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सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

सुन भई साधो--(प्रवचन--17)

मन रे जागत रहिये भाई—(प्रवचन—सतरहवां)

दिनांक: 17 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र:
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे।
मैं कहता हौं आंखन देखी, तू कागद की लेखी रे।।

मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो अरुझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।।

मैं कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।
जुगनजुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।।


तू तो रंडी फिरै बिहंडी, सब धन डारया खोई रे।
सतगुरु धारा निरमल बाहै, वामें काया धोई रे।।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।।

ज्ञान की यात्रा में श्रद्धा के चरण चाहिए। अश्रद्धा तो जंजीरों की तरह है: बांध लेती है, रोक लेती है। श्रद्धा पंख की भांति है: मुक्त करती है खुले आकाश में।
लेकिन श्रद्धा बड़ी कठिन घटना है। अश्रद्धा मन के लिए बड़ी सुगम और सरल है; क्योंकि अश्रद्धा भय है, श्रद्धा अभय है।
अश्रद्धा का अर्थ है कि जो मुझे ज्ञात है, बस उतना ही सत्य है, कहीं और जाने की जरूरत नहीं; जो मैंने जान लिया वह काफी है, कुछ और जानने की न तो जरूरत है, न कुछ और जानने को है। इसलिए अश्रद्धा ज्ञात से चिपकने का नाम है, ज्ञात को जकड़ लेने का नाम है।
श्रद्धा अज्ञात में यात्रा है: जो मैं जानता हूं, वह बहुत ना कुछ है। जैसे विराट सागर के किनारे और मैंने चुल्लूभर पानी अपने हाथ में ले लिया हो ऐसा है मेरा जानना; और जो शेष है जानने को वह विराट सागर है।
जो मैंने जान लिया है, श्रद्धावान उसे सीढ़ी बनाता है—उसमें उठ जाने की, जो नहीं जाना है। अश्रद्धावान, जो जान लिया है उसे कारागृह बना लेता है, दीवाल बना लेता है—अवरोध के लिए, ताकि वह जो खुला आकाश है अज्ञात का, उससे सुरक्षा हो सके।
साधारणतः अश्रद्धालु समझते हैं कि वे बहुत शक्तिशाली, साहसी हैं। बात बिलकुल उलटी है। अश्रद्धा कायरता का निचोड़ है; श्रद्धा साहस का नवनीत। क्योंकि श्रद्धा का अर्थ है कि मैं अज्ञात में, अनजान में, बे—पहचाने में, कदम उठाने को राजी हूं। बड़ा साहस चाहिए। और शिष्य होने का कोई और अर्थ नहीं होता है। श्रद्धा में गति बढ़े, श्रद्धा में रस बढ़े, तो ही शिष्यत्व का फूल खिलता है; अन्यथा गुरु और शिष्य के बीच सेतु क्या होगा?
गुरु ऐसे है जैसे आंखें मिल गईं, और शिष्य ऐसे है जैसे अंधा। अंधे और आंखवाले के बीच विवाद क्या हो सकता है? क्योंकि जिसके पास आंखें हैं, उसे प्रकाश के किसी और प्रमाण की कोई जरूरत नहीं। प्रमाण है भी नहीं कोई और। क्या प्रमाण है प्रकाश का, सिवाय तुम्हारी आंखों के? जिसके पास आंखें हैं, उसके लिए प्रकाश स्वयंसिद्ध है। और जिसके पास आंखें नहीं हैं, उसके लिए प्रकाश का अनुमान भी असंभव है। जानना तो दूर, अनुमान करना भी कि प्रकाश जैसी कोई चीज हो सकती है, अंधे के लिए असंभव है। प्रकाश भी दूर, अंधे को अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ता। तुम शायद सोचते हो कि अंधा तो अंधेरे में जीता हैं। तो तुम गलती में हो। अंधेरे को देखने के लिए भी आंख चाहिए। प्रकाश को देखने के लिए तो आंख चाहिए ही; अंधेरा भी आंख का ही अनुभव है। बिना आंख के अंधेरे का भी कोई पता नहीं चल सकता। अंधे को अंधेरे का भी पता नहीं है। और प्रकाश के प्रमाण मांगेगा, प्रकाश के लिए तर्क करेगा, तो सदा अपने अंधेपन से बंधा रह जाएगा।
और, प्रकाश को जिसने जान लिया, वह प्रकाश का वर्णन भी नहीं कर सकता, प्रमाण देना तो बहुत दूर है। वह यह भी नहीं कह सकता कि प्रकाश कैसा है। उसका तो स्वाद ही लिया जाता है। स्वाद से ही उसकी प्रतीति होती है।
आंखवाले के लिए परमात्मा के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं हैं। और जिसके पास आंख नहीं है, उसके लिए परमात्मा को छोड़कर सभी चीजें सत्य हैं; परमात्मा एकमात्र असत्य है।
तो शिष्य और गुरु के बीच सेतु क्या होगा? कैसे शिष्य और गुरु मिलेंगे? कैसे उनके बीच एक ही दिशा में यात्रा का प्रारंभ होगा। वे कैसे प्रस्थान करेंगे? क्या होगा जोड़?
अगर शिष्य की तरफ विवाद की आकांक्षा हो तो जोड़ नहीं हो सकता। तब वे विपरीत दिशाओं में यात्रा करेंगे। शिष्य की तरफ अगर तर्क का आग्रह हो तो यात्रा असंभव है। क्योंकि वस्तुओं का स्वभाव ऐसा है कि उन्हें जाना जा सकता है, लेकिन जानने के पहले उनके लिए कोई तर्क नहीं दिया जा सकता।
कुछ वर्ष पहले पहलगांव (कश्मीर) में एक घटना घटी, जो मुझे भूले नहीं भूलती। एक वृक्ष के नीचे बैठा था। ऊंचाई पर वृक्ष में छोटा—सा एक घोंसला था, और जो घटना उस घोंसले में घट रही थी उसे मैं देर तक देखता रहा, क्योंकि वही घटना शिष्य और गुरु के बीच घटती है। कुछ ही दिन पहले अंडा तोड़कर किसी पक्षी का एक बच्चा बाहर आया होगा, अभी भी वह बहुत छोटा है। उसके माता—पिता दोनों कोशिश कर रहे हैं कि वह घोंसले पर पकड़ छोड़ दे और आकाश में उड़े। वे सब उपाय करते हैं। वे दोनों उड़ते हैं आसपास घोंसले के, ताकि वह देख ले कि देखो हम उड़ सकते हैं, तुम भी उड़ सकते हो।
लेकिन अगर बच्चे को सोच—विचार रहा हो तो बच्चा सोच रहा होगा, तुम उड़ सकते हो, उससे क्या प्रमाण कि हम भी उड़ सकेंगे; तुम तुम हो, हम हम हैं; तुम्हारे पास पंख हैं—माना, लेकिन मेरे पास पंख कहां हैं?
क्योंकि पंखों का पता तो खुले आकाश में उड़ो तभी चलता है; उसके पहले पंखों का पता ही नहीं चल सकता है। कैसे जानोगे कि तुम्हारे पास भी पंख हैं, अगर तुम चले ही नहीं, उड़े ही नहीं?
