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मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

मराैै है जोगी मरौ-(प्रवचन-14)

एक नया आकाश चाहिएप्रवचनचौदहवां

दिनांक: 14 नवंबर, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न सार:

1—मैं वर्षों से पूजा कर रहा हूं मगर हाथ कुछ नहीं आया। तीर्थ, व्रत, यात्रा सब ऊर चुका हूं पर निष्फल। क्या मैं ऐसे ही अकारण जीऊंगा और अकारण मर जाऊंगा?

2—संसार में सब क्षणभंगुर है, इसलिए पकड़े तो क्या पकड़े?

3—बंबई की किसी होटल के प्रांगण में स्थापित जैन तीर्थंकर की नग्न प्रतिमा को चड्डी पहनायी गई, ऐसा आपने बताया। मैं जानना चाहता हूं कि चड्डी पहनाने का कार्य किसने किया?

4—भगवान! आपके इस संन्यासी के जीवन में आपका प्रसाद हमेशा मिलता रहता है, जिसका अनुभव बयान नहीं कर सकता। और पहले—पहले घबड़ाहट भी होती थी। भगवान, यह मेरा भरम तो नहीं है, कृपया समझाएं।

5—भगवान! दिल्ली में जो चल रहा है, उसके संबंध में कुछ कहें।



पहला प्रश्न :

मैं वर्षों से पूजा कर रहा हूं मगर हाथ कुछ नहीं आया। तीर्थ व्रत यात्रा सब कर चुका हूं पर निष्फल। क्या मैं ऐसे ही अकारण जीऊंगा और अकारण ही मर जाऊंगा?

नंददास, सत्संग के बिना कोई पूजा नहीं है। सदगुरु के बिना कोई मंदिर का द्वार खुलेगा नहीं। पूजा तुमने की होगी बहुत, वह क्रियाकांड ही रही। पंडितों से सीखी होगी पूजा, और पंडित वे हैं जिन्हें स्वयं भी पूजा का कोई पता नहीं। शास्त्रों से सीखी होगी पूजा, शास्त्रों में शब्द हैं निश्चित, लेकिन सत्य नहीं। तुम लाश को ढोते रहे, तुम्हारा जीवंत व्यक्तित्व से संस्पर्श नहीं हुआ।
कृष्ण से मिलो तो नाच सकोगे, बुद्ध से मिलो तो ध्यान में उतर सकोगे; और कोई उपाय नहीं है। बुद्ध से तो लोग डरते हैं; कृष्ण से भयभीत हैं। कृष्ण की गीता पढ़ते हैं; बुद्ध की मूर्ति की पूजा करते हैं। मूर्ति में कोई प्राण तो नहीं हैं। मूर्ति निष्प्राण है, पूजा करते—करते तुम भी वैसे ही निष्प्राण हो जाओगे। पत्थरों के साथ रहोगे, पत्थर हो जाओगे। संग—साथ सोच कर करना।
फिर, तुम जो शब्द दोहराते रहे पूजा के नाम पर, उनमें तुम्हारे प्राण की अनुगूंज थी? तुम्हारे प्राण बोले थे? जिस ईश्वर को जाना नहीं, देखा नहीं, पहचाना नहीं, उस ईश्वर की तरफ जुड़े हुए हाथ सच कैसे हो सकते हैं? वे हाथ झूठे थे, वे हाथ पाखंड थे। इसलिए पूजा व्यर्थ गई।
पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती; निष्प्राण पूजा व्यर्थ जाती है। किन मंदिरों में तुमने पूजा की थी? किन तीर्थों में गए? उन मंदिरों में विराजमान था कोई? वे मंदिर खाली पड़े हैं।
लोग तो मंदिरों में जाते ही तब हैं जब मंदिर खाली हो जाते हैं। जब तक मंदिरों में कोई दीया जलता है तब तक लोग दूर—दूर रहते हैं। दीये से डर लगता है। लपट पकड़ सकती है। दीये के पास तो पतंगे जा सकते हैं सिर्फ—मतवाले, दीवाने, पागल—जो अपने को निछावर कर सकें। कायर तो बाहर—बाहर होते हैं, जब तक दीया जलता है। जैसे ही दीया बुझा कि कायरों का मंदिरों में प्रवेश हो जाता है। फिर वे खूब घंटनाद करते हैं, आरतियां उतारते हैं। अब कोई भय नहीं है, अब भय का कोई कारण ही नहीं है।
जब नदी पूर पर होती है, बाढ़ पर होती है, तब तो तुम निकट नहीं आते; जब सूख ही जाती है नदी और रेत—ही—रेत रह जाती है, तब तुम अपनी नौका उतारते हो; फिर नौका आगे नहीं सरकती तो परेशान होते हो। फिर दोष नौका को देते हो। किसी बाढ़ में आई नदी का साथ खोजा होता, तो पूजा भी हो गई होती, प्रार्थना भी हो गई होती। किसी भरे मंदिर में गए होते, जहां मुहम्मद अभी जीवित हों, जहां कुरान अभी पैदा होती हो, जहां गोरख की वाणी अभी जग रही हो, जहां गोरख का अलख अभी जग रहा हो, ऐसी कोई जगह गए होते।
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?

मंदिर की पावन प्राचीरें जब फूट गईं,
चंदन से निर्मित देहरिया जब टूट गईं!
द्वारों पर बंदनवार सजाकर क्या होगा?
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?

जब भावों को कोई गुननेवाला न रहा,
जब गीतों को कोई सुननेवाला न रहा;
वीणा के टूटे तार मिलाकर क्या होगा?
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?

मंदिर हैं, लेकिन मंदिर की सुषमा न रही,
सिंहासन हैं, सिंहासन पर प्रतिमा न रही!
सूने आसन पर फूल चढ़ाकर क्या होगा?
सूने मंदिर में दीप जलाकर क्या होगा?

सूने आसनों पर फूल चढ़ाए तुमने। मंदिरों में जरूर गए, लेकिन देर से गए।
जिन्हें भी सत्य पाना हो उन्हें तो कोई जीवंत किरण का साथ खोजना होगा। उस साथ का नाम सत्संग है। सत्संग के बिना सब अकारथ है। पूछते हो : वर्षों से पूजा कर रहा हूं?
जन्मों से कर रहे होओगे, तुम्हें याद नहीं। वर्षों की तुम्हें याद है, इस जन्म की। जन्मों से कर रहे होओगे, लेकिन झूठी हो गई सब पूजा, सब पाठ व्यर्थ हो गए, सब समय ऐसे ही बर्बाद हुआ। कारण? पूजा पूजा ही न थी। ओंठों पर शब्द थे, प्राणों में उन शब्दों के लिए सहारा न था। विश्वास से की थी पूजा, आस्था से नहीं। हिंदू—घर में पैदा हुए तो हिंदू—पूजा सीख ली थी, और मुसलमान—घर में पैदा हुए तो मुसलमान के विधि—विधान सीख लिए थे। वे सब दूसरों ने तुम्हें दिए थे, तुम्हारी अपनी तलाश न थी। और जो खुद न खोजा जाए वह सच कभी सच नहीं हो पाता। खुद खोजने की पीड़ा से ही सच मिलता है।
ऐसे ही समझो कि कोई स्त्री किसी बच्चे को गोद ले ले, तो बस धोखा—ही— धोखा है। वह मां कभी नहीं बन पाएगी। क्योंकि मां बनने की अनिवार्य प्रक्रिया से तो वंचित रह गई। किसी के प्रेम में पड़ना था। प्रेम की किसी गहन घड़ी में गर्भाधान होता, फिर नौ महीने की पीड़ा थी, गर्भ का बोझ था, फिर बच्चे के जन्म का सारा कष्ट झेलना था। वह तपश्चर्या थी। प्रेम, पीड़ा, बच्चे के जन्म की प्रसव—पीड़ा, इन सबके भीतर ही मातृत्व का जन्म होता है। तुमने सस्ता रास्ता खोजा। तुमने बच्चा उधार ले लिया। तो बच्चा 'मां' कहेगा, पर भ्रांति में मत पड़ जाना, तुम्हारे भीतर मातृत्व का जन्म नहीं होगा। यह औपचारिकता रहेगी। ऐसी ही तुम्हारी पूजा है। तुम्हारे गर्भ से नहीं निकली; उधार—उधार है, बासी—बासी है; गोद ली हुई है। इसलिए चूक होती चली जाती है।
अब तुम कहते हो. मगर कुछ हाथ नहीं आया।
हाथ आता कैसे? और दूसरी बात, जो सच में ही पूजा करता है, उसे तो फिकर ही नहीं होती कि हाथ कुछ आया कि नहीं आया। यह फिकर तो गलत पूजा करनेवाले की ही फिकर है। जिसे पूजा आ गई, उसे सब हाथ आ गया, पूजा में ही सब हाथ आ गया। पूजा का फल पूजा से अतिरिक्त नहीं है, पूजा में ही है। प्रेम का फल प्रेम के पार नहीं है, प्रेम में ही है। प्रेम या पूजा किसी और साध्य के साधन नहीं हैं, स्वयं अपने साध्य हैं।
तुमने किसी को प्रेम किया, फिर क्या तुम यह कहते हो कि इतना प्रेम किया, हाथ कुछ नहीं लगा? प्रेम में तो मिल गई संपदा। अब और फल क्या चाहिए? जिसने प्रेम किया उसने पा ही लिया—प्रेम में ही पा लिया। प्रेम कोई बाजार तो नहीं है कि धंधा किया, फिर लाभ हुआ; लाभ पीछे हुआ। यह प्रेम का फल तो इसमें ही छिपा है। प्रेम स्वयं अपना फल है।
तुम्हारी पूजा प्रेम—शून्य रही, नहीं तो तुम यह सोचते ही नहीं कि हाथ कुछ न लगा। पूजा लग गई, नाचे, गाये, मग्न हुए—सब मिल गया, आकाश टूट पड़ा।
फल की आकांक्षा लोभ से पैदा होती है, और पूजा लोभ से पैदा नहीं हो सकती। इसलिए फलाकांक्षी कभी पूजा नहीं कर सकता, ध्यान नहीं कर सकता। फलाकांक्षी चूकता ही चला जाता है; उसकी फलाकांक्षा ही बाधा है। वह हमेशा पूछता है : इससे मिलेगा क्या? जीवन में कुछ चीजें ऐसी हैं जिनसे अगर तुमने पूछा कि फल क्या होगा, कि तुम चूके। गुलाब खिला, सुंदर है बहुत, सुबह की अभी ताजी—ताजी बूंदें उस पर चमकती हैं सूरज की किरणों में; और तुम पूछने लगे : हां, ठीक है, सुंदर है, मगर सौंदर्य का लाभ क्या है? तो तुम चूके, वंचित रहे काव्य से। वह जो काव्य झर रहा था गुलाब के उस फूल के आस—पास, अदृश्य, वे जो अदृश्य परीलोक से उतर रही थीं सुंदरियां फूल की पंखडियों पर, तुम उनके प्रति अंधे हो गए। तुमने पूछा, लाभ क्या है? चांद निकला, सुंदर था बहुत, और तुमने पूछा, लाभ क्या है? तुम दुकान छोड़ते ही नहीं; तुम मंदिर में भी दुकान नहीं छोडते!
तुम पूछते हो :
हाथ कुछ भी न आया।
इससे इतना ही पता चलता है कि पूजा का तुम्हें पता ही न चला, हाथ कैसे कुछ आता? पूजा मिली तो सब मिला। भक्तों ने तो भक्ति में इतना पा लिया, फिर बैकुंठ भी नहीं मांगा। कहा. सम्हालों अपना बैकुंठ। हमें तो तुम्हारा पूजन, तुम्हारा अर्चन काफी है। हम तो तुम्हारे गीत गाते रहें, इतना पर्याप्त, यही हमारा स्वर्ग।
कहते हो :
तीर्थ व्रत यात्रा कर चुका हूं पर निष्फल।
वह फल तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ता।
क्या मैं ऐसे ही अकारथ जीऊंगा अकारथ ही मर जाऊंगा?
यह फलाकांक्षा रही तो अकारथ ही जीओगे, अकारथ ही मरोगे। बहुत बार जीये हो, बहुत बार मरे हो। यह कोई तुम्हारी नई आदत नहीं, यह पुरानी तुम्हारी परंपरा है। सदियों—सदियों पुरानी है। यही तुम्हारा अतीत है।
लेकिन अभी भी कुछ हो सकता है। बात बदली जा सकती है। बिगड़ी बात बन सकती है।

एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!

था जिन्हें रखा बहुत संवार कर,
था जिन्हें रखा बहुत दुलार कर,
रंग एक बार के उतर गये,
फूल एक बार के बिखर गये।
बाग चुप रहा समय निहारकर,
किंतु, कह उठी पिकी पुकार कर
इक बहार रूठ—रूठ जाये तो
बाग को नई बहार चाहिये!
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!

