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मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

सुन भई साधो--(प्रवचन--18)

शिष्यत्व महान क्रांति है—(प्रवचन—अट्ठारहवां)
दिनांक: 18 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
गूंगा हूवा बावला, बहरा हूवा कान।
पाऊं थैं पंगुल भया, सतगुरु मारया बान।।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं परंत
कहैं कबीर गुरु ग्यान थैं, एक आध उबरंत।।

पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुरु दाव बताइया, खेलै दास कबीर।।

कबिरा हिर के रुठते, गुरु के सरने जाय।
कह कबीर गुरु रुठाते, हरि नहिं होत सहाय।।

या तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान।।

ज्यां जैकस रूसो ( का एक प्रसिद्ध वचन है—वचन है कि मनुष्य स्वतंत्रता में पैदा होता है और परतंत्रता में जीता है। यह वचन बहुत गहरा नहीं है।
ऊपर से देखने पर ऐसा ही लगता है कि मनुष्य स्वतंत्रता में पैदा होता है, और फिर समाज, राजनीति, सभ्यता, संस्कृति, हजार तरह की परतंत्रताओं में उसे बांध देती हैं।
और गहरे देखने पर पता चलता है कि मनुष्य परतंत्रता में ही पैदा होता है। जो स्वतंत्र है, वह तो फिर पैदा होता ही नहीं; उसका तो फिर आवागमन नहीं होता। जो बंधा है, वही संसार में आता है। जो अनबंधा है, उसके आने का उपाय ही समाप्त हो जाता है। बंधन ही संसार में लाता है।
इसलिए बच्चे भी परतंत्रता में ही पैदा होते हैं; यद्यपि बच्चे बेहोश हैं और उन्हें अपनी परतंत्रता का पता लगते—लगते समय बीत जाएगा। जब उन्हें पता चलेगा कि वे परतंत्र हैं, तभी वे जानेंगे। यह देरी इसलिए होती है जानने में कि बच्चे के पास अपना कोई होश नहीं है; जब होश आएगा तभी पता चलेगा कि मैं परतंत्र हूं।
और बहुत थोड़े—से लोग ही जान पाते हैं कि वे परतंत्र हैं। अधिक लोग तो ऐसे ही जी लेते हैं जैसे वे स्वतंत्र थे। परतंत्र ही मरते हैं, परतंत्र ही पैदा हुए थे: और परतंत्रता का चाक चलता ही रहता है। परतंत्रता राजनैतिक हो तो मोड़ देना बहुत आसान है। हजारों राजनीतिक क्रांतियां होती रहती हैं, आदमी की परतंत्रता नहीं टूटती। परतंत्रता आर्थिक हो तो समाजवाद, साम्यवाद उसे मिटा देते; लेकिन रूस और चीन में नई परतंत्रताएं निर्मित हो गईं। और मजे की बात तो यह है कि नई परतंत्रता की जंजीर पुरानी परतंत्रता से मजबूत होती है। पुरानी परतंत्रता की जंजीरें तो जीर्ण—शीर्ण हो जाती हैं; नई जंजीर बिलकुल अभी—अभी ढाली होती है, ज्यादा मजबूत होती है। लेकिन नई परतंत्रता को आदमी स्वीकार कर लेता है स्वतंत्रता के खयाल से, और जंजीर से आभूषण समझ लेता है। थोड़े दिन चलता है यह नशा, फिर टूट जाता है। फिर क्रांति की जरूरत आ जाती है।
बाहर के जगत में रोज क्रांति की जरूरत रहेगी; और क्रांति कभी होगी नहीं: असली परतंत्रता भीतरी है; न राजनीतिक है, न आर्थिक है, न सामाजिक है। असली परतंत्रता आध्यात्मिक है। तुम परतंत्र हो; तुम्हें किसी ने परतंत्र बनाया नहीं है। तुम्हारे जीवन का ढंग ही परतंत्रता को पैदा करनेवाला है। तुम स्वतंत्र होने को तैयार ही नहीं हो, स्वतंत्र होने की क्षमता और साहस ही तुममें नहीं है। इसलिए कौन तुम्हारे लिए परतंत्रता की जंजीरें ढाल देगा, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता; कोई न कोई ढालेगा। तुम्हारी जरूरत है परतंत्रता। इसलिए मैं कहता हूं रूसो की तरह, हर आदमी परतंत्र ही पैदा होता है। और करोड़ में कभी कोई एक व्यक्ति जानता है कि वह परतंत्र है; शेष तो परतंत्रता में ही जीते हैं और परतंत्रता में ही समाप्त हो जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि वे परतंत्र थे।
और यह पता ही न चले कि हम परतंत्र हैं, तो स्वतंत्रता का उपाय कैसा? फिर तुम परतंत्र लोगों की भीड़ में ही जीते हो। वहां कौन तुमसे कहेगा? वे सभी कारागृह के कैदी हैं। उनमें से किसी ने भी स्वतंत्रता को चखा नहीं। उन्हें कुछ भी पता नहीं है उस मुक्त आकाश का। वे अपने पंखों पर कभी उड़े नहीं। वे सभी पिंजरों में बंद कैदी हैं। उनमें से किन्हीं के पिंजरे लोहे के हैं—वे गरीब कैदी हैं; किन्हीं के पिंजरे सोने के हैं—वे अमीर कैदी हैं। किसी के पिंजरों में हीरे—जवाहरात लगे हैं—वे सम्राट कैदी हैं; लेकिन कैदी सभी हैं, और सभी ने उड़ने की क्षमता खो दी है। आज अचानक कोई पिंजरे का द्वार भी खोल दे, तो भी तोता उड़ेगा नहीं; उड़ना ही भूल गया है। पिंजरा ही तो नहीं उसे परतंत्र बना रहा है; अब तो परतंत्रता और भी गहन है—पंखों ने उड़ने की क्षमता खो दी है, भरोसा भी खो दिया है। और अगर उड़ भी जाए तोता, तो मुश्किल में पड़ेगा। पिंजरे में तो जिंदा रह सकता था; बाहर जिंदा न रह सकेगा; बाहर के संघर्ष को सह न सकेगा।
हजार पक्षी हैं...बाहर मार डाला जाएगा। पिंजरे में तो प्राण बचे थे; परतंत्रता ही सही, लेकिन सुरक्षा थी। बाहर सुरक्षा भी नहीं है। और जो उड़ नहीं सकता है ठीक से अपने पंखों पर, वह कहीं भी किसी का भी शिकार हो जाएगा। पिंजरे में रहा तोता, मुक्त होकर केवल मरता है; परतंत्र होकर जी सकता है। इसलिए तो परतंत्रता छोड़ने में इतनी घबड़ाहट होती है। क्योंकि परतंत्रता अगर अकेली परतंत्रता होती तो उसे कभी का तोड़ देते। वह सुरक्षा भी है। वह जीवन को बचाने की व्यवस्था भी है। वह पिंजरे के चारों तरफ लगे हुए सींकचे तुम्हें उड़ने से ही नहीं रोक रहे हैं, शत्रुओं को भी भीतर आने से रोक रहे हैं। उनका काम दोहरा है।
स्वतंत्र होने के लिए पहले तो प्रशिक्षण चाहिए—पिंजरे के भीतर ही, पहले तो कोई सिखानेवाला चाहिए, जो पंखों का बल लौटा दे, जो भीतर की आत्मा को आश्वस्त कर दे। इसके पहले कि तुम उड़ो खुले आकाश में, कोई चाहिए जो तुम्हें खुले आकाश में उड़ने की योग्यता दे दे। गुरु का वही अर्थ और प्रयोजन है। गुरु का अर्थ है: कारागृह में तुम्हें कोई मिल जाए, जिसने स्वतंत्रता का स्वाद चखा है। कारागृह के बाहर तो बहुत लोग हैं, जिन्हें स्वतंत्रता का स्वाद है; लेकिन वे कारागृह के बाहर हैं, उनसे तुम्हारा संबंध न हो सकेगा। बुद्ध हैं, महावीर हैं, कृष्ण हैं, क्राइस्ट हैं—अब सब कारागृह के बाहर हैं। अब उनसे तुम्हारा मिलन नहीं हो सकता। वे कारागृह के भीतर नहीं आ सकते, क्योंकि वे परिपूर्ण स्वतंत्र हो गए हैं। अब उनका जन्म नहीं हो सकता। तुम कारागृह के बाहर नहीं जा सकते, क्योंकि बाहर जाने की योग्यता ही होती तो कृष्ण का और क्राइस्ट का और राम का और महावीर का सहारा ही जरूरी न था।
गुरु का अर्थ है: ऐसा व्यक्ति जो अभी कारागृह में है और मुक्त हो गया है। उसकी भी नाव किनारे आ लगी है। जल्दी ही वह भी यात्रा पर निकल जाएगा। थोड़ी देर और वह किनारे पर है। वह तुम्हारे ही जैसा है; लेकिन अब तुमसे बिलकुल भिन्न हो गया है। तुम जहां खड़े हो, वहीं वह खड़ा है। जल्दी ही तुम उसे वहां न पाओगे; क्योंकि जिसके पंख पूरे खुल गए, जिसकी उड़ने की तैयारी पूरी हो गई और जिसने स्वतंत्रता का स्वाद भी चख लिया, अब वह ज्यादा देर परतंत्रता में न रुक सकेगा। थोड़ी देर और, वह अपनी नाव पर सवार हो जाएगा। फिर वह भी कारागृह के बाहर होगा।
तो गुरु का क्या अर्थ है?
