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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

सुन भई साधो--(प्रवचन--20)

उपलब्धि के अंतिम चरण—(प्रवचन—बीसवां)
दिनांक: 20 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान
कहिवे को सोभा नहीं, देखा ही परमान।।

एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि
है जैसा तैसा रहे, कहै कबीर विचारि।।

ज्यों तिल माहीं तेल है, चकमक माहीं आग।
तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।।

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहिं
ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखै नाहिं।।

अछै पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तिरदेवा साखा भए, पात भया संसार।।

गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गंभीर।
चहुं दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर।।

रमात्मा की खोज में, अंततः वह सौभाग्य की घड़ी भी आ जाती है जब परमात्मा तो मिल जाता है, लेकिन खोजने वाला खो जाता है। जो निकला था खोजने, उसकी तो रूपरेखा भी नहीं बचती; और जिसे खोजने निकला था, जिसकी रूपरेखा भी पता नहीं थी, बस वही केवल शेष रह जाता है। साधक जब खो जाता है तभी सिद्धत्व उपलब्ध हो जाता है।
यह खोज बड़ी अनूठी है! यहां खोना ही पाने का मार्ग है। खोज में अगर तुमने अपने को बचाया, तो तुम भटकते ही रहोगे, पा न सकोगे। इस खोज का आधारभूत नियम ही यही है कि तुम ही हो बाधा, कोई और बाधा नहीं है; और जब तक तुम हट न जाओ—तुम्हारे और परमात्मा के बीच से—तब तक दीवार बनी ही रहेगी। तुम हटे कि परमात्मा तो सदा से था; तुम्हारी दीवाल के कारण दिखाई न पड़ता था। और तुम्हारी दीवाल बड़ी मजबूत है। और शायद तुम परमात्मा को इसलिए खोज रहे हो कि दीवाल को और मजबूत कर लो, तुम अपने को और भर लो। संसार की सब चीजें तुमने अपने में भर लीं, यह परमात्मा की कमी खटकती है। अहंकार को चुनौती लगती है कि अगर किसी ने परमात्मा को कभी पाया है तो मैं भी पाकर रहूंगा। जिसने परमात्मा को चुनौती की तरह समझा और जीवन की अन्य महत्त्वाकांक्षाओं में एक महत्त्वाकांक्षा बनाया, वह खाली हाथ ही रहेगा; उसके हाथ कभी परमात्मा से भरेंगे; और उसका हृदय सूना ही रह जाएगा; वहां कभी परमात्मा का बीज रोपित न हो पाएगा; और उसके जीवन में वह वर्षा कभी न होगी जिसकी कबीर चर्चा कर रहे हैं।
पहली और आखिरी बात खयाल रखने जैसी है कि तुम अपने को मिटाने में लगना—वही परमात्मा की खोज है। परमात्मा को खोजने की फिक्र ही छोड़ दो। वह तो मिला ही हुआ है; तुम सिर्फ अपने को मिटा लो। इधर तुमने अपने को साफ किया, इधर तुम खाली घर बने कि उधर परमात्मा का पदार्पण हुआ। इस द्वार से तुम निकले कि दूसरे द्वार से परमात्मा भीतर चला आता है। तुम्हारा खाली हो जाना ही तुम्हारी पात्रता है। तुम्हारा भरा होना ही तुम्हारी अपात्रता है।
इसलिए तो जिन्होंने भी जाना, वे उसके संबंध में कुछ कह नहीं पाते; क्योंकि जानने वाला तो खो जाता है, कहे कौन? परमात्मा के सामने जब तुम मौजूद होओगे, तुम तो रहोगे नहीं—कौन करेगा दावा कि मैंने जान लिया? कौन लौटकर खबर देगा? कौन लाएगा प्रतिबिंब परमात्मा के? तुम मिट ही जाओगे, लानेवाला नहीं बचेगा। इसलिए तो जो गए, वे खुद तो पा लेते हैं, दूसरों को नहीं जना पाते कि क्या उन्होंने पाया। बड़ी कोशिश करते हैं, लेकिन सब शब्द हार जाते हैं, सब इशारे छोटे मालूम पड़ते हैं। और जो भी वे कहते हैं, कहते ही उनको लगता है, भूल हो गई। जो भी कहा जाता है, वह गलत हो जाता हैं।
लाओत्से ने कहा है, कहो सत्य को, और सत्य असत्य हो जाता है।
शब्द बहुत छोटे हैं, बहुत संकीर्ण हैं; और जिसे भरना है, वह बहुत विराट है। शब्दों में उसे भरा नहीं जा सकता। इसलिए जो भी कहा गया है, वह ऐसा ही है कि जैसे किसी ने रात में उड़ती जुगनू देखी हो, और फिर अचानक किसी सूरज के सामने खड़े होने का मौका आ जाए, तो किस भांति तौलेगा सूरज को? कितने जुगनुओं का प्रकाश सूरज बनेगा? या जैसे कोई आदमी चाहे कि चम्मच को लेकर सागर को नापने बैठ जाए—कब तक नाप पाएगा कि कितने चम्मच जल है सागर में? पर मैं तुमसे कहता हूं कि यह हो सकता है, अगर समय पूरा मिले तो कभी—न—कभी चम्मच से सागर नाप लिया जाए, क्योंकि चम्मच छोटी हो भला, सागर बड़ा हो भला; लेकिन दोनों की सीमा है, दोनों एक ही तल की घटनाएं हैं। तो अगर समय मिले अरबों—खरबों वर्ष का, तो कोई आदमी चम्मच से भी सागर को नाप ले सकता है। सिद्धांततः यह संभव है। लेकिन परमात्मा को तो सिद्धांततः भी नापने की संभावना नहीं है, क्योंकि नापने का उपकरण सीमित और जिसे नापना है वह असीम। सीमित से कैसे तुम असीम को नापोगे? और जो भी तुम नापकर ले आओगे खबर, वह झूठी होगी, क्योंकि असीम फिर भी बाकी है। जो नापने और नापने के बाद भी सदा बाकी है, उसी को तो हम असीम कहते हैं।
इसलिए परमात्मा को लोगों ने जाना तो है, कहा किसी ने भी नहीं। नहीं की कहने की कोशिश नहीं की है, सभी ने कोशिश की है। क्योंकि करुणा कहती है, कहो, जो जाना है वह उनको भी बता दो, जो मार्ग पर भटकते हैं, जो अंधेरे में टटोलते हैं। करुणा कहती है, कहो। लेकिन परमात्मा के अनुभव का स्वभाव ऐसा है कि कहा नहीं जा सकता।
मैं भी तुमसे रोज कहे जाता हूं, और भली भांति जानता हूं कि जो कहना चाहता हूं, वह कह नहीं पाऊंगा। और तुम अगर मुझे सुन—सुनकर इतना ही समझ गए तो बस काफी है, कि जो कहना चाहता था मैं, कह नहीं पाया। अगर मुझे सुनकर तुमने समझ लिया, कि तुम समझ गए वह, जो मैं कहना चाहता था, कह दिया मैंने, तो तुम भटक गए। फिर तुम मुझे न समझ पाए। अगर सुन—सुनकर तुमने समझ लिया कि ठीक, संवाद हो गया, जो मैं कहना चाहता था तुमसे कह दिया, और तुमने पा लिया, तो तुम चूक गए; तुम सरोवर के किनारे आकर प्यासे लौट गए। जो मैं कहना चाहता हूं, वह तो कहा ही नहीं जा सकता। जो तुम सुन रहे हो, वह, वह नहीं जो मैं कहना चाहता हूं। जो मैं कह रहा हूं, वह भी नहीं है जो मैं कहना चाहता हूं। बड़ी दूर की फीकी प्रतिध्वनियां हैं। जो कहना है, वह तो तुम तभी समझ पाओगे, जब तुम भी जान लोगे।
जानना ही एकमात्र उपाय है परमात्मा के साथ, कोई दूसरा और रास्ता नहीं है जिससे हम उसे बिना जाने जान लें। जानकर ही जाना जा सकता है। कबीर के इन पदों में जिन कठिनाइयों की तरफ इशारा है, उन कठिनाइयों को हम समझ लें।
पहली कठिनाई: बुनियादी कठिनाई है कि खोजनेवाला खो जाता है, इसलिए कौन खबर लाए?
मैं तुमसे बोल रहा हूं, लेकिन मैं वही नहीं हूं जो खोजने निकला था। वह तो खो गया। और अब जो मैं हूं, उसका सब खोजनेवाले से कोई भी नाता—रिश्ता नहीं है; जैसे वह खोजनेवाला एक स्पप्न था और विलीन हो गया। उसमें और मुझमें कोई तारतम्य नहीं है। वह कोई और था, मैं कोई और हूं। वह बिलकुल अजनबी है। उससे मेरी कोई पहचान ही न रही। वह तो एक छाया थी जो केवल अंधेरे में ही रह सकती थी। रोशनी में वह छाया खो गई। और अब जो मैं हूं, वह बिलकुल ही भिन्न है। जो खोजने निकला था, वह तो अब नहीं है; और जिसने खोज लिया है वह बिलकुल ही भिन्न है, उसका खोजी से कुछ लेना—देना नहीं है। यह पहली अड़चन है।
दूसरी अड़चन कि जब खोज पूरी हो जाती है, तो जाननेवाले में और जो जाना गया है, फासला नहीं रह जाता। सब ज्ञान में फासला चाहिए। तुम्हें मैं देख रहा हूं क्योंकि तुम दूर बैठे हो; तुम्हारे और मेरे बीच में फासला है। अगर तुम करीब आते जाओ, करीब आते जाओ, करीब आते जाओ, तुम इतने करीब आ जाओ कि मेरी आंख और तुम्हारे बीच फासला न रहे, तो फिर मैं तुम्हें देख न पाऊंगा, जान न पाऊंगा। तुम इतने करीब आ जाओ कि बिलकुल मेरे हृदय में विराजमान हो जाओ, तब तो पहचान बिलकुल मुश्किल हो जाएगी। और तुम इतने करीब आ जाओ कि तुम मेरा हृदय हो जाओ, तब तो कौन पहचानेगा, किसको पहचानेगा?
