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शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)-प्रवचन-01

जो घर बारे आपना-(साधना-शिविर)--ओशो
प्रवचन-पहला–(जीवन के रहस्य की कुंजी)


मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन एक रहस्य है। जिसे हम जीवन जानते हैं, जैसा जानते हैं, वैसा ही सब कुछ नहीं है। बहुत कुछ है जो अनजाना ही रह जाता है। शायद सब कुछ ही अनजाना रह जाता है। जो हम जान पाते हैं वह ऐसा ही है जैसे कोई लहरों को देख कर समझ ले कि सागर को जान लिया। लहरें भी सागर की हैं, लेकिन लहरों को देख कर सागर को नहीं समझा जा सकता। और जो लहरों में उलझ जाएगा वह सागर तक पहुंचने का शायद मार्ग भी न खोज सके। असल में जिसने लहरों को ही सागर समझ लिया, उसके लिए सागर की खोज का सवाल भी नहीं उठता।

जो दिखाई पड़ता है हमें वह जीवन के सागर पर लहरों से ज्यादा नहीं है। जो नहीं दिखाई पड़ता है वही सागर है। जो नहीं दिखाई पड़ता है वही वस्तुतः जीवन है। जो दृश्य है वह सब कुछ नहीं है, सब कुछ का अत्यंत छोटा सा अंश है। जो अदृश्य है वही सब कुछ है। लेकिन हम सब दृश्य पर ही अटक जाते हैं और अदृश्य तक नहीं पहुंच पाते हैं। जो ज्ञात है वह अणु भी नहीं है और जो अज्ञात है वह विराट है। लेकिन हम सब अणु को ही विराट समझ लेते हैं और जीवन की जो यात्रा विराट तक पहुंच सकती थी, वह अणु के इर्द-गिर्द ही घूम-घूम कर नष्ट हो जाती है।
जीवन रहस्य है, जब मैं ऐसा कहता हूं, तो मेरा मतलब है कि जितना ही हम जानेंगे उतना ही जानने को सदा और भी मुक्त और खुला हो जाएगा। जितना हम जान लेंगे उतने जानने से जीवन समाप्त नहीं होगा, बल्कि जितना हम जानेंगे उतना ही हमारे ज्ञान का अहंकार समाप्त हो जाता है। जो जितना ही जान लेता है उतना ही बड़ा अज्ञानी हो जाता है। इस जगत में अज्ञानियों के सिवाय ज्ञानी होने का भ्रम और किसी को भी नहीं होता। ज्ञानी को तो दिखाई पड़ने लगता है कि सब कुछ अज्ञात है, और मुझसे बड़ा अज्ञानी कौन! जितना ही हम जानते हैं उतना ही जान नहीं पाते, बल्कि जानने वाला ही धीरे-धीरे खो जाता है। जितना ही हम खोजते हैं, खोज पूरी नहीं होती, खोजने वाला ही समाप्त हो जाता है।
इसलिए कहता हूं: जीवन रहस्य है, मिस्ट्री है। जीवन पहेली नहीं है। पहेली और रहस्य में कुछ फर्क है। पहेली हम उसे कहते हैं जो हल हो सके। रहस्य उसे कहते हैं कि जितना हम हल करेंगे उतना ही हल होना मुश्किल होता जाएगा। पहेली उसे कहते हैं कि जिसकी सुलझ जाने की पूरी संभावना है। क्योंकि पहेली को जान-बूझ कर उलझाया गया है। उलझन बनाई हुई है, निर्मित है। जीवन पहेली नहीं है। उसकी उलझन बनाई हुई नहीं है, निर्मित नहीं है। किसी ने उसे उलझाया नहीं है। सिर्फ सुलझाने वाले ही उलझन में पड़ जाते हैं।
जीवन रहस्य है, उसका मतलब यह है कि सुलझाने की कोशिश की तो उलझ जाएगा। और अगर सहज स्वीकार कर लिया तो सब सुलझा हुआ है।
जीवन रहस्य है, उसका अर्थ यह है कि हम कहीं से भी यात्रा करें और कहीं की भी यात्रा करें, अंततः जहां हम पहुंचेंगे वह वही जगह होगी जहां से हमने शुरू किया था। जीवन रहस्य है का अर्थ यह है कि जो प्रारंभ का बिंदु है वही अंत का बिंदु भी है; और जो साधन है वही साध्य भी है; और जो खोज रहा है वही खोजा जाने वाला भी है।
इस रहस्य, इस जीवन की निश्चित ही कुंजी भी है, "सीक्रेट की' भी है। उस कुंजी को समझने, खोजने के लिए हम यहां उपस्थित हुए हैं।
पहली बात: जो व्यक्ति विचार से खोजने जाएगा जीवन को, वह उलझा लेगा। विचार कुंजी नहीं है, कुंजी का धोखा है। कितना ही हम विचार करें, जितना हम विचार करेंगे उतना हम जीवन से दूर चले जाते हैं। जितना हम विचार करते हैं उतना ही सत्य से हमारा फासला बढ़ता चला जाता है। उन्हीं क्षणों में हम सत्य के निकट होते हैं जब हम विचार से बाहर होते हैं। जो विचार करेगा वह भटक जाएगा।
इसलिए इन चार दिनों में मैं आपको विचार करने को नहीं कहूंगा। इन चार दिनों में हम अनुभव करने की कोशिश करेंगे। थिंकिंग नहीं, विचार नहीं, एक्सपीरिएंस की, अनुभव की, अनुभूति की कोशिश करेंगे।
अनुभूति ही कुंजी है। वे जो इस रहस्य को जानना चाहते हैं, खोलना चाहते हैं, उघाड़ना चाहते हैं, उनके लिए अनुभूति के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। लेकिन अत्यधिक अनुभूति की जगह हम विचार में उलझ जाते हैं। हम सोचने लगते हैं कि सत्य क्या है। हम सोचने लगते हैं कि जीवन क्या है। हम सोचने लगते हैं कि मृत्यु क्या है। हम सोचने लगते हैं...और जितना हम सोचते हैं उतना ही हम सिद्धांतों को तो पा लेते हैं, लेकिन सत्य को पाने से वंचित रह जाते हैं। सब सोचना अंततः सिद्धांत दे सकता है--मृत, मरे हुए। सब सोचना शास्त्र दे सकता है--मृत, मरे हुए। सब सोचना पहेलियां दे सकता है--खुद की बनाई हुई, खुद की सुलझाई हुई। लेकिन सोचने से कोई सत्य तक न कभी पहुंचा है, न कभी पहुंच सकता है।
तो पहली बात तो आज की रात जो आपसे कहना चाहता हूं वह यह: साफ ठीक से समझ लें कि हम यहां कुछ सोच-विचार के लिए इकट्ठे नहीं हुए, यहां हम किसी अनुभव के लिए इकट्ठे हुए हैं। हम कुछ सोचना नहीं चाहते, हम कुछ जानना चाहते हैं। हम भोजन के संबंध में विचार नहीं करेंगे, हम स्वाद लेना चाहते हैं। हम तैरने के संबंध में शास्त्र नहीं पढ़ेंगे, हम तैरना ही चाहते हैं। हम फूलों के सौंदर्य के संबंध में सिद्धांतों में नहीं जाएंगे, हम तो सीधा फूल को ही अपनी नाक पर रख लेना चाहते हैं। नहीं, हम प्रेम के संबंध में किसी विचारणा में उलझने की आकांक्षा नहीं रखते, हम तो प्रेम में डूब जाना चाहते हैं।
अनुभव का अर्थ है: हम उतरना चाहते हैं, डूबना चाहते हैं, खोना चाहते हैं। सोचने का...नहीं, सोचने का कोई सवाल नहीं है। जो भी सोचता है वह किनारे पर बैठा रह जाता है। और किनारे पर बैठ कर कोई कितना ही सोचे जन्मों-जन्मों तक, तब भी कहीं नहीं पहुंच पाता, बस किनारे पर ही बैठा रहता है। ऐसा नहीं है कि कोई और किनारे पर बैठा होगा, हम भी जन्मों से सोचने के किनारे पर बैठे हैं। ऐसा तो कोई भी नहीं है जो पहली बार जिंदगी के किनारे पर बैठा हो। हम बहुत बार जिंदगी के किनारे पर बैठे हैं। उस सबका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है, गणना करनी मुश्किल है कि हम जीवन के तट पर कितनी बार बैठ चुके हैं। अनंत है वह यात्रा। अंतहीन है वह कथा। लेकिन बार-बार हम सोचते ही रहे हैं। और बार-बार हम सोच-सोच कर मरते रहे हैं। जान नहीं पाए हैं उसे जो सदा निकट था। सोचने वाला कभी भी नहीं जान पाता। सोचने वाला, जो निकट है, उससे भी दूर चला जाता है।
आप मेरे पास में बैठे हों और मैं आपके संबंध में सोचने लगूं, तो मेरे और आपके बीच हजारों मील का फासला हो जाता है। फूल पास में खिला हो और मैं फूल के संबंध में सोचने लगूं, तो मैं फूल से दूर निकल जाता हूं। सोचना दूरी है, अनुभव निकटता है।
