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सोमवार, 5 सितंबर 2016

एस धम्‍मो सनंतनो--(प्रवचन--19)

जागरण का तेल + प्रेम की बाती = परमात्मा का प्रकाश (प्रवचन—उन्‍नीसवां)

सारसूत्र:

चंदन कार वापि उप्पल अथ वस्सिकी।
एतेसं गंधजातान सीलगधो अनुत्‍तरो।।49।।

अणमत्तो अयं गंधो या यं तगरचंदनी।
यो च सीलवतं गंधों वाति देवेतु उत्तमो।।50।।

तेसं संपन्नसीलान अप्पमादविहारिनं।
सम्मदज्जा विमुत्‍तानं मारो मागं न विदति।।51।।

यथा संकारधानस्मिं उज्‍झितस्मिं महापथे।
पदुमं तत्थ जायेथ सुचिगंध मनोरमं।।52।।

एवं संकारभूतेसु अंधभूते पुथुज्‍जने।
अतिरोचति पज्जाय सम्‍मासंबुद्धसावको।।53।।


      सिवा इसके और दुनिया में क्या हो रहा है
      कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
      अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक
      सहर हो गई है और तू सो रहा है
      निद्रा है दुर्गंध। जाग जाना है सुगंध। जो जागा, उसके भीतर न केवल प्रकाश के दीए जलने लगते हैं, वरन सुगंध के फूल भी खिलते हैं। और ऐसी सुगंध के जो फिर कभी मुरझाती नहीं। सदियां बीत जाती हैं, कल्प आते हैं और विदा हो जाते हैं, लेकिन जीवन की सुगंध अडिग और थिर बेनी रहती है। नाम भी शायद भूल जाएं कि किसकी सुगंध है, इतिहास पर स्मृति की रेखाएं भी न रह जाएं, लेकिन सुगंध फिर भी जीवन के मुक्‍त। आकाश में सदा बनी रहती है।
      बुद्ध पहले बुद्धपुरुष नहीं हैं, और न अंतिम। उनके पहले बहुत बुद्धपुरुष हुए हैं और उनके बाद बहुत बुद्धपुरुष होते रहे हैं, होते रहेंगे। लेकिन सभी बुद्धों की सुगंध एक है। सोए हुए सभी आदमियों की दुर्गंध एक है; जागे हुए सभी आदमियों की सुगंध एक है। क्योंकि सुगंध जागरण की है; क्योंकि दुर्गंध निद्रा की है।
      बुद्ध के ये वचन अनूठे काव्य से भरे हैं। कोई तो कवि होता है शब्दों का, कोई कवि होता है जीवन का। कोई तो गीत गाता है, कोई गीत होता है। बुद्ध गीत हैं। उनसे जो भी निकला है, काश, तुम उनके छंद को पकड़ लो तो तुम्हारे जीवन में भी क्रांति हो जाए।
      'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है, कहा है बुद्ध ने।
      चंदन या तगर, कमल या जूही; पर तुम्हारी सुगंध अगर मुक्त हो जाए तो सब सुगंधें फीकी हैं। क्योंकि मनुष्य पृथ्वी का सबसे बड़ा फूल है। मनुष्य में पृथ्वी ने अपना सब कुछ दाव पर लगाया है। मनुष्य के साथ पृथ्वी ने अपनी सारी आशाएं बांधी हैं। जैसे कोई मां अपने बेटे के साथ सारी आशाएं बांधे, ऐसे पृथ्वी ने मनुष्य की चेतना के साथ बड़े सपने देखे हैं। और जब भी कभी कोई एक व्यक्ति उस ऊंचाई को उठता है, उस गहराई को छूता है, जहा पृथ्वी के सपने पूरे हो जाते हैं, तो सारी पृथ्वी आनंद-मंगल का उत्सव मनाती है।
      कथाएं हैं बड़ी प्रीतिकर, जब बुद्ध को बुद्धत्व उपलब्ध हुआ तो वन-प्रांत में जहां वे मौजूद थे, निरंजना नदी के तट पर, वृक्षों में बेमौसम फूल खिल गए। अभी कोई ऋतु न थी, अभी कोई समय न था, लेकिन जब बुद्ध का फूल खिला तो बेमौसम भी वृक्षों में फूल खिल गए। स्वागत के लिए जरूरी था।
      जीवन इकट्ठा है। हम अलग- थलग नहीं हैं। हम कोई द्वीप नहीं हैं, महाद्वीप हैं। हम एक ही जीवन के हिस्से हैं। अगर हमारे बीच से कोई एक भी ऊंचाई पर उठता
है, तो उसके साथ हम भी ऊंचे उठते हैं। और हमारे बीच से कोई एक भी नीचे गिरता है, तो उसके साथ हम भी नीचे गिरते हैं। हिटलर या मुसोलिनी के साथ हम भी बड़ी गहन दुर्गंध और पीड़ा का अनुभव करते हैं। बुद्ध और महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट के साथ हम भी उनके पंखों पर सवार हो जाते हैं। हम भी उनके साथ आकाश का दर्शन कर लेते हैं।
      'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।'
      क्यों? चंदन की सुगंध आज है, कल नहीं होगी। सुबह खिलता है फूल, साझ मुरझा जाता है। खिला नहीं कि मुरझाना शुरू हो जाता है। इस जीवन में शाश्वत तो केवल एक ही घटना है, वह है तुम्हारे भीतर चैतन्य की धारा जो सदा-सदा रहेगी। एक बार खिल जाए- तो फिर भीतर के फूल कशी मुरझाते नहीं। उन्होंने मुरझाना जाना ही नहीं है। वे केवल खिलना ही जानते हैं। और खिल जाने के बाद वापसी नहीं है, लौटना नहीं है।
      ऊंचाई पर तुम जब पहुंचते हो, तो वही से वापस गिरना नहीं होता। जो सीख लिया, सीख लिया। जो जान लिया, जान लिया। जो हो गए, हो गए। उसके विपरीत जाने का उपाय नहीं है। जो गिर जाए ऊंचाई से, समझना ऊंचाई पर पहुंचा ही न था। क्योंकि ऊंचाई से गिरने का कोई उपाय नहीं। जो तुमने जान लिया उसे तुम भूल न सकोगे। अगर भूल जाओ तो जाना ही न होगा। सुन लिया होगा, स्मरण कर लिया होगा, कंठस्थ हो गया होगा। जीवन के साधारण फूल आज हैं, कल नहीं। चैतन्य का फूल सदा है।
      तो बहुत बाहर के फूलों में मत भर में रहना, भीतर के फूल पर शक्ति लगाना। कब तक हंसते और रोते रहोगे बाहर के फूलों के लिए? फूल खिलते हैं, हंस लेते हो; फूल मुरझा जाते हैं, राख हो जाते हैं, रो लेते हो।
      सिवा इसके और दुनिया में क्या हो रहा है।
      कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
      सारी दुनिया को तुम इन दो हिस्सों में बांट दे सकते हो।
      अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक
      अब यह सपना और कब तक खींचना है? काफी खींच लिया है।
      अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक
      सहर हो गई है और तू सो रहा है
      सुबह हो गई है। सुबह सदा से ही रही है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि सुबह न रही हो। सुबह होना ही अस्तित्व का ढंग है, अस्तित्व की शैली है। वहां सांझ कभी होती नहीं। तुम सो रहे हो इसलिए रात मालूम होती है।
      इसे थोड़ा समझ लो। रात है इसलिए सो रहे हो, ऐसा नहीं है; सो रहे हो इसीलिए रात है। जो जागा, उसने सदा पाया कि सहर थी, सुबह थी। जो सोया, उसने समझा सदा कि रात है। तुम्हारी आंख बंद है, इसलिए अंधेरा है। अस्तित्व प्रकाशवान है। अस्तित्व प्रकाश है। हजार-हजार सूरज उगे हैं। सब तरफ प्रकाश की बाढ़ है। प्रकाश की ही तरंगें तुमसे आकर टकरा रही हैं, लेकिन तुम आंख बंद किए हो। छोटी सी पलकें आंख पर पड़ी हों, तो विराट सूरज ढंक जाता है। जरा सी कंकड़ी आंख में आ जाए तो सारा संसार अंधकार हो जाता है।
      बस छोटी सी ही कंकड़ी आंख में पड़ गई है। छोटा सा ही धूल का कण आंख में पड़ गया है। उसे अहंकार कहो, अज्ञान कहो, निद्रा कहो, प्रमाद कहो, पाप कहो, जो मर्जी हो वह नाम दे दो, बात कुल इतनी है और छोटी है कि तुम्हारी आंख किसी कारण से बंद है। आंख खुली, सुबह हुई-अरे चौंक, सहर हो गई है और तू सो रहा है!
