पत्र पाथय—06
निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
जबलपुर
(म. प्र.)
आर्चाय
रजनीश
दर्शन
विभाग
महाकोशल
महाविद्यालय
प्रिय मां
पद—स्पर्श! आपका
पत्र मिला।
स्नेह में
भीगकर शब्द कैसे
जीबित हो जाते
हैं—यह आपके
प्रेम से भरे
हृदय से निकले
शब्दों को
देखकर अनुभव
होता है। शब्द
अपने में तो
मृत है; प्रीति
उनमें प्राण
डाल देती है।
इस तरह प्रीति—सिक्त
होकर वे
अभिमंत्रित
हो जाते हैं।
काव्य का जन्म
ऐसी ही अनुभुति
से होता है।
मेरे लिए
आशीर्वाद—रूप
कुछ गीत—पंक्तियां
आपने लिखीं
हैं। इन
पंक्तियों ने
मुझे छू लिया
है। पढ़ा। समाधिस्थ
हो गया।..... देर
तक सब कुछ
मिटा रहा.
........
मैं भी नहीं
था। कुछ भी
नहीं था हूं.....पर
न होना ही
जीवन को
उपलब्ध करता
है हूं...होता
दुःख है। होता
सीमा है।
समग्र धर्म—समग्र
कला—समग्र
दर्शन इस
शून्यता को
पाने के लिए
ही हैं।
शून्यता
शून्य नहीं है
वही पूर्णता
है। न कुछ, सब
कुछ है। इसलिए
ही शास्त्र
कहते हैं कि
पाना है जीवन,
तो जीवन के
छोड़ना होता है।
मैं
आनंद में हूं
या ज्यादा ठीक
हो कि कहूं कि
मैं आनंद ही हूं।
श्री
फड़के गुरुजी
का पत्र भी
मिला। उन्हें
मेरे प्रणाम
कहें। प्रिय
शारदा बहिन
को: बहुत—बहुत
स्नेह।
रजनीश
के प्रणाम
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