
निर्णय करना
संताप है; निर्णय
करने में
चिंता है; स्वयं
ही विचार करना
तपश्चर्या
है। मनुष्य का
मन चाहता है, निर्णय भी न
करना पड़े। कुछ
भी न करना
पड़े। सत्य ऐसे
ही उपलब्ध हो
जाए, बिना
थोड़े-से भी
श्रम, विचार,
तपश्चर्या
के।
अर्जुन
कृष्ण से कहता
है, आपने
कर्म-संन्यास
की बात कही, आपने
निष्काम कर्म
की बात कही।
लेकिन मुझे तो
ऐसा
सुनिश्चित
मार्ग बता दें,
जिसमें मैं
आश्वस्त होकर
चल सकूं।
इस
संबंध में
बहुत-सी बातें
समझ लेने जैसी
हैं। कृष्ण ने
इस बीच जो भी
बातें कहीं, वे अर्जुन
को आदेश की
तरह नहीं हैं;
अर्जुन के
सामने
समस्याओं को
खोलकर रख देने
की कोशिश की
है। जीवन के
सारे रास्तों
पर प्रकाश
डालने की
कोशिश की है।
अंतिम निर्णय
अर्जुन के हाथ
में ही छोड़ा
है कि वह
निर्णय करे, संकल्प करे,
निष्पत्ति
अर्जुन स्वयं
ले।
इस जगत
में जो
श्रेष्ठतम
गुरु हैं, वे सदा ही
शिष्यों को
निष्पत्ति
देने से बचते हैं,
कनक्लूजंस देने से
बचते हैं।
क्योंकि जो
निष्पत्ति दी
हुई होती है, उधार, बासी,
मृत हो जाती
है। जो
निष्पत्ति, जो निष्कर्ष
स्वयं लिया
होता है, उसकी
जड़ें स्वयं के
प्राणों में
होती हैं। जिस
नतीजे पर
व्यक्ति अपने
ही चिंतन और
खोज और शोध से
पहुंचता है, वह निर्णय
उसके
व्यक्तित्व
को रूपांतरित
करने की
क्षमता रखता
है।
जो
निर्णय बाहर
से आते
हैं--उधार, विजातीय--उनकी
कोई जड़ें
व्यक्ति की
स्वयं की आत्मा
में नहीं हो
पाती हैं। उन
पर कोई अनुसरण
भी करे, तो
भी वे आचरण की
सतह ही
निर्मित करती
हैं, आत्मा
नहीं बन पाती
हैं। जैसे
बाजार से फूल
लाकर हमने
गुलदस्ते में
लगा लिए हों, ऐसे ही
दूसरे से मिले
निर्णय भी
गुलदस्ते के
फूल बन जाते
हैं; लेकिन
जमीन में उगे
हुए फूल नहीं
हैं--प्राणवान,
जीवित, जमीन
से रस को लेते
हुए, सूरज
से रोशनी को
पीते हुए, हवाओं
में नाचते
हुए--जिंदा
नहीं हैं।
लेकिन
आदमी का मन
इतने आलस्य से
भरा है, इतने
तमस से, इतनी
लिथार्जी
से कि भोजन भी
यदि किया हुआ
मिल जाए, तो
हम करना पसंद
नहीं करेंगे।
भोजन भी पचाया
हुआ हो, तो
पचाने को हम
राजी नहीं
होंगे। लेकिन
जिस दिन भोजन
पचाया हुआ मिल
जाएगा, उस
दिन हम
प्लास्टिक के
आदमी होंगे, जिंदा आदमी
नहीं। जिंदगी
की सारी गहरी
प्रक्रिया
स्वयं ही
पचाने में
निर्भर है। वह
चाहे भोजन को पचाकर खून
बनाना हो और
चाहे जीवन के
अनुभव को पचाकर
ज्ञान की
निष्पत्ति
लेना हो। वह
चाहे जगत में
चलना हो और
चाहे
परमात्मा में
प्रवेश हो।
जिस बात को हम
आत्मसात करते
हैं, जो
हमारे ही श्रम
से फलित होती
है, वही
हमारी है। शेष
सब उधार है और
ठीक समय पर
बेकार सिद्ध
होता है, काम
में नहीं आता
है।
लेकिन
अर्जुन की
आकांक्षा वही
है जो सभी
आदमियों की
आकांक्षा है।
वह कहता है, मुझे
सुनिश्चित कह
दें; उलझाव
में न डालें।
ऐसी सब बातें
न कहें, जिनमें
मुझे सोचना
पड़े और तय
करना पड़े। आप
ही मुझे कह
दें कि क्या
ठीक है। जो
बिलकुल ठीक हो,
मुझे कह
दें।
कृष्ण
को भी आसान है
यही कि जो
बिलकुल ठीक है, वही कह दें।
लेकिन जो आदमी
ऐसी मांग कर
रहा हो कि जो
बिलकुल ठीक है,
वही मुझे कह
दें, उससे
बिलकुल ठीक
बात कहनी
खतरनाक है।
क्योंकि ठीक
बात को पाकर
वह सदा के लिए
ही बचकाना, जुवेनाइल रह जाएगा।
वह कभी मैच्योर
और प्रौढ़ नहीं
हो सकता है।
इसलिए
वे गुरु
खतरनाक हैं, जिनके नीचे
शिष्य सदा ही बचकाने, अप्रौढ़ रह
जाते हों। वे
गुरु खतरनाक
हैं, जो
निष्कर्ष दे
देते हों। ठीक
गुरु तो
समस्याएं
देता है। ठीक
गुरु तो
प्रश्न देता
है। निश्चित
ही ऐसे प्रश्न,
ऐसी
समस्याएं, ऐसे
उलझाव, जिनसे
गुजरकर अगर
व्यक्ति चलने
का साहस और हिम्मत
जुटाए, तो
निष्कर्ष पर
जरूर ही पहुंच
सकता है।
लेकिन
बंधे-बंधाए, रेडिमेड उत्तर इस
पृथ्वी पर
किसी भी
श्रेष्ठतम
व्यक्ति ने
कभी भी नहीं
दिए हैं।
अर्जुन
कहता है, मुझे
तो तैयार--आप जानते
ही हैं, वही
कह दें, जो
ठीक है। मुझे उलझाएं
मत। मैं वैसे
ही बड़े संभ्रम
में, वैसे
ही बड़े संशय
में हूं, वैसे
ही बहुत
अनिश्चय में
डूबा हुआ हूं।
इतनी बातें न
करें कि मैं
और उलझ जाऊं।
मैं कनफ्यूज्ड
हूं।
अर्जुन
जानता है कि
उलझा हुआ है।
लेकिन उलझे हुए
मन को सुलझा
हुआ सत्य भी
मिल जाए, तो
उसे भी उलझा
लेता है।
सुंदरतम
व्यक्ति को भी
हम विकृत आईने
के सामने खड़ा
कर दें, तो
आईना तत्काल
उसे विकृत कर
लेता है।
श्रेष्ठतम
चित्र को भी
हम, आंखें
कमजोर हों, बिगड़ गई हों,
ऐसे आदमी के
सामने रख दें,
तो भी आंखें
उस श्रेष्ठतम
चित्र को
कुरूप कर लेती
हैं।
निश्चित
ही कृष्ण सीधे
निष्कर्ष की
बात कह सकते
हैं, लेकिन
उलझा हुआ
अर्जुन समझ
कैसे पाएगा!
अर्जुन उलझा
हो, तो सुलझी
हुई बात को भी
उलझा लेगा।
इसलिए कृष्ण
को प्रतीक्षा
करनी पड़ेगी।
अर्जुन का
उलझाव हल हो, तो ही सुलझे
हुए सत्यों को
सुनने की
क्षमता आ सकती
है।
हम वही
समझ पाते हैं, जो हम समझ
सकते हैं। हम
अपने से
ज्यादा कभी कुछ
नहीं समझ पाते
हैं। और हम
वही अर्थ
निकाल लेते
हैं, जो
हमारे भीतर
पड़ा है। हम
वही अर्थ नहीं
निकाल पाते
हैं, जो
कृष्ण जैसा
व्यक्ति
बोलता है।
अर्जुन
के साथ कृष्ण
की वार्ता सीधी
नहीं है, बहुत
उलझी और
पगडंडियों से
भरी है, बहुत
गोल चक्रों
में घूमती हुई
है। इस सारी
गीता की चर्चा
से कृष्ण
अर्जुन को
सुलझाने की कोशिश
कर रहे हैं।
सुलझ जाए, तो
वे उसे
निष्कर्ष की
बात भी कह
सकें। लेकिन अर्जुन
सुलझने की
पीड़ा से भी
नहीं गुजरना
चाहता है।
सुलझने
की पीड़ा भी
प्रसव की पीड़ा
है। स्वयं का
बहुत कुछ
काटना, गिराना,
हटाना
पड़ेगा। सबसे
बड़ी कठिनाई तो
यही होती है कि
मैं उलझा हुआ
हूं, इसे
इसकी पूरी
नग्नता में
जानना पड़ेगा।
और कोई भी
व्यक्ति
मानने को राजी
नहीं होता कि
कनफ्यूज्ड
है। कोई भी
व्यक्ति
मानने को राजी
नहीं होता कि
उसका मन उलझा
हुआ है। सभी
लोग मानकर
चलते हैं कि
वे सुलझे
हुए हैं। अपने
को धोखा देने
की कुशलता भी
अदभुत है। हर
आदमी यह मानकर
चलता है कि
मैं सुलझा हुआ
हूं।
इस
दुनिया की
सारी उलझनें
निन्यानबे
प्रतिशत कम हो
जाएं, अगर
लोगों को यह
पता चल जाए कि
हम उलझे हुए
हैं। लेकिन
लोग बिलकुल
आश्वस्त हैं। लोग
बिलकुल
आत्मविश्वास
से भरे हैं कि
हम सुलझे
हुए लोग हैं।
और सारी
दुनिया इतने
उलझाव में है,
जिसका कोई
हिसाब नहीं
है। ये उलझाव
कहां से आते
हैं? हम सब सुलझे हुए
लोग! ये इतने
उलझाव इस जमीन
पर पैदा कैसे
होते हैं? यदि
हम सब सुलझे
हुए हैं, तो
जगत एक शांत
और एक आनंद से
भरी हुई जगह
होनी चाहिए--स्वर्ग;
लेकिन जगत
है एक नर्क।
हम सब
उलझे हुए हैं।
और उलझाव और
भी भयंकर है, क्योंकि
प्रत्येक
उलझा हुआ आदमी
समझता है कि मैं
सुलझा हुआ
हूं। हर पागल
समझता है कि
पागल नहीं है।
पागलखानों
में ऐसा आदमी
मिलना
मुश्किल है, जो समझता हो
कि मैं पागल
हूं।
पागलखाने के
बाहर मिल भी
जाए; पागलखाने
के भीतर नहीं
मिल सकता।
तो
अर्जुन को यह
भी दिखा देना
जरूरी है कि
वह कितना उलझा
हुआ है। कृष्ण
की अब तक की
बातचीत से
अर्जुन को एक
बात तो कम से
कम दिखाई पड़नी
शुरू हो गई कि
वह उलझा हुआ
है। शुरू में
जब उसने बोलना
शुरू किया था, तो ऐसा लगता
था कि वह
जानकर बोल रहा
है। धर्म और
शास्त्र और
नीति और
परंपरा, इन
सब की बात कर
रहा था। ऐसा
लगता था कि वह
जानकर बोल रहा
है। अज्ञानी
आदमी जितने
जानते हुए बोलते
मालूम पड़ते
हैं, उतने
ज्ञानी कभी
बोलते हुए
मालूम नहीं
पड़ते हैं।
बर्ट्रेंड
रसेल ने कहीं
कहा है कि
जितना कम जानने
वाला आदमी हो, उतनी दृढ़ता
से बोल सकता
है; उतना डाग्मैटिक
हो सकता है।
जितना जानने
वाला आदमी हो,
उतना हेजीटेट
करता है; झिझकता
है। क्योंकि
जितना ज्यादा
जानता है, उतना
ही पाता है कि
जीवन अति
दुरूह है, गहन
पहेली है।
जितना जानता
है, उतना
ही पाता है कि
जानना आसान
नहीं है। और
जितना जानता
है, उतना
ही पाता है कि
जानने को अनंत
शेष है।
अज्ञानी
बिलकुल दृढ़ता
से बोल सकता
है। इतना कम
जानता है कि
अज्ञान का भी
उसे पता नहीं
है।
अर्जुन
ने जब प्रश्न
उठाने शुरू
किए थे, तो
वह ऐसे आदमी
के प्रश्न थे,
जिसे उत्तर
पहले से ही
पता हैं। अगर
कृष्ण से पूछता
था, तो
इसलिए कि तुम
भी शायद जो
मैं कहता हूं
वही कहोगे, गवाही मेरी बनोगे!