और यह सहर सदा से ही रही है। क्योंकि बुद्ध पच्चीस सौ साल पहले जागे और पाया कि सहर हो गई है। कृष्ण पांच हजार साल पहले जागे और पाया कि सहर हो गई है। जब भी कोई जागा, उसने पाया कि सुबह हो गई है।
      जो सोए हैं वे अभी भी सोए हैं। वे हजारों वर्ष और भी सोए रहेंगे। तुम्हारे सोने में ही रात है। रात के कारण तुम नहीं सो रहे हो; सो रहे हो इसीलिए रात है। सुबह के कारण तुम न जागोगे, क्योंकि सुबह तो सदा से है। तुम जागोगे तो पाओगे कि सुबह है।
      लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? पूछना चाहिए, हमारे पास आंखें कहां हैं? लोग पूछते हैं, परमात्मा को कहा खोजें? उन्हें पूछना चाहिए यह खोजने वाला कौन है? कौन खोजे परमात्मा को? लोग पूछते हैं, हमें परमात्मा पर भरोसा नहीं आता, क्योंकि जो दिखाई नहीं पड़ता उसे हम कैसे मानें? उन्हें पूछना चाहिए कि हमने अभी आंख खोली है या नहीं? क्योंकि बंद आंख कोई कैसे दिखाई पड़ेगा? परमात्मा द्वार पर ही खड़ा है। क्योंकि जो भी है वही है। अरे चौंक, सहर हो गई है! परमात्मा द्वार पर ही खड़ा है। कभी द्वार से क्षणभर को नहीं हटा है। क्योंकि उसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।
      अस्तित्व सुबह है, प्रभात है, सूर्योदय है। सवाल तुम्हारी आंख के खुल जाने का है। और तुम्हारी आंख जब खुलती है तो ऐसी ही घटना घटती है जैसे फूल की पखुडियां खुल जाएं। तुम्हारी पलकें पखुडियां हैं। जैसे फूल की पखुडियां खुल जाएं और सुगंध मुक्त हो जाए।
      लेकिन छोटे-छोटे फूल हैं, जूही के, तगर के, बेला के, गुलाब के, कमल के, उनकी सामर्थ्य बड़ी छोटी है। उनकी सीमा है। थोड़ी सी गंध को लेकर वे चलते हैं। उसे लुटा देते हैं, रिक्त हो जाते हैं, फिर मिट्टी में गिर जाते हैं। लेकिन तुम कुछ ऐसी गंध लेकर चले हो, जिसकी कोई सीमा नहीं। तुम अपनी बूंद में सागर लेकर चले हो। तुम अपने इस छोटे से फूल में असीम को लेकर चले हो। उस असीम को ही हमने आत्मा कहा है, उस असीम को ही हमने परमात्मा कहा है।
      तुम दिखाई पड़ते हो छोटे, तुम छोटे नहीं हो। मैंने तो बहुत खोजा छोटा, मुझे कोई मिला नहीं। मैंने तो बहुत जांच-पड़ताल की, सभी सीमाओं में असीम को छिपा पाया। हर बूंद में सागर ने बसेरा किया है। जिस दिन तुम खिलोगे उस दिन तुम पाओगे, तुम नहीं खिले परमात्मा खिला है।
      इसलिए तो बुद्ध कहते हैं, 'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।
      शील की सुगंध का अर्थ है, जागे हुए आदमी के जीवन की सुगंध, आंख खुले आदमी के जीवन की सुगंध, प्रबुद्ध हुई चेतना के जीवन की सुगंध। जिन फूलों को तुमने बाहर देखा है, उनका तो खिलना केवल मौत की खबर लाता है। खिला नहीं फूल कि मरा नहीं। इधर खिले, उधर अर्थी बंधने लगी।
      फूल बनने की खुशी में मुस्कुराती थी कली
      क्या खबर थी तगैयुर मौत का पैगाम है
      बाहर तो जो फूल हैं उनका खिलना मरने की ही खबर है, मौत का पैगाम है। वहां तो खिले कि मरे।
      फूल बनने की खुशी में मुस्कुराती थी कली
      क्या पता उस बेचारी कली को, क्या पता उस नासमझ कली को कि यह खिलना विदा होने का क्षण है। लेकिन तुम्हारे भीतर का जो फूल है, वह जब खिलता है तो मृत्यु नहीं, अमृत को उपलब्ध होता है। साधारण फूल खिलकर मरते हैं। जितनी देर न खिले, उतनी देर ही बचे। वहा तो पूरा होना मरने के बराबर है। लेकिन तुम्हारे भीतर एक ऐसा फूल है जो खिलता है तो अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
      लेकिन ध्यान रखना, जब मैं कहता हूं तुम्हारे भीतर एक ऐसा फूल है, तो तुम यह मत समझ लेना कि मै कह रहा हूं तुम। तुम्हारे भीतर, तुम नहीं। तुम तो उसी तरह मरोगे जैसे बाहर की कली मरती है। क्योंकि तुम भी तुमसे बाहर हो। तुम भी तुमसे बाहर हो।
      फूल बनने की खुशी में मुस्कुराती थी कली
      वैसी घटना तुम्हारे भीतर भी घटेगी। क्योंकि तुम्हारा अहंकार तो मरेगा। तुमने अब तक जो जाना है कि तुम हो, वह तो मरेगा। इधर बुद्धत्व का फूल खिला, उधर गौतम सिद्धार्थ विदा हुआ। इधर महावीर का फूल खिला, वहा वर्द्धमान की अर्थी बंधी।
एक बहुत मजेदार घटना घटी। एक जैन मुनि चित्रभानु; संयोग से एक बार मुझे उनके साथ बोलने का मौका मिला। वे बड़े प्रसिद्ध जैन मुनि थे। मुझसे पहले बोले, मैं उनके पीछे बोला। उन्होंने, महावीर का जन्मदिन था तो महावीर के जीवन पर बातें कीं। लेकिन मुझे लगा, महावीर के जीवन पर उन्होंने एक भी बात नहीं की। वर्द्धमान की चर्चा की। वर्द्धमान महावीर के जन्म का नाम था। महावीर होने के पहले का नाम था। जब तक जागे न थे, तब तक का नाम था। कहां पैदा हुए, किस घर में पैदा हुए, कौन मां, कौन पिता, कितना बड़ा राज्य, कितने हाथी-घोड़े, इसकी उन्होंने चर्चा की। महावीर की तो बात ही न आई। इस सबसे क्या लेना-देना था? ऐसे तो बहुत राजकुमार हुए, कौन उनकी याद करता है?
