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रविवार, 19 अक्टूबर 2025

24 - पोनी - एक कुत्‍ते की आत्‍म कथा -(मनसा-मोहनी)

पोनी – एक  कुत्‍ते  की  आत्‍म  कथा-(अध्याय - 24)

(मां से मिलन)

जैसे—जैसे मैं जवान और हष्‍ट-पुष्‍ट होता जा रहा था उसके कारण मेरा मन भी निडर और साहसी हो रहा था। मुझे अपनी ताकत और शरीर की चपलता पर बड़ा नाज हो गया था। या यूं कह सकते है। कि मुझे अपने जवानी पर बहुत घमंड हो गया था। मैं घर से निकल कर गलियों में साहस और बिना भय के निडर घूमता था। जब मैं इन गांव के कुत्‍तों को देखता तो मुझे बड़ा अचरज होता था। ये वैसे तो देखने में बहुत हष्ट-पुष्ट दिखाई देते है। परंतु इनकी गर्दन शरीर के बनावट के हिसाब से एक दम से पतली थी। इसलिए जब भी मैं लड़ता तो न तो ये मुझे पकड़ ही पाते थे। और मेरी पकड़ के सामने उनकी बोलती बंद हो जाती थी। मेरे जबड़े भी बहुत मजबूत थे। तब मैं यही सोचता था मेरी मां जंगली होने के कारण में इन सब से भिन्न हूं।

क्योंकि हमें तो जीने के लिए शिकार को पकड़ना उसे मारना होता था। उसे पकड़ कर दूर तक खिंच कर ले जाना होता है। अगर आपकी गर्दन कमजोर होगी तो आप उसे जबड़े से उठा कर चल नहीं सकेंगे। शायद यही कारण होगा जो मुझे मिला था जन्म जाता ही मिला था। इसमें मेरा कोई गुण गौरव तो नहीं था। परंतु मेरे पास था तो मैं इस उपयोग कर सकता था। अगर आपका शरीर कमजोर है तो जंगल में आप कैसे अपना पेट भर सकते थे। और ये गांव के मुस्टंडे कुछ भी नहीं कर सकते....गलियों में पड़े केवल भोंकना या अपने से कमजोर प्राणी को सताना ही इनका कार्य भर रह गया है। और दुनियां के केवल लात, घूस्‍से और दुतकार के साथ भोजन पाते है।

मेरी नस्ल कुत्‍तों से अधिक भेडीयों से मिलती—झूलती थी। भारत में हिमालय की तराई या गुजरात की पट्टी पर पाये जाने वाले भेड़िया लगभग मेरे ही जैसे होते है। उनका कद काठी कोई खास बड़ी नहीं होती। और रंग आकार में भी वह मिट्टी से मिलते झूलते होते है। एक छद्म रूप लिये ताकि प्रकृति में आसानी से धूल मिल सके। और मेरा घर भी इसी अरावली के जंगल में है जो गुजरात से होती हुई हिमालय तक चली जाती है।

एक बात मेरी समझ में नहीं आ रही थी। की जब दो साल पहले इस घर में आया था तो में सबसे छोटा और कमजोर प्राणी था। सब मुझसे बड़े ऊंचे और बड़े थे। परंतु ये सब मेरे साथ ही क्‍यों हो रहा था। बच्‍चे तो लगभग उतने ही रह गये और में इतनी जल्‍दी इतना बड़ा और ताकतवर कैसे हो गया। ये रहस्‍य सालों मेरा पीछा करता रहा। कि लम्‍बी आयु जीने वाले प्राणी की विकास गति भी मंद से मंदतर होती है। जब मुझे जीना ही दस—पंद्रह साल ही है तो मेरा बाल पन लड़कपन, युवा अवस्‍था...एक अनुपात में ही तो होगी। अब जब मैं बच्‍चों के साथ खेलता उन पर रह—रह कर अपनी हेकड़ी भी जमा देता था। और मैं देखता था वे मुझसे डरने भी लगे थे। या कभी डरा धमका कर उनके हाथ से कुछ छीन भी लेता था। और वह मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते थे। बस इनमें हिमांशु भैया कुछ शैतान है। वह सबसे छोटा जरूर है। परंतु निडर है...उसके हाथ में जो भी आये वह हमला बोल देता है। इस लिये मैं उससे थोड़ा झेंपता था। फिर भी यदा कदा मौका पा कर उन्हें भी अपनी ताकत का एहसास तो करा ही देता था।