गुरु का अर्थ है: ऐसी मुक्त हो गई चेतनाएं जो ठीक बुद्ध और कृष्ण जैसी हैं, लेकिन तुम्हारी जगह खड़ी हैं—तुम्हारे पास। कुछ थोड़ा सा ऋण उनका बाकी है—शरीर का, उसके चुकने की प्रतीक्षा है। बहुत थोड़ा समय है यह।
बुद्ध को चालीस वर्ष में ज्ञान हुआ। चालीस वर्ष वे और रुके। उन चालीस वर्षों में उनके शरीर के जो ऋण शेष थे, वे चुक गए। ऋण चुकते ही नाव खुल जाएगी। फिर तुम उन्हें खोज न पाओगे। फिर वे जैसे धुआं विलीन हो जाता है आकाश में, ऐसे ही विलीन हो जाएंगे। जैसे गंध उड़ जाती शून्य में, वैसे वे उड़ जाएंगे। फिर तुम उन्हें कहीं भी खोज न पाओगे। फिर तुम्हें कहीं उनकी रूपरेखा न मिलेगी। फिर उनका स्पर्श संभव न होगा।
मुक्त हो जाने के बाद शरीर का ऋण चुकाने की जो थोड़ी सी घड़ियां हैं, उन थोड़ी ही घड़ियों में गुरु का उपयोग हो सकता है। फिर तुम लाख महावीर को चिल्लाते रहो, फिर तुम लाख बुद्ध को पुकारते रहो—बहुत सार्थकता नहीं है।
सदगुरु का अर्थ है: मध्य के बिंदु पर खड़ा व्यक्ति, जिसका पुराना संसार समाप्त हो गया, नया शुरू होने को है। पुराने का आखिरी हिसाब—किताब बाकी है—वह हुआ जा रहा है; जैसे ही वह पूरा हो जाएगा...। भीतर से तो बात समाप्त हो गई; लेकिन शरीर के संबंध उतने जल्दी समाप्त नहीं होते। शरीर पैदा हुआ था सत्तर साल या अस्सी साल जीने को। मां—बाप के शरीर से उसे अस्सी साल जीने की क्षमता मिली थी; और व्यक्ति चालीस साल में मुक्त हो गया, तो शरीर की क्षमता चालीस साल और शरीर को बनाए रखेगी। अब वह जिएगा मृत्यु की भांति: यहां होगा और नहीं होगा।
गुरु एक पैराडॉक्स है, एक विरोधाभास है: वह तुम्हारे बीच और तुमसे बहुत दूर; वह तुम जैसा और तुम जैसा बिलकुल नहीं; वह कारागृह में और परम स्वतंत्र। अगर तुम्हारे पास थोड़ी सी भी समझ हो तो इन थोड़े क्षणों का तुम उपयोग कर लेना, क्योंकि थोड़ी देर और, फिर तुम लाख चिल्लाओगे सदियों—सदियों तक, तो भी तुम उसका उपयोग न कर सकोगे।
और आदमी अदभुत है। जब बुद्ध मौजूद होते हैं, तब वह उन्हें चूक जाता है। तब वह निर्णय ही नहीं कर पाता। तब वह यह सोचता है: कल निर्णय कर लेंगे, परसों निर्णय कर लेंगे; और फिर सदियों तक रोता है। पर वे सब आंसू मरुस्थल में खो जाएंगे। उन आंसुओं से कोई सार नहीं। वह आंसू प्रार्थनाएं नहीं, पश्चाताप दे सकते हैं। उन आंसुओं से साधना न जन्मेगी। उनसे अतीत में जो तुम चूक गए हो, उसका पश्चाताप तो प्रगट होता है, लेकिन बुद्ध के साथ कोई सेतु न बन सकेगा। खोजना पड़ेगा तुम्हें किनारे पर कोई और जिसकी नाव आ लगी है; पूछना पड़ेगा उससे, समर्पित होना होगा उसके प्रति; उसके हाथ में अपने को छोड़ देना होगा। समर्पण की इसलिए जरूरत पड़ जाती है कि उसकी भाषा और, तुम्हारी भाषा और। और उसके पास ज्यादा समय नहीं है कि तुम्हें समझाए। तुम्हारे पास तो बहुत समय है समझने को, क्योंकि बहुत बार जन्मोगे; पर उसके पास ज्यादा समय नहीं समझाने को। जो बिलकुल समझने को तैयार हैं, उसको ही वह समझा सकेगा। उसके पैर तो पड़ चुके हैं शरीर के बाहर जाने को; अब गया, तब गया।
बुद्ध का एक नाम है: तथागत। तथागत का मतलब होता है: अब गया, तब गया; जैसे हवा का झोंका आता है—और आया और गया!
मैं एक कविता पढ़ रहा था। शब्द का खेल मुझे प्रीतिकर लगा। वसंत पर किसी ने एक कविता लिखी और मुझे भेजी। पहली पंक्ति है: वसंत...आ गया। दूसरी पंक्ति है: वसंत आ गया। ठीक लगा। इतनी ही देर है। वसंत आ गया और वसंत आ...गया। इतनी ही देर में गुरु को खोज लिया, खोज लिया। बस आ गया और आ...गया के बीच जितना फासला है उतना ही फासला है। हवा की एक लहर; पकड़ लिया; पकड़ लिया, हो गए सवार उस पर, हो गए सवार; चूक गए, चूक गए! फिर पछताने से कुछ भी नहीं होता।
मनुष्य कारागृह में है। कोई चाहिए जो कारागृह में हो और जिसने स्वतंत्रता जान ली हो—ऐसा ही अनूठा जोड़ गुरु है। कारागृह में तुम्हें कौन बताएगा बाहर जाने का राज? जो कारागृह के ही वासी हैं उन्हें कारागृह का सब पता होगा; लेकिन बाहर जाने का कोई द्वार उन्हें पता नहीं। उन्हें यह भी पता नहीं कि बाहर कुछ है भी। उन्हें यह भी पता नहीं कि बाहर जाना हो सकता है। और उन्हें पता भी चल जाए तो भी बाहर उन्हें डराएगा, भयभीतर करेगा।
सौ वर्ष पहले फ्रांस के क्रांतिकारियों ने फ्रांस का एक किला तोड़ दिया—बस्टील। उसमें बड़े जघन्य अपराधी थे। वह फ्रांस के सबसे बड़े अपराधियों के लिए कारागृह था। कोई चालीस साल से बंद था, कोई पचास साल से। किसी ने रजत—जयंती पूरी कर दी थी, किसी ने स्वर्ण—जयंती भी पूरी कर दी थी। वहां आजन्म कैदी थे। उनके हाथों पर बड़ी मजबूत जंजीरें थीं। क्योंकि वे मरने के बाद ही खुलनेवाली थीं। उनमें कोई ताला नहीं था, कोई चाबी नहीं थी। वे तो जब कैदी मर जाता था तो उसके हाथ को तोड़कर ही बाहर निकाली जाती थीं। उनके पैरों में भयंकर बेड़ियां थीं, जिनको एक आदमी के बस के बाहर था कि उठा ले। चलना भी उनके लिए संभव न था। वे अपने कारागृह की कोठरियों में, अंध कोठरियों में—जहां न तो बाहर का आकाश दिखाई पड़ता, न कभी बाहर की सूरज की कोई झलक आती, न कोई हवा का झोंका बाहर की खबर लाता। वसंत आए कि पतझड़, भीतर सब एक सा ही अंधेरा बना रहता। सुबह हो कि रात, कुछ भेद नहीं होता। उनकी अंध कोठरियों में बंद कीड़े—मकोड़ों की तरह वे जीए थे।
क्रांतिकारियों ने किला तोड़ दिया और क्रांतिकारियों ने सोचा कि बड़े अनुगृहीत होंगे कैदी, अगर हम उन्हें मुक्त कर देंगे। उन्होंने मुक्त कर दिया लेकिन कैदियों ने बड़ी नाराजगी जाहिर की। कैदियों ने कहा, हम बाहर नहीं जाना चाहते। पचास साल से मैं यहां हूं। किसी कैदी ने कहा, और अब बाहर जाना? अब फिर से दुनिया में उतरना?—इस उम्र में थोड़ा कठिन है। यहां तो समय पर खाना मिल जाता है। सब व्यवस्थित जीवन है। वहां बाहर कहां रोटी कमाऊंगा, कहां छप्पर खोजूंगा सोने के लिए? और फिर मेरी आंखें अंधेरे की आदी हो गई हैं, प्रकाश में बहुत पीड़ा पाएंगी। और फिर यह देह जंजीरों से सहमत हो गई है; बिना जंजीरों के तो मैं सो भी न पाऊंगा। ये जंजीरें तो मेरे शरीर का हिस्सा हो गई हैं—पचास साल, पूरा जीवन!
लेकिन क्रांतिकारी किसी की सुनते हैं? क्रांतिकारी तो क्रांति पर उतारू रहते हैं। उन्हें इससे मतलब ही नहीं कि क्रांति जिसके लिए कर रहे हैं, वह राजी भी है या नहीं। उन्हें क्रांति करनी है, वे क्रांति करके ही माने। उन्होंने जबर्दस्ती कैदियों की जंजीरें तुड़वा दीं, उनको बाहर निकाल दिया। आधे कैदी रात वापस लौट आए, और उन्होंने कहा, हमारी कोठरियां हमें वापस दो। बाहर बहुत घबड़ाहट लगती है। न कोई प्रियजन है, न कोई परिचित रहा अब। कहां खोजें? सब पता—ठिकाना खो गया है। और बाहर की दुनिया इतनी बदल गई है। हम जब छोड़कर आए थे तो कोई और ही दुनिया छोड़कर आए थे; यह तो कुछ और ही हो गया है। और शोरगुल और आवाज—बड़ी अशांति मालूम पड़ती है, और बड़ी असुरक्षा। न हमें कोई जानता, न हम किसी को जानते। हमारी भाषा और, उनकी भाषा और। अब तालमेल नहीं बैठेगा।
अगर दरवाजा खुला भी हो कारागृह का—और मैं कहता हूं खुला है, उस पर कोई पहरेदार नहीं बैठे—तो भी तुम दरवाजे को देखते नहीं। दिख भी जाए तो तुम बचकर निकल जाते हो; क्योंकि तुम्हारी बेड़ियों में तुम्हारी सुरक्षा है। और फिर तुमने धीरे—धीरे अपने कारागृह को खूब सजा लिया है। और अब वह घर जैसा है। तुमने दीवारों पर रंग—रोगन कर लिया है, फूल—बूटे बना लिए हैं, लाभ—शुभ लिख लिया है। तुमने बिलकुल घर बना लिया है अब कहां तुम्हें घर से उजड़ने की हिम्मत रही। तुम पूरे सुरक्षित हो गए हो अपनी परतंत्रता में। भला वह कब्र हो, लेकिन तुमने उसे अपना शयनकक्ष बना लिया है। भला वहां तुम सिर्फ मर रहे हो, जी नहीं रहे हो; फिर भी जीने का भय मालूम होता है, बाहर जाने में घबड़ाहट लगती है।
कौन तुम्हें बाहर ले जाए?
जिन कैदियों के साथ तुम हो, वे भी तुम जैसे ही कैदी हैं। तुम एक—दूसरे का पारस्परिक सहयोग करते रहते हो। कैदी एक—दूसरे को कहते रहते हैं, यह कोई कारागृह थोड़े ही है, नौ लाख का सरकारी भवन है। कैदी एक—दूसरे को समझाते हैं कि हम कोई कैदी थोड़े ही हैं, अतिथि हैं, सरकारी अतिथि!