जीवन के रहस्य की पहली कुंजी अनुभूति पर जोर देती है।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं आपसे कहूं कि विचार मत करना अर्थात विश्वास करना। नहीं, विश्वास करने को भी मैं आपसे नहीं कहता। ऐसे दिखाई पड़ता है कि विश्वास शायद विचार का विरोधी है, है नहीं। जो थोड़ा कम विचार करते हैं वे विश्वास कर लेते हैं। विश्वास भी विचार की ही बहुत मद्धिम, धीमी सी मात्रा है। जो थोड़ा ही सोचते हैं वे विश्वास कर लेते हैं, जो ज्यादा सोचते हैं वे अविश्वास पर पहुंच जाते हैं। विश्वास भी विचार ही है--थका हुआ, हारा हुआ। विश्वास भी अनुभव नहीं है। न विचार अनुभव है, न विश्वास अनुभव है। अनुभव दोनों से नहीं मिलता। अनुभव मिलता है प्रयोग से, एक्सपेरिमेंट से। कोई वैज्ञानिक विचार नहीं कर रहा है और न कोई वैज्ञानिक विश्वास कर रहा है, अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग कर रहा है।
आपको मैं किस प्रयोगशाला में ले जाऊं? जीवन के लिए कोई प्रयोगशाला नहीं है। आप ही प्रयोगशाला हैं। आपको मैं आपके भीतर ही ले जाना चाहूंगा। जीवन की तलाश के लिए कहीं किसी और लेबोरेटरी में, किसी प्रयोगशाला में, किसी कांच की परखनली में जांचने की जरूरत नहीं है। आप ही अपने भीतर जीवन के पूरे जागते हुए रूप हैं। अगर भीतर जा सकें तो जीवन की प्रयोगशाला में आप प्रवेश कर जाते हैं। यह न तो विश्वास से होगा, न यह विचार से होगा। यह भीतर प्रवेश संकल्प से होता है।
इसलिए इस कुंजी का दूसरा सूत्र है: संकल्प, विल। कितना तीव्र संकल्प है भीतर प्रवेश का, उतनी ही तीव्रता से भीतर प्रवेश हो जाता है।

एक मित्र ने मुझे अभी एक छोटी सी घटना लिख कर भेजी।
कैनेडा में एक अभिनेता हुआ--चार्ल्स कार्लगन। मरने के दस साल पहले उसने वसीयत की और कहा कि जब मैं मर जाऊं तो मेरी कब्र मेरे गांव में ही बनाई जाए। उसका गांव कैनेडा के पास प्रिंस-द्वीप में एक छोटे से द्वीप पर है। मैं अपने ही गांव में दफनाया जाऊं।
लेकिन जब उसने वसीयत की थी तब उसके पास रुपये भी थे, इज्जत भी थी। अभिनेता की इज्जत और रुपये का कोई भरोसा नहीं। ऐसे तो किसी की इज्जत का और रुपये का कोई भरोसा नहीं। फिर अभिनेता की इज्जत और रुपया! जब वह मरा तब वह बिलकुल भिखमंगा था। लोग उसे भूल चुके थे। फारगॉटन फेसेस में, भूले हुए चेहरों में उसकी गिनती हो गई थी। और मरा भी तो अपने गांव से दो हजार मील दूर मरा। मरा वह टेक्सास में। कौन फिकर करे उसकी वसीयत की! कौन उसे पहुंचाए! उसके पास कफन के पैसे भी नहीं थे। वे भी गांव के लोगों ने भरे थे। उसे दो हजार मील की यात्रा कौन कराए! गांव के लोगों ने उसे दफना दिया।
मरते वक्त आखिरी क्षण भी उसके ओंठ पर एक ही बात थी, आखिरी बात भी उसने यही कही कि कुछ भी करके मुझे मेरे गांव भेज देना और जिस दरख्त के नीचे मैं पैदा हुआ था उसी दरख्त के नीचे मुझे दफना देना। लेकिन कैसे उसे पहुंचाया जाए? मर गया, तो लोगों ने उसे दफना दिया वहीं दो हजार मील दूर।
उस रात एक बहुत हैरानी की घटना घटी। उस रात अचानक तूफान आ गया। ऐसा तूफान जैसा कि कोई संभावना ही न थी। वृक्ष उखड़ गए, मकान गिर गए। जिस वृक्ष के नीचे उसे दफनाया था, वह वृक्ष उखड़ गया जड़ों सहित और उसकी लाश भी उखड़ गई। एक लकड़ी के ताबूत में उसे गड़ाया गया था, वह ताबूत सहित लाश बाहर आ गई। समुद्र वहां से दो मील दूर था, तूफान धक्के दे-दे कर उसकी लाश को, उसके ताबूत को सागर तक पहुंचा दिया। और दो हजार मील उस मुर्दे ने यात्रा की और प्रिंस-द्वीप के किनारे जाकर लग गया जहां वह पैदा हुआ था। जब लोगों ने उस ताबूत को खोला, तो सारा शरीर गल गया था, सिर्फ चेहरा बिलकुल साबुत बच गया था। वे पहचान गए कि वह तो चार्ल्स कार्लगन है, उनके गांव का पैदा हुआ अभिनेता। उन्होंने उसे उसी वृक्ष के नीचे दफना दिया जहां वह पैदा हुआ था।
मुझे किसी ने यह खबर भेजी और मुझसे पूछा कि क्या कहते हैं आप? क्या इस आदमी का मरने के पहले का संकल्प इतना प्रभावशाली हो सकता है? यह केवल संयोग है या कि इसके संकल्प का परिणाम है?
इतना प्रभावशाली संकल्प हो सकता है। जिंदगी भर हम संकल्प से ही जीते और मरते हैं। कमजोर होता है तो कमजोर जिंदगी होती है। प्रबल होता है तो प्रबल जिंदगी हो जाती है। आदमी के हाथ में एक ही ताकत है: वह उसके विल फोर्स की है, उसके संकल्प की है।
नहीं, न तो विश्वास से कोई भीतर की यात्रा पर जाता है, न कोई विचार से भीतर की यात्रा पर जाता है। न थिंकिंग से, न बिलीफ से। जाता है विल से, संकल्प से।
संकल्प को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है। संकल्प का मतलब है कि जो भी मैं निर्णय ले रहा हूं, वह पूरा है। वह निर्णय अधूरा नहीं है। यदि मैं शांत होना चाहता हूं, तो यह मेरा निर्णय पूरा है, यह अधूरा नहीं है। ऐसा न हो कि मेरा आधा मन कहता हो कि शांत हो जाऊं और आधा मन कहता हो कि क्या करोगे शांत होकर। तो आपका आधा मन अपने बाकी आधे मन को काट देगा। आपका श्रम व्यर्थ हो जाएगा। यह ऐसे ही होगा जैसे कोई आदमी दीवाल पर एक ईंट चढ़ाए और दूसरे हाथ से ईंट एक उतार ले और मकान कभी न बने। हम करीब-करीब जिंदगी में ऐसे ही जीते हैं। हम सब संकल्प करते हैं, लेकिन इधर करते हैं और इधर से खींच लेते हैं।
सांझ एक आदमी कहता है: सुबह पांच बचे उठना है। और जब वह कहता है तब भी अगर थोड़ा भीतर झांके तो उसे पता है कि वह उठेगा नहीं। वह भी उसे मालूम है। वह पक्का करता है कि पांच बजे तो उठना ही है! और तब भी वह अगर थोड़ा गौर करे तो पता चलेगा: इस पांच बजे उठने के भीतर वह आवाज मौजूद है जो कह रही है कि कहां उठोगे! कैसे उठोगे! रात बहुत सर्द है! लेकिन अभी इस आवाज को वह झुठला देता है, सो जाता है। सुबह पांच बजे जब घड़ी का अलार्म बजता है तब वह दूसरी आवाज, जो सांझ भी मौजूद थी, वह कहती है: कहां इतनी सर्दी, फिर कभी सोचना, फिर कल उठना। वह फिर सो जाता है। सुबह पछताता है। जब पांच बजे रात वह करवट बदल कर सोता है तब भी भीतर एक आवाज होती है कि तुम यह क्या कर रहे हो? सांझ निर्णय किया था, सुबह पछताना पड़ेगा! लेकिन उसको सुनता नहीं। सुबह उठता है और पछताता है कि मैंने निर्णय लिया था और यह क्या हो गया? मैं उठा क्यों नहीं?
अपना ही संकल्प आधा अपने ही आधे संकल्प से कट जाता है।
मनुष्य की जिंदगी का बड़े से बड़ा दुख यही है कि उसका मन खुद ही खंडों में बंटा है और एक-दूसरे को काट देता है।
यह जो इन आने वाले दिनों में हम एक अंतर्यात्रा पर, जीवन की खोज पर, रहस्य के अनुभव के लिए जाने की तैयारी में आए हैं, ध्यान रखना है कि संकल्प पूरा हो, पूरे मन से तैयारी हो, पूरा मन राजी हो, तो दुनिया में कोई रोक नहीं सकता। इस दुनिया में एक ही शक्ति है जो कार्यकारी है, वह हमारे संकल्प की शक्ति है। लेकिन अगर वही हमारे पास नहीं है, तो हम बिलकुल निर्जीव हैं, जीते जी मरे हुए आदमी हैं।
तो दूसरी बात आपसे कहना चाहता हूं...पहली बात कि विचार करने हम यहां इकट्ठे नहीं हुए हैं। इसलिए इन तीनों दिनों के लिए विचार की फिकर छोड़ देना। हम यहां विश्वास करने इकट्ठे नहीं हुए हैं। इसलिए आप हिंदू हैं कि मुसलमान हैं कि जैन हैं कि ईसाई हैं, फिकर छोड़ देना। आपके विश्वासों से यहां कोई प्रयोजन नहीं है। आपके विचारों से कोई मतलब नहीं है। आपके संकल्प भर से अर्थ है। अपने भीतर टटोल लेना कि मैं जो भी निर्णय करूं वह पूरा है?
