इस तरह
भगवान तो
पिछले कई
जन्मों से
संन्यासी के
रूप में ही
अवतारित होते
रहे हैं। मा
के पास
वात्सल्य के
ऐश्वर्य भरा
बजरा रहा था परन्तु
वहां भी वे तो
अतिथि ही थे।’’पूर्व
जन्म से आपका
आशय, किस
पूर्व जन्म से
है? ''मैंने
उन्हें अधिक
कुरेदना चाहा।’’
‘‘उन्होंने
700 वर्ष पहले का
संदर्भ दिया
है किसी
प्रवचन में।’’
‘‘मैं
कहता आखन देखी’‘
प्रश्नोत्तर
माला में इस और
इशारा किया है
भगवान ने।’’
''न।‘’
‘‘मा
बेटे के रूप
में कहां थे, और कब थे ये
तो मुझे नहीं मालूम।
परन्तु किसी न
किसी जन्म में
थे जरूर ये
दावे से मैं
कह सकती हूं।
ऐसे ही
दुनियां के
बहुत से साधु—संन्यासी
और प्रेमी
(तुम्हारे
जैसे) वे कभी न कभी
मेरे पिछले
जन्मों में
कहीं न कहीं
निश्चय ही
सम्पर्क में
आए थे।
इसलिए
ये लोग मेरे
हृदय के करीब
बहुत ही करीब
अनुभव हो जाते
हैं मुझे।’’ ‘'चांदा
आने के पीछे
उनका क्या
उद्देश्य
रहता था।’’
‘‘मुझसे
मिलने के
सिवाय और क्या
उद्देश्य
रहेगा। जब मैं
लिख भर दू बस
वे आ जाते थे।
हर तीन—चार माह
में एक चक्कर
तो लगता ही था।
कभी डेढ़ माह
में ही आ जाते
थे। बस मेरा
लिखना होता कि
आने को मानो
प्रस्तुत ही
होते थे। बस
लिखने भर की
देर थी। हमारे
सांसों के
तारों में ही
संवाद होते
रहते थे हमारे।
भगवान
श्री की
आतुरता मां से
मिलने के
संदर्भ में तो
सदा ही रहती
थी। यदि
प्रत्यक्ष
नहीं मिल पाते
तो पत्रों
द्वारा ही
भगवान मिलने के
लिए सदा
प्रस्तुत
होते रहते थे।
9 मई 1962
प्यारी
मां,
रात्रि
का एकांत, बीते
सप्ताह की
स्मृतियां
ताजी सुगंध की
तरह मन पर तेर
रही हैं। सब
बीतता है पर
कुछ है जो कि
बीत जाता है
पर बीतता नहीं
है। मैं उस
अनबीते को
स्पष्ट देख पा
रहा हूं कि कैसे
कहूं कि वह
बीत गया है? सब अतीत हो
जाता है पर
प्रेम अतीत
नहीं होता है
और उसके चिन्ह
नहीं मिटते
हैं।
यह
प्रेम अतीत
क्यों नहीं
होता है? क्योंकि
यह उस समय
अनुभव किया
जाता है जब
समय नहीं होता
है और जब मन भी
नहीं होता है।
समय और मन के
जो बाहर है वह
नित्य हैं। इस
नित्य में
द्वैत नहीं
होता है, दुई
नहीं होती है
और वह प्रगट
होता है जो है।
मैं यह
अनुभव कर
कितने आनंद
में हूं कि इस
नित्य—अमृत
अनुभुति के
स्वर आप तक
पहुंच रहे हैं।
सबको
मेरे विनम्र
प्रणाम कहें।
अभी टहल कर
आया हूं टहलते
समय सबको आगन
में देखा है।
तुम तो द्वार पर
खड़ी होकर
कितना रोक रही
थी और जाननी
हो मा कि अभी
मेरा समय नहीं
हुआ है और
तुम्हारे रोकने
से ही टहलना
छोड्कर पत्र
लिखने बैठ गया
हूं।
रजनीश
का प्रणाम
इसी
तरह—एक अन्य
पत्र में
पुनश्च:
मां आज
संध्या से
तुम्हारा
स्मरण है। अभी
घूम रहा था और
तुम द्वार पर
मौन खड़ी होकर
जो बुलाने लगी
सो भीतर जाकर
पत्र लिखने बैठ
गया हूं। कभी—कभी
यह क्या करती
हों?
