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बुधवार, 12 अप्रैल 2017

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--5) प्रवचन--88

समलैंगिकता के बारे में सब कुछ—(प्रवचन—आठवां)

दिनांक 28 अप्रेेेल  1976 ओशो आश्रम पूूूूना। 

प्रश्‍नसार:



1—यदि मृत्यु ही आनी है, तो जीने में क्या सार है?



2—प्यारे ओशो, क्या आप वास्तव में बस एक मनुष्य हैं, जो सबुद्ध हो गया?



3—दिव्यता के भीतर कैसे प्रवेश हो?



4—क्या लोगों को अपनी समलैंगिक प्रवृत्तियों का दमन करना चाहिए?




पहला प्रश्न:



जीवन के आने वाले दिन, यदि कोई हों तो, तो कितने अज्ञात और अनिश्‍चित है? इन दिनों मेरे भीतर एक गहरी अनुभूति उठ रही है। कि व्‍यक्‍ति को जीवन के शेष वर्षों में बस जीते रहना है। कैसे? क्‍यों? किसलिए? कुछ भी स्‍पष्‍ट नहीं है। किंतु यह अनुभूति गहराती जाती है। इसलिए मैं क्‍या खा रहा हूं, मैं क्‍या कर रहा हूं। चारों और क्‍या घट रहा है। किसी से मुझे पर कोई अंतर नहीं पड़ता।

अपनी आरंभिक बाल्‍यावस्‍था से ही, जब कभी भी मैं किसी शव को देखता था, सदा ही यह विचार मेरे मन में कौंध जाता है यदि मृत्‍यु ही आनी है तो जीने सार क्‍या है?

अपने बचपन के उन दिनों से एक प्रकार कि अरूचि ने मेरे जीवन के सारे ढंग—ढांचे को घेर रखा है। और संभवत: यही वह कारण हो सकता है कि क्‍यों धर्म में मेरी रूचि जगी और आप तक पहुंच सका।

क्‍या ऐसी अनुभूतियां मेरे लिए हानिकारक होने जा रही है?



निश्चित रूप से। वे हानिकारक होने जा रही हैं क्योंकि तुमने धर्म की सारी बात को गलत समझा हुआ है। पहली बात : जीवन अनिश्चित है; इसीलिए यह सुंदर है। यदि यह पूर्व निर्धारित होता तो कौन इसे जीना चाहेगा? यदि हरेक बात पहले से ही तय कर दी गई हो और जिस दिन तुम्हारा जन्म हो रेलवे की समयसारणी की तरह यह तुम्हारे हाथ में थमा दी जाए जिससे कि तुम जान लो और राय— मशविरा कर सको कि कब और कहां क्या होने जा रहा है; ऐसा जीवन जीना कौन चाहेगा? इसमें कोई काव्य नहीं होगा। इसमें कोई खतरे नहीं होगा। इसमें जरा भी जोखिम नहीं होगा। इसमें विकसित होने का कोई अवसर नहीं होगा। यह पूर्णत: निरर्थक होगा। फिर तुम मात्र एक रोबोट होओगे, एक यांत्रिक वस्तु।

यांत्रिकता के जीवन की भविष्यवाणी की जा सकती है किंतु मनुष्य की नहीं, क्योंकि मनुष्य कोई यंत्र नहीं है। उसका जीवन न तो वृक्ष जैसा है, न ही पक्षी जैसा। तुम जितने अधिक जीवंत होते हो उतना ही अधिक भविष्य के बारे में कम कहा जा सकता है। पक्षी के जीवन की तुलना में वृक्ष के जीवन के बारे में अधिक भविष्यवाणी की जा सकती है। मनुष्य के जीवन की तुलना में पक्षी के जीवन के बारे में कम भविष्यवाणी की जा सकती है। और बुद्ध के जीवन के बारे में तुम्हारे जीवन की तुलना में जरा सी भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है।

भविष्यवाणी से मुक्त होने का अर्थ है : स्वतंत्रता। भविष्यवाणी से बंधने का अभिप्राय है : नियतिवाद। यदि तुम्हारे बारे में भविष्यवाणी की जा सके तो तुम आत्मा नहीं हो, तब तुम नहीं हो। भविष्यवाणी से बंधे होने —का अभिप्राय है कि तुम मात्र एक जैविक यांत्रिकता हो।

लेकिन ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी सोच है कि जीवन जीने योग्य नहीं है, क्योंकि इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ये वे ही लोग हैं जो ज्योतिषियों के पास जाते हैं। ये वे ही लोग हैं जिनको भाग्य बताने वाले मिलते रहते हैं। ये लोग मूर्ख हैं; ज्योतिषी और भाग्य बताने वाले, वे तुम्हारी मूर्खता पर जीते हैं।

पहली बात तो यह है कि यह विचार कि आने वाला कल निश्चित है और जाना जा सकता है, इसकी सारी जीवंतता नष्ट कर देगा। तब तुम्हारा हाल ऐसा होगा जैसे कि तुम एक फिल्म को दूसरी बार देख रहे हो। तुम सब कुछ जानते हो—अब क्या होने जा रहा है, अब क्या होने वाला है। तुम एक ही फिल्म को दूसरी बार, तीसरी बार और चौथी बार देख कर ऊब क्यों जाते हो? यदि तुमको एक ही फिल्म को बार— बार देखने के लिए बाध्य कर दिया जाए, तो तुम पागल हो जाओगे। पहली बार में तुम उत्सुक, जीवंत होते हो। तुम आश्चर्य करते हो कि क्या होने जा रहा है। तुम्हें नहीं पता कि क्या होने वाला है, इसीलिए तुम्हारी रुचि इसमें है, रुचि की लौ प्रज्वलित रहती है।

जीवन एक रहस्य है; इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। लेकिन ऐसे अनेक लोग हैं जिनको भविष्य जाना हुआ जीवन प्रिय लगता है क्योंकि फिर कोई भय नहीं होगा। हर बात निश्चित होगी, किसी चोज के बारे में कोई संदेह नहीं रहेगा।

किंतु क्या वहां विकसित होने का कोई अवसर भी होगा? क्या बिना खतरा उठाए कभी किसी का विकास हो सका है? खतरे के बिना क्या कोई कभी अपनी चेतना को प्रखर कर पाया है? भटक जाने की संभावना के बिना उचित रास्ते पर चलते रहने में क्या कोई सार है? शैतान के विकल्प के बिना क्या परमात्मा को उपलब्ध करने की कोई संभावना है?

विकल्प की आवश्यकता है, विपरीत को तुम्हें आकर्षित और अमित करना चाहिए। चुनाव का जन्म ही तब होता है। तुमको और अधिक संवेदनशील और जीवंत और जागरूक होना पड़ता है। लेकिन यदि सब कुछ पूर्व निश्चित हो और हर बात पहले से ही जानी जा सकती हो, तब जागरूक होने में क्या सार रहा? तुम जागरूक हो या नहीं इसका कोई अंतर नहीं पड़ेगा। जब कि अभी यहां इससे बहुत अधिक अंतर हो जाता है।

मैं तुमसे कहना चाहता हूं कि तुम जितना अधिक होशपूर्ण होते जाते हो उतना ही तुम्हारे बारे में भविष्यवाणी कम होती जाती है, क्योंकि तुम पदार्थ, जिसके बारे में पहले से ही बताया जा सकता है, से ऊपर और ऊपर तथा दूर और दूर होते जाते हो। हम जानते हैं कि यदि तुम पानी को उष्णता के एक निश्चित तापमान तक गर्म करो तो पानी भाप बन जाता है। यह पहले से बताया जा सकता है। किंतु मनुष्य के साथ यही बात नहीं है। तुम अपमान का कोई माप तय नहीं कर सकते जहां मनुष्य क्रोधित हो जाता है। हर व्यक्ति कितना अनूठा है। एक बुद्ध कभी भी क्रोधित नहीं हो सकते, भले ही तुम किसी सीमा तक अपमान करो।

और यह बात तुम्हें पता है, कभी—कभी तुम जरा से उकसाने पर क्रोधित हो सकते हो, या कभी किसी के उकसाए बिना ही गुस्से से खौलने लगते हो बिना किसी उष्णता के, और कभी बहुत अधिक उकसाए जाने पर भी तुम उत्तेजित नहीं हो पाते हो। यह इस पर निर्भर करता है कि उस क्षण में तुम कितना अच्छापन अनुभव कर रहे थे, उस क्षण तुम कितना बोधपूर्ण अनुभव कर रहे थे।

भिखारी प्रातःकाल भीख मांगने आते हैं, संध्या को नहीं आते क्योंकि वे मनोविज्ञान की एक सरल बात समझ चुके हैं कि प्रातःकाल लोगों में बांटने की भाव—दशा अधिक होती है—वे अधिक जीवंत होशपूर्ण, विश्रांत होते हैं। संध्या तक वे थके और शक्तिहीन और संसार से ऊब चुके होते हैं, उनसे कुछ पाने की आशा रखना असंभव है। जब लोगों को अपने में अच्छी अनुभूति हो रही हो तभी वे बांटते हैं। यह उनकी आंतरिक अनुभूति पर निर्भर है।

स्मरण रखो कि जीवन सुंदर है क्योंकि तुम और—और जीवंत होने में समर्थ हो। कल की चिंता करने की जरूरत नहीं है। आज जीयो। और आने वाले कल को अपना आज मत नष्ट करने दो। और आज इतना मुक्त होकर चलो कि आने वाला कल तुम्हारे लिए और स्वतंत्रता लेकर आए।

कभी भविष्य कथन की बात मत पूछो। खुले रहो। जो कुछ घटता है इसे घटित होने दो, इससे होकर निकल जाओ। यह परमात्मा की भेंट है। इसमें कोई गहरा अर्थ अवश्य होना चाहिए।

'जीवन के आने वाले दिन, यदि कोई हों तो, कितने अज्ञात और अनिश्चित हैं? इन दिनों मेरे भीतर एक गहरी अनुभूति उठ रही है कि व्यक्ति को जीवन के शेष वर्षों में बस जीते रहना है।...'

'बस जीना है?' फिर तो तुम्हारा जीवन एक ऊब बन जाएगा। और तुम इसका अर्थ यह निकाल सकते हो कि यह धार्मिक जीवन है। यह नहीं है। ऊबा हुआ व्यक्ति धार्मिक व्यक्ति नहीं है। आनंदित व्यक्ति ही धार्मिक व्यक्ति है।

लेकिन मैं जानता हूं बहुत से ऊबे हुए लोग धार्मिक होने का दिखावा करते हैं। अनेक लोग जो जीवन में नपुंसक, असृजनात्मक थे, किसी प्रकार की प्रसन्नता के लिए पात्र नहीं थे—जीवन के विरोध में हो गए हैं, जीवन—निषेधक हो गए हैं, और उन्होंने जीवन को निंदित करने, कि जीवन व्यर्थ है, कि इसमें कोई सार नहीं है, कि यह मात्र एक दुर्घटना है, कि यह एक उपद्रव है, इससे बाहर आ जाओ, इसे नष्ट कर दो की एक लंबी परंपरा निर्मित कर दी है। इन लोगों को तुम महात्मा कहते हो, इन्हें तुमने महान संत कहा है। ये बस विक्षिप्त हैं। इनको चिकित्सकीय देखभाल की जरूरत है। इन्हें अस्पताल में भर्ती करने की आवश्यकता हैं। तुम्हारे निन्यानबे प्रतिशत तथाकथित संत विकृत हैं, लेकिन वे अपनी विकृति को इस भांति छिपा रहे हैं कि तुम असली बात नहीं देख सकते।

ईसप की एक कथा है:

एक लोमड़ी अंगूर पाने के लिए कूदने का प्रयास कर रही थी। वे पके हुए और ललचाने वाले थे और उनकी सुगंध लोमड़ी को करीब—करीब पागल किए दे रही थी, लेकिन अंगूरों का गुच्छा उसकी पहुंच से बहुत दूर था। लोमड़ी उछली, और उछली, पहुंच न सकी, असफल रही, फिर उसने चारों ओर देखा— कहीं किसी ने उसकी असफलता को देख तो नहीं लिया है?

