दिनांक: 10 अक्टूबर, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्न
सार:
1—शिष्य गुरु
के साथ
गद्दारी
क्यों करते
हैं? विजयानंद
और महेश अभी
आपके विरोध
में कहते हैं।
और एक
संन्यासी
चिन्मय ने
करंट में लिखा
है कि जब मेरे
गुरु राजनीति
के विरुद्ध
बोलते हैं, तब वे धर्म
से नीचे गिरते
हैं; और
साथ—साथ कि
मैं जीवित
शिष्य हूं इसलिए
अपने गुरु के
विरुद्ध कह
सकता हूं।
2—श्रद्धा
क्या है?
3—प्रेम
की
अग्नि—परीक्षा
क्यों ली जाती
है?
4—मैं
शास्त्रीय
संगीत का शौक
रखता हूं। यह
न तो मेरे
पड़ोसियों को
पसंद है, ,. न
मेरे
पत्नी—बच्चों
को, न
परिवार के
अन्य लोगों को
ही। मैं क्या
करूं?
5—मैं
हर चीज से
असंतुष्ट
हूं। क्या
पाऊं जिससे कि
संतोष मिले?
पहला
प्रश्न :
भगवान!
शिष्य गुरु के
साथ गद्दारी
क्यों करते हैं? विजयानंद
और महेश अभी
आपके विरोध
में कहते हैं।
और एक संन्यासी
स्वामी
चिन्मय ने
करंट में लिखा
है कि जब मेरे
गुरु राजनीति
के विरुद्ध
में बोलते हैं
तब वे धर्म से
नीचे गिरते
हैं और
साथ—साथ कि
मैं जीवित
शिष्य हूं
इसलिए अपने गुरु
के विरुद्ध कह
सकता हूं।
मुकेश
भारती! जीसस
को सूली लगी, शिष्य
जुदास के
कारण। बुद्ध
पर पहाड़ की
चट्टान सरकाई
गयी, शिष्य
देवदत्त के
कारण। महावीर
को बहुत अपमान,
बहुत निंदा,
बहुत
प्रताड़ना
सहनी पड़ी
शिष्य गोशाला
के कारण। यह
स्वाभाविक
है। जो हुआ है
पहले, वही
फिर भी होगा।
रामलीला तो
वही है, अभिनेता
बदल जाते हैं।
मंच भी वही है,
खेल भी वही
है; सिर्फ
खेलनेवाले
बदल जाते हैं।
और जो हुआ पहले,
और आज भी
होगा और कल भी
होता रहेगा, उसके
विज्ञान को
जरूर समझ लेना
चाहिए।
शिष्यों
की चार
कोटियां हैं।
पहली
कोटि—विद्यार्थी
की है, जो
कुतूहलवश आ
जाता है; जिसके
आने में न तो
साधना की कोई
दृष्टि है, न कोई
मुमुक्षा है,
न परमात्मा
को पाने की
कोई प्यास
है—चलें देखें,
इतने लोग
जाते हैं, शायद
कुछ हो! तुम भी
रास्ते पर भीड़
खड़ी देखो तो
रुक जाते हो, पूछने लगते
हो क्या है
मामला? भीतर
प्रवेश करना
चाहते हो भीड़
में, देखना
चाहते हो कुछ
हुआ होगा..।
नहीं कि तुम्हें
कोई प्रयोजन
है, अपने
काम से जाते
थे। आकस्मिक
कुछ लोग आ
जाते हैं। कोई
आ रहा है, तुमने
उसे आते देखा;
उसने कहा :
क्या करते हो
बैठे—बैठे, आओ मेरे साथ
चलो, सत्संग
में ही
बैठेंगे।
खाली थे, कुछ
काम भी न था, चले आये।
पत्नी आयी, पति साथ चला
आया; पति
आया, पत्नी
साथ चली आयी।
बाप आया, बेटा
साथ चला आया।
ऐसे
बहुत—से लोग
आकस्मिक रूप
से आ जाते
हैं। उनकी
स्थिति विद्यार्थी
की है। वे कुछ
सूचनाएं
इकट्ठी कर लेंगे, सुनेंगे
तो कुछ
सूचनाएं
इकट्ठी हो
जायेंगी। उनका
ज्ञान थोड़ा बढ़
जायेगा, उनकी
स्मृति थोड़ी
सघन होगी। ऐसे
आनेवालों में
से, सौ में
से दस हो
रुकेंगे; नब्बे
तो छिटक
जायेंगे। दस
रुक जाते हैं
यह भी चमत्कार
है, क्योंकि
वे आये न थे
किसी सजग—सचेत
प्रेरणा के
कारण—ऐसे ही
मूर्च्छित—मूर्च्छित
किसी के धक्के
में चले आये
थे। पानी में
बहती हुई लकड़ी
की तरह किनारे
लग गये थे, किनारे
की कोई तलाश न
थी। कितनी देर
लगा रहेगा
लकडी का टुकड़ा
किनारे से? हवा की कोई
लहर आयेगी, फिर बह
जायेगा; उसका
रुकना—न—रुकना
बराबर है।
लेकिन ऐसे
लोगों में से
भी दस प्रतिशत
लोग रुक जाते
हैं। जो दस प्रतिशत
रुक जाते हैं,
वे ही दूसरी
सीढ़ी में
प्रवेश करते
हैं।
दूसरी
सीढ़ी साधक की
है। पहली सीढ़ी
में सिर्फ बौद्धिक
कुतूहल होता
है—एक तरह की
खुजलाहट! जैसे
खाज खुजाने
में अच्छा
लगता है, हालांकि
लाभ नहीं होता,
नुकसान
होता है—ऐसे
ही
बौद्धिक—खुजलाहट
से भी लाभ
नहीं होता, नुकसान होता
है; पर
अच्छा लगता है,
मीठा लगता
है। यह पूछें,
वह पूछें, यह भी जान
लें, वह भी
जान लें; अहंकार
की तृप्ति
होती है कि
मैं कोई
अज्ञानी नहीं
हूं बिना
ज्ञान के
ज्ञानी होने
की भ्रांति
पैदा हो जाती
है। इसमें से
दस प्रतिशत
लोग रुक
जायेंगे। ये
दस प्रतिशत
साधक हो
जायेंगे।
साधक
का अर्थ है. जो
अब सिर्फ
सुनना नहीं
चाहता, समझना
नहीं चाहता, बल्कि
प्रयोग भी
करना चाहता है,
प्रयोग
साधक का आधार
है। अब वह कुछ
करके देखना
चाहता है। अब
उसकी
उत्सुकता एक
नया रूप लेती
है, कृत्य
बनती है। अब
वह ध्यान के
संबंध में बात
ही नहीं करता,
ध्यान करना
शुरू करता है।
क्योंकि बात
से क्या होगा,
बात में से
तो बात निकलती
रहती है। बात
तो बात ही है, पानी का
बबूला है, कोरी
गर्म हवा
है—कुछ करें!
जीवन रूपांतरित
हो कुछ, कुछ
अनुभव में
आये।
यह
जो दूसरा वर्ग
है,
इसमें
जितने लोग रह
जायेंगे, इसमें
से पचास
प्रतिशत
रुकेंगे पचास
प्रतिशत खो
जायेंगे।
क्योंकि करना
कोई आसान बात
नहीं है, सुनना
तो बहुत आसान
है। तुम्हें
कुछ करना नहीं
है; मैं
बोला, तुमने
सुना, बात
खत्म हुई।
करने में
तुम्हें कुछ
करना होगा, सफलता
सुनिश्चित
नहीं है, जब
तक कि त्वरा न
हो, तीव्रता
न हो, दाव
पर लगाने की
हिम्मत न हो, साहस न
हो—सफलता आसान
नहीं है।
कुनकुने—कुनकुने
करने से तो
सफलता नहीं
मिलेगी, सौ
डिग्री पर
उबलना होगा।
उतना साहस कम
ही लोग जुटा
पाते हैं, जो
नहीं जुटा
पाते उतना
साहस, वे
सोचने लगते
हैं कि कुछ है
नहीं, करने
में भी कुछ
रखा नहीं है।
यह अपने मन को
समझाना है कि
करने में कुछ
रखा नहीं है।
किया है ही
नहीं, करने
में ठीक से
उतरे ही नहीं,
उतरे भी तो
किनारे—किनारे
रहे, कभी
गहरे गये नहीं,
जहां डुबकी
लगती। भोजन
पकाया ही नहीं,
ऐसे ही
चूल्हा जलाते
रहे, वह भी
इतने आलस्य से
जलाया कि कभी
जला नहीं, धुआ
इत्यादि तो
उठा, लेकिन
आग कभी बनी
नहीं। तो धुएं
में कोई कितनी
देर रहेगा? जल्दी ही
आंख आंसुओ से
भर जायेगी। मन
कहेगा, चलो
भी, यहां
क्या रखा है? धुआ ही धुआ
है।
जहां
धुआ है वहां
आग हो 'सकती थी,
क्योंकि
धुआ जहां है
वहां आग होगी
ही। लेकिन थोड़ा
और गहन प्रयास
होना चाहिए
था। थोड़ी और
तपश्चर्या
होनी थी! थोड़ा
और श्रम, थोड़ा
और प्रयास। जो
नहीं इतना
प्रयास कर
पाते, पचास
प्रतिशत लोग
विदा हो
जायेंगे; जो
पचास प्रतिशत
रह जायेंगे, वे तीसरी
सीढ़ी में
प्रवेश करते
हैं।
तीसरी
सीढ़ी शिष्य की
सीढ़ी है।
शिष्य का अर्थ
होता है? अब
अनुभव में रस
आया, अब
सदगुरु की
पहचान हुई।
अनुभव से ही
होती है, सुनने
से नहीं होगी।
सुनने से तो
इतना ही पता चलेगा—कौन
जाने, बात
तो ठीक लगती
है, लेकिन
इस व्यक्ति का
अपना अनुभव हो
कि न हो, कि
केवल
शास्त्रों की पुनरुक्ति
हो! कौन जाने
सदगुरु
सदगुरु है भी
या नहीं, या
केवल
पांडित्य है?
यह तो
तुम्हें
स्वाद लगेगा
तभी स्पष्ट
होगा कि जिसके
पास तुम आये
हो, वह
पंडित नहीं है,
या कि पंडित
ही है? स्वाद
में निर्णय हो
जायेगा, तुम्हारा
स्वाद ही
तुम्हें कह
देगा। अगर
सदगुरु है तो तीसरी
घड़ी आ गयी, तीसरी
सीढ़ी आ गयी; तुम शिष्य
बनोगे।
शिष्य
का अर्थ है :
समर्पित। अब
शंकाएं न रहीं।
अब पुराना
ऊहापोह न रहा।
अब भटकाव न
रहा। अब एक
टिकाव आया
जीवन में। अब
नाव पर सवार
हुए।
जो
लोग शिष्य हो
जाते हैं। इनमें
से नब्बे
प्रतिशत रुक
जायेंगे, दस
प्रतिशत
इनमें से भी
छिटक
जायेंगे।
क्योंकि
जैसे—जैसे
गहराई बढ़ती है
साधना की, वैसे—वैसे
कठिनाई भी
बढ़ती है।
शिष्य को
अग्नि—परीक्षाएं
देनी होंगी, जो कि साधक
से नहीं
मांगीं जातीं,
और
विद्यार्थी
से तो मांगने
का सवाल ही
नहीं है।
अग्नि—परीक्षा
तो सिर्फ
शिष्य की होती
है। जो इतने
दूर चला आया
है, उसी पर
गुरु अब कठोर
होता है। कठोर
होना पड़ेगा।
चोट गहरी करनी
होगी। अगर
किसी पत्थर की
मूइrात
बनानी हो तो
छैनी उठाकर
पत्थर को
तोड़ना ही होगा।
बहुत पीड़ा
होगी, क्योंकि
तुम्हारे ऊपर
जो आवरण हैं, वे सदियों
पुराने हैं।
तुम्हारे ऊपर
जो अज्ञान की
पर्तें हैं, वे कपड़ों
जैसी नहीं हैं
कि निकालकर
फेंक दीं और
नग्न हो गये, वे चमड़ी
जैसी हो गयी
हैं। उन्हें
उधेड़ना है, सर्जरी है।
तो
दस प्रतिशत
लोग तीसरी
सीढ़ी से भी
भाग जायेंगे।
जो नब्बे
प्रतिशत
तीसरी सीढ़ी पर
टिक जायेंगे, जो
अग्नि—परीक्षा
से गुजरेंगे,
वे चौथी
सीढ़ी पर
प्रवेश करते
हैं, जो कि
अंतिम सीढ़ी है,
वह भक्त की
है। शिष्य और
गुरु में
थोड़ा—सा भेद रहता
है। समर्पण तो
होता है शिष्य
की तरफ से, लेकिन
समर्पण शिष्य
की ही तरफ से
होता है। अभी
समर्पण में भी
थोड़ा—सा
अहंभाव जीवित
होता है कि
मैंने समर्पण
किया, मेरा
समर्पण! चौथी
सीढ़ी पर 'मैं'
भाव बिलकुल
शून्य हो जाता
है। अब भक्ति
जगी, अब
प्रेम जगा। अब
गुरु और शिष्य
अलग— अलग नहीं हैं।
इस सीढ़ी से
फिर कोई भी जा
नहीं सकता। जो
यहां तक पहुंच
गया, उसका
वापिस लौटना
नहीं होता।
इसलिए
बहुत आयेंगे, बहुत
जायेंगे।
जितने लोग
आयेंगे उतनी
ही अधिक
संख्या में
जाएंगे भी। इस
समय मेरे कोई
पचहत्तर हजार
संन्यासी हैं
सारी पृथ्वी
पर। अब इनमें
से दस—पांच
छिटकेंगे, भागेंगे
तो कुछ
आश्चर्य की तो
बात नहीं है, कोई चिंता
की बात भी
नहीं है। ये
पचहत्तर हजार
कल पचहत्तर
लाख हो
जायेंगे तो और
भी ज्यादा
हटेंगे और
छिटकेंगे। यह
काम जितना बड़ा
होगा, उतने
ही बड़े काम के
साथ उतने ही
लोग
छिटकेंगे।
स्वाभाविक है
यह अनुपात
रहेगा।
विद्यार्थियों
में से नब्बे
प्रतिशत भाग
जायेंगे।
साधकों में से
पचास प्रतिशत
भाग जायेंगे।
शिष्यों में
से दस प्रतिशत
भाग जायेंगे।
सिर्फ भक्तों
में से जाना
नहीं होता।
लेकिन
भक्त तक
आते—आते लंबी
यात्रा है, जैसे
कोई हिमालय
चढ़े। ऊंची
चढ़ाई है, बहुत
पसीना होगा, ऋत थकान
होगी, दम
भर आयेगी। और
जो भी भागेगा,
उसकी भी
मजबूरी है। जब
वह भागता है
तो उसकी मजबूरी
भी समझो, मैं
उसकी मजबूरी
समझता हूं।
जैसे तुमने
पूछा है कि
विजयानंद और
महेश आपके
विरोध में
कहते हैं; कहना
ही पड़ेगा।
क्योंकि जो
भाग गया वह यह
तो नहीं कहेगा
कि मैं भाग
आया अपनी
कमजोरी से; कि मैं
योग्य नहीं था,
कि मैं
अपात्र था, कि मेरी
क्षमता छोटी
पड़ गयी, कि
पहाड़ ऊंचा था;
मैंने सोचा
था कि छोटा
टीला है, चढ़
जाऊंगा; और
निकला
गौरीशंकर।
मैं नहीं चढ़
पाया, ऐसा
तो कोई नहीं
कहेगा भागा
हुआ। उसको
अपने अहंकार
की रक्षा भी
करनी होगी न!