      मैं जब बोला तो मैंने कहा कि मैं तो यहां महावीर पर बोलने आया हूं वर्द्धमान पर बोलने नहीं। और मैंने कहा, वर्द्धमान और महावीर तो दो अलग-अलग आदमी हैं। मुनि चित्रभानु क्रोध से खड़े हो गए। उन्होंने समझा कि यह कौन नासमझ आ गया, जो कहता है वर्द्धमान और महावीर अलग-अलग आदमी हैं। उन्होंने खड़े होकर कहा, महानुभाव! मालूम होता है आपको कुछ भी पता नहीं है। महावीर और वर्द्धमान एक ही आदमी हैं। मैं तो हंसा ही, वे जो हजारों लोग थे वे भी हंसे।
      मैंने उनसे कहा, मुनि महाराज! जो आपके श्रावक समझ गए वह भी आप नहीं समझ पा रहे हैं। मैंने भी नहीं कहा है कि दो आदमी थे। फिर भी मैं कहता हूं कि दो आदमी थे। वर्द्धमान सोया हुआ आदमी है। जब वर्द्धमान विदा हो जाता है, तभी तो महावीर का आविर्भाव होता है। या जब महावीर का आविर्भाव होता है, तब वर्द्धमान की अर्थी बंध जाती है। वर्द्धमान की बात मत करो। महावीर की बात अलग ही बात है।
      तो तुम्हारे भीतर भी कुछ तो मरेगा। तुम मरोगे, जैसा तुमने अभी तक अपने को जाना है। नाम, रूप, परिवार, प्रतिष्ठा, अब तक तुमने अपने जितने तादात्म्य बनाए हैं, वे तो मरेंगे। लेकिन उन सबके मर जाने के बाद पहली बार तुम्हारी आंखें उसकी तरफ खुलेंगी जो तुम्हारे भीतर अमृत है। उस अनाहत नाद को तुम सुनोगे पहली बार, जब तुम्हारी आवाजें और शोरगुल बंद हो जाएगा। जब तुम अपनी बकवास बंद कर दोगे, जब तुम्हारे विचार जा चुके होंगे, जब तुम्हारी भीड़ विदा हो जाएगी, तब अचानक तुम्हारा सन्नाटा बोलेगा, तुम्हारा शून्य अनाहत के नाद से गूंजेगा। जब तुम्हारी दुर्गंध जा चुकी होगी, तभी तुममें परमात्मा की सुगंध का अवतरण होता है। वह छिपी है, पर तुम मौका दो तब फूटे न। तुम जगह दो तब फैले न। कली की छाती पर तुम सवार होकर बैठे हो, पखुडियों को खुलने नहीं देते।
      'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।'
      क्यों? क्योंकि चंदन या जूही, तगर या कमल रूप, रंग, आकार के जगत के खेल हैं। रूप के ही सपने हैं, रंग के ही सपने हैं। निराकार का फूल तुम्हारे भीतर खिल सकता है। क्योंकि निराकार का फूल तभी खिलता है जब कोई चैतन्य को उपलब्ध हो। निराकार यानी चैतन्य। आकार यानी तंद्रा, मूर्च्छा।
      जिस दिन संसार जागेगा, उस दिन ब्रह्म को पाएगा। अगर मिट्टी का कण भी या पत्थर का टुकड़ा भी जागेगा, तो अपने को जमा हुआ चैतन्य पाएगा। जो जागा उसने परमात्मा को पाया, जो सोया उसने पदार्थ को समझा। पदार्थ सोए हुए आदमी की व्याख्या है परमात्मा की। परमात्मा जागे हुए आदमी का अनुभव है पदार्थ का। पदार्थ और परमात्मा दो नहीं हैं। सोया हुआ आदमी जिसे पदार्थ कहता है, जागा हुआ आदमी उसी को परमात्मा जानता है। दो दृष्टियां हैं। जागा हुआ आदमी जिसे परमात्मा जानता है, सोया हुआ आदमी पदार्थ मानता है। दो दृष्टियां हैं।
      'शील की सुगंध सर्वोत्तम है।'
      क्योंकि वस्तुत: वह परमात्मा की सुगंध है। शील का क्या अर्थ है? शील का अर्थ चरित्र नहीं है। इस भेद को समझ लेना जरूरी है, तो ही बुद्ध की व्याख्या में तुम उतर सकोगे।
      चरित्र का अर्थ है, ऊपर से थोपा गया अनुशासन। शील का अर्थ है, भीतर से आई गंगा। चरित्र का अर्थ है, आदमी के द्वारा बनाई गई नहर। शील का अर्थ है, परमात्मा के द्वार से उतरी गंगा। चरित्र का अर्थ है, जिसका तुम आयोजन करते हो, जिसे तुम सम्हालते हो। सिद्धात, शास्त्र, समाज तुम्हें एक दृष्टि देते हैँ-ऐसे उठो, ऐसे बैठो, ऐसे जीओ, ऐसा करो। तुम्हें भी पक्का पता नहीं है कि तुम जो कर रहे हो वह ठीक है या गलत। अगर तुम गैर-मांसाहारी घर में पैदा हुए तो तुम मांस नहीं खाते, अगर तुम मांसाहारी घर में पैदा हुए तो मांस खाते हो। क्योंकि जो घर की धारणा है, वही तुम्हारा चरित्र बन जाती है। अगर तुम रूस में पैदा हुए तो तुम मंदिर न जाओगे, मस्जिद न जाओगे। तुम कहोगे, परमात्मा! कहां है परमात्मा?
      राहुल सांकृत्यायन उन्नीस सौ छत्तीस में रूस गए। और उन्होंने एक छोटे स्कूल में-प्राइमरी स्कूल में-एक छोटे बच्चे से जाकर पूछा, ईश्वर है? उस बच्चे ने कहा, हुआ करता था, अब है नहीं। यूज्‍ड टू बी, बट नो मोर। ऐसा पहले हुआ कुरता था, जब लोग अज्ञानी थे-क्रांति के पहले-उन्नीस सौ सत्रह के पहले हुआ करता था। अब नहीं है। ईश्वर मर चुका। आदमी जब अज्ञानी था, तब हुआ करता था।
      जो हम सुनते हैं, वह मान लेते हैं। संस्कार हमारा चरित्र बन जाता है। पश्चिम में शराब पीना कोई दुश्चरित्रता नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे भी पी लेते हैं। सहज है। पूरब में बड़ी दुश्चरित्र बात है। धारणा की बात है।
      कल, परसों ही मैं देख रहा था। जयप्रकाश नारायण के स्वास्थ्य की बुलेटिन रोज निकलती है, वह मैं देख रहा था। तो उन्होंने दो अंडे खाए। कोई सोच भी नहीं सकता, किस भाति के सर्वोदयी हैं! अहिंसा, सर्वोदय, गांधी के मानने वाले, अंडे? लेकिन बिहार में चलता है। बिहारी हैं, कोई अड़चन की बात नहीं। कोई जैन सोच भी नहीं सकता कि अहिंसक और अंडे खा सकता है। लेकिन जयप्रकाश को खयाल ही नहीं आया होगा। गांधी और विनोबा के साथ जिंदगी बिताई, लेकिन अंडे नहीं खाना है, यह खयाल नहीं आया।
एक क्वेकर कई वर्ष पहले मेरे पास मेहमान हुआ। तो मैंने उससे सुबह ही पूछा कि चाय लेंगे, दूध लेंगे, काँफी लेंगे, क्या लेंगे न वह एकदम चौंक गया, जैसे मैंने कोई बड़ी खतरनाक बात कही हो। उसने कहा, क्या आप चाय, दूध काँफी पीते हैं? जैसे मैंने कोई खून पीने का निमंत्रण दिया हो। मैंने पूछा, तुम.. कोई गलती बात हुई? उसने कहा, मैं शाकाहारी हूं दूध मैं नहीं पी सकता।
      क्योंकि क्वेकर मानते हैं, दूध खून है। उनके मानने में भी बात तो है। क्वेकर अंडा खाते हैं, लेकिन दूध नहीं पीते, क्योंकि दूध तो रक्त से ही बनता है। शरीर में सफेद और लाल कण होते हैं खून में। मादा के शरीर से-चाहे गाय हो, चाहे स्त्री हो-सफेद कण अलग हो जाते हैं और दूध बन जाता है। वह आधा खून है।
      तो उसने इस तरह नाक-भौं सिकोड़ी, कहा कि दूध! आप भी क्या बात कर रहे हैं! अंडा वे खा लेते हैं। क्योंकि अंडा वे कहते हैं कि जब तक अभी जीवन प्रगट नहीं हुआ तब तक कोई पाप नहीं है। ऐसे तो जीवन सभी जगह छिपा है; इसलिए प्रगट और अप्रगट का ही भेद करना उचित है उनके हिसाब से। ऐसे तो जीवन सभी जगह छिपा है।