ध्यान रहे, छोटे-छोटे निर्णय से परीक्षा हो जाती है। इसलिए मैंने सोचा है कि कुछ लोग, जो समझते हों कि वे तीन दिन मौन रख सकते हैं, वे मौन ही रखें। वह तीन दिन का मौन उनके संकल्प के लिए बड़ा आधार बन जाएगा। वे तीन दिन शब्द का उपयोग ही न करें। थोड़ी अड़चन होगी, बहुत ज्यादा अड़चन नहीं होगी। और एक दिन में आप अनुभव करेंगे कि ज्यादा बोलने की जरूरत ही नहीं थी, हम फिजूल ज्यादा बोल रहे थे। जरूरत पड़े तो थोड़ा कागज पर लिख कर कुछ कह देना। अन्यथा तीन दिन अधिकतम लोग मौन रह सकें, तो गहरे परिणाम होंगे। छोटा सा संकल्प उनके लिए बड़ा उपयोगी हो जाएगा। जो लोग तीन दिन तक चुप रह सकते हैं, बहुत छोटी सी बात है, लेकिन बात बड़ी है। क्योंकि चुप रहने का निर्णय अगर निभाया जा सके, तो आपके भीतर संकल्प की पृष्ठभूमि को निर्माण कर जाएगा। और हम जो और प्रयोग करने जा रहे हैं उनमें वह सहयोगी हो जाएगा।

एक मित्र ने मुझे आकर आज्ञा मांगी है कि वे तीन दिन न तो बोलेंगे, शब्द का त्याग रखेंगे; न भोजन लेंगे, भोजन का त्याग रखेंगे; और न वस्त्र पहनेंगे, वस्त्र का त्याग रखेंगे।
मैं मानता हूं, उन्हें बहुत परिणाम हो सकेंगे।

आप भी इन दिनों के लिए अपना ही कोई संकल्प खोज लेंगे, तो भी चलेगा। मौन तो बहुत अच्छा है, सरलतम है। कोई तीन दिन उपवास रखना चाहे, तो तीन दिन उपवास रख ले। कोई तीन दिन एक बार ही खाना खाना चाहे, तो एक बार ही खाना खा ले। कोई आधा खाना खाना चाहे, तो आधा खाना खा ले। लेकिन जो भी संकल्प करे उसे तीन दिन पूरा करे। उसे फिर तीन दिन के बीच में बदलना नहीं है। कोई वस्त्र छोड़ कर रहना चाहे, तो तीन दिन के लिए वस्त्र छोड़ दे। कोई कम वस्त्र करना चाहे, तो कम वस्त्र कर ले। जो भी जिसको ठीक लगे, तीन दिन के लिए दो-चार संकल्प अपने आस-पास खड़े कर ले और उनमें जीने की कोशिश करे। तीन दिन उनको तोड़ना ही नहीं, चाहे खुद टूट जाएं, पर वे संकल्प नहीं तोड़ने हैं।
साधना संकल्प के विस्तार का नाम है। हम कैसे उसे अपने चारों तरफ फैला लें? और हमारा व्यक्तित्व संकल्प से कैसे चारों तरफ से आपूरित हो जाए? तो ऐसे छोटे-छोटे निर्णय कर लेने के लिए आपसे कहता हूं, सभी से। जो जिसके खयाल में आ जाए। ऐसे मैंने उदाहरण के लिए सुझाया। जो जिसे खयाल में आ जाए वह इन तीन दिनों के लिए दो-चार संकल्प अपने मन में ले ले। किसी को कहने की जरूरत नहीं, क्योंकि किसी से कोई मतलब नहीं है। और बाकी लोगों से मैं यह कहता हूं कि इन तीन दिनों में कोई भी आदमी कुछ भी करता हुआ मालूम पड़े, आप उस पर न सोच-विचार करना, न आप उसकी तरफ देखना, न आप उसकी चिंता लेना और कृपा करके बाधा तो देना ही मत। क्योंकि पता नहीं उसने क्या संकल्प लिया है। अगर कोई आदमी आपको धूप में खड़ा हुआ मिल जाए, तो आप मत रोकना कि धूप में क्यों खड़े हैं! हो सकता है उसने संकल्प लिया हो, वह धूप में खड़ा है। कोई अगर दो घंटे तक खड़ा हो तो आप मत कहना उससे कि बैठ जाइए। क्योंकि हो सकता है उसने दो घंटे खड़े रहने का संकल्प किया हो। कोई रेत पर लेटा हो तो लेटे रहने देना। कोई कुछ भी कर रहा हो, इस शिविर में कोई दूसरे व्यक्ति को किसी शिष्टाचार, किसी संकोच, किसी औपचारिकता का निभाव नहीं करना है। यहां आप बिलकुल अकेले हैं, बाकी से आपको कोई भी प्रयोजन नहीं है।
तो यह संकल्प तो कम से कम सभी ले लें--कि मैं अकेला हूं यहां, मुझे दूसरे से कोई भी प्रयोजन नहीं है। इन तीन दिन, कौन क्या कर रहा है, वह उसकी बात है, वह उसका अपना काम है। कोई आपको नाचता मिल जाए तो आपको फिकर नहीं करनी है। कोई रोता मिल जाए तो आपको चिंता नहीं करनी है। कोई रास्ते पर खड़े होकर हंस रहा हो तो आपको चिंता नहीं करनी है। आप अपने रास्ते पर हों। और प्रत्येक व्यक्ति अपने संकल्प ले ले कि उसे क्या तीन दिन में संकल्प पूरे करने हैं। वह तीन दिन उनको पूरा करता रहे। यह उसकी निजी बात हुई। जो हम साधना करेंगे वह तो अलग होगी। यह उसकी निजी बात हुई जिससे उसके संकल्प की शक्ति की पृष्ठभूमि खड़ी हो जाएगी।
साधारणतः लोग कहते सुने जाते हैं...गलत है उनकी बात बुनियादी रूप से। आज ही एक मित्र आए थे, वे कहने लगे कि मुझे ऐसा लगता है कि ध्यान करने में, जिन लोगों के पास संकल्प की शक्ति कम होती है, जिनका विल-पावर कमजोर होता है, उन लोगों को जल्दी हो जाता है।
मैंने उनसे कहा, यह नासमझी की हद्द है। ऐसे खयाल हैं। असल में जिनको नहीं होता उनको कुछ तो जस्टिफिकेशन चाहिए कि उनको क्यों नहीं हो रहा है। उनको इसलिए नहीं हो रहा है कि उनके पास संकल्प की शक्ति बहुत ज्यादा है।
तो महावीर के पास संकल्प की शक्ति कम रही होगी। तो यह आदमी बारह वर्ष में सिर्फ एक वर्ष भोजन किया, सब मिला कर। जितने दिन भोजन किया वे एक वर्ष के बराबर हैं, तीन सौ पैंसठ दिन, बारह वर्ष में। संकल्प की कमजोर शक्ति का परिणाम होगा। बुद्ध की संकल्प-शक्ति कमजोर रही होगी। जीसस की संकल्प-शक्ति कमजोर रही होगी कि सूली पर चढ़ते वक्त ईश्वर से कह सके कि इन सबको माफ कर देना, क्योंकि इनको पता नहीं ये क्या कर रहे हैं। मंसूर की संकल्प-शक्ति कमजोर रही होगी कि जब उसके लोग हाथ-पैर काट रहे थे तब भी वह हंस रहा था।
नहीं, इस जगत में जिन्होंने ध्यान किया है उनके पास ही संकल्प की शक्ति है। और अगर आपको न हो सके तो जानना कि आपकी संकल्प-शक्ति कमजोर है। और उसे उठाया जा सकता है, उसे जगाया जा सकता है। लेकिन इस तरह के भ्रांत खयाल मन में मत लेना कि मेरी संकल्प-शक्ति बहुत ज्यादा है।
संकल्प-शक्ति का मतलब ही यह होता है कि हम जो करना चाहते हैं कर सकते हैं। हम अगर शांत होना चाहते हैं तो दुनिया की कोई ताकत हमें अशांत नहीं कर सकती।
लोगों के संबंध में हमने सुना है, देखा है, आग के अंगारे पर नाच जाते हैं। कुछ भी नहीं है, सिर्फ संकल्प की शक्ति है। एक खयाल पक्का कि नहीं जल सकूंगा। इतना सा खयाल कि नहीं जल सकूंगा, पैरों को इतनी क्षमता दे जाता है कि आग का साधारण नियम काम नहीं कर पाता। थोड़े से संकल्प की प्रतिभा हो भीतर, तो हम और जो संकल्प छिपा है हमारे भीतर उसे भी उठा लेते हैं, उसे भी जगा लेते हैं।
गुरजिएफ कुछ साधकों को लेकर, जैसे आज मैं यहां आपको लेकर आ गया हूं, ऐसा गुरजिएफ नाम का एक फकीर कुछ साधकों को लेकर तिफलिस के गांव के बाहर ठहरा हुआ था। उसने उन सबसे कहा हुआ था कि जब भी मैं कह दूं--स्टॉप! ठहर जाओ! तो जो जहां हो वह वहीं ठहर जाए। अगर किसी आदमी ने बायां पैर ऊपर उठाया था चलने के लिए तो बायां ऊपर ही रह जाए, अब जमीन पर न लगे। चाहे वह गिरे तो गिर जाए आदमी, लेकिन अपनी तरफ से पैर को नीचे न रखे। किसी की आंख खुली है तो खुली रह जाए, अब अपनी तरफ से बंद न हो। आंख बंद हो जाए, बात अलग। लेकिन भीतर खयाल रहे कि मैंने बंद नहीं की है। मुंह खुला हो बोलने के लिए तो खुला रह जाए तो खुला ही रह जाए।
तो उनको बहुत से प्रयोग करवा रहा था। संकल्प का प्रयोग है। हम अपने साथ भी बेईमानी करते हैं। कोई आदमी बायां पैर उठाया है, वह सोचेगा कि एक सेकेंड में पता क्या चलता है कि मैंने नीचे रख लिया, फिर स्टॉप कर लूंगा। लेकिन यह गुरजिएफ को धोखा देने का सवाल नहीं है। इससे गुरजिएफ का क्या लेना-देना! यह अपने को धोखा देना है।
एक सुबह बहुत ही अदभुत घटना घटी। पास ही एक नहर थी, जहां शिविर था उनका। नहर सूखी है, अभी पानी नहीं बहा है उसमें। बंद है नहर। तीन युवक नहर को पार कर रहे थे। अचानक तंबू के भीतर से गुरजिएफ ने आवाज दी--स्टॉप! रुक जाओ! वे तीनों भी नहर में रुक गए। सूखी नहर थी, पानी नहीं था अभी।
लेकिन तभी अचानक न मालूम किसने नहर खोल दी और जोर से पानी की धार आई। एक युवक तो धार को आते देख कर छलांग लगा कर बाहर हो गया। उसने कहा, गुरजिएफ को तो पता नहीं, वह तो तंबू के भीतर बैठा है। यह तो प्राणलेवा हो जाएगा ध्यान। वह छलांग लगा कर बाहर हो गया। दो युवक खड़े रहे। पानी की धार गले-गले तक आ गई, तब दूसरे युवक ने सोचा कि अब जरा जरूरत से ज्यादा हुआ जा रहा है, अब मुझे निकल जाना चाहिए। अभी तक ठीक था, लेकिन गुरजिएफ को क्या पता कि यहां प्राण निकल जाएंगे! वह छलांग लगा कर बाहर हो गया। एक युवक भीतर रह गया। पानी की धार उसके ओंठों को छुई, फिर उसकी नाक डूबी, उसके मन में भी एक-दो बार खयाल आया कि मैं निकल जाऊं। लेकिन उसने कहा कि जब वायदा किया है तो वायदा पूरा करना। उसके मन में भी खयाल आया कि गुरजिएफ तंबू के भीतर बैठा है, उसे क्या पता! लेकिन उसने कहा कि यह तो जब मैंने वायदा किया था तब कोई शर्त न थी कि तंबू के भीतर होओगे, पता होगा कि नहीं होगा, यह कोई शर्त न थी। शर्त तो सिर्फ इतनी थी कि स्टॉप यानी स्टॉप! ठहर जाओ यानी ठहर जाओ! इसलिए अब कोई सवाल उठने का नहीं है। सिर पर से पानी बह गया।
गुरजिएफ भागा। वह नहर उसने ही छुड़वाई थी। वह सब जाना हुआ इंतजाम था। वह भागा हुआ बाहर आया, नहर में कूदा, उस युवक को बाहर निकाला। उस युवक से कहा कि क्या हुआ तुम्हारे मन में जब पानी ऊपर से चला गया?
