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रविवार, 2 अप्रैल 2017

एस धम्मो संनतनो-(प्रवचन-044)

एस धम्मो संनतनो-(भाग-05)
प्रवचन-चव्वाालिसवाां    

ऊर्जा का क्षण-क्षण उपयोग: धर्म

सारसूत्र:

अभित्थरेथ कल्याणे पापा चित्तं निवारये।
दन्धं हि करोतो पुग्भ् पापस्मिं रमते मनो।।१०२।।

पापग्चे पुरिसो कयिरा न तं कयिरा पुनप्पुनं।
न तम्हि छन्दं कयिराथ दुक्खो पापस्स उच्चयो।।१०३।।

पुग्भ्ग्चे पुरिसो कयिरा कयिराथेन पुनप्पुनं।
तम्हि छन्दं कयिराथ सुखो पुग्भ्स्स उच्चयो।।१०४।।

पापोपि पस्सति भद्रं याव पापं न पच्चति।
यदा च पच्चति पापं अथ पापो पापानि पस्सति।।१०५।।

भद्रोपि पस्सति पापं याव भद्रं न पच्चति।
यदा च पच्चति भद्रं अथ भद्रो भद्रानि पस्सति।।१०६।।


मावमग्भ्थ पापस्स न मन्तं आगमिस्सति।
उदविन्दुनिवातेन उदकुम्भोपि पूरति।
बालो पूरति पापस्स थोकथोकम्पि आचिनं।।१०७।।

मावमग्भ्थ पुग्भ्स्स न मन्तं आगमिस्सति।
उदविन्दुनिपातेन उदकुम्भोपि पूरति।
धीरो पूरति पुग्भ्स्स थोकथोकम्पि आचिनं।।१०८।।


धम्मपद के आज के सूत्र पाप और पुण्य के संबंध में हैं।
पाप दुख लाता है, फिर भी लोग किए जाते हैं। पुण्य सुख लाता है, फिर भी लोग टाले जाते हैं। तो पाप और पुण्य की प्रक्रिया को समझना जरूरी है। जानते हुए भी कि पाप दुख लाता है, फिर भी मुक्त होना कठिन है। जानते हुए भी कि पुण्य सुख लाता है, फिर भी प्रवेश कठिन है। तो जरूर पाप और पुण्य की प्रक्रिया में कुछ उलझाव है, जहां मनुष्य खो जाता है, भ्रमित हो जाता है।
पहली बात, पाप को पाप जानकर कोई भी करता नहीं, कभी नहीं किया है। पाप को जो पाप की तरह जान लेता है, हाथ तत्क्षण रुक जाते हैं। पाप को व्यक्ति पुण्य की भांति जानकर ही करता है। तुम बुरा भी करते हो, तो भला मानकर करते हो। बुरा भले की ओट में छिपा होता है।
इसलिए तुम यह प्रतीक्षा मत करना कि तुम जान लोगे कि बुरा बुरा है, बुरा दुख लाता है, तो मुक्त हो जाओगे। तुम्हें अपने भले के दृष्टिकोण में छिपे बुरे को खोजना होगा। तुम्हें वहां तलाश करनी होगी, जहां तुमने तलाश की ही नहीं। तुम्हारा क्रोध तुम्हारी करुणा की ओट में छिपा है। तुम्हारी हिंसा तुम्हारी अहिंसा की आड़ में छिपी है। तुम्हारी कामवासना ने ब्रह्मचर्य के वस्त्र धारण कर लिए हैं। और तुम्हारा असत्य सत्य के शब्द सीख गया है। तुम्हारा अज्ञान पांडित्य की भाषा बोलता है।
शैतान को बचने को कोई जगह नहीं मिली, वह मंदिरों की प्रतिमाओं में छिप गया है। वहां तुम उसे देख ही नहीं पाते, क्योंकि वहां तुम भगवान को देखने जाते हो। वहां तुम एक पक्ष लेकर जाते हो। तुम्हारी आंखें पहले से ही भरी होती हैं। शैतान को बचने के लिए मंदिर और मस्जिद से बेहतर कोई जगह नहीं है। और अज्ञान को बचने के लिए शास्त्रों से बड़ा कोई सहारा नहीं है। और अहंकार को अगर अपने को सदा के लिए छुपा लेना हो सुरक्षित, तो विनम्रता, बस विनम्रता ही सुदृढ़ भीत है। उसी सुदृढ़ किले के भीतर अहंकार छिप जाता है।
पाप को पाप जानकर किसी ने कभी किया नहीं। पाप को कुछ और जानकर किया है। इसलिए पाप का असली सवाल कृत्य का नहीं है, बोध का है। तुम्हारे जानने में भूल हो रही है, तुम्हारे करने में नहीं। अगर जानना सुदृढ़ हो जाए, सुधर जाए, ठीक-ठीक हो जाए, करना रूपांतरित हो जाएगा। सम्यक दृष्टि तुम्हें सम्यक आचरण पर ले आएगी।
इसलिए तुमसे जो कहता है, पाप छोड़ दो, वह व्यर्थ ही समय गंवा रहा है। अपना भी, तुम्हारा भी। तुमने पाप को कभी पकड़ा ही नहीं है। तुम तो पुण्य को ही पकड़ते हो। तुमसे जो कहता है, बुरा मत करो; तुम हंसोगे, तुम कहोगे, बुरा तो हम कभी करते ही नहीं। हो जाता है, यह दूसरी बात है! करते हम सदा भला हैं। करते तो हम भले की ही शुरुआत हैं, आखिरी में हाथ में बुरा लगता है, यह हमारा दुर्भाग्य है।
इन सूत्रों में प्रवेश के पहले पहली बात, जीवन की क्रांति बोध की क्रांति है, कृत्य की नहीं। क्योंकि बुनियादी भूल वहीं हो रही है। तुम्हारे जानने में भूल हो रही है। तुम्हारे होश में भूल हो रही है।
दूसरी बात, पाप तुम्हें प्रलोभित करता है। क्यों? सदियों-सदियों से आदमी जानता रहा है, सभी आदमियों का अनुभव है, पर यह अपरिहार्य रूप से एक ही बात सिद्ध करता है कि पाप लोगों को गहन दुख में ले गया। हर बार निष्पत्ति दुख में होती है। तुमने हिंसा की, तुमने क्रोध किया, कब सुख पाया? तुमने लोभ किया, तुमने मत्सर बांधा, तुमनेर् ईष्या की, कब सुख की वर्षा हुई? एक आध भी तो अनुभव हो, जो तुम्हारे समर्थन में खड़ा हो जाए। सारे अनुभव तुम्हारे विपरीत हैं, फिर भी तुम अनुभव की नहीं सुनते। तो जरूर कहीं बड़ी गहरी चाल होगी।
पाप सुख का प्रलोभन देता है। सुख कभी नहीं देता, प्रलोभन देता है। यह तो तुम भी जानते हो कि पाप से कभी सुख नहीं मिला, लेकिन प्रलोभन! वहीं तुम भूल जाते हो। अनुभव तो दुख है, लेकिन प्रलोभन का तो कोई अंत नहीं। प्रलोभन तो कोरा आश्वासन है।
पाप कहता है, इस बार नहीं हुआ, अगली बार होगा। पाप कहता है, आज नहीं हुआ, हजार चीजें विपरीत पड़ गयीं, कल होगा। लोगों ने न होने दिया, मैंने तो सब इंतजाम किया था, समय अनुकूल न पड़ा, भाग्य और विधि ने साथ न दिया, परिस्थिति प्रतिकूल हो गयी, हवाएं उलटी बहने लगीं, मैंने तो नाव छोड़ी थी ठीक समय, ठीक दिशा में, मेरा कोई कसूर नहीं, कल होगा। ठीक अवसर पर, ठीक मौसम में, समय-घड़ी, विधि-विधान चुनकर फिर से शुरू करना। पाप की कला यह है कि जब भी पाप हारता है, दोष दूसरों पर डालता है। और प्रलोभन को फिर-फिर बचा लेता है।
तो जिस व्यक्ति के जीवन में दूसरों को दोष देने की आदत है, वह कभी पाप से मुक्त न हो पाएगा। क्योंकि वही तो पाप के बचाव की व्यवस्था है। पाप सदा ही इशारा कर देता है कहीं और, कि देखो, इस कारण अड़चन आ गयी। अगर यह अड़चन न होती, तो आज तुम विजेता हो गए होते। साम्राज्य तुम्हारा था। पाप दोषारोपण अपने पर नहीं लेता। और जिस व्यक्ति की यह आदत गहरी हो गयी हो कि दोष को दूसरे पर टाल दे, वह कभी पाप से मुक्त न हो पाएगा। होने का कोई उपाय ही नहीं।
तो जब भी तुम भूल करो, जो भी परिणाम हों, सारी अपनी भूल पर ही आरोपित करना। तो आश्वासन कटेगा, तो प्रलोभन कटेगा, तो तुम्हें पाप सीधा-सीधा दिखायी पड़ेगा, तो पाप तुम्हें धोखा न दे पाएगा, प्रवंचना में न डाल पाएगा। अनुभव तो पाप के दुख के हैं, लेकिन प्रलोभन सदा सुख का है। पाप बुलाए चला जाता है। वह बड़े इंद्रधनुष बसाता है। पास पहुंचोगे, हाथ में कुछ भी न लगेगा। मृग-मरीचिका है। दूर का धोखा है।
लेकिन दूर से धोखा बड़ा सुंदर मालूम होता है। इंद्रधनुष के पास जाओगे, सब रंग खो जाएंगे। हर बार ऐसा ही हुआ है। पाप के पास गए, रंग खो गए। अंधेरा हाथ लगा। कोई रोशनी हाथ न आयी। फिर दूर हटे, फिर प्रलोभन ने पकड़ा। फिर रंग दिखायी पड़ने लगे। दूरी में रंग है। दूर के ढोल सुहावने हैं।
पहला सूत्र है--
'पुण्य करने में शीघ्रता करे, पाप से चित्त को हटाए। पुण्य को धीमी गति से करने वाले का मन पाप में रमने लगता है।'
यह भाषा बहुत पुरानी हो गयी, ढाई हजार वर्ष पुरानी हो गयी है। इसे नया रूप देना होगा, तो ही तुम्हारे समझ के करीब आ सकेगी। इसे ऐसा समझो, जीवन ऊर्जा है। अगर ऊर्जा के लिए सक्रियता न हो, तो ऊर्जा उन दिशाओं में बहने लगती है जहां तुमने उसे कभी चाहा न था कि बहे।