ताज आग का संवारता रहा,
पंथ भोर का निहारता रहा;
किंतु दीप की लगन बिखर गई,
स्नेह चुक गया शिखा सिहर गई!
दीप त्रस्त हो लगा गुहारने,
किंतु मृत्तिका लगी पुकारने—
एक स्नेह—कोष रीत जाये तो
स्नेह की नवीन धार चाहिये!
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!

उड़ चला विहंग तृण लिये हुए,
प्यार का अकंप प्रण लिये हुए;
किंतु, क्रुद्ध आंधियां मचल गईं,
तृण बिखेर, नीड़ को कुचल गईं,
लुट गया विहंग, छा गई निशा,
किंतु फिर लगी पुकारने उषा—
एक नीड़ टूट—फूट जाये तो
डाल को नया सिंगार चाहिये।
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!

प्राण स्वप्न—लोक में रमे रहे,
और, नींद में नयन लगे रहे! पर,
अजान ही हृदय धड़क उठा,
कांपते हुए खुले सजल पलक!
नींद ही रही न स्वप्न ही रहा,
किंतु, तप्त अश्रुधार ने कहा—
एक स्वप्न टूट—टूट जाये तो
आंख को नया खुमार चाहिये।
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये!

मैं तुम्हें सदा दुलारता रहा,
प्राण में बसा, संवारता रहा,
किंतु एक दिन कहार आ गये,
पालकी उठा तुम्हें लिवा गये!
हर शपथ ज्वलित अंगार हो गई,
जिंदगी असह्य भार हो गई;
जब हृदय लगा चिता संवारने,
व्योम के नखत लगे पुकारने;
एक मीत साथ छोड़ जाये तो
प्यार की नई पुकार चाहिये!
एक तार टूट—टूट जाये तो
बीन को नवीन तार चाहिये।

नई पूजा सीखो, नया अर्चन सीखो, नई थाप दो ढोलक पर। यह तार टूट गया, इस तार को फिर जमाओ। भूल पूजा की न थी, भूल तुम्हारी थी। भूल अपान की न थी, तुम्हें नाचना ही न आया, और तुम समझे कि आंगन टेढ़ा है। अभी सब संवर सकता है, अभी फिर सब ठीक हो सकता है। अभी कुछ बिगड़ नहीं गया है, कभी कुछ बिगड़ नहीं गया है। जब भी घर लौट आए तभी समझना कि सबेरा है। देर—अबेर सही। अब तुम पुराने पूजा के ढांचे को छोड़ो।
यहां हम यही तो कर रहे हैं आनंददास। पूजा का ढांचा पैदा नहीं कर रहे, पूजा की एक भाव—तरंग। पूजा के लिए कोई ठोस व्यवस्था नहीं, सिर्फ पूजा का एक रंग; और उन्यूक्तता, और स्वतंत्रता, और प्रत्येक व्यक्ति को अपने कंठ से, अपने ढंग से, गा लेने की सुविधा।
और फिर मैं यह भी नहीं कहता कि ईश्वर को मानो। ईश्वर को मानने की कोई जरूरत ही नहीं है। मानोगे तो कैसे मान पाओगे? लेकिन चांद—तारे बहुत हैं नाचने के लिए। ईश्वर को बीच में लाओ भी क्यों? वृक्षों की हरियाली बहुत है नाचने के लिए। आकाश से उतरती सूरज की रोशनी बहुत है। ईश्वर को बीच में लाओ ही मत। मंदिरों में जाओ क्यों? सृष्टि काफी है। इससे सुंदर मंदिर और बन भी कैसे पाएंगे। नाचना सीखो, गुनगुनाना सीखो। एक खुमार टूट गया, टूट जाने दो—आंख को नया खुमार चाहिए! यहां हम खुमारी ही बांट रहे हैं। यह एक मधुशाला है, यहां थोड़ा पीयो!
और अगर तुम चांद—तारों के नीचे नाच सको, और सागर की उत्ताल तरंगों के साथ उन्मत्त हो सको, और वृक्षों के साथ हवाओं में डोल सको, तुम परमात्मा को पा लोगे, क्योंकि परमात्मा यहीं कहीं छिपा है—इसी हरियाली में, इन्हीं फूलों में, इन्हीं तारों में, इन्हीं चट्टानों की ओट में।
जीसस ने कहा है : उठाओ पत्थर को और उसके नीचे छुपा तुम मुझे पाओगे। तोड़ो इस लकड़ी को और इसके भीतर बसा तुम मुझे पाओगे।
लेकिन हम औपचारिक हैं। हम बैठते हैं पूजा का थाल सजाकर, एक मूर्ति बनाकर, धूप—दीप बालकर, संस्कृत का पाठ करते हैं। सब व्यर्थ हो जाता है। संस्कृत तुम्हारे हृदय से भी नहीं आती, उसका अर्थ भी तुम्हें मालूम नहीं है। कि मुसलमान है तो अरबी में पाठ कर रहा है। उसे कुछ पता भी नहीं कि वह क्या कह रहा है। पराई भाषा बोल रहे हो, मुर्दा भाषा बोल रहे हो!
अपनी भाषा में बोलो। और हुए होंगे बड़े—बड़े पंडित और उन्होंने बड़े सुंदर प्रार्थना के पद रचे होंगे, मगर वे उधार हैं। तुम तुतलाओ सही, मगर अपनी ही भाषा में। तुम अपनी ही बात कहो, कम —से—कम परमात्मा के सामने तो तुम अपनी ही बात कहो। देखते हो, मां के सामने उसका बेटा तुतलाता भी है तो खुश हो जाती है! कम—से—कम तुतलाहट उसकी अपनी तो है, अपने हृदय से आती है।
और किसी विश्वास के आधार पर मत करो ऐसा, नहीं तो तुम विश्वास के पीछे खोजते रहोगे फल नहीं मिला, अब तक फल नहीं मिला, फल कब मिलेगा? तुम्हारी नजर फल पर अटकी रहेगी और तुम चूकते चले जाओगे।
मैं तुम्हें कहता हूं कि जीवन एक उत्सव है। नास्तिक हो, चलेगा, कोई अड़चन नहीं है, जीवन के उत्सव को मानने में तो कोई अड़चन नहीं है, उत्सव तो हो ही रहा है। पक्षी तो गा रहे हैं; यही प्रार्थना है। वृक्ष तो मौन में खड़े ही हैं; यही ध्यान है।
जीवन के महोत्सव को थोड़ा समझो, जीवन में रस—विभोर होओ। छोड़ो सैद्धांतिक बातें, और एक दिन तुम पाओगे इसी रस—विभोरता से, इसी जीवन के उत्सव में रंगते, पकते, परमात्मा भी चला आया। तब पैदा होती है श्रद्धा, तब पैदा होती है आस्था, वह विश्वास नहीं है। और श्रद्धा मुक्तिदायी है। और श्रद्धा अमृत का स्वाद दे जाती है।

दूसरा प्रश्न:

संसार में सब क्षणभंगुर है? इसलिए पकड़े तो क्या पकड़े?