      तुमने एक फल खाया, अगर तुम न खाते और फल रखा रहता, सड़ जाता, तो उसमें कीड़े पड़ते, तो उसमें भी जीवन प्रगट हो जाता। तो जब तक नहीं प्रगट हुआ है तब तक नहीं है।
      मान्यताओं की बातें हैं। चरित्र मान्यताओं से बनता है, संस्कार से बनता है। शील, शील बड़ी अनूठी बात है। शील तुम्हारी मान्यताओं और संस्कारों से नहीं बनता। शील तुम्हारे ध्यान से जन्मता है। इस फर्क को बहुत ठीक से समझ लो। मान्यता, संस्कार, समाज, संस्कृति, नीति की धारणाएं विचार हैं। जो विचार तुम्हें दिए गए हैं, वे तुम्हारे भीतर पकड़ गए हैं।
      मैं जैन घर में पैदा हुआ। तो बचपन में मुझे कभी रात्रि को भोजन करने का सवाल नहीं उठा। कोई करता ही न था घर में, इसलिए बात ही नहीं थी। मैं पहली दफा पिकनिक पर कुछ हिंदू मित्रों के साथ पहाड़ पर गया। उन्होंने दिन में खाना बनाने की कोई फिकर ही न की। मुझ अकेले के लिए कोई चिंता का कारण भी न था। मैं अपने लिए जोर दूं यह भी ठीक न मालूम पड़ा।
      रात उन्होंने भोजन बनाया। दिनभर पहाड़ का चढ़ाव, दिनभर की थकान, भयंकर मुझे भूख लगी। और रात उन्होंने खाना बनाया। उनके खाने की गंध, वह मुझे आज भी याद है। ऊपर-ऊपर मैंने हां-ना किया कि नहीं, रात कैसे खाना खाऊंगा, लेकिन भीतर तो चाहा कि वे समझा-बुझाकर किसी तरह खिला ही दें। उन्होंने समझा-बुझाकर खिला भी दिया। लेकिन मुझे तत्क्षण वमन हो गया, उलटी हो गई।  
      उस दिन तो मैंने यही समझा कि रात का खाना इतना पापपूर्ण है इसीलिए उलटी हो गई। लेकिन उनको तो किसी को भी न हुई। संस्कार की बात थी। कोई रात के खाने से संबंध न था। कभी खाया न था, और रात खाना पाप है, वह धारणा; तो किसी तरह खा तो लिया, लेकिन वह सब शरीर ने फेंक दिया, मन ने बाहर फेंक दिया। शील से इन घटनाओं का कोई संबंध नहीं है, मन की धारणाओं से संबंध है। तुम जो मानकर चलते हो, जो तुम्हारे विचार में बैठ गया है, उसके अनुकूल चलना आचरण है, उसके प्रतिकूल चलना दुराचरण है।
      शील क्या है? शील है, जब तुम्हारे मन से सब विचार समाप्त हो जाते हैं और निर्विचार दशा उपलब्ध होती है, शुन्यभाव बनता है, ध्यान लगता है, उस ध्यान की दशा में तुम्हें जो ठीक मालूम होता है, वही करना शील है। और वैसा शील सारे जगत में एक सा होगा। उसमें कोई संस्कार के भेद नहीं होंगे, समाज के भेद नहीं होंगे।
      चरित्र हिंदू का अलग होगा, मुसलमान का अलग होगा, ईसाई का अलग होगा, जैन का अलग होगा, सिक्ख का अलग होगा। शील सभी का एक होगा। शील वहां से आता है जहां न हिंदू जाता, न मुसलमान जाता, न ईसाई जाता। तुम्हारी गहनतम गहराई से, अछूती कुंवारी गहराई से, जहां किसी ने कभी कोई स्पर्श नहीं किया, जहा तुम अभी भी परमात्मा हो, वहां से शील आता है।
      जैसे अगर तुम थोड़ी सी जमीन खोदो तो ऊपर-ऊपर जो पानी मिलेगा वह तो पास की सड़कों से बहती हुई नालियों का पानी होगा, जो जमीन ने सोख लिया है-चरित्र। चरित्र होगा वह। फिर तुम गहरा कुआ खोदो, इतना गहरा कुआ खोदो जहा तक नालियों का पानी जा ही नहीं सकता, तब तुम्हें जलस्रोत मिलेंगे, वे सागर के हैं। तब तुम्हें शुद्ध जल मिलेगा।
      अपने भीतर इतनी खुदाई करनी है कि विचार समाप्त हो जाएं, निर्विचार का तल मिल जाए। वहां से तुम्हारे जीवन को जो ज्योति मिलेगी वह शील की है। चरित्र में?कोई बड़ी सुगंध नहीं होती। चरित्र तो प्लास्टिक के फूल हैं, चिपका लिए ऊपर से, सज-धज गए श्रृंगार कर लिया। दूसरों को दिखाने के लिए अच्छे, लेकिन परमात्मा के सामने काम न पड़ेंगे। शील ऐसे फूल हैं जो तुमने चिपकाए नहीं, तुम्हारे भीतर लगे, उगे, उमगे, तुम्हारे भीतर से आए। जिनकी जड़ें तुम्हारे भीतर छिपी हैं। उन्हीं फूलों को तुम परमात्मा के सामने ले जाने में समर्थ हो सकोगे। जो समाज ने दिया है, वह मौत छीन लेगी। क्योंकि जो समाज ने दिया है, वह जन्म के बाद दिया है। उसे तुम मौत के आगे न ले जा सकोगे। जन्म और मौत के बीच ही उसकी संभावना है।
      लेकिन अगर शील का जन्म हो जाए तो उसका अर्थ है, तुमने वहां पाया अब जो जन्म के पहले था, जब तुम पैदा भी न हुए थे। उस शुद्ध चैतन्य से आ रहा है।
अब मृत्यु के आगे भी ले जा सकोगे। जो जन्म के पहले है, वह मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा। शील को उपलब्ध कर लेना इस जगत की सबसे बड़ी क्रांति है।
      न जाने कौन है गुमराह कौन आगाहे-मजिल है
      हजारों कारवां हैं जिंदगी की शाहराहों में
      कौन है गुमराह-कौन भटका हुआ है? कौन आगाहे-मंजिल है-और कौन है जिसे मंजिल का पता है? हजारों यात्री दल हैं जिंदगी के राजपथ पर। तुम कैसे पहचानोगे? चरित्र के धोखे में मत आ जाना। दुश्चरित्र को तो छोड़ ही देना, चरित्रवान को भी छोड़ देना। शीलवान को खोजना।
      ऐसा समझो। एक सूफी फकीर हज की यात्रा को गया। एक महीने का मार्ग था। उस फकीर और उसके शिष्यों ने तय किया कि एक महीने उपवास रखेंगे। पाच-सात दिन ही बीते थे कि एक गांव में पहुंचे, कि गांव के बाहर ही आए थे कि गांव के लोगों ने खबर की कि तुम्हारा एक भक्त गाव में रहता है, उसने अपना मकान, जमीन सब बेच दिया। गरीब आदमी है। तुम आ रहे हो, तुम्हारे स्वागत के लिए उसने पूरे गांव को आमंत्रित किया है भोजन के लिए। सब बेच दिया है ताकि तुम्हारा ठीक से स्वागत कर सके। उसने बड़े मिष्ठान बनाए हैं। फकीर के शिष्यों ने कहा, यह कभी नहीं हो सकता, हम उपवासी हैं, हमने एक महीने का उपवास रखा है। हमने व्रत लिया है, व्रत नहीं टूट सकता। लेकिन फकीर कुछ भी न बोला।
      जब वे गांव में आए और उस भक्त ने उनका स्वागत किया, और फकीर को भोजन के लिए निमंत्रित किया तो वह भोजन करने बैठ गया। शिष्य तो बड़े हैरान हुए कि यह किस तरह का गुरु है? जरा से भोजन के पीछे व्रत को तोड़ रहा है! भूल गया कसम, भूल गया प्रतिज्ञा कि एक महीने उपवास करेंगे। यह क्या मामला है? लेकिन जब गुरु ने ही इंकार नहीं किया तो शिष्य भी इंकार न कर सके। करना चाहते थे।
समारोह पूरा हुआ, रात जब विश्राम को गए तो शिष्यों ने गुरु को घेर लिया और कहा कि यह क्या है? क्या आप भूल गए? या आप पतित हो गए?
