अध्याय—(छप्पनवां)
मनाली
का व्यान
शिविर शुरू हो
गया है। आज
मैं ओशो से
अपने साधारण
कपड़ों में
मिलने जाती
हूं। वे मुझसे
पूछते हैं, तेरे
भगवा कपड़े
कहां हैं? वे
क्यों नहीं
पहने?' मैं
कहती हूं
उन्हें मैं कल
पहनूंगी।’
अगली
सुबह भगवा
पहनकर मैं
अपनी लुंगी और
कुर्त्ता
प्रवचन से
पहले, बंबई की
अपनी एक मित्र
वीणा के साथ, ओशो से
मिलने आती हूं।
हम बड़े उत्साह
से लिविंगरूम
में उनका
इंतजार कर रहे
हैं। कछ मिनट
बाद वे बैडरूम
से बाहर आते
हैं। उनका 'चेहरा
प्रकाश के एक
आभामंडल से
चमक रहा है।
मैं जब उनके
चरण छूने के
लिए उनके करीब
जाती हूं तो
मुझे वे
मुस्कुराकर
देखते हैं और
अपना हाथ मेरे
सिर पर रखकर
मुझे
आशीर्वाद
देते हैं।जैसे ही मैं उठकर खड़ी होती हूं, वे कहते हैं, तु इस ड्रेस में जंच रही है। अब तू संन्यासिनी हो गई। तुझे क्या नाम दिया जाए?' वे मोटे—मोटे मनकों वाली बड़ी सी माला मेरे गले में डाल देते हैं। मैं हैरान हूं कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि क्या हो रहा है। मैं इस सबको मजाक की तरह लेती हूं और हंस पड़ती हूं। वे वीणा की ओर देखते हैं और उसके मुंह से अनायास ज्योति ' नाम निकल पड़ता है। ओशो को यह नाम पसन्द आता है। वे कहते हैं, यह नाम अच्छा है लेकिन पूरा नहीं है।' 'धर्म ज्योति' तेरे लिए ठीक नाम रहेगा।’ यह सब लिविगरूम में खड़े—खड़े ही होता है। इस तरह मैं संन्यास में दीक्षित हो जाती हूं। कोई बड़ी गंभीर बात नहीं। मैं उनकी ओर खिंचाव—सा महसूस करती हूं और उनके गले लग जाती हूं। वे मेरे आलिंगन को प्रेम से स्वीकार करते हैं और अपना हाथ मेरे सिर पर रखकर अपना सारा प्रेम मुझ पर लुटा देते हैं। मैं नितांत मौन और आनंद में डूबी हुई महसूस करती हूं।
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