तो कोई यह तो
नहीं कहेगा कि
मैं हार गया
इसलिए आ गया हूं।
उस अहंकार की
सुरक्षा के
लिए मेरे
विरोध में
बोलना शुरू
करना ही
पड़ेगा। पीड़ा
भी होगी, क्योंकि
झूठ दिखाई
पड़ेगा।
तो
विजयानंद
लोगों से मेरे
पास खबर तो
भेजते हैं कि
भगवान को मेरे
प्रणाम कह
देना, लेकिन
मेरे खिलाफ भी
बोलते रहते
हैं। एक द्वंद्व
पैदा हो गया।
भीतर से जानते
हैं कि अपनी कमजोरी..
नहीं चल सके साथ।
तो मुझे
प्रणाम भी
भेजते रहते
हैं और मेरे
खिलाफ
वक्तव्य भी
देते रहते
हैं। मेरे
खिलाफ वक्तव्य
देने पड़ेंगे,
क्योंकि
लोग पूछते हैं
कि आपने छोड़ा
क्यों? अब
दो ही उपाय
हैं : या तो
गुरु गलत रहा
हो या शिष्य
गलत रहा हो।
स्वाभाविक है,
इतनी
हिम्मत ही अगर
होती कि मैं
गलत हूं तो
जाने की जरूरत
ही न पड़ती, भागने
का सवाल ही न
उठता। इतनी
हिम्मत नहीं
थी, तो अब
रक्षा तो करनी
होगी।
इस
बात को खयाल
में लेना। जब
तुम संन्यास
लेते हो तो
तुम मेरे पक्ष
में बोलना
शुरू कर देते
हो। जरूरी
नहीं है कि
तुम मेरे पक्ष
में बोल रहे
हो। संभावना
यही है कि अब
तुमने
संन्यास लिया
तो मेरे पक्ष
में बोलना ही
पड़ेगा।
क्योंकि नहीं
मेरे पक्ष में
बोलोगे तो लोग
कहेंगे : पागल
हो,
फिर
संन्यास
क्यों लिया? तुम्हें
अपनी
आत्मरक्षा के
लिए बोलना
पड़ेगा मेरे
पक्ष में।
तो
तुम जब मेरे
पक्ष में
बोलते हो तो
जरूरी नहीं है
कि मेरे पक्ष
में ही बोलते
हो,
बहुत
संभावना तो
यही है कि तुम
अपने अहंकार
की रक्षा के
लिये बोलते
हो... कि हा! मेरे
सदगुरु पूर्ण
सदगुरु हैं, कि वे
परमात्मा को
उपलब्ध हैं।
तुम्हें कुछ पता
नहीं है।
तुम्हें क्या
पता होगा अभी?
जब तक तुम
उपलब्ध न हो
जाओ, तुम्हें
कैसे पता हो
सकता है? लेकिन
तुम्हें मेरे
पक्ष में
बोलना ही
पड़ेगा, मेरी
स्तुति करनी
पड़ेगी। उसी
स्तुति में
तुम अपने
अहंकार की
रक्षा कर सकते
हो। तुम्हें
सारे संदेह
अपने भीतर से
दबा देने
होंगे, अचेतन
में फेंक देने
होंगे। नहीं
कि संदेह नहीं
उठेंगे, इतनी
आसानी से
संदेह थोड़े ही
जाते हैं कि
तुम आये, संन्यस्त
हो गये और
संदेह मिट
गये! काश, इतना
आसान होता!
संदेह वर्षों
तक पीछा
करेंगे।
संदेह
लौट—लौटकर आ
जायेंगे। मगर
तुम किसी से
कह न सकोगे; कहोगे तो
भद्द होगी।
अगर किसी से
कहोगे कि मुझे
शक है कि मेरा
गुरु गुरु है
भी या नहीं, तो लोग
कहेंगे कि फिर
तुम गुरु को
स्वीकार क्यों
किये हो? फिर
किस लिये
गैरिक वस्त्र
धारण किये हैं,
फिर क्यों
यह माला, फिर
क्यों यह
स्वांग रचाया
है? अब तुम
बड़ी मुश्किल
में पड़े, अब
तुम बडी अड़चन
में पड़े।
अगर
सच—सच अपने
संदेह कहो तो
लोग कहेंगे
तुम मूढ़ हो। इससे
बचने के लिए
तुम संदेहों
को दबा दोगे
और तुम खूब
श्रद्धा की
बातें करोगे।
तुम चेष्टा करोगे
कि मेरा जैसा
गुरु कभी हुआ
ही नहीं दुनिया
में,
क्योंकि
तुम जैसा
शिष्य कहीं
हुआ है दुनिया
में! तुम्हारे
अहंकार की
तृप्ति
तुम्हारे गुरु
की ऊंचाई से
होगी। जितना
ऊंचा तुम अपने
गुरु को सिद्ध
कर सकोगे, अतने
ही बड़े तुम
शिष्य हो। और
तुमने जिसे
गुरु चुना है
वह बडा होना
ही चाहिए; तुम
जैसा आदमी
छोटे—मोटे को
चुनेगा!
तो
यह तो जब तुम
दीक्षा लोगे
यह घटना
घटेगी। फिर जब
तुम दीक्षा
छोड़ोगे, इससे
उल्टी घटना
घटेगी। घटनी
ही चाहिए, ठीक
तर्क है; एक
सरणी है उसकी।
अब तुम्हें
बोलना पड़ेगा
मेरे खिलाफ।
अब तुमने
जो—जो संदेह
दबा लिये थे, वे सब उभरकर
ऊपर आ
जायेंगे। और
जो—जो श्रद्धा
तुमने आरोपित
कर ली थी, वह
सब तिरोहित हो
जायेगी। अब
तुम्हारे
सारे संदेह
अतिशयोक्ति
से प्रगट
होंगे। करने
ही पड़ेंगे।
क्योंकि जिसे
तुमने छोड़ा, वह गलत होना
ही चाहिये; जैसे तुमने
जब पकड़ा था तो
वह सही था।
तो
विजयानंद
पांच साल मेरे
पक्ष में
बोलते रहे, अब
पचास साल मेरे
खिलाफ बोलना
पड़ेगा। वे सब
जो पांच साल
में दबाये हुए
संदेह थे, सब
उभरकर
आयेंगे। और अब
रक्षा करनी
होगी, क्योंकि
वे ही लोग जो
कल कहते थे कि
क्या तुम पागल
हो गये हो संन्यास
लेकर, अब
कहेंगे कि
हमने पहले ही
कहा था ना कि
तुम पागल हो
गये हो! अब
इनको जवाब
देना होगा। तो
अब बड़ी अड़चन
खड़ी होगी। उस
अड़चन से बचाव
करना होगा। बचाव
एक ही है कि हम
भ्रांति में
पड़ गये थे। या बचाव
यह है कि कुछ—कुछ
बातें ठीक थीं,
उन्हीं
बातों के कारण
हम संन्यस्त
हो गये थे। फिर
जब संन्यस्त
हुए तब धीरे—
धीरे पता चला
कि कुछ—कुछ
बातें गलत
हैं। फिर
धीरे—धीरे
जैसे—जैसे
अनुभव बढ़ा, पता चला कि
बिलकुल गलत
है। ऊपर—ऊपर
की बातें ठीक
हैं, भीतर—
भीतर बिलकुल
गलत है।
यह
आत्मरक्षा
है। यह बिलकुल
स्वाभाविक
है। इससे जरा
भी चिंतित मत
होना, इसे
समझो जरूर।
महेश
तो
विद्यार्थी
की हैसियत से
आगे कभी बढ़े नहीं।
कुतूहलवश आ
गये थे।
विजयानंद के
साथ ही आ गये
थे,
साथ ही चले
भी गये। आना
एक
संयोगमात्र
था। न तो आये
थे न गये, मेरे
हिसाब में न
तो कभी आये, न गये।
मैंने हिसाब
नहीं रखा महेश
का। ऐसे लोगों
का हिसाब नहीं
रखना पड़ता, ये तो नदी
में बहती हुई
लकड़ियां हैं।
लग गयीं किनारे
तो कोई किनारा
यह सोचने लगे
कि मेरी तलाश
में आकर लग
गयी हैं तो
गलती हो
जायेगी। क्योंकि
अभी आयेगा हवा
का झोंका और
लकडी बह जायेगी।
विजयानंद के
साथ ही आ गये
थे। जब मैंने
महेश को
संन्यास दिया
था तो
विजयानंद
मौजूद थे। महेश
को संन्यास
देने के पहले
मैंने कहा :
विजयानंद तुम
भी पास आकर
बैठ जाओ, ताकि
सहारा रहे..।
पास बिठा लिया
था विजयानंद को,
ठीक बगल में
महेश के, और
विजयानंद ने
उनकी पीठ पर हाथ
रख लिया था, तब मैंने
उन्हें
संन्यास
दिया।
क्योंकि मैं महेश
को तो जानता
नहीं कि इनका
कोई मूल्य है,
कि ये कोई
जिज्ञासा से
आये हैं। यह
तो विजयानंद
को कुछ हुआ है...
ये तो
विजयानंद के
शिष्य हैं, मेरे नहीं।
तो
स्वाभाविक था
कि जब
विजयानंद
जायेंगे तो महेश
भी जायेंगे।
इनका कोई
मूल्य नहीं.
है।
विद्यार्थी
की हैसियत से
उनका आगे कभी
जाना हुआ
नहीं। विजयानंद
ने जरूर
चेष्टा की थी।
और साधक की
स्थिति आ गयी
थी,
थोड़ी और
हिम्मत रखते
तो शिष्य की
घटना भी घटती।
मगर अड़चनें आ
गयीं, अड़चनें
आती हैं।
मानवीय
अड़चनें हैं।
समझना, तुमको
भी आ सकती हैं,
इसलिए
उत्तर दे रहा
हूं। सभी को आ
सकती हैं। विजयानंद
ख्यातिलब्ध
हैं, बड़े
फिल्म
निर्देशक हैं,
सारा देश
उन्हें जानता
है—वह अहंकार
अड़चन बनता
रहा।
आकांक्षा थी
कि उनको मैं
ठीक उसी तरह व्यवहार
करूं—एक
विशिष्ट
व्यक्ति की
तरह—वी. वी. आई.
पी.। वह मुझे
तोड़ना पड़ेगा,
नहीं तो
साधक कभी
शिष्य न
बनेगा। उसे
मैंने तोड़ना
शुरू कर दिया।
रोज—रोज उन पर
चोटें पडने लगीं।
पहले वे जब भी
आते थे, जिस
क्षण चाहते थे
मिलने को आ
जाते थे। अब
उनको भी समय
लेना पड़ता—दो
दिन बाद, तीन
दिन बाद, सात
दिन बाद..।
पीड़ा होने लगी,
कष्ट होने
लगा। अड़चन
होने लगी कि
उनके साथ भी
और दूसरे संन्यासियों
जैसा ही
व्यवहार हो
रहा है, विशिष्ट
व्यवहार नहीं
हो रहा है।
पहले
मैं तुम्हारी
बहुत चिंता
लेता हूं। वह
तो कांटे पर
आटा है। मगर
आटा ही आटा
मछली को खिलाये
जायेंगे तो
मछली फसेगी कब? जल्दी
ही आटे के
भीतर का छिपा
काटा प्रगट
होगा। जब
कांटा प्रगट
होगा तब अड़चन
होती है। जब
मैं विजयानंद
के साथ ठीक वैसा
व्यवहार करने
लगा जैसा सब
के साथ—जो कि जरूरी
था, यही
सीढ़ी अगर वे
गुजर गये होते,
अगर
उन्होंने
स्वीकार कर
लिया होता कि
संन्यस्त जब
हुआ तो
विशिष्टता
छोड देनी है, अपने को
भिन्न मानने
का कोई कारण
नहीं है। किसी
का नाम जाहिर
है किसी का
नाम नहीं
जाहिर है, इससे
कोई फर्क थोड़े
ही पड़ता है, इससे कोई
जीवन की
अंतर्दशा
थोड़े ही बदलती
है। तुम्हें
कितने लोग
जानते हैं
इससे
तुम्हारे पास
ज्यादा आत्मा
थोड़े ही होती
है, न
ज्यादा ध्यान
होता है, न
ज्यादा समाधि
होती है। यह
भी हो सकता है,
तुम्हें
कोई न जानता
हो और
तुम्हारे
भीतर परम घटा
हो। जानने न
जानने से इसका
कुछ लेना—देना
नहीं है।
फिर
जैसा मैंने
कहा कि
जैसे—जैसे
तुम्हारी सीढ़ी
आगे बढ़ेगी; वैसे—वैसे
मैं कठोर होता
जाऊंगा, वैसे—वैसे
तुम्हें आग
में डाला
जायेगा, तभी
तो निखरोगे, तभी तो
कुंदन बनोगे।
कुम्हार घड़े
को बनाता है तो
थापता है
मिट्टी को, बड़ा
सम्हालता है।
ऊपर से चोट भी
करता है, भीतर
से हाथ का
सहारा भी देता
है। लेकिन
अहंकारी को
चोट ही दिखाई
पड़ती है, भीतर
हाथ का सहारा
नहीं दिखाई
पड़ता। निर—
अहंकारी को
भीतर हाथ का
सहारा दिखाई
पड़ता है, चोट
की वह फिक्र
नहीं करता। वह
कहता है एक
हाथ चोट मार
रहा है
कुम्हार का।
दूसरा हाथ
सहारा दे रहा
है। यही तो
रास्ता है घड़े
के बन जाने
का। फिर जब
घड़ा बन जाता
है तो कच्चे
घड़े को तो
कुम्हार
सम्हालकर
रखता है, फिर
जल्दी ही आग
में डालेगा।
और घड़ा अगर
चिल्लाने लगे
कि इतना सम्हाला
मुझे.. इतना
होशियारी से
रखते थे
सम्हाल—सम्हालकर
कि टूट न जाऊं,
फूट न जाऊं
और अब आग में
डालते हो? अगर
कच्चे घड़ों
में भी
विजयानंद
जैसे लोग होते,
भाग खड़े
होते। वे कहते
हम चले...। मगर
घड़े कहीं भाग
नहीं सकते, इसलिये
सुविधा है।
मैं जिंदा
घड़ों पर काम
करता हूं
इसलिए कभी—कभी
भाग भी जाते
हैं। जब आग में
डालने के दिन
करीब आने लगे
तो वे घबड़ा
गये। साधक की
हैसियत में ही
भाग गये।
कुछ
लोग शिष्य की
हैसियत तक में
जाकर भाग जाते
हैं,
क्योंकि जो
आखिरी चोट है,
वह
तुम्हारे
अहंकार का
परिपूर्ण
विसर्जन है।
वह तुम्हारे
व्यक्तित्व
का पूरी तरह
लीन हो जाना
है गुरु में, जैसे बूंद
सागर में लीन
हो जाये। उतना
दाव जो लगा
सकता है लगा
सकता है, अन्यथा
कठिनाई हो
जाती है।
और, जो
भी जायेगा
छोड्कर, वह
विरोध में
बातें करेगा,
निंदा भी
करेगा। यह सब
स्वाभाविक है,
इसकी चिंता
मत लेना। जहा
लाखों शिष्य
होने वाले हैं,
वहां इस तरह
के हजारों लोग
होंगे।
तुमने
पूछा कि आपके
एक और
संन्यासी
स्वामी चिन्मय
ने करंट में
लिखा है कि 'जब
मेरे गुरु
राजनीति के
विरुद्ध
बोलते हैं तब
वे धर्म से
नीचे गिरते
हैं '
इन
सज्जन को मैं जानता
भी नहीं। ये
मेरे शिष्य
हैं भी नहीं।
इन्होंने
अपने को अपने
ही आप शिष्य
मान लिया है।
ये मेरे पास
आये भी नहीं।
इन्होंने
अपने को समझ
लिया है कि ये
एकलव्य जैसे
शिष्य हैं।
मगर एकलव्य
द्रोण के पास
आया था, द्रोण
ने अंगीकार
नहीं किया था।
मगर ये तो मेरे
पास आये भी
नहीं, नाम
भी इन्होंने
अपना स्वयं ही
रख लिया है।
मैं इनकार
करता तब भी
ठीक था, ये
आते तो, ये
मेरी आंख के
साथ आंख तो
मिलाते! इनका
यहां आगमन ही
नहीं हुआ।
इन्होंने
अपने को शिष्य
भी मान लिया
है, और
मेरे खिलाफ भी
लिखना शुरू कर
दिया!