एक बार की बात है। वरूण भैया नीचे टी. वी. देखते हुए जलेबी खा रहे थे। मम्‍मी शायद कुछ काम कर रही थी। उस समय वहां पर केवल मैं और वरूण भैया ही थे। भैया ने मुझे उस में से एक छोटा सा टुकड़ा तोड़ कर पहले ही दे दिया था। क्‍या गजब का मिठास था। मेरा मुख पूरा लार से सराबोर हो गया। लगा की इतनी स्‍वादिष्‍ट वस्‍तु मुझे और मिलनी चाहिए। मैंने एक दो बार वरूण भैया से मांगने के लिए चींचोरी भी की उसके शरीर पर उसके हाथ पर अपना पंजा भी दिया। परंतु शायद यह मेरे लिए ठीक नहीं थी। शायद मम्मी ने मना किया था की कुत्तों को अधिक मीठा देने से उन्हें खाज हो जाती है। वो बेचारा क्या करता उसने निक्कू को खाज की जिस अवस्था में देखा था वह डर गया होगा की कहीं मेरी भी वैसी हालत न हो जाए। इसलिए वह मुझे नहीं दे रहा था। परंतु मेरा मन तो बार—बार उस पदार्थ के कारण पागल हुआ जा रहा था। कि उसमें चमत्‍कारी मिठास और सुस्वाद समाया था।

मैं लगातार उसका मुख देख रहा था। परंतु मुझे अच्‍छा भी नहीं लग रहा था कि मुझे इतना कम और वरूण को इतना अधिक। मेरे मन में प्रतिशोध भर रहा था। धीर—धीरे एक—एक कर जलेबी वरूण भैया के पेट में जाये जा रही थी। मेरे मुख से लार टपक रही थी। जिससे वहां पर कुछ गिला भी हो गया था। परंतु न तो वहां कोई मुझे देख रहा था और न ही मेरी लार को। आखिर कार मेरे धैर्य का बाँध टूट गया। उस आखिरी जलेबी को जब भैया उठाने लगा तो मुझे लगा ये तो सब खत्‍म। और मैं इतने जोर से अपने चमकीले दाँत निकाल कर गुर्राया की वरूण भैया मेरे इस रूप को देख कर डर के मारे वहीं के वहीं जाम रह गये। हाथ जहां था उसे उसी तरह से रखा एक दम मूर्ति वत। न शोर मचाया और न ही खड़ा होकर भागा। बस डर के मारे उसका शरीर कांपने लगा।

शायद यह मेरा जंगली रूप था। जो इससे पहले इस परिवार के किसी सदस्‍य ने नहीं देखा था। और यह तो एक अबोध बालक और वह भी अकेला। वरूण का रोना सून कर पास ही काम कर रही मम्‍मी जी आ गई और मेरी इस कारस्‍तानी को देख कर कहने लगे। बूढ़े—ढांड़ होकर बच्‍चे को डरा रहा है। तुझे शर्म नहीं आई। और मुझे मेरी गलती का एहसास हुआ। मैं गर्दन नीची कर के एक आज्ञाकारी बच्‍चा बन के बैठ गया। और देखता क्‍या हूं एक नहीं दो जलेबी मेरे सामने रखी है। मुझे इस बात का अचरज हुआ। कि ऐसा क्यों.....क्या मेरा मांगने का तरीका गलत था हां शायद।

एक बार जलेबी को देखा और दूसरी बार ऊपर सर उठा कर मम्‍मी को देखा। और कान बौच कर उनका स्‍वाद लेने लगा। इस घटना से यह सबक मुझे मिला की इस तरह से मांगने का तरीका गलत है। जो मुझे खतरे में भी डाल सकता है। समय चलता रहा। और बाद में एक समय ऐसा आया की मेरा बढ़ना बंद हो गया। और बाकी परिवार के सब लोग लंबे चौड़े होते जा रहे थे। वरूण भैया के मूँछें निकल आई वह मुझे अपने कंधे पर बिठा कर आराम से भाग लेता था। ये एक छलते हुए समय की गति थी जो मैं कभी नहीं समझ सका।