एक
अन्य संदर्भ
में
पुनश्च:
घर आया हूं तो
फुरसत ही
फुरसत है।
जबलपुर तो
घिरा रहता हूं
यहां आकर पता
चला कि तुम तो
चौबीस घंटे
साथ हो। वहां
भी साथ ही
रहती हो, मैं नहीं
देख पाता हूं
पर यहां तो
तुम ही तुम
दिख रही हो
सोकर उठा हूं
स्मरण आया तो
पत्र लिखने
बैठ गया इस
तरह मां से
मिलने की
आतुरता तो
प्रत्येक
पत्रों में
प्रकट ही होती
रही है।
‘‘चांदा
में आकर कभी
उन्होंने
प्रवचन दिये
या सिर्फ आपसे
मिलने ही आते
रहे यहां।’’ ‘'चांदा
में उनके कभी
बड़े रूप में
प्रवचन नहीं
रखे। एक दो
स्कूलों और एक
सेवादल को
छोड्कर वे कभी
कहीं नहीं गए।
आपस में बैठकर
घर के करीबी
मित्र और
पारिवारिक
व्यक्ति ही
उनसे प्रश्न
पूछते रहते थे
और वे उनका समाधान
देते थे। चांदा
आने के पीछे
विश्राम में
होने का ही
उनका एकमात्र
उद्देश्य
होता था।’’
‘‘आपके
साहचर्य से
उन्हें जो भी
अनुभूति
प्राप्त होती
थी, उसी के
लिए शायद वे
चांदा अक्सर
आते रहे होंगे?''
‘‘अब
मैं क्या
बताऊं? कि
वे किसलिए आए
मेरे पास
परन्तु लोगों
से मिलने—जुलने
के बाद रात के
ग्यारह बजे के
उपरान्त सिर्फ
हम दोनों की
ही अधिकतर
चर्चा होती
रहती थी। रात
के तीन—तीन भी
कभी बज जाते
थे और मैं सो
भी जाती थी, कभी—कभी तो
ज्ञात ही नहीं
हो पाता था।
मैं उनसे बड़े
अजीब—अजीब से
प्रश्न पूछती
रहती थी। जो
तुमने कृष्ण,
महावीर, बुद्ध
आदि पर उनकी
दर्जनों
पुस्तकें
देखी होंगी
उनके संदर्भ
में चर्चाएं
मुझसे वै कई
बार कर चुके
हैं। कई
प्रकार के
दर्शनों पर
विचार विमर्श
होते रहते थे
हमारे। एक रात
हम आंगन में
पास—पास ही
पलंगों पर
दोनों सोये
हुए थे। मैं
अपने पलंग पर
पड़ी—पड़ी थोड़ी
गहरी नींद में
जा चुकी थी।
इतने में ही
रजनीश ने
मुझसे कहा—
‘‘मां....
मां... आपको कुछ
महसूस हुआ?''
‘‘हां.....
मैंने कहा.
कुछ—कुछ महसूस
तो हुआ, थोड़ी
सुस्त सी लग
रही हूं मैं।’’
'' आपके
शरीर से एक
अजीब सी विद्युत
सी चमकी और
मुझमें विलीन
हो गई। चि.
रजनीश ने कहा।’’
‘‘मुझे
तो कुछ नहीं मालूम
परन्तु मैं
थोड़ी सुस्त सी
लग रही हूं।’‘ मैंने उनसे
कहा— '' भगवान
श्री के जीवन
में 31 मार्च
1953 में घटित
होने वाली
संसार की
महानतम्
बुद्धत्व की
घटना के
संदर्भ में
कभी आपकी उनसे
चर्चा हुई ?’‘
‘‘इस
बारे में तो
कभी चर्चा
नहीं की। जो हमारी
उद्दडता थी
उन्हीं की
चर्चा की हमने
तो। कभी साधना
और उससे हुई
प्राप्ति के
बारे में बातें
ही नहीं की
मैंने। मुझे
तो कभी ये
जिज्ञासा ही
पैदा नहीं हुई
कि उन्हें
क्या प्राप्त
है और क्या
नहीं। मुझसे तो
लोगों को अधिक
से अधिक उनके
बांटने की
चिंता रही।’’ मोक्ष के
संदर्भ में इस
तरह की बातें
सुनकर उनका
सहज ममतामय
स्वरूप और
निर्मल एवं
पारदर्शी हो
गया था।
‘‘उनका
सानिध्य मुझे
मिलता रहे और
मैं अपने जीवन
की साध को
शायद इसी
बहाने तृप्त
करती रहती थी।
यह सानिध्य
प्राप्ति कभी—कभी
हमने पंचमढ़ी
एवं ताडोबा की
यात्राओं में
भी की थी।
पंचमढ़ी और
ताडोबा के
वनों की वे
यात्राएं तो बड़ी
अद्मुत आनंद
भरी थी। हम
यहां चांदा
में भी कभी
सवेरे घर में
नहीं रहे।
सवेरे तड़के ही
कार से हम
निकल पड़ते थे।
कभी इरई नदी
के तटों पर
घूमते तो कभी
झरपट नदी के
संगम पर और
कभी—कभी पास
ही के झरने पर
भी भ्रमण को
निकल पड़ते थे।
प्रकृति के
सुरम्य
वातावरण में
रहने की उनकी आदत
ने ही में
पंचमढ़ी और
ताडोबा की
यात्राओं के
लिए प्रेरित
किया था।
8 जून 61
गाडरवाडा
पूज्य मां,
प्रणाम।
मैं आशा करता
हूं कि मेरे
पत्र के
पहुंचते ही आप
निश्चय ही
