ये आनंद
अक्षर....
आत्माभिव्यक्ति
मानव की सहज
प्रकृति है।
स्वयं को
प्रकट करने की
पिपासा तब तक
शांत नहीं
होती, जब
तक मानव अपने
बंधु—बांधवों,
मित्रों, स्वजन, परिजनों
के सम्मुख
अपनी भावना और
विचारों को
प्रस्तुत नहीं
कर देता।
अभिव्यक्ति
की पिपासा
साहित्य—सृजन
की प्रेरणा
बिन्दु मानी
जाए तो अत्युक्ति
नहीं होगी।
पत्रों में
सामान्य और
विशेष दोनों
ही परिस्थितियों
में मानव मन
की अभिव्यक्ति
होती है।
पत्रों को
साहित्य की
विधा मानने का
मुद्दा अब बहस
की बात नहीं
रही है। पत्र लेखन
नयी बात नहीं
है। यह मानव
सभ्यता के साथ—साथ
विकसित
प्राचीन कला
है।
किन्तु एक
विधा के रूप
में साहित्य
से इस कला का
संबंध मुख्यत:
आधुनिक युग
मैं ही
स्थापित हुआ
है। पत्र एक
लिखित संदेश
है, जो एक
या अनेक व्यक्तियों
की ओर से
अन्यत्र उस
व्यक्ति या उन
व्यक्तियों
के पास भेजा
जाता है,
जिसके पास कुछ
अभिव्यक्त
करना होता है।
यह संदेश बड़ा
भी हो सकता है,
और छोटा भी,
किंतु जब हम
साहित्य की
विधा के रूख
में किसी पत्र
को लेंगे, तो
उस समय पत्र
के प्रेषक को
तामिक महत्व देंगे
और साथ ही उसे
भी जिसके लिये
पल लिखा गया
हैं।
विधा
के रूप में
पत्र—साहित्य
केवल वही स्वीकार्य
है, जो
किसी
मह्त्वपूर्ण
साहित्यकार से
संबंधित हो। अर्थात
किसी प्रसिद्ध
व्यक्ति द्वारा
अन्य किसी बड़े
प्रसिद्ध
साहित्यकार
के लिये लिखे
गये पत्र ही
साहित्य की विद्या
में परिगणित होता
है, किंतु यह
अनिवार्य
शर्त नहीं है।
सामान्य
पाठकों के
पत्रों का भी साहित्यक
विद्या के रूप
में अध्ययन किया
जाना चाहिए। इस
दृष्टि से उन
पत्रों को भी पत्र—विद्या
में ग्रहण किया
जाना चाहिए जिनका
संदेश साहित्यिक
दृष्टि से
मूल्यवान हो।
महान व्यक्तियों
का सामान्य
पत्र उनकी
मानसिकता, व्यक्तित्व
या रचना
प्रक्रिया आदि
पर प्रकाश डालता
है।
पत्र, व्यक्ति
निष्ठ होते
हुए भी
सार्वजनिक
जिज्ञासा का केंद्र
होता हे। हम बड़ी
आतुरता से निजी
पतों को पढ़ते
हैं और उतनी
ही जिज्ञासा से
दूसरों के पत्रों
को पढ़ना चाहते
हैं। अत: दूसरों
को जानने का
जितना अच्छा
साधन पत्र है,
उतना अच्छा
साधन उसका
फोटो नहीं है।
उसमें उसके व्यक्तित्व
का उद्घाटन
निष्कपटता के साथ
होता है।
पारस्परिक
मैत्री, आत्म
नैकट्य की
भावना से ओत—प्रोत
ऐसे पत्र
हमारे लिए
सदैव एक आकर्षण
का केन्द्र
होते हैं।
विश्व प्रसिद्ध
व्यक्तियों
द्वारा लिखे
गये पत्रों का
महत्व
स्वयंसिद्ध
ही है। उनके
द्वारा लिखी गई
पंक्ति भी
समाज की
अमूल्य धरोहर
है। ओशो आज के
युग में कितने
महान एवं क्रांतिकारी
रहे हैं यह
बताने की आवश्यकता
नहीं है।
संसार में अकेले
एक रचयिता के
साढ़े छ: सौ ग्रथों
की सूची विश्व
में एक 'रिकार्ड' माना जाता
है। ये सभी
ग्रंथ उनकी
परावाणी का
संकलन हैं। इस
तरह उनके ही
द्वारा लिखी
गई सामग्री का
मूल्य और अधिक
बढ़ जाता है। साठ
के दशाक में ओशो
ने अपने अनेक
स्नेही
भक्तों को
पत्र लिखे हैं।
उनके द्वारा
एक ही व्यक्ति
को लगभग चार
सौ पत्रों की
लम्बी संख्या
का एक अलग ही
महत्व स्थापित
होता है। मां
आनंदमयी
(श्रीमती
मदनकुंवर
पारख) एक ऐसी नारी