एक नन्हा खरगोश एक झाड़ी के नीचे छिपा हुआ था, और उसने कहा : क्या हुआ मौसी? आप अंगूरों तक पहुंच नहीं सकीं?

वह बोली : नहीं, बेटा यह बात नहीं है, अंगूर अभी तक पक नहीं पाए हैं, वे खट्टे हैं।

यही तो है जो तुमने अब तक धर्म के नाम पर जाना है—अंगूर खट्टे हैं—क्योंकि उन लोगों को वे मिल नहीं पाते, वे उन तक पहुंच नहीं सकते। ये लोग असफल हैं।

धर्म का असफलता से कुछ भी लेना—देना नहीं है। यह परितृप्ति, फलित होना, पुष्पित होना, परम ऊंचाई, शिखर है। अब्राहम मैसलो जब कहता है कि धर्म का संबंध 'शिखर अनुभवों' से है, तो वह सही है।

लेकिन जरा चर्चों में, आश्रमों में, मंदिरों में बैठे अपने धार्मिक लोगों की सूरतें देखो, उदास ऊबे हुए लंबे चेहरे बस मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह कब आकर उनको ले जाए। जीवन—निषेधक, जीवन—विरोधी, मतांधतापूर्वक जीवन के विरोध में, और जहां कहीं भी उन्हें जीवन दिखाई देता है वे उसे मार देने और नष्ट करने के लिए आतुर हो जाते हैं। वे तुम्हें चर्च में हंसने की अनुमति नहीं देंगे, वे तुम्हें चर्च में नृत्य न करने देंगे, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे परेशानी में पड़ जाते हैं, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे जान जाते हैं कि हम इससे चूक गए, हम इस तक नहीं पहुंच पाए।

धर्म असफलताओं के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन में सफल हुए हैं, जिन्होंने जीवन को इसके गहनतम तल तक, इसे इसकी गहराई और ऊंचाई तक, समस्त आयामों में जीया है, और जो इस अनुभव से इतना अधिक समृद्ध हो गए हैं कि वे इसका अतिक्रमण करने को तैयार हैं, ये लोग कभी जीवन—विरोधी नहीं होंगे वे जीवन को स्वीकार करने वाले होंगे। वे कहेंगे, जीवन दिव्य है। वस्तुत: वे कहेंगे, 'परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ, जीवन परमात्मा है।वे प्रेम के विरोध में नहीं होंगे क्योंकि प्रेम जीवन का परम रस है। वे कहेंगे, 'प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हुए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?'

यदि तुम प्रेम—विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुडने लगोगे। वास्तविक रूप से धार्मिक व्यक्ति विस्तीर्ण होता है, फैलता चला जाता है। यह चेतना का फैलना है, सिकुड़ना नहीं।

भारत में हमने परम सत्य को ब्रह्म कहा है।ब्रह्म' शब्द का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, आगे और आगे, और आगे, और इसका कोई अंत नहीं है। यह शब्द ही सुंदर है, इसमें एक गहन अर्थवत्ता है। आगे बढता हुआ विस्तार—जीवन, प्रेम, चेतना का यह अनंत फैलाव, यही तो है परमात्मा।

सावधान रहो, क्योंकि जीवन—निषेधक धर्म बहुत सस्ता है; तुम्हें यह बस ऊब जाने से ही मिल सकता है। यह बहुत सस्ता है, क्योंकि यह तुमको बस असफल होने से ही, बस असृजनात्मक होने से ही, बस आलसी, निराश, उदास होने से मिल सकता है। यह वास्तव में सस्ता है। लेकिन असली धर्म प्रमाणिक धर्म बड़ी कीमत पर मिलता है; तुम्हें जीवन में स्वयं को ही देना होगा। तुम्हें मूल्य चुकाना पड़ेगा। इसे अर्जित किया जाता है, और इसे कठिन पथ से अर्जित किया जाता है। व्यक्ति को जीवन से होकर गुजरना पड़ता है—इसकी उदासी, इसकी प्रसन्नता जानने के लिए; इसकी असफलता, इसकी सफलता जानने के लिए; धूप के दिन और बादलों का मौसम जानने के लिए; गरीबी और अमीरी जानने के लिए; प्रेम को और घृणा को जानने के लिए; जीवन की गहनतम चट्टानी तलहटी नरक को छू पाने के लिए और ऊपर उड़ान भर कर उच्चतम शिखर स्वर्ग को स्पर्श कर पाने के लिए जीवन में से होकर जाना पड़ता है। व्यक्ति को सभी आयामों में, सभी दिशाओं में गति करनी पड़ती है, कुछ भी ढंका हुआ नहीं रहना चाहिए। धर्म है अनावृत करना, यह जीवन से आवरण हटाना है।

और निःसंदेह पीड़ा इसका हिस्सा है। कभी भी केवल हर्ष की भाषा में मत सोचो, अन्यथा शीघ्र ही तुम जीवन से बाहर, इसके संपर्क से परे हो जाओगे। जीवन हर्ष और विषाद दोनों है। वास्तव में बेहतर तो यही होगा कि हम इसको हर्ष—विषाद कहें, इनके बीच और तक अच्छा नहीं लगता, क्योंकि यह बांटता है। हर्ष—विषाद, स्वर्ग—नरक, दिन—रात, सर्दी—गर्मी, प्रभु—शैतान—जीवन विपरीत ध्रुवीयताओं का परम अवसर है। इसे जीयो, साहस करो, खतरे में उतरो, जोखिम लो और तब तुम्हें धार्मिक समझ का एक नितांत भिन्न आयाम उपलब्ध हो जाएगा, जो जीवन के खट्टे और मीठे अनुभवों से आता है।

एक व्यक्ति जिसने केवल मधुर अनुभवों को जाना है और कभी भी कटु अनुभवों को नहीं जाना, अभी मनुष्य कहने योग्य नहीं है, वह अभी भी निर्धन है, धनी नहीं। वह व्यक्ति जिसने प्रेम, इसका सौंदर्य और इसका डर नहीं जाना है; वह व्यक्ति जिसने प्रेम, इसका आनंद और इसका संताप नहीं जाना है; वह व्यक्ति जिसने मिलन को और विरह को भी जाना है; एक व्यक्ति जिसने आगमन को और प्रस्थान को भी जान लिया, उसने बहुत कुछ जान लिया है। वह जो कमजोरी से जीया है, आज नहीं ता कल बीमार पड़ जाएगा और ऊब जाएगा और बोर हो जाएगा।

जीवन एक परम चुनौती है।

इसलिए यदि तुम कहते हो : 'व्यक्ति को अपने जीवन के शेष वर्षों में बस जीते रहना है।'

फिर ये शेष वर्ष जीवन के नहीं होंगे। तुम अपनी मृत्यु से पूर्व मर चुके होओगे।

मैंने सुना है, एक सुंदर स्त्री स्वर्ग के स्वर्णिम द्वार पर पहुंची। सेंट पीटर भी उसको देख कर कांप उठे। वह स्त्री वास्तव में सुंदर थी, सेंट पीटर भी उसकी आंखों में आंख डाल कर न देख सके। उन्होंने उसकी फाइलें देखना आरंभ कर दीं और उन्होंने कहा : तुम कहां रही हो? तुम क्या करती रही हो? क्या तुम पृथ्वी पर कोई पाप किया था?

उस स्त्री ने कहा : नहीं,' कभी नहीं।

सेंट पीटर को विश्वास नहीं हुआ। क्या तुम्हारा विवाह हुआ था?

उसने कहा. नहीं, मैं सेक्स में कभी उत्सुक नहीं रही।

क्या तुम कभी किसी पुरुष के साथ रही हो?

वह बोली : नहीं, मैं कुंआरी हूं।

और इसी प्रकार प्रश्नोत्तर होते रहे। सेंट पीटर ने सारे अभिलेख देख लिए, वे सभी कोरे थे। उसने कोई पाप नहीं किया था, लेकिन यदि तुमने कोई पाप न किया हो तो तुम कुछ पवित्र कार्य कैसे कर सकोगे? वे चिंतित हो गए।

उस स्त्री ने पूछा : क्या बात है? मैं एक पवित्र स्त्री हूं।

सेंट पीटर ने कहा : तुम एक गलत खयाल में जीती रही हो। संत हो पाने के लिए व्यक्ति को पापी बनना पड़ता है। तुम्हारा 'अभिलेख नितांत कोरा है। अब मेरे पास पूछने के लिए केवल एक ही प्रश्न है : तीस सालों में तुम कहा रही हो?

वह बोली : क्या मतलब है आपका?

सेंट पीटर ने कहा: तुम पिछले तीस वर्षों से मरी हुई हों—तुम्हें तो यहां पहले ही आ जाना चाहिए था। जी नहीं पाई हो तुम।

तुम्हारे तथाकथित संतों को भी इसी बात का सामना करना पड़ेगा। वे जीए ही नहीं। और इसे मैं अधार्मिक कहता हूं। इस अवसर को जो परमात्मा ने तुम्हें दिया है, नकारना अधार्मिकता है। इसे उसकी समग्रता— में न जीना अधार्मिकता है। यदि परमात्मा ने तुम्हें इस भांति बनाया है कि तुम्हारे भीतर पाप उठता है, तो बहुत अधिक चिंता मत लो। इसमें कोई अर्थ होना ही चाहिए; इसे तुम्हारे विकास का एक भाग होना चाहिए।

बाइबिल की कहानी सुंदर है। ईश्वर ने अदम से कहा, 'ज्ञान के वृक्ष का फल मत खाना:।उसने अदम के साथ एक चाल खेली। यह निश्चित रूप से उसको उकसाने की एक तरकीब थी। उकसाने का तुम इससे बेहतर उपाय नहीं खोज सकते। ईश्वर का बगीचा बहुत विस्तीर्ण था। यदि अदम पर यह बात छोड़ दी गई होती तो वह उस वृक्ष को अब तक न खोज पाया होता। जरा सोचो। ईश्वर का बगीचा इतना विस्तृत है कि अदम, यदि उसको उसकी अपनी अक्ल के सहारे छोड़ दिया गया होता तो उस वृक्ष को अभी तक न खोज पाया होता। ईश्वर को तो यह बात पता ही थी। ईसाई इसे इस प्रकार से नहीं समझाते हैं, लेकिन मुझे पता है कि ईश्वर ने एक चाल खेली थी। उसने अदम को मूर्ख बनाया। अचानक उसने कहा, 'याद रहे, इस वृक्ष का फल कभी मत खाना।यह वृक्ष अदम के मन में एक सतत अटकन बन गया। अब अदम ढंग से सोने में समर्थ न हो पाएगा, रात में वह उस वृक्ष के स्वप्न देखेगा। और जब ईश्वर ने ऐसा कहा है तो इसमें कोई बात अवश्य होना चाहिए। और ईश्वर स्वयं इस वृक्ष से फल खाता है! यह असंभव है। यह उस पिता के समान है जो धूम्रपान करता है और बच्चे से कहे चला जाता है धूम्रपान कभी मत करना, यह बहुत बुरा है, और तुम ऐसा करोगे तो कष्ट उठाओगे।

निःसंदेह अदम को इसे खाना पड़ा, लेकिन दोषी ईश्वर है। उसे दोषी होना पडेगा, क्योंकि वही सारे मामले का आधार है। इसलिए यदि पाप होता है तो उसे अपराधी होना पड़ेगा, यदि पुण्य होता है तो उसी को इसका कारण होना पड़ेगा। सभी कुछ उसका है। परम गहराई में तुम सदैव वहां उसी को पाओगे। और तभी से वह हंस रहा होगा।