उसने कहा, मन में? पहली दफे मन समाप्त हुआ और मैं ही बचा। और मैंने वह पा लिया जिसकी तलाश में मैं आया था।
गुरजिएफ ने कहा, लेकिन अकेले नहर में डूब जाने से कैसे पा लोगे?
उसने कहा, नहर में नहीं डूबा, संकल्प में डूबा।
वह आदमी दूसरा आदमी हो गया। उसके भीतर क्रिस्टलाइजेशन, उसके भीतर कोई चीज केंद्रित हो गई, इकट्ठी हो गई। उस व्यक्ति की आत्मा पैदा हो गई। उसने पुकार ली अपनी सारी शक्ति जो उसके भीतर पड़ी थी, एक दांव पर।
तो इन तीन दिनों में बहुत तरह के दांव हैं। बहुत तरह की चुनौतियां आपको मैं दूंगा। अगर आप दांव पर लगा सकते हैं तो परिणाम हो जाएंगे।
संकल्प का स्मरण रखें। कुछ भी अपने संकल्प तय कर लें। किसी को बताने की जरूरत नहीं है। अपने भीतर तय कर लें, क्योंकि वह आपकी बात है। पूरे करेंगे तो आप, नहीं पूरे करेंगे तो आप। ईमानदारी तो अपने प्रति, बेईमानी तो अपने प्रति। किसी से कुछ कहने की जरूरत नहीं, उसे अपने भीतर ले लें। यदि पूरा कर पाए, तो इस शिविर से खाली हाथ लौटने की जरूरत नहीं होगी। अगर पूरा नहीं कर पाए, तो समझ लेना चाहिए कि मेरे अतिरिक्त मेरी खोज में और कोई बाधा नहीं है। लेकिन सब पूरा किया जा सकता है। कोई कठिनाई नहीं है। सिर्फ कठिनाई का खयाल ही एकमात्र कठिनाई है कि कैसे पूरा करें। तो कोई छोटे से लें, बड़े की जरूरत नहीं है।
तीसरी बात, इसके पहले कि कल सुबह हम ध्यान शुरू करें, आपको ध्यान के संबंध में कुछ समझा दूं ताकि आपके मन में साफ हो जाए।
पहली बात तो यह है कि ध्यान की प्रक्रिया स्वयं में सोई हुई शक्ति को जगाने की प्रक्रिया है। उसे कुंडलिनी कहें, उसे प्राण कहें, उसे कोई और नाम दे दें। हम सबके भीतर बहुत कुछ सोया हुआ है, और वह जग न जाए, तो हमारी यात्रा के लिए शक्ति नहीं उपलब्ध होती। जिस शक्ति से हम जीते हैं वह बहुत ऊपरी है। बहुत शक्ति है हमारे भीतर, जो विश्राम कर रही है, जो सो रही है। जिसे हमने कभी छेड़ा नहीं, शायद हम जिंदगी में छेड़ेंगे भी नहीं और वह हमारे साथ रहेगी और हम मर जाएंगे। जैसे किसी आदमी के पास तिजोड़ी हो और वह अपने खीसे में दस-पांच रुपये रखे हो, उन्हीं को अपनी संपत्ति समझ कर जिंदगी गवां दे। भूखा रहे, प्यासा रहे, भीख मांगे और तिजोड़ी का उसे पता न हो जो कि उसकी ही है। लेकिन ऐसे नासमझ आदमी बहुत मुश्किल से खोजने से मिलेंगे जिनके पास तिजोड़ी हो और जिनको पता न हो। लेकिन जहां तक जिंदगी का संबंध है, ऐसे नासमझ आदमी ही मिलेंगे। खोजने से भी वह आदमी मुश्किल से मिलेगा जिसने अपनी जिंदगी की पूरी संपत्ति का उपयोग किया है।
तो ध्यान की प्रक्रिया का पहला चरण तो है हमारे भीतर की पूरी शक्ति को जगाने के लिए। इस शक्ति को जगाने के लिए कोई चोट, कोई हैमरिंग की जरूरत है। वह हम श्वास का उसमें उपयोग करेंगे। पहले दस मिनट के चरण में ध्यान के हम इतने जोर से श्वास लेंगे कि उसका हम हथौड़ी की तरह उपयोग करेंगे। वह श्वास भीतर चोट करे, बाहर फिंके, भीतर चोट करे। उस चोट से हम सोई हुई शक्ति को जगाना शुरू करेंगे।
आपको शायद पता न होगा कि जब भी आपको शक्ति की जरूरत पड़ती है, चाहे आपको होश हो या न हो, आपकी श्वास की चोट से ही शक्ति सदा जगाई जाती है। आपने कभी खयाल न किया होगा, अगर आपको एक बड़ा पत्थर उठाना हो, तो अचानक आप गहरी श्वास लेकर भीतर रोक लेते हैं और फिर पत्थर को उठाते हैं। कभी आपने सोचा न होगा कि गहरी श्वास लेकर भीतर रोक लेने से पत्थर के उठाने का क्या संबंध है। गहरी श्वास के बिना उसी पत्थर को आप अगर साधारण श्वास लेते रहें तो न उठा सकेंगे।
जिन लोगों ने पिरामिड के पत्थर चढ़ाए, आज वैज्ञानिक बहुत परेशान हैं कि उस वक्त क्रेन नहीं थी, इतने बड़े पत्थर पिरामिड पर चढ़ाए कैसे गए हैं? तो उनको चमत्कार मालूम पड़ता है, दुनिया के मिरेकल्स में एक मालूम पड़ता है कि इतने-इतने बड़े पत्थर, इनको सौ-सौ आदमी मिल कर भी नहीं चढ़ा सकते! ये चढ़ाए कैसे गए हैं?
उन्हें पता नहीं है, कि जिस इजिप्त में पिरामिड बने, उस इजिप्त को एक साइंस का पता था, जो धीरे-धीरे भूल गई। और वह थी--श्वास की चोट से भीतर सोई हुई शक्ति को उठा लेने का रहस्य।
आपने राममूर्ति का नाम सुना होगा। वह अपनी छाती पर हाथी को खड़ा कर सकता था। या अपनी छाती पर से कार और ट्रक को निकल जाने दे सकता था। या खुद चलती हुई कार को पीछे से पकड़ ले, तो पहिए घूमते थे लेकिन कार आगे नहीं बढ़ सकती थी। और राज छोटा था। बहुत छोटा सा राज था। और राज यह था कि श्वास की चोट से, और श्वास को रोक लेने से भीतर की पूरी शक्ति को पुकारने की तरकीब उसको पता चल गई थी।
हमारे भीतर जो भी शक्ति पड़ी है उसे चोट देकर जगाना है। तो दस मिनट का जो पहला चरण हम ध्यान का करेंगे, उसमें इतने जोर से श्वास लेनी है कि भीतर कोई गुंजाइश ही न रह जाए कि हम इससे ज्यादा भी ले सकते थे। श्वास की पूरी ताकत लगा देनी है। और जब आप श्वास की पूरी ताकत लगाएंगे, तो शरीर डोलने लगेगा, शरीर कंपने लगेगा, शरीर झूलने लगेगा। उसको रोकना नहीं है पहले ही चरण से, जब झूलने लगे तो उसको झूलने देना और श्वास की चोट मारनी शुरू करनी है। जितने जोर से चोट पड़ेगी, उतना ही शरीर डोलेगा। शरीर डोलेगा, उतनी ही आसानी होगी चोट मारने में। सख्त होकर खड़े नहीं हो जाना है। चोट मारनी है और शरीर को डोलने देना है। और उस चोट के साथ शरीर के साथ डोलने लगना है। दस मिनट में पूरी की पूरी हमारे फेफड़े में जितनी भी वायु है उस सबको रूपांतरित कर लेना है, उस सबको बदल देना है।
हमारे फेफड़े में कोई छह हजार छिद्र हैं। जिसमें मुश्किल से डेढ़ या दो हजार तक हमारी श्वास पहुंचती है, बाकी चार हजार सदा ही बंद पड़े रह जाते हैं, उनमें कार्बन डाय-आक्साइड ही इकट्ठी होती रहती है। पूरे के पूरे फेफड़े के सारे छिद्रों में नई आक्सीजन, नई प्राणवायु पहुंचा देनी है। जैसे ही प्राणवायु की मात्रा भीतर बढ़ती है वैसे ही शरीर की विद्युत जगनी शुरू हो जाती है। आप अनुभव करेंगे कि शरीर इलेक्ट्रिफाइड हो गया, उसमें बिजली दौड़ने लगेगी, रोआं-रोआं कंपने लगेगा, शरीर नाचने की स्थिति में आ जाएगा।
यह पहला चरण है। इस चरण के और भी अर्थ हैं, वे भी मैं आपको कह दूं। अगर यह चरण पूरा नहीं किया गया, तो दूसरे चरण में प्रवेश नहीं हो सकेगा। ऐसे ही जैसे कोई पहली सीढ़ी पर न चढ़ा हो तो दूसरी सीढ़ी पर न जा सके। पहली सीढ़ी पर पैर रखना जरूरी है, तभी दूसरी सीढ़ी पर चढ़ा जा सकता है। दूसरी बात ध्यान रखनी जरूरी है: अगर यह चरण पूरा नहीं किया गया, तो बहुत से नुकसान हो जाने का डर है।
परसों ही एक जापानी साधिका मेरे पास आई, वह यहां शिविर में भी मौजूद है। उसने मुझसे पूछा कि इंडोनेशिया में सुबुद नाम का ध्यान का प्रयोग चलता है। उसमें यह जो पहला चरण है वह नहीं है। उसमें दूसरा ही चरण है। तीसरा भी जो चरण है वह भी नहीं है। तो उस सुबुद के संबंध में मेरा क्या खयाल है?