तो बच्चा बैठा है किनारे घोंसले के, पकड़े है घोंसले के किनारे को जोर से; देखता है, लेकिन भरोसा नहीं जुटा पाता। मां—बाप लौट आते हैं, फुसलाते हैं, प्यार करते हैं; लेकिन बच्चा भयभीत है। बच्चा घोंसले को पकड़ रखना चाहता है, वह ज्ञात है। वह जाना—माना है। और छोटी जान और इतना बड़ा आकाश! घोंसला ठीक है, गरम है, सब तरफ से सुरक्षित है; तूफान भी आ जाए तो भी कोई खतरा नहीं है, भीतर दुबक रहेंगे। सब तरह की कोशिश असफल हो जाती है। बच्चा उड़ने को राजी नहीं है।
यह अश्रद्धालु चित्त की अवस्था है। कोई पुकारता है तुम्हें, आओ खुले आकाश में, तुम अपने घर को नहीं छोड़ पाते। तुम अपने घोंसले को पकड़े हो। खुला आकाश बहुत बड़ा है, तुम बहुत छोटे हो। कौन तुम्हें भरोसा दिलाए कि तुम आकाश से बड़े हो? किस तर्क से तुम्हें कोई समझाए कि दो छोटे पंखों के आगे आकाश छोटा है? कौन—सा गणित तुम्हें समझा सकेगा? क्योंकि नापजोख की बात हो तो पंख छोटे हैं, आकाश बहुत बड़ा है। पर बात नाप—जोख की नहीं है। दो पंखों की सामर्थ्य उड़ने की सामर्थ्य है: बड़े से बड़े आकाश में उड़ा जा सकता है। और पंख पर भरोसा आ जाए तो आकाश शत्रु जैसा न दिखाई पड़ेगा, स्वतंत्रता जैसा दिखाई पड़ेगा; आकाश मित्र हो जाएगा।
परमात्मा में छलांग लेने से पहले भी वैसा ही भय पकड़ लेता है। गुरु समझाता है, फुसलाता है, डांटता है, डपटता है, सब उपाय करता है—किसी तरह एक बार...।
जब उन दो पक्षियों ने—मां—बाप ने देखा कि बच्चा उड़ने को राजी नहीं तो आखिरी उपाय किया। दोनों ने उसे धक्का ही दे दिया। बच्चे को खयाल भी न था कि वे ऐसी क्रूरता कर सकेंगे, कि इतने कठोर हो सकेंगे।
गुरु को कठोर होना पड़ेगा। क्योंकि तुम्हारी जड़ता ऐसी है कि तुम्हें धक्के ही न लगें तो तुम आकाश से वंचित ही रह जाओगे। उस कठोरता में करुणा है।
अगर मां—बाप करुणा कर लें तो यह बच्चा सदा के लिए पंगु रह जाएगा। इसकी नियति भटक जाएगा, खो जाएगी, यह सड़ जाएगा उसी घोंसले में। घोंसला घर न रहेगा, कब्र बन जाएगा। और यह बच्चा अपरिचित रह जाएगा अपने स्वभाव से। उस स्वभाव का तो खुले आकाश में उड़ने पर ही एहसास होगा। वह समाधि तो तभी लगेगी जब अपनी क्षुद्रता को यह विराट आकाश में लीन कर सकेगा; जब अपने छोटेपन में यह बड़े से बड़ा भी हो जाएगा। जब इसकी आत्मा परमात्मा जैसी मालूम होने लगेगी, तभी इसकी समाधिस्थ अवस्था होगी।
बच्चे को पता भी नहीं था, समझ भी नहीं थी, खयाल भी न था, कि यह होगा। धक्का खाते ही वह दो क्षण को खुले आकाश में गिर गया—फड़फड़ाया, घबड़ाया, वापस लौटकर घोंसले को और जोर से पकड़ लिया; लेकिन अब उस बच्चे में एक फर्क हो गया, जो उसके चेहरे पर भी देखा जा सकता था। अश्रद्धा खो गई है। पंख हैं। छोटे होंगे। आकाश इतना भयभीत नहीं करनेवाला है जितना अब तक कर रहा था। और एक क्षण को उसने खुले आकाश में सांस ले ली। अब अश्रद्धा नहीं है। थोड़ी देर में धक्के की अशांति चली गई, कंपन खो गया। मां—बाप उसे बड़ा प्यार दे रहे हैं, थपथपा रहे हैं, चोचों से सहला रहे हैं, उसे आश्वस्त कर रहे हैं कि वह अपने अनुभव को पी जाए। उसे अपने पंखों की समझ आ गई। वह पंख फड़फड़ाता है बीच—बीच में। अब पहली दफा उसे पता चला कि उसके पास पंख हैं, वह भी उड़ सकता है। फिर घड़ी भर बाद मां—बाप उड़े और बच्चा उनके साथ हो लिया।
ठीक यही घटना घटती है हर शिष्य और हर गुरु के बीच; और सदा से घटी है, और सदा ऐसे ही घटेगी। किसी—न—किसी तरह गुरु को शिष्य की अश्रद्धा को तोड़ना है; किसी—न—किसी तरह शिष्य को यह भरोसा दिलाना है कि उसके पास पंख हैं और आकाश छोटा है।
और उड़े बिना जीवन में कोई गति नहीं है। रोज—रोज उड़ना है। रोज—रोज अतीत का घोंसला छोड़ना है। रोज—रोज जो जान लिया, उसकी पकड़ छोड़ देनी है, और जो नहीं जाना है उसमें यात्रा करनी है। सतत है यात्रा। अनंत है यात्रा। कहीं भी ठहर नहीं जाना है। पड़ाव भले कर लेना, घर कहीं मत बनाना। यही मेरी संन्यास की परिभाषा है।
पड़ाव—ठीक। रात अंधेरा हो जाए, घोंसले में विश्राम कर लेना, लेकिन खुले आकाश की यात्रा बंद मत करना। रुकना, लेकिन रुक ही मत जाना। रुकना सिर्फ इसलिए ताकि शक्ति पुनः लौट आए, तुम ताजे हो जाओ, सुबह फिर यात्रा हो सकेगी।
बस ज्ञान पर उतना ही पड़ाव करना कि अज्ञात में जाने की क्षमता अक्षुण्ण हो जाए। ज्ञानी मत बनना। ज्ञानी बने तो घोंसला पकड़ गया। वही तो पंडित की परेशानी है: जो भी जान लेता है, उसको पकड़ लेता है। उसको पकड़ने के कारण हाथ भर जाते हैं; और जो बहुत जानने को शेष था वह शेष ही रह जाता है। जानना और छोड़ना। जानना और छोड़ना।
कहावत है: नेकी कर और कुएं में डाल। ठीक वैसा ही ज्ञान के साथ भी करना। जानो, कुएं में डालो। तुम सदा अज्ञात की यात्रा पर बने रहना। तो ही एक दिन उस चिरंतन से मिलन होगा। क्योंकि वह चिरंतन अज्ञात ही नहीं, अज्ञेय है।
ये तीन शब्द ठीक से समझ लेना। ज्ञात तो वह है जो तुमने जान लिया। अज्ञात वह है जो तुम कभी न कभी जान लोगे। अज्ञेय वह है जिसे तुम कभी न जान सकोगे। उसको तो स्वाद ही लेना होगा। उसे तो जीना ही होगा। जानने जैसी दूरी उसके साथ नहीं चल सकती। उसके साथ तो एक ही हो जाना होगा। उसके साथ तो डूबना होगा। वह तो मिलन है, ज्ञान नहीं। वहां तो तुम और उसको होना अलग न रह जाएगा। वहां तुम जानने वाले न रहोगे; वहां तुम उसी के साथ एक हो जाओगे।
उस परम घड़ी को लाने के लिए, ज्ञात को छोड़ना है, अज्ञात में यात्रा करनी है। और जब तुम अज्ञात की यात्रा में कुशल हो जाओगे, तब तुम्हें गुरु आखिरी धक्का देगा कि अब अज्ञात को भी छोड़ देता है और अज्ञात की यात्रा पर निकल जाता है, वह संन्यस्त। और अज्ञात को भी जो छोड़ देता है और अज्ञेय में लीन हो जाता है, वह सिद्ध। फिर कुछ और पाने को नहीं बचता। पानेवाला ही खो गया, तो अब पाने को क्या कुछ बचेगा?
ये कबीर के पद, ये वचन शिष्य और गुरु के बीच सेतु बनाने के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं। एक—एक शब्द को गौर से समझने की कोशिश करें।
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे। कबीर शिष्य से कह रहे हैं कि मेरा और तेरा होना एक कैसे हो? और जब तक एक न हो, तब तक गुरु जो भी बताए वह बाहर ही बाहर होगा। तुम उससे सीख लोगे शब्द, सिद्धांत; पर गुरु जो वस्तुतः देना चाहता था, तुम उससे वंचित रह जाओगे।
बहुत मेरे पास भी मित्र आ जाते हैं जो थोड़ा—सा ज्ञान अर्जित करके संतुष्ट हो जाएंगे।
ज्ञान तो कूड़ा—कचरा है; उससे संतुष्ट मत हो जाना। जीवन चाहिए! ज्ञान से क्या होगा? जान लो कितना ही परमात्मा के संबंध में—क्या सार है? ऐसे ही जैसे भूखा कितना ही जान ले भोजन के संबंध में, सारा पाकशास्त्र कंठस्थ कर ले—क्या होगा? पूरा पाकशास्त्र भी तो एक जून की भूख नहीं मिटा सकता।
वेद पाकशास्त्र हैं। उपनिषद, गीता पाकशास्त्र हैं। उनमें भोजन की चर्चा है; वहां भोजन नहीं है। चचों में कहीं भोजन होता है?
मैं तुमसे कुछ कहता हूं—उसमें भोजन नहीं है; वह जो कहता हूं, वह तो केवल इशारा है। वह तो केवल इशारा है—उस तरफ, जहां भोजन है। तुम उससे ही तृप्त मत हो जाना। तुम इशारे को सम्हालकर मत रख लेना। उसको संपदा मत समझ लेना। मैं जो कहूं, उसे तो भूल जाना; मैं जिस तरफ इशारा कर रहा हूं, उस तरफ की यात्रा पर निकल जाना। मुझे सुनकर भी तुम पंडित हो सकते हो—तब तुम चूक गए; तब तुम सरोवर के किनारे थे और प्यासे ही लौट गए; सरोवर के किनारे थे और पानी के संबंध में जानकर लौट गए, और पानी को न पीया
परमात्मा के संबंध में जानने का कुछ भी तो सार नहीं। कोरे शब्द हवा में बने बबूले हैं। उनमें कुछ भी नहीं है। लेकिन वे महत्वपूर्ण मालूम होते हैं, क्योंकि अहंकार को भरते हैं। थोड़ा ज्यादा जान लिया, थोड़ी संपदा और भीतर धन की, शब्दों की इकट्ठी हो गई—अकड़ और बढ़ जाती है।
अहंकार पंडित होना चाहता है, प्रज्ञावान नहीं। अहंकार संग्रह करना चाहता है, समर्पण नहीं। अहंकार खोना नहीं चाहता, बचना चाहता है। और तुम जब तक खोओगे नहीं, तब तक तुम्हारे बचने का कोई भी उपाय नहीं।
तो कबीर कहते हैं, मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होई रे। हो कैसे यह घटना कि मेरात्तेरा मन एक हो जाए? क्योंकि तू सब तरह की अड़चनें खड़ी कर रहा है। शिष्य अड़चनें खड़ी करता है। पहले तो वह विवाद खड़ा करता है। पहले तो वह कहता है, सिद्ध करो; जब तक सिद्ध न करोगे, मानेंगे कैसे? हमें कोई अंधा समझा है? हम कोई अंधे अनुयायी हैं? हम तो सोच—विचार करके चलेंगे।
सोच—विचार ही तुम्हारे पास होता तो गुरु की कोई जरूरत न थी। तुम सोच—विचार में ही समर्थ होते तो तुम अपने ही पैर यात्रा कर लेते, किसी के सहारे की जरूरत नहीं थी।
और तुम कहते हो, हम अंधे थोड़े ही हैं? अंधे तुम हो; बड़े गहन रूप से अंधे हो। और यह अंधापन कोई आंखों का ही नहीं है, भीतर की आंखों का है। यह अंधापन आध्यात्मिक है। और इस अंधेपन में तुम जिद्द करो, विवाद करो—तुम किस चीज को बचाने के लिए विवाद कर रहे हो? तुम्हारे पास कुछ भी तो नहीं है। अगर तुमने ज्यादा विवाद किया, ज्यादा तर्क का सहारा लिया—अपने अंधेपन को ही बचा लोगे, और तुम्हारे पास बचाने को कुछ भी नहीं है।
विचार तुम्हारे पास हैं नहीं: विचारों की भीड़ है, विचार नहीं हैं। विचार क्षमता का नाम है, विचारों की भीड़ का नाम नहीं है। तुम्हारे पास विचार तो बहुत हैं। तुम्हारी खोपड़ी एक बाजार है, जहां हजारों तरह के विचार हैं; लेकिन विचार नहीं है। विचार का अर्थ होता है: जानने की क्षमता। और ये जो विचार हैं जिनको तुम अपने कह रहे हो, कोई भी तुम्हारे पास नहीं हैं, सब उधार हैं। न मालूम कहां—कहां की झूठन तुमने इकट्ठी कर रखी है। और उन पर तुम इतरा रहे हो। कूड़ाघर पर बैठकर तुम सिंहासन समझ रहे हो। इनमें से एक भी विचार तुम्हारा नहीं है। बचाओगे क्या? विवाद क्या करना है?
ज्यादा विवाद और तर्क तुम्हें तुम्हारे गुरु से दूरी पर रख देगा। इसमें गुरु कुछ नहीं खो रहा है। वहां तो पाने—खोने को कुछ बचा नहीं। तुम्हीं खो रहे हो।
यह तो ऐसे ही है, जैसा बुद्ध ने कहा है कि किसी गांव में ऐसा हुआ कि एक आदमी को तीर लग गया। भूल से लग गया। जंगल से गुजरता था शिकारी, उसका तीर लग गया। फेंका तो किसी जानवर की तरफ गया था, आदमी बीच में आ गया। पर आदमी कोई साधारण आदमी न था, विवादी था, दार्शनिक था, बड़ा तर्कनिष्ठ था। भीड़ इकट्ठी हो गई, लोग उसका तीर निकालना चाहते हैं। गांव का वैद्य आ गया। पर उसने कहा कि ठहरो, पहले यह पक्का हो जाए कि तीर किसने मारा? क्यों मारा? तीर विष—बुझा है या साधारण है, घातक है या मैं बच सकूंगा? तीर मत निकालो अभी। पहले सब तय हो जाए। और वह मायावादी दार्शनिक था। उसने कहा कि पहले यह भी पक्का हो जाए कि तीर है भी? क्योंकि ज्ञानियों ने कहा है, संसार माया है। जब पूरा संसार ही स्वप्नवत है तो तीर स्वप्न में लगा है या यथार्थ में?
बुद्ध उस गांव से निकलते थे। वे भी उस भीड़ में खड़े थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ठीक से सुन लो उसकी बात। यही तुम्हारी दशा है। यह नासमझ, यह सब चर्चा बाद में कर ले तो अच्छा है; पहले तीर निकल जाने दे। मगर इसका कहना भी ठीक है कि अगर तीर है ही नहीं तो निकालोगे क्या? यह पहले सब जान लेना चाहता है, तब तीर को निकालने देगा। और इसे पता ही नहीं कि इस बीच, इस जानकारी में यह समाप्त हो जाएगा और तीर कभी न निकलेगा।
बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा, ऐसा ही दुख का तीर तुम्हारे जीवन में लगा है। मैं तुमसे कहता हूं कि निकाल लेने दो। तुम कहते हो, दुख क्या है? है भी? सुख मिल सकता है? कोई संभावना? कभी किसी को मिला है कि सब कपोलकल्पना है? तुम पूछते हो, दुख कहां से आया? क्यों आया? हम दुखी क्यों हैं? परमात्मा ने दुख क्यों बनाया? और जो दुख बनाता है, वह परमात्मा कैसा है? तुम पूछते हो, दुख स्वप्न है या सत्य है। और बुद्ध ने कहा, मैं उस वैद्य की तरह हूं जो तुमसे प्रार्थना कर रहा है कि तीर निकाल लेने दो, फिर पीछे समय बहुत है, तब तुम चर्चा कर लेना। लेकिन तुम कहते हो, पहले सब साफ हो जाए, तब तीर निकालने देंगे। तब तुम मर जाओगे, तीर न निकल पाएगा।
और बुद्ध ने यह भी कहा, और मैं जानता हूं कि एक दफा तीर निकल जाए, फिर कोई तीर के संबंध में चर्चा नहीं करता। बात ही खत्म हो गई।
गुरु कहता है, तुम्हारी अज्ञान की अवस्था को बदल देने दो...। तुम कहते हो, पहले सब निर्णय हो जाए, पहले सब तर्क से सिद्ध हो जाए, सब प्रमाण मिल जाएं, साक्षी, गवाहियां जुटा ली जाएं—तभी मैं आगे बढूंगा। मैं कोई अंधा अनुयायी नहीं हूं; मैं सोच—विचारवाला आदमी हूं।
तब तुम ऐसे ही खो जाओगे। तब सरोवर निकट था; लेकिन सरोवर असमर्थ था, क्योंकि तुमने अंजुलि ही न बांधी। सरोवर निकट था, तुम्हारी प्यास बुझाने को तत्पर था, आतुर था; लेकिन तुम झुककर अंजुलि बांधकर सरोवर से पानी लेने को तैयार न हुए। तुम प्यासे ही मर जाओगे। ऐसे ही बहुत बार तुम मरे हो। ऐसे ही बहुत बार तुम विवाद में जीये हो।
और अज्ञान बड़ा विवादी है। ज्ञान तो निर्विवाद है। वहां कोई विवाद नहीं है। अज्ञान बड़ा विवादी है। विवाद अज्ञान की रक्षा का उपाय है। अज्ञान अपनी रक्षा करता है।
मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे।
मैं कहता हौं आंखन देखी, तू कागद की लेखी रे।।
और बहुत कठिनाई है। कबीर कहते हैं, हम आंख की देखी बात कर रहे हैं, तुम कागज की लिखी बात कर रहे हो। तुमने वेद पढ़ लिए, अब तुम वेद से भरे हो। तुमने गीता पढ़ ली, अब गीता के श्लोक तुम्हारी खोपड़ी में घूम रहे हैं। तुम कुरान कंठस्थ किए हो। और इन कागज पर लिखी बातों के सहारे तुम आंखवाले के पास विवाद करने पहुंच जाते हो। कुछ उसकी हानि नहीं। करो मजे से—तुम्हारी मौज है। लेकिन वह देखता है कि तीर चुभा है तुम्हारे जीवन में। जहर उसका फैलता जाता है प्रतिपल। तुम्हारा चून उसके जहर को तुम्हारे पूरे शरीर में दौड़ा रहा है। तुम जल्दी ही चुक जाओगे। और ये कागज की लिखी बातें कुछ भी सहारा न बनेंगी।
तुम मर रहे हो प्रतिपल, क्योंकि मौत किसी भी क्षण आ सकती है। और तुम किताबों में बड़े कुशल हो गए हो।
एक मित्र मेरे पास आए। कहने लगे, और सब ठीक है; वेद के संबंध में आपका क्या खयाल है? वेद का क्या करोगे? उसके संबंध में खयाल का भी क्या करोगे? नहीं, कहने लगे, मैं आर्यसमाजी हूं और अब तक यह साफ न हो जाए कि वेद के संबंध में आपकी क्या दृष्टि है, तब तक मेरा और आपका कोई तालमेल नहीं हो सकता। अगर आप वेद से राजी हैं तो सब ठीक है। लेकिन मैंने सुना है, आप वेद से राजी नहीं हैं।
मैं कहता हौं आंखन देखी, तू कागद की लेखी रे।
सिद्धांत भारी हैं लोगों के मन पर। बड़ी गहन पकड़ है उनकी। और उन सिद्धांतों में है क्या?