हैं जिनके साथ
ओशो का
पत्राचार 1960 से
लेकर 1966 तक सतत
होता रहा था।
ओशो का प्रारंभिक
ग्रंथ 'क्रांति—बीज'
मां आनंदमयी
को लिखे हुए
पत्रों के अंशो
का ही संकलन
है। पत्रों के
मध्य में आई
उनकी
दार्शनिक
बातों को ही 'क्रांतिबीज'
मैं सम्मिलित
किया गया है।
ओशो के
प्रेमी और भक्तों
की करोड़ों में
संख्या है। वे
अपने गुरु, भगवान, कल्याण
मित्र ओशो के
द्वारा लिखी
गई हर बात को
जानने के लिए
जिज्ञासु
रहते हैं। उत:
मां आनंदमयी
के पत्रों को
बिना संपादित
किये ज्यों के
त्यों हमने
यहां
प्रकाशित
किया है। इससे
उन दौनों के
जीवन की अंतरंगता
को हम समझ
सकते हैं। ओशो
के जीवन में आई
'अनेक घटनाओं
की मां आनंदमयी
साक्षी रही हैं।
ओशो के पत्रों
से उनके जीवन
की अनेक विचार—
सारणी हमारे
सामने प्रकट होती
है, जिससे
उनके जीवन के
कई पहलू हमारे
सामने खुलते
जाते हैं। मां
आनंदमयी के
प्रति, उनका
प्रेम, विश्वास
और अंतरंगता
के हमें दर्शन
होते हैं।
प्रारंभिक
प्रयतनों की
यात्राओं में
मा का साहचर्य
उनके लिए उनके
जीवन का
महत्वपूर्ण
और अनिवार्य
पहलू होता था।
मेरे मित्र थी
शिवचंद्रजी
नागर ने एक
बार मुझसे कहा
था—''जिस
प्रकार कहानी
कहने वाले के
लिए सबसे बड़ी 'प्रेरणा
सहानुभूतिपूर्ण
श्रोता का
मिलना है; उसी
प्रकार पत्र लिखनेवाले
के लिए सबसे
बड़ी प्रेरणा
यही है कि
जिसे वह पत्र
लिख रहा है
उसमें उसे एक
ऐसा
सहानुभूतिशील
मन मिल जाये
जिसमें वह अपनी
आवाज की
प्रतिध्वनि
सुन सके, अपने
'भावों और
विचारों की
प्रतिकृति
देख सके और अपनी
दुर्बलताओं
की धरोहर
विश्वासपूर्वक
रख सके, जिसका
व्यक्तित्व
एक ऐसा दर्पण
हो जो पत्र लिखनेवाले
की चेतना की
किरणों को
कुंठित न कर
दे; बल्कि
उन्हें शत—सहस्रगुनी
शक्तिशाली
बनाकर लौटा दे।''
मां आनंदमयी
के
व्यक्तित्व में
ओशो (रजनीश) को
ऐसा ही मन और
ही ऐसा व्यक्तित्व
अनायास मिल
गया था अत: ओशो
के इन पत्रों
को लिखाने का
सारा श्रेय
उन्हें ही है।
इन
पत्रों के
केन्द्र में
मानव जीवन में
दिव्यता की
साधना ही रही
है। ''जो
भी मेरे पास
है, जो भी
मैं हूं उसे अमृत
के, दिव्य
के, भागवत
चैतन्य के
बीजों के रूप
में बांट देना
चाहता हूं।
ज्ञान से जौ
पाया जाता है,
प्रेम से
परमात्मा हुआ
जाता है।
ज्ञान साधना
है, प्रेम
सिद्धि है।''
ओशो के
इन शब्दों में
उनका हृदय समाहित
हैं। उनके
शब्दों में
उनकी आंखों
में उनकी
प्रत्येक श्वासों
में प्रेम ही
वे लुटा रहे हैं।
उनका जीवन आलौकिक
आनंद और
सौंदर्य का
आगार बन गया
था और जिनके
द्वारा वे
चाहते हैं कि
सबके जीवन में
भी आलोक के
पुष्प
पल्लवित और सुवासित
हो सकें।
प्रातः, दोपहर, संस्था,
रात्रि, अर्धरात्रि,
ट्रेन में,
प्रतीक्षालय
से जब ओशो के
मन में मां से
मिलने की घुमड़न
होती थी वे
तुरन्त पत्र
के द्वारा
उनसे मिलने
पहुंच जाते थे।
दार्शनिकता
के, बीचों—बीच
में घर परिवार
संबंधी जो
बातें जिन
व्यक्तियों
का ओशो जिक्र
करते हैं उनके
बारे में जानकारियां
ग्रहण करते
हैं यह मां के
साथ उनके गहरे
सामीप्य का ही
परिचायक है।
इनकी पढ़कर
पाठक निश्चय
ही अभिभूत हो
जाता है। अपने
श्रद्धेय के
