अध्याय—(तरेपन्नवां)
ओशो ने
यूनिवर्सिटी
के पद से
त्यागपत्र दे
दिया है और वे जबलपुर
से बंबई आ गए
हैं। वे सीसी.
आई. चेंबर्स
के एक तीन
बैडरूम वाले
अपार्टमेंट
में अतिथि की
तरह ठहरे हुए
हैं,
जो कि एक
मित्र ने
उन्हीं के लिए
किराए पर लिया
है।
एक
बैडरूम में हम,
आठ—दस मित्र, रोज सुबह
सात से आठ बजे
तक सक्रिय
ध्यान करते हैं।
मैं बंबई के
एक दूर—दराज
इलाके में
रहती हूं और
वहा से
पहुंचने में
मुझे लगभग एक
घंटा लगता है।
एक मित्र
ध्यान का
संचालन करते
हैं और हम बाकी
के लोग उसमें
हिस्सा लेते
हैं।
ध्यान
के मौन वाले
चरण में ओशो
कमरे में आकर देखते
हैं कि आज
हमारा ध्यान
कैसे चल रहा
है। मैं
पद्मासन में
मौन बैठी हुई
हूं और उनकी
उपस्थिति
अपने समीप
महसूस करती हूं।
वे
अपना हाथ मेरे
सिर पर रखकर
मेरे सिर को
हिलाते हैं और
धीरे से कहते हैं,
पकड़ मत, अपने
को छोड़ दे।’ और कुछ होता
है।
मेरा
पूरा शरीर
कंपने लगता है, मैं
जोर—जोर से
रोने लगती हूं।
उनके दिव्य
स्पर्श से
भीतर की कोई
गांठ मिट गई।
मुझे पहले कभी
पता भी नहीं
था कि मैंने
भीतर इतना
दबाया हुआ है।
मैं आधे घंटे
तक रोती ही
चली जाती हूं
और अंततः गहरे
मौन में डूब
जाती हूं।
मैं
स्वयं को किसी
अदृश्य बोझ से
मुक्त महसूस करती
हूं। मेरे मनस
में कोई गहरी
सफाई हो गई है
जो कि .मैं अपने
आप प्रयत्न
पूर्वक करती
तो उसमें
वर्षो लग जाते।
धन्यवाद
प्यारे सद्गुरू!
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