चांदा सकुशल
पहुंच गई
होंगी।
पंचमढ़ी सुखद
रही है और इस
दस दिनों की
एक भीनी सी
स्मृति साथ
चली आई है।
प्रकृति के
वैभव और
सौंदर्य में केसी
ईश्वरीयता है? क्षुद्र
से ऊपर उठकर
जैसे अचानक ही
विराट से मिलन
हो जाता है।
जो दूर—दूर
अटकने पर नहीं
मिलता है, वह
निकट ही बहते
किसी झरने में
हवाओं में
झूलते किसी
लता कुंज में
उपलब्ध हो जाता
है।
'उसका'
मंदिर कण—कण
में बना हुआ
है? दृष्टि
भर चाहिए। फिर
उसे खोजने
कहीं नहीं
जाना होता है।
उसे पाने को
किसी को कुछ
करना नहीं है।
केवल अपने मन
के सहज द्वार
भर खोलने हैं,
द्वार
खुलते वह ही
युग—युगांतरों
से प्रतीक्षित
अतिथि प्रकाश
की भांति क्षण
में भी दैर
किए बिना भीतर
चला आता है।
मैं
आशा करता हूं
कि उस अतिथि
के साक्षात
में देरी नहीं
है। ध्यान एकमात्र
मार्ग है।
चलें, चलें.......रुके
नहीं.......मिलन
सुनिश्चित है।
पत्र की
प्रतीक्षा है।
रजनीश
के प्रणाम
‘'प्रकृति
के आंचल में
घूमते—घूमते
कई
विनोदपूर्ण
बातें करते
रहते थे।
बच्चे और हम
बड़ा आनंद लेते
थे। कभी—कभी
बच्चों को
भयभीत करने
वाली डरावनी
या फिर प्रणय
की कहानी कहते
थे। बच्चे भी
भयभीत होकर
मजा लेते थे।’’
''आज
का पहरावा जो
भगवान का आप
देख रही हैं
इसमें और
प्रारंभिक वस्त्रों
मैं तो काफी
अन्तर महसूस
करती होंगी आप?''
‘‘पहले
के पहरावे का
एक फोटो रखा
है न एलबम में.....?
सफेद खादी
का कुर्ता और
धोती पहना
करते थे।
मैंने हाथों
से सूत कातकर
उन्हें खादी
की दो धोती का
कपड़ा बुनवाकर
दिया था।
शांता और
शारदा (दोनों
पुत्री) ने भी
सूत कातकर
अपने भैया को
कपड़ा बुनवाकर
भेंट दिया था।’’
‘‘आज
का ये चोगा और
टोपी देखकर आप
को आश्चर्य नहीं
होता?''
‘‘नहीं इसमें
आश्चर्य करने
की क्या बात
है? वो तो
बड़ा नटखट नागर
है, कुछ—कुछ
.... करके अपने
प्रेमियों को
आनंद देता है।’’
‘‘सबसे
पहला भगवान का
कार्य
क्षेत्र जो
बम्बई बुडलेण्ड
में बना तब आप
कभी गई वहां?''
‘‘नहीं
मैं कभी नहीं
गई किन्तु
शारदा, शांता
(बेटियां) तथा
मेरे दामाद
नाती—पोते जा चुके
हैं।’’
‘‘और
बम्बई के बाद
पूना वाले
आश्रम में कभी
आपका जाना हुआ
खुलने के उपरांत?''
‘‘नहीं।
पूना आश्रम
में उस रूप
में जाना नहीं
हुआ। एक इशारे
से यदि वे
बुलाते तो हम
चले जाते
उन्होंने
बुलाया नहीं
तो हम भी नहीं
गए।’’
और
यहां भक्त का
स्वाभिमान
उनके मुख पर
झलक आया था।
‘‘गाडरवाडा
कितनी बार गई?
''
‘‘पांच—छ:
बार गई मैं
गाडरवाडा वहां
अधिकतर व्यावहांरिक
सम्बन्धों के
सिलसिले में
ही जाना हुआ
कभी परिवार
में किसी की
शादी व्याह या
कोई अन्य प्रसंग
होते तब मैं
वहां गई।’‘
दोपहर 3 () जन.
जबलपुर
मां,
गांव
चलना है, 17 फरवरी
की संध्या। 18
और 19 को विवाह
है। आप कम से
कम दो दिन
पूर्व आ जायें।
ज्यादा पहले
आयें तब कहना
ही क्या? दद्दा
कल आए हैं और
आपको बहुत—बहुत
आग्रह करने को
कहा है। मैंने
कहा, ‘‘आग्र
नहीं करूंगा,
तो भी
उन्हें आना ही
पड़ेगा। अब वे
पराई नहीं हैं।’’
यशोधरा जी
का पत्र आज
मिला है संभव
है कल उन्हें
उत्तर दू। कब
आती हैं.. किस
बस पर खड़े
होकर मुझे
प्रतीक्षा
करनी होगी. इन
सबकी सूचना
पूर्व ही दे
दें।
बस आज
इतना ही।
रजनीश
के प्रणाम
‘‘गाडरवाडा
जब आप कभी गई
उन दिनों किस
प्रकार की
बातें होती थी
आपकी?'‘
‘'वहां
तात्त्विक
चर्चाएं होने
की बात ही
नहीं थी। वहां
तो सिर्फ हम
दोनों मां और
बेटे ही होते
थे केवल हम।
जो बातें होती
रहती थी वहां,
वही सुनती
रहती थी। जब
सबसे अलग हटकर
मैं अकेले में
उनसे मिलती तो
कहती थी…….