जीवन के
कार्यकलापों
को पढ़कर एक
क्षण के लिए
वह ठगा सा
सोचता ही रह
जाता है। क्या
ओशो हम जैसे
ही हाड़मांस
के इसी लोक के
व्यक्ति थे? क्या वे आम
साधारण मानव
के समान ही
किसी से मिलने
के लिए, उसकी
गोद में सोने
के लिये उतनी
ही व्याकुलता से
प्रतीक्षारत
रहा करते थे? ऐसे अनेक
लौकिक
प्रश्नों का
समाधान ये
सारे पत्र
हमें दे जाते
हैं। ओशो आज
एक अलौकिक
व्यक्तित्व
हमारे लिए बन
चुके हैं। कुछ
वर्षों के
उपरांत लोग
उन्हें राम, कृष्ण और
बुद्ध जैसा ही
अवतारी
व्यक्ति मानने
लगेंगे तब अनेकानेक
चमत्कारी
बातें उनके
जीवन से जुड़ती
चली जायेगी। ओशो
तो चमत्कारों
के सादा खिलाफ
रहे हैं। अपने
खुद के संबंध
में भी इस
प्रकार की ऊल—जलूल
चमत्कारी
बातें वे कभी पसंद
नहीं करेंगे।
वे तो
प्रत्येक
व्यक्ति में
संभावनाओं की आहट
सुनते रहे हैं।
प्रत्येक
मानव में
क्रांति को
सुसंगति वे पाते
रहे हैं। हर
चेतना मैं भगवत्ता
प्राप्ति के
गुण छिपे हैं।
अपनी चेतना को
विकसित करके
हम सभी वहां
पहुंच सकते
हैं जहां ओशो
पहुंचे हैं। ये
पत्र हमें बार—बार
पढ़ने के लिए निमंत्रण
देते रहेंगे—।
उन्हें इसी
लोक का प्राणी
बनाऐ रखने के
लिए इन्हें
प्रकाशित
करना भी अनिवार्य
हो गया सा
लगता है।
जितना
विराट
व्यक्तित्व
ओशो का रहा है
उतनी विराटता के
दर्शन हम मां
आनंदमयी में भी
पा सकते हैं।
अपनी विराट
बातों को कहने
के लिए उन्होंने
किसी विराट
व्यक्ति को खोजा
था जिसके
माध्यम से
प्रत्येक
मानव की जीवन—धरती
पर वे
क्रांतिबीज
बो सकें। बरखा
के सृजन में
पवन का कार्य
सागर के वाष्पीभूत
के जल को
पर्वत श्रृंखलाओं
और आकाश तक ले
जाने का होता
है। प्यासी
धरित्री की
प्यास तो
अमृतमय नीर से
बुझती है।
इसके लिए ओशो
की लेखनी और
मां आनंदमयी
के हम चिर ऋणी
रहेंगे। ओशो
की लेखनी से
सर्जित सारे
पत्र मोतियों
के समान एक सी
बुनावट के हैं।
सबसे पहले
उन्हें देखकर
प्रत्येक
शिष्य अभिभूत
हो जाता है।
उनके लेखन मैं
अधिकांशत: ओशो
ने काली
स्याही का ही
प्रयोग किया है।
ओशो ने पत्र
को एक बार जो
लिखना शुरू किया
है तो उसे अंत
में 'रजनीश
का प्रणाम' पर जाकर ही
समाप्त किया
है। भावनाओं
की शृंखला
कहीं भी खंडित
नहीं होती। इसलिए
शब्दों में
कहीं कांटछांट
भी नहीं है।
भावना
के पवित्र भोज—पत्रों
में रचे गये ये
वेद और उपनिषद
प्रीति की अमर
कहानी सुनाते
प्रतीत होते
हैं। मां आनंदमयी
के हम चिरऋणी रहेंगे
जिन्होंने
इन पत्रों को
आज तक बड़े ही
सहज का रखा है।
लाखों भक्तों के
ह्रदय के समीप
ये भोज—पत्र पहुंच
सके, इसके
लिए मुझे अधिकार—
देकर एक बहुत
वडा उपकार
किया है।
पुत्र अपनी मां
के दूध के लिए उसे
धन्यवाद भी तो
नहीं दे सकता।
प्रकाशन के
लिए डायमडं
पाकेट बुक्स के
प्रबंध निदेशक
श्री
नरेन्द्र
वर्मा स्वयं आगे
आए और साथ में
श्री गजानन
पराते एवं
किशोरानंद ने
समय—समय पर
अपने स्नेह का
जो सम्बल दिया,
इसके लिए
मैं उनका
कृतज्ञ हूं।
आप सभी को आनंद—लोक
में ले जाने
के लिए भावना के
ये भोजपत्र
प्रस्तुत कर
रहा हू।
दिनांक 11
दिएसम्बर 2001
—विकल
गौतम
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