अध्याय—(चव्वालीसवां)
आज
लक्ष्मी ने डल
झील में नौका—विहार
के लिए इंतजाम
किया है। ओशो, क्रांति,
शीलू और मैं
झील पर
पहुंचते हैं।
वहां पर
लक्ष्मी
हमारा इंतजार
कर रही है। एक
शिकार! लंबी—सी
मोटी रस्सी के
साथ एक
मोटरबोट से
बांधा गया है।
लक्ष्मी, शीलू
और मैं
मोटरबोट में
बैठ जाते हैं
और ओशो क्रांति
के साथ शिकारे
में बैठते हैं।
मोटरबोट
को एक मुस्लिम
युवक चला रहा
है,
जो अपने
मुसाफिरों को
देखकर काफी
खुश है।
शिकारे को
खींचती हुई, मोटरबोट
तेजी से चल
रही है।
थोड़ी
देर बाद
क्रांति की
आवाज सुनाई
देती है, जो
हमें रुकने को
बोल रही है।
मोटरबोट रुक
जाती है और वह
मुस्लिम लड़का
शिकारे की
रस्सी खींचने
लगता है। जैसे
ही शिकारा
हमारी
मोटरबोट के
नजदीक पहुंचता
है, हमें
आश्चर्य में
डालते हुए ओशो
मोटरबोट में कूदकर
आ जाते हैं।
शीलू
शिकारे में
जाकर क्रांति
के साथ बैठ
जाती है।
ओशो
ड्राइवर से
कहते हैं कि
बोट को वे
स्वय चलाना
चाहते हैं।
ड्राइवर सीट
खाली कर देता
है ओशो वहां
बैठ जाते हैं, और
वोट चल पड़ती
है। ओशो बोट
को इतनी तीव्र
गति से आड़ा—तिरछा
चलाते हैं कि
रस्सी की गांठ
खुल जाती है
और शिकारा
पीछे छूट जाता
है। मुझे
क्रांति की
जोर—जोर से
पुकारने की
आवाज सुनाई
देती है, 'भैया,
भैया ' —लेकिन
'भैया ' उसकी
एक नहीं सुनते।
मैं
अपनी सांस
थामकर बैठी
हुई हूं बोट
किसी भी क्षण
उलट सकती है।
पूरी झील में
उथल—पुथल मची
हुई है। मैं
लक्ष्मी की ओर
देखती हूं, और
वह मेरी ओर
देखकर
मुस्कुरा
देती है।
मैं
सोचती हूं कि
ओशो हमें खतरे
में होने का अनुभव
देने के लिए
और हमारे
मृत्यु के भय
को ऊपर लाने
के लिए, साभिप्राय
ऐसा कर रहे
हैं। मुझे
पक्का
विश्वास है कि
मैं किसी भी
क्षण डूबने
वाली हूं।
असहाय महसूस
करते हुए मैं
आँखें मूँद
लेती हूं।
अंतत
नाव की रफ्तार
धीमी पड़ गई है
और वह किनारे
पर पहुंचती है।
मैं एक गहरी
सांस लेती हूँ
और पाती हूं
कि मैं अभी भी
जीवित हूं।
ओशो अपनी
शरारत भरी
मुस्कुराहट
से हमारी ओर देखते
हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें