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सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

भावना के भोज पत्र--(08)

मां आनंद मयी से एक भेट वर्ता–………..

मां के आनंद में सहभागी होते हुए मैंने प्रसंग आगे बढ़ाया— ‘‘ये तीन दिसम्बर की बात )थी क्यों मा? ''
‘‘हां' ये तीन दिसम्बर 1960 की बात थी।’’‘ 'ये तीन का आंकड़ा बड़ा फंस रहा है। मां! वर्धा को बजाजवाड़ी में तीसरी सीढ़ी चढ़ते ही उन्हें सामने देखना, फिर तीसरे कमरे मैं उनका चिंतन की लीन अवस्था में मिलना, 3 दिसम्बर को चांदा आना और फिर तीन दिन रहना।’’ इस बात पर फिर से हम दोनों के उन्‍मुक्त हास्य से वह 'सारंग' रंगीन हो गया रह।’’

हां, रे! फिर शारदा की कविता भी सुनी। अपनी बहनों से बड़े प्रेमपूर्ण ढंग से मिले। बड़ा पारिवारिक वातावरण था वह। हमें ऐसा महसूस ही नहीं हो रहा था कि किसी सिद्ध पुरूप या भगवान से हम मिल रहे हों।
अपने परिवार के लोगों से कोई परिवार का ही बिछुड़ा व्यक्ति मिल रहा हो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था तब।’’
‘‘ये तो ठीक है, कि परिवार के सदस्यों से उनके परिवार का ही कोई बिछुड़ा व्यक्ति मिल गया प्रतीत हो रहा था। परन्तु आपकी क्या स्थिति थी? 'आपको कोई विशेष अनुभूति हो रही थी क्या उस क्षण में? '' मैंने पुन: एक प्रश्न कर उनके अतर की दशा को जानना चाहा।
‘‘मुझे खुशी हुई और कुछ नहीं। केवल आनंद के सागर में डूबती— चली गई थी तब में।’’ आनंद की एक दशा में शब्द अपना अर्थ खो देते हैं। मात्र रह जाती है अनुभूति। वही सत्य है।
‘‘विनोदी स्वभाव बहुत रहा है रजनीश का। इसलिए बहनों से खूब हास—परिहास करते थे। किन्तु मुझे देखकर सिर्फ मुस्करा भर देते थे। मुझे कुछ पूछना भी होता तो सबके सामने उनसे मैं प्रश्न नहीं करती थी। सबके सामने उनसे अधिक नहीं बोलती थी। ज्यादातर मेरी बातों में प्रश्नोत्तर: की भाषा अधिक होती थी। इसलिए सबके सामने मैं प्रश्न ही नहीं पूछती थी उनसे मेरे प्रश्न बड़े विचित्र से होते थे और उन प्रश्नों की गहराई नहीं समझने वाले व्यक्ति मेरी बातों के उटपटांग अर्थ भी निकाल सकते थे। इसलिए सबके सामने उन्हें बस सुनती ही रहती थी।
मुझे जो भी प्रश्न करना होता था मैं अकेले में ही करती थी। मेरे प्रश्नों से सुननेवालों को कुछ गलतफहमी न हो इसलिए 11 बजे रात्रि के बाद ही मैं उनसे बातें करती थीं। दिन मैं अन्य लौग प्रश्न करते थे और वे उत्तर दिया करते थे।’’
‘‘तो मां, ये तीन दिन पलक झपकते ही बीत गए होंगे?'‘‘ 'हां ये तो हवा के पंखों पर से फुर्र से उड़ गए थे। परन्तु यह सिलसिला लगातार 1960 से 1967 तक लगातार चलता रहा। हर तीन माह में एक चक्कर लगता था उनका घर में। कभी—कभी पांच—पांच दिन तक ठहरते थे। इस घर के चप्पे—चप्पे पर रजनीश की सुगन्ध महक रही है विकल।’’
''भगवान सदा अकेले ही आते रहे क्या चांदा आपसे मिलने?'‘‘ 'हां अक्सर अकेले ही आते रहे थे वे। एक दो बार क्रांति और अरविन्द भी साथ आए थे। हम दोनों पति—पत्नी के जीवन से परिचिय कराने ही उन्हें यहां वे लाए थे। हम दोनों पति—पत्नी के जीवन की प्रेममयी बात, हास—परिहास, मुक्त स्वच्छंद जीवन की बातों से उन्हें परिचित कराने के उद्देश्य से ही वे क्रांति और अरविन्द को लाये थे।’’
‘‘मां, भगवान जब भी आपसे मिलने के लिए आते थे तब पत्र .आने के पहले अवश्य देते होंगे।’’
''अब तुम्हैं क्या बताऊं विकल। मेरा पत्र उन तक पहुंचने में देर भले ही कर दे, परन्तु उनके द्वारा मुझे पत्र लिखने का सिलसिला हर तीसरे चौथे रोज होता ही रहता था।’’
भगवान ने प्रात:, दोपहर, संध्या, रात्रि, अर्धरात्रि, स्टेशन, विश्रामालय, ट्रेन, यात्रा से अनेक स्थानों से मां आनंदमयी को पत्र लिखे हैं। मां के पत्रों की प्रतीक्षा में वे तो आंखें ही बिछाए रहते थे।