छोटे बच्चे को खिलौना न हो, तो किसी भी चीज का खिलौना बना लेगा। महंगा है यह सौदा। खिलौना चार पैसे का था, टूटता भी तो ठीक था। उसने घड़ी उठा ली, रेडियो का खिलौना बना लिया, तो महंगा सौदा है। ऊर्जा उसके पास है, ऊर्जा संलग्न होनी चाहिए। ऊर्जा प्रवाहित होनी चाहिए। ऊर्जा अगर प्रवाहित न हो, तो बेचैनी पैदा होती है। और बेचैनी में आदमी कुछ भी करने को राजी हो जाता है। पाप बेचैनी से पैदा होता है।
बुद्ध कहते हैं, 'पुण्य करने में शीघ्रता करे।'
जब भी तुम्हारे पास शक्ति हो, बांटो। जब भी तुम कुछ कर सकते हो, कुछ शुभ करो। प्रतीक्षा मत करो कि करेंगे कल। क्योंकि ऊर्जा आज है, और तुमने शुभ को कल पर टाला, तो बीच के समय में पाप तुम्हें पकड़ेगा। तुम कुछ न कुछ करोगे।
यह चकित होओगे तुम जानकर कि जीवन के अधिक पाप कमजोरी से पैदा नहीं होते, शक्ति से पैदा होते हैं। बीमार दुनिया में बहुत पाप नहीं करते, स्वस्थ लोग पाप करते हैं। अगर पाप के हिसाब से देखो, तो बीमारी सौभाग्य है, स्वास्थ्य दुर्भाग्य है। अगर पाप की दृष्टि से देखो, तो जिनके पास शक्ति है वही उपद्रव है। जिनके पास शक्ति नहीं है, उनका कोई उपद्रव नहीं। आलसी आदमियों ने कोई बड़े पाप नहीं किए, पाप करने के लिए आलस्य तो तोड़ना पड़ेगा। कर्मठ, सक्रिय, कर्मवीर, वे ही पाप करते हैं। जहां ऊर्जा है वहां संभावना है, कुछ होकर रहेगा।
फूल भी खिलता है ऊर्जा से, कांटा भी निकलता है ऊर्जा से। अगर फूल न निकला, तो ऊर्जा कांटे से बहेगी। इसके पहले कि ऊर्जा कांटा बनने लगे, तुम फूल बना लेना। तो शक्ति को इकट्ठी करके मत बैठो।
शक्ति तुम रोज पैदा कर रहे हो अनेक-अनेक रूपों से। भोजन शक्ति दे रहा है, श्वास शक्ति दे रही है, जल शक्ति दे रहा है, सूरज शक्ति दे रहा है। तुम्हारा जीवन प्रतिपल ऊर्जा को उदगम कर रहा है, पैदा कर रहा है। इस ऊर्जा का तुम उपयोग क्या कर रहे हो?
अगर इसका कोई सदुपयोग न हुआ, फूल न बने, तो भी यह ऊर्जा को निष्कासित तो होना ही पड़ेगा। यह बहेगी। अगर यह करुणा न बनी, तो क्रोध बनेगी। अगर यह प्रेम न बनी, तो काम बनेगी। अगर यह प्रार्थना न बनी, तो निंदा बनेगी। अगर यह पूजा न बनी, तो कुछ तो बनेगी। यह ऊर्जा ऐसे ही नहीं रहेगी। यह संगृहीत नहीं रहेगी, यह बिखरेगी। क्योंकि कल फिर नयी ऊर्जा आ रही है, जगह खाली करनी पड़ेगी। इसे सक्रिय करो, बुद्ध के सूत्र का इतना ही अर्थ है।
'पुण्य करने में शीघ्रता करे।'
हम करते उलटा हैं। अगर पुण्य करना हो तो हम कहते हैं, सोचेंगे, विचारेंगे, कल करेंगे, परसों करेंगे। पाप करना हो तो हम तत्क्षण करते हैं।
तुमने कभी इस पर खयाल किया, कोई गाली दे तो तुम नहीं कहते कि चौबीस घंटे बाद, सोच-विचारकर उत्तर देंगे। अगर तुम ऐसा करो तो शायद उत्तर तुम कभी दे ही न पाओ। सोच-विचारकर कब किसी ने गाली का उत्तर दिया है? सोच-विचार तो गाली को आने ही न देगा। सोच-विचार तो गाली को रुकावट बन जाएगी। गाली के लिए तो बेहोशी चाहिए। तत्क्षण करते हो तुम। किसी ने गाली दी, तुम फिर क्षण भी नहीं खोते। फिर तुम्हें जो करना है, उसी वक्त बावले होकर, पागल होकर कर गुजरते हो।
लेकिन अगर किसी ने प्रेम मांगा, तुम कितने कंजूस हो जाते हो! तुमने कभी ध्यान किया, प्रेम में तुम कितने कंजूस हो। देते हो तो भी बड़े बेमन से देते हो, रोक-रोककर देते हो। जैसे प्राण टूटे जा रहे हैं, जैसे जीवन नष्ट हुआ जा रहा है।
मेरे पास हजारों लोग आते हैं। बड़ी से बड़ी कठिनाई जो मैं देखता हूं, वह प्रेम देने की कठिनाई है। मांगते हैं, देते नहीं। सभी के मन में एक शिकायत है कि प्रेम नहीं मिल रहा है। होगी ही। क्योंकि कोई दे ही नहीं रहा है, तो मिलेगा कैसे? वे खुद भी नहीं दे रहे हैं।
देना हम भूल ही गए हैं। हमें ऐसा लगता है कि देने से खो जाएगा। जब कि जीवन का सार-सूत्र यही है कि जो भी पुण्य है, वह देने से बढ़ता है, बांटने से बढ़ता है। दबाने से घटता है, रोकने से मरता है।
पुण्य का सतत प्रवाह चाहिए। जैसे नदी ताजी होती है, बहती रहती है। डबरा बन गयी, सड़ने लगी। कीचड़ पैदा होने लगा। दुर्गंध उठने लगी। खो गयी स्वच्छता, खो गयी ताजगी, खो गया कुंवारापन। वह सुगंध न रही, वह सुवास न रही, बंधन में पड़ गयी; वह मुक्ति का छंद न रहा, वह गीत न रहा।
बहाओ। एक क्षण को भी ऊर्जा इकट्ठी मत करो। करनी ही क्या है? जिसने आज दी है, कल भी देगा। जो प्रतिपल दे रहा है, वह प्रतिपल देता रहेगा। तुम लुटाओ दोनों हाथों से।
पुण्य का अर्थ है, जब भी तुम पाओ तुम्हारे पास कुछ करने की शक्ति है, करो। खोजो अवसर। अवसर की कोई कमी नहीं है। सिर्फ कृपणता न हो, तो अवसर ही अवसर है। कुछ भी करो, कुछ बहुत बड़ा काम करना है, ऐसा ही नहीं है। कि तुम सारी दुनिया को बदलो, कोई बहुत बड़ा आदर्श समाज बनाओ, तभी कुछ होगा। कोई छोटा सा काम ही करो। किसी आदमी के पैर में लगा कांटा ही निकाल दो। किसी के घर का आंगन ही साफ कर आओ। रास्ते का कचरा ही अलग कर दो। कुछ भी करो। लेकिन एक बात खयाल रखो कि तुम जो करो, वह किसी के लिए सुख लाता हो। किसी के लिए सुख लाता हो, वही पुण्य है। और जो किसी के लिए सुख लाता है, वह अनंत गुना सुख तुम्हारे लिए ले आता है।
पाप कहता है, तुम्हारे लिए सुख लाऊंगा; पुण्य कहता है, दूसरों के लिए सुख लाऊंगा। पाप कहता है, तुम्हारे लिए सुख लाऊंगा; लाता नहीं, जब लाता है दुख की झोली भर आती है। पुण्य कहता है, दूसरों के लिए सुख लाऊंगा; लेकिन तुम उससे अगर राजी हो जाओ, तो तुम पर अनंत गुना बरस जाता है। जो तुम दूसरों को देते हो, वही तुम्हें मिलता है।
इसे थोड़ा समझो।
जब तुम अपने लिए सुख चाहते हो, तो तुम दूसरों के दुख की कीमत पर भी अपने लिए सुख चाहते हो। तुम देते दूसरे को दुख हो, अपने लिए सुख की कामना करते हो--दुख ही मिलता है। जब तुम दूसरे को सुख देने लगते हो, अपने को दुख देने की कीमत पर भी, तब तुम्हारे चारों तरफ सुख की लहरें उठने लगती हैं।
'पुण्य करने में शीघ्रता करे।'
त्वरा चाहिए। जरा सी भी शिथिलता मत करना, क्योंकि शक्ति क्षणभर को रुकती नहीं। तुमने देर की, उतने में ही शक्ति पाप बनने लगेगी। ऐसा ही है कि अगर तुमने दूध का उपयोग न कर लिया, दूध खट्टा होने लगेगा, दही बनने लगेगा। अगर तुम मुझसे पूछो, तो शक्ति को देर तक रखना ही उसमें खटास पैदा कर देता है। वह पाप की तरफ उन्मुख हो जाती है। शक्ति का प्रतिपल उपयोग चाहिए। एक क्षण की भी देरी व्यर्थ है। अवसर खोना ही मत। और जितने तुम अवसर कम से कम खोओगे, उतने ज्यादा अवसर तुम्हें उपलब्ध होने लगेंगे।
और तुम चकित होओगे जानकर, जीवन के इस भीतरी गणित को पहचानकर कि जितना तुम बांटते हो, उतना ज्यादा तुम्हें मिलता जाता है। तुम थकते ही नहीं। तुम भरते ही चले जाते हो। जैसे अनंत स्रोत खुल गए। इधर तुम लुटाते हो, वहां झरने तुम्हें भरे जा रहे हैं। फिर तो लुटाने का मजा आ जाता है। क्योंकि लुटाने से मिलता है। एक दफा लुटाने का अर्थशास्त्र खयाल में आ गया, फिर तुम कभी दीन हो ही नहीं सकते, फिर तुम दरिद्र हो ही नहीं सकते। फिर तुम सम्राट हो गए। और सम्राट होने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। शक्ति थोड़ी देर भी रुक जाए, जहर हो जाती है। शक्ति का रुकना ही, अवरुद्ध होना ही सड़ना है।