कैदी एक दफा कारागृह में रह आए तो फिर वापस बार—बार लौटता है, बाहर अच्छा नहीं लगता; जल्दी कोई उपाय करके फिर लौट आता है। दुनिया उसकी भीतर है; प्रियजन, सगे—संबंधी भीतर हैं; असली परिवार भीतर है। कारागृह के लोग अपने को समझा लेते हैं कि वे बड़े प्रसन्न हैं, बड़े आनंदित हैं।
तुमने भी ऐसे ही अपने को समझा लिया है। दुख हो तो तुम कहते हो, यह कोई दुख थोड़े ही है। सुख के लिए तो दुख झेलना ही पड़ता है। यह तो सुख पाने का उपाय है। तुम आशा को नहीं मिटने देते। आशा तुम्हारे कारागृह पर सुख का सपना बनकर छाई हुई है। रात हो अंधेरी तो तुम कहते हो कि सुबह होने के करीब है। हालांकि सुबह तुम्हारे जीवन में कभी नहीं हुई, रात ही रात रही है; लेकिन तुम अपने को समझा लेते हो, कि जब गहन अंधेरी रात होती है, तो सबूत है कि सुबह होने के करीब है। और तुमने ऐसी कहावतें बना ली हैं कि अंधेरे से अंधेरे, काले से काले बादल में भी छिपी हुई रजत—रेखा की भांति बिजली है; और हर कांटे के पास गुलाब का फूल है। चिंता है थोड़ी, माना; लेकिन हर चिंता के बाद आनंद की संभावना है।
आशा कारागृह के बाहर नहीं जाने देती: पता नहीं, तुम बाहर जाओ तभी कुछ घट जाए! आशा तुम्हें भीतर बांधे रखती है। कोई पहरेदार नहीं है तुम्हारे कारागृह पर; आशा का पहरा है। तुम अपने ही कारण भीतर रुके हो। और भीतर सभी कैदी एक—सी भाषा बोलते हैं। वे सब एक—दूसरे को संभाले रखते हैं।
कौन तुम्हें वहां जगाएगा?
गुरु का अर्थ है: जो कारागृह में रहा हो अब तक और अचानक जाग गया हो। गुरु का अर्थ है: जिसने किसी भीतर के मार्ग से कारागृह से बाहर होने का उपाय खोज लिया है। गुरु का अर्थ है: जिसने कोई सेंध लगा ली है, और जो बहार के खुले आकाश को देख आया है, फूलों की सुगंध ले आया है, पक्षियों के गीत सुन आया है; जो कारागृह के भीतर बाहर के आकाश के टुकड़े को ले आया है। वह तुम्हें जगा सकता है। वही तुम्हें होश दे सकता है, मार्ग दे सकता है। वही तुम्हें बाहर ले जाने का उपाय दे सकता है। और वही तुम्हें तैयार करेगा इसके पहले कि तुम बाहर जाओ; नहीं तो बाहर बड़ी घबड़ाहट है—तुम वापस लौट आओगे।
कारागृह में तैयारी करनी होगी। सारे साधन, सारी विधियां वस्तुतः मोक्ष की विधियां नहीं हैं, सिर्फ तुम्हारे पंखों को तैयार करने की विधियां हैं। मोक्ष तो अभी उपलब्ध है, लेकिन तुम अभी तैयार नहीं हो; तुममें और मुक्ति में तालमेल न हो सकेगा। और अगर तुम्हें आज धक्का भी दिया जाए मोक्ष कर तरफ तो तुम वापस अपने कारागृह में लौट आओगे और जोर से कारागृह को पकड़ लोगे, क्योंकि अभी खुला आकाश तुम्हें डराएगा। कोई तुम्हें कारागृह के भीतर तैयार करे, तुम्हारे पैरों को मजबूत करे, तुम्हारे हाथों को बल दे, तुम्हारे पंखों को सम्हाले, और तुम्हारे भीतर की श्रद्धा को सजग करे कि तुम्हें आत्मभाव जग आए, तुम अपने पर भरोसा कर सको; तुम इतने अपने आत्मविश्वास से भर जाओ कि बड़े से बड़ा आकाश भी तुम्हारे आत्मविश्वास से छोटा मालूम पड़े, तभी तुम बाहर जा सकोगे।
स्वतंत्रता कोई बाहर की घटना नहीं है, भीतर का भरोसा है। तुम इतने भीतर आनंदभाव से भर जाओ और इतने बल और आत्मभाव से आत्मभान से कि सब असुरक्षाएं तुम्हें कंपा न सकें; तुम निर्भय होकर असुरक्षाओं में गुजर सको; वस्तुतः हर असुरक्षा तुम्हें पंखों को फैलाने का एक अवसर बनने लगे; हर कठिनाई तुम्हारे लिए एक चुनौती हो जाए, हर आकाश का खुलापन तुम्हारे लिए और दूर तक उड़ने की दिशा बना जाए। इसके लिए कोई जो तुम्हें तैयार करे, वही गुरु है।
गुरु का अर्थ होता है: जो अब बस गया, गया, ज्यादा देर न रहेगा। इसलिए बहुत थोड़े लोग गुरु का लाभ ले पाते हैं। फिर अनेकों लोग उसकी पूजा करेंगे, उसके गीत गाएंगे सदियों तक। वह सब व्यर्थ है। उसका कोई सार नहीं है। वह पछतावा है। उससे तुम अपनी मूढ़ता तो प्रकट करते हो, लेकिन अपनी समझ नहीं।
कबीर के इन वचनों को समझने की कोशिश करो:
गूंगा हुवा बावला, बहरा हुवा कान।
पाऊं थैं पंगुल भया, सतगुरु मारया बान।।
जो गूंगा था, वह बोलने लगा।
तुम्हारे भीतर कुछ है जो बिलकुल गूंगा है। और जो तुम्हारे भीतर बोल रहा है, वह कोई बहुत सार्थक अंग नहीं है। तुम्हारा हृदय तो गूंगा है और तुम्हारी खोपड़ी बोले जाती है। और तुम्हारी खोपड़ी के बोलने में कुछ भी सार नहीं हैं। वह विक्षिप्त का उन्माद है। वह एक तरह की रुग्ण दशा है। वह सन्निपात है। अगर तुम बैठकर अपने मन को गौर से देखोगे तो तुम पओगे कि यह क्या बोल रहा है मन, क्यों बोल रहा है? इस कूड़े—कर्कट की चर्चा क्यों? मन क्षुद्र के आसपास घूमता है।
रामकृष्ण कहते थे, चील कितने ही ऊपर आकाश में उठ जाए, तो भी नजर उसकी कूड़ेघर पर पड़े हुए मरे जानवर पर लगी रहती है। आकाश में उड़ती हो, तो भी वह आकाश में उड़ नहीं सकती; नजर तो नीचे जमीन पर, जहां मांस का टुकड़ा पड़ा है, वहीं लगी रहती है। तुम्हारा मन अगर ईश्वर की भी बात सोचे, तो भी तुम गौर करना; तुम्हारी नजर कहीं मांस के टुकड़े पर, जमीन पर लगी होगी; तुम ईश्वर से भी मांस का टुकड़ा ही मांगोगे।
अगर ईश्वर मिल जाए—कभी तुमने सोचा? सोचने जैसा है, अगर ईश्वर मिल जाए, तो क्या मांगोगे? तुम्हारा मन बहुत—सी चीजें बताएगा; लेकिन सभी कचरे—घर में पड़े हुए मांस के टुकड़े होंगे। ईश्वर अगर मिल जाए तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम कुछ मांग ही नह पाओगे, अगर समझदार हो; अगर नासमझ हो तो कुछ कचरा मांगकर लौट आओगे। क्या मांगोगे?—इसी संसार का कुछ, इसी कूड़े—घर से कुछ।
तुम्हारा मन क्या सोचता रहता है, क्या मांगता रहता है? क्या चलती रहती है गुनगुन मन के भीतर? क्या है उसका सार—सूत्र? थोड़ा अपने मन को गौर करके देखो तो तुम पाओगे, सार तो कुछ भी नहीं, असार ही बकवास चलती रहती है। यह तुम्हारा बोलता हुआ हिस्सा है, मुखर हिस्सा।
कबीर कहते हैं, गूंगा हूवा बावला...। लेकिन गुरु के पास जाकर वह हिस्सा बोलना शुरू करता है जो अब तक चुप ही रहा था। अब तक तुमने उसे बोलने का मौका ही न दिया था। और निश्चित ही, अगर एक पागल आदमी और एक स्वस्थ आदमी की मुलाकात हो जाए, तो पागल आदमी स्वस्थ को बोलने का मौका ही न देगा। पागल तो आक्रामक होता है, हिंसात्मक होता है। पागल तो बके ही जाएगा, वह अवसर भी न देगा बोलने का।
यहूदी फकीर हुआ: बालसेन। उसके पास एक बकवासी आ गया। और फकीरों में कुछ गुण होता है कि बकवासियों को आकर्षित करते हैं। वह बकवासी कोई घंटे भर तक बकवास करता रहा। उसने बालसेन को इतना भी मौका न दिया कि वह कहे, बस करो भाई, इतना भी मौका न दिया। वह दो वाक्यों के बीच में संधि ही नहीं छोड़ता था। तो वह बोले ही जा रहा था। आखिर उसने एक बात कही कि मैं पड़ोस के दूसरे नगर के फकीर के पास भी गया था। उन्होंने आपके संबंध में कुछ बातें कही हैं। जरा—सी संधि मिल गई बालसेन को। उसने जोर से चिल्लाकर कहा, बिलकुल गलत। बिलकुल गलत। वह आदमी थोड़ा हैरान हुआ कि मैंने अभी बातें तो बताई ही नहीं कि फकीर ने क्या कहा; और आप पहले ही कहते हैं, बिलकुल गलत, बिलकुल गलत। बालसेन ने कहा, जब तूने मुझे मौका नहीं दिया बोलने का, उसको भी न दिया होगा। मैं मान ही नहीं सकता कि उसको तूने मौका दिया हो, और मेरे संबंध में वह कुछ बोल पाया हो। असंभव।
बकवासी और शांत व्यक्ति में बकवासी बोलता रहेगा। पागल और स्वस्थ में पागल बोलता रहेगा। सभ्य और असभ्य में असभ्य बोलता रहेगा।
तुम्हारे भीतर भी दोनों हैं। तुम्हारा असभ्य हिस्सा है तुम्हारा मन, और तुम्हारा सभ्य हिस्सा है तुम्हारा हृदय। मन उसे बोलने ही नहीं देता। वह चुप्पी साधे है। और वही तुम्हारा केंद्र है। मन तो तुम्हारी परिधि है। मन तो तुम्हारे बाजार का हिस्सा है; वहां उसकी जरूरत है। जीवन के गहन में मन का कोई भी काम नहीं है। न तो प्रेम में काम पड़ता है मन; न प्रार्थना में काम पड़ता है मन; न सत्य की खोज में काम पड़ता है मन; न अमृत की यात्रा में काम पड़ता है मन—हां, बाजार के सौदे में, सब्जी खरीदने में, सब्जी बेचने में काम पड़ता है; रुपये—पैसे इकट्ठे करने में, चोरी करने में काम पड़ता है।