अदम समझ नहीं सका, थोड़ी मनोवैज्ञानिक समझ की जरूरत थी। यह कोई धार्मिक प्रश्न नहीं है, यह एक मनोवैज्ञानिक प्रश्न है। और ईश्वर भी शांति से बैठ कर कोई प्रतीक्षा नहीं कर रहा था, क्योंकि हो सकता है अदम बहुत अधिक आज्ञाकारी हो और शायद न खाए; इसीलिए सांप.. .उसको एक वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ी। ईश्वर ने यह अवश्य अनुभव कर लिया होगा कि अदम अत्याधिक विनम्र, आशाकारी अच्छा लड़का प्रतीत होता है, तो उसे एक लड़की ईव और एक सांप को बीच से लाना पड़ा।

सांप ईव को उकसाता है और ईव अदम को उकसाती है। अब यह मामला सरल हो गया। अदम ईव पर उत्तरदायित्व डाल सकता है, ईव सांप पर जिम्मेवारी थोप सकती है। और निःसंदेह सांप बोल नहीं सकते—वे बाइबिल नहीं लिख सकते और वे ईश्वर पर उत्तरदायित्व नहीं डाल सकते। लेकिन उत्तरदायित्व उस ईश्वर का ही है।

एक ही अधर्म है और वह है जीवन को, प्रेम को इनकार करना। और केवल एक ही धर्म है और वह है इसे इसकी समग्रता में स्वीकार करना और निर्भय होकर इसमें संलग्न हो जाना। इसलिए यह दृष्टिकोण हानिकारक है।

'कैसे? क्यों? किसलिए—कुछ भी स्पष्ट नहीं है।

लेकिन इसको स्पष्ट क्यों होना चाहिए? पहली बात तो यह है कि तुम यह क्यों चाहते हो कि इसे स्पष्ट होना है। और यदि यह नितांत स्पष्ट हो जाए, तो सारी बात खो जाएगी, सारा खेल खत्म हो जाएगा। यदि हरेक बात अत्याधिक स्पष्ट हो, तो फिर कोई विकल्प नहीं होता। तब तुम भटक नहीं सकते। फिर तुम हमेशा ठीक काम करोगे यदि सब कुछ पूर्णत: स्पष्ट हो। फिर तुम ठोकर नहीं खा सकते, फिर तुम अंधकार में नहीं जा सकते, और परमात्मा से अधिक दूर नहीं जा सकते हो।

लेकिन वह चाहता है कि तुम अधिक दूर जाओ, क्योंकि केवल तभी जब तुम बहुत, बहुत दूर चले गए हो तभी घर वापस लौटने की प्यास जगती है।

वास्तव में आधुनिक मनोविज्ञान बिलकुल ठीक यही कह रहा है कि प्रत्येक बच्चे को मां से दूर जाना पड़ता है। पहले बच्चा गर्भ में है, फिर एक दिन उसे गर्भ से बाहर आना पड़ता है। वह मां से बहुत दूर जाने का आरंभ है। अब वह और अधिक मां का भाग नहीं रहा। फिर गर्भनाल काट दी जाती है, वह स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करना आरंभ कर देता है। लेकिन फिर भी वह मां से, स्तन से चिपकेगा, क्योंकि अब भी वही उसका पूर्ण अस्तित्व है—गर्भ से बाहर आने के बाद भी। लेकिन फिर भी वह मां से चिपकता रहेगा, वह मातृत्व के परिवेश में रहेगा। लेकिन फिर उसे भी विदा होना पड़ेगा। बच्चा बड़ा हो रहा है। एक दिन दूध रुक जाता है, स्तन वापस ले लिया जाता है, और मां बच्चे को और अधिक आत्मनिर्भर होने के लिए बाध्य करती है। अब उसे अपना स्वयं का भोजन चुनना है और उसे अपना स्वयं का भोजन चबाना है। फिर और भी—उसे विद्यालय यां छात्रावास में जाना पड़ता है। फिर और दूर, वह और दूर चला जाता है। फिर एक दिन वह किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाता है; यह अंतिम कदम है।

इसीलिए माताएं अपनी पुत्र—वधुओं को कभी माफ नहीं कर सकती हैं। असंभव। क्योंकि सहारे का आखिरी तिनका भी—उन्होंने उनके पुत्र को पूर्णत: मां से छीन लिया गया है। अब पुत्र संपूर्ण रूप से स्वतंत्र हो गया है। उसका अपना स्वयं का परिवार है, उसने अपनी स्वयं की दुनिया बसा ली है। अब वह मां से और अधिक आसक्त नहीं रहा है।

ठीक—ठीक यही घटना चेतना के संसार में घट रही है। मनुष्य को मां से दूर जाना पड़ता है। और स्मरण रखना कि परमात्मा माता अधिक है पिता के बजाय। मनुष्य का जन्म परमात्मा के गर्भ से हुआ है, तब वही देखभाल करता है।

जरा देखो, वह वृक्षों की अधिक देखभाल, पशुओं की अधिक देखभाल, पक्षियों की अधिक देखभाल करता है—यही तो है गर्भ। ये लोग अभी भी गर्भ के भीतर हैं। मनुष्य के बारे में वह इतना सावधान नहीं है; मनुष्य को स्वतंत्र होना पड़ेगा। क्या तुमने नहीं देखा है कि मनुष्य का जन्म संसार के सबसे असहाय जीव की भांति होता है? क्योंकि परमात्मा अपनी सहायता वापस ले रहा है, स्वयं को हटा ले रहा है। वृक्ष उसके गर्भ में हैं, पक्षी उसके गर्भ में हैं, पशु उसके गर्भ में हैं। वे मनुष्य के पूर्वज हैं।

पुनर्जन्म का, विकास का सारा सिद्धात यही है। पूरब में हम कहते है कि प्रत्येक व्यक्ति इन सभी स्थितियों से होकर गुजर चुका है। कभी तुम शेर थे, कभी तुम कुत्ते थे, कभी तुम एक वृक्ष थे, और एक बार तो तुम चट्टान भी थे। फिर तुम मनुष्य हो गए। मनुष्य का अभिप्राय है कि तुम गर्भ से बाहर आ गए। ईडन का बगीचा परमात्मा का गर्भ है।

अदम को निष्कासित किया गया। हूं—......निष्कासन शब्द अच्छा नहीं है। यदि हमने पूरब में बाइबिल की कहानी लिखी होती, तो हमने कहा होता ईश्वर ने मनुष्य को अपने से अधिक दूर विकसित होने के लिए भेजा। क्योंकि यदि तुम लगातार अपनी मां के चारों ओर घूमते रहो, तो विकसित होना कठिन है। यदि तुम लगातार मां के दूध पर ही जीते रहो, तो विकसित होना असंभव हो जाएगा। तुम बचकाने रहोगे। और तुमको किसी स्त्री के प्रेम में पड़ना पड़ता है, वह भी इतना अधिक कि यदि वह स्त्री कहती है कि अपनी मां की हत्या कर दो, तुम अपनी मा की हत्या करने के बारे में सोचना शुरू कर दोगे। इसी प्रकार से ईव ने अदम को फुसलाया, 'इस फल को खा लो।इस कहानी की .क्या अर्थवत्ता है? अर्थवत्ता यह है कि अदम ने ईश्वर के आदेश के विस्ज ईव की राय को चुना। सरल है यह बात। उसने कहा, ठीक है, उस बूढ़े आदमी को छोड़ दो। चिंता मत लो। उसने मूर्ख ईव की राय को चुन लिया।

और निःसंदेह स्त्रियां बहुत तर्कयुक्त नहीं होती हैं, वे भावुकताओं में जीती हैं। उसे राय दी गई एक सांप द्वारा। हूं.......जरा इसकी असंगतता को तो देखो—बस एक भावुकता। लेकिन जब कोई पत्नी जोर देती है तो पति को बात मानना ही पड़ती है।

अदम को संसार में आगे भेजा गया, निकाला नहीं गया। ईश्वर किसी को कैसे निकाल सकता है? यह असंभव है, उसकी करुणा ऐसा न होने देगी। और तुम्हारे विकास का यह एक हिस्सा है कि तुमको दूर जाना चाहिए और गलतियां करनी चाहिए, क्योंकि केवल तभी धीरे— धीरे तुम बोधपूर्ण, जागरूक हो जाओगे। और तुम्हारी स्वयं की जागरूकता से गलतियां विदा होने लगेंगी, तुम घर वापस आ जाओगे। और तुम ईश्वर को सदैव तुम्हारे स्वागत हेतु तैयार पाओगे।

ईश्वर तुम्हारा स्रोत है, और यह उस सबका स्रोत है जो तुम्हारे साथ घटता है।

मत पूछो, 'कैसे? क्यों? किसलिए?—कुछ भी स्पष्ट नहीं है।हां, इसे उसी ढंग का होना पड़ता है। यदि सब कुछ स्पष्ट हो तो विकसित होने की आवश्यकता हीं नहीं है। क्योंकि कुछ भी स्पष्ट नहीं है तुमको जागरूकता में विकसित होना है जिससे कि चीजें स्पष्ट हो जाएं।

मुल्ला नसरुद्दीन अस्पताल में था। उसको आंख की कुछ तकलीफ थी। एक सप्ताह के बाद डाक्टर ने उससे पूछा. नसरुद्दीन क्या दवाइयों से तुम्हें कुछ फायदा हो रहा है?

उसने कहा : निश्चित तौर से, अब मैं और स्पष्टता से और साफ ढंग से देख सकता हूं। उदाहरण के लिए परिचारिकाएं अब रोज—रोज सामान्य आम रूप—रंग की होती जा रही हैं।

जब तुम स्पष्टता से देख सकते हो तो निःसंदेह परिचारिकाएं और—और आम रंग—रूप की हो जाती हैं। जब तुम्हें साफ न दिखाई देता हो तो हर स्त्री सुंदर होती है।

यदि सब कुछ स्पष्ट हो, तो तुम्हारी आंखें साफ करने की कोई जरूरत ही न रह जाएगी। सारी बात यही है, सारा खेल यही है कि चीजें स्पष्ट नहीं हैं। इसलिए तुमको अपने मन में अधिक स्पष्टता लानी पड़ती है जिससे कि तुम अपने लिए रास्ते का चुनाव कर सको। चीजें एक अराजकता में है। तुमको अपने भीतर जागरूकता लानी पड़ती है ताकि तुम अराजकता में अपना रास्ता चुन सको और उचित ढंग से चल सको। अराजकता वहां समझ—बूझ कर है, इसे वहां होना ही है। शैतान के कारण अराजकता नहीं है वहां यह परमात्मा के कारण है।

यह जिग सा पज़ल, उलझन भरी पहेली, की भांति है। हूं......यदि सब कुछ स्पष्ट है तो पहेली का मतलब ही क्या है न' एक छोटे बच्चे को तुम जब जिग सा पज़ल देते हो, तो तुम सारे टुकड़ों को मिला देते हो, तुम बच्चे को दिग्म्रमित कर देते हो और फिर तुम बच्चे से कहते हो, अब तुम इसे ठीक से लगाओ। इसे सुव्यवस्थित करने में वह वास्तव में अधिक जागरूक, संलग्न, एकाग्रचित्त, ध्यानपूर्ण हो जाता है। यदि तुम उसे हल की हुई पहेली दे दो, तो उसे इस पहेली को देने में क्या अर्थ है?