मैंने उनसे कहा कि, अगर वेद को पढ़कर, जानकर आप कहीं पहुंच गए, तो मेरे पास आने की कोई जरूरत नहीं। बात खतम हो गई। अगर वेद आपकी नाव बन गया तो ठीक है। लेकिन कागज की नाव से कभी कोई पार नहीं हुआ। फिर कागज की नाव चाहे वेद की हो, चाहे कुरान की, चाहे बाइबिल की, चाहे गीता की, चाहे मेरी किताबों की—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। नाव कागज की है—डूबेगी
उन्होंने कहा, और किताबें और हैं, वेद की बात और है। वेद तो स्वयं परमेश्वर ने रचा है। वही कुरान का माननेवाला भी कहता है। वही बाइबिल का माननेवाला भी कहता है। जिस किताब में भी तुम्हें डूब मरना हो, जिस किताब की भी नाव बनानी हो, उसी किताब के माननेवाले यही कहते हैं कि यह परमात्मा की रची हुई है। लेकिन शब्द की नाव से कब कौन पार हुआ है? नाव तो निःशब्द की चाहिए। नाव तो अनुभव की चाहिए, सिद्धांतों की नहीं। लेकिन अनुभव कीमती चीज है। जीवन से चुकाना पड़ता है मूल्य। वेद तो बाजार से खरीद लाओ, सस्ता मिलता है। और वेद के तो तुम जो भी अर्थ करना चाहो, कर लो; अर्थ तो तुम ही करोगे? वेद तो कुछ तुम्हें रोक न सकेगा कि यह अर्थ मेरा नहीं है। इसलिए वेद को थोड़े ही तुम पढ़ते हो; पढ़ते तो तुम अपने ही अर्थ को हो—वेद में पढ़ते हो। पढ़ते तुम अपने ही अर्थ को हो; वेद का तो बहाना है। अपने ही अज्ञान को तुम वहां से भी सुरक्षित करते हो।
ध्यान रहे, तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है—ऐसी जब तुम्हें प्रतीति हो, ऐसा जब तुम पाओ कि दीन—हीन, कि न कोई ज्ञान है, न कोई प्रेम है, जीवन में कुछ भी नहीं है, पाओ तो बिलकुल रिक्त—तभी तुम गुरु के पास आने के योग्य हो पाओगे। क्योंकि अगर तुम अपने से भरे हो, तो गुरु तुममें कैसे भर सकेगा? तुम जब खाली आओगे, खाली और नग्न, निर्वस्त्र: सब वस्त्र सिद्धांतों के, शास्त्रों के छोड़कर आओगे; तुम ऐसे आओगे, जैसे छोटा बच्चा आता है, बिना किसी धारणा के, निर्धारणा में—तभी तुम गुरु से मिल सकोगे। और गुरु जीवित शास्त्र है; मुर्दा शास्त्रों को लेकर तुम गुरु के पास मत आना। क्योंकि गुरु खुद ही वेद है; गुरु खुद ही गीता है—और जीवंत है। गुरु का अर्थ ही इतना है: जिसमें धर्म फिर से पुनरुज्जीवित हुआ है; जिससे परमात्मा फिर से बोला है; जिसकी बांसुरी को परमात्मा ने फिर अपने होठों पर रखा है। तुम पुराने गीत लेकर आते हो, जो बासे हो चुके, और सदियों में जिन पर धूल जम गई,और सदियों में आदमियों के हाथ चलते—चलते जो बहुत दिन चले हुए नोट की तरह गंदे हो गए। ताजा बरसता हो वहां तुम बासे को लेकर आते हो? जहां सद्यःस्नात सत्य जन्म रहा हो, वहां तुम सिद्धांतों और शास्त्रों की सड़ी—गली बातों को लेकर आते हो। ये बातें भी सड़—गल जाएंगी। और मुझे पक्का पता है कि, लोग इन बातों को लेकर भी दूसरे गुरुओं के पास जाएंगे, जो जीवित होंगे। वही भूल होगी, जो अभी हो रही है। वही भूल सदा होती जाती है।
बुद्ध के लोग वेद की बात लेकर जाते थे, चूंकि बुद्ध ने वेद का समर्थन नहीं किया। और कोई बुद्ध कभी किसी वेद का समर्थन नहीं करेगा। यह कोई वेद का विरोध नहीं है; यह तो सिर्फ एक छोटी सीधी—सी बात है कि जीवंत सत्य मरे हुए शब्दों का समर्थन नहीं करेगा। अगर आज बुद्ध हों, तो खुद अपनी ही वचनों को, धम्मपद में जो वचन उन्होंने कहा, उनको भी वे उसी तरह इंकार कर देंगे, जिस तरह उन्होंने वेद के वचन इंकार कर दिए। सवाल वेद का नहीं है; सवाल किताब और जीवंतता का है।
कबीर कहते हैं, मैं कहता हौं आंखन देखी, तू कागद की लेखी रे। मेल कैसे हो? ऐसा शिष्य अगर गुरु के पास आ भी जाए, तो कितना ही पास रहे, मेल नहीं हो पाता। वह ऐसा होता है जैसे रेल की पटरियां पास—पास होती हैं दोनों, मगर समानांतर, कहीं मिलती नहीं: एक कागज से उलझा, एक जीवन जी रहा। कागज और जीवन में क्या संबंध?—समानांनतर! शास्त्र और सत्य समानांतर रेखाएं हैं, जो कहीं नहीं मिलतीं—बस रेल की पटरियां हैं। पास ही बनी रहती हैं, चार फीट का फासला है; लेकिन वह फासला पूरा नहीं हो पाता। और तुम्हें अगर कहीं मिलती दिखाई पड़ती हों तो समझना कि वह भ्रम है। बहुत दूर, अगर तुम देखोगे, तो क्षितिज पर रेल की पटरियां मिलती हुई मालूम पड़ती हैं। बस वे मालूम पड़ती हैं; अगर तुम जाओगे, वहां भी तुम पाओगे, वही चार फीट का फासला है। वे कहीं मिलती नहीं। समानांतर रेखाएं कहीं मिलती ही नहीं।
और कबीर यही कह रहे हैं कि आंख की देखी बात और कागज की लिखी बात समानांतर रेखाएं हैं। मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होइ रे।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यौ अरुझाई रे। मैं सुलझाने की कोशिश कर रहा हूं, और तू और उलझाए चला जा रहा है।
सिद्धांत सुलझाते नहीं, उलझाते हैं; क्योंकि एक सिद्धांत दस प्रश्न खड़े करता है। एक प्रश्न का उत्तर अगर तुमने किताब से चुन लिया, तो वह उत्तर हजार नए प्रश्न खड़े कर देता है।
जीवन में समाधान है। किताबों में प्रश्न हैं, उत्तर हैं, उत्तरों से पैदा हुए नए प्रश्न हैं। इसलिए हर किताब और किताबों को जन्म देती है। जैसे आदमी बच्चों को जन्म देते हैं, वैसे किताबें किताबों को जन्म देती हैं: क्योंकि एक किताब प्रश्न उठा देती है, अब दूसरी किताब उत्तर देती है; उत्तर से और प्रश्न उठते हैं—तीसरी किताब की जरूरत हो जाती है। तो सातत्य बना रहता है।
हजारों टीकाएं हैं गीता पर। क्योंकि गीता कोई प्रश्नों का हल नहीं कर सकती। और जो भी हल देती है, उन पर नए प्रश्न खड़े हो जाते हैं; उनका उत्तर देना पड़ता है। फिर हर टीका पर टीकाएं हैं। और टीकाओं पर टीकाओं पर भी टीकाएं हैं—सिलसिला जारी है। उसमें कोई अंत नहीं हो सकता। वह जारी रहेगा।