परमात्मा की खोज में हम निकट आते जाते हैं, निकटता बढ़ती है, सामीप्य बढ़ता है। जैसे—जैसे समीपता आती है, वैसे—वैसे जानना मुश्किल हो जाता है, जगह नहीं बचती बीच में। और एक ऐसी घड़ी आती है छलांग की, जब या तो तुम छलांग लगाकर परमात्मा में डूब जाते हो, या परमात्मा छलांग लगाकर तुममें डूब जाता है। दोनों घटनाएं घटती हैं। ज्ञान के मार्ग से जो चलता है, वह छलांग लगाकर परमात्मा में लीन हो जाता है। भक्ति के मार्ग से जो चलता है, उसमें परमात्मा छलांग लगाकर लीन हो जाता है। या तो बूंद सागर में गिर जाती है, या सागर बूंद में गिर जाता है और तब कुछ पता नहीं चलता कि कौन बूंद थी, कौन सागर है; कौन तुम हो, कौन परमात्मा है। जरा भी रंचभर फासला नहीं रह जाता। भेद करने की व्यवस्था नहीं रह जाती। परिभाषा नहीं हो सकती। इसलिए तो ज्ञानी उद्घोष कर बैठते हैं: "अहं ब्रह्मास्मि'; "अनलहक', मैं वही हूं; तत्त्वमसि! इस घोषणा के बाद अब किसकी चर्चा करोगे? अब तो परमात्मा की चर्चा भी अपनी ही चर्चा है। अब तो अपनी ही चर्चा परमात्मा की भी चर्चा है। अब तो चर्चा करनेवाला और चर्चित दो न रहे; जाननेवाला और जाना गया दो न रहे। और हमारा सारा जानना दो पर निर्भर है, द्वैत पर निर्भर है। अद्वैत का जानना बड़ी ही अनूठी घटना है। वह आयाम और! और जब दोनों एक हो गए, तो कौन खबर दे, कैसे खबर दे, किसकी खबर दे?
ज्ञानी और ज्ञेय जहां एक हो जाते हैं, वहीं तो परम ज्ञान का जन्म होता है। दोनों किनारे खो जाते हैं, सरिता रह जाती है—अधर में लटकी—न इस तरफ किनारा, न उस तरफ किनारा; बस ज्ञान रह जाता है। और हमने ऐसा कोई ज्ञान नहीं जाना है। हमारा तो सारा ज्ञान ऐसा ही है, जैसे नदी के दोनों तरफ किनारे हैं, दोनों किनारों में बंधी हुई नदी बहती है। कभी—कभी वर्षा में जब बड़ा पूर आता है, बाढ़ आती है, किनारे टूट जाते हैं, नदी उन्मत्त होकर बहने लगती है; लेकिन तब भी पुराने किनारे टूट जाते हैं, नदी नए किनारे बना लेती है, किनारे से मुक्त नहीं होती।
परमात्मा ऐसी बाढ़ है, जहां पुराने किनारे तो टूट ही जाते हैं, नए किनारे नहीं बनते।
परमात्मा का कोई तट नहीं है; क्योंकि तट यानी सीमा, तट यानी अंत। तट पर ही तो नहीं समाप्त हो जाती है। परमात्मा की कोई सीमा नहीं है, कोई तट नहीं है। वह कहीं समाप्त नहीं होता। और जब तुममें गिर जाती है उसकी धारा, या तुम उसमें गिर जाते हो—जो कि एक ही बात के दो नाम हैं, एक ही घटना के दो नाम हैं—तब कहना मुश्किल हो जाता है।
तीसरी बात: जिन शब्दों से हम कहते हैं, वे बने हैं साधारण कामकाज के लिए। उनमें उतना अर्थ है, जैसे छोटे बच्चों के पास बंदूक होती है खिलौनों की: आवाज भी करती है, धुआं भी निकालती है, पर किसी को मारती नहीं। वह खिलौना है। उस बंदूक से तुम युद्ध के मैदान पर मत चले जाना। वहां वह काम नहीं आएगी; वहां बुरी तरह मारे जाओगे।
हमारे जो शब्द हैं, वे संसार के लिए बने हैं। परमात्मा के जगत में उन शब्दों की सार्थकता ही कोई नहीं है। परमात्मा के जगत में सभी शब्द असंगत हो जाते हैं, उनकी संगति खो जाती है; जो भी कहो, गलत मालूम होता है; जैसे भी कहो, गलत मालूम होता है; व्याकरण बिलकुल शुद्ध रहे तो भी सब गलत होता है: भाषा बिलकुल शुद्ध हो तो भी सब गलत होता है; कितने ही सुंदर ढंग से कहो तोभी फीका और बासा होता है। क्योंकि, शब्द मन—निर्मित हैं और परमात्मा मन के पार है। शब्द स्वप्न—निर्मित हैं और परमात्मा सत्य है। शब्द माया और संसार के बीच खेल—खिलौने हैं, यथार्थ नहीं हैं। बच्चा भी जब जवान हो जाएगा, खिलौनों को फेंक देगा एक कोने में; उनकी याद भी उसे न आएगी कि क्या हुआ। कभी उन्हीं खिलौनों के लिए लड़ा भी था; कभी उन्हीं खिलौनों के लिए रो—रोकर जार—जार हो गया था; कभी उन्हीं खिलौनों के लिए आंखें सूज आई थीं; कभी पाकर ऐसा नाचा था खुशी से, खोकर रोया था। अब तो याद भी नहीं आती। वे कोने में पड़े—पड़े अपने—आप धूल—धवांस से भरकर...किसी दिन नौकरानी झाड़कर उन्हें कचरे—घर में फेंक आएगी। बच्चा जवान हो गया, प्रौढ़ हो गया।
जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर परमात्मा की तरफ निकटता बढ़ेगी, एक प्रौढ़ता बढ़ेगी। जिन शब्दों को तुमने बड़ा मूल्य दिया था, जिनके लिए तुम कभी लड़—लड़ पड़े थे—किसी ने हिंदू—धर्म को कुछ कह दिया, या किसी ने तुम्हारे परमात्मा के खिलाफ कुछ बोल दिया, या किसी ने तुम्हारे गुरु की निंदा कर दी—सब शब्द हैं, हवा में बने बबूले हैं; तुमने तलवार खींच ली थी; तुम धर्म की रक्षा के लिए तत्पर हो गए थे; तुम मारने—मरने को उतारू थे; विवाद के लिए तैयार थे; सिद्ध करने के लिए तुमने पूरा आयोजन कर लिया था; शास्त्रार्थ तुम्हारे ओठों पर रहा सदा। यह सब शब्दों का ही जाल है। शब्द में कौन सही, कौन गलत! शब्द में तो सभी गलत, शब्दों में कौन शास्त्र ठीक, कौन शास्त्र गलत, शब्द में तो सभी गलत, सभी शास्त्र गलत। यह खिलौना, वह खिलौना—कुछ चुनाव करने का है? कौन—सा खिलौना यथार्थ? सभी खिलौने खिलौने हैं। कोई खिलौना यथार्थ नहीं है। और पंडित हैं कि लगे हैं शब्दों को घिसने में।
शब्दों का बड़ा ऊहापोह है, बड़ा जाल है। शब्द से ही तुम जीते हो, क्योंकि यथार्थ से तुम्हारे सभी संबंध छूट गए हैं। और यथार्थ परम मौन है। यथार्थ के पास कोई भाषा नहीं है, या मौन ही एक मात्र भाषा है। जब कोई परमात्मा के पास आता है, मौन होने लगता है; जैसे—जैसे पास आता है, वैसे—वैसे गहन मौन उतरने लगता है; रोआं—रोआं शांत हो जाता है; वाणी खो जाती है; मन थिर हो जाता है; भीतर की लौ अकंप जलने लगती है, कोई कंपन नहीं आता। भीतर के आकाश में शब्द की एक बदली भी नहीं तैरती। तब तुम जानते हो।
निःशब्द में जाना जाता है। जिसे निःशब्द में जाना है, उसे शब्द में कैसे कहोगे? निःशब्द तो निराकार है। शब्द तो आकार है। निःशब्द में तो तुमने वह जाना जो है। शब्द में लाकर ही तो वह कहोगे, और शब्द के आते ही संसार आ गया।
चौथी कठिनाई: मन रेखाबद्ध चलता है। मन लकीर का फकीर है। और मन हमेशा विरोध से बचता है। जहां—जहां विरोध पाता है, वहां—वहां मन दो खंड कर लेता है। जन्म को अलग कर लेता है, मृत्यु को अलग कर लेता है। क्योंकि मन की समझ के बाहर है यह बात कि जन्म और मृत्यु दोनों एक हो सकते हैं। जन्म कहां मृत्यु कहां; जन्म, जीवन का दाता; मृत्यु, जीवन की विनाशक! तो मन कहता है, जन्म और मृत्यु एक—दूसरे के विपरीत हैं, एक—दूसरे के शत्रु हैं। जन्म को तो चाहता है मन, मृत्यु से बचना चाहता है। जन्म में तो उत्सव मनाता है, मृत्यु में रोता—पीटता है, दुखी—दीन, जर्जर हो जाता है।
लेकिन जीवन में तो जन्म और मृत्यु जुड़े हैं; एक छोर जन्म है, दूसरा छोर मृत्यु है। वहां तो दिन और रात एक ही चीज के दो पहलू हैं। वहां तो सुबह और सांझ एक ही सूरज की दो घटनाएं हैं। वहां तो सुख और दुख अलग—अलग नहीं हैं।