मन व्यर्थ की साज—सम्हाल रखता है। उसकी भी जरूरत है। मगर वह तुम्हारे ऊपर फैल जाए पूरी तरह और एकाधिकार कर ले तो वह तुम्हारी गर्दन घोंट देगा। उसने गर्दन घोंट दी है। तुम भूल ही गए हो कि तुम्हारे पास हृदय भी है; और एक सुमधुर वाणी है तुम्हारे पास; एक और शांत स्रोत है; एक और संगीत का उद्गम है—जहां वाणी बहुत मृदुल है; जहां स्वर बहुत शांत है; जहां कुछ कहा कम जाता है और ज्यादा समझा जाता है; जहां बोलना कम है और जीना ज्यादा है; जहां करना कम है और होना ज्यादा है। एक गहनता है अस्तित्व की तुम्हारे हृदय में; वहां तुम्हारा केंद्र है।
गूंगा हूवा बावला, कबीर कहते हैं, सद्गुरु मारया बान। और जब गुरु ने बाण मारा तो जो हिस्सा गूंगा था सदा से, वह बोल उठा। और जब हृदय बोलता है, मन एकदम चुप हो जाता है। तुम मन को चुप करने की बहुत कोशिश करके सफल न हो पाओगे; ज्यादा बेहतर हो, तुम हृदय को सुविधा दो। इस पागल से मत ज्यादा उलझो। अपने भीतर गैर—पागलपन के सूत्र को खोजो। तुम्हारा ध्यान, तुम्हारी दृष्टि हृदय की तरफ मुड़े। धीरे—धीरे तुम पाओगे, जो आवाज नहीं सुनी जाती थी, वह सुनी गई। जो अंर्तध्वनि तुम भूल ही गए थे, वह मिट नहीं गई है; उसकी कल—कल धारा अब भी भीतर बहती है।
तुमने कभी विचार किया? रास्ते पर शोरगुल चल रहा है, भरा बाजार है, पक्षी एक बोल रहा है वृक्ष पर—तुम अगर आंख बंद करके पक्षी की तरफ ध्यान से सुनो। बाजार भूल जाएगा; और पक्षी की धीमी—सी आवाज इतनी तीव्र और प्रखर हो जाएगी कि तुम पाओगे, पूरे बाजार की आवाज भी उसे डुबा नहीं सकती। तुम्हारे ध्यान देने की बात है। तुम कभी अगर शांत बैठो और सिर्फ अपने हृदय की धड़कन सुनो, तो तुम पाओगे कि रास्ते पर चलते हुए ट्रेफिक का कारवां और सब तरफ का शोरगुल फीका पड़ गया; हृदय की धड़कन उस सब के ऊपर उठकर उभर जाएगी।
सिर्फ ध्यान की बात है। जिस तरफ ध्यान, उसी तरफ जीवन की वर्षा हो जाती है। तुम्हारा ध्यान अगर तुमने विचारों की तरफ लगा रखा है, तो तुम विक्षिप्त को ही सुनते चले जाओगे। और मन से ज्यादा बकवासी तुमने कहीं देखा और मन से ज्यादा उबानेवाला तुमने कभी देखा? मन से ज्यादा व्यर्थ चीज तुमने कहीं जीवन में पाई?
सद्गुरु मारया बान, गूंगा हूवा बावला, बहरा हूवा कान।
तुम सुनते हो, फिर भी सुन नहीं पाते। क्योंकि जिस कान से तुम सुनते हो, वह बाजार के लिए ठीक, ध्यान के लिए ठीक नहीं। कोई और कान चाहिए। सुनने की कोई और विधि चाहिए। सुनने का कोई और ढंग और शैली...।
ऐसे तो मैं बोल रहा हूं, तुम सुन रहे हो; लेकिन और तरह से भी सुना जाता है। जब कान ही नहीं सुनते, बल्कि तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व कान हो जाता है—बहरा हुआ कान—तुम्हारा रोआं—रोआं जो बहरा पड़ गया है; तुम्हारी श्वांस—श्वांस जो बहरी पड़ गई है; सिर्फ कान सुनता है और तुम्हारा पूरा देह, तन—मन, प्राण, सब बहरा है—ऐसे काम न चलेगा। उस विराट को सुनना हो तो तुम्हें पूरा कान ही हो जाना पड़ेगा। महावीर ने यही श्रावक की परिभाषा की है। जिसका पूरा व्यक्त्तित्व कान हो जाए, वह श्रावक। जिसका पूरा व्यक्तित्व आंख हो जाए, वह द्रष्टा। जिसका पूरा व्यक्तित्व हृदय की धड़कन हो जाए, वह प्रेमी। खंड—खंड से काम न चलेगा। पूरा अखंड होकर कुछ भी कर लो, उसी से छुटकारा हो जाएगा। इसे तुम सूत्र मानो: जिस चीज को तुम अखंड होकर कर लोगे, वही तुम्हें इस कारागृह के बाहर ले जाने का द्वार हो जाएगी।
बहरा हूवा कान—सारा शरीर अब तक बहरा था, वह पूरा का पूरा कान हो गया—सद्गुरु मारया बान।
पाऊं थैं पंगुल भया...। और अब तक तो हिस्सा पक्षाघात से पंगुल पड़ा था, हिलडुल न सकता था, अचानक चलने लगा।
इस पद की मैं ऐसी व्याख्या करता हूं। और व्याख्याएं हैं, वे मुझे बचकानी लगती हैं। वे व्याख्याएं ये हैं कि जो गूंगा था, वह बोलने लगा; जो बहरा था, वह सुनने लगा; जो लंगड़ा था, वह चलने लगा—ऐसा गुरु का चमत्कार है। गुरु कोई सत्य सांईबाबा नहीं। और इस तरह की व्याख्याएं एकदम बचकानी हैं।
इस पद का वचन गहरा है। चमत्कार बच्चों को लुभाने की बातें हैं, सड़क के किनारे जादूकर कर रहा है। उनसे कुछ आत्मक्रांति का सेतु नहीं बनता। बड़ा चमत्कार यही है कि तुम्हारे भीतर जो बोलता नहीं अंग, वह बोलने लगे। गूंगा बोलने लगे, यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं है। यह विज्ञान ही कर लेगा। इसके लिए संतों की कोई जरूरत नहीं है। और बहरा सुनने लगे, यह तो दस—बीस रुपये का यंत्र खरीदकर भी हो जाएगा। इसके लिए कबीर जैसे गुरु को उलझाने की जरूरत नहीं है। और पक्षाघात ठीक हो जाए, यह तो साधारण इलाज की बात है। लेकिन एक और पक्षाघात ाहै, जिसे कोई विज्ञान ठीक न कर सकेगा। एक और आत्मा है तुम्हारे भीतर जो पत्थर जैसे हो गई है, जिसको पिघलाना है, जिसको चलाना है, जिसको पैर देने हैं। वह कौन करेगा? अगर गुरु भी अस्पतालों का ही एक्सटेंशन हो, उन्हीं का ही काम कर रहे हो, तो फिर दूसरा काम कौन करेगा? नहीं, गुरु का कोई चिकित्सक नहीं है, या चिकित्सक है तो अज्ञात का।
तुम्हारे भीतर ये सारी घटनाएं हैं। तुम यह मत सोचना कि किन्हीं गूंगों, बहरों और लंगड़ों के संबंध में चर्चा हो रही है; यह चर्चा तुम्हारे संबंध में हो रही है। और नहीं तो अगर गूंगे, लंगड़े, बहरे सब ठीक हो जाएं तो गुरु क्या करेगा? एक दिन ऐसा हो ही जाएगा। विज्ञान सारी व्यवस्था कर लेगा, दुनिया में कोई लंगड़ा न होगा, गूंगा न होगा, लूला न होगा। फिर सदगुरु को सिवाय आत्महत्या के कोई उपाय न रह जाएगा।
ये सारे शब्द तुम्हारे लिए हैं: ये किन्हीं गूंगों और बहरों के संबंध में नहीं हैं। यह तुम गूंगों और बहरों के संबंध में है। और यह बड़ा चमत्कार है कि तुम्हारे भीतर एक छोटा—सा हिस्सा बोल रहा है, बाकी का सब बहरा है, गूंगा है, लंगड़ा है। कान सुन रहा है, लेकिन तुम नहीं सुनते। पैर चल रहे हैं; लेकिन तुम नहीं चलते। तुम चले ही नहीं; तुम बिलकुल जड़ हो। तुम बहे ही नहीं। तुम्हारे जीवन में कोई सरिता जैसा भाव नहीं है। तुम अखीर में मरते वक्त पाओगे, चले बहुत और बिलकुल कहीं पहुंचे नहीं। वही पक्षाघात है। पक्षाघात का वही अर्थ है। मरते वक्त्त तुम पाओगे, जहां पैदा हुए थे, वहीं मर रहे हो। चले बहुत, लेकिन चलना पैरों का था, आत्मा का न था; भीतर कोई गति नहीं हुई; भीतर गत्यात्मकता है ही नहीं।
तुम वही—वही रोज करते हो। कल भी क्रोध किया था, परसों भी क्रोध किया था, आज भी किया, कल भी करोगे—तुम वही करते रहोगे; भीतर कोई गति नहीं है। जब कोई व्यक्ति क्रोध से अक्रोध को उपलब्ध होता है, तब—पाऊं थैं पंगुल भया। जब कोई व्यक्ति अशांति से शांति को उपलब्ध होता है, तब—पाऊं थैं पंगुल भया। और जब कोई व्यक्ति वासा से करुणा को उपलब्ध होता है, तब—पाऊं थैं पंगुल भया। तब गति हुई; तब चले; तब बर्फ पिघली तुम्हारे भीतर की जड़ता की; तुम तरल हुए, बहे; सागर की तरफ यात्रा हुई। जैसे कोई नदी सागर पहुंच जाए ऐसे जब तुम परमात्मा के सागर में पहुंच जाओगे, तब—पाऊं थैं पंगुल भया। सतगुरु मारया बान।
क्या अर्थ है सतगुरु के बाण मारने का? शिष्य को ऐसा लगता है। सतगुरु तो बाण मारता ही रहता है। लेकिन यहां बड़ी कठिनाई है। यह कोई साधारण धनुर्विद्या नहीं है। सतगुरु तो ठीक निशाने पर ही मारता है। लेकिन यहां जटिलता यह है कि लक्ष्य अगर राजी न हो, तो बाण चूक जाता है।
मैं एक बाण तुम्हारी तरफ फेंकता हूं। मैं कितना ही निशाना ठीक मारकर फेंकूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; अगर तुम राजी नहीं हो तो निशाना चूक जाएगा। और मैं गैर निशाने के अंधेरे में फेंक दूं, अगर तुम राजी हो, तीर पहुंच जाएगा। तुम्हारे राजी होने में सारी कला है। तुम्हारे तैयार होने में, खुले होने में, रिसेप्टिव, ग्राहक होने में सारी कला है। तुम्हारा द्वार खुला हो, फिर बाण कहीं भी फेंका जाए, तुम खींच लोगे बाण को।