शब्द किसी प्रश्न का हल करते ही नहीं। हल तो बहुत दूर है, शब्द प्रश्न को छू भी नहीं पाते। क्योंकि प्रश्न तो उठता है जीवन से, और उत्तर आता है किताब से—समानांतर।
जीवन में दुख है। तुमने दुख को जाना है। तुमने दुख के आंसू बहाए हैं। दुख में तुम्हारा हृदय जार—जार रोया है। दुख में तुम्हारे रोएंरोएं ने तड़फन अनुभव की है। यह दुख तो आया जीवन से, अब तुम जाते हो किताब में उत्तर लेने कि दुख क्यों है? किताब कहती है, पिछले जन्मों के कर्म के कारण। लेकिन सवाल यह है कि पिछले जन्मों में दुख क्यों था? वह और पिछले जन्मों के कर्म के कारण! लेकिन तब सवाल उठता है कि पहला जब जन्म हुआ होगा, तब कहां से दुख आया? तब किताब कहती है, सब भगवान की लीला है। पहले ही कह देते, इतनी देर क्यों लगाई? भगवान की लीला से कुछ हल होता है? फिर तुम वहीं के वहीं आ गए।
जीवन का दुख भीतर है। भगवान की लीला से क्या हल होता है? और भगवान क्या कोई दुष्ट परपीड़क, कोई महा हिटलर की भांति है कि लोगों को सता रहा है, इसमें लीला ले रहा है? लोग कष्ट पा रहे हैं तो भगवान क्या उन बच्चों की तरह है जो मेंढकों को सताते हैं? अगर उनसे पूछो तो वे कहते हैं, खेल रहे हैं।
आदमियों को भगवान सता रहा है, दुखी कर रहा है? यह उसकी लीला है? तो भगवान के दिमाग को इलाज की जरूरत है। वह सेडिस्ट मालूम होता है, दुखवादी मालूम होता है, दुष्ट मालूम होता है। मस्तिष्क उसका ठीक नहीं है।
लेकिन ये किताब से आनेवाले उत्तर सब ऐसे ही होंगे। थोड़ी—बहुत देर किताब में तुम उलझ जाओ, बस इतना ही है। जैसे ही लौटकर आओगे, पाओगे कि दुख तो अपनी जगह खड़ा है, किताब हल नहीं कर पाती। और इसे जान लेने से भी कि पिछले जन्मों के कारण दुख हैं, दुख मिटेगा नहीं। इसे भी जान लेने से कि परमात्मा की लीला है, दुख मिटेगा नहीं, दुख तो रहेगा।
दुख मिटेगा ध्यान से, विचार से नहीं। और ध्यान की यात्रा बड़ी अलग है। वह कागज में लिखी हुई यात्रा नहीं है; वह आंखों से देखने की यात्रा है। ध्यान का अर्थ है: दृष्टि का आभिर्वाव। ध्यान का अर्थ है: तुम्हारा जाग जाना। वहां मिटेगा दुख; और वहां सब समाधान हो जाएगा। और असली सवाल यह नहीं है कि दुख कहां से आया है; असली सवाल यह है कि दुख कैसे मिटे?
जब तुम किसी बीमारी से ग्रस्त होते हो, तो तुम चिकित्सक से यह नहीं पूछते कि बीमारी कहां से आई, क्यों आई, जिस बैक्टीरिया की वजह से बीमारी पैदा हुई, वह कहां से आया? क्यों आया, भगवान ने बैक्टीरिया बनाए क्यों टी.बी. और कैंसर के? इनके बिना बनाए न चल सकता था? सिर्फ फूल और तितलियों से काम नहीं चल सकता था? नहीं, तब तुम इसकी चिंता नहीं करते। तुम चिकित्सक से कहते हो, इस फिक्र में पड़ो ही मत। तुम मेरा इलाज करो। दुख कैसे जाए, तुम यह पूछते हो।
किताब के साथ बंधा हुआ आदमी हमेशा पूछता है, दुख कहां से आया? और सदगुरु बताता है कि दुख कैसे जाए?
बुद्ध ने कहा है, तुम मुझसे पूछो मत कि परमात्मा है या नहीं। तुम मुझसे इतना ही पूछो कि दुख कैसे जाए। जब दुख चला जाएगा, तब तुम जान लोगे कि परमात्मा है या नहीं। उस दुख—निरोध की अवस्था में तुम्हारी आंखें साफ होंगी, आंसू सूख गए होंगे। जीवन की पीड़ा तिरोहित हो गई होगी। स्वास्थ्य की मगनता उठेगी भीतर—एक ललक की भांति। तुम्हारा जीवन एक उत्सव बन जाएगा। उस उत्सव में तुम जान पाओगे कि परमात्मा की लीला क्या है। दुख में कहीं कोई जान सकता है लीला को? उत्सव में, आनंद की अवस्था में, जब तुम नाच उठोगे, तभी...।
तो बुद्ध कहते हैं, मत पूछो ईश्वर; मत पूछो, किसने दुनिया बनाई?... व्यर्थ की बातें हैं। दार्शनिकों को करने दो यह व्यर्थ की बकवास।
मैं कहता सुरझावनहारी...। कबीर कहते हैं, मैं सुलझाने की कोशिश कर रहा हूं कि दुख कैसे जाए, अंधेरा कैसे मिटे, अंधापन कैसे मिटे; तू राख्यो अरुझाई रे—तू ऐसे सवाल उठाता है कि चीजें और उलझ जाती हैं।
इस बात को बहुत ठीक से समझ लेना, क्योंकि यही तुम्हारे और मेरे बीच भी घट रहा है। मेरी सारी चेष्टा है कि तुम कैसे सुलझ जाओ। लेकिन तुम सब तरह के प्रतिरोध खड़े करते हो। तुम सब तरह की बाधाएं डालते हो। निश्चित ही तुम्हें पता नहीं है, तुम क्या कर रहे हो; अन्यथा तुम क्यों करते? तुम सब तरह की बाधाएं डालते हो।
एक मित्र कुछ दिन पहले आए। उन्होंने कहा, यह ध्यान जो आप करवा रहे हैं, मैंने करके देखा—शांति मिलती है, बड़ा अच्छा लगता है; लेकिन जैन—धर्म में इसका उल्लेख कहीं नहीं है। तुम्हें शांति मिलती है, तो जैन—धर्म में कहीं उल्लेख नहीं है—उस उल्लेख को चाटोगे? उस उल्लेख का करना क्या है? नहीं, तो उन्होंने कहा कि मैं तो जैन—धर्म का अनुयायी हूं, तो थोड़ा शक होता है; क्योंकि अगर यह ध्यान ठीक होता, तो महावीर स्वामी ने कहीं न कहीं उल्लेख तो किया होता। सब शास्त्र देख डाले, मगर इसका कहीं उल्लेख नहीं है। इसलिए ध्यान करना बंद कर दिया है।
शांति पर भरोसा नहीं है। अपनी ही शांति पर भरोसा नहीं है। अपने अनुभव पर भरोसा नहीं है। आदमी कितनी गहन मूढ़ता में रहता है। वह महावीर ने क्यों नहीं कहा—वह उलझा रहा है मामले को। और चूंकि महावीर ने नहीं कहा, इसलिए जरूर कहीं कोई न कोई गड़बड़ होगी। और महावीर ने कुछ ठेका लिया है सब कुछ कह जाने का? ये सज्जन उनको भी मिल जाएं, तो वे भी अपना सिर पीट लें। महावीर ने जो भी कहा है, उसकी सीमा है; कहने की सीमा है। अनकहा बहुत रह गया है, जो कभी न चुकेगा। सदगुरु आते रहेंगे, कहते रहेंगे और अनकहा सदा बाकी रहेगा। यह सागर बड़ा है। इसमें महावीर भर लाए थोड़ा—सा पानी अपने पात्र में, उससे कोई सागर थोड़े ही चुक जाता है?