यह संसार एक उलझन भरी पहेली है और परमात्मा इसे गड्ड—मड्ड कर हमें दिग्म्रमित करता रहता है। यही तो मैं यहां तुम्हारे साथ कर रहा हूं। किसी प्रकार से तुम अपनी जिग सा पजल को ठीक से जमाने का प्रयास करते हो, मैं पुन: कुछ करता हूं और गड्ड—मड्ड कर देता हूं और तुम्हें दिग्भ्रमित कर देता हूं। क्योंकि जितना तुम्हें पहेली पर कार्य करना पड़ेगा तुम उतना ही अधिक बोधपूर्ण हो जाओगे। तुम्हें अच्छा लगेगा कि मैं तुमको एक निश्चित प्रश्नोत्तरी दे दूं जैसा कि ईसाई लोग अपने अनुयायियों को देते हैं। कुछ लोग मेरे पास आ जाते हैं, मूर्ख लोग हैं वे, वे कहते हैं, आपकी पुस्तकों से जान पाना कि आप क्या चाहते हैं बहुत कठिन है, ओशो। माओत्से तुंग की 'लाल किताब' की भांति एक छोटी हाथ में आ सकने वाली जिसे जेब में रखा जा सके, ऐसी एक छोटी पुस्तक बना दीजिए, और यह पुस्तक बिलकुल ठीक—ठीक संक्षिप्त में यह बता दें कि आप क्या चाहते हैं।

मैं तुमको कोई 'लाल किताब' नहीं देने जा रहा हूं क्योंकि फिर बात ही क्या बची। तुमने इसे पसंद कर लिया, मामला खत्म, किसी जागरूकता की जरूरत ही नहीं है। तुमने बस लाल किताब में देखा और सब कुछ स्पष्ट हो गया। सभी लाल किताबें जला देने के योग्य हैं। कोई भी चीज जो तुम्हारे जीवन की पहेली को सुलझा देती है, तुम्हारी शत्रु है, क्योंकि पहेली सुलझते ही तुम अचेतनता में छलांग लगा दोगे। पहेली को और जटिल बनाया जाना है। इसीलिए यदि लाओत्सु से काम न चल सके तो मैं पतंजलि को ले आता हूं। यदि पतंजलि से न हो पाए तो मैं बुद्ध को ले आता हूं। यदि वे असफल हों तो जीसस, महावीर। और फिर मैं लोगों को खोज लाता हूं : तिलोपा, नरोपा। किसी ने उनके बारे में अधिक चिंता नहीं की। और मैं तुमको उलझाता चला जाऊंगा।

यदि इस दिग्भ्रम में तुम स्पष्ट हो गए, तुम्हारे चारों ओर की चीजें नहीं.. .स्पष्टता आंतरिक होना चाहिए। स्पष्टताएं दो प्रकार की होती हैं। एक है तुम्हारे चारों ओर की चीजों की व्यवस्था में—आंतरिक सज्जाकार द्वारा फर्नीचर व्यवस्थित कर दिया गया—हर चीज अपने स्थान पर है—लेकिन फिर भी तुम स्पष्ट नहीं हो। चीजें व्यवस्थित हैं और उन्होंने तुमसे इनको स्पष्ट करने का अवसर ले लिया है। फिर एक दूसरी स्पष्टता है—चीजें जैसी वे हैं वैसी ही रहती हैं, लेकिन तुम बोध की प्रगाढ़ता उपलब्ध कर लेते हो। और— और सजग हो जाते हो तुम। तुम चीजों को गहराई से देखते हो, तुम और—और स्पष्टता से देखना आरंभ कर देते हो। चीजें वही हैं लेकिन तुम भिन्न हो। परिवर्तन तुम पर घटा है, संसार में नहीं।

और एक धार्मिक व्यक्ति तथा साम्यवादी, समाजवादी, राजनैतिक व्यक्ति के मध्य यही भेद है। वे सभी संसार को छांट रहे हैं—मार्क्स, माओ, स्टैलिन। वे सभी संसार को, पहेली को जमाने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। वे तुम्हारे लिए भोजन चबा रहे हैं, और वे तुम्हें छोटे बच्चे बनाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि तुम राज्य के आश्रय पर जीवित रह सको—और सरकार द्वारा हर चीज स्पष्ट कर दी गई है, हर चीज का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है, और हर चीज को उसके उचित स्थान पर रख दिया गया है, जिससे कि तुम अपने सिर पर बिना कोई चिंता लिए बस घूमो—फिरो।

मैं बाहर के संसार में इस प्रकार के व्यवस्थाकरण के पक्ष में नहीं हूं बाह्य संसार को एक सुंदर अव्यवस्था बना रहना चाहिए जिससे कि तुम्हें अंतस की जागरूकता के लिए संघर्ष करना पड़े। मुझे

आशा है कि तुम इस बात को समझ सकते हो। यदि एक अंधेरी रात में तुम अकेले चल रहे हो, तुम अधिक चौकन्ने होकर, अधिक सावधानी से चलते हो। यदि तुम दिन के पूर्ण प्रकाश में एक राजमार्ग पर चल रहे हो, तो निःसंदेह किसी जागरूकता और बोध की जरूरत नहीं पड़ती है।

क्या कभी तुम. किसी भुतहा मकान में रात में अकेले रुके हो? तुम सो ही न पाओगे। आयन में पेडू से सूखा पत्ता गिरने की हलकी सी आवाज, बस और तुम उछल पड़ोगे। कोई बिल्ली चूहे पर झपटती है और तुम कूद पड़ोगे। जरा सा हवा का झोंका और तुम हाथ में टार्च लेकर खड़े हो जाते हो।

मैंने एक आदमी के बारे में सुना है, जिसने एक चुनौती स्वीकार की और भुतहा घर में रुक गया। उसी समय जब वह विश्राम करने जा रहा था बिस्तर पर बैठे हुए उसने वेटर से जो उसके लिए दूध लेकर आया था, पूछा मुझे एक बात बताओ, क्या पिछले कुछ सालों में यहां कुछ अप्रत्याशित घटा है? उस वेटर ने कहा पिछले बीस साल से तो नहीं।

उस व्यक्ति ने राहत महसूस की—बीस साल पहले कुछ हुआ होगा। फिर वेटर जाने लगा। उसने कहा : ठहरो! जरा मुझे बताओ, बीस साल पहले क्या हुआ था?

वेटर ने कहा. बीस साल पहले एक बहुत अप्रत्याशित घटना घटी। एक व्यक्ति इसी पलंग पर सोया था, .जिस पर आप बैठे हैं, और अगली सुबह वह नाश्ता करने नीचे उतरा। दुबारा कभी ऐसा नहीं हुआ, और इससे पहले भी कभी नहीं हुआ था। हम लोग तो उसका इंतजार भी नहीं कर रहे थे, लेकिन वह सीढ़ियों से उतरता हुआ नीचे आया।

अब क्या तुम इस व्यक्ति के चौकन्ने न रहने के बारे में सोच सकते हो? क्या तुम सोच सकते हो कि इस— आदमी को नींद आई होगी? नींद की गोलियों से भी काम न चलेगा। यदि तुम उसको मारफिया का इंजेक्शन दे दो तो वह भी कार्य न करेगा। उसकी जागृति एक बहुत घनीभूत चीज बन जाएगी।

बुद्ध अपने शिष्यों को सारी रात मरघट में रुकने के लिए भेजा करते थे—बस और जागरूक होने के लिए। क्योंकि जब तुम मरघट में अकेले हो, तुम सो नहीं सकते। वास्तव में जागरूक होने के लिए कोई प्रयास करने की जरूरत ही नहीं है। जागरूकता आसान हो जाती है। यह वास्तव में सुंदर है, तुम्हें भी कभी—कभी ऐसी कोशिश करना चाहिए।

स्पष्टता को तुम्हारे पास तुम्हारी चेतना की आंतरिक गुणवत्ता में आना पड़ेगा, 'कैसे? क्यों? किसलिए?—कुछ भी स्पष्ट नहीं है।यह आत्यंतिक सुंदर बात है, इसको इसी भांति होना चाहिए।

और मैं तुमसे एक बात और कहना चाहता हूं जीवन स्वयं के लिए है। इसका कोई बाह्य मूल्य नहीं है, आंतरिक है यह। जीवन का उद्देश्य कभी मत पूछो, क्योंकि तुमने गलत प्रश्न पूछा है, तुम असंगत प्रश्न पूछते हो। जीवन परम है, उससे परे कुछ भी नहीं है। जीवन स्वयं के लिए जीता है।

गुलाब एक गुलाब है, एक गुलाब ही है—जीवन और अधिक जीवन के लिए जीता है, और अधिक जीवन फिर और अधिक जीवन के लिए जीता है। लेकिन उसमें कोई बाह्य मूल्य नहीं है, तुम 'क्यों' का उत्तर नहीं दे सकते।

और तुम इस बात को समझ सकते हो. यदि तुम 'क्यों' का उत्तर दे सके, फिर दुबारा प्रश्न खड़ा हो जाएगा। यदि तुम कहो, जीवन का अस्तित्व परमात्मा के लिए है, तो परमात्मा का अस्तित्व किसलिए है? उसके होने का क्या उद्देश्य है? और जब इस पूछताछ को कहीं जाकर रुकना ही है, तो पहले इसको शुरू ही क्यों किया जाए? तुम कहते हो, 'परमात्मा ने जीवन का सृजन किया? फिर परमात्मा का सृजन किसने किया?' नहीं, मैं ऐसा नहीं कहता। मैं कहता हूं परमात्मा जीवन है। उसने जीवन का सृजन नहीं किया है, वही जीवन है।

इसलिए यदि तुम नास्तिक हो तो मेरे साथ कोई समस्या नहीं है। हूं.....तुम 'परमात्मा' शब्द को छोड़ सकते हो। यह केवल भाषागत प्रश्न है। यदि तुम्हें 'परमात्मा' शब्द पसंद हो, अच्छी बात है। यदि तुम्हें पसंद नहीं है, बहुत अच्छी बात है।जीवन' से काम चल जाएगा। क्योंकि मैं शब्दों के बारे में चिंता नहीं करता। मैं शब्दों के बारे में तर्क नहीं करता। परम सत्य को तुम किस नाम से पुकारते हो, किसे चिंता है? जीवन, परमात्मा, अल्लाह, राम, कृष्‍ण—या तुम्हारी कल्पना को जो आकृष्ट करे—जिहोवा, ताओ, ये सभी शब्द हैं, किसी ऐसे सूक्ष्म की ओर संकेत कर रहे हैं कि उसकी अभिव्यक्ति असंभव है।

लेकिन यदि तुम मुझसे पूछो, 'जीवन' अत्याधिक सुंदर प्रतीत होता है यह।ईश्वर' के साथ ही तुम्हें किसी प्रकार के चर्च की बू आती है, और दुर्गंध है यह, यह अच्छी नहीं है।जीवन' के साथ तत्कण, पुष्प, वृक्ष, पक्षी...। क्या तुमने अपने मन के प्रतिसंवेदन, प्रतिक्रिया का निरीक्षण किया है? मैं कहता हूं 'ईश्वर' सुनते ही तुम्हारे मन में कैथेडूल्स, मनुष्य निर्मित चीजें—पादरी, पोप उभर आते हैं। निःसंदेह बड़ा नाटकीय है यह, लेकिन थोड़ा सा असंगत भी है—उनके लंबे सजावटी चोगे, मुकुट और पाखंड। मैं कहता हू 'जीवन' कोई कैथेड्रल, कोई मंदिर तुम्हारी चेतना में नहीं उभरता है। प्रवाहित होती नदियां, खिलते हुए फूल, गाते हुए पक्षी, चमकता हुआ सूर्य, हंसते और दौड़ते हुए बच्चे, प्रेम करते हुए लोग, यह आकाश, यह पृथ्वी।जीवन' वास्तव में और सुदर, कम भ्रष्ट है। यह पादरियों के हाथों में नहीं पड़ा है, वे इसके सौंदर्य को नष्ट और भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सके हैं। वे अभी इसको आकार देने के लिए काट—छांट नहीं कर सके हैं, यह अभी भी कृत्रिम न हो सका है। जीवन प्राकृतिक रहा है।

