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रविवार, 14 फ़रवरी 2016

भावना के भोज पत्र--(07)

मां आनंद मयी से एक भेट वर्ता–............. 

मां अक्‍सर भगवान को कविता या गीत के रूप में ही पत्र लिखती रहती थी। भगवान शब्‍दों की गहराई में डूबे हुए अर्थों को ग्रहण कर अपने भक्त को अपने पूर्ण प्रेम से अवगत कराने मैं कभी नहीं कृपणता का बोध करने देते थे।

जबलपुर (म प्र.)

प्रिय मां,
पद स्‍पर्श आपका पत्र मिला। रनेह में भीगकर शब्द कैसे जीवित हो जाते हैं। यह आपके प्रेम से भरे ह्रदय से निकले शब्‍दों को देखकर अनुभव होता है। शब्द अपने में तो मृत है, प्रीति उनमें प्राण डाल देती है। इस तरह प्रीतिसक्ति होकर वे अभमिंत्रित हो जाते है। काव्‍य का जन्‍म ऐसी ही अनुभूति से होता है। मेरे लिए आशीर्वाद रख कुछ गीत पंक्तियां आपने लिखी है। इन पंक्‍तियों में मुझे छू लिया है। पढ़ा समाधिस्थ हो गया। .......देर तक सब कुछ मिटा रहा.....मैं भी नहीं था। .......पर न होना हीं जीवन को उपलब्‍ध करना है। होना दुःख है। होना सीम। समग्र धर्म....समग्र कला....समग्र दर्शन, इस शून्यता को पान के लिए ही है। शून्यता शून्य नहीं हे। वहीं पूर्ण हे। न कुछ, सब कुछ है।
रजनीश के प्रणाम


और फिर तीसरे पत्र पर पुन : नजरें अटक गई उसमें चांदा के प्रथम आगमन की सूचना दि गई उनके द्वारा................!
जबलपुर (म .प्र.)
प्रिय मां,
भाव—भीना पत्र मिला। हृदय की बात हृदय तक पहुच गई। हृदय तक केवल वही बात पहुंचती भी है जो कि हृदय की गहराई से आती है। मेरे स्नेह में जो गीत लिखा है वह बहुत प्रिय लगा........आपने ओंठों की पूरी मिठास आपने उसमें डाल दी है।
इस पत्र में, मैं अधिक कुछ लिखने को नहीं हूं। क्योंकि मैं खुद ही आ रहा हूं। दो दिन और भी जल्दी। पहले मैं 5 दिसम्बर को चांदा पहुंचने को था.....यहां से चलता 3 दिसम्बर की संध्या को ही पर 7 दिसम्बर को वर्धा कॉलेज में एक व्याख्यान के लिए रूकता। वह कार्यक्रम फिलहाल स्थगित कर दिया है। इसलिए मैं 3 दिसम्बर की संध्या ग्रेट—ट्रक एक्सप्रेस से चांदा पहुंच रहा हूं। यह गाड़ी वहां 7—23 संध्या पहुंचती है। मैं यहां सुबह बस से नागपुर के लिए निकलूंगा और वहां 4 बजे जी.टी पकड़ने की है।
प्रिय शारदा का पत्र भी मिला गीत भी। उत्तर में गीत तो मैं जानता नहीं, प्रति ही जानता हूं सो आकर दे दूंगा।
शेष शुभ! सबको मेरे विनम्र प्रणाम।
21 नव. 1960