इस
तरह की बातें
भी घटेंगी।
क्योंकि देश
में
विक्षिप्त
लोग भी
हैं—सारी दुनिया
में हैं, इस
तरह के पागल
भी हैं।
शिष्यत्व, एकतरफा
बात नहींहै, दोतरफा बात
है। तुम्हारे
लेने से ही
नहीं हो जाता
शिष्यत्व, मैं
दूंगा तभी
होगा।
तुम्हारे
मानने से होने
लगे तब तो बड़ी
मुश्किल हो
जायेगी। और तब
इस तरह की
दुर्घटना
घटेगी।
ये
सज्जन मुझे
समझते भी
नहीं। इनको
कुछ पता भी
नहीं है कि
मैं क्या कह
रहा हूं यहां
क्या हो रहा
है?
इन्होंने
तो बस मान
लिया। इस तरह
की घटना भी घटेगी।
क्योंकि जब
मेरे
संन्यासी
बढ़ते जायेंगे
और एक हवा
पैदा होगी, तो इस हवा
में, इस
लहर में कई
लोग कपड़े रंग
लेंगे, मालाएं
बना लेंगे, अपने को
घोषणा कर
देंगे। लोग तो
गाते सूरज के साथ
हो जाते हैं।
उसमें से भी
लाभ निकालने
लगते हैं।
तो
इन सज्जन का
तो कोई मूल्य
नहीं है। और
इनके वक्तव्य
का तो बिलकुल
ही मूल्य नहीं
है। क्योंकि
इन्हें कुछ
पता ही नहीं
कि मेरी
जीवन—दृष्टि
क्या है!
धर्म
कोई विषय थोड़े
ही है। धर्म
की कोई सीमा थोड़े
ही है। धर्म
तो समस्त जीवन
का नाम है।
जीवन में जो
कुछ भी
समाविष्ट है, धर्म
उस सभी के
संबंध में
वक्तव्य देने
का हकदार है।
राजनीतिज्ञ
धर्म के संबंध
में वक्तव्य
नहीं दे सकता,
क्योंकि
राजनीति की
सीमा है, लेकिन
धार्मिक
व्यक्ति
राजनीति के
संबंध में
वक्तव्य दे
सकता है, क्योंकि
धर्म की कोई
सीमा नहीं है।
धर्म असीम है।
धर्म तो पूरे
जीवन को घेरता
है, जैसे
आकाश घेरता
है...। धर्म से
तो कोई भी चीज
छोड़ी नहीं जा
सकती।
धार्मिक
व्यक्ति की
दृष्टि तो सब
संबंधों में
होगी।
मैं
काव्य पर भी
बोलूंगा, क्योंकि
धर्म की एक
काव्य—दृष्टि
भी है। इसलिए
हमने इस देश
में कवियों को
दो नाम दिये
हैं—कवि और
ऋषि। ऋषि हम
उस कवि को
कहते हैं
जिसकी कविता
में धर्म
बोलता है; जिसकी
कविता में
ईश्वर का
अनुभव बोलता
है। जिसने
काव्य को धर्म
में रंग दिया,
उसको हम ऋषि
कहते हैं।
जैसे
रवीन्द्रनाथ
को ऋषि कहना
चाहिए, कवि
नहीं। उनकी
गीतांजलि का
वही मूल्य
होना चाहिए जो
किसी भी
उपनिषद का है।
वे ऋषि हैं।
उन्होंने जो
कहा है वह
सिर्फ मात्रा,
छंद, व्याकरण
और भाषा का
ज्ञान नहीं
है। उन्होंने जो
कहा है उसमें एक
अनुभव की धार
है, एक रस
बहा है।
रस—जों उनका
नहीं है! रस—जो
उनके ऊपर से आ
रहा है। वे तो
केवल जैसे
माध्यम हैं। जैसे
बासुरी किसी
के ओंठ पर रखी
बजती है।
बांसुरी को यह
भ्रांति पैदा
हो जाये कि ये
स्वर मेरे हैं,
तो कवि। और
बांसुरी को यह
पता चलता रहे
कि स्वर किसी
और के हैं, मैं
जिसके ओंठ पर
रखी हूं उसके
हैं, तो
ऋषि।
रवीन्द्रनाथ
को यह बोध
निरंतर रहा है
कि जो मैं गा
रहा हूं वह
ओंठ पर मेरे
है, मगर
गीत किसी और
का है। मैं
सिर्फ उपकरण
हूं निमित्तमात्र
हूं।
तो
मैं तो काव्य
पर भी
बोलूंगा। मैं
तो कला पर भी
बोलूंगा, क्योंकि
कला का भी एक
धार्मिक आयाम
है। जैसे अजंता,
एलोरा, खजुराहो,
कोणार्क, भुवनेश्वर
के मंदिर, पुरी
के मंदिर।
तुम
जानकर हैरान
होओगे कि
ताजमहल भी
सूफी आधारों
पर निर्मित
हुआ है।
इतिहास में
उसकी चर्चा
नहीं की जाती, क्योंकि
इतिहास जो लोग
लिखते हैं
उनको इतनी गहराई
तक न समझ होती
है, न
चेष्टा करते
हैं।
उन्होंने तो
समझा कि बस है
किसी सम्राट
की अपनी
प्रेयसी के
लिए बनाई गई याददाश्त,
बात खत्म हो
गयी। लेकिन
इसकी खोज में
कभी गये नहीं
कि सम्राट ने
बड़े सूफी
संतों से
सलाह—मश्विरा
किया। ताजमहल
को इस ढंग से
बनाया गया है कि
अगर पूरे चांद
की रात में
तुम घंटे— भर
बैठकर उसको सिर्फ
देखते रहे तो
ध्यानस्थ हो
जाओगे। वह अदभुत
धार्मिक कला
का नमूना है।
एक विशिष्ट
दशा में, एक
विशिष्ट भाव
से और एक
विशिष्ट कोण
से अगर तुम
देखोगे तो
ताजमहल मंदिर
है, मकबरा
नहीं।
देखने—देखने
की बात है।
बुद्ध
की और महावीर
की जो हमने
प्रतिमाएं
बनाई हैं, वे
प्रतिमाएं
केवल
मूर्तिकला के
सबूत नहीं हैं।
मूर्तिकला
गौण है; उन
प्रतिमाओं
में हमने
बुद्धत्व को
समाने की कोशिश
की है। अगर
तुम बुद्ध की
प्रतिमा के
सामने बैठकर
उसे अपलक
निहारते
रहोगे, तो
जल्दी ही तुम
पाओगे
तुम्हारे भीतर
भी कोई चीज थम
गई, ठहर
गई। तुम्हारे
विचार की
प्रक्रिया
रुक गयी, तुम्हारे
भीतर धीरे से
निर्विचार आ
गया। उस प्रतिमा
के रूप में, ढंग में, रंग
में, तुम्हारे
भीतर ध्यान को
उपजाने की
व्यवस्था है।
वह प्रतिमा एक
यंत्र है, जिससे
तुम्हारे
भीतर ध्यान को
प्रेरणा दी जा
सकती है।
तो
मैं
मूर्तिकला पर
भी बोलूंगा।
मैं तो जीवन के
हर अंग पर
बोलूंगा।
क्योंकि मैं
धार्मिक हूं
इसलिए मेरे
लिये जीवन का
कोई अंग अछूता
नहीं है, अछूता
नहीं छूटेगा।
मैं किसी
हिस्से को
अछूत नहीं
मानता। मैं
राजनीतिज्ञ
नहीं हूं
लेकिन राजनीति
पर बोलूंगा। मैं
धार्मिक हूं
इसलिये
बोलूंगा।
क्योंकि राजनीति
सिर्फ
राजनीति ही तो
नहीं है, उससे
तुम्हारे
जीवन का बहुत
कुछ
निर्धारित होगा।
उस निर्धारण
में तुम्हारा
धर्म भी प्रभावित
होगा।
अब
जैसे समझो कि
भारत ने एक
राजनीति तय कर
ली—धर्मनिरपेक्षता
की। इसका
परिणाम धर्म
पर होने वाला
है। यह बात
गलत है। कोई
राष्ट्र
धर्मनिरपेक्ष
नहीं होना
चाहिए। हा, किसी
विशिष्ट
संप्रदाय का
प्रभुत्व न हो
यह ठीक है, लेकिन
धर्मनिरपेक्ष
तो कैसे कोई
राज्य हो सकता
है? हिंदू
न हो, मुसलमान
न हो, यह तो
ठीक है। होना
ही नहीं चाहिए
हिंदू और मुसलमान।
लेकिन एक अति
है कि राष्ट्र
हिंदू हो जाता
है, कि
मुसलमान हो
जाता है; दूसरी
अति है कि
राज्य
अधार्मिक हो
जाता है कि
हमें धर्म से
कुछ लेना—देना
नहीं। आदमी के
प्राण का इतना
बहुमूल्य
हिस्सा—और तुम
कहोगे हमें
उससे कुछ
लेना—देना
नहीं! उसके
घातक परिणाम
होंगे। राज्य
को धर्म की
तरफ सुविधा
बनानी ही
होगी। राज्य
को धार्मिक
नहीं होने की
जरूरत है
हिंदू—मुसलमान
के अर्थ में; मगर धार्मिक
होने की जरूरत
है इस अर्थ
में कि देश
में ध्यान बढे,
प्रेम बढे,
शाति बढ़े।
लोगों के जीवन
में योग उतरे।
लोगों के जीवन
में एक अंतरंग
अनुशासन
जन्मे। लोगों
के भीतर आत्मा
पैदा हो।
तो
मैं तो विरोध
करूंगा
धर्मनिरपेक्ष
राज्य का।
राज्य को तो
धर्म को वैसे
ही गति देनी
चाहिए जैसे
माली पानी
सींचता है
वृक्षों में, ताकि
फूल खिलें; चेतना के
फूल खिलेंगे
नहीं अन्यथा।
फिर लाख तुमे
उपाय करते रहो
कि लोग नैतिक
हो जायें, लोग
सदाचारी हो
जायें, सचरित्र
हो जायें; वे
सब उपाय असफल
हो जायेंगे।
क्योंकि फूल
खिलेंगे ही
नहीं, तुमने
जड़ों को पानी
ही न दिया।
धर्म
जड़ है जीवन की
सारी नीति की।
और अगर राज्य
धर्मनिरपेक्ष
है तो राजनीति
नीति तो बिलकुल
नहीं होगी, अनीति
हो जायेगी।
वही हुआ है।
तो
मैं तो
राजनीति की
आलोचना
करूंगा, समस्त
बुद्धों ने की
है। समस्त
बुद्धों के वक्तव्य
हैं। जीसस को
सूली न लगाई
गयी होती, अगर
उन्होंने उस
समय की
राजनीति का
विरोध न किया
होता।
राजनीति
महत्वाकांक्षा
से चलती है।
राजनीति एक
रोग है। और
दुनिया को
राजनीति से
धीरे— धीरे मुक्त
करना है।
क्योंकि
जितनी ऊर्जा
राजनीति में
लग जाती है, वही ऊर्जा
धर्म में लगे
तो लोगों के
जीवन में बड़ा
आनंद, बड़ा
उत्सव फले।
तो
जो व्यक्ति
कहता है कि
चूंकि मैंने
राजनीति के
विरोध में कुछ
कह दिया, इसलिए
धर्म से नीचे
गिर गया, उसे
न तो धर्म का
पता है न राजनीति
का पता है। और
मेरा तो उसे
बिलकुल पता नहीं
है। धर्म में
पहुंचकर कोई
गिरता थोड़े ही
है! और जो गिर
जाये वह
पहुंचा ही
नहीं। जो
पहुंच गया, पहुंच गया, गिरने का
कोई उपाय
नहीं। मैं
नर्क में भी
चला जाऊं तो
जो मैं हूं
वही रहूंगा, गिरने का
कोई उपाय नहीं
है।
एक
पंडित रमण के
पास आया और
बहुत सिर खाने
लगा,
शास्त्रों
की बातें करने
लगा। रमण ने
उसे बार—बार
कहा कि भाई
मेरे, ध्यान
करो। इस सब से
कुछ भी नहीं
होगा, यह
सब बातचीत है
और बेकार है।
समय मत खराब
करो, ऐसे
ही तुम्हारी
जिंदगी बीत
गयी। मगर वह
भी शास्त्री
था, उसने
कहा : आप क्या
कह रहे हैं, बेकार है? यह वेद का
वचन है। और
प्रमाण देने
लगा। और रमण ने
कहा कि अच्छा
है, सब ठीक
है, मगर
तुम ध्यान तो
करो। उसने कहा
कि पहले इस संबंध
में बातचीत
होगी तभी
ध्यान करूंगा।
वह जिद्द पकड़े
ही रहा, रमण
उससे कहते रहे
कि ध्यान करो।
वे एक ही बात कहते
थे कि ध्यान
करो, और
कुछ कहने को
है भी नहीं।
जब वह नहीं
माना तो उन्होंने
उठा लिया अपना
डंडा...। वह
आदमी घबड़ाया।
उसने कभी सोचा
नहीं था कि
रमण और डंडा
उठायेंगे। और
रमण उसके पीछे
दौड़े।.. जरा
सोचो महर्षि
रमण को डंडा
लिये, एक
पंडित के पीछे
दौड़ते...। अनेक
रमण के
अनुयायियों
में बड़ा संदेह
पैदा हो गया
कि रमण और
डंडा उठायें
और क्रोधित हो
जायें! यह तो
पतन हो गया!
कहीं ऐसा होता
है?
क्योंकि
हमने धारणाएं
बना ली हैं कि
जो आदमी बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
गया है वह
डंडा थोडे ही उठायेगा!
हमें कुछ पता
ही नहीं है।
बुद्धत्व को
उपलब्ध
व्यक्ति भी
डंडा उठाता है, हालांकि
उसका डंडा
उठाना
तुम्हारे
डंडा उठाने से
बहुत भिन्न
होता है. उठा
सकता है वह।
रमण उसे
खदेड़कर भीतर आ
गये, खूब
खिलखिलाकर
हंसने लगे...।
किसी ने पूछा :
यह आपने क्या
किया? उन्होंने
कहा : मैं और
क्या करता? लातों की
देवी बातों से
मानती ही
नहीं। वह सिर
खाये ही जाता
था। वह हटनेवाला
था ही नहीं; वह डंडे की
ही भाषा समझ
सकता था।
रमण
क्रोधित नहीं
हुए हैं। रमण
और क्रोधित हों, यह
संभव ही नहीं
है। रमण अगर
क्रोधित हो भी
जायें, तुम्हें
दिखाई पड़े
क्रोधित होते,
तो भी
क्रोधित नहीं
होते।
तुमने
जीसस की कहानी
तो सुनी है न!