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यही तो परमात्मा है : परम प्राकृतिक।

कभी मत पूछो जीवन क्यों है, क्योंकि उत्तर कौन देने जा रहा है? जीवन के अतिरिक्त कुछ और है भी नहीं।

और यह मत सोचो कि जब कोई उद्देश्य होगा तो ही तुम्हें जीना होगा, अन्यथा तुम कैसे जी सकोगे? मुझे नहीं दीखती है यह बात। फूल खिलते हैं, वे किसी 'क्यों' को नहीं जानते हैं, और वे सुंदरतापूर्वक खिलते हैं। और मैं कल्पना नहीं कर सकता कि यदि उनको सिखाया जाए कि तुम्हारे खिलने का एक उद्देश्य है, तो वे किस प्रकार और अच्छे ढंग से खिलेंगे, मुझे ऐसा नहीं दीखता। वे बस उसी ढंग से खिलते हैं। वे अपनी ओर से महत्तम प्रयास कर रहे हैं। क्या तुम सोचते हो कि यदि कोयल को बता दिया जाए कि गाने का क्या उद्देश्य है, तो वह बेहतर ढंग से गा रही होगी।

मैं सदा से सोचता हूं कि जानवर आदमी पर अवश्य हंस रहे होंगे। मनुष्य के बारे में पशुओं के मध्य कई चुटकुले अवश्य प्रचलित होंगे। मनुष्य को पृथ्वी पर बहुत भद्दी, असंगत घटना होना चाहिए।

एक फूल खिलता है, तो उसे खिलने के लिए किसी उद्देश्य की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन तुम्हें उद्देश्य चाहिए। तुम किसी को प्रेम कर सकते हो, लेकिन क्या उद्देश्य है? प्रेम को किसी उद्देश्य की आवश्यकता है? तो तुम सारी बात से चूक जाओगे। ऐसे भी लोग हैं जो प्रेम भी उद्देश्यपूर्वक करते हैं।

जीवन अर्थशास्त्र नहीं है। यह आंतरिक रूप से मूल्यवान है। और एक बार तुम यह समझ लो, एक महत् उत्कांति तुम्हें घट जाती है। फिर तुम बस श्वास लेते हो, और श्वास लेना बहुत सुंदर, बहुत शांतिदायक, बहुत आशीषमयी हो जाता है। तब हर क्षण स्वयं में अर्थ बन जाता है। अर्थ कहीं बाहर नहीं है। फिर तुम इस क्षण को उसी के लिए जीते हो। तुम गाते हो, क्योंकि तुम्हें गाने से प्रेम है। तुम नृत्य करते हो, क्योंकि नृत्य करना अति सुंदर है। तुम प्रेम करते हो, क्योंकि प्रेम जैसा और कुछ भी नहीं है। यदि तुम उद्देश्य पूछो तब तुम्हारा मन वेश्या का है। वेश्या प्रेम कर सकती है, लेकिन इसमें एक उद्देश्य निहित है। जो सदैव पूछते रहते हैं कि जीवन का क्या उद्देश्य है? उन लोगों के पास वेश्या का मन है। जीवन को जैसा यह है वे स्वीकार नहीं कर सकते हैं। इसको अर्थपूर्ण बनाने के लिए उन्हें कुछ और चाहिए।

जरा समझने का प्रयास करो, प्रत्येक क्षण अपने आप में पर्याप्त है, और प्रत्येक कृत्य अपने आप में परिपूर्ण है; और जो कुछ भी तुम करते हो करना स्वयं में एक गरिमा है। कुछ और नहीं चाहिए।

और तब अचानक तुम मुक्त हो जाते हो। क्योंकि एक व्यक्ति जो उद्देश्य उन्मुख है कभी मुक्त नहीं हो सकता। उद्देश्य सदा भविष्य में होता है। आज तुम किसी ऐसी चीज के लिए जीते हो जो कल होने जा रही है, कौन जाने, तुम ही मर जाओ। फिर तुम एक अतृप्त जीवन जीयोगे, और कल पुन: तुम किसी भविष्य के कल के लिए जीयोगे, क्योंकि प्रत्येक कल आज बन कर आता है और तुमने गलत ढंग से आज को कल के लिए बलिदान करना सीख रखा है।

यदि तुम उद्देश्य के प्रश्न से आसक्त हो चुके हो, तुम पूछते चले जाओगे। चाहे जो कुछ भी हो तुम पूछोगे 'इसका क्या उद्देश्य है?' लोग मेरे पास आकर पूछते हैं, आप हमें ध्यान करने को कहते हैं लेकिन क्या उद्देश्य है इसका? ध्यान करने के लिए किस उद्देश्य की आवश्यकता पड़ती है? ध्यान इतना शांत है, आनंद से इतना ओतप्रोत है, किसी और उद्देश्य की आवश्यकता नहीं है। यह किसी और बात के लिए साधन नहीं है। यह स्वयं में साध्य है।

''इसलिए मैं क्या खा रहा हूं मैं क्या कर रहा हूं चारों ओर क्या घट रहा है, किसी से मुझ पर कोई अंतर नहीं पडता।’' तुम असंवेदनशील और मूढ़ होते जा रहे हो। यह मत समझो कि यह धर्म है। यह बस धीमा आत्मघात है। तुम अपने अस्तित्व को विषाक्त कर रहे हो। और अधिक होशपूर्ण हो जाओ, और अधिक जागरूक हो जाओ, और अधिक संवेदनशील हो जाओ। क्योंकि यदि तुम संवेदनशील नहीं हो, जीवन तुम्हारे पास से होकर गुजरता चला जाएगा और तुम इसको जी न पाओगे, तुम अस्पर्शित रहोगे। जीवन तुम्हारे ऊपर बरसता चला जाएगा और तुम बंद रहोगे, तुम इसके प्रति खुले नहीं होगे। परमात्मा तुमको देता चला जाएगा, लेकिन तुम नहीं लोगे। अधिक संवेदनशील, अधिक प्रत्युत्तरपूर्ण बनो। वीणा के तार जैसे होओ। हूं.....कोई बस इसे छूता भर है, और प्रतिसंवेदना होती है। तार जीवित है। ढीले मत रहो, अन्यथा वहीं प्रतिसंवेदना नहीं होगी। निःसंदेह बहुत तन मत जाओ नहीं तो तुम टूट जाओगे।

धर्म की पूरी कला यही है कैसे संतुलित हुआ जाए? कैसे असंयत न हुआ जाए? वीणा के तारों को सम्यक तनाव में, परिपूर्ण साम्यता में, पूर्ण संतुलन में—न इस ओर, न ही उस ओर, बस ठीक मध्य मे, ठीक—ठीक बीच में रहना चाहिए। तुम इसे छुओ—अभी तुम इसे छू भी न पाए हो—और यह प्रत्युत्तर देता है।

लोग कहते हैं कि यदि एक वीणा के स्वरों को एक गुरु सही रूप से उचित ढंग से बिठा दे और तुम इसको कमरे के एक कोने में रखो, अब तुम एक दूसरी वीणा बजाओ, तो कोने में रखी यह वीणा उस वीणा के संगीत का प्रत्युत्तर देना आरंभ कर देती है। —यह प्रत्युत्तर देती है, क्योंकि झंकार, कंपन, स्पंदन इस तक पहुंचते हैं। जब एक वीणा से अत्यधिक सुंदर कंपन उत्सर्जित होने लगते हैं, इनका प्रसार होता है, ये सारे कमरे को भर देते हैं, और दूसरी वीणा पूर्णत: तैयार, न अधिक ढीली, न अधिक कसी, बस मध्य में, वहां प्रतीक्षारत है, तत्‍क्षण वे सूक्ष्म कंपन इससे टकराते हैं, बिना किसी इंसानी हाथ के स्पर्श के यह प्रत्युत्तर देना आरंभ कर देती है, यह जीवंत हो उठती है। जीने का यही ढंग है।

ध्यान तुमको बस संतुलित, मध्य में, विर्श्रात, शांत, आनंदित करने के लिए है, ताकि जब जीवन तुम्हारे पास आता है... और यह हर क्षण आ रहा है। इसकी लाखों भेंटें हैं, तुम उनसे चूकते जाते हो, क्योंकि तुम तैयार नहीं हो। तुम उस बहरे आदमी के समान हो जो बैठा हो और कोई वीणा बजा रहा है। तुम इससे चूकते रहते हो।

मैंने एक महान संगीतकार के बारे में सुना है, जिसने एक अन्य महान संगीतज्ञ तानसेन के बारे में सुना कि जब तानसेन अपनी वीणा बजाता है, तो उसे सुनने पशु भी एकत्रित हो जाते हैं। वह इसकी सत्यता को जानना चाहता था। वह जंगल में चला गया और उसने अपनी वीणा बजाना आरंभ कर दिया, धीरे— धीरे पशुओं ने आना आरंभ कर दिया। बहुत भीड़ एकत्रित हो गई—हाथी, जेब्रा, चीता, तेंदुआ, लोमडिया, भेडिए—हर प्रकार के पशु छोटे और बड़े, और वे ठगे से रह गए, सम्मोहित हो गए। और तभी अचानक एक घड़ियाल आया, और संगीतकार पर झपटा और उसको एक ही बार में समूचा निगल गया। सारे पशु बहुत क्रोधित हो उठे, उन्होंने कहा. 'यह क्या बेवकूफी है?’ घड़ियाल ने अपने हाथ कानों पर रखे और बोला. 'क्या? तुम क्या कह रहे हो?'

घड़ियाल बहरा था। बहरे मत बनो, अंधे मत बनो। जीवंत प्रत्युत्तर देने वाले बनी।

परमात्मा हर पल तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे रहा है। यदि तुम असंवेदनशील हो गए, तो तुम्हें यह दस्तक नहीं सुनाई पड़ेगी। जीसस कहते हैं खटखटाओ और तुम्हारे लिए द्वार खोल दिया जाएगा। मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हें द्वार पर दस्तक देने की भी आवश्यकता नहीं है, परमात्मा द्वार पर दस्तक दे रहा है। सुनो, वास्तव में तो परमात्मा तुमको हर ओर से खोज रहा है। यह खोज एक पक्षीय नहीं है कि केवल तुम ही खोज रहे हो, वह भी तुम्हें खोज रहा है। लेकिन तुमको उपलब्ध होना पड़ेगा।

और उपलब्ध होने का यह कोई ढंग नहीं है।

'अपनी आरंभिक बाल्यावस्था से ही, जब कभी भी मैं किसी शव को देखता था, सदा ही यह विचार मेरे मन में कौंध जाता कि यदि मृत्यु ही आनी है तो जीने में क्या सार है?'