जैसे ही कोई व्यक्ति परमात्मा के करीब आता है, वैसे ही सबसे बड़ी अड़चन आती है, वह यह कि परमात्मा विरोधाभासी है, पेराडाक्सिकल है। उसमें सब इकट्ठा है। होना भी चाहिए, क्योंकि उससे विरोध में क्या होगा? और उससे विरोध में कोई रहकर रहेगा कहां? और उसके विरोध में होने का उपाय ही कहां है, जगह कहां है, ऊर्जा कहां है? परमात्मा में तो जन्म और मृत्यु आलिंगन कर रहे हैं। मन जब यह देखता है, तो बिलकुल टूट जाता है। उसका सारा पुराना अनुभव, अब तक की बनाई हुई धारणाएं सब क्षणभर में बिखर जाती हैं। वहां तो रात और दिन एक ही घटना की दो पोशाकें हैं। वहां तो सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और अंतिम अर्थों में, जो कि बहुत कठिन है: वहां तो संसार और मोक्ष एक ही घटना के दो नाम हैं। तब बड़ी अड़चन हो जाती है।
मन ने बड़ी व्यवस्था से बांधा है, सब चीजों की सीमा बनाई है, कोटियां बनाई हैं: यह संसार है निकृष्ट, त्याज्य; मोक्ष है उत्कृष्ट, पाने योग्य; संसार है छोड़ने योग्य, मोक्ष है पाने योग्य; संसार है ठुकराने योग्य, मोक्ष है अभीप्सा योग्य—ऐसी मन ने सब धारणाएं बनाई हैं।
परमात्मा के जैसे—जैसे निकट तुम आओगे, यहां परमात्मा में संसार और मोक्ष एक ही घटना है। यहां बनानेवाला और बनाई गई चीजें दो नहीं हैं; स्रष्टा और सृष्टि एक है। वहां तुम ऐसा न पाओगे कि यह वृक्ष अलग है परमात्मा से; तुम इस वृक्ष में परमात्मा को ही हरा होते हुए पाओगे। तुम ऐसा न पाओगे कि यह चट्टान परमात्मा से भिन्न है; तुम इस चट्टान में परमात्मा को ही सोता हुआ पाओगे। तुम शत्रु में भी देखोगे, वही है; मित्र में भी देखोगे, वही है। जन्म में वही आता है; मृत्यु में वही विदा होता है।
परमात्मा एक है; वहां सब विरोध लीन हो जाते हैं। जैसे सब नदियां सागर में गिर जाती हैं, ऐसा सब कुछ परमात्मा में गिर जाता है। और तुम्हारे मन ने बड़े इंतजाम से जो कबूतरखाने बनाए थे, जिनमें जगह—जगह तुमने खंड कर दिए थे, चीजों को बांट दिया था, लेबिल लगा दिए थे—उसे लेबिल लगाने को तुम ज्ञान कहते हो—हर चीज का नाम चिपका दिया था, हर चीज के गुण लिख दिए थे: यह जहर और यह अमृत—और अचानक परमात्मा में जाकर तुम पाते हो, जहर अमृत है, अमृत जहर है; सब एक है; कुछ चुनाव योग्य नहीं है—सभी उससे है। बुरा और भला दोनों उसी से आते हैं। संत और शैतान दोनों उसी से पैदा होते हैं। राम और रावण दोनों उसी की लीला के अंग हैं—राम ही नहीं, रावण भी; अन्यथा रावण कहां से आएगा?
जैसे ही तुम परमात्मा के पास जाते हो, तुम्हारी सब कोटियां टूटती हैं। मन का सब ज्ञान उखड़ जाता है। परमात्मा भयंकर आंधी की तरह आता है, झकझोर डालता है तुम्हारे सब ज्ञानों को, धूल—धूसरित कर देता है। परमात्मा महान अग्नि की तरह आता है, जला डालता है सब कचरे को, सब शब्दों को, सब सिद्धांतों को, सब शास्त्रों को। परमात्मा ऐसा आता है कि तुम्हें बस नग्न और शून्य छोड़ जाता है। उस घड़ी में तुम जो जानोगे, कैसे वापस कबूतरखानों में रखोगे उसे? जिसने एक बार जान लिया, परमात्मा की एक झलक जिसको आ गई, फिर मन की सारी की सारी व्यवस्था व्यर्थ हो जाती है। उसी मन से बोलना है। उसी मन से कहना है।
इसलिए कबीर कहते हैं "पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान' कैसे कहैं, क्या है उस परमब्रह्म का तेज? कौन सी उपमा दें? किन शब्दों का सहारा लें?
"कहिवे को सोभा नहीं, देखा ही परमान।।'
कबीर कहते हैं, कहने में शोभा नहीं है, बात बिगड़ जाएगी; जो भी कहेंगे वही अशोभन होगा।
इसलिए आस्तिक हमेशा नास्तिक से विवाद में हार जाएगा। लाख उपाय करो, आस्तिक जीत नहीं सकता। आस्तिक हारेगा विवाद में। विवाद में नास्तिक ही जीतेगा। उसका कारण है क्योंकि नास्तिक उस जगत की बात कर रहा है जहां विवाद की सार्थकता है, जहां तर्कसंगत है। आस्तिक अतक्र्य की बात कर रहा है, जहां तर्क असंगत है। तो आस्तिक तो हारेगा ही। इसका यह मतलब नहीं है कि कोई आस्तिक नास्तिक से हारकर नास्तिक हो जाएगा। झूठा आस्तिक हारकर नास्तिक हो जाएगा; सच्चा आस्तिक हारकर भी और गहरा आस्तिक हो जाएगा, क्योंकि सच्चा आस्तिक हार और जीत जानता ही नहीं। वह हंसेगा। वह नास्तिक के तर्क से नाराज न हो जाएगा; वह नास्तिक के तर्क से हंसेगा। नास्तिक के प्रति उसे क्रोध न उठेगा, क्योंकि वह तो आस्तिक का लक्षण ही नहीं है; नास्तिक के प्रति महाकरुणा उठेगी। वह नास्तिक को तर्क काटकर सिद्ध करने की कोशिश भी न करेगा। अगर कुछ भी हो सकता है तो एक ही घटना काम की हो सकती है: वह नास्तिक को प्रेम करेगा। क्योंकि जो शब्द से नहीं कहा जा सकता, अब उसको कहने का एक ही उपाय है: वह है प्रेम। और जो तर्क से नहीं कहा जा सकता, अब उसको समझाने की एक ही विधि है: वह करुणा है। और जिसका अब बताने का, विवाद से प्रमाण देने का कोई उपाय नहीं; उसका एक ही उपाय है कि वह खुद ही प्रमाण हो।
आस्तिक के पास प्रमाण नहीं होते; आस्तिक स्वयं प्रमाण है। इसलिए अगर आस्तिक को समझना हो तो तर्क से तुम उसके पास पहुंच ही न पाओगे। उसके पास तो पहुंचने का रास्ता है, और वह रास्ता है: सतसंग। वह रास्ता है: उसके पास होना, ताकि उसका प्रेम तुम्हें छू सके, ताकि उससे उठती सुवास किसी दिन किसी अन—अपेक्षित क्षण, में तुम्हारे नासापुटों में भर जाए। क्योंकि अन्यथा, कहता हूं अन—अपेक्षित क्षण, क्योंकि अन्यथा तो तुम बहुत सुरक्षित हो। तुमने सब संवेदनशीलता बंद कर रखी है। और आस्तिकता को जानने के लिए तो बड़ी नाजुक संवेदनशीलता चाहिए। वह फूल किसी और लोक का है। वह फूल अदृश्य है। उसकी सुवास अतिसूक्ष्म है, महासूक्ष्म है। अगर तुम संवेदनशील होओगे तो ही थोड़ी सी झलक मिलेगी। उसकी रोशनी ऐसी नहीं है कि तुम्हारी आंखों को चका—चौंध से भर दे; उसकी रोशनी बड़ी शीतल है। अगर तुम आंख बंद करके बैठ सकोगे आस्तिक के पास, तो ही तुम उसकी रोशनी देख सकोगे, क्योंकि रोशनी आंखों से देखी जानेवाली रोशनी नहीं; उसकी रोशनी तो आंख बंद करके ध्यानस्थ दशा में ही जानी जा सकती है।
"पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान
कहिवे को सोभा नहीं, देखा ही परमान।।'
कबीर कहते हैं, शोभा ही नहीं कहने की; कहना अशोभन है। जो कहा नहीं जा सकता, उसे कहकर जो प्रतिबिंब सुननेवालों के मन में बनेगा, वह बड़ा अन्याय है; वह परमात्मा के साथ बड़ा अन्याय है। क्योंकि सुननेवाले कोई प्रतिमा बना लेंगे, जिससे कि परमात्मा का कोई भी संबंध नहीं, दूर का भी नाता—रिश्ता नहीं। वे कुछ और ही समझकर लौट जाएंगे। उनकी समझ एक तरह की नासमझी होगी।
इसलिए ज्ञानी की सारी चेष्टा यह है कि कैसे तुम्हारी आंखें खुल जाएं; नहीं कि कैसे तुम तर्क के द्वारा तृप्त कर दिए जाओ। तर्क से तुम तृप्त भी हो जाओ तो वह तृप्ति वैसे ही होगी जैसे तुम प्यासे थे और पानी के संबंध में किसी ने बहुत तर्क से सिद्ध कर दिया कि पानी है; और उसने सारा पानी का विज्ञान समझा दिया कि पानी कैसे बनता है; उसने पानी का फारमूला, महामंत्र दे दिया: एच टू ओ; उसने बता दिया कि उद्जन के दो कण, अक्षजन का एक कण, तीन कण से मिलकर पानी बनता है। सब बात ठीक है। लेकिन प्यास न बुझेगी। एच टू ओ से कहीं प्यास बुझी है? राम—राम जपने से भी न बुझेगी। वह भी एच टू ओ है। "देखा ही परमान' आंख चाहिए!