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है
तुम पुराने पड़ गए तो जो ऊर्जा तुम्हारे नए क्षण में अमृत थी, वही बासी हो गयी, वही सड़ गयी। जैसे ऊर्जा मिले, उसका उपयोग कर लो। क्षण-क्षण जीओ।
बुद्ध ने अपने विचार को, अपने दर्शन को क्षणवाद कहा है। कहा है, क्षण-क्षण जीओ। एक क्षण से ज्यादा का हिसाब मत रखो। जिस अनजान स्रोत से इस क्षण को जीवन मिला है; उसी अनजान, उसी शून्य से अगले क्षण भी जीवन मिलता रहेगा। कृपण मत बनो। धर्म को अगर एक शब्द में कोई पूछे तो कहा जा सकता है, वह अकृपणता है।
मरने वाले तो खैर बेबस हैं
जीने वाले कमाल करते हैं
कोई आदमी मर गया, अब बांट नहीं सकता, समझ में आता है।
मरने वाले तो खैर बेबस हैं
जीने वाले कमाल करते हैं
जीते हैं और बांटते नहीं हैं। तो जीने के नाम पर सिर्फ मरते हैं। मृत्यु तो तुमसे सब छीन लेगी, उसके पहले तुम बांट दो, दाता बन जाओ। मृत्यु तो तुमसे सब झटक लेगी, फिर तुम लाख चिल्लाओगे तो कुछ काम न पड़ेगा तुम्हारा चिल्लाना। इसके पहले कि मृत्यु तुम्हारे हाथ से ले, तुम बांट दो, तुम सम्राट बन जाओ। जो व्यक्ति ऐसी स्थिति में मरता है--बांटता ही बांटता मरता है--वह मरता ही नहीं। उसने अमृत का सूत्र पा लिया।
'पुण्य करने में शीघ्रता करे, पाप से चित्त को हटाए।'
अगर तुम पुण्य की तरफ चित्त को न लगाओ, तो पाप की तरफ चित्त लगेगा। कहीं तो लगेगा। चित्त को कोई ध्यान का बिंदु चाहिए।
तुमने कभी खयाल किया, बीच बाजार में बैठे हो, अगर कोई बांसुरी बजाने लगे और तुम्हारा ध्यान बांसुरी की तरफ चला जाए, उस ध्यान के क्षण में बाजार का सब शोरगुल विलीन हो जाता है। अपनी जगह चल ही रहा है बाजार, उतना ही शोरगुल है, तुम्हारे लिए खो गया। तुम्हारा ध्यान कहीं और चला गया। तुम बाजार में खड़े थे, सब तरफ उपद्रव था, किसी ने कहा, घर में आग लग गयी, तुम भागे। अब तुम्हें बाजार का कुछ भी दिखायी नहीं पड़ता। सपना हो गया। तुम्हें घर की लपटें ही दिखायी पड़ती हैं। तुम्हारा ध्यान कहीं और लग गया।
तुमने कभी देखा, युवक खेलते हों हाकी, फुटबाल, वालीबाल, पैर में चोट लग गयी, खून बह रहा है, सभी दर्शकों को दिखायी पड़ता है, खिलाड़ी को दिखायी नहीं पड़ता। ध्यान उसका अभी लगा है--खेल में लगा है। अभी समय कहां? सुविधा कहां? अभी ध्यान को बहने का पैर की तरफ उपाय नहीं। खेल बंद हुआ। तत्क्षण ध्यान बहेगा, खून का पता चलेगा।
ऐसी कहानियां हैं--कहानियां जरा विश्वासयोग्य नहीं, लेकिन सूचक हैं--ऐसी कहानी है कि राणा सांगा युद्ध में लड़ते रहे, सिर कट गया और लड़ते रहे।
यह कहानी चाहे सच न हो, लेकिन ध्यान की दृष्टि से सार्थक है। अगर पैर में लगा, खून बहता रहता है और खिलाड़ी को पता नहीं चलता, तो यह भी संभव है कि योद्धा इतना तल्लीन हो युद्ध में कि गर्दन कट जाए और उसको पता न चले, वह लड़ता ही रहे। जब पता चले, तभी तो रुकेगा न। यह हुआ हो या न हुआ हो, यह सवाल नहीं है। लेकिन ध्यान की तरफ इसमें एक इशारा है। वह इशारा यह है कि तुम मरोगे भी तब, जब तुम मौत पर ध्यान दोगे। अगर तुम्हारा सारा ध्यान जिंदगी की तरफ बहता रहा तो तुम्हें मौत भी खड़ी रहेगी दरवाजे पर, बुला न सकेगी। तो किसी ने याद दिलाया होगा कि राणा सांगा यह क्या कर रहे हो, सिर तो कट ही गया। अब रुको भी। इसका खयाल आते ही रुक गए होंगे, तो बात अलग। इस कहानी में सत्य का अंश मालूम पड़ता है।
काशी के नरेश का अपेंडिक्स का आपरेशन हुआ। तो उन्होंने कहा, मैं तो गीता पढ़ता रहूंगा, कोई नशे की दवा, कोई बेहोशी की दवा, कोई अनस्थीसिया नहीं लूंगा। ऐसा खतरनाक मामला था कि आपरेशन न हो तो भी मौत होनी थी, और नरेश किसी भी तरह बेहोशी की दवा लेने को तैयार न था। तो चिकित्सकों ने खतरा लेना ठीक समझा कि अब कोई मरेगा ही--आपरेशन न हुआ तो मौत निश्चित है और आपरेशन किया बिना बेहोशी की दवा के तो भी मौत करीब-करीब निश्चित है--पर कौन जाने शायद यह आदमी ठीक ही कहता हो, एक प्रयोग कर लेने में हर्ज नहीं है। प्रयोग किया।
वह अपनी गीता का पाठ करते रहे, आपरेशन चलता रहा। आपरेशन हो गया, तब डाक्टरों ने कहा कि अब आप पाठ बंद कर सकते हैं। पूछा उनसे कि क्या हुआ? उन्होंने कहा, कुछ और मैं जानता नहीं, इतना ही जानता हूं कि जब मैं गीता पढ़ता हूं तब मुझे और कुछ भी ध्यान में नहीं रहता। सारा ध्यान गीता पर लग जाता है। मैं और कहीं नहीं रहता, सिकुड़कर गीता पर आ जाता हूं।
पाप और पुण्य विकल्प हैं। अगर तुम्हारा ध्यान करुणा पर लगा है, तो तुम क्रोध कैसे कर सकोगे? क्रोध भूल ही जाएगा। याद ही न आएगी। जैसे क्रोध कोई घटना होती ही नहीं। जैसे क्रोध कोई दिशा ही नहीं है। अगर तुम्हारा ध्यान दान पर लगा है, देने पर लगा है, तो कृपणता भूल ही जाएगी। ये दोनों बातें एक साथ याद नहीं रखी जा सकतीं। यह तो असंभव है। तुम एक में ही जी सकते हो।
इसलिए बुद्ध के सूत्र का अर्थ यह है कि अगर तुम त्वरा करो, जल्दी करो, शीघ्रता करो और पुण्य में अपने मन को लगाते रहो, तो तुम पाओगे कि पाप से तुम बचने ही लगे, बचने की जरूरत न रही। और जब भी कभी तुम्हें लगे कि पाप पर नजर जा रही है, तत्क्षण पुण्य पर नजर देना।
ऐसा समझो कि तुम्हें कोई एक आदमी दिखायी पड़ा, बांसुरी बजा रहा है, लेकिन शकल कुरूप है। अब तुम्हारे सामने दो विकल्प हैं। या तो तुम उसकी कुरूप शकल देखो और पीड़ित और बेचैन हो जाओ, या उसकी सुंदर बांसुरी का स्वर सुनो, सौंदर्य में लीन हो जाओ।
अगर तुम सुंदर बांसुरी का स्वर सुनो, तो उसकी कुरूप शकल भूल जाएगी। स्वरों में तुम लवलीन हो जाओगे, तल्लीन हो जाओगे। अगर तुम उसका कुरूप चेहरा देखो, तो बांसुरी बजती रहेगी, तुम्हें सुनायी न पड़ेगी, तुम कुरूपता के कांटे से उलझ जाओगे। गुलाब की झाड़ी के पास खड़े होकर कांटे गिनो या फूल गिनो, दोनों संभावनाएं हैं। जो फूल गिनता है, वह कांटे भूल जाता है। जो कांटे गिनता है, उसे फूल दिखायी पड़ने बंद हो जाते हैं। पुण्य और पाप जीवन के विकल्प हैं।
'पाप से चित्त को हटाए, पुण्य करने में शीघ्रता करे। पुण्य को धीमी गति से करने वाले का मन पाप में रमने लगता है।'
करोगे क्या? नदी बहेगी नहीं तो डबरा बनने ही लगेगी। बहती रहे, बहाव रहे, तो डबरा कैसे बनेगी? एक ही हो सकता है। नदी डबरा बने तो बह न सके, बहे तो डबरा न बन सके।
बुद्ध का जोर पाप से बचने पर उतना नहीं है, जितना पुण्य में रत होने पर है। यही नीति और धर्म का भेद है। नीति कहती है पाप से बचो, धर्म कहता है पुण्य में डूबो। ऊपर से देखने पर दोनों एक सी बातें हैं, पर एक सी नहीं। जमीन और आसमान का भेद है। अगर तुम सिर्फ पाप से ही बचोगे, तो ज्यादा देर बच न पाओगे, क्योंकि बच-बचकर ऊर्जा का क्या करोगे? अगर क्रोध को ही रोके रहे, कितनी देर रोक पाओगे? विस्फोट होगा। इकट्ठा हो जाएगा, फिर बहेगा, फिर तुम अवश हो जाओगे। नहीं, सिर्फ क्रोध को बचाकर कोई क्रोध से नहीं बच सकता। करुणा में बहना पड़ेगा, अन्यथा क्रोध के डबरे भर जाएंगे।