तुम प्यासे मर रहे हो; लेकिन तुम कहते हो, यह जो जल आप बता रहे हैं, यह महावीर की गगरी में नहीं है। तुम्हें प्यास की फिक्र है? नहीं, लेकिन लोग बड़े...।
बड़ी हैरानी की घटना है यह कि तुम अपनी अशांति को टूटने नहीं देते, अपने दुख को टूटने नहीं देते, तुम अपनी भटकन को मिटने नहीं देते। तुम उलझाए चले जाते हो। अजीब—अजीब प्रश्न लेकर लोग उलझते हैं। और अगर उनकी तरफ तुम देखो तो वे बड़े गंभीर मालूम पड़ते हैं। उनको होश भी नहीं कि वे क्या कर रहे हैं, इसलिए ये बातें उठा रहे हैं।
आदमी बिलकुल बेहोश है।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो अरुझाई रे।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।
कबीर कहते हैं कि सारी शिक्षाओं की शिक्षा तो एक ही है कि तुम जागते रहो, मगर तुम सो—सो जाते हो। तुम हजारा बहाने खोज लेते हो सोने के।
जीसस, आखिरी रात, जिस दिन उन्हें फांसी लगनेवाली है, उसकी एक रात पहले, अपने शिष्यों को इकट्ठा किए एक बगीचे में, और उन्होंने कहा कि मैं आखिरी प्रार्थना कर लूं, तुम जागते रहना। यह रात आखिरी है। और यह ईश्वर का बेटा फिर दुबारा तुम्हारे साथ प्रार्थना करने को नहीं होगा।
जीसस ने प्रार्थना की, घड़ी भर बाद वे वापस आए, देखा, सारे शिष्य सो रहे हैं। उन्होंने जगाया। उन्होंने कहा, यह आखिरी रात...। उन्होंने कहा, क्या करें? दिनभर के थके मांदे हैं, झपकी लग गई। अब फिर कोशिश करेंगे। जीसस फिर घड़ीभर बाद प्रार्थना से आंख खोले; देखा, वे सब फिर घुर्रा रहे हैं।
क्या हो गया?
उन्होंने कहा, कोशिश तो करते हैं, नींद आ—आ जाती है। कोशिश करते ही नहीं हैं। वह भी बहाना है। वह भी सिर्फ तरकीब है। अगर तुम कोशिश करो, तो नींद कैसे आ जाएगी? अगर तुम कोशिश करो तो नींद तो आ नहीं सकती। अगर ठीक से समझो तो जिन लोगों को नींद नहीं आती, उनको इसलिए नहीं आती कि वे कुछ कोशिश करते हैं नींद को लाने की। सौ में निन्यानबे आदमी जिनको रात में नींद नहीं आती, उनका कुल कारण इतना होता है कि वे नींद को आने नहीं देते—कोशिश के कारण। वे कोशिश करते हैं। कोई गायत्री—मंत्र पढ़ता है, कोई कुछ करता है, कोई करवट बदलता है, सोचता है नींद आ जाए आंख बंद करता है, सोचता है नींद आ रही है, वह नहीं आती है। नींद को लाने के लिए कोशिश की जरूरत ही नहीं है। नींद तो आती ही तब है जब कोई कोशिश नहीं होती। क्योंकि कोशिश जगाती है। कोशिश और नींद विरोधी हैं।
तो शिष्य कह रहे हैं, कोशिश तो हम करते हैं। लेकिन वह कोशिश झूठी है। वे करते नहीं हैं, या वे अपने को समझाते हैं कि हम कोशिश तो कर रहे हैं। लेकिन वह कोशिश कुनकुनी है। ऐसा थोड़ा—सा करते हैं कि जब जीसस कहते हैं तो कर लो। वस्तुतः उन्हें भरोसा नहीं है कि यह आखिरी रात है। उन्हें यह भी भरोसा नहीं है कि कल जीसस विदा हो जाएंगे। उन्हें यह भी भरोसा नहीं है कि प्रार्थना में कोई सार है। श्रद्धा नहीं है।
जब जीसस उनसे विदा होते हैं तो उनमें से एक शिष्य कहता है कि चाहे कुछ भी हो जाए, सदा ही मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। जीसस ने कहा, तू इस तरह की बातें मत कर, क्योंकि मुर्गे के बांग देने के पहले तू तीन दफे मुझे इनकार कर चुका होगा। आधी रात जा चुकी है। मुर्गे को बांग देने में ज्यादा देर नहीं है। लेकिन उस शिष्य ने कहा कि, नहीं, मेरी भक्ति अटूप है। मेरी श्रद्धा अपार है। मैं कभी आपको इनकार न करूंगा। फिर जीसस पकड़ लिए गए। दुश्मन की भीड़ उन्हें ले जाने लगी। वह शिष्य भी पीछे—पीछे भीड़ में साथ हो लिया कि देखें, क्या होता है। बाकी शिष्य तो भाग गए। वह एक साथ हो लिया। मशालों की रोशनी में भीड़ ने अनुभव किया कि कोई एक अजनबी साथ है, तो उसको पकड़ लिया और कहा कि तू कौन है? क्या तू जीसस का साथी है? उसने कहा कि नहीं, मैं तो उनको जानता ही नहीं। कौन जीसस? जीसस ने पीछे मुड़कर कहा कि देख, अभी मुर्गे ने बांग भी नहीं दी। अभी रात बहुत बाकी है।
शिष्य और गुरु के बीच कौन—सी घटना घटे ताकि सेतु बन जाए। वह घटना है जागरण की। गुरु जागा है, जैसे हिमालय के उत्तुंग शिखर पर है उसका जागरण। तुम सोए हो—गहन अंधेरी घाटी में। फासला बहुत है। गुरु कुछ कहता है, तुम्हारी नींद में तुम कुछ और अर्थ लेते हो। गुरु कुछ और कहता है, तुम कुछ और समझते हो। गुरु कुछ और कहता है, तुम कुछ और व्याख्या कर लेते हो। तुम्हारे सपने, तुम्हारी नींद, तुम्हारा अंधापन सब उसमें मिल जाते हैं और सब विकृत कर देते हैं।
तुम जागो! जैसे—जैसे तुम जागोगे, वैसे—वैसे तुम गुरु के करीब आने लगे। जागरण ही एक मात्र निकट आने का उपाय है।
मुझसे शिष्य पूछते हैं कि आपके हम ज्यादा से ज्यादा निकट कैसे आएं? एक ही उपाय है कि ज्यादा से ज्यादा जागो। और असली सवाल मेरे निकट आना थोड़े ही है; असली बात तो मेरे बहाने परमात्मा के निकट जाना है। मेरे पास बैठ जाने से थोड़े ही तुम मेरे निकट हो जाओगे। मेरे चरणों को पकड़ लेने से थोड़े ही तुम मेरे निकट हो जाओगे। उससे तो कुछ भी न होगा। वह तो तुम धोखा दे रहे हो अपने आपको। तुम जागोगे तो ही मेरे निकट होओगे। क्योंकि यह निकटता तो भीतर की है, बाहर की नहीं। तुम मेरे जैसे ही होने लगोगे, तो ही मेरे निकट होओगे। तुम अपने जैसे बने रहे तो दूरी बनी रहेगी।
दो ही उपाय हैं। या तो गुरु सो जाए तो निकटता हो सकती है, या शिष्य जग जाए तो निकटता हो सकती है। गुरु सो नहीं सकता; क्योंकि जो जाग गया, उसके सोने का उपाय नहीं। पीछे लौटना होता ही नहीं। जो जान लिया, उससे वापस लौटना होता ही नहीं। गुरु सो नहीं सकता। एक ही उपाय है कि तुम जाग जाओ।
कबीर कहते हैं,
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।
और जागना कोई ऐसी बात नहीं है कि मंत्र की तरह तुम रटते रहो तो जाग जाओगे। जागना कोई मंत्र नहीं है, जागना तो जीवन की विधि है। तुम चौबीस घंटे जागे हुए जीओगे तो ही धीरे—धीरे करके जागरण का गुण तुममें इकट्ठा होगा: बूंद—बूंद जागरण इकट्ठा होगा, तब तुम्हारी गागर भरेगी। एक—एक कण इकट्ठा करना पड़ेगा। तब तुम्हारे जागरण का संग्रह होगा। भोजन करो तो जागे हुए। भोजन करते वक्त बस भोजन ही करो, मन में दूसरे विचार न आने दो; क्योंकि वे नींद ले आते हैं, सपना ले आते हैं। जागरण खो जाता है। राह पर चलो तो जागे हुए; एक—एक कदम होश में उठे। छोटे—से—छोटा काम भी करो तो जागे हुए। जागने को तुम जीवन की विधि बना लो, जीवन की शैली बना लो। ऐसा नहीं कि एक घंटे पर सुबह बैठकर जागने का उपाय कर लिया और फिर तेईस घंटे भूल गए। तो जागरण कभी भी पैदा न हो पाएगा। सतत चौबीस घंटे चोट मारनी पड़ेगी, तो ही तुम्हारी नींद टूटेगीहथौड़ी की तरह तुम चोट मारते ही रहो, कि मैं जागा हुआ ही सब कुछ करूंगा। और अगर तुम कोई काम कर रहे हो—समझो कि तुम स्नान कर रहे हो, और भूल गए, स्मृति खो गई, ऐसे ही कर लिया यंत्रवत, डाल लिया पानी बिना होश के; जैसे ही याद आ जाए, फिर से स्नान करो, जागकर करो। उतनी सजा दो कि ठीक इतना समय गया बिना जागे, अब फिर से जागकर करेंगे।