राम कीर्ति, क्षणभंगुर में ही शाश्वत छिपा है। क्षणभंगुर को छोड़ा कि शाश्वत से भी चूके। जैसे लहर—लहर में सागर छिपा है, तुम लहर—लहर से बच गए, सागर से भी बच जाओगे। नाव छोड़ने के पहले अगर नाविक पूछे कि 'सागर कहां है? ये तो छोटी—मोटी लहरें हैं, इनमें कैसे नाव छोडूं? लहरों में कोई नाव छोड़ता, सागर कहां है? ये उथली छोटी—छोटी लहरें, इनका भरोसा भी क्या, अभी हैं अभी गईं, क्षण— भर तो टिकती नहीं, इनमें नाव छोड़ दूं? यह तो खतरा हो जाएगा। यह तो जोखिम की बात है। सागर कहां है? मैं तो सागर में नाव छोडूंगा। ' तो फिर तुम बैठे रहना नाव रखे किनारे पर; तुम भी सड़ोगी, नाव भी सड़ेगी।
लहर के भीतर सागर ही है। लहर सागर ही है। छोड़ो नाव, लहर के नीचे ही सागर भी मिल जाएगा।
क्षणभंगुर कह कर संसार की निंदा मत करो। क्षण उस शाश्वत की अभिव्यक्ति है। वही बोला है, वही झलका है, वही झांका है। तुम देखो जरा आंख खोलकर चारों तरफ, कितना सौंदर्य है, कितना छंद है, और तुम पिटी—पिटाई बातें लिए बैठे हो! तुम्हें कोई भी कहता रहा है कि संसार क्षणभंगुर है, तुमने सीख लिया, तोते की तरह रट ली यह बात : संसार क्षणभंगुर है!
क्षण क्या है? क्षण शाश्वत की लहर है; शाश्वत में उठी तरंग है। तो क्षण में ही छिपा है शाश्वत, समय में ही छिपा है नित्य। भागो मत, डूबो। डुबकी मार दो क्षण में। लेकिन तुम्हें उल्टी बातें समझायी गई हैं। और इतने दिन तक समझायी गई हैं कि तुम्हें ठीक—ठीक लगने लगी हैं। बहुत बार दोहराने से झूठ भी सच मालूम होने लगते हैं। इसलिए तो विज्ञापनदाता झूठों को दोहराए चले जाते हैं, दोहराते रहो; इसकी फिक्र ही नहीं करते कि कोई मानता है कि नहीं मानता। लोग अपने— आप मान ही लेते हैं। तुम तो दोहराते रहो कि लक्स टायलेट साबुन, सबसे अच्छी साबुन है। न कोई प्रमाण देने की जरूरत है। हजारों साबुन हैं, मगर तुम दोहराते रहो, इंगित देते रहो, इशारे देते रहो, जहां से भी आदमी गुजरे, अखबार खोले तो लक्स टायलेट साबुन दिखायी पड़े, रेडियो सुने तो लक्स टायलेट साबुन सुनायी पड़े, टेलीविजन पर जाए तो लक्स टायलेट साबुन दिखायी पड़े, रास्ते से गुजरे तो बड़े—बड़े बोर्ड लगे हैं। बस उसके मन पर गुजाते रहो लक्स टायलेट साबुन, लक्स टायलेट साबुन। एक दिन जब वह जाएगा खरीदने बाजार साबुन और दुकानदार पूछेगा, क्या? वह कहेगा लक्स टायलेट साबुन, और सोचेगा कि मैं खुद ही सोचकर कह रहा हूं। यह सोचा हुआ नहीं है। यह केवल संस्कारित है।
इसी तरह तुम धर्म भी दोहरा रहे हो। तुम्हारे धर्म में और तुम्हारे लक्स टायलेट साबुन में जरा भी भेद नहीं है। इसी तरह तुम प्रार्थना—पूजा भी कर रहे हो, इसी तरह तुम सिद्धात की बड़ी—बड़ी ऊंची बातें भी छान रहे हो, मगर सब सुनी बकवास है। तुम्हारा अपना कोई भी अनुभव नहीं।
अब तुम कहते हो संसार में सब क्षणभंगुर है। जानते हो? क्षण में उतरे हो? क्षण में डुबकी मारी? क्षण के पीछे झांका, कौन खड़ा है परदे के पीछे? परदे के पीछे तो वही राम हैं। जरा टटोलो तो! नहीं, मगर मुर्दा बातें सदियों से दोहरायी गईं, तुम्हें पकड़ लेती हैं। फिर तुम उन पर कभी पुनर्विचार नहीं करते। और जब एक दफा मान लिया कि संसार क्षणभंगुर है तो तत्क्षण लोभी चित्त कहता है, तो क्षणभंगुर में क्या सार है? इसलिए पकड़े तो क्या पकड़े?
पकड़ने की जरूरत क्या है? उसने तुम्हें पकड़ा हुआ है, तुम उसे क्या पकड़ोगे? तुम उसके हाथ में हो। उसने तुम्हें जन्माया, वही तुम्हें जिलाता है, वही तुम्हें एक दिन उठा ले जाएगा। तुम उसे क्या पकड़ोगे? तुम्हें उसे पकड़ने की कोई जरूरत भी नहीं है। तुम पृथ्वी को तो नहीं पकड़ते। डरते तो नहीं कि कहीं पकड़ा नहीं पृथ्वी को तो छूट न जाएं, नहीं तो इतना अनंत आकाश है, गिर पड़े कहीं!
छोटे—छोटे बच्चे ऐसा प्रश्न पूछते हैं कि जमीन गोल है, तो लोग गिर क्यों नहीं पड़ते?  कम—से—कम अमरीका के लोग तो गिर ही जाएं, बिलकुल नीचे हैं, जमीन गोल है। और अमरीका के बच्चे पूछते हैं कि कम—से—कम भारत के लोग तो गिर जाएं, मगर कोई गिरता नहीं और कोई जमीन को पकड़े नहीं है। जमीन ने तुम्हें पकड़ा है, उसके गुरुत्वाकर्षण ने तुम्हें पकड़ा है।
और जैसे जमीन का अदृश्य गुरुत्वाकर्षण है, इससे भी ज्यादा अदृश्य परमात्मा का गुरुत्वाकर्षण है। वह तुम्हें पकड़े हुए है। तुम्हें उसे पकड़ने की कोई जरूरत नहीं है। और उसकी पकड़ ऐसी पकड़ है कि तुम्हें बांधती भी नहीं, तुम्हारे आसपास जंजीरें भी नहीं खड़ी करती। उसकी पकड़ ऐसी पकड़ है कि तुम्हें पूरी स्वतंत्रता भी दी हुई है। तुम्हें छोड़ भी नहीं दिया है और तुम्हें कारागृह में बंद भी नहीं कर दिया है। जैसे मां एक आंख से देखती रहती है बच्चा कहां खेल रहा है, छोड़ा भी हुआ है, लेकिन एकदम छोड़ भी नहीं दिया है। एक आंख उसका पीछा कर रही है। हजार काम में लगी रहती है, लेकिन हृदय में उसे स्मरण बना रहता है कि बच्चा बाहर खेल रहा है, कहीं दूर न निकल जाए, कहीं सड़क पर न पहुंच जाए, कहीं गाड़ी, घोड़े की चपेट में न आ जाए!
मनुष्य स्वतंत्र है और फिर भी कोई उसकी सुरक्षा कर रहा है प्रतिपल। वे हाथ तुम्हें सहारा दे रहे हैं। तुम्हें कुछ पकड़ने की जरूरत नहीं।
मगर लोभी मन कहता है : यहां तो सब क्षणभंगुर है! और मजा तुम देखना कि जिनको तुम समझते हो तुम्हारे साधु—संत, वे तुमसे ज्यादा लोभी हैं। उनका कारण क्या है संसार छोड़ देने का? यही कारण है : संसार क्षणभंगुर है। क्षणभंगुर से वे कहते हैं क्या सार पकड़ने में 2: हम तो पकड़ेंगे तो उसको पकड़ेंगे जो कभी छूटे न। तो तुममें और उनमें फर्क क्या हुआ? तुम जरा कम लोभी हो, वे जरा ज्यादा लोभी हैं। तुम कहते हो : हमारा क्षणभंगुर से ही चल जाएगा। वे कहते हैं : हमारा इससे नहीं चलेगा, हमें तो शाश्वत चाहिए। हमें तो जब तक पक्का भरोसा न हो जाए कि जो हमने पकड़ा वह सदा हमारे साथ रहेगा, तब तक हम जोखिम उठानेवाले नहीं।
इससे तो संसारी ही कम लोभी मालूम पड़ते हैं। तुम्हारे तथाकथित संत महालोभी हैं। उनकी इच्छा बैकुंठ की है। वे भी चाहते हैं कि सुंदर स्त्रियां उन्हें मिलें, लेकिन अप्सराएं—उर्वशी, मेनका—अप्सराएं, जो कभी वृद्ध नहीं होतीं और जो कभी बीमार नहीं होतीं और जो सदा जवान रहती हैं। वे भी चाहते हैं इन्हीं सारी वासनाओं की तृप्ति जो तुम चाहते हो। मगर वे चाहते हैं एक स्थिर आधार पर, जो सदा होती रहे। वे कल्पवृक्ष की तलाश कर रहे हैं, जिसके नीचे बैठकर जो चाहेंगे, जब चाहेंगे, उसी वक्त पूरा हो जाएगा। इनको तुम संत कहते हो! जरा इनके भीतर छिपी हुई वासना तो देखो। ये स्वर्ग में भी इरादे क्या रखते हैं?
मैंने सुना है, एक संत मरे। संत, जैसे संत होते हैं। संयोग की बात, दूसरे—तीसरे दिन उनका शिष्य भी मर गया। शिष्य तो चला स्वर्ग की तरफ बड़े पक्के भरोसे से कि गुरुदेव के मिलन का मौका आ रहा है, गुरु से मिलन होगा। सोचने लगा रास्ते में कि गुरु को कैसे बड़े—से—बड़े कल्प वृक्ष के नीचे बैठने का स्थान मिला होगा! थे भी बड़े तपस्वी। सब छोड़—छाड़ कर दिन—रात राम—राम, राम—राम, राम—राम जपा करते थे। अब राम ने दिया होगा फल भी पूरा। सबसे सुंदर स्त्री उर्वशी मिली होगी। दबा रही होगी पैर।
पहुंचा शिष्य। एक वृक्ष के नीचे बैठे थे गुरुदेव। पहले तो लंगोटी भी पहने रहते थे, अब तो नंगधडंग थे, लंगोटी भी गई। वे तो सब संसार की चीजें थीं, संसार में रह गईं। नंगे आते हैं आदमी, नंगे जाते हैं। नंगधडंग बैठे थे कल्पवृक्ष के नीचे। खुश हो गया शिष्य। और इतना ही नहीं, एक युवती आलिंगन कर रही थी। बड़ी सुंदर युवती! होगी जरूर उर्वशी।
एकदम साष्टांग दंडवत की गुरु के चरणों में गिरकर, कहा कि गुरुदेव, धन्य हैं! मैं तो पहले से ही जानता था कि ऐसे ही सुख आपको मिलेंगे। पुण्य भी तो किए थे, व्रत भी तो किए थे, नियम—उपवास, तीर्थयात्रा, सब तो किया था। मिलना ही था। यह तो आपका हक था।
गुरुदेव ने कहा : तू चुप रह नालायक! तुझमें अभी भी अकल नहीं आई। तू पहले ही जैसी नालायकी की बातें कर रहा है।
शिष्य ने कहा कि कैसे चुप रहूं अपनी आंख से देख रहा हूं कि आपको आपके पुण्यों का पुरस्कार मिल रहा है।
गुरु ने कहा. चुप रह! यह मेरे पुण्यों का पुरस्कार नहीं मिल रहा है, यह इस स्त्री को इसके पापों का दंड मिल रहा है। यह स्त्री मेरे पुण्यों का पुरस्कार नहीं है, मैं इसके पापों का दंड हूं। तू चुप रह, बीच में मत बोल। यह स्त्री को सताने का उपाय किया गया है।
अब संत के साथ पकड़ा दो किसी स्त्री को, इससे ज्यादा और सताने का उपाय और क्या हो सकता है? मगर गुरु नाराज है कि तू चुप रह नासमझ। क्रोधित है।
चाहते क्या हो तुम स्वर्ग में? अगर तुम शास्त्रों को खोलकर देखो तो तुम हैरान हो जाओगे। किन्हीं कामियों ने लिखे होंगे। स्वर्ग में चश्मे बह रहे हैं शराब के! सुंदर स्त्रियां हैं, स्वर्ण के फूल खिलते हैं, हीरे—जवाहरात रास्तों पर बिछे हैं। ये किनकी कल्पनायें हैं? ये रुग्ण कल्पनायें किनकी हैं? ये लोभ से भरे हुए लोग क्षणभंगुर को छोड़ना चाहते हैं, शाश्वत को पाना चाहते हैं।
मैं तुमसे कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं तुमसे कह रहा हूं : शाश्वत इस क्षणभंगुर से भिन्न नहीं है। परमात्मा प्रकृति से भिन्न नहीं है; इसी में लीन है; इसी में समाविष्ट है। स्रष्टा—सृष्टि में भेद नहीं है। जैसे नर्तक अपने नृत्य में समाया होता है, ऐसे ही स्रष्टा अपनी सृष्टि में समाया हुआ है।
जिस दिन तुम्हें यह समझ में आ जाएगा, यह क्षणभंगुरता और यह शाश्वतता और ये सारे द्वैत, और द्वंद्व तुम्हारे मन से गिर जायेंगे, फिर पल—पल आनंद है। क्योंकि प्रतिपल वही मौजूद है। थोड़ा अपने को बदलों, देखने का ढंग बदलो।
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?
संगीत उमड़ने दो स्वर्णिम तारों में,
खो जाने दो दुनिया इन झनकारों में।
झूमें जाओ, क्षण भर भी मत यह पूछो,
छवि की पायल का नाद चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?

नभ में चांदी का ज्वार उमड़ता देखो,
मेघों का शशि पर प्यार उमड़ता देखो,
मत पूछो मुग्ध चकोरी के नयनों से,
विस्तृत अंबर में चांद चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?

साकीबाला की मस्त निगाहें देखो,
बेसुध पीनेवालों की चाहें देखो,
मधु पीनेवालों की मादक महफिल में—
मत पूछो, हालावाद चलेगा कब तक?
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?

शृंगार तुम्हें खलता है तो खलने दो,
अभिसार तुम्हें खलता है तो खलने दो;
अपराध समझते रहो प्यार को, लेकिन,
मत पूछो, यह अपराध चलेगा कब तक?  
मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?

शाश्वत है यह प्रक्रिया क्षणभंगुरता की। यह कभी खंडित नहीं हुई, अखंड है यह धारा। सदा से है और सदा रहेगी। ये तरंगें उठती ही रहेंगी। मत पूछो, यह उन्माद चलेगा कब तक?
तुम डूबो इस उन्माद में। यह जो नृत्य है, यह जो मादक अस्तित्व है, इसमें मस्त होओ।
मैं तुम्हें उदासी सिखाने को नहीं हूं। मैं तुम्हें संगीत देना चाहता हूं। लेकिन मैं जानता हूं तुम्हारी अड़चन। तुम्हें उदास चित्त लोगों ने बहुत प्रभावित किया है। सदियों से धर्म के नाम पर तुम्हें जीवन का निषेध सिखाया गया है, जीवन का विरोध सिखाया गया है। सब पाप है। प्रेम पाप है, संबंध पाप है। मैत्री पाप है। नाता—रिश्ता पाप है। सब पाप है। तुम पाप से घिर गए हो। नहीं कि सब पाप है, लेकिन तुम्हारी धारणाओं में सब पाप हो गया है। जो छुओ वही गलत है। जो करो वही गलत है। तुम नकार से घिर गए। तुम्हारी फांसी लग गई है नकार में।
मैं तुम्हें नकार से मुक्त करना चाहता हूं। मैं कहता हूं : यह क्षणभंगुर भी उस शाश्वत की ही लीला है। यह उसका ही रास है। वही नाच रहा है इसके मध्य में। तुम्हें दिखायी पड़े न दिखायी पड़े, मगर नाच में तो सम्मिलित हो जाओ। नाच में सम्मिलित होते—होते ही वह आंख भी खुलेगी जिससे तुम्हें वह दिखायी पड़ने लगेगा।
और पकड़ने की बात ही मत पूछो, पकड़ना क्या है? न पकड़ना है कुछ, न छोड़ना है कुछ। पकड़ना—छोड़ना व्यर्थ की बात है। जीना है। जल में कमलवत जीयो! न पकड़ो न छोड़ो। पकड़ो तो फिर छोड़ने का उपद्रव शुरू होता है। जो पकड़ लेते हैं, फिर उनके मन में चिंता पकड़ती है कि पकड़ लिया, अब कहीं नर्क न भोगना पड़े, तो छोड़े। छोड्कर भाग जाते हैं, उनके मन से भी पकड़ नहीं जाती, क्योंकि छोड़ते जिसको हैं उसके प्रति राग तो था, रंग तो था, रस तो था। छोड़ तो आए हैं, लेकिन घाव पीछे रह गये। फिर घाव में पीड़ा उठती है। रह—रह कर भाव उठते हैं, वापिस लौट जाएं।
बड़ी अजीब है यह दुनिया। जिनके पास है, वे सोचते हैं मजे में होंगे वे लोग जिन्होंने सब छोड़ दिया है। और जिन्होंने सब छोड़ दिया है वे बेचैन हैं कि सारा संसार मजा कर रहा है, एक हम ही छोड़ बैठे हैं, पता नहीं हमने कोई गलती न की हो! ऐसी अदभुत है यह दुनिया। ऐसी विरोधाभासी है। यहां सम्राट सोचते हैं फकीर मजे में हैं। यहां फकीर सोचते हैं सम्राट मजे में हैं।
मैं तुमसे क्या कहना चाहता हूं? मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं कि तुम जहां हो वहीं मजे में हो जाओ। न फकीर बनने की जरूरत है, न सम्राट बनने की जरूरत है। सम्राट हो तो भी ठीक चलेगा। फकीर हो तो भी चलेगा। न फकीरी पकड़ो न बादशाहत पकड़ो। पकड़ो मत! जो है, जो उपलब्ध हुआ है, उसे प्रभु का प्रसाद समझकर स्वीकार करो। और जल में कमलवत रहना सीखो। रहो जल में, लेकिन जल छुए न।
पकड़ने—छोड़ने की बात नहीं है, अस्पर्शित रहने की बात है। और उस प्रक्रिया को ही मैं ध्यान कहता हूं। सब करते रहोगे संसार का कृत्य—काम, बाजार, दुकान—और भीतर कोई दूर पारदर्शक बना बैठा रहेगा! साक्षी! देखता रहेगा। उस दर्शक को, उस साक्षी को, उस द्रष्टा को कुछ भी न छूएगा। बाजार होगा तो बाजार को देखेगा और हिमालय की शात ततइया होंगी, घाटियां होंगी, तो हिमालय की शात घाटियां देखेगा। दर्शक अलग ही खड़ा है। शोरगुल होगा तो शोरगुल सुनेगा, संगीत होगा तो संगीत सुनेगा, मगर सुननेवाला अलग है, पृथक है। न तो सुननेवाला शोरगुल होता है न संगीत होता है। सुख आए तो सुख, दुख आए तो दुख। सफलता, विफलता, चुपचाप देखते रहो। और जो परमात्मा दे उससे अन्यथा न मांगो। शिकायत न उठाओ। शिकायत का न उठाना ही प्रार्थना का असली स्वभाव है। वही प्रार्थना का वास्तविक रूप है। वही सप्राण प्रार्थना है।
शिकायत न उठे। धन्यवाद बना रहे। दुख में भी धन्यवाद बना रहे। क्योंकि दिया है उसने, तो सकारण होगा। हम न समझ पाते होंगे। हम न पहचान पाते होंगे। लेकिन जरूर दुख में से भी कुछ निष्पन्न होता होगा—कोई प्रौढ़ता आती होगी, कोई परिपक्वता आती होगी, कुछ ज्ञान का जन्म होता होगा। हर पीड़ा प्रसव—पीड़ा है, ऐसी भाव—दशा बन जाए तो प्रार्थना।

तीसरा प्रश्न:

बंबई की किसी होटल के प्रांगण में स्थापित जैन तीर्थंकर की नग्न प्रतिमा को चड्डी पहनाई गई ऐसा आपने बताया। मैं जानना चाहता हूं कि चड्डी पहनाने का कार्य किसने किया?