जिस रात भी में घर से बाहर रहता उस पूरा दिन घोड़े बेच कर सोता था। श्‍याम को कहीं जाकर मेरी नींद खुलती थी। तब जाकर पेट में भूख का एहसास होता था। तब मेरा रूख मम्‍मी की तरफ होता था। और वह मुझे दूध और रोटी देती थी। फिर कभी—कभी वरूण भैया के साथ मस्‍ती हो जाती थी। परंतु उस घटना के वाद से वह कुछ डर गया था। अब वह मेरे ऊपर भरोसा नहीं करता था। मैं उसकी मिन्‍नत करता की चल खेलते है। परंतु वह केवल मुझे देखता रहता है। तब मुझे अपनी इस हरकत पर और भी पश्‍चाताप होता था। मैं बार—बार खेलने का सामान ला कर उसकी गोद में रखता था। और पंजों से उसे उत्‍साहित करता की चलो खेलते है। तब वह मरे मन से मेरे साथ खेलने को तैयार होता था।

लेकिन मैं इस बात को देख रहा था वह पहले की तरह घुल—मिल नहीं रहता था। जब मैं उससे बॉल या कुछ छिनता तो वह मुझ चुप से दे देता था। भला ये भी कोई खेल हुआ। खेल में तो घींगा मस्ती चाहिए। एक अपना पन जिसमें खेलने वाले दो नहीं रह कर एक हो जाए। नहीं तो पहले मेरी गर्दन पकड़ कर लटक जाता था। मेरे ऊपर बैठ कर मुझे घोड़ा बना लेता था। और मैं किस मजे से उसका वज़न उठा कर चल लेता था। तब मुझे अपने पर बड़ा गर्व होता की घोड़ा अपने आप को बहुत ताकत वर समझता है। मैं क्‍या कम हूं...तब मुझे अपने नाम की सार्थकता महसूस होती पोनी.....यानि घोड़े का बच्‍चा। पर अब मेरा वह दोस्‍त....मुझसे इतना मिल—झूलकर के नहीं खेलता। दोनों अलग—अलग ही रहते थे। दोस्‍त शब्‍द की तरह हम खेल में एक नहीं हो पाते थे। दोनों मिट नहीं पाते थे...अस्‍त नहीं हो पाते थे। इसलिए खेल में आनंद भी नहीं आता था। एक दूरी बनी ही रहती थी। जो खेल के नियम के खिलाफ है।

एक दिन पूरा परिवार एक साथ बैठा था, मुझे भी सब के बीच में बैठ कर बहुत अच्‍छा लगता था। जैसे जब सब लोग बैठ कर टी वी देखते तो मुझे बड़ा अजीब लगाता था। परंतु मैं भी जब उस और देखता तो ज्‍यादा देर देख नहीं पाता था। मेरी आंखें उस छवि को ठीक से पकड़ नहीं पाती थी। हां जब कोई जंगली जानवर या मेरी ही जाती का प्राणी टी वी में आता तो मेरी उत्सुकता जरूर बढ़ जाती थी। मैं उसे भागते हुए को देखता.....फिर कमरे में इधर उधर भी देखता की अभी वह भाग रहा था। तो उससे आगे भी उसे जरूर आना चाहिए। या जब कोई पक्षी बोलता तो मैं गर्दन टेढ़ी कर के उस ध्‍यान से सुनने की कोशिश करता। क्‍योंकि ये आवाज मैंने जंगल में सूनी थी।

तब सब लोग मुझे इस तरह से देखते देख कर सब को बड़ा अचरज होता था। सब लोगों को सोफे पर टाँग लटका कर बैठे देख कर मुझे हीनता होती की मैं क्‍यों नहीं ऐसे बैठ सकता। और फिर कितना दुःख पा कर मैं उन सब की तरह से बैठने की कोशिश करता। और मेरी इस बात पर सब लोग मुंह छुपा कर कैसे हंसते।

परंतु ये सब मेरी समझ में नहीं आता था कि वे क्‍यों हंस रहे है। बस मैं खुश होता और इसी तरह से आज पापा जी ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा की पोनी अब बड़ा हो गया। तब मैंने भी हां में पूंछ हिलाई जैसे की मैं सब जानता हूं। परंतु एक बात तो थी की कुछ नया करने का जोश मेरे अंदर हिलोरे मार रहा था।

आज श्‍याम के बाद से ही मेरा मन कुछ खिन्‍न था। श्‍याम के समय जब सब लोग खाना खा रहे थे। मैंने खाना भी नहीं खाया। आज अचानक न जाने क्या खाने के बिना ही सब भरा-भरा लग रहा था। अचानक अकारण ये क्या हो गया जिसका परोक्ष में कोई कारण नजर नहीं आ रहा था। मैं बार—बार छत पर जाकर बेचैनी को कम करने की कोशिश कर रहा था। लग रहा था ये घर आज मेरे लिए बहुत छोटा है, मैं इस में समा नहीं रहा हूं। परंतु भौतिक तोर से तो मेरे जैसे सौ कुत्‍ते भी इस में समा सकते थे। परंतु ये अंदर की बात थी। रात तक मैं इसी तरह से बेचैन रहा। पापा जी दुकान से आ गये।