अगर पहला चरण न हो, जैसा कि सुबुद नाम के ध्यान में नहीं है, तो बड़े खतरे हैं। पहले चरण से आपके शरीर की पूरी विद्युत विकसित होकर आपके शरीर के चारों तरफ वर्तुल बना लेती है। अगर यह वर्तुल न बने, तो आपको ऐसी बीमारियां पकड़ सकती हैं जिनकी आपको कल्पना भी नहीं है। आप बीमारियों के लिए नॉन-रेसिस्टेंस की हालत में हो जाते हैं। इसलिए सुबुद का प्रयोग करने वाले बहुत से लोग अजीब-अजीब बीमारियों से पीड़ित हो जाते हैं। इसलिए पहला चरण पूरा होना बहुत जरूरी है। आपके चारों तरफ विद्युत का वर्तुल बनना जरूरी है। अन्यथा ध्यान में एक तरह की वल्नरेबल, एक तरह की ओपनिंग, एक तरह का द्वार खुलता है, उसमें से कुछ भी प्रवेश हो सकता है। और न केवल बीमारी प्रवेश हो सकती है, बल्कि सुबुद के अनेक साधकों को जो बड़ी से बड़ी कठिनाई हुई है वह यह कि कुछ दुष्ट आत्माएं उनमें प्रवेश कर सकती हैं।
ध्यान की हालत में आपके हृदय का द्वार खुला हो जाता है। उस वक्त कोई भी प्रवेश कर सकता है। और हमारे चारों तरफ बहुत तरह की आत्माएं निरंतर उपस्थित हैं। यहां आप ही उपस्थित नहीं हैं, और भी कोई उपस्थित हैं। इसलिए पहले चरण को हर हालत में पूरा करना जरूरी है। अगर पहला चरण पूरा है तो आपका शरीर एक तरह का रेसिस्टेंस, एक तरह की प्रतिरोध की दीवाल खड़ी कर लेता है, उसमें से कोई भी हानिकर चीज आपके भीतर प्रवेश नहीं पा सकती--एक। और आपके भीतर से कोई भी शक्ति बाहर नहीं जा सकती, वह दीवाल का काम करने लगती है। जैसे कि हम अपने घर के चारों तरफ बिजली का तार दौड़ा दें, और उसमें करंट दौड़ रही हो, तो चोर भीतर न घुस सके, क्योंकि तार को छुए कि मुश्किल में पड़ जाए। भीतर का आदमी भी बाहर न जा सके, क्योंकि तार को छुए तो मुश्किल में पड़ जाए। ठीक पहले चरण का यही महत्वपूर्ण काम है कि वह आपके चारों तरफ विद्युत का वर्तुल बना दे। न तो भीतर से बाहर कुछ जा सके, न बाहर से भीतर कुछ आ सके।
तीसरी बात पहले चरण के संबंध में यह समझ लेनी जरूरी है कि जब आपकी शक्ति भीतर चोट खाकर जगेगी, तो आपको बहुत तरह के अनुभव शरीर में होने शुरू हो जाएंगे। वह मैं आपको कह दूं ताकि आपको परेशानी न हो। क्योंकि बीच में पूछने का कोई उपाय नहीं होगा। शरीर में बहुत तरह के अनुभव हो सकते हैं। अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह के अनुभव होंगे। किसी को लगेगा शरीर बहुत बड़ा हो गया, घबड़ाहट होगी। किसी को लगेगा शरीर पत्थर की तरह भारी हो गया, घबड़ाहट होगी। किसी को लगेगा शरीर बहुत छोटा हो गया, कि आंख खोल कर देखने का मन होगा कि मामला क्या है, मैं कहीं खो तो नहीं गया! लेकिन आंख खोल कर देखना नहीं है। आप अपनी जगह हैं, कहीं कुछ खो नहीं गया है। ये सारी प्रतीतियां उस शरीर में नई शक्ति के जगने से होनी शुरू हो जाएंगी। किसी के शरीर में सांप-बिच्छू रेंगते हुए मालूम पड़ने लगेंगे। किसी को चींटियां चलती मालूम पड़ने लगेंगी। किसी के भीतर विद्युत की धारा बहती मालूम पड़ने लगेगी। किसी को लगेगा कि कोई चीज झरने की तरह ऊपर से नीचे गिर रही है। किसी को मालूम पड़ेगा नीचे से ऊपर की तरफ कोई चीज चढ़ रही है। इस तरह के बहुत तरह के अनुभव शरीर में होने शुरू हो जाएंगे।
और इसके साथ ही शरीर कुछ हरकतें, कुछ मूवमेंट करना चाहेगा, उनको रोकना नहीं है। दस मिनट में जब शरीर पूरी तरह चार्ज्ड, शक्ति से भर जाता है, तो दूसरे चरण में हम शरीर को छोड़ेंगे, वह जो करना चाहे, उसे करने देंगे। दूसरे चरण में शक्ति को खेलने का मौका देना है। वह जो शक्ति जगी है उसको कोआपरेट करना है, सहयोग करना है। साधारणतः हम रोकते हैं, हमारी जिंदगी भर की आदत हर चीज को रोकने की है। अगर हंसी भी आती है तो हम धीरे हंसते हैं, जोर से नहीं हंसते। रोना भी आता है तो सम्हाल लेते हैं, क्योंकि रोना शोभा नहीं देता। नाचने का तो कोई सवाल नहीं है। कूदने का कोई सवाल नहीं है। हाथ-पैर अव्यवस्था से हिलाने का कोई सवाल नहीं है। जिंदगी में हम सब रोके रहते हैं। जब शक्ति आपके भीतर जगेगी तो आपके भीतर जो भी रुका है वह सब प्रकट होना चाहेगा। इसको आप चाहें कि रोक लें, तो आप रोक सकते हैं। लेकिन रोकने से भयंकर नुकसान होंगे। क्योंकि जो शक्ति जग गई है अगर आपने उसे रोका तो वह आपके लिए शारीरिक रूप से नुकसानकारी सिद्ध होगी। उसका जिम्मा मुझ पर नहीं होगा। ध्यान का प्रयोग तो व्यर्थ चला ही जाएगा, उससे नुकसान भी होने शुरू हो जाएंगे। शरीर में ग्रंथियां और गांठें बन जाएंगी उस शक्ति की, वह निकलना चाहेगी और आप रोकेंगे।
तो जैसे ही पहले चरण के बाद शक्ति पैदा होगी, आपका शरीर जो भी करना चाहे, उसे पूर्णता से सहयोग देना है। कोई नाचने लगेगा, कोई चिल्लाने लगेगा, कोई रोने लगेगा, कोई हंसने लगेगा, कोई अस्तव्यस्त मुद्राएं बनाने लगेगा, कोई आसन बनाने लगेगा, और शरीर जो भी करना चाहे उसे बिलकुल ऐसा छोड़ देना है कि हमें कोई प्रयोजन नहीं, सिर्फ साथ देना है। यह इतनी तीव्रता से साथ देना है कि अगर हाथ थोड़ा हिल रहा हो तो उसे पूरा साथ दे देना कि वह पूरा हिल जाए।
रोकने के नुकसान हैं, सहयोग देने के अभूतपूर्व फायदे हैं। अगर आपने पूरा सहयोग दे दिया तो आपके शरीर की न मालूम कितनी बीमारियां जो आपके पीछे पड़ी हों, अचानक विलीन हो सकती हैं। आपके मन के न मालूम कितने रोग जो चित्त को घेरे हों--क्रोध, काम, लोभ--अचानक आप पा सकते हैं कि मन हलका हो गया और वे बह गए। दुख, उदासी, पीड़ा, वैमनस्य,र् ईष्या, वे सब गिर जा सकते हैं। अगर शरीर को पूरी तरह से आपने खुल कर खेलने का मौका दिया, तो आपका शरीर ही नहीं, आपके मन की भी कैथार्सिस हो जाती है, रेचन हो जाता है। और इस दस मिनट का जो सबसे बड़ा उपयोग है वह यही है कि शरीर का रेचन हो जाए। शरीर और मन का सब कुछ जो रुग्ण हमने इकट्ठा किया हुआ है वह गिर जाए। उसके बाद ही हम ध्यान में प्रवेश कर सकते हैं।
जैसे कोई पहाड़ पर चढ़ रहा हो, तो सब बोझ नीचे छोड़ जाता है। बोझ साथ में हो तो पहाड़ पर चढ़ना असंभव है। जैसे ऊंचाई बढ़ती है वैसे बोझ छोड़ना पड़ता है। ध्यान की बड़ी ऊंचाइयां हैं, गहराइयां हैं, उनमें जाने के लिए सब बोझ छोड़ जाना जरूरी है।
इसलिए जो संकोच करे, उसका समय व्यर्थ होगा। जो शिष्टाचार का ध्यान रखे, उसका समय व्यर्थ होगा। और समय ही व्यर्थ नहीं होगा, अगर उसने पहला चरण पूरा कर लिया है, तो उसे पाजिटिव हार्म, उसे विधायक रूप से हानि पहुंचेगी। और अगर उसने इसका सहयोग दिया तो वह हैरान होकर लौटेगा इस तीन दिन में कि इतना हलका, इतना वेटलेस वह अपनी जिंदगी में कभी भी नहीं था। सब हलका हो जाएगा।
इस दूसरे चरण में अनेक लोगों को ऐसा अहसास हो सकता है कि वे कपड़े फेंक दें। अगर उन्हें खयाल हो तो उन्हें फेंक देना है, उन्हें किसी की फिकर नहीं लेनी है, कोई चिंता नहीं लेनी है। यहां कोई देखने वाला भी नहीं होगा, क्योंकि सब आंख बंद किए हुए अपने काम में लगे होंगे, किसी से किसी को प्रयोजन नहीं है। कोई किसी को देखता होगा नहीं। किसी को देखने से मतलब नहीं है। बहुत से मित्रों को ऐसा अनुभव होगा कि जब बहुत तीव्रता से शरीर हलका हो रहा होगा तो थोड़ा सा वस्त्र भी एकदम पहाड़ की तरह, पत्थर की तरह भारी हो जाएगा। महावीर पागल नहीं थे कि नग्न हुए। नग्न होने का कारण था। और सैकड़ों लोग उस ध्यान का प्रयोग करके नग्न हुए, उसका कारण था। ऐसा नहीं है कि वह नग्नता आपके लिए अनिवार्य बन जाएगी। एक दफा चित्त हलका हो जाए, मन हलका हो जाए, तो आप वापस लौट आएंगे इस दुनिया में और सीधे और साफ हो सकेंगे।
यह जो रेचन है यह सदा नहीं चलेगा। एक, ज्यादा से ज्यादा तीन महीने चल सकता है। कम से कम तीन सप्ताह चल सकता है। अगर किसी ने बहुत तीव्रता की तो तीन दिन में ही समाप्त हो जाएगा। जब गिर जाएंगी सारी बीमारियां तो आप एकदम हलके और शांत हो जाएंगे, फिर नहीं चलेगा। फिर आप करना भी चाहेंगे तो नहीं कर सकेंगे।
दूसरे चरण पर बहुत ध्यान देना जरूरी है, क्योंकि सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। तीसरे में प्रवेश के लिए वह लिंक, सेतु का काम करता है। और दूसरे में ही सबसे ज्यादा बाधा पड़ती है। न तो आप खुल कर नाच पाते हैं, न चिल्ला पाते हैं, न रो पाते हैं, न डोल पाते हैं। उससे बाधा पड़ जाएगी। मन में से न मालूम क्या-क्या निकलना शुरू होगा। जानवरों जैसी आवाज निकलने लगेगी, तो आपको डर लगेगा कि यह मैं कैसे निकालूं! उसे निकलने देना है। जो भी हो रहा हो, उसे स्वीकार करके उसका साथ दे देना। पूरा साथ दे देना। अगर आप पूरा साथ दे सके तो परिणाम सुनिश्चित है। और अदभुत परिणाम होंगे जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।