कृष्ण
से अर्जुन ने
गवाही, विटनेस
ही मांगी थी, कि आप भी कह
दें कि जो मैं
कहता हूं, ठीक
है। कि यह
युद्ध व्यर्थ
है। कि यह धन
और राज्य के
लिए संघर्ष
गलत है। कि सब
छोड़कर चले जाना
धर्म की
पुरानी
व्यवस्था है।
कि हिंसा पाप है;
कि अहिंसा
में, समस्त
हिंसा का
त्याग करके
चले जाने में
गौरव है।
अर्जुन
ने जब ये
बातें कही थीं, तो आश्वस्त
भाव से कही
थीं कि कृष्ण
भी समर्थन
करेंगे।
लेकिन कृष्ण
ने उनका
समर्थन नहीं
किया। और अब
अर्जुन इस स्थिति
में नहीं है
कि कह सके कि
मैं जानता हूं।
इतना उसे साफ
हुआ है कि मैं
उलझा हुआ हूं।
मुझे कुछ पता
नहीं है।
यह
बहुत बड़ी घटना
है। ज्ञान के
मार्ग पर पहला
चरण है। ज्ञान
के मार्ग पर
अज्ञान की दृढ़ता
पिघल जाए, तो बहुत बड़ी
उपलब्धि है।
अज्ञान की
मजबूती ढीली
पड़ जाए, अज्ञान
का आश्वासन डिग
जाए--बड़ी
उपलब्धि है।
अर्जुन
इस जगह कृष्ण
के द्वारा
लाया जा सका
है, जहां वह
कहता है, मुझे
कुछ पता नहीं
है। यह बात
कीमत की है।
लेकिन तत्काल
वह कहता है कि
जो आपको पता
हो, वह
सीधा आप मुझे
कह दें।
इतना
तो अच्छा हुआ
कि वह कहता है, मुझे कुछ
पता नहीं है।
लेकिन अब यह
दूसरा खतरा
उसके साथ जुड़ा
है। अभी वह
दूसरे से
तैयार ज्ञान
को पाने की
आकांक्षा
रखता है। वह
भी उसकी भ्रांति
है। कोई
छोटा-मोटा
गुरु होता
कृष्ण की जगह,
तो बहुत
प्रसन्न होता
और कहता कि यह
जो मैं जानता
हूं, तुझे
दिए देता हूं।
तेरा काम है
कुल इतना कि मान
ले चुपचाप और
आचरण कर।
लेकिन
कृष्ण उन
मनोवैज्ञानिक
गुरुओं में से
एक हैं, जो
जब तक कि
पात्र पूरा
तैयार न हो, जब तक कि
क्षमता
अर्जुन की इस
योग्य न हो कि
वह सत्य को
समझने और सत्य
को
प्रतिध्वनित
करने की
स्थिति में आ
जाए, तब तक
वे अभी और कुछ
बातें करेंगे,
और भी
मार्गों की।
अर्जुन
के नीचे से
उसके सारे
आश्वासन की
भूमि हट जानी
चाहिए। और
अर्जुन के मन
से यह खयाल भी हट
जाना चाहिए कि
कोई दूसरा दे
सकेगा। इतनी
तैयारी होनी
चाहिए कि मैं
खोजूं, श्रम
करूं; सत्य
को मुफ्त में
पाने की
आकांक्षा न
करूं।
इसलिए
कृष्ण ने वे
सब मार्ग, जिनसे
मनुष्य सरलता
को, सत्य
को, सुलझाव
को उपलब्ध हुआ
है, उन
सबको
धीरे-धीरे
खोलकर अर्जुन
के सामने रखने
का तय किया
है। पर उसके
मन की बात ठीक
से आप समझ
लेना, वह
हम सबके मन की
बात है।
हम भी
चाहेंगे कि
इतनी लंबी
चर्चा की क्या
जरूरत है? कृष्ण
भलीभांति
जानते हैं कि
सत्य क्या है।
अर्जुन की
स्थिति भी
भलीभांति
जानते हैं।
अर्जुन के लिए
क्या हितकर है,
यह भी
भलीभांति
जानते हैं। तो
दे ही क्यों
नहीं देते!
कल ही
मेरे पास कोई
एक व्यक्ति आए
और उन्होंने
कहा कि मुझे
कुछ
सोचना-समझना
नहीं है। मुझे
तो आप बता दें।
आप जानते हैं, तो मुझे बता
दें। मैं उसे
करने में लग
जाऊं।
देखने
में लगेगा कि
बड़ी श्रद्धा
की बात है। लेकिन
जिस व्यक्ति
को स्वयं श्रम
करने की जरा
भी श्रद्धा
नहीं है, उसकी
श्रद्धा बड़ी
धोखे की है और
झूठी है। जो इंचभर भी
अंधेरे में, अनजान में, असुरक्षा
में खोजने के
लिए तैयार
नहीं है; जो
अज्ञात में
नाव लेकर
यात्रा पर
निकलने के लिए
साहस नहीं
जुटा पाता; जो सदा
दूसरे का
सहारा खोजकर
आंख बंद कर
लेने के लिए
आतुर है--ऐसे
आदमी की यात्रा
सत्य की तरफ
कभी भी नहीं
हो सकती है।
निश्चित ही
ऐसे व्यक्ति
को भी गुरु
मिल जाएंगे, क्योंकि ऐसे
व्यक्तियों
का शोषण करने
की बड़ी सुविधा
है। उनका शोषण
चल रहा है।
जो भी
मांग की जाएगी, उसको सप्लाई
करने वाले लोग
सदा ही उपलब्ध
हो जाते हैं।
अगर आप मांगेंगे
अंधापन, तो
आपकी आंखें फोड़ने
वाले लोग भी
मिल जाएंगे।
आप मांगेंगे
बहरापन, तो
आप पर कृपा
करके आपको
बहरा कर देने
वाले लोग भी
मिल जाएंगे।
आप चाहेंगे कि
मैं तो किसी का
हाथ पकड़कर
चलूं और अपना
कोई भी श्रम न
लगाना पड़े, तो ऐसे लोग
भी आपको मिल
जाएंगे, जो
कहेंगे, यह
रहा हाथ; पकड़ो और
चलो!
लेकिन
ध्यान रखना, जो भी ऐसा
व्यक्ति आपको
मिल जाएगा, वह व्यक्ति
आपके ऊपर
करुणा नहीं कर
रहा है। क्योंकि
करुणा सदा ही
आपके पैर को
सबल बनाती है,
आपकी आंखों
को मजबूत करती
है, आपके
बल को जगाती
है। वह
व्यक्ति आपका
शोषण कर रहा
है। और शोषण
केवल वही कर
सकता है, जो
नहीं जानता
है। इसलिए
अंधे अक्सर
अंधों को नेतृत्व
करने के लिए
मिल जाते हैं।
सच तो यह है कि
अंधों के बड़े
समाज में आंख
वाले आदमी को
नेतृत्व करना
अति कठिन है।
अंधों का समाज,
सजातीय
अंधे को ही
अपने आगे कर
लेने को सदा
उत्सुक रहता
है।
कृष्ण
वैसे गुरु
नहीं हैं। वे
अर्जुन को कुछ
भी देने के लिए
राजी नहीं हैं, जिसको पाने
की क्षमता
स्वयं अर्जुन
में न हो। और
अर्जुन में
अगर उसे पा
लेने की
क्षमता हो, तो कृष्ण
उसे देने को
तैयार हो सकते
हैं। फिर कोई
फर्क नहीं
पड़ता। अगर एक
व्यक्ति पाने
के लिए तैयार
है श्रम करने
को, तो उसे
सत्य की किरण
दी भी जा सकती
है।
यह
बहुत मजे की
और
विरोधाभासी
बात मालूम
पड़ेगी। जिनकी
क्षमता नहीं
है, उन्हें
दिया नहीं जा
सकेगा; यद्यपि
जिनकी क्षमता
नहीं है, वे
सदा भिखारी की
तरह मांगते
हैं। और जिनकी
क्षमता है, उन्हें सदा
दिया जा सकता
है; यद्यपि
जिनकी क्षमता
है, वे कभी
भी भिखारियों
की तरह मांगते
नहीं हैं। अब
यह बड़ी उलटी
बात है।
सत्य
के द्वार पर
जो भिखारी की
तरह खड़ा होगा, वह खाली हाथ
वापस लौटेगा।
सत्य के द्वार
पर तो जो
सम्राट की तरह
खड़ा होता है, उसे ही सत्य
मिलता है।
अभी भी
कृष्ण भिखारी
को पा रहे हैं
अर्जुन में।
इस वचन में भी
अर्जुन ने अपने
भिखारी होने
की ही घोषणा
की है।
श्री
भगवानुवाच
संन्यासः कर्मयोगश्च
निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो
विशिष्यते।।
2।।
श्रीकृष्ण
भगवान बोले, हे अर्जुन!
कर्मों का
संन्यास और
निष्काम कर्मयोग,
ये दोनों ही
परम कल्याण के
करने वाले
हैं। परंतु
दोनों में
कर्मों के
संन्यास से
निष्काम
कर्मयोग, साधन
में सुगम होने
से श्रेष्ठ
है।
कृष्ण
ने कहा, कर्म-संन्यास
और निष्काम
कर्म दोनों ही
परम श्रेय को
उपलब्ध कराने
के मार्ग हैं।
पहले इसे समझें।
फिर दूसरी बात
उन्होंने कही,
लेकिन फिर
भी सुगम होने
से निष्काम
कर्म साधक के
लिए ज्यादा
कल्याणकर है।
कर्म-संन्यास
का अर्थ है, जो करने का
जगत है, जहां
हम सुबह से
सांझ, सांझ
से सुबह करने
में संलग्न
हैं। कर रहे
हैं, बिना
इस बात को ठीक
से जाने कि
क्यों? किस
लिए? बिना
ठीक से समझे
कि इस सब करने
की निष्पत्ति
और फल क्या है!
बिना इस बात
को विचारे कि
अतीत में जो
किया है, उससे
हम कहां
पहुंचे हैं!