कि उन्होंने
उठा लिया था
कोड़ा, घुस गये
थे मंदिर में,
और मंदिर
में जिन लोगों
ने ब्याज की
दुकानें खोल
रखीं थीं उनके
तख्ते उलट
दिये थे। कोड़े
मार कर उनको
खदेर्डकर
बाहर कर दिया
था..। अब जरा सोचो
कि जीसस और
कोड़े उठा कर
लोगों को खदेड़
दें यह बात तो
जंचती नहीं, फिर यह कैसा
पहुंचा हुआ
सिद्ध—पुरुष
हुआ! तो यह भी
क्रोधित हो
गया तो धर्म
से पतन हो
गया।
मैं
तुमसे कहता
हूं कि जिसको
डर है धर्म से
पतित होने का, उसे
तो धर्म का
पता ही नहीं
है। वहा से
कोई पतित थोड़े
ही होता है।
वह तो परम
जागरण है, आत्यंतिक
दशा है। वहा
तो जो एक बार
पहुंच गया, मिट ही गया।
रमण ने डंडा
हाथ में उठाया,
यह बात ही
कहना गलत
है—परमात्मा
ने ही डंडा हाथ
में उठाया, रमण अब तो
हैं ही नहीं।
और जीसस ने
कोड़े मारे यह
बात भी गलत
है। जीसस तो
अब हैं ही
नहीं, परमात्मा
ने ही कोड़ा
उठाया, जीसस
के हाथों का
उपयोग किया।
तो
मैं अगर कभी
कोई कठोर
वक्तव्य दे
देता हूं तो
जो नहीं समझते
वे कहेंगे अरे, इतनी
कठोर बात कह
दी! ऐसी बात
किसी
प्रज्ञापुरुष
को कहनी चाहिए?
उनकी
धारणाएं हैं।
और इस देश में
तो बड़ी धारणाएं
हैं। तुमने तो
ऐसी धारणाएं
बना ली हैं कि
अगर तुम्हारी
धारणा को
मानकर कोई चले
तो वह और कुछ
हो सकता है, प्रज्ञापुरुष
तो नहीं हो
सकता। उसमें
तो तुम इतनी
जंजीरें डाल
दोगे, उसका
जीना ही
मुश्किल कर
दोगे।
अब
थोडा सोचो, रमण
अगर धोखेबाज
होते तो सोचते
वे, थोड़ी
कूटनीति करते
कि डंडा उठाना
कि नहीं उठाना?
सोचते कि
डंडा उठाऊंगा
तो लोग क्या
कहेंगे। ऐसा
सोचकर डंडा न
उठाते तो मैं
कहता
प्रज्ञापुरुष
नहीं थे।
लेकिन सहज
छोटे बच्चे की
भांति डंडा
उठा लिया। जो
जब जैसा जरूरी
था, जिस
परिस्थिति
में उनके
चैतन्य में जो
भाव आविर्भूत
हुआ, उसके
अनुकूल जीये—न
चिंता की कि
तुम क्या सोचोगे,
कि तुम क्या
कहोगे।
मैं
तुम्हारी
चिंता नहीं
करता कि तुम
क्या सोचोगे, तुम
क्या कहोगे।
मुझे जो सहज
है, उस ढंग
से जीता हूं।
जो मुझे सहज
कहना है, कहता
हूं। जो कहा
जाता है, कहता
हूं। जो होता
है, होने
देता हूं।
तुम्हारी
धारणाएं तुम
समझो। तुम्हें
ठीक लगे ठीक, तुम्हें गलत
लगे गलत; मेरी
तरफ से न कुछ
अब गलत है, न
कुछ अब ठीक
है।
ये
सज्जन
जिन्होंने
अपना नाम
स्वामी 'चिन्मय
रख छोड़ा है, मेरे शिष्य
नहीं हैं, न
उन्हें मैं
क्या कह रहा
हूं इसका कोई
अनुभव है। मगर
इस तरह की
बातें होंगी।
झूठे शिष्य भी
पैदा हो
जायेंगे, झूठे
दावेदार १गई
पैदा हो
जायेंगे।
यहां से
संन्यासियों
की मालाएं
चोरी चली जाती
हैं। मालाएं
कौन चुरा ले
जाता है! बड़ी
हैरानी की बात
है—मालाओं को
चुराकर करोगे
क्या? लेकिन
मालाएं
चुराकर चले
गये तो वे
मेरे संन्यासी
हो गये, मैंने
उन्हें
संन्यास दिया
नहीं। गैरिक
वस्त्र तो वे
बना लेंगे, माला की
दिक्कत थी वह
उन्होंने
चुरा ली। अब
वे चले
गांव—गांव...
यहां खबरें
आती हैं कि
आपका संन्यासी
इस गांव में
आया और चंदा
ले गया। उसने कहा
कि आश्रम को
बड़ी जरूरत है।
यह भी होगा।
अब उसके पास
माला होती है
तो लोग मान
लेते हैं कि ठीक
है, आश्रम
के द्वारा आया
होगा, संन्यासी
उनका है। तो
ऐसे कोई दस
संन्यासियों
की खबरें आयी
हैं, जो
पैसे इकट्ठे
कर रहे हैं।
एक ने तो
हजारों रुपये
इकट्ठे कर
लिये हैं—कोई
चालीस हजार
रुपये—तब पकड़
में आया वह, कि वह मेरा
संन्यासी ही
नहों है।
सावधान
रहना, इस तरह
की घटनाएं
स्वाभाविक
हैं। जहा इतना
बड़ा आदोलन
उठेगा, वहां
ये छोटी—मोटी
चीजें भी
अपने—आप पैदा
होती हैं!
जैसे फूल
खिलते हैं तो
थोड़े कांटे
भी। उनको
अंगीकार करना
होता है। सजग
रहना, सावधान
रहना, गद्दार
भी होंगे।
धोखा भी
देनेवाले लोग
आयेंगे। झूठा
प्रचार भी
करेंगे। और
इतना झूठा प्रचार
कर सकते हैं
कि आश्चर्य
मालूम हो।
अभी
जर्मंनी के
अखबारों में
मेरे संबंध
में बहुत
तूफान उठा हुआ
है,
कोई महीने—
भर से तूफान
चल रहा है।
करीब—करीब जर्मनी
के सारे अखबार
उसमें
सम्मिलित हो
गये हैं। ऐसा
शायद ही कोई
अखबार हो
जर्मनी का, जिसने मेरे
पक्ष या विपक्ष
में वक्तल? नहीं छापे
हैं। जोर का
घमासान है...।
और जिस आदमी
ने शुरू किया,
उस आदमी का
जो पहला
वक्तव्य था, मैंने भी
पढ़ा तो मैं भी
आनंदित हुआ।
उसने वक्तव्य
दिया कि 'साढ़े
पांच बजे सुबह
मैं आश्रम के
द्वार पर पहुंचा'—जर्मन
पत्रकार—'दरवाजा
खटखटाया।
नग्न एक सुंदर
युवती ने
दरवाजा खोला।
साढ़े पांच बजे
सुबह...। और
इतना ही नहीं,
पास के एक
वृक्ष से एक
फल तोड़कर, जो
सेब जैसा
मालूम पड़ता था,
उसने मुझे
दिया और कहा :
इसे आप भगवान
का प्रसाद
मानकर
अंगीकार
करें। मैंने
उससे पूछा कि
इससे क्या
होगा? उसने
कहा कि इससे
मनुष्य में
बड़ी काम—ऊर्जा
पैदा होती है।
'
अब
तुम चकित
होओगे जानकर
कि पत्र आने
शुरू हो गये।
आस्ट्रेलिया
से एक पत्र
आया हुआ है।
एक बूढ़े आदमी
ने पत्र लिखा
है कि मेरी
सत्तर साल की
उम्र है और
मेरी पत्नी
जवान है और
आपके आश्रम
में ऐसा फल है, तो
मैं आ जाऊं? मुझ पर कृपा
करो। यह सब भी
होगा। मैंने
उनको लिखवाया
है कि आप आओ तो! फल
इत्यादि की
पीछे
सोचेंगे। चलो
इस बहाने ही आ
तो जाओ। आ
जायेंगे तो
समझा—बुझा
लूंगा कि चलो
ध्यान तो करो।
जर्मनी से
मेरे मित्रों
ने लिखा है कि
आप सावधान
रहना, क्योंकि
यहां इतना इस
तरह का जो
झूठा प्रचार चल
रहा है, इसका
परिणाम यह
होगा कि सब
तरह के
रुग्णचित्त लोग,
मानसिक रूप
से विकृत लोग
आश्रम
पहुंचना शुरू हो
जायेंगे।
एक
सज्जन आ गये
हैं। आ ही गये!
साठ वर्ष के
हैं। उन्होंने
आते ही से खबर
की कि वे
होमोसेक्यूअलिटी
से पीड़ित हैं, तो
कोई उपाय है
मेरे लिये? यह दुनिया
बड़ी अजीब है, इसके रास्ते
बड़े अजीब हैं!
भिन्न—भिन्न
तरह के लोग
यहां हैं। सब
तरह के पागलपन
हैं पृथ्वी
पर.।
इन
पागलों के बीच
जीना और
होशपूर्वक
जीना और पागलपन
से मुक्त होकर
जीना बड़ी कठिन
बात है। पागलों
के बीच जागकर
जीना बडी कठिन
बात है! वही कठिनाई
सारे बुद्धों
को रही है, क्योंकि
पागल' अपनी
चीजें उन पर
थोप देते हैं।
उनका पागलों का
भी कोई कसूर
नहीं है, वे
भी क्या करें?
उनके पास
जैसा चित्त है
वही वे थोप
देते हैं।
अब
अगर इन सज्जन
को कहा जाये
कि आप पागल हो, आप
किन अखबारों
की बातें
सुनकर आ गये
हो, तो वे
मानेंगे नहीं,
वे समझेंगे
कि उनकी तरफ
ध्यान नहीं
दिया जा रहा है।
उनको कहलवाया
कि आप फिजूल
की बातें पढ़कर
आ गये, आप
यहां देखो, यहां कुछ
हमें इस तरह
के लोगों के
इलाज करने की
उत्सुकता
नहीं है। यह
कोई
चिकित्सालय
नहीं है इस
तरह के लोगों
के लिये।
तो
उन्होंने खबर
भेजी कि अगर
संन्यास लेना
जरूरी हो तो
मैं संन्यास
भी ले सकता हूं
मगर अब जाऊंगा
नहीं। अब तो
कुछ हो ही
जाये तो ही
जाऊंगा।
यह
सब होगा। जो
मेरे साथ हैं
उन्हें सजग
होकर इन सारी
बातों पर
ध्यान रखना
होगा; न तो
विचलित होने
की जरूरत है, न परेशान
होने की जरूरत
है। झूठी
बातें कही जायेंगी,
झूठी बातें
फैलाई
जायेंगी और उन
पर भरोसा करने
वाले लोग मिल
जायेंगे। और
भीड़ उन पर
भरोसा कर
लेगी। भीड़
इसलिए भरोसा
कर लेगी, क्योंकि
मैं जो कह रहा
हूं वह भीड़ की
मान्यताओं के
विपरीत है।
इसलिए मेरे
खिलाफ जो भी
कहा जायेगा, भीड़ उस पर
राजी हो
जायेगी। और
मेरे खिलाफ
बोलने वाले
लोग बढ़ेंगे, क्योंकि
उससे उनको लाभ
होगा। लोग
उनकी मानेंगे,
सुनेंगे, समझेंगे।
लोग समझेंगे
कि ये बड़े
ज्ञानी हैं। मगर
यह नाटक सदा
से ऐसा ही
चलता रहा है।
कभी जीसस होते
जो जुदास हो
जाते, कभी
बुद्ध होते तो
देवदत्त हो
जाता, और
कभी महावीर हो
जाते तो
गोशाला हो
जाता है। किसी
न किसी को
मेरे साथ भी
जुदास तो होना
ही पड़ेगा।
दूसरा
प्रश्न :
श्रद्धा
क्या है?
श्रद्धा
है भीतर आंख।
जैसे ये दो
आंखें हैं जगत
को देखने के
लिए,
ऐसी एक
तीसरी आंख है
तुम्हारे
भीतर, जिसका
नाम श्रद्धा
है। श्रद्धा
की आंख से परमात्मा
देखा जाता है।
श्रद्धा की
आंख का अर्थ
है प्रेम की
आंख। कुछ
बातें हैं जो
प्रेम ही जान
पाता है। और
कोई उपाय
जानने का नहीं
है।
तुम
अगर किसी
व्यक्ति को
प्रेम करते हो
तो तुम्हें
उसमें कुछ
बातें दिखाई
पड़ेगी जो किसी
और को दिखाई
नहीं पड़ेगी।
तुम्हें
उसमें कुछ माधुर्य
दिखाई पड़ेगा
जो और किसी को
दिखाई नहीं
पड़ेगा। वह
माधुर्य
नाजुक है, उसके
लिए प्रेम का
स्पर्श चाहिए,
तो ही प्रकट
होता है।
तुम्हें उस
व्यक्ति में एक
गीत की
अनुगूंज
सुनाई पड़ेगी,
जो किसी और
को सुनाई नहीं
पड़ेगी। उसके
लिए जितने
करीब आना
जरूरी है, उतना
कोई करीब नहीं
है; तुम्हीं
उतने करीब हो।
इसलिए
जिसको हम
प्रेम करते
हैं,
उसमें
सौंदर्य
प्रगट होने
लगता है। लोग
सोचते हैं कि
जिसमें
सौंदर्य होता
है हम उसके
प्रेम में
गिरते हैं, वे गलत
सोचते हैं।
तुम जिसके
प्रेम में पड़
जाते हो उसमें
सौंदर्य
दिखाई पड़ता
है। उसमें जीवन
की सारी
महत्ता, सारी
गरिमा प्रगट
होने लगती है।
और ऐसा नहीं है
कि तुम कल्पना
कर रहे हो, प्रेम
की आंख खुलते
ही तुम्हें
अदृश्य दृश्य होने
लगता है, अगोचर
गोचर होने
लगता है। जो
छिपा है उसकी
उपस्थिति
अनुभव होने
लगती है। बिना
द्वार खुले कोई
तुम्हारे
भीतर आ जाता
है।
खुलता
नहीं दिल बंद
ही रहता है
हमेशा।
क्या
जाने कि आ
जाता है तू
इसमें किधर
से।।
श्रद्धावान
को पता चलता
है कि बड़े
आश्चर्य की बात
है कि कहा से, किस
अज्ञात द्वार
से परमात्मा
भीतर प्रवेश कर
जाता है!
देख्यौ
जागत वैसिये, साकरि
लगी कपाट।
कित
है आवत जात
भजि,
को जाने
किहि बाट।।
बिहारी
का यह दोहा है, बड़ा
प्यारा है!
चारों ओर से
किवाड़ बंद
करके प्रेमिका
सो रही है।
स्वप्न में
उसके प्रिय आ
जाते हैं, इतने
में वह जाग
जाती है।
जागकर देखती
है कि किवाड़
तो वैसे ही
बंद हैं, उसमें
सांकल भी उसी
प्रकार से लगी
हुई है। न जाने
वह किधर से
आते हैं और
किस रास्ते से
भाग जाते हैं!
देख्यौ
जागत वैसिये, साकरि
लगी कपाट।
कित
है आवत जात
भजि,
को जाने
किहि बाट।।
कहां
से तुम आ जाते
हो,
कहां से तुम
विदा हो जाते
हो! कौन—से
झरोखे से झांक
जाते हो! उस
झरोखे का नाम
श्रद्धा है।
जो
तर्क में ही
जीता है वह
पदार्थ से
ज्यादा गहरा
कुछ भी न जान
पायेगा। उसका
जीवन व्यर्थ
ही होगा। धन
भला इकट्ठा कर
ले,
मगर सब धन
पड़ा रह
जायेगा।
ध्यान से
वंचित रह जायेगा।
और ध्यान ही
मृत्यु में भी
साथ जाता है।
परम धन उसे न
मिलेगा। धन तो
उसी को मिलता
है जिसके भीतर
श्रद्धा की
आंख है।
मैंने
तुमसे कहा कि
चार कोटियां
हैं
जिज्ञासुओं
की।
विद्यार्थी, वह
तर्क से चलता
है। साधक, वह
कृत्य से चलता
है। शिष्य, प्रेम से
चलता है। और
भक्त, श्रद्धा
से।
प्रेम
की पराकाष्ठा
है श्रद्धा।
श्रद्धा का अर्थ
है. जो अब तक
नहीं हुआ है
वह भी होगा, उस
पर भरोसा है।
क्योंकि जो
हुआ है उससे
भरोसा जगता
है। इस जगत
में इतना
सौंदर्य है, इस जगत में
इतनी रोशनी है,
इतना संगीत
है... पक्षियों
के कंठ—कंठ
में संगीत भरा
है!