प्रिय मां,
सोम..... मंगल.... .बुध..... और अब तो बुध भी जा चुका। बाट है और पत्र का पता नहीं है। किस काम में लगी हैं? क्या पत्र की प्रतीक्षा का आनंद देने का आ पका भी मन हुआ है। पर नहीं। जानता हूं यह आप न कर सकेंगी। जरूर कोई उलझन है इससे चिंतित हूं। एकांत रात्रि। आपके अनेक चित्र देखता हूं।
रजनीश के प्रणाम

‘‘एकांत पाते ही आपकी उनसे किस—किस प्रकार की बातें होती थी?''
‘‘सभी तरह के प्रश्न मैं उनसे करती रहती थी और वे भी उतनी ही गंभीरता से उत्तर दिया करते थे। अब जैसे. मैंने कभी उनसे कहा.. ये कोई दार्शनिक है ना पश्चिम का उसने मा—बेटे के प्रेम को भी 'सेक्‍सुअल' सिद्ध करके बताया। क्या नाम है उसका?
‘‘फ्रायड?'' मैंने कहा
‘‘हां..... हां, वही तो मैंने रजनीश से एक बात कही—कि ये ठीक है, कि पश्चिम के दार्शनिक ने एक बात कह दी और वह हमने मान ली। किन्तु एक बात मैं भी कहना चाहती हूं......पति—पत्नी का मिलन भी वात्सल्य के कारण से है......जिससे बच्चे ने दूध पान कर अपना—जीवन पुष्ट किया है, उस वस्तु के प्रति उसका आकर्षण नहीं होगा तो क्या होगा? उस 'आकर्षण को तुम भले ही सेक्‍सुअल कहो परन्तु है तो प्रेम भाव ही वह भी। जहां से उसने जन्म लिया है उस स्थान के प्रति उसका आकर्षण होना स्वाभाविक है और उसको तुम अपनी भाषा में भले ही सेक्स कहो। क्योंकि उसके आगे तुम्हारी पहुंच, अर्थात् दृष्टि ही नहीं है। इसलिए आगे देख ही नहीं सकते। उनकी, बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक 'संभोग से समाधि की और' में कई मेरे ही प्रश्नों के उत्तर भी हैं और कुछ प्रश्नों का समाधान भी।’’
अब सचमुच में, उस तेजस्वी प्रतिमा में मुझे रजनीश जैसे व्यक्ति की ममता को समाहित करने की शक्ति का आधार नजर आ रहा था। इतने 'बोल्ड—स्टेटमेन्ट' सचमुच रजनीश की धात्री ही दे सकने में समर्थ हो सकती है।
एक बात और स्पष्ट कही थी मैंने रजनीश से— ''आज तक जो भी संत महात्मा हुए।वें सदा स्त्रियों से दूर ही रहे हैं। लेकिन तुम मत रहना। प्रथम स्थान स्त्रियों को ही देना।’’ ‘'आप से मिलने के पूर्व उनके व्याख्यान तो शुरू हो गये थे संभवत:?''
व्याख्यान शुरू तो हो गए थे.......लेकिन उतनी गति नहीं आ पाई थी। उनकी आयु उस समय बहुत ही कम थी इसलिए उन्होंने एक 'रिक्वेस्ट' मुझसे की....’‘मां, मैं आपसे एक सहयोग चाहता हूं कि मैं जहां भी प्रवचन के लिए जाऊं आप मेरे साथ अवश्य रहें। क्योंकि मैरी उम्र: 'कम है और मुझे उतना अनुभव भी नहीं है जितना आपको है।’’