‘‘रजनीश
तुम्हारी आंखें
बोलते समय; बड़ी सुंदर
लगती हैं।’’ फिर हम कभी
अलग—भोजन नहीं
किए और न ही
अलग—अलग दूर
के कमरों मे
सोये। मैं
क्रांति और
रजनीश सदा एक
ही कमरे में
सोते थे। भोजन
हमेशा हल्का—फुलका
सादा ही करते
थे कभी गरिष्ठ
भौजन के प्रति
उनकी रूचि
नहीं रही।
कपड़े भी हाथ
से धोते और
सफाई भी स्वयं
किया करते
‘‘लेकिन
मां भगवान ने
तो अपने कॉलेज
के प्रांरभिक
जीवन के
संदर्भ में कई
प्रवचनों में
कहा है कि
होस्टल में
उनका जीवन बड़ा
अस्त—व्यस्त
ही रहा।
महीनों कमरों
की सफाई नहीं
करते थे और
कमरे को इतना
गदा देख उनके
साथियों को
सफाई करनी
पड़ती थी।’’ ‘'वह अवस्था
कॉलेज के
दिनों की होगी।
मुझसे मिलने
के उपरांत की,
मैं तो
तुमसे बातें
कर रही हूं।
फूलों से उनका
अगाध प्रेम था।
बगीचे की
क्यारियों का
रख रखाव भी
उन्हें बड़ा पसंद
था। खुद ही
कपड़े भी धोते थे
और सारे घर की
सफाई हाथों से
ही करते थे।
इतना सब कुछ
करते हुए तो
मैंने खुद
अपनी आंखों से
देखा है।’‘
‘‘संन्यास
के बाद सदा
आपने गैरिक
वस्त्र ही पहने
थे मां? ''
‘‘हां,
तुम्हारे भैय्याजी
(पारखजी) के
गुजरने ते
मैंने वे कपड़े
ही पहने थे।
उनके चले जाने
के बाद मैं
सफेद वस्त्र
पहनने लगी।’’
‘‘आजकल
तो भगवान ने
अपने
संन्यासियों
को भगवा वस्त्र
और माला पहनने
की मनाई कर दी
है। क्या ये
बात आपको मालूम
हैं?''
‘‘नहीं
मुझे कुछ नहीं
मालूम। मैं तो
मन की आवाज से
चलती हूं।
इसलिए माला
पहनने का मन
हैं तो पड़ी
हुई है गले
में। उसमें क्या
बनता—बिगड़ता
है। जो मुझे
अच्छा लगता है।
वही मैं करती हूं।
कभी उन्होंने
भी मुझे किसी
कार्य के लिए
बाध्य नहीं
किया। जब मेरा
जैसा जी चाहा
वही किया।
उन्होंने कभी
मुझे यह कहा
ही नहीं कि ये
छोड़ो और ये
पकड़ो।’’
‘‘आपके
परिवार में
आपके अलावा और
किसी ने सन्यास
नहीं लिया?''
‘‘सिर्फ
मुझे छोड्कर
और कोई
संन्यासी
नहीं है और ये
जो संन्यास की
बातें होती
हैं बेटा वे
बड़ी ही
व्यक्तिगत
बातें हैं।
कोई किसी पर
जोर जबरदस्ती
नहीं कर सकता।’’ ‘'अमेरिका
में 'रजनीशपुरम्'
में जो
घटनाएं हुई और
भगवान के इर्द—गिर्द
जो घटित होता
रहा। उस सबकी
आपके ऊपर क्या
प्रतिक्रिया
हुई। भगवान
रजनीश जिस
खतरनाक एवं
मौलिक ढंग से
जीते हैं और
उनके जीवन में
जो उपद्रव
विदेश में हुए
वे बातें तो
आप तक अवश्य
ही आई होंगी? ''
‘‘हां।
मैंने भी कुछ
अखबारों एवं
मैगजीनों में
पढ़ा था।’’
‘‘उन
सबके संबंध
में आप की
क्या प्रतिक्रिया
हुई?''