पत्ते—पत्ते
में सौंदर्य
है, तारों—तारों
में रोशनी है।
यह जगत इतना
महिमापूर्ण
है, इसके
पीछे कोई न
कोई चितेरा
होना ही चाहिए।
श्रद्धा
का अर्थ है :
इतने रंगों के
पीछे कोई चितेरा
होना ही
चाहिए।
श्रद्धा
का अर्थ है :
इतनी सौंदर्य
की जहां वर्षा
हो रही है, वहां
इस सौंदर्य का
कोई मूलस्रोत
भी होना ही चाहिए।
यह
तर्क नहीं है, यह
कोई
कार्य—कारण का
सिद्धात नहीं
है—यह प्रतीति
है। जैसे तुम
जब बगीचे के
करीब आने लगते
हो तो हवाओं
में थोड़ी—सी
शीतलता मालूम
होने लगती है।
अभी बगीचा
दिखाई नहीं
पड़ा, लेकिन
हवा शीतल होने
लगी। तो एक
बात तय है कि तुम
बगीचे के करीब
आ रहे हो।
जाने— अनजाने
तुम्हारे पैर
ठीक रास्ते पर
पड़ रहे हैं, कि दूरी कम
हो रही है, कि
निकटता बढ़ रही
है। फिर धीरे—
धीरे हवाओं पर
सवार फूलों की
सुगंध भी आने
लगी.. यह बेले
की सुगंध, यह
रातरानी की
सुगंध, यह
गुलाबों की
सुगंध...। अब
तुम जानते हो
कि करीब, और
भी करीब आने
लगे। अभी भी बग़ीचा
दिखाई नहीं
पड़ा है, लेकिन
अब तुम
निश्चित हो कि
बगीचा है, नहीं
तो यह सुगंध
कहां से? सुगंध
का स्रोत कहीं
होगा, फूल
कहीं खिले
होंगे! फिर
तुम और करीब
आते हो, पक्षियों
के गीत भी
सुनाई पड़ने
लगे। अब तुम
जानते हो कि
घनी छाया होगी,
घने वृक्ष
होंगे; नहीं
तो इतने
पक्षियों के
गीत.. यह कोयल
पुकारने लगी
तो अमराई
होगी।
श्रद्धा
का अर्थ है : जो
सूक्ष्म—सूक्ष्म
संकेत मिलते हैं, उनके
द्वारा स्रोत
को स्वीकार कर
लेना। गुरु के
पास बैठे और
चित्त मगन
होने लगा, कुछ
बूंदाबांदी
होने लगी, हृदय
में कोई कमल
खिलने लगा, तो तुम
जानते हो कि
जिसके पास
बैठने से ऐसा
हो रहा है, अब
कुछ और भी
होगा; भरोसा
बढ़ा।
तुम
मिलोगे ही कभी
सुधि की डगर
में,
मैं
तुम्हारी याद
को अपना बना
लूं!
तुम
मिलोगे ही
कभी... ऐसी भाव
दशा का नाम
श्रद्धा है।
तुम
मिलोगे ही कभी
सुधि की डगर
में
मैं
तुम्हारी याद
को अपना बना
लूं!
तुम
मिटा दोगे कभी
मन की घुटन को
मैं
तुम्हारी
ज्योति को
अपना बना लूं!
सुबह—सी
मुस्कान, चंदन—सा
हृदय—धन,
ओस—सा
पावन नयन का
नीर ढाला;
सुमन
को सौरभ, भ्रमर
को गज देकर,
स्वयं
को छलती रही, पी
मदिर हाला
तुम
सजा दोगे कभी
बिखरे सपन को
मैं
तुम्हारी
नींद को अपना
बना लूं!
तुम
मिलोगे ही कभी
सुधि की डगर
में,
मैं
तुम्हारी याद
को अपना बना
लूं!
मैं
अकिंचन—सी
किनारे पर खड़ी
हूं,
और
उफनाता जलधि
ललकारता है;
साथ
देने को लहर
बेकल बढ़ी है,
और
तट का धैर्य
भी हुंकारता
है;
तुम
मिलोगे ही कभी
स्नेहिल लहर
में;
मैं
विकल मंझधार
को अपना बना
लूं!
तुम
मिटा दोगे कभी
मन की घुटन को,
मैं
तुम्हारी
ज्योति को
अपना बना लूं!
रात
लंबी है, मगर
तारों— भरी है
हर
दिशा का दीप
पलकों ने
जलाया
सांस
छोटी है, मगर
आशा बड़ी है,
जिंदगी
ने मौत पर
पहरा लगाया;
तुम
मिलोगे ही कभी
पिछले पहर में
मैं
सिसकती माग
शबनम से सजा
लूं!
तुम
मिलोगे ही कभी
सुधि की डगर में!
मैं
तुम्हारी याद
को अपना बना
लूं!
तुम
मिटा दोगे कभी
मन की घुटन को
मैं
तुम्हारी
ज्योति को
अपना बना लूं!
इशारे
हैं चारों तरफ, संकेत
हैं चारों
तरफ। श्रद्धा
उन संकेतों को
समझने का नाम
है।
तर्क
अंधा है, क्योंकि
तर्क स्थूल
मांगता है।
जैसे गुलाब खिला
और अगर तुम
तार्किक को
कहो कि देखो
कितना सुंदर,
कितना
अप्रतिम! तो
तार्किक कहे
कि 'कहां
है सौंदर्य, दिखाओ मुझे।
मैं सौंदर्य
को हाथ में
लेकर देखना
चाहता हूं मैं
उसे छूना
चाहता हूं।
मैं उसे तौलना
चाहता हूं।
मैं विज्ञान
के तराजू पर
उसे तौलना
चाहता हूं।
मैं गणित की
कसौटी पर कसना
चाहता हूं।
मैं तर्क के
हिसाब में उसे
लाना चाहता
हूं। तभी
स्वीकार
करूंगा। ' अब
तुम क्या
करोगे?
और
ऐसा नहीं है
कि फूल सुंदर
नहीं है। फूल
सुंदर है। मगर
सौंदर्य कोई
स्थूल वस्तु
नहीं है कि
तुम उठा कर दे
दो इस तार्किक
को,
कि ले जा, नाप ले; कि
ले जा, जांच
ले।
मैंने
सुना है कि
बाउलों का एक
प्यारा गीत
है। किसी बाउल
फकीर को पूछा
किसी
दार्शनिक ने
कि तुम बहुत
परमात्मा के
गीत गाते हो, दीवाने
हुए घूमते हो;
मुझे तो कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। तुम
किसके लिए यह
एकतारा और
डुग्गी लिये
घूमते हो, किसके
लिए बजाते हो
यह गीत, किसके
लिए नाचते हो?
मुझे तो सब
कोरा—कोरा
मालूम पड़ता
है। मुझे तो कहीं
कोई परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता। और तुम्हारी
आंख से आंसू
बहते हैं! और
तुम मग्न हो
जाते हो! तुम
पागल हो?
इसीलिए
तो उनका बाउल
नाम पड़
गया—बाउल का
अर्थ होता है
पागल, बावले।
वह फकीर
एकतारा बजाने
लगा, और
उसने एक गीत
गाया। गीत बड़ा
अदभुत है। गीत
का अर्थ है, कि ऐसा हुआ, एक बार एक
सुनार एक
बगीचे में
पहुंच गया और
माली से कहने
लगा कि मैंने
बड़ी चर्चा
सुनी है तेरे
फूलों की, कि
बड़े सुंदर तू
फूल उगाता है।
तो आज मैं
अपने सोने के
कसने के पत्थर
को लेकर आ गया
हूं। आज
जांच—जांचकर
देखूंगा कि
कौन—कौन फूल
असली, कौन—कौन
नकली?
तो
बाउल कहने लगा
: सोचते हो
क्या दशा हो
गयी होगी उस
माली की! उसके
फूलों को अगर
पत्थर पर घिसोगे...।
सोने को परखने
वाला पत्थर, फूलों
के सौंदर्य को
नहीं परख
पायेगा। सोना
स्थूल है, और
सोना स्थूल लोगों
की बुद्धि को
ही प्रभावित
करता है। जडता
जिनमें बहुत
है, उनके
लिए सोना सबसे
मूल्यवान है।
लेकिन और भी हैं,
जिनकी
संवेदनशीलता
गहन है। उनके
लिए फूल, सारे
जगत का सोना
भी दे दिया
जाये तो भी एक.
फूल की कीमत
नहीं चुक सकती,
क्योंकि
फूल जीवंत
सौंदर्य है।
तो
फकीर कहने लगा
: जो दशा उस
माली की हो
गयी थी, वही
दशा तुमने
मेरी कर दी।
तुम कहते हो. 'परमात्मा
कहा है? तर्क
से सिद्ध करो।
' न तो फूल
कसे जा सकते
हैं सोने को
कसने की कसौटी
पर, और न
तर्क की कसौटी
पर परमात्मा
कसा जा सकता है।
जीवन
स्थूल नहीं है; तर्क
स्थूल को ही पकड़ता
है। सूक्ष्म
को जो पकड़
लेता है उसका
नाम श्रद्धा
है। श्रद्धा
एक अनूठा आयाम
है। तुम मिलोगे
ही कभी सुधि
की डगर में!
यह
जो बोध का
रास्ता है, इस
पर कभी न कभी
तुम मिल
जाओगे—यह
भरोसा! क्योंकि
तुम हो!
क्योंकि
फूलों ने खबर
दी कि तुम हो। क्योंकि
वृक्षों से
छनती हुई इस
सूरज की रोशनी
ने खबर दी कि
तुम हो। क्योंकि
रात तारे
नाचने लगे और
खबर मिली कि
तुम हो। कि यह
जो जीवन और
अस्तित्व में
इतनी रंग—गुलाल
उड़ी है, यह
जो होली मची
है, यह जो
दीवाली सजी
है—इस सबने
खबर दी कि तुम
हो। इतना जहा
उत्सव हो रहा
है वहां मालिक
कहीं छिपा होगा,
अन्यथा यह
उत्सव कभी का
बंद हो जाता।
जहां इतना
नर्तन चल रहा
है, इस
नर्तन के
केंद्र पर कोई
होगा।
तुम
मिलोगे ही कभी
सुधि की डगर
में,
मैं
तुम्हारी याद
को अपना बना
लूं!
श्रद्धा
मनुष्य के
जीवन की
सर्वाधिक
मूल्यवान
वस्तु है।
जिसके जीवन
में श्रद्धा, उसके
जीवन में सब
कुछ है।
क्योंकि उसके
जीवन में
परमात्मा की
छाया पड़ेगी।
उसे अदृश्य
आदोलित करेगा।
उसके हृदय में
काव्य उगेग़।
उसके प्राणों
में बांसुरी
बजेगी। उसे
ध्यान भी
फलेगा, उसे
समाधि भी
मिलेगी। उसका
जीवन सार्थक
होगा। और
जिसके जीवन
में श्रद्धा
नहीं है उसका
जीवन व्यर्थ
होगा।
तर्क
के सहारे अगर
चले तो आज
नहीं कल सिवाय
आत्महत्या
करने के और
कुछ बचता नहीं
है। इसलिए पश्चिम
के विचारक जो
तीन सौ साल से
तर्क के सहारे
चल रहे हैं, आत्महत्या
पर पहुंच गये
हैं। पश्चिम
के बहुत बड़े
विचारक
अलबर्ट कामू
ने लिखा है कि
मुझे तो
आत्महत्या ही
सबसे
महत्वपूर्ण
दार्शनिक
समस्या मालूम पड़ती
है। कि आदमी
अपने को मिटा
क्यों न ले, होने में
सार क्या है? उठे रोज, नाश्ता
किया, गये
दुकान, कि
दफ्तर, कि
दिन— भर मेहनत
की, कि
सांझ फिर आ
गये
पिटे—कुटे।
फिर भोजन कर
लिया, फिर
सो गये, फिर
सुबह उठे। अगर
यही—यही है तो
देख लिया बहुत,
तो हो गया
बहुत। एक सीमा
होती है, अब
इसी—इसी को
क्यों दोहराए
जाना? इसमें
सार क्या है? अगर यही है
तो सार बिलकुल
नहीं है। और
तर्क कहता है
कि बस यही है।
तर्क
की अंतिम
निष्पत्ति
आत्मघात है, और
श्रद्धा की
अंतिम
निष्पत्ति
अमृत जीवन है।
चुन लो, जो
रुचे' चुन
लो। तुम अपने
मालिक हो। जब
तुम श्रद्धा
छोड्कर तर्क
चुनते हो तो
तुम यह मत
सोचना कि तुम परमात्मा
का विरोध कर
रहे हो, तुम
अपना आत्मघात
कर रहे हो।
जिस
दिन फ्रेडरिक
नीत्शे ने यह
घोषणा की कि
ईश्वर मर गया
है,
उस दिन
ईश्वर नहीं
मरा, लेकिन
उसी दिन फ्रेडरिक
नीत्शे पागल
हो गया। ईश्वर
कहीं मरता है
किसी की घोषणा
करने से? लेकिन
एक घटना जरूरत
घटती है : अगर
ईश्वर मर गया
तो जीवन में
अर्थ क्या रह
गया? जरा
सोचो, ईश्वर
को हटा दो, तो
उसी के साथ
सारा सौंदर्य
हट गया, सारा
प्रेम हट गया,
सारी
प्रार्थना हट
गयी। मंदिरों
की घंटियां
फिर न बजेगी, पूजा के थाल
फिर न सजेंगे,
अर्चना फिर
न हो सकेगी—सब
हट गया। जीवन
में जो भी
मूल्यवान था,
'ईश्वर' एक
शब्द को हटा
देने से सब हट
जाता है। फिर
बचा क्या? फ्लू—करकट!
फिर बैठे हो
तुम रही के
ढेर पर। फिर सार
कहा है? फिर
तुम्हारा
जीवन एक दुर्घटना
मात्र है। फिर
अभी मरे कि कल
मरे, क्या
फर्क पड़ता है?
फिर जीना
कायरता है।
फिर कोई सार
नहीं। फिर क्यों
जीते रहना, फिर क्यों
दुख झेलना? फिर अपने ही
हाथ से समाप्त
क्यों न कर
लें?