इन पत्रों को पढ़ते ही मेरा पत्रकार अपना आपा छोड़ने को ही था कि मैं थोड़ा सजग हो गया। अत्यंत बारीक—बारीक मोती से अक्षरों से आंखें हट ही नहीं पा रही थी। मैंने उस भावधारा से अपने को थोड़ी देर के लिए बाहर खींचकर प्रश्न पूछ डाला...’‘पत्रों में अपने आगमन की सूचना भगवान नै आपको दी थी। जब आपके पास पहली बार वे आए तब आपको क्या अनुभूति हुई।’’
कुछ सोचते हुए मां कह पा रही थी। ऐसा लग रहा था किसी तंद्रा मैं वे बात कर पा रही हो। ’’हां.....हां! मैं स्टेशन नहीं गई थी उन्हें लेने। मैंने पारख साहब से कह दिया था कि मैं नहीं आऊंगी स्टेशन। तब वे गए थे मैं घर पर ही रह गई थी। जाने क्या सोचकर।’’
मुझे याद आया....' भक्त नहीं जाते कहीं, आते हैं भगवान' निश्चय ही मा के हृदय में भगवान के लिए भी वही भाव दृढ़ता से गहराई में कहीं अदृश्य सिर उठा—उठा कर अपनी भावना की आरती संजोए रखने के लिए उन्हें उत्तेजित कर रहा हो।
‘‘मैं घर पर ही बैठी पूजा की थाली में एक बिना जला दीपक संजोए उनकी प्रतीक्षा करती रही। हमारे सब प्रतीक ही रहे थे सब कुछ। संकेत मात्र ही अधिक होते थे। सांकेतिक भाषा ही हमारा माध्यम रही। वह दीपक भी सांकेतिक था। रजनीश के आगमन पर स्वागत का मेरा 'अपना तरीका था।
जिस दिन रजनीश आने वाले थे पहली बार। मैन सुंदर सा राजस्थानी जरी का घाघरा ओढ़ना पहन रखा था। गहने भी मैंने थोड़े बहुत पहन रखे थे। थाल में एक सात बाती वाला एक दीपक रख दिया था और पास ही रख दी थी एक माचिस। जब स्टेशन से पारखजी के साथ वे आए मैंने उनसे वाणी में कुछ नहीं कहा, और चुपचाप सात बाती सजा दीपक उनके सामने कर दिया और रजनीश ने द्वार पर ही खड़े होकर माचिस जलाकर दीपक की सारी बाती जला कर दीप प्रज्वलित कर दिया।’’
मेरे मस्तिष्क में परम्परा से चली आ रही रीति के अनुसार से पुत्र की अगुआनी की कल्‍पना थी। मा आरती उतारकर भाल पर कुंकुम का तिलक लगा कर अपने पुत्र का स्वागत करेगी यही धारणा थी। किन्तु यहां तो सब कुछ सांकेतिक था। रहस्यमयता के आवरण में बंधी इन बातों ने मुझे यह प्रतीति सा करा दी मानों दीपक 'की सारी बाती जलाकर भगवान? रजनीश ने मां के सातों चक्रों को जागृत कर ज्ञान के प्रकाश से उनके जीवन को आलोकित कर दिया हो।
'दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट
पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवो हट्ट’‘
गुरू अचानक कभी मिल जाय, तो वह हमारे जीवन को ऐसे गहरे आलोक से भर देता है कि हमें पुन: —पुन: अधियारों के बाजारों में भटकने के लिए नहीं आना पड़ता।
‘‘यह बुझा हुआ मेरे मन का दीपक था जो उन्होंने जला दिया। मेरे पत्रों में भी सांकेतिक भाषा ही अधिक होती थी विकल कभी कुछ गीत और कविता में लिखकर भेज दिया, तो कभी चित्रों में कुछ अप्रकट सा प्रकट करने की कोशिश कर दी। और तो और, कई वार तो मात्र कोरे कागज ही भेज देती थी। यदि कुछ समाचार व्यावहारिक जीवन के देने होते तव ही मुझे उन्हें कुछ लिखना होता था वरना सब कुछ संकेतों, चित्रों और कोरे कागज में ही सब कुछ होता था।’’
इस पर मैंने पूछा—''और भगवान रजनीश के सारे पत्र तो शब्दों में ही हुआ करते थे ना?’’ ‘‘हां शब्द माध्यम अवश्य होते थे लेकिन वे भी अर्थ तो सांकेतिक ही देते थे। क्योंकि वे कहा करते थे कि मैं कविता करना तो जानता नहीं।मुझे भगवान की कही इस बात पर जोर की हंसी आ गई। इस पर मां ने आश्चर्य से मुझे देखा तो मैंने कहा— ‘‘मां’'! बड़ा नटखट नागर है, तुम्हारा पुत्र! पत्र की भाषा शैली पढ़ो तो ऐसा लगता है मानों कविता का आनंद ले रहे हो। उसमें से एक 'अनहद' नाद सुनाई पड़ता रहता है। बोलते हैं तो कविता के रस के झरनों की पिचकारियों से नहलाते रहते हैं। अब भला कोई यदि यह कहे कि उसे करना नहीं आता तो ये कितनी मिथ्या बात होगी? बोलो होगी ना?''
मां मेरी बात के मर्म को समझ गई थी वे भी मुस्करा दी और मेरे सामने 'ग्वाल बाल सब बैर परे हैं बरबस मुख लिपटायो' वाला सूर का प्रसिद्ध पद स्मरण हो आया। इस कविता नहीं जानने के पीछे शायद ऐसा ही कुछ भाव रहा होगा।
‘’मेरे पत्रों के चित्रों में कभी सिर्फ दो हाथों से माली पौधों को पानी सींच रहा होता था कभी धरती में बीज पड़े हैं और फिर अंकुरित हो रहे हैं इस तरह सारी चीजों में एक प्रतीकात्‍मकता होती थी। कविताएं भी प्रतीकात्मक होती थी।
इस संदर्भ, में भगवान द्वारा लिखे एक पत्र में इन्हीं चित्रों की गहराई का वर्णन चित्रित है...