‘‘वह
सब तो होना ही
था।’’ मां
ने बड़ी सहजता
से यह बात कह
दी।’’मैंने
बहुत—बहुत
पहले 1962 के दौरान
एक कविता में
ऐसे ही संकट
की घोषणा कर
दी थी।
क्योंकि जिस
तरह का निडर
व्यक्तित्व
रहा है रजनीश
का उसके लिए
ये संकट तो मामूली
बातें रही हैं।
खतरनाक ढंग से
जीने का
परिणाम तो यही
होने वाला था।’’
‘‘मुइसे
कभी कोई
परिचित पूछता
था कि, ये
इतनी सारी
संन्यासियों
का जमघट रजनीश
ने क्यों लगा
रखा है?'' इस
पर मैं कहती
थी......औरतें यदि
जिस पुरूष पर
बहुत अधिक
विश्वास करती
हैं.....तो यह समझ
लो कि वह बहुत
अधिक पवित्र
व्यक्ति हैं। औरते
एैसे वैसे
आदमी का
विश्वास ही
नहीं करती। ये
बात ख्याल में
रखना और फिर रजनीश
कोई साधारण
पुरूष नहीं वह
'पूर्णपुरूष'
हैं। ऐसा
कहकर मां ने
नारी मनोविज्ञान
की पहेली को
सीधे स्पष्ट
शब्दों में
उजागर कर दिया
और 'पूर्णपुरूष'
का संकेत भी
दे दिया।
पार
ब्रह्म के तेज
का, कैसा
है उन्मान
कहबे कूं
सोभा नहीं, देख्या
ही परवान
उस
प्रभु के तेज—युक्त
सौंदर्य को
वाणी द्वारा
अभिव्यक्ति ही
नहीं दी जा
सकती। कहने में
उस अनुपम रस
की शोभा ही
नहीं है। उस
सौंदर्य का
अनुमान भी कोई
नहीं लगा सकता
वह तो मात्र
दर्शन का ही
विषय है।
‘‘इस
समय आपकी
भगवान के
प्रति क्या
प्रार्थना है?
क्या चाहती
हैं अब उनसे?'‘
‘'मुझे
तो ऐसा कोई
लालसा नहीं रह
गई है। उनके
रास्ते में
जिसे संसार
विघ्न बाधाए समझता
है वैसी तो
कोई अड़चनें
हैं ही नहीं।
अब तो केवल
शरीर छोड़ने के
पहले एक बार दिख
जाए.... सिर्फ एक
बार देख भर
लेने की इच्छा
है। वैसे
वीडियो पर जो
देखा तो मन भर आया
था। कितना
हृष्ट—पुष्ट
कसरती शरीर था।
कितने दुर्बल
हो गये हैं वे।’’
मां का आँचल
दूध से गीला
हो गया प्रतीत
हुआ मुझे।
मैंने पूछा— ‘‘सच बताना मां,
एक बार
मिलने की कामना
रह गई है ना।’’ मैंने
जानबूझ उनके मातृत्व
को कुरेदना
चाहा।
‘‘झूठ
क्यों बोलूं
बेटा। अरे मां
का मन कभी
तृप्त हुआ
अपने बेटे का
मुख चंद
निहारने के
वाद। पिछले
दिनों पूना
किसी सम्मेलन के
संदर्भ में गई
थी। उन दिनों
वे बीमार थे।
मेरे पर क्या
बीती होगी, ये मैं ही
जानती थी। तब
आश्रम में
जाकर 'भी
नहीं देख पाई।’’
और उस
आनंदमयी की आंखों
में ममता का
सागर छलक आया
व। उसी सागर
में डूबती उतराती मानों
कहती गई, ‘‘चि. रजनीश ने
एक आखिरी पत्र
में मुझसे
वायदा किया है,….
'सारा कर्ज
ब्याज समेत
चुका दूंगा।’
देखें कब
आयेगा वह क्षण’‘
‘‘जो
अस्तित्व का
सागर: चलता—फिरता
हंसता—हंसाता
एक शरीर रूप
में आकर समा गया
हो। ऐसे
अस्तित्व को
स्पर्श कर
देखने का बालक
भाव मेरे मन
में भी कई बार
आया है मां!
वैसे उस
अस्तित्व के
सागर को छूआ
नहीं जा सकता
क्योंकि
उसमें तो हम
हैं ही फिर भी कोई
एक विराट
चेतना जो किसी
शरीर के माध्यम
से हमारी
ज्योति जला गई
हो। उसे सामने
बैठकर एक बार
निहारने की
अभीप्सा तो
कभी—कभी उठ ही
जाती है। जब
आप पूना गाए
तो उंगली
पकड़कर मुझे भी
लेती चलना मां।’’
और हम
दोनों की आंखों
में प्रेमाश्रु
पुन: छलछला
उठे।
‘‘मुझे
भी ऐसी
अनुभूति नहीं
होती होगी ये
बात नहीं है।
लेकिन वह अब
मेरे अकेले का
तो है नहीं वह
तो तेरे जैसे
करोड़ों—करोड़ों
के हृदय की
धड़कन बन गया
है। तेरी
सुंदर—सी आंखों
में भी मैं
उसी को देख
रही हूं।’’
और
अचानक मुझे
हवा की गज में
दो पंक्तियां
सुनाई दी......
मधुर
मुझको हो गए
सब, मधुर
प्रिय की
भावना ले।'
पास
में रखती
तश्तरी में
मिठाई—फल
इत्यादि बहुत
देर से मेरी
प्रतीक्षा कर
रहे थे।
उन्होंने उसी
भाव में डूबे
हुए मुझे पुन: उन्हें
ग्रहण करने का
आग्रह किया; उस खाद्य
सामग्री की और
मेरा विशेष
उत्साह भी
नहीं था।
भगवान के
संदर्भ में
छप्पन प्रकार
के व्यंजनों
का मुझे जो
आस्वाद हो रहा
था। उन
व्यंजनों के
आगे मुझे उन
पदार्थों को
देखने की
फुरसत ही नहीं
थी।
‘‘हां
लेता हूं...... ऐसा
कहकर मैंने उस
रत्नगर्भा के
हृदय से अन्य
अनेक रत्नों
के उल्लनन के
लिए वाणी की
छेनी का सहारा
लिया।’’
''आपने
भगवान के
कार्य को आगे
बढ़ाने में कोन—कोन
से सहयोग दिए?
उन्हें
चांदा के आस—पास
ताडोबा जैसे
घने जगल में
आश्रम बनाने
की प्रेरणा पहले
कभी नहीं दी।
आश्रम के लिए
वह स्थान तो
बड़ा सुंदर रहा
होता?''
‘‘मैंने
तो कई बार
चांदा को
कार्यक्षेत्र
बनाने की बातें
उन्हें
पत्रों में
सुझाई भी थी।
इस पर वे कहा
करते थे कि आप जहां
हैं वहां
कार्यक्षेत्र
तो बन ही गया
है।
3 जनवरी 61
जबलपुर
प्रिय मां,
संध्या।
उदास अंधेरे
को देखता हूं।
थके पक्षी
नीडों को लौट
चुके। कभी कोई
भूला पक्षी
फड़फड़ाता है।
घरों के ऊपर
धुंआ लटक रहा
है। मैं बगिया
में हूं।
फूलों की
हंसती
क्यारियां
कालिमा में
डूब रही हैं।
एक दिन
ऐसे ही मनुष्य
डूब जाता है।
जीवन अंधेरे
में कहां खो
जाता है......ज्ञात
भी नहीं पड़ता।
इसके पूर्व के
क्षण बहुत
कीमती हैं। एक
क्षण
बहुमूल्य हैं।
सूर्योदय और
सूर्यास्त के
इस खेल में
अपने को खोया
भी जा सकता है, पाया भी
जा सकता है।
यह
जीवन अपना ही
निर्माण है।
इसे हम
एक आनंद उत्सव
बना लें. इसके
लिए यह अवसर
याद आता है।
आप पूछी थीं, 'मैं आनंद
में अकेला कब
तक खोया
रहूंगा?'
मैं
अखंड आनंद
होना चाहता हूं।
उसे पा लूं
तभी दे सकता
हूं? यू
सबके भीतर वह
छिपा है। आंखें
फिराने की बात
है।
आपका
पत्र मिला है।
बहुत सुखद। चांदा
के मेरे
कार्यक्षेत्र
बनाने की बात
लिखी है। आप
वहां है तो
क्षेत्र तो बन
ही गया।
पिछले
पत्र के लिये
राह देखनी पड़ी।
जानकर ही
दिखाई। मैं
सोचता था कि
राह आप देखेंगी....
खूब मजा रहेगा।
राह देखने में
भी बड़ा सुख है.....हैं
ना?
सबको
मेरा प्रणाम
रजनीश
के प्रणाम
‘‘बम्बई
से पूना में
कार्यक्षेत्र
बनाने के बाद
भगवान अक्सर
आपके पास
विदेशी संन्यासियों
को भी तो
भेजते रहे हैं।
वह किसलिए?''