नीत्शे
पागल हुआ और
यह पूरी सदी
पागल हो जा रही
है। क्योंकि
इस पूरी सदी
ने नीत्शे पर
भरोसा कर लिया
है। यह पहली
बार मनुष्य—जाति
के इतिहास में
घटना घटी है
कि लोग श्रद्धा
का अर्थ पूछने
लगे हैं।
श्रद्धा का
अनुभव नहीं
रहा,
इसलिए अर्थ
पूछना पड़ता
है। लोग पूछने
लगे हैं, प्रेम
क्या है? क्योंकि
प्रेम का
अनुभव नहीं
रहा।
जिस
दिन लोग पूछने
लगें प्रकाश
क्या है, समझ
लेना कि लोग
अंधे हो गये।
जिस दिन लोग
पूछने लगें
संगीत क्या है,
समझ लेना कि
बहरे हो गये।
और क्या होगा
इसका अर्थ? श्रद्धा
हमारी सूख गयी
है। हम बिलकुल
बिना श्रद्धा
के जी रहे
हैं।
और
मैं तुमसे
कहता हूं : तुम
मंदिर भी जाते
हो,
मस्जिद भी,
गुरुद्वारा
भी और बिना
श्रद्धा के
जाते हो; इसलिए
तुम्हारे
जाने में कुछ
अर्थ नहीं है।
तुम जाते हो, वह भी एक
उपक्रम हो गया
है जीवन की
व्यवस्था का।
और सब जाते
हैं, तुम
भी जाते हो। न
जाओ तो अड़चन
आती है, जाते
रहो तो सुविधा
रहती है, समाज
में
प्रतिष्ठा
रहती है कि बड़े
धार्मिक हो।
धार्मिक का
आभास बना रहे
तो कई तरह की
सुविधाएं बनी
रहती हैं; धार्मिक
का आभास टूट
जाये तो लोग
नाराज होने लगते
हैं, लोग
अड़चनें देने
लगते हैं। चलो
एक नाटक है, करते रही; मगर श्रद्धा
नहीं है।
क्योंकि जब
तुम मंदिर की
तरफ जाते हो
तब मैं
तुम्हारे पैरों
में नर्तन
नहीं देखता।
जब तुम मंदिर
से लौटते हो
तो
तुम्हारीजाखों
में झलकते
आनंद के आंसू
नहीं देखता।
जब तुम मंदिर
में हाथ जोड़ते
हो तो मै
तुम्हारा
हृदय जुड़ा हुआ
नहीं देखता।
श्रद्धा
खो गयी है। और
श्रद्धा खो
गयी तो आंख खो
गयी—परमात्मा
को देखने वाली
आंख खो गयी।
लेकिन जो खो
गया है, वह अब
भी तुम्हारे
भीतर मौजूद
है। बंद पड़ा
है, उसे
खोला जा सकता
है। जहां
श्रद्धा खुल
जाये, जिस
आघात से, उसका
नाम ही सत्संग
है। जिसकी
मौजूदगी में
श्रद्धा की
कली खिले और
फूल बन जाये
उसी का नाम सदगुरु
है।
तीसरा
प्रश्न:
प्रेम
की अग्नि— परीक्षा
क्यों ली जाती
है?
प्रेम
की ही ली जा
सकती है। सोने
को ही आग में
डाला जाता है, क्योंकि
कचरा जलेगा, सोना बच
रहेगा, कुंदन
बनेगा। प्रेम
की
अग्नि—परीक्षा
ली जाती है, क्योंकि
प्रेम अग्नि
में जलता नहीं;
जो जल जाये
वह प्रेम
नहीं। जो
अग्नि के पार
बच रहता है
वही प्रेम है।
और फिर शुद्ध
होकर बचता है,
उसमें जो भी
कूड़ा—करकट
था.। और
तुम्हारे
प्रेम में
बहुत
कूड़ा—करकट है।
अक्सर तो ऐसा
है, प्रेम
तो नाममात्र
को, कूड़ा—करकट
ज्यादा है।
तुम्हारे
प्रेम में घृणा
भी मिश्रित
है। इसलिए
तुम्हारा
प्रेम क्षण
में घृणा हो
जाये; अभी
प्रेम था अभी
घृणा हो जाये।
तुम जिस पत्नी
के लिए जान
देने को तैयार
थे, उसी
पत्नी की जान
ले सकते हो
क्षण भर में।
समझ
लो कि क्षण— भर
पहले तुम
बिलकुल मरने
को तैयार थे
और पत्नी से
कह रहे थे कि 'तेरे
बिना मैं जी न
सकूंगा। तू मर
गयी तो मैं मर
जाऊंगा! तू
मेरा प्राण
है!' और तुम
उठे और अपने
पुराने कागज—पत्रों
को खोजते थे
कि पुराना
पत्र मिल गया,
किसी के
द्वारा पत्नी
को लिखा हुआ।
और उसमें झलक
मिल गयी कि
कुछ प्रेम का
मामला है। भूल
गये सब
प्रेम—व्रेम,
उठाकर
बंदूक पत्नी
को मार
डालोगे। इसी
के लिए मरते
थे, इसी को
मार डाला।
प्रेम को घृणा
बनने में देर
कितनी लगी? एक जरा—सा
पत्र, कुछ
शब्द, कागज
पर खिंची कुछ
लकीरें—बस
इतना काफी हो
गया और गया
प्रेम!
तुम्हारा
प्रेम कितनी
जल्दी
ईर्ष्या बन
जाता है!
तुम्हारी
पत्नी किसी से
हंसकर बात
करती थी, बस आग
लग गयी।
तुम्हारा
प्रेम
नाममात्र को
ही प्रेम है।
प्रेम के नाम
पर भी तुम
दूसरे पर मालकियत
सिद्ध करने की
कोशिश में लगे
रहते हो। पति
चाहता है कि
पत्नी बिलकुल
मेरे कब्जे
में हो।
सदियों से
कोशिश कर रहा
है, समझाता
है कि पति
परमात्मा है।
पति ही समझा
रहे हैं
पत्नियों को
कि पति
परमात्मा है।
अब यह मूढ़ता
देखते हो?
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक दिन बाजार
में जाकर कहा
कि मेरी
स्त्री से
ज्यादा सुंदर
इस दुनिया में
कोई भी स्त्री
नहीं है। लोग
थोड़े चौंके। लोगों
ने कहा. तुमकी
यह बताया
किसने? उसने
कहा : मेरी
स्त्री ने ही
बताया।
अब
इसका क्या
मूल्य है? पति
ही समझा रहे
हैं! और चूंकि
स्त्री
शारीरिक रूप
से कोमल है तो
पतियों ने थोप
दिया उसके
ऊपर। डंडे के
बल पर थोपी
गयी है यह
बात।
स्त्रियां
पत्रों में
लिखती
हैं—आपकी
दासी! बस
पत्रों में ही
लिखती हैं, लेकिन
मजा चखाती
रहती हैं
चौबीस घंटा।
और असलियत में
मामला कुछ और
ही है।
क्योंकि स्त्रिया
शारीरिक रूप
से मल्लयुद्ध
नहीं कर सकतीं
पुरुष से, तो
उन्होंने
सूक्ष्म
रास्ते खोजे
युद्ध करने
के। बड़े
सूक्ष्म
रास्ते! खोजने
ही पड़े।
तुम
देखते हो, आदमी
ने बहुत से
रास्ते खोजे
हैं। तलवार
खोजी, बंदूक
खोजी, बम
खोजा, भाले
खोजे, क्यों?
वैज्ञानिक
कहते हैं :
क्योंकि आदमी
के पास पशुओं
जैसी शारीरिक
शक्ति नहीं
है। अगर सिंह
तुम से सीधा
जूझ जाये तो सब
राजपूती रखी
रह जायेगी।
सिंह को तो
छोड़ दो, जरा
एक अल्सेशियन
कुत्ता ही
पीछे पड़ जाये
तो सब भूल
जायेगी, चौकड़ी
भूल जायेगी।
छठी का दूध
याद दिला
देगा।
आदमी
तो असहाय है
पशुओं के
मुकाबले में।
न तो वैसे
नाखून हैं कि
चीर—फाड़ कर
दें,
न वैसे दात
हैं कि कच्चा
मांस चबा
जायें, कि
हड्डियां
चरमरा दें। तो
इस मजबूरी के
कारण आदमी ने
अस्त्र—शस्त्र
खोजे हैं। वे
परिपूरक हैं।
पशुओं के पास
नाखून हैं, हमने बड़े
भाले खोजे
हैं। हमने बड़ी
छुरियां खोजी
हैं, तलवारें
खोजी हैं। फिर
भी हम डरे रहे,
क्योंकि
तलवार लेकर भी
शेर के सामने
खड़े होओ तो
कंपकंपी
आयेगी। उस
कंपकंपी में
तलवार गिर जाये...।
मुल्ला
नसरुद्दीन
शिकार करने
गया था। झाडू
पर बैठा है
मचान बांध कर।
और जब शेर आया
तो होश खो
गये। थे झाडू
पर,
मगर होश खो
गये। एकदम
बेहोश हो गया।
मित्रों ने
बामुश्किल
मचान से उतारा,
पानी छिड़का,
शराब पिलाई,
तब कहीं
थोड़ा—बहुत होश
आया। पूछा कि
नसरुद्दीन
तुम इतने घबडा
क्यों गए? अरे,
तुम्हारे
पास तो बंदूक
थी।
उसने
कहा : बंदूक
क्या करेगी!
घबड़ाहट पहले
आयी। बंदूक तो
हाथ से छूट
गयी। जब बंदूक
छूट गयी, तभी
तो मैं बेहोश
हुआ।
तो
आदमी ने तीर
खोजे, दूर
से...। फिर
बंदूक खोजी, गोली मार
दें दूर से, पास जाने की
नौबत ही न
रहे। और इसको
लोग शिकार करना
कहते हैं, आखेट
करने जाते
हैं। बैठ जाते
हैं झाडू पर
मचान बांधकर,
वहा से गोली
मार देते हैं
एक निरीह
निहत्थे
जानवर को। शरम
भी नहीं खाते
और इसको कहते हैं—आखेट,
शिकार का
खेल! और कभी
अगर शेर धर
दबोचे तो इसको
नहीं कहते कि
शेर ने शिकार
की।
आदमी
कमजोर था तो
उसने शस्त्र
खोजे। ठीक
वैसी ही हालत
स्त्री और
पुरुष के बीच
घटी। पुरुष मजबूत
है। ऊंचाई
उसकी थोड़ी
ज्यादा है।
शरीर में उसके
ज्यादा मसल
हैं,
मजबूत है, हड्डी उसकी
मोटी है, स्त्रियों
को सता सकता
है। तो
स्त्रियों को
सूक्ष्म उपाय
खोजने पड़े, ऐसे उपाय
खोजे जिनसे
पुरुष लड़ न
सके। जैसे कि तुम
घर आये कि
स्त्री ने
एकदम बाल फैला
दिये और रोने
लगी, अब
क्या करोगे? अब रोती स्त्री
को मारो तो भी
ठीक नहीं।
उसका रोना
उपाय है, सूक्ष्म
उपाय है कि अब
देखें क्या
करते हो, अब
झुकना पड़ेगा!
अब चले
आइसक्रीम
खरीदने। कि कुछ
लोग तो पहले
से ही लेकर
आते हैं
आइसक्रीम, गुलदस्ता,
फूल। पहले
से ही इंतजाम
करके आते हैं।
एक
सम्राट ने
घोषणा की, क्योंकि
दरबारियों से
उसने पूछा कि
ऐसा भी कोई
दरबारी है तुम
में जो इस बात
का उत्तर दे
सके, मगर
ईमानदारी से
उत्तर देना।
मैं चाहता हूं
कि जो आदमी
पत्नियों से
डरते हैं एक
तरफ खड़े हो जायें;
और जो अपनी
पत्नियों से
नहीं डरते, वे दूसरी
तरफ खड़े हो
जायें। सारे
दरबारी खड़े हो
गये, सिर्फ
एक आदमी को
छोड्कर। और उस
आदमी को तो सम्राट
ने कभी सोचा
ही नहीं था।
वह तो बिलकुल
सूखा, गया—बीता
आदमी था, सबसे
आखिरी था। वह
एक तरफ खड़ा हो
गया। सम्राट ने
पूछा कि मुझे
बहुत हैरानी
होती है, मगर
फिर भी कोई
बात नहीं, कम—से—कम
मेरे दरबार
में एक आदमी
तो है जो अपनी
पत्नी से नहीं
डरता।
उस
आदमी ने कहा :
क्षमा करिये, आप
गलत समझ रहे
हैं। असल में
जब मैं घर से
चलने लगा तो
पत्नी ने कहा :
देखो, भीड़—
भाड़ में खड़े
मत होना। सब
लोग उस तरफ
खड़े हैं। अगर
मैं उस तरफ
खड़ा होऊं और
पत्नी को पता
चल जाये, झंझट
होगी, इसलिए
इस तरफ खड़ा
हूं।
तो
सम्राट ने
अपने एक आदमी
को कहा कि अब
हमें पता
लगाना होगा कि
पूरे राज्य की
क्या हालत है? जब
दरबार की यह
हालत है, पूरे
राज्य की क्या
हालत है? तो
उसने एक आदमी
को भेजा कि तू
जा और हर घर
में पूछ
राजधानी में
कि कौन अपनी
पत्नी से डरता
है और कहना कि
झूठ बोले तो
बहुत सजा
मिलेगी। सच
बोले तो ठीक।
और जब तुझे
पक्का भरोसा
हो जाये कि
कोई आदमी ऐसा
है जो अपनी
पत्नी से नहीं
डरता, तो
वह सुंदर घोड़ा
ले जा। एक
सफेद काबुली
घोड़ा—बहुत
बहुमूल्य, कीमती,
राज्य के
दरबार में जो
घोड़ा था—यह ले
जा, यह
उसको भेंट दे
देना। यह मेरी
तरफ से भेंट।
वह
आदमी गया।
उसने जिससे भी
पूछा उसी ने
कहा कि भाई, अब
हम झूठ—सच में
तो पड़ना नहीं
चाहते, क्योंकि
झंझट में कौन
पड़े, सच
बात यह है कि
हम डरते हैं।
मगर किसी से
कहना मत भइया!
राजा ने पूछा
है तो सच ही कह
देते हैं, हम
डरते हैं। थक
गया वह वजीर
खोजते—खोजते
कि एक—आध आदमी
भी न मिलेगा
जो यह घोड़ा ले
जा सके! मगर
उसको भी बात
सोच में तो
आयी कि मैं खुद
ही नहीं. ले
सकता यह घोड़ा,
तो आदमी और
क्या मिलेगा?
और उसने
सोचा कि खुद
सम्राट भी
नहीं ले सकता
यह घोड़ा, क्योंकि
सबको पता है
वह खुद ही
डरता है। कि
असली राज्य तो
रानी कर रही
है, राजा
तो बस उसके
हाथ की
कठपुतली है।
रानी को राजी
कर लो, बस
राजा राजी हो
जाता है। क्या
एक भी आदमी न
मिलेगा, क्या
यह
मनुष्य—जाति
इतनी पतित हो
गयी है? क्या
एक भी पुरुष, पुरुष नहीं
है।
आखिर
उसने एक झोपड़े
में जाकर एक
आदमी देखा, जो
बिलकुल
मोहम्मद अली
जैसा मालूम
होता था।
बडे—बड़े मसल
थे उसके, बड़े—बड़े
पंजे थे। सात
फीट ऊंचाई थी
उसकी। और उसकी
एक बिलकुल
दुबली—पतली
पत्नी। उसने
कहा, यह
आदमी है! उसने
कहा भाई तूने
मार दिया हाथ,
तू अपनी
पत्नी से डरता
तो नहीं? उसने
अपने मसल
दिखाये। उसने
कहा : ये देखे!
उसने
कहा : मसल तो
ऐसे हैं कि
मुझे डर लग
रहा है देखकर।
उसने
अपना पंजा
खोलकर बताया
और बंद करके
बताया। उसने
कहा कि जिसकी
गर्दन पर कस
जाये—खत्म! तो
उसने कहा. भाई
ठीक। तो राजा
ने कहा है कि
जो ऐसा आदमी
मिल जाये उसे
घोड़ा भेंट कर
देना। दो घोडे
हैं राजा के
पास एक काला
और एक सफेद।
दोनों
श्रेष्ठ घोड़े
हैं,
एक कीमत के
घोड़े हैं। तो
तू सफेद घोड़ा
चाहता है कि
काला? तो
उसने कहा कि
लल्ल की मां, सफेद कि
काला? तो
लल्ल की मां
ने कहा. काला।
तो उस वजीर ने
कहा. अब नहीं
मिलता।
लल्ल
की मां ने तय
किया! वे मसल
वगैरह, वह सब
पंजा वगैरह सब
पड़ा रह गया।
स्त्रियों
ने कुछ
सूक्ष्म उपाय
खोजे हैं आदमी
से लड़ने के।
पुरुष को
गुस्सा आ जाये, स्त्री
को मारता है; स्त्री को
गुस्सा आ जाये,
खुद को
पीटती है, खुद
दीवाल से सिर
मार लेती है।
उसका उपाय बड़ा
गाधीवादी है,
अहिंसात्मक!