इसीलिए तो जीने में सार है, क्योंकि मृत्यु को आना ही है। यदि कोई मृत्यु न होती और तुम यहां सदा, सदा और सदा के लिए रहने वाले होते, जरा सोचो तो क्या होगा। तुम ऊब कर मर जाओगे। तुम मृत्यु के लिए प्रार्थना करना आरंभ कर दोगे।

सिकंदर महान के बारे में एक सुंदर कहानी है। जब वह भारत आया, वह अनेक कारणों से भारत आया था—भारत विजय के लिए, भारत के बुद्धिमान व्यक्तियों से मिलने के लिए और उस कुएं की खोज करने जिसके बारे में उसने सुन रखा था कि यदि तुम इसका पानी पी लो तो तुम अमर हो जाते हो। मुझे नहीं पता कि यह कहानी कहां तक सच है, मैं इसकी गवाही तो नहीं दे सकता, लेकिन यह सुंदर है। और सत्य होने के लिए कहानी को सुंदर होना चाहिए। सौंदर्य के अतिरिक्त कोई और सत्य नहीं है। वह यात्रा करता रहा और उसने अनेक बुद्धिमान व्यक्तियों से पूछा, और अंतत: उसको वह कुआं मिल ही गया। लेकिन वह इस बात से बड़ा हैरान था कि जिन लोगों ने उसे कुएं का रास्ता बताया उनकी इसमें अधिक रुचि नहीं थी। यह एक अविश्वसनीय बात थी। और वह अंतिम व्यक्ति जिसने उसको ठीक—ठीक कुएं तक पहुंचाया, उसको वहां रुक कर सिकंदर की प्रतीक्षा करने में भी रुचि नहीं थी।

सिकंदर ने पूछा. क्या तुम शाश्वत जीवन में उत्सुक नहीं हो? क्या तुम अमर होना नहीं चाहते?

वह व्यक्ति हंसा, वह बोला. मैंने जीवन के बारे में काफी कुछ सीखा है। यह इच्छा बचकाने मनों की उपज है। लेकिन आप इसे पूरा करें।

एक सीढ़ियों वाला रास्ता कुएं की ओर जाता था। वह भीतर गया। वह बस पानी पीने ही जा रहा था कि वहां पर बैठा एक कौआ बोला : ठहरो! एक मिनट सुनो तो। यह मूढ़ता मत करो। मैं इसे कर चुका हूं। अब मैं संताप में हूं क्योंकि मैं मर नहीं सकता। मैं कई हजार वर्ष जी चुका हूं। अब मेरे हृदय में केवल एक ही प्रार्थना है : ईश्वर मरने में मेरी सहायता करो। और अब मैं बुद्धिमान व्यक्तियों को खोजता—फिरता हूं 'क्या कोई ऐसा कुआं है जो इस मूढ़ता के प्रतिकूल कार्य कर सके? मैं एक मूर्ख कौआ हूं इसलिए मैंने यह हरकत कर डाली। कृपा करें, आप दुबारा सोचें, फिर आप कभी मर नहीं सकेंगे।

ऐसा कहा जाता है कि सिकंदर ने इस पर विचार किया और तुरंत ही उस कुएं से भाग खड़ा हुआ, क्योंकि इस बात की पूरी संभावना थी कि वह प्रलोभन में फंस जाता। उसने पानी नहीं पीयों।

जरा सोचो यदि मृत्यु न हो, जीवन से बहुत कुछ खो जाएगा। विपरीत ध्रुवीयता के बिना सब कुछ फीका, निराश हो जाता है। यह तो ऐसा ही है जैसे कि केवल दिन ही हो और विश्राम करने के लिए कोई रात ही न हो—और बस दिन, और बस दिन ही दिन... और झुलसाने वाली गर्मी, और छिपने का कोई स्थान नहीं, अंधेरे में खो जाने की कोई जगह नहीं, कोई ऐसा स्थान नहीं जहां आराम से सोकर स्वयं को भुलाया जा सके। कठिन होगा यह, यह बहुत दुष्कर और बे—मतलब का होगा। विश्राम की आवश्यकता होती है। मृत्यु विश्राम है।

इसलिए यदि तुमने शवों को मरघट या श्मशान घाट ले जाते हुए देखा है, तो तुमने कुछ खास नहीं देखा। और यदि तुमने सोचा कि अब जीवन अर्थहीन है, तब तुम असली बात से चूक गए। किसी शव को देख कर याद करो कि मृत्यु आ रही है। इस अवसर का जितनी सघनता से संभव हो सके जीवंत होने में उपयोग कर लो, फिर वहां विश्राम है। इस विश्राम को अर्जित करो।

और यह उन बातों में से एक है जो मैं तुम्हें बताना चाहूंगा, यदि तुम अच्छी तरह न जी पाए तो तुम अच्छी तरह मर न पाओगे। तुम्हारी मृत्यु भी बस फीकी होगी। इसमें कोई उत्ताप न होगा, इसमें कोई सौंदर्य न होगा। यदि तुम प्रगाढ़ता से जीते हो, तो तुम प्रगाढ़ता से मरते हो। यदि तुम प्रसन्नतापूर्वक जीते हो, तो तुम प्रसन्नतापूर्वक मरते हो। तुम्हारे जीवन का स्वाद तुम्हारी मृत्यु द्वारा शिखर पर पहुंचा दिया जाता है। मृत्यु एक उत्कर्ष है, उत्थान है। यदि तुम एक सुंदर गीत गा रहे थे, तो मृत्यु उसका आरोह, उच्च्तम शिखर है।

मृत्यु जीवन के विरोध में नहीं है। मृत्यु पृष्ठभूमि है। यह जीवन को और समृद्ध बनाती है। यह जीवन को और जीवंत बनाती है। यह जीवन को चुनौती देती है।

'अपने बचपन के उन दिनों से, एक प्रकार की अरुचि ने मेरे जीवन के सारे ढंग—ढांचे को घेर रखा है, और संभवत: यही वह कारण हो सकता है कि क्यों धर्म में मेरी रुचि जागी और मैं आप तक पहुंच सका।

हो सकता है। यह कारण हो सकता है कि तुम क्यों मुझ तक पहुंच सके। लेकिन अब यही कारण होगा कि तुम मुझे समझ पाने में समर्थ न हो पाओगे। यह तुम्हें मेरे द्वार तक ले आया है, किंतु यह तुम्हें मेरे हृदय तक नहीं ला पाएगा।

कृपा करो, अब उसे छोड़ दो, क्योंकि यहां मैं जीवन सिखा रहा हूं। निःसंदेह मैं मृत्यु भी सिखा रहा हूं लेकिन मेरी मृत्यु एक सुंदर सत्य है और तुम्हारा जीवन एक कुरूप तथ्य है। मैं तुमको एक जादुई कीमिया सिखा रहा हूं : मृत्यु को भी किस भांति एक सुंदर अनुभव में रूपांतरित कर लिया जाए। निःसंदेह जब मृत्यु भी सुंदर हो गई है तो जीवन और अधिक सुंदर हो ही जाएगा। सामान्य धातुओं को स्वर्ण में किस भांति बदला जा सके, यही तो मैं यहां सिखा रहा हूं।

हो सकता है कि अपने इन विचारों के कारण तुम यहां आ गए हो, लेकिन अब उन्हें त्याग दो, अन्यथा वे तुम्हारे और मेरे मध्य में अवरोध हो जाएगे।



 प्रश्न:  प्‍यारे ओशो, क्या आप वास्तव में बस एक मनुष्‍य है, जो संबुद्ध गया?



 मामला बस जरा उलटा है; एक ईश्वर जो खो गया था और जिसने स्वयं को पुन: पा लिया, एक परमात्मा जिसने विश्राम किया और गहरी नींद सोया और मनुष्य होने का स्वप्न देखा और अब जागा हुआ है। और यही तुम्हारे बारे में भी सच है। तुम मात्र मनुष्य नहीं हो, तुम सभी परमात्मा हो, तुम केवल स्वप्न देख रहे हो कि तुम मनुष्य हो। यह कोई ऐसा नहीं है कि मनुष्य को परमात्मा हो जाना है, यह तो परमात्मा को ही जरा सा जागना है, तभी मनुष्य होने का स्वप्न खो जाता है।

पूर्वीय ढंग और पश्चिमी ढंग में यही अंतर है। पश्चिम उच्चतम को निम्नतम से समझाने का प्रयास करता है। यदि तुम्हें समाधि लग जाए—उदाहरण के लिए रामकृष्ण समाधिस्थ हो जाते है, असीम में खो जाते हैं—फ्रायड से पूछो, वह कहेगा कि यह दमित कामवासना की एक अभिव्यक्ति है। समाधि को कामवासना द्वारा समझाया जाना है। मुझसे कामवासना के बारे में पूछो, और मैं कहूंगा कि यह समाधि की पहली झलक है।

उच्चतम को निम्नतम तक नहीं गिराया जाना है। निम्नतम को ऊपर उठा कर उच्चतम तक ले जाना है।

मार्क्स से पूछो और वह कहेगा कि चेतना और कुछ नहीं बल्कि पदार्थ का उपउत्पादन है। मुझसे पूछो, मैं कहूंगा पदार्थ और कुछ नहीं बल्कि चेतना का आभास है।

पूरब में हमने कीचड़ को, उस गंदी कीचड़ को कमल द्वारा समझाने का प्रयास किया है। पश्चिम में तुमने कमल को उस गंदी कीचड़ के द्वारा समझाने का प्रयास किया जिससे वह आता है। और इससे महत् अंतर पड़ जाता है। जब तुम कमल को उस गंदी कीचड़ के द्वारा समझाने का प्रयास करते हो जिससे यह आया है, तो कमल खो जाता है, तुम्हारे हाथ में केवल गंदी कीचड़ ही बचती है। सारा सौंदर्य, सारी महत्ता, सारा सत्य खो जाता है, तुम्हारे हाथ में मात्र गंदगी ही रह जाती है। प्रत्येक बात को निम्नतम तक गिराया जा सकता है, क्योंकि उच्चतम और निम्नतम परस्पर संयुक्त हैं। सीढ़ी का ऊपर वाला पायदान सबसे नीचे वाले पायदान से जुड़ा हुआ है। इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं प्रतीत होता है, लेकिन यहां बहुत कुछ अंतर पड़ जाता है, जिसे समझ लेना महत्वपूर्ण है।

यदि तुम गंदी कीचड़ को कमल द्वारा परिभाषित करते हो और तुम कहते हो, जब इस गंदी कीचड़ से कमल का उद्भव हो सकता है, तो यह गंदी कीचड़ भी वास्तव में गंदी नहीं है, वरना इसमें से कमल का जन्म कैसे हो सकता है? कमल इसके भीतर छिपा हुआ है। हम भले ही इसमें कमल को न देख सकें— यह हमारे देख पाने की सीमा हैं—यदि तुम कमल के द्वारा गंदी कीचड़ की व्याख्या करोगे, तो गंदी कीचड़ खो जाती है : तुम्हारे हाथ कमल के फूलों से भर जाते हैं।

अब चुनाव तुम्हारे हाथ में है। पूरब तुम्हें अचानक समृद्ध, श्रेष्ठ, दिव्य बना देता है। पश्चिम तुम्हें अचानक बहुत साधारण, पार्थिव बना देता है, यह तुम्हें घटा कर वस्तुएं बना देता है और मनुष्यों में जो भी शानदार है वह शक, संदेह के घेरे में आ जाता है।

स्मरण रखो, तुम परमात्मा से परमात्मा तक का विकास हो। इनके मध्य में यह संसार है। यही कारण है कि हम इसे स्वप्न कहते हैं। माया, स्वप्न : परमात्मा स्वप्न देखता है कि वह खो गया है। इसका मजा लो, कुछ भी गलत नहीं है इसमें। आज नहीं तो कल तुम जाग जाओगे और तुम हंसोगे; यह एक स्वप्न था।

यदि तुम मनोविश्लेषकों से परमात्मा के बारे में पूछो, वे कहेंगे, यह तुम्हारी कल्पना की कोई बात है। तुम शंकर से पूछो, तुम पूरब के संतों से पूछो, और वे कहेंगे कि तुम परमात्मा की कल्पना हो। आत्यंतिक सुंदर है। तुम परमात्मा की कल्पना में कुछ हो, परमात्मा तुम्हारी कल्पना कर रहा है, तुम्हारा स्वप्न देख रहा है। फ्रायड से पूछो, वह कहेगा, परमात्मा? तुम स्वप्न देख रहे हो, तुम किसी चीज की कल्पना कर रहे हो।

दोनों सत्य हैं। और चुनाव तुम्हारे हाथ में है। यदि तुम सदा के लिए निराशा, संताप, पीड़ा में रहना चाहते हो—तो पाश्चात्य ढंग को चुन लो। यदि तुम बिना किसी शर्त के खिलना और प्रमुदित होना चाहते हो—तो पूर्वीय ढंग चुनो।



 प्रश्न:

ओशो, आप बेहतरीन कातिल है। आपके साथ एक साल गुजरा है, और धीमे—धीमें आपका जहर मेरे मन में काम कर रहा है। जब कभी भी कुरूप और गंदा दिखने का बहाना करता हूं, सभी कुछ तकलीफ देह हो जाता है। लेकिन अब इस बेदह ऊहापोह में दिव्‍यता के अंदर आने के लिए एक छोटा सा दरवाजा कैसे पाऊं?