समस्त
कर्मों का रूप
पानी पर खींची
गई रेखाओं जैसा
है। खींचते
हैं, तब लगता
है कि कुछ
खिंचा।
खींचते हैं, तब लगता है
कि कुछ बना।
लेकिन अंगुली
आगे भी नहीं
बढ़ पाती कि
रेखाएं मिट
जाती हैं, विदा
हो जाती हैं।
जो भी
हम कर रहे हैं, वह अस्तित्व
में पानी पर
खींची गई
रेखाओं से ज्यादा
कुछ भी
निर्मित नहीं
कर पाता है।
हमसे पहले भी
अरबों लोग इस
पृथ्वी पर रहे
हैं। जिस जगह
आप बैठे हैं, एक-एक आदमी
जहां बैठा है,
वहां कम से
कम एक-एक आदमी
की जगह में
दस-दस आदमियों
की कब्र बन
चुकी है। वे
सारे लोग ही
विराट कर्म
में लीन रहे
हैं। उन सबके
कर्मों का
इकट्ठा जोड़
क्या है?
यदि आज
आदमी का समाज
समाप्त हो जाए, तो आकाश के
तारों को कुछ
भी खबर न
रहेगी कि कितना
विराट कर्म
चला है!
वृक्षों को कुछ
भी पता न होगा
कि कितना
विराट कर्म
उनके नीचे चला
है! पक्षी
हमारे कर्म के
इतिहास की कोई
कथा न कहेंगे।
सूरज उगता
रहेगा। सागर
की लहरें तटों
से टकराती
रहेंगी।
आदमी
समाप्त हो जाए, तो कोई दस
लाख वर्ष की
लंबी यात्रा
में आदमी ने
जो कर्म किए
हैं, उनका
जोड़ क्या होगा?
जैसे एक
आदमी समाप्त
होता है, तो
उसके कर्मों
का सब जोड़
तिरोहित हो
जाता है; ऐसे
ही सारी
मनुष्यता भी
समाप्त हो जाए,
तो सब
कर्मों का जोड़
तिरोहित हो
जाएगा। उसकी कहीं
रेखा भी छूटकर
न रह जाएगी।
कर्म-संन्यास
इस समझ का नाम
है कि कर्म
पानी पर खींची
गई रेखाओं की
भांति हैं। तो
व्यर्थ क्यों
खींचो! जो मिट
ही जाता है, उसे खींचो
ही क्यों! जो
टिकता ही नहीं,
उसे बनाने
के पागलपन में
क्यों पड़ो!
जो अंततः
स्वप्न सिद्ध
होता है, उसे
सत्य मानकर
क्षणभर भी
क्यों जीओ!
रात
सपना देखते
हैं। सपने में
तो सपना बहुत
सच होता है, सच से भी ज्यादा
सच होता है।
कभी पता नहीं
चलता। और बड़े मजे
की बात है कि
जिंदगी में कई
बार, करोड़ बार सपना
देखा है। रोज
सुबह पाया कि
गलत है। और हर
रात फिर भूल
जाता है मन।
कितने सपने
देखे रोज! आज
रात जब लौटकर
फिर सपना
देखेंगे, तो
सपने में मन
को याद न
रहेगा कि पहले
भी सपने देखे
थे और सुबह
पाया था कि
सपने हैं। आज
रात फिर सपना
देखेंगे इसी
भ्रम में कि
सच है। आदमी
का मन कुछ
सीखता है या
नहीं सीखता है?
इतने सपने
देखने के बाद
भी रोज जब
दुबारा फिर सपना
आता है, तो
फिर सच मालूम
होता है।
कर्म-संन्यास
कहता है कि
कितने जन्मों
में कितने
कर्म किए, लेकिन हर
बार भूल जाते
हैं! फिर नया
जन्म, फिर
नया सपना शुरू
हो जाता है।
जैसे कल का
सपना आज के
सपने में जरा
भी बाधा नहीं
डालता और याद
नहीं दिलाता,
कोई रिमेंबरेंस
पैदा नहीं
होती, कोई
स्मृति नहीं
आती कि कल भी
सपना देखा था,
पाया सुबह
कि गलत है। आज
फिर सपना देख
रहा हूं, उसी
भ्रम में, जैसा
कल, जैसा
परसों, जैसा
जीवनभर देखा
है। इसका मतलब
हुआ, मन ने
कुछ सीखा
नहीं।
हैरानी
होती है। इतने
सपने देखकर भी
मन इतना-सा भी
नहीं सीख पाता
कि सपने सच
नहीं हैं। जब
आता है सपना, सब सच हो
जाता है।
कर्म-संन्यास
कहता है, हर जन्म
इसी तरह
विस्मरण हो
जाता है। जन्म
को छोड़ दें, आज तक
जिंदगी में जो
किया है, उससे
क्या हो गया
है? कुछ भी
नहीं हुआ।
पानी पर खींची
रेखाओं की तरह
सब मिट गया
है। लेकिन आज
भी रेखाएं
खींचे चले जा
रहे हैं; कल
भी रेखाएं खींचेंगे।
मरते वक्त
पाएंगे, सब
खो गया। नए जन्म
में फिर नई
रेखाएं
खींचना शुरू
कर देंगे।
कर्म-संन्यास
कर्म के सत्य
के प्रति इस
होश का नाम है
कि कर्म से
कुछ भी फलित
नहीं होता है।
कर्म एक खेल
से ज्यादा
नहीं है। तो
जो प्रौढ़ हो जाएगा
इस समझ से, वह कर्म के
बाहर हो
जाएगा। छोड़
देगा कर्म को।
छोड़ देगा, कहना
शायद ठीक नहीं
है, कर्म
छूट जाएंगे
उससे।
जैसे
बच्चा बड़ा हो
गया। अब वह कंकड़-पत्थरों
से नहीं
खेलता। अब वह
रेत पर मकान
नहीं बनाता।
अब वह गुड्डे
और गुड़ियों
का विवाह नहीं
रचाता। अब
उससे कोई कहता
है कि पहले तो
तुम बहुत रस
लेते थे, अब
तुमने क्यों
छोड़ दिए गुड़ियों
के खेल? क्यों
तुम रेत पर
मकान नहीं
बनाते? क्यों
तुम रंगीन कंकड़-पत्थर
इकट्ठे नहीं
करते? तो
वह बच्चा यह
नहीं कहता कि
मैंने छोड़
दिया। वह कहता
है, अब मैं
बड़ा हो गया; वह सब छूट
गया!
कर्म-संन्यास
कर्म का त्याग
नहीं, कर्म
के प्रति इस
सत्य का अनुभव
है कि कर्म का जगत
स्वप्न का जगत
है। तब कर्म
छूट जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, यह मार्ग भी
श्रेयस्कर
है। यह मार्ग
भी मंगलदायी
है। इस मार्ग
से भी परम
अनुभूति तक
पहुंचा जाता
है। पर कृष्ण
कहते हैं, कठिन
है यह मार्ग।
दूसरे मार्ग
को कृष्ण कहते
हैं, सरल
है निष्काम
कर्म।
निष्काम
कर्म में कर्म
के ऊपर आग्रह
नहीं है।
निष्काम कर्म में
कर्म के पीछे
जो
फलाकांक्षा
है, उसको
समझने का
आग्रह है।
कर्म-संन्यास
में कर्म को
समझने का
आग्रह है कि
कर्म ही
व्यर्थ है।
निष्काम कर्म
में कर्म की
जो
फलाकांक्षा
है, उसको
समझने का
आग्रह है कि
फलाकांक्षा
व्यर्थ है।
कृष्ण
कहते हैं, कर्म चलता
रहे, भेद
नहीं पड़ता; फलाकांक्षा
भर विसर्जित
हो जाए। खेल
चलता रहे; कोई
हर्जा नहीं; लेकिन बच्चा
यह जान ले कि
खेल है। यह भी
तभी जाना जा
सकता है, जब
फलाकांक्षा
दुख के
अतिरिक्त कुछ
भी नहीं लाती,
इसकी
प्रतीति हो
जाए।
कर्म-संन्यास
तब आता है, जब प्रतीति
हो जाए कि
कर्म
स्वप्नवत है,
ड्रीम लाइक
है। निष्काम
कर्म तब फलित
होता है, जब
ज्ञात हो जाए
कि
फलाकांक्षा
दुख है।
लेकिन
फलाकांक्षा
होती सुख के
लिए है। कोई
आदमी दुख की
आकांक्षा
नहीं करता।
आकांक्षा सभी सुख
की करते हैं।
और बड़े मजे की
बात है कि जब
मिलता है, तो सिर्फ
दुख मिलता
है--सभी को।
आकांक्षा सदा सुख
की, फल सदा
दुख! दौड़ते
हैं पाने को
स्वर्ग, मंजिल
आती है सदा
नर्क की।
सोचते हैं, लगेगा हाथ
आनंद का अनुभव,
हाथ सिर्फ
दुख-स्वप्न, पीड़ा और
संताप लगते
हैं।
निष्काम
कर्म तब फलित
होता है, जब
कोई फलाकांक्षा
की इस ट्रिक, फलाकांक्षा
के इस रहस्य
को समझ लेता
है कि फलाकांक्षा
सदा भरोसा
देती है सुख
का, लेकिन
जब भी हाथ में
आता है पक्षी
सुख का, तो
दुख का सिद्ध
होता है।
लेकिन
होशियारी है। होशियारी
यह है कि जो
हाथ में आ
जाता है, फलाकांक्षा
उससे हट जाती;
और जो पक्षी
हाथ में नहीं,
उस पर लग
जाती है। हाथ
में सदा दुख
होता, आकांक्षा
सदा उन
पक्षियों के
साथ उड़ती रहती,
जो हाथ में
नहीं हैं। जब
उनमें से कोई
भी पक्षी हाथ
में आता, तो
दुख सिद्ध
होता। लेकिन
और पक्षी उड़ते
रहते हैं आकाश
में, आकांक्षा
उनका पीछा
करती रहती है।
इसलिए
आकांक्षा की
इस निरंतर स्टुपिडिटी, इस निरंतर मूढ़ता का
कभी अनुभव
नहीं हो पाता।
हाथ में आए
पक्षी को हम
कभी नहीं
सोचते कि कल
इसे भी चाहा
था। आज हम कुछ
और चाहने लगते
हैं।
जिंदगीभर आकांक्षाएं
फलित होती हैं, पूरी होती
हैं, लेकिन
हम कभी नहीं
सोचते कि जो
चाहा, वह
मिला? जो
चाहते हैं, वह कभी नहीं
मिलता है। जो
नहीं चाहते
हैं, वह
सदा मिलता है।
लेकिन जो नहीं
चाहते हैं, जब वह मिल
जाता है, तो
हम उसके दुख
को फिर किसी
नई चाह के
सपने में भुला
देते हैं, फिर
नए सपने में
हम डूब जाते
हैं।
निष्काम
कर्म का रहस्य
है, फलाकांक्षा
की इस तरकीब
को ठीक से देख
लेना कि मन
सदा ही, जो
नहीं है पास, उसको खोजता
रहता है। और
जो पास है, उसमें
दुख भोगता
रहता है। और
कभी यह गणित
नहीं बिठाया
जाता कि कल यह
भी मेरे पास
नहीं था, तब
मैंने इसमें
सुख चाहा था।
और आज जब मेरे
पास है, तो
मैं दुख भोग
रहा हूं।
वर्तमान सदा
दुख, भविष्य
सदा सुख बना
रहता है।
जब तक
ऐसा दिखाई
पड़ेगा कि
वर्तमान दुख
है और भविष्य
सुख है, तब
तक निष्काम
कर्म फलित
नहीं हो सकता।
निष्काम कर्म
फलित होगा, जब यह
वर्तमान और
भविष्य की
स्थिति
बिलकुल उलटी
हो जाए।
वर्तमान सुख
बन जाए।
जैसे
ही वर्तमान
सुख बनता है, भविष्य की
आकांक्षा
तिरोहित हो
जाती है। भविष्य
की आकांक्षा,
भविष्य में
सुख था, इसीलिए
थी। वर्तमान
में दुख है, इसलिए
भविष्य में
सुख को हम
प्रोजेक्ट
करते हैं। आज
दुख है, तो
कल की कामना
करते हैं कि
कल सुख
मिलेगा। कल के
सुख की कामना
में आज के दुख
को झेलने में
जरूर ही
सुविधा बनती
है। अगर कल भी
सुख न हो, तो
आज को गुजारना
मुश्किल हो
जाए। जो लोग
कारागृह में
बंद हैं, वे
कारागृह के
बाहर जब मुक्त
होंगे, उस
खुले आकाश की
आकांक्षा में
कारागृह को
बिता देते
हैं।
मैंने
तो सुना है कि
एक कारागृह
में एक नया कैदी
आया। उसे तीस
वर्ष की सजा
हुई है। वह
भीतर सींकचों
के गया। एक
कैदी और उस
कमरे में बंद
है। उसने उससे
पूछा कि भाई, तुम्हारी
सजा कितनी है?