''आबू
शिविर में जब
मैं गई थी तभी
उन्होंने
मुझसे कहा था
कि, 'ये जो
विदेशी संन्यासी
भारत में आते
हैं, उन्हें
कुछ भारतीय
संस्कृति की
शिक्षा, यहां
के रहन—सहन, रिति—रिवाज,
खान—पान से
उन्हें मैं
परिचित करा दू।’
सो 1972 —73 के
आस—पास 30—30, की
टोलियों में
वे चांदा आते
रहे थे। चांदा
से 90 मील
दूर वैनगंगा
नदी के तट पर
उसे गांव जहां
अपनी खेती है
वे झोपड़ियां
बनाकर रहते थे।
कुछ—कुछ
हिन्दी बोलना,
शरबत बनाना,
भारतीय
औषधि बनाना, भारतीय भोजन
इत्यादि
बातों से मैं
उन्हें परिचित
कराती थी। यहां
से पूना जाकर
वे थोड़ा वहां
भारतीय रहन—सहन
के योग्य हो
पाते थे। उसके
बाद पूना आश्रम
में उनके
निवास की
व्यवस्था हो
गई थी।
मां
योग लक्ष्मी
के पत्र आते
रहते थे तब। बड़ा
ही मेहनती और
अनुशासित
जीवन रहता था
उनका। चाय कभी
नहीं पीते थे।
’राब' पीते थे।
गेहूं के आटे
में दही
मिलाकर शाम को
रख देते थे।
फिर दूसरे दिन
'कढ़ी' जैसी
बनाकर एक—एक
प्याला पीकर
सब काम पर चले
जाते थे। रोज
छ:—छ: घंटे कड़ी
मेहनत के काम
करते थे। कुछ,
खेती का तो
कुछ बढ़ई का, कुछ भोजन
बनाने का।
इत्यादि सभी
तरह के काम
करते रहे थे।
कुछ इंजीनियर
तो कुछ पायलट
तो कोई कवि, लेखक
इत्यादि
भिन्न पेशों
के संन्यासी
आते रहे थे।
कड़ी मेहनत के
बाद, संध्या
को कभी
विपस्सना, तो
कभी सक्रिय
ध्यान तो कभी
शून्य ध्यान
में उतरते थे
वे सब।’’
‘‘क्या
मैं आपके
उपयोग में आ
सकती हूं? एक
बार मैंने
उनसे पूछा था।
किंतु मुझे
उन्होंने कभी
आश्रम में
नहीं बुलाया चांदा
रहकर ही मैं
जो सहयोग दे
सकती थी वह
किया।
हां, उन्होंने
संन्यास की
दीक्षा एव माला
देने का भी
मुझे अवसर
दिया था।’’
जब—जब
जो—जो आदेश
मुझे उनके
मिले मैंने
पूरे करने का
प्रयत्न भर
किया। कितनी
सफल साबित हुई
अब ये बात तो
वे ही जानें।
मैंने
भक्त पाठकों
के लिए कुछ
लाइट मूड की
हल्की—फुल्की
बातें करने के
उद्देश्य से मां
से पूछा— ‘‘भगवान के
सम्पर्क में
तो उन दिनों
काफी कन्याए
आई होंगी? उनके
प्रेम—प्रसंगों
के बारे में
आपको तो
निश्चय ही
बहुत कुछ मालूम
होगा। बताइये
न कुछ उन संबंधों
के बारे में।’‘
‘‘तो
क्या ये सब
बातें भी
लिखोगे?''
‘‘भगवान
से प्रेम करने
वाले भक्तों
को उनकी हर बात
में जिज्ञासा
होती है। वे
क्या खाते हैं? कैसे रहते
हैं उनके सोने
की कोन सी
मुद्रा रहती
हैं? आदि
हर बातें
जानने को
उत्सुक रहते
हैं तो फिर
प्रेम करना तो
मनुष्य का
स्वभाव है मा
उन बातों के
प्रति
जिज्ञासा
होना.....
‘‘हां,
समझ गई...
अरे
पगले। उनके
प्रति
आकर्षित होने
वालों की कोई
कमी रही होगी
क्या? जब
पुरूषों की ही
ये हालत है तो
नारियों की क्या
दशा रही होगी ?’‘
‘‘आपको
उनसे क्या
प्राप्त हुआ?
क्या सचमुच
आपको अपना
खोया पुत्र
मिल गया अथवा उससे
भी बढ़कर कुछ
और रूप?''
‘‘मेरा
पुत्र तो मिला
ही लेकिन उस
पुत्र के रूप में
मुझे एक गुरू
भी मिला। वे चांदा
आते थे तब
बहुत सी बातें
अधूरी ही रह
जाती थी। तीन
चार दिन रहते
थे। अब इन तीन
चार दिनों में
कछ बातें समझ
पाती थी तो
कुछ नहीं तो
वे पत्रों से
इंगित कर देते
थे। ध्यान में
आई
अनुभूतियों
को मैं सदा
उन्हें बताती
रहती थी और
उनकी राय भी
इस पर जानती
रहती थी।’’
''आप
को ध्यान में
अनेकानेक
अनुभव आए
होंगे?''
‘‘हां।
चि. रजनीश के
दोनों हाथ
पकड़कर मैं
बैठी रहती थी
ऐसे? '' और मां
ने मेरे दोनों
हाथों को
स्पर्श कर
बताया। मुझे
अनुभूति हो
रही थी मानों
भगवान स्वयं मां
के माध्यम से
मुझे कुछ
अनुभव की
गहराईयों में
ले जाना चाह
रहे हैं। मैं
स्वप्निल सी
दशा में हो
उठा था। कुछ
तद्रा सी लगने
की अवस्था थी।
मैं देख पा
रहा था। हो
सकता है
लगातार छ:—छ:, सात—सात
घंटों तक की
तीन दिनों की
बैठक से ध्यान
की अवस्था
किसी नये मार्ग
की तलाश रही
हो।
‘‘कभी
मैं उनको सुला
लेती थी और
उनके सिर पर
हाथ रखे रहती
थी। और कभी
चुप रहकर ऐसे
ही निहारती
रहती थी।’’
‘‘भगवान
के साथ आपने
कुछ खेल भी तो
खेले थे? कैसे
खेले थे?'' मैंने
पूछा।
’’वो.