तो ज्ञानी के पास न तो तर्क खोजने जाना, न प्रमाण खोजने जाना; आंख खोजने जाना।
"एक कहौं तो है नहीं'—अब कबीर अपनी दुविधा कहते हैं। तुम्हारी दुविधा है कि कैसे परमात्मा को जानें; ज्ञानी की दुविधा है कि कैसे परमात्मा को कहैं। जान तो लिया...।
"एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि'
कहते हैं कबीर, दो कहूं तो गाली हो जाएगी, और एक कहूं तो है नहीं।
दुविधा तुम समझ सकते हो; क्योंकि तुम कहोगे, सीधी—सी बात है: अगर दो कहना ठीक नहीं तो एक कहने से काम चल जाएगा। यहीं अड़चन है। क्योंकि एक की भी सार्थकता तभी है जब दो होता हो। एक का क्या मतलब होगा अगर दो हो ही न? कम—से—कम दो को परिकल्पित करना पड़ेगा, तभी तो एक में कोई अर्थ होगा। अगर तुमसे पूछा जाए कि दो, तीन, चार, पांच सारी संख्याएं खो गईं, सिर्फ एक संख्या बची—उसका क्या अर्थ होगा? क्या कहोगे तुम जब कहोगे एक? तुमसे कोई पूछ बैठेगा, मतलब? तो तुम्हें तत्क्षण दो को भीतर लाना पड़ेगा; तुम्हें कहना पड़ेगा, जो दो नहीं। लेकिन दो तो है ही नहीं। तो एक भी कहने में कितना सार है? इसलिए तो हिंदुओं ने बड़े श्रम के बाद "अद्वैत' शब्द खोजा। यह दुविधा के भीतर बड़ी चेष्टा करनी पड़ी। तो, न तो वे कहते हैं, ब्रह्म एक है; न वे कहते हैं, दो है। वे कहते हैं कि इतना समझ लो कि दो नहीं है। अद्वैत का अर्थ हुआ: दो नहीं। तो हम साधारणतः कहेंगे, भले मानस, एक ही क्यों नहीं कह देते? ऐसा सिर के पीछे से घुमाकर कान क्यों पकड़ते हो? सीधे क्यों नहीं पकड़ लेते हो? अड़चन है: एक कहने में डर है, क्योंकि एक में अर्थ ही तब होता है, जब दो की संख्या सार्थक हो। और उस पारब्रह्म के अनुभव में दो की कोई संभावना नहीं है तो जहां दो ही नहीं है, वहां एक की क्या सार्थकता?
"एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि'
और अगर दो कहूं, तब तो गाली हो गई। इसलिए तो कहते हैं, "कहिवे को सोभा नहीं।' क्योंकि दो से बड़ा झूठ क्या होगा? उस परमात्मा में दो है ही नहीं।
यह सारा अस्तित्व एक ही चेतना का सागर है। रूप अनेक, पर जो रूपायित है, वह एक। रंग बहुत, पर जो रंगा है, वह एक। नृत्य—गान बहुत, पर जो नाच रहा है, वह एक; जो गा रहा है वह एक। अनेकता परिधि पर है, और सुंदर है अपने—आप में। और जिस दिन तुम एक को पहचान लोगे उस दिन अनेकता में भी उसकी ही पायल की झनकार सुनाई पड़ेगी; उस दिन हर फूल—पत्ती उसी की खबर लाएगी; हर पक्षी उसी का गीत गाएगा। उस क्षण जो भी हो रहा है, जहां भी हो रहा है, सभी उसका है। अचानक जैसे एक परदा उठ जाता है प्राणों से, सब पारदर्शी हो जाता है, और हर चीज के भीतर से वही खड़ा दिखाई देने लगता है।
पर एक अड़चन है शब्दों में।
"एक कहौं तो है नहीं, दोय कहौं तो गारि
है जैसा तैसा रहे, कहै कबीर विचारि।।'
और कबीर कहते हैं, बहुत विचारा, बहुत सोचा, बहुत उपाय बनाए, बहुत तरह से कोशिश की—अब इतना ही कहना ठीक है कि "है जैसा तैसा रहे।' जैसा है बस वैसा ही है। उसकी किसी से कोई उपमा नहीं हो सकती, कोई तुलना नहीं हो सकती। उसकी तरफ कहीं से भी कोई संकेत नहीं किया जा सकता, कोई अनुमान काम न करेगा।
हम जीवन में उपमा से ही समझते हैं। कोई आदमी कहता है कि मैंने एक बड़ा सुंदर फूल देखा जंगल में, वैसा फूल यहां नहीं होता—तो तुम पूछते हो, कुछ उपमा, वह किसी फूल जैसा है: गुलाब जैसा, चमेली जैसा, चंपा जैसा? तुम यह पूछ रहे हो कि कुछ तो इशारा दो ताकि मैं अनुमान कर सकूं कि कैसा है। कमल जैसा? आखिर किसी तो फूल जैसा होगा? कुछ तो तालमेल किसी फूल से होता होगा? अगर एक से न हो तो तुम ऐसा कहो कि गंध गुलाब जैसी, रंग चंपा जैसा, रूप कमल जैसा—कुछ तो कहो, तो अंदाज तो लगे।
लेकिन परमात्मा के संबंध में कोई उपमा नहीं; क्योंकि वह अकेला ही है। उस जैसा बस वही है। इसलिए कहीं से भी तो कोई द्वार नहीं मिलता कि संकेत किया जा सके।
"है जैसा तैसा रहे, कहै कबीर विचारि'
बस, वह अपने जैसा है। पर यह भी कोई कहना हुआ? यह तो बात वहीं की वहीं रही। कह दिया कि बस अपने जैसा—इससे सुननेवाले को क्या समझ पड़ा? जिसको बताते थे, उसका कौन—सा बोध बढ़ा? कुछ बात न बनी।
पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक, आधुनिक विचारक, विट्गंसटीन ने एक वचन लिखा है। विट्गंसटीन की किताबें इस सदी की महत्त्वपूर्ण से महत्त्वपूणें किताबों में हैं। अगर दस महत्त्वपूर्ण किताबें इस सदी की चुनी जाए, तो विट्गंसटीन की किताब उन दस में एक होगी। विट्गंसटीन कहता है कि "दैट विच कैन नॉट बी सैड शुड नॉट बी सैड'—जो नहीं कहा जा सकता, कृपा करके उसको कहो ही मत। जो नहीं कहा जा सकता, वह नहीं कहा जा सकता—यह भी मत कहो। विट्गंसटीन यह कह रहा है कि इस तरह की बातें कहने रसे तुम कह भी नहीं पाते, दूसरा समझ भी नहीं पाता और बड़ी उलझन खड़ी होती है। तो क्या कबीर, दादू और नानक, और क्राइस्ट, और बुद्ध, और कृष्ण कहना बंद कर दें, विट्गंसटीन की सलाह मान लें? माना कि उनके कहने से बड़ी उलझन पैदा होती है; लेकिन उस उलझन का कष्ट उठाने योग्य है। क्योंकि अगर वे बिलकुल ही चुप रह जाएं, तो जो कहकर नहीं बताया जा सका, कह—कहकर भी जिसे तुम न समझ पाए, वह क्या बुद्धों के चुप रहने से तुम समझ जाओगे? चुप्पी तो तुम्हारे लिए बिलकुल ही अनजानी भाषा है। इससे तो तुम्हें भला भ्रांति होती हो, चुप्पी से तो भ्रांति तक भी न होगी। चुप बैठे बुद्ध को तो तुम पहचान ही न पाओगे। और अगर बुद्ध चुप रह जाएं, तो तुम्हारे इस लोक में, कौन लाएगा उसकी खबर जिसकी खबर नहीं दी जा सकती? तुम्हारे अंधेरे में कौन तुम्हारे हृदय को तीर मारेगा? तुम्हारे अंधेरे में कौन तुम्हें जगाएगा कि एक यात्रा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है? तुम्हारे अंधेरे में कौन तुम्हें चौंकाएगा कि यही जीवन नहीं है? कौन तुम्हारी पीड़ा, दुख और संताप में तुमसे कहेगा कि यही सब कुछ नहीं है; हम ऐसा लोक भी जानते हैं जहां कोई संताप नहीं है, कोई दुख नहीं है, कोई पीड़ा नहीं। कौन तुम्हें खबर देगा मुक्ति की—तुम्हारे कारागृह में?