धर्म विधायक रूप से पुण्य की खोज है, नीति निषेधात्मक रूप से पाप से बचाव है। हां, अगर तुम दोनों का उपयोग कर सको, तो तुम्हें दोनों पंख मिल गए। उड़ना बहुत सुगम हो जाएगा। इधर पाप से मन को बचाते रहो, उधर पाप की जितनी ऊर्जा बच गयी पाप से, पुण्य में लगाते रहो। शीघ्रता करो लेकिन। मन की एक तरकीब है--स्थगन। मन कहता है, कल कर लेंगे।
यह सोचते ही रहे और बहार खत्म हुई
कहां चमन में नशेमन बने कहां न बने
यह बहार सदा रहने वाली नहीं। यह वसंत सदा रहने वाला नहीं। इसका प्रारंभ है, इसका अंत है। यह जन्म है और मौत आती है। ये बीच की थोड़ी सी घड़ियां हैं। तुम कहीं यही सोचते-सोचते बिता मत देना कि कहां बनाएं घर--कहां नशेमन बने, कहां न बने। यह बहार रुकी न रहेगी तुम्हारे सोचने के लिए। यह जीवन तुमने कुछ भी न किया तो भी खो जाएगा, इसलिए कुछ कर लो। क्योंकि जो तुम कर लोगे, वही बचना होगा। जो तुम कृत्य में रूपांतरित कर लोगे, जो सक्रिय हो जाएगा, सृजनात्मक हो जाएगा, वही तुम्हारी संपदा बन जाएगी। बचाने से नहीं बचता जीवन, जगाने से, सृजन कर लेने से बचता है।
वे ही हैं धन्यभागी, जो एक-एक पल का उपयोग कर लेते हैं। इसके पहले कि पल जाए, पल को निचोड़ लेते हैं। उनका जीवन सघन होता जाता है। उनका जीवन गहन आंतरिक शांति, आनंद और संपदा से भरता जाता है। मौत उन्हें दरिद्र नहीं पाती। मौत उन्हें भिखारियों की तरह नहीं पाती। मौत उन्हें सम्राटों की तरह पाती है। लेकिन जिन्हें तुम सम्राटों की तरह जानते हो, मौत उन्हें भिखमंगों की तरह पाती है।
क्षण का उपयोग, इसके पहले कि खो जाए। और क्षण बड़ी जल्दी खो रहा है, भागा जा रहा है। एक पल की भी देर की कि गया। तुम जरा ही झपकी खाए कि गया। इतनी त्वरा से पकड़ना है समय को। विचार करने की भी सुविधा नहीं है। क्योंकि विचार में भी समय खो जाएगा और वर्तमान का क्षण विचार के लिए भी अवकाश नहीं देता। निर्विचार से, ध्यान से, पुण्य में उतर जाओ। इसलिए पुण्य की प्रक्रिया का ध्यान अनिवार्य अंग है। क्योंकि केवल ध्यानी ही शीघ्रता कर सकता है। जो विचार करता है, वह तो देर कर ही देगा। वह तो सोचता ही रहेगा--
यह सोचते ही रहे और बहार खत्म हुई
कहां चमन में नशेमन बने कहां न बने
विचारक तो सोचता ही रहेगा। इसलिए धर्म विचारक का रास्ता नहीं है। धर्म है ध्यानी का रास्ता। ध्यानी का अर्थ है, सोच-विचार छोड़ा। जो अस्तित्व है हाथ में, उसका कुछ सृजनात्मक उपयोग करेंगे। जो हाथ में है, वहीं घर को बनाएंगे। जो हाथ में है, उसे ही रूपांतरित करेंगे। फिर कल जो होगा कल देख लेंगे। आज को कल के लिए न खोएंगे। आज को निर्माण करेंगे, ताकि कल उसके ऊपर, उसके आधार पर और ऊंचाइयों के शिखर छू सके।
'मनुष्य यदि पाप कर बैठे तो उसे पुनः-पुनः न करे, उसमें रत न हो; क्योंकि पाप का संचय दुखदायी है।'
पाप के दो रूप हैं। एक तो पाप का क्षणिक रूप है। वह क्षमा योग्य है। फिर पाप का एक स्थाई भाव है। वह क्षमा योग्य नहीं है। छोटा बच्चा है, तुमने चांटा मार दिया, वह गुस्से में आ गया, पैर पटकने लगा, यह क्रोध क्षमा योग्य है। क्योंकि क्षणभर बाद यह बच्चा उसे भूल जाएगा। क्षणभर बाद तुम इसे हंसता हुआ पाओगे। क्षणभर पहले वह कह रहा था कि तुमसे अब कभी बोलेंगे भी नहीं, तुम्हारी शकल भी न देखेंगे, क्षणभर बाद तुम इसे अपनी गोदी में बैठा पाओगे। यह क्षण का उफान था। यह कोई स्थाई भाव नहीं।
लेकिन हम पाप का स्थाई भाव निर्मित करते हैं। आज क्रोध किया, कल भी क्रोध किया था, परसों भी क्रोध किया था, अब क्रोध की एक लकीर बन रही है। और धीरे-धीरे और भी छोटे-छोटे कारणों पर हम क्रोध करने में कुशल होते जाएंगे। क्योंकि क्रोध करना हमारा स्वभाव--करीब-करीब स्वभाव बन जाएगा, आदत बन जाएगी। पहले हम बड़ी बातों पर क्रोध करेंगे, फिर छोटी बातों पर क्रोध करेंगे, फिर ना-कुछ पर क्रोध करने लगेंगे, फिर ऐसी घड़ी आ जाएगी कि क्रोध के लिए हमें कारण खोजने पड़ेंगे। क्योंकि न करेंगे तो बेचैनी मालूम होगी, तलफ लगेगी। जिस दिन क्रोध न किया उस दिन लगेगा कि जिंदगी ऐसे ही गयी। उत्साह ही मर जाएगा। क्रोध एक तरह का धूम्रपान हो जाएगा। उससे उत्तेजना मिलेगी, नशा चढ़ेगा, लगेगा जीवित हैं। रस मालूम होगा।
'मनुष्य यदि पाप कर बैठे तो पुनः-पुनः न करे।'
हो जाए पाप, तो कोई बहुत चिंता की बात नहीं। मनुष्य है, भूल स्वाभाविक है। लेकिन उसकी पुनरुक्ति न करे। पाप क्षमा योग्य है, पुनरुक्ति क्षमा योग्य नहीं है। भूल क्षमा योग्य है, लेकिन उसी-उसी भूल को बार-बार करना क्षमा योग्य नहीं है। तुमसे एक बार भूल हो गयी, समझो, अब उसे दोहराओ मत। अगर भूल को तुम दोहराते हो, तो फिर तो भूल धीरे-धीरे भूल मालूम ही न पड़ेगी। तुम्हारे जीवन की सामान्य प्रक्रिया हो जाएगी।
तुम दोनों तरह के लोगों को जानते हो। ऐसे लोग हैं जो कभी-कभी क्रोध करते हैं। उनको तुम भले आदमी पाओगे, बुरे आदमी नहीं। उनका क्रोध भी कुछ बहुत भयंकर नहीं होगा। कभी-कभी करते हैं। सामान्यजन हैं, सिद्धपुरुष नहीं हैं, माना। लेकिन कुछ लोग तुम पाओगे जो कभी-कभी क्रोध नहीं करते, जो क्रोध में रहते ही हैं। क्रोध जिनका स्वभाव है। उठते हैं, बैठते हैं क्रोध में; चलते हैं क्रोध में; बोलते हैं क्रोध में; प्रेम भी करते हैं तो क्रोध में; नमस्कार भी करते हैं तो क्रोध में; क्रोध उनकी स्थाई दशा है। क्रोध की सतत-धारा उनके नीचे बहती रहती है। यह क्षमा योग्य नहीं हैं। इन्होंने गहन अपराध कर लिया।
लेकिन ऐसा क्यों होता है? जरूर क्रोध कुछ देता होगा। दुख देता है, यह तो साफ है। लेकिन दुख के लिए ही तो कोई क्रोध को न करेगा, कुछ और भी देता होगा। कुछ रस भी देता होगा। तुमने कभी क्रोध में देखा कि क्रोध के क्षण में तुम शक्तिशाली मालूम होते हो। यह तुमने अनुभव किया होगा कि क्रोध में एक आदमी बड़ी चट्टान को हटा देता है, बिना क्रोध के नहीं हटा पाता। चार आदमी लगते हैं हटाने में। क्रोध की हालत में तुम अपने से मजबूत आदमी को उठाकर फेंक देते हो। प्रेम की हालत में तुम्हारा बच्चा भी तुम्हें चारों-खाने-चित्त कर देता है। क्रोध शक्ति देता मालूम पड़ता है। क्रोध अहंकार को बल देता मालूम पड़ता है। जब तुम क्रोध में होते हो तो ऐसा लगता है कि तुम शक्तिशाली हो, दूसरों के मालिक हो, दूसरों को अपने हिसाब से चलाने का तुम्हें हक है। जब तुम क्रोध नहीं करते हो तो ऐसा लगता है कि तुम निर्वीर्य हो, निर्बल हो, तुम किसी को चला नहीं पाते।
तो क्रोध दुख देता है, वह तो ठीक है; लेकिन क्रोध अहंकार भी देता है। उसे समझना जरूरी है। दुख के लिए तो कोई क्रोध को करता नहीं। लेकिन अहंकार के लिए करता है। अगर तुम अहंकार को पोसते हो, तो तुम क्रोध से न बच सकोगे। अगर तुम अहंकार को पोसते हो, तो तुम लोभ से न बच सकोगे। तुम फिर अहंकार के लिए नए-नए शब्द गढ़ लोगे।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, अहंकार और स्वाभिमान में क्या फर्क है? मैं उनसे कहता हूं, तुम्हें हो तो स्वाभिमान, दूसरों को हो तो अहंकार। और तो कोई फर्क नहीं है। अपनी बीमारी को भी आदमी अच्छे-अच्छे शब्द देना चाहता है।
कल ही एक मित्र ने प्रश्न पूछा था कि दूसरे लोगों को महावीर चक्र मिलता है, तो हमको भी पाने की कोशिश करनी चाहिए कि नहीं। दिल्ली में सम्मान मिलते हैं--महावीर चक्र है, पद्मभूषण है, भारतरत्न है--ऐसी उपलब्धियां होती हैं लोगों को, तो ये पाने योग्य हैं या नहीं?
क्या करोगे महावीर चक्र लेकर? ऐसे ही कोई चक्रम तुम कम हो! और सरकारी सील लग जाएगी कि निश्चित! लेकिन अहंकार व्यर्थ की बातों में भी बड़ा रस लेता है। अब जिसने पूछा है, वह गलत जगह आ गया। यहां सारी कोशिश यह है कि तुम कैसे चक्रम न हो जाओ, चक्कर से कैसे बाहर निकलो, तुम्हें महावीर चक्र की सूझी है! क्या करोगे पाकर? क्या मिलेगा? कुछ पाना ही हो तो भीतर कुछ पाने की बात करो। और लोग कहें कि तुम बड़े विद्वान हो, और लोग कहें कि बड़े बलशाली हो; और लोग क्या कहते हैं, इससे क्या फर्क पड़ेगा? तुम क्या हो, इसकी चिंता करो।
गौण अतिशय गौण है, तेरे विषय में
दूसरे क्या बोलते, क्या सोचते हैं
मुख्य है यह बात पर अपने विषय में
तू स्वयं क्या सोचता, क्या जानता है
एक ही बात महत्वपूर्ण है, तुम अपने स्वयं में, अपनी समझ में, अपने भीतर, अपने अंतःस्तल में क्या सोचते, क्या जानते हो स्वयं को। भीड़ की फिकर छोड़ो। मरते वक्त तुम अकेले जाओगे। महावीर चक्र साथ न ले जा सकोगे। मौत को तुम महावीर चक्र दिखाकर यह न कह सकोगे, एक क्षण रुक, मैं कोई साधारण आदमी नहीं हूं, भारतरत्न हूं। मौत तुम्हें ऐसे ही ले जाएगी जैसे किसी और को ले जाती है। जन्म से अकेले, मौत में अकेले, बीच में दोनों के भीड़ है। उस भीड़ की बातों में बहुत मत पड़ जाना।
अहंकार का अर्थ है, लोग क्या कहते तुम्हारे संबंध में, इसकी चिंता। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, अगर हम क्रोध न करें, तो लोग समझते हैं हम कमजोर हैं। तो क्रोध तो करना ही पड़ेगा। फिर पूछते हैं, मन की शांति कैसे हो? तो फिर मैं उनसे कहता हूं, फिर शांति की भी फिकर छोड़ो। क्योंकि शांत को भी लोग समझते हैं, कमजोर हो। तुम अशांत ही रहो। तुम तो जितने पगला जाओ उतना अच्छा। क्योंकि पागल को लोग समझते हैं कि बड़ा बलशाली है। पागल से लोग डरते हैं।
लोगों को डराने के लिए तुम करीब-करीब पागल हो गए हो। पत्नी पागल हो जाती है, पति डर जाता है। पति पागल हो जाता है, पत्नी डर जाती है। सब एक-दूसरे को डरा रहे हैं। समय खोया जाता है। जब कि तुम अपने को जान सकते थे, उसको दूसरों को डराने में समय खो रहे हो। छोटे-छोटे बच्चों को डराते हैं मां-बाप, इस बुरी तरह डराते हैं! उसमें भी बड़ा मजा ले लेते हैं। यद्यपि सोचते यही हैं कि उनके हित में डरा रहे हैं। लेकिन वे जिंदगीभर इनके डर के कारण पीड़ित रहेंगे।
मनस्विद कहते हैं कि अगर मां-बाप ने बच्चों को बहुत ज्यादा डरा दिया तो वे जिंदगीभर डरते रहेंगे, वे हर किसी से डरेंगे। जहां भी कोई शक्तिशाली होगा, वहीं डर जाएंगे। वे सदा पैर छूते रहेंगे। वे सदा भयभीत कंपते रहेंगे। उनको कभी भी जीवन में स्वयं होने की क्षमता न आ सकेगी। लेकिन मां-बाप डराते हैं यह कहकर कि उनके हित के लिए डरा रहे हैं।
मैं तुमसे यह कहना चाह रहा हूं कि तुम अपनी बीमारियों को अच्छे नाम मत देना। तुम अपनी बीमारियों को उनका वही नाम देना, जो ठीक है। अहंकार को अहंकार कहना, स्वाभिमान मत। क्रोध को क्रोध कहना, दूसरे का हित नहीं। बच्चे को मारो तो जानकर मारना कि मारने में तुम्हें रस आ रहा है, मजा आ रहा है। छोटे बच्चे को सताने में तुम्हें शक्तिशाली होने का सुख मिल रहा है। यह मत कहना कि तेरे हित में मार रहे हैं। नहीं तो तुम चूक जाओगे; फिर पाप चलेगा।
'मनुष्य यदि पाप कर बैठे तो उसे पुनः-पुनः न करे, उसमें रत न हो; क्योंकि पाप का संचय दुखदायी है।'
लेकिन यह तो बुद्धपुरुष सदियों से कहते रहे कि पाप का संचय दुखदायी है, फिर भी लोग पाप करते हैं। तो कारण खोजना होगा। लोग दुख को भी छोड़ना नहीं चाहते। दुख में भी कुछ न्यस्त स्वार्थ हैं।
इसे तुम थोड़ा समझने की कोशिश करो। मैं जैसे-जैसे लोगों के जीवन में उतरकर देखने की कोशिश करता हूं, मैं मुश्किल से पाता हूं ऐसा आदमी जो दुख छोड़ना चाहता है। क्योंकि दुख अकेला नहीं है, दुख के साथ बड़ी चीजें जुड़ी हैं।
समझने की कोशिश करें।
मनस्विद कहते हैं कि हर आदमी के भीतर मसीहा छिपा है। अगर कोई आदमी बीमार है, तो तुम्हारे मन में आकांक्षा उठती है उसकी सेवा करने की, उसको बीमारी के बाहर लाने की। अगर कोई आदमी दुखी है, तो तुम्हारे मन में आकांक्षा होती है, इसको इसके दुख के बाहर खींचना है, इसका उद्धार करें।
कुछ बुरी आकांक्षा नहीं। लेकिन परिणाम बड़े भयंकर हैं। पुरुष अक्सर ऐसी स्त्रियों के प्रेम में पड़ जाते हैं जो स्त्रियां दुखी हैं। क्योंकि पुरुषों को बड़ा मजा आ जाता है, किसी को दुख से उबार रहे हैं। स्त्रियां ऐसे पुरुषों के जीवन में उलझ जाती हैं, जिनमें सुधार की गुंजाइश है। शराबी है पति, तो स्त्री को ज्यादा रस आता है। सुधारने का एक सुख है। एक उद्धार का अवसर मिला।
अब इसे थोड़ा हम समझें।
अगर तुमने एक स्त्री को इसलिए प्रेम किया कि वह बीमार थी, रुग्ण थी और तुम उसे चिकित्सा करना चाहते थे, उसकी दुख की सीमा के बाहर लाना चाहते थे, तो फिर वह दुख को छोड़ न सकेगी। क्योंकि दुख छोड़ने का अर्थ तुम्हारा प्रेम भी खो जाना होगा। अगर एक स्त्री अपने पति के पीछे लगी है कि यह शराब छोड़ दे, और अगर यह शराब छोड़ने के कारण ही सारा प्रेम बना है, तो पति शराब न छोड़ सकेगा। क्योंकि शराब छोड़ने का मतलब हुआ, संबंध समाप्त हुआ।
मुझसे लोग पूछते हैं कि अगर हम बदल जाएंगे, तो हमारे संबंधों पर परिणाम तो न होगा? अगर हम ध्यान करेंगे, तो हमारे संबंध तो रूपांतरित न होंगे? मैं उनसे कहता हूं, सोच-समझकर करना। रूपांतरित होंगे। क्योंकि तुम्हारे सब संबंध तुम्हारे रोगों से भरे हैं। ध्यान एक को बदलेगा, तो दूसरे को भी बदलाहट होनी शुरू हो जाएगी। हमारे दुखों में भी हमारी पकड़ है। मजा खो जाएगा।
मैं दो शत्रुओं को जानता था। दोनों पुराने रिटायर्ड प्रोफेसर थे और दोनों का कुल धंधा इतना था, एक-दूसरे की निंदा। उनमें से एक से भी मिल जाओ तो दूसरे के संबंध में चर्चा सुननी पड़ती। उनमें से एक मर गया। काफी उम्र हो गयी थी, कोई अठहत्तर वर्ष। जिस दिन वह मरा, मैंने अपने एक मित्र को कहा कि अब दूसरा ज्यादा दिन जिंदा न रह सकेगा। तीन महीने बाद दूसरा भी मर गया। वह मित्र मेरे पास आया, उन्होंने कहा कि आपने यह कैसे कहा था? कि यह तो बिलकुल सीधी बात थी। उनका रस ही इतना था। अब उसके, दूसरे के जीवन में कोई रस ही न रहा। एक के मर जाने के बाद दूसरे को बात ही करने को कुछ न बची। सारी बात--उसकी निंदा! मित्रों में ही संबंध नहीं होते, दुश्मनों में भी बड़े गहरे नाते होते हैं।
जिस दिन गांधी को गोली लगी, उस दिन जिन्ना अपने बगीचे में बैठा था। तब तक जिन्ना ने--हर बार हर तरह से कोशिश की थी उसके मित्रों ने, अनुयायियों ने कि कुछ सुरक्षा की व्यवस्था की जाए--लेकिन उसने सदा इनकार कर दिया। उसने कहा, मुझे कौन मारने वाला है? जिनके लिए मैंने अपना जीवन लगाया, देश दिलवाया, वे मुझे मारेंगे? यह कोई सवाल ही नहीं है। मुझे किसी तरह की सुरक्षा, किसी तरह के गार्ड की कोई जरूरत नहीं है। मकान पर पुलिस वाले भी नहीं थे जिन्ना के।
लेकिन जैसे ही खबर पहुंची रेडियो से और उसके सेक्रेटरी ने आकर कहा कि गांधी को दिल्ली में गोली मार दी गयी, वह एकदम उदास हो गया, उठकर भीतर गया। सेक्रेटरी चकित हुआ, क्योंकि गांधी की मृत्यु से जिन्ना को खुश होना चाहिए, वे उदास हैं! वह भीतर गया और उसने कहा, आप उदास दिखते हैं! उन्होंने कहा, उदास दिखता हूं, जिंदगी एकदम खाली मालूम पड़ती है। इसी आदमी से तो सारा संघर्ष था।
और उसी दिन से जिन्ना के घर पर पहरा बैठ गया। क्योंकि जब गांधी मारा जा सकता है, तो जिन्ना की क्या बिसात! लेकिन जिन्ना उससे ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहा फिर। अगर गांधी जिंदा रहते, जिन्ना भी जिंदा रहता। रस ही खो गया, जिंदगी का मजा ही चला गया। दुश्मन एक-दूसरे को जिलाते हैं।
तुम्हारे दुख में भी तुम्हारा न्यस्त स्वार्थ होगा। इसीलिए लोग कहे चले जाते हैं कि दुख है, दुख है, फिर भी तुम किए चले जाते हो। कहीं कुछ रस होगा उसमें। तुम्हारे दुख में से भी कोई तरह की सुख की किरणें आ रही होंगी।
अगर तुम स्त्री हो और एक पति या प्रेमी तुम्हारे प्रेम में पड़ गया, क्योंकि तुम दुर्बल हो, कमजोर हो, बीमार हो, तो तुम स्वस्थ न हो सकोगी। क्योंकि स्वास्थ्य का अर्थ होगा, यह पति गया। यह फिर कोई और बीमार औरत खोजेगा, जिस पर यह दया कर सके, प्रेम कर सके, सहानुभूति कर सके, अस्पताल ले जा सके और जिसके आसपास यह मसीहा बन सके कि देखो, मैं इसको बचा रहा हूं, उद्धार कर रहा हूं।
ऐसे लोग हैं जो वेश्याओं से शादी करते हैं। उद्धार करना है। शादी-वादी का कोई बड़ा मामला नहीं है। शादी से वेश्या का क्या लेना-देना है। लेकिन वेश्या का उद्धार करना है। लेकिन उनकी बड़ी तकलीफ है। मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जिन्होंने वेश्याओं से शादी की और शादी के बाद मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि फिर वेश्या वेश्या न रही। पहले उसका उद्धार कर लिया, मजा उद्धार करने में था। फिर वेश्या पत्नी हो गयी, बस मजा चला गया। वह दूसरी वेश्या के पीछे पड़ गया। अब वह पत्नी चिल्लाती है, रोती है कि तुमने मुझसे विवाह किया, मेरा उद्धार किया, अब तुम छोड़कर क्यों जाते हो? उसको भी समझ में नहीं आता कि मामला क्या है।
मामला बिलकुल सीधा है, गणित का है। जब तक वह वेश्या थी, तभी तक उनका रस था। जैसे ही वह वेश्या नहीं रही, रस खतम हो गया। साधारण औरत हो गयी। ऐसी साधारण औरतें तो बहुत थीं। अब अगर उनका रस कायम रखना हो, तो उस पत्नी को वेश्या बने ही रहना चाहिए; तो वे उद्धार करते रहें, काम जारी रहे। दुख में हमारे न्यस्त स्वार्थ हैं।
मुझसे लोग कहते हैं कि हम दुख से मुक्त होना चाहते हैं, लेकिन मैं गौर से देखता हूं तो मुझे मुश्किल से कोई आदमी दिखायी पड़ता है, जो वस्तुतः दुख से मुक्त होना चाहे। कहते हैं वे। कहते हैं, कहने में रस है। दुख से मुक्त होने में रस नहीं है, दुख से मुक्त होना चाहते हैं, यह दिखलाने में रस है--कि हम दुख से मुक्त होना चाहते हैं। इसका मजा ले रहे हैं। लेकिन दुख से तुम मुक्त होना चाहो तो तुम्हें कौन दुखी रख सकता है? कोई उपाय नहीं है इस संसार में किसी व्यक्ति को दुखी रखने का, अगर वह मुक्त होना चाहता है। लेकिन वह मुक्त होना नहीं चाहता। क्योंकि उसकी सारी सहानुभूति खो जाएगी।
तुम अपना निरीक्षण करो, छोटी सी बीमारी हो जाती है, तुम बड़ा करके बताते हो। तुम इसे खयाल करना। जरा सा सिरदर्द हो जाता है, तुम ऐसा समझते हो कि सारा पहाड़ टूट पड़ा, हिमालय तुम्हारे ऊपर टूट पड़ा। तुम इतना बढ़ा-चढ़ाकर क्यों बताते हो? क्योंकि जब तुम बढ़ा-चढ़ाकर बताते हो तो दूसरे की आंखें सहानुभूति से भर जाती हैं। तुम सहानुभूति की भिक्षा मांग रहे हो। लोग अपने दुख की चर्चा करते फिरते हैं, एक-दूसरे से कहते फिरते हैं, मैं बहुत दुखी हूं। क्यों? दुख की चर्चा से क्या सार है? लोगों की आंखों में सहानुभूति आती है, प्रेम का थोड़ा धोखा हो जाता है। लगता है, लोगों को मुझ में रस है, मैं महत्वपूर्ण हूं। लोग मेरे दुख से दुखी हैं। मेरे दुख से मुझे छुटकारा दिलाना चाहते हैं।
तुम जरा गौर करो, तुम अपने दुख की चर्चा एक सप्ताह के लिए बंद कर दो। तुम चकित होओगे कि दुख की चर्चा बंद करते ही लोगों की सहानुभूति खो गयी। सहानुभूति खोने में ऐसा लगेगा कि जीवन की कोई संपदा खोयी जा रही है। तुम चकित होओगे कि जो लोग तुम्हारे मित्र थे, वे बदलने लगे। क्योंकि उनका रस सहानुभूति दिखाने में था। वे ऐसे लोग चाहते थे--दुखी, दीन--जिनके ऊपर सहानुभूति दिखाएं, मुफ्त का मजा ले लें। तुम्हारे संबंध बदल जाएंगे। तुम्हें नए मित्र बनाने पड़ेंगे। उनको नए बीमार खोजने पड़ेंगे।
तुम जरा सात दिन के लिए निरीक्षण करके देखो, मत करो दुख की चर्चा। तुम ऐसा करो, उलटा करो, सात दिन अपने सुखों की चर्चा करो। देखो, तुम्हारे दोस्त बदल जाएंगे। जो मिले उससे ही कहो कि अहा! कैसा आनंद आ रहा है! वह भी चौंकेगा कि अरे! कल तक सिर दर्द, पेट दर्द, कमर दर्द, यह, वह, पच्चीस बातें लाते थे!