उन्‍होंने मुझे जब नीचे नहीं पाया तो वह मुझे ढूंढते हुए ऊपर आये। उन्‍होंने मुझे इस तरह से बेचैन पहले कभी नहीं देखा था। वह मेरे पास बैठ गये। मेरे सर पर हाथ फेरा, मैंने अपनी आंखें बंद कर ली, जैसे पापा जी मेरी दूखती नस को सहला रहे थे। मैंने पापा जी का हाथ चाटा पाप जी समझ गये की में कुछ कहना चाहता था। असल में पापा जी जितना मुझे अंदर और बाहर से समझे थे इतना कोई नहीं समझता था। वह आंखों में देख कर ही मेरे अंदर तक झांक जाते थे।

इस तरह से प्‍यार से हाथ फेरने के बाद मुझे कुछ आराम मिला। जैसे आपने देखा होगा जब आपके कोई जख्‍म हो और उसके आस पास कोई मोर पंखी उंगली को स्पर्श करें उसके आस पास उसे धूमाए तो कितना आनंद आता है। पापा जी की छुअन मुझे सीतल किए जा रही थी। परंतु जब अंदर पीड़ा की एक आग सुलग रही हो तो क्‍या हम उसे ढक कर दबा सकते है। बस कुछ देर का भ्रम मात्र होता है। उस से धुआं अधिक फेल जाता है। इसी तरह से एक टीस और पीड़ा पापा जी के छूने में मेरे अंदर फैल कर बैचेन कर रही थी। जिस का कोई कारण नहीं था। न मैं जानता था और न ही मेरा शरीर ही। फिर ये प्रकृति को वो कौन सा रहस्‍य था।

कभी आप अचानक खुश हो जाते है, कभी आप उदास हो जाते है। मैं आंखें बंद कर लेटा रहा। पापा जी ने सोचा की मैं सो गया। और वह सोने चले गये। कितनी ही देर में इस अचेतन अवस्‍था में पड़ा रहा। हां तारे आसमान पर अधिक चमक रहे थे। शायद आज चाँद नहीं था। चारों और कालिमा थी और चमकते तारे कितने सुंदर लग रहे थे। इतनी देर में दूर गीदड़ों की हुंकार सुनाई दी, मुझे लगा की कोई मुझे पुकार रहा था। एक अंजाना सा खिंचाव मुझे खींचे जा रहा था। दूर कहीं रह—रह कर एक हुंकार उठती और उसके बाद गांव के कुत्तों का भोंकना। परंतु मुझे इस सब के बीच कोई और पुकार सुनाई दे रही थी। मैं अचानक उठा और इधर उधर देखने लगा। पूरा गांव सो रहा था। चारों और मौन सन्नाटा छाया हुआ। दूर कहीं—कहीं पर स्‍ट्रीट लाईट जल रही थी। मेरे अंदर की बेचैनी बढ़ने लगी और अंजानी सी शक्‍ति मुझसे कुछ कहना चाहती थी। जैसे कोई मुझे पुकार रहा है। कोई मेरा अपना अंग...मुझे कोई मुझे अपने आगोश में समा लेना चाहता हो, मानो मेरे अपने प्राणों के तार कहीं दूर किसी अदृश्य शक्ति से बंधे खींच रहे थे। जिसके बारे में मेरा चेतन मन कुछ भी नहीं जानता था। परंतु इसका कारण जरूर की प्रकृति ने अपने अंतस में समेट रखा होगा। एक अदृश्य सा तार।

कोई बारीक सी डोर मुझे खींच रही थी। मैंने कितनी ही बार उस और से अपना ध्‍यान हटाना चाहा। पर मैं नाकामयाब रहा। दूर कहीं कोई मुझे पुकार रहा था। मैं एक सम्मोहन पाश में बंधा हुआ अपने आप को महसूस कर रहा था। आखिर मन और शरीर की एक सीमा होती है, नियंत्रण की। एक समय के बाद वह आपकी पकड़ के पार हो जाता है। मेरा शरीर मेरे पकड़ के बाहर हो रहा था। यह मैं इतना साफ देख रहा था। और उसकी बढ़ती हुई बेचैनी को भी....परंतु मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था।