सतगुरु तो चौबीस घंटे...उसके होने में बाण फेंकना छिपा है। उठता है, बैठता है, बोलता है—हर घड़ी वह बाण फेंक रहा है। यह कोई बाण फेंकना उसके लिए कृत्य नहीं है, यह उसके होने का ढंग है। क्योंकि जो उसे मिला है, वह बांट रहा है। लेकिन जिन्होंने अपनी झोली खोल दी होगी, उनकी झोली भर जाएगी। और जो संकोच से भरे, भयभीत, डरे, अश्रद्धा, संदेह में दबे, अपने द्वार को बंद रखे खड़े रहेंगे, उनकी झोली खाली रह जाएगी।
कबीर को बाण लग गया होगा सतगुरु का। उसमें खूबी सतगुरु की नहीं है; इसमें खूबी कबीर की है। यह जो आध्यात्मिक जीवन है, इसमें गुरु की बहुत खूबी नहीं है; इसमें खूबी शिष्य की है। शिष्य को ऐसा ही लगेगा, गुरु ने मारा बाण, गुरु की कला है। शिष्य गुरु को धन्यवाद देगा। और गुरुओं ने सदा शिष्यों को धन्यवाद दिया है, क्योंकि वे ज्यादा गहरी बात जानते हैं: साफ है कि शिष्य लेने को राजी था, इसलिए मिल गया है। तुम जितना लेने को राजी हो, उतना पा लोगे। अगर न पा सको तो किसी और को दोष मत देना; अपने राजीपन में ही तलाश करना: तुम राजी ही नहीं हो; तुम लेने को भी उत्सुक नहीं हो। तुम्हें मुफ्त भी मिल रहा हो जीवन का समस्त धन तो तुम्हें भरोसा नहीं है कि यह धन हो सकता है। तुम संदिग्ध हो। तुम्हारा संदेह ही गुरु के बाण को चुका देगा। तुम श्रद्धा से भरे हो, बाण लगना निश्चित है।
और उस बाण के लगने का परिणाम यह होगा—और ठीक बाण शब्द बिलकुल उचित है—जैसे हृदय छिद जाए किसी बाण से।
बस दो ही घटनाओं में यह बाण का प्रतीक सार्थक है। एक तो जब प्रेम में तुम कभी गिरते हो, तब सारी दुनिया में बाण का प्रतीक उपयोग में लाया जाता है, कि जैसे एक प्रेम का बाण तुम्हारे हृदय में आकर छिद गया। बाण के छिदने का अर्थ होता है: पीड़ा, लेकिन मधुर। एक मीठी पीड़ा तुम्हारे हृदय में उठ आती है। पीड़ा होती है—पीड़ा जैसी नहीं, आनंद जैसी। तुम उसे छोड़ना न चाहोगे। चौबीस घंटे तुम्हारे हृदय में कुछ होता रहता है, जब कोई प्रेम में पड़ता हैं।
हिंदुओं की तो पुरानी प्रतीक—व्यवस्था है, और उन्होंने बड़े ठीक प्रतीक खोजे हैं। कामदेव सदा ही धनुष्य—बाण लिए खड़ा है। प्रतीक है प्रेम का कि लोग हृदय का चित्र बना देते हैं और एक बाण उसमें चुभा देते हैं। बाण के साथ एक त्वरा और तीव्रता है। और बाण एक क्षण में लग जाता है, सतय नहीं लगता है; अभी नहीं था, और अभी है; एक पल नहीं बीता और सब बदल गया। और बाण के लगते ही तुम्हारे हृदय में एक नई गतिविधि शुरू हो जाती है—एक पीड़ा जो मधुर है—और तुम बदलने शुरू हो जाते हो। प्रेम जिस जोर से बदलता है, कोई चीज बदलती नहीं। अभी तुम चल रहे थे—उदास—उदास, पैरों में गति न थी, ढोते थे बोझ, अपने को ही खींचते थे; और प्रेम का बाण लग गया—पैरों में गति आ गई, नृत्य आ गया। अब तुम चलते हो—चाल और है। एक गीत है चाल के भीतर छिपा। कोई भी देखकर कह सकता है कि लग गया बाण। कहते हैं, प्रेम को छिपाना असंभव है। वह मुझे भी ठीक लगता है, प्रेम को छिपाना असंभव है। कैसे छिपाओगे? तुम्हारा रोआं—रोआं, आंख, हाथ, पैर, चलना, उठना, बोलना, हर चीज कहेगी कि तुम प्रेम में पड़ गए हो। प्रेम को छिपाना असंभव है। वह ऐसी आग है।
तो एक तो प्रेम है, जहां बाण प्रतीक है; और उससे भी ज्यादा ठीक प्रतीक है श्रद्धा के लिए। श्रद्धा भी ऐसे ही बाण जैसी चुभती है। सारी दुनिया श्रद्धा में गिरे आदमी को पागल कहेगी, जैसे प्रेम में गिरे आदमी को पागल कहती है। सारी दुनिया कहेगी कि सम्मोहित हो गए हो। होश खो दिया, विचार खो दिया? किस पागलपन में पड़े हो? सम्हलो। लेकिन जिसको बाण लग गया: सारी दुनिया फीकी और उदास हो जाती है। जिसको बाण लग गया, वह कैसे कहे अपनी मीठी पीड़ा को किसी से? पीड़ा कहे, ठीक नहीं; सिर्फ मीठा कहे, नहीं काफी..., एक तो मिठास को बताना ही मुश्किल, फिर पीड़ा—भरी मिठास को बताना तो और भी मुश्किल, और जटिल हो गया। और लोग कहेंगे, पागल हो। पीड़ा कहीं मीठी होती है? क्योंकि उन्होंने तो एक ही पीड़ा जानी है—जहरीली, कड़वी, पीड़ा जो दुख देता है उन्होंने सुख जाना जो सुख देता है, उन्होंने दुख जाना जो दुख देता है। लेकिन जब बाण लगता है श्रद्धा या प्रेम का, तो तुम एक अनूठे अनुभव से गुजरते हो: एक ऐसा दुख जो सुख भी है; एक ऐसी तंद्रा जिसमें जागृति भी छिपी है; एक ऐसा सम्मोहन जिसमें होश आ रहा है। तुम विरोधाभास की सीमा पर आ गए। तर्क की दुनिया पीछे छूट गई, हृदय की दुनिया शुरू हुई।
इसलिए बाण खोपड़ी में कभी नहीं लगाया हुआ बताया जाता—कभी तुमने न देखा होगा; वह सदा हृदय में लगता हैं। खोपड़ी में बाण लग ही नहीं सकता; वह काफी सघन है; वह सब तरफ से बंद है। हृदय कोमल द्वार है। तुम तैयार हो तो बाण सदा तैयार है। अगर तुम चूके तो अपने कारण चूकोगे
गूंगा हूवा बावला, बहरा हूवा कान।
पाऊं थैं पंगुल भया, सतगुरु मारया बान।।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं परंत
और मनुष्य ऐसा है माया में डूबा हुआ—अज्ञान से भरा हुआ, मूर्च्छा से संत्रस्त; जैसे पतंगा दीये पर आ—आकर गिरता है, ऐसे ही मनुष्य माया पर आ—आकर गिरता है, जो देखता है, वह हैरान होता है—इस पतंगे को क्या पागलपन हुआ है? यह मरेगा दीये पर गिरकर। दीये से कोई जीवन न मिलेगा। मौत आएगी। लेकिन पतंगा वहीं—वहीं आकर गिरता है और मरता है। और दूसरे पतंगे भी देख रहे हैं, लेकिन उनको भी कुछ होश नहीं आता; वे भी दीये की तरफ चले आ रहे हैं। सुबह ढेर लग जाता है पतंगों का जो दीये पर मरे; लेकिन बाकी पतंगों को कुछ भी खबर नहीं होती, होश ही नहीं होता।
कबीर कह रहे हैं, माया दीपक नर पतंग—माया है दीपक इस संसार का। सारा लोभ, वासना, कामना, तृष्णा वह है दीपक। और मनुष्य एक पतंगे की भांति है। और कितनी बार गिरा इसी दीये पर और मरा। जन्मों—जन्मों से यही चल रहा है। फिर भी वही वासना खींचती है, कामना खींचती है—फिर दीये की तरफ चल पड़ते हैं। हर बार जन्म के बाद मौत के सिवा और कुछ तो मिलता नहीं। हर जीवन मौत में ही तो बदल जाता है। पतंगे ही नहीं मरते। हम भी तो आखिर में मरे हुए ढेर पर पड़े पाए जाते हैं। सारे जीवन की निष्पत्ति मौत है, फिर भी कोई जागता नहीं है।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं परंत
और बार—बार उसी भ्रम में, बार—बार उसी नासमझी में, बार—बार उसी अंधकूप में आकर आदमी गिर जाता है।
कहैं कबीर गुरु ग्यान थैं, एक आध उबरंत।। लेकिन जिसके हृदय में गुरु का बाण लग गया, उसके जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। कोई एकाध जो गुरु का निशाना बन गया, जिसने गुरु का निशाना अपने को बनने दिया वह कोई एकाध उबर जाता, फिर मौत विलीन हो जाती है; फिर जीवन का सनातन नाद बजता है; फिर जीवन की शाश्वतता उपलब्ध होती है; फिर वही बच रहता है, जिसकी कोई मौत नहीं और उसे पाए बिना शांति न मिलेगी।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, हमें शांति चाहिए। शांति मिल नहीं सकती जब तक तुम अमृत को न पा लो। मिल ही कैसे सकती है—मौत सामने खड़ी है। शांति कैसे मिल सकती है? थोड़ी बहुत देर को पीछा छिपा दो, ढांक दो, भूल जाओ—यह हो सकता है; लेकिन शांति मिल नहीं सकती। शांति तो अमृत की छाया है। इसलिए मैं यहां तुम्हें शांति के उपाय नहीं बता रहा हूं। शांति में मेरी उत्सुकता नहीं है। मेरी उत्सुकता तो अमृत में है।
तुम जिस दिन अमृत को पा लोगे; शांति अपने—आप बंधी चली आती है। वह अमृत की दासी है, छाया है, और मृत्यु की छाया है अशांति। तुम चाहो कि मृत्यु को पार हुए बिना तुम शांत हो जाओ। यह असंभव है। और अच्छा है कि यह असंभव है। अगर मृत्यु के रहते तुम शांत हो जाओ। तो धर्म का द्वार तुम्हारे लिए सदा के लिए बंद हो जाएगा। महाकरुणा है अस्तित्व की वह तुम्हें शांत नहीं होने देता जब तक कि तुम अंतिम द्वार को पार न कर जाओ। नहीं तो तुम न मालूम किसी कूड़ेघर पर बैठकर और शांत हो गए होते; तुम न मालूम कोई तिजोरी पकड़ कर बैठे रहते, छाती से लगा कर, और शांत हो गए होते; तुम सड़ जाते। नहीं, परमात्मा तुम्हें छोड़ेगा नहीं। परमात्मा तुम्हें धकाता ही रहेगा। जब तक कि वास्तविक घटना न घट जाए। और वह घटना यही है कि तुम अमृत को जान लो।
