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रविवार, 28 फ़रवरी 2016

भावना के भोज पत्र-(पत्र पाथय--4)

पत्र पाथय04  

निवास:
115, योगेश भवन, नेपियर टाउन
                                                जबलपुर (म. प्र.)
आर्चाय रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय
प्रिय मां
पद—स्पर्श। आपका आशीष—पत्र। बहुत खुशी हुई।
मेरा चित्र मांगा है। चांदा जब आऊं तब उसे लेने की व्यवस्था कर लें। वैसे वह चित्र तो आपके हृदय में है। कागज पर तो मृत—चित्र ही होते हैं हृदय में जीवित.....छवि बन जाती है। उससे बोला जा सकता है—उसे छुआ जा सकता है—उससे प्रत्युत्तर पाये जा सकते हैं। आंखें बद करें और देखें। क्या मैं भीतर नहीं हूं?

एक बात और—मृत चित्र में मैं वहां मिल सकूंगा? शरीर मैं नहीं हूं। कोई भी शरीर नहीं है। हमारी सत्ता शरीर में है पर शरीर पर ही समाप्त नहीं है। शरीर से पृथक और पार मेरी सत्ता है—ऐसा बोध मन में जगायें। उस बोध के बिना दुःख—निरोध नहीं होता है।
शरीर और आत्मा का मिथ्या—तादात्‍म्य छोड़ देना जीवन की सार्थकता और आनंद को पा लेना है। शरीर के साथ अपने को एक जानने से दूसरों से हम पृथक् दीखने लगते हैं। यह असत्य विचार गया कि जैसे बूंद को सागर मिल जाता है; वैसे ही आत्मा को परमात्मा मिल जाता है। तब प्रतीत होता है कि मैं सबके साथ एक हूं। फूलों के आनंद और तारों के मौन में, घास के तिनकों और पर्वत के शिखरों में—सबमें मैं ही हूं। मैं ही जीवन हूं। मैं आपसे अलग नहीं हूं। अलग कोई है नहीं—हो ही नहीं सकता है। कोई पर नहीं। हैं जो आप की हृदय की धडकन में बैठा है वही मेरी बांस की बांसुरी से भी अपने गीत गा रहा है। हम सब एक ही जीवन—संगीत के सम्मिलित स्वर हैं।
मैं दिसम्बर की छुट्टियों में आने की सोचता हूं। छुट्टियां 25 दिन के करीब होंगी। पर आपका बुलावा निरन्तर अनुभव हो रहा है। उठते—बैठते आप मुझे बुला रही हैं। जो आपके भीतर हो रहा है वह सब मुझे ठीक से सुनाई पड़ रहा है। इसलिए यदि दिसम्बर के पूर्व ही छुट्टियां पा सका तो आने का प्रयास करूंगा। शेष शुभ। सबको मेरे प्रणाम। बहिनों को मेरा बहुत—बहुत स्नेह।

रजनीश के प्रणाम

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