ह तो बड़ा कठिन सवाल है। मैं कोई शरलक होम्ब तो नहीं और न ही कोई लाल बुझक्कड़ हूं। अब यह मैं कैसे पता लगाऊं कि किसने चड्डी पहनायी।
तुमने कहानी तो सुनी होगी न, कि एक गांव में चोरी हो गई, बड़ी तलाश हुई कुछ पता न चले। सारे गांव के लोगों से पूछा गया। फिर लोगों ने कहा कि भई गांव में हमारे एक लाल बुझक्कड़ हैं, वे हर चीज को बूझ देते हैं। अब तो उन्हीं के बस की बात है। बुलाये गए लाल बुझक्कड़। वे आए बराबर शेरवानी, चूड़ीदार पाजामा, अचकन, गांधी टोपी, बिलकुल मोरारजी भाई देसाई मालूम होते थे। इंस्पेक्टर भी समझा कि हैं तो कोई पहुंचे हुए नेता, जरूर ठीक ही कुछ जवाब देंगे। लाल बुझक्कड़ आकर खड़े हो गए। इंस्पेक्टर ने पूछा कि आप बता सकते हैं, चोरी किसने की? लाल बुझक्कड़ ने आंख बंद करके कुछ सोचा और कहा : बता सकता हूं लेकिन स्वात में। और यह कानोंकान किसी और को खबर न हो, जो मैंने बताया।
यह बात भी इंस्पेक्टर को समझ में आई, क्योंकि कौन झंझट मोल ले। मगर चलो पता तो चल जाए आदमी का, फिर देखा जाएगा। लाल बुझक्कड़ ले गए उन्हें दीवाल की ओट में। चारों तरफ देखा, कोई भी नहीं है। कान के पास मुंह लाए, मुंह लगाकर कान में कहा कि ऐसा मालूम होता है, किसी चोर ने चोरी की है।
इससे क्या हल होगा? यह तो किसी को भी पता है कि किसी चोर ने चोरी की। अब किसी चड्डी पहनानेवाले ने चड्डी पहनाई होगी। ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि कोई चड्डी का भक्त रहा होगा। कोई चड्डीवादी रहा होगा।
इसलिए तो मैंने कहा कि अभी तो चल रही है चड्डी की राजनीति। वे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं वे चड्डीवादी हैं। अभी तो मोरारजी की भी शेरवानी के पीछे चड्डी का ही सहारा है। किसी चड्डीवाले ने ही पहनायी होगी।
मगर कुछ बातें अनुमान की जा सकती हैं कि चड्डी नहीं रही होगी, क्योंकि बीस फीट की प्रतिमा को पहनाया हुआ पाजामा चड्डी जैसा मालूम पड़ता होगा। अब बीस फीट की प्रतिमा.। लेकिन जिसने भी पहनाया होगा बड़ा नीतिवादी रहा होगा, कि तीर्थंकर महाराज नग्न खड़े हैं, अच्छा नहीं मालूम होता, भद्द होती है। और विदेशी फोटो निकाले ले जा रहे हैं, तो विदेशों में भारत की प्रतिमा खंडित होगी! क्या लोग कहेंगे! और विदेशियों को कुछ पता तो है नहीं, वे तो समझते ही नहीं कि कौन हैं तीर्थंकर। उन्होंने तो नाम ही रखा है. मिस्टर तीर्थंकर! जो भी आता है विदेशी, वही कहता है कि चलो मिस्टर तीर्थंकर की फोटो ले लें। विदेशी पूछते भी हैं कि मिस्टर तीर्थंकर नंगे क्यों खड़े हैं? उल्टे—सीधे सवाल..। अब उनको क्या पता? और जवाब भी क्या दो? और उनका सारा रस इस बात में है कि वे नग्न खड़े हैं। और किसी नीतिवादी को, किसी भारतीय संस्कृति की रक्षा करनेवाले को आ गया होगा खयाल कि पहना दो चड्डी।
मगर मैं कहता हूं कि चड्डी न पहनाकर अगर चूड़ीदार पाजामा पहनाया होता तो ज्यादा अच्छा रहता, क्योंकि चड्डी किसी ने भी फाड़ दी..। चूड़ीदार पाजामा पहनाओ तो कठिन, उतारो तो कठिन। यही उसकी खूबी है, दो घंटा पहनने में लगते हैं, दो घंटा उतारने में लगते हैं। सिर्फ नेता लोग ही पहन सकते हैं, बाकी तो फुरसत भी किसको है दो घंटा उतारो, दो घंटा पहनो!
तुम पूछते हो :
किसने?
तो मुझे एक और कहानी याद आती है। एक स्कूल में अचानक ही इंस्पेक्टर आ गया। जैसा स्कूलों में चलता है भारत के, शिक्षक अपने पैर पसारे टेबिल पर अखबार पढ़ रहा था। कुछ लड़के ताश खेल रहे थे पीछे। कुछ लड़के कागज के तीर बनाकर लड़कियों पर फेंक रहे थे। कुछ लड़कियों को चोटियां ले रहे थे। यह सब काम चल रहा था। मतलब भारतीय संस्कृति पूरी तरह से अपना काम कर रही थी। अचानक इंस्पेक्टर आ गया, चौंक कर, शिक्षक भी घबड़ाया, जल्दी से अखबार रखा। इंस्पेक्टर ने पूछा कि क्या चल रहा है? अब और कुछ सूझा भी नहीं, भारतीय संस्कृति के लोग, तो उसने कहा कि धर्म की कक्षा है।
'क्या पढ़ाया जा रहा है?'
अब क्या धर्म की कक्षा में... एकदम से उसको कुछ सूझा नहीं। उसने सोचा : कुछ तो बता ही देना चाहिए, जो बच्चों को आता भी हो। उसने कहा : रामचंद्र जी की कथा पढ़ाई जा रही है।
उसने कहा : अच्छा ठीक। बच्चों से पूछा कि बताओ तुम बच्चों कि जब स्वयंवर हुआ, शिवजी का धनुष किसने तोड़ा था? सब बच्चे एक—दूसरे की तरफ देखने लगे, इधर—उधर झांकने लगे। एक बच्चा बहुत सकपकाया—सा मालूम पड़ रहा था; सबसे ज्यादा डरा हुआ मालूम पड़ रहा था। एकदम कंपने ही लगा। इंस्पेक्टर ने उससे पूछा कि तू बोल, किसने धनुष तोड़ा शिवजी का?
उसने कहा. एक बात मैं आपसे कह दूं पहले, मैं तीन दिन से बीमार था, मैं स्कूल आया ही नहीं। किसी और ने ही तोड़ा होगा। मेरा इसमें बिलकुल हाथ नहीं, नहीं तो हमेशा मैं ही फंस जाता हूं। कुछ भी चीज टूट—फूट जाए तो मुझे पकड़ लेते हैं, इसीलिए मैं कैप रहा हूं डर रहा हूं कि अब यह झंझट आयी। फिर टूट गई कोई चीज।
इंस्पेक्टर तो बहुत हैरान हुआ। उसने कहा : यह तो हद की धर्म की कक्षा चल रही है! उसने शिक्षक से पूछा कि आप क्या कहते हैं? शिक्षक ने कहा, हो न हो, इसी शैतान ने तोड़ा है। यह बात सच है कि तीन दिन से नहीं आया, शायद इसीलिए न आया हो। तोड़कर भाग गया हो। यह बदमाश है। यह शरारती है। मैं इसके बाप को भी जानता, इसके बाप के भी बाप को जानता। गांव— भर इनसे परेशान है।
तब तो हद हो गई। इंस्पेक्टर ने कहा : यह तो खूब धर्म की कक्षा चल रही है! अब कहने को कुछ बचा ही नहीं। वह गया सीधा प्रधान अध्यापक के पास, जाकर उसने यह कहानी सुनाई कि सुनो। प्रधान अध्यापक ने कहा : अब जाने भी दो, जिसने तोड़ा हो तोड़ा हो, सुधरवा देंगे। अब जो कुछ खर्चा होगा सो हो जाएगा। अब इसको ज्यादा तूल मत दो। अब बात को ज्यादा मत बढ़ाओ। टूट गया टूट गया। जुड़ जाएगा। अब स्कूल है, इतने बच्चे हैं, चीजें टूटती—फूटती रहती हैं।
तुम मुझसे पूछ रहे हो कि यह चड्डी किसने पहनायी? मैंने नहीं पहनायी। मैं तो इस आश्रम के बाहर पांच साल से नहीं गया हूं। इतना भर तुमसे कह सकता हूं। अब बाकी किसने पहनायी, तुम पता लगा ले सकते हो। मगर तुम्हारी मूढ़ता ने ही पहनायी है।
यह देश बड़ा मूढ़ हो गया है। इस देश ने कभी गौरव के दिन भी देखे हैं, कभी महिमामंडित दिन भी देखे हैं। तब इसने खजुराहो बनाए थे, कोणार्क बनाया था, पुरी के और भुवनेश्वर के मंदिर बनाए थे। वे जीवन के मंदिर थे, उमंग के मंदिर थे, उत्सव के मंदिर थे। नाच—नृत्य—गीत! वे प्रेम के मंदिर थे। फिर यह देश पतित हुआ। यह देश का हुआ, सड़ा। फिर यह भूल ही गया जीवन की तरंगें। जीवन का खुमार उतर गया। लोग बस यही सोचने लगे कैसे भवसागर से पार हो जाएं, आवागमन से कैसे छुटकारा हो? लोग मरणवादी हो गए। लोग आत्मघाती हो गए। जिसको तुम आवागमन से छुटकारा कहते हो, वह कोई तुम्हारी धार्मिक भाव—दशा नहीं है, वह सिर्फ तुम्हारी आत्मघाती वृत्ति है।
यह देश पतित हुआ। इसने अपने शिखर खो दिए सूर्यमडित। यह बहुत नीची तराइयों में उतर गया। वहां से अब इसको सिवाय मृत्यु के कुछ भी नहीं सूझता है। यह बहुत डर गया है। यह हर चीज से भयभीत है। यह मनुष्य की प्रकृति से भयभीत है। यह किसी प्राकृतिक तत्व को स्वीकृति नहीं देना चाहता। अब नग्नता मनुष्य की प्राकृतिकता है। इसमें क्या भय है? हिम्मतवर रहे होंगे वे लोग, जब महावीर नग्न हुए और उनके साथ हजारों लोग नग्न हो गए! और हिम्मतवर रहे होंगे वे लोग जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया, सम्मान दिया। और पुरुषों में ही नहीं, तुम जानकर चकित होओगे, कश्मीर में एक अदभुत महिला हुई, लल्ला, नग्न रही। पुरुष नग्न रह जाएं, यह तो ठीक; लेकिन स्त्री को तो और भी लाज—संकोच पकड़ता है। लेकिन लल्ला महावीर जैसी स्त्री थी। बस महावीर की तुलना में लल्ला को ही रखा जा सकता है सारी दुनिया के इतिहास में। और कश्मीर ने बहुत सम्मान दिया लल्ला को। कश्मीर में लोग कहते हैं. हम तो दो ही शब्द जानते हैं—अल्लाह और लल्लाह। बस दो ही शब्द पहचानते हैं। दो को ही हमने आदर दिया है। एक नग्न स्त्री को! और लल्ला बड़ी सुंदर स्त्री थी, कश्मीरी थी! और बड़ी सुंदर स्त्री थी। और एक और सौंदर्य पैदा होता है जब कोई व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है। लल्ला समाधिस्थ थी। तब एक अपूर्व प्रसाद बरसता है। फिर साधारण सौंदर्य नहीं रह जाता, पारलौकिक हो जाता है।
उस अपूर्व सुंदर स्त्री को नग्न देखकर भी लोगों ने कुछ विरोध न किया। लोग सम्मान में झुके। जिंदा लोग थे। अभी कौम की रगों में खून दौड़ता था। अभी कौम जीवन को, प्रकृति को, अंगीकार करती थी, नैसर्गिक थी। अब हालत बिगड़ गई है। अब हालत बुरी है। जब भी कोई कौम बहुत पतित हो जाती है तो जीवन में जड़ें खो देती है, और मृत्यु में सहारा खोजने लगती है।
इसलिये मुझ पर लोग नाराज हैं। क्योंकि मैं चाहूंगा खजुराहो के मंदिर फिर बनें। मैं चाहूंगा खजुराहो के मंदिर में फिर आरती उतरे, फिर दीप जलें। वे सिर्फ खंडहर न रह जायें। मैं चाहूंगा कि महावीर और लल्ला जैसे अदभुत पुरुष—स्त्रियां फिर इस पृथ्वी पर हों।