 सकी चिंता दिव्यता को करने दो। तुम चिंता क्यों करते हो? तुम तो बस स्वयं हो जाओ। वह अपना रास्ता खोज लेगी।

और तुम सही हो, मैं कातिल हूं लगभग एक हत्यारा।

एक अस्पताल में कोई व्यक्ति मर रहा था, और उसने डाक्टर से कहा : 'डाक्टर साहब मुझे बहुत अधिक चिंता लगी रहती है, ऐसा लगता जैसे कि मैं मर रहा हूं।

डाक्टर ने कहा. चिंता मत करो, इसको मुझ पर छोड़ दो।

यही तो मैं तुमसे कहता हूं चिंता मत करो, इसको मुझ पर छोड़ दो। मैं तुमको मार दूंगा। क्योंकि तुम्हें नई स्वतंत्रता, जीवन को एक नई शैली देने का यही एक मात्र उपाय है। मैं तुम्हें सूली देता हूं ताकि तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके।



 प्रश्न:



आप सेक्‍स के बारे में बहुत सी बात रहे हो। जो अच्‍छी बात है, क्‍योंकि एक लंबे समय से इसको अंधेरे में रखा गया था। जो भी हो मैंने व्‍यक्‍तिगत रूप से आपको कभी समलैंगिकता के बारे में बोलते नहीं सुना है। केवल बहुत ही संक्षेप में और वस्‍तुत: आप इसको निम्‍नतम पर रखते रहे है। कृपया क्‍या आप इसके बारे में बात करेंगे, क्‍योंकि यह विकृत कृत्‍य जैसा कि आप इसे कहते है, चाहे जो भी इसका कारण हो, समलैंगिकता संसार में थी और है। क्‍या चंद्र पक्ष का सूर्य पक्ष से संगम नहीं हो सकता, फिर शरीर चाहे जो हो? क्‍या तंत्र केवल विषमलिंगी लोगों के लिए ही है? क्‍या लोगों को अपनी समलैंगिक प्रवृतियों का दमन करना चाहिए?



हली बात, प्रश्नकर्ता ने अपने प्रश्न पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इससे स्पष्ट होता है कि वह भी इसके बारे में अपराध—बोध से ग्रस्त है। वह नहीं चाहता कि उसका नाम जाना जाए। प्रश्न के साथ हस्ताक्षर न करके उसने समलैंगिकता को पहले ही निदिंत कर दिया है।

मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं अनेक बातों के पक्ष में हूं। मैं पुन: कहता हूं मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं अनेक बातों के पक्ष में हूं। मैं कीचड़ के विरोध में नहीं हूं लेकिन मैं कमल के पक्ष में हूं। सेक्स का रूपांतरण किया जाना चाहिए। यदि इसका रूपांतरण न हो, तो तुम अपने अस्तित्व की निम्नतम पायदान पर बने रहोगे। अत: समझने के लिए पहली बात है, मैं सेक्स के बारे में बात करता हूं जिससे कि तुम इसको समझ सको और इसका अतिक्रमण कर सको।

समलैंगिकता तो विषमलैंगिकता से भी निम्नतल पर है। इसमें गलत कुछ भी नहीं है, तुम्हारी सीढ़ी में अभी एक निचली पायदान और है। उसका भी अतिक्रमण किया जाना है। इसलिए पहली बात, सेक्स का अतिक्रमण किया जाना है। याद करने के लिए दूसरी बात, समलैंगिकता और नीचे की पायदान है।

प्रत्येक बच्चा आत्मलिगी जन्म लेता है, हर बच्चा आत्मरति दशा में है। यह एक अवस्था है, बच्चे को उससे पार जाना है। हर बच्चा अपने यौन—अंगों से खेलना पसंद करता है। और यह सुखदायक है इसमें गलत कुछ भी नहीं है, लेकिन यह बचकाना है। यह सेक्स की पहली सीख है, एक पूर्व तैयारी, तैयार हो जाना, तैयारी है। लेकिन यदि तुम पैंतीस, चालीस, साठ वर्ष के हो गए हो और भी आत्मरति दशा में हो, तो कुछ गड़बड़ है।

जब मैं कहता हूं कुछ गड़बड़ है, तो मेरा अभिप्राय मात्र यही है कि तुम विकसित होने में समर्थ नहीं हो सके हो, तुम्हारी मानसिक आयु कम रह गई है।

आत्मरति की अवस्था के बाद, जिसे मैं आत्मलिंगी कहता हूं बालक समलिंगी हो जाता है। दस वर्ष की आयु के आस—पास बालक समलिंगी हो जाता है। वह उन शरीरों में अधिक उत्सुक हो उठता है जो उसके शरीर जैसे हैं। यह एक स्वाभाविक विकास है। पहले वह अपने स्वयं के शरीर में उत्सुक था, अब वह शरीरों में रुचि रखता है जो उसके समान है—लड़का लड़कों में रुचि लेता है, एक लड़की लड़कियों में रुचि लेती है। यह एक स्वाभाविक अवस्था है। लेकिन लड़का स्वयं से दूर जा रहा है, अपनी काम—ऊर्जा को, कामेच्छा को, अन्य लडकों की ओर गतिशील कर रहा है। और यह प्राकृतिक लगता है। क्योंकि अन्य लड़के उसे अन्य लड़कियों की तुलना में अपने समान लगते हैं। लेकिन उसने एक कदम उठा लिया है; वह समलिंगी हो गया है।, ठीक है, कुछ भी गलत नहीं है इसमें, लेकिन यदि साठ वर्ष की आयु में अब भी तुम समलैंगिक हो, तो तुम मंदबुद्धि हो, तुममें लड़कपन है। इसीलिए समलैंगिक लोगों में लड़कपन वाला ढंग कायम रहता है और वे खुश दीखते हैं। यह निश्चित है कि वे विषमलिंगियो से अधिक खुश दिखाई पड़ते हैं। उनके चेहरों में भी लड़कपन की छाप रहती है। अपनी समलैंगिकता को छिपाना बहुत कठिन है तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आंखें, सब कुछ इसे प्रदर्शित करता है। तुम लड़कपन में रुके रहते हो। इससे होकर गुजर जाना शुभ है, लेकिन इससे आसक्त होना गलत है।

फिर तीसरी अवस्था आती है, विषमलैंगिकता। लड़का लडकी में रुचि रखने लगता है, लड़की लड़के में रुचि रखने लगती है। जहां तक सेक्स जा सकता है यह उच्चतम अवस्था है, लेकिन इसकी भी एक सीमा है। यदि तुम बयालीस वर्ष के बाद भी सेक्स में रुचि रखते हो तो किसी बात से चूक रहे हो तुम। फिर तुमने इसको ढंग से नहीं जीया है, वरना जिस समय तुम बयालीस वर्ष के हो...। चौदह वर्ष की आयु में तुम वास्तव में काम संबंध में, बच्चे को जन्माने में, माता या पिता बन पाने में सक्षम हो जाते हो। तुम्हें तैयार करने में चौदह वर्ष लगते हैं। दूसरे चौदह वर्ष बाद अट्ठाइस वर्ष के आस—पास तुम अपनी कामुकता के शिखर पर होते हो। अगले चौदह वर्ष बाद, बयालीस वर्ष की आयु में तुम वापस लौटने लगते हो। वर्तुल पूरा हो गया है। जुग ने कहा है, 'चालीस वर्ष की आयु के बाद जो भी मेरे पास आता है, उसकी समस्या धार्मिक है।यदि बयालीस वर्ष की आयु के बाद भी तुम कामवासना को लेकर परेशान हो और समस्या ग्रस्त हो, तो तुम्हारे जीवन में कही चूक हो गई है।

इसके चौदह वर्ष बाद, छप्पन वर्ष की आयु में व्यक्ति काम से बस मुक्त हो जाता है। और चौदह वर्ष, छप्पन से सत्तर तक पुन: दूसरा बचपन। मृत्यु से पूर्व तुमको उसी बिंदु पर पहुंचना पड़ता है, जैसे कि तुम जन्म के समय थे, वर्तुल पूरा हो गया, बच्चे हो गए तुम। जीसस जब कहते हैं. 'जब तक कि तुम बच्चे जैसे न हो जाओ, तुम मेरे परमात्मा के राज्य में प्रवेश न कर सकोगे।तो उनका यही अभिप्राय है। यह करीब—करीब सत्तर वर्ष का वर्तुल है। यदि तुम अस्सी वर्ष या सौ वर्ष जीते हो तो इसमें अंतर पड़ जाएगा, फिर तुम उस हिसाब से बांट सकते हो।

मैं किसी बात के विरुद्ध नहीं हूं लेकिन मैं तुम्हारी किसी स्थान से चिपक जाने में सहायता भी नहीं करूंगा। चलते रहो, चलते रहो, किसी स्थान से आसक्त मत हो जाओ। अवसर का उपयोग कर लो, लेकिन रुको मत।

कुछ कहानियां:

एक परेशान दीख रहे व्यक्ति ने लड़खड़ाते हुए एक मनोचिकित्सक के कक्ष में प्रवेश किया और बोला डाक्टर. साहब आपको मेरी सहायता करनी होगी। प्रत्येक रात्रि मुझे स्वप्न आता है कि एक वीरान टापू पर मैं एक दर्जन सुनहरे, एक दर्जन काले और एक दर्जन लाल बालों वाली सुंदरियों, जिनमें प्रत्येक एक से बढ़ कर एक सुंदर हैं, के साथ रह रहा हूं।

तुम तो संसार के सर्वाधिक भाग्यशाली व्यक्ति हो, डाक्टर ने कहा, अब मेरी मदद तुम्हें किसलिए चाहिए?

मेरी समस्या, रोगी ने कहा, यह है कि स्वप्न में मैं पुरुष होता हूं।

इसे सेक्स गए तुम? वरना मैं एक चुटकुला और सुनाता हूं।

सेना के दो अवकाश प्राप्त कर्नल अपने क्लब में बैठे हुए बातें कर रहे थे।

क्या तुमने के कार्सटेयर्स के बारे में कुछ सुना है? पहले ने पूछा।

नहीं तो, क्या हुआ उसे? दूसरे ने पूछा।

उसको भारत में एक महाराजा के सैन्य सलाहकार के रूप में नौकरी मिल गई। एक दिन वह जंगल में भाग गया और वहीं का निवासी हो गया। अब वह एक वृक्ष पर बंदर के साथ रहता है।

अरे भगवान। दूसरा कर्नल आश्चर्य से बोला, यह बंदर है या बंदरिया?