प्‍यारी मां,                                              18-7-1961
प्रणाम!
 रखा चित्र मिला। शब्‍दों से जो न कहा पाती, वह रेखाओं से कह दिया है। शब्‍द चूक भी जाएं, चित्र के अर्थ की गहराई तो चुकती नहीं है। वह प्रकृति की भाषा है। प्रभु तो निरंतर चित्रों में ही बोलता है। ये सुबह, शाम, सूरज, चांद, तारे सब आखिर क्या हैं? उसकी मौन वाणी इनसे ही प्रगट होती है।
रेखाओं में देखते—देखते तुम्हारे हाथों को देख लिया है और फिर तो तुम पूरी ही प्रगट हो आई हो। कोरा कागज नहीं भेजा जा सका न…इससे खुद ही उसमें आना पड़ा है।
सुबह घर की बगिया में था तब तुम्हारा स्मरण आया था। बाग अब बहुत सुंदर हो उठा है, उसके फूल तुम्हारी बाट देखते हैं सब सौंदर्य प्रतीक्षा करता है, कोई देखे। फूल तो मुझे हमेशा प्रतीक्षातुर मालूम होते हैं।, कल माली भी पूछ रहा था, उसका चित्र लिया था इससे उसे स्मरण है। मैं आनंद में हूं।
सबको मेरा विनम्र प्रणाम!
रजनीश के प्रणाम