मैं इस देश को फिर से युवा करना चाहता हूं। लेकिन के नाराज हैं, बहुत नाराज हैं! पंडित, पुरोहित, पुरातनवादी बहुत नाराज हैं। उन्हें लगता है : मैं धर्म भ्रष्ट कर रहा हूं। उन्हें पता ही नहीं। उन्हें अपनी संस्कृति का भी पता नहीं।
मोरारजी देसाई कहते हैं कि मेरी मौजूदगी भारत की प्रतिमा के लिये बड़ी घातक है; मेरी खबर दुनिया में नहीं जानी चाहिये, नहीं तो भारत की प्रतिमा गिर जायेगी।
थोड़ा भारत का इतिहास तो उठा कर देखो! अभी— अभी एक चार—छ: दिन पहले अखबारों में खबरें आयी हैं कि चित्रकूट के पास एक छोटा—सा नया खजुराहो मिल गया है। जंगलों में दबा पड़ा था खंडहरों में। यह खजुराहो से भी ज्यादा महत्वपूर्ण जगह है, क्योंकि इसका मूल्य इसलिये है कि खजुराहो में तो जो नग्न आलिंगन मैथुन की प्रतिमायें, प्रेम की, उल्लास की, आनंद की, वे नर—नारियों की हैं। चित्रकूट में जो मंदिर मिला है, उसके मंदिर पर जो प्रतिमायें हैं वे देवी—देवताओं की हैं। वे भी नग्न हैं। वे भी आह्लाद में मग्न हैं। वे भी प्रेम में, आलिंगन में आबद्ध हैं मिथुन—प्रतिमायें हैं देवी—देवताओं की! ये तो और खतरनाक हैं। मोरारजी भाई के पैर के नीचे की जमीन तो और खिसक जायेगी कि खजुराहो ही ठीक था कम से कम आदमी थे। आदमी को कहा जा सकता है कि आदमी ही हैं, भ्रष्ट रहे होंगे। मगर ये देवी—देवताओं की प्रतिमायें हैं।
तुम जरा अपने पुराण उठाकर देखो। वे जीवंत थे दिन। उन पुराणों में तुम्हें कहानियां मिल जायेंगी कि कभी—कभी वे स्वर्ग के देवता पृथ्वी की किसी स्त्री पर मोहित हो जाते। स्वर्ग के देवता छिपकर कभी पृथ्वी की किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते! लेकिन फिर भी हमने उन्हें पुराणों में देवताओं को इंकार नहीं किया, स्वीकार रखा। इसको हमने सौभाग्य समझा कि पृथ्वी के प्रेम में कभी—कभी कोई देवता पड़ जाये, यह हमारी पृथ्वी का धन्यभाग है। इसमें कुछ हमने अनीति नहीं समझी। इसे हमने पृथ्वी का गौरव समझा।
अब अगर मोरारजी भाई को मिल जाये यह किताब तो वे काट ही दें इस लकीर को कि यह तो बात बहुत ही गलत हो गई कि देवता भी और भ्रष्ट! देवता भी पृथ्वी की स्त्रियों के प्रेम में पड़ते हैं!
और ऐसा इकतरफा नहीं था। कभी—कभी अप्सरायें आकाश की पृथ्वी के प्रेम में पड़ जाती थीं। उर्वशी उतरी, पुरुरवा के प्रेम में पड़ गई। तब पृथ्वी और आकाश बहुत करीब—करीब थे, मालूम होता है। इतना फासला नहीं था। लोग आते—जाते थे।
ये प्रतीक कहानियां बड़ी मधुर हैं। और तुम अगर अपने पुराणों में जाओगे—जिनमें तुम जाते भी नहीं, जिनकी तुम चाहो तो कभी—कभी पूजा कर लेते हो, दो फूल चढ़ा देते हो, चंदन लगा देते हो और भूल जाते हो।
तुम्हें ज्ञात है कि शंकर का शिवलिंग कैसे पैदा हुआ? पुराणों में क्या कथा है? और अगर मेरी मौजूदगी भारत की प्रतिमा को खंडित कर रही है तो ये शिवलिंग जो सारे देश में फैले हुए हैं, इनका क्या करोगे? मोरारजी भाई, हर शिवलिंग के पास एक पुलिसवाले को खड़ा कर दो कि कोई तस्वीर न उतार ले। और पुराण जिसमें इनकी कथाएं हैं, उनको जला दो। क्योंकि पुराण में जो कथा है, बहुत अदभुत है। पुराण में कथा यह है कि विष्णु और ब्रह्मा में किसी बात पर विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ गया कि कोई हल का रास्ता न दिखायी पड़ा, तो उन्होंने कहा कि हम चलें और शिवजी से पूछ लें, उनको निर्णायक बना दें। वे जो कहेंगे हम मान लेंगे।
तो दोनों गए। इतने गुस्से में थे, विवाद इतना तेज था कि द्वार पर दस्तक भी न दी, सीधे अंदर चले गए। शिव पार्वती को प्रेम कर रहे हैं। वे अपने प्रेम में इतने मस्त हैं कि कौन आया कौन गया, इसकी उन्हें फिक्र ही नहीं है। ब्रह्मा—विष्णु थोड़ी देर खड़े रहे, घड़ी—आधा—घड़ी, घड़ी पर घड़ी बीतने लगी और उनके प्रेम में लवलीनता जारी है। वे एक—दूसरे में डूबे हैं। भूल ही गए अपना विवाद ब्रह्मा और विष्णु और दोनों ने यह शिवजी के ऊपर दोषारोपण किया कि हम खड़े हैं, हमारा अपमान हो रहा है और शिव ने हमारी तरफ चेहरा भी करके नहीं देखा। तो हम यह अभिशाप देते हैं कि तुम सदा ही जननेंद्रियों के प्रतीक—रूप में ही जाने जाओगे।
इसलिए शिवलिंग बना। तुम्हारी प्रतिमा कोई नहीं बनाएगा। तुम जननेंद्रिय के ही रूप में ही बनाए जाओगे। वही तुम्हारा प्रतीक होगा। यही हमारा अभिशाप है, ताकि यह बात सदा याद रहे कि हम आए थे, लेकिन तुम अपने प्रेम में इतने लीन थे कि तुमने हमारी उपेक्षा की।
इन पुराणों का क्या करोगे? और ये कोई इक्की—दुक्की कथाएं नहीं हैं, ये सारे पुराणों में फैली हैं। मगर ये बड़े और तरह के लोग रहे होंगे, जो जीवन को अंगीकार करते थे। ये और तरह के लोग रहे होंगे, जो छोटी—छोटी बात में रो—रो कर नहीं कहने लगते थे : जीवन क्षणभंगुर है! जो छोटी—छोटी बात में रो—रो कर नहीं कहने लगते थे : हे प्रभु, उठा लो अब! इस संसार से छुटकारा दिला दो! ये लोग थे, जो स्वीकार करते थे कि परमात्मा ने संसार में भेजा है तो यह परीक्षण है, यह शिक्षण है; इससे गुजरना है। और इससे जितनी मस्ती से हम गुजर सकें उतना अच्छा है।
तो जिसने भी यह चड्डी पहना दी हो तीर्थंकर की प्रतिमा को, रहा होगा कोई नीतिवादी, कोई गांधीवादी, रहा होगा कोई दकियानूसी, सड़ा—गला दिमागवाला।
तुम्हें यह जानकर हैरानी होगी कि पुरुषोत्तमदास टंडन ने महात्मा गांधी को यह सलाह दी थी कि खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों को मिट्टी में दबा देना चाहिए, क्योंकि इनसे भारत की प्रतिमा खंडित होती है। महात्मा गांधी राजी भी थे। यह तो सौभाग्य की बात है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने बहुत विरोध किया कि यह तो बात गलत है। ये प्रतिमायें तो अपूर्व सौंदर्य की प्रतीक हैं। ये तो मनुष्य के प्रति मनुष्य के प्रेम के ज्वलंत उदाहरण हैं। ये प्रतिमाएं अश्लील नहीं हैं। रवींद्रनाथ ने यह इतने आग्रहपूर्वक कहा कि ये प्रतिमाएं अश्लील नहीं हैं, ये प्रतिमाएं अत्यंत उद्दाम हैं! इनके चेहरे पर भाव तो देखो! पत्थर पर समाधि को अगर खोदने में कभी भी कोई कलाकार कहीं समर्थ हुए हैं तो खजुराहो में समर्थ हुए हैं।
रवींद्रनाथ के अति विरोध के कारण यह बात रुकी, अन्यथा गांधीजी तो राजी थे कि इनको मिट्टी में दबा दिया जाए, बड़े चबूतरे बना दिये जाएं मंदिरों के ऊपर, कभी—कभार सदियों में एकाध बार किसी विशिष्ट अतिथि को दिखाने के लिए अगर खोदना हो तो खोद कर मिट्टी साफ करके दर्शन करा देना। ऐतिहासिक रूप में ये प्रमाण रहेंगे, लेकिन ये पृथ्वी से मिटा दिए जाने चाहिए, छिपा दिए जाने चाहिए। ऐसी कौम अगर मर जाए तो फिर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। फिर स्वाभाविक है मृत्यु।
मैं चाहता हूं कि हम जीवन जैसा है, जैसा परमात्मा ने दिया है, उसको वैसे ही अंगीकार करने में समर्थ हों। अगर महावीर नग्न खड़े हुए थे तो क्या हर्ज है कि उनकी प्रतिमा नग्न बनायी जाए? लेकिन जैन तक तरकीबें निकाल लेते हैं।
मैं एक घर में मेहमान था। बड़ा सुंदर महावीर का एक चित्र लगा हुआ था। मगर तरकीबें. आदमी की बेईमानियां तो देखो! तुम अपने तीर्थंकरों को, जिनकी तुम पूजा करते हो, उनके साथ भी धोखा कर जाते हो। प्रतिमा तो महावीर की बनायी है चित्र में, लेकिन एक झाड़ की ओट में बनायी है और झाड़ की शाखाएं इस तरह फैलायी हैं कि उनकी नग्नता छिप जाए। पहना दी चड्डी, तरकीब से पहना दी। महावीर को खड़ा कर दिया। महावीर नग्न हैं, ऐसा नहीं कि उनको कपड़ा पहना दिया। मगर इस तरफ से इस तरह की वृक्ष की शाखाएं फैला दीं कि वृक्ष के पत्तों में उनकी नग्नता छिप गयी। जिनके घर मैं मेहमान था, मैंने कहा कि आप इस चित्र की पूजा करते हैं?
उन्होंने कहा : हा, रोज पूजा करता हूं। बड़ा प्यारा चित्र है!
मैंने कहा. चित्र तो प्यारा है, मगर तुम्हारी बेईमानी का भी सबूत है। इसमें यह झाडू कैसे निकला? और ठीक इसी जगह कैसे निकला? और महावीर कब से वहीं खड़े हैं, हटेंगे भी कि नहीं?
उन्होंने कहा : इस पर मैंने कभी विचार ही नहीं किया, यह बात आप ठीक कहते हैं।
अगर महावीर नग्न थे तो कम—से—कम तुम जो उनकी पूजा करते हो, तुम तो स्वीकार करो कि नग्न थे। तुम छिपा रहे हो। बेईमानी, चालाकियां.. हमारे हृदय में घर कर गई हैं। और हमने कुछ धारणायें बना ली हैं और उन धारणाओं के अनुसार हम हर चीज पर अपने को आरोपित कर देते हैं। हम किसी को स्वतंत्रता भी देना नहीं चाहते। अगर महावीर की यही मौज थी, अगर उनके ध्यान में यही फला कि वे सारे वस्त्र छोड़ दें, तो ठीक। प्रत्येक व्यक्ति को निजी होने का अधिकार है। और यही तो सम्मानित समाज का लक्षण है कि हम उसको उसकी में निजता स्वीकार करें, उसको निजता दें। महावीर नग्न रह सके, अगर उनको यह अच्छा लगा तो ठीक था। यह उनकी बात थी, किसी को इसमें बेचैनी क्या? अगर तुम्हें बहुत अड़चन हो तो अपनी आंख झुकाकर निकल जाओ, अपनी आंख पर काला चश्मा पहन लो, आंख पर पट्टी बांध लो। आंख तुम्हारी है। मगर महावीर को तो चड्डी मत पहनाओ, महावीर के आसपास तो झाडू मत उगाओ। आंख तुम्हारी है, तुम्हें न देखना हो आंख बंद कर लो, कौन तुमसे कह रहा है, कौन जबर्दस्ती दिखला रहा है!
नहीं, लेकिन लोग दूसरे पर आरोपित होना चाहते हैं, दूसरे पर अपने को थोपना चाहते हैं।