सच है, विट्गंसटीन ठीक कहता है कि जो नहीं कहा जा सकता, वह न ही कहा जाए। लेकिन फिर भी उचित नहीं है। जो नहीं कहा जा सकता, न ही कभी कहा गया है, उसे कहना होगा, बार—बार कहना होगा। ना—समझी भी पैदा होती हो उससे, तो भी खतरा मोल लेना होगा, जोखिम उठानी पड़ेगी। क्योंकि हजार सुनें, नौ सौ निन्यानबे कुछ भी न समझ पाएं, पर किसी एक के हृदय में कोई तीर चुभ जाता है; अनकहे हुए की भी थोड़ी—सी झलक आ जाती है; एक नई आकांक्षा का जन्म हो जाता है। शुरू—शुरू में बड़ी धुंधली, कुछ भी साफ नहीं; जैसे सुबह का धुंधलका छाया हो—लेकिन धीरे—धीरे जैसे—जैसे पैर संभलते हैं, वैसे—वैसे धुंधलका हटने लगता है; जैसे—जैसे आंख संभलती है, देखते—देखते—देखते जहां कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा था, वहां उस अनंत की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगती है।
संत असंभव की कोशिश करते हैं, क्योंकि परमात्मा असंभव है। परमात्मा से ज्यादा सरल कुछ भी नहीं, उससे ज्यादा असंभव कुछ भी नहीं। वह चारों तरफ चौबीस घड़ी मौजूद है, और फिर भी तुम उसे छू नहीं पाते। सब तरफ से तुम्हें उसने घेरा हुआ है, फिर भी तुम्हें उसके स्पर्श का कोई पता नहीं चलता। तो माना कि संतों के वचन विज्ञान की कसौटी पर सही नहीं उतर सकते, उनके वचन बेबूझ रहेंगे, अतक्र्य रहेंगे। तर्क की कसौटी पर संतों के वचन कसे नहीं जा सकते, लेकिन इसमें कसूर संतों के वचन का नहीं है, तर्क की कसौटी का है।
एक बाउल फकीर हुआ, जिसकी कथा मुझे बड़ी प्रीतिकर रही है। कोई उससे पूछता है परमात्मा के संबंध में, तो बाउल फकीर इकतारा लिए रहते हैं। किसी ने पूछा है। जिसने पूछा है, वह पंडित है, बड़ा बुद्धिमान है, शास्त्रों का ज्ञाता है। लेकिन बाउल फकीर उसे कुछ जवाब नहीं देता, अपना इकतारा छेड़ देता है। वह थोड़ी देर तो सुनता है; फिर कहता है, "बंद करो। मैं कुछ पूछने आया हूं, इकतारा सुनने नहीं। बहुत इकतारे सुन लिए।' तो बाउल फकीर खड़ा हो जाता है। नाचना शुरू कर देता है। पंडित के लिए यह बिलकुल बेबूझ है। वह कहता है, "क्या तुम पागल हो?' बाउल फकीर का मतलब ही पागल फकीर होता है। बाउल फकीर का मतलब होता है: बावला। "क्या तुम बिलकुल पागल हो? मैं पूछता हूं परमात्मा की—मैं पूछता हूं पश्चिम की, तुम चलते हो पूरब। यह नाचने से क्या होगा?' तो उस फकीर ने एक गीत गाया, और उसने कहा कि तुम्हारी बातों से मुझे याद आती है: "एक बार ऐसा हुआ कि एक सुनार फूलों की बगिया में पहुंच गया। भूल से ही पहुंचा होगा, क्योंकि सुनार धातु के साथ जीता है। मुर्दा सौंदर्य में उसका रस है—सोना, चांदी, हीरे—जवाहरात! जिंदा सौंदर्य में उसका कोई रस नहीं, जहां फूल खिलते हैं; क्योंकि फूल सुबह खिलते हैं, सांझ मुरझा जाते हैं, सोना सदा सम्हालकर रखा जा सकता है। हीरा हजारों साल तक सम्हाला जा सकता है। मुर्दा सौंदर्य में उसका रस था। लेकिन एक बार भूल—चूक से बगिया में पहुंच गया। माली ने उसे अपने फूल दिखाए। जैसा कि मैं नाचा, जैसे कि मैंने इकतारा बजाया—मैंने तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। माली ने उसे फूलों के संबंध में समझाया, लेकिन उसने कहा कि नहीं, मैं कोई ऐसे माननेवाला नहीं हूं। मैं सुनार हूं, पारखी हूं। उसने अपने खीसे सोना कसने का पत्थर निकाला और फूलों को कस—कसकर देखने लगा। सोने के कसने के पत्थर पर फूल नहीं कसे जाते। और अगर फूल इसमें गलत साबित हुए, कसौटी में न कसे गए, तो फूलों का कसूर नहीं है, कसौटी का कसूर है। उसने फूलों को कसा, पटक दिया, और कहा कि इनमें कोई भी न तो सोना है, न कोई चांदी है।'
संत की वाणी अगर बेबूझ लगती है तो कसूर संत का नहीं है; तुम जिस मन से उसे कस रहे हो, उस मन का है। जीवन रहस्य है। संत क्या करे? उसकी वाणी में रहस्य प्रगट है। उसकी वाणी वैसी ही है जैसा जीवन का रहस्य है। उसकी वाणी में समाधान नहीं है; उसकी वाणी में समाधि का स्वर है। समाधान का अर्थ है कि तुमने तर्क को समझा—बुझाकर कोई हल खोज लिया। संत ने कोई समाधान नहीं खोजा है; संत ने समाधि खोज ली। उसने रहस्य के साथ जीने का ढंग खोज लिया। अब वह रहस्य को हल नहीं करना चाहता; वह रहस्य को जीता है। पहेली को हल नहीं करना चाहता, क्योंकि वह समझ गया है कि पहेली में ही सौंदर्य है; उसे हल करने में तो सब मर जाएगा। वह किसी पहेली को हल नहीं करना चाहता—न प्रेम की, न प्रार्थना की, न परमात्मा की। उसने तो एक तरकीब खोज ली कि अब वह नाचता है इस पहेली के साथ; इस रहस्य के साथ वह खुद भी रहस्य पूर्ण हो गया। उसने तारों जैसा सौंदर्य उपलब्ध कर दिया। उसने ओस—कणों जैसी, शबनम जैसी ताजगी उपलब्ध कर ली। उसने फूलों जैसी सुवास पा ली। वह पक्षियों जैसा उड़ने लगा है अनंत के आकाश में। उसने रहस्य में तैरना और तिरना सीख लिया। अब वह रहस्य को हल नहीं करना चाहता।
रहस्य को हल करने की जरूरत भी नहीं है। रहस्य को हल करने वाले मनुष्यता के शत्रु हैं। क्योंकि वे हर चीज को हल कर देते हैं। तुम जाओ एक मनस्विद के पास, पूछा कि प्रेम क्या है—वह हल कर देगा। वह बता देगा कि यह क्या है। "यह प्रकृति की चेष्टा है—संतति को पैदा करने की।' वैज्ञानिक के पास जाओ, शरीरविद् के पास जाओ तो वह कहेगा, "यह कुछ भी नहीं है, हारमोन्स हैं। शरीर में स्त्री—पुरुष के हारमोन्स हैं, उन्हीं का सब खेल है। तुम झंझट में मत पड़ना' तुम जाओ केमिस्ट के पास। वह बताएगा, वह कहेगा, "शरीर में ऐसे—ऐसे रस पैदा होने के कारण प्रेम की भ्रांति पैदा होती है। प्रेम वगैरह कुछ है नहीं।'
ये सभी लोग हल करने बैठे हैं। ये सब हल कर दिए हैं। उनके हल के कारण जीवन से सब रहस्य खो गया है। अब सोच लो, कि जब तुम अपनी प्रेयसी को गले लगाओ, तब तुम्हें पता है कि हारमोन कम रहे हैं, और तुम नाहक मेहनत कर रहे हो। हारमोन तुम्हें चला रहे हैं। एक इंजेक्शन हारमोन का और तुम्हारा सब यह प्रेम वगैरह बदल जाएगा।
विवाह करने जाओ और तुम्हें पता है कुछ है नहीं। ये बैंड—बाजे सब धोखा है। असल में जीवशास्त्र कहता है, प्रकृति अपने को पैदा करती रहनी चाहती है; वह तुम्हें उपकरण की तरह उपयोग कर रही है। तुम तो मर जाओगे, तुम्हारे बच्चों को; तुम्हारे बच्चे मर जाएंगे, उनके बच्चों को...। प्रकृति जीवन को बचाए रखना चाहती है, तुमसे उसका कोई प्रयोजन नहीं है। तुम तो एक वाहन हो जीवन के। बैंड—बाजे बेकार बजा रहे हो। जीवन तुम पर चढ़ा है। प्रकृति तुम्हारे सिर पर बैठी है; वह तुम्हें चला रही है।
अगर तुम प्रार्थना के लिए पूछने जाओ तो भी वैज्ञानिक के पास उत्तर हैं। अगर तुम ध्यान के लिए पूछने जाओ, तो अब वैज्ञानिकों ने यंत्र खोज लिए हैं ध्यान के भी। खोपड़ी में इलेक्ट्राड लगाकर वे जांचकर बता देते हैं कि ध्यान हो रहा है कि नहीं हो रहा है। क्योंकि वे कहते हैं कि यह सब तो विद्युत तरंगों का खेल है। अलफा तरंग अगर चल रही हो तो ध्यान है।