मैंने फिर चांदा के प्रथम आगमन की स्मृतियों को एकत्र करने के उद्देश्‍य से 3 दिसम्बर की घड़ी में मां को पुन: लौटाना चाहा।
‘‘हां मा 3 दिसम्बर 1960 की संध्या द्वार पर आकर आपका बिन जला दीपक जलाकर सातों बाती उन्होंने प्रज्वलित कर दी थी......?'‘ ‘'हां, 3 दिसम्बर को उस दिन पूर्णिमा की तिथि थी और अकेले ही आए थे वे।’’
पूर्णिमा की तिथि का संयोग बड़ा ही अर्थ पूर्ण लगा मुझे। रजनी का ईश (चंद्रमा) अपनी संपूर्ण कलाओं से पूनम को ही पूर्ण दर्शनीय होता है। कुछ देर सन्नाटा सा खिंच गया था उस कमरे मैं। फिर बातों का सिलसिला आगे किया मैंने.।
‘‘कितने दिनों तक चांदा रहे आपके पास और क्या दिनचर्या रहती थी तब आपके सानिध्य में?''
‘‘पहले तो संध्या के समय पूर्णिमा का चांद बनकर आए थे। देहरी पर दीप जला कर घर में प्रवेश किया था उन्होंने। फिर दूसरे 'आनंद' नाम के कमरे में विश्राम के लिए उनका बिस्तर लगवा दिया था।’’
‘‘यह 'आनंद’‘ नाम कमरे का पहले से ही है?''
‘‘हां, हमारे इस कमरे का नाम 'आनंद' तो पहले से ही है।’’ ‘'इसलिए आप ' आनंदमयी' है मां!'' इस बात पर हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े।
‘‘पास ही का यह कमरा 'सारंग' नाम से जाना जाता रहा है और उस तरफ जहां मेरी बच्‍चियों  की 'डिलेवरी' होती थी उसका नाम है 'नवदीप'। अभी उस सामने वाले एक हाल का गल 'साधक' रखी हूं। और रजनीश की शैया उस समय मैंने 'रत्‍नागर' में लगवाई थी।''
इरा तरह मां अपने प्रत्येक कमरों के नामों से मुझे परिचित कराने लगी। इतने साहित्‍यिक नामों के बोरे में मेरी जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक था।
‘‘आपके ही द्वारा इन सारे कमरों के नाम रखे गए थे क्या?'‘ ‘'हां, साहित्य में काफी रूची रही है मेरी इसलिए इस तरह के नामकरण मैंने कर डाले थे।'‘ ‘'हां..... जैसे अचानक उन्‍हें अत्‍यंत महत्वपूण स्मृति हो आई हो.....कहने लगी......
‘'चि. रजनीश रात्रि में विश्राम के लिए 'रत्नागर' में सोये हुए थे। रात्रि के लगभग साढ़े बजे होंगे मैं उनके कमरे में आकर उनके सिरहाने खड़ी हो गई और उनके सिर पर हाथ से हल्‍क’ से स्पर्श कर दिया।''
रजनीश ने आंखें मूंद ही कहा—''कितनी देर कर दी मां.....''
''मेरा रोम—रोम मानों वीणा के लाखों तारों से रूपांतरित हो गए। वात्सल्य की अपूर्व सरिता मे माना डूब सी गई। वे जैसे प्रतीक्षा ही कर रहे थे। अपने सिर पर रखे हुए हाथों पर उन्‍होंने अपने दोनों हाथ रख दिए। वे सोकर जगे ही थे उन क्षणों में। वे इतने अलौकिक आनंद के क्षण थे हमारी क्या—क्या बातें हुईं, कुछ भी स्मरण नहीं हो रहा है अब।
और मुझे भगवान के सुने हुए शब्द याद हो आए.....''
'’स्‍त्री अपने परम सौंदर्य को उपलब्ध होती है मां बन कर। विरह की बड़ी पीड़ा है।’’ उसी विरह पीड़ा से गुजरकर, निखरकर आग से छनकर व्यक्ति कुंदन बनता है। स्वर्ण बनता है। फिर मिलन का महासुख है।''
मां चैहरे पर आई आनंद की आभा अनूठी थी। जिस शांति, प्रेम और लगन से भगवान रजनीश की बातें कर रही थी। उस समय मुझे मां दुबारा 'किसी' और रजनीश को आंखों से स्‍पर्श कर दुलार रही थी।
''परन्‍तु हां! कुछ ख्याल सा आता है.....मैंने उनसे कहा था......