बच्चे की
पिटाई कर देती
है, लल्ल
पिट जाते हैं।
लल्ल के बाप
सोचने लगते
हैं कि अब सार क्या
है, बच्चा
नाहक पिट रहा
है, पहले
ही चुप रहे
होते तो अच्छा
था।
तुम्हारा
प्रेम सतत कलह
है उसमें
स्त्री कोशिश
कर रही है
पुरुष पर हावी
हो जाने की, पुरुष
कोशिश कर रहा
है स्त्री पर
हावी हो जाने
की। इसलिए
प्रेम की बगिया
बस ही नहीं
पाती। प्रेम
को अग्नि से
गुजरना ही
होगा। और
प्रेम जब
शुद्ध होता है
तो वही
श्रद्धा बनता
है।
इसलिए
जब तुम सदगुरु
के पास जाओगे
तो वह तुम्हारे
प्रेम की बहुत
परीक्षाएं
लेगा। और जैसा
मैंने कहा
इन्हीं
परीक्षाओं
में बहुत लोग
भाग जायेंगे।
इतनी परीक्षाएं
देने की उनकी
तैयारी न
होगी। इतनी आग
से गुजरने का
साहस थोड़े ही
लोगों में
होता है। और
जो अग्नि से
नहीं गुजर
सकते, वे निखर
भी नहीं सकते,
शुद्ध भी
नहीं हो सकते।
वे परमात्मा
के पात्र भी
नहीं हो सकते।
नहीं
निर्दयी तुम, नहीं
बेरहम तुम!
तुम्हारी
हंसी, और मेरे
रुदन को
न
जाने नियति आज
क्यों तोलती
है?
उधर
झिलमिलाते
हैं तारे गगन
में,
इधर ओस
के बिंदु भू
पर बरसते;
उधर
केलि करते
विहरते हैं
बादल;
इधर
बूंद को भी
हैं चातक
तरसते;
तुम्हारा
परस प्राप्त
करने विकल—सी,
हवा
कुंज में
कापती—डोलती
है!
तुम्हारी
हंसी, और मेरे
रुदन को,
न
जाने नियति आज
क्यों तोलती
है?
तिमिर—
आवरण को जरा
चीरकर तुम,
कभी
मन—हरन निज
झलक तो दिखाओ;
कुसुम
की जो भीगी
हुई पत्तियां
हैं
उन्हें
अपने हाथों से
पोंछो, सजाओ;
ये
मोती के दाने
तुम्हारे लिए
हैं
सदा
जग की आंखें
जिन्हें
रोलती हैं!
तुम्हारी
हंसी और मेरे
रुदन को
न
जाने नियति आज
क्यों तोलती
है?
न
जाने
तुम्हारे
श्रवण के
पुटों तक
पहुंच
पायेगी कब दबी
आह मेरी;
न
जाने कि किस
दिन तुम्हारे
नगर तक
मुझे
प्राण!
पहुंचायेगी
राह मेरी;
नहीं
निर्दयी, तुम
नहीं बेरहम
तुम
क्षितिज
पर से कोई
किरण बोलती
है!
तुम्हारी
हंसी, और मेरे
रुदन को
न
जाने नियति आज
क्यों तोलती
है?
भरोसा
रखोगे, श्रद्धा
से बढ़ते रहोगे,
तो कोई किरण
आकाश से कहती
ही रहेगी कि
घबड़ाओ मत, चले
चलो। यह
अनिवार्य है
प्रक्रिया
शुद्ध होने की,
परिशुद्ध
होने की।
नहीं
निर्दयी तुम, नहीं
बेरहम तुम!
परमात्मा
न तो निर्दयी
है और न बेरहम
है। लेकिन
प्रेम की
अग्नि—परीक्षा
लेनी ही होगी।
क्योंकि
अग्नि—परीक्षा
से ही प्रेम
श्रद्धा
बनेगा।
प्रेम
ऐसे है जैसे
फूल और
श्रद्धा ऐसे
है जैसे फूल
की सुवास। फूल
में जो थोड़ी
और मिट्टी थी, वह
भी गयी; अब
सुवास शुद्ध
हो गयी। जैसे
सुवास ऊपर की
तरफ उठती
है—आकाश की
तरफ। जैसे धूप
का धुआ आकाश
की तरफ उठता
है; फूल की
सुवास आकाश की
तरफ उठती है।
फूल तो गिरेगा
तो जमीन की
तरफ गिरेगा, सुवास ऊपर
की तरफ जाती
है। धूप
गिरेगी तो
जमीन पर गिर
जायेगी, लेकिन
धूप का
सुगंधित धुआ
आकाश की तरफ
जाता है।
प्रेम
तो गिर जाता
है जमीन की
तरफ;
श्रद्धा
आकाश की तरफ
उठती है।
इसलिए हम कहते
हैं : फलां
आदमी प्रेम
में गिर गया।
सारी दुनिया
की' भाषाओं
मे—फालिग इन
लव। प्रेम में
हम गिर जाते
हैं जमीन की
तरफ। प्रेम का
प्रवाह
अधोगामी है, नीचे की तरफ
है। प्रेम ऐसे
है जैसे जलधार,
गड्डे से और
गड्डे की तरफ
जाता है जल, नीचे से
नीचे, नीचे
से नीचे..।
श्रद्धा ऐसे
है जैसे
वाष्पीभूत हो
गया है जल, उठने
लगा ऊपर, घिरने
लगे मेघ आकाश
में। जैसे ही
भाप पानी बनेगी,
जमीन पर उतर
आयेगी। और
जैसे ही पानी
भाप बनेगा, आकाश में उठ
जायेगा।
प्रेम
अग्नि से
गुजरे तो भाप
बनता है। जैसे
पानी अग्नि से
गुजरता है तो
भाप बन जाता
है,
ठीक ऐसे ही
प्रेम की
अग्नि—परीक्षा
है।
आगाजे—मुहब्बत
से
अंजामे—मुहब्बत
तक!
गुजरा
है जो कुछ हम
पर तुमने भी
सुना होगा।
बहुत
कुछ गुजरता
है।
आगाजे—मुहब्बत
से अंजामे
—मुहब्बत तक!
प्रेम
की शुरुआत से
और प्रेम की
पूर्णता तक
बहुत कुछ
गुजरता है।
आगाजे—मुहब्बत
से
अंजामे—मुहब्बत
तक!
गुजरा
है जो कुछ हम
पर तुमने भी
सुना होगा।
तो
भक्तों की
कथाएं पढ़ो, भक्तों
की गाथाएं पढ़ो,
तो तुम
समझोगे—कैसी
पीड़ा है, कितने
आंसू कितना
रोना, कितना
विरह है, कितनी
आग...! लेकिन
उन्हीं अंगारों
में से चलकर
कोई परमात्मा
के मंदिर तक
पहुंचता है।
वह शर्त पूरी
करनी ही होती
है।
और
ध्यान रखना, परमात्मा
न तो निर्दयी
है और न बेरहम
है। सच तो यह
है, उसकी
अनुकंपा है जो
तुम्हारी
परीक्षा लेती
है। और
तुम्हारी
जितनी कठोर
परीक्षा ली
जाये उतना ही
खुश होना, धन्यवाद
देना, क्योंकि
तुम पर बहुत
भरोसा किया जा
रहा है।
सदगुरु
उसी शिष्य की
सर्वाधिक
परीक्षा लेगा, जिस
शिष्य से
भरोसा है कि
उसके भीतर से
कुछ हो सकता
है। जिससे
भरोसा नहीं है,
उसकी कोई
परीक्षा नहीं
ली जाती।
इसलिए धन्यभागी
हैं वे जिनके
प्रेम की
परीक्षा ली
जाती है।
नहीं
निर्दयी तुम, नहीं
बेरहम तुम!
क्षितिज
पर से कोई
किरण बोलती
है!
तुम्हारी
हंसी और मेरे
रुदन को
न
जाने नियति आज
क्यों तोलती
है?
नियति
को तौलना ही
होगा। प्रेम
के आंसू भी
तौले जायेंगे, प्रेम
की हंसी भी
तौली जायेगी।
प्रेम तौला जायेगा।
और
हजार—हजार कठिनाइयां
प्रेम के
रास्ते पर हैं, हजार—हजार
चट्टानें हैं;
पर उन्हीं
को चढ़ोगे, तो
एक दिन हिमालय
के शिखर पर
पहुंच जाओगे,
जीवन के
शिखर पर—जहां
शिखर
चांद—तारों से
बात करता है, जहां शिखर
बादलों से
गुफ्तगू करता
है! उन्हीं शिखरों
पर उपनिषद
पैदा होते
हैं। उन्हीं शिखरों
पर गोरख के ये
शब्द पैदा हुए
हैं, बुद्ध
की वाणी पैदा
हुई, वेद
जन्मे, कुरान
गाया
गया—उन्हीं
शिखरों पर! वे
प्रेम के ही
शिखर हैं। वे
प्रेम के
शुद्धतम रूप
हैं। उनका नाम
ही श्रद्धा
है।
घबड़ाना
मत,
भयभीत न
होना, बढ़े
जाना।
तुम्हारे
प्यार का
वरदान ले करके
रहूंगी ही!
अवज्ञा
तुम करो मेरी, भुलाया
कब तुम्हें उर
से।
जलन
का छोर ही
पकड़ा सदा ही
प्यास के डर
से
दुखी
हो बीन को
छेड़ा करुण—सी
रागिनी भर के
तुम्हारे
राग का अभिमान
बन करके
रहूंगी ही!
तुम्हारे
प्यार का
वरदान ले करके
रहूंगी ही!
अधर
पर आ न पाई जो
नयन को छोड्कर
चल दी
लहर
मंझधार में
पड़कर किनारे
तोड़कर चल दी
शलभ
को क्या जलाकी, तड़पकर
लौ स्वयं जल
दी
उसी
अभिशाप का
अवदान बन करके
रहूंगी ही!
तुम्हारे
प्यार का
वरदान ले करके
रहूंगी ही!
उमगकर
फूल के मिस
यों लता ने
शूल को चूमा
कसकती
याद कांटे —सी
उधर हंस शूल
भी आ
दुखों
के शूल—उपवन
में कहां सुख
फूल—सा खिलता
उसी
तव ज्ञान का
अनुमान बन
करके रहूंगी
ही!
तुम्हारे
प्यार का
वरदान ले करके
रहूंगी ही!
वियोगी
की व्यथाओं
में मिलन
चुपचाप ही
जलता
मुखर
हो अश्रु के
कण से सुखद वह
आह में पलता
कसक
बीते हुए युग
की मिटाए से
नहीं मिटती
उन्हीं
मादक क्षणों
का ध्यान बन
करके रहूंगी
ही!
तुम्हारे
प्यार का
वरदान ले करके
रहूंगी ही!
आयें
अग्नि—परीक्षाएं, आने
दो। आये
चुनौतियां, आने दो।
अंगीकार
करना। उठें
तूफान, स्वीकार
करना। और एक
बात अडिग भीतर
गूंजती रहे :
उन्हीं
मादक क्षणों
का ध्यान बन
करके रहूंगी ही!
तुम्हारे
प्यार का
वरदान ले करके
रहूंगी ही!
चौथा
प्रश्न :
मैं
शास्त्रीय
संगीत का शौक
रखता हूं। यह
न तो मेरे
पड़ोसियों को
पसंद है न
मेरे पत्नी—
बच्चों को न
परिवार के
अन्य लोगों को
ही। मैं क्या करूं?
शास्त्रीय
संगीत सभी की
समझ में नहीं
पड़ सकता। ऐसी
अपेक्षा रखना
भी गलत है।
शास्त्रीय
संगीत के लिए
एक अलग तरह की
संवेदनशीलता
चाहिए एक अलग
तरह की ग्राहकता
चाहिए। एक बड़ा
ही कोमल, स्वरमंजा,
छंदबद्ध
हृदय चाहिए।
शास्त्रीय
संगीत कोई
फिल्मी संगीत
नहीं है कि
तुम जैसे हो
वैसे ही रहते
समझ में आ
जाये।
शास्त्रीय
संगीत तो एक साधना
है। तुम जैसे
हो वैसे ही
समझ में नहीं
आयेगा; तुम्हें
अपने को
रूपांतरित
करना होगा।
शास्त्रीय
संगीत तो एक
चुनौती है; वर्षों की
श्रम और साधना
से समझ पाओगे,
सुन पाओगे।
मुहल्ले के
लोगों का कसूर
नहीं है, न
परिवार का
कसूर है, न
पत्नी का।
तुमने बात ही
झंझट की चुन
ली है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला
नसरुद्दीन ने
अपने एक मित्र
संगीतज्ञ को
घर भोजन पर
बुलाया और कहा
कि साथ में
तबलची को भी
ले आना और
अपना साज—सामान
भी ले आना, क्योंकि
भोजन इत्यादि
के बाद महफिल
जमेगी।
संगीतज्ञ
मित्र जरा
हैरान था, क्योंकि
मुल्ला को कोई
शास्त्रीय
संगीत की समझ
है, ऐसा
उसे कभी सपने
में भी आभास
नहीं मिला था।
मुल्ला ने कभी
रुचि भी न
दिखायी थी, आज अचानक
शास्त्रीय
संगीत पर
प्रेम उमड़ आया
है! तो आया, बड़ी
तैयारी से
आया।
साज—सामान
लाया, अपने
सब संगी—साथी
लाया। भोजन
हुआ, शराब
चली। बड़ी देर
तक बातें चलती
रहीं।
संगीतज्ञ
थोड़ा हैरान भी
हुआ कि अब
संगीत कब
होगा! आधी रात
होने लगी और
मुल्ला है कि
इधर—उधर की
बातों में
लगाये हुए है।
उसने दो—चार दफे
कहा भी कि भाई,
संगीत...।
मुल्ला ने
कहा. ठहरो जी, ठीक समय पर
होगा; हर
चीज का समय
होता है। जब
आधी रात हो
गयी और सब सन्नाटा
हो गया और
सारा
मुहल्ला—पड़ोस
सो गया और
रास्ते पर
राहगीर चलने
बंद हो गये, मुल्ला ने
कहा. अब आ गयी
घड़ी, अब हो
जाये, अब
दिल खोलकर
शास्त्रीय
संगीत हो
जाये।
संगीतज्ञ
ने कहा लेकिन
अब मुहल्ले के
लोग सो गये
हैं,
तुम्हारी
पत्नी भी सो
गयी है, बच्चे
भी सो गये, परिवार
के लोग भी सो
गये; अब
शास्त्रीय
संगीत झंझट
होगी। उसने
कहा : तुम
बिलकुल फिक्र
न करो। झंझट
क्या होगी? उनके कुत्ते
भौंकते रहते
हैं, तब
मैं कुछ नहीं
बोलता; अपने
पास तो कुत्ता
है नहीं, इसलिए
तो तुम्हें
बुलाया है। हो
जाये संगीत, दिल खोलकर
हो जाये।
लाज—संकोच मत
करना। जो सीखा
हो जिंदगी
में.। आज लग
जाये एक—एक को
पता कि कुत्ता
नहीं है तो
क्या हुआ, शास्त्रीय
संगीतज्ञ से
दोस्ती तो है!
ऐसे—ऐसे
लोग भी हैं!
मुल्ला गया था
एक संगीत की बैठक
में और जब
संगीतज्ञ
आऽऽ.. आsss आss..