उसने कहा कि
मैं तो काफी, दस वर्ष काट
चुका। मुझे
सिर्फ बीस
वर्ष और रहना
है। तो उसने
कहा कि तुम
दरवाजे के पास
स्थान ले लो, मुझे दीवाल के
पास, क्योंकि
तुम्हें
जल्दी जाना
पड़ेगा। मैं
तीस वर्ष
रहूंगा; तुम्हें
बीस वर्ष ही
रहना है। उसने
अपना बोरिया-बिस्तर
उठाकर सींकचों
के पास लगा
लिया। जल्दी
उसका वक्त आने
वाला है। बीस
साल बाद वह
खुले आकाश के
नीचे पहुंच जाएगा!
बीस साल बाद
की वह मुक्ति
की संभावना, बीस साल के
कारागृह को भी
गुजार देगी।
रोज हम
कल के लिए टाल
देते हैं। आज
को झेलने में
सुविधा तो बन
जाती है, लेकिन
इससे जीवन की
पहेली हल नहीं
होती। कल फिर
यही हाथ लगता
है। फिर कल हम
परसों के लिए
सोचने लगते
हैं। रोज यही
होता है। हमें
रोज जिंदगी पोस्टपोन
करनी पड़ती है,
कल के लिए
स्थगित कर
देनी पड़ती है।
वह कल कभी नहीं
आता। अंत में
मौत आती है और
कल का सिलसिला
टूट जाता है।
इसलिए
तो हम मौत से
डरते हैं। मौत
से हम न डरें, मौत से डर का
असली कारण कल
के सिलसिले का
टूट जाना है।
मौत कहती है
कि आगे कल
नहीं होगा, इसलिए मौत
से इतना डर
लगता है।
क्योंकि हम
जीए ही नहीं कभी,
हम तो कल की
आशा में जीए।
और मौत कहती
है, अब कल
नहीं होगा।
इसलिए मौत घबड़ाती
है।
अन्यथा
मौत में डर का
कोई भी कारण
नहीं है। क्योंकि
पहली तो बात
यह है कि जिसे
हम जानते नहीं, उससे डरने
का कोई कारण
नहीं है। कोई
नहीं कह सकता
कि मौत बुरी
है। क्योंकि
जिससे हम
परिचित नहीं
हैं, उसको
बुरा कैसे
कहें? कोई
नहीं कह सकता
है कि मौत दुख
देती है, क्योंकि
जिससे हम
परिचित नहीं
हैं, उसे
हम दुख देने
वाली कैसे
कहें! अपरिचित
के संबंध में
कोई भी निर्णय
तो कैसे लिया
जा सकता है!
नहीं; लेकिन मौत
से हम नहीं
डरते। डरने का
कारण बहुत और
है। वह डर यह
है कि हमने
जिंदगी सदा कल
पर टाली। जीए
आज नहीं; कहा,
कल जी
लेंगे। आज तो
झेल लो दुख।
कल सुख आएगा; सब ठीक हो
जाएगा। आज है
अंधेरा, कल
सूरज
निकलेगा। आज
हैं कांटे, कल फूल
खिलेंगे। आज
घृणा और क्रोध
है जिंदगी में,
तो कल प्रेम
की वर्षा
होगी। लेकिन
मौत एक ऐसी घड़ी
ला देती है कि
कल का सिलसिला
टूट जाता है; आज ही हाथ
में रह जाता
है। तब हम तड़फड़ाते
हैं। तब हम घबड़ाते
हैं। मौत का
डर आज के साथ
जीने का डर है,
और आज हम
कभी जीए नहीं।
निष्काम
कर्म की धारणा
कहती है कि कल पर
जो जीवन को
टाल रहा है
अर्थात फल की
आकांक्षा में
जो जी रहा है, वह पागल है।
कल कभी आता
नहीं। जो है, आज है, अभी
है। अभी को
जीने की कला
चाहिए। अभी को
जीने की
क्षमता
चाहिए। अभी को
जीने की
कुशलता चाहिए।
कृष्ण
तो उसी को योग
कहते हैं--आज
और अभी, हिअर एंड नाउ,
इसी क्षण
जीने की जो
क्षमता
है--वही।
लेकिन जिसे इस
क्षण जीना है,
उसे फल की
दृष्टि छोड़
देनी चाहिए।
इस क्षण तो कर्म
है। फल? फल
सदा भविष्य
में है, कर्म
सदा वर्तमान
में है। करना
अभी है, होना
कल है। किया
अभी जाएगा, फल कल होगा।
फल कभी
वर्तमान में
नहीं है।
फल को
छोड़ दें।
लेकिन फल को
हम तभी छोड़
सकते हैं, जब फल
विषाक्त
सिद्ध हो। फल
अगर अमृत का
मालूम पड़े, तो छोड़ नहीं
सकते हैं। और
फल अमृत का
मालूम पड़ता
है। यद्यपि
किसी को अमृत
का फल कभी
मिलता नहीं।
धोखा सिद्ध
होता है।
लेकिन मालूम
पड़ता है। इस
प्रतीति से
कैसे छुटकारा
हो सके?
इस
प्रतीति से
छुटकारे का एक
ही मार्ग है
कि अपने अतीत
में जितने
फलों की
आकांक्षा
आपने की है, उन्हें फिर
से
पुनर्विचार
कर लें। वे
मिल गए आपको।
जो पत्नी चाही
थी, वह मिल
गई; जो पति
चाहा था, वह
मिल गया। जो
नौकरी चाही थी,
वह मिल गई; जो मकान
चाहा था, वह
मिल गया। ऐसा
आदमी तो खोजना
मुश्किल है, जिसे ऐसा
कुछ भी न मिला
हो, जो
उसने चाहा था;
कुछ न कुछ
तो मिल ही गया
होगा। उतना
अनुभव के लिए
काफी है।
लेकिन मिलकर
क्या मिला?
एक
मित्र हैं
मेरे। बड़े
उद्योगपति
हैं। स्वभावतः, जैसा होना
चाहिए, नींद
नहीं आती है
रात। मुझसे
आकर एक दिन
सुबह कहा कि न
मुझे
परमात्मा की
तलाश है, न
मुझे आत्मा से
प्रयोजन है, न मैं कोई
बड़ा मोक्ष और
स्वर्ग चाहता
हूं। मुझे
सिर्फ नींद आ
जाए, तो
मैं आपका
जीवनभर ऋणी
रहूंगा। बस
मुझे नींद का
सूत्र मिल
जाए। मैंने
कहा, सच!
नींद मिलने से
सब मिल जाएगा?
उन्होंने
कहा, सब
मिल जाएगा।
मेरा जीवन
बिलकुल ही
नारकीय हो गया
है। जो
उन्होंने कहा
था, वह पास
में पड़े टेप
पर मैंने
रिकार्ड कर
लिया था।
मैंने कहा कि
फिर दुबारा और
कुछ तो मांगने
नहीं आ जाइएगा?
उन्होंने
कहा कि कभी
नहीं। सिर्फ
धन्यवाद देने आऊंगा।
नींद भर आ
जाए।
उन्हें
ध्यान के कुछ
प्रयोग
करवाए।
पंद्रह दिन
बाद वे आए। कहने
लगे, नींद तो आ
गई, लेकिन
और कुछ नहीं
मिला! कहने
लगे, नींद
आ गई, लेकिन
और कुछ नहीं
मिला। मैंने
उनका जो टेप
किया हुआ था
वक्तव्य, उन्हें
सुनवाया।
कहा कि आप
कहते थे, नींद
मिल जाए, तो
सब कुछ मिल
जाए! अब आप
कहते हैं, नींद
मिल गई, और
कुछ नहीं
मिला।
धन्यवाद तो
दूर, आप तो
कुछ मेरा कसूर
बता रहे हैं!
मुझसे कोई गलती
हुई?
चौंके!
सुना अपना
वक्तव्य, तो चौंके। और
उन्होंने कहा
कि जब नींद
नहीं आती थी, तब ऐसा ही
लगता था कि
नींद मिल जाए,
तो सब मिल
जाए। और अब
ऐसा लगता है।
अब मैं क्या
करूं!
उन्होंने कहा,
इसमें
असत्य नहीं
है। तब ऐसा ही
लगता था कि नींद
मिल जाए, तो
सब मिल जाए।
और अब ऐसा ही
लगता है कि
नींद मिल गई, तो क्या मिल
गया! तो मैंने
कहा, अब
आपका क्या
खयाल है? अब
आप क्या चाहते
हैं? और
मैं आपसे
कहूंगा, अगर
वह भी मिल गया,
तो आप फिर यही
तो नहीं
कहेंगे?
परमात्मा
आसानी से
मिलता नहीं।
नहीं तो आप जाकर
उससे कहें कि
आप मिल गए, और तो कुछ
नहीं मिला! अब
क्या करें? वह आसानी से
मिलता नहीं, इसलिए यह
मौका आता
नहीं। इस
संसार में सब
चीजें मिल
जाती हैं, इसलिए
दिक्कत है।
असल
में जो भी फल
की आकांक्षा से
जी रहा है, उसे
परमात्मा भी
मिल जाए, तो
कुछ भी नहीं
मिलेगा, क्योंकि
फल की
आकांक्षा
भ्रांत
स्वप्न है। जो
फल की
आकांक्षा के
बिना जी रहा
है, उसे
कुछ भी न मिले,
तो भी सब
मिला हुआ है।
उसे नींद की
झपकी भी लग जाए,
तो परम आनंद
है। उसे रोटी
का एक टुकड़ा
भी मिल जाए, तो अमृत है।
परमात्मा तो
दूर।
परमात्मा मिल
जाए, तब तो
उसकी खुशी का,
उसके आनंद
का, उसके
अनुग्रह का
कोई ठिकाना ही
नहीं है। लेकिन
परमात्मा की
छोटी-सी कृपा
भी मिल जाए, तो भी उसका
अनुग्रह अनंत
है। और जो
आकांक्षा में
जी रहा है फल
की, उसे
परमात्मा भी
मिल जाए, तो
वह उदास खड़े
होकर यही
कहेगा कि ठीक
है; आप मिल
गए, लेकिन
कुछ मिला
नहीं!
