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शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

दस हजार बुद्धो की एक सौ गथाएं--(अध्‍याय--52)

अध्‍याय—(बावनवां)

ज पहलगाम में हमारा आखिरी दिन है। ओशो के साथ, कभी तो ऐसा लगता है कि समय पूरी तरह रुक गया है और कभी ऐसा लगता है कि बहुत तेज भाग रहा है। मैं पैकिंग करने में व्यस्त हूं कि मुझे दरवाजे पर खड़े मुस्लिम चौकीदार की आवाज सुनाई पड़ती है। मैं उसे हमारा सामान कार में चढ़वाने के लिए एक घंटे बाद आने को कहती हूं। मैं उसे उसकी सेवाओं के एवज में बीस रुपये देती हूं, जो वह धन्यवादपूर्वक लेकर चला जाता है।

चलने को तैयार, हम ओशो के साथ बरामदे में बैठे हुए हैं। चौकीदार आकर ओशो को सलाम करता है। ओशो उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हैं। वह ओशो से पूछता है कि क्या वह बंबई आकर उनकी सेवा कर सकता हे। मैं उसकी आंखों में आंसू देख रही हूँ। ओशो के प्रेम ने उसे गहरे तक छू लिया है। ओशो उसके सर पर हाथ रखकर उसे आशीवाद देते हैं, और मुझसे पूछते हैं कि मैंने उसे कुछ पैसे दिए या नहीं। मैं ओशो को बताती हूं कि मैंने उसे बीस रुपये दिए हैं। ओशो कहते हैं, उँसे बीस और दे दो।इन दिनों बीस रुपया काफी अच्छी रकम है। लोग अपने नौकरों को पांच रुपया बख्‍शीशि भी मुश्किल से ही देते हैं। ओशो के पास तो सम्राट का हृदय है जो सदा ज्यादा से ज्यादा बांटना चाहता है। मैं चौकीदार को बीस रुपये और दे देती हूं। बीस रुपये लेते समय वह मेरा हाथ पकड़ लेता है और विह्वल होकर रोने लगता है। उसके आंसू मेरे हृदय को छू लेते हैं और मेरी आंखों से भी आंसू बह निकलते हैं। धन्यवाद मेरे प्यारे सदगुरु, आपने मुझे यह अवसर दिया कि मैं अपना हृदय एक अजनबी के प्रति खोल सकी।



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