अध्याय—(षाठवां)
ओशो
बुडलैंड्स
बिल्डिंग के
अपने नए
अपार्टमेंट में
आ चुके हैं।
मैं लगभग रोज
ही उनसे मिलती
हूं और तरह—तरह
की घटनाओं के
बारे में उन्हें
बताती हूं। वे
सबका मजा लेते
हुए हंसते हैं
और मुझसे कुछ भी
गंभीरता से न
लेने को कहते
हैं।
मैं
उन्हें बताती
हूं कि जब मैं
बस स्टॉप पर खड़ी
होती हूं तो
कैसे बसों में
से कालेज के
लड़के चुंबन के
इशारे करते
हैं। मुझे बड़ा
अजीब लगता है
जब लाइन में
खड़े लोग मेरी
ओर ऐसे देखने
लगते हैं जैसे
मैं कोई पागल
हूं।
वे
मुझसे कहते
हैं,
जब कोई तेरी
ओर चुंबन
उछाले तो तू
हाथ उठाकर उसे
आशीर्वाद दे
दे। और कर भी
क्या सकती है?'
धीरे—धीरे
मैं इन चीजों
की अभ्यस्त हो
जाती हूं। ओशो
अब तक काफी
कुख्यात हो
चुके हैं। वे ‘सैक्स
गुरु' की
तरह पहचाने
जाने लगे हैं
और लोग हमारे
बारे में
वेश्याओं की
तरह राय रखने
लगे हैं।
अब
मैं भीतर से मजबुत
हो चुकी और
दूसरों की
मान्यताओं की
कोई परवाह नहीं
करती। एक सुबह
मैं गाड़ी
पकड़ने के लिए
प्लेटफार्म
पर इंतजार कर
रही हूं। एक
तथाकथित
सज्जन मेरे
पास आकर पूछता
है कि क्या आज
की रात मैं
उसके साथ
बिताना
चाहूंगी।’ मैं
उसे कहती हूं?
माफ करिए, आपने काफी
देर कर दी।
मेरी पहले ही
किसी से बात
हो चुकी है।’ वह इसे
गंभीरता से ले
लेता है और
कहता है, 'और
कल के बारे
में क्या
ख्याल है?' मैं
उसे जवाब देती
हूं ‘कल
कभी नहीं आता।’
उसे मेरी
बात समझ नहीं
आती, और
झल्लाकर वहां
से चला जाता
है।
जब
ओशो को मैं इस
घटना के बारे
में बताती हूं
तो उन्हें
बहुत मजा आता
है। वे कहते
हैं,
शाबास
ज्योति! इसी
तरह सब चीजों
को हंसी—खेल
में ले और फिर
परेशानी नहीं
रहेगी।’
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें