अध्याय—(पच्चपनवां)
जल्दी
ही मनाली में
ध्यान शिविर
होने वाला है।
आज सुबह वे
मुझसे पूछते
हैं कि क्या
मुझे लक्ष्मी
के भगवा कपड़े
अच्छे लगते
हैं।’ मैं
कहती हूं हां
ओशो, ये
कपड़े उस पर
अच्छे लगते
हैं।’ वे
कहते हैं, 'ध्यान
शिविर में यह
अच्छा लगेगा
कि सबने एक ही
रंग के कपड़े
पहने हुए हों।
तू लक्ष्मी के
जैसी एक ड्रेस
सिलवा ले।’ वे करुणा को
भी यही संदेश
देते हैं। हम
दोनों ही इसके
लिए तैयार हो
जाती हैं।
यह
बात करने के
बाद ओशो हमसे
तीन दफा पूछ
चुके हैं कि
हमारे कपड़े
तैयार हुए या
नहीं। और
हमारा जवाब
यही रहता है, 'अभी
नहीं।’ ध्यान
शिविर में अभी
काफी समय शेष
है। आज मैं
उनसे मिलने
जाती हूं तो
उनके कमरे में
भगवे रंग के
कपड़े का एक
बड़ा—सा थान
देखकर हैरान
होती 'हूं।
वे मुझसे कहते
हैं कि अपने
ड्रेस के लिए
मैं उसमें से
कपड़ा काट लूं।
मुझे शर्म आती
है कि मैंने
समय से ड्रेस
नहीं बनवाए और
उनको तकलीफ दी।
शायद मैं इस
विषय में
गंभीर नहीं थी,
लेकिन
वे
गंभीर लगते
हैं। मैं एक
मित्र की मदद
से कांपते
हाथों से अपने
लिए चार मीटर
कपड़ा काट लेती
हूं। कोई
अनजाना भय मुझे
घेर लेता है
और मैं उनकी
ओर नहीं देख
पाती। वे मुझे
बुलाते हैं और
मैं कपड़े का
बंडल लिए, फर्श
की ओर देखती
हुई उनके
चरणों के पास
बैठ जाती हूं।
वे
मेरे सिर पर
हाथ रखकर मुझे
आशीर्वाद
देते हैं और
कहते हैं, इससे
बिलकुल
लक्ष्मी जैसी
ड्रेस सिलवा
लेना। यह
ड्रेस तुझ पर
अच्छी लगेगी।’
मैं उनके
शरारत से मुस्कुराते
चेहरे की ओर
देखती हूं और
असमंजस में पड़
जाती हूं समझ
ही नहीं आता
कि वे क्या
करने वाले हैं।
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