‘‘इस अंतिम बात को सुनकर मुझे मन में थोड़ी हंसी भी आई। इस नटखट नागर की नाते कभी—कभी बड़ी बेबूझ हो जाती हैं।’’
‘‘किस प्रकार के अनुभव की कमी होने की बात कर रहे थे रजनीश जी?''
‘‘यही व्यावहारिक अनुभव के संदर्भ में कि जहां भी वे व्याख्यान देने जाते हैं तो कोई कुंडली मांगता है, तो कोई जन्मपत्री, तो कोई शादी का आग्रह करता है।’’
इस पर मैंने कहा— ''शादी कर ही डालो तो ये झंझट ही न रहे। ये बातें अपने—आप ही समाप्त हो जायेंगी। शादी को क्या नफरत की दृष्टि से देखते हैं आप?'' इस पर कहने लगे— ‘‘ऐसा नहीं है, जरूरत महसूस हुई तो कर भी डालूंगा कोई ऐसा प्रण नहीं कर रखा है। किन्तु मैं नहीं चाहता कि किसी के जीवन को नष्ट करू। क्योंकि विवाह के बाद पत्नी की अपेक्षाएं होती है वे मैं पूरी नहीं कर पाऊंगा।
विवाहित पत्नी प्रेम को बांधने की चेष्टा करती है और मैं प्रेम को बांधना नहीं चाहता! में बध नहीं सकूंगा। जब वह बांधेगी जबरदस्ती और मैं मुक्ताकाशी मुक्ति मांगूगा तब संघर्ष तो होगा र्हो। जो मेरे मनोनुकूल नहीं है।’’
‘‘इन सभी बातों के कारण मैं उनके साथ यात्रा पर निकल पड़ी।’’
‘‘आपने उनके साथ कहां—कहां की यात्राएं की हैं?''.
‘‘गाडरवाडा, बरेली, बुलढाणा, वर्धा (दो तीन बार) आबू ब्यावर (राजस्थान), बम्बई (दो—तीन बार), महाबलेश्वर, पंचमढ़ी, अमरावती, दिग्रस, रायपुर, भिलाई, पूना, जयपुर, दुर्ग, नंदुरवार, ताडोबा’‘ और मां, थोड़ा सोच—सोच कर ये नाम गिनाती रही थी।’’अब तुम्हें क्या बताऊं बहुत से स्थानों का तो मैं नाम भी भूल गई। याद आ जायेगा तो बता दूंगी।’’
‘'इन भी स्थानों पर क्या उनके प्रवचन के सिलसिले में जाना पड़ा था आपको?'‘
‘'अधिकांश स्थानों पर तो मैं उनके प्रवचन के संदर्भ में रही परन्तु कुछेक स्थान जैसे पंचमढ़ी, ताडोबा, गाडरवाडा इन जगहों में पारिवारिक मित्रों के साथ ही घूमने के उद्देश्य से गए थे। जब भी उन्हें, किसी विशेष जगह प्रवचन में मुझे ले चलने का आग्रह होता वे बड़ी ही सूक्ष्मता से गाड़ी और समय को, विस्तार से लिखते थे जिससे मुझे कहीं पहुंचने में दिक्कत न हो।’’ और उन पत्रों को पलटते हुए कुछेक पर मेरी दृष्टि जम गई

