अध्याय—(बाष्ठवां)
ओशो
बंबई के पाटकर
हॉल में
महावीर पर
प्रवचन दे रहे
हैं। जैनों के
अट्ठारह दिन
के पर्यूषण चल
रहे हैं।
आज, ओशो
की मां व चाची
जो गाडरवारा
से आई हैं, प्रवचन
से पहले
संन्यास
लेंगी।
ऑडिटोरियम
खचाखच भरा हुआ
है। आज ओशो दो
मिनट पहले ही
आ गए हैं और
सबको नमस्कार
करने के बाद आंखें
बंद करके
पद्मासन में
बैठ गए हैं।
अचानक दो
प्रौढ़
महिलाएं भगवा
साड़ियां पहने
ऑडिटोरियम से
निकल कर
पोडियम तक
पहुंचती हैं और
ओशो के सामने
झुक जाती हैं।
ओशो धीरे से
उठते हैं और
पहले उनके
पांव छूकर और
फिर उनके गलों
में माला डाल
देते हैं।
पूरा दृश्य
इतना हृदय—स्पर्शी
है कि
ऑडिटोरियम
में बहुत से
मित्र सिसक
रहे हैं। ओशो
को अपनी मां व
चाची के पांव
छूते देख मेरा
मन जैसे
बिलकुल शून्य
ही हो जाता है।
मुझे लगता है
जैसे आकाश
धरती को छूने
नीचे आ गया है।
इतनी
ऊंचाइयों पर
स्थित
व्यक्ति और
इतना सहज व
विनम्र
विश्वास नहीं होता।
मैं अंदाज
लगाती हूं कि
शायद इतिहास
में ऐसा आज तक
नहीं हुआ है
कि कोई मां
अपने संबुद्ध
पुत्र से
दीक्षित हुई
हो। प्यारे सदगुरु
आपका धन्यवाद
है कि आपने इस
अविस्मरणीय
घटना की
साक्षी होने
का अवसर मुझे
दिया।
💗🙏🙏🙏💗
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