      उस गुरु ने कहा, पागलो! प्रेम से बड़ी कहीं कोई तीर्थयात्रा है? और इसने इतने प्रेम से, अपनी सब जमीन-जायदाद बेचकर, सब लुटाकर-गरीब आदमी है-भोजन का आयोजन किया, उसे इंकार करना परमात्मा को ही इंकार करना हो जाता। क्योंकि प्रेम को इंकार करना परमात्मा को इंकार करना है। रही उपवास की बात, तो क्या फिकर है, सात दिन आगे कर लेंगे। एक महीने का उपवास करना है न? एक महीने का उपवास कर लेंगे। और अगर कोई दंड तुम सोचते हो, तो दंड भी जोड़ लो। एक महीने दस दिन का कर लेंगे। जल्दी क्या है? और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम्हारी यह अकड़ कि हमने व्रत लिया है और हम अब भोजन न कर सकेंगे, अहंकार की अकड़ है। यह प्रेम की और धर्म की विनम्रता नहीं।
      यहां फर्क तुम्हें समझ में आ सकता है। शिष्यों का तो केवल चरित्र है, गुरु का शील है। शील अपना मालिक है, वह होश से पैदा होता है। चरित्र अपना मालिक नहीं है, वह अंधानुकरण से पैदा होता है। जब कभी तुम्हें जीवन में कोई शीलवान आदमी मिल जाए, तो समझ लेना यही चरण पकड़ लेने जैसे हैं। चरित्रवान के धोखे में मत आ जाना, क्योंकि चरित्रवान तो सिर्फ ऊपर-ऊपर है। भीतर बिलकुल विपरीत चल रहा है।
      फर्क कैसे करोगे? चरित्रवान को तुम हमेशा अकड़ा हुआ पाओगे। क्योंकि, इतना कर रहा हूं! तो अहंकार मजबूत होता है। चरित्रवान को तुम हमेशा तना हुआ पाओगे, तनाव से भरा पाओगे। क्योंकि कर रहा है, कर रहा है, कर रहा है। फल की अपेक्षा कर रहा है। शीलवान को तुम हमेशा विश्राम में पाओगे। शीलवान इसलिए नहीं कर रहा है कि आगे कुछ मिलने को है। शीलवान इसलिए कर रहा है कि करने में आनंद है। शीलवान को तुम प्रफुल्लित पाओगे। शीलवान अपनी तपश्चर्या की चर्चा न करेगा। अपने उत्सव के गीत गाएगा। शीलवान तुम्हें आनंदित मालूम पड़ेगा।
      चरित्रवान तुम्हें बड़ा तना हुआ और कष्ट झेलता हुआ मालूम पड़ेगा। बारीक हैं फासले, लेकिन अगर तुमने नजर खोलकर रखी तो तुम्हें कठिनाई न होगी। चरित्रवान के पास तुम्हें दंभ की दुर्गंध मिलेगी। शीलवान के पास तुम्हें सरलता की सुगंध मिलेगी। शीलवान को तुम ऐसा पाओगे जैसा छोटा बालक, चरित्रवान को तुम बड़ा हिसाबी-किताबी पाओगे। वह एक-एक बात का हिसाब रखेगा। गणित में पक्का पाओगे, प्रेम में नहीं। और जहां गणित बहुत पक्का हो जाता है, वहा परमात्मा से दूरी बहुत हो जाती है। तुम चरित्रवान को तर्कयुक्त पाओगे। वह जो भी करेगा, तर्क से ठीक है इसलिए करेगा।
      शीलवान को तुम तर्कयुक्त न पाओगे, सहजस्फूर्त पाओगे। वह जो भी करेगा वह उसकी सहज-स्फुरणा है। ऐसा हुआ। शीलवान को तुम परमात्मा के हाथ में अपने को सौंपा हुआ पाओगे। चरित्रवान को तुम अपने ही हाथों में नियंत्रित पाओगे। चरित्रवान में नियंत्रण होगा, अनुशासन होगा। शीलवान में स्वातंत्र्य होगा, मुक्ति होगी। और सुगंध और दुर्गंध का फर्क होगा।
      दुश्चरित्र तो होना ही नहीं, चरित्रवान भी मत होना। अगर होना ही है, तो शीलवान होना। चरित्र है ऊपर से थोपा गया-आरोपण। शील है भीतर से आई हुई जीवन-धारा, भीतर से आया हुआ बोध।
      'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।'
      शील छोटे बच्चे जैसा है। छोटे बच्चों को फिर से गौर से देखना। बहुत कम लोग उन्हें गौर से देखते हैं। छोटे बच्चों को ठीक से पहचानना, क्योंकि वही संतों की भी पहचान बनेगी। तुमने कभी कोई छोटा बच्चा देखा जो कुरूप हो? सभी छोटे बच्चे सुंदर होते हैं, सभी छोटे बच्चों में जीवन का आह्लाद होता है, एक सरलता होती है-गणितशून्य, हिसाब से मुक्त, एक प्रवाह होता है।
      निकल के कूचे से तेरे बहुत खराब हुए
      कहीं न चैन मिला फिर तेरी गली की तरह
      अगर तुम अपने बचपन को याद करोगे, तो तुम्हें ये वचन समझ में आ जाएंगे। ये वचन तो कहे गए हैं अदम के लिए, कि अदम को जब स्वर्ग के बगीचे से निकाल दिया गया.? निकाला क्यों गया? निकाला इसलिए गया कि उसने बचपन खो दिया, उसने सरलता खो दी, निर्दोषता खो दी। उसने ज्ञान के वृक्ष का फल चख लिया, वह समझदार हो गया।
      अब ये बड़ी मजे की कहानी है ईसाइयों की। इससे अनूठी कहानी दुनिया के इतिहास में दूसरी नहीं। अदम को इसलिए निकाला गया कि वह ज्ञानी हो गया। थोड़ा सोचो। हम तो सोचते हैं, ज्ञानियों को वापस ले लिया जाएगा। अदम जब तक सरल था, तब तक तो स्वर्ग के बगीचे में रहा, और जब समझदार हो गया-समझदार यानी जब वह चालाक हो गया, जब उसने ज्ञान के वृक्ष का फल चख लिया-उस क्षण परमात्मा ने उसे बाहर कर दिया।
      निकल के कूचे से तेरे बहुत खराब हुए
      कहीं न चैन मिला फिर तेरी गली की तरह
      और आदमी, ईसाइयत कहती है, तब से बेचैन है, उसी की गली को फिर खोज रहा है। लेकिन यह खोज तभी पूरी हो सकती है जब ज्ञान  को तुम वमन कर दो, जब तुम अपने पांडित्य को फेंक दो कूड़े-करकट के ढेर पर, जब तुम फिर से सरल हो जाओ, जब तुम फिर बालक की भांति हो जाओ। संतत्व में पुन: बच्चे का शील आ जाता है, बच्चे की सुगंध आ जाती है।
      'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।'
यह शील की सुगंध तुम्हारे मस्तिष्क का हिसाब-किताब नहीं, तुम्हारे हृदय में  जला हुआ दीया है, तुम्हारे हृदय में जली ज्योति है।
      दिल से मिलती तो है इक राह कहीं से आकर
      सोचता हूं यह तेरी राहगुजर है कि नहीं
      मत सोचो। दिल से जो राह मिलती है वही परमात्मा की राह है। सोचा तो भटकोगे। उस राह पर थोड़ा चलकर देखो। उस राह पर चलते ही तुम्हें लगेगा, मंदिर के शिखर दिखाई पड़ने लगे, मंदिर की घंटियों का स्वर सुनाई पड़ने लगा, मंदिर में जलती धूप की सुगंध तुम्हारे नासापुटों को भरने लगी।
      दिल से मिलती तो है इक राह कहीं से अकर
      अज्ञात की राह तुम्हारे सिर से नहीं मिलती, तुम्हारा दिल से मिलती है।  