कहैं कबीर गुरु ज्ञान थैं, एक आध उबरंत
गुरु ज्ञान तो बहुतों को बांटता है, पर एकाध उबरता है। हजारों लेते हैं, एकाध तक पहुंचता है। हजारों सुनते हैं, एकाध सुनता है। हजारों चलते हैं, एकाध ही पहुंचता हैं। बात क्या है? कहीं गुरु और शिष्य के बीच गड़बड़ हो जाती है। गुरु कुछ कहता है, शिष्य कुछ सुनता है। तुम जब तक कुछ सोचते रहोगे तब तक तुम वही न सुन पाओगे जो गुरु कहता है; तुम कुछ और सुन लोगे। तुम अपने को मिश्रित कर दोगे। तुम गुरु के ज्ञान में अपना अज्ञान डाल दोगे। तुम गुरु के ज्ञान से भी अज्ञान ही ले पाओगे। तुम पंडित हो जाओगे, प्रज्ञावान न हो सकोगे। इसलिए बहुत सुनते हैं, कोई एकाध ही सुन पाता है।
जीसस हर बार कहते हैं, जब भी वे बोलते हैं कि जिनके पास कान हों, वे सुन लें। जिनके पास आंख हों, वे देख लें। हर बार, हर बोलने के पहले उनका पहला वचन यही है, क्या जीसस अंधों और बहरों के बीच ही रहते थे? निश्चित ही बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट अंधों और बहरों के बीच ही रहते हैं।
रोज मुझे अनुभव होता है कि जो मैं कहता हूं, तुम कुछ और सुनते हो। जब लोग आकर मुझे कहते हैं कि कल आपने ऐसा कहा, तब मुझे पता चलता है।
मैं अगर कहूं कि सघन उपाय करना पड़ेगा तभी तुम पा सकोगे—मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि सघन उपाय तो होता नहीं; हो नहीं सकता, क्योंकि और हजार काम हैं। और मन में इतनी शक्ति भी नहीं है कि सघन उपाय कर सकें—तो यह तो हमसे न हो सकेगा।
मैं कभी बोलता हूं कि किसी उपाय की जरूरत नहीं है, तुम सिर्फ शांत होकर बैठ जाओ—तो लोग मुझसे आकर कहते हैं कि यह तो हो ही नहीं सकता। वही लोग जो कह गए थे, सघन उपाय नहीं हो सकता। मैं कहता हूं, सिर्फ बैठ जाओ, यह तो हो नहीं सकता। खाली कैसे बैठें? आप कुछ करने को बताएं। आलंबन तो चाहिए—कोई विधि, कोई उपाय तो चाहिए; नहीं तो खाली कैसे बैठें?
दोनों मार्गों से आदमी पहुंचता है। या तो सब विधि छोड़कर खाली बैठ जाओ—तो भी पहुंच जाता है, कोई बाधा नहीं है। लेकिन सब नहीं छूटता। वे कहते हैं, कुछ तो आलंबन चाहिए। और या फिर किसी विधि में इतने लीन हो जाओ कि पीछे कुछ भी न बचे। वे कहते हैं, यह भी नहीं होता। तो वे कहते हैं, हम बीच का कोई रास्ता निकाल लेते हैं: थोड़ी—थोड़ी विधि करेंगे, थोड़ा—थोड़ा शांत बैठेंगे। यह उन्होंने अपने को मिला लिया; उन्होंने अपना अज्ञान डाल लिया। जो आग मैंने दी थी, उसे उन्होंने कुनकुनी कर लिया। अब ज्यादा से ज्यादा वे कुनकुने हो जाएंगे; लेकिन वाष्पीभूत कभी भी न हो सकेंगे।
तुम अपने को मत मिलाओ। तुम जो भी मिलाओगे, वह गलत होगा, क्योंकि तुम गलत हो। लेकिन गलत आदमी को भी यह भ्रांति होती है कि पूरा थोड़े ही गलत हूं थोड़ा—बहुत होऊंगा। इस खयाल में तुम पड़ना ही मत। या तो तुम गलत होते हो पूरे, या तो तुम सही होते हो पूरे। मैंने अब तक ऐसा कोई आदमी नहीं देखा जो थोड़ा—थोड़ा सही और थोड़ा—थोड़ा गलत हो। ऐसा आदमी होता ही नहीं। ऐसे आदमी के होने का प्रकृति में उपाय ही नहीं है। साथ—साथ प्रकाश और अंधकार नहीं रहते। या तो तुम्हारे भीतर प्रकाश होता है या अंधकार होता है। तुम कहो, आधे में तो प्रकाश और आधे में अंधकार है, ऐसा होता नहीं। क्योंकि अगर प्रकाश होगा, तो वह आधे में अंधकार को न बचने देगा। और अगर आधे में अंधकार है तो आधा प्रकाश कल्पना होगा। लेकिन तुम की इस भ्रांति में मत पड़ना, जिसमें सभी पड़ते हैं। तब तुम सुन न पाओगे। तुम अपना ही गणित लगाए चले जाते हो। तुम कुछ करते हो, जो तुमने ही ईजाद कर लिया—जो मैंने कभी कहा नहीं। और तुम सुनते हो व्याख्या के साथ। जब कोई निर्व्याख्या से सुनता है, तब उसके पास कान हैं। जब कोई मन को और विचारों को और अपने अतीत को बीच में नहीं लाता, हटा देता है, सरका देता है किनारे पर; सीधा सुनता है; बीच में कोई विचार का परदा नहीं होता—तब कभी वह घटना घटती है।
कहैं कबीर गुरु ग्यान थैं, एक आध उबरंत
—और तब गुरु का ग्यान उबार लेता है।
ज्ञान नहीं उबारता, गुरु का होना उबार लेता है। क्योंकि उस घड़ी में जब तुम सारे विचारों को हटाकर सुनते हो, तुम सुनते थोड़े ही हो, तुम पीने लगते हो; तुम दूर थोड़े ही रह जाते हो, तुम पा आ जाते हो; तुम भिन्न थोड़े ही रह जाते हो, अभिन्न हो जाते हो।
बीच में विचार न हो तो भेद कहां होगा? बीच में कोई विचार न हो, मेरे और तुम्हारे बीच में अगर कोई विचार न हो, तो मेरा अंत कहां होगा और तुम्हारी शुरुआत कहां होगी? सीमाएं खो जाएंगी।
जब कोई शिष्य ऐसे सुनता है कि गुरु के साथ सीमा खो जाए, उसी क्षण उबर जाता है। क्योंकि उसी क्षण गुरु का होना शिष्य के होने के गुणधर्म को बदल देता है—जैसे पारस लोहे को सोना कर देता है। कहीं पारस—तुमने सुनी हैं कहानियां—होता नहीं। पारस तो आध्यात्मिक प्रतीक है। पारस तो गुरु के पास होने का एक ढंग है। तब लोहे जैसी साधारण चीज भी सोने जैसे बहुमूल्य तत्व में रूपांतरित हो जाती है।
पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर।
सतगुरु दाव बताइया, खेलै दास कबीर।।
पासा पकड़ा प्रेम का—जुआरी खेलता है, पासे फेंकता है; कबीर कहते हैं कि यह पासा प्रेम का है। हाथ में प्रेम का पासा ले लिया। सतगुरु दाव बताइया—सतगुरु ने इशारा किया कि कहां दांव लगा दो, और कबीर दास खेले।
प्रेम हो तो ही सतगुरु दांव बता सकता है। प्रेम हो तो ही शिष्य दांव को समझ सकता है। प्रेम के अतिरिक्त अध्यात्म में और दूसरी कोई समझ नहीं है। प्रेम हो तो ही क्रांति घटित हो सकती है। और शरीर चौपड़ है, क्योंकि शरीर में ही सारा काम करना है। ध्यान की सारी प्रक्रियाएं तुम्हारे अव्यवस्थित शरीर को व्यवस्थि करने के उपाय हैं, तुम्हारी शरीर की ऊर्जा को संतुलित करने की व्यवस्थाएं हैं। तुम्हारे शरीर का अगर ठीक—ठीक समायोजन हो जाए, तुम्हारे शरीर की वीणा अगर ठीक—ठीक कस जाए तो वह मधुर संगीत तुमसे उठने लगेगा, जिसका नाम आत्मा है। वह उठ ही रहा है; लेकिन तुम्हारी वीणा ठीक अवस्था में नहीं है। वह मौजूद ही है—सोया है; जगा लेने की जरूरत है।
वीणा रखी हो एक कोने में—संगीत सोया है; छेड़ दो तान, तार को हिला दो—संगीत जाग गया! ऐसे ही तुम सोए हो—शरीर की वीणा के भीतर छिपे।
सारी किया सरीर—शरीर को चौपड़ बना लिया। पासा पकड़ा प्रेम का, सतगुरु दाव बताइया, खेलै दास कबीर। और कबीर तो केवल दास हैं: जैसा गुरु कहते हैं, वैसा करता है; जो दांव बताते हैं, वैसे चलता है—जैसे गुरु का हाथ है।
दास का अर्थ होता है: जिसकी अपनी कोई मर्जी नहीं। दास का अर्थ होता है: समर्पण की आत्यंतिकता। दास का मतलब गुलाम नहीं होता। गुलाम तो वह है जिसको जबर्दस्ती दास बना लिया गया हो। दास वह है जो अपनी मर्जी से गुलाम बन गया हो। फर्क भारी है। गुलाम तो वह है जिसको हमने जबर्दस्ती ठोक—पीटकर भयभीतर करके दास बना लिया है; डर के कारण जिसने सर झुका दिया है। लेकिन डर के कारण सिर भला झुक जाए, आत्मा कभी नहीं झुकती। भय से कहीं आत्मा झुकी है? तो गुलामा का सिर झुका है, भीतर घृणा भरी है; भीतर उबल रहा है बगावत के लिए; ऊपर—ऊपर है सब दिखावा; भीतर मौका मिल जाएगा तो मालिक की गर्दन काट लेगा। दुश्मन है मालिक। भय के कारण झुका है। भय के कारण झुको तो तुम गुलाम हो। अगर भय के कारण तुम्हारी प्रार्थना है तो गुलामी है। भय के कारण अगर तुम मंदिर में जाते हो तो मंदिर कारागृह है। भय के कारण अगर तुम गुरु के पास पहुंचते हो तो गुरु तुम्हारे लिए एक नई परतंत्रता बन जाएगा, एक जंजीर होगी।
भय से विपरीत है प्रेम। भय से बिलकुल उलटा है प्रेम। प्रेम के कारण जब कोई सपर्पित होता है, तो दास हो जाता है। दास का मतलब है: स्वेच्छा से समर्पण, किसी दबाव में नहीं, किसी भय के कारण नहीं, आनंद में, अहोभाव में, एक महोत्सव में, अपनी पूर्ण मर्जी से, अपने समग्र संकल्प से समर्पण। और तब दासता में ऐसे फूल खिलते हैं कि मालकियत में भी नहीं खिल सकते; तब झुकने में ऐसी संपदा उपलब्ध होती है कि अकड़े हुओं को उसका कोई पता ही नहीं।