दूसरा चरण पूरा हो तो ही हम तीसरे में प्रवेश कर सकेंगे। जो दूसरे पर अटक जाएगा वह दूसरे पर अटक जाएगा। और दूसरे पर अटकना पहले पर अटकने से भी ज्यादा हानिकर है। क्योंकि शरीर काम करना शुरू कर दिया और आपने अगर रोक लिया, तो आप न मालूम किस तरह की नई तरह की रुग्णताओं को और नई तरह की मानसिक विक्षिप्तताओं को निमंत्रण दे सकते हैं।
हर चीज की हानि उतनी ही होती है जितना लाभ होता है। उनकी मात्रा बराबर होती है। अगर आप लाभ लेते हैं तो पूरा ले लें, अन्यथा हानि हाथ पड़ जाएगी। या फिर करें ही मत। तो जहां हैं वहीं बेहतर हैं। करना है तो पूरा समझ कर करें और पूरा प्रयोग करें, ताकि किसी को हानि न हो जाए।
जब दूसरे चरण में पूरी तरह शरीर की गतियां शुरू होंगी, तो आपको शरीर अलग मालूम होने लगेगा। वही उस दूसरे चरण का कीमती अनुभव है। जब शरीर नाचेगा, चिल्लाएगा, जानवरों की आवाज करने लगेगा, कुछ भी बकने लगेगा, कुछ भी बोलने लगेगा, रोने लगेगा, हंसने लगेगा, तब आपको पहली दफे पता चलेगा कि आप अलग खड़े देख रहे हैं और यह शरीर क्या कर रहा है! यह आपको भिन्नता का पहला अनुभव होगा कि मैं साक्षी की तरह देख रहा हूं और यह हो रहा है। सुना है हमने बहुत कि मैं अलग हूं और यह शरीर अलग है। हम अलग हैं और यह शरीर अलग है, यह सुनी हुई बात है। यह आपको अनुभव हो सकेगी। और यही इस दूसरे चरण का प्रतिफल है कि यह अनुभव हो जाए कि मैं अलग हूं और शरीर अलग है। जैसे ही यह अनुभव होता है, तीसरे में हम गति कर जाएंगे।
तीसरे चरण में पूछना है अपने भीतर--मैं कौन हूं? यह इतने जोर से पूछना है, भीतर ही पूछना है, लेकिन इतने जोर से पूछना है कि पैर से लेकर सिर तक यह गूंजने लगे भीतर--मैं कौन हूं? क्योंकि जब यह दिखाई पड़ता है कि शरीर मैं नहीं हूं, तो यह सवाल उठता है कि मैं कौन हूं? और इस मौके को छोड़ नहीं देना है। इसे तीव्रता से पूछना है। दस मिनट अपने भीतर तूफान उठा देना है कि मैं कौन हूं? दो "मैं कौन हूं?' के बीच में जगह न बचे। और जब आप बहुत जोर से भीतर पूछेंगे तो बहुत संभव है कि आपके मुंह से बाहर भी निकलने लगे, तो उसका भय नहीं लेना है। शुरू करना है भीतर, अगर बाहर भी निकलने लगे तो चिंता नहीं करनी है, निकल जाने देना है। तीसरे चरण में भी शरीर डोलता रहेगा, नाचता रहेगा, उसकी चिंता नहीं लेनी है। डोलने देना है, नाचने देना है। तीसरे चरण में दस मिनट तक "मैं कौन हूं?' इतनी तीव्रता से पूछना है कि मन में और खयाल ही न रह जाए। सारी ताकत इस पर लगा देनी है, कोई विचार ही न रह जाए। अगर आपने पूरी ताकत तीसरे चरण में लगा दी तो चौथा चरण आपको उपलब्ध होगा।
चौथे चरण में आपको कुछ भी नहीं करना है। तीन चरण में हमें करना है, चौथे में विश्राम। चौथे में हम सिर्फ...कोई खड़ा है, खड़ा रह जाएगा; कोई गिरा है, गिरा रह जाएगा; कोई बैठा है, बैठा रह जाएगा; जो जैसा है वैसा रह जाएगा। चौथे चरण में दस मिनट सिर्फ प्रतीक्षा हम करेंगे। जो भी हो उसमें, उसकी हम प्रतीक्षा करेंगे।
बहुत कुछ हो सकता है। बहुत कुछ होगा। बहुत कुछ होता ही है। कुछ अनुभव आपसे बात करूं ताकि आपको हों तो आपको परेशानी न हो जाए। किसी के भीतर एकदम बिजली के कौंधने जैसा प्रकाश हो जाएगा। किसी के भीतर, हजारों सूरज जले हों, ऐसा प्रकाश हो जाएगा। किसी के भीतर, सुबह का जैसा प्रभात होता है, ऐसा प्रकाश हो जाएगा। सबके भीतर अलग-अलग होगा। प्रकाश का अनुभव होगा अधिकतम लोगों को। कुछ थोड़े से लोगों को गहन अंधकार का भी अनुभव होगा। कोई अनुभव अनिवार्य नहीं है। सबको भिन्न होंगे, क्योंकि सबके व्यक्तित्व भिन्न हैं। किसी को नीला रंग दिखाई पड़ेगा, किसी को लाल रंग दिखाई पड़ेंगे। किसी को कोई ध्वनियां सुनाई पड़ने लगेंगी। किसी को कोई स्वाद उतरने लगेगा। पांचों इंद्रियों के अनुभवों में से कोई भी अनुभव होना शुरू हो जाएगा। वैसा प्रकाश आपने बाहर कभी नहीं देखा होगा जैसा भीतर दिखाई पड़ेगा। न वैसी ध्वनि बाहर सुनी होगी जैसी भीतर सुनाई पड़ेगी। यह होगा। यह चौथे चरण में होगा।
चौथे चरण के बाद पांचवां चरण हम यहां नहीं उठाएंगे। तीन चरण आपको करने हैं, चौथा होने देना है। और पांचवां फिर कभी पीछे आपको होगा। किसी को यहां भी हो सकता है। उसकी बात नहीं करनी है। पांचवें में सब समाप्त हो जाएगा। न तो प्रकाश रह जाएगा, न अंधकार रह जाएगा, न कोई ध्वनि रह जाएगी, न कोई रंग रह जाएगा, न कोई स्वाद रह जाएगा, सब खो जाएगा, पांचों इंद्रियों के सब अनुभव खो जाएंगे।
पांचवें चरण में जो होगा उसके लिए कहने का कोई भी शब्द नहीं है। वह जब आपको होगा तभी आप जान सकेंगे। चौथे चरण तक हम प्रयोग करेंगे। चौथे चरण तक हम ध्यान करेंगे और पांचवां चरण आपको फलित होगा। किसी को यहां भी फलित हो जाएगा, किसी को घर लौट कर फलित होगा, किसी को कुछ वक्त लगेगा, किसी को कुछ वक्त लगेगा। लेकिन यदि आप जारी रखते हैं तो पांचवां चरण भी आ जाएगा, जब सब खो जाएगा। चौथे के अनुभव भी खो जाएंगे।
इस पूरी प्रक्रिया में संकल्प ही एकमात्र आधार है। इसलिए इस प्रक्रिया को करने के पहले हम परमात्मा को साक्षी रख कर पहले संकल्प करेंगे तीन बार। और अंत में अपने संकल्प को पूरा करने का खयाल रखेंगे पूरे समय। क्लाइमेक्स पर करना है प्रत्येक चरण को, उसकी चोटी पर, पीक पर, आखिरी ऊंचाई पर करना है। उसमें कंजूसी नहीं चलेगी। जैसे कि पानी गरम होता है, सौ डिग्री पर जाकर गरम होता है। निन्यानबे डिग्री भी रहा तो पानी रह जाता है, फिर उबलता नहीं, भाप नहीं बनता। सौ डिग्री पर भाप बनता है। तो आपको अपनी सौ डिग्री ताकत लगा देनी है तो ही आप दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे। और अगर आपने तीन चरणों में सौ डिग्री ताकत लगा दी तो आप पाएंगे एवोपरेशन हो गया, वाष्पीकरण हो गया। आप उड़ जाएंगे, आप नहीं बचेंगे। कोई और आपके भीतर आ जाएगा। वह जो कोई आ जाता है वही जीवन का रहस्य कहें, परमात्मा कहें, समाधि कहें, मुक्ति कहें, निर्वाण का अनुभव कहें, जो भी हम शब्द देना चाहें दे सकते हैं।
ये तीन चरण, इस संबंध में जो भी प्रश्न होंगे वे आप लिख कर देते जाएंगे, तो रोज रात को हम बात कर लेंगे।
अब मैं समझता हूं अभी वक्त है तो हम प्रयोग भी करेंगे। इस प्रयोग को अभी कर लेंगे ताकि सुबह से ही बिलकुल गति से शुरू हो जाए, इसमें कोई कमी न रह जाए। यह प्रयोग खड़े होकर करने का है। और फासले पर खड़े होना है, यहां तो जगह काफी है, ताकि कोई नाचे तो किसी को चोट न लग जाए, किसी को धक्का न लग जाए। और अगर आपको धक्का लग भी जाए तो आपको फिकर नहीं करनी है, आपको अपना काम जारी रखना है।

तो आप दूर-दूर फैल जाएं। बातचीत बिलकुल न करें। बातचीत बिलकुल न करें। फासले पर हो जाएं। आप अपनी-अपनी जगह खड़े हो जाएं फासले पर, फिर लाइट बुझा दी जाएगी। बातचीत न करें। फासले पर हो जाएं। देखें, अपने आस-पास देख लें कि आपके पास जगह है--आप उछलें, कूदें, नाचें, कोई और नाचे, तो आपको धक्का न लगे।
सबसे पहला तो यह संकल्प कि चालीस मिनट के लिए हम आंख बंद कर रहे हैं, यह आंख जब तक मैं नहीं कहूं तब तक नहीं खुलेगी। चालीस मिनट के लिए आंख बंद हो रही है। आंख बंद कर लें। और एक भी व्यक्ति आंख खोल कर बीच में नहीं खड़ा रहेगा। अगर किसी को खड़ा रहना हो आंख खोल कर, वह हट जाए यहां से बाहर। और बाहर जो लोग खड़े हैं किनारे पर उनमें से कोई भी बात नहीं करेगा, अन्यथा दूसरों को बाधा होगी। जिनको चुपचाप खड़े रहना है बाहर वे चुपचाप खड़े रहें। आंख खोले कोई व्यक्ति बीच में नहीं होगा। ईमानदारी से बाहर हट जाइए। किसी को आंख खोले खड़े रहना है, वह बाहर हो जाए। और पीछे खड़े कोई भी व्यक्तियों में से जरा भी बातचीत नहीं होगी।
ठीक है। आंख बंद कर लें। चालीस मिनट के लिए आंख बंद होती है, यह हमारा पहला संकल्प हुआ। दोनों हाथ जोड़ कर परमात्मा के सामने संकल्प कर लें: प्रभु को साक्षी रख कर मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा! प्रभु को साक्षी रख कर मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा! प्रभु को साक्षी रख कर मैं संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा!