मेरे पास लोग आते हैं। उनमें से नब्बे प्रतिशत झूठ होता है। मैं यह नहीं कहता कि वे झूठ जानकर बोलते हैं। ध्यान किया नहीं कि कमर में दर्द, कि सिर में दर्द, कि छाती में दर्द, कि पेट में दर्द, जैसे ध्यान से दर्द का कोई लेना-देना है! अगर मैं उनसे कहूं कि यह सब बकवास है, तो वे मुझसे नाराज होते हैं। मुझे कहना पड़ता है, कुंडलिनी जग रही है! वे बड़े प्रसन्न होते हैं। यही सुनने के लिए वे दर्द लेकर आए थे। कुंडलिनी जग रही है, अहा! वे कल और बड़ा दर्द बनाकर ले आएंगे। और ऐसा भी नहीं कि वे झूठ कह रहे हैं, ध्यान रखना, वे कल्पना इतनी प्रगाढ़ कर लेते हैं कि वह प्रतीत भी होती है कि है। बड़ा जाल है।
अगर मैं उनको उनके दर्द से मुक्त करूं, तो वे राजी नहीं हैं। क्योंकि दर्द में उनका न्यस्त स्वार्थ है। रोज मैं देखता हूं, अगर मैं किसी को कह देता हूं कि यह सब बकवास है, कुछ तुम्हें हो नहीं रहा, खयाल है। वे मेरी तरफ ऐसे देखते हैं जैसे मैं दुश्मन हूं, उनसे मैंने कुछ छीन लिया है। सिर्फ दर्द ठीक नहीं हो रहा है, दर्द है नहीं, दर्द छीना, वे मेरी तरफ ऐसे देखते हैं कि मैं समझा नहीं, उनको कोई और गुरु तलाश करना पड़ेगा, जो कहे कि बिलकुल ठीक हो रहा है। अगर मैं कह देता हूं कि बड़ी गहरी घटना घट रही है, तो दर्द एक तरफ, वे मुस्कुराने लगते हैं, प्रसन्न हो जाते हैं।
तो दर्द में तुम सुख ले रहे हो, इसलिए दर्द है। तो बुद्धपुरुष कहते रहें कि पाप में दुख है, छोड़ो, तुम छोड़ोगे न। क्योंकि तुम्हें दुख में भी सुख है। और जब तक तुम वहां से न पकड़ोगे, तब तक बुद्ध-वचन तुम्हारे ऊपर ऐसे पड़ेंगे और निकल जाएंगे जैसे चिकने घड़े पर वर्षा होती है।
जरा जागो। अपने को पकड़ो रंगे हाथों, तुमने कैसा खेल अपने आसपास खड़ा कर लिया है! झूठी सहानुभूति मत मांगो। दुख के आधार पर प्रेम मत मांगो। क्योंकि दुख के आधार पर प्रेम मांगने से ज्यादा बड़ा आत्म-अपमान और कोई भी नहीं है। अगर प्रेम मांगते हो, तो आनंद के आधार पर मांगो। अगर प्रेम मांगते हो, तो स्वास्थ्य के आधार पर मांगो। अगर प्रेम मांगते हो, तो सौंदर्य के आधार पर मांगो। नकार के आधार पर प्रेम मत मांगो, अन्यथा तुम नकार होते चले जाओगे।
स्त्रियों ने सीख ली है वह कला बहुत। क्योंकि बचपन से उनको पता चल जाता है--सभी को पता चल जाता है--लेकिन स्त्रियां उसे ज्यादा सीख लेती हैं। उसके भी कारण हैं। बच्चों को पता चल जाता है कि जब वे बीमार होते हैं तब घरभर के ध्यान का केंद्र बन जाते हैं। बच्चा बीमार हुआ, बिस्तर पर लग गया, तो बाप भी आकर बैठता है दफ्तर से--चाहे कितना ही थका हो--सिर पर हाथ रखता है, पूछता है, बेटा कैसे हो? ऐसे कोई नहीं पूछता। जब वह ठीक रहता है, कोई सिर पर हाथ नहीं रखता। मां आकर पास बैठती है। घरभर तीमारदारी करता है। डाक्टर आता है। पड़ोस के लोग देखने आने लगते हैं। बच्चे को एक बात समझ में आ जाती है--जब भी प्रेम चाहिए हो, बीमार पड़ जाओ।
स्त्रियां इस कला में पारंगत हो जाती हैं। जब भी उनको प्रेम चाहिए, एकदम बीमार पड़ जाती हैं। तुम देखो, स्त्री भली-चंगी बैठी है, पति आया, एकदम सिर में दर्द हो जाता है। यह चमत्कार समझ में नहीं आता कि पति के आने से सिरदर्द का क्या संबंध है! और ऐसा भी नहीं कि वे झूठ बोल रही हों--मेरी बात ठीक से समझना--ऐसा भी नहीं कि वे झूठ बोल रही हैं। हो ही जाता है।
इतनी निष्णात हो गयी है कि खुद को भी झूठ में पकड़ नहीं पाती। पति का दर्शन हुआ कि सिरदर्द भी उठा। यह इतना स्वाभाविक हो गया है क्रम, क्योंकि सिरदर्द हो तो ही पति की सहानुभूति, नहीं तो वह अखबार लेकर बैठ जाता है। अखबार में छिपा लेता है अपने को। वह अखबार भी सब उपाय है। वह दिन में तीन दफे पढ़ चुका है उसी अखबार को। दफ्तर में भी वही काम करता रहा अखबार पढ़ने का, घर आकर भी उसी को पढ़ता है। वह अखबार पढ़ने के पीछे आड़ में अपने को छिपाता है कि बचूं किसी तरह! वह उसका छाता है।
लेकिन पत्नी के सिर में दर्द है तो अखबार रखना पड़ता है। सिर पर हाथ रखो, बैठो, दो सुख-दुख की बातें करो। अगर तुमने अपने दुख में किसी भी तरह का सुख लिया, तो तुम दुख से कभी बाहर न हो सकोगे। फिर तो तुमने नर्क में भी धन लगा दिया। वह तुम्हारा धंधा हो गया।
इसलिए जिस व्यक्ति को आत्मजागरण की यात्रा पर जाना हो, सबसे पहली और बहुत बुनियादी बात है कि वह अपने दुखों में किसी तरह का व्यवसाय न करे। अन्यथा दुख को छोड़ना असंभव है। फिर तो तुम उसे पैदा करना चाहोगे।
'मनुष्य यदि पुण्य करे तो उसे पुनः-पुनः करे, उसमें रत होवे; क्योंकि पुण्य का संचय सुखदायी है।'
गहन व्यथा के बाद हर्ष का नव नर्तन है
प्रसव पीर के पार नवल शिशु का दर्शन है
दुख छिपा है सुख की आड़ में। पाप सुख का आश्वासन देता है। पास गए, कांटा चुभता है, दुख मिलता है। ठीक इससे उलटी अवस्था पुण्य की है, सुख की है। पुण्य तुम्हें कोई आश्वासन नहीं देता। साधना का आवाहन देता है, आश्वासन नहीं देता। पुण्य कहता है, श्रम करना होगा, तपश्चर्या से गुजरना होगा, निखरना होगा। क्योंकि सुख इतना मुफ्त नहीं मिलता जितना तुमने पाप के आश्वासनों के कारण मान रखा है।
पाप कहता है, मिल जाएगा, तुम सुख पाने के अधिकारी हो, बस आ जाओ, जरा सी करने की बात है, कुछ भी करने की बात नहीं है वस्तुतः, सिर्फ मांगो और मिल जाएगा। पुण्य कहता है, करना होगा, अर्जित करना होगा, निखारना होगा स्वयं को, सुख ऐसे आकाश से नहीं उतरता, तुम्हारे भीतर के अंतर-भाव की क्षमता जब पैदा होती है, पात्रता जब पैदा होती है, तब उतरता है। मुफ्त नहीं मिलता। भीख में नहीं मिलता। श्रम से कमाना होता है। मूल्य चुकाना होता है। पुण्य कहता है, साधना। पाप कहता है, आश्वासन--सस्ते। वह कहता है, मुफ्त में, कुछ करने की बात ही नहीं; यह लो, हाथ भर फैलाओ, हम देने को तैयार हैं।
लेकिन तुम जरा सोचो, सुख जैसी बात इतनी मुफ्त में मिल सकती है? इतनी सस्ती मिल सकती है? जरूर कहीं कोई धोखा हो रहा है। हाथ खींच लो अपना। सुख पाने के लिए क्षमता अर्जित करनी होगी।
गहन व्यथा के बाद हर्ष का नव नर्तन है
पीड़ा से गुजरना होगा। क्योंकि पीड़ा निखारती है।
प्रसव पीर के पार नवल शिशु का दर्शन है
छोटा बच्चा पैदा होता है, नया जीवन का आविर्भाव होता है, तो मां बड़ी पीड़ा से गुजरती है। इस पीड़ा से बचना चाहो तो प्लास्टिक के बच्चे मिल सकते हैं। खिलौने रखकर बैठ जाओ, झुठला लो अपने को।
पर उन झूठों में समय व्यर्थ ही जाएगा, अवसर ऐसे ही खो जाएगा। क्षणभर को पाप ऐसी प्रतीति करा देता है कि सुख मिल रहा है। इसलिए पुण्य की कसौटी यही है कि जो ठहरे, वही सच है। जो क्षणिक हो, वह धोखा है।
जिंदगी जामे-ऐश है लेकिन
फायदा क्या अगर मुदाम नहीं
अगर कोई ऐसा सपने जैसा सुख का प्याला सामने आता हो और हाथ पहुंच भी न पाएं और खो जाता हो, थिर न होता हो, तो फायदा क्या अगर मुदाम नहीं? तो इसे जीवन की कसौटी बना लेनी चाहिए कि जो ठहरे, जो रुके, जो शाश्वत बने, वही सुख है। जो क्षण को झलक दिखाए, सपने में उतरे और खो जाए, आंख खुलते ही ओर-छोर न मिले, वह सिर्फ धोखा है। वह मायाजाल है।
'मनुष्य यदि पुण्य करे तो पुनः-पुनः करे।'
जैसे पाप की पुनरुक्ति से स्वभाव बनता है, वैसे पुण्य की पुनरुक्ति से भी स्वभाव बनता है। दुख को ज्यादा स्वभाव मत बनाओ। अन्यथा दुखी होते जाओगे। हां, अगर दुखी ही होने का तय किया हो, तब अलग बात! सुख को स्वभाव बनाओ। जितने सुख के अवसर आएं उनको खोओ ही मत, उनकी पुनरुक्ति करो। उनको बार-बार स्मरण करो, उनको बार-बार खींचकर ले आओ जीवन में फिर। सुबह को दोहराओ, रोशनी को पुनरुक्त करो, प्रभु की चर्चा करो। और जहां-जहां से सुख मिलता हो वहां-वहां बार-बार, दुबारा-दुबारा खोदो। ताकि तुम्हारी सारी ऊर्जा धीरे-धीरे सुख की दिशा में प्रवाहित होने लगे।
'जब तक पाप पकता नहीं--उसका फल नहीं मिलता--तब तक पापी पाप को अच्छा ही समझता है। लेकिन जब पाप पक जाता है, तब उसे पाप का पाप दिखायी देता है।'