कबीर कहते हैं, मैं तो दास हूं, और गुरु बता देता है, वैसी चाल देता हूं। प्रेम का पासा पकड़ा है।
इसे ठीक से समझो, क्योंकि ये दो दिशाएं हैं: प्रेम और भय। और अधिक लोगों का भगवान भय की ही उत्पत्ति है। तुम डरे हुए हो मौत से, चिंताओं से जीवन के संघर्ष से, टूटे, पराजित, हारे, तुम मंदिर में हाथ जोड़कर खड़े हो, घुटने टेके—लेकिन अगर भय से, तो तुम्हारा धर्म गुलामी है। और यह धर्म तुम्हें मोक्ष की तरफ न ले जाएगा। यह धर्म तो तुम्हें अंतिम गुलामी में गिरा देगा। लेकिन अगर तुम गए हो नाचते हुए मंदिर में, एक अहोभाव से, जीवन की प्रफुल्लता से, जीवन के वरदान के स्वाद से, देखकर कि इतना दिया है उसने, अकारण; जानकर कि जीवन दिया है उसने बिना मांगे; बहुत दिया है, जरूरत से ज्यादा दिया है—इस धन्यवाद से, इस अनुग्रह—भाव से तुम मंदिर में गए हो, नाचते, गीत गाते और झुक गए हो वहां तो तुम्हारे झुकने में ही तुम अपने परम शिखर को उपलब्ध हो जाओगे। उस झुकने में ही तुम गौरीशंकर हो जाओगे। वह झुकने की कला ही लाओत्से की पूरी कला है, जिसको वह ताओ कहता है। इस झुकने से बड़ा कुछ भी नहीं है जगत में। लेकिन यह स्मरण रहे कि वह हो प्रेम का झुकना। और बारीक फासला है, नाजुक। तुम समझो तो ही समझ पाओगे; बाहर से तो दोनों एक—से दिखाई पड़ते हैं।
मंदिर में दो लोग प्रार्थना कर रहे हैं; दोनों घुटने टेके खड़े हैं; दोनों की आंखों से आंसू बह रहे हैं—कैसे फर्क करोगे बाहर से? अगर तुम ले आओ एक चिकित्सक को, फिजियोलोजिस्ट को, शरीर शास्त्री को, उसे कहो: जांच करो। वे आंसुओं की जांच करेंगे, दोनों को एक—सा पाएंगे। क्योंकि प्रेम में बहे आंसू...चाहे भय में, आंसू तो एक ही होता है, उसकी केमिस्ट्री में फर्क नहीं पड़ता। उसके अध्यात्म में भेद होता है, लेकिन उसके रसायन में कोई भेद नहीं होता। कहां प्रेम के आंसू और कहां भय के आंसू! दोनों झुके हैं। दोनों के घुटने जमीन से लगे हैं। घुटने तो एक ही हैं। अगर तुम घुटनों की जांच—परख करोगे, कोई फर्क न पाओगे। लेकिन घुटनों के भीतर बड़ा भेद है, आकाश—जमीन का भेद है।
प्रेम से जो झुका है, वह सच में ही झुका है। प्रेम से घुटने ही नहीं झुक गए हैं, सारी आत्मा ही झुक गई है, सारा होना झुक गया है; उसका अहंकार विसर्जित हो गया है। भय से जो झुका है, उसका अहंकार भीतर खड़ा है। भय से जो झुका है, वह परमात्मा से भी बदला लेना चाहेगा। भय से जो झुका है, वह एक न एक दिन, अगर परमात्मा मिल जाए, तो उसकी पीठ में छुरा भोंक देगा।
ईसाइयत ने भय सिखाया पश्चिम में कि डरो। धार्मिक आदमी को कहते हैं—गाड फीयरिंग, ईश्वर—भीरु। अब यह अधार्मिक आदमी का लक्षण है। ईसाइयत ने भय सिखाया, घबड़ा दिया लोगों को। उसका आखिरी परिणाम हुआ। नीत्से का वचन—पचास साल पहले, इस सदी के प्रारंभ में, उसने कहा, गॉड इज़ डेड। यह है छुरा भोंक देना छाती में कि ईश्वर मर चुका है, और आदमी अब स्वतंत्र है। यह जो नीत्से का वचन है, यह दो हजार साल की ईसाइयत की शिक्षा का अंतिम परिणाम है, निष्कर्ष है।
भय से जो भगवान है, वह मित्र नहीं हो सकता; वह शत्रु हो सकता है। तुम उसके सामने कंप सकते हो, भयातुर; लेकिन तुम खिल न पाओगे, तुम फूल न बन सकोगे। और तुम्हारे जीवन की परम समाधि और परम सुवास उस भय से न उठ सकेगी। भय से तो सिर्फ दुर्गंध उठती है; सुवास तो प्रेम का ही अंग है।
इसलिए कबीर कहते हैं, पासा पकड़ा प्रेम का, सारी किया सरीर। सतगुरु दाव बताइया, खेलै दास कबीर।।
कबीरा हरि के रुठते, गुरु के सरने जाए।
कह कबीर गुरु रुठते, हरि नहिं होत सहाय।।
कबीर कहते हैं कि ईश्वर रूठ जाए। कोई फिक्र नहीं कि गुरु की शरण जा सकते हैं। ईश्वर के रूठने की कोई फिकर नहीं—गुरु की शरण जाया जा सकता है। लेकिन अगर गुरु रूठ जाए तो फिर क्या करोगे? फिर तो हरि भी सहाय नहीं हो सकता।
कारण है। कारण यह है कि तुम्हारे और परमात्मा के बीच खड़ा है गुरु, वह सेतु है। अगर गुरु रूठ जाए तो सेतु हट जाता है। तुम्हें तो परमात्मा की कोई खबर नहीं, सिर्फ शब्द तुमने सुना है। उसका कोई अता—पता भी नहीं। तुम जाओगे कहां उसकी सहायता लेने? तुम कैसे खोजोगे उसे? किससे पूछोगे? न तुम्हें शरीर की चौपड़ का कोई पता है; न प्रेम के पासे का तुम्हें कोई पता है। तुम कारागृह में बंद ही रहोगे, क्योंकि परमात्मा है बाहर का खुला आकाश। तुम कारागृह के अतिरिक्त खुले आकाश को जानते नहीं। तुम्हारा वही जीवन है। बीच का आदमी खो गया, तो परमात्मा सहायता भी करना चाहे तो भी नहीं कर सकता।
यह बड़ी मधुर बात कह रहे हैं। तुम्हारी सहायता तो वही आदमी कर सकता है जो दोनों के बीच है; जिसका एक पैर परमात्मा में है—खुले आकाश में है—और एक पैर तुम्हारे कारागृह में जमा है। वही सेतु हो सकता है, जो आधा तुम जैसा है और आधा परमात्मा जैसा है।
हिंदुओं की धारणा है नरसिंह की—आधा पशु। पश्चिम नहीं समझ पाता कि यह क्या बात है? नरसिंह मुक्ति का उपाय है। कथा है कि प्रह्लाद का पिता मर नहीं सकता था; आशीर्वाद था उसे। उसने सब तरह की सुरक्षा कर ली थी। आशीर्वाद में उसने व्यवस्था कर ली थी कि मनुष्य न मार सकेगा, पशु न मार सकेगा। घर के भीतर कोई न मार सकेगा, घर के बाहर कोई न मार सकेगा। लेकिन कितनी ही व्यवस्था करो, जीवन कोई कानून नहीं है। और कानून तक में से रास्ता निकल आता है, तो जीवन में से तो निकल ही आएगा। और मृत्यु हो तो उसकी मुक्ति हो सकती थी। और कोई मुक्ति का उपाय नहीं। मरे बिना कोई मुक्त हुआ? तो परमात्मा को आधी देह पशु की, आधी देह मनुष्य की रखनी पड़ी और बीच द्वार पर, देहरी पर, प्रह्लाद के पिता की हत्या करनी पड़ी। यह बड़ा महत्वपूर्ण प्रतीक है।
गुरु नरसिंह है और तुम्हें मारेगा; क्योंकि बिना मारे तुम अमृत को उपलब्ध न हो सकोगे। सदगुरु मारया बाण—वह तुम्हें मिटाएगा, क्योंकि तुम्हारे मिटने में ही तुम्हारा असली आविर्भाव है। तुम्हारी राख से ही तो तुम्हारी परमात्म—अवस्था का जन्म होना है। बीज टूटेगा तो वृक्ष होगा। तुम बिखरोगे तो तुम आत्मा बनोगे। तो गुरु मारेगा। और देहरी पर ही मारे जा सकते हो तुम, क्योंकि देहरी से बाहर खुला आकाश है। वहां तुम जा नहीं सकते: भय है। भीतर कारागृह हैं। मध्य द्वार पर जहां गुरु खड़ा है....।
गुरु यानी द्वार। जीसस बार—बार कहते हैं, आइ एम द गेट—मैं हूं द्वार। वे इतना ही कह रहे हैं कि मैं वहां खड़ा हूं जो मध्य—बिंदु है, जहां से एक हाथ तुम तक भी पहुंचता है और दूसरा हाथ परमात्मा तक भी।
गुरु नरसिंह है। वह तुम्हें भी द्वार पर खींच लेगा, क्योंकि आधा वह तुम जैसा है—पशु; आधा वह परमात्मा जैसा है।
कह कबीर गुरु रुठते, हरि नहिं होत सहाय। उपाय ही खो गया। हरि हैं उस किनारे, तुम हो इस किनारे—बीच का सेतु गिर गया। और वह दूसरा किनारा बहुत दूर; गुरु के होते, बहुत पास। जैसे कभी तुमने अगर दूरबीन से तारा देखा हो तो एकदम पास; दूरबीन हट गई, तारा बहुत दूर। जब शिष्य गुरु से परमात्मा को देखता है तो वह बहुत पास; और शिष्य गुरु को हटाकर देखता है तो इतना दूर कि सामर्थ्य खो जाए, यात्रा की हिम्मत ही टूट जाए।
कबिरा हिर के रुठते, गुरु के सरने जाए।
कह कबीर गुरु रुठते, हरि नहिं होत सहाय।।
या तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दीये जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
यह शरीर तो मौत का घर है। विष की बेलरी। यहां तो सिवाय मौत के फल के और कोई फल लगता नहीं। फल से ही वृक्ष पहचाने जाते हैं। और जिस शरीर में मौत ही मौत के फल लगते हों, वह विष की बेलरी।
गुरु अमृत की खान—गुरु से पहली भनक आती है अमृत की। गुरु के पास बैठकर पहली दफा पगध्वनि सुनाई पड़ती है अमृत की। गुरु के पास पहली दफा उस संगीत का एकाध टुकड़ा तुम्हारी तरफ तैरता चला आता है जो अमृत से आता है, जहां कोई मृत्यु नहीं है।
या तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान।।
गर्दन भी चढ़ाकर मिल जाए गुरु तो महंगा मत समझना। क्योंकि गर्दन तो चढ़ ही जाएगी; आज नहीं कल मरघट पर चढ़ेगी। कोई ज्यादा कीमत भी गर्दन की है नहीं। सिर की क्या कीमत?