      सोचता हूं यह तेरी राहगुजर है कि नहीं
      सोचो मत। जिसने सोचा उसने गंवाया। क्योंकि जब तुम सोचने लगते हो तब तुम मस्तिष्क में आ जाते हो। प्रेम करो, भाव से भरो। रो लेना भी बेहतर है सोचने से, नाच लेना बेहतर है सोचने से, आंसू टपका लेना बेहतर है सोचने से। जो भी हृदय से उठे, वह बेहतर है, वह श्रेष्ठ है। और जैसे-जैसे तुम्हारा थोड़ा संबंध बनेगा, तुम निश्चित ही जान लोगे कि उसी राह से परमात्मा आता है। ज्ञान  की राह से नहीं, निर्दोष भाव की राह से आता है।
      'तगर और चंदन की जो यह गंध फैलती है वह अल्पमात्र है। और यह जो शीलवंतों की सुगंध है, वह उत्तम गंध देवलोकों में भी फैल जाती है, देवताओं में भी फैल जाती है।'
      इसे थोड़ा समझें। तगर, चंदन की जो गंध है अल्पमात्र है, क्षणजीवी है। हवा का एक झोंका उसे उड़ा ले जाएगा। जल्दी ही खो जाएगी इस विराट में, फिर कहीं खोजे न मिलेगी। एक सपना हो जाएगी, एक अफवाह मालूम पड़ेगी। पता नहीं थी भी या नहीं थी। लेकिन शीलवंतों की जो सुगंध है, वह उत्तम गंध देवताओं में भी फैल जाती है।
      मैंने सुना है, एक स्त्री मछलियां बेचकर अपने घर वापस लौटती थी। नगर के बाहर निकलती थी कि उसकी एक पुरानी सहेली मिल गई, जो एक मालिन थी। उसने कहा, आज रात मेरे घर रुक जा, बहुत दिन से साथ भी नहीं हुआ, बहुत बातें भी करने को हैं। वह रुक गई। मालिन ने यह सोचकर कि पुरानी सखी है, ऐसी जगह उसका बिस्तर लगाया जहां बाहर से बेला की सुगंध भरपूर आती थी। लेकिन मछली बेचने वाली औरत करवटें बदलने लगी। बेला की सुगंध की आदत नहीं। आधी रात हो गई, तो मालिन ने पूछा, बहन तू सो नहीं पाती, कुछ अड़चन है? उसने कहा, कुछ और अड़चन नहीं, मेरी टोकरी मुझे वापस दे दो। और थोड़ा पानी उस पर छिड़क दो, क्योंकि मछलियों की गंध के बिना मैं सो न सकूंगी। बेला की सुगंध मुझे बड़ी तकलीफ दे रही है। बड़ी तेज है।
      मालिन को तो भरोसा न आया। मछलियों की गंध! गंध कहना ही ठीक नहीं उसे, दुर्गंध है। लेकिन उसने पानी छिड़का उसकी टोकरी पर, कपड़े के टुकड़े पर-जिन पर मछलियां बांधकर वह बेच आई थी। उसने उसे अपने सिर के पास रख लिया, जल्दी ही उसे घुर्राटे आने लगे, वह गहरी नींद में खो गई।
      तल हैं बहुत। बुद्ध कहते हैं, देवताओं को भी; पृथ्वी पर रहने वालों को ही नहीं स्वर्ग में रहने वालों को भी शील की गंध आती है। शायद पृथ्वी पर रहने वालों की तो वैसी ही हालत हो जाए जैसी मछली बेचने वाली औरत की हो गई थी।
      बुद्ध को लोगों ने पत्थर मारे। उन्हें दुर्गंध आई होगी, सुगंध न आई होगी। महावीर को लोगों ने सताया। उन्हें सुगंध न आई होगी, अन्यथा पूजते। जीसस को सूली पर लटका दिया। अब और क्या चाहते हो! जाहिर है बात कि हम कोई ऐसी बस्ती के रहने वाले हैं जहां मछलियों की दुर्गंध हमें सुगंध मालूम होने लगी है, जहां हम जीसस को सूली पर लटका देते हैं, जहां हम सुकरात को जहर पिला देते हैं, जहां बुद्धों को हम पत्थर मारते हैं, महावीरों का अपमान करते हैं। हमें उनकी सुगंध-सुगंध नहीं मालूम पड़ती है। हम भयभीत हो जाते हैं। उनका होना हमें डगमगा देता है। उनके होने में बगावत मालूम पड़ती है। उनकी श्वास-श्वास में विद्रोह के स्वर मालूम होते हैं। लेकिन देवताओं को उनकी गंध आती है।
      महावीर के जीवन में बड़ा प्यारा उल्लेख है। कथा ही होगी। लेकिन कथा भी बड़ी बहुमूल्य है और सार्थक है। और कभी-कभी कथाओं के सत्य जीवन के सत्यों से भी बड़े सत्य होते हैं। कहते हैं कि महावीर ने जब पहली दफा अपनी उदघोषणा की, अपने सत्य की, तो देवताओं के सिवाय कोई भी सुनने न आया। आते भी कैसे कोई और प उदघोषणा इतनी ऊंची थी! उसकी गंध ऐसी थी की केवल देवता ही पकड़ पाए होंगे। अगर कहीं कोई देवता हैं तो निश्चित ही वही सुनने आए होंगे। फिर देवताओं ने महावीर को समझाया-बुझाया कि आप कुछ इस ढंग से कहें कि मनुष्य भी समझ सके। आप कुछ मनुष्य की भाषा में कहें। मतलब यही कि मनुष्य की टोकरी पर थोड़ा पानी छिड़कें, मनुष्य की टोकरी उसके पास रख दें, तो ही शायद वह पहचान पाए।
      कोई भी नहीं जानता कि महावीर की पहली उदघोषणा में, पहले संबोधन में महावीर ने क्या कहा था। वही शुद्धतम धर्म रहा होगा। लेकिन उसके आधार पर तो जैन धर्म नहीं बना। जैन धर्म तो बना तब, जब महावीर कुछ ऐसा बोले जो आदमी की समझ में आ जाए। वह महावीर का अंतरतम नहीं हो सकता।
      बुद्ध तो चुप ही रह गए जब उन्हें ज्ञान हुआ। उन्होंने कहा, बोलना फिजूल है, कौन समझेगा? यह गंध बांटनी व्यर्थ है। यहां कोई गंध के पारखी ही नहीं हैं। हम बांटेंगे सोना, लोग समझेंगे पीतल; हम देंगे हीरे, लोग समझेंगे कंकड़-पत्थर। फेंक आएंगे। बुद्ध तो सात दिन चुप रह गए।
      फिर कथा कहती है कि स्वर्ग के देवता उतरे, खुद ब्रह्मा उतरे, बुद्ध के चरणों में सिर रखा और कहा कि ऐसी अनूठी घटना कभी-कभार घटती है सदियों में, आप कहें। कोई समझे या न समझे, आप कहें। शायद कोई समझ ही ले। शायद कोई थोड़ा ही समझे। एक किरण भी किसी की समझ में आ जाए तो भी बहुत है। क्योंकि किरण के सहारे कोई सूरज तक जा सकता है।
      बुद्ध कहते हैं, 'तगर या चंदन की यह जो गंध है, अल्पमात्र है। और यह जो शीलवंतों की सुगंध है, वह उत्तम देवलोकों तक फैल जाती है। '
      इस सुगंध को शब्द देने कठिन हैं। यह सुगंध कोई पार्थिव घटना नहीं है। तुम इसे तौल न सकोगे। न ही तुम इसे गठरियों में बांध सकोगे। न ही तुम इसे शास्त्रों
में समा सकोगे। न ही तुम इसके सिद्धात बना सकोगे। यह सुगंध अपार्थिव है। यह तो केवल उन्हीं को मिलती है, जो बुद्धों की आंखों में झांकने में समर्थ हो जाते हैं। यह तो केवल उन्हीं को मिलती है, जो बुद्धों के हृदयों में डूबने में समर्थ हो जाते हैं। यह तो केवल उन्हीं को मिलती है, जो मिटने को राजी हैं, जो खोने को राजी हैं। इस सुगंध को पाना बड़ा सौदा है। केवल जुआरी ही इसको पा पाते हैं।