तो......पंचमढ़ी
यात्रा के समय
की बात हैं।’चायनीज चेकर'
नामक कुछ
गोटियों का
खेल होता था।
बच्चों के साथ
मिलकर खुद भी
छोटे बच्चे बन
जाते थे।
चुपचाप बोर्ड
में वे
गोटियां बेईमानी
से खिसका देते
थे और खुद खेल
को जीत लेने
का दावा करते
थे।’’‘सारंग'
कमरे की
दीवारें भी
खिलखिला उठी।
‘‘मैं
कहती.......क्यूं—......ये.......क्या?
ऐसी बेईमानी
खेल में.... ?’‘
'’तो
कहते थे. ‘‘और.
खेल कैसे
खेलते हैं।’‘
मुझे
प्रतीत हुआ इस
वाक्य में ही मानों
जीवन जीने की
सारी, अभिव्यक्ति
सहजता से दे दी
थी उस
अस्तित्व ने।
खेल को खेल के
रख में अर्थात
हास—परिहास ही
में लेना
चाहिए। हर
क्षण हास—परिहास
के खेल के रख
में जीना और
आनंद में डूबे
रहना ही तो
सच्चे जीवन कि
अभिव्यक्ति
है और मुझे
भगवान की एक
पंक्ति जो उनके
जीवन में अत्यंत
अभिन्न लगती
है, याद हो
आई..... 'उत्सव
आमार आति आनंद
आमार गोत्रा।’
इस तरह
उस नट नागर की
लीलाओं के
किस्से
सुनाती मा
आनंदमयी में
से यशोदा मैया
था झांक—झांक
पड़ रही थी।
उनका आनंदपूर्ण
मुखमडल
ममतामय हो उठा
था। आंखों में
अतीत वर्तमान
बन आया था।
मैं अभी उन दो
अद्मुत गुरू
शिष्य और मां—बेटा
के गड्डमड्ड चरित्रों
के बीच में चल
रही फिल्म का
एक मूक दर्शक
ही नहीं रह
गया था। मैं
भी कभी—कभी उस
रंगमच पर
पर्दा उठाने
से, पर्दा
गिरानेवाला
भारवाही बनने
में अहोभाव अनुभूत
कर रहा था। इस
छुटपुट फिल्म
के कुछ ट्रेलर
से 'रजनीश—टाइम्स'
के पाठक भी।
लाभान्त्ति
हो सकें इसी
उद्देश्य से
मैंने मां के
अतीत के
पृष्ठों को
बड़े
प्रयत्नों से
उलटने—पुलटने का
प्रयास किया
है।
यद्यपि
मां उन स्मृति
रत्नों को
अपने हृदय के
खजाने में ही
संजोये रखती
रही हैं।
किन्तु मेरे
प्रति अपार
ममता एवं
करूणा ने मानों
स्वर्ग के
अनंत—अनंत
अमृत झरनों
में स्थान करा
दिया हो मुझे।
मैं उस
अमृतमयी बरखा
में भीग गया
था। मन प्राण
जैसे ठहर गए
हों। समय ठहर
गया था। चेतना
भी स्थिर हो
गई थी। झील—सी
निष्पंद।
उसमें अपने
पूर्णचंद की सुंदर
झांकी को
निहारती आंखें
हटने का नाम
ही नहीं ले
रही थी।
पूज्य
मां
पद
स्पर्श और
प्रणाम। आशीष
पत्र आज मिला।
साथ बीते थोड़े
से दिन उसके
साथ वापिस लौट
आए हैं। मन
स्मृति की
सुगंध से भर
गया है। आपने
मेरे भविष्य
के निर्विध्न
होने की प्रार्थना
की है। आपकी
प्रार्थना है
तो वह तो पूरी
होगी ही।
प्रभु तो देने
को तैयार हे, मांगना
भर आने की बात
है। जहां तक
मेरी बात है
मैं निश्चित
हूं। इस
निश्चित
स्थिति पर कभी
मुझे ही
हैरानी हो जाती
है। जगत अभिनय
दिखता है।
उससे ज्यादा
कुछ भी नहीं
हे। यह अभिनय
ठीक से हो ले
इतनी ही बात
है। वह होगा
यह मैं जानता हूं।
आपके मिलने से
यह और भी
स्पष्ट
अन्तर्मन पर उभर
आया है।
प्रार्थना
करें......मेरे
लिए......वैसे वह
हर क्षण आपकी आंखों
में भरी हैं, अनेक बार
झांकते ही वह
दिख आई है।
पूरी होगी यह
मैं ?3इासंदिग्ध
होकर जानता
हूं। मैं जो
नहीं माग सकता
था......अभिमानी
जो हूं। उसे मांगनेवाला
प्रभु ने मेरे
लिए जुटा दिया
है।
शेष
शुभ हैं।
अर्धरात्रि
रजनीश
के प्रणाम
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