एक मित्र ने पूछा है :

आत्मज्ञानियों के लक्षण के साथ आश्रमवासियों का वर्तन समाज में ठीक नहीं मालूम पड़ता शिष्यों को आप क्यों नहीं बताते?

पूछनेवाले का नाम भी है : नीतिकुमार! मुश्किल से ही ऐसे लोग मिलते हैं, जो अपने नाम के अर्थ को सार्थक भी करते हैं; नहीं तो यहां कुरूप से कुरूप स्त्रियों का नाम होता है. सुदरबाई। चोर—लफंगों का नाम होता है : अच्छेलाल। यहां अंधों का नाम होता है : नैनसुख। मगर नीतिकुमार, तुम्हारा नाम जिन्होंने भी दिया बड़े सोचकर दिया। तुम्हें क्या बेचैनी है?
तुम पूछते हो : आत्मज्ञानियों के लक्षण के साथ आश्रमवासियों का वर्तन समाज में ठीक मालूम नहीं पड़ता। शिष्यों को आप क्यों नहीं बताते?
आत्मज्ञानियों का क्या लक्षण होता है? किसी ने ठेका लिया है? महावीर नग्न थे, बुद्ध नग्न नहीं थे; कौन—सा लक्षण आत्मज्ञानी का है—नग्न होना या वस्त्र पहनना? बुद्ध शात बैठे रहे वृक्ष के नीचे, क्या बांसुरी बजाकर नाचते थे, कौन—सा लक्षण आत्मज्ञानी का है—वृक्ष के नीचे शांत बैठे रहना कि बांसुरी बजाना? राम धनुष—बाण लेकर चलते थे। महावीर ने कहा है : पैर भी फूंक—फूंक कर रखना, चींटी भी न मर जाए। अब धनुष—बाण कोई ऐसे ही तो टांगकर नहीं चलता, काहे के लिए टांगकर चलेगा बोझ कोई! रामचंद्र जी कोई गणतंत्र—दिवस में भाग लेने दिल्ली थोड़े ही जा रहे थे। तो इसमें आत्मज्ञानी का लक्षण कौन—सा है—पांव फूंक—फूंक कर रखना कि धनुष—बाण साथ में लेकर चलना?
जैन कहते हैं कि महावीर अगर रास्ते पर चलते भी थे तो सीधे पड़े काटे उलटे हो जाते थे, क्योंकि महावीर जैसे पुण्यात्मा व्यक्ति को काटा कैसे चुभ सकता है? और जीसस को तो सूली लग गई; काटा ही नहीं चुभा, सूली लग गई। आत्मज्ञानी का लक्षण क्या है—कांटे का न चुभना कि सूली का लग जाना? कितने आत्मज्ञानी हुए पृथ्वी पर, लक्षण कैसे खोजोगे? अब तक कोई स्टेंडर्डाइब्द लक्षण तो है नहीं। कोई सरकारी संस्थान भी नहीं है जो कि तय कर दे कि हम सील—मोहर लगा देंगे कि यह आत्मज्ञानी, यह इसका लक्षण। किस बात को तुम लक्षण कहते हो?
महावीर तो कहते हैं : श्वास भी सम्हाल कर लेना कि कोई कीटाणु मर न जाए, पानी भी छान कर पीना। और कृष्ण कहते हैं अर्जुन को कि तू लड़ अर्जुन, कोई फिक्र न कर। न हन्यते हन्यमाने शरीरे! शरीर को काटने से आत्माएं इत्यादि मरती नहीं, तू बेधड़क काट। काटने वाला वही है! और आत्मा तो अमर है। नैनं छिदति शस्त्राणि, नैनं दहति पावका। कौन है इसमें आत्मज्ञानी फिर? ये कृष्ण आत्मज्ञानी हैं, जो कहते हैं बेधड़क काट, कोई मरता नहीं कभी, इसलिए हिंसा तो हो ही नहीं सकती; या फिर महावीर आत्मज्ञानी हैं जो कहते हैं, रात भी पानी मत पी लेना अंधेरे में, कहीं कोई कीड़ा—मकोड़ा न गिर जाए! महावीर रात करवट नहीं बदलते थे सोते में, क्योंकि करवट बदलें और कहीं कोई चींटी—चीटा पीछे आ गया हो रात, दब जाए, मर जाए, तो रात एक ही करवट सोते थे। कौन आत्मज्ञानी है? आत्मज्ञानी का क्या लक्षण? नीतिकुमार, तुम तय करोगे कि आत्मज्ञानी का लक्षण क्या है?
इसलिए मैं अपने शिष्यों को कोई चीज जबर्दस्ती नहीं थोपता। मैं उन्हें ध्यान दे रहा हूं। किसी में ध्यान बांसुरी बनकर बजेगा। और किसी में ध्यान चुप्पी बन कर ठहर जाएगा। अगर मैं उनसे कहूं कि तुम बांसुरी ही बजाना सब, तो बड़ी झंझट खड़ी होगी, क्योंकि कुछ बड़ी बेसुरी बांसुरिया बजने लगेंगी; जिनके प्राणों में बांसुरी नहीं है वे बैठे बांसुरी बजाएंगे। नाराज भी होंगे। मुझको भी गाली देंगे कि अच्छी झंझट लगा दी, अब यह बांसुरी बजाओ। आत्मज्ञानी का लक्षण बांसुरी बजाना! बांसुरी बजती भी नहीं, मोहल्ले—पड़ोस के लोग भी नाराज होते हैं, मगर बजानी पड़ेगी; नहीं तो आत्मज्ञानी न रहे। या मैं उनसे कहूं कि बांसुरी कभी बजाना ही मत, बस वृक्ष के नीचे बैठे रहना। पर जिनके भीतर बांसुरी पैदा होगी, वे क्या करेंगे, वे तिलमिलाने लगेंगे, बेचैन होने लगेंगे।
मैं कोई ढांचा नहीं देता। मैं तो सिर्फ आंतरिक सूत्र दे रहा हूं आचरण नहीं, अंतस दे रहा हूं। फिर आचरण तो प्रत्येक का अलग— अलग होगा। प्रत्येक व्यक्ति इतना भिन्न और अद्वितीय है। मेरे मन में अद्वितीयता की, भिन्नता की बड़ी प्रतिष्ठा है। तो मैं तो तुम्हें ध्यान दूंगा; फिर किसी में ध्यान बांसुरी बन जाएगा, किसी में ध्यान मीरा बनकर नाचेगा। किसी में ध्यान शात हो जाएगा, किसी में ध्यान बोलेगा और किसी में ध्यान मौन हो जाएगा। किसी में ध्यान नग्न हो जाएगा। किसी में ध्यान कोई रूप लेगा, किसी में ध्यान कोई रूप लेगा। अनंत रूप होंगे ध्यान के। सिखाने की बात ध्यान है। बस तुम्हारे भीतर परमात्मा से संबंध जुड़ जाए, इतना मैं सिखाता हूं इससे ज्यादा मेरा कोई काम नहीं है। इससे ज्यादा अन्याय है। इससे ज्यादा हस्तक्षेप है। इससे ज्यादा तुम्हारी स्वतंत्रता के ऊपर बलात्कार है।
लेकिन तुम्हारी आदतें खराब हो गयी हैं। तुम्हें गुलाम होने की आदत हो गई है। तुम इस तरह के साधु, पंडितों के पास रहे हो कि वे तुम्हारी गर्दन को पूरी तरह दबा लेते हैं। वे हर चीज में पकड़ लेते हैं—ऐसा उठो ऐसा बैठो, यह खाओ यह पीयो यह सोओ। वे तुम्हारे पूरे जीवन के लिए व्यवस्था दे देते हैं। वे तुमसे सारा दायित्व ले लेते हैं। वे तुम्हें गुलाम बना देते हैं। वे तुम्हें मशीन बना देते हैं। तुम्हें उसमें एक सुविधा रहती है, तुम्हारे ऊपर कोई दायित्व नहीं रह जाता; लेकिन साथ ही तुम्हारी स्वतंत्रता भी खो जाती है। और जहां स्वतंत्रता खो गई, वहां आत्मा खो गई। वहां परमात्मा का द्वार खो गया।
मैं तुम्हें स्वतंत्रता देता हूं लेकिन साथ ही एक खतरा भी है, क्योंकि स्वतंत्रता के साथ ही दायित्व भी तुम्हारा है। अब तुम्हें ही अपनी जीवनचर्या को सोचना होगा। मैंने तुम्हें रोशनी दे दी है, रास्ता तुम्हें खोजना होगा। तुम्हारे हाथ में दीया जला दिया है। अब तुम जैसे भी जीना चाहो, मैं तुम्हारे जीवन में जरा भी बाधा न दूंगा। यही मेरी विशिष्ट प्रक्रिया है। और इसे समझने में अड़चन होती है।
स्वाभाविक है, नीतिकुमार का कहना स्वाभाविक है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति की निजता का मूल्य उनकी दृष्टि में नहीं है। वे चाहते होंगे कि मैं इस तरह की एक भीड़ खड़ी कर दूं जैसे सिपाहियों की भीड़ होती है, या सैनिकों की भीड़ होती है। संन्यासी सैनिक नहीं है। संन्यासी सैनिक से ठीक उलटे छोर पर है। सैनिक का काम है खुद न सोचे, सिर्फ आज्ञा का अनुसरण करे। संन्यासी का काम है : खुद जागे और अपने जागरण से जीये। दोनों में बड़ा भेद है।
दुनिया में सैनिकों की जरूरत नहीं है अब। बहुत हो चुके सैनिक और बहुत हम कष्ट भोग चुके सैनिकों के कारण। अब यहां स्वतंत्रचेता संन्यासियों की जरूरत है—जो अपना दायित्व समझेंगे और अपने ढंग से जीएंगे। और यह मेरी मान्यता है कि अगर कोई भी व्यक्ति अपने ढंग से जी रहा है और किसी दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचा रहा है, चोट नहीं कर रहा है, तो किसी दूसरे को हक नहीं है कि उसकी सीमा में बाधा डाले। तुम्हें क्या अड़चन है? तुम्हारी धारणा होगी यह कि संन्यासी को नाचना नहीं चाहिए; लेकिन यह तुम्हारी धारणा है तुम मत नाचो। कोई संन्यासी नाच रहा हो इस कारण यह मान लेना कि वह संन्यासी नहीं है, जरा अपनी सीमा के बाहर जाना है। नीतिकुमार, यह तो अनीति हो जायेगी।
प्रत्येक परिस्थिति इतनी भिन्न है, प्रत्येक मनःस्थिति इतनी भिन्न है।
मैंने सुना, एक कवि के विवाह में पंडित वर—वधु को वचन दिला रहे थे, तभी कवि का एक मित्र बोला : पंडितजी, यह वचन और दिला दीजिए कि वर बिना वधु की इच्छा के उस पर दबाव डाल कर अपनी कविता सुनने के लिए बाध्य नहीं कर सकेगा।
अब यह एक विशेष परिस्थिति की बात है। किसी कवि से विवाह हो रहा हो तो पंडित को यह कसम दिला ही देनी चाहिए, क्योंकि कवि को सुनते कहां, मिलते कहां लोग सुनने वाले? पत्नी तो असहाय हो जायेगी और पंडित ने अगर आज्ञा दिलवा दी कि पति की आज्ञा मानना, पति की दासी रहना तो पति रोज अपना पोथा ले कर बैठ जायेगा। अपनी कविता सुनायेगा। वह सुननी पड़ेगी; सुननी ही नहीं पड़ेगी, सिर भी हिलाना पड़ेगा, हामी भी भरनी पड़ेगी।
यह मित्र ने ठीक ही कहा, क्योंकि यह विशेष परिस्थिति का शायद पंडित को पता ही न हो कि ये कवि महाराज हैं! इनका सबसे बड़ा खतरा यही है कि ये तुकबंदी करेंगे, इसके सिर पर थोपेंगे। यह कसम अभी दिलवा देनी अच्छी है कि जबर्दस्ती नहीं की जा सकेगी।
मैंने एक दिन मुल्ला से पूछा कि आपके चारों लड़कों का क्या हाल—चाल है?
मुल्ला ने कहा : एक संगीतकार हो गया है, दूसरा कवि हो गया है, तीसरा नेता हो गया है और चौथे के भी लक्षण खराब हैं। कौन—से लक्षण अच्छे होते हैं, कौन—से खराब होते हैं? ठीक ही कह रहा है मुल्ला. एक संगीतकार हो गया है, एक कवि हो गया है, तीसरा नेता हो गया है, चौथे के भी लक्षण खराब हैं। प्रत्येक की अपनी दृष्टि होगी देखने—सोचने की।
दीपावली के पावन पर्व पर एक सुप्रसिद्ध सामाजिक संस्था ने अपने भवन कक्ष में एक पुस्तकालय खोलने का निर्णय किया। दूसरे दिन संस्था के अध्यक्ष ने एक बड़े पुस्तक—विक्रेता से फोन पर कहा : देखिए, आप तुलसी, कबीर, मीरा, कालिदास, शेक्सपियर, गैटे आदि के पूरे सैट सजिल्द भेज दीजिए और सुंनिए, कुछ पढ्ने लायक किताबें भी भेज दीजिए।
क्योंकि ये किताबें तो कोई पढ़ता नहीं, पढ्ने लायक किताबें तो और ही होती हैं। ये किताबें तो रखने योग्य होती हैं। ये तो लोग सजा कर रख देते हैं अलमारी में। ये तो दिखाने के लिए होती हैं।
राशन की लाइन में एक दुबला—पतला व्यक्ति एक मोटे व्यक्ति के आगे खड़ा था। सामने खड़े हुए एक सिपाही ने देखा कि वह बार—बार बाहर आता है, फिर अंदर जाकर लाइन में खड़ा हो जाता। सिपाही ने लगातार उसका लाइन से बाहर आना एवं फिर अंदर जाना देखकर कहा : महाशय, आप लाइन में ही खड़े रहें और कृपा कर बार—बार बाहर न आएं। दुबले—पतले युवक ने दीनता भरे स्वर में कहा. साहब, यह मोटा आदमी जो मेरे पीछे खड़ा है बार—बार मुझे धक्का दे रहा है। और जब धक्का असह्य हो जाता है तो मैं थोड़ा बाहर चला जाता हूं। फिर जब सहने की हिम्मत आ जाती है तो फिर भीतर आ जाता हूं।
मोटा व्यक्ति उसकी बात सुनकर तैश में आकर बोला : सिपाही जी, मैं इसको धक्का नहीं दे रहा, मैं तो सिर्फ सांस ले रहा हूं।
लोग अलग—अलग हैं, लोग भिन्न—भिन्न हैं। किसी को हक नहीं है कि ऊपर से कोई आरोपण किया जाए। मैं तुम्हें दृष्टि दे सकता हूं आचरण नहीं। और अब तक तुम्हें आचरण ही दिया गया है, वही सबसे बड़ी खतरनाक बात हुई। उसके कारण तुम पाखंडी हो गये। उसके कारण तुमने अपनी निजता के साथ व्यभिचार किया। तुमने कभी अपने स्वयं के छंद को प्रगट नहीं होने दिया, उसे दबाया। तुम्हें जो बताया गया वह तुमने मान लिया, और जो तुम्हारे भीतर उमग रहा था उसे तुमने दबा दिया। तुम दो हिस्सों में टूट गए। तुममें द्वंद्व पैदा हो गया।
यही तो मनुष्य का विषाद है। द्वंद्वग्रस्त मनुष्य विषादग्रस्त रहेगा। द्वंद्व ही संताप है और आनंद की घड़ी तभी आती है जब तुम फिर एक हो जाओ।
मैं यहां अपने संन्यासियों को एक करने की चेष्टा में रत हूं। मैं चाहता हूं उनके सारे आदर्श छीन लूं क्योंकि उन आदर्शों के कारण वे पाखंडी हो गए हैं। तुम सोचते हो आदर्शों के बिना आदमी का पतन हो जाएगा। मैं सोचता हूं आदर्शों के कारण ही आदमी पाखंडी हुआ है। मनुष्य को उसकी वास्तविकता के दर्शन होने चाहिए, आदर्श की आवश्यकता नहीं है।
जो आदमी क्रोधी है, तुम्हारा ढंग क्या होता है? तुम्हारा ढंग यह होता है : क्रोध मत करो, क्रोध बुरी बात है। क्रोध करोगे, नर्क में पड़ोगे। क्रोध करोगे, सम्मान खो जाएगा। क्रोध करोगे, लोग प्रतिष्ठा न देंगे। क्रोध मत करो। मगर जिसको क्रोध उठता है, वह क्या करे? वह क्रोध को दबाये, पीये, अपने भीतर सरकाए; क्रोध उसके खून में छा जायेगा, क्रोध उसकी रग—रग में भर जाएगा। पहले तो कभी—कभी क्रोध होता था, अब तो वह चौबीस घंटे क्रोधी रहने लगेगा। क्रोध उसकी नियति बन जाएगी। और ऊपर से मुस्कुरायेगा; वह मुस्कुराहट झूठ होगी, कागजी होगी। और यही उसकी जिंदगी बरबाद करने का कारण बन जाएगी। ऊपर मुस्कुराता रहेगा, भीतर जलता रहेगा। न मुस्कुराहट सच्ची हो पायेगी, न जलन को निकलने का कोई मौका मिल पायेगा और जहर निकले न तो तुम कभी स्वच्छ न हो सकोगे।
तो मैं नहीं कहता कि अक्रोध कोई लक्ष्य है। मैं तो कहता हूं : क्रोध अगर है तो क्रोध का जानना लक्ष्य है, पहचानना लक्ष्य है, क्रोध से परिचित होना लक्ष्य है। भविष्य में नहीं है कोई आदर्श। मैं तुमसे अक्रोधी होने को नहीं कहता। मैं तुमसे कहता हूं : क्रोध तुम्हारे भीतर है, यह तथ्य है। इस तथ्य को जानो, इस पर ध्यान करो, इसको पहचानो। इसको पकड़ो, यह है क्या? निर्णय मत लो। पहले से ही तय मत कर लो कि क्रोध गलत है। निर्णय ही कर लिया तो फिर कैसे जानोगे? निरीक्षण करो, निष्पक्ष निरीक्षण करो। और तुम चकित हो जाओगे, क्रोध को देखते ही देखते क्रोध वाष्पीभूत हो जाता है। क्योंकि जैसे ही साक्षी जगता है, जैसे ही तुम्हारे भीतर देखने वाली क्षमता जगती है, वैसे ही क्रोध के बचने का उपाय नहीं रह जाता, क्योंकि क्रोध के रहने की जो अनिवार्य शर्त है वही टूट गई। क्या है अनिवार्य शर्त?.. कि साक्षी मौजूद न हो। मूर्च्छा होनी चाहिए तो क्रोध बचता है। मूर्च्छा क्रोध की अनिवार्य शर्त है। तादात्म होना चाहिए। तुम्हें भूल ही जाना चाहिए तुम हो। बस क्रोध ही क्रोध रह जाए, धुंआ ही धुंआ रह जाए और तुम उस धुएं में बिलकुल एक हो जाओ, तो क्रोध बचता है। अगर तुम धुएं के बाहर दूर, शात निर्विचार खड़े देखते रही कि यह धुंआ चारों तरफ उठ रहा है, यह क्रोध मुझे घेर रहा है। यह क्रोध क्या है, मैं इसे देखूं मैं इसे पहचानूं यह मेरा ही अंग है, यह मेरी ही ऊर्जा है, मैं इससे अपरिचित न रह जाऊं, मैं इसका आत्मज्ञान करूं—ऐसे भाव से अगर तुम क्रोध को देखोगे तो तुम चकित हो जाओगे। क्रोध न तो किसी पर फेंकना पड़ेगा, क्योंकि किसी पर क्रोध करो तो शृंखला पैदा होती है। क्रोध से फिर और क्रोध और क्रोध, उसका कोई अंत नहीं। और न क्रोध को दबाना पड़ेगा, क्योंकि दबाओ तो जहर भीतर पहुंच जाता है, तुम्हारे रग—रेशे में व्याप्त हो जाता है।
न तो दमन और न भोग; दोनों के मध्य में एक साक्षी की दशा है, वही मैं सिखाता हूं। उसमें दमन की भी जरूरत नहीं रह जाती, भोग की भी जरूरत नहीं रह जाती। उस मध्य बिंदु से अतिक्रमण हो जाता है। तुम चित्त के अतीत चले जाते हो। और जो वहां पहुंचने लगा, वहां कहां क्रोध, वहां कहां काम, वहां कहा लोभ! छोड़ना नहीं पड़ता लोभ, छोड़ना नहीं पड़ता काम, छोड़ना नहीं पड़ता क्रोध—छूट जाते हैं।
इस भेद को समझ लेना : छूट जाते हैं! तुमसे कहा गया है : छोड़ो। मैं अपने संन्यासियों को कहता हूं कि मैं तुम्हें दीया जलाने की कला बताता हूं। दीया जल जाए, अंधेरा चला जाता है, हटाना नहीं पड़ता। मैं तुम्हें आचरण नहीं देता, मैं तुम्हें आचरण की कोई संहिता नहीं देता, तुम्हें कोई आदर्श नहीं देता। तुम्हें कैसा होना चाहिए, इसकी कोई बंधी हुई तस्वीर नहीं देता, लेकिन तुम क्या हो? इसकी पहचान की प्रक्रिया देता हूं। इस भेद को खूब स्मरण रखो। तुम क्या हो इसकी पहचान की प्रक्रिया देता हूं तुम्हें दर्पण देता हूं ताकि तुम अपनी तस्वीर देख लो। उसी देखने में क्रांति घटती है। उसी दर्शन में रूपातरण है।