      होता है राजे-इश्को-मुहब्बत इन्हीं से फाश
      आंखें जुबां नहीं हैं मगर बेजुबां नहीं
      बुद्ध की आंखों में जो झांकेगा, तो बुद्ध की आंखें जबान तो नहीं हैं कि बोल दें, लेकिन वे बेजुबां भी नहीं हैं। बोलती हैं। जो बुद्ध की आंखों के दीये को समझेगा, जो बुद्ध की आंखों के दीये के पास अपने बुझे दीयों को ले आएगा, जो बुद्ध की शून्यता में अपनी शून्यता को मिला देगा, जो बुद्ध के साथ होने को राजी होगा-अज्ञात की यात्रा पर जाने कों-केवल उसी के अंतरपट उस गंध से भर जाएंगे, केवल वही उस गंध का मालिक हो पाएगा।
      'वे जो शीलवान, अप्रमाद में विहार करने वाले सम्यक ज्ञान द्वारा विमुक्त हो गए हैं, उनकी राह में मार नहीं आता है।'
      और जिसने भी शील को पा लिया, अप्रमाद को पा लिया, सम्यक ज्ञान को पा लिया-एक ही बातें हैं-उसकी राह में फिर वासना का देवता मार नहीं आता है। जो जाग गया, उसे फिर मार के देवता से मुलाकात नहीं होती। उसकी तो फिर परमात्मा से ही मुलाकात होती है। जो सोया है, उसकी घड़ी-घड़ी मुलाकात वासना के देवता से ही होती है।
      'जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर पर कोई सुगंधयुक्त सुंदर कमल खिले, वैसे ही कूड़े के समान अंधे सामान्यजनों के बीच सम्यक संबुद्ध का श्रावक अपनी प्रज्ञा से शोभित होता है।'
      बहुत बातें हैं इस सूत्र में। पहली तो बात यह है कि कमल कीचड़ से खिलता है, कूड़े-करकट के ढेर से निकलता है। कमल कीचड़ में छिपा है। कमल तो पैदा करना है, लेकिन कीचड़ के दुश्मन मत हो जाना। नहीं तो कमल कभी पैदा न हो पाएगा।
      समझो। जिसे तुमने क्रोध कहा है, वही है कीचड़; और जिसे तुमने करुणा जानी है, वही है कमल। और जिसे तुमने कामवासना कहा है, वही है कीचड़; और जिसको तुमने ब्रह्मचर्य जाना है, वही है कमल। काम के कीचड़ से ही राम का कमल खिलता है, क्रोध के कीचड़ से ही करुणा के फूल खिलते हैं।
      जीवन एक कला है। और जीवन उन्हीं का है जो उस कला को सीख लें। भगोड़ों के लिए नहीं है जीवन, और न नासमझों के लिए है। तुम कहीं भूल में मत पड़ जाना। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी तुम्हें जो समझाते हैं, जल्दी मत मान लेना। क्योंकि वे कहते हैं कि हटाओ क्रोध को; वे कहते हैं, हटाओ काम को। मैं तुमसे कहता हूं बदलों, हटाओ मत 1 रूपांतरित करो, ट्रांसफार्म करो। क्रोध ऊर्जा है, उसे काट दोगे तो करुणा पैदा न होगी। तुम सिर्फ शक्तिहीन, नपुंसक हो जाओगे। काम ऊर्जा है। उसे अगर काट दोगे तो तुम निर्वीर्य हो जाओगे। बदलो, रूपांतरित करो, उसमें महाधन छिपा है। तुम कहीं फेंक मत देना। कीचड़ समझकर फेंक मत देना, कमल भी छिपा है। हालांकि कीचड़ को ही कमल मत समझ लेना।
      दुनिया में दो तरह के लोग हैं। बड़ी खतरनाक दुनिया है। एक तो वे लोग हैं, जो कहते हैं, कीचड़ को हटाओ, क्योंकि कहां कीचड़ को ढो रहे हो? काटो कामवासना को, तोड़ो क्रोध को, जला दो इंद्रियों को। एक तो ये लोग हैं। इन्होंने काफी हानि की संसार की। इन्होंने मनुष्य को गरिमा से शून्य कर दिया। इन्होंने मनुष्य का सारा गौरव नष्ट कर दिया, दीन-हीन कर दिया मनुष्य को। क्योंकि उसी कीचड़ में छिपे थे कमल।
      फिर दूसरी तरह के लोग भी हैं। अगर उनसे कहो, कीचड़ में कमल छिपा है, फेंको मत कीचड़ को, बदलो; तो वे कहते हैं, बिलकुल ठीक। फिर वे कीचड़ को ही सिंहासन पर विराजमान कर लेते हैं, फिर वे उसी की पूजा करते हैं। वे कहते हैं, तुम्हीं ने तो कहा था कि कीचड़ में कमल छिपा है। अब हम कीचड़ की पूजा कर रहे हैं।
      ये दोनों ही खतरनाक लोग हैं। कीचड़ में कमल छिपा है। न तो कीचड़ को फेंकना है, न कीचड़ की पूजा करनी है। कीचड़ से कमल को निकालना है। कीचड़ से कमल को बाहर लाना है। जो छिपा है, उसे प्रगट करना है। इन दो अतियों से बचना। ये दोनों अतियां एक जैसी हैं। कुआं नहीं तो खाई। कहीं बीच में खड़े होने के लिए जगह खोजनी है। कोई संतुलन चाहिए।
      'जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर पर कोई सुगंधित सुंदर कमल खिले।
तो पहली तो बात यह है कि कमल खिलता ही कीचड़ में है। इसका बड़ा गहरा अर्थ हुआ। इसका अर्थ हुआ कि कीचड़ सिर्फ कीचड़ ही नहीं है, कमल की संभावना भी है। तो गहरी आंख से देखना, तो तुम कीचड़ में छिपा हुआ कमल पाओगे। कीचड़ सिर्फ वर्तमान ही नहीं है, भविष्य भी है। गौर से देखना, तुम भविष्य के कमल को झांकते हुए पाओगे। छिपा है। इसलिए जिनके पास पैनी आंखें हैं, उन्हीं को दिखाई पड़ेगा।
      कीचड़ की पूजा भी नहीं करना, कीचड़ का उपयोग करना। कीचड़ को मालिक मत बन जाने देना, कीचड़ को सेवक ही रहने देना। मालिक तुम्हीं रहना, तो ही कमल निकल पाएगा। क्योंकि तुम्हारी मालकियत रहे तो ही कमल को तुम कीचड़ के बाहर खींच पाओगे। तुम अगर ऊर्ध्वगमन पर जाते हो, अगर तुम ऊपर की तरफ यात्रा कर रहे हो, तो ही कीचड़ का कमल भी ऊपर की तरफ तुम्हारे साथ जा सकेगा। तुम कीचड़ में ही डुबकी लगाकर मत बैठ जाना, नहीं तो कमल किसके सहारे जाएगा! तुम्हीं को तो कमल की डंडी बनना है। पैर रहें कीचड में, सिर रहे आकाश में, तो तुम कीचड़ से कमल को बाहर निकाल पाओगे। पैर रहें जमीन पर, सिर रहे आकाश में, चलना जमीन पर, उड़ना परमात्मा में; और इन दोनों के बीच अगर तालमेल बना लो, तो तुम्हारे भीतर एक अनूठा कमल खिलेगा।
      'जैसे महापथ के किनारे फेंके गए कूड़े के ढेर पर कोई सुगंधित सुंदर कमल खिले, वैसे ही कूड़े के समान अंधे सामान्यजनों के बीच सम्यक संबुद्ध का श्रावक अपनी प्रज्ञा से शोभित होता है।'