पहला चरण:
पहला चरण शुरू करें: दस मिनट के लिए श्वास की चोट मार कर भीतर की शक्ति को जगाना। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...पूरी ताकत लगाएं, श्वास को भीतर ले जाएं, बाहर फेंकें...शरीर उछलने लगे, फिकर न करें...गहरी श्वास, गहरी श्वास...पूरी ताकत लगा देनी है...गहरी श्वास...देखें, कोई खड़ा न रहे बेकार, पूरी ताकत लगाएं...गहरी श्वास...पूरी चोट मारें, भीतर की शक्ति जगेगी...चोट मारें...गहरी श्वास लें, गहरी छोड़ें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...
सात मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...भीतर की शक्ति जग रही है, नाचें, उसकी फिकर न करें...गहरी श्वास, गहरी श्वास...और गहरी...और गहरी...पूरे शरीर में शक्ति जागेगी, पूरा शरीर विद्युत से भर जाएगा, उसे भर जाने दें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...
पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं...पूरी ताकत, सारे शरीर को श्वास से भर लें... कोई फिकर नहीं, नाचना आए, कोई चिंता न करें...गहरी श्वास...शरीर डोलेगा, डोलने दें; कंपेगा, कंपने दें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...शक्ति जग रही है, रोआं-रोआं कंपने लगेगा, शरीर डोलने लगेगा, उसकी फिकर न करें...चार मिनट बचे हैं, मैं चुप हो जाता हूं, आप पूरी ताकत लगा दें, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे...
गहरी श्वास, गहरी श्वास...कोई पीछे न रह जाए, अन्यथा दूसरे चरण में प्रवेश नहीं हो सकेगा...गहरी श्वास...तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा दें...पूरी श्वास को बाहर फेंकें, भीतर ले जाएं...
दो मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं...गहरी श्वास, गहरी श्वास...श्वास में पूरी ताकत लगा दें, थोड़ी भी सोई हुई न रह जाए...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...
एक मिनट, फिर मैं कहूंगा एक, दो, तीन, तब पूरी ताकत लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करें...गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास...एक! पूरी ताकत लगा दें...दो!... तीन!...पूरी ताकत लगा दें...
दूसरा चरण:
अब दूसरे चरण में प्रवेश कर जाएं। शरीर जो करना चाहता है, करने दें...शरीर जो करना चाहता है, करने दें...नाचें, कूदें, रोएं, चिल्लाएं, हंसें, जो भी शरीर करना चाहता है, करने दें...कूदें, नाचें, अपनी ही जगह पर कूदें-नाचें, यहां-वहां न हटें...अपनी ही जगह पर कूदें, नाचें, रोएं, हंसें, चिल्लाएं, जो भी हो रहा हो होने दें...जोर से, जोर से, जोर से, जोर से, जोर से, जोर से...अपनी ही जगह पर, अपनी ही जगह पर, जो भी करना है--उछलें, कूदें, नाचें, रोएं, चिल्लाएं--लेकिन अपनी ही जगह पर...जोर से, जोर से...शरीर को बिलकुल थका डालना है...जोर से, जोर से, जोर से...
बिलकुल ठीक! बहुत ठीक! बहुत ठीक! छह मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं...शरीर की सब बीमारी निकल जाने दें, मन के सब रोग गिर जाने दें...हंसें, रोएं, चिल्लाएं, नाचें...
बिलकुल ठीक! जोर से, जोर से...जो भी हो रहा है होने दें, पर जोर से होने दें...जो भी हो रहा है--हंसें, जोर से हंसें; रो रहे हैं, जोर से रोएं; चिल्ला रहे हैं, जोर से चिल्लाएं; नाच रहे हैं, जोर से नाचें--अपनी ही जगह पर...
पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा दें, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करें...
बहुत ठीक! बहुत ठीक! जोर से, जोर से...पूरी ताकत से चिल्लाएं, रोएं, हंसें, नाचें... अपनी ही जगह पर, दूर न हटें, अपनी ही जगह पर जो करना है जोर से करें...चार मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा दें, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करेंगे...जोर से, जोर से, जोर से...
तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं...नाचें, कूदें, चिल्लाएं, रोएं, हंसें, जो भी शरीर कर रहा है करने दें...अपनी ही जगह पर, जो भी शरीर कर रहा है करने दें...
दो मिनट बचे हैं, पूरी ताकत...तूफान ला दें...बिलकुल तूफान में चले जाएं...जो भी हो रहा है, जोर से...जो भी हो रहा है, जोर से...जोर से, जोर से, जोर से...शरीर अलग मालूम पड़ने लगेगा, शरीर बिलकुल अलग दिखाई पड़ने लगेगा...नाचें, कूदें, चिल्लाएं, रोएं, हंसें, शरीर अलग है...जोर से करें, उतना ही साफ मालूम पड़ेगा शरीर अलग है...जितने जोर से कर सकें उतना शरीर अलग मालूम पड़ेगा...
बहुत ठीक! एक मिनट बचा है, अब मैं एक, दो, तीन कहूं तब पूरी ताकत लगा देनी है, शरीर को अलग कर देना है। एक!...पूरी ताकत लगाएं...दो!...पूरी ताकत लगाएं... तीन!...पूरी ताकत लगाएं, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करें...चिल्लाएं जोर से...

तीसरा चरण:
अब तीसरे चरण में प्रवेश कर जाएं। नाचते रहें, पूछें भीतर--मैं कौन हूं? नाचते रहें, भीतर पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...दस मिनट के लिए भीतर पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पूछें भीतर, भीतर पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...नाचते रहें, नाचते रहें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
भीतर एक ही सवाल रह जाए एड़ी से सिर तक--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...डोलें, डोलें, नाचें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...मन को थका डालना है, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
देखें, बाहर खड़े हुए लोग बातचीत न करें!
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...सात मिनट बचे हैं, पूछ डालें अपने मन को जोर से--मैं कौन हूं? फिर हम विश्राम करेंगे। जो जितना थक जाएगा उतने गहरे विश्राम में जा सकेगा। मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...डोलें, डोलें, नाचें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
बहुत ठीक! पूछें--मैं कौन हूं?...बाहर आवाज निकल जाए, फिकर न करें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...जोर से पूछें भीतर--मैं कौन हूं?...बाहर निकल जाए, चिंता न करें। मैं कौन हूं?...नाचें, कूदें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम विश्राम करेंगे...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
बहुत ठीक! बहुत ठीक। कूदें, नाचें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...कोई फिकर नहीं, आवाज निकल जाए, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...चार मिनट, पूछें--मैं कौन हूं?...
देखें, भीतर प्रवेश न करें, देखने वाले लोग बाहर रहें। देखने वाले कोई सज्जन भीतर न आएं, बाहर रहें।
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं...मैं कौन हूं?...नाचें, डोलें, पूछें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
बहुत ठीक! बहुत ठीक! थोड़ा सा समय और है, तीन मिनट पूरी ताकत लगा दें--मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं हूं कौन? मैं कौन हूं?...जोर से, दो मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा दें...मैं कौन हूं?...नाचें, कूदें, पूछें--मैं कौन हूं?...एक मिनट बचा है, पूरी ताकत लगा देनी है...मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...एक!...पूरी ताकत लगा दें...दो!...पूरी ताकत लगा दें...तीन!...पूरी ताकत लगा दें जितनी ताकत है...

बस अब सब छोड़ दें। अब सब छोड़ दें। नाचना छोड़ दें, पूछना छोड़ दें, चौथे चरण में प्रवेश कर जाएं...न पूछें, न नाचें; छोड़ दें, सब छोड़ दें, दस मिनट के लिए बिलकुल शून्य हो जाएं...छोड़ दें, दस मिनट के लिए चौथे चरण में चले जाएं...छोड़ दें, चुप हो जाएं, अब न पूछें...अब न पूछें, छोड़ दें, दस मिनट के लिए जैसे मिट गए, दस मिनट के लिए जैसे मर गए...खड़े हैं, खड़े रह जाएं...गिर गए हैं, गिरे रह जाएं...बैठे हैं, बैठे रह जाएं...