फल की
आकांक्षा
खाली ही करती
है, भरती
नहीं। इसलिए
जिस समाज में
जितने फल मिल
जाएंगे, जितनी
आकांक्षाएं
तृप्त हो
जाएंगी, उतनी
एंप्टीनेस
पैदा हो
जाएगी। गरीब
मुल्क कभी भी
इतना खाली नहीं
होता, जितना
अमीर मुल्क
खाली हो जाता
है। गरीब आदमी
कभी भी इतना
मीनिंगलेस
अनुभव नहीं
करता, कि
अर्थहीन है
मेरी जिंदगी,
बेकार है।
रोज काम बना
रहता है। कल
कुछ पाने को
है। अमीर आदमी
को एकदम डिसइलूजनमेंट
होता है। एकदम
विभ्रम। सब
टूट जाता है।
जो चाहा था, सब मिल गया।
अब एकदम से
सारी चीज ठहर
गई होती है।
अब कहीं कोई गति
नहीं मालूम
होती है। कल, खतम हो गया।
अमीर आदमी--उस
आदमी को अमीर
कह रहा हूं, जिसे सब मिल
गया, जो
उसने चाहा
था--वह मरने पर
पहुंच गया। अब
उसके आगे मौत
के सिवाय कुछ
भी नहीं है।
इसलिए दुनिया
के जो यूटोपियंस
हैं, जो कल्पनावादी
हैं, जो
कहते हैं, जमीन
पर स्वर्ग ला
देना है, अगर
वे किसी दिन
सफल हो गए, तो
सारी
मनुष्यता
आत्महत्या कर
लेगी। उसके बाद
फिर जीने का
कोई कारण नहीं
रह जाएगा।
यह बड़े
मजे की बात है
कि गरीब और
भूखे आदमी की
जिंदगी में
थोड़ा अर्थ
मालूम पड़ता
है। और न्यूयार्क
में रहने वाला
जो अरबपति
है, उसकी
जिंदगी में
अर्थ नहीं
मालूम पड़ता।
आज अगर पश्चिम,
विशेषकर
अमेरिका के
दार्शनिकों
से पूछें, तो
वे कहते हैं, एक ही सवाल
है--मीनिंगलेसनेस,
एंप्टीनेस। एक ही सवाल
है कि जीवन
रिक्त क्यों
है? खाली
क्यों है? भरा
हुआ क्यों
नहीं है? गरीब
कौमों ने कभी
नहीं पूछा कि
जीवन रिक्त क्यों
है! क्योंकि आकांक्षाएं
जीवन को भरे
रहती हैं। फल
की इच्छा भरे
रहती है।
अमीर
कौमों की
इच्छाएं
करीब-करीब
पूरी होने के
आ जाती हैं।
जो भी मिल
सकता है, वह
मिल गया।
अच्छी से
अच्छी कार
दरवाजे पर खड़ी
है। अच्छा से
अच्छा मकान
पीछे खड़ा है।
तिजोरी में
जितनी संपत्ति
चाहिए, उससे
ज्यादा भरी
है। जो भी मिल
सकता है, वह
है। अब सब मिल
गया, और
लगता है, कुछ
भी नहीं मिला।
निष्काम
कर्म उस
व्यक्ति को
उपलब्ध होता
है, जो
फलाकांक्षा
की इस
व्यर्थता को
अनुभव कर लेता
है कि पाकर भी
फल कुछ पाया
नहीं जाता है।
फल को पा लेना
भी निष्फलता है,
ऐसी जिसकी
प्रतीति और
समझ गहरी हो
जाए, वह
कर्म से नहीं
भागेगा, कृष्ण
कहते हैं, वह
कर्म करता
रहेगा। लेकिन
तब कर्म उसे
अभिनय से
ज्यादा नहीं
होगा।
कृष्ण
कहते हैं, दूसरा मार्ग
अर्जुन, सरल
है।
इसमें
एक बात आपसे
कहना चाहूंगा
कि यह कृष्ण
अर्जुन से
कहते हैं कि दूसरा
मार्ग सरल है।
यह विशेष रूप
से अर्जुन से
कही गई बात
है। यह जरूरी
नहीं है कि
सबके लिए दूसरा
मार्ग सरल हो।
किसी के लिए
पहला मार्ग भी
सरल हो सकता
है। इसलिए कोई
इस खयाल में न
पड़े कि यह बात
सामान्य है।
यह अर्जुन के
लिए एड्रेस्ड
है। अर्जुन के
ढंग के जो
व्यक्ति हैं, उनके लिए
दूसरा मार्ग
सरल है। यह भी
खयाल में ले
लें। क्योंकि
यह जो चर्चा
है, अर्जुन
से सीधी है।
यह सबसे नहीं
है। सबसे कोई
चर्चा होनी भी
बहुत कठिन है।
किसी
के लिए पहला
मार्ग भी सरल
हो सकता है।
किस के लिए होगा? उस व्यक्ति
के लिए पहला
मार्ग सरल
होगा, जिसके
जीवन का
प्रशिक्षण
कर्म का न हो, जिसके जीवन
का प्रशिक्षण
स्वप्न का हो।
जैसे एक कवि।
एक कवि का
सारा शिक्षण
जो है जीवन की
व्यवस्था का,
वह स्वप्न
का है।
एक
चित्रकार।
उसके जीवन की
जो सारी
व्यवस्था है, उसका जो प्रशिक्षण
है, वह
जैसे बड़ा हुआ
है, वह
स्वप्न का है।
असल में जो
जितना बड़ा
स्वप्न देख
सके, उतना
ही बड़ा
चित्रकार हो
सकता है। जो
जितना सपने
में डूब सके, उतना बड़ा
कवि हो सकता
है।
एक
संगीतज्ञ। वह
ध्वनि में
स्वप्नों को तैरा रहा
है। वह ध्वनि
के माध्यम से
सपनों को रूपांतरित
कर रहा है।
उसकी सारी
साधना स्वप्न
को ध्वनि में
रूपांतरित
करने की है।
वह सपने हवा में
तैरा रहा
है; हवा में
उड़ा रहा है, सपनों को
पंख दे रहा
है।
अगर
कृष्ण ने यह
बात एक कवि से, एक संगीतज्ञ
से, एक
चित्रकार से
कही होती, तो
कृष्ण यह कभी
नहीं कहते कि
दूसरा मार्ग
सरल है। पहला
मार्ग सरल
होता।
एक
संगीतज्ञ को
यह समझना सदा
आसान है कि
कर्म पानी पर
खींची गई
रेखाओं से खो
जाते हैं।
कितनी मेहनत
से सितार पर जिंदगीभर
वह श्रम करता
है! लहूलुहान
हो जाती हैं अंगुलियां।
पत्थर हो जाते
हैं हाथ।
दिन-रात मेहनत
करके जब वह
संगीत पैदा कर
पाता है, तो
क्षणभर भी तो
नहीं टिकता।
सारा
श्रम--संगीत--हवा
में गया, और
गया, और खो
गया। इधर पैदा
नहीं हुआ, वहां
लीन हो गया।
तानसेन
जैसे व्यक्ति
को जिंदगीभर
की साधना के
बाद अगर कृष्ण
यह बात कहें
कि दूसरा
मार्ग सरल है
तानसेन!
तानसेन की समझ
में नहीं पड़ेगा।
पहला मार्ग
तत्काल समझ
में पड़ जाएगा।
जिंदगीभर
जो की थी
मेहनत, जो
श्रम, वह
कहां है? पानी
पर भी लकीर
देर से मिटती
है, संगीत
का स्वर तो और
भी जल्दी खो
जाता है!
गाए
गीत!
रवींद्रनाथ
से कोई कहे कि
दूसरा मार्ग
सरल है, तो
मुश्किल
पड़ेगा समझना।
रवींद्रनाथ
को पहली बात
समझ में आ
सकती है, कि
सब गाए गीत
हवा में खो
गए। कहीं कुछ
बचा नहीं। सब
खो जाता है।
लेकिन
अर्जुन से बात
बिलकुल ठीक
है। अर्जुन के
व्यक्तित्व
के बिलकुल
अनुकूल है।
अर्जुन की
सारी
व्यवस्था
जीवन की कर्म
की है, स्वप्न
की नहीं। और
उसका कर्म ऐसा
है, अगर वह
किसी की छाती
में छुरा भोंक
दे, तो
कर्म डेफिनिट
हो जाता है; संगीत की
तरह खो नहीं
जाता। वह
मुर्दा लाश
सामने पड़ी रह
जाती है; और
वह छुरा सदा
के लिए डेफिनिट
हो जाता है।
वह कृत्य
स्थिर मालूम
होता है। हालांकि
जो और गहरा
जानते हैं, वे कहते हैं,
वहां भी कोई
भेद नहीं है।
लेकिन वह बहुत
गहरे देखने की
बात है।
अर्जुन
की जो शिक्षा
है, उस
शिक्षा में
कर्म जो है, वह बहुत
कठोर और ठोस
है। उसकी
हिंसा की
शिक्षा है। वह
क्षत्रिय है।
वह सैनिक है।
वह मारना और
मरना ही जानता
है। यह किसी
की गर्दन काट
देना, सितार
पर तार छेड़
देने जैसा
नहीं है--साधारणतः।
अंततः तो ऐसा
ही है। अंततः
तो सितार का
तार टूट जाए, कि आदमी की
गर्दन टूट जाए,
अंततः अल्टिमेटली
कोई फर्क नहीं
है। पर इमीजिएटली,
अभी तो बहुत
फर्क है।
अर्जुन
की जो जीवन की
सारी की सारी
बनावट है, वह कर्म की
है, स्वप्न
की नहीं है।
सपने उसने कभी
नहीं देखे; उसने कृत्य
किए हैं। उसने
कविताएं नहीं
लिखी हैं; उसने
हत्याएं
की हैं। उसने
तार पर संगीत
नहीं उठाया; उसने तो
धनुष पर बाण
खींचे हैं।
कर्मठ होना उसकी
नियति है, उसकी
डेस्टिनी है।
इसलिए
कृष्ण उससे
कहते हैं, अर्जुन!