      बुद्ध अपने शिष्य को श्रावक कहते हैं। श्रावक का अर्थ है, जिसने बुद्ध को सुना, श्रवण किया। बुद्ध को तो बहुत लोगों ने सुना, सभी श्रावक नहीं हैं। कान से ही जिन्होंने सुना, वे श्रावक नहीं हैं। जिन्होंने प्राण से सुना, वे श्रावक हैं। जिन्होंने ऐसे सुना कि सुनने में ही क्रांति घटित हो गई, जिन्होंने ऐसे सुना कि बुद्ध का सत्य उनका सत्य हो गया। श्रद्धा के कारण नहीं, सुनने की तीव्रता और गहनता के कारण। श्रद्धा के कारण नहीं, मान लिया ऐसा नहीं, पर सुना इतने प्राणपण से, सुना इतनी परिपूर्णता से, सुना अपने को पूरा खोलकर कि बुद्ध के शब्द केवल शब्द ही न रहे, निःशब्द भी उनमें चला आया। बुद्ध के शब्द ही भीतर न आए, उन शब्दों में लिपटी बुद्धत्व की गंध भी भीतर आ गई।
और ध्यान रखना, जब बुद्ध बोलते हैं तब शब्द तो वही होते हैं जो तुम बोलते हो, लेकिन जमीन-आसमान का फर्क है। शब्द तो वही होते हैं, लेकिन बुद्ध में डूबकर आते हैं, सराबोर होते हैं बुद्धत्व में, उन शब्दों में से बुद्धत्व झरता है। अगर तुमने बुद्ध के शब्दों को अपने प्राण में जगह दी, तो उनके साथ ही साथ बुद्धत्व का बीज भी तुम्हारे भीतर आरोपित हो जाता है। बुद्ध ने उनको श्रावक कहा है जिन्होंने ऐसे सुना।
      और बुद्ध कहते हैं, सम्यक संबुद्धों का श्रावक सामान्यजनों के कूड़े-करकट की भीड़ में कमल की तरह खिल जाता है। अलग हो जाता है। रहता संसार में है, फिर भी पार हो जाता है। कमल होता कीचड़ में है, फिर भी दूर हो जाता है। उठता जाता है दूर। भिन्न हो जाता है।
      कमल और कीचड़, कितना फासला है! फिर भी कमल कीचड़ से ही आता है। तुम्हारे बीच ही अगर किसी ने बुद्धत्व को अपने प्राणों में आरोपित कर लिया, बुद्ध के बीज को अपने भीतर जाने दिया, अपने हृदय में जगह दी, सींचा, पाला, पोसा, सुरक्षा की, तो तुम्हारे ठीक बीच बाजार के पूरे पर, ढेर पर उसका कमल खिल आएगा।
      एक ही बात खयाल रखनी जरूरी है, ऊपर की तरफ जाने को मत भूलना। नीचे
की तरफ जो ले जाता है, वह है कामवासना, कीचड़। ऊपर की तरफ जो ले जाता है, वही है प्रेम, वही है प्रार्थना। काम को प्रेम में बदलो।
      काम का अर्थ है, दूसरे से सुख मिल सकता है ऐसी धारणा। प्रेम का अर्थ है, किसी से सुख नहीं मिल सकता, और न कोई तुम्हें दुख दे सकता है। इसलिए दूसरे से लेने का तो कोई सवाल ही नहीं है। काम मांगता है दूसरे से। काम भिखारी है। काम है भिक्षा का पात्र। प्रेम है इस बात की समझ कि दूसरे से न कुछ कभी मिला है न मिलेगा। यह दूसरे के सामने भिक्षा के पात्र को मत फैलाओ। प्रेम है, तुम्हारे भीतर जो है उसे बांटो और दो। काम है मांगना, प्रेम है दान। जो तुम्हारे जीवन की संपदा है, उसे तुम दे दो, उसे तुम बांट दो। जैसे सुगंध बांटता है फूल, ऐसे तुम प्रेम को बाट दो। तो तुम्हारे जीवन में शील का जन्म होगा। बांटोगे तो तुम पाओगे, जितना बांटते हो उतनी बढ़ती जाती है संपदा। जितना लुटाते हो, साम्राज्य बड़ा होता जाता है।
      केसरी और खुशरबी तो ढलती-फिरती छांव है
      इस जिंदगी के बाहर दिखाई पड़ने वाले साम्राज्य और सम्राट तो ढलती-फिरती छांव हैं।
      केसरी और खुशरबी तो ढलती-फिरती छांव है
      इश्क ही एक जाबिदा दौलत है इंसानों के पास
      दौलत एक है, धन एक है, संपत्ति एक है। बाकी तो ढलती-फिरती छांव है। इश्‍क ही है एक जाबिदां दौलत-प्रेम ही एकमात्र संपदा है। काम है भिखारीपन और प्रेम है संपदा। काम से पैदा होगा अशील और प्रेम से पैदा होता है शील। तो तुम्हारा जीवन एक प्रेम का दीया बन जाए।
      और ध्यान रखना, प्रेम का दीया तभी बन सकता है जब तुम बहुत जागकर
जीओ। जागने का तेल हो, प्रेम की बाती हो, तो परमात्मा का प्रकाश फैलता है। और तब जहां अंधेरा पाया था, वहां रोशनी हो जाती है; जहां काटे पाए थे, वहां फूल हों जाते हैं; जहां संसार देखा था, वहा निर्वाण हो जाता है; जहां पदार्थ के सिवाय कभी कुछ न मिला था, वहीं परमात्मा का हृदय धड़कता हुआ मिलने लगता है। जीसस ने कहा है, उठाओ पत्थर और तुम मुझे छिपा हुआ पाओगे, तोड़ो चट्टान और तुम मुझे छिपा हुआ पाओगे।
      ऐसे भी हमने देखे हैं दुनिया में इंकलाब
      पहले जहां कफस था वहीं आशियां बना
      जहा पहले कारागृह था, हमने ऐसे भी इंकलाब देखे, ऐसी क्रांतियां देखीं, कि जहां कारागृह था, वहीं अपना निवास बना, घर बना। यह संसार ही, जिसको तुमने अभी कारागृह समझा है... अभी कारागृह है। संसार कारागृह है ऐसा नहीं, तुम्हारे देखने के ढंग अभी नासमझी के हैं, अंधेरे के हैं। 
      ऐसे भी हमने देखे हैं दुनिया में इंकलाब
      पहले जहां कफस था वहीं आशियां बना
      बुद्ध, महावीर, कृष्ण ऐसे ही इंकलाब हैं। जहां तुमने सिर्फ कारागृह पाया और जंजीरें पायीं, वहीं उन्होंने अपना घर भी बना लिया! जहां तुमने सिर्फ कीचड़ पाई, वहीं उनके कमल खिले। और जहां तुम्हें अंधकार के सिवाय कभी कुछ न मिला, वहा उन्होंने हजार-हजार सूरज जला लिए।
      मैं तुमसे फिर कहता हूं-
      सिवा इसके और दुनिया में क्या हो रहा है
      कोई हंस रहा है कोई रो रहा है
      अरे चौंक यह ख्वाबे-गफलत कहां तक
      सहर हो गई है और तू सो रहा है
      सहर सदा से ही है, सुबह सदा से ही है, तुम्हारे सोने की वजह से रात मालूम हो रही है। और जागना बिलकुल तुम्हारे हाथ में है। कोई दूसरा तुम्हें जगा न सकेगा। तुमने ही सोने की जिद्द ठान रखी हो, तो कोई तुम्हें जगा न सकेगा। तुम जागना चाहो, तो जरा सा इशारा काफी है।
      बुद्धपुरुष इशारा कर सकते हैं, चलना तुम्हें है। जागना तुम्हें है। अगर अपनी दुर्गंध से अभी तक नहीं घबड़ा गए, तो बात और। अगर अपनी दुर्गंध से घबड़ा गए हो, तो खिलने दो फूल को अब।
      'चंदन या तगर, कमल या जूही, इन सभी की सुगंधों से शील की सुगंध सर्वोत्तम है।'


आज इतना ही।





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