ऐसा हुआ कि बुद्ध जब बुद्ध न हुए थे तब एक गांव से गुजर रहे हैं। एक साधक साथ है। एक मक्खी बुद्ध के कान पर आकर बैठ गई है। वे साधक से बात कर रहे हैं। उन्होंने मक्खी को ऐसे ही मूर्छित, बात को बिना तोड़े, होश को बिना मक्खी की तरफ ले जाए, यंत्रवत उड़ा दिया—जैसा कि हम करते रहते हैं। कोई जरूरत नहीं है, नींद में भी कोई मक्खी बैठ जाए तो तुम उड़ा देते हो; मच्छर आ जाए तो हाथ हिला देते हो। वह ऑटोमेटिक है, यंत्रवत है। इसमें तुम्हारे होश की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन तत्क्षण बुद्ध को याद आया। वे खड़े हो गए। तब मक्खी न थी कान पर, उड़ चुकी थी। क्योंकि मक्खी थोड़े ही फिक्र करती है कि तुम जागकर उड़ाते हो कि सोए हुए उड़ाते हो। मक्खी तो उड़ गई थी। बुद्ध खड़े हो गए, बात रोक दी। हाथ को फिर से उठाया, और मक्खी को उड़ाया, जो थी ही नहीं। वह जो साधक खड़ा था, उसने कहा, क्या आपका दिमाग कुछ अस्त—व्यस्त हो गया है? यह क्या कर रहे हो? मक्खी तो जा चुकी। वह तो आप उड़ा चुके। बुद्ध ने कहा, मक्खी को नहीं उड़ा रहा हूं; अब जागकर उड़ा रहा हूं। मक्खी से क्या लेना—देना। लेकिन भूल हो गई, चूक गया। उतना कृत्य मूर्छा में हो गया, नींद में हो गया।
और जितने कृत्य तुम नींद में करोगे, उतनी ही नींद इकट्ठी होती चली जाती है। नींद एक गुणधर्म है, एक क्वालिटी है; और जागना भी एक गुणधर्म है। ये चेतना के दो ढंग हैं।
तो तुम जो भी करो, हाथ का इशारा भी करो...यह हाथ मैंने उठाया, यह हाथ मैं ऐसे ही उठा सकता हूं—यंत्रवत; और यह हाथ मैं जागकर भी उठा सकता हूं। तुम दोनों तरह करके देखना। जब तुम जागकर उठाओगे तब तुम पाओगे कि हाथ के उठने का गुणधर्म और है। हाथ बड़े माधुर्य से उठेगा; एक शालीनता होगी उसमें, क्योंकि होश होगा। और भीतर हाथ बड़ा विश्राम में रहेगा, तनाव नहीं होगा। हाथ ऐसे उठेगा जैसे परमात्मा उठा रहा है; तुम जैसे सिर्फ उपकरण हो। अगर तुमने मूर्च्छा में उठाया, तो हाथ हिंसा के ढंग से उठेगा; उसमें झटका होगा; वह शालीन न होगा। उसमें प्रसाद न होगा, माधुर्य न होगा। और उसके भीतर एक तनाव होगा। जैसे—जैसे तुम जागोगे, तुम पाओगे, तुम्हारा शरीर थकता ही नहीं, क्योंकि जागकर सब चीजें इतनी शांति और माधुर्य से भर जाती हैं, तनाव नहीं रह जाता। इसलिए थकान नहीं रह जाती। जितने तुम सोए—सोए जीओगे, उतना तनाव रहता है। जितना तनाव रहता है, उतने तुम थक जाते हो। थकान श्रम के कारण नहीं आ रही है, तुम्हारी मूर्चर्‌छा के कारण आ रही है। इसलिए तो बुद्धपुरुषों को तुम सदा ताजा पाओगे, जैसे अभी—अभी स्नान करके आए हों। उनके ऊपर तुम सुबह की छाप पाओगे। उनके शब्दों में तुम ओस की ताजगी पाओगे, जैसे सब नया—नया है, सब अभी—अभी है, कुछ भी बासा नहीं है, कहीं धूल नहीं जम पाती। उनकी आंखों में तुम्हें झलक मिलेगी—शांत झील की। उनके सारे व्यक्तित्व में तुम्हें दर्पण की तरह गहराई, अनंत गहराई और अनंत ताजगी...। एक कुआंरापन तुम्हें बुद्धपुरुषों के पास मिलेगा। इसे धीरे—धीरे तुम भी अनुभव कर सकते हो जैसे—जैसे जागो
इसको ही तुम अपनी साधना बना लो: उठोगे, बैठोगे, बात करोगे, हंसोगे, रोओगे—मगर जागकर करोगे। कभी जागकर हंसना, तुम तत्क्षण फर्क पाओगे। फर्क भारी है: जब तुम ऐसे ही हंस देते हो मूर्च्छा में, तब तुम्हारा हंसना पागल—जैसा होता है, हिस्टीरिकल होता है। और जब तुम जागकर हंसोगे, तब तुम पाओगे, हंसने का गुणधर्म बदल गया; उसमें पागलपन नहीं है, उसमें एक बड़ी मधुरिमा है। वह तुम्हारी विक्षिप्तता से नहीं आ रहा है, तुम्हारी सजगता से आ रहा है। और तुम्हारे हंसने की हिंसा खो जाएगी, धीरे—धीरे तुम्हारी हंसी मुस्कान में बदलने लगेगी। धीरे—धीरे तुम्हारी हंसी मुस्कान से भी गहरी हो जाएगी। एक ऐसी घड़ी आएगी कि हंसी तुम्हारी मुखाकृति का अंग हो जाएगी। तुम पागल की तरह हंसोगे नहीं, तुम मुस्कराओगे भी न। चौबीस घंटे हंसी का एक भाव, जैसे फूलों की एक गंध तुम्हारे चेहरे को घेरे रहेगी; तुम हंसे हुए रहोगे। जो जानेगा वही जान पाएगा कि तुम कैसे प्रफुल्लित हो! तुम्हारी प्रफुल्लता गहन हो जाएगी, मौन हो जाएगी।
झरने जब उथले होते हैं तो शोरगुल करते हैं। जब नदी गहरी हो जाती है तो कोई शोरगुल नहीं होता। इसलिए तो हमें कुछ पता नहीं कि बुद्ध हंसते हैं कि नहीं, कि महावीर हंसे या नहीं, कि जीसस हंसे या नहीं। पता न होने का कारण यह नहीं है कि वे नहीं हंसे; पता न होने का कारण इतना ही है कि उनकी हंसी इतनी गहरी है कि तुम उसे देख न पाओगे। वह अदृश्य में लीन हो गई है। वे चौबीस घंटे प्रफुल्लित हैं। तुम हंसते हो—चौबीस घंटे दुख में घिरे हुए हो। तुम्हारी हंसी दुख में एक टापू की तरफ होती है—दुख के सागर में एक टापू। बुद्ध की हंसी एक महाद्वीप है; वह चौबीस घंटे है।
साधना तो वही जो अखंड है। जागो अखंडता है। और एक दिन अचानक पाओगे कि रात तुम तो सो गए हो और फिर भी जाग रहे हो। अगर तुमने दिन के हर कृत्य में जागरण को साधा, एक दिन तुम अचानक पाओगे कि शरीर तो सो गया है, तुम जागे हो। कृष्ण उसी को योगी कहते हैं गीता में। जब सब सो जाए, जब सब की रात हो तब भी जो जागा रहे, वही योगी है। निश्चित ही कृष्ण ने ठीक परिभाषा पकड़ी। वही परिभाषा है योगी की: निद्रा में भी जो जागा रहे। तो जागे में तो जागा ही रहेगा; निद्रा में भी जो जागा है। अखंड है उसके जागने का स्वर।
मैं कहता तू जागत रहियो, तू रहता है सोई रे।
मैं कहता निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।।
मोह निद्रा का अंग है; वह एक तरह की नींद है। निर्मोह जागृति की छाया है; वह जागरण का अंग है।