प्रिय मां
प्रणाम! मैं दिसम्बर में चांद! तो नहीं आ पा रहा हूं। श्री पारखजी से मेरी और से क्षमा याचना भर लेना, पर आपको मेरे साथ यात्रा पर चलना है। मैं 22 दिसम्बर की संध्या कलकत्ता—बम्बई मेलॅ से नंदुरबार के लिए निकल रहा हूं इस गाड़ी से 23 दिसम्बर की सुबह 5 बजे भुसावल पहुंचुंगा और भुसावल से 830 बजे सुबह नंदुरबार के लिए सूरत पैसेन्सर से निकलना है। आप मुझे भुसावल मिलें। 22 दिस. की रात्रि किसी भी गाड़ी से भुसावल पहुंच जायें। 23 की दोपहर हम नंदुरबार पहुंचेंगे और 23, 24, 25 को दोपहर तक वहां रूकेंगे। 25 को दोपहर सूरत के लिए निकलेंगे और 5 घंटा सूरत रूककर 26 दिसम्बर की सुबह देहरादून एक्सप्रेस से बम्बई पहुंचना है।
बम्बई कार्यक्रम 26—27 और 28 है। विशेषतया ध्यान के लिए आयोजन है। श्री पारख जी भी चलें अच्छा है लेकिन मैं उन्हें पर्यूषण के समय साथ ले जाना चाहता हूं। इस समय बम्बई कार्यक्रम कैसे होंगे नहीं कहा जा सकता है। श्री शुक्लजी आजकल कहां हैं? नंदुरबार से भी रतिलाल जी गोसलिया का पत्र आया है कि यदि वे एक दिन मुझसे पूर्व नंदुरबार पहुंच जाये तो 'अच्छा है। स्वीकृति पत्र शीघ्र दें। 14 दिसम्बर को मैं सतना जा रहा हूं। 14 की रात्रि सतना और 15—16 दिस. छतरपुर बोलना है। 17 को लौटने को हूं।
12 — 12 — 62
रजनीश के प्रणाम।

इसी तरह, एक अन्य पत्र में भगवान ने प्रारंभ में मानव के भीतर की संभावनाओं को विराट अस्तित्व में रूपांतरण के संदर्भ में पहले कुछ संभावनाओं की आहट देकर मा को पुन: एक यात्रा में चलने के निर्देश दिए हैं

प्रिय मां
सांझ से ही आधी पानी है। हवाओं ने थपेड़ों से बड़े—बड़े वृक्षों को हिला डाला है। बिजली बंद हो गई और नगर में अंधेरा है। घर में एक दीपक जलाया गया है। उसकी लौ ऊपर की और उठ रही है दीया भूमि' का भाग है पर लौ न मालूम किसे पाने निरंतर ऊपर की और भागती रहती है। ली की भांति मनुष्य की चेतना है।
शरीर भूमि पर तृप्त है पर मनुष्य में शरीर के .अतिरिक्त भी कुछ है जो निरंतर भुमि से ऊपर उठना चाहता है। यह चेतना ही, यह अग्निशिखा ही मनुष्य का प्राण है। यह निरंतर ऊपर उठने की उत्सुकता ही उसकी आत्मा है।
यह लो है इसलिए मनुष्य है। अन्यथा सब मिट्टी है। यह लो पूरी तरह जले तो जीवन में क्रांति घट जाती है। यह लौ पूरी तरह दिखाई देने लगे तो मिट्टी के बीच ही मिट्टी को पार कर लिया जाता है।
मनुष्य एक दीया है। मिट्टी भी है उसमें, पर ज्योति भी है। मिट्टी पर ही ध्यान रहा तो जीवन व्यर्थ हो जाता है। ज्योति पर ध्यान जाना चाहिए। ज्योति पर ध्यान जाते ही सब कुछ परिवर्तित हो जाता है। क्‍योंकि मिट्टी में ही प्रभु के दर्शन हो जाते हैं।
रात्रि 22 मार्च 1962
रजनीश के प्रणाम

पनुश्‍च:

आपका पत्र मिल गया है। जयपुर चलना है। मैं 5 'अप्रैल की रात्रि जबलपुर—बीना। पैसेन्जर से निकलूंगा जो कि 6 अप्रैल को सुबह 6—30 बजे बीना पहुंचती है। वहां 9—30 बजे पंजाब मेल मिलेगी जो कि शाम को आगरा पहुंचाती है। आगरा में लगी हुई एक्सप्रेस जयपुर के लिए मिलती है जो कि 7 अप्रैल की सुबह 4 बजे जयपुर पहुंचायेगी। आप 5 अप्रैल की सुबह जी.टी. से निकले और बीना पर मेरी प्रतीक्षा करें। बीना से साथ हो जायेगा। एक ही असुविधा होगी कि आपको बीना पर 6—7 घंटे रूकना होगा।
रजनीश का प्रणाम