आऽऽ... करने लगा
तो मुल्ला
रोने लगा, उसके
आंसू टप—टप
गिरने लगे।
पड़ोस में बैठे
आदमी ने कहा
कि नसरुद्दीन,
हमने कभी
सोचा भी नहीं
था कि
तुम्हारा और
शास्त्रीय
संगीत से ऐसा
लगाव! एकदम
आंसू गिरने
लगे.,.।
उसने कहा :
शास्त्रीय
संगीत का सवाल
नहीं है, ऐसे
ही मेरा बकरा
मरा था। यह
आदमी मरेगा, ऐसे ही बकरा
आssss आऽऽऽ...।
तब हम भी समझे
थे कि
शास्त्रीय
संगीत कर रहा
है। सुबह मरा
पाया गया।
तुमने
जरा बात ही
झंझट की चुन
ली है।
फायर
ब्रिगेडवालो
ने पूछा
घर
में आग लगने
का
क्या
कारण है?
घर
के मालिक ने
मूंछों
पर ताव देकर
कहा—
यह
हमारी
दीपक
राग की
गायकी
का
ज्वलंत
उदाहरण है
उन्होंने
प्रश्न किया—
यह
सितार
क्यों
टूटी पड़ी है
निगोड़ी?
उत्तर
मिला—
राग
तोड़ी के तोड़े
ने तोड़ी
इतने
बिलौटे
यहां
शोर
क्यों
मचा रहे हैं?
इसे
आप शोर कहते
हैं,
अजी
ये
राग बिलावल गा
रहे हैं
वे
इतने धीमे—
धीमे
क्यों
चल रहे हैं,
क्या
बिचारे बहुत
वृद्ध हैं?
नहीं, उनकी
चाल
विलंबित
खयाल में
निबद्ध है
जिज्ञासा
हुई
कि
गांव के लोग
अपने
घर छोड़ कर
क्यों
जा रहे हैं?
पता
चला—
गांव
में
संगीत
सम्मेलन के
लिए
संगीतकार
आ रहे हैं
अब
तो एक ही उपाय
है कि तुम
सक्रिय ध्यान
या कुंडलिनी
ध्यान शुरू कर
दो। तो
तुम्हारे
पड़ोस के लोग
खुद ही कहेंगे
: भइया, शास्त्रीय
संगीत ही
बेहतर है। तुम
वही करो; यह
तुम और कहां
की झंझट ले
आये!
अब
तुम मुझसे पूछ
रहे हो तो मैं
तुमसे कहता हूं।
और यह नुस्सा
काम कर चुका
है पहले भी, इसलिए
तुम्हें देता
हूं। तुम एकदम
से हूं—हूं हां—हां
और एकदम
सक्रिय ध्यान शुरू
कर दो; न
तुम्हारे
पड़ोस
के लोग हाथ
जोड़कर कहें
तुमसे कि भइया, शास्त्रीय
संगीत ही
बेहतर है...। और
तो कोई उपाय
सूझता नहीं
है। तुमने बात
ही झंझट की ले
ली है।
यह
कोई जमाना
शास्त्रीय
संगीत का है? या
तो मोहल्ला
छोड़ दो, कहीं
स्वात में चले
जाओ। कहीं
स्वात में बैठे
रहो, वहां
सीखो। और अगर
छोड़ना ही हो
तो मुहल्ला
छोड़ देना, क्योंकि
संगीत
महत्वपूर्ण
चीज है; उसके
लिए कुछ दाव
पर लगाना पड़े
तो लगा देना।
परिवार भी
छोड़ना पड़े तो
छोड़ देना, मगर
संगीत मत
छोड़ना।
क्योंकि
संगीत, अगर
तुम्हारा सच
में रस है
उसमें तो
तुम्हारे लिए
ध्यान बनेगा,
समाधि
बनेगी।
संगीत
ध्यान का
सुगमतम उपाय
है। जो संगीत
में डूब सकते
हैं उन्हें
डूबने के लिए
और दूसरी चीज
को खोजने की
कोई आवश्यकता
नहीं है।
संगीत अदभुत
मादकता है।
संगीत परम
सुरा है।
उसमें डूबते—डूबते
तुम्हारे
विचार चले
जायेंगे, तुम्हारा
अहंकार चला जायेगा।
संगीत को
ध्यान समझो।
मगर
दूसरों को
सताओ भी मत।
क्योंकि
तुम्हारे ध्यान
के लिए दूसरों
की बलि दी
जाये, यह भी
उचित नहीं है।
हट जाओ। और
अगर पत्नी को
तुमसे प्रेम
है और बच्चों
को तुमसे
प्रेम है तो
धीरे— धीरे
तुम्हारे
संगीत से भी
प्रेम जन्मेगा,
उनको धीरे—
धीरे संगीत के
पाठ पढ़ाओ।
एकदम से नहीं,
आहिस्ता—आहिस्ता
संगीत की रुचि
जगाओ। क्योंकि
ऐसा मनुष्य तो
खोजना बहुत
कठिन है जिसके
भीतर
कहीं—न—कहीं
संगीत के
प्रति रस पड़ा
न हो। क्योंकि
संगीत का रस
अनिवार्य है।
इसलिए तो हमने
परमात्मा को
शब्द कहा है, स्वर कहा है,
ओंकार कहा
है; क्योंकि
प्रत्येक
व्यक्ति
ध्वनि से
निर्मित है।
हमारे
प्राणों के
प्राण में
ध्वनि गज रही
है, अनाहत
नाद गंज रहा
है, ओंऽम
का नाद हो रहा
है। इसलिए ऐसा
व्यक्ति तो खोजना
कठिन है, बिलकुल
कठिन है जिसके
भीतर संगीत की
कहीं—न—कहीं
संभावना न पड़ी
हो। मगर
आहिस्ता—आहिस्ता
जगाओ, धीरे—
धीरे राजी
करो। पर संगीत
छोड़ मत देना।
संगीत
में रस हो तो
सब छोड़ा जा
सकता है, संगीत
नहीं छोड़ा जा
सकता। अगर
संगीत ही
तुम्हारा
संन्यास बने
तो बन जाने
देना। इतना
साहस तो होना
चाहिए। इतना
दाव पर लगाने
की हिम्मत तो
होनी चाहिए।
तभी जीवन में
कुछ फलता है।
तभी जीवन में
कुछ उपलब्ध
होता है। बाकी
सब चीजें गौण
हैं।
तुम्हारी
आत्मा की यही आवाज
है अगर, तो
इसी आवाज के
साथ चलो।
इसीलिए
मुझे हर चीज
पर बोलना पड़ता
है। संगीत पर
भी बोलना
पड़ेगा, हालांकि
मैं कोई
संगीतज्ञ
नहीं हूं। न
तो मुझे दीपक
राग आता है, न राग तोड़ी, न राग
बिलावल, न
विलंबित, कुछ
भी नहीं आता।
लेकिन एक
संगीत मैंने
सुना है जो
परम—संगीत है।
जहां सब राग
खो जाते हैं।
मैंने एक
संगीत सुना है
जिसे नानक ने
कहा है : एक ओंकार
सतनाम। इसलिए
संगीत पर भी
बोलना होगा। कोई
संगीत—प्रेमी
आ जायेगा तो
मुझे उसके ही
प्रेम से उसे
परमात्मा की
तरफ ले चलना
होगा।
मैं
तुम्हें
तुम्हारे
स्वभाव से
स्तुत नहीं करना
चाहता। मैं
तुम पर कुछ
आरोपित नहीं
करना चाहता।
मैं तो चाहता
हूं जो
तुम्हारे
भीतर सहज
स्वाभाविक है, वही
फूले, वही
खिले।
आखिरी
प्रश्न :
मैं
हर चीज से
असंतुष्ट
हूं। क्या पाऊं
जिससे कि
संतोष मिले?
जब
तक पाने की
भाषा में
सोचोगे, तब तक
संतोष न
मिलेगा। पाने
की भाषा से ही
तो असंतोष
पैदा हो रहा
है। जब तक
कहोगे क्या
पाऊं, तब
तक असंतुष्ट
रहोगे। संतोष 'जो है' उसका
उत्सव मनाने
में है।
असंतोष 'जो
नहीं है' उसको
पाने की वासना
में है, तृष्णा
में है। और
बहुत है जो
तुम्हारे पास
नहीं है। अगर
तुम उसको पाने
चले जो नहीं
है, तो तुम
चलते ही रहोगे,
चलते ही
रहोगे, पूरा
तो तुम कभी पा
न पाओगे।
संतुष्ट कभी न
हो पाओगे।
असंतोष ही
तुम्हारे
जीवन की कथा
और व्यथा
रहेगी।
नहीं; जो
है, वह कम
नहीं है।
तुम्हें जीवन
मिला है, इस
जीवन के लिए
धन्यवाद दिया
परमात्मा को? और यह जीवन
अगर तुम्हें
खरीदने जाना
पड़े तो तुम
कितना मूल्य
चुकाने को
राजी न हो
जाओ। ये आंखें
दीं, ये
जलते हुए दीये
दिये! इन
आंखों से
तुमने इतना
सौंदर्य देखा
जगत का! सुबह
का सूरज देखा,
रात के तारे
देखे। कभी
परमात्मा को
धन्यवाद दिया
कि कैसी अदभुत
आंखें तूने
दीं, कैसा
चमत्कार—आंख!
मगर धन्यवाद
नहीं दिया। कानों
से कितना
संगीत सुना, कभी झुके
कृतज्ञता में?
यह
संवेदनशील
हृदय दिया है,
इसके लिए
कभी दो आंसू
गिराये उसके
चरणों में—प्रार्थना
के, पूजा
के?
संतोष
का अर्थ होता
है. जो है वह
मेरी पात्रता
से अभी ही ज्यादा
है,
मेरी
योग्यता से
अभी ही ज्यादा
है। न मेरी
योग्यता है, न मेरी
पात्रता है, और परमात्मा
बरसाता चला
गया है—ऐसी जो
प्रतीति है, उसका नाम
संतोष है। और
जिसके पास
संतोष है उसे
और मिलेगा।
जीसस
का एक बहुत
प्यारा वचन है
जो मुझे
बार—बार याद
आता है—और
अनूठा है, अद्वितीय
है और बड़ा
तर्कातीत!
जीसस कहते
हैं. जिसके
पास है, उसे
और दिया
जायेगा; और
जिसके पास
नहीं है, उससे
वह भी छीन
लिया जायेगा
जो उसके पास
है। बड़ा उल्टा
वचन है।
उलटबांसी है।
यह कोई बात
हुई रु यह कोई
न्याय हुआ कि
जिसके पास है
उसे और दिया
जायेगा, और
जिसके पास
नहीं है उससे
और छीन लिया
जायेगा! यह तो
बड़ा अन्याय
मालूम होता
है। लेकिन
नहीं, यह
अन्याय नहीं
है; यह
जीवन का परम
नियम है।
क्योंकि
जिसके पास है
उसकी ही
क्षमता बढ़ती
है और लेने
की। वह और द्वार
खोलता है, वह
और आतुर हो
जाता है। वह
और उत्सुक हो
जाता है, वह
और अभीष्ठ हो
जाता है। और
जिसके पास
नहीं है वह और
सिकुड़ जाता
है। वह इतना
सिकुड़ जाता है
कि जो है वह भी
उसके भीतर से
निकल जाने के
लिए आतुर हो
जाता है।
तुम्हारे
पास अगर संतोष
है तो तुम्हें
और—और वरदान
मिलेंगे, रोज—रोज
वरदान
मिलेंगे। और
तुम्हारे पास
अगर संतोष नहीं,
सिर्फ
असंतोष और
शिकायत और
रोना और हमेशा
दुख की कथा है
तो तुम सिकुड़
जाओगे, संकुचित
हो जाओगे।
तुम्हारे
भीतर जो है वह
भी खो जायेगा।
तुम
पूछते हो : मैं
हर चीज से
असंतुष्ट हूं
स्वाभाविक
है। सभी हैं।
ऐसा ही मनुष्य
है। ऐसा
मनुष्य का मन
है—हर चीज से
असंतुष्ट!
अब
इसे समझो।
इसका अर्थ यह
हुआ कि इतने
दिन तुम
असंतुष्ट रहे, इससे
लाभ हुआ कुछ? असंतोष बढ़ता
चला गया। आगे
भी असंतुष्ट
रहोगे। मौत आ
जायेगी एक दिन
और असंतुष्ट
ही जीयोगे और
असंतुष्ट ही
मर जाओगे। अब
दूसरी कला
सीखो, उस
कला का नाम ही
संतोष है या
संन्यास।
पर्यायवाची हैं
दोनों।
संन्यास
का अर्थ है :
संतोष। जो है, इतना
भी बहुत है।
इतना भी क्यों
है, यह
आश्चर्य होना
चाहिए। जितना
मिला है इतना
मुझे क्यों
मिला, मैंने
अर्जित तो
किया नहीं; मेरी कोई
योग्यता नहीं,
पात्रता
नहीं। तूने
दिया है, तेरी
भेंट है! मैं
धन्यवादी हूं!
मैं कृतज्ञ हूं!
नाचो, बांध
लो पैरों में
घुंघरू, पड़ने
दो थाप मृदंग
पर! नाचो!
अहोभाव में
नाचो! और तब
तुम
पाओगे
रोज—रोज और—और
भेंटें आने
लगीं। जितना
तुम्हारा
धन्यवाद गहरा
होगा, उतनी ही
परमात्मा की
अनुकंपा तुम
पर बरसने
लगेगी। अभी
अगर
बूंदाबांदी
हुई है तो फिर
मूसलाधार
वर्षा होगी
आनंद की।
धरती
का बिछौना, नीलांबर
का ओढ़ना,
और
चाहिए क्या? ओ
बैरागी मन!
सूर्य
शीश पर सोना
—छत्र —सा लगे,
चंद्रमा
पिन्हा जाये
चांदी के हार,
ऊषा
ज्योति कलश
धरे अगवानी
में,
संध्या
कर जाये तारों
से शृंगार
सूर्य
— चंद्र का
गहना, तारों
का कंगना
और
चाहिए क्या? ओ
बड़भागी मन!
मधु
ऋतु कोकिल के
स्वर में गुन
गाये,
ग्रीष्म
की दुपहरी कर
जाये अभिसार,
पावस
में पपीहा रटे
पिया —पिया,
शरद
जुन्हैया
बरसाये मीठा
प्यार।
ऋतुओं
का झूलना, समय
का हिंडोलना,
और
चाहिए क्या? ओ
अनुरागी मन!
कोंपले
हिलाये रेशम
का रूमाल,
कलियां
भर जायें जीवन
में उल्लास,
फूलों
से रंग झरे
उड़े तरल गंध,
मन
को लहराये
केसर का
वातास।
मधुवन
का फूलना, दिगंतों
का महकना,
और
चाहिए क्या? ओ
मधुरागी मन!
रंग—बिरंगे
पंखोवाली चिड़िया,
कानों
में कह जाये
भेद — भरी बात,
ताल
कटोरे में
फूलसुंघी
उतरे,
कांप—कांप
जायें
जलकुंभी के
पात।
चिडिये
का उड़ना, जलकुंभी
का कापना,
और
चाहिए क्या, ओ
रे बागी मन!
धरती
का बिछौना, नीलांबर
का ओढना,
और
चाहिए क्या? ओ
बैरागी मन!
बड़भागी
हो तुम! और
चाहिए क्या?
सूर्य—चंद्र
का गहना, तारों
का कंगना,
और
चाहिए क्या? ओ
बड़भागी मन!
इतना
मिला है, मगर
अहंकार के
कारण दिखाई
नहीं पड़ता।
अहंकार को
जाने दो अब।
तुम
पूछते हो : मैं
क्या करूं?
अहंकार
को मर जाने दो
मरौ
हे जोगी मरौ
मरौ मरन है
मीठा।
तिस
मरणी मरौ जिस
मरणी मरि गोरष
दीठा।
आज
इतना ही
जिंदा गुरुकी हत्या क्यों कर दी जाती है
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