उस अंजान सी हुंकार जो मुझे खींच रही थी....अचानक मैं भागा और दीवार को पलक झपकते ही कूद गया। और पागलों की तरह उस आवाज की और दौड़ने लगा। हालांकि भौतिक तोर पर मैं नहीं जानता था की वह कहां है। किस दशा में है....परंतु शायद मेरा अचेतन उसे जरूर जानता था। उसके पास उसका नक्‍शा भी जरूर था। कितना मधुर प्रेम नियंत्रण था उस खिंचाव में इससे पहले इतना मैंने किसी और चीज में महसूस नहीं किया था। शायद मानो मेरे प्राण ही मुझे खींच रहे थे। जैसे जल मीन को खिचता है....धरा पेड़ पौधों को खिंचती है, या आसमान पक्षी को खींचते है। मुझे अंदर से लग रहा था वहां कोई मेरा अपना ही मुझे बुला रहा है वह मेरा इंतजार कर रहा है। परंतु ये मधुर पुकार एक पीड़ा लिए थी। जैसे आपको कोई चीर रहा हो और उस चिरने में एक सुखद एहसास हो पीड़ा का अनुपात कम हो जाये और सूख का अनुपात घनीभूत हो जाये। मैं आपने को दो फाड़ो में विभक्त होता महसूस कर रहा था।

जैसे ही मैंने गांव की सीमा रेखा पार की और जंगल में प्रवेश कर गया। एक अजीब सा परिवर्तन मेरे शरीर में हुआ। मुझे लगा मैं किसी के बाहु पास में बंध गया हूं। और कोई मुझे उठा कर लिए चला जा रहा है। हां जिस तरह से पहली बार किसी कुरूर हाथों में दौड़ा जा रहा था। आज ठीक उसके विपरीत कोई मधुर एहसास....अपनी कोमल गोद में मुझ लिए हुए है। मेरा शरीर निर्भार हो गया था। न ही मुझे रास्‍ता दिखाई दे रहा था। न ही मुझे पता था की मैं कहा जा रहा हूं। और न ही मैं उस सब का विरोध ही कर रहा था। मैं उस मूक आनंद में डूब जाना चाहता था। उस समय न ही मेरा मेरे इस शरीर पर और न ही मेरे मस्‍तिष्‍क पर मेरा कोई बस था। मैं उसे देख रहा था, परंतु उसे इसका विरोध नहीं करने दे रहा था....जैसे मैं देख रहा हूं उसी तरह से तुम भी बस खड़े रहो एक किनारे....चुप शांत। कहां कौन सी शक्ति मुझे उड़ाये लिए चली जा रहा था। क्‍यों और कहां का प्रश्न ही नहीं था.....मानो सारे प्रश्न पल भर के लिए दूर कहीं जम गए थे, विचारों की तरह, मन की सड़क खाली सूनसान थी। वहां कोई विचार नहीं चल रहा थे। केवल ह्रदय अपने तार जोड़ चूका था उसे मैं पूर्णता से ग्रहण कर उन लहरों पर चल रहा था। वह खिंचाव मुझे मंत्र मुग्ध सा खीचें चला जा रहा था। मैं वहाँ होते हुए भी नहीं था, था तो केवल एक मूक दर्शक।

परंतु मैं दौड़ता जा रहा था, उस अनंत की पुकार की और किसी अंजान मधुरस पुकार जो मुझे बुला रही थी अपनी और। मानो वही एक मात्र मेरी मंजिल था जहां मुझे जाना है। रात घनी होने पर भी जंगल कि अपनी रोशनी थी। जब चाँद नहीं होता है तो तारे अपने पूरे शबाब से पृथ्‍वी को रोशन कर रहे होते है। उस समय उनका महत्‍व और काम अधिक बढ़ जाता है। परंतु न तो मैं उस रोशनी के कारण दौड़ रहा था....न ही उस मार्ग की मुझे पहचान थी। परंतु मैं दौड़ रहा था....अपने संकल्‍प के साथ और कहां मुझे पहुंच ना है ये सब मैं अनजाने रूप से जानता था।