वैज्ञानिक हर चीज को हल करने लगा है। तुम थोड़ा सोचो, किसी दिन अगर वैज्ञानिक सफल हो गया, उसने सब हल कर लिया, फिर आत्मघात के अतिरिक्त और क्या बच रहेगा? लेकिन वह आत्मघात भी न करने देगा। वह कहेगा, इसको भी हम हल किए देते हैं कि इसका कारण क्या है।
धर्म की यात्रा रहस्य को हल करने की यात्रा नहीं है। रहस्य को जीने की यात्रा है। हल करे ना—समझ। जीवन का क्षण मिला है एक महोत्सव में, निमंत्रण मिला है, धर्म उसमें सम्मिलित हो जाना चाहता है। धर्म नाचना चाहता है चांद तारों के साथ।
कबीर कहते हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता उस परमात्मा के संबंध में, जो तुम्हारे प्रश्नों को हल कर दे। "है जैसा तैसा रहे।' रहस्य है और रहस्य ही रहेगा, और तुम व्यर्थ हल करने में समय मत गंवाओ; तुम डुबकी लगाओ, तुम डूबो इस रहस्य में, नहाओ, नाच लो। अस्तित्व का यह क्षण उत्सव बना लो। उस उत्सव से तुम परमात्मा से और रहस्य से एक हो जाओगे। वही एक हो जाना समाधि है।
समाधान विज्ञान की खोज है, समाधि धर्म की। दोनों शब्द एक ही धातु से, एक ही मूल शब्द से बने हैं, लेकिन बड़े दूर निकल गए हैं। विज्ञान कहता है, समाधान क्या है समस्या का; धर्म कहता है, समाधि। तुम समाधान खोजो ही मत। समाधान खोजा ही न जा सकेगा। रहस्य रहस्य ही रहेगा। तुम कितना ही जानते जाओ, और रहस्य के नए परदे उठते जाएंगे। और वही हुआ है। रोज रहस्य के नए परदे उठते गए हैं; रहस्य चुका नहीं है। विज्ञान ने बहुत जान लिया और कुछ भी नहीं हुआ।
अभी वैज्ञानिकों की एक बहुत बड़ी परिषद केनेडा में बैठी और उस परिषद ने जो प्रस्ताव पास किए, उनमें एक प्रस्ताव बड़ा अनूठा है, जो कि वैज्ञानिकों से कभी भी आशा नहीं है। वह पहला प्रस्ताव है परिषद का, और पहली दफा वैज्ञानिकों ने समझदारी की थोड़ी—सी झलक दी है। पहला प्रस्ताव यह है कि लोग सोचते हैं कि हम बहुत जानते हैं; लेकिन हम जानते हैं कि हम कुछ भी नहीं जानते। यह बड़ी समझदारी की बात है। विज्ञान अगर किसी दिन इतना समझदार हो गया तो विज्ञान समर्पण कर देगा धर्म की यात्रा में अपना भी।
"है जैसा तैसा रहै, कहै कबीर विचारि'
"ज्यों तिल माहीं तेल है, चकमक माहीं आग।'
जैसे चकमक में आग छिपी है और अगर तुम्हें चकमक न रगड़ना आता हो तो तुम बैठे रहोगे। चकमक सामने रखी रहेगी, और तुम्हारे घर में अंधेरा भरा रहेगा। और सामने रखी थी आग, लेकिन रगड़ने की कला तुम्हें न आती थी।
धर्म है समाधि, योग है रगड़ने की कला। योग है चकमक को रगड़कर आग को पैदा कर लेने की विधि। आग तो छिपी है। परमात्मा ही छिपा है सब तरफ, जैसे तेल में तिल छिपा है, जरा निचोड़ने की बात है; जैसे चकमक में आग छिपी है, जरा रगड़ने की बात है।
तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।
कबीर कहते हैं, कहीं और जाना नहीं है। तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग—बस करना इतना ही है कि तू जाग। साईं को नहीं खोजना है, जागना है। और भूल कर के कहीं साई को खोजने मत निकल जाना, बिना जागे; नहीं तो नींद में बहुत भटकोगे, पहुंचोगे कहीं नहीं। क्योंकि—तेरा साईं तुज्झ में। जाते कहां हो खोजने? जितनी दूर निकल जाओगे खोजने उतनी ही उलझन में पड़ जाओगे। परमात्मा को खोजना नहीं है, बस जागना है।
"तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।'
"कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहिं'
आती है गंध कस्तूरी की भीतर से। नाफा पक गया, कस्तूरी तैयार है। भागता है पागल होकर मृग, खोजता है, कहां से आती है यह गंध? उसकी नाभि में है कस्तूरी। पर मृग को कैसे पता चले? मनुष्य को भी पता नहीं चलता कि गंध नाभि में है।
तुम्हारे जीवन का स्रोत तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे आनंद का स्रोत भी तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र तुम्हारी नाभि है। अगर तुम अपनी नाभि में उतर जाओ, तो तुमने परमात्मा का द्वार पा लिया।
पश्चिम में लोग मजाक करते हैं। पूरब के योगियों को कहते हैं, वे लोग जो अपने नाभि में टकटकी लगाकर देखते रहते हैं। वहां क्या रखा है? वहीं सब कुछ रखा है।
तुम्हें शायद पता नहीं कि मां के गर्भ में तुम नाभि से ही मां से जुड़े थे। नाभि तुम्हारे जीवन का केंद्र है। वहीं से जीवन—ऊर्जा तुम्हारे जीवन में प्रवाहित हो रही थी। फिर तुम तैयार हो गए, मां की जीवन—ऊर्जा की जरूरत न रही, तो नाल काट दी गई। तुम मां के गर्भ से बाहर आ गए। लेकिन तुम्हारी नाभि से एक अदृश्य नाल अभी भी परमात्मा से जुड़ी है। एक रजतरेखा तुम्हें जोड़े हुए है अस्तित्व से। तुम नाभि से ही जुड़े हो। नाभि में ही तुम्हारी जड़ हैं। न केवल शरीर के अर्थों में तुम नाभि से जुड़े हो। आत्मा के अर्थों में भी तुम नाभि से ही जुड़े हो। जिन लोगों को कभी शरीर के बाहर जाने का अनुभव हुआ है—कई बार हो जाता है, कभी तो दुर्घटना में हो जाता है कि कोई आदमी ट्रेन से गिर पड़ा और उस झटके में उसकी आत्मा शरीर के बाहर निकल गई—तो जिन लोगों को भी ऐसा अनुभव हुआ है दुर्घटना में, या योग की साधना में, या जान—बूझकर जो प्रयोग कर रहे थे शरीर के बाहर जाने का, उन सभी को एक बात दिखाई पड़ी है, और वह यह कि उनकी आत्मा कितनी ही दूर चली जाए, एक रजत—रेखा नाभि से जुड़ी ही रहती है। अगर वह टूट जाए, फिर वापस शरीर में लौटने का उपाय नहीं रह जाता। वह कितनी ही ऊंचाई पर उड़ जाए, लेकिन वह रजत—रेखा बड़ी लोचपूर्ण है, वह खिंचती जाती है। वह कोई पदार्थ नहीं है; वह सिर्फ शुद्ध विद्युत—ऊर्जा है, इसलिए शुभ्र चांदी की भांति दिखाई पड़ता है।
तुम्हारी नाभि में तुम्हारे जीवन का सारा राज छिपा है। इसलिए कबीर ने कस्तूरी कुंडल बसै यह प्रतीक चुना है। और घटना वही घट रही है जो मृग के साथ घटती है। मृग बिलकुल पागल हो जाता है, टकरा लेता है सिर को जगह—जगह, लहूलुहान हो जाता है। और इतनी मादक गंध आती है, रुक भी नहीं सकता; खोजना चाहता है, कहां से गंध आती है। जितना भागता है उतना ही व्याकुल होता है। और जितना भागता है उतनी ही जगह उसकी गंध व्याप्त हो जाती है। उतना ही और भी दिग्भ्रम पैदा होने लगता है कि कहां से आ रही है, कि पूरब से कि पश्चिम से कि दक्षिण से। क्या करे यह मृग? इस मृग को कैसे समझाएं कि तू बैठ जा, आंख बंद कर ले, भीतर उत्तर—तेरे भीतर ही गंध का राज छिपा है।
तुम भी आनंद की तलाश में कहां—कहां नहीं घूम लिए हो। कितने जन्मों की लंबी यात्रा है। हिंदू कहते हैं, चौरासी करोड़ योनियों में तुम एक ही चीज को खोज रहे हो कि गंध कहां से आ रही है? आनंद कहां से मिलेगा? जीवन का राज कहां छिपा है? परमात्मा कहां है?