चौथा प्रश्न:

भगवान। आपके इस संन्यासी के जीवन में आपका प्रसाद हमेशा मिलता रहता है जिसका अनुभव बयान नहीं कर सकता। और पहले— पहल घबड़ाहट भी होती थी। बस इतना ही कहूंगा. कई बार डूबे कई बार उबरे कई बार साहिल पे टकरा आये।
तलाशे— तलब में वो लज्जत मिली है दुआ कर रहा हूं कि मंजिल न आये।
भगवान यह मेरा भ्रम तो नहीं है कृपया समझाएं।

नारायण दास! मंजिल कहीं है ही नहीं। यात्रा ही मंजिल है। मंजिल होगी तो मौत हो जायेगी। मंजिल होगी तो फिर क्या करोगे? मंजिल आ जायेगी, तो फिर क्या बचेगा?
परमात्मा मंजिल नहीं है, परमात्मा तीर्थयात्रा है। यात्रा ही यात्रा.. काबा कभी आता नहीं, कैलाश कभी आता नहीं; दूर वहां, आता हुआ मालूम भर पड़ता है। बस, पुकारता है, आता नहीं। तुम चले जाते हो, चलते जाते हो, चलना आनदपूर्ण हो जाता है। चलने में ही सारी बात है। दूसरा किनारा नहीं है. मझधार ही मझधार है।
यह खयाल ही छोड़ दो कि कहीं पहुंचना है। यहीं डूबना है, कहीं पहुंचना नहीं है। और जो यहीं डूबने को राजी है, वह पहुंच गया। जो यात्रा को ही मंजिल मानने को राजी है, उसकी मंजिल आ गयी। अभी आ गयी, इसी क्षण आ गयी। क्योंकि यह क्षण भी यात्रा का क्षण है।
मंजिल का अर्थ होता है : दूर, भविष्य में कहीं। यात्रा का अर्थ है : जो अभी है, यहीं है, इसी क्षण है।
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?

बाहुओं में भर रहा हूं मैं हिलोरों की रवानी
है हिलोरों से बहुत मिलती हुई मेरी जवानी
जन्म है उठती लहर सा, है मरण गिरती लहर सा
जिंदगी है जन्म से ले कर मरण तक की कहानी।
चूमने दो ओंठ लहरों के मुझे निश्शंक हो कर
डूबना ही इष्ट हो जब, तो सहारा कौन मांगे?
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मागे?

श्याम मेघों से घिरा नक्षत्र विहगों का बसेरा
आधियों ने डाल रखा है क्षितिज पर घोर घेरा
जिस तरह से भग्न अंतर में उमड़ती है निराशा
ठीक वैसे ही उमड़ता आ रहा नभ में अंधेरा
जब कि चाहें प्राण बरसाती अंधेरे में भटकना
पथ—प्रदर्शन के लिए तो ध्रुव सितारा कौन मांगे?
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?

जिंदगी का दीप लहरों पर सदा बहता रहा है
निज हृदय से ही हृदय की बात यह कहता रहा है
डगमगाती ज्योति में विश्वास जीवन के संजोये
मौन जल कर स्नेह का अभिशाप यह सहता रहा है
जब मरण की आधियों से प्यार इसको हो गया है
ओट पाने के लिए आचल तुम्हारा कौन मांगे?
प्यार जब मझधार से हो तो किनारा कौन मांगे?