मार्ग तो
दोनों ही ठीक
हैं, फिर
भी दूसरा सरल
है। यह अर्जुन
से कही जा रही
है बात कि दूसरा
सरल है।
इसलिए
जब भी गीता को
पढ़ें, तो
सदा यह देख
लें कि आप
अर्जुन के ढंग
के आदमी हैं, तो यह बात
ठीक है। अगर
अर्जुन से
विपरीत आदमी हैं,
तो उलटा कर
लें सूत्र
को--पहली बात
सरल है। और दो
ही तरह के लोग
हैं जगत में, स्वप्न में
जीने वाले, और कर्म में
जीने वाले।
भीतर, इंट्रोवर्ट,
अंतर्मुखी;
और एक्सट्रोवर्ट,
बहिर्मुखी।
अर्जुन
बहिर्मुखी
है। बाहर जी
रहा है।
एक कवि
का जीवन भीतरी
होता है। बाहर
तो कभी-कभी
कुछ बुदबुदे
आ जाते हैं।
असली जीवन तो
भीतर होता है।
कभी कुछ बाहर
फूट जाता है, प्रासांगिक--अनिवार्य
नहीं है। अधिक
कविताएं तो
भीतर ही उठती
हैं और खो
जाती हैं। लाख
कविताएं पैदा
होती हैं
रवींद्रनाथ
जैसे व्यक्ति
में, तो एक
प्रकट हो पाती
है। वह भी
अधूरी, पंगु।
वह भी कभी
पूरी प्रकट
नहीं हो पाती।
उससे भी
रवींद्रनाथ
कभी तृप्त
नहीं होते।
अंतर्मुखी
आदमी के जीवन
की धारा भीतर
घूमती है; बाहर कर्म
के जगत में
उसके बहुत कम
स्पर्श होते
हैं।
बहिर्मुखी
व्यक्ति की
जीवन-धारा
भीतर होती ही
नहीं; उसके
जीवन की सारी
धारा बाहर
घूमती है--अंतर्संबंधों
में, संघर्षों
में। बाहर के
जगत में उसकी
छाप होती है।
पानी पर नहीं,
वह पत्थर पर
लकीरें
खींचता मालूम
पड़ता है। हालांकि
लंबे अर्से
में पत्थर भी
पानी हो जाते
हैं। लेकिन
प्राथमिक, आज,
अभी, पत्थर
पर खींची गई
लकीर ठहरी हुई
मालूम पड़ती है।
इसलिए
इस शर्त को
समझ लेना आप।
कृष्ण का यह
वक्तव्य कंडीशनल
है, शर्त के
साथ है; अर्जुन
को दिया गया
है। इसलिए
उन्होंने
दोनों बातें
कह दी हैं।
दोनों मार्ग
से पहुंच जाते
हैं अर्जुन!
कर्म-संन्यास
से भी--सब
कर्मों को छोड़कर
जो निर्जरा को
उपलब्ध हो
जाता है, जैसे
कोई महावीर।
सब कर्म
छोड़कर! या
निष्काम कर्म
से--जैसे कोई
जनक, सब
कर्मों को
करते हुए।
लेकिन दूसरा
मार्ग सरल है,
सुगम है। यह
अर्जुन को
दृष्टि में
रखकर दिया गया
वक्तव्य है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, आप
इस बात पर जोर
देते हैं कि
आजकल के
संन्यासियों
को सक्रिय व सकर्म
संन्यास में
ही जीना चाहिए
और आप
कर्म-संन्यास
को समाज के
लिए हानिप्रद
बताते हैं। समाज
को ध्यान में
रखते हुए, कर्म-संन्यास
और निष्काम
कर्म पर कुछ
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
जैसा
मैंने कहा, व्यक्ति
होते हैं
अंतर्मुखी, बहिर्मुखी;
वे जो भीतर
जीते हैं, और
वे जो बाहर
जीते हैं।
जैसे व्यक्ति
अंतर्मुखी और
बहिर्मुखी
होते हैं, ऐसे
ही युग भी
अंतर्मुखी और
बहिर्मुखी
होते हैं।
हमारा युग बहिर्मुखी
युग है, एक्सट्रोवर्ट एज! उपनिषद
के ऋषियों का
युग
अंतर्मुखी
युग है, इंट्रोवर्ट एज।
मैंने
कहा, जैसे
व्यक्तियों
में भेद होता
है, ऐसे
युगों में भी
भेद होता है।
युग के भेद का
मतलब यह है कि
अंतर्मुखी
युग में ऐसा नहीं
कि बहिर्मुखी
लोग नहीं
होते।
अंतर्मुखी युग
में भी
बहिर्मुखी
लोग होते हैं,
लेकिन
न्यून, प्रभावहीन।
प्रभाव
अंतर्मुखी
लोगों का होता
है। शिखर पर
वे ही होते
हैं।
बहिर्मुखी
युग में भी
अंतर्मुखी
लोग होते हैं,
लेकिन
न्यून और
प्रभावहीन।
शिखर पर
बहिर्मुखी
लोग होते हैं।
सोचें।
उपनिषद के युग
में लौटें एक
क्षण को। तो
गांव के
भिखारी
ब्राह्मण के
चरण भी सम्राट
छूता। क्यों? अंतर्मुखी
शिखर पर था।
सम्राट से
ज्यादा बहिर्मुखी
और कौन होगा? लेकिन गांव
के भिखारी
ब्राह्मण के
चरण में भी सम्राट
को सिर रखना
पड़ता। शिखर
पर! वह जो जीवन
की लहर थी उस
समय, अंतर्मुखी
को शिखर पर
लिए थी। नहीं
था कुछ उसके
पास, जिसकी
बाहर से गणना
की जा सके। न
धन था, जो
बाहर से गिना
जा सके। न पद
था, जो
बाहर से समझा
जा सके। न
पदवी थी, जिसका
बाहर से हिसाब
बैठ सके। कोई कैलकुलेशन
बाहर से नहीं
हो सकता था, लेकिन भीतर
कुछ था। और
भीतर का मूल्य
था। तो भिखारी
के पैर में भी
सम्राट को बैठ
जाना पड़ता।
सम्राट थे; नहीं थे, ऐसा
नहीं। धनपति
थे; नहीं
थे, ऐसा
नहीं। बाहर के
जगत में
सक्रिय लोग थे;
नहीं थे, ऐसा नहीं।
लेकिन
अंतर्मुखी
प्रमुख था; प्राधान्य
था। उसके
चरणों में ही
सब झुक जाता।
वह शिखर पर
था।
आज
हालत बिलकुल
उलटी है। आज
हालत, बिलकुल
उलटी है; आज
देश का साधु
भी हो, तो
दिल्ली के
चक्कर लगाता
है! अगर आज
साधु को भी
प्रतिष्ठा
पानी है, तो
किसी मंत्री
से सत्संग
साधना पड़ता
है! मंत्री
प्रतिष्ठित
नहीं होते
साधुओं से अब;
अब साधु
मंत्रियों से
प्रतिष्ठित
होते हैं!
सब
साधुओं के शिष्यगण
मंत्रियों का
चक्कर लगाते
हैं कि हमारे साधुजी के
पास चलें। कोई
मंत्री जाता
नहीं; लाए
जाते हैं। चेष्टाएं
की जाती हैं।
किसी तरह साधु
के पास में बिठाकर
मंत्री की
तस्वीर उतरवा
लें, तो
भारी कृत्य हो
जाता है! ऐसा
नहीं कि साधु
की, कीमत
वह मंत्री की
ही है। धर्म
की सभा का भी
उदघाटन हो, तो राजनेता
चाहिए!
बहिर्मुखी
युग है। जो
बाहर से आंकी
जा सकती है
प्रतिष्ठा, उसकी ही
कीमत है। भीतर
का कोई मूल्य
नहीं। कवि भी
आदृत होगा, ज्ञानी भी
आदृत होगा, तो वह बाहर
से आंका जा
सके, अन्यथा
नहीं आदृत हो
सकेगा। ऐसा
नहीं है कि
अंतर्मुखी लोग
नहीं हैं, लेकिन
अंतर्मुखी
प्रभाव की
धारा पर नहीं
है। युग
बहिर्मुखी
है।
युग भी
रूपांतरित
होते हैं।
जीवन में सब
चीजें बदलती
रहती हैं। हर
चीज ऋतु के
अनुसार बदलती
रहती है। हर
अंतर्मुखी
युग के बाद
बहिर्मुखी युग
होता है।
बहिर्मुखी के
बाद
अंतर्मुखी
युग होता है।
मैं
जानकर जोर
देता हूं कि
इस युग को ऐसे
संन्यासी की
जरूरत है, जो
कर्म-संन्यास
में नहीं, बल्कि
निष्काम कर्म
में आस्थावान
हो।
आज के
युग को ऐसे
संन्यासी की
जरूरत है, जो जीवन की प्रगाढ़
धारा के बीच
खड़ा हो जाए।
जो जीवन को
छोड़कर न हटे, न भागे।
इसका यह मतलब
नहीं है कि जो
अंतर्मुखी
हैं, उनको
भी मैं खींचकर
कहूंगा कि वे
भी जीवन की धारा
में खड़े हो
जाएं। नहीं; पर वे न के
बराबर हैं।
उन्हें
खींचकर खड़ा
करने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। वे भी
पहुंच सकते हैं
अपने मार्ग
से। लेकिन
उनके मार्ग से
युग नहीं
पहुंच सकता
है। वे पहुंच
जाएंगे अपने
मार्ग से
प्रभु तक। वे
जाएं अपनी यात्रा
पर। लेकिन यह
जो विराट आज
का युग है, यह
जो बाहर
संलग्न, इस
बाहर संलग्न
युग की धारा
को अगर
धार्मिक बनाना
हो, तो
धर्म को
अंतर्मुखी
सीमाओं को तोड़कर
कर्म के
बहिर्मुखी जाल
में पूरी तरह
छा जाना होगा।
अगर हम
कर्मठ
संन्यासी
पैदा कर सकें, तो ही इस युग
को प्रभावित
करेगा। अगर हम
ऐसा संन्यासी
पैदा कर सकें
जिसका चिंतन,
जिसका मनन
और जिसका आचरण,
जिसका
समस्त जीवन
कर्म के जगत
को भी
रूपांतरित
करता हो, ट्रांसफार्म
करता हो; जो
आंतरिक क्रांति
से ही नहीं
गुजरता हो, जो बाहर
जीवन को भी
क्रांति का उदघोष
करता हो, तो
हम इस युग को
धार्मिक बना
पाएंगे।
अन्यथा धर्म
सिकुड़ जाएगा
कुछ
अंतर्मुखी
लोगों की गुफाओं
में; और ये
बहिर्मुखी
लोग अधर्म की
तरफ बढ़ते चले
जाएंगे।
इन
बहिर्मुखी
लोगों के लिए
बहिर्मुखी संन्यास।
और ऐसा नहीं
कि बहिर्मुखी
संन्यास से
पहुंचा नहीं
जा सकता है।
बिलकुल
पहुंचा जा सकता
है।
कृष्ण
ने अर्जुन से
जो कहा, वैसी
बात आज पूरे
युग से कही जा
सकती है, अधिक
लोगों से कही
जा सकती है।
लेकिन फिर भी,
जिनकी
यात्रा
अंतर्मुखता
की है, उन्हें
कोई कारण नहीं
है कि वे
खींचकर कर्म
के जगत और जाल
में आएं। उन्हें
उनकी नियति से
हटाने का कोई
भी प्रयोजन नहीं
है।
लेकिन
यदि हम सोचते
हों कि
अंतर्मुखता
ही धर्म है, इंट्रोवर्शन ही धर्म है, और कर्म
त्याग करके ही
कोई संन्यासी
हो सकता है, तो हम इस जगत
को धार्मिक
बनाने में सफल
न हो पाएंगे।
और
ध्यान रहे, अगर यह
हमारी पृथ्वी
अधार्मिक रह
गई, यह
हमारा युग
अधार्मिक से
अधार्मिक
होता चला गया,
तो इसका
जिम्मा
अधार्मिक
लोगों पर नहीं
होगा, बल्कि
उन धार्मिक
लोगों पर होगा,
जिन्होंने
इस युग के
योग्य धर्म की
अवतारणा नहीं
की; जो इस
युग के योग्य
धर्म को
अवतरित नहीं
कर पाए; जो
इस युग के
प्राणों को
स्पर्श कर सके,
ऐसे धर्म का
उदघोष न
दे सके; जो
ऐसा संदेश और
मैसेज न दे
सके, जो इस
युग की भाषा
और इस युग के
प्राणों को
स्पंदित कर
दे।
इसलिए
मैं जोर देता
हूं कि अब
संन्यासी निष्कामकर्मी
हो। यह जोर
मेरा वैसा ही
है, जैसा
कृष्ण का जोर
था, कंडीशनल है। यह जोर
वैसा ही है, जैसा कृष्ण
का जोर था
अर्जुन से कि
दूसरा मार्ग
तेरे लिए सुगम
है। पहले
मार्ग से भी
पहुंचा जा
सकता है। ठीक
ऐसे ही मैं
कहता हूं, इस
युग के लिए, बीसवीं सदी
के लिए
निष्काम कर्म
ही सुगम है, सरल है, मंगलदायी है। पहले
मार्ग से भी
पहुंचा जा
सकता है, लेकिन
अब वह मार्ग इंडिविजुअल
होगा। अब
उसमें
इक्के-दुक्के
लोग जा
सकेंगे। राजपथ
अब उसका नहीं
होगा; अब
पगडंडी होगी।
अब राजपथ पर
तो
बहिर्मुखता का
संन्यास ही
गति कर सकता
है।
और
बहिर्मुखी
संन्यास में
और अंतर्मुखी
संन्यास में
रूप का ही भेद
है, अंतिम
मंजिल का कोई
भी नहीं। शरीर
का भेद है, आत्मा
का कोई भी
नहीं। आकार का
भेद है, निराकार
निष्पत्ति
में कोई भी
अंतर नहीं है।
युग के अनुकूल,
युगधर्म!
संन्यासी
अब करीब-करीब
जंगल, पहाड़
और गुफा में
उपयोगी नहीं
है। अगर पहाड़,
गुफा और जंगल
संन्यासी जाए
भी, तो
सिर्फ इसीलिए
कि वहां से
तैयार होकर
उसे लौट आना
है यहीं बाजार
में, क्योंकि
अब जीवन की
विराट धारा
जंगल और पहाड़
पर नहीं है।
और वे
युग गए, जब
अंतर्मुखता
का आदर था। तो
बाजार में जो
बैठा था, उसकी
भी आंख जंगल
की तरफ थी।
बैठता था
बाजार में, इरादे उसके
भी जंगल जाने
के थे। और
नहीं जा पाता
था, तो
पीड़ित अनुभव
करता था। और
कभी-कभार जब
मौका पाता था,
तो किसी
जंगल के वासी
के पास चरणों
में जाकर, सिर
रखकर
सांत्वना ले
आता था। अब
हालत उलटी है।
अब वहां कोई
नहीं जाएगा।
वह कट गया
रास्ता।
जैसे, मैं अभी एक गांव
में ठहरा हुआ
था। इंदौर के
पास एक जगह है,
मांडू। मैं हैरान
हुआ। मैंने
इतिहास की
किताबों में
पढ़ा था कि मांडू
की आबादी कभी
नौ लाख थी।
ज्यादा दिन
पहले नहीं, सात सौ साल
पहले। मांडू
पहुंचा, तो
बस स्टैंड पर
जो तख्ती लगी
थी, उस पर
लिखा था, नौ
सौ सत्ताइस
आबादी। सात सौ
साल पहले नौ
लाख की आबादी
की बस्ती सात
सौ साल के
भीतर नौ सौ सत्ताइस
की आबादी रह
गई! नौ सौ! क्या
हुआ इस मांडू
को? जहां
कभी नौ लाख
लोग रहते थे, उस जमाने के
बड़े से बड़े
महानगरों में
एक था। उस
गांव की
मस्जिद जाकर
मैंने देखी, तो मस्जिद
में दस हजार
लोग एक साथ
नमाज पढ़ सकें,
इतनी बड़ी
मस्जिद थी।
धर्मशाला
जाकर देखी, तो दस हजार
लोग इकट्ठे
ठहर सकें, इतनी-इतनी
बड़ी धर्मशालाएं
हैं। सब
खंडहर! नौ लाख
लोगों के
खंडहर! नौ सौ
आदमी रहते हैं
अब। हो क्या
गया!
मैंने
पूछा कि बात
क्या हो गई!
इतना एकदम से
परिवर्तन
कैसे हुआ? पता चला कि
आवागमन के
मार्ग बदल गए!
सात सौ साल
पहले जब ऊंट
ही आवागमन का
बुनियादी
साधन था, तो
मांडू
अड्डा था ऊंटों
के गुजरने का।
फिर ऊंट ही खो
गए, वह
मार्ग ही बदल
गया। अब मांडू
से कोई यात्री
ही नहीं
गुजरते, तो
मांडू
में जो बसे थे
बाजार, वे उजड़ गए!
बाजार उजड़
गए, तो मस्जिदें
और मंदिर उजड़
गए।
धर्मशालाओं
में कौन
ठहरेगा! वह सब
समाप्त हो
गया।
नौ लाख
की आबादी
तिरोहित हो गई
स्वप्न की तरह, क्योंकि पास
से जो जत्थे
गुजरते थे
व्यापारियों
के, उन्होंने
कहीं और से
गुजरना शुरू
कर दिया। उन्होंने
नए वाहन चुन
लिए।
पुरानी
दुनिया के
सारे बड़े नगर
नदियों के
किनारे बसे
हैं, क्योंकि नदियां
जीवन का साधन
थीं। उतने
पानी के बिना
बड़े नगर नहीं
बस सकते थे।
अब नया कोई
नगर नदी के
किनारे बसे, न बसे, कोई
भेद नहीं
पड़ता। आज के
जमाने के सारे
बड़े नगर
समुद्रों के
किनारे बसे
हैं। बहुत दिन
तक बसे रहेंगे,
इस भ्रम में
रहने की कोई
जरूरत नहीं
है। कभी बंबई
भी मांडू
हो जाएगी। वह
तो जैसे ही कम्युनिकेशन
के साधन बदले
कि सब बदल
जाता है।
यह
मैंने इसलिए
कहा कि जिस
तरह ये बाहर
के यात्रा-पथ
हैं, ऐसे ही
अंतर के चेतना
के भी
यात्रा-पथ
हैं। उपनिषद
के जमाने में
अंतर्मुखी
व्यक्ति के
पास से अधिक
लोगों को
गुजरने का
मौका था। आज
अंतर्मुखी के
पास से अधिक
लोग नहीं गुजरेंगे।
पगडंडियां रह
गईं, कभी
कोई जाता है।
अब तो
बहिर्मुखी के
पास से अधिक
लोग
गुजरेंगे।
यात्रा-पथ बदल
गया है।
विज्ञान
ने, समृद्धि
ने, संख्या
ने, सभ्यता
ने सब दिशाओं
से बहिर्मुखता
को इतना प्रबल
कर दिया है कि
धर्म अगर
अंतर्मुखी
होने की जिद्द
करे, तो वह जिद्द
महंगी पड़ेगी।
वह जिद्द
महंगी पड़ रही
है। इसलिए जो
धर्म
अंतर्मुखी होने
का ध्यान रखे
हुए हैं, वे
पिछड़ गए।
खयाल
करें, हिंदू
धर्म पृथ्वी
पर पुराने से
पुराना धर्म है।
कहें कि जिसका
पीछे कोई छोर
नहीं मिलता; सनातन है।
लेकिन पिछड़
गया। क्योंकि
हिंदू धर्म के
पास संन्यासी
अभी भी
अंतर्मुखी
हैं। क्रिश्चियनिटी
फैली सारे जगत
में। कोई और
कारण नहीं है।
क्रिश्चियनिटी
के पास जो
उपदेशक हैं, वे
बहिर्मुखी
हैं। और कोई
कारण नहीं है।
आज सिर्फ कैथोलिक
क्रिश्चियनिटी
के पास बारह
लाख संन्यासी
हैं। सारे जगत
में फैले हैं।
कुछ बुरा नहीं
है। क्रिश्चियनिटी
फैल जाए, उससे
कुछ हर्ज नहीं
है। कोई वहां
से पहुंचे, इससे कोई
अंतर नहीं
पड़ता। कोई
कहां से
पहुंचे, इससे
कोई भेद नहीं
है। मैंने
उदाहरण के लिए
कहा।
मैं यह
कह रहा हूं कि
अगर
अंतर्मुखी
धर्म अपने को
अंतर्मुखी
रखने की जिद्द
रखेंगे, तो सिकुड़ते
चले जाएंगे।
दुनिया वहां
से नहीं
गुजरती अब। दुनिया
जहां से
गुजरती है, धर्म को
वहां खड़ा होना
चाहिए। अब अगर
मांडू
में हम जाकर
तीर्थ बना
लेंगे, तो
ठीक है; बन
सकता है।
लेकिन मांडू
के तीर्थ से
अब ज्यादा लोग
नहीं
गुजरेंगे। अब मांडू की
मस्जिद में दस
हजार लोग नमाज
नहीं पढ़ सकते।
नौ सौ की
आबादी में दस
पढ़ लें, तो
बहुत।
अंतर्यात्रा
का जो पथ है
मनुष्य की
चेतना का, वह
बहिर्मुखी है
आज। सदा रहेगा,
ऐसा नहीं
है। सौ वर्ष
में स्थिति
बदल जाएगी। हमेशा
बदल जाती है। पीरियाडिकल
है। जैसे रात
के बाद दिन
आता है, दिन
के बाद रात
आती है, ऐसे
अंतर्मुखता
के बाद
बहिर्मुखता
आती है, बहिर्मुखता
के बाद
अंतर्मुखता
आती है।
लेकिन
ध्यान रहे, अभी पूरब को अंतर्मुख
होने में बहुत
समय लगेगा, क्योंकि अभी
पूरब पूरी तरह
बहिर्मुखी
नहीं हुआ। अभी
यहां दिन ही
नहीं हुआ, तो
रात कैसे होगी?
पश्चिम अब
जल्दी ही अंतर्मुख
हो जाएगा। अभी
पूरब को तो
बहिर्मुखता
में से गुजरना
पड़ेगा।
पश्चिम अंतर्मुख
हो जाएगा, क्योंकि
बहिर्मुखता
अपने पूरे
शिखर पर आ गई। और
हर चीज जब
अपने शिखर पर
आ जाती है, तो
लौटना शुरू हो
जाता है। जब
फल पक जाते
हैं, तो
गिर जाते हैं।
पकना मौत है।
पश्चिम
अंतर्मुखी
होगा, जल्दी।
लेकिन पूरब तो
अभी
बहिर्मुखी
होगा। और अभी
तो पश्चिम भी
बहिर्मुखी
है। अभी तो और
एकाध-दो कदम
वह अपने शिखर
पर उठा सकता
है।
इसलिए
मैं कहता हूं
कि नव-संन्यास
की मेरी जो
धारणा है, वह
बहिर्मुखी
संन्यास की है;
वह निष्काम
कर्म वाले
संन्यास की
है। इसका यह अर्थ
नहीं है कि जो
कर्म त्याग कर
संन्यास की तरफ
जाते हैं, मैं
उनके विरोध
में हूं। मेरी
उनके लिए
शुभकामना है।
लेकिन वे
पगडंडी पर हैं;
राजपथ आज
उनका नहीं है।
प्रश्न:
भगवान
श्री, आप
कहते हैं कि
इस युग के लिए निष्कामकर्मी
संन्यासी
अधिक उपयोगी
हैं। इस
संदर्भ में कृपया
यह बताएं कि निष्कामकर्मी
गृहस्थ और निष्कामकर्मी
संन्यासी में
क्या अंतर
होगा?