पाप का पता चलता है उसके फल में। पुण्य का भी पता चलता है उसके फल में। इसलिए जीवन को एक निरंतर शिक्षण समझो। जिन-जिन चीजों के फल पर तुम्हें सुख मिला हो, उन्हें दोहराओ। और जिन-जिन चीजों के फल पर तुम्हें दुख मिला हो, उनसे अपने को बचाओ। अगर क्रोध करके सुख मिला हो, दोहराओ, पुण्य है। अगर करुणा करके दुख मिला हो, बिलकुल मत दोहराओ, पाप है। अगर देकर सुख पाया हो, दो। अगर कंजूस बनकर सुख पाया हो, रोको। इसको कसौटी समझ लो। लेकिन फल, परिणाम पर ध्यान रखो।
'जब तक पुण्य पकता नहीं--उसका फल नहीं मिलता--तब तक पुण्यात्मा भी पुण्य नहीं समझता है। लेकिन जब पुण्य पक जाता है, तब उसे पुण्य दिखायी पड़ता है।'
स्वभावतः, बीज को बोते हैं, समय लगता है। फल आते हैं, तभी पता चलता है, नीम बोयी थी कि आम बोए थे। बीज का निर्णय तो उसी दिन होगा जब फल लग जाएंगे। फिर कड़वे लगे, मीठे लगे, उससे ही निर्णय होगा। उससे तुम भविष्य के लिए शिक्षा लो। अगर कड़वे फल लगे हों, तो फिर दुबारा उन बीजों को मत बोओ। इतनी ही जिसे समझ में आ गयी, उसने बुद्धत्व की यात्रा पर पहला कदम रख दिया।
जिसके पीछे हों गम की कतारें
भूलकर उस खुशी से न खेलो
जिसके पीछे हों गम की कतारें
भूलकर उस खुशी से न खेलो
क्योंकि वह खुशी सिर्फ दिखायी पड़ती है; पीछे से दुखों की कतार आ रही है। वह सिर्फ मुखौटा है।
'वह मेरे पास नहीं आएगा--ऐसा सोचकर पाप की अवहेलना न करे। जैसे पानी की बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है, वैसे ही मूढ़ थोड़ा-थोड़ा संचय करते हुए पाप को भर लेता है।'
हम निरंतर ऐसे ही सोच-विचार में अपने को उलझाए रहते हैं--वह मेरे पास नहीं आएगा। क्रोध, लोभ, मोह, काम मेरे पास नहीं आएगा, दूसरों के पास जाता है--ऐसी अवहेलना न करे। क्योंकि इसी अवहेलना के द्वार से वह आता है।
एक बड़ी प्रसिद्ध कहानी है अरब में कि ईश्वर ने तो बड़ी घोषणाएं की हैं संसार में कि मैं हूं--कुरान है, बाइबिल है, वेद हैं, उपनिषद हैं, गीता है--जहां ईश्वर घोषणा करता है: मामेकं शरणं व्रज; मेरी शरण आ, मैं हूं। कहानी कहती है, लेकिन शैतान ने अब तक एक भी शास्त्र नहीं लिखा और घोषणा नहीं की। अजीब बात है! क्या शैतान को विज्ञापनबाजी का कुछ भी पता नहीं? क्या शैतान को विज्ञापन के शास्त्र का कोई अनुभव नहीं? ईश्वर के तो कितने मंदिर, कितनी मस्जिदें, कितने गुरुद्वारे, कितने चर्च खड़े हैं। घंटियां बजती ही रहती हैं, विज्ञापन होता ही रहता है कि ईश्वर है। शैतान बिलकुल चुप है।
किसी ने शैतान से पूछा है कहानी में। उसने कहा कि हम जानते हैं। मेरी सारी खूबी इसी में है कि लोग मेरी अवहेलना करें। लोगों को पता न हो कि मैं हूं, तो मेरा काम सुविधा से चलता है। मैं उनकी बेहोशी में ही घात मारता हूं। उन्हें पता चल जाए कि मैं हूं, तो वे सजग हो जाएंगे। मेरा न होना ही मेरे लिए सुविधापूर्ण है। शैतान ने कहा, वस्तुतः मैंने अपने कुछ शागिर्द छोड़ रखे हैं, जो खबर फैलाते रहते हैं कि शैतान वगैरह कुछ भी नहीं। है ही नहीं। यह सब खयाल है। मन का भ्रम है। आदमी का भय है। शैतान है नहीं। लोग निश्चिंत हो जाते हैं, मुझे सुविधा हो जाती है।
बुद्ध यह कह रहे हैं, 'वह मेरे पास नहीं आएगा--ऐसा सोचकर पाप की अवहेलना न करे।'
क्योंकि तब तुम बेहोश हो जाते हो, जब अवहेलना करते हो। तब तुम सो जाते हो। जब तुम्हें पता है कि चोर आएगा ही नहीं, तुम निश्चिंत सो जाते हो। तुम्हारी निश्चिंतता में ही चोर के लिए सुविधा है।
जागे रहो! होश को जगाए रहो! दीए को जलाए रहो! क्योंकि एक-एक बूंद से जैसे घड़ा भर जाता है ऐसे ही छोटे-छोटे पापों से आदमी के पूरे प्राण भर जाते हैं।
'वह मेरे पास नहीं आएगा--ऐसा सोचकर पुण्य की अवहेलना न करे। जैसे पानी की बूंद-बूंद गिरने से घड़ा भर जाता है, वैसे ही धीर थोड़ा-थोड़ा संचय करते हुए पुण्य को भर लेता है।'
तो न तो पाप की अवहेलना करे कि मेरे पास नहीं आएगा, न पुण्य की अवहेलना करे कि मेरे पास नहीं आएगा। ऐसे लोग हैं, मैं उन्हें जानता हूं, अगर उनसे कहो--वे पूछते हैं, क्या हम शांत हो सकेंगे? मैं उनसे कहता हूं, निश्चित हो सकेंगे--वे कहते हैं, हमें भरोसा नहीं! हमें विश्वास नहीं आता कि हम शांत हो सकेंगे। अब उन्होंने एक दीवाल खड़ी कर ली। अगर तुम्हें भरोसा ही न आए कि तुम शांत हो सकोगे, तो तुम शांत होने की तरफ कदम कैसे उठाओगे? तुमने एक नकारात्मक दृष्टि बना ली। तुमने निषेध का स्वर पकड़ लिया। थोड़े विधायक बनो।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, यह तो हमसे हो ही न सकेगा, यह असंभव है। असंभव? तुमने प्रयोग करके भी नहीं देखा है। संभव बनाने की चेष्टा तो करो पहले, हार जाओ तब असंभव कहना। तुमने कभी चेष्टा ही नहीं की, चेष्टा के पहले कहते हो असंभव है, तो असंभव हो जाएगा। तुम्हें तो कम से कम असंभव हो ही जाएगा, तुम्हारी धारणा ही तुम्हें आगे न बढ़ने देगी।
उत्साह चाहिए। भरोसा चाहिए। उल्लास चाहिए। श्रद्धा चाहिए कि हो सकेगा, तो होता है। क्योंकि अगर एक मनुष्य को हो सका, तो तुम्हें क्यों न हो सकेगा? बुद्ध को हो सका, तो तुम्हें क्यों न हो सकेगा?
जो बुद्ध के पास था, ठीक उतना ही लेकर तुम भी पैदा हुए हो। तुम्हारी वीणा में और बुद्ध की वीणा में रत्तीभर का फासला नहीं है। भला तुम्हारे तार ढीले हों, थोड़े कसने पड़ें। या तुम्हारे तार थोड़े ज्यादा कसे हों, थोड़े ढीले करने पड़ें। या तुम्हारे तार वीणा से अलग पड़े हों और उन्हें वीणा पर बिठाना पड?। लेकिन तुम्हारे पास ठीक उतना ही सामान है, उतना ही साज है, जितना बुद्ध के पास। अगर बुद्ध के जीवन में संगीत पैदा हो सका, तुम्हारे जीवन में भी हो सकेगा।
इसी बात का नाम आस्था है।
आस्था का अर्थ यह नहीं है कि तुम भगवान पर भरोसा करो। आस्था का इतना ही अर्थ है कि तुम भरोसा करो कि सुख संभव है, तुम भरोसा करो कि आनंद संभव है, तुम भरोसा करो कि मोक्ष संभव है। बिना प्रयोग किए असंभव मत कहो। अवहेलना मत करो। क्योंकि एक-एक बूंद से फिर घड़ा भरता है--पुण्य का भी, पाप का भी।
मानी, देख न कर नादानी
मातम का तम छाया, माना
अंतिम सत्य इसे यदि जाना
तो तूने जीवन की अब तक
आधी सुनी कहानी
मानी, देख न कर नादानी
दुख है, माना। लेकिन अगर इसे ही तुमने सारा जीवन समझ लिया, तो तुमने सिर्फ आधी कहानी सुनी जीवन की। दुख है ही इसीलिए कि सुख हो सकता है। अंधेरा है ही इसीलिए कि प्रकाश हो सकता है। बेहोशी है ही इसीलिए कि जागरण हो सकता है। विपरीत संभव है।
मानी, देख न कर नादानी
मातम का तम छाया, माना
अंतिम सत्य इसे यदि जाना
तो तूने जीवन की अब तक
आधी सुनी कहानी
मानी, देख न कर नादानी
दुख है, लेकिन इसे तुम जीवन का अंत मत मान लेना। पाप है, लेकिन इसे तुम जीवन का अंत मत मान लेना। भटकन है, भटकाव है, लेकिन इसे तुम जीवन की अंतिम परिणति मत मान लेना। इसे तुम आत्यंतिक मत मान लेना। यह सब बीच की यात्रा है। नजर रहे लगी उस दूर मंदिर के शिखर पर, प्रकाशोज्ज्वल मंदिर के स्वर्ण-शिखर तुम्हारी आंखों से कभी ओझल न हों। कितने ही कांटे हों मार्ग पर, लेकिन संभावनाओं के फूल कभी तुम इनकार मत करना। क्योंकि कांटे नहीं रोकते, अगर संभावनाओं के फूल को ही तुमने इनकार कर दिया, तो तुम रुक जाओगे। और जहां भी तुम हो, दूर जाना है। जहां भी तुम हो, वहां पड़ाव हो सकता है; राह है, वहां रुक नहीं जाना है।
ओ मछली सरवर तीर की
यह कैसा प्यार कगार से
जो छूट चली मझधार से
तू किस याचक को दाता गुन
सुधि भूली गहरे नीर की
सुन, कहती लहर झकोर कर
तू अड़ी रह गयी यहीं अगर
जाएगा पल में ज्वार उतर
फिरते ही सांस समीर की
ज्वार आता है। मछली सागर की लहर पर चढ़ी किनारे पर आ जाती है। लेकिन ज्वार आ भी नहीं पाया कि उतरना शुरू हो जाता है। मछली अगर किनारे को ही पकड़कर रह जाए, तो मझधार से नाता छूट जाता है। और थोड़ी ही देर में, जैसे ही हवा का रुख बदलेगा, सागर तो उतर जाएगा वापस, तड़फती रह जाएगी मरुस्थल में--रेत में तड़फती रह जाएगी। वैसी ही दशा मनुष्य की है।
ओ मछली सरवर तीर की
यह कैसा प्यार कगार से
जो छूट चली मझधार से
तू किस याचक को दाता गुन
सुधि भूली गहरे नीर की
सुन, कहती लहर झकोर कर
तू अड़ी रह गयी यहीं अगर
जाएगा पल में ज्वार उतर
फिरते ही सांस समीर की
बुद्धपुरुषों के वचन सिर्फ तुम्हें झकझोर कर इतना ही कहते हैं--किनारे को पकड़ मत लेना, मझधार तुम्हारा गंतव्य है।

आज इतना ही।






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