यही मैं सिखा रहा हूं यही मेरी देशना है—मझधार ही सब कुछ है। कर लो प्यार मझधार से। यात्रा सब कुछ है। जी लो इस क्षण को भरपूर, समग्रता से। न कहीं पहुंचना है, न कहीं कुछ होना है। सब कुछ जैसा है, पूर्ण है।

अंतिम प्रश्न :

भगवान। दिल्ली में जो चल रहा है उसके संबंध में कुछ कहें?

क छोटी कहानी कहूंगा। लंका का पिछला शासक रावण जब मरने लगा, तो राम ने लक्ष्मण को उसके पास राजनीति की शिक्षा लेने के लिए भेजा—यह कह कर कि तात, अपन जीत तो गये हैं, मगर अपने को यहां शासन चलाने का कोई अनुभव नहीं है; इससे पूछ कर आओ कि कैसे क्या चलाना है। लक्ष्मण वहां गया, रावण से कहा कि अब तू तो मर ही रहा है, यहां शासन कैसे चलाएं, यह बताता जा? रावण ने कहा कि आधी राजनीति मैं करता था, आधी कुंभकर्ण; तुमने कुंभकर्ण से भी संपर्क साधा था क्या? लक्ष्मण ने कहा : ही, वह कह गया है कि आनंद से जमकर खाना पेलो और सोफे पर आराम से आंखें मूंदकर डले हो। यह पद्धति सर्वश्रेष्ठ है।
यह बताओ, रावण ने पूछा. तुम लोग तानाशाही मचाओगे कि प्रजातंत्र से चलोगे? कौन—सी पद्धति उपयुक्त होगी?
'जनता को क्या जमेगा?'
कुछ नहीं, रावण ने कहा, जब तानाशाही मचाओगे तो जनता प्रजातंत्र के लिए छटपटायेगी और जब प्रजातंत्र लागू करोगे तो तानाशाही के गुण गाने लगेगी।
'फिर?' 
'फिर क्या, ऐसे चलना कि लोग समझ ही न पायें कि तानाशाही है या प्रजातंत्र। कुल मिलाकर एक कनफ्यूजन की स्थिति बनाये रखना। '
'जनता के लिए कुछ कार्यक्रम वगैरह?'
'बस साल—दो साल में एक—आध नया नारा दे देना। और धकाते रहना। न हो तो आपस में लड़ाई—झगड़ा शुरू कर देना। जनता से कहना कि हमारे आपस के झगड़े निपट जायेंगे तब तुम्हारे लिए कुछ करेंगे। अब यह ध्यान रखना कि अगला चुनाव आने तक वे आपस के झगड़े कहीं निपट न जायें। ' यह कह कर रावण ने आंखें मूंद लीं। सुना है उसके बाद जंबूद्वीप में रामराज्य आ गया।
यही सब दिल्ली में हो रहा है। जंबूद्वीप में रामराज्य आ रहा है! सत्ता में पहुंच कर लोग कुछ करना नहीं चाहते। करने में खतरा है, क्योंकि करने में भूलें हो सकती हैं। जो करता है उससे भूलें हो सकती हैं। इसलिए जो सत्ता में पहुंच जाते हैं चालबाज राजनीतिज्ञ, वे बस टालमटोल करते रहते हैं, कुछ करते नहीं। क्योंकि कुछ करेंगे तो कहीं भूल न हो जाये, कोई नाराज न हो जाये। कुछ करोगे तो कोई न कोई नाराज होगा। कुछ करोगे तो किसी के खिलाफ जायेगा, किसी के पक्ष में जायेगा। तुम सबको राजी न रख सकोगे। और राजनीतिज्ञ की चेष्टा होती है सब को राजी रखने की। सब को राजी रखने का एक ही उपाय है : कुछ मत करो; बातें करो, बड़ी—बड़ी बातें करो। जितनी बातें कर सकते हो करते रहो। और समय टालो, और समय को हटाओ और आगे के लिए स्थगित करो। अच्छे नारे देते रहो और लोगों को भरमाये रखो। और लोग भी अजीब हैं, देख—देख कर भी नहीं देख पाते हैं! लोग बड़े अंधे हैं!
राजनीतिज्ञ का कुल लक्ष्य इतना होता है कि वह कैसे सत्ता में पहुंच जाये। बस सत्ता में पहुंचकर उसका लक्ष्य पूरा हो गया, उसकी मंजिल आ गयी। अब उसको कुछ नहीं करना है। अब दूसरा लक्ष्य यह है कि कैसे सत्ता में बना रहे; कोई दूसरा हटा न दे। पहले पहुंचने की चेष्टा में लगा रहता है, फिर जमने की चेष्टा में लगा रहता है। इसी में समय व्यतीत हो जाता है। करना तो कोई भी कुछ चाहता नहीं। करना तो खतरनाक है, जोखिम का काम है। और करने वाले को जनता कभी बर्दाश्त भी नहीं करती। क्योंकि कुछ भी करोगे तो जनता की धारणाओं के विपरीत जाता है। देश की आबादी बढ़ती है। अगर कुछ करो आबादी रोकने के लिए, जनता नाराज होती है। क्योंकि जनता की सदा से आदत रही है कि जितने बच्चे पैदा करना हो करो। उसको अड़चन आ जाती है। जनता को भ्रांति है कि बच्चे पैदा करने में ही कोई पुरुषत्व है! जनता को भ्रांति है कि अगर तुम्हारा संतति—नियमन का कोई कार्यक्रम लागू तुम पर किया गया तो तुम्हारा पुरुषत्व छिन गया। जनता बड़ी अजीब है!
मैं एक गांव में गया। वहा स्वामी करपात्री महाराज व्याख्यान दे रहे थे। जिस घर में मैं ठहरा था, उसके सामने ही व्याख्यान चल रहा था, तो मजबूरी में मुझे सुनना पड़ा। पास ही वहां एक बांध बननेवाला था। आदिवासी इलाका। वे आदिवासियों को समझा रहे थे कि बांध मत बनने दो, क्योंकि उसमें से पानी जो निकलेगा वह बेकार पानी होगा, नपुंसक पानी। मैं भी थोड़ा चौंका कि पानी कैसा नपुंसक होता है! सजग होकर सुनने लगा। वे समझा रहे थे, उसमें से बिजली तो पहले ही निकाल ली जायेगी। जब पानी में से बिजली ही निकल गयी तो बचा क्या?
और जनता कह रही थी, यह बात तो सच है कि जब बिजली ही निकल गयी तो बचा क्या खाक! जनता बांध के विरोध में हो गयी कि बांध नहीं बनना चाहिए, नहीं तो पानी सब नपुंसक हो जायेगा। फिर उससे क्या खेतीबाड़ी होगी? उसकी असली चीज तो निकल ही गयी!
ऐसे—ऐसे लोग हैं! जनता नासमझ है, अंधविश्वासी है। राजनीतिज्ञ चालबाज हैं, बेईमान हैं। राजनीतिज्ञ को एक ही बात ध्यान रखनी पड़ती है कि चुनाव जल्दी फिर आते हैं। उन्हीं लोगों से वोट लेनी पड़ेगी, उनको नाराज मत कर देना। उनको नाराज किया तो मुश्किल में पड़ोगे। उनको खुश रखना। तो राजनेता उनके मंदिर में जाता है, मस्जिद में भी जाता है, गुरुद्वारे में भी जाता है, शंकराचार्य को भी नमस्कार कर आता है। मेला भरा हो तो मेले में हो आता है। रामलीला हो रही हो तो रामलीला में पहुंच जाता है। कुंभ में मौजूद हो जाता है। उसे जनता के अंधविश्वासों को समर्थन देना चाहिए।
और मजा यह है कि जनता के अंधविश्वास से, तो ही जनता के जीवन का कुछ कल्याण हो सकता है। और यह बड़ी अड़चन की बात है। जनता ही नहीं टूटने देना चाहती अपने अंधविश्वासों को। जनता ही अपना हित और कल्याण नहीं होने देना चाहती। तो जनता को, जो कुछ भी नहीं करते, वे अच्छे लगते हैं। इंदिरा पर नाराजगी का कारण यही था, उसने कुछ करने की कोशिश की। मोरारजी से जनता खुश रहेगी। उन्होंने कुछ किया ही नहीं, नाखुश होने का कोई कारण ही नहीं। वे कुछ करेंगे भी नहीं, समय गुजारेंगे। और अभी— अभी उन्होंने जनता से कहा है कि 'हमारी लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करो। ' इतना काफी नहीं महाराज? और सताओगे रू अभी और लंबी उम्र चाहिए?
इस देश को कुछ बातें समझनी होंगी। एक तो इस देश को यह बात समझनी होगी कि तुम्हारी परेशानियों, तुम्हारी गरीबी, तुम्हारी मुसीबतों, तुम्हारी दीनता के बहुत कुछ कारण तुम्हारे अंधविश्वासों में हैं। और जब तक तुम्हारे अंधविश्वास न तोड़े जायें, तब तक तुम्हारी दीनता भी नहीं मिटेगी, तुम्हारी गरीबी भी नहीं मिटेगी, तुम्हारी परेशानी भी नहीं मिटेगी। और जो भी तुम्हारे अंधविश्वास तोड़ेगा, तुम उससे नाराज हो जाओगे। इससे लोग मुझसे बराज हैं।
मुझे राजनीति से कुछ लेना—देना नहीं है, क्योंकि मैं मौलिक काम में लगा हूं। मैं जड़ काटने की कोशिश कर रहा हूं। मेरी पूरी फिक्र यह है कि तुम्हारे अंधविश्वास टूट जायें। तुम्हारे अंधविश्वास टूट जायें तो सब ठीक हो जायेगा। तुम्हारे पास थोड़ी—सी समझ आ जाये। तुम बीसवीं सदी के हिस्से बन जाओ।
भारत अभी भी समसामयिक नहीं है, कम—से—कम डेढ़ हजार साल पीछे घिसट रहा है। ये डेढ़ हजार साल पूरे होने जरूरी हैं। भारत को खींच कर आधुनिक बनाना जरूरी है। यह काम राजनीतिज्ञ नहीं कर सकते, यह काम दिल्ली में नहीं हो सकता। यह काम तो उन्हें करना होगा जिनका राजनीति से कुछ लेना—देना नहीं है।
मेरा कोई लेना—देना नहीं है राजनीति से। मेरी कोई उत्सुकता नहीं है राजनीति में। लेकिन जरूर मेरी उत्सुकता है कि इस देश का भी सौभाग्य खुले, यह देश भी खुशहाल हो, यह देश भी समृद्ध हो। क्योंकि समृद्ध हो यह देश तो फिर राम की धुन गंजे। समृद्ध हो यह देश तो फिर लोग गीत गायें, प्रभु की प्रार्थना करें। समृद्ध हो यह देश तो मंदिर की घटिया फिर बजे, पूजा के थाल फिर सजे। समृद्ध हो यह देश तो फिर बासुरी बजे कृष्ण की, फिर रास रचे!
यह दीन—दरिद्र देश, अभी तुम इसमें कृष्ण को भी ले आओगे तो राधा कहां पाओगे नाचनेवाली? अभी तुम कृष्ण को भी ले आओगे, तो कृष्ण बड़ी मुश्किल में पड़ जायेंगे, माखन कहां चुरायेंगे? माखन है कहां? दूध—दही की मटकियां कैसे तोड़ेंगे? दूध—दही की कहां, पानी तक की मटकियां मुश्किल हैं।
नलों पर इतनी भीड़ है! और अगर एक—आध गोपी की मटकी फोड़ दी, जो नल से पानी भरकर लौट रही थी, तो पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा देगी कृष्ण की। तीन बजे रात से पानी भरने खड़ी थी, नौ बजते—बजते पानी भर पायी और इन सज्जन ने ककड़ी मार दी।
धर्म का जन्म होता है जब देश समृद्ध होता है। धर्म समृद्धि की सुवास है।
तो मैं जरूर चाहता हूं : यह देश सौभाग्यशाली हो। लेकिन सबसे बड़ी अड़चन इसी देश की मान्यताएं हैं। इसलिए मैं तुमसे लड़ रहा हूं तुम्हारे लिए। तुम्हीं मुझसे नाराज होओगे। तुम्हीं मुझ पर कुपित हो जाओगे। क्योंकि मैं तुम्हारी जमीन पैर के नीचे से खीका।
मगर जमीन खींचनी ही होगी। तुम्हें नयी जमीन चाहिए। तुम्हें नयी भाव— भूमि चाहिए। तुम्हें चित्त का एक नया संस्कार चाहिए। तुम्हें एक नया आकाश उपलब्ध होना चाहिए। तुम कब्र में बंद हो गये हो। दिल्ली के लोग तुम्हारी कब्र पर फूल चढ़ा रहे हैं।

आज इतना ही



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