इस तरह भगवान रजनीश भविष्य में होने वाली प्रवचन यात्राओं को अपने पत्रों में बड़ी ही सूक्ष्मता एव विस्तार से मा को आगाह कर दिया करते थे जिसमें उन्हें साथ होने में कोई असुविधा न हो।
''और कौन—कौन साथ रहते थे तब आप लोगों के साथ?'' मैंने मां से पूछा।
‘'कहीं क्रांति हमारे साथ रहती थीं, कहीं शारदा (मां की बड़ी सपुत्री) और क्रांति और हां कहीं—कहीं पारखजी भी हमारे साथ रहे हैं।’’
‘‘हां, शिविर सिर्फ दो ही 'अटेन्ड' किये थे महाबलेश्वर और आबू! जब—जब उन्होंने मुझे बुलाया तभी गई मैं।
माउंट आबू के शिविर के बाद शिविर होना बद कर दिया था।’’
‘‘क्यों लेना बद कर दिया शिविर?''
‘‘क्योंकि मैंने मना कर दिया था फिर संभवत: उन्होंने स्वयं शिविर नहीं लिए।’’ ‘'आपने उनसे कब संन्यास लिया था? और ये संन्यास लेने की बात मन में कैसे आ गई?''
‘’आबू शिविर में पारखजी और मुझे साथ ही में उन्होंने निमंत्रित किया था। मेरे मन में एक दृढ़ निश्चय सा पहले से ही कर लिया कि इस बार मुझे पुत्र से संन्यास लेन है। उन दिनों नव—संन्यास के संदर्भ में गैरिक वस्त्रों और 108 मनकों की माला पहनने का एक अभियान सा चल रहा था। इस सबकी स्वीकृति में मुझे आत्मिक प्रेरणा सी मिली। संन्यास लेने में मुझे कोई विशेष आकर्षण नहीं लग रहा था, फिर भी एक नवीनता की दृष्टि से मैंने गैरिक वस्त्र पहन ही डाले। सोचा जब अपना बेटा सबको दे ही रहा है तो अपना भी ले ही डालो।’’
‘‘आपके मन मे कभी ये दुविधा उत्पन्न नहीं हुई कि मा होकर आप अपने पुत्र से कैसे संन्यास लेंगी। अपने बड़े होने का भाव, क्या आपके सन्यास में दुविधा तो उत्पन्न नहीं कर रहा था?'' मैंने मा के हृदय की उस क्षण की भाव दशा जानने के उद्देश्य से प्रश्न किया। इस पर मा ने कहा— ‘‘नहीं.......नहीं। संन्यास लेने में मा बेटे का संबंध बिलकुल आड़े नहीं आया। जब मैं शिविर में गई तब पहले से मैं गैरिक वस्त्र पहनकर गई थी। इस तरह मन में कहीं भी अपने ही बेटे से सन्यास लेने के संदर्भ में कोई दिक्कत ही नहीं थी। शिविर में सम्मिलित होने के पहले ही गैरिक वस्त्रों का सुंदर—सा रंग मुझे आकर्षित कर रहा था इसलिए उसी रंग की साड़ी पहन मैं सम्मिलित हुई वहां।’’
‘‘माउंट आबू में ही भगवान ने आपके पूर्व जन्म की मां होने के संदर्भ में संभवत: घोषणा की थी?''
‘'हां, इसके पहले सिर्फ आपस में हमारे मित्र और परिवार तथा बहुत ही करीबी लोग ये बात जानते थे।’’
‘‘वहां आबू में ही घोषणा करने का उनका उद्देश्य क्या था? ''
अब बेटा, यह उद्देश्य तो वे ही जानें। मैं तो सिर्फ इतना जानती हूं कि जब माउंट आबू मैं आई तो वै 'महाराज पैलेस' में ठहरे हुए थे। वहां जाकर उनसे मैं एकदम से लिपटी तो वे कुछ क्षणों तक भाव—विमुग्ध नेत्रों से मुझे देखते रहे.....और फिर कहा— ‘‘मां आज तो आप बहुत सुंदर साड़ी पहन कर आई हैं यहां। अब आज के शिविर का उद्घाटन आपके संन्यास से ही होगा।’’ इस पर मैंने कहा— ‘‘हां। मैं तो तेयार हूं ही।’’ मैं जब संन्यास शिविर मैं वहां से पहुंची तो उन्होंनें माइक पर घोषणा की. ''श्रीमती मदनकुंवर पारख मेरी पूर्वजन्म की मा हैं आज इन्हीं की सन्यास दीक्षा से इस शिविर का उद्घाटन होगा।’’
मां का वात्सल्य उमड़ आया और प्रेम का सागर विहूवल हो उठा। पुष्पहारों से सज्जित थाली लाई गई। माइक पर मां आनंद मधु द्वारा उद्घोष किया गया था...... 'आज भगवान श्री अपने पूर्वजन्म की मां को संन्यास में दीक्षित कर रहे हैं। भगवान श्री ने 'क्रांतिबीज' पुस्तक के सभी पत्र इन्हीं को लिखे हैं।
‘‘मंच पर बुलाया गया। व्यासपीठ से नीचे उतरकर पहले अपने हाथों से माला पहनाई और मेंरे पैरों को तीन बार उन्होंने स्पर्श किया वे शिविरार्थी अपलक दृष्टि से मंच की और देख रहे थे। इस नये प्रकार की दीक्षा देखकर उन्हें बड़ा ही विस्मय हो रहा था।’’
भारतीय और विदेशी अनेक संन्यासी हक्के—बक्के से इस अद्भुत लीला को देख रहे थे। मैं भी ठगी उस लीलाधर की लीला का एक पात्र खुद को अनुभव कर रही थी।
‘‘आपका नामकरण 'आनंदमयी' वहीं हुआ था क्या?''
‘‘हां। मा आनंदमयी मैं उसी दिन घोषित हुई थी। समस्त अस्तित्व करतल ध्वनि से आन्दोलित हो उठा होगा। धरती पर सारा देवलोक उतरकर मां फूलों की वर्षा कर रहा होगा। मैं सोच रहा था..... कितना अद्मुत दृश्य निर्मित हुआ होगा।
पूर्व जन्म के संदर्भ में मैंने अधिक जानकारी प्राप्त करनी चाहीं, उन्होंने बताया कि भगवान श्री पूर्वजन्म में भी अविवाहित योगी ही थे। प्रकृति के सुरम्य अचल में निवास था उनका। जीवन में अत्यंत समृद्धि थी। परन्तु गैरिक वस्त्रों से ही उनको अधिक आकर्षण था। एक पत्र को पढ़कर मुझे कुछ झलक सी मिली है। जिसमें भगवान ने योगी होने की स्वीकारोक्ति बड़े अनूठे अंदाज में की है।