'’मैं आपको कब से ढूढ रही थी।'' इस पर उन्होंने कहा—''आप अकेली ही ऐसा क्यों समझती है कि सिर्फ आप ही मुझे ढूंढ रही थीं, मैं भी तो आपको ढूंढ रहा था।''
मैंने सोचा—प्रेम एक आंतरिक पहचान है, बिना जाने, बिना पूर्व परिचय के और ह्रदय पहचान लेता है।  रहस्यपूर्ण होती है ये बात। अतर्क्य भी है, गणित और तर्कों से समझी नहीं जा सकती। बेबूझ होना अस्तित्व का स्वभाव है।
मैंने कहा--मां! आप अकेले ही नहीं ढूंढ रही थी उनको, वे भी आपको ढूंढ रहे थे?''
‘’उन्‍होंने ऐसा कहा विकल! मैं नहीं जानती, क्यों कहा? अब मुझे खुश करने के लिए कहा, कि दरअसल में कहा उन्होंने मैं क्या जानू?'' अत्यंत गद्गद् भाव से मां ने ये शब्द कहे। मानों भीतर ही भीतर उस 'परम—स्वाद' को चख रही हों वे।
‘‘हां! अब और स्पष्ट ध्यान हो रहा है मुझे, साथ में उन्होंने ये भी कहा—‘‘विवेकानंद अकेले ही रामकृष्ण को नहीं ढूंढ रहे थे। रामकृष्ण भी विवेकानंद को ढूंढ रहे थे। अगर विवेकानंद नहीं मिलते तो शायद रामकृष्ण अधूरे ही रह जाते। महावीर को गौतम नहीं मिलते तो वे बात नहीं निकल पाती, वे प्रश्न—प्रश्न ही होकर रह जाते। कोई उत्तर नहीं निकल पाते। प्रश्न पूछने वाला ही उतना ही कीमती है। जितना कि उत्तर देने वाला कीमती है।’’
‘‘जो साधक होता है वह केवल साधना करता है और साधना के पश्चात् वह मोक्ष प्राप्त करता है। किन्तु उसके अन्तर से साधना की बारीकियां और उसके अनुभवों को निकालने का जो कार्य है उसके सहयोगी सच्चे शिष्य ही करते रहते हैं।’’
एक और बड़ी अच्छी बात भी कही थी उन्होंने— ''आप ये मत सोचना कि प्रतीक्षा केवल आपको ही थी मेरे यहां आने की। मैं भी तो प्रतीक्षा कर रहा था कि आप बुलायें और मैं यहां आ जाऊं। आपने तीन दिन बाद बुलाया था मैं तीन दिन पहले ही आ गया मां।’’
जैसे एक बिछुड़ हुए पुत्र का मा से मिलन होता है, वैसा ही पुनर्मिलन था वह। सारे राम—सोम से वात्सल्य की पिचकारियां मुझे नहला रही थी। मैं भीग उठी थी उन गुलाबी रंगों में। मेरी गोद में सिर रख वे सो गए थे तब कहने लगे— ‘‘ये गोद मैं कब से ढूढ़ रहा था।’’
मां, हवा से भी हल्की और पानी से भी पारदर्शी दिख रही थी उन क्षणों में। उनके हृदय में उठते—गिरते भावनाओं के इन्द्रधनुषों के रंगों में मैं भी नहा रहा था। भगवान ने मा के पारदर्शी व्यक्तित्व की झांकी बड़ी सुंदर खींची हैं।

18 जनवरी 1961
प्रिय मां,
वर्धा में सद्य:स्नाता आप द्वार पर आ खड़ी हुई हैं। वह चित्र भूलता ही नहीं। बहुत सजीव होकर मन में बैठ गया है। बार—बार लौट आता है। तीन दिन साथ था। पर इस चित्र का जोड़ नहीं है। बहुत सरल बहुत पवित्र, बहुत पारदर्शी। उसमें आप मुझे पूरी—पूरी दिख आई थीं।
आज फिर वैसे ही द्वार पर खड़ी हुई हैं। मधुर मुस्कुराहट फैलती जाती है और मुझे घेर लेती है।
फिर सोचता हूं।…. .पत्र न सही, आप तो हैं।
मैं प्रसन्न हूं शांत और स्वस्‍थ। प्रभु की अनंत अनुकम्पा है और मेरी कृतज्ञता का भी पार नहीं है। कृतज्ञता का यह बोध ही जीवन के कांटों भरे रास्तों को फूलों से भर देता है। मेरा रास्ता फूलों और गीतों से भर गया है।
आशीर्वाद की प्रतीक्षा में
आपका ही रजनीश
(धारा प्रवाह...अगले अध्‍याय में।)

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