उस अंजान मंजिल की और जिससे मैं अनभीग था। आस पास की झाड़ीयां मेरे शरीर को चीर रही थी। शायद उतनी बड़ी घास मैंने पहले कभी नहीं देखी थी इस जंगल में। और न ही मैं देख पा रहा था...उस घास में आप साधारणत: दो कदम से ज्‍यादा देख नहीं सकते। रास्‍ते भी एक अनचिन्हित सा लग रहा था। जैसे की मैं हजारों बार यहां से गुजरने के बाद भी विश्‍वास के साथ नहीं कह सकता की ये कोई मार्ग है। और मनुष्‍य जिस मार्ग से जाता है तब वहां की घास तो लेट जाती है....परंतु पशु के चलने से तो प्रकृति भी अपना पन मानती है। वह जहां होती है लगभग वही रहती है। उसमें ज्‍यादा बदलाव नहीं होता। मैं बस दौड़ता जा रहा था।

कभी—कभी पास की झाड़ियों से किसी खरगोश नुमा प्राणी के भागने की छवि दिखाई देती। किसी और दिन तो मैं रूक जाता और उसके पीछे जरूर दौड़ता, पापा जी के साथ जब जंगल में आता था तो वह एक खेल होता था। परंतु आज मन स्थिति भिन्‍न थी। आज कुछ ऐसा हो रहा था जो इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था। कभी—कभी पास के पेड़ पर सोया कोई पक्षी डर जाता....और कि...कि...कि करता हुआ दूर उड़ता चला जाता मानो कह रहा हो मर गया....मर गया...मर गया......।

जैसे—जैसे में आगे बढ़ रहा था, मुझे वह जगह जानी पहचानी सी लगने लगी थी। वैसे तो सालों से इस जंगल में पापा जी के साथ आता रहा हूं.....परंतु मेरे लाख खोजने पर भी मैं उस जगह कभी नहीं पहुंच  पाया जहां से मुझे उठा कर लाया गया था। या शायद तन्मयता से मैंने ढूंढा भी नहीं था। या पापा जी उस स्‍थान को जानते हो और उस और मुझे ले कर आते ही न हो। परंतु आज तो चमत्‍कार हो गया। मेरे सामने वही गहरी खाई थी....एक चिर परिचित सी जहां पर मैंने आंखें खोली थी। मैं वहां खड़ा होकर कुछ देर के लिए रुका.....और उस अंधकार में भी उस स्‍थान को आंखों में भर लेना चाहता था। क्या यहीं पर मेरा जन्म हुआ, मेरे भाई बहने और मेरी मां क्या अब भी यही रहती होगी। ये प्रश्न कही दूर अचेतन में उठते मुझे दिखाई दे रहे थे।

क्‍या मनुष्‍य की तरह हमें भी अपनी जन्‍म भूमि को अपनी  मां की तरह ही प्रेम होता है। शायद ये चिर परिचित सत्‍य है जरूर है परंतु एक रहस्य अपने में समेट है। जो प्रत्‍येक प्राणी को उपहार स्‍वरूप मिला होता है। मेरी साँसे फूली हुई थी। मेरा शरीर दौड़ने के कारण गर्म हो गया था दिल एक धौंकनी की तरह धड़क रहा था। मैं मुख खोल कर जीभ से गहरी—गहरी श्‍वास लेने की कोशिश करने लगा। इतनी देर में एक हंकार उठी शायद मेरे आहट को सुन को कोई मुझे अपने पास बुला रहा है। या शायद कोई जानता है कि मैं आ रहा हूं। मैंने चारों देखा बड़ी—बड़ी झाड़ियाँ थी। मैंने उस खान का एक चक्‍कर लगा कर देखना चाहा की रास्‍ता कहां से है। नीचे जाने के लिए। दूसरी और बहुत—बड़े—बड़े पत्‍थर थे।

जहां से मैं नीचे नहीं उतरा सकता था। यहां पर एक दम अधिक गहराई थी। ये एक किले नुमा खान थी। आखिर मैं उन पत्‍थरों पर खड़ा होकर इधर—उधर देखने की कोशिश करने लगा की नीचे क्‍या था। आसमान पर चल रहे तारे भी अपने सांस रोक कर, मानो अपना चलना भूल कर थोड़ी देर के लिए सब मुझे देख रहे थे....या हो सकता है अपनी रोशनी से मुझे मार्ग दिखाने के लिए कुछ क्षण के लिए रूक गये थे। झाड़ियों के बीच जुगनूओं का चमकना भी मुझे ऐसा लगा रहा है। जैसे वह अपनी रोशनी में कुछ दिखाना चाहते है। परंतु नीचे कितनी ही देर तक मैं झाँकता रहा। वहां मुझे कोई हरकत होती नजर नहीं आई। कुछ क्षण के लिए मंद बहती समीर भी बंद हो गई थी। जैसे वह भी इस घटना को दिल थाम कर देख लेना चाहती हो।