और कबीर कहते हैं, कस्तूरी कुंडल बसै। तेरा साईं तुज्झ में, जागिर सकै तो जाग।
ऐसे घट—घट राम हैं—जैसे कस्तूरी कुंडल के भीतर छिपी है—
ऐसे घट—घट राम हैं, दुनिया देखै नाहिं।
अछै पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तिरदेवा साखा भए, पात भया संसार।।
कबीर कहते हैं कि वह जो अक्षय पुरुष है, वही इस सारे अस्तित्व का फैलाव है। यह सारा वृक्ष उसी का है। प्रतीक है कि अक्षय पुरुष जैसे एक अक्षय वट है: सारा फैलाव एक वृक्ष की भांति है; डार—डार उसी अक्षय पुरुष की निरंजनता फैली है।
निरंजन का अर्थ होता है: परम वैराग्य। निरंजन का अर्थ होता है, जिसको कोई रंग, रंग नहीं पाता; जो सब रंगों में है, और अनरंगा रह जाता है। निरंजन का अर्थ होता है: कमलवत; है पानी में और पानी छू नहीं पाता। उस अक्षय पुरुष का यह फैलाव है अस्तित्व—वृक्ष की भांति वही निरंजन एक—एक डार में छिपा है।
पात भया संसार—और ये जो पत्ते हैं, यही संसार है। कबीर यह कह रहे हैं कि परमात्मा और संसार में फासला नहीं है; ये एक ही चीज के दो ढंग हैं। स्रष्टा और सृष्टि दो नहीं हैं। और पात—पात में भी वही फैला है। तुम उसके ही पात हो। तुम्हारे पत्ते कितने ही अलग दिखाई पड़ रहे हों, तुम में भी वही फैला है। तुम उसके ही पात हो। तुम्हारे पत्ते कितने ही अलग दिखाई पड़ रहे हों, तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि तुम अलग हो। अलग तो तुम उससे जुड़े हो। प्रतिपल श्वांस ले रहे हो: श्वास काट दी जाए, एक द्वार टूट गया, एक सेतु मिट गया—कैसे जिओगे? सूरज की किरणें चली आ रही हैं, तुम्हारे रोयेंरोयें को, जीवन को उत्ताप से भर रही हैं; सूरज ठंडा हो जाए, तुम कैसे जिओगे? ये तो स्थूल बातें हैं। ऐसे ही सूक्ष्म तल से सब तरफ से परमात्मा तुम्हें सम्हाले हुए है जैसे वृक्ष को अदृश्य जड़ें सम्हाले होती हैं। और वृक्ष पत्ते—पत्ते की फिक्र कर रहा है। तो घबड़ाओ मत कि तुम पत्ते हो और संसार में हो—संसार भी उसी का है। सृष्टि और स्रष्टा दो नहीं हैं; सृष्टि, स्रष्टा का ही फैलाव है।
अछै पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तिरदेवा साखा भए, पात भया संसार।।
इसे बहुत गहनता से समझ लो, क्योंकि विषाक्त करने वाले लोगों ने बड़ी भ्रांतियां फैला रखी हैं। वे कहते हैं, संसार पाप है। वे कहते हैं, संसार छोड़ने योग्य है, वे कहते हैं, भागो संसार से अगर परमात्मा को पाना है। परमात्मा संसार के कण—कण में छिपा है, और तथाकथित महात्मा समझाए जाते हैं कि भागो संसार से, अगर परमात्मा को पाना है। और अगर संसार में वही छिपा है तो तुम जहां भी भागोगे, तुम परमात्मा से ही भाग रहे हो। इसलिए मैं तुमसे कहता हूं, तुम जहां हो ठीक वहीं उससे मिलन होगा; इंच भर भी यहां—वहां जाने की जरूरत नहीं है। दुकान पर बैठे—बैठे मिलन होगा। दफ्तर में काम करते—करते मिलन होगा। बगीचे में गङ्ढा खोदते—खोदते मिलन होगा। घर को, गृहस्थी को संभालते—संभालते मिलन होगा, क्योंकि वही हर पत्ते में छिपा है। ऐसी कोई जगह नहीं है जहां वह न हो।
रवीन्द्रनाथ ने एक बड़ी मधुर कविता लिखी है। लिखा है कि बुद्ध ज्ञानी हुए और वापस लौटे। रवीन्द्रनाथ के मन में कहीं न कहीं बुद्ध का घर छोड़कर जाना, कभी जंचा नहीं। रवीन्द्रनाथ को कभी जंचा नहीं। किसी कवि को कभी जंच नहीं सकता। थोड़ा कठोर मालूम पड़ता है, थोड़ा काव्य—विरोधी मालूम पड़ता है, थोड़ा सौंदर्य का विनाशक मालूम पड़ता है। और कवि के लिए तो सौंदर्य ही सत्य है। यशोधरा को छोड़कर भाग गए बुद्ध की प्रतिमा रवीन्द्रनाथ को कभी भायी नहीं। तो उन्होंने बड़ी मीठी कविता लिखी है। वह कविता है: लौट आए बुद्ध घर, ज्ञान को उपलब्ध होकर, यशोधरा ने पूछा, एक ही बात मुझे पूछनी है और बारह वर्ष तक इसी बात को पूछने के लिए मैं प्रतीक्षा करती रही हूं। अब आप आ गए हैं, ज्ञान को उपलब्ध होकर, अब मैं समझती हूं कि समय आ गया है, मैं पूछ लूं। पूछना मुझे है कि जो तुमने मुझे छोड़कर वहां जंगल में पाया, क्या तुम उसे यहीं नहीं पा सकते थे?
रवीन्द्रनाथ ने बुद्ध को चुप छोड़ दिया है, उत्तर नहीं दिलवाया। पर रवीन्द्रनाथ का उत्तर साफ है, और चुप रह जाने में भी उत्तर साफ है। अब तो बुद्ध भी जानते हैं कि उसे, जो पाया है जंगल में, उसे यहीं पाया जा सकता था।
स्रष्टा छिपा है अपनी सृष्टि में। यह सृष्टि ऐसी नहीं है कि जैसे मूर्तिकार मूर्ति को बनाता है, क्योंकि मूर्तिकार मूर्ति को बनाकर मूर्ति से अलग हो जाता है; या कवि कविता बनाता है, कविता अलग हो जाती है, कवि अलग हो जाता है। कवि तो मर जाएगा, कविता बनी रहेगी। मूर्ति हजारों साल जी लेगी, मूर्तिकार तो चला जाएगा। दोनों अलग हो गए। नहीं, परमात्मा की सृष्टि कुछ और तरह की है। इसलिए हमने परमात्मा के प्रतीक की तरह नटराज को चुना है—नर्तक; मूर्तिकार नहीं, चित्रकार नहीं, कवि नहीं।
परमात्मा नर्तक है, क्योंकि नृत्य और नर्तक को अलग नहीं किया जा सकता। नर्तक चला गया, नृत्य भी गया। तुम नृत्य को नहीं बचा सकते अलग। तुम नर्तक और नृत्य को अलग कहां करोगे? उनके बीच में कोई फासला नहीं हो सकता। परमात्मा नर्तक की भांति अपनी सृष्सिट से जुड़ा है, मूर्तिकार की भांति नहीं। यह सृष्टि उसका ही होना है। यह तुम्हें खयाल में आ जाए तो तुम व्यर्थ भागने के विचारों से बच जाओगे और तुम जहां हो वहीं खोज शुरू कर दोगे। तुम जिस जगह खड़े हो, वहीं और वहीं हीरा गड़ा है, कहीं और खोजने मत जाओ।
मैंने एक बड़ी अदभुत कहानी सुनी है। एक यहूदी फकीर था। उसने रात सपना देखा। एक रात देखा, दूसरी रात देखा, तीसरी रात देखा—तब सपना सच मालूम होने लगा। सपना यह था कि जिस देश में वह रहता था उस देश की राजधानी में एक पुल के पास एक बहुमूल्य खजाना गड़ा है। जब तीन बार, बार—बार देखा और सब चीज बिलकुल साफ हो गई, नक्शा भी साफ हो गया; एक—एक चीज स्पष्ट हो गई तो मजबूरी में उसे यात्रा करनी पड़ी राजधानी की। वह राजधानी गया, लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ गया; क्योंकि जहां धन गड़ा है पुल के किनारे, वहां चौबीस घंटे पुलिस तैनात रहती है पुल की रक्षा के लिए। तो वह कैसे उसे खोदे? कब खोदे? वहां से कभी पुलिस हटती नहीं। जब दूसरे लोग पहरे पर आ जाते हैं, तब पहले लोग जाते हैं। चौबीस घंटे सतत वहां पहरा है। तो वह राह खोजने के लिए बार—बार पुल पर गुजरता है। एक पुलिसवाला उसे देखता रहा है। आखिर उसने कहा, सुन भाई, तू क्यों यहां बार—बार गुजरता है? आत्महत्या करनी है? पुल से कूदना है? क्या इरादा है? फकीर है, तो दिखता भी है ऐसा कि उदास है और जिंदगी से निराश है, शायद मौका देख रहा है कूद जाने का या कोई और कारण है—बात क्या है? संदेह पैदा होता है? उस फकीर ने कहा, जब तुमने पूछ लिया तो मैं बता ही दूं, क्योंकि रास्ता भी दिखाई नहीं पड़ता कुछ करने का; तुमसे ही कह दूं, शायद तुम्हारे काम पड़ जाए। मैंने एक सपना देखा, तीन बार देखा सतत देखा और इतना साफ हो गया सपना कि मुझे भरोसा आ गया कि होना चाहिए। मैंने सपरा देखा है कि तुम जहां खड़े हो वहां जमीन में बड़ा खजाना गड़ा है। वह सिपाही हंसने लगा। उसने कहा, हद हो गई। सपना तो हमको भी तीन रात से आ रहा है लेकिन यहां का नहीं आ रहा है। एक छोटे से गांव का उसने नाम लिया। फकीर चौंका, वह तो उसका गांव है। एक फकीर के घर में...और वह तो उसी फकीर का नाम है। और जहां वह फकीर बैठकर माला जपता रहता है, वहां खजाना गड़ा है। उसने कहा, तीन रात से हमको भी आ रहा है। मगर सपना सपना है। ऐसे हम तुम्हारे जैसे झंझटों में नहीं पड़ते कि कभी यात्रा करें, उस गांव जाएं। पागलपन में मत पड़ो