निःसंदेह बंदरिया ही है। के कार्सटेयर्स के शौक विचित्र हैं।

समलैंगिकता मंदमति अवस्था है, लेकिन पश्चिम में यह और— और अधिक प्रभावी होती जा रही है। इसके कारण हैं, मैं तुम्हें उनमें से कुछ बताना चाहूंगा।

अपनी जंगली दशा में कोई पशु कभी समलैंगिक नहीं होता, लेकिन चिड़ियाघर में वे समलैंगिक हो जाते हैं। अपनी जंगली दशाओं में पशु कभी भी समलिंगी नहीं होते, लेकिन चिड़ियाघरों में जहां वे स्वतंत्र नहीं हैं, और उनके पास आवश्यक स्थान नहीं है, और वहां बहुत अधिक भीड़ में जीते हुए वे समलिंगी बन जाते हैं। यह संसार बहुत भीड़ भरा हुआ जा रहा है, यह चिड़ियाघर जैसा अधिक लगता है, सारे नैसर्गिक विकास खो रहे हैं और लोग अत्याधिक तनावग्रस्त होते जा रहे हैं। समलैंगिकता के बढ़ते जाने का एक कारण यह है।

दूसरी बात, पश्चिम में सेक्स को प्रतिबद्धता की तुलना में मजे के रूप में अधिक सोचा जाता है। व्यक्ति अस्थायी संबंध रखना चाहता है। किसी स्त्री के साथ संबद्ध हो जाना मुसीबत में फंस जाना है। एक स्त्री के साथ जीते रहने का अभिप्राय है गहरी संलग्नता—बच्चे, परिवार, नौकरी, मकान, कार और हजारों चीजें साथ में चली आती है। एक बार स्त्री आ जाए, सारा संसार उसके पीछे चला आता है। पाश्चात्य मन संलग्न होने से और— और भयभीत होता जा रहा है, लोग असंलग्न रहना पसंद करते हैं। समलैंगिक संबंधों में असंलग्न रह पाना विषमलिंगी संबंधों की तुलना में अधिक सरल है। कोई बच्चे नहीं, और तुरंत ही प्रतिबद्धता लगभग नहीं के बराबर हो जाती है।

तीसरा कारण. पश्चिम में नारी मुक्ति आंदोलन, कि पुरुषों ने अब तक स्त्रियों का दमन किया है, के कारण स्त्रियां समलैंगिक, लेसबियन होती जा रही हैं। और पुरुष ने सताया है, यह अब तक की बड़ी से बड़ी दासता रही है। स्त्रियों के समान कोई वर्ग जुल्म का इस कदर शिकार नहीं हुआ है। अब उसकी प्रतिक्रिया, बगावत हो रही है। पश्चिमी महिलाओं के संगठन हैं जो लेसबियनवाद, समलैंगिकता को प्रोत्साहित करते हैं—पुरुषों के साथ के सारे संबंधों से बाहर निकल आना है। शत्रु को प्रेम करना भूल जाओ। पुरुष शत्रु हैं; पुरुष से हर प्रकार के संबंधों से हट जाना है। स्त्री को प्रेम करना बेहतर है, स्त्री स्त्री से प्रेम करती है।

स्त्रियां और—और आक्रामक होती जा रही हैं। पुरुष उनसे संबंध रखने से और—और भयभीत होता जा रहा है।

ये परिस्थितियां समलैंगिकता को उत्पन्न कर रही हैं, लेकिन यह एक विकृति है। यदि तुम इसमें हो, मैं तुम्हारी निंदा नहीं करता, मैं केवल यह कहता हूं कि अपनी अनुभूतियों में गहरे उतरो, और अधिक ध्यान करो, और धीरे— धीरे तुम देखोगे कि तुम्हारी समलैंगिकता विषमलैंगिकता में परिवर्तित हो रही है। यदि तुम आत्मरति अवस्था में हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम समलिंगी हो जाओ, बेहतर है यह। यदि तुम समलैंगिक हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम विषमलिंगी हो जाओ, यह बेहतर है। यदि तुम पहले से ही विषमलिंगी हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम ब्रह्मचारी हो जाओ, यह बेहतर है। लेकिन आगे बढ़ते रहो।

मैं किसी बात की निंदा नहीं करता हूं।

प्रश्नकर्ता कहता है. '…..समलैंगिकता संसार में थी और है।

ठीक है यह बात। ट्यूबरक्लोसिस भी थी और अब भी है, कैंसर भी, लेकिन यह तो इसके लिए कोई तर्क न हुआ। वास्तविक रूप से बेहतर संसार और—और विषमलिंगी हो जाएगा। क्यों? क्योंकि स्त्री और पुरुष या यिन और यांग जब मिलते हैं वर्तुल पूर्ण हो जाता है, जैसे कि ऋणात्मक विद्युत और धनात्मक विद्युत मिलती है और वर्तुल पूर्ण हो जाता है। जब पुरुष पुरुष से मिलता है, यह ऋणात्मक विद्युत का ऋणात्मक विद्युत से मिलना है या धनात्मक विद्युत का धनात्मक विद्युत से मिलना है, इससे आंतरिक ऊर्जा का वर्तुल निर्मित नहीं होगा। यह तुमको अधूरा छोड़ देगा। यह कभी तृप्तिदायी नहीं होगा। समझ लो, यह सुविधापूर्ण हो सकता है। यह सुविधापूर्ण हो सकता है किंतु यह कभी तृप्तिदायी नहीं हो सकता है। और सुविधा नहीं, तृप्ति लक्ष्य है।

याद रखो कि यदि अपने अंतस में तुमको एक दिन कामवासना के पार जाने की चाह है, कि ब्रह्मचर्य को उदित होना है, कि शुद्धतम कामरहितता उपजनी है, तो स्वाभाविक ढंग से चलना श्रेष्ठ है। मेरी समझ यही है कि विषमलिंगी के लिए समलिंगी की तुलना में कामवासना के पार जाना सरलतर है। क्योंकि एक पायदान कम है, तो समलिंगी के लिए यहां अधिक श्रम और अनावश्यक प्रयास की आवश्यकता होगी।

लेकिन फिर भी मैं किसी बात के विरोध में नहीं हूं। यदि तुम्हें अच्छा लगता है तो इसका निर्णय तुम्हीं को करना पड़ता है। मैं इसे कोई पाप नहीं कहता, और मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि यदि तुम समलैंगिक हो तो तुमको नरक में फेंक दिया जाएगा। मूढ़तापूर्ण है यह सब। यदि तुम समलिंगी हो तो तुम किसी बात से—वह जब यिन—यांग का मिलन होती है, वह अनुभव जब धनात्मक से ऋणात्मक मिलता है, रात—दिन मिलते हैं, से चूक जाओगे। तुम किसी बात को खो, दोगे। ऐसा नहीं है कि तुमको नरक में फेंक दिया जाएगा, लेकिन तुम अपने जीवन से कुछ ऐसा खो दोगे जो स्वर्ग का है।

लेकिन फिर भी निर्णय तुमको ही करना पड़ेगा। मैं तुम्हें कोई धर्माज्ञा नहीं दे रहा हूं।

असली बात तो यह है कि धार्मिक आशाओं ने वह परिस्थिति निर्मित की है, जिसमें पहली बार समलैंगिकता का जन्म हुआ था। यह जानकर तुमको आश्चर्य होगा कि संसार में समलैंगिकता का कारण धर्म रहे हैं, क्योंकि उन्होंने जोर दिया कि पुरुष साधुओं को एक मोनेस्ट्री में रहना पडेगा, स्त्री साध्वियों को एक दूसरी मोनेस्ट्री में रहना होगा और वे परस्पर मिल नहीं सकते। बौद्धों, जैनों, ईसाइयों, सभी ने हजारों पुरुषों को एक झुंड में और हजारों स्त्रियों को एक दूसरे झुंड में रहने के लिए बाध्य कर दिया था, और उन दोनों के बीच के सारे सेतु तोड़ दिए थे। वे समलैंगिकता के लिए पहली उपजाऊ भूमि थे। उन्हीं ने यह परिस्थिति निर्मित की थी, क्योंकि काम एक ऐसी गहरी इच्छा है कि यदि तुम इसके प्राकृतिक निकास द्वार को रोक दो तो यह विकृत हो जाता है। किसी भी प्रकार से अपने को अभिव्यक्त करने का ढंग और उपाय खोज लेता है।

सेना में लोग आसानी से समलैंगिक हो जाते हैं। लड़कों के छात्रावासों में और लड़कियों के छात्रावासों में लोग सरलता से समलिंगी बन जाते हैं। यदि संसार से समलैंगिकता को मिटाना हो तो पुरुष और स्त्री के बीच के सभी अवरोध समाप्त करने होंगे। छात्रावासों को दोनों, लड़कों और लड़कियों के लिए एक साथ होना चाहिए। और सेना को केवल पुरुषों की नहीं होना चाहिए, इसमें स्त्रियों को भी भर्ती करना चाहिए। और क्लब केवल लड़कों के नहीं होना चाहिए। यह खतरनाक है। और मोनेस्ट्रियों को उभयलिंगी होना चाहिए, वरना समलैंगिकता प्राकृतिक है।

लेकिन यह विकृति है, एक रोग है। जब मैं कहता हूं रोग तो मैं इसकी निंदा नहीं कर रहा हूं मैं इसे करुणावश रोग कह रहा हूं। जब कोई ट्धूबरक्लोसिस से पीड़ित हो, तो हम उसकी निंदा नहीं करते। हम उसकी इससे मुक्त हो पाने में सहायता करते हैं। इसलिए जब लोग मेरे पास आते हैं और स्वीकारते हैं कि वे समलैंगिक हैं, तो मैं कहता हू चिंता मत करो, मैं यहां हूं न, मैं तुमको इससे बाहर ले आऊंगा।

यदि तुम सजग नहीं हो, यदि तुम इसका रूपांतरण नहीं कर रहे हो, तो कामवासना जीवन के परम अंत तक महत्वपूर्ण रहती है। और कामयुक्त रहते हुए मर जाना एक कुरूप मृत्यु है। व्यक्ति को उस बिंदु तक आ चूकना चाहिए जहां कामवासना बहुत पीछे छूट चुकी हो।

थल एवं जल सैन्य क्लब के तीन बहुत पुराने सदस्य ब्रांडी और सिगार की चुस्कियों के बीच घबड़ा देने वाले क्षणों के बारे में चर्चा कर रहे थे।

पहले दो ने अपने जीवन की घटनाओं को दूर अतीत की स्मृतियों में जाकर शर्माते हुए बयान किया और जब तीसरे सज्जन की बारी आई तो उसने बताया कि वह किस प्रकार नौकरानी के शयनकक्ष में की— होल से झांकता हुआ रंगे हाथ पकड़ा गया। अरे हां, उनमें से एक ने मुस्कुरा कर कहा. निश्चित रूप से अपने बचपन के दिनों हम कितने शरारती थे।

बचपन के दिन! नहीं भाई, तीसरे बुजुर्ग ने कहा, यह तो कल रात की बात है।

किंतु कुरूप है यह। वृद्ध व्यक्ति को पुन: छोटे बच्चे के जैसा हो जाना चाहिए। क्योंकि जb कामवासना खोती है, सारी इच्छाएं तिरोहित हो जाती हैं। जब काम मिट जाता है, दूसरों में रुचि समाप्त हो जाती है। समाज से, संसार से, पदार्थ से संपर्क ही कामवासना है। जब कामवासना मिट जाती है, अचानक तुम श्वेत मेघ की भांति पवन विहार करने लगते हो। तुम जड़ों से छूट चुके हो, अब तुम्हारी जड़ें इस संसार में नहीं रहीं।

और जब तुम्हारी ऊर्जा नीचे की ओर निम्नाभिमुख, अधोमुखी नहीं है, तभी यह ऊर्ध्वगामी होने लगती है और सहस्रार पर पहुंच जाती है, जहां कि परम कमल ऊर्जा की प्रतीक्षा कर रहा है कि वह आए और खिलने में इसकी सहायता करे।


आज इतना ही।

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