आखिर मेरे अंदर से एक हंकार उठी.....जो मेरे ह्रदय में समा नहीं रही थी। जिसे मैं आपने अंदर और बंद कर रख नहीं सका था। मेरे पूरे प्राण किसी को पुकारना चाहते थे.....और मेरी इस पुकार की प्रतिध्वनि हुई। झाड़ियों पर सो रही चिड़ियाँ डर कर दूर चीं.....चीं....चीं....कर के उड़ गई। पूरा जंगल किसी दर्द से जाग गया। पेड़ पौधे भी सिहर गये। शायद मेरे पैरो के नीचे का पत्‍थर भी कुछ क्षण के लिए कांप गया। कुछ देर तक चारों और मौन छाया रहा। न कोई पत्‍ता हिल रहा था...न कोई गति कर रहा था...सब मानो पल भर के लिए ठहर गया था।

अचानक एक दर्द भरी पुकार किन्‍हीं गहरी खाई से आती हुई मुझे सुनाई दी। जो मेरे प्राणों को छेद गई। मैं तड़प गया। एक दर्द की लहर मेरे शरीर में बिजली की तरह फैल गई.....एक तड़प मेरे मन को झकझोर गई। में तड़प गया चीत्कार कर रो उठा हाए मां...मां...। एक हंकार और पीड़ा के साथ....मानो मेरा कलेजा मेरे मुंह को आ रहा था। और मैं इतना बेचैन हो गया की मुझ सुधबुध भी नहीं की मैं कहां जाऊँ....अचानक मैं पास की झाड़ी की और भागा। वहां से एक पतली से पगडंडी नीचे की और जा रही थी। वह इतनी चोर और घनी थी की उसे दिन में भी नहीं देखा जा सकता था। में तीव्र गति से नीचे की और उतरा। जैसे—जैसे मैं आगे बढ़ रहा था वह जानी पहचानी सुगंध मेरे प्राणों में भर रही थी।

समय मानो उसे मिटा नहीं पाया था। इतने सालों बाद भी मैं उसे वैसे ही पा रहा था। कैसा चमत्‍कार है प्रकृति मैं, इससे पहले इस जगह मैं कभी यहां नहीं आया था। फिर भी जैसे—जैसे मैं नीचे उतर रहा था वह स्‍थान मेरे पैरो को अपने पन का एहसास करा रहा था। वो नन्‍हीं–नन्‍हीं घास जो कभी कितनी बड़ी लगती थी....आज मेरे पैरों तक ही आ रही थी। परंतु उसकी कोमलता आज भी वैसी की वैसी ही थी। समय ने उसे जरा भी कठोर नहीं किया था। कुछ देर के लिए रूक कर मैंने इधर—उधर देखना चाहा। कहीं एक भय भी था कि कोई मुझ पर हमला न कर दे।

परंतु मुझे अपनी ताकत पर विश्‍वास था कि मैं तीन चार गीदड़ों को सम्‍हाल ही लूंगा। मैं थोड़ा सम्‍हलकर चलने लगा। वहां की गंध मुझे कुछ जानी पहचानी और अपनी सी लग रही थी। कुछ दूरी पर एक छाया सी लेटी हुई दिखाई दी। मैं पल भर के लिए खड़ा हो गया। और उस छाया को गौर से देखने लगा। अचानक वह छाया हिली....मैं रूक गया और अपने को सतर्क कर लिया। परंतु क्‍या देखता हूं कि जैसे मैं अपने को एक दर्पण में देख रहा हूं। मेरा अपना शरीर कुछ बूढ़ा हो कर वहां पर लेटा है। ये देखना बड़ा अजीब सा लगा मुझे। मेरी ही प्रति छवि.....मेरी ही गंध चारों और....मैं उस मृग की भांति हो अचंभित रह गया....जिसकी नाभि से कस्तूरी की सुगंध आ रही हो। मेरी अपनी सुगंध.....मुझे खुद ही घेर हुए थी। जैसे—जैसे में उस प्रति छवि के पास जाने के लिए आगे बढ़ रहा था एक दम से अपनी श्वास को रोक कर दबे पांव। ठीक उसी समय वह प्रतिछवि कुछ हिली और कुल मिलाई और अचानक मेरी और पलट गई।