दस मिनट के लिए जैसे मिट गए, समाप्त हो गए। दस मिनट के लिए सब शून्य हो गया। दस मिनट के लिए मिट गए, समाप्त हो गए, जैसे हैं ही नहीं। दस मिनट गहरे विश्राम में उतर जाएं और भीतर देखते रहें क्या हो रहा है। भीतर प्रकाश ही प्रकाश भर जाएगा। अदभुत प्रकाश भीतर भर जाएगा। प्रकाश ही प्रकाश, अनंत प्रकाश भीतर भर जाएगा।
देखें, दर्शक चलें-फिरें न, जहां हैं चुपचाप वहीं खड़े रहें और बात न करें। बातचीत न करिए दर्शकों में से कोई, अन्यथा कल से आपको खड़े नहीं होने दिया जाएगा।
दस मिनट के लिए जैसे मर गए, मिट गए। भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। प्रकाश ही प्रकाश, अनंत प्रकाश। जैसे मिट गए, जैसे बूंद सागर में खो जाए।
भीतर देखते रहें, भीतर देखते रहें। भीतर देखें, भीतर देखें, साक्षी मात्र रह जाएं। अनंत प्रकाश, अनंत प्रकाश शेष रह गया। आनंद की धाराएं बहने लगेंगी, मस्तिष्क से पैर तक आनंद की धाराएं बहने लगेंगी। भीतर देखें, आनंद ही आनंद भर जाएगा। रोएं-रोएं में, श्वास-श्वास में आनंद ही आनंद भर जाएगा।
आनंद ही आनंद शेष रह जाता है। भीतर देखें, भीतर देखें, इसी आनंद के रास्ते प्रभु तक पहुंचना है। इसी प्रकाश के रास्ते उसके मंदिर को खोज लेना है। ठीक से पहचान लें इस प्रकाश की झलक को। ठीक से पहचान लें इस आनंद के अनुभव को।
सब शांत हो गया, सब शून्य हो गया। किसी और ही दुनिया में खो गए हैं। यह दुनिया मिट गई, कोई और ही दुनिया शुरू हो गई है। भीतर, भीतर देखें, भीतर डूबते जाएं, डूबते जाएं। देखें, प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद शेष रह जाता है।
सब शून्य हो गया। सब शांत हो गया। भीतर प्रकाश ही प्रकाश रह गया। अनंत प्रकाश, ऐसा प्रकाश जैसा कभी नहीं जाना। अपरिचित, अज्ञात प्रकाश भर गया है। आनंद ही आनंद, रोआं-रोआं श्वास-श्वास आनंद से भर गई है। इस आनंद का स्वाद ठीक से ले लें, इसे पहचान लें। आने वाले तीन दिनों में इसमें और गहरे और गहरे और गहरे डूबते जाना है। रोज और गहरे उतरना है। रोज और गहरे उतर ही जाएंगे। संकल्प करें कि इसमें रोज तीन दिन में गहराई गहराई बढ़ती जाएगी। तीन दिन में इसकी गहराई बहुत हो जाएगी।
प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद शेष रह गया है। प्रकाश ही प्रकाश, आनंद ही आनंद शेष रह गया है।

अब दोनों हाथ जोड़ कर, सिर झुका कर परमात्मा को धन्यवाद दे दें। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, परमात्मा को धन्यवाद दे दें। उसकी अनुकंपा अपार है! उसकी अनुकंपा अपार है! उसकी अनुकंपा का कोई अंत नहीं! उसकी अनुकंपा अपार है! हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें उसके अज्ञात चरणों में। धन्यवाद दे दें। जो आज मिला है वह रोज बढ़ता जाए, ऐसी प्रार्थना कर लें। जो आज जाना है वह रोज गहरा होता जाए, ऐसी प्रार्थना कर लें। जो संकल्प आज किया है वह रोज मजबूत होता जाए, ऐसी प्रार्थना कर लें।
उसकी अनुकंपा अपार है! ऊपर से, नीचे से, चारों ओर से उसकी अनुकंपा बरस रही है! चारों ओर उसकी अनुकंपा बरस रही है! उसकी कृपा बरस रही है!

अब दोनों हाथ छोड़ दें। दोनों हाथ आंखों पर रख लें, ताकि आंख खोलने में आसानी होगी। दोनों हाथ आंखों पर रख लें, थोड़ी देर दोनों हाथ आंखों पर रखे रहें, दो-चार गहरी श्वास लें। आंख पर दोनों हाथ हों, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे से हाथ अलग करके आंखें खोलें। आंख न खुलती हो तो फिर और दो-चार गहरी श्वास लें, आंख पर हाथ रखे रहें, फिर आंख खोलें। धीरे-धीरे हाथ अलग करके आंख खोल लें। जो खड़े हैं वे बहुत आहिस्ता से अपनी जगह बैठ जाएं। बैठते न बने, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर बैठें। जो गिर गए हैं वे भी दो-चार श्वास लें, धीरे-धीरे उठ आएं और अपनी जगह पर बैठ जाएं।
बातचीत कोई न करे। दोत्तीन बातें आपसे कहनी हैं, फिर हम विदा हो जाएं। चुपचाप अपनी जगह बैठ जाएं। बैठते न बने तो दो-चार गहरी श्वास लें, फिर बैठें, जल्दी न करें। उठते न बने तो भी दो-चार गहरी श्वास लें, फिर उठें, जल्दी न करें। दो-चार गहरी श्वास लें, फिर शांति से बैठ जाएं। दो-चार गहरी श्वास लें, उठ आएं, अपनी जगह बैठ जाएं।
जो पड़े हैं, गिर गए हैं, वे भी दो-चार गहरी श्वास ले लें और अपनी जगह बैठ जाएं। जो खड़े हैं वे भी दो-चार गहरी श्वास लेकर अपनी जगह बैठ जाएं। जो गिर गए हैं वे भी दो-चार गहरी श्वास ले लें और अपनी जगह उठ आएं। दो-चार गहरी श्वास ले लें और अपनी जगह बैठ जाएं। उठते न बने, दो-चार गहरी श्वास लें, फिर उठें।
दोत्तीन बातें समझ लें। सुबह स्नान करके आना है। अधिक लोग तो मौन से रहेंगे। जो मौन से न हों वे भी सुबह ध्यान के पहले बिलकुल चुपचाप आकर यहां बैठ जाएं, जहां तक बने बात न करें। यहां आकर चुपचाप बैठ जाएं। स्नान करके आएं। और सुबह कुछ भी पेट में न डालें, खाली पेट आएं।
दोपहर को जो बैठक होगी वह मौन की होगी। एक घंटे मेरे पास आप मौन से बैठेंगे। उस समय कुछ भी नहीं करना, मेरे पास एक घंटे मौन से बैठना भर। उस समय भी जिसको जो होगा वह होने देना है। कोई चिल्लाने लगे, कोई नाचने लगे, कूदने लगे, तो जो जिसे होगा वह होने देना है, कोई रोकना नहीं है।
दोपहर की दूसरी बैठक में घंटे भर के लिए आप मुझसे व्यक्तिगत प्रश्न पूछ सकेंगे। उस समय जो आपने मौन लिया है वे भी आकर प्रश्न पूछ सकते हैं। उतनी उन्हें छुट्टी होगी कि उन्हें कुछ बात मुझसे करनी हो ध्यान के संबंध में, कोई अनुभव हुआ हो, अभी कम से कम तीन दिन उसकी बात किसी से न करें; जो भी हो, मुझे कह जाएं। कुछ पूछना हो, मुझसे पूछ जाएं। एक दफे अनुभव मजबूत हो जाए, फिर ही उसकी बात करनी उचित होती है, अन्यथा नुकसान पहुंचता है।
और कल रात की जो बैठक होगी उसमें आपके जो भी सवाल होंगे, लिख कर दे देंगे, उनकी हम बात कर लेंगे।
दर्शक कुछ इकट्ठे हो गए हैं, उनमें से कुछ लोग बीच में भीतर आते रहे। यह नहीं चलेगा। कल से यहां कोई दर्शक की तरह खड़ा नहीं रह सकेगा। आपको भाग लेना हो तो ध्यान में सम्मिलित हों, अन्यथा यहां न आएं। यहां अगर कोई भी दर्शक की तरह होगा, उसे फौरन बाहर कर दिया जाएगा। इसलिए जिनको भाग लेना है वे ही यहां आएं, अन्यथा न आएं। यहां देखने वाले की कोई जरूरत नहीं है। और कोई भी व्यक्ति ध्यान में यहां-वहां बीच में नहीं चलेगा।
एक बात और ध्यान रखनी है कि जगह यहां बहुत ज्यादा नहीं है, इसलिए आप उछलें-कूदें अपनी ही जगह पर। दौड़ें मत। क्योंकि आप दौड़ेंगे तो फिर कठिनाई होगी। जगह नहीं है, दूसरे से दो-चार लोग टकरा गए, गिर गए, फिर उनका ध्यान टूट जाएगा। अपनी ही जगह का खयाल रखें, वहीं कूदें-उछलें, जो भी करना है वहीं करें। भागें मत।
बहुत अच्छा प्रयोग आपने किया है, जो मैंने कहा। कम से कम पचास प्रतिशत लोगों ने पूरी शक्ति लगाई। परिणाम भी हुए हैं। कल सुबह से मैं चाहूंगा कि सौ प्रतिशत परिणाम हों और सौ प्रतिशत लोग शक्ति लगाएं। तीन दिन में कोई भी आदमी खाली हाथ नहीं लौटना चाहिए। नहीं लौटने का कोई कारण भी नहीं है। लेकिन आप कुछ भी न करें, तब बहुत असंभव है। एक कदम आप चलें, परमात्मा हजार कदम चलने को सदा तैयार है। इन तीन दिनों में आपके भीतर सब कुछ बदल सकता है। कोई शक्ति आपके भीतर उतर सकती है और सब रूपांतरित, सब ट्रांसफार्म हो सकता है।
संकल्प करें, तीन दिन उसका पूरा प्रयोग करें। जो बातें मैंने पहले कही हैं, वे सोच कर कुछ संकल्प कर लेना, वे तीन दिन पूरे करने हैं। अधिकतम मौन रहना। जो लोग पूरा मौन न भी रख सकें, वे भी अधिकतम चुप रहें। और दिन में भी कोई कहीं बैठा हो, कुछ कर रहा हो, तो दूसरे लोग उसमें किसी तरह की बाधा न दें।
आपका संकल्प पूरा हो, ऐसी परमात्मा से प्रार्थना करता हूं।

हमारी आज की रात की बैठक पूरी हुई।



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