मैंने ऐसा सुना है कि एक सम्राट, जो भी कोई आता, उसको सिर झुकाकर नमस्कार करता था। वजीरों ने कहा, यह उचित नहीं—सम्राट और सिर झुकाए! तो सम्राट ने कहा, ठीक, कुछ समय बाद उत्तर दूंगा। वजीरों ने कहा, उत्तर अभी दे सकते हैं, अगर उत्तर है। सम्राट ने कहा, उत्तर तो है; लेकिन तुम जब तक तैयार नहीं तब तक उत्तर न दे सकूंगा। प्रश्न पूछ लेना काफी नहीं है, उत्तर के लिए उत्तर को झेलने की तैयारी भी चाहिए। रुको—समय पर, ठीक जब समय पकेगा, उत्तर दूंगा।
कुछ महीने बीत गए, बात भूल गई। बड़े वजीर को बुलाकर एक दिन सम्राट ने एक कारागृह के कैदी की, जिसको फांसी की सजा हो गई थी, उसकी गर्दन दी और कहा, बाजार में जाकर इसे बेच आओ। बड़ा वजीर भी भूल चुका था, थोड़ा हैरान भी हुआ। लेकिन जब सम्राट की आज्ञा है तो माननी पड़ेगी। वह गया बाजार में। जिस दुकान पर गया, वहीं लोगों ने कहा, भागो, हटो, यहां गंदगी मत करो। आदमी की खोपड़ी—इसका कोई मूल्य है? जहां गया वहीं दुत्कारा गया; जिससे कहा, उसी ने कहा, हटो यहां से। ले जाओ यहां से इस भयानक खोपड़ी को...खून टपकती...यहां किस लिए ले आए हो? और तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? आदमी की खोपड़ी अगर बिकती होती तो लोग उसको जलाते कि मरघट में राख कर आते? बेच लेते लोग ऐसे धनलोलुप हैं कि अगर खोपड़ी बिकती होती और पत्नी मर जाती तो खोपड़ी बेच लेते। दूसरी शादी के काम आता पैसा। वह तो बिकता नहीं है। आदमी के शरीर में कुछ भी बेचने योग्य नहीं है, इसलिए आदमी को मरघट में जला आते हो। नहीं तो तुम निकाल लेते बेचने योग्य जो भी होता।
थका—मांदा सांझ वापस लौट आया। उसने कहा, कहां का काम बताया। जहां गया वहीं दुत्कारा गया। लोग नाराज हो जाते हैं, बात ही नहीं करते हैं। पैसे की तो बात ही नहीं उठती। मुफ्त भी लेने को कोई तैयार नहीं है। क्योंकि मैंने आखिर में यह भी कोशिश की, भई कुछ मत दो; ले लो। उन्होंने कहा, क्या करेंगे? इसको फेंकने की हमें झंझट करनी पड़ेगी, तुम्हीं अपना ले जाओ।
एक आदमी से तो—वजीर ने कहा, मैंने यह भी कहा कि भैया कुछ पैसा ले ले, क्योंकि सम्राप ने कहा है, बेच आओ। अब जो भी अपने ही जेब से जाएगा, लेकिन पैसा ले ले। तो भी वह बोला कि तुम मुझे क्या पागल समझे हो? हटो यहां से।
सम्राट ने कहा, तुम्हें खयाल है: तुम कहते थे, गर्दन मत झुकाओ, सिर मत झुकाओ? जिस खोपड़ी का कोई भी मूल्य नहीं उसको झुकाने के काम में ले आने दो। क्यों मुझे बाधा डालते हो। इतना उपयोग तो कर ही लेने दो, क्योंकि इसका कोई और उपयोग तो दिखाई नहीं पड़ता।
ऐसा हुआ कि एक मुसलमान फकीर डाकुओं द्वारा पकड़ लिया गया। उस फकीर का नाम था जलालुद्दीन रूमी। बड़ा अनूठा आदमी हुआ। डाकुओं ने पकड़ लिया। वे उसे बेचने ले चले। उन दिनों गुलाम बिकते थे। रास्ते में—जलालुद्दीन मस्त फकीर था, स्वस्थ शरीर था, जवान था; कोई भी खरीद लेता, अच्छे दाम मिलने कि आशा थी—रास्ते मेंएक आदमी मिला। उसने कहा कि एक हजार दिनार देता हूं, एक हजार सोने के सिक्के, अगर यह आदमी बेचते हो। डाकू तो बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कभी सुना भी न था कि एक हजार एक गुलाम के मिल सकते हैं। वे तैयार हो गए। जलालुद्दीन ने कहा, रुको। यह तो कुछ भी नहीं है। तुम्हें मेरी कीमत का पता नहीं है। ज्यादा मिल सकते हैं। अभी असली कीमत को परखने वाले को आने दो। तो डाकू रुक गए। आगे चले। एक सम्राट गुजरता था। उसने भी फकीर को देखा। उसने कहा, मैं इसके दो हजार दिनार देता हूं। तब तो डाकुओं ने कहा, बात तो यह फकीर ठीक कहता है, उन्होंने पूछा जलालुद्दीन को कि क्या इरादा है? उसने कहा कि अभी भी नहीं।
फिर एक रईस गुजरता था। इसने तीन हजार दिनार भी कहे। फकीर से फिर उन्होंने पूछा। अब तो बहुत हो गई बात। उन्होंने कहा, तीन हजार कभी सुने नहीं। तो बेचने की तैयारी कर ली। जलालुद्दीन ने कहा, रुको, घाटे में रहोगे। बड़ा पशोपेश हुआ; सोचा कि बेच ही दे तीन हजार में, फिर कोई मिले न मिले। और इसका क्या भरोसा? लेकिन अब तक तो इसकी बात ठीक निकली है, शायद आगे भी ठीक हो।
तो वे रुक गए। आगे एक आदमी मिला—एक घसियारा, वह एक घास की टोकरी अपने सिर पर लिए जा रहा था—घास का बंडल। उस आदमी ने भी देखा कि इस फकीर को बेचने जा रहे हैं। उसने कहा, भाई, बेचते हो क्या? उन लोगों ने पूछा, तू क्या देगा? तेरे पास कुछ है? उसने कहा, घास की गठरी दे दूंगा। जलालुद्दीन ने कहा, दे दो। यह आदमी पहचानता है असली मूल्य। अब मत चूको, क्योंकि यही है कीमत इस देह की।
या तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
सीस दिए जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान।।
अगर सब कुछ देकर भी गुरु मिल जाए तो भी सस्ता है, क्योंकि देने योग्य तुम्हारे पास है भी क्या? दोगे भी क्या? कुछ नहीं है, उसको भी देने में भयभीत हो। अगर कुछ होता तो न मालूम तुम क्या करते। नाकुछ के बदले सब कुछ देने को कोई तैयार है; तुम नाकुछ देने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाते। मैं तुमसे मांगता ही क्या हूं? जो तुम्हारे पास नहीं है, वह दे दो। सुन लो मेरी बात: जो तुम्हारे पास नहीं है वे दे दो। और जो तुम्हारे पास है, वह मैं तुम्हें दे दूंगा। लेकिन जो तुम्हारे पास नहीं है, कभी नहीं था, सिर्फ वहम है कि तुम्हारे पास था, वह भी छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते—तो फिर गुरु कभी भी न मिल सकेगा।
गुरु कोई बाहर की घटना थोड़े ही है, तुम्हारे भीतर की क्रांति हैं। तुम जब सब देने को तैयार हो, तब गुरु हजारों मील दूर हो तो भी दौड़ा चला आएगा। आना ही पड़ेगा।
इजिप्त में वे कहते हैं कि जब शिष्य तैयार है, तो गुरु तत्क्षण मौजूद हो जाता हैं। गुरु को खोजने जाने की भी जरूरत नहीं है; अगर तुम तैयार हो तो गुरु को आना पड़ेगा। लेकिन तैयारी चाहिए सब कुछ दे देने की। और कुछ है नहीं। और जो है उसका तुम्हें पता नहीं। और जिसे तुम समझते हो कि है, वह सिर्फ सपना है।
कस्तूरी कुंडल बसै।
आज इतना ही।





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