और जैसे ही उस प्रतिछवि ने मुझे देखा उसके चेहरे पर एक अनजानी सी खुशी फैल गई। फिर अचानक उसने एक गहरी श्वास ली। जिस की आपको उम्‍मीद भी न हो वह आपके सामने आ जाये तब आप कैसा महसूस करोगे। वह मेरी मां ही थी....उसका रूप रंग और आकार हूबहू मेरे ही जैसा था। बस एक समय का या उम्र का भेद था। एक तृप्‍त...एक शांति, सुकून....मेरी मां कि आंखों से बह रहा था....उस ने मुझे एक पल में ही पहचान लिया। शायद वह मुझे अपने प्राणों से याद कर रही होगी कि मैं कैसा हूं कहां हूं। इतने बच्चे होने पर भी आपने देखा हमारा ह्रदय कुछ इस तरह से कुदरत ने निर्मित किया है की उसमें केवल एक ही समय पर एक ही समा सकता है। एक ही बैठ सकता है। जब मैं छोटा था तब भी मेरी मां मुझे सब बच्चों से अधिक लाड़ प्यार और दुलार देते थी। परंतु उस समय में ये सब नहीं जानता था, और जान भी कैसे सकता था। कैसा प्रकृति का रहस्‍य है। कारण अकारण में जा कर हम इसे नहीं सुलझा सकते। इसे जानने के लिए ह्रदय की किन्‍हीं गहराईयों में हमें झाँकना होगा...उसकी आँखों में एक अदृश्य चमक थी उसने मुझे देख कर अपनी पूछ हिला—हिला कर अपने पास बुलाने लगी।

मैंने पास जाकर देखा उसके शरीर पर अनेक जख्‍म थे। शायद जंगली जानवरों से लड़ने के कारण हुए होंगे। तब मुझे बहुत गुस्सा आया....अगर मैं भी मां के साथ होता तो किसी की मजाल थी वह मेरी मां को घायल कर जाता....चाहे वह दस गीदड़ ही क्‍यों ने होते हम दोनों मिल कर उन पर भरी पड़ते ही नहीं उन्हें बता देते की हम क्या है....परंतु मेरी मां सच में बहुत साहसी थी। इस वीरान जंगल में अकेली किस हिम्‍मत से जीवित थी। वह निर्भीक विचरण ही नहीं करती या साथ रहती ही नहीं अपितु अपना और मेरे भाइयों का भरण पोषण भी करती होगी। जिस ताकतवर मां को मैंने देखा व जाना था ये वो नहीं प्रकृति ने इसे कमजोर कर दिया है। मेरी मां की ऐसी हालत होगी ये मैंने कभी सोचा भी नहीं था। फिर आखिर मेरी मां अकेली क्‍यों है यहां पर। क्‍या मेरे दूसरे भाई बहन भी मेरे की तरह ही.......नहीं मेरी मां ऐसा दो बार धोखा खाने वाली नहीं थी। जरूर वह पाजी यहीं कहीं होंगे.....और खाने के लिए क्‍या उन्‍हीं ने मां की ये हालत कि थी....मुझ घिन आई....यह सोच कर परंतु शायद मैं भूल गया कि मेरा पालन पोषण एक मनुष्‍य के संग साथ हुआ था। और वो आज भी पेट के लिए जिंदा होंगे....खेर फिर भी उन्‍हें मां को इस तरह से घायल नहीं करना चाहिए......या अकेले छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था।

आखिर उसने हमें जन्म दिया है हमें पाला पोसा है अपने खून से सींचा है खुद खाली पेट रह कर हम सब का भरण पौषण किया है। तब चाहे वो मनुष्य जैसे न हो परंतु एक पशु का भी तो प्रेम होता है, अपने परिवार से अपने संगी साथी से। सो वो लोग क्या इतना गिर गए है की मां को इस हालत में छोड़ कर चले गये। रह—रह कर मेरे मन में एक तरफ तो दर्द था दूसरी और मुझे अपने भाई बहनों पर क्रोध भी आ रहा था।

मैं मां की गर्दन को अपनी गर्दन से रगड़ कर सहला रहा था....उसे चाट रहा था। चाहता था की उसका दूख मुझे मिल जाए। इस तरह से मेरे प्यार को पाने पर उसने अपनी आंखें बंद कर ली मानो उसके मन की अभिलाषा पूर्ण हो गई....उसके तन मन पर एक तृप्ति झरती साफ देखी जा सकती थी।

भू.....भू......भू.... आज दर्द है प्राणों में.....बस

आज इतना ही।


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