फकीर भागा घर की तरफ कि यह तो हद हो गई। जहां बैठा था, खोजा—खजाना वहां था।
कहानी पता नहीं, सच है या झूठ, पर जीवन में ऐसा ही है: तुम जहां हो, खजाना वहीं गड़ा है। सपना आएगा—हिमालय चले जाओ, खजाना वहां है। सपना आएगा—मक्का, मदीना, काशी गिरनार: कई तरह के सपने आएंगे—उनसे बचना। तुम जहां हो, वहीं खजाना है। क्योंकि अगर तुम हिमालय पहुंचे तो हिमालय में जो बैठा है, वह तुमको बताएगा कि हमको तो सपना आ रहा है कि पूना, कि खजाना वहां बंट रहा है।
परमात्मा सब जगह है, इसलिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। तुम जहां हो, जैसे हो, और परमात्मा की उपलब्धि बेशर्त है, अनकंडिशनल है। परमात्मा तुमसे यह भी नहीं कहता कि तुम ऐसा करो कि तब मैं तुम्हें उपलब्ध होऊंगा। क्योंकि जब उसने ही तुम्हें बनाया है तब इससे ज्यादा सुंदर और क्या अपेक्षा हो सकती है? इसे थोड़ा सोचो। अगर परमात्मा ने ही तुम्हें गढ़ा है, तो अब तुम इसमें और सुधार न कर पाओगे। मैंने किसी आदमी को सुधरते नहीं देखा। और मैं हजारों के साथ संलग्न हूं और वे सब सुधार के लिए मेरे पास आते हैं; लेकिन मैंने कभी किसी आदमी को सुधरते नहीं देखा। इससे मैं निराश नहीं हूं; इससे केवल एक सत्य की उदघोषणा होती है कि परमात्मा ने तुम्हें बनाया है अब तुम उसमें सुधार करने की कोशिश क्या करोगे? कोई सुधार नहीं सकता; परमात्मा से और ज्यादा सुधारने का उपाय भी नहीं हैं। जितना किया जा  सकता था, वह कर ही चुका है। उसकी कोई शर्त नहीं है कि तुम ऐसे हो जाओ कि ब्रह्मचर्य ग्रहण करो, कि उपवास करो, कि यह करो, कि वह करो, तब मैं तुम्हें उपलब्ध होऊंगा। वह तुम्हें उपलब्ध ही है—प्रसाद की भांति। प्रसाद में कोई शर्त थोड़े ही होती है। वह देने को राजी है। अड़चन इतनी है कि तुम लेने को राजी नहीं हो। कोई शर्त नहीं है, सिर्फ तुम लेने को राजी नहीं हो। तुम इतने अकड़ से भरे हो कि तुम लेने वाले बनना ही नहीं चाहते—बस, इतनी ही कठिनाई है। और वह एक गहरी मजाक है।
और परमात्मा मजाक कर सकता है, यह बात मुझे बड़ा सुख देती है। क्योंकि मैं किसी गुरु—गंभीर परमात्मा में भरोसा नहीं करता। परमात्मा गुरु—गंभीर होता तो संसार हो ही नहीं सकता। परमात्मा निश्चित ही हल्का और प्रसन्न, प्रफुल्ल, उत्सव—ऐसा कुछ है।
कहावत है अरब में कि जब भी वह किसी को बनाकर संसार में भेजता है तो उसके कान में यह कह देता है कि तुझसे बेहतर आदमी मैंने बनाया ही नहीं। मगर सभी से वह यही कह देता है। और हर आदमी इसी खयाल में भटकता है। यह एक गहरी मजाक है; और परमात्मा करता है, इससे दुनिया में रस है।
जिस दिन तुम जागोगे, और जिस दिन तुम्हारी यह भ्रांति छूट जाएगी। तुम समझ लोगे मजाक को—उसी दिन तुम विनम्र होकर झुक जाओगे। भेंट तैयार है; जन्मों से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है। तुम्हारा झुकना भर काफी है। तुम लेने भर के लिए राजी हो जाओ, देने वाला सदा से राजी है।
इस जिंदगी में उलटा हो रहा है, यहां मांगनेवाला तैयार है, दाता कोई भी नहीं। उस दुनिया में ठीक इससे उलटा है। वहां दाता तैयार है, लेनेवाला कोई नहीं। बस तुम अपनी झोली फैला दो। तुम अपने हृदय को खोल कर रख दो, और कह दो परमात्मा से जो तेरी मरजी। जैसे तू रखे, वैसा रहेंगे। जैसा तू चलाए, वैसा चलेंगे। जैसा तू बनाए, वैसा बनेंगे। इसे मैं संन्यास कहता हूं। यह संन्यास की बड़ी अनूठी व्याख्या हो गई; क्योंकि जिसको तुम संन्यासी कहते हो, वह कहता है कि पच्चीस गल्तियां हैं परमात्मा के बनाने में, इनको सुधारूंगा। उसने ऐसा क्यों किया? मैं संन्यास कहता हूं उस घड़ी को, जब तुम सर्वांग रूप से परमात्मा को स्वीकार कर लेते हो कि मैं राजी हूं तेरी रजा में। तेरी मर्जी अब मेरी मर्जी। अब तू जहां बहाए, वहां मैं बहूंगा। तू अंधेरे में ले जाए, तो तैयार हूं। तू संसार में भेज दे, तो मैं राजी हूं। तू मोक्ष में ले जाए, तो मैं राजी हूं। अब मेरी अपनी कोई आकांक्षा नहीं। इस घड़ी का नाम संन्यास है। इस चित्त—दशा का नाम संन्यास है। और ऐसे अगर तुम तैयार हो, इसी क्षण परमात्मा मिल सकता है। क्योंकि सब जगह वही छिपा है। पात—पात पर उसके हस्ताक्षर हैं। और कबीर कहते हैं, जब तुम ऐसी हालत में आ जाओगे तो क्या घटेगा?
गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गंभीर।
चहुं दिसि दमके दामिनी, भीजै दास कबीर।।
फिर सारा आकाश अमृत बरसाने लगता है। जब तुम राजी हो लेने को, तो दाता के अनंत हाथ हैं। इसलिए तो हम परमात्मा के बहुत हाथ बनाते हैं; क्योंकि दो हाथ से देना भी क्या देना होगा? और परमात्मा दो हाथ से दे, बड़ा कृपण मालूम पड़ेगा। इसलिए हम अनंत हाथ बनाते हैं। जब वह देता है तो अनंत हाथों से देता है।
गगन गरजि बरसै अमी—सारा गगन गरज रहा है, अमृत बरस रहा है। बादल गहन अमृत को लेकर घने हो गए हैं। चारों तरफ बिजली चमक रही है। चारों तरफ रोशनी ही रोशनी का सागर है। और भीजै दास कबीर  और दास कबीर इस अमृत में नाच रहा है। भीग रहा है; इस अमृत को भी पी रहा है; इस अमृत के साथ एक होता जा रहा है।
गगन सदा तैयार है गरजने को, बरसने को। बादल सदा से तुम्हारे सिर पर मंडराते रहे हैं; बिजलियां चमकने को बिलकुल तत्पर खड़ी हैं; मगर दास कबीर राजी नहीं है। बस दास कबीर राजी हो जाएं, दास हो जाएं—राजी हो गया।
तुम मालिक बने बैठे हो। अहंकार ने सिंहासन पकड़ रखा है—अकड़े हो। तुम्हारी अकड़ के कारण रोशनी तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर पाती है। अमृत भी बरसा है तो भी तुम्हें छू नहीं पाता। तुम्हारी अकड़ भयंकर है। जो भी अपनी अकड़ से भरे हैं, वे पहाड़ों की भांति हैं, गङ्ढों की भांति हैं, खाली हैं, शून्य हैं—अमृत से भर जाएंगे।
जरा भी देर नहीं है उसकी तरफ से; अगर देर है तो तुम्हारी तरफ से। और कब तक प्रतीक्षा करनी है? हो जाओ खड़े आकाश के नीचे। बन जाओ दास कबीर। नाचो अहोभाव से! जो उसने दिया है, उसके लिए धन्यवाद दो। और जैसे ही तुमने उसके लिए धन्यवाद दिया, जो उसने दिया है, कि हजारों हाथ से अमृत बरसना शुरू हो जाता है! फिर वह तुम्हें बहुत देता है। क्योंकि अनुगृहीत की ही उपलब्धि हैं। अनुगृह ही उसकी तरफ जाने का मार्ग है।
ये सब प्रतीक हैं। इन प्रतीकों के भीतर छिपा हुआ इशारा है, उस इशारे को याद रखना:
"कस्तूरी कुंडल बसै।'
आज इतना ही।


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