तुम अगर निर्मोही बनने की कोशिश करो, बिना जागने की कोशिश के तो तुम्हारा निर्मोह बड़ा कठोर और पाषाणवत हो जाएगा। अगर तुम निर्मोही बनने की कोशिश करो बिना जागे हुए, तो तुम्हारा निर्मोही होना एक तरह की हिंसा होगी, जबर्दस्ती होगी; निर्मोहिता तो कम होगी, कठोरता ज्यादा होगी। तुम अपनी पत्नी को छोड़ सकते हो, कह सकते हो कि मैं निर्मोही हो गया; लेकिन इस निर्मोह में प्रेम न होगा, घृणा होगी। अगर तुम जागते हो, तो भी तुम निर्मोही हो जाओगे एक दिन; लेकिन उस निर्मोह में परम करुणा होगी, प्रेम होगा। तुम चीजों को तोड़कर नहीं हट जाओगे; तुम हटोगे भी तो भी चीजों को जोड़े रखोगे, और अगर तुम्हारे जागरण से तुम्हारा निर्मोह आया है—तुम्हारी पत्नी भी समझेगी, तुम्हारे बच्चे भी समझेंगे कि इस निर्मोह में कठोरता नहीं है। निर्मोह तो बड़ा मृदुल है, बड़ा प्रीतिपूर्ण है।
इसलिए कबीर या मैं तुम्हें निर्मोही बनने को नहीं कह रहे हैं। इसलिए कबीर ने पहले तो जागने की बात कही कि मैं कहता तू जागत रहियो—फिर कहा कि... मैं कहता तू निरमोही रहियो, तू जाता है मोहि रे।
जुगन जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।
और कबीर कहते हैं, कितने युगों से समझा रहा हूं। बुद्धपुरुष युगों से समझा रहे हैं, हर युग में समझाते रहे हैं। यह कबीर कोई अपने ही बाबत नहीं कह रहे हैं। कबीर जैसे व्यक्ति जब बोलते हैं तो अपने बाबत नहीं बोलते; वे तो सारे बुद्धपुरुषों के बाबत बोल रहे हैं।
जुगन जुगन समुझावत हारा, कहा न मानत कोई रे।
तू तो रंडी फिरै बिहंडी, सब धन डारया खोई रे।।
मन वेश्या की तरह है। किसी का नहीं है मन। आज यहां, कल वहां; आज इसका, कल उसका। मन की कोई मालकियत नहीं है। और मन की कोई ईमानदारी नहीं है। मन बहुत बेईमान है। वह वेश्या की तरह है। वह किसी एक का होकर नहीं रह सकता। और जब तक तुम एक के न हो सको, तब तक तुम एक को कैसे खोज पाओगे? न तो प्रेम में मन एक का हो सकता है; न श्रद्धा में मन एक का हो सकता है—और एक के हुए बिना तुम एक को न पा सकोगे। तो कहीं तो प्रशिक्षण लेना पड़ेगा—एक के होने का।
इसी कारण पूरब के मुल्कों ने एक पत्नीव्रत को या एक पतिव्रत को बड़ा बहुमूल्य स्थान दिया। उसका कारण है। उसका कारण सांसारिक व्यवस्था नहीं है। उसका कारण एक गहन समझ है। वह समझ यह है कि अगर कोई व्यक्ति एक ही स्त्री को प्रेम करे, और एक ही स्त्री का हो जाए, तो शिक्षण हो रहा है एक के होने का। एक स्त्री अगर एक ही पुरुष को प्रेम करे और समग्र—भाव से उसकी हो रहे कि दूसरे का विचार भी न उठे, तो प्रशिक्षण हो रहा है; तो घर मंदिर के लिए शिक्षा दे रहा है; तो गृहस्थी में संन्यास की दीक्षा चल रही है। अगर कोई व्यक्त्ति एक स्त्री का न हो सके, एक पुरुष का न हो सके, फिर एक गुरु का भी न हो सकेगा; क्योंकि उसका कोई प्रशिक्षण न हुआ। जो व्यक्ति एक का होने की कला सीख गया है संसार में, वह गुरु के साथ भी एक का हो सकेगा। और एक गुरु के साथ तुम न जुड़ पाओ तो तुम जुड़ ही न पाओगे। वेश्या किसी से भी तो नहीं जुड़ पाती। और बड़ी, आश्चर्य की बात तो यह है कि वेश्या इतने पुरुषों को प्रेम करती है, फिर भी प्रेम को कभी नहीं जान पाती।
अभी एक युवती ने संन्यास लिया। वह आस्ट्रेलिया में वेश्या का काम करती रही। उसने कभी प्रेम नहीं जाना। यहां आकर वह एक युवक के प्रेम में पड़ गई, और पहली दफा उसने प्रेम जाना। और उसने मुझे आकर कहा कि इस प्रेम ने ही मुझे तृप्त कर दिया; अब मुझे किसी की भी कोई जरूरत नहीं है। और उसने कहा कि आश्चर्यों का आश्चर्य तो यह है कि मैं तो बहुत पुरुषों के संबंध में रही; लेकिन मुझे प्रेम का कभी अनुभव ही नहीं हुआ। प्रेम का अनुभव हो ही नहीं सकता बहुतों के साथ। बहुतों के साथ केवल ज्यादा से ज्यादा शरीर का भोग, उसका अनुभव हो सकता है। एक के साथ आत्मा का अनुभव होना शुरू होता है; क्योंकि एक में उस परम एक की झलक है। छोटी झलक है, बहुत छोटी; लेकिन झलक उसी की है।
आकाश में चांद निकलता है—सागर में भी प्रतिबिंब बनता है, छोटी—छोटी तलैयों में भी प्रतिबिंब बनता है। चांद तो वही है; तलैया छोटी सही, प्रतिबिंब तो वही है। कोई फर्क नहीं है तलैया के प्रतिबिंब में और सागर के प्रतिबिंब में। इसलिए पूरब के मुल्कों ने, विशेषकर भारत ने, इस पर बड़ा आग्रह किया कि एक स्त्री एक ही पुरुष में लीन हो जाए, एक पुरुष एक ही स्त्री में लीन हो जाए। ऐसे एक का प्रशिक्षण होगा।
प्रेम पहला कदम है—एक की शिक्षा का। फिर श्रद्धा दूसरा कदम है कि एक गुरु में लीन हो जाए। फिर प्रार्थना अंतिम कदम है कि एक परमात्मा में लीन हो जाए। प्रेम, श्रद्धा, प्रार्थना—ऐसी सीढ़ियां हैं। तू तो रंडी फिरै बिहंडी—कबीर कहते हैं कि तू तो वेश्या की भांति है। वे शिष्य को कह रहे हैं। और इस तरह अपना ही नाश कर रहा है। सब धन डारया खोई रे। और अपना ही धन खो रहा है—आत्म—धन खो रहा है; अपने अस्तित्व को खो रहा है; अपने को गंवा रहा है।
सतगुरु धारा निरमल बाहै, वामें काया धोई रे। और सतगुरु की निर्मल धारा बह रही है, उसमें तू काया धोने के लिए तैयार नहीं और गंदे डबरों में वासना के, न मालूम कहां—कहां भटक रहा है।
तू तो रंडी फिरै बिहंडी, सब धन डारया खोई रे।
सतगुरु धारा निरमल बाहै, वामें काया धोई रे।।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।
और अगर तू सतगुरु की निर्मल धारा में नहा ले, तू सतगुरु जैसा ही हो जाएगा। और जब शिष्य गुरु जैसा होता है, उसी क्षण एक और द्वार खुलता है, जो आखिरी द्वार है। जब शिष्य गुरु जैसा होता है, तभी परमात्मा का द्वार खुल जाता है।
तो गुरु बड़ा पड़ाव है; वह कोई आखिरी मंजिल नहीं है; वहां रुक नहीं जाना है। मगर वहां से गुजरे बिना कोई आगे नहीं जाता है; वह बड़ा पड़ाव है। और जितनी जल्दी उसमें डूब जाओ, उतनी जल्दी उसके पार हो जाते हो। गुरु के बाद परमात्मा ही बचता है, और कुछ नहीं बचता है। और गुरु के पहले केवल संसार है, परमात्मा नहीं है। गुरु मध्य में खड़ा है; इस पार संसार है, उस पार परमात्मा है। जो गुरु में लीन हो जाता है, वह तत्क्षण परमात्मा की तरफ गतिमान हो जाता है।
सतगुरु धारा निरमल बाहै, वामें काया धोई रे।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, तब ही वैसा होई रे।।
और कोई अड़चन नहीं है, वैसा हो जाने में; क्योंकि वस्तुतः गहनतम स्वभाव में तुम अभी भी वैसे ही हो, तभी तो वैसे हो सकते हो। जो तुम हो, वही तो हो सकते हो। जो तुम नहीं हो, वह तुम कभी भी न हो सकोगे। तुम गुरु के साथ एक हो सकते हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर सदगुरु छिपा है। तुम परमात्मा के साथ एक हो सकते हो, क्योंकि तुम्हारे भीतर परमात्मा का आवास है।
कस्तूरी कुंडल बसै!
आज इतना ही।



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