निष्कामकर्मी
गृहस्थ और निष्कामकर्मी
संन्यासी में
क्या अंतर
होगा? गहरे
में कोई अंतर
नहीं होगा।
ऊपर से अंतर
हो सकता है।
असल
में गृहस्थ और
संन्यासी का
जो अंतर है, वह
कर्म-संन्यास
वाला अंतर है।
गृहस्थ और संन्यासी
का जो भेद है, वह
कर्म-संन्यास
के मार्ग का
भेद है।
गृहस्थ उसको
कहता है
कर्म-संन्यासी,
जो कर्म में
उलझा हुआ है।
संन्यासी उसे
कहता है, जिसने
कर्म छोड़
दिया।
निष्कामकर्मी
संन्यासी के
लिए गृहस्थ और
संन्यासी में
गहरे में कोई
भेद नहीं है।
ऊपर से भेद हो
सकता है; गौण,
घोषणा का; इससे ज्यादा
नहीं। गृहस्थ
अगर पूर्ण
निष्काम से जी
रहा है, तो
संन्यासी
है--अघोषित।
उसने घोषणा
नहीं की है।
उसने जाहिर नहीं
किया है कि
मैं संन्यासी
हूं। वह
चुपचाप, मौन,
संन्यास
में जी रहा
है। उसका
संन्यास उसकी
निजी आंतरिक
धारणा है, सामाजिक
व्यवस्था
नहीं।
निष्कामकर्मी
संन्यासी
घोषणा करके जी
रहा है कि मैं
संन्यासी
हूं। उसकी
संन्यास की
व्यवस्था
भीतर तक, निज
तक सीमित नहीं
है। औरों तक
भी उसने खबर
कर दी है।
इससे ज्यादा
भेद नहीं है।
निष्काम कर्म
संन्यास में
गृहस्थ और
संन्यासी में
कोई भेद नहीं
है। हां, उस
गृहस्थ में तो
भेद है, जो सकामी है।
लेकिन निष्कामकर्मी
गृहस्थ में और
निष्कामकर्मी
संन्यासी में
कोई भेद नहीं
है; घोषणा
का भेद है।
एक
व्यक्ति ने
अपने पुराने
ही वस्त्र पहन
रखे हैं, अपना
नाम नहीं बदला
है, घोषणा
नहीं की है, जगत के
सामने डिक्लेरेशन
नहीं किया है
कि मैं
संन्यासी
हूं। लेकिन
निष्काम से जी
रहा है, तो
संन्यासी है।
लेकिन उसके
संन्यास का
लाभ उसके लिए
ही होगा।
घोषणा के बाद
उसका लाभ औरों
के लिए भी हो
सकता है।
घोषणा के बाद
उसका कमिटमेंट
भी है, जिसमें
वह अपने को
धोखा देना
कठिन पाएगा।
जिसने घोषणा
नहीं की है, वह अपने को
धोखा देना
आसान पाएगा।
एक
व्यक्ति ने
घोषणा कर दी
है बाजार में
खड़े होकर कि
अब मैं
संन्यासी
हूं। दुकान पर
बैठकर उसे
चोरी करने में
कठिनाई होगी। शराबखाने
के सामने खड़े
होने में झिझक
आएगी। उसका कमिटमेंट
है, उसका डिक्लेरेशन
है। लोग जानते
हैं, वह
संन्यासी है।
उसके गैरिक
वस्त्र हैं।
अभी
पूना में एक
मित्र
संन्यास लेने
आए। उन्होंने
कहा, मैं
संन्यास तो
लेना चाहता
हूं, लेकिन
मैं शराब की
दुकान पर शराब
बेचने का काम
करता हूं। तो
मैं संन्यास
ले लूं? गेरुए वस्त्र
पहनकर शराब बेचूंगा!
मैंने कहा, शराब पीते
तो नहीं हो? उसने कहा, शराब पीता
नहीं हूं।
मैंने कहा, तुम
बेफिक्री से
जाओ और ले लो।
क्योंकि असली
सवाल शराब
पीने का है।
उसने कहा, लेकिन
आप मुझे
मुश्किल में
डाल रहे हैं!
मैंने कहा, घोषणा करना
संन्यास की
मुश्किल में पड़ना है।
पर इतनी
मुश्किल
उठाने की
हिम्मत होनी
चाहिए।
दूसरे
दिन वह आया और
उसने कहा कि
मैंने नौकरी छोड़
दी है। इसलिए
नहीं; लेकिन
अब गैरिक
वस्त्र पहनकर
इन हाथों से
किसी को शराब
दूं, तो
जहर देना है।
यह
घोषणा का अंतर
है। वह भीतर
से संन्यासी
रह सकता था; कोई कठिनाई
न थी। शराब
बेच सकता था, कर्तव्य की
तरह, नौकरी
की तरह, कोई
प्रयोजन न था।
चुपचाप लौटकर
आ जाता, ध्यान
करता, प्रार्थना
करता, पूजा
करता, प्रभु
को स्मरण करता,
अपने भीतर
जीता रहता; शराब बेचता
रहता। लेकिन
तब समाज को
उससे फायदा न
हो पाता। उसकी
घोषणा उसका कमिटमेंट
है।
और एक
बड़े मजे की
बात है कि जब
तक हम विचार
को भीतर रखते
हैं, तब तक
विचार सदा
आकाश में होता
है। जब हम उसे
बाहर प्रकट कर
देते हैं, तो
उसकी जमीन में
जड़ें चली जाती
हैं। अगर आपने
संन्यास का
खयाल भीतर रखा,
तो वह हमेशा
हवाई होगा।
उसकी जड़ें
नहीं होंगी।
आपने घोषणा कर
दी; उसकी
जड़ें जमीन में
गड़ जाएंगी। और
हर चीज रोकने
लगेगी--हर चीज!
एक
आदमी बाजार
सामान खरीदने
जाता है, गांठ
लगा लेता है
कपड़े में। अब
गांठ से कहीं
सामान लाने का
कोई भी संबंध
है! लेकिन वह
गांठ उसे दिनभर
याद दिलाती
रहती है कि
गांठ लगी है, सामान ले
जाना है। वह
जब भी दिन में
गांठ दिखाई
पड़ती है, खयाल
आता है, सामान
ले जाना है।
मैंने
सुना है कि एक
संन्यासी को
एक बार एक दुकानदार
ने नौकरी पर
रख लिया।
संन्यासी से
उसने कहा भी
कि दुकान है, नौकरी पर
रहोगे, कहीं
ऐसा न हो कि
बिगड़ जाओ।
संन्यासी ने
कहा, बिगड़ने
का डर होता, तो नौकरी
स्वीकार न
करते। इतने
सस्ते में संन्यास
न खोते।
रहेंगे।
लेकिन ध्यान
रखना, मेरे
साथ आप भी
बिगड़ सकते हो।
वह सेठ हंसा; अपनी पूरी
चालाकी में
हंसा। उसने
कहा, फिक्र
छोड़ो। हम
काफी होशियार
हैं।
इस
दुनिया में
होशियार आदमी
से ज्यादा
नासमझ आदमी
खोजने
मुश्किल हैं।
बहुत होशियार!
संन्यासी
दुकान पर
बैठने लगा।
दिन में पच्चीस
दफे उस
व्यवसायी को
उसके गेरुए
वस्त्र दिखाई
पड़ते। पच्चीस
बार उसके मन
में होता, यह आनंद! पता
नहीं क्या!
क्या इसे मिला
है, पता
नहीं! जब भी
नजर जाती, उसे
वह खयाल आता। सालभर बीत
गया, तो
संन्यासी ने
कहा कि अब
अगले वर्ष
मेरा इरादा
तीर्थयात्रा
पर जाने का
है। आप भी
चलें! लालच
उसे भी लगा, कि चलो हर्ज
नहीं है, हो
आऊं। पर उस
व्यवसायी ने
कहा कि तैयारी
क्या करनी
होगी? उसने
कहा, कोई
ज्यादा
तैयारी नहीं
करनी होगी। जो
तैयारी करनी है,
मैं करवाता
रहूंगा।
सालभर
में वह
संन्यासी
परिचित हो गया
था सेठ की चालबाजियों
से, दुकानदारी
की बेईमानियों
से, धोखाधड़ियों से। जब भी
सेठ कुछ कम
चीज तौलने
लगता, तब
वह संन्यासी
कहता, राम!
तीर्थयात्रा
पर चलना है।
वह सेठ घबड़ा
जाता। यह बड़ा
मुश्किल हो
गया! वह कभी कुछ
ज्यादा दाम
किसी को बताने
लगता किसी चीज
का, और वह
कहता, ओम!
तीर्थयात्रा
पर चलना है।
वह तो घबड़ा
जाता।
सालभर
वह चोरी न कर
पाया। सालभर
वह बेईमानी न
कर पाया। जब
वे
तीर्थयात्रा
पर चलने लगे, तो उस
संन्यासी से
उसने कहा कि
लेकिन तीर्थ
तो पूरा हो
गया! मैं
पवित्र हो
गया। स्नान हो
गया। पर तूने
भी खूब किया!
तीर्थयात्रा
के बहाने सालभर
एक स्मृति का
तीर--तीर्थयात्रा
पर चलना है! और जब
तीर्थयात्रा
पर जाना है, तो चोरी तो
मत करो। चोरी
करोगे, तो
जाना बेकार
है। जाकर भी
क्या करोगे!
बाहर
की घोषणा आपके
ऊपर एक
रिमेंबरिंग
की गांठ बन
जाती है, एक
चुभता हुआ तीर
बन जाती है, जो छिदता
रहता है। और
जिंदगी बड़ी
छोटी-छोटी चीजों
से निर्मित
है। इसलिए
संन्यासी में
और गृहस्थ में,
जहां तक
निष्काम
कर्मयोग का
संबंध है, भीतर
से कोई भेद
नहीं, बाहर
से भेद है।
गृहस्थ
निष्कामकर्मी, अघोषित
संन्यासी है;
निष्कामकर्मी संन्यासी, घोषित
संन्यासी है।
उसने जगत के
सामने घोषणा कर
दी है। और
बहुत आश्चर्य
की बात है कि
बहुत बार
घोषणा करते ही
हम मजबूत हो
जाते हैं। सच
तो यह है कि
घोषणा करते ही
इसलिए नहीं, कि भीतर डर
लगता है, कि
कमजोर हैं।
करें, न
करें? घोषणा
करने के लिए
जो बल जुटाना
पड़ता है भीतर,
वही घोषणा
के साथ प्रकट
होते से और
गहरे बल में
ले जाता है।
और एक बार एक
बात की घोषणा
हो जाए, तो
हमारा एक कमिटमेंट,
हमारा
विचार कृत्य
बन गया। और इस
जगत में विचार
में धोखा देना
आसान, कृत्य
में धोखा देना
थोड़ा कठिन है।
बस, इतना
ही फर्क है।
अभी
पांच मिनट आप रुकेंगे।
पांच मिनट ये
जो हमारे
निष्काम
संन्यासी हैं, ये कीर्तन
करेंगे। पांच
मिनट आप बैठे
रहेंगे और
कीर्तन के बाद
हम विदा
होंगे। शेष कल
आपसे बात
करेंगे। पांच
मिनट बैठे
रहें। उनके
कीर्तन में आप
भी आनंद लें
और ताली
बजाएं।
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