प्यारी मां,
2 दिस. 1961 जबलपुर

प्रणाम।
कल रात्रि भर आपका स्मरण रहा है। एक लम्बे स्वप्न में साथ रही हैं। यह एक सहयात्रा बहुत सुखद रही है। और अब याद आने पर भी उसके चित्र आंखों में तैर रहे हैं। इस स्वप्न मैं कुछ ताने—बाने तो पंचमढ़ी और ताडोबा के दिखते थे पर कुछ एकदम अभिनव थे। एक बहुत सुंदर पहाड़ी.... घाटी में कमल से ढकी झील पर वर्षों रहना हुआ है। जो बजरा निवास बना था वह तो अब भी दिख रहा है।
स्वप्‍न को लिए थोड़ी देर ही तक बिस्तर पर पड़ा हूं मुरगे जोर—जोर से बाग देने लगे हैं और बाहर आना पड़ा है। रात्रि अभी टूटी नहीं है और चांदनी वृक्षों में लिपटी सोई है।
स्वप्न के संबंध में अनजाने विचार चल ही रहा है। एक बहुत अद्भुत बात सदा स्वप्नों में दिखाई देती है। मैं सदा गैरिक वस्त्रों में ही दिखाई पड़ता हूं। भिक्षापात्र भी भूलता नहीं हूं। जन्म—जन्मों से जैसे वही भाग्य रहा है। इस स्वप्न में भी उस बजरे पर सारे वैभव की अवस्था थी पर मैं भिक्षु ही था। बजरा और वैभव सब आपका था; मैं तो बस अतिथि था। कोन जाने यह जन्म कभी हुआ ही हो? जन्म तो बीत जाते हैं, स्मृतियां नहीं बीतती हैं। सब मिट जाते हैं, संस्कार रह जाते हैं। घंटाघर ने पांच बजा दिये हैं, चलूं—घूम आऊं। सबको विनम्र प्रणाम।

रजनीश के प्रणाम
(धारा—प्रवाह शेष अगले अध्‍याय—में.........  )

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