अध्याय—(तेरालीसवां)
बंबई
के व दिल्ली
के मित्रों की
दो अलग—अलग
रसोइया हैं।
बंबई के
मित्रों का
रसोइया
गुजराती भोजन
तैयार करता है
और दिल्ली के
मित्र पंजाबी
भोजन तैयार
करवाते हैं, दोनों
ही भोजन अलग—अलग
किस्म के हैं।
दोनों ही
चाहते हैं कि
ओशो उनका भोजन
खाएं। तो
अंतत: यह तय
होता है कि
ओशो सुबह का
भोजन दिल्ली
के मित्रों के
साथ करेंगे और
रात का भोजन बंबई
के मित्रों के
साथ। मुझे
मित्रों की
मूढ़ता व
दुराग्रह पर
बहुत गुस्सा
आता है।
लोग
ओशो के साथ
ऐसा बेहोशी का
व्यवहार कर
रहे हैं। ये
दो किस्म के
भोजन किसी को
भी बीमार कर
सकते हैं।
सुबह के
प्रवचन के बाद,
11 —30 बजे ओशो को
उस कॉटेज तक
जाने
के
लिए पांच मिनट
धूप में चलना
पड़ता है जहां
जेहैं भौजैनै
करने के लिए
जाना होता है।
उनके पीछे
चलने में मुझे
हमेशा ऐसा
लगता है, जैसे
मैं बुद्ध के
पीछे—पीछे चल
रही हूं। मैं
क्रांति को यह
बताती हूँ और
हम दोनों
थियोसॉफिकल
सोसाइटी
द्वारा ये
कृष्णमूर्ति
पर किए गए
प्रयोग की
चर्चा करते हैं।
हम दोनों इस
बात पर एकमत
होतीं हैं. कि
बुद्ध की
आत्मा ने ओशो
के शरीर को
माध्यम के
ग्रूप में
चुना है।
ओशो
की करुणा अपार
है। उनका
स्वीकार भाव
असीम हैं। वे
प्रत्येक
परिस्थिति को
इतनी सहजता से
स्वीकार कर लेते
हैं कि शायद
ही कोई उनकी
सुख सुविधा का
सही—सही अंदाज
लगा पाता हो।
भोजन के बाद, कॉटेज
की और आते हुए
मैं उनसे इस
बारे में बात करती
हूं। वे बस हस
देते हैं और
मुझसे ऐसी
छोटी—छोटी
बातों के
प्रति गभींर न
होने के लिए
कहते हैं।
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